मृत्यु से साक्षात्कार
मुझे जब तक याद है शायद वो सितम्बर का महीना था। बरसात अभी गई नहीं थी। कभी कभार अचानक रिम—झिम फुहार पड़ ही जाती थी। वैसे धूप में इन दिनों बहुत अधिक गर्मी हो जाती थी क्योंकि बादलों के बीच से जो छन कर धूप आती थी। वह धूप बहुत कर्कश और तेज शरीर में बहुत चुभती थी। बरसात के इन दो-तीन महीनों के दिनों में हम लोग जंगल कम ही जाया करते थे। क्योंकि इन दिनों बढ़ी हुई घास के कारण जंगल में सांप वगैरह का ज्यादा भय रहता था। और खास कर श्याम के समय जब पुरवा हवा चलती थी तो वे बिल से बाहर निकल आते थे। और ठंडी नरम रेत में लेटना सांप को बहुत प्रिय होती है। दिन भर की तपीस को शांत करने के लिए इस समय अकसर बिल के बहार निकल कर ठंडी मुलायम रेत में अकसर लेट जाते थे। वैसे कहते है कि हमारे यहां का सांप प्राकृतिक रूप से बहुत शांत है, बहुत मजबूरी में अपने बचाव के लिए ही लोगों को डसता था। जितनी तादाद में यहां पर सांप पाये जाते है उसकी बनिस्बत बहुत कम लोगों की मौत सांप के काटने से होती थी। वरना जितने साँपों की तादाद यहां है उस हिसाब से बहुत लोगों का डस लेना चाहिए था। इसी अरावली पर्वत माला में क़ुतुब का स्तंभ भी है जिसे भीम की कीली कहां जाता है। जब पांडव यहां आये तो इसका नाम खांडव वन था। प्राचीन काल में आदिवासियों कबीले के रूप में रहते थे। जो सांप को बहुत मान सम्मान देते थे। कहते है अंग्रेजों ने जब दिल्ली को राजधानी बनाया तो एक सांप के डर के कारण एक सांप पर एक रूपये का इनाम रखा था। परंतु यहां के लोग भी कितने चलाबाज थे। वो सांप को पालने लग गए। तब जाकर अंग्रेजों ने इनाम बंद किया। उससे पहले नाहुस हो या ययाति की भी भव्य नगरी यही इंद्रप्रस्थ हुआ करती थी।
यमुना नदी के किनारे, लम्बी काटती अरावली पर्वत माला जो गुजरात से शुरू होकर हिमालय तक चली जाती थी। इसी लम्बी पट्टी के कारण हिमालय की उत्पती हुई थी। अरावली वन स्थली के कारण इस शहर को अति रमणीय बना देती है, पास ही हिमालय और घने जंगलों के कारण यहां करीब हर माह का मौसम अलग रंग रूप ले लेता है। दोनों ऋतुओं का नहीं चार ऋतुओं का मिलन होता है। हमारी इस दिल्ली में।
परंतु एक बात यह भी थी कि यहां कोबरा जाति सांप बहुतायत में पाये जाते है। जो की बहुत ही जहरीला होता है आप को काटा नहीं की आप की मृत्यु शर्तिया समझो। पर अब तो दिल्ली में बरसात के चौमासा नाम मात्र के कहने भर के रह गये थे। भला ये बरसात चार बार भी हो जाये तो गनीमत समझो माह की बात तो दिनों में बदल गई थी। चौमासा ये देशी नाम तो अब किताबी बन कर रह गये है। चौमासा की वर्षा मात्र अब तो चार बार आई और फुर्र से चली गई। बेचारे ये पेड़ पौधे प्यासे और अरमान भरी आंखों से देखते ही रह जाते है आसमान की और। धरती का सीना प्यासा ही रह जाता है। घास है की उगने से पहले ही सुखनी शुरू हो जाती है। पर फिर भी प्रकृति बड़ी ही विस्मयकारी है। एक तरह तो वह देखने में कितनी कुरूर लगती है। दूसरी तरफ किस नियम से अपना काम करती रहती है, बिना किसी आहट के।
