गीता
दर्शन—भाग—6
सूत्र—
बहिरन्तश्चइ भूतानामचरं
चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थ चान्तिके
च तत्।। 15।।
अविभक्तं च भूतेषु
विभक्तीमव
च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं
ग्रीअष्णु
प्रभविष्णु
च।। 16।।
ज्योतिषामयि तज्जयोतिस्तमस:
परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं
ह्रदि सर्वस्य विष्ठितम्।।
17।।
तथा
वह परमात्मा
बराबर अब
भूतों के बाहर—
भीतर परियूर्ण
है और चर— अचर
रूप भी की है।
और वह सूक्ष्म
होने से
अविज्ञेय है
अर्थात जानने
में नहीं आने
वाला है। तथा
अति समीप में
और अति दूर
में भी स्थित
वही है।
और
वह विभागरीहत
एक रूप से
आकाश के सदृश
परिपूर्ण हुआ
भी चराचर संपूर्ण
भूतों में
पृथक— पथक के
सदृश स्थित
प्रतीत होता
है। तथा वह
जानने योग्य
परमात्मा
भूतों का धारण—
पोषण करने
वाला और संहार
करने वाला तथा
सब का उत्पन्न
करने वाला है।
और
वह ज्योतियों
का भी ज्योति
एवं माया से
अति परे कहा
जमा है। तथा
वह परमात्मा बोधस्वरूप
और जानने के
योग्य है एवं
तत्वज्ञान
से प्राप्त
होने वाला और
सबके ह्रदय
में स्थित है।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है, आप
बोलते हैं, तो ठीक लगता
है। कभी—कभी
कोई शांत
ध्यान का
प्रयोग—सूत्र
भी दे दिया
करते हैं; यहां
तक तो ठीक है।
लेकिन जब आपके
कीर्तन का
प्रयोग चलता
है, तो मन
में वैसा भाव
आता ही नहीं
कि जैसा मंच
पर सभी लोग
इतनी तेजी से
नाचा करते
हैं!
तीन बातें समझनी
चाहिए। एक, बोला हुआ ठीक
लगना बहुत
मूल्य का नहीं
है। बोला हुआ
ठीक लगता है, यह सिर्फ
मनोरंजन हो
सकता है, यह
केवल एक
बौद्धिक
व्यायाम हो
सकता है। या
यह भी हो सकता
है कि आप जो
सुनना चाहते
हैं, उससे
तालमेल बैठ
जाता है, इसलिए
रसपूर्ण लगता
है। यह भी हो
सकता है कि
इतनी देर मन
बोलने में उलझ
जाता है, तो
आपकी चिंताएं,
परेशानियां,
अशांति भूल
जाती है। बहुत
कारण हो सकते
हैं।
इसलिए
भी अच्छा लग
सकता है बोलना
कि गीता आपको
प्रीतिकर हो, आपके
धर्म का ग्रंथ
हो, तो
आपके अहंकार
को पोषण मिलता
हो कि गीता
ठीक है। आपकी
सांप्रदायिक
संस्कार वाली
मनःस्थिति को
सहारा मिलता
हो कि हमारा
मानना बिलकुल
ठीक है, गीता
महान ग्रंथ है।
लेकिन
सिर्फ बोलना
ठीक लगे, तो कोई भी
लाभ नहीं है; नुकसान भी
हो सकता है।
कुछ लोग
शब्दों में ही
जीते हैं।
जीवनभर पढ़ते
हैं, सुनते
हैं, और
कभी कुछ करते
नहीं। ऐसे लोग
जीवन को ऐसे
ही गंवा देंगे,
और मरते समय
सिवाय पछतावे
के कुछ भी हाथ
न रहेगा।
क्योंकि
मैंने क्या
कहा गीता के
संबंध में, वह मरते
वक्त काम आने
वाला नहीं है।
आपने क्या
किया! सुना, वह मूल्य का
नहीं है। क्या
किया, वही
मूल्य का है।
लेकिन करने
में कठिनाई
मालूम पड़ती है।
सुनने
में आपको कुछ
भी नहीं करना
पड़ता। मैं
बोलता हूं आप
सुनते हैं, करना
आपको कुछ भी
नहीं पड़ता।
सुनने में
आपको करना ही
क्या पड़ता है?
विश्राम करना
पड़ता है। करने
में आपसे
शुरुआत होती
है। और जैसे
ही कुछ करने
की बात आती है,
वैसे ही
तकलीफ शुरू हो
जाती है।
उन
मित्र ने भी
पूछा है कि
कभी—कभी आप
कोई ध्यान का
शांत प्रयोग—सूत्र
भी दे दिया
करते हैं, यहां तक
तो ठीक है.।
क्योंकि
वह प्रयोग भी
उन्होंने
किया नहीं है।
वह भी मैं दे
दिया करता हूं; यहां तक
ठीक है। वह
शांत प्रयोग
भी उन्होंने
किया नहीं है।
वह भी सुन
लिया है।
कीर्तन में
अड़चन आती है, क्योंकि
यहां कुछ लोग
करते हैं।
अब
यहां कुछ लोग
करते हैं, तो उससे
बचने के दो
उपाय हैं। या
तो आप समझें
कि ये पागल
हैं, तब आपको
कोई अड़चन न
होगी। इनका
दिमाग खराब हो
गया है, हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं, या नाटक कर
रहे हैं; बनकर
कर रहे हैं; या कुछ पैसे
ले लिए होंगे,
इसलिए कर
रहे हैं। ऐसा
सोच लें, तो
आपको सुविधा
रहेगी, सांत्वना
रहेगी। आपको
करने की फिर
कोई जरूरत
नहीं है।
कुछ
लोग करने से
इस तरह बचते
हैं, वे
अपने मन को
समझा लेते हैं
कि कुछ गलत हो
रहा है। इसलिए
फिर खुद को
करने की तो
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
तकलीफ
तो उन लोगों
को होती है, जिनको यह
भी नहीं लगता
कि गलत हो रहा
है और करने की
हिम्मत भी
नहीं जुटा
पाते। ये
मित्र उसी
वर्ग में हैं।
उनको लगता है
कि ठीक हो रहा
है। लेकिन
इतना लगना
काफी नहीं है।
करने की
हिम्मत बड़ी
दूसरी बात है।
क्योंकि जैसे
ही आप करना
शुरू करते हैं
कुछ, बहुत—से
परिणाम होंगे।
पहला
तो यह साहस
करना पडेगा, पागल
होने का साहस।
क्योंकि धर्म
साधारण आदमी
करता नहीं, सुनता है।
और जब भी धर्म
को कोई करने
लगता है, तो
बाकी लोग उसको
पागल समझते
हैं। कबीर को
भी लोग पागल
समझते हैं।
मीरा को भी
लोग पागल।
समझते हैं।
बुद्ध को भी
लोग पागल
समझते हैं।
क्राइस्ट को
भी लोग पागल
समझते हैं। यह
तो बहुत बाद
में लोग उनको
समझ पाते हैं
कि वे पागल
नहीं हैं। यह
भी वे तभी समझ
पाते हैं, जब
बात इतनी दूर
हो जाती है कि
उनसे सीधा
संबंध नहीं रह
जाता।
आप भी
जब पहली दफा
धर्म के जीवन
में उतरेंगे, तो आस—पास
के लोग आपको
पागल समझना
शुरू कर देंगे।
संसार ने यह
इंतजाम किया
हुआ है कि
उसके जाल के
बाहर कोई जाए,
तो उसके
मार्ग में सब
तरह की बाधाएं
खड़ी करनी हैं।
और यह उचित भी
है, क्योंकि
अगर सभी लोगों
को धर्म की
तरफ जाने में
आसानी दी जाए,
तो बाकी लोग
जो धार्मिक न
होंगे, उनको
बड़ा कष्ट होना
शुरू हो जाएगा।
अपने कष्ट से
बचने के लिए
वे धार्मिक
व्यक्ति को
पागल करार
देकर सुविधा
में रहते हैं।
वे समझ लेते
हैं कि दिमाग
खराब हो गया
है। आसानी हो
जाती है।
आप
कृष्ण को
पूजते भला हों, लेकिन
कृष्ण अगर
आपको मिल जाएं,
तो आप उनको
भी पागल ही
समझेंगे। वे
तो मिलते नहीं;
मूर्ति को
आप पूजते रहते
हैं। असली
कृष्ण खड़े हो
जाएं, तो
शायद आप घर
में टिकने भी
न दें। शायद
आप रात घर में
ठहरने भी न
दें। क्योंकि
इस आदमी का
क्या भरोसा!
हो सकता है आपकी
पत्नी इसके
लगाव में पड
जाए, सखी
बन जाए, गोपी
हो जाए। तो आप घबडाएंगे।
जीवित
कृष्ण से तो
आप परेशान हो
जाएंगे। मरे
हुए कृष्ण को
पूजना बिलकुल
आसान है।
क्योंकि मरे
हुए कृष्ण से
आपकी जिंदगी
में कोई फर्क
नहीं होता।
जीसस
को मानने वाले
लोगों को भी
अगर जीसस मिल जाएं, तो वे
उनको फिर सूली
पर चढ़ा देंगे।
क्योंकि वह
आदमी अब भी
वैसा ही
खतरनाक होगा।
समय
बहुत जब बीत
जाता है और
कथाएं हाथ में
रह जाती हैं, जिनको
सुनने और पढ़ने
का मजा होता
है, तब
धर्म की अड़चन
मिट जाती है।
तो
यहां जब कुछ
लोग कीर्तन कर
रहे हैं, तो वे लोग तो
हिम्मत करके
पागल हो रहे
हैं। अगर आपको
लगता है कि
ठीक कर रहे
हैं, तो
सम्मिलित हो
जाएं।
सम्मिलित
होने में आपको
भय छोड़ना
पड़ेगा। लोग
क्या कहेंगे,
यह पहला भय
है; और
गहरे से गहरा
भय है। लोग
क्या समझेंगे?
एक
महिला मेरे
पास कुछ ही
दिन पहले आई।
और उसने मुझे
कहा कि मेरे
पति ने कहा है
कि सुनना तो
जरूर, लेकिन
भूलकर कभी
कीर्तन में
सम्मिलित मत
होना। तो
मैंने उससे
पूछा कि पति
को क्या फिक्र
है तेरे
कीर्तन में
सम्मिलित
होने से? तो
उसने कहा, पति
मेरे डाक्टर
हैं; —प्रतिष्ठा
वाले हैं। वे
बोले कि अगर
तू कीर्तन में
सम्मिलित हो
जाए, तो
लोग मुझे
परेशान
करेंगे कि
आपकी पत्नी को
क्या हो गया!
