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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-16)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-बार्ताएं)

सोलहवां-प्रवचन-(ओशो) 

लीला का अर्थ है वर्तमान में जीना

एक तो वर्तमान से एकाकार होने के लिए मैंने नहीं कहा है। एकाकार तो मैं कहता हूं किसी से भी मत होना। क्योंकि एकाकार होने का मतलब मूच्र्छा के और कुछ भी नहीं हो सकता। जब तक तुम्हें होश है तब तक तुम एकाकार कैसे होओगे? जब तुम बेहोश हो तभी हो सकते हो। यानी जब तक भी तुम्हें होश है, तब तक तुम अलग हो। तुम एकाकार हो कैसे सकते हो? इसलिए मूच्र्छित व्यक्ति के सिवाय एकाकार कोई कभी नहीं होता या निद्रा में होता है। प्रकृति से एकाकार हो जाता है।
तो मैं तो एकाकार होने के बिलकुल विरोध में हंू। तल्लीनता के बिलकुल विरोध में हूं। मेरा कहना बिलकुल उलटा है। मैं यह कहता हूं, वर्तमान के प्रति जागरूक होना--एकाकार नहीं। अवेयरनेस आॅफ दि प्रेजेंट, आईडेंटिटी नहीं। वह जो वर्तमान क्षण है, हमारे पास से जो गुजर रहा है, उसके प्रति पूरे जागरूक होना। फिर इस वर्तमान क्षण के प्रति जागरूक होने में बहुत बार दिखाई पड़ता है कि भविष्य की बात है यह, लेकिन हो सकता है समस्या वर्तमान में हो।
जैसे कि कल मुझे ट्रेन पकड़नी है। लेकिन टिकट तो आज खरीदनी है। ट्रेन तो कल ही पकडूंगा, आज कोई उपाय भी नहीं है पकड़ने का। ट्रेन तो कल ही पकडूंगा न, आज तो कोई उपाय नहीं है।
लेकिन टिकट तो कल नहीं खरीदूंगा, आज ही खरीदूंगा। तो जब तुम कल ट्रेन पकड़ने के लिए और आज टिकट खरीदने के लिए सोच रहे हो तब वस्तुतः तुम वर्तमान समस्या के प्रति ही सोच रहे हो, भविष्य के लिए नहीं। भविष्य के लिए सोचने का तो मतलब यह होगा कि कल तुम्हें ट्रेन पकड़नी है और तुम आज बैठे हो, तुमने ट्रेन पकड़ ली है कल्पना में। और तुम ट्रेन में चल पड़े हो, तुम सोचने लगे कि कहीं एक्सीडेंट तो नहीं हो जाएगा। तो तुम भविष्य में चले गए। मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? समस्या तो आज है, दस साल बाद की भी समस्या आज हो सकती है।
और अगर समस्या आज हो तो तुम्हें उसे आज वर्तमान का हिस्सा मान कर ही जागना चाहिए। वह है भी वर्तमान का हिस्सा। तो भविष्य में हम अक्सर क्या करते हैं कि वर्तमान चूक ही जाता है। यह समझ लो कि कल तुम्हें किसी मित्र से मिलना हैै तो तय तो तुम्हें आज करना पड़ेगा। कि कल फलां जगह मिलूंगा, यह तो आज की समस्या है। लेकिन यह तो खत्म हो गई। अब तुम कुर्सी पर बैठे हो और मित्र से तुमने मिलना शुरू कर दिया, जो कि मौजूद नहीं है। तो जो मित्र मौजूद नहीं है, उससे तुम मिल तो नहीं सकते आज। हां, उससे मिलने में वर्तमान की जागरूकता खो जाएगी। क्योंकि वह कल्पना में सो जाना है। वह एक तरह का स्वप्न हैै। तो जब मैं यह कह रहा हंू कि वर्तमान के प्रति जागें, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आपके लिए कल है ही नहीं, ऐसा मैं कह रहा हूं।

प्रश्नः आपका कुछ ऐसा कहना है कि हमें जागरूक वर्तमान के ही प्रति होना चाहिए। लेकिन क्या इसके साथ आप यह भी कहेंगे कि जागरूक रहने के साथ-साथ हम भविष्य के बारे में चिंता न करें। उसको आप बिलकुल बहिष्कार करना चाहेंगे क्या? उसका बहिष्कार करना चाह रहे हैं।