जंगल में आप जा कर कह नहीं सकते की इतनी कम बरसात हुई है। जंगल अपनी हरियाली को इतनी कम बरसात के कारण भी खूब हरा भरा बनाये हुए था। एक और बहते बरसाती झरने जो पूरे जंगल को जीवित करते हुए चलते थे। और दूसरा जो जंगली काबुली कीकर, वह तो जितनी अधिक गर्मी होगी वह उतनी ही फलती फूलती नजर आयेगी आपको। एक तो गधा दूसरा ये काबुली कीकर गर्मी के मौसम में अधिक ही कुछ मस्त रहते है। शरद ऋतु तो काबुली कीकर को बिलकुल अच्छी नहीं लगती। उस समय वह अपने किस तरह से सारे पत्ते उतार कर केवल टहानीयों को लिए खड़ी रह जाती है। आपको लगेगा की पूरा जंगल सूख गया है। और जरा सी बसंती हवा चली नहीं की उसकी टहानियां अठखेलिया करना शुरू कर देंगी। तेज हवा में मानो वह नाचना और गुनगुना शुरू कर देती है। क्योंकि प्रकृति अपना काम बड़ी सहजता से करती है। पुराने पत्तों को गिराना है तभी तो नये आ सकेंगे। अगर ज्यादा बरसात हो जाये तब वह काबुली कीकर भी उदास हो जाती है। बरसात के बाद पोखरों और नालों में जो पानी रह जाता है, वह कितने दिनों तक जंगल की गरमी में भी खूब हरा भरा बनाये रहता है। जो ज्यादा पानी वाले पेड़ है, नाले के आस पास उगे मस्त झूम रहे होते है। बस कुछ घास ही है जो ज्यादा बरसात में अपना विकास कर मनुष्य से भी ऊँची हो जाती है। जब बरसात कम होती है तो वह कम ऊंची होती है। जंगल का कुछ खास हिस्सा ही आपको बता देता है कि कितनी बरसात हुई है। टोनी को मरे हुए करीब दो महीने हो गये होंगे।
जब भी जंगल के उस हिस्से से गुजरते जहां पर टोनी को दबाया था उसकी बहुत याद आती थी। बरसात के बाद उस जगह को पहचाना भी अति कठिन था। शायद में अकेला होता तो कभी उसे नहीं खोज भी नहीं पाता। परंतु पापा जी तो जंगल का एक—एक चप्पा जानते थे। वह जो नरम मुलायम मिटी पर पत्थर रखे थे उन के बीच जो झेझरू, और घास फूस उग आई थी। वहीं पर है टोनी का शरीर, अपनी एक गहरी नींद में सोया हुआ। और दो चार साल बाद तो उस जगह पहचानना ही मुश्किल हो जायेगा। बेचारा टोनी अंदर पता नहीं किस हाल में होगा। नमक के कारण सड़ गया होगा। जीवन के वे मधुर क्षण उसके साथ लड़ झगड़ा और खेल कर गुजार थे। वे में कभी भूल नहीं पाया। वो यादें बाल पन के कारण अति अचेतन में उतर गई थी। उसके साथ खेलना मस्ताना कितना अच्छा लगता था। कैसे हम आपस में खेल—खेल में ही लड़ पड़ते थे। ज्यादातर तो वह लड़ाई मेरी ही तरफ से शुरू होती थी। वह तो अपना बचाव करने की मुद्रा में ही सामना करता था। पर वह था मुझसे ज्यादा ही समझदार। वह खेल—खेल में कैसे पीछे वाले पैरो पर खड़ा हो जाता था। वह मोटा था पर अपना संतुलन कितने आराम से बना लेता था। वह किस तरह से अगले दोनों पैरो को पापा जी या मम्मी के ऊपर रख कर मुंह खोल कर दाँत निकाल कर हंसता था।
उसको अपने अगले पैरों पर खड़ा होने का बहुत शौक था। सब कहते थे टोनी का कुत्ते बनने का ये पहला जन्म है। क्योंकि वह तो कुत्ते के रीति रिवाज जानता ही नहीं। पिछले जन्म में उसके भालू होने के बहुत ज्यादा लक्षण उसमें दिखाई देते थे। सच में वो ऐसा ही लगता था। वह तरबूज, केला, सेब, संतरा, बेलपत्र खाने के लिए तो वह मुझ से लड़ जाता था। वह लगभग सभी फल खाता था। मैंने भी उसकी ही देखा देखी बहुत से फल खाने की कोशिश जरूर की पर खा नहीं पाया। केला तरबूज, बेलपत्र, सेब, चेरी....बस इन में आम ही मेरी प्रिय फल बन सका वरना मैं और फलो के खाने कि कितनी नाकाम कोशिश करता रहा पर हर बार हार गया। उन्हीं फलों को जब टोनी को खाते देखता तो मुझे बड़ा अचरज भी होता था। शहद और शहद से बनी कोई चीज देख कर वह पागल हो जाता था। उसकी नाक और बुद्धि मुझसे कही अधिक संवेदना से कार्य करती थी। सच ही वह एक समझदार कुत्ता था मेरा दोस्त।
