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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-70

तपश्चर्या: अकेलेपन से गुजरने का साहस

प्रवचन-70-ओशो

 प्रश्नसार:

1—अकेलापन बहुत काटता है। क्या करे?
2—एकांत ओर पूर्णता में सामंजस्य कैसे बिठाएं
3—संबंधों को बढाएं या घटाएं?
4—यौन का आकर्षण क्या गर्भ में वापस लौटने का आकर्षण है?
5—आपका ‘हम’ से क्या तात्पर्य है?

 पहला प्रश्न :
एकांत में स्वयं का सामना करना बहुत भययुक्त और पीड़ादायी है। क्या करें?
यह भययुक्त भी है और पीड़ादायी भी, और व्यक्ति को इसे झेलना ही होता है। इससे बचने के लिए, मन को इससे हटाने के लिए, इससे भागने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए। इसे झेलना ही पड़ेगा और इससे गुजरना ही पड़ेगा। यह कष्ट यह पीड़ा तो शुभ लक्षण है कि अब तुम एक नए जन्म के निकट आ रहे हो क्योंकि हर जन्म पीड़ा के बाद ही होता है। इससे बचा नहीं जा सकता और न ही इससे बचना चाहिए, क्योंकि यह तुम्हारे विकास का एक अंग है। इस पीड़ा और कष्ट को ही तपश्चर्या कहा गया है। तपस का अर्थ ही है : दुष्कर संयम, सघन प्रयास।