तो तू और सब
करना, लेकिन
कीर्तन भर में
सम्मिलित मत
होना।
घर से
लोग समझाकर
भेजते हैं कि
सुन लेना, करना भर
मत कुछ, क्योंकि
करने में खतरा
है। सुनने तक
बात बिलकुल
ठीक है। करने
में अड़चन
मालूम होती है,
क्योंकि आप
पागल होने के
लिए तैयार
नहीं हैं। और
जब तक आप पागल
होने के लिए
तैयार नहीं
हैं, तब तक
धार्मिक होने
का कोई उपाय
नहीं है।
तो
सुनें मजे से, फिर
चिंता में मत
पड़े। जिस दिन
भी करेंगे, उस दिन आपको
दूसरे क्या
कहेंगे, इसकी
फिक्र छोड़
देनी पड़ेगी।
दूसरे
बहुत—सी बातें
कहेंगे। वे
आपके खिलाफ
नहीं कह रहे
हैं, वे
अपनी आत्म—रक्षा
कर रहे हैं।
क्योंकि अगर
आपको ठीक
मानें, तो
वे गलत लगेंगे।
इसलिए उपाय एक
ही है कि आप
गलत हैं, तो
वे अपने को
ठीक मान सकते
हैं। और
निश्चित ही
उनकी संख्या
ज्यादा है।
आपको गलत होने
के लिए तैयार
होना पड़ेगा।
बड़े से
बड़ा साहस समूह
के मत से ऊपर
उठना है। लोग
क्या कहेंगे, यह फिक्र
छोड़ देनी है।
इस फिक्र के
छोड़ते ही आपके
भीतर भी रस का
संचार हो
जाएगा। यही
द्वार बांधा
हुआ है, इसी
से दरवाजा
रुका हुआ है।
यह फिक्र
छोडते ही से
आपके पैर में
भी। थिरकन आ
जाएगी, और
आपका हृदय भी
नाचने लगेगा,
और आप भी गा
सकेंगे।
और अगर
यह फिक्र छोड्कर
आप एक बार भी
गा सके और नाच
सके, तो
आप कहेंगे कि
अब दुनिया की
मुझे कोई
चिंता नहीं है।
एक बार आपको
स्वाद मिल जाए
किसी और लोक
का, तो फिर कठिनाई
नहीं है लोगों
की फिक्र
छोडने में।
कठिनाई
तो अभी है कि
उसका कोई
स्वाद भी नहीं
है, जिसे
पाना है। और
लोगों से जो
प्रतिष्ठा
मिलती है, उसका
स्वाद है, जिसको
छोड़ना है।
जिसको छोड़ना
है, उसमें
रस है, और
जिसको पाना है,
उसका हमें
कोई रस नहीं
है। इसलिए डर
लगता है। हाथ
की आधी रोटी
भी, मिलने
वाली स्वर्ग
में पूरी रोटी
से ज्यादा मालूम
पड़ती है।
स्वाभाविक है,
सीधा गणित
है।
लेकिन
अगर इस दशा
में, जिसमें
आप हैं, आप
सोचते हैं सब
ठीक है, तो
मैं आपसे नहीं
कहता कि आप
कोई बदलाहट
करें। और आपको
लगता हो कि सब गलत
है, जिस
हालत में आप
हैं, तो
फिर हिम्मत
करें और थोड़े
परिवर्तन की
खोज करें।
शांत
प्रयोग करना
हो, शांत
प्रयोग करें।
सक्रिय
प्रयोग करना
हो, सक्रिय
प्रयोग करें।
लेकिन कुछ
करें।
अधिक
लोग कहते हैं
कि शांत
प्रयोग ही ठीक
है। क्योंकि
अकेले में आंख
बंद करके बैठ
जाएंगे, किसी को पता
तो नहीं चलेगा।
लेकिन अक्सर शांत
प्रयोग सफल
नहीं होता।
क्योंकि आप
भीतर इतने अशांत
हैं कि जब आप आंख
बंद करके
बैठते हैं, तो सिवाय
अशांति के
भीतर और कुछ
भी नहीं होता।
शांति तो नाम
को भी नहीं
होती। वह जो
भीतर अशांति
है, वह
चक्कर जोर से
मारने लगती है।
जब आप शांत
होकर बैठते
हैं, तब
आपको सिवाय
भीतर के
उपद्रव के और
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता।
इसलिए
उचित तो यह है
कि वह जो भीतर
का उपद्रव है, उसे भी
बाहर निकल
जाने दें।
हिम्मत से
उसको भी बह
जाने दें।
उसके बह जाने
पर, जैसे
तूफान के बाद
एक शांति आ
जाती है, वैसी
शांति आपको
अनुभव होगी।
तूफान तो धीरे—
धीरे विलीन हो
जाएगा और शांति
स्थिर हो
जाएगी।
यह
कीर्तन का
प्रयोग
कैथार्सिस है।
इसमें जो नाच
रहे हैं लोग, कूद रहे
हैं लोग, ये
उनके भीतर के
वेग हैं, जो
निकल रहे हैं।
इन वेगों
के निकल जाने
के बाद भीतर
परम शून्यता
का अनुभव होता
है। उसी
शून्यता से
द्वार मिलता
है और हम अनंत
की यात्रा पर
निकल जाते हैं।
लेकिन
कुछ करें। कम
से कम शांत
प्रयोग ही
करें। अभी शांत
करेंगे, तो कभी
सक्रिय भी
करने की
हिम्मत आ
जाएगी। लेकिन
सुनने पर
भरोसा मत रखें।
अगर सुनने से
मुक्ति होती होती, तो
सभी की हो गई
होती। सभी लोग
काफी सुन चुके
हैं। कुछ करना
होगा। करने से
जीवन बदलेगा
और क्रांति
होगी।
मैं जो
बोलता भी हूं
तो प्रयोजन
बोलना नहीं है।
बोलना तो
सिर्फ बहाना
है, ताकि
आपको करने की
तरफ ले जा
सकूं। और अगर
आप बोलने से
ही खुश होकर
चले जाते हैं,
तो प्रयोजन
व्यर्थ गया।
वह लक्ष्य
नहीं था।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि
गीता में बार—बार
कृष्ण का कहना
है कि मैं ही
परम ब्रह्म
हूं। सब छोड्कर
मेरी शरण आ
जाओ, मैं
तुम्हें
मुक्त करूंगा।
लेकिन यह वचन
अन्य— धर्मी
स्वीकार नहीं
करते। और आपने
कहा है कि ठीक
जीवन जीने की
कला ही गीता
है। फिर भी
अन्य— धर्मी
कृष्ण को
परमात्मा
मानने को राजी
नहीं हैं। और
कहते हैं, गीता
वैष्णव
संप्रदाय का
धार्मिक
ग्रंथ है।
अन्य— धर्मियों
की फिक्र क्या
है आपको? और आप अन्य— धर्मियों
का कौन—सा
ग्रंथ मानने
को तैयार हैं?
आप कुरान
पढ़ते हैं? और
आप मानने को
तैयार हैं कि
कुरान
परमात्मा का
वचन है? आप
बाइबिल पढ़ते
हैं? और आप
मानने को
तैयार हैं कि
जीसस ईश्वर का
पुत्र है? और
अगर आप मानने
को तैयार नहीं
हैं, तो अप
अपने कृष्ण को
किसी दूसरे को
मनाने के लिए
क्यों परेशान
हैं!
और फिर
दूसरे से
प्रयोजन क्या
है? आपको
कृष्ण की बात
ठीक लगती है, उसे जीवन
में उतारें।
अपने को बदलें।
जिसको
मोहम्मद की
बात ठीक लगती
हो, वह
मोहम्मद की
बात को जीवन
में उतार ले, और अपने को
बदल ले। जब आप
दोनों बदल
चुके होंगे, तो दोनों एक
से होंगे, जरा
भी फर्क न
होगा।
लेकिन
गीता वाले को
फिक्र है कि
किसी तरह
मुसलमान को
राजी कर ले कि
गीता महान
ग्रंथ है।
इससे
क्या हल है? तुम्हें
तो पता है कि
गीता महान
ग्रंथ है और तुम्हारी
जिंदगी में
कुछ भी नहीं
हो रहा, तो
मुसलमान भी
मान लेगा कि
गीता महान
ग्रंथ है, तो
क्या फर्क हो
जाएगा? बीस
करोड़
हिंदू तो मान
रहे हैं, कुछ
फर्क तो हो
नहीं रहा है।
तुम तो माने
ही बैठे हो कि
गीता महान
ग्रंथ है और
कृष्ण परम
ब्रह्म हैं, तो तुम्हारे
जीवन में कुछ
नहीं हो रहा, तो तुम
दूसरे की क्या
फिक्र कर रहे
हो!
दूसरे
की हमें चिंता
है नहीं। असल
में हमें खुद
ही भय है और शक
है कि कृष्ण
भगवान हैं या
नहीं! और जब तक
कोई शक करने वाला
मौजूद है, तब तक
हमारे शक को
भी हवा मिलती
है।
अब
मुसलमान कहता
है कि हम नहीं
मानते, तुम्हारी
गीता में कुछ
सार है; तो
हमें खुद ही
डर पैदा होता
है कि कहीं यह
ठीक तो नहीं
है। इससे हम
पहले इसको
राजी करने को
उत्सुक हो जाते
हैं। ध्यान रहे,
जब भी आदमी
किसी दूसरे को
राजी करने में
बहुत श्रम
उठाता है, तो
उसका मतलब यह
है कि वह खुद
संदिग्ध है।
वह जब तक सबको
राजी न कर
लेगा, तब
तक उसका खुद
भी मन राजी
नहीं है। वह
खुद भी डरा
हुआ है कि बात
पक्की है या
नहीं! क्योंकि
इतने लोग शक
करते हैं।
बीस करोड़ हिंदू
हैं, तो
कोई अस्सी करोड़
मुसलमान हैं।
तो बीस करोड़
हिंदू जिसको
मानते हैं, अस्सी करोड़
मुसलमान तो
इनकार करते
हैं। कोई एक
अरब ईसाई हैं,
वे इनकार
करते हैं। कोई
अस्सी करोड़
बौद्ध हैं, वे इनकार
करते हैं। तो
सारी दुनिया
तो इनकार करती
है बीस करोड़
हिंदुओं को छोड्कर!
तो' शक पैदा
होता है कि यह
गीता अगर सच
में परम ब्रह्म
का वचन होता, तो साढ़े
तीन, चार
अरब आदमी सभी
स्वीकार करते।
दो—चार न करते,
तो हम समझ
लेते कि दिमाग
फिरा है। यहां
तो हालत उलटी
है। दो—चार
स्वीकार करते
हैं, बाकी
तो स्वीकार
नहीं कर रहे
हैं। तो भीतर
संदेह पैदा
होता है। उस
संदेह से ऐसे
सवाल उठते हैं।
इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, कौन
स्वीकार करता
है या कौन
स्वीकार नहीं
करता।
तुम्हारी
जिंदगी बदल
जाए, तो
बात सत्य है।
तुम कृष्ण की
बात मानकर
अपनी जिंदगी
को बदल लो।
तुम अकेले
काफी हो। कोई
पूरी दुनिया
में स्वीकार न
करे, लेकिन
तुम अकेले अगर
अपनी जिंदगी
में स्वर्ण ले
आते हो और
कचरा जल जाता
है, तो
कृष्ण की बात
सही है। सारी
दुनिया इनकार
करती रहे, तो
भी कोई अंतर
नहीं पड़ता।
लेकिन
खुद तो हम कोई
परिवर्तन
लाना नहीं
चाहते, हम सब दूसरे
को कनवर्ट
करने में लगे
हैं। हम जैसे
अजीब लोग खोजने
मुश्किल हैं।
हमारी हालत
ऐसी है कि
जैसे घर में
हमारे कुआं हो,
जिसमें
अमृत भरा हो।
हम तो उसको
कभी नहीं पीते,
हम पड़ोसियों
को समझाते हैं
कि आओ, हमारे
पास अमृत का कुआं
है, उसको
पीओ। और पड़ोसी
भी उसको कैसे
माने, क्योंकि
हमने खुद ही
अमृत का कोई
स्वाद नहीं लिया
है।
अगर
आपके घर में
अमृत का कुआं
होता, तो
पहले आप पीते,
फिर दूसरे
की फिक्र करने
जाते। और सच
तो यह है कि
अगर अमृत आपने
पी लिया होता
और आप अमर हो
गए होते और
मृत्यु आपके
जीवन से मिट
गई होती, तो
किसी को
समझाने जाने
की जरूरत नहीं
थी। पड़ोसी खुद
ही पूछने आता
कि मामला क्या
है! तुम ऐसे
अमृत आनंद को
उपलब्ध कैसे
हो गए? क्या
पीते हो? क्या
खाते हो? क्या
राज है
तुम्हारा? तुम्हें
पड़ोसी के पास
कहने की जरूरत
न होती।
तुम्हें
जरूरत इसलिए
पड़ती है कि
तुम्हारे कुएं
पर तुम्हें
खुद ही भरोसा
नहीं है।
तुमने खुद ही
कभी उसका पानी
पीकर नहीं
देखा। तुम
पहले पड़ोसी को
पिलाने की
कोशिश में लगे
हो। शायद
तुम्हें डर है
कि पता नहीं
जहर है या अमृत।
पहले पड़ोसी पर
देख लें
परिणाम क्या
होता है, फिर अपना
सोचेंगे।
क्या
फिक्र है
तुम्हें? अपने
शास्त्र को
दूसरों पर
लादने की
चिंता क्यों
है? अपने
को बदलो।
तुम्हारी
बदलाहट
दूसरों को
दिखाई पड़ेगी
और उन्हें
लगेगा कि कुछ
सार है, तो
वे भी
तुम्हारे
शास्त्र में
से शायद कुछ
ले लें। लेकिन
लें या न लें, इसे लक्ष्य
बनाना उचित
नहीं है।
सभी
लोग ऐसा सोचते
हैं। मेरे पास
बहुत लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
गीता इतना
महान ग्रंथ है,
मुसलमान
क्यों नहीं
मानता? ईसाई
क्यों नहीं
मानता?
महान
ग्रंथ उनके
पास भी हैं।
और गीता से इंचभर
कम महान नहीं
हैं। लेकिन
महान ग्रंथ से
तुमको भी मतलब
नहीं है, उनको भी
मतलब नहीं है।
तुम जब
गीता को महान
कहते हो, तो तुम यह मत
सोचना कि
तुम्हें पता
है कि गीता महान
है। गीता को
तुम महान
सिर्फ इसलिए
कहते हो कि
गीता
तुम्हारी है।
और गीता को
महान कहने से
तुम्हारे
अहंकार को रस
आता है। गीता
महान है, इसके
पीछे यह छिपा
है कि मैं
महान हूं।
क्योंकि मैं
गीता को मानने
वाला हूं।
कुरान
महान है, तो मुसलमान
सोचता है, मैं
महान हूं।
बाइबिल महान
है, तो
ईसाई सोचता है,
मैं महान
हूं।
अगर
कोई कह दे, गीता
महान नहीं है,
तो तुम्हें
चोट लगती है।
वह इसलिए नहीं
कि तुम्हें
गीता का पता
है। वह चोट
इसलिए लगती है
कि तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती है।
हमारे
अहंकार के बड़े
जाल हैं। हम
कहते हैं, भारत
महान देश है।
भारत—वारत
से किसी को
लेना—देना
नहीं है। कि
चीन महान देश
है। मतलब हमें
अपने से है।
भारत इसलिए
महान देश है, क्योंकि आप
जैसा महान
व्यक्ति भारत
में पैदा हुआ।
और कोई कारण
नहीं है। अगर
आप इंग्लैंड
में पैदा होते,
तो
इंग्लैंड
महान देश होता।
आप जर्मनी में
पैदा होते, तो जर्मनी
महान देश होता।
जहां आप पैदा
होते, वही
देश महान होने
वाला था।
कोई
जमीन पर एकाध
देश है, जो यह कहता
हो, हम
महान नहीं हैं?
कोई एकाध
जाति है, जो
कहती हो, हम
महान नहीं हैं?
कोई एकाध
धर्म है, जो
कहता हो, हम
महान नहीं हैं?