दीदी उसके लिए कितनी बार शहद वाले बिस्किट लाती थी। वह दीमक चींटी, या उड़ते किसी कीड़े को पल भी में पकड़कर खा जाता था। कितनी बार उसने उस पीले वाले ततैये को भी पकड़ा और मार कर खा गया। जो बहुत जोर से डंक मरता था। जब भी मैंने उसकी देखा—देखी नकल की तो मेरा तो बुरा हाल हो गया। बाबा रे वह तो बहुत ही खतरनाक है। टोनी ने जाने कैसे ये सब कर पाता है। उसके काटने से मेरा मुँह सूज कर मोटा हो गया था। सब लोग मेरी उस आदत के कारण मेरा मजाक भी उड़ाते थे। उसकी सूँघने की शक्ति भी मुझ से बहुत अधिक थी। वह टाँग उठा कर किसी बिजली के खंबे पर भी पेशाब नहीं करता था। मुझे देख कर भी वह कभी नहीं सीख पाया। मैंने अभी तक कोई भी ऐसा कुत्ता अपने जीवन मैं नहीं देखा जो इस चिर परिचित आदत से अंजान हो पर टोनी ऐसा ही था। बस पहला और आखिरी टोनी ही था।
बहुत कुछ टोनी में इन थोड़े से गुण अवगुणों को मैंने देखा जो, और वह आज भी मेरे चित पर उसी तरह से चिपके हुए थे। मैं कभी उन्हें अपने चित से उतरना भी नहीं चाहता। टोनी चला गया, और दे गये मीठी यादें और उनसे जुड़ा कुछ दर्द।
जंगल गर्मी के मौसम में जैसा होता है, ठीक बरसात के बाद तो वह पूर्णतः: नया हो जाता है। आप एक बार वो सब रास्ते भूल जायेगे जो आपने दो महीने पहले भली भाँति जानें थे। अचानक कुछ दूर दौड़ने के बाद मेरे पेट में ऐंठन सी शुरू हो गई। जैसे कोई मेरी आंतों को मरोड़ रहा हो। जी मिचलाने लगा। मैं खड़ा हो गया। पापा जी थोड़ा आगे चले गये थे। मुझे अपने साथ आता ने देख उन्होंने पीछे मुड़ कर मुझे आवाज लगाई। पर आवाज भी मेरे कानों की उपरी परत से ही छू कर गुजर गई, और मुझे लग रहा था मेरे ऊपर कोई बेहोशी की परत चढ़ती जा रही है।
जैसे आप पानी के अंदर होते है और कोई आपको आवाज दे, आप उसे सुन और देख तो रहे है परंतु शब्द आपकी समझे के बाहर रह गए। मेरी आंखों के सामने अँधेरा छा रहा था। अचानक शरीर में ठंड लगने के कारण कंपकंपी छूट रही थी। जब में दो तीन आवाज के बाद भी पापा जी के पास नहीं पहुंचा तब पापा जी ने मुड़ कर मेरी और देखा। क्या बात हे! मुझे अपने पीछे आया ने देख के मेरे पास लोट कर आये। मुझे यूं खड़ा हुआ देख कर कुछ असमंजस में पड़ गये थे। शायद मेरे चेहरे पर दर्द की छाया उन्हें दिखाई दे गई थी। वह मेरे पास बैठ कर मेरे सर और पीठ पर हाथ फेरने लगे। मेरा पूरा शरीर ठंड से कांप रहा था। अचानक मेरे पेट में दर्द उठा मैं दोहरा हो कर लेट गया। लगा की पेट का सब कुछ बहार निकलने के लिए तैयार है। और जोर से पानी के साथ जो मैंने खाया था वह बहार आ गया। मेरी आंखें मारे दर्द के लाल हो गई।