लेकिन यह पीड़ा क्यों है? यह समझने जैसा है क्योंकि समझ तुम्हें इसमें से गुजरने में सहयोग देगी और यदि तुम जानते हुए इसमें से गुजरते हो तो तुम अधिक सरलता और शीघ्रता से इससे बाहर निकल आओगे।
जब तुम अकेले होते हो तो पीड़ा क्यों होती है? पहली बात तो यह है कि तुम्हारा अहंकार दिक्कत में पड़ जाता है। तुम्हारा अहंकार केवल दूसरों के साथ ही रह सकता है। अहंकार संबंधों से ही विकसित हुआ है अकेले नहीं रह सकता। तो यदि परिस्थिति ऐसी हो जाए जिसमें कि अहंकार बच ही न सके तो उसका दम घुटने लगता है, उसे अपनी मौत नजर आने लगती है। यह सबसे बड़ा कष्ट है। तुम्हें लगता है कि तुम ही मर रहे हो। पर तुम नहीं अहंकार मर रहा है जिसे तुमने स्वयं समझ लिया है जिससे तुमने तादात्म्य बना लिया है। अकेले में अहंकार नहीं टिक सकता क्योंकि वह दूसरों ने तुम्हें दिया है। वह एक दान है। जब तुम दूसरों को छोड़ते हो तो तुम अहंकार को अपने साथ नहीं ले जा सकते।
इसको ऐसे देखो : जब तुम समाज में हो तो लोग सोचते हैं कि तुम बहुत अच्छे आदमी हो। यह अच्छाई अकेले में नहीं टिक सकती क्योंकि यह तो दूसरे तुम्हारे बारे में सोचते थे। अब वे लोग तो हैं नहीं। तुम्हारी कोई छवि नहीं बन सकती। वह छवि आधारहीन हो गई। धीरे-धीरे वह छवि गिर जाएगी और तुम्हें बहुत बुरा लगेगा, क्योंकि तुम इतने अच्छे व्यक्ति थे और अब तुम नहीं रहे।
और केवल अच्छे लोगों को ही कष्ट नहीं होगा, यदि तुम बुरे हो तो यह खयाल भी तुम्हें दूसरों के द्वारा ही दिया गया है। वह भी ध्यान आकर्षित करने का एक उपाय है। जब कई लोग तुम्हें बुरा कहते हैं तो वे तुम्हारी ओर ध्यान देते हैं। वे तुम्हारे प्रति उदासीन नहीं रह सकते, उन्हें तुम्हारी ओर ध्यान देना ही पड़ेगा। तुम कुछ हो, बुरे आदमी हो, खतरनाक हो। जब तुम एकांत में चले जाते हो तो तुम ना-कुछ हो जाते हो। वह बुरी छवि खो जाएगी। और तुम उसी पर जी रहे थे, तुम्हारा अहंकार उसी से पोषित हो रहा था।
तो अच्छे आदमी और बुरे आदमी मूल रूप से भिन्न नहीं होते, दोनों का अहंकार पोषित हो रहा है। उनके माध्यम अलग हो सकते हैं लेकिन उनके लक्ष्य तो एक ही हैं। बुरा भी दूसरों पर आश्रित है अच्छा भी। वे दोनों समाज में रहते हैं। पापी और पुण्यात्मा दोनों समाज में ही होते हैं। अकेले में न तो तुम पापी होते हो न पुण्यात्मा।
तो एकांत में तुम जो भी अपने बारे में जानते हो सब गिर जाता है; धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। थोड़े समय तक तुम अपने अहंकार को चलाए रख सकते हो-और वह भी तुम्हें कल्पना से करना पड़ेगा-लेकिन यह बहुत समय तक नहीं चल सकता। समाज के बिना तुम उखड़ जाते हो; वह धरती ही नहीं रहती जिससे तुम भोजन प्राप्त करते हो। यही मूल पीड़ा है। तुम्हें अब निश्चित नहीं होता कि तुम कौन हो-तुम एक धुंधला-धुंधला व्यक्तित्व, विलीन होता हुआ व्यक्तित्व रह जाते हो।
लेकिन यह अच्छा है, क्योंकि जब तक यह झूठे तुम समाप्त नहीं होते तब तक वास्तविक का उदय नहीं हो सकता। जब तक तुम पूरी तरह घुलकर मिट न जाओ वास्तविक प्रकट नहीं हो सकता। यह झूठ सिंहासन पर आसीन है। उसे सिंहासन से उतार फेंकना है।
एकांत में रहने से वह सब, जो झूठ है समाप्त हो सकता है। और समाज ने जो भी दिया है वह झूठ है, जो तुम्हारे साथ पैदा हुआ है वही वास्तविक है। जो भी तुम्हारे कारण है, किसी और का दिया हुआ नहीं है वास्तविक है। लेकिन झूठ को तो जाना ही होगा। और झूठ बड़ी संपदा है : तुम्हारे उसमें इतने न्यस्त स्वार्थ हैं तुमने उसे इतना सम्हाला है। तुम्हारी सारी आशाएं उसमें अटकी हैं। तो जब वह तिरोहित होने लगेगा, तुम्हें भय लगेगा, कंपकंपी होगी : 'मैं अपने साथ क्या कर रहा हूं? मैं अपना पूरा जीवन बरबाद कर रहा हूं पूरा ढांचा तोड़ रहा हूं!'
तो भय होगा। लेकिन तुम्हें इस भय से गुजरना होगा, केवल तभी तुम अभय हो सकते हो। मैं यह नहीं कहता कि तुम बहादुर हो जाओगे नहीं। मैं कहता हूं कि तुम अभय हो जाओगे। बहादुरी तो भय का ही हिस्सा है। तुम कितने ही बहादुर क्यों न होओ भय पीछे छिपा ही हुआ है। मैं कहता हूं अभय। तुम बहादुर नहीं हो जाओगे; जब भय ही न रह जाए तो बहादुर होने की जरूरत भी नहीं है। बहादुरी और भय दोनों ही असंगत हो जाते हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो तुम्हारे बहादुर आदमी और कुछ नहीं बस ऐसे ही हैं जैसे तुम शीर्षासन कर रहे हो। तुम्हारी बहादुरी भीतर छिपी हुई है और भय बाहर है; उनका भय भीतर छिपा हुआ है और बहादुरी बाहर है। तो जब तुम अकेले होते हो तो बड़े बहादुर होते हो, जब तुम किसी चीज के बारे में सोचते हो तो बड़े बहादुर होते हो, लेकिन जब असली परिस्थिति आती है तो तुम भयभीत हो जाते हो। योद्धाओं, महान योद्धाओं के बारे में कहा जाता है कि युद्ध में जाने से पहले वे उतने ही भयभीत होते हैं जितना कोई और हो सकता है।
भीतर तो कंपन है, लेकिन वे युद्ध में उतर जाएंगे। वे इस भय को भीतर अचेतन में धकेल देंगे; और अंदर जितना ही भय होगा, उतना ही वे बहादुर होने का मुखौटा ओढ़ लेंगे। वे एक कवच पहन लेंगे। तुम उस कवच की ओर देखते हो, वह बहादुर दिखाई पड़ता है लेकिन गहरे में भय मौजूद है। व्यक्ति केवल तभी अभय हो सकता है यदि वह गहनतम भय से गुजरा हो-अहंकार के, छवि के व्यक्तित्व के मिटने के भय से गुजरा हो।
यह मृत्यु है क्योंकि तुम्हें पता नहीं कि इससे नए जीवन का जन्म होगा। इस प्रक्रिया के दौरान तो तुम्हें केवल मृत्यु का ही पता चलेगा। जिस तरह तुम हो, उस झूठी सत्ता के प्रति जब तुम मृत हो जाओगे केवल तभी तुम्हें पता लगेगा कि यह मृत्यु तो अमरत्व का द्वार थी। वह सब कुछ जिसे तुमने इतना संजोया था, तुमसे छीना जा रहा है-तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारे विचार, वह सब कुछ जिसे तुम सुंदर समझते थे।
सब कुछ तुम्हें छोड़ रहा है। तुम्हें उघाड़ा जा रहा है। तुम्हारे सब चोगे-मुखौटे छीने जा रहे हैं। इस प्रक्रिया के दौरान भय होगा। लेकिन यह भय आधारभूत है आवश्यक है, अपरिहार्य है; उससे गुजरना ही पड़ता है। उसे समझो उससे बचने की कोशिश मत करो उससे भागने की कोशिश मत करो। क्योंकि हर पलायन तुम्हें वापस लौटा लाएगा, तुम फिर अपने व्यक्तित्व में प्रवेश कर जाओगे।
जो लोग गहरे मौन और एकांत में जाते हैं वे हमेशा मुझसे पूछते हैं, 'भय उठेगा तो क्या करें?' मैं उन्हें कुछ करने को नहीं कहता, बस भय को जीने को कहता हूं। यदि कंपकंपी उठती है तो कांपो उसे रोकते क्यों हो? यदि कोई तरिक भय है और तुम उससे कप रहे हो तो कांपो। कुछ मत करो। उसे होने दो। वह अपने आप ही चला जाएगा। यदि तुम उससे बचोगे-और तुम बच सकते हो। तुम राम-राम जपना शुरू कर सकते हो; तुम किसी मंत्र को पकड़ सकते हो, ताकि तुम्हारा मन दूसरी ओर चला जाए। तुम्हारा मन दूसरी ओर उलझ जाएगा और भय नहीं होगा। लेकिन तुमने उसे अचेतन में फेंक दिया। भय उठ रहा था-जो कि अच्छा था, तुम उससे मुक्त हो सकते थे-वह तुम्हें छोड़ रहा था।
और जब भय तुम्हें छोड़ता है तब तुम कंपते हो। यह स्वाभाविक है, क्योंकि शरीर की, मन की हर कोशिका में जो ऊर्जा सदा दबी थी, वह बाहर निकल रही है। कंपन होगा, कंपकंपी छूटेगी; एकदम सब भूकंप की तरह हो जाएगा। पूरी आत्मा इससे विचलित हो जाएगी। और उसे हो जाने दो। कुछ भी मत करो।
यह मेरा सुझाव है। राम का नाम भी मत जपो। इस भय के साथ कुछ भी करने का प्रयास मत करो क्योंकि तुम जो भी करोगे उससे दोबारा दमन हो जाएगा। बस भय को उठने देने से ही भय तुम्हें छोड़ जाएगा।
और जब भय तुम्हें छोड़ेगा तो तुम बिलकुल दूसरे ही आदमी हो जाओगे। झंझावात जा चुका होगा और तुम केंद्रित हो जाओगे। इतने केंद्रित जितने कि तुम पहले कभी भी न थे। और एक बार तुम्हें घटनाओं को होने देने की कला आ जाए तो तुम्हारे हाथ वह कुंजी लग जाएगी जो भीतर के सब द्वार खोल देती है। फिर जो भी हो उसे होने दो उससे बचो मत।
