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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम दर्शन-(प्रवचन-04)

प्रेम दर्शन-(साधना-शिविर)-ओशो

प्रवचन-चौथा -(विद्रोही भगवान)

मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछले तीन दिनों में सुबह और सांझ जो बाते मैंने कहीं है, उस संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। जितने प्रश्नों का उत्तर संभव हो सकेगा वह मैं देने की कोशिश करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है प्रेम अंधा है और आप कहते हैं कि प्रेम परमात्मा है। तब क्या परमात्मा भी अंधा है?
उन्होंने ठीक पूछा है। सदियों से यह कहा जा रहा है कि प्रेम अंधा है। और यह वे ही लोग कहते हैं जिन्हें प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। जिन्हें प्रेम का अनुभव है वे तो कहते हैं प्रेम के अतिरिक्त कोई आंख ही नहीं है। क्योेंकि प्रेम जो देख पाता है और कोई आंख नहीं देख पाती है। प्रेम ही आंख है।
जिन्होंने प्रेम को जाना है उनका तो ऐसा अनुभव हैै। और प्रेम की आंख से यह जगत जब देखा जाता है तो जगत दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा दिखाई पड़ता है। घृणा की आंख से जब इस जगत को देखा जाता है तो पदार्थ दिखाई पड़ता है और जब प्रेम की आंख से देखा जाता है तो परमात्मा दिखाई पड़ता है। प्रेम आंख है। और हमारे पास जैसी आंख होती है वैसा हमें दिखाई पड़ने लगता है।
मैं दो-एक घटनाओं से समझाने की कोशिश करूंगा।


सुना है मैंने कि रामदास राम की कथा लिखते थे। रोज लिखते थे, रोज सांझ को कह देते थे। जो लोग सुनने आते थे, उनकी भीड़ रोज-रोज बढती चली गई। और कहानी यह कि हनुमान तक खबर पहुंच गई कि हजारों साल बाद रामदास फिर से वह कहानी कह रहे हैं। और भीड़ में छुप कर वे भी उसे सुुनने आने लगे। वह इतनी आनंदपूर्ण थी कि वे उसे सुनने आते। फिर वह बात आई जहां हनुमान राम की उस कथा में सीता से मिलने अशोक वाटिका में गए हैं, तो रामदास ने वहां लिखा कि अशोक वाटिका में सफेद-सफेद फूल खिले थे। रामदास ने जब यह कहा तो हनुमान से सहा न गया, फूल सब लाल थे। तो उन्होंने कहा, वे खड़े हो गए, उन्होंने कहाः माफ करिए, भूल सुधार कर लीजिए--फूल सफेद नहीं थे, सब लाल थे। रामदास ने कहाः फूल सफेद ही थे, कृपा करके बैठ जाइए। तब हनुमान को कहना पड़ा कि आपको शायद पता नहीं मैं खुद हनुमान हूं, मैं गया था, आप हजारों साल बाद सुनी-सुनाई कहानी लिख रहे हैं, मैं कहता हंू कि फूल लाल थे, आप सुधार कर लें। रामदास ने कहाः होंगे आप हनुमान और गए होंगे, लेकिन फूल सफेद थे। बहुत मुश्किल हो गई। और कहानी है कि झगड़ा राम के पास ले जाना पड़ा, इसके सिवाय कोई उपाय न रहा। और हनुमान ने कहा कि इस आदमी की हठधर्मी देखिए, यह अपनी किताब में लिखता है कि फूल सफेद थे अशोक वाटिका में और मैं इसे कहता हंू कि हनुमान हूं मैं खुद, सुधार कर ले, फूल लाल थे। अब आपके हम पास आएं हैं, यह मानने को राजी नहीं है।
राम ने कहाः फूल तो सफेद ही थे, लेकिन तुम इतने क्रोध में थे कि तुम्हें लाल दिखाई पड़े। रामदास ठीक कहता है, सुधार तुम भी कर लो। तुम्हारी आंखें क्रोध के कारण खून से भरी थीं।
सीता चोरी चली गई हो तो हनुमान की आंखों में खून बिलकुल स्वाभाविक है। और खून से भरी आंख को अगर फूल लाल दिखाई पड़े तो यह भी कुछ आश्चर्य नहीं।
हमें वही दिखाई पड़ता है जो हमारी आंख देख पाती है। प्रेम की आंख परमात्मा को देख पाती है। और परमात्मा अंधा है या आंख वाला, यह सवाल नहीं उठता, क्योंकि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो उसकी आंख हो सके या वह अंधा हो सके, परमात्मा एक अनुभूति है। प्रेम से जो अनुभूति उपलब्ध होती है, प्रेम से देखा गया जो अस्तित्व है वह परमात्मा जैसा प्रतीत होगा। जैसी हमारे पास आंख है वैसा दिख जाता है। लेकिन प्रेम के खिलाफ लंबी-लंबी परंपरा है जो प्रेम को अंधा कहती है। उसके भी पीछे कारण हैं। कोई परंपरा यूं ही नहीं बन जाती है। असल में जब भी हमारी जिंदगी में किसी व्यक्ति के जीवन में प्रेम आता है तो हमारे व्यवहार की दुनिया को एकदम अस्त-व्यस्त करके लगता है। वह, जिसे हमने नियम बनाए, नियम नहीं मानता; वह, जिसको हमने व्यवस्था बनाई, व्यवस्था नहीं मानता। उसकी जिंदगी में एक नया विधान आ गया, वह हमारे सब विधान को ठुकरा देता है। वह हमारी भीड़ उससे कहती है कि यह आदमी मालूम होता है कि अंधा हो गया है, प्रेम ने इसे अंधा कर दिया है।
मजनू को उसके गांव के राजा ने बुला लिया था पकड़वा कर। और यह पूछा था उससे कि तू पागल हो गया है, तुझे और कोई दिखाई नहीं पड़ता सिवाय लैला के? दिन-रात तू लेला-लेला चिल्लाता रहता है, पागल है तू, इससे बहुत सुंदर लड़कियां है गांव में, मैंने कुछ सुंदर लड़कियां बुलाई हैं तू किसी को भी पसंद कर ले, लैला का खयाल छोड़ दे। तो मंजनू ने कहा कि शायद आपको पता नहीं कि मुझे लैला के सिवाय अब कोई लड़की दिखाई ही नहीं पड़ती। उस राजा ने कहाः तू पागल तो नहीं हो गया है? ठीक कहा राजा ने। लेकिन मजनू ने कहा कि हो सकता है मैं पागल ही हो गया हूं, लेकिन भगवान से मेरे लिए प्रार्थना करो की मेरा यह पागलपन टूट न जाए। राजा ने कहाः तू अंधा तो नहीं हो गया है? मंजनू ने कहाः भगवान करे कि यह अंधापन स्थायी हो जाए और मुझे सिर्फ लैला ही दिखाई पड़े। राजा ने कहाः पागल, साधारण सी लड़की है लैला। बहुत सुंदर लड़कियां हैं। मजनू ने कहाः आपके पास वह आंख नहीं जो लैला को देख सके। लैला सुंदर है या असुंदर, यह सवाल नहीं है, इस प्रेम की आंख ने उसे सुंदर बना दिया है।