सब
अहंकार की घोषणाएं
हैं। धर्म का
इससे कोई भी
संबंध नहीं है।
पर हम
अहंकार की
सीधी घोषणा
नहीं कर सकते।
अगर कोई आदमी
खड़े होकर कहे
कि मैं महान
हूं तो हम
सबको एतराज
होगा। सीधी
घोषणा खतरनाक
है। क्योंकि
सीधी घोषणा से
दूसरों के
अहंकार को चोट
लगती है।
क्योंकि अगर
मैं कहूं कि
मैं महान हूं
तो फिर आप? आप तत्क्षण
छोटे हो
जाएंगे। तो आप
फौरन इनकार
करेंगे कि यह
बात नहीं मानी
जा सकती। आपका
दिमाग खराब है।
लेकिन
मैं कहता हूं, हिंदू
धर्म महान है।
हिंदुओं के
बीच तो यह बात
स्वीकार कर ली
जाएगी, क्योंकि
मेरे अहंकार
से किसी के
अहंकार की टक्कर
नहीं होती।
हिंदुओं के
अहंकार को भी
मेरे अहंकार
के साथ पुष्टि
मिलती है। ही,
मुसलमान
इनकार करेगा।
लेकिन अगर मैं
कहूं, भारत
महान है। तो
भारत में रहने
वाले सभी लोग
स्वीकार कर लेंगे,
क्योंकि
उनके अहंकार
को चोट नहीं
लगती। चीन के
अहंकार को चोट
लगेगी, जर्मनी
के अहंकार को
चोट लगेगी।
अगर
कहीं हमने
किसी दिन मंगल
पर या किसी और
तारे पर
मनुष्यता खोज
ली या मनुष्य
जैसे प्राणी खोज
लिए, तो
हम घोषणा कर
सकेंगे, पृथ्वी
महान है। फिर
पृथ्वी पर
किसी को चोट
नहीं लगेगी।
लेकिन मंगल
ग्रह पर जो
आदमी होगा, उसको फौरन
चोट लगेगी।
ये
सारी घोषणाएं
छिपे हुए
अहंकार की घोषणाएं
हैं, परोक्ष
घोषणाएं
हैं। आपके
कृष्ण परम
ब्रह्म हैं, तो जीसस परम
ब्रह्म क्यों
नहीं हैं? वे
भी परम ब्रह्म
हैं। और जीसस
ही क्यों? परम
ब्रह्म तो हर
एक के भीतर
छिपा है। किसी
के भीतर प्रकट
हो गया है और
किसी के भीतर अप्रकट
है। सच तो यह है
कि परम ब्रह्म
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है।
लेकिन बड़ी
कठिनाई है।
बर्ट्रेड रसेल ने
लिखा है..।
बर्ट्रेंड
रसेल तो
विचारशील से
विचारशील व्यक्तियों
में एक है। और
जिसका पूरा
भरोसा बुद्धि और
तर्क पर है।
उसने भी लिखा
है कि जब मैं
सोचता हूं तो
मुझे लगता है
कि बुद्ध से
महान व्यक्ति
जमीन पर दूसरा
नहीं हुआ। जब
मैं सोचता हूं
निष्पक्ष भाव
से, तो
मुझे लगता है,
बुद्ध से
महान व्यक्ति
जमीन पर दूसरा
नहीं हुआ।
लेकिन मेरे
भीतर छिपा हुआ
ईसाई, जिसको
मैं वर्षों
पहले त्याग कर
चुका हूं..।
क्योंकि
बर्ट्रेंड
रसेल ने
ईसाइयत का
त्याग कर दिया
था। उसने एक
बहुत अदभुत
किताब लिखी है, जिसका
नाम है, व्हाय आई एम नाट ए
क्रिश्चियन—मैं
ईसाई क्यों
नहीं हूं? लेकिन
बचपन तो
ईसाइयत में
बड़ा हुआ था।
मां—बाप ने
धर्म तो
ईसाइयत दिया
था, संस्कार
तो ईसाइयत के
थे। फिर सोच—विचार
करके ईसाई
धर्म का त्याग
कर दिया।
तब भी
बर्ट्रेंड
रसेल कहता है
कि मैं ऊपर से
विचार करके
कहता हूं कि
बुद्ध से महान
कोई भी नहीं।
लेकिन भीतर
मेरे हृदय में
कोई कहता है
कि बुद्ध
कितने ही महान
हों, लेकिन
जीसस से महान
हो नहीं सकते।
भीतर कोने में
कोई छिपा हुआ
कहता है। और
ज्यादा से
ज्यादा मैं इतना
ही कर सकता
हूं कि बुद्ध
और जीसस दोनों
समान हैं। बड़ा—छोटा
कोई भी नहीं, ज्यादा से
ज्यादा।
लेकिन जीसस को
बुद्ध से नीचे
रखना मुश्किल
हो जाता है।
इसलिए
नहीं कि बुद्ध
से नीचे हैं
या ऊंचे हैं, ये बातें मूढ़तापूर्ण
हैं। जो
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया,
उसकी कोई
तुलना नहीं की
जा सकती। न वह
किसी से नीचे
है और न किसी
से ऊपर है।
असल में ज्ञान
को उपलब्ध
होते ही
व्यक्ति तुलना
के बाहर हो
जाता है।
बुद्ध
और कृष्ण और
महावीर और
क्राइस्ट
किसी से ऊंचे—नीचे
नहीं हैं। यह
ऊंचे—नीचे की
भाषा ही उस लोक्
में व्यर्थ है।
यह तो हमारी
भाषा है। यहां
हम ऊंचे—नीचे
होते हैं।
जैसे ही
अहंकार छूट
गया। कौन ऊंचा
होगा और कौन
नीचा होगा? क्योंकि
ऊंचा—नीचा
अहंकार की तौल
है।
बुद्ध
भी अहंकारशून्य
हैं और
क्राइस्ट भी अहंकारशून्य
हैं और कृष्ण
भी, तो
ऊंचा—नीचा कौन
होगा! ऊंचा—नीचा
तभी तक कोई हो
सकता है, जब
तक अहंकार का
भाव है।
तो यह
आप जो कहते
हैं कि कृष्ण
ब्रह्म हैं, ऐसा
दूसरे धर्म के
लोग क्यों
नहीं मानते? इसीलिए नहीं
मानते हैं कि
इससे उनके
अहंकार की कोई
तृप्ति नहीं
होती; और
आप इसीलिए
मानते हैं कि
आपके अहंकार
की तृप्ति
होती है। बहुत
दूर के धर्मों
को तो छोड़ दें,
जैन भी राजी
नहीं हैं आपसे
मानने को, जो
कि बिलकुल
आपके पड़ोस में
रह रहा है। और
आपके और उसके
धर्म में कोई
बुनियादी
फर्क नहीं
दिखता, वह
भी मानने को
राजी नहीं है।
जैन को तो छोड़
दें, राम—
भक्त, जो
कि हिंदू है, वह भी इस बात
को मानने को
राजी नहीं है।
असल में
हम मानते उसी
बात को हैं, जिससे
हमारा अहंकार
खिलता है।
जिससे हमारे
अहंकार में
खिलावट नहीं
आती, हम
मानते—वानते
नहीं हैं।
यह
धार्मिक आदमी
की चिंता ही
नहीं है लेकिन।
धार्मिक आदमी
इसकी फिक्र
करता है कि जो
मुझे ठीक लगता
है, उस
रास्ते से
चलूं और अपने
को बदल लूं, और नए जीवन
को उपलब्ध हो
जाऊं। वह
रास्ता कृष्ण
के मार्ग से
मिले, तो
ठीक, और
क्राइस्ट के
मार्ग से मिले,
तो ठीक।
मार्गों की
चिंता ही
नासमझ करते
हैं। मंजिल की
चिंता!
लेकिन
कुछ लोग होते
हैं, आम
नहीं खाते, गुठलियां गिनते हैं।
इस तरह के लोग
उसी कोटि में
हैं। उन्हें
फुर्सत ही
नहीं है आम को
चखने की। वे गुठलियां
गिनते रहते
हैं!
इन
मित्र ने यह
भी पूछा है कि
क्या निराकार
परमात्मा ही
कृष्ण नहीं
हैं?
निराकार
परमात्मा सभी
के भीतर है।
कृष्ण के भीतर
भी है। कृष्ण के
भीतर वह
ज्योति पूरी
प्रकट होकर
दिखाई पड़ रही
है, क्योंकि
सारे परदे गिर
गए हैं। आपके
भीतर परदे हैं,
इसलिए वह
ज्योति दिखाई
नहीं पड़ रही
है। ज्योति
में कोई अंतर
नहीं है। किसी
का दीया ढंका
है और किसी का
दीया उघड़ा
है। बस, उतना
ही फर्क है।
दीए में कोई
फर्क नहीं है,
ज्योति में
कोई फर्क नहीं
है।
कृष्ण
में और आपमें
जो अंतर है, वह भीतर
की ज्योति का
नहीं है, बाहर
के आवरण का है।
अभी
भी कई भक्तों
को और संतों
को कृष्ण का
साक्षात
दर्शन होता है।
चौबीस घंटे
मुझे भी कृष्ण
के सिवाय
दूसरा कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। तो
निराकार
परमात्मा
भक्तों के लिए
साकार रूप
लेते हैं, क्या यह
सच है?
आप भाव से
जिसका भी
स्मरण करते
हैं, वह
आपके लिए रूपवान
हो जाता है, वह आपके लिए
रूपायित हो
जाता है। आपका
भाव निर्माता
है, स्रष्टा
है। भाव
सृजनात्मक है।
कोई कृष्ण आ
जाते हैं, ऐसा
नहीं है, कोई
क्राइस्ट आ
जाते हैं, ऐसा
नहीं है।
लेकिन भाव
क्रिएटिव है।
आप जब गहन भाव
से स्मरण करते
हैं, तो
आपकी चेतना ही
उस रूप की हो
जाती है जिस
रूप का आपने
स्मरण किया है।
आप कृष्णमय
हो जाते हैं, अपने ही भाव
के कारण। कोई क्राइस्टमय
हो जाता है, अपने ही भाव
के कारण। आपने
शायद सुना
होगा, ईसाई
फकीर हैं बहुत—से,
आज भी जीवित
हैं, जिनको
स्टिगमेटा
निकलता है। स्टिगमेटा
है, जहां—जहां
जीसस को खीले
ठोंके गए
थे हाथों में।
हाथ में, पैर
में जीसस को खीले
ठोंककर सूली
पर लटकाया गया
था। तो ऐसे
ईसाई फकीर हैं,
जो इतने जीससमय
हो जाते हैं
कि शुक्रवार
के दिन, जिस
दिन जीसस को
सूली हुई थी, उस दिन उनके
हाथ और पैर
में छेद हो
जाते हैं और
खून बहने लगता
है।
इसके
तो वैज्ञानिक
परीक्षण हुए
हैं। खुले
समूह के सामने
फकीर आंख बंद
किए बैठा रहा
है और ठीक समय
पर—डाक्टरों
ने सारी
परीक्षा कर ली
है—और उसके
हाथ में से
खून बहना शुरू
हो जाता
है। और
ठीक चौबीस
घंटे बाद खून
की धारा बंद
हो जाती है, घाव पुर
जाता है। इतना
भाव से एक हो
जाता है कि
मैं जीसस हूं
कि जीसस के
शरीर पर जो
घटना घटी थी, वह उसके
शरीर पर घटनी
शुरू हो जाती
है।
इसलिए
जीसस के भक्त
को जीसस दिखाई
पड़ते हैं।
कृष्ण के भक्त
को कृष्ण
दिखाई पड़ते
हैं। राम के
भक्त को राम
दिखाई पड़ते
हैं। कृष्ण के
भक्त को
क्राइस्ट कभी
दिखाई नहीं पड़ते।
क्राइस्ट के
भक्त को कृष्ण
कभी नहीं
दिखाई पड़ते।
भाव जब सघन हो
जाता है, तो आपकी
चेतना
रूपांतरित हो
जाती है, उसी
भाव में एक हो
जाती है।
वह जो
कृष्ण आपको
दिखाई पड़ते
हैं, वह
आपके ही भीतर
की ज्योति है,
जो आपको
बाहर दिखाई पड़
रही है भाव के
कारण। कोई
कृष्ण वहां खडे हुए
नहीं हैं।
इसलिए
आप दूसरे को
नहीं दिखा
सकते हैं कि
मुझे कृष्ण
दिखाई पड़ रहे
हैं, तो
आप दस मुहल्ले
के लोगों को
बुला लें और
उनको कहें कि
तुम भी देखो, मुझे दिखाई
पड़ रहे हैं।
या आप
फोटोग्राफर
को लिवा लाएं
और कहें कि
फोटो निकालो;
मुझे कृष्ण
दिखाई पड़ रहे
हैं। कोई फोटो
नहीं आएगा। और
पड़ोसी को, किसी
को दिखाई नहीं
पड़ेंगे।
पड़ोसी तय करके
जाएंगे कि आपका
दिमाग खराब हो
गया है।
सब्जेक्टिव है, आंतरिक है, आत्मिक है।
आपका ही भाव
साकार हुआ है।
और यह कला बड़ी
अदभुत है। यह
भाव अगर पूरी
तरह साकार
होने लगे, तो
आप मनुष्य की
हैसियत से
मिटते जाएंगे
और परमात्मा
की हैसियत से
प्रकट होने
लगेंगे। अपने
भाव से यह
सृजन की
क्षमता को
उपलब्ध कर लेना
स्रष्टा हो
जाना है। यही
क्रिएटर हो
जाना है।
लेकिन
आप इससे ऐसा
मत समझ लेना
कि आपको कृष्ण
का स्मरण आता
है, इसलिए
जिसको
क्राइस्ट का
स्मरण आता है
उसको गलती हो
रही है। आप
ऐसा भी मत समझ
लेना कि कृष्ण
के आपको दर्शन
होते हैं, इसलिए
सभी को कृष्ण
के दर्शन से
ही परमात्मा
की प्राप्ति
होगी। इस भूल
में आप मत पड़ना।
अपने—अपने भाव,
अपना—अपना
मार्ग, अपनी—अपनी
प्रतीति।
और
भूलकर भी
दूसरे की
प्रतीति को
छूना मत, और गलत मत
कहना। अपनी