असल में मैं, जीने पर मेरा जोर है, चिन्तन पर जोर ही नहीं है। और जी तो सिर्फ वर्तमान में सकते हैं, भविष्य में तो जी नहीं सकते। मेरा जोर है जीने पर। जैसे मेरा जोर है खाना खाने पर। अब मुझसे कोई कहे कि हम भविष्य की रोटी खाएं तो आपका कोई इनकार है? तो मैं यह कहूंगा पहली तो बात है कि भविष्य की रोटी खा नहीं सकते। सिर्फ सपना देख सकते हैं। और सपने में जो बड़ा खतरा है वह यह है कि हो सकता है आज की रोटी चूक जाए। जो बड़ा खतरा है सपने में वह यह है कि आप भविष्य की रोटी खाएं तो वर्तमान की रोटी कौन खाएगा?
और वर्तमान आपके लिए रुकता नहीं एक क्षण। आप नहीं हो मौजूद तो भी भागा चला जा रहा है, आप मौजूद हो तो भी भागा चला जा रहा है। आप हो या नहीं, इसलिए वर्तमान नहीं रुकता। वर्तमान आपके लिए रुकता नहीं, वह चला जा रहा है। समय चला जा रहा है। तो जिस क्षण में हम नहीं होते, वह क्षण खाली निकल जाता है। और अगर एक आदमी के चित्त की ऐसी आदत बन जाए कि वह सदा भविष्य में जीने लगे तो समझना चाहिए वह पूरी जिंदगी ही चूक जाएगा। उसको पता ही नहीं चलेगाः जिंदगी कब आई और कब चली गई। क्योंकि जो नियम है, वह नियम तो यह है कि मेरे हाथ में अभी एक क्षण है, और एक साथ दो क्षण मेरे हाथ में कभी भी नहीं होते। जब भी होगा, एक ही क्षण होगा।
तुझे खयाल होना चाहिए कि महावीर समय का मतलब ही यह कहते हैंः समय का वह हिस्सा जो हमारे हाथ में होता है। वह आखिरी टुकड़ा काल का जो हमारे हाथ में होता है, उसका नाम समय है। और इसलिए सामायिक का मतलब हैः उस क्षण में होना जो हमारे हाथ में है। समय का मतलब ही यह है कि मोमेंट का आखिरी टुकड़ा। क्षण का वह अंतिम एटाॅमिक हिस्सा जो हमारे हाथ में होता है। जिससे हम वस्तुओं को तोड़ें तो एटम आएगा। और अगर हम काल को तोड़ें, टाइम को तोड़ें तो समय आएगा। क्षण आएगा।

प्रश्नः क्षण का भी कितना हिस्सा होता है?

हां, यानी...

प्रश्नः अंत जिसका अंत आ जाए...

...जो अंतिम हो जाए, एटामिक। आयनिक हो जाए, इसका आगे विभाजन न हो सके। ऐसा अविभाज्य जो क्षण का टुकड़ा हमारे हाथ में होता है, वही हमारे हाथ में है। अच्छा और उसको चूकने में बाल भर की देरी गई, वह चूक जाता है। उसमें देर नहीं लगती चूकने में। क्योंकि वह तो भागा ही चला जा रहा है। और अगर आप अनुपस्थित हैं तो वह भागा चला जा रहा है। और हम अनुपस्थित निरंतर रहने की आदत बना लेते हैं।
तब धीरे-धीरे वह आदत हमारे साथ होती है। जब भी समय आता है वह निकल जाता है। जब निकल जाता है, तब हम उसके संबंध में सोचते हैं। या जब वह नहीं आया होता तब सोचते हैं। लेकिन जब वह होता है तब हम नहीं होते। तो हमारा मेल कहां से हो--एक्झिस्टेंस से, अस्तित्व से। यानी मनुष्य को तकलीफ ही क्या है? मनुष्य की सारी कठिनाई क्या है?
एक ही कठिनाई है कि उसका तालमेल अस्तित्व से नहीं हो पाता। जो अस्तित्व है किसी न किसी तरकीब से वह उससे चूकता ही चला जाता है। और यह चूक का जो सूत्र है, वह अतीत में या भविष्य में होना है।
मैं नहीं कहता कि सोचें, न सोचें। मैं यह कह रहा हूं कि अगर अस्तित्व की कभी अनुभूति में जाना है; सत्य को अगर कभी जानना है; अगर आनंद को कभी अनुभव करना है तो, तो एक ही रास्ता है। और वह रास्ता यह है कि किसी भांति मन के पेंडुलम को अतीत और भविष्य के छोरों पर घूमने से रोकें। और उसे ठहरा दें वहां, जहां क्षण है अभी।
अब यह बड़े मजे की बात हैः साधारण मनुष्य समय में डोलता है। अतीत से भविष्य की तरफ जाता है चित्त; भविष्य से अतीत की तरफ जाता है चित्त। और इसका नियम है। जैसे घड़ी का पेंडुलम उत्तर से...बाएं से दाएं गया, फिर दाएं से बाएं गया। जब घड़ी का पेंडुलम बाएं जा रहा है तब तुमको खयाल भी नहीं हो सकता कि बाएं जाता हुआ पेंडुलम दाएं जाने की शक्ति अर्जित कर रहा है। इधर गया, तब उधर जाने में ही उसने उतनी ताकत इकट्ठी कर ली कि जिससे वह फिर उलटा जाएगा। दाएं जाता हुआ पेंडुलम फिर बाएं जाने की शक्ति अर्जित कर रहा है। इसका बड़ा मजेदार मतलब है। इसका मतलब यह है कि जब हम एक दिशा में जा रहे होते हैं--एक अति में, तो हम अनिवार्य रूप से उसके विरोध में जाने की शक्ति अर्जित कर रहे होते हैं।
गांव में कोई बच्चा रोता हो तो उसकी मां कहती है... हंसता हो तो उससे कहती है कि ज्यादा मत हंसाओ, नहीं तो वह रोने लगेगा। वह बहुत गहरे सूत्र का कारण है। अगर कोई बहुत हंसेगा तो फिर करेगा क्या आखिर में? यानी आखिर पेंडुलम हंसी की सीमा में पहुंच जाएगा तो फिर लौटेगा, तब फिर वह रोना शुरू करेगा। मेरी बात समझ लो जल्दी, नहीं तुम दूसरी जगह चले जाओगे।
अति में यह हमारा चित्त डोलता है। और जब तक हम अति में डोलते हैं समय की--अतीत और भविष्य के बीच में--तब तक वर्तमान निरंतर चूक जाता है। एक सेकेंड को पेंडुलम बाएं जाकर भी ठहरता है, फिर लौटती यात्रा शुरू होती है। दाएं जाकर एक सेकेंड ठहरता है, फिर लौटती यात्रा शुरू होती है। लेकिन मध्य में कभी भी नहीं ठहरता। वह हमेशा यात्रा ही में पड़ता है। या तो पेंडुलम इधर जाता है या उधर जाता है, और मध्य में कभी भी नहीं होता। होता ही नहीं। मध्य में दिखाई पड़ता है, लेकिन होता कभी भी नहीं। वह या तो बाएं जा रहा होता है या दाएं जा रहा होता है। मध्य पड़ता है उसकी यात्रा में, पर वह चूक जाता है।