सुंदर कोई नहीं होता है, न कोई असुंदर होता है। जिस पर हमारी प्रेम की आंख पड़ जाती है उसमें सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। लोग कहते हैं, सुंदर को हम प्रेम करते हैं, गलत कहते हैं, उलटा कहते हैं। जिसे हम प्रेम करते हैं वह सुंदर दिखाई पड़ने लगता है। जिसे हम प्रेम नहीं करते वह असुंदर दिखाई पड़ने लगता है। जिसे आज प्रेम करते हैं वह आज सुंदर दिखाई पड़ता है, कल अगर प्रेम तिरोहित हो जाए तो वही असुंदर भी दिखाई पड़ने लगता है, वही। प्रेम की एक आंख है जब हम एक व्यक्ति को प्रेम की आंख से देखते हैं तो वह व्यक्ति साधारण नहीं रह जाता, वह व्यक्ति एकदम असाधारण हो जाता है। जब हम एक व्यक्ति में प्रेम से झांकते हैं तो एक व्यक्ति में परमात्मा मिल जाता है। और जब हम समस्त जगत में, अस्तित्व में प्रेम से झांकते हैं तो समस्त अस्तित्व में परमात्मा मिल जाता है। जिसे परमात्मा को खोजना है उसके लिए तो प्रेम ही आंख है और अंधापन, अंधापन उसके लिए आंख है।
अरविंद ने लिखा है कि जब मेरी आंख खुली तब मैंने जाना कि जिनकोे मैं अब तक आंख समझता था वह अंधापन था। और जब मैं जागा तब मैंने समझा कि जिसको मैं अब तक जागना समझता था वह नींद है। और जब मैंने भीतर झांका और उसे देखा जो था, तब मैं हैरान हो गया, क्योंकि जिसे मैं बाहर से स्वयं समझ रहा था वह सिर्फ खोट है, वस्त्र था। और जब मैंने प्रकाश देखा उसका तब मैं हैरान हो गया कि अब तक जिसको मैंने प्रकाश समझा था वह अंधकार था। लेकिन हमारी इतनी मजबूरी है। रात हम सोते हैं, सपना देखते हैं, सपने में सपना भी सच मालूम होता है। कभी सपने में सपना झूठ मालूम हुआ है? सपने में सपना ही सच मालूम होता है, ऐसा लगता है जो है यही है। सुबह जाग कर पता चलता है कि पागल थे हम, रात भर लगता रहा कि ठीक है, वह बिलकुल न था। जब कोई जागता है प्रभु के प्रेम में तब उसे पता चलता है कि जिन्हें हमने आंख समझी थी वह अंधापन था और जिसे हम अब तक अंधापन समझे थे वह आंख थी। लेकिन वह कोई जागे तब ही पता चलता है।
हां, दूसरा अगर कोई प्रेमी हो जाए प्रभु का तो हमें पागल ही मालूम पड़ेगा। क्योंकि हमारे पास वह आंख नहीं जो उसके पास है। हमारी तकलीफ सदा ये है कि दूसरे का अनुभव कैसे हमारा अनुभव बने? हमारा अनुभव नहीं बन सकता। फिर हमारी भीड़, हम ज्यादा हैं, वे प्रेम करने वाले अकेले हैं। कभी कोई चैतन्य प्रेम से भरा है, तो कभी मीरा। वे अकेले पड़ जाते हैं हमारी भीड़ है, हम ज्यादा हैं, हम चाहें तो उनको पागल कहें, और चाहें तो अंधे कहें। हम उनको जो भी कहें उन्हें सुनना पड़ेगा, क्योंकि वे अकेले हैं।
एक छोटी सी कहानी फिर मैं दूसरा सवाल लूं। एक दिन ऐसा हुआ कि एक गांव में एक आदमी आया और उसने उस गांव के एक कुएं से पानी पीते देख लिया, और कहा कि अब जोेे इसका पानी पीएगा वह पागल हो जाएगा। सांझ तक सारे लोगों को पानी पीना पड़ा, सारे लोग पागल हो गए। सिर्फ राजा का कुआं अलग था, उसने पानी नहीं पिया। उसने अपने कुएं का पानी पीया। राजा बहुत खुश था। उसने अपनी रानी को, अपने वजीरों को कहा कि हम भाग्यशाली हैं, हम बच गए पागल होने से। लेकिन उसे पता नहीं कि जिसे वह भाग्य समझ रहा है वह दुर्भाग्य बन जाएगा। सांझ होते-होते गांव में अफवाहें उड़ने लगी कि मालूम होता है राजा का दिमाग खराब हो गया है।
पूरे गांव का दिमाग खराब हो गया है। रात होते-होते गांव के लोगों ने महल घेर लिया और उन्होंने कहाः इस राजा को हम एक क्षण बरदाश्त नहीं कर सकते, इसका दिमाग खराब हो गया है। उन्होंने कहा कि हटो तुम महल से, छोड़ो सिंहासन, अब हम किसी बुद्धिमान आदमी को बिठाएंगे। नीचे लोग नाच रहे हैं, चिल्ला रहेे हैं, बक रहे हैं, कुछ भी कर रहे हैं। राजा ने छत पर खड़े होकर अपने वजीरों से कहा मुश्किल हो गई, यह सारा गांव पागल हो गया है। उसके सैनिक भी पागल हो गए हैं, पहरेदार भी पागल हो गए हैं, अब वह बचाए भी तो उसको कौन बचाए? तो उसने कहाः मैं क्या करूं? वजीर ने कहा कि मैं इन्हें थोड़ी देर रोकने की कोशिश करता हूं, तुम पीछे के दरवाजे से जाओ और उस कुंए का पानी पीकर जल्दी लौटो। राजा भागा हुआ गया और उस कुएं का पानी पीकर वापस लौटा। गया तो पीछे के दरवाजे से था, आया सामने के दरवाजे से। अब पीछे और आगे के दरवाजे में कोई फर्क ही न रह गया था। अब वह नाचता हुआ चला आ रहा है। और भीड़ ने उसे घेर लिया उसने कहा, धन्यवाद भगवान! उस रात जलसा मनाया गया गांव में कि हमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया।
भीड़ जिस ढंग से सोचती है तो उस ढंग से सोचने में प्रेम अंधापन है। लेकिन जो प्रेम को उपलब्ध होते हैं वे जिस ढंग से देख पाते हैं उस ढंग से प्रेम आंख है। लेकिन निर्णय जल्दी मत कर लेना। प्रेम में जाकर देखना फिर आपको दोनों अनुभव हो जाएंगे। प्रेम के पहले का अनुभव और प्रेम के बाद का अनुभव। जिसे दोनों के अनुभव हों उसे कुछ कहने का हक है। दोनों अनुभव कर लें। और अब तक जिसने दोनों अनभुव किए हैं वह कहता है, प्रेम आंख है। और जिसने एक ही अनुभव किया है, प्रेम का अनुभव नहीं किया, वह कहता है, अंधापन है। नहीं, प्रेम अंधापन नहीं है। प्रेम से ज्यादा और कोई दर्शन और कोई दृष्टि नहीं है। जो प्रेम से दिखता है वह और किसी तरह नहीं दिखता रहा है।

एक और मित्र ने पूछा है कि आप प्रेम पर इतना जोर देते हैं और ज्ञान पर नहीं?

असल में प्रेम के बिना जो जाना जाता है वह ज्ञान नहीं हो सकता। प्रेम के अभाव में जो जाना जाता है वह सिर्फ इनफर्मेशन हो सकती है, सूचना हो सकती है, ज्ञान नहीं हो सकता। सूचना एक बात है, इनफर्मेशन एक बात है, लेकिन ज्ञान बहुत दूसरी बात है। ज्ञान का मतलब हैः जिसे हम अपने प्राणों से जानते हैं। लेकिन प्राणों से हम सिर्फ उसी को जान सकते हैं जिसके साथ हम अपने प्राणों को डूबा देते हैं और एक कर देते हैं। सूचना का मतलब हैः जिसे हम अपनी खोपड़ी से जानते हैं। और खोपड़ी से जानने का मतलब है जिसके साथ एक होने की कोई जरूरत नहीं होती, जिससे हम दूर खड़े रहते हैं और जान लेते हैं, हम अलग होते हैं और जान लेते हैं।