यदि बस तीन महीने के लिए तुम पूरी तरह से एकांत और मौन में चले जाओ, किसी चीज से संघर्ष न करो जो भी हो उसे होने दो तो तीन महीने के भीतर पुराना सब समाप्त हो जाएगा और नए का आविर्भाव होगा। लेकिन राज है होने देना, चाहे वह अनुभव कितना ही भयावह, कितना ही पीड़ादायी, कितना ही खतरनाक थे, कितना ही मौत जैसा लगे। कई क्षण आएंगे जब तुम्हें लगेगा कि अगर तुमने कुछ न किया तो तुम पागल हो जाओगे। और अनजाने में ही तुम कुछ करने लगोगे। हो सकता है तुम्हें पता हो कि कुछ भी नहीं किया जा सकता, लेकिन तुम नियंत्रण-में नहीं होगे और तुम कुछ करने लगोगे।
यह ऐसे हाँ है जैसे कि तुम आधी रात को किसी अंधेरी सड़क से गुजर रहे हो और तुम्हें भय लगने लगे, क्योंकि आस-पास कोई भी नहीं है और सड़क भी अनजानी है तो तुम सीटी बजाने लगते हो। सीटी बजाने से क्या होगा? तुम्हें पता है कि इससे कुछ नहीं हो सकता। तुम एक गीत गाने लगते हो। तुम जानते हो कि गीत गाने से कुछ भी नहीं होगा, अंधेरा मिट नहीं सकता, तुम अकेले ही रहोगे लेकिन फिर भी इससे मन दूसरी ओर चला जाता है। यदि तुम सीटी बजाने लगते हो तो सीटी बजाने से तुम्हें थोड़ी हिम्मत बंधती है और तुम अंधकार को भूल जाते हो। तुम्हारा मन सीटी बजाने में लग जाता है और तुम्हें लगता है कि सब ठीक है।
कुछ हुआ नहीं। सड़क भी वही है, अंधकार भी वही है, अगर कोई खतरा है तो वह भी वैसा का वैसा है, लेकिन तुम ज्यादा सुरक्षित महसूस करने लगते हो। सब कुछ वैसा ही है, लेकिन अब तुम कुछ कर रहे हो। तुम किसी नाम, किसी मंत्र का जाप करने लग सकते हो, वह भी एक तरह का सीटी बजाना है। उससे तुम्हें बल मिलेगा। लेकिन वह बल खतरनाक है, वह बल भी समस्या बन जाएगा, क्योंकि वह बल तुम्हारा पुराना अहंकार बन जाने वाला है। तुम उसे पुनरुज्जीवित कर रहे हो।
तो द्रष्टा बने रहो और जो भी हो उसे होने दो। भय के पार जाने के लिए उसका साक्षात्कार करना होता है। विषाद से ऊपर उठने के लिए उसे देखना होता है। और वह देखना जितना प्रामाणिक होगा, बिलकुल आमने-सामने, जितना ही तुम चीजों को जैसी हैं वैसी देखना शुरू कर दोगे उतनी जल्दी ही घटना घटेगी।
समय इसलिए लगता है क्योंकि तुम्हारी प्रामाणिकता सघन नहीं है। तो तुम्हें तीन दिन लग सकते हैं, तीन महीने लग सकते हैं, तीन वर्ष लग सकते हैं या तीन जन्म लग सकते हैं-यह सघनता पर निर्भर करता है। वास्तव में तो तीन मिनट भी पर्याप्त हैं, तीन सेकेंड भी पर्याप्त हैं लेकिन तब तुम्हें घोर नर्क से गुजरना पड़ेगा। इतनी सघनता को शायद तुम झेल न पाओ सहन न कर पाओ। यदि कोई उसका साक्षात्कार कर सके जो भीतर छिपा है तो वह समाप्त हो जाता है। और जब वह समाप्त हो जाता है तो तुम दूसरे ही हो जाते हो। क्योंकि जो समाप्त हो गया है वह पहले तुम्हारा हिस्सा था, अब वह तुम्हारा हिस्सा नहीं है।
तो यह मत पूछो कि क्या करें। कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। कुछ न करना, साक्षी रहना, बिना प्रयास के जो हो उसे देखना, जरा सा भी प्रयास न करना, बस होने देना...।
अकर्मण्य बने रहो और जो हो रहा है उसे गुजर जाने दो। भय सदा गुजर जाता है। जब तुम कुछ करते हो तो वास्तव में सब अनकिया हो जाता है, क्योंकि तुम बाधा डाल रहे हो।
कौन डालेगा बाधा? कौन है भयभीत? वह जो रोग है वही बाधा डालेगा। वह अहंकार जिसे छोड़ना है, बाधा डालेगा।
मैंने तुम्हें कहा कि अहंकार समाज का अंग है। तुमने समाज तो छोड़ दिया पर तुम वह अंग नहीं छोड़ना चाहते जो समाज ने तुम्हें दिया है। समाज में उसकी जड़ें हैं; समाज के बिना वह जी नहीं सकता। तो या तो तुम्हें अहंकार छोड़ना पड़ेगा या एक नया समाज खड़ा करना पड़ेगा, जिसमें वह जी सके।
तब तुम एक वैकल्पिक समाज का निर्माण कर ले सकते हो यह मन की गहरी चाल है। ऐसा सदा हुआ है। तुम एक भिन्न समाज पैदा कर सकते हो। तुम एक आश्रम खड़ा कर सकते हो। बीस लोग जो एकांत में रहना चाहते हों एक मठ बना सकते हैं, तब वह मठ एक वैकल्पिक समाज बन गया। तो वे समाज से हट जाते हैं, परंतु एक दूसरा समाज निर्मित कर लेते हैं। तो मूलत: कुछ बदलता नहीं। वे वैसे ही रहते हैं। बल्कि शायद वे और अहंकारी हो सकते हैं क्योंकि अब वे चुने हुए लोग हैं। संसार उन्होंने छोड़ दिया है मगर दूसरे समाज का निर्माण कर लिया है, संबंध फिर निर्मित होने लगे। फिर एक मुखिया होगा, फिर शिष्य होंगे, फिर एक गुरु होगा और सारी श्रृंखला एक लघु रूप में फिर आरंभ हो जाती है। और फिर अच्छे शिष्य होते हैं बुरे शिष्य होते हैं, सफल और असफल होते हैं.. .सब वही का वही हो जाता है। एक छोटे समूह में सारा समाज वापस आ गया।
उससे कुछ नहीं होगा। अब पश्चिम में ऐसा हो रहा है। बड़ी संख्या में युवा लोग समाज छोड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि समाज सड़-गल गया है मर रहा है। और उन्हें लगता है कि समाज इतना सड़ गया है कि इसे बदला नहीं जा सकता। यह एक नई घटना है। युवा लोग सदा से सोचते रहे हैं कि समाज सड़ गया है, पर वे सोचते रहे हैं कि इसे बदला जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है इसलिए क्रांति की जरूरत है। किसी समाज या सभ्यता की अंतिम अवस्था में ही ऐसा होता है कि लोग सोचना शुरू कर देते हैं कि कुछ भी नहीं किया जा सकता, क्रांति एक बकवास है समाज इतना मर चुका है कि कोई इसे पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता, बदल नहीं सकता। तो तुम बस उससे बाहर निकल आते हो। तुम कुछ नहीं कर सकते, घर में आग लगी है तो तुम बस उससे भाग निकलते हो।
पश्चिम में ऐसा ही हो रहा है : हिप्पी, बीटल, यिप्पी, इस तरह के लोग समाज छोड़ रहे हैं। लेकिन वे एक दूसरा समाज, वैकल्पिक समाज बन गए हैं। आम समाज में यदि तुम लंबे बाल रखते हो तो दूसरे तुम्हारी ओर ऐसे देखेंगे जैसे तुम भटक गए हो, कुछ गलत हो। हिप्पी समाज में यदि तुम्हारे बाल छोटे हैं तो तुम गलत हो! तुममें कोई गलती है।
लेकिन अंतर क्या है? आम समाज में यदि तुम गंदे रहते हो तो तुम गलत हो; तुम असंस्कृत, असभ्य, अनपढ़, अस्वीकार्य हो। लेकिन हिप्पी समाज में यदि तुम साफ रहते हो तो गलत हो। फिर तो तुम अभी पुराने मन के साथ चिपके हुए हो जो कहता है कि परमात्मा के बाद स्वच्छता ही है। परमात्मा तो बहुत पहले मर चुका, अब उसके बाद स्वच्छता भी मर गई है। परमात्मा के बिना वह जिंदा नहीं रह सकती।
लेकिन वही निंदा और वही प्रशंसा वहां भी है। तुम बिलकुल उलटे नियमों को लेकर एक वैकल्पिक समाज बना सकते हो। लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम्हारे अहंकार को पुन: पोषित किया जा सकता है। उसे उखाड़कर तुमने दूसरी जगह लगा दिया। नई धरती उसे मिल गई।
एकाकी होने का अर्थ है किसी वैकल्पिक समाज का निर्माण न करना। बस समाज से बाहर निकल जाओ; और तब समाज ने तुम्हें जो भी -दिया है, तुम्हें छोड़ जाएगा। वह सब केवल एक वातावरण में, एक सामाजिक वातावरण में जीवित रह सकता है, उसके बाहर नहीं। तुम्हें वह छोड़ना ही पड़ेगा। यह पीड़ादायी तो होगा, क्योंकि तुम उसके साथ इतने व्यवस्थित हो, सब कुछ सुव्यवस्थित है। इस व्यवस्था में रहना तुम्हारे लिए बहुत आरामदायक हो गया है। जब तुम बदलर्तई हो और अकेले हो जाते हो तो तुम सब आराम, सब सुविधाएं और जो कुछ भी समाज तुम्हें दे सकता है, छोड़ रहे हो। और जब समाज तुम्हें कुछ देता है तो तुमसे कुछ लेता भी है : तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आत्मा।
तो यह एक लेन-देन है। और जब तुम अपनी आत्मा को उसकी परिपूर्ण शुद्धता में पाने का प्रयास कर रहे हो तो तुम्हें यह लेन-देन बंद करना होगा। यह पीड़ादायी तो होगा, लेकिन यदि तुम इसमें से गुजर सकी तो परम आनंद करीब ही है। समाज इतना दुखदायी नहीं है जितना एकाकीपन; समाज सांत्वना देता है, सुविधाजनक है, सुखद है। लेकिन तुम्हें एक तरह की नींद देता है। यदि तुम उसे छोड़ोगे तो असुविधा तो होगी ही। हर तरह की असुविधा होगी। उन असुविधाओं को इस समझ से झेलना होगा कि वे एकांत का, स्वयं को पुन: प्राप्त करने का अंग हैं। यही तप है, यही साधना है। और इससे तुम नए होकर, एक नई गरिमा और आया एक नई शुद्धता और निर्दोषता के साथ बाहर आते हो।

