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सोमवार, 3 सितंबर 2018

प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-02

दूसरा-प्रवचन-(ओशो) 

विश्वास से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन्!
कल की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने भेजे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि आप अतीत को भूल जाने के लिए कहते हैं, लेकिन अतीत को भूल कर तो भविष्य में मार्ग भटक जाएंगे। अतीत तो हमारा प्रेरणा-स्रोत है, अतीत का अनुभव ही हमारा आधार है।
इस संबंध में दो-एक बातें हैं, समझ लेनी जरूरी है। पहली तो बात यह है कि अतीत को भूल जाने का अर्थः अतीत की तरफ वे जो कि सम्मोहित होकर आंखें गड़ाए हुए हैं, वे जो कि हिप्नोटाइज्ड हैं, अतीत पर आंखों को टिकाए हुए हैं, उन्हें वक्त से हटा लेनी चाहिए। अतीत को भूल जाने का यह अर्थ नहीं है कि अतीत (...-अस्पष्ट) नहीं है।
अतीत को भूल जाने का यह अर्थ भी नहीं है कि अतीत से जो अनुभव उपलब्ध हुए हैं, वे नष्ट हो जाएंगे। आप बचपन को भूल जाएं, इसका यह अर्थ नहीं है कि बचपन ने जो सिखाया है और बचपन के अनुभव से, जिससे आप गुजरे हैं, वह नष्ट हो जाएगा। वह तो सदा आपके साथ है। जिस अनुभव से आप गुजरे हैं, वह अनुभव कभी नष्ट नहीं होता। लेकिन उस तरफ, उस अनुभव की तरफ आंखों को लगाए रखने से नुकसान हो सकता है।


मनुष्य की जाति जिन अनुभवों से गुजरी है वह उनके मांस-मज्जा और खून के हिस्से हो गए हैं। हम जो हैं आज वह हमारे सारे अतीत का परिणाम है। वह हमारे खून में समाविष्ट हो गया है। उसे भुलाने का इस भांति कोई भी उपाय नहीं है कि उससे हम छूट जाएं। हम अपने अतीत ही हैं। हम हैं क्या? वह जो अनंतकाल से चला हुआ इकट्ठा हो गया है, वह सब हमारे भीतर मौजूद है।
लेकिन उस पर आंख गड़ाए रखना, उसके भविष्य में गति करने में बाधा बनता है। उस पर आंख लगाए रखने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह तो हमारे साथ है, वह हमारे भीतर है, हम वही हैं। और जितना हम आगे बढ़ते हैं उससे वह नष्ट नहीं होता, वही आगे बढ़ता है। वह जो अतीत है, वही वर्तमान को पार करके भविष्य में आगे बढ़ता है। लेकिन अगर हमारी आंखें उलझी रहें अतीत में...यह भी ध्यान रख लें कि उसी बात को याद रखना पड़ता है जो हमारे प्राणों में प्रविष्ट न हो गई हो, जो प्राणों में प्रविष्ट हो गई हो उसे याद रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है।
वस्तुतः जो अतीत है, वस्तुतः जो हुआ है, वह तो हमारे खून में समाविष्ट हो गया है। लेकिन जो नहीं हुआ है और हमने कल्पना करके बांध रखा है, झूठ अतीत के नाम पर थोप रखा है, उसी को याद रखने की जरूरत पड़ती है। वस्तुतः अतीत हमारा हिस्सा है। काल्पनिक अतीत, प्रोजेक्टेड--जो हमने सोच रखा है, मान रखा है वह हमारी कल्पना है। उसको अगर हम भूल जाएंगे तो वह जरूर मिट जाएगा, वह जरूर मिट जाना चाहिए। हमने अतीत के नाम पर बहुत सी कल्पित बातें खोज रखी हैं। वे न हुई हैं, न होने का कोई कारण है। अतीत महापुरुषों के नाम पर भी हमने न मालूम क्या-क्या कल्पनाएं सोच रखी हैं। उसमें काव्य ज्यादा है, हमारी श्रद्धा ज्यादा है, सत्य बहुत कम है।
अभी सुबह ही एक मित्र आए हैं और वे कहने लगेः अजीब-अजीब बातें हैं, महावीर के लिए कहा जाता है कि वे पहले बोल रहे थे, और उन्होंने कहा कि मैं तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकता हूं कि महावीर का खून सफेद था। मैं हैरान हुआ। और उन्होंने जो दलील दी वह यह कि मां, हम जानते हैं कि मां के शरीर से जो दूध बन कर निकलता है, उसके स्तन से दूध बन कर निकलता है। तो उन्होंने कहाः देखें आप, जब मां के शरीर से सफेद दूध निकलता है, ऐसे ही महावीर के शरीर में सफेद दूध बहता था।
तो मैंने उनसे कहा कि आप ऐसी बात कह रहे हैं इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं। मां के स्तन में तो वह यंत्र है जो खून के सफेद हिस्से को अलग करता है, और लाल हिस्सों को अलग करता है। मां के शरीर भर में सफेद दूध नहीं दौड़ रहा है, यंत्र है जो खून को दो हिस्सों में तोड़ देता है, सफेद पार्टीकल को दूध की तरह बाहर ले आता है। इसके दो ही अर्थ हैंः या तो महावीर के पैर में जहां सांप ने काटा और उससे दूध निकला, वहां स्तन हो पैर न हो। और अगर पूरे शरीर में ही सफेद दूध दौड़ता रहा हो तो उसका एक ही अर्थ है कि महावीर का पूरा शरीर मां के स्तन की तरह काम कर रहा हो।
बिलकुल निहायत पागलपन की बातें हैं। कविता तक तो बात ठीक थी, काव्य तक बात ठीक थी। कवि की यह कल्पना हो सकती है कि महावीर इतने प्रेमपूर्ण हैं कि जो उन्हें काटता है, जो उन्हें काटे, जो सांप उन्हें काटे और जहर उनके ऊपर फेंके, उसके प्रति भी उनके हृदय से मां की तरह प्रेम निकलता है। यह तो समझ में आने वाली बात हो सकती है। और इसको काव्य का प्रतीक भी लिया जा सकता है। लेकिन पैर से सफेद दूध निकलता हो? दो ही रास्ते हैंः या तो पूरा शरीर स्तन की तरह काम कर रहा हो, या शरीर में मवाद पड़ गई हो। खून न हो, पूरा शरीर सड़ गया हो। और महावीर जैसे स्वस्थ आदमी का शरीर सड़ा हुआ नहीं हो सकता।
लेकिन इस तरह की बातें हम सोचे हुए हैं। महावीर के लिए कहा जाता है कि वे रास्ते से अगर निकलते हों और कांटा पड़ा हो तो कांटा उन्हें आता देख कर, अगर सीधा हो तो जल्दी से उलटा हो जाता है, जिससे महावीर के पैर में कांटा न लग जाए। यह काव्य तो बहुत सुंदर है। और काव्य तक रहे तो बड़ा प्रीतिकर है। जरूर ही महावीर जैसे प्यारे आदमी के पैर में कांटे को गड़ना नहीं चाहिए। लेकिन कांटा कोई फिकर नहीं करता, कांटा किसी की फिकर नहीं करता, और किसी को देख कर उलटा नहीं हो जाएगा।
मोहम्मद के लिए कहा जाता है कि मोहम्मद तो रेगिस्तान में थे। तो जहां भी जाते उनके सिर पर एक बदली हमेशा छाया बनी हुई घूमती रहती, छतरी की तरह घूमती। काव्य तक बात ठीक है, हमारा प्रेम प्रकट होता है। यह भी ठीक है कि मोहम्मद जैसे आदमी के ऊपर बदली की छाया होनी चाहिए। लेकिन कोई बदली किसी के ऊपर छाया नहीं कर सकती। अभी हमने देखा कि गांधी को गोली लगी तो गोली फूल नहीं बन गई। वह हमारे सामने हुआ है। गांधी की हड्डियों को गोलियों ने उसी तरह छेद दिया, जैसे किसी बुरे से बुरे आदमी की हड्डियों को छेद देती हैं। गोलियों ने कोई फिकर नहीं की कि गांधी की हड्डियां हैं इनको मत छेदो, फूल बन जाओ।
लेकिन आने वाले भविष्य में ऐसा हो सकता है। कहानी ऐसी गढ़ी जा सकती हैं कि गोलियां तो मारी गईं लेकिन गोलियां छू न सकीं। जीसस को सूली पर लटकाया गया तो जीसस मर गए। लेकिन पीछे कहानियां गढ़ी गईं कि वे मरे नहीं, वे पुनरुज्जीवित हो गए। फिर पुनरुज्जीवित होकर वे कब मरे इसकी कोई कथा नहीं है। फिर वे मरे भी कि नहीं मरे, इसका भी कोई पता नहीं है।