प्रश्नः मगर कोई रास्ता है उसको...?

वह जो मैं कह रहा हूंः तो साधारण व्यक्ति के पास, साधारण व्यक्ति के चित्त की गति समय में होती रहती है--अतीत और भविष्य...। असाधारण व्यक्ति खड़ा हो जाता है मध्य में। और तब एक बिलकुल ही नया अनुभव शुरू होता है। तब उस समय का कोई भी हिस्सा उसके बिना जीए नहीं निकल पाता। क्योंकि वह सदा वहीं मौजूद है जहां से समय निकलता है। वह उसी दरवाजे पर खड़ा है। जैसे कि वह दरवाजा है, हवा वहां से आती-जाती है। मैं कभी इस कोने में होता हूं, कभी उस कोने में होता हूं। दरवाजे पर कभी होता ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा एक कोने से दूसरे कोने पर जाते हवा का थोड़ा सा जो स्पर्श होता है, वही मेरा अनुभव है।
लेकिन मेरा ध्यान होता है आगे, तो वह अनुभव भी मैं सचेतन नहीं ले पाता। लेकिन एक आदमी द्वार पर ही खड़ा हो गया। अब हवा का कोई भी ऐसा झोंका नहीं है जो बिना उसे छुए निकल जाए। और चूंकि उसने द्वार पर ही खड़े होने का तय कर लिया है, इसलिए अब वह पूरा उपस्थित है। और हवा के प्रत्येक झोंके को पूरा जीता है। यानी अब असंभव है कि हवा उसको धोखा दे जाए। अब तो वह वहीं खड़ा है जहां से हवा आती-जाती है।
तो वर्तमान जो है मेरी दृष्टि में, समय का हिस्सा ही नहीं है। टाइम-प्रोसेस का हिस्सा नहीं है। मेरे हिसाब में तो पास्ट और फ्यूचर, ये दो ही समय के हिस्से हैं। वर्तमान तो अस्तित्व का हिस्सा है। समय का नहीं है। और जो व्यक्ति वर्तमान में खड़ा हो गया, वह अस्तित्व में प्रवेश कर जाता है। उसको कोई ब्रह्म कहे; आत्मा कहे; सत्य कहे--जो नाम देना हो। मोक्ष कहे, जो भी नाम देना हो।
तो यह जो मेरा जोर है, वह उसके लिए तुम जो पूछते हो, इररेलेवेंट है। मैं यह नहीं कह रहा कि तुम सोचो, कि नहीं सोचो। यह मैं कह ही नहीं रहा। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुम्हें जीवन की इस गहराई को जानना है तो यह करना पड़ेगा। और एक बार जिसने यह जाना, उसके लिए न अतीत का कोई अर्थ है, न भविष्य का। कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि इतनी बड़ी अर्थवत्ता उसके जीवन में प्रकट होती है, इतनी परिपूर्णता से जीवन उसके पास आ गया होता है कि अब वह, इन टुकड़ों में--कल जीऊंगा, इसको सोचता ही नहीं। अब इसे भी थोड़ा समझना चाहिए। हम कैसे लोग हैं?
अगर मेरा प्रेमी है कोई, उससे मुझे मिलना है। तो जब तक वह मुझे नहीं मिला है मैं उसके बाबत सोच रहा हूं। अभी वह मुझे मिला नहीं। जब वह मुझे मिल गया है, तब मैं कुछ और सोचने लगा हूं कि--मेरी चित्त की आदत है पूरी की पूरी, कि वह तो मेरे चित्त की बनावट है न--तब मैं दूसरी बातें सोचने लगा हूं। जब वह मिल गया, तब मैं दूसरी बातें सोच रहा हूं। जब वह चला गया है फिर, तब मैं फिर उसका सोच रहा हूं कि वह...। लेकिन वह क्षण जब वह मुझे मिला था...।
 यानी एक आदमी जब खाना नहीं खाया, तब सोचता है खाना खाने का। और जब खाना खा रहा होता है, तब कुछ और बातें सोचता है। खाने से उठ जाता है, फिर सोचने लगता है खाने के बाबत। और मजा यह था कि जब खाना खा रहा था, तब ही खाने में पूरी तरह अगर जी लिया होता, तो न तो आगे सोचने की जरूरत पड़ती, न पीछे सोचने की। सोचने की जरूरत इसलिए पड़ती है कि खाने का रस ही नहीं मिल पाया। वह जो रस मिल गया होता तो बात खत्म हो गई थी।
तो हम जीवन के रस से चूकते हैं, इसलिए भविष्य और अतीत में सोचते रहते हैं। और तुम जो कह रहे हो, वह असल में भविष्य और अतीत की बात नहीं है। यह तो ठीक है जीवन का लोक, जो जहां जीवन हमारा संबंधित है, जहां लोक व्यवस्था है, जहां घड़ी के कांटे पर सब चल रहा है--गाड़ियां दौड़ रही हैं, हवाई जहाज चल रहे हैं, कारें दौड़ रही हैं, ड््यूटियां बदल रही हैं, दफ्तर हैं, दुकान हैं--वह जो दुनिया है, वह मनुष्य की बनाई हुई दुनिया है। और उस मनुष्य की बनाई हुई दुनिया है जो अतीत और भविष्य में जीता है। ध्यान रखना, वह उस आदमी ने बनाई है जो अतीत और भविष्य में जीता है। वह उस आदमी ने नहीं बनाई जो वर्तमान में जीता है।