जो ज्ञान हमारे प्राणों के पोर-पोर में प्रवेश नहीं करता, दूर खड़ा रहता है, हमारी मुट्ठी में होता है, वह ज्ञान ज्ञान नहीं है सिर्फ पांडित्य है। और पांडित्य का धर्म से कोई भी नाता नहीं। पापी तो परमात्मा तक कभी पहुंच भी जाएं, पंडित कभी परमात्मा तक न पहंुचे हैं, न पहुंच सकते हैं। पांडित्य एकदम उधार बात है, जिसका हमारे जीवन से कोई संबंध नहीं है। मैं गीता प.ढ़ लूं और गीता कंठस्थ कर लूं तो मैं पंड़ित न हो जाऊंगा। और कृष्ण जिस भांति बोले थे मैं भी बोल सकता हंू उसी भांति, लेकिन वह उधार होगा। वह हिज मास्टर वाॅइस का रिकाॅर्ड होगा, लेकिन वह कृष्ण की आवाज न होगी। गीता तो मैं भी पढ़ कर बोल सकता हूं, कोई भी बोल सकता है। कंठस्थ कर ले और हो सकता है कि कृष्ण से कभी भूल भी हो जाए, मुझसे भूल न होगी। क्योंकि कृष्ण को बेचारे को पहली दफा कहनी पड़ी और मैं तो उसको कंठस्थ पच्चीस दफा दोहरा कर कर सकता हूं। लेकिन फिर भी वह कृष्ण की बात न होगी, वह उधार होगी, बासी होगी, पंडित की होगी, क्यों? क्योंकि कृष्ण उसे जान रहे हैं, मैं उसे जान नहीं रहा हूं। कोई जान रहा है, मैं उसको दोहरा रहा हूं।
किसी और के जानने को दोहराना ज्ञान नहीं है, किसी और के जानने को दोहराना सिर्फ स्मृति है। अपने जानने को, अपने जानने को, लेकिन अपने जानने को कैसे कोई कहे? वह तभी कह सकता है जब जाने। और जीवन को जानना हो तो जीवन के साथ एक हो जाना जरूरी है।
मैंने सुना है, एक समुद्र के किनारे मेला भरा था। और बहुत लोग गए थे। दो नमक के पुतले भी पहंुंच गए थे उस मेले में। कई लोग किनारे पर खड़े होकर सोचते थे कि गहराई कितनी? कुछ लोग ऐसे हैं कि किनारों पर खड़े होकर ही सोचते रहते हैं कि गहराई कितनी? अब किनारों पर खड़े होकर कहीं गहराई का पता लगा है? किसी ने कहा कि किताबें ढूंढो, पुस्तकालयों में जाओ, कहीं गहराई जरूर लिखी होगी, उससे पता चल जाएगी। किसी ने कहा किसी जानकार को ढू.ंढो, किसी बुजूर्ग को पकड़ लाओ मेले से, वह बता सकेगा। लेकिन सब किनारे पर खड़े हैं, कोई भीतर जाने को तैयार नहीं। वे नमक के पुतले दोनों खड़े थे, उन्होंने कहा कि ठहरो! इतने परेशान क्यों होते हो, हम जरा डूबे जाते हैं और पता लगा आते हैं। एक नमक का पुतला कूद गया सागर में पता लगाने के लिए। और नमक का पुतला ही कूद सकता है सागर में। क्योंकि सागर और नमक का पुतला एक ही है। इसलिए नमक के पुतले को डर नहीं है सागर का। वह कूद सकता है। सजातीय है, वह एक है। वह कूद गया, वह गहरा उतरने लगा। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ा। जैसे-जैसे वह गहरा गया वैसे वैसे-वैसे पिघला। जैसे-जैसे गहरा गया वैसे-वैसे मिटा। पहुंच तो गया गहराई में, लेकिन जब पहंच गया तो लौटने को बचा नहीं। तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि अब मैं खबर कैसे दूं? कैसे खबर पहुंचाऊं? चिल्लाने लगा उस गहराई से। लेकिन उस गहराई से कोई आवाज न पहंचती थी ऊपर घाट तक। कहां घाट, कहां गहराई? जो घाट पर खड़े हैं उन्हें गहराई से कोई आवाज कभी नहीं पहंुचती। गहराई से लोग चिल्लाए चले जाते हैं पहुंचती नहीं आवाज। तो दूसरे पुतले ने कहाः मित्र नहीं लौटा, मैं जरा उसका पता लगा आऊं। तो वह भी कूद गया।
फिर बहुत वर्ष बीत गए। हर बार मेला भरता है। उस किनारे पर तख्ती लगी है कि शायद वे लोग कभी लौटें। पर लौटे नहीं। वे लौटेंगे भी नहीं। क्योंकि वे उस गहराई में एक हो गए हैं। उन्होंने जान ली है गहराई। जानने का रास्ता एक ही था कि वे डूब जाते, पूरे डूब जाते। असल में प्रेम है डूबने की प्रक्रिया। पूरे डूब जाने की प्रक्रिया। जब कोई प्रेम में पूरा डूबता है तो वह जान लेता है। जरूरी नहीं है कि कह पाए। और सच तो यह है कि जो भी महत्वपूर्ण है वह कभी भी कहा नहीं जा सका है। जो भी महत्वपूर्ण है, नहीं कहा जा सकता है। कहने की कोशिश की गई हैं--कृष्ण कोशिश करते हैं, बुद्ध कोशिश करते हैं, लाओत्सु, जीसस, सब कोशिश करते हैं कहने की, लेकिन फिर सब कहने के बाद वे यह कहते हैं कि जो कहना था वह तो कहा नहीं जा सका। और तुमने जो सुन लिया है वह तो हमने कभी कहा ही नहीं था।
लाओत्सु ने एक किताब लिखी है। जिंदगी भर किताब नहीं लिखी। लोग बहुत कहते कि लिख दो अपना संस्मरण, वह कहता है कि जो जाना है उसे जब भी लिखने बैठता हंू तो ऐसा लगता है कि वह इतना मरा हुआ हो गया और जो जाना है वह इतना जीवित था। असल में शब्द जीवित कैसे हो सकते हैं, अनुभव जीवित हो सकते हैं। मैंने किसी को हृदय से लगाया, तो उस क्षण मैंने जो जाना है वह तो एक जीवंत अनुभव है, फिर मैं कागज पर लिखता हंू कि मैंने किसी को हृदय से लगाया, और जब उस स्याही से लिखी लकीर को पढ़ता हंू, तो और कोई जीवन नहीं होेगा वहां सिर्फ लकीरे होती हैं, कागज होता है, जिसमें कोई जिंदगी नहीं होती। क्या मैंने जो लिखा कागज पर कि मैंने एक व्यक्ति को हृदय से लगाया यह वही है जो मैंने हृदय से लगाते क्षण जाना था? इन दोनों में तो जमीन-आसमान का फर्क है, यह तो बात नहीं है वही। वह तो कुछ बात ही और थी। वह जिंदा अनुभव था। और यह तो एक मरी हुई लकीर है कागज पर। तो क्या इसी को मैं कह दूं कि यही जाना था?
लाओत्सु ने लिखा नहीं। वह मरने के करीब था, छोड़ कर जंगल जा रहा था, तो उस देश केे राजा ने उसे पकड़वा लिया और उससे कहा कि ऐसे न जाने देंगे, हमारा कर्ज चुका जाओ। जो तुमने जाना है वह लिख जाओ। तो उसे मजबूरी में लिखना पड़ा। उसने छोटी सी किताब लिखी। और उस किताब की भूमिका में यह लिखा है कि किताब पढ़ने से पहले इसको ठीक से पढ़ लेना। लाओत्सु ने लिखा कि सत्य को कहा नहीं जा सकता और मुझे कहने को मजबूर किया जा रहा है और सत्य कहते ही असत्य हो जाता है। अब मैं सत्य के संबंध में लिखता हूं। वह भूमिका लिख रहा है किताब की कि मैं सत्य के संबंध में लिखता हूूं। और ध्यान से इसको पहले पढ़ लेना, फिर मेरी किताब को पढ़ना, नहीं तो किताब हाथ में पकड़ जाएगी, सत्य कभी पकड़ में नहीं आएगा।
ऐसा ही जैसे मैं चांद की तरफ अगुंली करके इशारा करूं कि वह रहा चांद और आप मेरी अंगुली पकड़ लें। तो मैं आपसे कहंू कि छोड़ो मेरी अगुंली, क्योंकि यह चांद नहीं। आप कहें, आपने ही तो बताया था कि यह रहा चांद। अंगुली से बताया था, अंगुली नहीं बताई थी। और अंगुली से जिसे बताया था उसका अंगुली से कोई लेना-देना नहीं है। और जिसे अंगुली से बताया था जो अंगुली पकड़ लेगा वह उसकी तरफ देख भी न पाएगा। अंगुली छोड़नी पड़ेगी उस तरफ देखना पड़ेगा। जहां कोई अंगुली नहीं पहुंचती, कोई शब्द नहीं पहुचंता सत्य तक, कोई शास्त्र नहीं पहुंचता सत्य तक, कोई सिद्धांत नहीं पहुंचता सत्य तक, लेकिन प्रेम पहुंच जाता है। प्रेम भी इसलिए पहंुच जाता है कि खुद ही डूबना पड़ता है।