अतीत के नाम पर हमने बहुत कुछ थोपा है। और वह जो थोपा है, वह जरूर अगर हम इस पर आस्तिकता छोड़ दें तो वह विलीन हो जाएगा। लेकिन वह विलीन हो जाना चाहिए। इससे मनुष्य के संबंध में और मनुष्य के स्वभाव के संबंध में सच्ची बातें स्पष्ट नहीं होतीं, झूठे फिक्शन और कहानियां खड़ी होती हैं।
अभी-अभी मित्र ने एक सुबह मुझे कहा कि महावीर आहार तो करते हैं, भोजन तो लेते हैं, लेकिन टट्टी-पेशाब नहीं जाते, विहार नहीं करते। अब यह, ये सारी की सारी बातें हम थोपे हुए हैं। व्यक्तियों के ऊपर भी, युगों के ऊपर भी हमने इस तरह की बातें थोपी हैं। हमने अतीत की एक कल्पना बना रखी है। और इस कल्पना पर हम सम्मोहक की तरह अटके हुए हैं।
जब मैं कहता हूं कि अतीत को भूल जाओ। तो मेरा मतलब हैः यह सारा सम्मोहन का जाल जो हमने पीछे फैला रखा है, उसे हटाओ और तथ्यों को देखो। ताकि आगे कहीं एक सुंदर जीवन निर्मित हो सके। लेकिन उस जीवन को निर्मित करने के लिए तथ्य, फैक्ट्स देखने पड़ेंगे। उस जीवन को निर्मित करने के लिए उपन्यासिक कल्पनाएं और कवियों की कल्पनाओं में नहीं भटक जाना पड़ेगा। लेकिन हम तो तथ्यों को देखने के आदी ही नहीं हैं। हम तो धीरे-धीरे इतने पुराण-कथाओं में खो गए हैं कि तथ्यों को देखने की आदत ही जैसे हमें भूल गई हो।
अभी मैंने एक किताब पढ़ी। डेग्नीज नाम का एक पश्चिमी यात्री भारत आया। उसने स्वामी शिवानंद की एक किताब पढ़ी। जिस किताब में लिखा हुआ था कि ओम का पाठ करने से सब तरह की बीमारियां दूर हो जाती हैं। ऐसी कोई बीमारी नहीं है जो ओम के पाठ करने से दूर न हो जाती हो। और न केवल यही, यह भी लिखा हुआ था कि अगर कोई ठीक से, परिपूर्ण रूप से ओम का पाठ करे तो मृत्यु पर भी विजय पा सकता है। उसके पास मृत्यु फटक नहीं सकती। वह किताब हिंदुस्तान में हजारों लोगों ने पढ़ी है, और वही किताब अकेली नहीं है। ऐसी हजारों किताबें हैं जिनमें इस तरह की बातें लिखी हैं। लेकिन हममें से तो कोई उसकी खोज-बीन करने नहीं गया। लेकिन वह डेग्नीज जो था, पढ़ कर उसे जब यह पता चला कि स्वामी शिवानंद संन्यासी होने के पहले डाक्टर भी रह चुके हैं। तब तो उसने सोचा कि यह आदमी कुछ तथ्य की बात कह रहा होगा।
वह डेग्नीज सीधा ऋषिकेश पहुंचा गया और जाकर उसने स्वामी शिवानंद के सेक्रेटरी से जाकर कहा कि मुझे अभी स्वामीजी से मिलना है। उन्होंने इतनी अदभुत बात लिखी है कि अगर यह सच है तो मनुष्य-जाति के जीवन में अमृत की वर्षा हो जाएगी! फिर दवाओं की कोई जरूरत नहीं, मेडिकल कालेजों की कोई जरूरत नहीं, किसी तरह की परेशानी की जरूरत नहीं, सारी बीमारियां दूर हो जाएंगी। इतना अदभुत सूत्र उन्होंने खोज लिया। मैं एकदम उनके दर्शन करना चाहता हूं। उस सेक्रेटरी ने कहा कि अभी आप नहीं मिल सकते, स्वामीजी बीमार हैं और डाक्टर उनकी नब्ज देख रहा है।
उस डेग्नीज ने कहाः क्या कहते हो? मैं विश्वास ही नहीं कर सकता कि स्वामीजी कभी बीमार पड़ सकते हैं! क्योंकि उन्होंने तो अपनी किताब में लिखा है कि ओम का पाठ करने से कोई बीमारी कभी पास भी नहीं फटकती।
अब तो स्वामीजी मर भी चुके हैं। लेकिन अगर हम, पहली तो बात हम गए ही नहीं होते। क्योंकि हममें से किसी की बुद्धि में यह बात पैदा नहीं होगी कि इस तरह की कहानियां गढ़ना अनैतिक है। इस तरह की कहानियां गढ़ना समाज को, देश को भटकाने और भरमाने के रास्ते हैं। किसी को खयाल ही पैदा नहीं होगा। और अगर हममें से कोई गया भी होता, और स्वामीजी बीमार मिल जाते तो हमारा भक्त हृदय कहता कि स्वामी जी लीला दिखा रहे हैं। वे कभी बीमार पड़ सकते हैं? वे भक्तों की परीक्षा ले रहे हैं। जो भक्त श्रद्धावान होगा वह जानता है कि स्वामीजी कभी बीमार नहीं पड़ सकते हैं। जो नास्तिक हैं, उनको दिखाई पड़ेगा कि बीमार पड़ रहे हैं। स्वामीजी कभी बीमार पड़ते हैं!
वह डेग्नीज तो बहुत परेशान हुआ। उसने सेक्रेटरी को कहा कि मैं यह मान ही नहीं सकता। वह सेक्रेटरी बोला कि मानें या न मानें। तो उसने कहाः फिर उन्होंने लिखा क्यों है किताब में? तो उस सेक्रेटरी ने कहाः उन्होंने आत्मा के लिए लिखा होगा। आत्मा कभी न बीमार पड़ती है, और न कभी मरती है। यह शरीर तो क्षणभंगुर है, यह तो मरेगा।
लेकिन आत्मा बीमार ही नहीं पड़ती है, ओम का पाठ करो या न करो। ओम का न पाठ करो तो आत्मा बीमार पड़ जाएगी? और आत्मा अगर नहीं मरती तो ओम का जो पाठ नहीं करते उनकी मर जाएगी? तो आत्मा के संबंध में अगर यह लिखा गया है तब तो लिखना बिलकुल फिजूल है। तुम चाहे पाठ करो और चाहे न करोः वह मरने वाली नहीं है, अगर नहीं मरने वाली है तो। और वह बीमार ही नहीं पड़ती है तो उसका पक्ष रखने का कोई सवाल ही नहीं है। लिखा तो यह शरीर के लिए ही गया है। लेकिन हमारी बुद्धि तथ्यों में सोचने वाली नहीं है। वे जो फैक्ट्स हैं, जीवन के जो तथ्य हैं, उनमें सोचने वाली नहीं है। हम सोचते हैं कल्पनाओं में। और कल्पनाओं में सोचने के कारण ही इस देश में विज्ञान का, साइंस का जन्म नहीं हो सका है।
और मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि जब तक इस देश में एक वैज्ञानिक बुद्धि का, एक साइंटिफिक माइंड का जन्म नहीं होता, तब तक इस देश के भाग्य में सूर्योदय भी नहीं हो सकता है। आज हम विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं, बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं। लेकिन फिर भी मैं आपसे कहना चाहता हूं कि विज्ञान की शिक्षा काफी नहीं है, वैज्ञानिक चित्त पैदा होना चाहिए। वैज्ञानिक चित्त न हो और अकेले विज्ञान की शिक्षा दी जाए तो टेक्नीशियन तो पैदा हो जाता है, साइंटिस्ट पैदा नहीं हो सकता। और वही हो रहा है। हमारे पास डाक्टर हैं, इंजीनियर हैं, एम.एससी हैं, बी.एससी. हैं, लेकिन उनमें वैज्ञानिक कोई भी नहीं है। वे केवल तोतों की तरह सीख कर खड़े हो गए हैं।
मैं अभी कलकत्ते में एक डाक्टर के घर में मेहमान था। वे डाक्टर तो एस आर पीएस थे, पश्चिम में शिक्षा ली है। सांझ को मुझे अपनी गाड़ी में बैठा कर वे म्यूजियम में ले जाने को थे कि उनकी लड़की को छींक आ गई। वह एस आर पीएस डाक्टर मुझसे बोला, एक-दो मिनट रुक जाइए। मैंने उनसे कहाः पागल हो गए हो, तुम तो डाक्टर हो। तुम तो भलीभांति जानते हो कि छींक कैसे आती है? और तुम्हारी लड़की के छींक के आने से मेरे रुक जाने का कोई तीन काल में संबंध नहीं है। तुम डाक्टर होकर ऐसी बात करते हो तो मुझे हैरानी में डाल रहे हो! तुम पश्चिम से एस आर पीएस होकर आए हो, तुमने उच्च से उच्च शिक्षा पाई है, कलकत्ते में बड़े से बड़े फिजीशियन समझे जाते हो। और छींक के संबंध में तुम एकदम ग्रामीण, मूढ़ का व्यवहार कर रहे हो। तुम यह क्या कह रहे हो? उस डाक्टर ने कहाः मैं भलीभांति जानता हूं कि छींक क्यों आती है? वह तो सब ठीक है, लेकिन दो मिनट रुक जाने में हर्ज क्या है?