प्रश्नः...फूलकुमार जी सेठिया का टेलीफोन है?

क्या कहते हैं?

प्रश्नः वह आपको प्रणाम बोलते हैं, और कलकत्ता से ट्रंककाॅल आया है आपका प्रोग्राम पूछने के लिए?

बता दो उनको। क्या प्रोग्राम पूछते हैं? तुम बात कर लो। कलकत्ते का?

प्रश्नः कलकत्ते से पूछ रहे हैं...

ट्रंक है न? नहीं तो कहना कतकत्ते का अभी मेरा बाकी कोई प्रोग्राम नहीं है।...अभी मेरा नहीं है। लेकिन कौन पूछता है? इंदू पूछते हैं क्या देखो?

प्रश्नः फूलकुमार जी पूछते हैं?

...हम अतीत और भविष्य में ही चिंतन करते हैं। उनकी सारी व्यवस्था वैसी है। उसमें तुमने जीना है, उसमें तुम्हें जीना है। तो उसमें जीने का इस तरह के व्यक्ति के लिए एक ही अर्थ होता हैः ऐसा नहीं कहता कि उसमें जीएं ही मत, कहां जाएंगे? उसमें जीना पड़ेगा। तो उसमें जीना पड़ने का मतलब इतना ही होता हैः जैसे कि चार बच्चे हैं। गुड्डा-गुड्डी का विवाह कर रहे हैं। और तुम भी उस कमरे में बैठे हो और तुम भी सम्मिलित हो गए हो। और बच्चे तो बड़े गंभीर हैं। सब तैयारियां चल रही हैं शादी की उनकी। और उतने ही गंभीर हैं जितने कि बड़े-बूढ़े असली शादियों में होते हैं। लेकिन तुम उसमें सम्मिलित हो गए हो। और तुम जो उस कमरे में उन बच्चों के साथ खेल खेल रहे होः तुम भी उनकी दुल्हन को, दूल्हे को सजाने में लगे हो। तो जिस तरह तुम वहां सम्मिलित होओगे, क्योंकि पूरे वक्त तुम्हें पता है कि एक खेल हो रहा है, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
ठीक इस भांति जो व्यक्ति वर्तमान में जीने की साधना में उतरता है, और कोई साधना ही नहीं है दुनिया में। और कोई साधना ही नहीं। बाकी जिनको हम साधनाएं कहते हैं, वह सिर्फ साधन है। जो इस साधना तक पहुंचाते हैं। और कुछ भी नहीं हैं वह। लेकिन साधन को लोग साधना समझ लेते हैं। साधना तो सिर्फ एक है कि वर्तमान में कैसे जीएं? बाकी साधन अनेक हो सकते हैं कि कैसे इस स्थिति तक आएं, जहां कि वर्तमान में जीना हो जाए। इस स्थिति में आ गया व्यक्ति तुम्हारी जिंदगी में, तुम्हारे जगत में सम्मिलित होगा, लेकिन वह खेल से ज्यादा नहीं है।
इसलिए एक बहुत कीमती धारणा है इस मुल्क में विकसित हुई लीला की। और लीला का मतलब हैः खेल। इसलिए हम कृष्ण के जीवन को कृष्ण-चरित्र नहीं कहते हैं। कृष्ण-लीला, राम-लीला कहते हैं। और यह ब.ड़ा मजेदार है। कहना चाहिए राम नहीं--चरित्र। नहीं, लेकिन चरित्र नहीं कहते। कहना गलत है। और तुलसीदास की किताब का नाम थोड़ा गलत है। रामचरितमानस ठीक नहीं है। तुलसी समझे नहीं लीला की बात को। लीला और चरित्र में तो जमाने भर का अंतर है।
चरित्र का मतलब होता है कि वह आदमी समझ रहा है कि यह बिलकुल सच बात है जो हो रही है। लीला का मतलब होता है कि वह आदमी सिर्फ खेल में भागीदार है। यानी इसका मतलब यह होता हैः अगर गहरे में समझो कि अभी रामलीला चल रही है, दिल्ली में समझो। तो वह जो राम इस रामलीला में राम का पार्ट कर रहा है, असली राम ने भी इससे ज्यादा नहीं किया है--लीला का मतलब यह होता है। यानी लीला का मतलब यह होता है कि अभी, अभी इस, इस राम की सीता खो जाएगी, इस राम की जो आज नाटक में काम करेगा--इसकी सीता खो जाएगी, फिर रात फिर शांति से सोया हुआ है। रोया है; चिल्लाया है; छाती पीटी है; और हाय सीता चिल्लाया है और फिर शांत हो गया है। अगर राम की जिंदगी भी उनको लीला दिखाई पड़ी होगी, तो इससे भिन्न नहीं रह सकती। यानी उसका मतलब ही है क्या? उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बड़े कैन...बड़े प्लेटफार्म पर जिंदगी के वह खेल चला। जहां पात्र बड़े थे, जहां लंबा विस्तार था कथा का, जो दस-बीस साल चली लंबी, पचास साल चली। बाकी थी वह कथा। थी वह लीला।