प्रतीति बता
देना कि मुझे
ऐसा होता है, और मुझे यह
आनंद हो रहा
है। लेकिन
दूसरे की
प्रतीति को
गलत कहने की
कोशिश मत करना,
क्योंकि वह
अनधिकार है, वह ट्रेसपास
है। और दूसरे
के भाव को
नुकसान —पहुंचाना
अधार्मिक है।
आपको
ऐसा भी लगता
हो कि यह गलत
हो रहा है
दूसरे को, तो भी आप
जल्दी मत करना,
क्योंकि
दूसरे के
संबंध में
आपको कुछ भी
पता नहीं है।
थोड़ा धैर्य
रखना। और अगर
दूसरे के
संबंध में कुछ
भी कहना हो, तो दूसरा जो
प्रयोग कर रहा
है, वह
प्रयोग खुद भी
कर लेना और
फिर ही कहना।
रामकृष्ण
को ऐसा ही हुआ।
रामकृष्ण को
लोग आकर पूछते
थे कि इस्लाम
धर्म कैसा? ईसाइयत
कैसी? तंत्र
के मार्ग कैसे
हैं? तो
रामकृष्ण ने
कहा कि मैं जब
तक उन
प्रयोगों को
नहीं किया हूं, कुछ भी नहीं
कह सकता। तो
लोग पूछते हैं,
तो
रामकृष्ण ने
कहा कि मैं सब
प्रयोग
करूंगा।
तो
रामकृष्ण छ:
महीने के लिए 'मुसलमान
की तरह रहे।
पृथ्वी पर यह
प्रयोग पहला
था, अपने
ढंग का था।
रामकृष्ण छ:
महीने तक
मंदिर नहीं
जाते थे, मस्जिद
ही जाते थे।
और छ: महीने तक
नमाज ही पढ़ते
थे, प्रार्थना
नहीं करते थे।
छ: महीने तक
उन्होंने
हिंदुओं जैसे
कपड़े पहनने बंद
कर दिए थे और
मुसलमान जैसे
कपड़े पहनने
लगे थे। छ:
महीने
उन्होंने
अपने को
इस्लाम में
पूरी तरह डुबा
लिया।
और जब
इस्लाम से भी
उन्हें वही
अनुभव हो गया, जो अनुभव उन्होंने
काली की
प्रार्थना और
पूजा करके पाया
था, तब उन्होंने
कहा कि ठीक है,
यह रास्ता
भी वहीं आता
है। यह रास्ता
भी वहीं ले
जाता है। इस
रास्ते से
चलने वाले भी
वहीं पहुंच
जाएंगे, जहां
दूसरे
रास्तों से
चलने वाले
पहुंचते हैं।
फिर तो
रामकृष्ण ने
कोई छ: धर्मों
के अलग—अलग
प्रयोग किए।
और सभी धर्मों
से जब वे एक ही
समाधि को
पहुंच गए, तब
उन्होंने यह
वक्तव्य दिया
कि रास्ते अलग
हैं, लेकिन
पर्वत का शिखर
एक है। और अलग—अलग
रास्तों से, कभी—कभी
विपरीत
दिशाओं में
जाने वाले
रास्तों से भी
आदमी उसी एक
शिखर पर पहुंच
जाता है।
तो
जल्दी मत करना।
दूसरे पर कृपा
करना। दूसरे
को चोट पहुंचाने
की कोशिश मत
करना। एक ही
ध्यान रखना कि
आपकी पूरी
शक्ति अपने ही
प्रयोग में
लगे। और धीरे—
धीरे आपकी
चेतना आपके ही
भाव के साथ एक
हो जाए।
परमात्मा
को निकट लाने
की एक ही कला
है। और वह कला
यह है कि आप
अपने भाव को
पूरा का पूरा उसमें
डुबा दें।
इसके
दो उपाय हैं।
अगर आपके मन
की वृत्ति
सगुण की हो, तो आप
कृष्ण, क्राइस्ट,
बुद्ध, महावीर,
कोई भी
प्रतीक चुन
लें, कोई
भी रूप, कोई
भी आकार चुन
लें; और
उसी आकार में
अपने को लीन
करने लगें।
लेकिन
अगर आकार में
आपकी रुचि न
हो, तो
जरूरत नहीं है
किसी आकार की
भी। तब आप
निराकार
ध्यान में
सीधे उतरने
लगें। तब आप
अनंत और अनादि
का, शाश्वत
और सनातन का, निराकार
आकाश का ही
भाव करें—किसी
मूर्ति का, किसी बिंब
का, किसी
प्रतीक का
नहीं।
यह भी
आपको खोज लेना
चाहिए कि आपके
लिए क्या उचित
होगा। आपका
अपना भीतरी
झुकाव और लगन, आपका
भीतरी ढांचा
क्या है, यह
आपको ठीक से
समझ लेना
चाहिए।
क्योंकि सभी
लोगों को सभी
बातें ठीक
नहीं होंगी; सभी मार्ग
सभी के लिए
ठीक नहीं
होंगे।
जो
आदमी निर्गुण
को समझ ही
नहीं सकता, वह आदमी
निर्गुण के
पीछे पड़ जाएगा,
तो कष्ट
पाएगा और कभी
भी उपलब्धि न
होगी।
इसे आप
ऐसा समझें।
स्कूल में बच्चे
भर्ती होते
हैं। सभी
बच्चों को
गणित नहीं
जमता, क्योंकि
गणित बिलकुल
निराकार है।
गणित का कोई
आकार तो है
नहीं। गणित तो
एब्सट्रैक्ट
है। सभी
बच्चों
को गणित
नहीं जमता।
जिन बच्चों को
गणित नहीं
जमता, या
जिनको गणित
में बिलकुल रस
नहीं आता, या
जिनको गणित
में कोई गति
नहीं होती, उन्हें
भूलकर भी
निराकार और
निर्गुण की
बात में नहीं पड़ना
चाहिए। मैं
सिर्फ एक
उदाहरण दे रहा
हूं। जिनकी
गणित पर पकड़
नहीं बैठती, उनको
निराकार और
निर्गुण की
बात ही नहीं
करनी चाहिए।
क्योंकि गणित
तो स्थूलतम
निराकार की
यात्रा है।
ध्यान तो परम
यात्रा है।
आइंस्टीन
जैसा व्यक्ति
निराकार में
उतर सकता है
सरलता से, क्योंकि
सारा खेल ही
निराकार गणित
का है।
गणित
बाहर कहीं भी
नहीं है, केवल बुद्धि
के निराकार
में है। अगर
आदमी मर जाए, तो गणित
बिलकुल मिट
जाएगा।
क्योंकि गणित
का कोई सवाल
ही नहीं है।
आप कहते हैं, एक, दो, तीन, चार—ये
कहीं भी नहीं
हैं। यह सिर्फ
खयाल है, सिर्फ
एक निराकार
भाव है।
इस तरह
का कोई
व्यक्ति हो कि
उसका निराकार
से, एब्सट्रैक्ट से कोई
संबंध न बैठता
हो, तो उसे
साकार की
यात्रा करनी
चाहिए। जैसे
मीरा है। तो
मीरा को
निराकार से
कोई रस नहीं, कोई संबंध
नहीं है। वह
तो कृष्ण को
जितना
रसपूर्ण देख
पाती है, नाचते
हुए, बांसुरी
बजाते हुए, उतनी ही लीन
हो जाती है।
स्त्रियां
अक्सर
निराकार की
तरफ नहीं जा
सकतीं।
क्योंकि
स्त्रैण मन
आकृति को
प्रेम करता है, आकार को
प्रेम करता है।
पुरुष अक्सर
निराकार की
तरफ जा सकते
हैं। क्योंकि
पुरुष मन एब्सट्रैक्ट
है, निर्गुण
की तलाश करता
है।
लेकिन
सभी पुरुष पुरुष
नहीं होते और
सभी
स्त्रियां स्त्रियां
नहीं होतीं।
बहुत—सी
स्त्रियां
पुरुष के
ढांचे की होती
हैं, बहुत—से
पुरुष स्त्री
के ढांचे के
होते हैं। यह
ढांचा केवल
शरीर का नहीं,
मन का भी है।
तो
आपको ठीक पता
लगा लेना
चाहिए कि आपका
भीतरी ढांचा
क्या है।
इसलिए गुरु की
बड़ी उपयोगिता
है। क्योंकि
आपको शायद यह
समझ में भी न आ
सके कि आपका
ढांचा क्या है।
और शायद आप
गलत ढांचे पर
प्रयोग करते
रहें और परेशान
होते रहें।
अनेक लोग
परेशान होते
हैं और वे यही
समझते हैं कि
अपने कर्मों के
फल के कारण
उपलब्धि नहीं
हो रही है।
अक्सर तो
कर्मों के फल
का कोई संबंध
नहीं होता।
उपलब्धि में
भूल इसलिए
होती है कि
आपसे तालमेल
नहीं पड़ता, जिस विधि
का आप प्रयोग
कर रहे हैं।
जो आप प्रयोग
कर रहे हैं।
और जो आप हैं, उन दोनों
में कोई
संगति
नहीं बैठती, उनमें
विरोध है। तो
आप जन्मों—जन्मों
तक कोशिश करते
रहें, वह
रेत से तेल
निकालने जैसी
चेष्टा है। वह
कभी सफल न
होगी। और आप
शायद यही
सोचते रहेंगे
कि कर्मों के
फल के कारण
बाधा पड़ रही
है। कर्मों के
फल के कारण
बाधा पड़ती है,
लेकिन इतनी
बाधा नहीं
पड़ती, जितनी
बाधा ढांचे के
विपरीत अगर
कोई मार्ग चुन
ले तो पड़ती है।
इसलिए
गुरु का उपयोग
है कि वह आपके
ढांचे के संबंध
में खोज कर
सकता है।
पश्चिम
में
मनोवैज्ञानिक
स्वीकार करते
हैं कि आपको
अपने मन के
संबंध में
उतना पता नहीं
है, जितना
कि मनसविद
को पता है। और मनसविद
आपका
विश्लेषण
करके आपके
संबंध में वे
बातें जान
लेता है, जो
आपको ही पता
नहीं थीं।
तो आप
यह मत समझ
लेना कि चूंकि
आप हैं, इसलिए आप
अपने संबंध
में सब जानते
हैं। आप अपने
संबंध में एक
प्रतिशत भी
नहीं जानते।
निन्यानबे
प्रतिशत तो
आपको अपने
बाबत ही पता
नहीं है। और
उसके लिए कोई
दूर से
निष्पक्ष खड़े
होकर देखने
वाला चाहिए, जो ठीक से
पहचान ले कि
क्या—क्या
आपके भीतर
छिपा है। अगर
वह आपके भीतर
को ठीक से
पहचान ले और
पकड़ ले, तो
मार्ग चुनना
आसान हो जाए।
अनंत
मार्ग हैं और
अनंत तरह के
लोग हैं। और
ठीक मार्ग ठीक
व्यक्ति को
मिल जाए, तो कभी—कभी
क्षण में भी
मुक्ति फलित
हो जाती है।
लेकिन वह तभी,
जब बिलकुल
ठीक मार्ग और
ठीक व्यक्ति
से मिल जाए।
यह
करीब—करीब
वैसा है, जैसे आप रेडिओ
लगाते हैं। और
आपकी सुई अगर
ढीली हो, तो
दो—दो, चार—चार
स्टेशन एक साथ
पकड़ती है।
कुछ भी समझ
में नहीं आता।
फिर आप धीमे—
धीमे, धीमे—
धीमे टयून
करते हैं। और
जब ठीक जगह पर
सुई रुक जाती
है, ठीक
स्टेशन पर, तो सभी
स्पष्ट हो
जाता है।
करीब—करीब
आपके बीच और
विधि के बीच
जब तक ठीक टयूनिंग
न हो जाए, तब तक सत्य
की कोई
प्रतीति नहीं
होती। तब तक
बहुत बार आपको
बहुत मार्ग
बदलने पड़ते
हैं; बहुत
बार बहुत—सी
विधियां
बदलनी पड़ती
हैं।
लेकिन
अगर आदमी सजग
हो, तो
बिना गुरु के
भी मार्ग खोज
ले सकता है।
समय थोड़ा
ज्यादा लगेगा।
अगर आदमी समर्पणशील
हो, तो
गुरु के सहारे
बहुत जल्दी
घटना घट सकती
है।
आखिरी सवाल।
एक मित्र
पूछते हैं कि
मैंने सुना है
कि रामकृष्ण
परमहंस जब भी
गुह्य ज्ञान
के बारे में
बताते थे, तभी
बीच—बीच में रूक
जाते थे, और
कहते थे, मां
मुझे सच बोलने
को नहीं देती।
इसका क्या
अर्थ है?
सत्य बोला
नहीं जा सकता; बोलने की
कोशिश की जा
सकती है। और
जिनको सत्य का
कोई पता नहीं
है, उन्हें
यह अनुभव कभी
नहीं होता कि
सत्य बोला नहीं
जा सकता।
जिन्हें सत्य
का पता ही
नहीं है, वे
मजे से बोल
सकते हैं।
उन्हें कभी
खयाल भी न
आएगा कि सत्य
को शब्द में
रखना अत्यंत
कठिन, करीब—करीब
असंभव है।
जिनको
भी सत्य का
पता है, उन्हें बहुत
बार भीतर यह
अड़चन आ जाती
है, बहुत
बार यह अड़चन आ
जाती है।
उन्हें मालूम
है कि क्या है
सत्य, लेकिन
कोई शब्द उससे
मेल नहीं खाता।
अगर वे कोई भी
शब्द चुनते
हैं, तो
पाते हैं कि
उससे कुछ भूल
हो जाएगी। वे
जो कहना चाहते
हैं, वह तो
कहा नहीं
जाएगा। और कई
बार ऐसा लगता
है कि जो वे
नहीं कहना
चाहते, वह
भी इस शब्द से
ध्वनित हो
जाएगा। बहुत
बार ऐसा होता
है कि यह शब्द
का उपयोग तो किया
जा सकता है, लेकिन सुनने
वाला गलत
समझेगा। तो
रुकावट हो
जाती है।
रामकृष्ण
का मतलब वही
है। वह उनके
काव्य की भाषा
है कि वे कहते
हैं, मां
रोक लेती है
सत्य को कहने
से। वह उनकी
काव्य— भाषा
है। लेकिन
असली कारण.