मुझे चक्कर आ रहे थे मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था, मेरे मुंह से पानी निकलने लगा। दो चार कदम चलने के बाद मेरे बहुत जोर से पेचिश हुई जिस में खून की कुछ बुंदे भी थी। तब पापा जी घबरा गये और मुझे चेन से बाँध कर घर की और चल दिये। परंतु मेरे चलने की हिम्मत जवाब दे गई थी। फिर भी मैं किसी तरह चल रहा था। गांव के पास तालाब पर पहुंच कर मैंने दोबारा दस्त किए। अब की बार उनमें खून अधिक था। मेरे पखाने से इतनी बदबू आ रही थी की जंगल जैसी खुली जगह पर भी पापा जी ने नाक पर कपड़ा रख लिया। अब पापा को कोई शक नहीं रहा की मेरी भी हालत टोनी जैसी हो गई है। तब उन्होंने कपड़े खराब होने की परवाह भी नहीं की और मुझे अपनी गोद में उठा लिया। और तेज कदमों से घर की और चल दिये या शायद दौड़ने लगे। मेरी आंखें बंद हो रही थी ऐसा लगा रहा था नींद आ रही है। थोड़ी दूर चलने के बाद मेरे पेट में फिर दर्द उठा पर अगर में उलटी करता तो पापा जी के सारे कपड़े खराब हो जाते। इतनी देर में हमारी दुकान आ गई पापा जी ने मुझे जमीन पर उतार दिया। मेरे मुंह में भरी उलटी वहां पर फेल गई।
मम्मी जी ने जब मेरी ऐसी हालत देखी तो वह भी घबरा गई। क्योंकि टोनी को तो इस हालत के कारण हम सब पहले ही उसे खो चूके थे।
तब पापा जी ने कहां की वह जो जानवरों के डा0 का एक बोर्ड हमने उस दिन देखा था। वह शायद कुत्तों का इलाज जरूर करता होगा। दीदी (अन्नू) के साथ पोनी को ले कर जाते हूं, अब देर करनी ठीक नहीं है। देखा आपने टोनी बेचारा को एक ही रात में मर गया। अब ये भी मर जायेगा तो बहुत दुःख होगा। मम्मी जी मेरे मरने के बारे में सुन का कुछ उदास हो गई। दुकान से एक कपड़ा ले कर पापा जी ने पहले मुझे उस में लपेटा और फिर मुझे गोद में उठा कर घर की और चल दिये। घर पहुंच कर दीदी को आवाज दे कर बुलाया की पोनी की हालत कुछ ठीक नहीं है। दीदी भाग कर आई। मुझे देख कर कहने क्या हो गया इसे।
पापा जी ने कहा जल्दी चलो। किसी डा. के पास ले जाना होगा इसे। पोनी को दस्त और उल्टी हो गये है। दीदी तो यह सून कर रोने लगी, वह मुझे सबसे अधिक चाहती थी। हालांकि जब तब में उसको गुर्रा भी देता था। उस का रोना सुन कर अंदर से वरूण और हिमांशु भैया भी बहार निकल कर देखने लगे की दीदी क्यों रो रही है। पापा जी ने सब को धीरज बंधाया कि पोनी ठीक हो जायेगा। तुम घबराओ मत। हम अभी इसे दवाई दिलाकर लाते है। और देखना पोनी ठीक हो जायेगे। और मैं ये सब टूटे—टूटे शब्दों में सून रहा था।
मेरी आंखें बंद हो गई थी। पापा जी स्कूटर पर मुझे और दीदी को बिठा कर चल दिये। इस बीच एक और कपड़ा मेरे नीचे बिछा दिया। ताकी दीदी के कपड़े खराब न हो। एक मकान के नीचे जा कर घंटी बजाईं दो तीन बार घंटी बजाने के बाद किसी ने दरवाजा खोला, पापा जी ने किसी से कुछ बात की दीदी तब तक मुझे गोद में लिए बैठी रही। बात शायद नहीं बनी। हम आगे की और चल दिये, इधर उधर बहुत भटकते और पूछते हुए घूमते रहे। इस बीच मुझे फिर एक बार उल्टी हुई। पास से जब कोई गाड़ी गुजरती या उस की रोशनी मेरी आंखों में पड़ती तब में थोड़ी सी आँख खोलता वरना बंद कर लेता।
