'मैं कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966—67
मैं क्या देखता
हूं? देखता
हूं कि मनुष्य
सोया हुआ है।
आप सोए हुए हैं।
प्रत्येक
मनुष्य सोया
हुआ है।
रात्रि ही
नहीं, दिवस
भी निद्रा में
ही बीत रहे
हैं। निद्रा
तो निद्रा ही
है, किन्तु
यह तथाकथित
जागरण भी
निद्रा ही है।
आंखों के खुल
जाने मात्र से
नींद नहीं
टूटती। उसके
लिए तो अंतस
का खुलना
आवश्यक है।
वास्तविक
जागरण का
द्वार अंतस है।
जिसका अंतस
सोया हो, वह
जाग कर भी
जागा हुआ नहीं
होता, और जिसका
अंतस जागता है
वह सोकर भी
सोता नहीं है।
जीवन
जागरण में है।
निद्रा तो
मृत्यु का ही
रूप है।
जागृति का
दीया ही हृदय
को आलोक से
भरता है।
निद्रा तो
अंधकार है और
अंधकार में
होना, दुख
में, पीडा
में, संताप
में होना है।
स्वयं से
पूछें कि आप
कहां है? क्या
है? यदि
संताप में हैं,
भय में हैं,
दुख और पीड़ा
में है तो
जानें कि
अंधकार में है,
जानें कि
निद्रा में
हैं। इसके
पूर्व कि कोई
जागने की दिशा
में चले, यह
जानना आवश्यक
है कि वह
निद्रा में है।
जो यह नहीं
जानता, वह
जाग भी नहीं
सकता है। क्या
कारागृह से
मुक्त होने की
आकांक्षा के जन्म
के लिए स्वयं
के कारागृह में
होने का बोध
जरूरी नहीं है?
मै
प्रत्येक से
प्रार्थना
करता हूं कि
वह भीतर झांके।
अपने मन के
कुएं में
देखें, क्या वहां
से आख हटाने
की वृत्ति
होती है? क्या
वहां से भागने
का विचार आता
है; निश्रय
ही यदि वहां
से पलायन का
खयाल उठता हो तो
जानना कि वहां
अंधकार इकट्ठा
है। आंखें
अंधकार से
हटना चाहती
हैं और आलोक
की ओर उठना चाहती
है।
प्रतिदिन
नये—नये
मनुष्यों को
जानने का मुझे
मौका मिलता है।
हजारों लोगों
को अध्ययन
करने का अवसर
मिला है। एक
बात उन सब में
समान है, वह है दुख—सभी
दुखी हैं। सभी
पीड़ा में डूबे
दिखाई देते
हैं। एक घना
संताप है, चिन्ता
है, जिसमें
वे सब जकड़े
हुए है। इससे
वे बैचेन हैं
और तडफड़ा रहे
है। श्वास तक
लेना कठिन हो
रहा है। आस—पास
दुख ही दिखाई
देता है।
हवाओं का—जीवनदायी
हवाओं का तो
कोई पता ही
नहीं है। क्या
ऐसी ही स्थिति
आपकी है? क्या
आप भी अपने
भीतर घबरा देने
वाली घुटन का
अनुभव नहीं
करते है? क्या
आपकी गर्दन को
भी चिन्ताएं
नहीं दबा रही है
और क्या आपके
रक्त में भी
उनका विष
प्रवेश नहीं
कर गया है?
अर्थहीनता
घर किए हुए है।
ऊब से सब दबे
हैं और टूट
रहे हैं। क्या
यही जीवन है? क्या आप
इससे ही तृप्त
और सन्तुष्ट
हैं? यदि
यही जीवन है
तो फिर मृत्यु
क्या होगी? मित्र, यह
जीवन नहीं है।
वस्तुत: यही
मृत्यु है।
जीवन से सब
परिचित नहीं
है। जीवन
सर्वथा भिन्न
अनुभव है।
जानकर ही यह
मैं कह रहा
हूं। कभी इस
तथाकथित जीवन
को ही जीवन
मानने की भूल मैंने
भी की थी। वह
भूल
स्वाभाविक है।
जब और किसी
भांति के जीवन
को व्यक्ति
जानता ही नहीं,
तो जो
उपलब्ध होता
है, उसे ही
जीवन मान लेता
है। यह मानना
भी सचेतन नहीं
होता। सचेतन
होते ही तो
मानना कठिन हो
जाता है।
वस्तुत:
अविचार में ही,
अबोध में ही,
वैसी भूल
होती है।
स्वयं के
प्रति थोड़ा—सा
भी विचार उस
भूल को तोड़
देता है। जो
उपलब्ध है, उसे स्वीकार
नहीं, विचार
करें।
स्वीकार
अचेतन है, वह
अन्धविश्वास
है। विचार
सचेतन है, उसके
द्वारा ही
भ्रम— भंग
होना
प्रारम्भ
होता है।
विचार
विश्वास से
बिलकुल
विरोधी घटना
है। विश्वास...