वर्तमान में जीने वाला जीएगा इन सारे लोगों के साथ जो वर्तमान में नहीं जीते हैं, तो एक लीला हो जाएगी। तब वह भविष्य के लिए अगर उसे सोचना पड़ा, तो सोचना पड़ने का मतलब ही यह है कि कभी रसमुग्ध तो उसमें होने वाला ही नहीं। सोचना इसी ढंग का हो सकता है कि कल तुम्हें रुपये देने हैं तो आज डाक से भेज दूं। रुपये तुम्हें कल ही मिलेंगे, आज भी रुपये तुम्हें दे नहीं रहा हूं। आज तो सिर्फ डाक से भेज रहा हूं। लेकिन डाक भी चैबीस घंटे लेगी पहुंचने में न। तो आज मैं डाक में डाले दे रहा हंू। लेकिन भविष्य में मेरा कोई रस नहीं है। रसमुग्ध नहीं हूं उसमें। रसमुग्ध तो वर्तमान में हूं। और तब इसका मतलब यह हुआ कि तब मैं यह जो डाक से तुम्हें रुपये तुम्हें भेज रहा हूं, इस भेजने के कृत्यों को मैं पूरा जीऊंगा।
वह जो आदमी कल की फिकर में लगा हुआ है, वह हो सकता है कि एक लिफाफे की डाक दूसरे में बंद कर दे। यह मुझसे नहीं हो सकेगा। क्योंकि डाक में जब मैं भर रहा हूं लिफाफे में रुपये, तब मैं पूरी तरह वहां मौजूद हूं। यद्यपि तुम्हें रुपये कल मिलेंगे और उसका इंतजाम आज करना पड़ रहा है। लेकिन जो मैं अभी कर रहा हूं, मैं वहीं हूं--पूरा। मेरा मतलब समझ रहे हैं न?
तो तुम्हें कल का इस अर्थ में सोचना जारी रखना पड़ेगा। लेकिन वह रसमुग्ध चिंतन नहीं है जिसमें तुम लीन नहीं होते हो; जिसमें तुम कभी डूबते नहीं हो। और वहां तुम्हारा एक खेल का जगत है, वह भी चलता है। उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन वह खेल का जगत तब ही होगा, जब तुम खड़े हो जाओगे। नहीं तो वह खेल का जगत नहीं होगा, वह असली मालूम पड़ेगा। बहुत असली मालूम पड़ेगा।
सच तो यह है कि वर्तमान हमें उतना असली कभी मालूम नहीं पड़ता, जितना भविष्य और अतीत मालूम पड़ते हैं। वर्तमान का तुम्हें पता ही नहीं चलता--असली है, तो कैसे मालूम पड़ेगा? अतीत बहुत असली मालूम पड़ता है। क्योंकि वह हो चुका ठोस। सब चीजें रख गईं वहां। जो होना था, वह हो चुका। और भविष्य बहुत असली मालूम पड़ता है। क्योंकि हमारी वासना हमसे कहती है कि--यह हो जाए, यह हो जाए, यह हो जाए। यह ठोस मालूम पड़ते हैं। जब कि दोनों बिलकुल झूठे हैं। क्योंकि अतीत तो अब है ही नहीं कहीं, और भविष्य में भी कहीं नहीं। जो है--बारीक रेखा वर्तमान की, वह ऐसी चूकी जा रही है--जो कि असली है। तो इसको समझ, इसको समझपूर्वक देखने से, जीवन में प्रयोग करने से धीरे-धीरे, धीरे-धीरे वह जो पेंडुलम है, वह कम कंपन करेगा। फिर धीरे-धीरे खड़ा होना शुरू होगा। और कोई भी उपाय किया जा सकता है जिससे वह वर्तमान में थोड़ी देर जीने लगे।
ध्यान इत्यादि का इतना ही मतलब है कि आधा घंटा, घंटे भर तुम द्वार बंद करके, कम से कम उस आधा घंटे में तुम वर्तमान में ही रहोगे--इसका ही प्रयोग करना है। साढ़े तेईस घंटे जो तुम करते हो--करना। आधा घंटा के लिए द्वार बंद करके वर्तमान में ही होना। न अतीत को घुसने देना, न भविष्य को--जो हो, वही होने देना। सड़क से कार गुजरेगी, आवाज आएगी, उसे सुनना। क्योंकि वह है। पंखे का...चलेगा, उसकी आवाज आएगी, उसे सुनना--वह है। एक बच्चा रोएगा, उसे सुनना--वह है। तुम्हारे मन में विचार चलेंगे, उन्हें जानना--वे हैं। श्वास चलेगी...।