मैंने टोनी को इस हालत में देखा था। मैं समझ गया की अब मेरा भी वक्त आ गया। इतना ही जीवन लिखा था, जो कुछ अच्छा या कुछ खराब किया अब कुछ करने के लिए शायद में कभी उस घर में लोट कर न आऊं और मुझे भी टोनी के पास ही सुला दिया जायेगा। मेरी साँसे गहरी हो रही थी। आंखों में एक प्रकार का नशा चढ़ रहा था। लगता था अब मुझे कोई छेड़े ना और में आराम से सो जाऊं। क्या मौत इतनी मधुर होती है तब हम क्यों उससे डरते है। दिल की धड़कन बहुत तेज हो गई थी शरीर गर्मी के मारे जल रहा था। सांस भी इतनी गर्म थी की मेरा मुंह मेरी आंखें भी गर्मी के कारण जल रही थी। हाथ पैर सुन हो गये थे। पूछ जो हमेशा मेरा कहा मानती थी, वह भी आज मेरी होकर मेरी नहीं थी। मैं उसे हिलाना चाहूं तो नहीं हिला पा रहा था।
किसी तरह पूछते हुए हम एक बड़ी सी कोठी में पहुंचे ही गए। पापा जी ने स्कूटर खड़ा किया और अंदर चले गये। कुछ देर बाद आए और स्कूटर को अंदर खड़ा कर मुझे अपनी गोद में उठा लिया। पापा जी की गोद में जाते ही मुझे एक सुखद एहसास हुआ इससे पहले इस गोद का इतना सुख मैंने कभी महसूस नहीं किया। मैं कुछ क्षण के लिए अपने दुख दर्द को भूल गया। दीदी बार—बार मुझे छू कर कुछ कह रही थी पर मेरा मस्तिष्क निष्क्रिय सा हो गया था। कोई संदेश उस तक नहीं पहुंच रहा था। दीदी मेरी ऐसी हालत देख कर रो रही थी। पापा जी ने उसे समझाया की डरने की कोई बात नहीं अब तो डा. का घर आ गया अभी दवाई देंगे। और देखना पोनी एक दम से ठीक हो जायेगा। दीदी बेचारी बच्चा ही तो थी, घबरा रही थी न जाने मेरा क्या हो... फिर भी पापा जी कि बात सून कर दीदी चुप हो गई थी। बेचारी इतना तो भरोसा बच्चों का अपने मां बाप पर होता है। कि वे जो कह रहे है वह सत्य है। तब उसके अंदर कुछ हिम्मत आई होगी। फिर उसने रोना बंद कर दिया। मुझे अंदर एक टेबल पर लिटा दिया।
मेरा मुंह और आंखें खोल कर टार्च की रोशनी से किसी अंजान से आदमी ने मुझे देखा। मैं उसकी पकड़ से छूटना चाहता था। परंतु मेरे शरीर ने मेरी आज्ञा नहीं मानी। उस ने फिर मेरे पेट पर धीरे से हाथ मार कर बजा कर देखा। फिर पूछ उठा कर मेरे हिप्स भी देखे। मैं ये सब होते हुए देख रहा था पर हरकत करने की हिम्मत मेरे अंदर नहीं थी। डा. ने कुछ बात चीत पापा जी से की और एक इंजेक्शन मेरी जांघ और पैर की नस में लगा दिया। मुझे कुछ थोड़ा सा दर्द महसूस हुआ। तब मैंने आपने पेर झटकने चाहे पर उन्हें हिलाने की कोशिश की। डा0 और पापा जी ने मेरे पैरो को जोर से पकड़ रखा था। अब अगर मेरे पैर न भी पकड़ते होते तो कौन में उन्हें को हाला सकता था। पर पापा जी को सामने देख कर मेरी आंखों में आंसू आ गये। कि पता नहीं ये प्यारा—मुखड़ा ये मधुर आवाज फिर सुन सकूँ या न सकूँ। पापा जी मेरी बात को समझ गये और उन्होंने मुझे छू कर कहां तू ठीक हो जायेगा। मुझे अचरज हो रहा था की पापा जी ने मेरे मन की बात कैसे महसूस कर ली थी। एक आस एक उम्मीद के सहारे मैंने अपनी आंखें बंद कर ली। वो जो सूई मेरे पैर में लगाई थी उससे कुछ पानी सा मेरे शरीर में जा रहा था, एक बोतल ऊपर लटकी हुई थी। मैं रह—रह बीच में आंखें खोल कर उसे देख लेता था परंतु कुछ देर बाद अनायास मेरी आंखें आपने आप बंद हो जाती थी। परंतु कुछ ही देर में मैं समझ गया की मेरे जलते शरीर पर जैसे किसी ठंडक की हल्की सी परत डाल दी है। जैसे किसी ने मानो गर्म लोहे के ऊपर बर्फ छुआ दी हो। अंदर शीतलता के साथ—साथ दर्द भी कम हो रहा था। बार—बार मेरी आंखें बंद हो रही थी। पास ही पापा जी खड़े थे जो मेरे सर पर प्यार से हाथ फेर रहे थे।