यह टेक्नीशियन बोल रहा है, साइंटिस्ट नहीं बोल रहा। मैंने उनसे कहाः हर्ज? तुम्हें हर्ज नहीं दिखाई पड़ता, हर्ज बहुत बड़ा है। अगर मैं दो मिनट तुम्हारे पास रुकता हूं तो इस मुल्क में वैज्ञानिक बुद्धि कभी पैदा नहीं होगी। हर्ज तो बहुत बड़ा है, हर्ज तो बहुत भारी है।
एक दूसरे नगर में एक इंजीनियर मित्र ने एक बड़ा मकान बनाया। बहुत सुंदर मकान बनाया, क्योंकि एक बड़े इंजीनियर हैं। खुद अपना मकान बनाया तो उस नगर में उनसे अच्छा मकान नहीं होगा। वे मुझे अपने मकान का उदघाटन करने के लिए ले गए थे। मैं जब उनके मकान का फीता काटने लगा तो देखा कि मकान के सामने दरवाजे पर एक काली हंडी लटकी हुई थी। और हंडी के ऊपर बाल लटके हुए हैं, और हंडी पर आदमी का चेहरा बना हुआ है। मैंने पूछा, यह क्या है? वे कहने लगे कि मकान को नजर न लग जाए। मकानों को नजरें लगती हैं इंजीनियरों के दिमागों में भी! तो एक टेक्नीशियन तो पैदा हो गया, लेकिन वैज्ञानिक पैदा नहीं हो पाया।
वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं होती जब तक हम तथ्यों में देखने की हिम्मत पैदा न करें। जब तक हम कल्पनाओं में खो रहे हैं तब तक विज्ञान पैदा नहीं होता। विज्ञान तो एक-एक तथ्य को कसता है, देखता है, प्रयोग करता है, आॅब्जर्व करता है, निरीक्षण करता है; तर्क की कसौटी पर, प्रयोग की कसौटी पर, प्रयोगशाला में। और जब सब तरह से वह तथ्य सारी परीक्षा की अग्नि से गुजर कर बाहर निकल आता है, तब स्वीकार करता है।
लेकिन हमने ऐसी बातें स्वीकार कर रखी हैं जो किन्हीं कसौटियों पर कभी नहीं कसी गईं, और किन्हीं अग्नि-परीक्षाओं से कभी नहीं निकलीं। और उन सब के लंबे बोझ को मन पर बैठाए, अगर हम बैठे रहे तो भविष्य में भी डर है कि हम विज्ञान पैदा कर सकेंगे, कि नहीं पैदा कर सकेंगे? और ध्यान रहे, अगर विज्ञान पैदा नहीं हुआ तो देश न तो समृद्ध हो सकता है, न देश स्वतंत्र हो सकता है। न देश शक्तिशाली हो सकता है, और न देश अंधविश्वासों के जाल और जंजाल से कभी मुक्त हो सकता है।
यह जान कर आपको हैरानी होगी, अगर इस देश की पूरी कथा को उठा कर देखा जाए तो यह आपको पता चलेगा कि इस देश के बार-बार हार जाने का कारण न तो आपस की फूट थी, क्योंकि जितनी आपस की फूट इस देश में है उतनी सारी दुनिया में सब जगह है। न कमजोरी थी, क्योंकि कमजोरी का कोई कारण नहीं है, यह देश इतनी बड़ी जनसंख्या का देश है। और दुश्मन कितनी ही ताकत लेकर आया हो, इतनी बड़ी जनसंख्या के सामने उसकी ताकत ज्यादा कभी भी नहीं होगी। लेकिन हार जाने का कारण? हार जाने का कारण यह था कि जो भी दुश्मन इस मुल्क पर आया, वह हमसे विज्ञान में ज्यादा विकसित था, हम उसके विज्ञान से हमेशा पीछे थे।
जब हिंदुस्तान में सिकंदर आया तो सिकंदर के सैनिक घोड़ों पर सवार थे। और पोरस? पोरस के सैनिक हाथियों पर सवार थे। हाथी अवैज्ञानिक है युद्ध के मैदान में। हाथी बरात में, शादी-विवाह में बहुत अच्छा है। युद्ध के मैदान पर एकदम ही अवैज्ञानिक है। हाथी को लेकर युद्ध नहीं जीते जा सकते। घोड़ा ज्यादा तेज, कम जगह घेरने वाला, जल्दी से गति करने वाला, ज्यादा छलांग लगाने वाला। घोड़े पर लड़ने वाला सिकंदर और हाथी पर बैठे हुए पौरुस के सैनिकों में जो टक्कर हुई, पौरुस किसी सिकंदर से कमजोर नहीं है। लेकिन जो टेक्नालाॅजी का वह उपयोग कर रहा है वह अविकसित है, वह पिछड़ी हुई है।
जब बाबर हिंदुस्तान में आया तो बाबर के पास बहुत सैनिक नहीं थे। लेकिन बाबर के पास बारूद थी, विकसित बारूद थी। और हमारे सैनिकों के पास बारूद नहीं थी, फिर मात खा लेनी पड़ी। अंग्रेज भारत में आए तो अंग्रेजों के पास हमसे कोई ज्यादा ताकत नहीं थी। लेकिन अंग्रेजों के पास विकसित तोपें थीं, और हमारे पास पुराने ढंग की बंदूकें थीं। तो आज भी वही हालत है।
हम सारे जगत में आज भी विज्ञान की दृष्टि से सबसे पीछे खड़े हैं। विज्ञान विकसित नहीं होता, तो न तो देश समृद्ध होगा, न शक्तिशाली होगा। और विज्ञान को कौन विकसित नहीं होने दे रहा? विज्ञान को विकसित नहीं होने दे रहा है वह चित्त जो कल्पनाओं में सोचता है, तथ्यों में नहीं। हमें हमारे अतीत की सारी कल्पनाओं को मिटा देना है और पोंछ डालना है। और अतीत के जो तथ्य हैं उनको याद रखने की जरूरत नहीं, वे हमारे खून, हड्डी के हिस्से हो गए हैं। हम वही है, हमारा पूरा अतीत हम हैं। हम उसे अपने भीतर संजोए हुए हैं। उसे याद रखने की कोई भी जरूरत नहीं है।
आपको दिन भर याद रखना पड़ता है कि आप अपने बाप के बेटे हैं? सुबह-शाम में कितनी दफा आपको दोहराना पड़ता है कि मैं अपने बाप का ही बेटा हूं? और अगर आप दोहराते होंगे तो पास-पड़ोस के लोगों को शक हो जाएगा कि यह बेटा अपने बाप का नहीं हो सकता। जो अपने ही बाप का बेटा है, तो बात खत्म हो गई। उसे दोहराने की और याद रखने की और कसम खाने की जरूरत नहीं है। उसकी तख्तियां लटकाने की और बड़े-बड़े झालर बनाने की जरूरत नहीं कि मैं अपने ही बाप का बेटा हूं। और भूल कर अगर आपने बनाईं, तो लोगों को शक हो जाएगा। आप अपने बाप के बेटे हैं, आपका होना, आपके बाप, आपके भीतर प्रविष्ट हैं या आपके भीतर मौजूद हैं। उन्हें याद रखने की और दिन-रात शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं है। वे सहज ही आपमें मौजूद हो गए हैं। आपका सारा अतीत आपमें मौजूद है, आप आएंगे कहां से?
इसलिए जब मैं यह कहता हूं कि अतीत को भूल जाओ तो मेरा कोई यह मतलब नहीं है कि उसे काट दो तलवार से, तुम अलग हो जाओ। अलग तो हो नहीं सकते, उससे तो सारा प्राण जुड़ा हुआ है। लेकिन उसी का दिन-रात रटन, उसी पर दिन-रात चित्त का लगा रहना खतरनाक है। और जो चित्त जिन चीजों पर लगा है, वह अतीत के सत्य नहीं हैं, अतीत की कल्पनाएं हैं। और अतीत पर हमने न मालूम कितनी कल्पनाओं का जाल थोप दिया है। अब उसी को बैठे हुए, बैठे सोच रहे हैं। अब उसी के सपने देख रहे हैं। फिर कौन भविष्य का निर्माण करे?