दूसरा प्रश्न :
कम रात आमने कहा कि पूर्ण एकांत मनुष्य का मूल स्वभाव है, मनुष्य की परम दशा है। एक दिन आपने यह भी कहा था कई व्यक्तितत्व झूठ है और मनुष्य अस्तित्व की संघटित (आर्गेनिक) पूर्णता में तरंग मात्र है। तो एकांत और पूर्णता में सामंजस्य कैसे हो सकता है?

सामंजस्य की कोई जरूरत नहीं है। एकांत ही पूर्णता है। लेकिन एकाकीपन का अर्थ व्यक्तित्व नहीं है। समाज के कारण ही तुम एक व्यक्ति हो। जब तुम सर्वथा अकेले होओगे तो व्यक्ति नहीं रह जाओगे।
व्यक्ति का अर्थ है समाज का एक हिस्सा, समाज की एक इकाई। जब तुम भीड़ में होते हो तो एक व्यक्ति होते हो; जब तुम भीड़ से बाहर निकल आते हो तो न केवल भीड़ पीछे छूट जाती है वरन व्यक्ति भी पीछे छूट जाता है। वह व्यक्तित्व तुम्हें दिया गया था। व्यक्तित्व और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अकेले होने पर तुम व्यक्ति नहीं रह जाते। व्यक्ति को समाज के ढांचे में रहना होता है। यह ऐसा ही है जैसे मैंने कहा कि अकेले न तुम अच्छे होते हो न बुरे, न पापी होते हो न पुण्यात्मा, न सुंदर होते हो न कुरूप, न बुद्धिमान होते हो न मूर्ख। दोनों ही द्वैत समाप्त हो जाते हैं। दुई गिर जाती है।
व्यक्ति समाज के कारण है। व्यक्ति समाज की इकाई है। अकेले तुम व्यक्ति नहीं होते। इसलिए यह मत सोचो कि जब तुम अकेले होओगे तो व्यक्ति रहोगे। नहीं, तुम व्यक्ति नहीं होओगे। यदि कोई समाज न हो तो तुम व्यक्ति कैसे हो सकते हो? तुम बस होओगे, और तुम्हारा एकाकीपन ही पूर्णता होगा। अहंकार गिर जाएगा। और यह अहंकार ही है जो तुम्हें व्यक्तित्व का भाव देता है।
अकेले होने का यह अर्थ नहीं है कि तुम एक व्यक्ति हो, अकेले होने का अर्थ है कि अब समाज और व्यक्ति के बीच का विभाजन न रहा। इससे तुम्हें पूर्णता मिलेगी। अब तुम किसी चीज के हिस्से नहीं हो। तुम पूर्ण हो गए।
इसे अभिव्यक्त करना कठिन है क्योंकि भाषा में यह बड़ा अजीब लगता है। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि जब तुम अकेले हो तो व्यक्ति कैसे नहीं होओगे। क्योंकि यदि तुम कल्पना करो कि किसी पहाड़ पर, हिमालय की किसी कंदरा में बैठे हुए हो तो स्वयं को तुम एक व्यक्ति की तरह ही सोचोगे-क्योंकि तुम जानते ही नहीं कि एकांत क्या है। एकांत का अर्थ है कि सब विचार, सारा मन, सारा व्यक्तित्व जो तुम्हें समाज ने दिया था, सब पीछे छूट गया। तुम बस एक रिक्तता, एक शून्य, एक ना-कुछ रह जाओगे। हिमालय की कंदरा में बैठे हुए कोई बैठा नहीं होगा, बस शून्य आकाश होगा।
बुद्ध एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। पूर्णिमा की रात थी और कुछ युवक जंगल में आए हुए थे। वे अपने साथ बहुत सी शराब और एक युवा वेश्या को ले आए थे। लेकिन उन्होंने इतनी शराब पी ली और नशे में वे इतने धुत हो गए कि वेश्या भाग खड़ी हुई। जब उन्हें पता चला कि युवती उन्हें छोड्‌कर चली गई है तो वे उसे ढूंढने निकले कि कहां गई?
खोजते-खोजते वे बुद्ध के पास पहुंचे जो वृक्ष के नीचे बैठे ध्यान कर रहे थे। तो उन युवकों ने उनसे पूछा, 'आपने एक सुंदर और नग्न युवती को इधर से गुजरते हुए अवश्य देखा होगा, क्योंकि यही एकमात्र रास्ता है और पूर्णिमा की रात है। तो आपने उस नग्न सुंदरी को गुजरते हुए अवश्य देखा होगा। आपने देखा उसे?'
बुद्ध ने अपनी आंखें खोलीं और कहा, 'कोई गुजरा तो अवश्य, लेकिन मैं यह नहीं
कह सकता कि वह स्त्री थी या पुरुष था। मैं यह नहीं कह सकता कि जो गुजरा वह सुंदर था
या कुरूप। मैं यह भी नहीं कह सकता कि उसने वस्त्र पहने हुए थे या नहीं। कोई गुजरा तो
अवश्य, मैंने पदचाप सुनी थी।’
वे तो बड़े चकित हुए और बोले, 'यह तो असंभव है।’ बुद्ध ने कहा, 'पहले मैंने भी इस पर विश्वास न किया होता। जब मैं समाज का हिस्सा था तो यह असंभव था, लेकिन अब मैंने समाज को छोड़ दिया है और समाज की सारी धारणाएं भी छोड़ दी हैं। अब मेरे चारों ओर केवल प्रकृति घटित होती है। इसलिए मैंने किसी के गुजरने की आवाज तो सुनी; मेरे तरिक शून्य में बस वह आवाज पहुंची, बस इतना ही। कोई गुजरा।’
तुम एक मौन अंतरिक शून्य हो जाते हो। तुम व्यक्ति नहीं होते, क्योंकि तुम मन नहीं रहते। मन को गिराने के लिए एकांत सुझाया गया है। और मन के साथ सब गिर जाता है। एक क्षण आता है जब तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम कौन हो; और वही क्षण है जहां से वास्तविक ज्ञान शुरू होगा।
एक क्षण आता है जब तुम बिलकुल भूल जाते हो कि तुम कौन हो; और पहले तुम जो जानते भी थे वह नहीं रहता, पुरानी सब पत्तियां गिर जाती हैं। यही सबसे कठिन और सबसे महत्वपूर्ण क्षण है और अब कुछ समय के लिए एक अंतराल होगा। यह अंतराल तीव्र व्यथा से भरा होगा, क्योंकि पुराना तो जा चुका और नया अभी आया नहीं है। जब वृक्ष से पुरानी पत्तियां गिरेंगी तो कुछ दिन के लिए वृक्ष नग्न हो जाएगा और बस नई कोंपलों के फूटने की प्रतीक्षा करेगा। नई पत्तियां आ रही हैं, वे रास्ते पर हैं, पुरानी पत्तियों ने जगह खाली कर दी है। अब जगह खाली है तो उस जगह को भरने के लिए नए की यात्रा शुरू हो गई है, देर-अबेर उसका होगा।
लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी। एकांत में ध्यान करते-करते समाज छूट जाएगा, मन छूट जाएगा, अहंकार छूट जाएगा और एक अंतराल पैदा होगा। तुम्हें उस अंतराल से भी गुजरना पड़ेगा। अब वृक्ष नई पत्तियों के आने की बाट जोड़ रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता। वृक्ष क्या कर सकता है? उन्हें जल्दी लाने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता, वे अपने ही ढंग से आएंगी।
और यह अच्छा है कि पुराना छूट गया है, क्योंकि अब जगह खाली हो गई। नए के आविर्भाव के लिए जगह बन गई। अब कोई बाधा न होगी।
तो अंतर्मन का भी एक पतझड़ होता है। सारी पत्तियां गिर जाएंगी। एक गहन पीड़ा होगी। तुम उन पुरानी पत्तियों के साथ इतने दिन रहे हो कि तुम्हें लगेगा तुम कुछ खो रहे हो। और फिर प्रतीक्षा का एक शिशिर काल, एक अंतरिक शिशिर काल होगा जब तुम नग्न हो रहोगे-बिना पत्तियों के आकाश की ओर उम्मुख एक नग्न वृक्ष। और तुम नहीं जानते कि क्या होने वाला है। अब सब कुछ ठहर गया है। अब कोई पक्षी तुम्हारी शाखाओं पर गीत गाने नहीं आते। अब कोई तुम्हारे नीचे तुम्हारी छाया में बैठने, आराम करने नहीं आता। अब तुम्हें कुछ पता नहीं है कि तुम मर चुके हो या तुम्हारा कोई नया जन्म होने वाला है। यह बीच का अंतराल है।
ईसाई रहस्यदर्शियों ने इसे कहा है : आत्मा की अंधेरी रात-सूर्योदय से पहले। सब कृत्रिम प्रकाश बुझ गए हैं, रात बहुत अंधियारी हो गई है। और सूर्योदय से पहले का क्षण सर्वाधिक अंधकारमय होगा।
तो अंतरात्मा का एक शिशिर काल होता है, जब कोई पत्तियां नहीं होतीं, कोई पक्षी गीत नहीं गाते और कोई तुम्हारे नीचे विश्राम करने नहीं आता। तुम मृतवत अनुभव करते हो। सब कुछ रुक गया। सब गतियां बंद हो गईं। इससे गुजरना होगा-क्योंकि फिर वसंत आएगा, नई पत्तियां उगेंगी, नया जीवन, नए फूल आएंगे। तुम्हारे भीतर एक नया आयाम खुलेगा।
लेकिन पतझड़ को और शिशिर को याद रखो केवल तभी वसंत संभव है। पतझड़ भी वसंत का हिस्सा है-यदि तुम समझ सको-वह वसंत के आने का ही मार्ग तैयार कर रहा है। तो पतझड़ वसंत के विरुद्ध नहीं है केवल उसकी शुरुआत है। और वह अंतराल भी जरूरी है, क्योंकि उसमें तुम तैयार होते हो। पुराना जा चुका। अब तुम उससे दबे नहीं हो, उससे बोझिल नहीं हो। तुम गर्भवान हो। लेकिन गर्भ का मतलब है प्रतीक्षा, नया शिशु विकसित हो रहा है। इससे पहले कि वह जन्म ले, इस संसार में प्रकट हो, उसे गहरे अचेतन में छिपे रहना होगा, क्योंकि हर बीज को गहन अंधकार में, भूमि के नीचे छिपे रहना पड़ता है। सभी उसमें जीवन घटित होता है। यदि तुम बीज को सूर्य के प्रकाश में रख दो तो कुछ भी नहीं होगा। उसे गहन अंधकार की, एक गर्भ की जरूरत है।
तो जब तुम गर्भ से भरे हो तो शिशिर काल होगा : सब गति रुक जाती है, तुम्हें बस गर्भ को सम्हालना होता है-होशपूर्वक, समझपूर्वक, प्रेमपूर्वक, आशा से भरे, प्रार्थनापूर्ण, प्रतीक्षापूर्ण। और फिर वसंत आएगा। ऐसा सदा हुआ है। मनुष्य भी एक वृक्ष है।
और स्मरण रहे, एकांत ही पूर्णता है, वे विरोधाभासी नहीं हैं। अहंकार तो हिस्सा है, एक खंड है। अहंकार समष्टि नहीं हो सकता, वह पूर्ण के विरुद्ध है। एकांत में अहंकार समाप्त हो जाता है। तुम पूर्ण के साथ एक हो जाते हो और सीमा गिर जाती है। जब तुम परिपूर्ण रूप से अकेले हो तो तुम ब्रह्मांड हो, तुम ब्रह्म हो।