मुझे इसी तरह कितनी देर तक लिटाए रखा। इस का मुझे कुछ पता नहीं। हां बीच—बीच में दर्द का अहसास होता तब आंखें खोल कर देखने की कोशिश करता। बाद में मुझे पता चला कि उस दिन मेरे साथ क्या किया गया था। मेरे शरीर में उलटी दस्त आने के कारण पानी की कमी हो गयी थी। तब मुझे ग्लूकोज के साथ कुछ दवाइयाँ और इंजेक्शन भी दिये गये थे। जो कि मुझे अंदरूनी ताकत दे सके। डा. ने पापा जी को कहां की पक्का नहीं कहा जा सकता की क्या होगा, हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। अब आगे भगवान की मर्जी....आज की रात इस पर बहुत भारी होगी। वहां हमें काफी देर हो गई थी। डा0 की लिखी कुछ दवाइयां पापा जी लेने के लिए पास की दवाई की दुकान पर पैदल ही चले गये थे। मैं और दीदी वहाँ पर अकेले खड़े रह गये थे। मुझे कुछ भय सा लग रहा था। पर उस समय दीदी ने मुझे अपनी गोद में लिटा रखा था।
फिर न जाने कब मुझे नींद सी आने लगी। और मैं सो गया। कभी—कभी कोई आवाज आती तो जाग जाता। पर में केवल आंखें खोल कर देख भर रहा था। जो कुछ दृश्य सामने से गुजर रहे थे वो मेरी समझ से बहार थे। कब घर आये इस बात का मुझे कुछ पता नहीं। रात भी कई—कई बार मम्मी और पापा जी ने मुझे उठा कर दवाई दी। अचानक आधी रात के समय मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा। एक घुटन सी महसूस होने लगी। शरीर में इतनी बेचैनी फैल गई की लगा इस जगह में मैं समा नहीं पा रहा था। मुझे लग रहा था की यह कमरा कुछ छोटा पड़ रहा है मेरे लिए। जो मुझे अपने में समा नहीं पा रहा ऐसा लगा कि कही दूर खुले आसमान में निकल जाऊं। जहां कोई दीवार कोई बंधन न हो। न कोई अपना हो न में किसी को देखूं। एक शून्य में जाने का मन कर रहा था। क्या ये मकान ये दीवारें मनुष्य को अधिक तनाव व बीमार नहीं करते जा रहे। यहां पर कोई पूर्णता से खुल कर जी नहीं सकता....और शायद मृत्यु भी इस घुटन को सह नहीं पा रही थी। शायद मेरा शुक्ष्म शरीर इस शरीर से बाहर निकलना चहा रहा होगा। मनुष्य भी क्या इस घुटन में नहीं मरता, इस घुटन में वह सुविधाओं के सहारे कितना बेहोश हो जी रहा है। एक घुटन भरा जीवन ही जीते है हम सब यहां पर।
इससे पहले या बाद में मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ था। इस घर में कितने महीने गुजर गये थे। परंतु एक विचित्र बात थी। क्या उस समय मेरे शरीर से छूटने का समय आ गया था। जिस के कारण ये शरीर का बंधन ये चार दीवारें मुझे कैद खान सा लग रही थी। किसी अंदर की ताकत से बहार की और भागना चाह रहा था। घर के बीचों बीच का आँगन था वह एक से खूला व कच्चा था। पापा जी को पेड़ पौधे बोने का बहुत शोक था। इस सब के कारण उसे कच्चा छोड़ रखा था। उसी कि और मैं चल दिया जहां पेड़ पौधे उगे थे। वहां की गिली मिट्टी में कुछ ठंडक थी, वहीं पर मैं थक कर गिर गया। फिर कुछ देर बाद उठा और मैंने उलटी की, पर खड़ा नहीं रह सका। और फिर शरीर निर्जीव सा हो कर वहीं निढाल हो गया। कुछ देर बाद पापा जी जब मुझे देखने के लिए आये अपने बिस्तरे में न पाकर परेशान हो गए, कि कहां चला गया। तब मुझे क्यारी में इस तरह से लेटा देख कर अपनी गोद में उठा कर अंदर ले आये। ये मेरी हरकत उन्हें भी कुछ अजीब लग रही थी। आखिर इतनी ठंड में क्यों में गिली क्यारी में पेड़ों पौधों के बीच में जा कर लेट गया था। या कभी बीच आँगन में गिरा हुआ पाता हूं। मेरे कारण उस रात मम्मी पापा भी ठीक से सो नहीं सके थे।