और जो लोग कहते हैं कि अतीत प्रेरणा का स्रोत है, वे गलत कहते हैं। अतीत सिर्फ बूढ़ों से बचने का उपाय हो सकता है, प्रेरणा का स्रोत नहीं। अतीत में जो भूलें ह‏ुई हैं, वे फिर न हो जाएं। अतीत में जहां हम भटकें हैं, हम फिर न भटक जाएं, इतना जानना काफी है। अतीत प्रेरणा का स्रोत नहीं है। प्रेरणा का स्रोत तो सदा भविष्य है, वे आदर्श हैं जो कभी पूरे नहीं हुए।

एक मित्र ने और पूछा हैः उन्होंने पूछा है कि अतीत में कुछ स्वर्णिम क्षण हुए हैं, उनको तो याद रखना चाहिए?

उन्हें याद रखने का इतना आग्रह हमारे मन में जो है वह यह बताता है कि अब हम शायद वैसे स्वर्णिम क्षण पैदा करने में असमर्थ हो गए हैं। असल में अगर हम विकासमान हों तो हम रोज बीते कल से श्रेष्ठ दिन पैदा करेंगे। और बीता कल अपने आप भूलता चला जाएगा। बीते कल को याद तभी रखना पड़ता है जब हम आगे उससे श्रेष्ठ को पैदा करना बंद कर दें। अगर हम हर रोज नये को, श्रेष्ठ को जन्म दे रहे हों तो अतीत में जो श्रेष्ठ था उसको याद रखना अनावश्यक हो जाता है। उसको याद रखना पड़ता है, सिर्फ इसलिए कि हमारी सृजन की, हमारे क्रिएशन की क्षमता क्षीण हो गई है। अब हम कुछ नया पैदा नहीं कर सकते हैं, इसलिए अतीत को याद रखे बैठे हैं।
और फिर किन स्वर्णिम क्षणों की बात कर रहे हैं? कौन से स्वर्णिम क्षण हो गए हैं? जो भी हो गया है उससे श्रेष्ठतर हो सकता है। जो भी हो गया है उस पर रुक नहीं जाना है, उससे श्रेष्ठतर को जन्म देना है। उसे अगर याद भी रखना है तो सिर्फ इसलिए कि उससे श्रेष्ठतर को जन्म देकर उसे भुलाया जा सके। उसे याद इसलिए नहीं रखना है कि उसे हम मन का केंद्र बना लें, प्रतिभा का केंद्र बना लें। उस पर अटक जाएं और उससे श्रेष्ठतर का जन्म न हो। निश्चित ही मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पांच हजार वर्षों में भारत में कुछ भी नहीं हुआ। बहुत कुछ हुआ। लेकिन जो हुआ वह उसके मुकाबले में कि जो हो सकता था ना-कुछ, और अगर उस पर हम रुकते हैं तो जो हो सकता है वह नहीं हो सकेगा।
आप ध्यान दें थोड़ा सा, अमरीका की कुल सभ्यता की उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष जिस समाज की सभ्यता की उम्र है वह समाज आज दुनिया में पहली दफा सबसे ज्यादा समृद्ध समाज कैसे हो गया? और तीन सौ वर्ष के बच्चे के सामने हम दस हजार वर्ष पुरानी संस्कृति के लोग आज भिक्षा का पात्र लिए हुए खड़े हैं! शर्म भी मालूम नहीं पड़ती। कोई संकोच भी नहीं मालूम पड़ता। कोई सोचता भी नहीं है कि तीन सौ वर्ष जिनकी उम्र है सभ्यता की, उनके सामने दस हजार वर्ष पुरानी कौम भीख मांगे। यह मर जाने के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए। दस हजार वर्षों से तुम क्या कर रहे हो? दस हजार वर्षों में तुम गेहूं भी पैदा नहीं कर पाए अपने लायक? दस हजार वर्षों में तुम अकाल को रोक नहीं पाए? दस हजार वर्षों में तुम दवाएं नहीं बना पाए? दस हजार वर्षों में तुमने पृथ्वी पर क्या किया है? यह तीन सौ वर्ष (अस्पष्ट ...27: 08) के सामने तुम्हें भीख मांगने के लिए खड़ा होना पड़ा। और हर चीज के लिए मोहताज हो जाना।
आजादी के बाद पिछले बीस वर्षों में अगर हमने किसी एक चीज में बहुत कुशलता पाई है तो वह जागतिक रूप से भीख मांगने में। हम इस वक्त युनिवर्सल बैगर हैं। जागतिक भिखारी हैं। सारी दुनिया में भीख मांग रहे हैं, और फिर भी नहीं सोचते कि यह भीख मांगने की स्थिति कैसे पैदा हो गई? यह आसमान से नहीं आ गई है।
मैं एक किताब पढ़ रहा था। काउंट कैसरलेन, एक जर्मन विचारक भारत आया था। वह भारत से वापस लौटा। उसने एक किताब लिखी और उस किताब में भारत के संस्मरण लिखे। एक संस्मरण पर मैं एकदम ठहर गया और रुक गया। मुझे लगा कि कोई छापेखाने की भूल हो गई है। लेकिन फिर मुझे खयाल आया कि किताब भारत में नहीं छपी है, किताब जर्मनी में छपी है तो छापेखाने की भूल तो हो नहीं सकती।
तो छापेखाने की भूलें तो इधर भारत में ही होती हैं। यहां तो हर किताब के ऊपर, पहले दो पन्ने, तीन पन्ने होते हैंः भूल सुधार, शुद्धि-पत्र। और अगर गौर से उन तीन पत्र-पत्रों को पढ़ें, तो उसमें भी भूलें मिलेंगी। अब उनके लिए और अलग पत्र लगाना पड़े।
तो किताब तो जर्मनी में छपी है, इसलिए भूल नहीं हो सकती। फिर मैंने गौर से पढ़ा तो लगा कि मुझसे ही भूल हो रही है। उसमें एक वाक्य लिखा था जिसके कारण मुझे असुविधा मालूम हुई थी। उसमें एक वाक्य लिखा थाः इंडिया इ.ज ए रिच कंट्री, वेयर पुअर पीपल लिव। भातर एक अमीर देश है, जहां गरीब लोग रहते हैं। मैंने समझा कि जरूर कहीं कोई भूल हो गई है।
क्योंकि अगर देश अमीर है तो गरीब लोग कैसे रहेंगे? और अगर गरीब, गरीब लोग रहते हैं तो देश को अमीर कहने की क्या जरूरत है? लेकिन फिर समझ में आया कि वह मजाक कर रहा है। वह यह कह रहा है कि देश तो अमीर होने की पूरी संभावनाएं लिए हुए है, लेकिन रहने वाले मंदबुद्धि हैं। वे गरीब ही बने हुए हैं।
अमरीका में भी तीन सौ वर्ष पहले लोग रहते थे, हजारों वर्षों से लोग रहते थे। ये जो पश्चिम के, यूरोप के लोग अमरीका जाकर बसे, इनके पहले अमरीका में आदिवासी रहते थे हजारों सालों से। लेकिन वे हमेशा गरीब थे, देश यही था। जमीन यही थी, साधन यही थे। लेकिन जो रहने वाले थे, अवैज्ञानिक बुद्धि के लोग थे। वे हजारों साल से अमरीका में जहां आज सोना उगल रही है जमीन, वहीं वे भूखे मर रहे थे। ये दूसरे लोग पहुंचे। इन्होंने वहां इतना एफ्लुअंस, इतनी समृद्धि पैदा कर दी कि पृथ्वी पर इसके पहले कभी भी नहीं हुई थी।
भारत भी गरीब है। भारत के रहने वालों की भूल-चूक, गलतियों के कारण। भारत भी सोना उगल सकता है। भारत भी इतना संपन्न हो सकता है जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है, लेकिन होगा नहीं। क्योंकि भारत की बुद्धि विपन्नता का रास्ता खोजती है। भारत की बुद्धि वैज्ञानिक नहीं, अवैज्ञानिक होने में रस लेती है। अगर भारत को वैज्ञानिक होने की बात समझाओ तो समझ में नहीं आएगी। इससे अच्छा उससे कहो, चरखा कातो, तकली चलाओ। उसके बिलकुल समझ में आ जाएगी बात। वह एकदम चरखा-तकली कातने बैठ जाएगा--पूरा मुल्क।
लेकिन चरखा-तकली कातने से कोई मुल्क संपन्न नहीं हो सकता। ये गरीब रहने के ढंग हैं। गरीब बने रहने की तरकीबें हैं। इन तरकीबों से, इन अवैज्ञानिक व्यवस्थाओं से कभी देश की आत्मा जगमगा नहीं सकती। लेकिन हमारे सोचने का जो पैटर्न है, जो हमारे सोचने का ढांचा है, वह हमें इन बातों की तरफ बड़ी जल्दी ले जाता है। ठीक दिशा में ले जाने में हमें बाधा देता है।
इन दो-तीन सूत्रों को ध्यान में ले लेना चाहिए।
पहली बात, अतीत की कल्पनाओं में खोने से प्रेरणा नहीं मिलेगी, प्रेरणा मिलेगी मनुष्य के वर्तमान को देख कर। और मनुष्य का भविष्य कैसा सुंदर बनाया जा सकता है? इस वर्तमान से कितना सौंदर्य, कितनी संपन्नता, कितनी शक्ति निकल सकती है, उसको ध्यान में रख कर। अतीत के ढांचों को बार-बार दोहराने से नहीं देश विकसित होगा। कोल्हू के बैल की तरह घूमने लगेगा एक चक्कर में।
देश विकसित होगा नये-नये प्रयोग करने से, नई हिम्मत दिखाने से, जो कभी नहीं हुआ उसे करने की चेष्टा से। जो आदर्श कभी भी प्रयोग नहीं किए गए, उन आदर्शों पर प्रयोग करने से। हो सकता है भूल-चूक हो, लेकिन मेरा मानना है कि जो कौम भूल-चूक करना बंद कर देती है वह विकास करना भी बंद कर देती है।
भूल-चूक करने की हिम्मत विकासशील मनुष्यता का लक्षण है। भूल-चूक करने का मतलब यह है कि हम अभी प्रयोग करते हैं। भूल-चूक होगी, सुधार लेंगे। लेकिन भूल-चूक के डर से कुछ कौमें हैं, जैसे हम। हम प्रयोग ही नहीं करते। हम कहते हैंः जो होता रहा है वही होने दो, कम से कम वह परिचित है, पहचाना हुआ है। नये में कहीं भूल न हो जाए?