प्रश्नः आपने जैसे कहा है श्वास पर चित्त को जगाना, तो उसमें भी वह चित्त श्वास पर नहीं रहता, वह इधर-उधर जाता है, उसको जाने देना है या...?

न, न, आप उसकी फिकर ही न करें। आप तो पाॅजिटिवली श्वास पर होने की फिकर करें। वह इधर-उधर जाता है। अगर आप उसका पता लगाने गए तो आप और दूर चले जाएंगे। उसकी फिकर ही मत करें। आप तो दो बातें जानें कि श्वास पर है, या नहीं। नहीं है तो श्वास पर ले आएं, है तो बात ठीक है। आप उसके साथ जाने की चिंता ही न करें। और न लड़ने की कोशिश करें उससे। आप तो पाॅजिटिवली इतना खयाल रखें कि बस वह श्वास जो चल रही है उस पर--है, या नहीं। बीच-बीच में चूक जाएगा, चूक लेने दें। फिर लौट आए, फिर वापस आ गए। चूकेगा, वह बहुत चूकेगा। वह तो एक-दो सेकेंड रहेगा, और चूकेगा।
क्योंकि वह तो उसकी आदत जन्मों की है। इसलिए करने की आदत है उसकी, वह कभी रहा ही नहीं वर्तमान में। आप कहां कि उसको झंझट में डाल रहे हैं? जो उसका अनुभव ही नहीं है...। तो वह तो किसी तरह खींच-तान कर आप लाए हैं, एक सेकेंड वह रुका नहीं कि--वह गया। वह गया, अपनी आदतवश गया वह वापस। वह बिलकुल मैकेनिकल रुटीन है। वह तो धीरे-धीरे टूटेगी।

प्रश्नः जिनको जागरूकता हो जाती है, अगर उनके शरीर की मूच्र्छा होती है तो जागरूकता फिर भी रहती है?

हां, बिलकुल रहेगी। उससे कोई ...

प्रश्नः फिर भी रहती है!

वह तो मरने तक में रहती है।

प्रश्नः मूच्र्छा होने के बाद?

उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो कितना ही मूच्र्छित हो जाएं। तो मूच्र्छित हैं, यह उन्हें पता रहेगा। यानी यह कांशसनेस उन्हें पूरी रहेगी कि शरीर मूच्र्छित है और मैं हाथ हिला नहीं सकता, उठा नहीं सकता--यह भी होश है। मैं मूच्र्छित हूं, यह भी उनका होश रहेगा। वे रात सोएंगे, तो भी मैं सोया हूं--यह उन्हें पता है। यह पूरे वक्त पता है। यानी यह घटना भी उनकी कांशसनेस का हिस्सा है कि मैं सोया हुआ हूं। इसीलिए तो वे मरते वक्त भी होश में रह सकेंगे कि मैं मर रहा हूं। मैं मर रहा हूं, यह मौत घट रही है।

प्रश्नः मौत भी ऐसे होती है, मूच्र्छा में?