मैंने तुम्हें ज्ञान की बात इसीलिए नहीं की कि इस देश में तो ज्ञान बहुत भारी पड़ गया है, हमारी छाती पर पत्थर की तरह रखा हुआ है ज्ञान। सब जानते हैं और कोई भी नहीं जानता है। सब जानते हुए मालूम पड़ते हैं। दरवाजे के सामने पड़े हुए पत्थर का भी पता नहीं है कि क्या है, लेकिन परमात्मा के संबंध में विवाद कर रहे हैं बैठ कर कि वह कैसा है और क्या है? परमात्मा पर छोड़ दे सकते हैं कि मस्जिद वाला परमात्मा सच है कि मंदिर वाला परमात्मा सच है? जिसका कोई भी पता नहीं उसके नाम पर कुछ भी हो सकता है। सामने पड़े हुए दरवाजे के पत्थर के बारे में पहचान नहीं कर पाते हैं कि क्या है? एक छोटा सा कंकर भी इतना बड़ा रहस्य है कि अब तक हम नहीं जानते हैं कि वह क्या है? परमात्मा तो बहुत बड़ा रहस्य है। और जिनको यह खयाल है कि हम जानते हैं, इस जानने के खयाल के कारण ही वे उस रहस्य में कभी प्रवेश न कर पाएंगे। वह जो नोइंग एटिट््यूड है, उन्हें जानने का खयाल है, वह जानने का सबसे बड़ा दुश्मन है। जिस आदमी को यह खयाल पैदा हो गया कि मैं जानता हूं, उसके द्वार बंद हो गए और वह कभी नहीं जान पाएगा। क्योंकि अब जानने का कोई सवाल ही न रहा। वह जानता ही है। इसलिए यह कहा कि पंडित नहीं पहुंच पाते परमात्मा को। क्योंकि पंडित पक्का जानते हैं, उन्हें मालूम है इसलिए वे कोई यात्रा नहीं करते। यात्रा तो वह करता है जिसे मालूम नहीं। यात्रा तो वह करता है जिसे अज्ञान की पीड़ा है। यात्रा तो वह करता है जो कहता है मुझे पता नहीं, पता नहीं, पता नहीं।
एक गांव में एक फकीर ठहरा है और उस गांव के लोगों ने कहा कि चलो मस्जिद में हमें ईश्वर के संबंध में कुछ समझा दो। उसने कहाः जाओ भी, अगर ईश्वर के संबंध में कुछ समझाया जा सकता तो पहले ही समझा दिया गया होता। मुझे झंझट में मत डालो। लोग नहीं माने। कहा कि चलो भई, नहीं माने तो बेचारा फकीर आ गया। वह मस्जिद के मंच पर खड़ा हो गया। शुक्रवार का दिन है, मस्जिद ठसा-ठस भर गई है। उसने लोगों से पूछा कि मित्रो, पहले एक सवाल मैं पूछ लूं फिर मैं बोलूं। मैं तुमसे जानना चाहता हंू कि ईश्वर है, तुम मानते हो? तो मस्जिद के सारे लोगों ने हाथ उठा दिए, उन्होंने कहाः है, हम जानते हंैं। उस फकीर ने कहाः फिर मुझे क्यों परेशान कर रहे हो। मैं जाऊं, तुम जानते ही हो बात खतम हो गई। और उसके आगे कुछ जानना नहीं है जो मैं बताऊं। क्षण भर बाद वह उतर कर मंच से चला गया। मस्जिद के लोगों ने कहा कि यह तो बड़ा धोखा हो गया। जानता तो कोई भी न था। सब ज्ञानी थे। लेकिन जानता कोई भी न था। उन्होंने कहाः गलती हो गई, हमें क्या पता था कि यह आदमी इस तरह कर देगा। और फिर कुछ कहने को भी न बचा, जब कहा कि जानते ही हैं, तो उसने कहा परमात्मा के ऊपर तो न बताने को कुछ है, न जानने को कुछ। नमस्कार करता हंू तुम सब ज्ञानियों को और वह चला गया।
उन्होंने कहाः लेकिन इसको छोड़ना नहीं है। दूसरे शुक्रवार को फिर पहुंच गए और उन्होंने कहाः चलिए, समझाइए। उसने कहा कि मैं गया था पिछली बार। उन्होंने कहाः हम दूसरे लेाग हैं, हम वे लोग नहीं। उस फकीर ने कहा कि धार्मिक आदमी का कभी कोई भरोसा नहीं। तुम यह कहते हो? मैं लोगों को अच्छी तरह पहचानता हूं, छोटी सी मस्जिद है और छोटा सा गांव है। लेकिन धार्मिक आदमी कभी भी बदल जाए। अभी गीता पढ़ रहा है, छुरा घोंप दे अभी, कुछ पक्का नहीं। अभी कुरान पढ़ रहा है, अभी किसी के घर में आग लगा दे, कुछ पक्का पता नहीं। जिसको हम धर्मिक आदमी कहते हैं उससे ज्यादा लचर और कमजोर और बेईमान आदमी इस पृथ्वी पर है ही नहीं। जिसको हम धार्मिक कहते हैं उसका कोई भरोसा नहीं। उस फकीर ने कहा कि ठीक है, मैं तुम्हारी शक्लें भी जान रहा हूं, एक ही तो मस्जिद है। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, मस्जिद तो वही है लेकिन हम दूसरे लोग हैं, आप चलें।
वह फकीर गया। मंच पर खड़ा हुआ। आज और भीड़ बढ़ गई। क्योंकि लोग उत्सुक हैं, उन्होंने तय कर लिया है। फकीर ने कहाः ईश्वर है, मानते हैं? उन्होंने कहाः कैसा ईश्वर? हम नहीं मानते, न हम जानते हैं। अब बोलिए। उसने कहाः जो है ही नहीं उसके संबंध में क्या कहूं। उसने कहाः जो है ही नहीं उसके संबंध में व्यर्थ मेहनत क्यों करनी। किस ईश्वर के संबंध मे पूछ रहे हो जो है ही नहीं उसके संबंध में? उसने कहाः तुम लेकिन फिर भी ज्ञानी होे, तुमने इतना तक पता लगा लिया कि ईश्वर नहीं है। पहले जब आया था तब भी ज्ञानी मिले थे, उन्होंने यह पता लगा लिया था कि ईश्वर है। और तुम भी ज्ञानी हो तुमने यह भी पता लगा लिया कि वह नहीं है। खोज चुके तुम सब, नहीं पाया कहीं, देख लिया तुमने अस्तित्व का कोना-कोना, नहीं मिला वह, नमस्कार है, मैं जाता हूं।
वह मस्जिद चुप रह गई। उन्होंने कहाः यह अजीब आदमी है। हमनेे सोचा था वह उत्तर काम न दिया तो उलटा उत्तर काम दे जाएगा। अक्सर लोग यही सोचते हैं कि अगर यह उत्तर काम न दिया तो उलटा उत्तर काम दे जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, गलत उत्तर का ठीक उलटा भी गलत ही होता है, ठीक नहीं हो जाता। उन्होंने कहाः कुछ रास्ता मध्य का निकालना पड़ेगा। उन्होंने फिर फकीर से प्रार्थना की कि चलें आप। अब कि बार उसने न पूछा कि तुम कौन हो, क्योंकि पूछना फिजूल था। वह चला आया। मस्जिद के लोगों ने उत्तर तय कर लिया था। जब विवाद होता है तो फिर रेसिस्टेंस फैल जाता है, उसको कुछ लोग समन्वय कहते हैं, कुछ लोग समझौता कहते हैं। उन्होंने तय कर लिया। अल्लाह-ईश्वर वाले लोग थे, कि अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। फिर ऐसा कुछ रास्ता निकालना पड़ता है। वह निकाल लिया था उन्होंने। उसने फिर पूछा कि ईश्वर है? तो मस्जिद के आधे लोगों ने कहा कि हां है और आधे लोगों ने कहा कि नहीं, अब आप बोलिए। तो उसने कहाः तुम बड़े पागल हो! जिनको पता है वह उनको बता दे जिनको पता नहीं है, मेरी क्या जरूरत है? मेरी कोई भी जरूरत नहीं। तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो? उस फकीर ने कहाः इस मस्जिद मेें दोनों लोग मौजूद हैं, जिनको पता है और जिनको पता नहीं है। आपस में, कृपा करके मेरी तरफ चेहरा न करके आधे लोग इधर को चेहरा कर लें, आधे लोग उधर को, और मुझे रास्ता दें-देें मैं चला जाता हूं।