लेकिन भूल से अगर इतना ही डरेंगे तब तो नया कभी पैदा नहीं हो सकता है। नया पैदा होता है भूल करने की हिम्मत से। एक बात जरूर निश्चित है कि एक ही भूल बार-बार नहीं करनी चाहिए। लेकिन हर बार अगर नई भूल की जा सके, तो बड़ा सौभाग्य है। क्योंकि हर बार नई भूल करने वाली चेतना रोज नये रास्तों से परिचित होती है, नये मार्गों को खोजती और आगे बढ़ती है। लेकिन हम सुरक्षा-प्रेमी हो गए हैं।
सुरक्षा इसी में है कि जिस रास्ते पर हमारे पिता चले थे और उनके पिता चले थे, उसी पर हम चलते रहें। सुरक्षा इसी में है कि जो हमारे पुराने ऋषि-मुनियों ने दोहराया, वही हम दोहराते रहें। सुरक्षा इसी में है कि नया कुछ भी मत करो, क्योंकि नया करने से डर लगता है कि कहीं रास्ता न भटक जाए। नया करने से डर लगता है।
क्योंकि नये पर जाने का मतलब ही यह है कि वहां पर बने-बनाए रास्ते नहीं हैं। वहां रेडीमेड रास्ते नहीं हैं। नये का मतलब ही है कि वहां रास्ता भी बनाना पड़ेगा। पुराने के रास्ते बने हुए हैं। सब अतीत के मुर्दे उन रास्तों पर चल चुके हैं, उनके पैरों ने उन रास्तों को बिलकुल सख्त, मजबूत बना दिया है। अब उन्हीं पर चलते रहो। लेकिन लीक पर चलने वाला समाज अपने हाथ से सब तरह के दुर्दिन, सब तरह की (अस्पष्ट 34: 06) और सब तरह के दुर्भाग्य को निमंत्रण दे देता है। क्योंकि फिर जीवन एक बोझ हो जाता है। नये की खोज जहां बंद हुई वहां जीवन एक बोझ हो गया। वहां जीवन को खींचना है किसी तरह।
इसीलिए भारत के चेहरे पर कोई खुशी नहीं दिखाई पड़ती। भारत के प्राणों में कोई आनंद नहीं दिखाई पड़ता। भारत के जीवन में कोई उत्फुल्लता नहीं दिखाई पड़ती। बल्कि जिनके जीवन में दिखाई पड़ती है, हम कहते हैं, वे सारे के सारे लोग भौतिकवादी हैं। हम बड़े गंभीर अध्यात्मवादी लोग हैं। हमें सिरियसनेस की एक भारी बीमारी पकड़े हुए है। हमें कोई इस देश का कोई साधु और संन्यासी हंसता हुआ नहीं मिलेगा। अगर मिल जाए हंसता हुआ तो हमें शक होगा कि यह साधु नहीं है। क्योंकि साधु को तो गुरु-गंभीर होना चाहिए। उसे तो ऐसा होना चाहिए जैसे जीते-जी मर गया हो। उसे तो ऐसा होना चाहिए कि उसके चेहरे पर कोई जीवन का लक्षण न दिखाई पड़े। तभी हम कहेंगे कि यह विराग को उपलब्ध हुआ है। इसके जीवन में अब सब समाप्त हो गया।
मरे हुए आदमी को हम विरागी आदमी कहते हैं। जीवन की उत्फुल्लता, जीवन का आनंद और जीवन की किरणें और जीवन के फूलों का हमारे मन में कोई आदर, कोई सम्मान नहीं रह गया है। यह क्यों? इसका कारण है पीछे कुछ। यह जो इतनी सीरियसनेस की और इतनी गंभीर और इतनी उदासी की हवा छा गई है, उसका कारण यह है कि हमारे प्राण ने, इस मुल्क के प्राण ने एडवेंचर, दुस्साहस खो दिया है।
और दुस्साहस एक ही है, एडवेंचर एक ही है, बंधी हुई लीकों पर न चलना। नये रास्ते खोजना, नये मार्ग खेाजना, नये प्रयोग करना। नये का जो आकर्षण है वही एडवेंचर है, वही अभियान है, वही दुस्साहस है।
लेकिन हम, हम नये से हमने सारा संबंध तोड़ लिया है। हम कहते हैं, पुराने घेरे में घूमते रहना ही ठीक है। परिभ्रमण पुराने घेरे में हम कर रहे हैं। जैसे हम मंदिरों के चक्कर लगा रहे हैं, परिभ्रमण कर रहे हैं, परिक्रमा कर रहे हैं--वह मंदिरों में ही नहीं कर रहे हैं हम। हम जीवन के मंदिर में भी परिभ्रमण कर रहे हैं, परिक्रमा कर रहे हैं। हमारी गति सीधी रेखा में नहीं है, गोल चक्करों में है।
गोल चक्करों की गति उदास कर देगी। बोर्डम पैदा कर देगी, ऊब पैदा कर देगी। क्योंकि वही चक्कर, वही चक्कर, वही चक्कर...। जीवन सब परिचित और परिचित में घूमता रहे तो घबड़ाने वाला हो ही जाने वाला है। ऊब पैदा हो जाएगी, ऊब पैदा हो गई है। यह ऊब हमारे सारे प्राणों पर छाई हुई दिखाई पड़ रही है।
किसी भी आदमी की आत्मा को थोड़ा सा खोलो और वहां से ऊब, बोर्डम के सिवाय कुछ भी नहीं निकलेगा। वहां से एकदम बेचैनी निकलेगी। और एक आह निकलेगी कि जिंदगी बोझ है, जिंदगी एक बर्डन है। जिंदगी को किसी तरह खींच लेना। लेकिन जिंदगी एक आनंद नहीं है। नये की खोज से जीवन बनता है आनंद। नये की खोज से चुनौती पैदा होती है, चैलेंज पैदा होता है। और प्राणों में सोई हुई शक्तियां जागती हैं।

इसलिए जिस देश को जवान रहना हो...एक मित्र ने पूछा है कि आपने कल कहा कि समाज बूढ़ा हो गया है, इस समाज को जवान करने के लिए च्यवनप्राश क्या है? कौन सी दवा है जिससे यह समाज जवान हो सके?