बिलकुल ही। तो वह तो इसीलिए वह मौत का अनुभव उन्हें नहीं हो पाता। हम बहुत बार मरे हैं, हमें अनुभव नहीं हुआ उसका। क्योंकि मरने के बहुत पहले ही हम मूच्र्छित हो गए हैं। मरने की घटना इसलिए कभी हम जान नहीं पाए। मरे बहुत बार। लेकिन करीब-करीब क्लोरोफाॅर्म की हालत में मरे। और प्रकृति ने पूरा इंतजाम किया हुआ है। प्रकृति ने पूरा इंतजाम किया हुआ है कि कोई भी ऐसी स्थिति जो आपके सहने के बाहर हो, तत्काल आपके शरीर में वह इस तरह के तत्व फेंक देती है कि आप मूच्र्छित हो जाएं। जैसे कोई भी बहुत दुख आ जाए और वह मूच्र्छित हो गया। वह दुख इतना था कि अगर मूच्र्छित न होता, तो मर जाता। वह दुख इतना था कि मौत आ जाती। तो मौत से बचाने के लिए सब्स्टीट््यूट है। फिर वह मूच्र्छित कर दिया शरीर ने उसको। अब उसे पता ही नहीं रहा दुख का। अब वह तब तक होश में आएगा, तब तक दुख को समय हील कर लेगा।
और ध्यान का प्रयोग चलता रहे तो निद्रा में पता चलने लगता है कि यह नींद है। मूच्र्छा में पता चलता है, मूच्र्छा है। मृत्यु में पता चलता है, मृत्यु है। और जब यह पता चलता है तब उसका मतलब यह हुआ कि मैं न तो सोया कभी, क्योंकि पता किसे चलता अगर मैं सो जाता। न मैं कभी मूच्र्छित हुआ, क्योंकि फिर जानता कौन अगर मैं मूच्र्छित हो जाता। न फिर मैं कभी मरा। क्योंकि फिर जानता कौन, अगर मैं, मैं मर जाता तो फिर जानता कौन?
तो वह जो जानने का बोध है, वही अमृत्व का अनुभव बन जाता है कि फिर मैं नहीं मरता हूं। वह तो निरंतर हम प्रयोग करेंगे तो ही मृत्यु के क्षण तक यह हालत आ पाने वाली है। नहीं तो नहीं आने वाली। वह तो मृत्यु का खयाल ही हमें बेहोश कर देगा, और उसको...क्योंकि मृत्यु न तो भविष्य में घटती है, न अतीत में घटती है। मृत्यु की घटना वर्तमान में घटेगी। जब भी घटेगी तब वर्तमान में होगी वह। और आपके दिमाग की आदत जो है वह आगे-पीछे की है, इसलिए सब गड़बड़ होता है। उस आदत को थोड़ा समझ कर प्रयोग करना चाहिए, वह टूटेगी। जरूर टूटेगी।

प्रश्नः अगर विज्ञान की भाषा में कहें तो शायद इस तरह कह सकते हैं कि मान लीजिए हमारा कोई भी लक्ष्य हो, जो हमें भविष्य में प्राप्त करना है, क्या उसको हम लीला समझ कर करेंगे, तो उसको तो हम अपने अनकांशस माइंड के अंदर जाने दें। और कांशस माइंड पर केवल वर्तमान में जो कुछ जानना है, जागरूकता के अंदर... जैसे कोई वैज्ञानिक है, वह जिस प्रोसेस में वह लगा हुआ हैै, जिस क्रिया पर वह चल रहा है, उसी पर लगा रहे। और इस बात को भूल जाए कि भविष्य में उसको क्या प्राप्त करना है।