कितना चाहते थे इस परिवार के लोग अब ये सब मैं महसूस कर रहा था। पापा जी मुझे कपड़े में लपेट कर अपने सीने से लगा कर अंदर लाये, और मेरे शरीर की गर्म पोटली से सिकाई करने लगे। जिससे मुझे कुछ गर्मी मिले। मेरे शरीर को जिस पर मिट्टी लग गई थी उसे एक कपड़े से पोछा। परंतु में फिर कुछ ही देर में उठ कर बहार चला आता। शायद उलटी या दस्त करने या किसी और कारण से। रात भर मेरी हालत कुछ ठीक नहीं रही! बस इतनी गनीमत समझो की मैं मरा नहीं और किसी तरह से वो काली रात जो अपने अंधकार में मुझे भी अपने अंदर समान चाहती थी। वह हार गई। शायद यही मेरा भाग्य था की मैं इस घर में आ गया नहीं तो कुदरत मुझे कभी नहीं छोड़ती। मुझे आपने आगोश में ले ही लेती। जिस का कारण पापा जी की सतत देख रेख व उनका प्रेम भी एक करण बने थे। मुझे उस रात अकेले नहीं रहने दिया...ताकी मौत जब आये तो मुझे अकेला समझ कर न चुरा ले जाये। पापा जी मेरे पहरेदार बन पूरी रात मेरे आस पास डटे रहे।
पर ये भी एक चमत्कार ही था की मैं रात भर जीवित रह गया। शायद मनुष्य (पापा) के संग के कारण क्योंकि उसने आधुनिक औषधियों का विकास कर लिया है। प्राकृतिक तौर पर तो वहीं मेरा जीवन समाप्ति समझों। क्या प्रकृति सोचती नहीं होगी जिसे जीना नहीं चाहिए। जो जीवन से हार गया है। फिर कैसे उसमें इतनी शक्ति आ जाती है। और उस ने मुझे हरा दिया। उसे कुछ अचरज नहीं होता होगा ये सब देख कर। कि न जाने कौन सी बाधा मेरे काम में रूकावट बन रही है। और वह मेरे हाथों से छुड़ा कर नव जीवन दे रही है। और वह पुन: खेलने दौड़ने लग जाता है। और मुझे फिर उसका 5—10 साल तक इंतजार करना पड़ता है।
परंतु ये सब बातें सोच कर मन खराब करने का समय नहीं है। अब एक नए सूर्य के उदय के साथ-साथ जीवन का उत्सव मनाना चाहिए, उसका धन्यवाद देना चाहिए की आपने मुझे और आगे बढ़ कर कई रहस्यों को जानने के लिए जीवन दिया। लेकिन मौत के बाद का जीवन एक वरदान बन गया मेरा।
इस आने वाले अध्यायों में कुछ विस्तार से जरूर कहना चाहूंगा, परंतु ये एक काली रात जो मुझे अपने अंदर समेटने आई थी, वह हार गई और मुझे दूर क्षितिज पर एक जीवन की किरण फैलती सी नजर आ रही थी। हो सकता है वह मेरा स्वप्न हो, या मेरे जीने की इच्छा तो अंतस में कही दबी पड़ी सो रही होगी वह उठ जाना चाह रही होगी। फिर भी आप उसे कुछ भी समझ सकते है लेकिन यह सब सत्य है की मनुष्य में एक अद्भुत शक्ति है या एक चमत्कार है जो मृत प्रायः जीवन में फिर से नया अंकुर उगा सकता है। यहीं उसकी महानता है उसका गौरव है इस लिए शायद ये मनुष्य श्रेष्ठ है सभी प्राणियों में नमन है इसे शत—शत...जीवन के और पल देखने के लिए।
प्रेम आभार...
भू.....भू........ भू.......
आज इतना ही ......
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