तो मैं आपसे कहना चाहता हूंः नये का आकर्षण, नये की चुनौती, नये के निर्माण की कामना, दुस्साहस भूल करने का, नये रास्तों पर जाने का--इस समाज को जवानी दे सकता है। जवानी का मतलब ही नये का अकर्षण है, नये का मोह है। पुराने का, पुराने से बचने का, पुराने को हटाने का।
एक यात्री टाकविले उन्नीस सौ में अमरीका गया। और जाकर उसने अमरीका में देखा तो हैरान रह गया। वह युरोप से गया था। अमरीका को देख कर वह दंग रह गया। अमरीका तो एकदम नया हो रहा था। सब नया हो रहा था। मकान नये बन रहे थे, सड़कें नई हो रही थीं, कारखाने नये खुल रहे थे। उसने एक जहाज बनाने वाले कारखाने को गौर से निरीक्षण किया। उसने उस जहाज बनाने वाले कारखाने के मालिक को कहा कि तुम जो जहाज बना रहे हो, यह जहाज दस साल से ज्यादा नहीं चलेगा। हम युरोप में जो जहाज बनाते हैं, विशेष कर जर्मनी में, वह सौ साल चल सकता है। मजबूत बनाते हैं। तुम्हारे पास हमसे अच्छी मशीनें हैं, हमसे ज्यादा कुशल कारीगर हैं, हमसे ज्यादा अच्छा लोहा है, फिर तुम इतना कमजोर जहाज क्यों बना रहे हो कि दस साल चले? उस मालिक ने कहाः महाशय, शायद आपको पता नहीं। दस साल, दस साल भी कौन चलने देगा इसको? दस साल में हम और अच्छे जहाज बना लेंगे। सौ साल का तो सवाल ही नहीं है, दस साल में हम और अच्छे जहाज बना लेंगे। इसको अलग फेंक देंगे। सौ साल चलाएगा कौन? दस साल तक हम रुकेंगे थोड़े ही? दस साल तक हम और नये जहाज बना लेंगे।
टाकविले ने लौट कर लिखा कि मैं एक नये मुल्क को पैदा होते देख कर आया हूं। एक जवान मुल्क को, जो यह सोचता है कि दस साल इतना लंबा वक्त है कि एक ही जहाज में दस साल चलने को राजी कौन होगा? हम दस साल में नये जहाज बना लेंगे। इसको उठा कर फेंक देंगे। आज अमरीका के बाजार में, जैसा हम अपने बाजार में पूछते हैं कि चीज कितने दिन टिकेगी, टिकाऊपन क्या है, स्टैबिलिटी क्या है? अमरीका में कोई नहीं पूछता कुछ। यह चीज टिकेगी कितनी देर? स्टैबिलिटी के लिए कोई पूछता ही नहीं। एक नया शब्द अमरीका के बाजार में सुनाई पड़ता है, और वह है एक्सचेंजबिलिटी। यह चीज बदली कितनी देर में जा सकती है।
एक आदमी फाउंटेन पेन खरीद रहा है, तो वह यह पूछता है कि अगर मैं दो महीने बाद इसको बदल कर नया फाउंटेन पेन लेना चाहूं तो कितने पैसे में अदल-बदल हो जाएगी? एक्सचेंजबिलिटी क्या है इसकी? कोई ड्यूरेबिलिटी नहीं पूछता, क्योंकि दो महीने में नया फाउंटेन पेन बन जाने वाला है, पुराने को रखेगा कौन? हर छह महीने में कार का नया माॅडल आ जाएगा, पुरानी कार को रखेगा कौन? जीवन रोज नये की तलाश में, रोज नये के निर्माण में इतना आतुर होकर संलग्न है, इसलिए जीवन में एक उत्फुल्लता है, जीवन में एक आनंद है, जीवन में एक रस है।
परमात्मा भी अगर कहीं है तो रोज नये का निर्माण करता है, पुराने को रोज मिटाता जाता है। इसलिए अब तक परमात्मा ऊब नहीं गया। नहीं तो कब, कब का उसने आत्महत्या कर ली होती। अभी तब घबड़ा गया होता। अगर रामचंद्रजी, रामचंद्रजी कोई हर साल पैदा करता तो अभी तक बहुत घबड़ाहट हो गई होती, और रामलीला ही होती रहती इस जमीन पर, और सीता चोरी जाती रहती और वापस छीनी जाती रहती। तो भगवान ने आत्महत्या कर ली होती। भगवान राम को एक बार पैदा करता है फिर दोबारा नाम ही नहीं लेता उनका। एक बार महावीर को पैदा करता है फिर दुबारा उस तरह का आदमी ही पैदा नहीं करता। भगवान एक बार जिसे पैदा करता है, दुबारा रिपीट नहीं करता। पुनरुक्ति नहीं करता। एक-एक आदमी नया और अनूठा है। सब नया और अनूठा है। भगवान दुनिया में सबसे बड़ा एडवेंचर है। और इसलिए भगवान दुनिया में सबसे ज्यादा जवान है, भगवान कभी बूढ़ा नहीं होता। भगवान के बूढ़े होने की कल्पना ही नहीं हो सकती। क्योंकि भगवान रोज नये के लिए आतुर है, पुराने को दोहराता ही नहीं। जो एक बार हो गया--हो गया, वह फेंक दिया गया कबाड़खाने में। नये सृजन के जगत में रोज नया होता जा रहा है।
कभी आपने यह सोचा, भगवान बहुत बेरहम है पुराने को मिटाने में। बूढ़ों को विदा कर देता है, छोटे बच्चों को जन्म देता है। अगर हमसे पूछे कोई, भारतीयों से, तो हम कहेंगेः यह क्या पागलपन है? जब बार-बार आदमी पैदा करना है तो बूढ़ों को जिंदा रखो। बच्चों को पैदा करने की क्या जरूरत है? बने-बनाए को मिटाते हो, गैर-बने को बनाते हो। बना-बनाया अच्छा था, भला था, पहचाना हुआ था--चोरी नहीं करता था, बीड़ी नहीं पीता था, चाय नहीं पीता था। यह बच्चा खतरनाक है। पता नहीं क्या करे? यह भटक सकता है। वह जो हमारा बूढ़ा था, वह तो निश्चित था। वह तो पहचाना, जाने-माने रास्ते पर चलता था। सत्तर साल तक हमने जांच-परख कर ली थी। उसको बचाओ, उसको तो बचाते नहीं, उसको तो विदा करते हो और इस छोटे बच्चे को पैदा करते हो--जो हिप्पी हो जाए, बीटल हो जाए, बिकनिक हो जाए, क्या हो जाए, कुछ पता नहीं। खतरा क्यों मोल लेते हो? परिचित, जाने-माने लोगों को बचाओ। अनजानी आत्माओं को क्यों भेजते हो जगत में? लेकिन भगवान नहीं सुनता, वह बूढ़ों को कहता है कि विदा हो जाओ, रास्ता खाली करो, नया आ रहा है। वह पुराने परिचित पत्तों को गिरा देता है, नये कमजोर कोंपलों को उगाता है। प्रतिपल यह कार्य चल रहा है सृजन का। इसीलिए नया है, इसीलिए ऊब वहां पैदा नहीं हो गई होगी और...।
लेकिन हमने भारत में उलटी प्रक्रिया पकड़ी। हम भगवान से उलटे चल रहे हैं, हालांकि हम भगवान की बातें बहुत करते हैं। लेकिन हम भगवान के उलटे चलते हैं। हम पुराने के आग्रही हैं और भगवान नये का। हम पीछे की तरफ देखते हैं, भगवान आगे की तरफ। हम बूढ़े को पकड़ते हैं, भगवान बच्चे को। हम कहते हैं सूखे पत्तों को सम्हाल कर रखो और भगवान सूखे पत्तों को हवाओं में उड़ा देता है और नई कोपलों को जन्म दे देता है।
जीवन की सृजन की जो प्रक्रिया है वह नये का अवतरण है। और हम, हम पुराने की पुनरुक्ति पर ठहरे हुए हैं। वह जो मैं कल आपको कहा हूं, वह इसलिए नहीं कि अतीत से मेरा कोई विरोध है, इसलिए भी नहीं कि मैं कोई अतीत का दुश्मन हूं। इसलिए भी नहीं कि मैं चाहता हूं कि अतीत के सारे दरवाजे बंद कर दिए जाएं, सारी जड़ें काट दी जाएं--नहीं। वह इसलिए कि मैं भविष्य का प्रेमी हूं। और मैं मानता हूं कि अतीत ही वर्तमान से गुजर कर भविष्य हो रहा है, प्रतिपल। सारा अतीत हममें समाहित, और हम प्रतिपल भविष्य में जा रहे हैं और अगर हम भविष्य में जाना बंद करते हैं तो, तो हम अतीत की जो यात्रा चल रही है, उसमें बाधा डालते हैं। वह जो गंगा गंगोत्री से निकलती है, वही गंगा तो जाकर गिरती है, सागर में।
वह जो अतीत पीछे छूट गया है गंगोत्री में, वह जो गंगा निकली है गंगोत्री से, वही तो भागती हुई जाती है सागर तक। लेकिन गंगा कहे कि मैं तो गंगोत्री की तरफ ही आंखें टिकाए रुकी रहूंगी, मैं गंगोत्री को कैसे भूलूं? तो फिर सागर नहीं आएगा। गंगा गंगोत्री पर ही ठहर जाएगी। और ठहरी हुई गंगा, गंदगी की गंगा हो जाएगी। जो बहती गंगा हैः वह जीवंत, स्वच्छता की गंगा है। जहां भी ठहराव है, वहां गंदगी है। जहां भी ठहराव है, वहां सड़ांध है। जहां भी ठहराव है, वहां जीवन मर जाता है और लाशें इकट्ठी होती हैैं। ठहराव के विरोध में कह रहा हूं, और गति के पक्ष में कह रहा हूं। अतीत के विरोध में इसलिए कह रहा हूं कि अतीत की पकड़ हमसे छूट जाए, अतीत का मैं विरोधी नहीं हूं। हमारी जो पकड़ है अतीत पर, हमारी जो क्लींगिंग है वह छूट जाए। और मन मुक्त हो जाए, भविष्य की तरफ देखने में और नये को स्वीकार करने में और अंगीकार करने में।
यह जो नये की यात्रा शुरू हो सके तो भारत के पास इतनी क्षमता है, इतनी शक्ति है, इसकी गंगा अगर एक बार बह जाए तो शायद जगत में कोई देश हमारे साथ खड़े होने में असमर्थ हो जाएगा। कभी-कभी ऐसा होता है, अभिशाप भी सौभाग्य बन जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक किसान अपने खेत में बीज नहीं डालता, पड़ोस के किसान अपने खेत में बीज डालते रहते हैं। उनकी फसलें हर साल आती हैं, और एक किसान दस-बीस साल तक अपनी जमीन को बंजर छोड़ देता है। फिर अचानक बीस साल बाद वह बीज डालता है तो फिर पड़ोस के खेत उस बंजर खेत का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। क्योंकि बीस साल में बहुत ऊर्जा बहुत शक्ति संगृहीत हो जाती है। फिर बीस साल बाद जो फसल आएगी, वह बात ही और होगी। उस फसल का मुकाबला दूसरे खेत नहीं कर सकते।
भारत का मस्तिष्क, भारत की जीनियस, भारत की जो प्रतिभा है, वह कोई हजारों साल से बंजर पड़ी हुई है। हमने उससे कुछ भी क्रिएटिव नहीं किया है। यह दुर्भाग्य है। लेकिन यह सौभाग्य बन सकता है, अगर हम आज भविष्य के बीज बोना शुरु करें तो कोई नहीं कह सकता कि इतने दिनों तक जो प्रतिभा अवरुद्ध पड़ी हो, वह अगर मुक्त हो जाए तो शायद पृथ्वी पर उसके समक्ष खड़े होने में किसी की सामर्थ भी न हो। शायद दूसरे खेत, जो पैदावार करते रहे हैं फीके पड़ जाएं। यह हो सकता है, लेकिन यह आसमान से नहीं हो जाएगा। यह अपने आप नहीं हो जाएगा। इसमें हमें सहभागी होना पड़ेगा।

एक मित्र ने पूछा है कि जो हो रहा है वह तो अपने आप हो रहा है, हमें कुछ करने की क्या जरूरत है?