अचेतन... उससे
जो चलता है वह
मात्र जीता ही
है, जीवन
को उपलब्ध
नहीं होता।
जीवन को
उपलब्ध करने
के लिए
विश्वास की
नहीं, विचार
और विवेक की
दिशा पकड़नी
होती है।
विश्वास यानी
मानना। विचार
यानी खोजना।
जानने के लिए
मानना घातक है।
खोज के लिए
विश्वास बाधा
है। जो मान
लेते हैं, वे
जानने की दिशा
में चलते ही
नहीं। चलने का
कोई कारण ही
नहीं रह जाता।
जानने का काम
मानना ही कर
देता है। इस
भांति कागज के
फूल ही असली
फूलों का धोखा
दे देते हैं
और झूठे
काल्पनिक
पानी से ही
प्यास बुझने
को मान लिया
जाता है।
ज्ञान
के मार्ग में
विश्वास की
वृत्ति सबसे बड़ा
अवरोध है।
विचार की शक्ति
में विश्वास
की ही अड़चन है।
विश्वास की
जंजीरें ही
स्वयं की
विचार—शक्ति
को जीवन की
यात्रा नहीं
करने देतीं और
उनमें रुका
व्यक्ति पानी
के घिरे डबरों
की भांति हो
जाता है। फिर
वह सड्ता है
और नष्ट होता
है, लेकिन
सागर की ओर
दौड़ना उसे
संभव नहीं रह
जाता। बंधो
नहीं, स्वयं
को बांधो नहीं।
खोजो, खोजने
में ही सत्य—जीवन
की प्राप्ति
है।
जीवन
जैसा मिला है, उस पर
विश्वास मत कर
लेना—उससे
सन्तुष्ट मत
हो जाना। वह
जीवन नहीं, बल्कि जीवन
के विकास और
अनुभव की एक
सम्भावना मात्र
ही है।
एक
कहानी मैंने
सुनी है। किसी
वृद्ध
व्यक्ति ने
अपने दो
पुत्रों की
परीक्षा लेनी
चाही। मरने के
पूर्व वह अपनी
सम्पत्ति का
उत्तराधिकारी
चुनना चाहता
था। उसने
गेहूं के कुछ
बीज दोनों को
दिए और कहा कि मैं
अनिश्रित समय
के लिए
तीर्थयात्रा
पर जा रहा हूं
तुम इन बीजों
को संभालकर
रखना। पहले
पुत्र ने
उन्हें जमीन
में गाड़कर रख
दिया। दूसरे
ने उनकी खेती
की और उन्हें
बढ़ाया। कुछ
वर्षों के बाद
जब वृद्ध लौटा
तो पहले के बीज
सड़कर नष्ट हो
गए थे, और
दूसरे ने
उन्हें
हजारों गुना
बढ़ाकार सम्पदा
में परिणत कर
लिया था।
यही
स्थिति जीवन
की भी है। जो
जीवन हमें
मिला है, वह बीजों की
भांति है। उससे
ही तृप्त नहीं
हो जाना है।
बीज तो
सम्भावनाएं
हैं। उन्हें
जो
वास्तविकताओं
में
परिवर्तित कर
लेता है, वही
उनमें छिपी
सम्पदा का
मालिक होता है।
हम सब
जो हैं, वहीं नहीं
रुके रहना है,
वस्तुत: जो
हो सकते हैं, वहां तक
पहुंचना है।
वहीं पहुंचना
हमारा
वास्तविक
होना भी है।
फूलों को कभी
देखा है? कभी
उनके आनन्द को,
कभी उनकी
अभिव्यक्ति
को विचारा है?
सुबह हम
फूलों की एक
सुन्दर बगिया
में थे। जो
मित्र साथ थे,
उनसे मैंने
कहा— 'फूल
सुन्दर हैं।
स्वस्थ हैं, और सुवास से
भरे हैं
क्योंकि वे जो
हो सकते थे, वही हो गए
हैं।
उन्होंने अपनी
विकास की
पूर्णता को पा
लिया है। जब
तक मनुष्य भी
ऐसा ही न हो
जाए तब तक
उसका जीवन भी
सुवास से नहीं
भरता है।’
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