फिर मस्जिद के लोग चैथी दफा नहीं गए। क्योंकि चैथा उत्तर ही नहीं खोज पाए। तीन उत्तर ही हो सकते थे। फकीर कई दिन रुका रहा और बार-बार उन लोगों से पूछता कि अब नहीं आते? तो लोग बच कर निकल जाते। फिर तो गांव वाले उस फकीर से डरने लगे। क्योंकि जहां भी वह मिल जाता वह पूछता कि क्यों अब नहीं आते? अब गांव के लोग बड़े परेशान हो गए। क्योंकि अब कोई चैथा उत्तर नहीं है। जो उत्तर हो सकते थे दे दिए थेे। फिर किसी ने उसके पास जाकर पूछा कि अगर हम आएं, अगर हम आएं चैथी बार तो आप उत्तर दोगे? तो उसने कहाः मैं फिर पूछूंगा। उसने कहाः वही तो मुश्किल हो गई, इसलिए तो हम बुलाने नहीं आ पाते। लेकिन क्या हम आएं तो आप उत्तर दोगे? उसने कहा। मैं तो चलूंगा लेकिन जब तक तुम मुझे ठीक उत्तर न दोगे तब तक मैं भी आगे नहीं बढ़ूंगा। उन्होंने कहा कि ठीक उत्तर पता ही नहीं। उस फकीर ने कहा कि ठीक उत्तर बिलकुल पता है लेकिन बेईमान हो, ठीक उत्तर तुम इसलिए नहीं दे पा रहे। तो क्या है ठीक उत्तर? उस फकीर ने कहा कि मैं पूछूं और तुम चुप रह जाओ, जब पता नहीं तो तुम बोलते क्यों हो? यह भी कहना कि है ईश्वर उत्तर है, यह भी कहना की नहीं है ईश्वर उत्तर है, यह भी कहना की हम आधों को पता है आधों को पता नहीं। लेकिन तुम यह क्यों नहीं कहते कि हम कैसे उत्तर दें हमें तो कुछ भी पता नहीं है। होना भी पता नहीं, न होना भी पता नहीं है।
ऐसे आदमी को मैं कहता हंू कि ऐसा आदमी यात्रा पर निकल सकता है, जो यह कहता है मुझे कुछ भी पता नहीं है। जो कहता है कि मैं तो परम अज्ञानी हंू मुझेे कुछ भी पता नहीं है। लेकिन हम कैसे कहें कि हम परम अज्ञानी हैं? हमने शास्त्र याद कर लिए हैं, हमने उधार ज्ञान इकट्ठा कर लिया है, हम कैसे कहें की हम अज्ञानी हैं? हमें पता है कृष्ण ने क्या कहा, मौहम्मद ने क्या कहा, हमें सब पता है।
नहीं, मैं ज्ञान की बात नहीं किया, क्योंकि ज्ञान की बात अक्सर कोरे ज्ञान की बात हो जाती है। और ज्ञान की बात अक्सर उधार ज्ञान की बात हो जाती है। और ज्ञान की बात अक्सर संग्रह हो जाता है दूसरों का, अपना कुछ भी नहीं। कभी आपने शायद खयाल न किया हो, आप कभी दूसरोें के प्रेम से तृप्त नहीं होते लेकिन दूसरों के ज्ञान से तृप्त हो जाते हैं। अगर मैं आपसे आकर कहंू कि तुम क्यों प्रेम के चक्कर में लगे हो, मैंने प्रेम कर लिया है। तो आप कहेंगे, आपने कर लिया होगा लेकिन इससे मुझे क्या, मुझे तो खुद करना पड़ेगा। कभी हम दूसरे के प्रेम से तृप्त नहीं होते। इसलिए वह उधार प्रेम जैसी चीज होती ही नहीं। प्रेम प्रत्येक व्यक्ति अपना खेाजता है निजी, आॅथेंटिक, प्रामाणिक। वह कहता है कि किया होगा आपने। बाप बेटे से कितना ही कहे कि मैं कर चुका प्रेम, अब तुम इस चक्कर में मत पड़ो, तो बेटा कहेगा, आपने किया होगा, लेकिन कृपा करके मुझे इस चक्कर में पड़ने दें, मैं भी जानना चाहता हूं, क्योंकि दूसरे ने किया है वह मैं कैसे जान सकता हूं?
लेकिन ज्ञान उधार हो जाता है अक्सर, हम किताब से पढ़ कर ज्ञान तो ले सकते हैं, लेकिन किताब से पढ़ कर प्रेम नहीं ले सकते। अब तक कोई आदमी नहीं ले सका। नहीं तो कई किताबें प्रेम पर लिखी जाती हैं, उनको पढ़ लें, बात खत्म हो जाती। प्रेम पर कभी भी हम दूसरे से उधारी स्वीकार नहीं करते, ज्ञान में उधारी स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए मैं ज्ञान की बात नहीं करता।
परमात्मा उधार नहीं जाना जा सकता, स्वयं ही जानना पड़ेगा। इसलिए मैं कहता हंूः प्रेम ही रास्ता है। और जब मैं कहता हंू प्रेम ही रास्ता है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कोई ज्ञान का विरोधी हूं। मैं यह कह रहा हंू कि प्रेम भी जानने का गहरे से गहरा रास्ता और ढंग है, वह भी ए मैथड आॅफ नोन। जब हम किसी को प्रेम करते हैं तभी हम जान पाते हैं। अब इस जानने में भी बहुत फर्क है। एक वनस्पति शास्त्री, उसको फूल के पास ले जाएं, वह भी जान लेगा फूल को, लेकिन उसका जानना बहुत और ढंग का होगा। वह कहेगा, इसमें कितने केमिकल्स हैं? यह किस जाति का पौधा है? इसमें कितने खनिज हैं? यह कैसे बना है? यह क्या है, क्या नहीं? वह सब जान लेगा। एक कवि को ले जाएं उसी फूल के पास, वह न खनिज की बात करेगा, न केमिकल्स की बात करेगा, न पौधे की जाति की बात करेगा, वह भी जानेगा उस फूल को, लेकिन उसका जानना बहुत और ढंग का होगा। वह उस फूल के आस-पास नाच सकता है, गीत गा सकता है, मुक्त होकर डूब सकता है। एक कवि भी जानेगा, लेकिन उसके जानने का ढंग प्रेम होगा। एक वैज्ञानिक भी जानेगा, लेकिन उसके जानने का ढंग प्रेम नहीं होगा।
परमात्मा को वैज्ञानिक ढंग से नहीं जाना जा सकता, इसलिए मैंने ज्ञान की बात नहीं की। परमात्मा को लेबोरेटरी में पकड़ कर कोई टेस्टट््यूब में नहीं जाना जा सकता। कोई रास्ता नहीं है। उसकी बड़ी कृपा है कि वह टेस्टट््यूब की पकड़ में नहीं आता है। इसलिए वैज्ञानिक कहे जाता है कि नहीं है परमात्मा, नहीं है परमात्मा। उसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है, उसका कारण यह है कि वैज्ञानिक की जो विधि है, जो मेथडोलाॅजी है वह परमात्मा को पकड़ने वाली नहीं है। उसमें परमात्मा का कसूर नहीं है। वह जिस ढंग से उसको जांचना चाहता है उसमें पत्थर ही पकड़ में आ सकते हैं, उसको परमात्मा पकड़ में नहीं आ सकता।
अगर वह फूल को जांचने जाएगा तो सौंदर्य पकड़ में नहीं आएगा, खनिज और रसायन सब पकड़ में आ जाएगी, पर सौंदर्य भर छूट जाएगा। सौंदर्य को पकड़ना हो तो कवि की आंख चाहिए; कोई प्रेमी की आंख जो प्रेम कर सके। और जब कोई फूल को प्रेम करता है तो ही जानता है। लेकिन वह जानना एक बहुत मिस्टिक पर्टिसिपेशन है, वह एक बहुत रहस्यमय ढंग से फूल के साथ एक हो जाना है। वह इतना एक हो जाए कि खयाल भी नहीं रहे कि मैं...