भाग्यवादी सदा इसी भाषा में सोचते हैं। वे सोचते हैं जो हो रहा है, वह हो रहा है। हमें करने की क्या जरूरत है? जरूर हम कुछ नहीं करेंगे तो भी कुछ होता रहेगा। होना नहीं रुक जाएगा। लेकिन वह होना कभी भी वह नहीं होगा, जो होना चाहिए। वह होना सिर्फ इतिहास का अनिश्चित, अनिर्णीत, अनिर्देशित प्रवाह होगा, और करोड़ों घटना मिल कर जो कर देंगी वह होता रहेगा। लेकिन वह कभी स्वर्ग बनाने वाला नहीं होगा। उससे नरक ही निर्मित हो सकता है।
वह ऐसा ही होगा, जैसे इंदौर के रास्तों पर हम आज कह दें कि चैबीस घंटे के लिए सब स्वतंत्रता है, अब कोई निर्देशन नहीं। अब कोई चैरस्ते पर पुलिसवाला नहीं होगा। अब बाएं-दाएं चलने के कोई नियम नहीं होंगे। अब जिसको जहां जाना हो और जिस तरह जाना हो, वह चैबीस घंटे जा सकता है। तो भी लोग जाएंगे। तो भी कुछ लोग पहंुच जाएंगे। लेकिन जो पागलपन पैदा हो जाएगा रास्तों पर, और जो दुर्घटनाएं हो जाएंगी। पहुंचेंगे कम लोग जहां निकले थे पहुंचने को, वहां तो निश्चित नहीं पहुंच पाएंगे, कहीं और पहुंच जाएंगे।
कुछ तो स्वर्ग पहुंच जाएंगे और स्वर्ग तो हम केवल औपचारिक रूप से कहते हैं, अधिक पहुंचते तो नरक ही होंगे। वह सारी दौड़-धूप हो जाएगी। ठीक अभी अनिर्णीत जो हम चल रहे हैं, जो घटनाएं घट रही हैं, लेकिन वे घटनाएं हमारे हाथ से नहीं घट रही हैं। हम उनके सुरक्षा नहीं बन पाते हैं। एक वक्त आ गया है टेक्नालाॅजी के विकास में, विज्ञान के विकास में आदमी को स्रष्टा होने की क्षमता दे दी, अब आदमी को अंधे प्रवाह में बहने की कोई जरूरत नहीं है। अब हम निर्णीत कर सकते हैं, हम निश्चय कर सकते हैं। जैसे उदाहरण के लिएः हम बच्चे पैदा कर रहे हैं, और बच्चे तो पैदा होते ही रहे हैं सदा से। और कभी यह नहीं सोचा गया कि बच्चों को रोकना या पैदा करना आदमी के हाथ में है।
भारत में अब भी ऐसा ही सोचा जा रहा है कि बच्चे तो भगवान के हाथ में हैं। वह जिनको पैदा कर रहा है, कर रहा है, हम क्या कर सकते हैं? जो आएंगे, वे आएंगे और बच्चे आते जा रहे हैं। और हम खड़े हुए देख रहे हैं और बैंडबाजा भी बजा रहे हैं, और बताशे भी बांट रहे हैं। और बच्चे बढ़ते जा रहे हैं, और अपनी ही मौत का इंतजाम कर रहे हैं। पूरा मुल्क मरने की तैयारी कर रहा है। और अगर कहो--हम कहेंगे, यह तो भाग्य की बात है। हमारे हाथ में क्या है?
यह भाग्य की बात अब नहीं है। यह भाग्य की बात कल तक थी, क्योंकि आदमी के पास ज्ञान कम था। आदमी के पास जितना ज्ञान कम होगा, भाग्य उतना ज्यादा होगा। आदमी के पास ज्ञान जितना बढ़ेगा, भाग्य उतना कम होता चला जाएगा। आदमी के पास जिस दिन अधिकतम ज्ञान होगा, उस दिन न्यूनतम भाग्य रह जाएगा। भाग्य का मतलब हैः अज्ञान। जो हम नहीं जानते, उस पर हमारा वश नहीं है; लेकिन जो हम जान लेते हैं, उस पर हमारा वश हो जाता है। आज हम रोक सकते हैं, आज हम तय कर सकते हैं कितने बच्चे इस मुल्क में पैदा हों। आज हम तय कर सकते हैं कि कैसे बच्चे पैदा हों? आज हम तय कर सकते हैं कि कितनी उम्र हो? आज हम तय कर सकते हैं कि जो लोग रहें वे सुख से रहें कि दुख से रहें। आज हमें अंधे भाग्य पर खड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन हमारी जो प्रवृत्ति है सोचने की वह यही है कि जो हो रहा है, वह हो रहा है। हम क्या कर सकते हैं? ऐसे हम तमाशबीन की तरह धक्के खाते हुए इतिहास के रास्ते पर चलेंगे, तो चलना तो हो जाएगा, चलना होता रहा है। लेकिन वह चलना सुखद नहीं हो सकता, सौभाग्यपूर्ण नहीं हो सकता।
मैंने सुना है कि एक बार एक देश में ज्योतिषियों ने खबर की कि सात वर्ष तक अकाल पड़ेगा। क्योंकि सात वर्ष तक वर्षा नहीं होने वाली है। एक किसान अपने खेत में काम कर रहा था। उसने राह से चलते हुए लोगों से सुना कि ज्योतिषियों ने कहा है कि अब सात वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। तो उस किसान ने सोचा कि जब सात वर्ष तक वर्षा ही नहीं होगी तो मैं फिजूल मेहनत क्यों करूं। उसने अपने सब साज-सामान को साफ-सुथरा करके पोटलियों में बांध कर झोपड़े के भीतर रख दिया। सात दिन तक अपनी खाट पर अंदर बैठा रहा। लेकिन सात दिन में सारी हड्डी-पसली दुखने लगीं, सदा काम करने वाला आदमी, और सात दिन में इतना घबड़ा गया, ऊब गया। तो उसने कहा, सात साल कैसे बीतेंगे? तो बहुत मुश्किल हो गई। सातवें दिन उसे खयाल आया कि सात साल मैं बच भी सकूंगा, यह भी संदिग्ध हो गया। क्योंकि ऐसे सात साल बैठे-बैठे मर जाऊंगा।
जो बैठा रहता है, मर ही जाता है। जीवन तो चलने का नाम है।
फिर उसने सोचा और अगर किसी तरह बच भी गया तो सात साल में खेती बाड़ी करना भूल जाऊंगा। यह हाथ-पैर जवाब दे देंगे, ये मसलें खत्म हो जाएंगी, यह ताकत खो जाएगी। फिर कौन खेती-बाड़ी करेगा? उसने कहाः यह तो बड़ा मुश्किल मालूम होता है। उचित तो यही है कि मैं अपनी खेती-बाड़ी का काम शुरू कर दूं। जब वर्षा होती है, तो होगी। कम से कम काम तो जारी रहेगा। कम से कम अपनी काम करने की ताकत तो जिंदा रहेगी। उसने अपना सामान फिर निकाल लिया। वह जाकर अपने खेत में फिर खोज-बीन में लग गया।
एक छोटी सी बदली उसके ऊपर से निकलती थी। उस बदली ने नीचे देखा, सारे किसान तो जा चुके हैं अपने घरों को, एक पागल किसान खेत में काम कर रहा है। सोचा उस बदली ने कि मालूम होता है ज्योतिषियों की खबर इसे नहीं मिली है। तो उस बदली ने नीचे झुक कर कहा कि अरे पागल! अरे नासमझ! तुझे पता नहीं कि ज्योतिषियों ने कहा है कि सात साल तक वर्षा नहीं होगी? उस किसान ने कहाः सब पता है। सात दिन तक उनकी बात मान कर मैं मुश्किल में भी पड़ गया। मर जाऊंगा सात साल में। और नहीं भी मरा तो खेती-बाड़ी करना भूल जाऊंगा। देवी तू अपने रास्ते पर जा, जब होगी वर्षा--होगी, हम अपना काम तो जारी रखें। बदली ने सोचा कि यह किसान कहता तो ठीक है, सात साल में मैं भी कहीं अगर पानी बरसाना भूल गई तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। अभ्यास छूट गया और सात साल तक पानी नहीं गिराया तो फिर पानी गिरेगा भी कि नहीं गिरेगा? उस बदली ने तो कहाः छोड़ो ज्योतिषियों को, अपना काम जारी रखो। तो उस बदली ने वर्षा कर दी उस खेत पर।