तीसरा प्रश्न :
कल रात की पहली विधि में बताया गया कि एकांत में रहना संबंधों को कम से कम
 करना है। लेकिन पहले कभी आपने कहा था कि अपने संबंधों को असीमित रूप से बढ़ाना चाहिए।

दोनों में से कुछ भी करो। या तो अपने को इतना फैलाओ कि कुछ भी तुमसे असंबंधित न रह जाए, तब तुम खो जाओगे; या इतने अकेले हो जाओ कि कुछ भी तुमसे संबंधित न रहे तब भी तुम खो जाओगे।
तुम मध्य में हो, जहां कुछ संबंधित है और कुछ संबंधित नहीं है, जहां कोई मित्र है और कोई शत्रु है, जहां कोई अपना है और कोई पराया है, जहां चुनाव है। तुम मध्य में हो। किसी भी अति पर चले जाओ। हर किसी से संबंधित हो जाओ, हर चीज से संबंधित हो जाओ-और तुम खो जाओगे। हर चीज से संबंधित हो जाना इतनी विराट घटना है कि तुम नहीं बच सकते तुम तो डूब जाओगे।
तुम्हारा अहंकार इतना संकरा है कि वह केवल थोड़े से संबंधों में ही जी सकता है। और उनमें भी वह किसी न किसी चीज के विरुद्ध होता है, वरना वह जी ही नहीं सकता। यदि संसार की हर चीज के साथ तुम मैत्रीपूर्ण हो जाओ तो तुम खो जाते हो। यदि तुम अहंकार की तरह रहना चाहते हो तो भी तुम मैत्रीपूर्ण हो सकते हो; लेकिन तब तुम्हें किसी से शत्रुता भी करनी होगी। किसी से तुम्हें प्रेम करना होगा और किसी से घृणा करनी होगी। तब तुम इन दो विरोधाभासों के बीच जी सकते हो अहंकार बच सकता है।
तो या तो सबको प्रेम करो और तुम समाप्त हो जाओगे, या सबको घृणा करो और तुम समाप्त हो जाओगे। यह विरोधाभासी लगता है है नहीं। विधि एक ही है। विधि वही है चाहे तुम सबको प्रेम करो, चाहे सबको घृणा करो। हर चीज की घृणा को पूरब में वैराग्य कहते हैं। हर चीज से घृणा में तुम अपना प्रेम पूरी तरह से खींच लेते हो, महसूस करते हो कि सब व्यर्थ है, कोई मूल्य नहीं है।
यदि तुम इतनी समग्रता से घृणा कर सको तो तुम पूर्ण हो जाओगे, तब तुम नहीं रह सकते। तुम केवल तभी हो सकते हो जब दो विरोधाभास हों : प्रेम और घृणा। इन दो के बीच तुम संतुलित होते हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई रस्सी पर चल रहा हो। उसे दाएं और बाएं के बीच संतुलन रखना पड़ता है। यदि वह पूरी तरह बाईं ओर चला जाए तो वह गिर जाएगा; यदि वह पूरी तरह दाईं ओर चला जाए तो भी वह गिर जाएगा। तो चाहे तुम दाईं ओर जाओ कि बाईं ओर, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई एक चुन लो। सुम रस्सी से गिर जाओगे।
यदि तुम रस्सी पर बने रहना चाहते हो तो तुम्हें संतुलन करना पड़ेगा, कभी बाईं ओर, कभी दाईं ओर। और सच में संतुलन एक विज्ञान है। जब तुम बाईं ओर झुकोगे तो तत्क्षण तुम्हें दाईं ओर झुकना पड़ेगा, क्योंकि बायां हिस्सा गिरने की संभावना पैदा कर देगा। उसके विपरीत संतुलन करने के लिए तुम्हें दाईं ओर झुकना पड़ेगा। और जब तुम दाईं ओर झुकोगे तो फिर गिरने की संभावना हो सकती है। तो तुम्हें बाईं ओर झुकना पड़ेगा।
यही कारण है कि तुम प्रेम और घृणा के बीच, मित्र और शत्रु के बीच, इसके और उसके बीच, पसंद और नापसंद, आकर्षण और विकर्षण के बीच गति करते रहते हो। तुम सतत एक रस्सी पर चल रहे हो। यदि तुम इसे न समझो तो तुम्हारा पूरा जीवन एक उलझन ही रहेगा।
मैंने बहुत से लोगों का अध्ययन किया है और यह बुनियादी परेशानियों में से एक है। वे प्रेम करते हैं फिर घृणा करते हैं; और वे समझ नहीं पाते कि जब वे प्रेम करते हैं तो फिर घृणा क्यों करते हैं। इस तरह वे संतुलन करते हैं। और यह संतुलन तुम्हें अहंकार देता है, तुम्हारा व्यक्तित्व देता है।
यदि तुम सच में अहंकार को छोड़ना चाहते हो तो कोई भी अति चुन लो। बाईं ओर झुक जाओ प्रेम करो और उसे दाएं से संतुलित मत करो-तुम रस्सी से गिर जाओगे। या दाईं ओर झुक जाओ, घृणा करो और पूरी तरह से घृणा करो और बाईं ओर मत जाओ, तुम रस्सी से गिर जाओगे।
महावीर कहते हैं कि हर चीज से विरक्त हो जाओ-यह घृणा है। और कृष्ण कहते हैं कि प्रेम करो। यही कारण है कि जैन कभी भी कृष्ण का संदेश नहीं समझ सकते। असंभव है। और हिंदुओं ने महावीर की ओर कोई ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने अपने शास्त्रों में उनके नाम का कोई उल्लेख भी नहीं किया है। एक भी उल्लेख नहीं है। उन्होंने कोई ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि वह कहते हैं कि हर चीज से इतने विरक्त हो जाओ कि वह घृणा बन जाए। कृष्ण कहते हैं कि प्रेम करो और इतनी पूर्णता से प्रेम करो कि घृणा बिलकुल ही मन से छूट जाए।
दोनों एक ही हैं। तुम्हें विरोधाभासी लगते हैं, हैं नहीं। या तो बाईं ओर झुक जाओ या दाईं ओर, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम जमीन पर ही गिरोगे, रस्सी पर नहीं रह सकते-इतना पक्का है। वह रस्सी अहंकार है, या कहो संसार है, और उस पर तुम अपने को संतुलित कर रहे हो।
बहुत लोग मुझे प्रेम करते हैं, और मुझे पता है कि देर-अबेर वे संतुलन करेंगे और घृणा करने लगेंगे। और जब वे घृणा करते हैं तो व्यथित हो जाते हैं। उन्हें व्यथित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे ही तो वे रस्सी पर बने रह सकते हैं। लेकिन वे ज्यादा देर तक घृणा भी नहीं कर सकते उन्हें फिर संतुलन करना पड़ेगा।
सुबह तुम प्रेम करते हो और शाम को घृणा करते हो, सुबह तुम फिर प्रेम करने-लगते हो। जब तक तुम अहंकार को छोड़ने को तैयार नहीं हो तब तक यह संतुलन चलता रहेगा। यह अनंत काल तक चल सकता है, रस्सी अंतहीन है। लेकिन एक बार तुम पूरे खेल से ऊब जाओ, एक बार तुम्हें दिख जाए कि यह व्यर्थ है-हर बार घृणा और प्रेम से संतुलन करना और बार-बार विपरीत दिशा में जाना, यह बेकार है-तब तुम किसी एक छोर पर जा सकते हो, चाहे प्रेम चाहे घृणा, और रस्सी से हट सकते हो। और एक बार-तुम रस्सी से हटे कि तुम संबुद्ध हो। बीच में बने रहना संसार है।