मैं एक घटना से समझाऊं फिर मैं एक दूसरा सवाल लूं।
रामकृष्ण एक दिन नदी पार कर रहे थे। नाव पर बैठे हैं, दस-पांच मित्र बैठे हैं। अचानक बीच नाव पर रामकृष्ण चिल्लाते हैं, मत मारो मुझे, क्यों मारते हो? उनके मित्रों ने चैंक कर कहा कि आप यह क्या कहते हैं? जैसे मैं यहां बैठ कर चिल्लाऊं तुमसे कि मत मारो मुझे, क्यों मारते हो और आप कहेंगे कि बात क्या है? रामकृष्ण के मित्रों ने कहाः आप क्या कहते हैं? कौन आपको मार सकता है? कौन आपको मार रहा है? और रामकृष्ण हैं कि चल्लाए चले जा रहे हैं कि मत मारो, मत मारो। वे अपनी चादर उठा कर दिखाते हैं वहां, तो कोेड़े के निशान हैं और लहू उभर आया है। मित्र कहतेे हैंः क्या मामला है? तब रामकृष्ण हाथ उठाते हैं नदी के उस तट पर, एक मल्लाह को कुछ लोग पीट रहे हैं। फिर नाव उस तट जाकर रुकती और वे मित्र जाकर उस मल्लाह की चादर उठा कर देखते हैं, उसकी पीठ पर जहां निशान हैं ठीक वहीं रामकृष्ण की पीठ पर निशान हैं। यह घटना बहुत पुरानी नहीं है। यह घटना बहुत नई है। इसके चश्मदीद गवाह हैं। क्या हुआ क्या? ये कोड़े के निशान रामकृष्ण की पीठ पर आए कैसे? यह किसी गहरे पर्टिसिपेशन में, यह किसी गहरे एकात्मभूति में, एक अनुभव में घटित हो गया। जब वह पीट रहा है तब तो रामकृष्ण को ऐसा नहीं लगा कि उसे क्यों मार रहे हो, जो उन्हें एकदम से यह खयाल आ गया कि मुझे क्यों मार रहे हो? तो दोनों के प्राण किसी बहुत गहरे अदृश्य में मिल गए और चोट के निशान रामकृष्ण तक पहुंच गए। लेकिन यह पूरब की घटना है इसलिए पश्चिम विश्वास नहीं करेगा। और रामकृष्ण की घटना है इसलिए वैज्ञानिक विश्वास नहीं करेगा।
मैं एक और घटना बताना चाहता हूं।
उन्नीस सौ छत्तीस में अमरीका में एक आदमी था, लूथर दरबांग। वह नोबल प्राइज विनर था। वह कोई रामकृष्ण जैसा अपढ़ संन्यासी नहीं था। और न रामकृष्ण जैसा कोई पागल आदमी था। लूथर दरबांग नोबल प्राइज विनर था। लूथर दरबांग ने जिंदगी भर पौधों के पास ही अपनी जिंदगी बिताई। वह पौधों की खोज ही करता रहा। उसकी खोज इतनी बढ़ गई और उसका पौधों से इतना संबंध हो गया कि उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली गई। उसने कहा कि क्या पागलपन मचा रखा है, मैं बैठी हंू और तुम अपने पौधों से बात कर रहे हो, तुम्हारा दिमाग ठीक है? लूथर दरबांग पौधों से बात करने लगा। अब यह पागलपन का लक्षण है। उसका पौधों से प्रेम हो गया। वह पौधों से बात-चीत, हाल-चाल पूछने लगा, सुबह उठ कर पौधों से कि कहो कैसे हो, कल तबीयत खराब थी, ठीक है न? तो पत्नी तो, ऐसे पति के पास पत्नी रुके? वह गई, उसने कहा कि यह क्या पागलपन है? मुझसे तो कभी पूछते नहीं हो कि तबीयत कैसी है पौधे से तुम पूछ रहे हो? पौधों से पूछने का मतलब? मित्रों ने दरबांग को समझाया कि मालूम होता है तुम्हारा दिमाग खराब हुआ जा रहा है। मालूम होता है ज्यादा दिमाग से श्रम करने के कारण तुम पागल हुए जा रहे हो।
दरबांग ने कहाः दिमाग से काम बंद हो गया है। अब मैं पूरे प्राणों से काम कर रहा हूं। लेकिन कौन माने। तो दरबांग ने कहा कि कैसे तुम मानोगे? लेकिन उसने कहाः तुम सोचते हो? मित्रों ने कहाः सोचते हो, पौधे तुम्हारी सुनते हैं? तो दरबांग ने कहा कि सुनते हैं। क्योंकि पौधों ने मुझे नमस्कार दी है। जब मैंने पौधों से कहाः कैसे हो? तो पौधों ने कहाः ठीक हैं, खुश हैं। मित्रों ने कहाः हमने तो कभी नहीं सुना। अब तो पक्का है कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। तुम कोई प्रमाण दे सकते हो? दरबांग ने एक प्रमाण दिया जो अमरीका में घटित हुआ। और वह प्रमाण बहुत अदभुत था।
दरबांग एक कैक्टस के पौधे के पास सात साल तक मेहनत करता रहा। और उस कैक्टस के पौधे में बिना कांटे की डाल नहीं होती, शाख नहीं होती। वह उस पौधे से रोज कहता कि कृपा कर और एक ऐसी शाखा निकाल दे जिसमें कांटे न हों ताकि मित्रों को भरोसा आ जाए कि तूने मेरी सुन ली। सात साल, असल में सात साल सिर्फ प्रेम ही इस तरह के प्रयोग कर सकता है। क्योंकि प्रेम बिलकुल पागल है न। इतना सात साल तक कौन करेगा? सात दिन मुश्किल, सात मिनट मुश्किल है। सात दिनों में यह भरोसा आ जाएगा कि यह नहीं होने वाला। लेकिन दरबांग सात साल तक कहता रहा कि तू कृपा कर और एक शाखा निकाल दे जिसमें कांटे न हों, ताकि मैं भरोसा दिला दूं कि इसने मेरी सुन ली। और सात साल बाद उस पौधे में एक शाखा आ गई जिसमें कांटे नहीं थे। अब दरबांग वैज्ञानिक न रहा प्रेमी हो गया।
अब दरबांग परमात्मा को जान सकता है। प्रेम ही जानने का एक गहरा ढंग है। और जिसको हम ज्ञान कहते हैं वह ऊपर-ऊपर घूमता है। और जिसको हम प्रेम कहते हैं वह भीतर प्रवेश कर जाता है। जब हम एक व्यक्ति को जानने जाते हैं तो हम उसके चारों तरफ घूमते हैं।
अंग्रेजी में एक शब्द है एक्वेंटेंस, परिचय। जब हम एक आदमी को जानते हैं तो हम उसके आस-पास घूमते हैं, हम पूछते हैं, तुम्हारे पिता का नाम क्या है? तुम्हारी तनख्वाह क्या है? कहां रहते हो? यह सब आस-पास घूमना है। इसमें उस व्यक्ति के बाबत कुछ नहीं। पिता कौन है? नौकरी क्या है? घर कहां है? गांव क्या हैै? जाति क्या है? धर्म क्या है? हम उसके आस-पास घूम रहे हैं। हम उसके आस-पास चक्कर लगा रहे हैं। यह एक्वेंटेंस, परिचय है। लेकिन उस व्यक्ति से आपका प्रेम हो जाए तो पिता कौन कोई मतलब नहीं। जाति कौन कोई मतलब नहीं। कभी किसी ने पूछ कर प्रेम किया है कि मुसलमान हो तब प्रेम करेंगे, कि हिंदू हो तब प्रेम करेंगे। नहीं, प्रेम हो जाए तो सीधा हम उस व्यक्ति से संबंधित हो जाते हैं। न हम पूछते हैं कि पिता कौन है, न जाति, न धर्म, न ठिकाना, न पता, सब खत्म, सीधे प्रवेश कर जाते हैं उस व्यक्ति में। उस व्यक्ति से ही जुड़ जाते हैं।
प्रेम ही जानने का गहरा ढंग है। सच तो यह है कि प्रेम ही जानने का गहरा ढंग है। प्रेम ही ज्ञान है। और प्रेम के अतिरिक्त जो ज्ञान है वह सब उधार, बासा है। जिन्होंने जाना है उन्होंने प्रेम से जाना है। और वह प्रेम से जाने हुए लोगों की बातों को जो दोहरा रहे हैं उन्होंने जाना नहीं है। इसलिए मैंने ज्ञान की बात नहीं की, लेकिन जो समझेंगेे वे समझ जाएंगे की मैंने ज्ञान की ही बात की।

एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं परमात्मा सबमें हैं। तो फिर कुछ लोग बुरे क्यों हो जाते हैं? फिर कुछ लोग गलत रास्ते पर क्यों चले जाते हैं?

जब हम बात करते हैं कि परमात्मा सबमें है, तो हमें एक भूल हो जाती है। और वह भूल यह हो जाती है, जैसे हम कहते हैं, गिलास में पानी है, तो हमारा, जब हम कहते हैं कि गिलास में पानी है, तो गिलास अलग होता है, पानी अलग होता है। और जब हम कहते हैं, सबमें परमात्मा है, तो हम इसी तरह सोचते हैं कि हम भी कुछ हैं और हममें से परमात्मा भी है। न, ऐसा नहीं है, कि जब हम कहते हैं, सबमें परमात्मा है; जब हम ऐसा कहते हैं, सबमें परमात्मा है, तो उसका मतलब है परमात्मा ही है और कोई नहीं है। जब मैं कहता हंू कि मुझमें परमात्मा है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अलग हंू और मेरे भीतर कोई परमात्मा है। जब मैं कहता हूं, मुझमें परमात्मा है, यह सब भाषा की भूल है। जब मैं यह कहता हंू कि सबमें परमात्मा है, तो इसका मतलब सिर्फ यह है कि या तो मैं ही हंू या परमात्मा ही है, एक ही है, जिसके दो नाम हैं। आप मैं की तरह जानते हैं, वह परमात्मा की तरह है। दो नहीं है।
वे पूछ रहे हैं कि जब सबमें परमात्मा है...?
इसको ऐसा न पूछें, इसको ऐसा कहेंः जब सभी परमात्मा है, तो फिर लोग बुरे क्यों हो जाते हैं?