कोई रोकता
नहीं है; सत्य
ही रोक लेता
है। क्योंकि
सत्य शब्द के
साथ बैठ नहीं
पाता। फिर
रामकृष्ण की
तकलीफ दूसरी
भी है।
क्योंकि वे
शब्द के संबंध
में बहुत कुशल
भी नहीं थे। बेपढ़े—लिखे
थे। बुद्ध इस
तरह नहीं
रुकते।
रामकृष्ण
दूसरी कक्षा
तक मुश्किल से
पढ़े थे। पढ़ना—लिखना
नहीं हुआ था।
शब्द से उनका
कोई बहुत
संबंध न था।
और फिर उन्हें
अनुभव तो वही
हुआ, जो
बुद्ध को हुआ।
लेकिन
बुद्ध
सुशिक्षित थे, शाही
परिवार से थे।
जो भी हो सकता
था संस्कार
श्रेष्ठतम, वह उन्हें
उपलब्ध हुआ था।
जो भी
आभिजात्य की
भाषा थी, जो
भी काव्य की, कला की भाषा
थी, जो भी
श्रेष्ठतम था
साहित्य में,
उसका
उन्हें पता था।
तो बुद्ध नहीं
रुकते हैं।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि बुद्ध कह
पाते हैं सत्य
है वह। नहीं।
तो
बुद्ध ज्यादा
कुशल हैं। वे
बीच—बीच में
नहीं रुकते, वे पहले
ही घोषणा कर
देते हैं।
बुद्ध जिस गाव
में जाते थे, वे कहलवा
देते थे कि
ग्यारह
प्रश्न मुझसे
कोई न पूछे।
उन
ग्यारह
प्रश्नों में
वे सब बातें आ
जाती थीं, जो गुह्य
सत्य के संबंध
में हैं। वे
कहते थे, इन्हें
छोड्कर
तुम कुछ भी
पूछो। ये ग्यारह
प्रश्न मुझसे
मत पूछो।
क्योंकि इनके
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। ये
अव्याख्येय
हैं।
रामकृष्ण
ग्राम्य थे।
उनकी भाषा
ग्रामीण की थी।
उनके प्रतीक
भी ग्राम्य थे।
उनकी
कहानियां भी
ग्राम्य थीं।
उन्होंने
पहले से घोषणा
नहीं की थी, लेकिन जब
वे बोलते थे, तो बीच—बीच
में अड़चन आ
जाती थी। वे
कुछ कहना
चाहते थे और
वह नहीं प्रकट
होता था। कोई
शब्द नहीं
मिलता था।
लेकिन
यह घटना तभी
घटती है, जब आपके पास
कुछ
महत्वपूर्ण
कहने को हो।
अगर आप बाजार
में चीजें
खरीदने और
बेचने की ही
भाषा को, और
उतना ही आपके
पास कहने को
हो, तो यह
अड़चन कभी नहीं
आती। लेकिन
जैसे ही आप
ऊपर उड़ते हैं
और समाज और
बाजार की भाषा
के बाहर की
दुनिया में
प्रवेश करते
हैं, वैसे
ही कठिनाई आनी
शुरू हो जाती
है।
रवींद्रनाथ
ने छ: हजार गीत
लिखे हैं।
शायद दुनिया
में किसी कवि
ने इतने गीत
नहीं लिखे।
पश्चिम में
शेली को वे
कहते हैं
महाकवि।
लेकिन उसके भी
दो हजार गीत
हैं।
रवींद्रनाथ
के छ: हजार गीत
हैं, जो
संगीत में
बद्ध हो सकते
हैं।
मरने
के तीन या चार
दिन पहले एक
मित्र ने आकर
रवींद्रनाथ
को कहा कि
तुम्हें
प्रसन्न होना
चाहिए कि
पृथ्वी पर अब
तक हुए
महाकवियों
में तुम्हारा
सबसे बड़ा दान
है—छ: हजार गीत, जो संगीत
में बंध सकते
हैं! और
प्रत्येक गीत
अनूठा है।
तुम्हें
मृत्यु का कोई
भय नहीं होना
चाहिए और न
कोई दुख लेना
चाहिए, क्योंकि
तुम काम पूरा
कर चुके हो, तुम फुलफिल्ड
हो। आदमी तो
वह दुःखी मरता,
जिसका कुछ
काम अधूरा रह
गया हो।
तुम्हारा काम
तो जरूरत से
ज्यादा पूरा
हो गया है।
रवींद्रनाथ
ने कहा कि
रुको, आगे
मत बढ़ो।
मेरी हालत
दूसरी ही है।
मैं इधर
परमात्मा से
प्रार्थना
किए जा रहा हूं
कि अभी तो मैं
अपना साज बिठा
पाया था, अभी
मैंने गीत
गाया कहां!
अभी तो मैं
ठोंक—पीट करके
अपना साज बिठा
पाया था। और
अब गाने का
वक्त करीब आता
था कि इस शरीर
के विदा होने
का वक्त करीब
आ गया! ये छ:
हजार गीत तो मेरी
कोशिश हैं
सिर्फ, उस
गीत को
गाने के
लिए, जो
मैं गाना
चाहता हूं।
अभी उसे गा
नहीं पाया हूं।
और यह तो वक्त
जाने का आ गया!
वह गीत तो अनगाया
रह गया है, जो
मेरे भीतर
उबलता रहा है।
उसी को गाने
के लिए ये छ:
हजार मैंने
प्रयास किए थे।
ये सब असफल गए
हैं। मैं सफल
नहीं हो पाया।
जो मैं कहना
चाहता था, वह
अभी भी अनकहा
मेरे हृदय में
दबा है।
असल
में जितनी ही
ऊंचाई की
प्रतीति और
अनुभूति होगी, शब्द
उतने ही नीचे
पड़ जाएंगे।
बाजार की भाषा
ऐसे रह जाती
है, जैसे
कोई आकाश में
उड़ गया दूर, और बाजार की
भाषा बहुत
नीचे रह गई।
अब उससे कोई
संबंध नहीं जुड़ता।
और
आकाश की कोई
भाषा नहीं है।
अभी तक तो
नहीं है। कवि
बडी कोशिश
करते हैं, कभी—कभी
कोई एक झलक ले
आते हैं।
संतों ने बड़ी
कोशिश की है, और कभी—कभी
कोई एक झलक
शब्दों में
उतार दी है।
लेकिन सब
झलकें अधूरी
हैं। क्योंकि
सब शब्द आदमी
के हैं और
अनुभूति परमात्मा
की है। आदमी
बहुत छोटा है
और अनुभूति
बहुत बड़ी है।
इतना बड़ा हो
जाता है अनुभव
कि वाणी
सार्थक नहीं
रह जाती।
इसलिए
रामकृष्ण बीच—बीच
में रुक जाते
थे। लेकिन वे
भक्त थे; उनकी भाषा
भक्त की है।
जो मैंने कहा,
ऐसा उत्तर
वे नहीं देते।
वे कहते कि
मां ने रोक
लिया। मां
सत्य नहीं
बोलने देती।
बात यही है।
मां
क्यों रोकेगी
सत्य बोलने से? लेकिन
रामकृष्ण तो
सत्य और मां
को एक ही
मानते हैं।
उनके लिए मां
सत्य है, सत्य
मां है। वह
मां उनके लिए
सत्य का साकार
रूप है। तो वे
कहते हैं, मां
रोक लेती है।
वे कभी—कभी
बीच में रुक
जाते थे। बहुत
देर तक चुप रह
जाते थे। फिर
बात शुरू करते
थे। वह कहीं
और से शुरू
होती थी। जहां
से उन्होंने
शुरू की थी, जहां टूट गई
थी, बीच
में अंतराल आ
जाता था। इन
अंतरालों का
एक कारण और है।
रामकृष्ण
अनेक बार बीच—बीच
में समाधि में
भी चले जाते
थे। और कभी भी
कोई ईश्वर—स्मरण
आ जाए, तो
उनकी समाधि लग
जाती थी। कभी
तो ऐसा होता
कि रास्ते पर
चले जा रहे
हैं और
किसी ने किसी
से जयरामजी
कर ली, और
वे खड़े हो गए, और आंख उनकी
बंद हो गई। यह
नाम सुनकर ही,
राम का
स्मरण सुनकर
ही वे समाधि
में चले गए।
उनको सडक पर
ले जाते वक्त
भी ध्यान रखना
पड़ता था। कोई
मंदिर की घंटी
बज रही है और
धूप जल रही है,
उनको सुगंध
आ गई और घंटी
की आवाज सुन
ली, वे
समाधि में चले
गए।
तो कभी—कभी
बोलते वक्त भी, जैसे ही वे
करीब आते थे
सत्य के कहने
के, उसका
स्मरण आते ही
वे लीन हो
जाते थे, इसलिए
भी अंतराल हो
जाता था।
अब हम
सूत्र को लें।
तथा वह
परमात्मा
चराचर सब
भूतों के बाहर—
भीतर
परिपूर्ण है
और चर—अचर रूप
भी वही है। और
वह सूक्ष्म
होने से
अविज्ञेय
अर्थात जानने
में नहीं आने
वाला है। तथा
अति समीप में
और अति दूर
में भी स्थित
वही है। और वह विभागरहित
एक रूप से
आकाश के सदृश
परिपूर्ण हुआ
भी चराचर
संपूर्ण
भूतों में
पृथक—पृथक के
सदृश स्थित
प्रतीत होता
है। तथा वह
जानने योग्य
परमात्मा
भूतों का धारण—पोषण
करने वाला और
संहार करने
वाला तथा सब
का उत्पन्न
करने वाला है।
और वह ज्योतियों
की भी ज्योति
एवं माया से
अति परे कहा
जाता है। तथा
वह बोधस्वरूप
और जानने के
योग्य है एवं
तत्वज्ञान से
प्राप्त होने
वाला और सब के
हृदय में
स्थित है।
तीन
महत्वपूर्ण
बातें। पहली
बात, परमात्मा
के संबंध में
जब भी कुछ
कहना हो, तो
भाषा में जो
भी विरोध में
खड़ी हुई दो
अतियां हैं, एक्सट्रीम पोलेरिटीज
हैं, उन
दोनों को एक
साथ जोड़ लेना
जरूरी है।
क्योंकि
दोनों अतियां
परमात्मा में
समाविष्ट हैं।
और जब भी हम एक
अति के साथ
परमात्मा का
तादात्म्य
करते हैं, तभी
हम भूल कर
जाते हैं और
अधूरा
परमात्मा हो
जाता है। और
हमारा
परमात्मा के
संबंध में जो
वक्तव्य है, वह असत्य हो
जाता है, वह
पूरा नहीं
होता।
मगर
मनुष्य का मन
ऐसा है कि वह
एक अति को
चुनना चाहता
है। हम कहना
चाहते हैं कि
परमात्मा
स्रष्टा है।
तो दुनिया के
सारे धर्म, सिर्फ
हिंदुओं को छोड्कर, कहते हैं कि
परमात्मा
स्रष्टा है, क्रिएटर है।
सिर्फ हिंदू
अकेले हैं
जमीन पर, जो
कहते हैं, परमात्मा
दोनों है, स्रष्टा
भी और विनाशक
भी, क्रिएटर
और डिस्ट्रायर।
यह
बहुत
विचारणीय है
और बहुत
मूल्यवान है।
क्योंकि
परमात्मा
स्रष्टा है, यह तो समझ
में आ जाता है।
लेकिन वही
विनाशक भी है,
वही
विध्वंसक भी
है, यह समझ
में नहीं आता।
आपके
बेटे को जन्म
दिया, तब
तो आप
परमात्मा को
धन्यवाद दे
देते हैं कि परमात्मा
ने बेटे को
जन्म दिया। और
आपका बेटा मर
जाए, तो
आपकी भी
हिम्मत नहीं
पड़ती कहने की
कि परमात्मा
ने बेटे को
मार डाला। क्योंकि
यह सोचते ही
कि परमात्मा
ने बेटे को
मार डाला, ऐसा
लगता है, यह
भी कैसा
परमात्मा, जो
मारता है!
लेकिन
ध्यान रहे, जो जन्म
देता है, वही
मारने वाला
तत्व भी होगा।
चाहे हमें
कितना ही
अप्रीतिकर
लगता हो।
हमारी प्रीति
और अप्रीति का
सवाल भी नहीं
है। जो बनाता
है, वही मिटाएगा
भी। नहीं तो मिटाएगा
कौन?