चौथा प्रश्न :
पुरुष के अंदर गर्भ में प्रवेश करने की एक अंतर्निहित अभीप्सा है। कृपया बताएं कि पुरूष की संभोग के द्वारा स्त्री के भीतर प्रवेश करने की चाह भी क्या गर्भ में लौट जाने की इसी अंतर्निहित अभीप्सा की प्रतीक है?

हां, यह चाह भी उसी का अंग है। प्रकृति में हर चीज स्रोत पर लौटना चाहती है। यह एक नियम है। बीच में कुछ भी हो असंगत है। हर वर्तुल पूर्णता पर पहुंच जाता है, आरंभ पर, मूल स्रोत पर पहुंच जाता है।
पुरुष गर्भ से पैदा होता है। जब भी वह क्षोभ या विषाद में होता है, जब भी संसार में बहुत अधिक जिम्मेवारियां होती हैं बोझ होते हैं सब कुछ भारी हो जाता है-वह गर्भ में लौटना चाहता है। इसीलिए स्त्री में प्रवेश करने का यह आकर्षण है, यह चाह है। लेकिन तुम प्रवेश नहीं कर सकते तुम दोबारा बच्चे नहीं बन सकते तो संभोग एक प्रतीक बन जाता है। वह प्रवेश प्रतीकात्मक हो जाता है। तुम फिर गर्भ में पहुंच जाते हो। इसीलिए संभोग इतना विश्रामदायी, आरामदेह होता है। सब तनाव खो जाते हैं मन बोझ से मुक्त हो जाता है। कम से कम उस क्षण में तुम आनंदित होते हो। यह एक रेचन है : तुम बहुत सी धूल झाडू लेते हो। तो संभोग एक राहत, एक विश्राम बन जाता है। और स्त्री एक गर्भ बन जाती है। यही आकर्षण का हिस्सा है कामना का हिस्सा है। हो सकता है तुम्हें इसका पता न हो, लेकिन आराम के लिए हमने जो भी बनाया है वह गर्भ जैसा ही है। एक बंद कमरे में, शरीर के तापमान पर, शांत बैठकर तुम आसानी से विश्राम कर सकते हो। और यदि तुम्हारे शयनकक्ष
में गर्भाशय के सभी गुण हों तो तुम गहरी नींद सोओगे। एक दीवार घड़ी भी तुम्हें सहयोग देती है। उसकी टिक-टिक, टिक-टिक चलती रहती है। वह मां के हृदय की टिक-टिक, टिक-टिक जैसी ही है, जो गर्भ में बच्चे को सुनाई पड़ती है। वह उसे सुनता रहता है। टिक-टिक की लय सहयोगी है; गदा, सिराहना, जो भी चीजें हम प्रयोग करते हैं वे गर्भ जैसी ही हैं। अब तो वैज्ञानिकों का कहना है कि देर-अबेर हम सोने के लिए ठीक गर्भ जैसे चैंबर बना लेंगे, ठीक वैसे ही, क्योंकि वे तुम्हें गहरी से गहरी नींद दे पाएंगे।
निर्वाण की परम धारणा भी गर्भ जैसी है। गर्भ में बच्चा एकदम स्वतंत्र होता है सब जिम्मेवारियों से मुक्त होता है। उसे किसी चाह का पता नहीं चलता। चाह उठने से पहले ही तृप्त हो जाती है। इसी को हिंदू कल्पवृक्ष कहते हैं। स्वर्ग में ऐसे वृक्ष होते है जिनके नीचे तुम बैठो, और जैसे ही तुम्हारे मन में कोई चाह उठती है, तत्क्षण वह पूर्ण हो जाती है। इच्छा, मांग और आपूर्ति के बीच कोई अंतराल नहीं होता, कोई समय का अंतराल नहीं होता। चाह उठी नहीं कि पूर्ति हो जाती है।
गर्भ में ऐसा ही होता है वह कल्पवृक्ष है। बच्चे को कभी पता नहीं चलता कि वह भूखा है, इससे पहले कि भूख लगे वह तृप्त हो जाती हैं। बच्चे को कभी पता नहीं चलता कि वह प्यासा है इससे पहले कि प्यास लगे प्यास तृप्त हो जाती है। उसे किसी संघर्ष, किसी तनाव का पता नहीं चलता, उसके सारे काम चुपचाप समष्टि द्वारा कर दिए जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यही कारण है कि गर्भ में बच्चा सचेत नहीं हो सकता, क्योंकि चेतना के लिए संघर्ष की, श्रम की जरूरत है। चेतना विकसित ही तब होती है जब
पहले मांग उठे, फिर एक अंतराल हो और फिर उसकी पूर्ति हो। वह अंतराल तुम्हें सचेत
करता है। यदि कोई अंतराल न हो तुम जो चाहो वह तत्क्षण पूरा हो जाए तो तुम सो जाओगे।
तो बच्चा नौ महीने तक लगातार सोया रहता है, एक क्षण के लिए भी नहीं जागता। जागने की कोई जरूरत भी नहीं है। सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं। कोई पीड़ा नहीं है, कोई कष्ट नहीं है कोई तनाव नहीं है तो चैतन्यता संभव नहीं है। वह सोया रहता है।
और जब वह पैदा होता है तो इतना बड़ा धक्का लगता है कि फ्रायड कहता है कि कोई कभी भी उससे उबर नहीं पाता। यह एक चोट है। यह एक घाव की तरह सदा तुम्हारे भीतर रहता है। और मैं सोचता हूं कि वह ठीक है। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे एक धक्का लगता है! वह अदन के बगीचे से स्वर्ग से फेंक दिया जाता है। वहां सब कुछ इतना सुंदर था, इतना सुंदर था कि वह सोया हुआ था। वहां इतना आराम था कि उसे एक क्षण के लिए भी जागने की जरूरत नहीं थी। वह एक स्वप्नलोक में था और अब उसे जबरदस्ती बाहर फेंका जा रहा है।
इस बात की पूरी संभावना है कि बच्चे का अचेतन गर्भ में रहने के लिए संघर्ष करता होगा। कहना कठिन है कि सच में ऐसा है कि नहीं, लेकिन संभावना पूरी है कि बच्चा गर्भ में बने रहने के लिए संघर्ष करता है। वह बाहर आने में हर तरह की कठिनाई खड़ी करता है। इसीलिए पीड़ा और संघर्ष होते हैं। वह बाहर फेंका जा रहा है बाहर निकाला जा रहा है।
और गर्भ के बाहर पहला क्षण इतनी बड़ी पीड़ा का होगा कि इतनी पीड़ा उस बच्चे को फिर कभी नहीं होगी। मृत्यु भी इतनी कष्टपूर्ण नहीं होगी। क्योंकि पहली बार उसे अपने आप श्वास लेनी पड़ेगी-और संसार अपनी सारी चिंताओं के साथ शुरू हो गया। अब वह केंद्र होगा और उत्तरदायी होगा और उसे अपना बोझ खुद उठाना पड़ेगा। वह मा से बाहर फेंक दिया गया है। अब उसे श्वास लेनी पड़ेगी और भूख लगेगी तो रोना पड़ेगा। और अब कुछ भी पक्का नहीं है कि जब उसे भूख लगेगी तो वह पूरी होगी या नहीं-निश्चित नहीं है। यह निर्भर करेगा, वह आश्रित हो गया। अब अपनी हर जरूरत के लिए उसे संघर्ष करना पड़ेगा।