यह बहुत पुराना सवाल है। सदा से आदमी को परेशान करता रहा है। और हल नहीं हो पाता। क्योंकि हम, हम सवाल की गहराई में नहीं उतर पातेे। जब हम पूछते हैं कि परमात्मा सब परमात्मा ही है, तो फिर एक आदमी चोर और डाकू और रावण क्यों हो जाता है? और एक आदमी राम क्यों हो जाता है? तो इसका सिर्फ मतलब इतना है कि परमात्मा पर कोई बंधन नहीं है। परमात्मा परम स्वतंत्र है। वह रावण भी हो सकता है, राम भी हो सकता है। यह परमात्मा की परम स्वतंत्रता का सबूत है कि वह चाहे तो रावण भी हो सकता है और वह चाहे तो राम भी हो सकता है। और अगर ऐसा होता जैसा कि प्रश्न में छिपा है, कि सब लोग अच्छे होने को मजबूर होते तो अच्छाई बड़ी बेईमानी, बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊबाने वाली होती।
अगर एक आदमी राम होने को मजबूर हो, तो राम होेने का मजा चला जाए। राम होने का मजा इसीलिए है कि राम होने की संभावना है। अगर एक आदमी को अच्छा होना ही पड़े, बुरे होने का उपाय ही न रहे, तो अच्छे होने में कोई अर्थ ही न रह जाए। अच्छे होने का अर्थ ही इसलिए है कि बुरे होने का उपाय है। और यह मेरी स्वतंत्रता है कि मैं चाहंू तो बुरा और चाहंू तो अच्छा। और मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है। क्योंकि मैं ही परमात्मा हूं। मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है कि कोई मुझे रोक सके कि तुम्हें अच्छा ही होना पड़ेगा। नहीं, मैं बुरा भी हो सकता हूं। और ध्यान रहे, जो आदमी कभी ठीक से बुरा नहीं हुआ वह ठीक से अच्छा नहीं हो पाता। असल में ठीक से अच्छे होने के लिए ठीक से बुरे होने का अनुभव बहुत जरूरी है। इतना ज्यादा जरूरी है जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि अच्छे होने की जो गहराई है और अच्छे होने का जो रस है वह बुरे होने की पीड़ा और दुख से आता है।
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं तो खयाल में आ जाए।
एक आदमी बहुत धनपति है, बहुत अरबपति है। वह सुख की खोज में है। सुख नहीं मिला है। वह अपने घोड़े पर एक बहुत बड़ी थैली में बहुत हीरे-जवाहारात भर कर सुख की खोज में निकला कि जो मुझे सुख दे दे उसे मैं सब हीरे-जवाहारात दे दूं। करोड़ों की संपत्ति लेकर वह गया। गांव-गांव भटक रहा है लेकिन कौन सुख दे दे? सुख कौन दे दे? जहां भी गया है लोगों ने बातचीत की लेकिन सुख कोई नहीं दे पाया। उसने कहा कि यह रही संपत्ति, मैं देता हूं, लेकिन सुख चाहिए। जरा सा सुख दे दो, यह सब ले लो। लेकिन कोई नहीं मिला। फिर किसी ने कहा कि आपको तो सिर्फ एक आदमी सुख दे सकता है, वह एक फकीर है फलां-फलां गांव में, वहां आप चले जाइए। उसने कहाः वह क्यों दे सकता है? उसने कहाः वह फकीर जरा अजीब ढंग का है। वह दे सकता है। और कोई आपको नहीं दे सकता।
वह गया उस गांव में, गांव के बाहर गया। वह फकीर एक झाड़ के नीचे बैठा है। सांझ ढल रही है, सूरज उतर रहा है, अंधेरा उतरने के करीब है। उसने जाकर घोड़े से उतर कर वह करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहारात नीचे रख दिए और फकीर से कहा कि तेरे पीछे परेशान हो रहा हूं, मेरे पास सब है, सुख नहीं है, मुझे सुख चाहिए। यह सारी संपत्ति दे सकता हूं। एक झलक मिल जाए सुख की मुझे।
उस फकीर के कहाः सच? वह फकीर उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा, दे दूं सुख? उस आदमी ने कहाः दें। वह आदमी खुद भी थोड़ा हैरान हुआ। क्योंकि कई लोगों के पास गया था, थैली पटकी थी कई के सामने, पर वे कहने लगे, सुख हम कैसे दे सकते हैं? उस फकीर ने कहाः दे दूं, सच में दे दूं? उसने कहाः दें, मैं इसलिए तो फिर रहा हूं। लेकिन जब तक उसने कहा कि दे दंू फकीर उसकी थैली लेकर भाग खड़ा हुआ। उसकी तो समझ ही नहीं आया एक क्षण के लिए क्या हो रहा है। फिर वह चिल्लाने लगा, अरे मैं लुट गया, मैं मर गया। तू आदमी कैसा है? तू परमज्ञानी, मैंने सुना था। लेकिन वह तो भाग ही गया। वह तो भागे ही चला जा रहा है। फिर वह घोड़े को छोड़ कर अमीर भागा उसके पीछे। फकीर को गांव परिचित है, रात उतर आई है, गली-गली में वह चक्कर काट रहा है। और वह आदमी चिल्ला रहा है कि मैं लुट गया, मैं मर गया। उसकी आंखों के सामने सारी जिंदगी की संपत्ति चली गई। सुख तो न मिला लेकिन दुख मिल गया। और यह आदमी कैसा धोखेबाज है? इसको पकड़ो। यह चोर है, यह बेईमान है। सारा गांव दौड़ रहा है, सारा गांव जग गया है। वह फकीर को तो रास्ते परिचित हैं, यह आदमी अजनबी है तो उसको पकड़ नहीं पा रहा है।
फिर वह फकीर वापस अपने उसी झाड़ के नीचे लौट आया जहां वह घोड़ा खड़ा है। उसने वह थैली पटक दी और झाड़ के पीछे छिप गया। वह आदमी पीछे से हांफता हुआ, रोता-चिल्लाता हुआ भीड़ के साथ आया। थैली उठा कर उसने भगवान से कहा कि भगवान, धन्यवाद! फकीर पीछे से निकला और उसने कहाः थोड़ा सुख मिला? उस फकीर ने कहाः यही एक रास्ता है सुख पाने का। थोड़ा मिला? बोलाः मिला? उस आदमी ने कहाः मिला। क्योंकि दुख की यात्रा हो गई तो सुख मिल सका।
परमात्मा भी है सबके भीतर, लेकिन भीतर के परमात्मा को भी भटकना पड़ता है तभी वह ठीक जगह आता है। कोई भटकाता नहीं, हम भटकते हैं। यह हमारी स्वतंत्रता है। बुराई मेें भी हम जाते हैं, वह भी हमारी स्वतंत्रता है। नरक की गहराइयों में तपते हैं, वह भी हमारी स्वतंत्रता है। स्वर्ग की ऊंचाइयों में उठते हैं, वह भी हमारी स्वतंत्रता है। और जब स्वर्ग और नरक दोनों में कोई आदमी घूम चुका होता है, सुख और दुख दोनों में घूम चुका होता है, तब एक नई यात्रा शुरू होती है जो आनंद की यात्रा है। वहां न सुख है, न दुख है। ये इतनी सारी यात्राएं करनी पडती हैं। कोई करवा नहीं रहा है, हम कर रहे हैं, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त कोई है ही नहीं।
जब मैं कहता हंू, सबके भीतर परमात्मा है, मैं यह कह रहा हंू, सब परमात्मा हैं। और परमात्मा ही यात्रा कर रहा है, खोज रहा है, खोज रहा है, खोज रहा है और पहुंच रहा है। कोई बुरा नहीं करवा रहा है किसी से। इसलिए बुराई का भी अर्थ है इस जगत में। अंधेेरे का भी अर्थ है इस जगत में। क्योंकि प्रकाश अंधरे के कारण ही दिखाई पडता है। बुरे आदमी का भी अर्थ है। कभी सोचें, अगर राम न हों, जैसा कि हम सोचते हैं कि रावण नहीं होना चाहिए। तो यह कभी खयाल किया कि अगर रावण न हो तो राम केे होने में बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