और अगर
मिटने की
क्रिया न हो, तो बनने
की क्रिया बंद
हो जाएगी। अगर
जगत में
मृत्यु बंद हो
जाए, तो
जन्म बंद हो
जाएगा। आप यह
मत सोचें कि
जन्म जारी
रहेगा और
मृत्यु बंद हो
सकती है। उधर
मृत्यु बंद
होगी, इधर
जन्म बंद होगा।
और अनुपात
निरंतर वही
रहेगा। उधर
मृत्यु को रोकिएगा,
इधर जन्म
रुकना शुरू हो
जाएगा।
इधर
चिकित्सकों
ने, चिकित्साशास्त्र
ने मृत्यु को
थोड़ा दूर हटा दिया
है, बीमारी
थोड़ी कम कर दी
है, तो
सारी दुनिया
की सरकारें
संतति—निरोध
में लगी हैं।
वह लगना ही
पड़ेगा। उसका
कोई उपाय ही
नहीं है। और
अगर सरकारें
संतति—निरोध
नहीं करेंगी,
तो अकाल
करेगा, भुखमरी
करेगी, बीमारी
करेगी। लेकिन
जन्म और
मृत्यु में एक
अनुपात है।
उधर आप मृत्यु
को रोकिए, तो
इधर जन्म को
रोकना पड़ेगा।
अब इधर
हिंदुस्तान
में बहुत— से
साधु—संन्यासी
हैं, वे
कहते हैं, संतति—निरोध
नहीं होना
चाहिए। उनको
यह भी कहना
चाहिए कि
अस्पताल नहीं
होने चाहिए।
अस्पताल न हों,
तो संतति—निरोध
की कोई जरूरत
नहीं है। इधर
मौत को रोकने
में सब राजी
हैं कि रुकनी
चाहिए। संत—महात्मा
लोगों को
समझाते हैं, अस्पताल खोलो;
मौत को रोको।
मौत को हटाओ,
बीमारी कम
करो। और वही
संत—महात्मा
लोगों को
समझाते हैं कि
बर्थ कंट्रोल
मत करना। इससे
तो बड़ा खतरा
हो जाएगा। यह
तो परमात्मा
के खिलाफ है।
अगर
बर्थ कंट्रोल
परमात्मा के
खिलाफ है, तो दवाई
भी परमात्मा
के खिलाफ है।
क्योंकि
परमात्मा
बीमारी दे रहा
है और तुम दवा
कर रहे हो!
परमात्मा मौत
ला रहा है और
तुम इलाज करवा
रहे हो! तब सब
चिकित्सा परमात्मा
के विरोध में
है। चिकित्सा
बंद कर दो, संतति—निरोध
की कोई जरूरत
ही नहीं रहेगी।
लोग अपने आप
ही ठीक अनुपात
में आ जाएंगे।
इधर मौत रोकी,
इधर जन्म
रुकता है।
आप सोच
लें, अगर
किसी दिन
विज्ञान ने यह
तरकीब खोज
निकाली कि
आदमी को मरने
की जरूरत नहीं,
तो हमें सभी
लोगों को बांझ
कर. देना
पड़ेगा, क्योंकि
फिर पैदा होने
की कोई जरूरत
नहीं।
जन्म
और मृत्यु एक
ही धागे के दो
छोर हैं।
उनमें एक
संतुलन है। यह
सूत्र पहली
बात यह कर रहा
है कि
परमात्मा
दोनों अतियों
का जोड़ है। सब
भूतों के बाहर—
भीतर
परिपूर्ण है।
बहुत
लोग हैं, जो मानते
हैं, परमात्मा
बाहर है। आम
आदमी की धारणा
यही होती है
कि कहीं आकाश
में परमात्मा
बैठा है। एक
बहुत बड़ी दाढ़ी
वाला का आदमी,
वह सारी
दुनिया को
सम्हाल रहा है
सिंहासन पर
बैठा हुआ!
इससे बड़ा खतरा
भी होता है
कभी—कभी।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक कार्ल
गुस्ताव कं
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मुझे बचपन
में यह समझाया
गया कि
परमात्मा
आकाश में बैठा
हुआ है अपने
सिंहासन पर और
दुनिया का काम
कर रहा है, तो उसने
लिखा है कि
मैं अपने बाप
से कह तो नहीं
सका, लेकिन
मुझे सदा एक
ही खयाल आता
था कि वह अगर
पेशाब, मल—मूत्र
त्याग करता
होगा, तो
वह सब हम ही पर
गिरता होगा।
आखिर वह
सिंहासन पर
बैठा—बैठा कब
तक बैठा रहता
होगा; कभी
तो मल—मूत्र
त्याग करता
होगा!
उसने
अपने संस्मरण
में लिखा है
कि .यह बात मेरे
मन में बुरी
तरह घूमने लगी।
छोटा बच्चा ही
था। किसी से
कह तो सकता
नहीं, क्योंकि
किसी से कहूं
तो वह पिटाई
कर देगा कि यह
भी क्या बात
कर रहे हो, परमात्मा
और मल—मूत्र!
लेकिन जब
परमात्मा
सिंहासन पर
बैठता है
आदमियों की
तरह, जैसे
आदमी
कुर्सियों पर
बैठते हैं, और जब
परमात्मा की दाढ़ी—मूंछ
और सब आदमी की
तरह है, तो
फिर मल—मूत्र
भी होना ही
चाहिए। किसी
से, जुग ने
लिखा है, मैं
कह तो नहीं
सका, तो
फिर मुझे सपना
आने लगा। कि
वह बैठा है
अधर में और मल—मूत्र
गिर रहा है!
आम
आदमी की धारणा
यही है कि वह
कहीं आकाश में
बैठा हुआ है बाहर।
इसलिए आप
मंदिर जाते
हैं, क्योंकि
परमात्मा
बाहर है। यह
एक अति है।
एक
दूसरी अति है, जो मानते
हैं कि
परमात्मा
भीतर है, बाहर
का कोई सवाल
नहीं। इसलिए न
कोई मंदिर, न कोई तीर्थ;
न बाहर कोई
जाने की जरूरत।
परमात्मा
भीतर है।
यह
सूत्र कहता है
कि दोनों
बातें अधूरी
हैं। जो कहते
हैं, परमात्मा
भीतर है, वे
भी आधी बात
कहते हैं। और
जो कहते हैं, परमात्मा
बाहर है, वे
भी आधी बात
कहते हैं। और
दोनों गलत हैं,
क्योंकि
अधूरा सत्य
असत्य से भी
बदतर होता है।
क्योंकि वह
सत्य जैसा
भासता है और
सत्य नहीं होता।
परमात्मा
बाहर और भीतर
दोनों में है।
वह
परमात्मा
चराचर सब
भूतों के बाहर—
भीतर
परिपूर्ण है।
क्योंकि
बाहर— भीतर
उसके ही दो
खंड हैं।
हमारे लिए जो
बाहर है और
हमारे लिए जो
भीतर है, वह उसके लिए
न तो बाहर है, न भीतर है।
दोनों में वही
है।
ऐसा
समझें कि आपके
कमरे के भीतर
आकाश है और
कमरे के बाहर
भी आकाश है।
आकाश बाहर है
या भीतर? आपका मकान
ही आकाश में
बना है, तो
आकाश आपके
मकान के भीतर
भी है और बाहर
भी है।
दीवालों की
वजह से बाहर—
भीतर का फासला
पैदा हो रहा
है। यह शरीर
की दीवाल की
वजह से बाहर—
भीतर का फासला
पैदा हो रहा
है। वैसे बाहर—भीतर
वह दोनों नहीं
है; या
दोनों है।
सूत्र
कहता है, बाहर भीतर
दोनों है
परमात्मा। चर—अचर
रूप भी वही है।
चर—अचर
रूप भी वही है।
जो बदलता है, वह भी वही
है, जो
नहीं बदलता, वह भी वही है।
यहां
भी हम इसी तरह
का द्वंद्व
खड़ा करते हैं
कि परमात्मा
कभी नहीं
बदलता और
संसार सदा
बदलता रहता है।
लेकिन बदलाहट
में भी वही है
और गैर—बदलाहट
में भी वही है।
दोनों
द्वंद्व को वह
घेरे हुए है।
सूक्ष्म
होने से
अविज्ञेय है, जानने
में आने वाला
नहीं है।
बहुत
सूक्ष्म है।
सूक्ष्मता दो
तरह की है। एक
तो कोई चीज
बहुत सूक्ष्म
हो, तो
समझ में नहीं
आती। या कोई
चीज बहुत
विराट हो, तो
समझ में नहीं
आती। न तो यह
अनंत विस्तार
समझ में आता
है और न सूक्ष्म
समझ में आता
है। दो चीजें
छूट जाती हैं।
दो छोर
हैं, विराट
और सूक्ष्म।
सूक्ष्म को
कहना चाहिए, शून्य जैसा
सूक्ष्म। एक
से भी नीचे, जहां शून्य
है। दो तरह के
शून्य हैं। एक
से भी नीचे
उतर जाएं, तो
एक शून्य है।
और अनंत का (रक
शून्य है। ये
दोनों समझ में
नहीं आते।
परमात्मा
दोनों अर्थों
में सूक्ष्म
है। विराट के
अर्थों में भी,
शून्य के
अर्थों में भी।
और इसलिए
अविज्ञेय है।
समझ में आने
जैसा नहीं है।
पर यह
तो बड़ी कठिन
बात हो गई।
अगर परमात्मा
समझ में आने
जैसा ही नहीं
है, तो
समझाने की
इतनी कोशिश!
सारे शास्त्र,
सारे ऋषि एक
ही काम में
लगे हैं कि
परमात्मा को
समझाओ। और वह
समझ में आने
योग्य नहीं है।
फिर यह समझाने
से क्या सार होगा!
समझ में आने
योग्य नहीं है,
इसका यह
मतलब आप मत
समझना कि वह
अनुभव में आने
योग्य नहीं है।
समझ में तो
नहीं आएगा, लेकिन अनुभव
में आ सकता है।
जैसे
अगर मैं आपको
समझाने बैठूं
नमक का स्वाद, तो समझा नहीं
सकता।
परमात्मा तो
बहुत दूर है, नमक का
स्वाद भी नहीं
समझा सकता। और
अगर आपने कभी
नमक नहीं चखा
है, तो मैं
लाख सिर पटकू
और सारे
शास्त्र
इकट्ठे कर लूं
और दुनियाभर के
वितान की
चर्चा आपसे
करूं, तो
भी आखिर में
आप पूछेंगे कि
आपकी बातें तो
सब समझ में
आईं, लेकिन
यह नमकीन क्या
है? उसका
उपाय एक ही है
कि एक नमक का
टुकड़ा आपकी जीभ
पर रखा जाए।
शास्त्र—वास्त्र
की कोई जरूरत
नहीं है। जो
समझ में आने
वाला नहीं है,
वह भी अनुभव
में आने वाला
हो जाएगा। और
आप कहेंगे कि
आ गया अनुभव
में—स्वाद।
परमात्मा
का स्वाद आ
सकता है।
इसलिए कोई
प्रत्यय के
ढंग से, कंसेप्ट की
तरह समझाए, कोई सार
नहीं होता।
इसीलिए तो हम
परमात्मा के
लिए कोई स्कूल
नहीं खोल पाते,
कोई
पाठशाला नहीं
बना पाते। या
बनाते हैं तो
उससे कोई सार
नहीं होता।
कितनी
ही धर्म की
शिक्षा दो, कोई धर्म
नहीं होता।
सीख—साख कर
आदमी वैसे का
ही वैसा कोरा
लौट जाता है।
और कई दफे तो
और भी ज्यादा
चालाक होकर
लौट जाता है, जितना वह
पहले नहीं था।
क्योंकि अब वह
बातें बनाने
लगता है। अब
वह अच्छी
बातें करने
लगता है। वह
धर्म की चर्चा
करने लगता है।
और स्वाद उसे
बिलकुल नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, सूक्ष्म
होने से अविज्ञेय
है, समझ
में आने वाला
नहीं है। अति
समीप है और
अति दूर भी है।
पास है
बहुत, इतना
पास, जितना
कि आप भी अपने
पास नहीं हैं।
असल में पास
कहना ठीक ही
नहीं है, क्योंकि
आप ही वही हैं।
और दूर इतना
है, जितने
दूर की हम
कल्पना कर
सकें। अगर
संसार की कोई
भी सीमा हो, विश्व की, तो उस सीमा
से भी आगे।
कोई सीमा है
नहीं, इसलिए
अति दूर और
अति निकट। ये
दो अतियां हैं,
जिन्हें जोड्ने की
कृष्ण कोशिश
कर रहे हैं।
विभागरहित, उसका कोई
विभाजन नहीं
हो सकता। और
सभी विभागों
में वही मौजूद
है। तथा वह
जानने योग्य
परमात्मा
भूतों का धारण—पोषण
करने वाला और
संहार करने
वाला और
उत्पन्न करने
वाला, सभी
वही है।
वही
बनाता है, वही
सम्हालता है,
वही मिटाता
है। यह धारणा
बड़ी अदभुत है।
और एक बार यह
खयाल में आ
जाए, वही
बनाता है, वही
सम्हालता है,
वही मिटाता
है, तो
हमारी सारी
चिंता समाप्त
हो जाती है।
यह एक
सूत्र आपको
निश्चित कर
देने के लिए
काफी है। यह एक
सूत्र आपको
सारे संताप से
मुक्त कर देने
के लिए काफी
है। क्योंकि
फिर आपके हाथ
में कुछ नहीं
रह जाता। न
आपको परेशान
होने का कोई
कारण रह जाता
है। और न आपको
शिकायत की कोई
जरूरत रह जाती
है। और न आपको
कहने की जरूरत
रह जाती है कि
ऐसा क्यों है? बीमारी
क्यों है? बुढ़ापा
क्यों है? मौत
क्यों है? कुछ
भी पूछने की
जरूरत नहीं रह
जाती। आप
जानते हैं कि
वही एक तरफ से
बनाता है और
दूसरी तरफ से
मिटाता है। और
वही बीच में
सम्हालता भी
है।
इसलिए
हमने
परमात्मा का
त्रिमूर्ति
की तरह प्रतीक
निर्मित किया
है। उसमें तीन
मूर्तियां, तीन तरह
के परमात्मा
की धारणा की
है। शिव, ब्रह्मा,
विष्णु, वह
हमने तीन
धारणा की हैं।
ब्रह्मा
सर्जक है, स्रष्टा
है। विष्णु
सम्हालने
वाला है। शिव
विनष्ट कर
देने वाला है।
लेकिन
त्रिमूर्ति
का अर्थ तीन
परमात्मा नहीं
है। वे केवल
तीन चेहरे हैं।
मूर्ति तो एक
है। वह
अस्तित्व तो
एक है, लेकिन
उसके ये तीन
ढंग हैं।
और वही ज्योतियों
की ज्योति, माया से
अति परे कहा
जाता है। तथा
वह परमात्मा बोधस्वरूप
और जानने के
योग्य है एवं
तत्वज्ञान से
प्राप्त होने
वाला और सबके
हृदय में
स्थित है।
अविज्ञेय
है, समझ
में न आने
वाला है, और
फिर भी जानने
योग्य वही है।
ये बातें उलझन
में डालती हैं।
और लगता है कि
एक—दूसरे का
विरोध है।
विरोध नहीं है।
समझ में तो वह
नहीं आएगा, अगर आपने
समझदारी बरती।
अगर आपने
कोशिश की कि
बुद्धि से समझ
लेंगे, तर्क
लगाएंगे, गणित
बिठाएंगे,
आर्ग्यू करेंगे, प्रमाण
जुटाएंगे,
तो वह आपकी
समझ में नहीं
आएगा।
क्योंकि सभी
प्रमाण आपके
हैं, आपसे
बड़े नहीं हो
सकते। सभी
तर्क आपके हैं,
आपके अनुभव
से ज्यादा की
उनसे कोई
उपलब्धि नहीं
हो सकती। और
सभी तर्क बांझ
हैं, उनसे
कोई अनुभव
नहीं मिल सकता।
लेकिन
जानने योग्य
वही है। तो
इसका अर्थ यह
हुआ कि जानने
की कोई और
कीमिया, कोई और
प्रक्रिया हमें
खोजनी पड़ेगी।
बुद्धि उसे
जानने में
सहयोगी न होगी।
क्या बुद्धि
को छोड्कर
भी जानने का
कोई उपाय है? क्या कभी
आपने कोई चीज
जानी है, जो
बुद्धि को छोड्कर
जानी हो?