लेकिन फिर हम अपने बच्चों के लिए हर तरह से हर सुविधा का प्रबंध करते हैं, ताकि चोट बहुत गहरी न जाए। मा उसकी जरूरतों को तत्क्षण पूरा करती रहती है। इस कारण बच्चे को लगने लगता है कि वह संसार का केंद्र है और सारा संसार उसके पीछे चलता है। बस जरा से रोने भर से पूरा संसार उसके चरणों में आ गिरेगा। इससे बड़ी अहंकारपूर्ण शुरुआत होती है।
तो हर बच्चा बड़ा अहंकारी होता है। और फिर पीछे और सदमे भी आएंगे क्योंकि: यह तो बस पहला जन्म था, बहुत से जन्मों की शुरुआत थी। जो लोग मानवीय प्रक्रिया को गहरे से समझते हैं वे कहते हैं कि पूरा जीवन ही एक अनवरत जन्म है। कई जन्म होते हैं। एक दिन आएगा जब मां बच्चे को दूध पिलाना बंद कर देगी। अब उसे भोजन पर निर्भर रहना पड़ेगा। उसे चबाना पड़ेगा। उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। अब भोजन चबाना पड़ेगा, पचाना पड़ेगा। दूध की बात कुछ और थी। बच्चा कुछ नहीं कर रहा था, बस चूस रहा था। वह बस चूसने वाला था।
तो रोज-रोज उत्तरदायित्व बढ़ता जाएगा और वह मां से दूर और दूर होता चला जाएगा।
और जितना उसे दूर किया जाएगा संसार उसे उतना ही घेरता चला जाएगा। और संसार प्रतिकूल है, गर्भ कभी प्रतिकूल न था, मित्रवत था। संसार मित्रवत नहीं है; वहां प्रतियोगिता है और सब अपने में उत्सुक हैं तुम में कोई उत्सुक नहीं है। संसार तुम्हारी मा नहीं है।
जब बच्चा स्कूल जाता है तो वह एक विरोधी संसार में प्रवेश कर रहा है जहां चोटें हैं, घाव हैं और धक्के हैं। और यह चलता रहता है। और अंतिम विच्छेद तब होता है जब बच्चा किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है। वह बड़ा हो रहा है। यह मा के साथ अंतिम विच्छेद है; अब आखिरी सेतु टूट गया।
लेकिन अभी भी यह पुरुष रूपी बच्चा ऐसे ही व्यवहार करेगा जैसे पत्नी उसकी मां हो। पर वह है नहीं। वह अपने में उत्सुक है और पति अपने में उत्सुक है। दोनों अपने-अपने में उत्सुक हैं दोनों ही अहंकार हैं। और हर पति प्रयास करता रहता है कि उसकी पत्नी मां की तरह व्यवहार करे। यही संघर्ष है। वह उस तरह व्यवहार कर नहीं सकती, उसकी अपनी पसंद है। मां तो पूरी तरह समर्पित थी।
तो हर पुरुष अपनी पत्नी से निराश होता है क्योंकि कोई पत्नी मां नहीं बन सकती। इसमें अच्छी या बुरी पत्नियों का सवाल नहीं है, कोई पत्नी मां नहीं हो सकती। तो हर पुरुष निराश है। मैंने अभी तक एक भी पुरुष नहीं देखा जो अपनी पत्नी से निराश न हो। निराश न होना असंभव लगता है क्योंकि वह चाह ही बिलकुल असंभव है।
लेकिन पुरुष को अच्छा लगता है जब वह स्त्री के भीतर प्रवेश करता है। वह दोबारा गर्भ में पहुंच जाता है। यह प्रतीकात्मक प्रवेश है-उन थोड़े से क्षणों के लिए वह सब चिंताएं, संसार, सब कुछ भूल जाता है। वह फिर बच्चा हो जाता है। किसी पुरुष को अपनी पत्नी या अपनी प्रेमिका के साथ गहन प्रेम में देखो उसका चेहरा एक बच्चे की तरह नजर आएगा। सब तनाव जा चुके। तो यह सांयोगिक नहीं है कि प्रेम करते समय पत्नी पति को बेबी कहती है।
मैं एक घटना पढ़ रहा था। आधी रात थी और एक घर में आग लग गई थी। अंतिम क्षण में एक स्त्री को बाहर निकाला गया। वह पागलों की तरह रो रही थी, 'मेरा बच्चा अंदर रह गया।’ और फिर अचानक वह बच्चा निकला---छल्ले पर तीन सौ साठ पौंड का पुरुष खड़ा था-और वह बोला, 'चिंता न करो मैं जीवित हूं और अभी आ रहा हूं।’ और सारी भीड़ हैरान थी कि मामला क्या है! लेकिन वे गहन प्रेम में थे साथ-साथ सोए हुए थे और उस क्षण पुरुष बच्चे जैसा हो गया था।
मन हर तरह से गर्भ जैसी स्थिति पुन: पाना चाहता है। लेकिन तुम गर्भ में पुन: प्रवेश कर नहीं सकते, संभोग में भी नहीं। केवल ऐसा आभास भर होता है। गर्भ में प्रवेश करने की एकमात्र संभावना शारीरिक नहीं, मानसिक है, या गहरे तल पर, आध्यात्मिक है। यदि तुम समष्टि के साथ एक हो सको तो पुन: गर्भ में पहुंच जाओगे, और यह तुमसे छीना भी नहीं जा सकता। तब पूरा अस्तित्व मां बन जाता है।
तो मेरे देखे वे धर्म अधिक वैज्ञानिक हैं जो कहते हैं कि परमात्मा पिता नहीं, मां है। जिन्होंने परमात्मा कोर पिता कहा है वे उतने वैज्ञानिक नहीं हैं, क्योंकि पिता कोई बहुत जरूरी नहीं है केवल सांयोगिक है। पिता शब्द सदा से नहीं था। मां शब्द पिता से बहुत पुराना है। यहां तक कि अंकल शब्द भी पिता से पुराना है। क्योंकि पांच हजार साल पहले कोई विवाह नहीं होते थे समूह में लोग साथ-साथ रहते थे। बच्चा अपनी मां को जानता था, लेकिन उसे यह नहीं पता होता था कि उसका पिता कौन है। इसलिए समूह के सभी पुरुष उसके अंकल थे। अंकल या चाचा पिता शब्द से पुराना शब्द है। सभी पुरुष चाचा होते थे, क्योंकि यह पक्का नहीं था कि पिता कौन है।
पिता तो बाद में आया। जब एक पुरुष एक स्त्री पर अधिकार करके बाकी सब पुरुषों को धकेलने लगा तो पिता अस्तित्व में आया। और यह भी निश्चित नहीं है कि वह सदा रहेगा, क्योंकि परिवार बिखर रहे हैं। परिवार शाश्वत नहीं है, बस संस्थागत है। लगता है कि पिता विदा हो रहा है; भविष्य में वह बच नहीं सकता। पिता के लिए कोई आशा नहीं है! वह समाप्त हो जाएगा। अंकल फिर से महत्वपूर्ण हो जाएगा।
मां बुनियादी है; पिता सामाजिक है उसे छोड़ा जा सकता है, यह समाज की मान्यता पर निर्भर करता है। लेकिन मा को नहीं छोड़ा जा सकता। तो जो धर्म परमात्मा को मां की तरह मानते हैं वे वास्तव में अधिक गहरे हैं। जब तुम मातृवत परमात्मा में प्रवेश करते हो, उसके साथ एक हो जाते हो तो तुम शाश्वत गर्भ में प्रवेश कर गए। अब कोई पीड़ा नहीं होगी, कोई कष्ट नहीं होगा। अब तुम कभी बाहर नहीं फेंके जाओगे।