यह बड़े मजे की बात है कि रावण तो राम के बिना भी हो सकता है, लेकिन राम रावण के बिना नहीं हो सकते। यह बहुत अजीब बात है कि राम न भी हो तो रावण के होने में कोई खास बाधा नहीं पड़ती। रावण हो सकता है, लेकिन रावण न हो तो राम के होने में बड़ी बाधा पड़ जाती है। उसका कारण है। कि बुरा जो है वह प्राथमिक अनुभव है, भला जो है वह ऊपर का अनुभव है। मंदिर बनाते हैं, शिखर चढ़ाते हैं सोने का, नींव भरते हैं पत्थर की, तो नींव भर कर अगर आप शिखर न चढ़ाएं तो चल जाएगा। नींव हो सकती है बिना शिखर के, लेकिन शिखर बिना नींव के नहीं हो सकता। जो नीचा है वह ऊपर के बिना हो सकता है, लेकिन जो ऊपर है वह नीचे के बिना नहीं हो सकता। आपके मकान के ऊपर की मंजिल नीचे की मंजिल के बिना नहीं हो सकती, लेकिन नीचे की मंजिल बिना ऊपर की मंजिल के हो सकती है, इसमें कोई बाधा नहीं।
आदमी की बुराई का अस्तित्व हो सकता है भलाई के बिना, लेकिन भलाई का अस्तीत्व नहीं हो पाता बुराई के बिना। जिंदगी में जो नीचे है वह प्राथमिक है, जो ऊंचा है वह श्रेष्ठ है, इसीलिए ऊपर है।
मंदिर का शिखर अकेला नहीं हो सकता। राम अकेले नहीं हो सकते। राम के लिए बुनियाद में रावण के पत्थर चाहिए। रावण राम के बिना हो सकता है। उसके लिए राम के शिखर की बहुत जरूरत नहीं है।
एक वृक्ष हम लगाएं, हम वृक्ष को काट दें, तो जड़ें हो सकती हैं बिना वृक्ष के। बिना फूलों के जड़ें हो सकती हैं, लेकिन फूल बिना जड़ों के नहीं हो सकते। हम जड़ें काट दें, तो फूल मर जाएंगे, लेकिन हम फूल काट दें तो जड़ें नहीं मर जाएंगी, जड़ें नये फूल निकल कर पहुंचा देंगी।
जिंदगी के गहरे रहस्यों में एक रहस्य यह है कि जो नीचा है, जो बुरा है, जो अंधेरा है, वह प्राथमिक है। और जो श्रेष्ठ है, उज्जवल है, शुभ है, वह अंतिम है। और नीचे की भी जरूरत है ताकि ऊपर का हो सके। इसलिए मैं कोई बुराई के विरोध में नहीं हूं। बुराई के विरोध में हंू तो सिर्फ इस अर्थ में कि बुराई पर ही रुक मत जाना। बुराई करना जरूर, रुक मत जाना। नींव भरना जरूर, लेकिन नींव पर रुक मत जाना, नहीं तो बेकार में रहोगे। अकेली नींव का क्या करिए? जड़ें लगाना जरूर, लेकिन जड़ों पर ही मत रुक जाना, वर्ना जड़ों का कोई मतलब नहीं। बुरा होना, लेकिन बुराई पर रुक नहीं जाना, शुभ तक पहुंच जाना।
रावण से यात्रा शुरू होती है, राम पर पूरी होती है। और रावण भी राम हैं और राम भी रावण हैं। और रावण भी प्रभु है और राम भी प्रभु है। हां, इतना ही फर्क है कि रावण जरा पगडंडी से उतर कर चले गए परमात्मा हैं, जरा रास्ते से उतर कर चले गए हैं। और राम पक्की सड़क पर चलने वाले परमात्मा है, वे पगडंडी से नीचे नहीं उतरते, वे ठीक रस्ते से चले जा रहे हैं। बस इतना ही फर्क है उसमें, कोई ज्यादा फर्क नहीं है। जो पगडंडी से उतर कर चला गया है वह थोड़ी देर में लौट आएगा। आज नहीं कल वह भी पक्के रास्ते पर आगे चलने लगेगा। यह हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए। बुरा आदमी इस बात का सबूत नहीं है कि उसके भीतर भगवान नहीं है। बुरा आदमी इसी बात का सबूत है कि उसके भीतर जरा विद्रोही भगवान हैं, जरा रिबेलियस। वे कहते हैं कि ठीक है, तुम्हारी बंधी हुई लीक से हम न चलेंगे, हम जरा इधर से जाएंगे। और कोई रोकने वाला नहीं है, जा सकते हैं। परम स्वतंत्रता है परमात्मा की। और इसमें सब तरफ जाया जा सकता है।
और ध्यान रहे, सौभाग्य है कि इससे उलटा नहीं, अगर ऐसा होता कि बंधी हुई लीक होती तो इस पर चलना ही होगा, उस पर पहुंचना ही होगा, तो जिंदगी बिलकुल बेमानी, अर्थहीन हो जाती। हम एकदम आत्महत्या कर लेते, जिंदगी जीने हेतु न रह जाती। एकाध दफा रामलीला खेल कर देखें बिना रावण के, बहुत मुश्किल हो जाए।
एक दफा मैंने सुना है, एक गांव में ऐसी ही गड़बड़ हो गई। रामलीला शुरू हुई। सीता का स्वयंवर रचा गया। जो लड़की सीता बनी थी उसका प्रेमी रावण बना दिया। तो जब स्वंयवर रचा गया और बाहर से आवाजें आईं कि रावण तेरी लंका में आग लगी है, तो उसने कहा कि लगी रहने दो, आज तो मैं स्वयंवर पूरा करके ही जाऊंगा। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। क्योंकि रावण हटे तो स्वयंवर हो। लेकिन उसके पहले भी कुछ सोचा-समझा जा सकेे वह रावण उठा और उसने धनुषबाण शंकर जी का उठा कर तोड़ दिया। धनुषबाण तो कोई दिक्कत थी नहीं तोड़ने की, तो तोड़ दिया उसने, उसने कहा कि जनक ला तेरी सीता को, कहां है? तो सब बात अटक गई। अब राम ने कहा कि मामला आगे खतम हुआ जाता है। वह तो जो जनक बना था वह आदमी बुद्धिमान था। उसने नौकरों से कहाः मालूम होता है तुम गलत धनुषबाण उठा आए हो, यह बच्चों का खेलने का धनुषबाण है, शंकर जी का धनुषबाण लाओ। और जैसे ही कैसे करके रावण को भगाया बाहर। यह तो बहुत मुश्किल की बात है, यह आदमी तो रामलीला खत्म किए देता है। सो आगे कोई उपाय नहीं रह जाएगा।
तो रावण के बिना रामलीला नहीं है। जिसको ऐसा दिखाई पड़ जाता है जिंदगी में वह जो बुरा है वह भी जीवन का अर्थ है। और जीवन में जो अंधेरा है वह भी जीवन का अर्थ है। वह जो जीवन में नीचे से होकर के चला गया है वह भी रास्ते पर चलने वाले लोगों के पैर की ताकत, जिस दिन विरोध इस भांति एक ही दिखाई पड़ता है, राम और रावण एक ही खेल को दो पात्र दिखाई पड़ते हैं, उस दिन जिंदगी एक लीला हो जाती है। इसलिए तो हम उसको रामलीला कहते हैं। और कोई कारण नहीं है। लीला का मतलब हैः जस्ट ए प्ले। लीला का मतलब है कि यह बहुत सच्ची बात नहीं है--कहानी है, खेल है। इसलिए हम कहते हैं कि यह लीला है। यह सारा जगत एक लीला है। लीला का मतलबः एक खेल है। इसमें कुछ बहुत गंभीरता से पकड़ लेने की जरूरत नहीं है कि यह बहुत बुरा है और यह अच्छा है। इसमें बुरा अच्छा का आधार है, इसमें अच्छा बुरे का आधार है। इसमें दोनों साथ हैं और दोनों खेल रहे हैं। तो यह एक खेल है। इसलिए जिनको हम धार्मिक अनुभूति उपलब्ध लोग कहेें उन्होंने जगत को लीला कहा है।
एक अंतिम बात और फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूं।

एक मित्र ने पूछा है कि आप कुछ ऐसी बात करते हैं कि न कोई प्रयोजन चाहिए, न कोई लक्ष्य चाहिए, बस जीवन में बह जाना चाहिए। तो आप क्या उपदेश से हंसना सिखाते हैं लोगों को?

निश्चित ही सिखाता हूं। क्योंकि मेरी समझ यह है कि जीवन एक खेल है, एक लीला है, उसे बहुत गंभीरता से मत ले लेना। गंभीरता एक रोग है, एक बीमारी है। जिंदगी को हंसते हुए लेना। और हंसते हुए जिंदगी को वही ले सकता है जिसे कहीं नहीं पहुंचना है। जिसे पहुंचने का सवाल ही नहीं। और सच बात तो यह है कि पहुंचना कहां है, जब परमात्मा भीतर है तो पहुंचना कहां है? और मंजिल क्या है? और लक्ष्य क्या है? पहुंचना है वहीं जहां हम हैं ही, इसलिए अब और कोई लक्ष्य की जरूरत नहीं। बस हम उसे जान लें जो हम हैं। उसे हम जान लें जहां हम हैं। और जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाता है।

मेरी इन सारी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुग्रहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रमाण करता हूंू। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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