अगर
आपके जीवन में
प्रेम का कोई
अनुभव हो, तो शायद
थोड़ा—सा खयाल
आ जाए। प्रेम
के अनुभव में
आप बुद्धि से
नहीं जानते, कोई और ढंग
है जानने का, कोई हार्दिक
ढंग है जानने
का।
मां
अपने बेटे को
बुद्धि के ढंग
से नहीं जानती।
सोचती नहीं
उसके बाबत; जानती है।
हृदय की धड़कन
से जुड़कर
जानती है। वह
उसे पहचानती
है। वह पहचान
कुछ और मार्ग
से होती है।
वह मार्ग सीधा—सीधा
खोपड़ी से नहीं
जुड़ा हुआ है।
वह शायद हृदय
की धड़कन से और
भाव, अनुभूति
से जुड़ा हुआ
है।
परमात्मा
को जानने के
लिए बुद्धि
उपकरण नहीं है।
बुद्धि को रख
देना एक तरफ
मार्ग है।
इसलिए सारी
साधनाएं
बुद्धि को हटा
देने की साधनाएं
हैं। और
बुद्धि को जो
एक तरफ उतारकर
रख दे, जैसे
स्नान करते
वक्त किसी ने
कपड़े उतारकर
रख दिए हों, ऐसा
प्रार्थना और
ध्यान करते
वक्त कोई
बुद्धि को उतारकर
रख दे, बिलकुल
निर्बुद्धि
हो जाए, बिलकुल
बच्चे जैसा हो
जाए, बाल—बुद्धि
हो जाए, जिसे
कुछ बचा ही
नहीं, सोच—समझ
की कोई बात ही
न रही, तो तत्क्षण
संबंध जुड़ जाता
है।
क्यों
ऐसा होता होगा? ऐसा
इसलिए होता है
कि बुद्धि तो
बहुत संकीर्ण है।
बुद्धि का
उपयोग है
संसार में।
जहां संकीर्ण
की हम खोज कर
रहे हैं, क्षुद्र
की खोज कर रहे
हैं, वहा
बुद्धि का
उपयोग है।
लेकिन जैसे ही
हम विराट की
तरफ जाते हैं,
वैसे ही
बुद्धि बहुत
संकीर्ण
रास्ता हो
जाती है। उस
रास्ते से
प्रवेश नहीं
किया जा सकता है।
उसको हटा देना,
उसे उतार
देना।
संतों
ने न मालूम
कितनी
तरकीबों से एक
ही बात सिखाई
है कि कैसे आप
अपनी बुद्धि
से मुक्त हों।
इसलिए बड़ी
खतरनाक भी है।
क्योंकि हमें
तो लगता है कि
बुद्धि को
बचाकर कुछ
करना है, बुद्धि साथ
लेकर कुछ करना
है, सोच—विचार
अपना कायम
रखना है। कहीं
कोई हमें धोखा
न दे जाए।
कहीं ऐसा न हो
कि हम बुद्धि
को उतारकर
रखें, और
इसी बीच कुछ
गड़बड़ हो जाए।
और हम कुछ भी न
कर पाएंगे।
तो
बुद्धि को हम
हमेशा पकड़े
रहते हैं, क्योंकि
बुद्धि से
हमें लगता है,
हमारा
कंट्रोल है, हमारा
नियंत्रण है।
बुद्धि के
हटते ही
नियंत्रण खो
जाता है। और
हम सहज
प्रकृति के
हिस्से हो
जाते हैं।
इसलिए खतरा है
और डर है। इस
डर में थोड़ा
कारण है। वह
खयाल में ले
लेना जरूरी है।
अगर
आपको क्रोध
आता है, तो बुद्धि
एक तरफ हो
जाती है। जब
क्रोध चला
जाता है, तब
बुद्धि वापस
आती है। और तब
आप पछताते हैं।
जब कामवासना पकड़ती है, तो बुद्धि
एक तरफ हो
जाती है। और
जब काम कृत्य
पूरा हो जाता
है, तब आप
उदास और दुखी
और चिंतित हो
जाते हैं कि फिर
वही भूल की।
कितनी बार सोचा
कि नहीं करें, फिर वही किया।
फिर बुद्धि आ गई।
एक बात
खयाल रखें, प्रकृति
भी तभी काम
करती है, जब
बुद्धि बीच
में नहीं होती।
आपके भीतर जो
निम्न है, वह
भी तभी काम
करता है, जब
बुद्धि नहीं
होती। अगर आप
बुद्धि को सजग
रखें, तो
आप क्रोध भी
नहीं कर
पाएंगे और
कामवासना में
भी नहीं उतर
पाएंगे।
अगर
दुनिया
बिलकुल
बुद्धिमान हो
जाए तो संतान पैदा
होनी बंद हो
जाएगी, संसार उसी
वक्त बंद हो
जाएगा।
क्योंकि नीचे
की प्रकृति की
भी सक्रियता
तभी हो सकती
है, जब आप
बुद्धि का
नियंत्रण छोड़
दें। क्योंकि
प्रकृति तभी
आपके भीतर काम
कर पाती है, जब आपकी
बुद्धि बीच
में बाधा नहीं
डालती।
वह जो
श्रेष्ठ
प्रकृति है, जिसको हम
परमात्मा
कहते हैं, वह
भी तभी काम
करता है, जब
आपकी बुद्धि
नहीं होती। पर
इसमें एक खतरा
है, जो समझ
लेने जैसा है।
वह यह कि
चूंकि हम नीचे
की प्रकृति से
डरे हुए हैं, इसलिए
बुद्धि के
नियंत्रण को
हम हमेशा कायम
रखते हैं। हम
डरे हुए हैं।
अगर बुद्धि को
छोड़ दें, तो
क्रोध, हिंसा,
कुछ भी हो
जाए। अगर
बुद्धि को हम
छोड़ दें, तो
हमारे भीतर की
वासनाएं
स्वच्छंद हो
जाएं, तो
हम तो अभी
पागल की तरह न
मालूम क्या कर
गुजरें।
कितनी
बार हत्या
करने की सोची
है बात! लेकिन
बुद्धि ने कहा, यह क्या
कर रहे हो? पाप
है। जन्मों—जन्मों
तक भटकोगे,
नरक में
जाओगे। और न
भी गए नरक में,
तो अदालत है,
कोर्ट है, पुलिस है।
और कहीं भी न
गए, तो खुद
की कासिएंस
है, अंतःकरण
है, वह कचोटेगा
सदा, कि
तुमने हत्या
की। फिर क्या
मुंह दिखाओगे?
कैसे चलोगे
रास्ते पर? कैसे उठोगे?
तो बुद्धि
ने रोक लिया
है।
अगर आज
कोई कहे कि
बुद्धि का
नियंत्रण छोड़
दो, तो
पहला खयाल यही
आएगा, अगर
नियंत्रण
छोड़ा कि उठाई
तलवार और किसी
की हत्या कर
दी। क्योंकि
वह तैयार बैठा
है भाव भीतर।
नीचे की
प्रकृति के डर
के कारण हम
बुद्धि को नहीं
छोड़ पाते। और
हमें ऊपर की
प्रकृति का
कोई पता नहीं
है। क्योंकि
वह भी बुद्धि
के छोड़ने पर
ही काम करती
है।
इसे हम
ऐसा भी समझें।
अगर कोई आदमी
बीमार हो, तो
चिकित्सक
पहली फिक्र
करते हैं कि
उसको नींद ठीक
से आ जाए।
क्योंकि वह
जगा रहता है, तो शरीर की
प्रकृति को
काम नहीं करने
देता, बाधा
डालता रहता है।
नींद आ जाए, तो शरीर
अपना काम पूरा
कर ले, प्रकृति
उसके शरीर को
ठीक कर दे, उसके
घाव भर दे; उसकी
बीमारी को दूर
कर।
इसलिए
चिकित्सक की
पहली चिंता
होती है कि
मरीज सो जाए।
बाकी काम
दूसरा है, नंबर दो
पर है। दवा
वगैरह नंबर दो
पर है। पहला
काम है कि मरीज
सो जाए। क्यों
इतनी चिंता है?