अंतिम प्रश्न :
आपने कहा कि हम धागे की, मूलभूत की फिक्र करते हैं। लेकिन अपका किस हम से तात्पर्य है? क्योंकि हम तो अभी मनकों से, घटनाओं से ही उलझे हुए हैं। हम घटनाओं में जीते हैं।

जब मैं कहता हूं कि हमें धागे से सारभूत से मूलभूत से, वास्तविक से मतलब है, तो हम से मेरा अभिप्राय तुमसे नहीं है। जैसे तुम अभी हो उससे नहीं है। लेकिन जो तुम हो सकते हो उससे है। तुम दो हो, और जो तुम अभी हो वह वास्तविक नहीं है, वह बस एक झूठ है एक प्रतिमा है जिसे सरलता से छोड़ा जा सकता है। वास्तविक तुम तो वह है, जिसे तभी जाना जा सकता है जब सभी मुखौटे गिर जाएं।
तो जब मैं कहता हूं कि हमें धागे से मतलब है तो मैं तुमको तुम्हारी वास्तविकता के रूप में लेता हूं। अहंकार के रूप में नहीं, आत्मा के रूप में।
तुम दो हो : एक तो जैसे तुम दिखाई पड़ते हो और एक जो तुम हो। जैसे तुम दिखाई पड़ते हो वह तो घटनाओं से, मनकों से, बाह्य से संबंधित है। लेकिन अंतस, जो तुम सच में हो, घटनाओं से संबंधित नहीं है वह समय से बिलकुल भी संबंधित नहीं है। उसका संबंध शाश्वत से है।
मैं तुम्हें बुद्ध के एक पूर्व-जन्म की कहानी सुनाता हूं जब वह बुद्ध नहीं हुए थे। उस जन्म में बुद्ध सबकी तरह अज्ञानी थे। उन्होंने एक व्यक्ति के बारे में सुना जो संबुद्ध हो गया था, तो वह उसके चरण छूने और उसके दर्शन करने गए। उन्होंने उस बुद्ध पुरुष के चरण छुए, और जब वह उठ रहे थे तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि वह बुद्ध पुरुष उनके चरण छूने लगा। उन्होंने कहा, 'यह आप क्या कर रहे हैं? मैं अज्ञानी हूं अंधकार में हूं, पापी हूं और आप बुद्ध पुरुष हैं, शुद्धतम प्रकाश है जैसा पहले मैंने कभी देखा नहीं। आप मेरे पांव क्यों छू रहे हैं? मैं आपके चरण छूने आया हूं। आप मेरे पांव क्यों छू रहे हैं?'
उस बुद्ध पुरुष ने हंसकर कहा, 'मैं तेरे पांव नहीं छू रहा हूं। मैं उस तत्व के उस आत्मा के चरण छू रहा हूं जो तुझमें छिपी हुई है। और वह पहले से ही बुद्ध है। बाद में तुम्हें इसका पता लग सकता है, और जब तुझे पता लगे तो याद रखना। एक दिन तुझे भी उस वास्तविकता का पता लग जाएगा जिसके आगे मैं झुका हूं। अभी तुझे पता नहीं है तुझे अपने खजाने का ही पता नहीं है लेकिन मुझे अपने खजाने का पता है। और जिस क्षण मैंने अपने खजाने को जाना, मुझे सबके खजाने का पता चल गया।’ उस बुद्ध पुरुष ने बुद्ध से कहा, 'जिस क्षण मैं संबुद्ध हुआ मुझे सबकी मूल वास्तविकता का पता चल गया। तू अपने को धोखा दिए जा सकता है वह तेरे ऊपर निर्भर है लेकिन मैं तेरे भीतर शुद्धतम प्रकाश देख रहा हूं। जब तुझे भी इसका अनुभव हो तो मुझे याद करना।’
और जब अपने अगले जन्म में बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, 'वह बुद्ध पुरुष क्या कह रहा था मैं समझ नहीं सका था। वह एक रहस्य था। लेकिन अब मैं देख सकता हूं कि उसका क्या अभिप्राय था। अब वह प्रकट हुआ है। और जो मैं अब हूं वह मैं तब भी था। उसने जरूर इसी को प्रणाम किया होगा।’
तो जब मैं कहता हूं हम तो मैं तुम्हारी संभावना को शामिल करता हूं। तुम्हारी आकृति तो बस एक सपना है। लेकिन तुम्हें इसका पता नहीं चल सकता, क्योंकि जब तुम्हें पता चलता है कि तुम सपना देख रहे हो तो सपना टूट जाता है। तुम्हें अपने स्वभाव का बोध नहीं है। यदि तुम्हें पता चल जाए तो प्रतीति समाप्त हो जाएगी। लेकिन मुझे पता है-तो तुम मेरी कठिनाई समझ सकते हो-मैं तुम्हें संबुद्धों की तरह देखता हूं। तुम वही हो। तुम बस अज्ञानी होने का खेल खेल रहे हो, स्वयं को धोखा दे रहे हो। लेकिन तुम कुछ भी करो, उससे मूल स्वभाव को कोई अंतर नहीं पड़ता। वह निर्दोष, शुद्ध, परिशुद्ध रहता है।
तुम यहां हो। यदि मैं तुम्हारे बाह्य रूप को देखूं तो बहुत सी चीजें तुम्हें समझाने को हैं। लेकिन यदि मैं तुम्हारे अंतरतम में झांकू तो तुम्हें कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं है। कुछ करने की जरूरत नहीं है। यही मेरा अभिप्राय है जब मैं कहता हूं हमें धागे से, मूलभूत से मतलब है; मनकों से, घटनाओं से, बाह्य से नहीं।
इसे याद रखो। किसी दिन जब तुम संबुद्ध होओगे तुम्हें पता चलेगा कि हम से मेरा क्या तात्पर्य था और कौन उसमें शामिल था। इतना निश्चित है कि जैसे तुम यहां मेरे सामने हो, जैसे दिखाई पड़ते हो, वैसे तुम उसमें शामिल नहीं हो-लेकिन जैसे तुम सदा थे और जैसे तुम सदा रहोगे, जब यह पर्दा हट जाएगा, जब बादल छंट जाएंगे और सूरज उगेगा। मैं बादलों के पीछे सूर्य को देख सकता है।
तुम बादलों से तादात्म्य बनाए, तुम मुझ पर विश्वास भी नहीं कर सकते। यदि मैं कहूं कि तुम संबुद्ध ही हो तो तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? तुम कहोगे कि मैं जरूर तुम्हें धोखा दे रहा हूं या कोई चाल चल रहा हूं। यह सत्य है, लेकिन सत्य को समझना कठिन है। और इससे पहले कि तुम स्वयं पर लौटो, तुम्हें लंबी यात्रा करनी है। इससे पहले कि तुम्हें पता चले कि तुम्हारा घर ही लक्ष्य है, कि उस जगह तुम सदा से ही हो जहां तुम पहुंचना चाहते हो, तुम्हें लंबी यात्रा करनी है।

आज इतना ही।

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