यह तो कहानी है। लेकिन मुझे लगता है कि भारत ज्योतिषियों की मान कर बहुत दिन से बैठा हुआ है, भाग्यवादियों की मान कर बहुत दिन से बैठा हुआ है। वह जो होगा बाद में होगा। उससे भाग्य में जो होगा और नहीं होगा, वह सच है या झूठ यह तो दूसरी बात है। लेकिन बैठे-बैठे करने की क्षमता हमने खो दी है। बैठे-बैठे हमारे प्राणों में जो ताकत, जो ऊर्जा, जो अभ्यास से पैदा होती है, वह सब विलीन हो गई। हम बैठे-बैठे मुर्दा हो गए हैं, बैठे-बैठे (54: 54 अस्पष्ट...) हो गए हैं। बैठे-बैठे हालत यह हो गई कि जैसे किसी ने लाश को इंतजाम करके, पलस्तर लगा कर, मसाला लगा कर रख दिया हो। बस श्वास लेते हैं। और सब खो गया है। भाग्य को मानने का परिणाम यह होने ही वाला है।
भाग्य को नहीं, स्वयं को मानना जरूरी है। और स्वयं से ही भाग्य निर्मित होता है। और जहां निर्मित नहीं होता है, उसका अर्थ है कि वहां हमारा अज्ञान है। तो ज्ञान की चेष्टा जारी रहनी चाहिए थी, वहां भी ज्ञान पैदा हो सके। तो यह मैं नहीं कहूंगा आपसे कि जो होने वाला है वह अपने आप हो जाएगा। अपने आप नहीं, जो अब तक हुआ है वह भी आपके द्वारा हुआ है। चाहे आप जानते हों, चाहे आप न जानते हों। और जो होगा, वह भी आपके द्वारा होगा। चाहे आप जानें, और चाहे आप न जानें। लेकिन अगर न जाने हुए किया तो वह अनिर्णीत होगा, अनुचित होगा, भटका हुआ होगा, अराजक होगा। और अगर जानते हुए किया तो वह सुव्यवस्थित होगा, वह निर्देशपूर्वक होगा। वह वही होगा जो हम चाहते हैं, जो होना चाहिए। वह वही होगा जो हजारों-हजारों साल से मनुष्य की आत्मा में कामना है कि हो। वह सपना पूरा हो सकता है।

अंतिम बात, एक मित्र ने पूछा है कि क्या हम विश्वास करना छोड़ दें--महापुरुषों पर, ऋषियों पर, मुनियों पर, शास्त्रों पर?

मैं यह कहता हूं कि विश्वास सिर्फ एक मूल्यवान है--वह अपने पर विश्वास। बाकी कोई विश्वास मूल्यवान नहीं है। और ध्यान रहे, जो अपने पर विश्वास नहीं करता, वही किसी दूसरे पर विश्वास करने की खोज में निकलता है। दूसरे पर विश्वास, अपने पर अविश्वास है। अपने पर अविश्वास जो है, वही दूसरे पर विश्वास बनता है। दूसरे पर विश्वास आत्म-अविश्वास के कारण है। और जो अपने पर ही विश्वास नहीं कर पाता, उसका दूसरे पर किए विश्वास का कितना मूल्य है, कितना अर्थ है? ऋषि-मुनियों को खोज रहे हो, ताकि अपने से बच सको? किसी दूसरे के पैर पकड़ रहे हैं, ताकि अपने से बच जाएं? किसी दूसरे का सहारा पकड़ रहे हैं, ताकि अपनी ताकत का तो कोई भरोसा नहीं है। किसी और की ताकत से चल जाए काम। लेकिन दुनिया में अपने ही पैरों से चलना पड़ता है। अपनी ही आंखों से देखना पड़ता है। अपने ही प्राणों से जीना पड़ता है। स्वयं ही जीना पड़ता है, स्वयं ही मरना पड़ता है।
न कोई ऋषि आपके लिए जी सकते हैं, न कोई ऋषि आपके लिए मर सकते हैं, न कोई ऋषि आपके लिए श्वास ले सकते हैं। आपकी आत्मा को आपको ही जगाना है। और यह तभी संभव होगा जब विश्वास सब तरफ से हट जाए और एक इस बिंदु पर आ जाए, वह जो मैं स्वयं हूं। आत्मविश्वास के अतिरिक्त धार्मिक आदमी का और कोई लक्षण नहीं है। बुद्धिमान आदमी अपने पर विश्वास करता है, निर्बुद्धि दूसरे पर विश्वास करता है।
और ध्यान रहे, जो जितना दूसरे पर विश्वास करता है उतना ही बुद्धिहीन होता चला जाता है। क्योंकि अपनी बुद्धि को जगने का कोई कारण नहीं रह जाता। अपनी बुद्धि को जगाना हो तो सब तरफ से अपने विश्वास को खींच लो और एक इस बिंदु पर केंद्रित कर दो--वह जो मैं हूं। इतनी बुद्धि, इतना विवेक, इतना विचार, इतनी शक्ति जग सकती है कि जिन ऋषि-मुनियों के चरणों में आप हाथ जोड़े खड़े थे, वैसे ही ऋषि-मुनि आपके अपने ही भीतर पैदा हो सकते हैं। वे उनके भीतर कैसे पैदा हो गए हैं?
सारे ऋषि-मुनि हमारे जैसे लोग थे, हमारी जैसी ही हड्डी-मांस-मज्जा से बने हुए। कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण और क्राइस्ट हमसे भिन्न नहीं हैं--हम ही हैं। लेकिन हम सोए हुए हैं और वे जागे हुए हैं, इससे ज्यादा और कोई भेद नहीं है। और हम भी जाग सकते हैं। लेकिन पूछे कोई, महावीर किस पर विश्वास करते हैं? कोई पूछे कि जीसस क्राइस्ट किस पर विश्वास करते हैं? कोई पूछे कि मोहम्मद किस पर विश्वास करते हैं? कोई पूछे कि कृष्ण का विश्वास किस पर है? यह बड़ी अदभुत बात है कि इन सब का विश्वास स्वयं पर है, और हम सब का विश्वास इन पर है। ये सब अपने पर विश्वास करते हैं। वह जो भीतर बैठी हुई चेतना है उस पर ही इनकी श्रद्धा और आस्था है। और हमारी अपने को छोड़ कर और कहीं भी हो सकती है।
ध्यान रहे, जो श्रद्धा अपने से बाहर जाती है वह श्रद्धा अश्रद्धा को ही छिपाने का उपाय है। ध्यान रहे, जो विश्वास अपने पर ही नहीं है, वह विश्वास किसी पर भी कभी नहीं हो सकता। वह सिर्फ भूल है, वह सिर्फ एक असत्य है। वह एक झूठा पर्दा है, जिसकी आड़ में हम अपनी कमी को छिपाए चले जाते हैं। आत्मश्रद्धा के लिए मेरा आग्रह है।
इस संबंध में कुछ और प्रश्न रह गए हैं, वह कल सुबह उनकी हम बात करेंगे। आज सांझ दूसरे सूत्र पर बात करूंगा और कल सांझ तीसरे सूत्र पर।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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