क्योंकि
मरीज की
बुद्धि
दिक्कत दे रही
है। सो जाए, तो प्रकृति
काम कर सके।
आप भी
जब सोते हैं, तभी आपका
शरीर स्वस्थ
हो पाता है। दिनभर में
आप उसको
अस्वस्थ कर
लेते हैं।
आपको
पता है, बच्चा जब
पैदा होता है
तो बाईस घंटे
सोता है, बीस
घंटे सोता है।
और मां के पेट
में नौ महीने
चौबीस घंटे
सोता है। फिर
जैसे—जैसे
उम्र बड़ी होने
लगती है, नींद
कम होने लगती
है। फिर का और
कम सोता है।
फिर बुढ़ापे
में कोई आदमी
दो ही घंटे, तीन घंटे ही
सो ले, तो
बहुत।
के
बहुत परेशान
होते हैं।
सत्तर साल के
बूढ़े भी मेरे
पास आ जाते
हैं। वे कहते
हैं, कुछ
नींद का
रास्ता बताइए।
नींद
की आपको जरूरत
नहीं रही है
अब। जैसे—जैसे
शरीर मरने के
करीब पहुंचता
है, प्रकृति
शरीर में काम
करना कम कर
देती है। उसकी
जरूरत नहीं है।
बनाने का काम
बंद हो जाता
है।
बच्चा
चौबीस घंटे
सोता है, क्योंकि
प्रकृति को
बनाने का काम
करना है। अगर
बच्चा जग जाए,
तो बाधा
डालेगा। उसकी
बुद्धि बीच
में आ जाएगी।
वह कहेगा, टांग
जरा लंबी होती,
जो अच्छा था।
नाक जरा ऐसी
होती, तो
अच्छा था। आंख
जरा और बड़ी
होती, तो
मजा आ जाता।
वह गडबड़
डालना शुरू कर
देगा।
तो नौ
महीने
प्रकृति उसको
एक दफे भी होश
नहीं देती।
बेहोश, प्रकृति
अपना काम करती
है। जैसे ही
बच्चा पूरा हो
जाता है, बाहर
आ जाता है।
लेकिन तब भी
बाईस घंटे
सोता है। अभी
बहुत काम होना
है। अभी उसकी
पूरी जिंदगी
की तैयारी
होनी है।
जैसे
ही बच्चे के
शरीर का काम
पूरा हो जाता
है, वैसे
ही नींद एक
जगह आकर रुक
जाती है—छ
घंटा, सात
घंटा, आठ
घंटा। काम
प्रकृति का
पूरा हो गया।
अब ये आठ घंटे
तो रोज के काम
के लिए हैं।
रोज में आप
शरीर को जितना
तोड़ लेंगे, उतना
प्रकृति रात
में पूरा कर
देगी। दूसरे
दिन आप सुबह
ताजा होकर काम
में लग जाएंगे।
का तो अब मरने
के करीब है, उसको तीन
घंटा भी जरूरत
से ज्यादा है।
क्योंकि अब
प्रकृति कुछ
बना नहीं रही
है, सिर्फ
तोड़ रही है।
इसलिए नींद कम
होती जा रही
है।
प्रकृति
भी काम करती
है, जब
आप बुद्धि से
बीच में बाधा
नहीं डालते।
यह मैं इसलिए
उदाहरण दे रहा
हूं कि जो
नीचे की
प्रकृति के
संबंध में सच
है, वही
ऊपर की
प्रकृति के
संबंध में भी
सच है। जब आप
परमात्मा को
भी बाधा नहीं
डालते और बुद्धि
को हटा लेते
हैं, तब वह
भी काम करता
है। लेकिन
नीचे के भय के
कारण हम ऊपर
से भी भयभीत होते
हैं। नीचे के
डर के कारण, हम ऊपर की
तरफ भी नहीं खुलते।
इसलिए
मेरा कहना है
कि प्रकृति को
भी परमात्मा
का बाह्य रूप
समझें। उससे
भी भयभीत न
हों। उससे भी
भयभीत न हों, उसमें भी
उतरें। उससे
भी डरें मत।
उससे भी भागें
मत। उसको भी
घटने दें।
उसमें भी बाधा
मत डालें और
नियंत्रण मत बनाएं।
बिना बाधा
डाले, बिना
नियंत्रण
बनाए, होश
को कायम रखें।
वह अलग बात है।
फिर वह बुद्धि
नहीं है।
बुद्धि
का अर्थ है, बाधा
डालना, नियंत्रण
करना। ऐसा न
हो, ऐसा हो।
उपाय करना।
होश का अर्थ
है, साक्षी
होना। हम कोई
बाधा न
डालेंगे। अगर
क्रोध आ रहा
है, तो हम
क्रोध के भी
साक्षी हो
जाएंगे। और
कामवासना आ
रही है, तो
हम कामवासना
के भी साक्षी
हो जाएंगे। हम
देखेंगे, हम
बीच में कुछ
निर्णय न
करेंगे कि
अच्छा है, कि
बुरा है, होना
चाहिए, कि
नहीं होना
चाहिए; मैं
रोकू? कि न
रोकूं; करूं,
कि न करूं, हम कुछ भी
निर्णय न
लेंगे। हम
सिर्फ शांत
देखेंगे, जैसे
दूर खड़ा हुआ कोई
आदमी चलते हुए
रास्ते को देख
रहा हो। आकाश
में पक्षी उड
रहे हों और आप
देख रहे हों, ऐसा हम
देखेंगे।
नीचे
की प्रकृति को
भी दर्शन करना
सीखें, तो बुद्धि
हटेगी और
साक्षी जगेगा।
और जब नीचे का
भय न रह जाएगा,
तो आप ऊपर
की तरफ भी
बुद्धि को
हटाकर रख
सकेंगे।
क्योंकि आपको
भरोसा आ जाएगा
कि बुद्धि को
ढोने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। और जैसे
ही बुद्धि
हटती है, परमात्मा
शांत होना
शुरू हो जाता
है।
वह
अविज्ञेय है
बुद्धि से।
लेकिन बुद्धि
के हटते ही
प्रज्ञा से, साक्षी
भाव से वही
ज्ञान योग्य
है, वही
जानने योग्य
है, वही
अनुभव योग्य
है।
आखिरी
बात इस संबंध
में खयाल ले
लें, क्योंकि
साक्षी का
सूत्र बहुत
मूल्यवान है।
और अगर आप
साक्षी के
सूत्र को ठीक
से समझ लें, तो परमात्मा
का कोई भी
रहस्य आपसे
अनजाना न रह
जाएगा। और इस
साक्षी के
सूत्र को
समझने के लिए
छोटा—छोटा
प्रयोग करें।
कुछ भी छोटा—मोटा
काम कर रहे
हों, तो
कर्ता बनकर मत
करें, साक्षी
बनकर करें, ताकि थोड़ा
अनुभव होने
लगे कि देखने
वाले का अनुभव
क्या है।
भोजन
कर रहे हैं।
साक्षी हो
जाएं। अचानक
खयाल आए, एक गहरी
श्वास लें और
देखने लगें कि
आप देख रहे
हैं अपने शरीर
को भोजन करते
हुए। पहले
थोड़ी अड़चन
होगी, थोड़ा—सा
विचित्र
मालूम पड़ेगा,
क्योंकि दो
की जगह तीन
आदमी हो गए।
अभी भोजन था, करने वाला
था, भूख थी,
करने वाला
था। अब एक यह
तीसरा और आ
गया, देखने
वाला।
यह
देखने वाले की
वजह से थोड़ी
कठिनाई होगी।
एक तो भोजन
करना धीमा हो
जाएगा। आप
ज्यादा चबाके, आहिस्ता
उठाएंगे।
क्योंकि यह
देखने वाले की
वजह से
क्रियाओं में
जो
विक्षिप्तता
है, वह कम
हो जाती है।
शायद इसीलिए
हम देखने वाले
को बीच में
नहीं लाते, क्योंकि
जल्दी ही
डालकर भागना
है। किसी तरह
अंदर कर देना
है भोजन को और
निकल पड़ना
है।
अगर आप
चलेंगे भी
होशपूर्वक, तो आप
पाएंगे, आपकी
गति धीमी हो
गई।
बुद्ध
चलते हैं।
उनके चलने की
गति ऐसी शांत
है, जैसे
कोई परदे पर
फिल्म को बहुत
धीमी स्पीड में
चला रहा हो; बहुत
आहिस्ता है।
बुद्ध से कोई
पूछता है कि
आप इतने धीमे
क्यों चलते
हैं? तो
बुद्ध ने कहा
कि उलटी बात
है। तुम मुझ
से पूछते हो
कि मैं इतना
धीमा क्यों
चलता हूं! मैं
तुमसे पूछता
हूं कि तुम
पागल की तरह
क्यों चलते हो?
यह इतना
ज्वर, इतना
बुखार चलने
में क्यों है?
चलने में
इतनी
विक्षिप्तता
क्यों है? मैं
तो होश से
चलता हूं तो
सब कुछ धीमा
हो जाता है।
ध्यान
रहे, जितना
होश होगा, उतनी
आपकी क्रिया
धीमी हो जाएगी।
और जितना
कर्ता शून्य
होगा, उतना
क्रियाओं में
से उन्माद, ज्वर चला
जाएगा; क्रियाएं
शांत हो
जाएंगी।
और
ध्यान रहे, शांत
क्रियाओं से
पाप नहीं किया
जा सकता। अगर
आप किसी की
हत्या करने जा
रहे हैं और
धीमे— धीमे जा
रहे हैं, तो
पक्का समझिए,
हत्या—वत्या
नहीं होने
वाली है। अगर
आप किसी का
सिर तोड्ने
को खड़े हो गए
हैं और बड़े
आहिस्ता से
तलवार उठा रहे
हों, तो
इसके पहले कि
तलवार उसके
सिर में जाए, म्यान में
वापस चली
जाएगी।
उतने
धीमे पाप होता
ही नहीं। पाप
के लिए ज्वर, त्वरा, तेजी चाहिए।
और जो आदमी
तेजी से जी
रहा है, वह
चाहे पाप कर
रहा हो, न
कर रहा हो, उससे
बहुत पाप
अनजाने होते
रहते हैं।
उसकी तेजी से
ही होते रहते
हैं। उसके
ज्वर से ही हो
जाते हैं।
ज्वर ही पाप
है।
बुद्ध
कहते हैं, जैसे ही
होश से करोगे,
सब धीमा हो
जाएगा।
रास्ते पर
चलते वक्त
अचानक खयाल कर
लें; एक
गहरी श्वास
लें, ताकि
खयाल साफ हो
जाए और धीमे
से देखें कि
आप चल रहे हैं।
खाली
बैठे हैं; आंख बंद
कर लें और
देखें कि आप
बैठे हुए हैं।
आंख बंद करके
बराबर आप देख
सकते हैं कि
आपकी मूर्ति
बैठी हुई है।
एक पैर की तरफ
से देखना शुरू
करें कि पैर
की क्या हालत
है। दब गया है।
परेशान हो रहा
है। चींटी काट
रही है। ऊपर
की तरफ बढ़े।
पूरे शरीर को
देखें कि आप
देख रहे हैं।
आप देखते—देखते
ही बड़ी गहरी शांति
में उतर
जाएंगे, क्योंकि
देखने में
आदमी साक्षी
हो जाता है।
रात
बिस्तर पर लेट
गए हैं। सोने
के पहले एक
पांच मिनट आंख
बंद करके पूरे
शरीर को भीतर
से देख लें।
शायद
आपको पता हो
या न हो, पश्चिम तो
अभी एनाटॉमी
की खोज कर
पाया है कि
आदमी के शरीर
में क्या—क्या
है। क्योंकि
उन्होंने
सर्जरी शुरू
की, आदमी
को काटना शुरू
किया। यह कोई
तीन सौ साल
में ही आदमी
को काटना संभव
हो पाया, क्योंकि
दुनिया का कोई
धर्म लाश को
काटने के पक्ष
में नहीं था।
तो पहले सर्जन
जो थे, वे
चोर थे।
उन्होंने
लाशें चुराई
मुरदाघरों से,
काटा, आदमी
को भीतर से
देखा। लेकिन
योग हजारों
साल से भीतर
आदमी के संबंध
में बहुत कुछ
जानता है।
अब ये
पश्चिम के
सर्जन कहते
हैं कि पूरब
में योग को
कैसे पता चला
आदमी के भीतर
की चीजों का? वह पता
काटकर नहीं
चला है। वह
योगी के
साक्षी भाव से
चला है।
अगर आप
भीतर साक्षी
भाव से प्रवेश
करें और घूमने
लगें, तो
थोड़े दिन में
आप अपने शरीर
को भीतर से
देखने में
समर्थ हो
जाएंगे। आप
भीतर का हड्डी,
मास—मज्जा,
स्नायु—जाल
सब भीतर से
देखने लगेंगे।
और एक बार
आपको भीतर से
शरीर दिखाई
पड़ने लगे, कि
आप शरीर से
अलग हो गए।
क्योंकि
जिसने भीतर से
शरीर को देख
लिया, वह
अब यह नहीं
मान सकता कि
मैं शरीर हूं।
वह देखने वाला
हो गया, वह
द्रष्टा हो
गया।
चौबीस
घंटे में जब
भी आपको मौका
मिल जाए, कोई भी
क्रिया में, साक्षी को
सम्हाले।
साक्षी के
सम्हालते दो
परिणाम होंगे।
क्रिया धीमी
हो जाएगी, कर्ता
क्षीण हो
जाएगा; और
विचार और
बुद्धि कम
होने लगेंगे,
विचार शांत
होने लगें।
बुद्धि का ऊहापोह
बंद हो जाएगा।
कोई
छोटा—सा
प्रयोग। कुछ
नहीं कर रहे
हैं; श्वास
को ही देखें।
श्वास भीतर गई,
बाहर गई।
श्वास भीतर गई,
बाहर गई। आप
उसको ही देखें
लोग
मुझसे पूछते
हैं, कोई
मंत्र दे दें।
मैं उनसे कहता
हूं मंत्र
वगैरह न लें।
एक मंत्र
परमात्मा ने
दिया है, वह
श्वास है।
उसको देखें।
श्वास पहला
मंत्र है।
बच्चा पैदा
होते ही पहला
काम करता है
श्वास लेने का।
और आदमी जब
मरता है, तो
आखिरी काम
करता है श्वास
छोड़ने का।
श्वास से घिरा
है जीवन।
जन्म
के बाद पहला
काम श्वास है; वह पहला
कृत्य है। आप
श्वास लेकर ही
कर्ता हुए हैं।
इसलिए अगर आप
श्वास को देख
सकें, तो
आप पहले कृत्य
के पहले पहुंच
जाएंगे। आपको
उस जीवन का
पता चलेगा, जो श्वास
लेने के भी
पहले था, जो
जन्म के पहले
था।
अगर आप
श्वास को
देखने में
समर्थ हो जाएं, तो आपको
पता चल जाएगा
कि मृत्यु
शरीर की होगी,
श्वास की
होगी, आपकी
नहीं होने
वाली। आप
श्वास से अलग
हैं।
बुद्ध
ने बहुत जोर
दिया है अनापानसती—योग
पर, श्वास
के आने—जाने
को देखने का
योग। वे अपने
भिक्षुओं को
कहते थे, तुम
कुछ भी मत करो,
बस एक ही
मंत्र है, श्वास
भीतर गई, इसको
देखो; श्वास
बाहर गई, इसको
देखो। और जोर
से मत लेना।
कुछ करना मत
श्वास को, सिर्फ
देखना। करने
का काम ही मत
करना। सिर्फ
देखना।
आंख
बंद कर ली, श्वास ने
नाक को स्पर्श
किया, भीतर
गई, भीतर
गई। भीतर पेट
तक जाकर उसने
स्पर्श किया।
पेट ऊपर उठ
गया। फिर
श्वास वापस
लौटने लगी।
पेट नीचे गिर
गया। श्वास
वापस आई।
श्वास बाहर
निकल गई। फिर
नई श्वास शुरू
हो गई। यह
वर्तुल है।
इसे देखते
रहना।
अगर आप
रोज पंद्रह—बीस
मिनट सिर्फ
श्वास को ही
देखते रहें, तो आप
चकित हो
जाएंगे, बुद्धि
हटने लगी।
साक्षी जगने
लगा। आंख
खुलने लगी
भीतर की। हृदय
के द्वार, जो
बंद थे जन्मों
से, खुलने
लगे, सरकने
लगे। उस सरकते
द्वार में ही
परमात्मा की
पहली झलक उपलब्ध
होती है।
साक्षी
द्वार है; बुद्धि
बाधा है।
पांच
मिनट रुकेंगे।
कीर्तन में
सम्मिलित हों
बैठकर। अगर
सम्मिलित न हो
सकें, तो कम से कम
साक्षी भाव से
देखें।
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