नहीं, वह तो भूलेगा नहीं तो प्रोसेस कर ही नहीं सकता। वह तो वैज्ञानिक को भूलना ही पड़ता है, नहीं तो यहीं भूल-चूक हो जाएगी अभी। वह तो भूलता है, तभी पहुंच पाता है। वह तो पूरा का पूरा जो कर रहा है, उसमें ही मौजूद हो जाता है। उसके लिए कोई भविष्य नहीं, कोई फल नहीं है। उसमें कोई भविष्य नहीं, कोई फल नहीं, कोई अंत नहीं है। जो हो रहा है, वही चरम है। उस होने से अंत भी निकलेगा, लेकिन वह गौण बात है। वह कोई बात... नहीं तो ठीक है वह।
एक लक्ष्य तुम्हारे खयाल में है, वह तो डूब ही गया। अब उसको बार-बार खयाल में क्यों रखना। तुम एक काम में लगे हो, एक खोज कर रहे हो। अब वह तुम खोज में लगे हो, वह तो तुम्हारे चित्त का हिस्सा हो ही गया। अब उसे याद क्या रखना? अब तो तुम काम में लग जाओ पूरे। और असल में हमें खयाल में नहीं आता कि वह जो खोज का खयाल है, वह भी किसी क्षण में वर्तमान था। वह उसको मैं भविष्य नहीं कहता।
समझो, एक आदमी है। वह कैंसर देखा किसी आदमी का और उसे, उसे खयाल आया कि कैंसर मिटाने के लिए क्या किया जाए? वह एक खोज में लग गया। यह कैंसर का दिखाई पड़ना है। यह कैंसर कैसे मिटे, इसका विचार, इसकी खोज--सब वर्तमान क्षण में घटी। अब वह खोज में लग गया। अब वह खोज में लगा हुआ है। अब जो-जो घटेगा, वह वर्तमान में ही घटेगा। जिस दिन फल भी आएगा, वह भी वर्तमान में ही आएगा। भविष्य में तो कुछ आ ही नहीं सकता। सब आता आज है।
लेकिन समझ लें कि एक आदमी कैंसर को देखा, और उसने कहा कि मैं कैसे इसको दूर करूं? और यह बात, कैसे इसे दूर करूं? बजाय किसी वर्तमान कृत्य में ले जाने के यह आंख बंद करके बैठ गया और सोचने लगा कि मैं सारी दुनिया का कैंसर ठीक कर दूंगा। कहीं कोई बीमारी नहीं बचेगी। और ऐसा कर दूंगा, और ऐसा हो गया--मन में, कि अब सारी दुनिया ठीक हो रही है। और आंख बंद करके बड़ा प्रसन्न है कि अब कोई कैंसर का बीमार नहीं है। तो यह आदमी भविष्य में चला गया, तो वर्तमान से चूक गया। इसीलिए ध्यान रहे कि असल में एक्शन तो कभी भी फ्यूचर में हो नहीं सकता। वह तो इंपाॅसिबिलिटी है। एक्शन तो करना पड़ेगा वर्तमान में ही। सिर्फ कल्पना हो सकती है भविष्य की।
और इसलिए ध्यान में कर्म उतनी बाधा नहीं है, जितनी कल्पना बाधा है। हालांकि लोगों ने उलटा समझ रखा है। कर्म बाधा ही नहीं है ध्यान में। लेकिन लोग यह समझते हैं कि सब काम-धाम छोड़ कर भागो, तब ध्यान हो सकेगा। और मजे की बात यह है कि जो आदमी सब काम-धाम छोड़ कर भाग जाएगा, वह कल्पना करेगा। और करेगा क्या? वह बैठा-बैठा करेगा क्या? वह बैठा-बैठा करेगा क्या? जब कि कर्म बाधा ही नहीं है।
एक .झेन फकीर हुआ। वह अपने बगीचे में मिट्टी खोद रहा है। एक आदमी उसके पास गया है और उसने उससे पूछा कि मैं फलां-फलां फकीर से मिलने आया हूं। वह कहां मिलेंगे? उसे पता नहीं है कि यही आदमी है। उसने समझा कि कोई माली है जो बगीचे में काम कर रहा है। कि वह इतना ब.ड़ा फकीर बगीचे में गड्ढा खोदेगा? तो उस फकीर ने कहा कि वह तो मौजूद है। उस फकीर ने कहा कि वह फकीर तो मौजूद है, लेकिन तुम मौजूद हो कि नहीं? उससे तो मिलना अभी हो सकता है। लेकिन उस आदमी ने पूछा, वह हैं कहां? मैं उनसे ही तो मिलने आया हुआ हूं। उसने कहाः उनसे ही मिलने आया हूं, वह हैं कहां? तो उसने कहा, फिर तुम अभी खोजो। अगर मिल जाएं तो मुझको भी बता देना। उसने कहा कि तुम अभी खोज कर आओ इस पूरे बगीचे में, अगर मिल जाएं मुझे बता देना।
वह आदमी पूरे बगीचे में खोज कर आया। वह आदमी फिर भी गड्ढा खोद रहा है। पीछे से किसी ने उसको बताया, किसी दूसरे माली ने कि--वही हैं। उसने आकर लौट कर कहा कि आप भी कैसे आदमी हैं! आपने यह क्यों न कह दिया कि मैं ही हूं? तो उसने, फकीर ने कहा कि जब से ‘हूं’ का पता चला तब से ‘मैं’ का पता नहीं रहा है। जब से इस बात का पता चला है कि--हूं, तब से मैं खो गया। और जब तक मैं का पता था, तब तक हूं सिर्फ वाक्य में लगाते थे। उसका कुछ पता नहीं था कि वह क्या है? होना क्या है? खैर, तुम आ गए बड़ी जल्दी। क्योंकि जो लोग खोजने निकलते हैं, बड़ी देर से लौटते हैं। उसने कहाः फिर भी तुम जल्दी आ गए, तुम्हें ज्यादा चक्कर नहीं लगा।
उस आदमी ने पूछा है कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मैं तो खुद ध्यान के लिए पूछने आया था, और आप तो गड्ढा खोद रहे हैं। और मैंने तो सुना है कि सब क्रिया छोड़ देनी पड़ेंगी, तब ध्यान उपलब्ध होगा। तो उस फकीर ने कहा कि तू फिर बैठ जा चुपचाप और मैं गड्ढा कैसे खोदता हंू, यह देख। वह थोड़ी देर बैठा रहा। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। आप सिर्फ गड्ढा ही खोद रहे हैं और क्या कर रहे हैं। उसने कहा कि बस सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं, यह तेरी समझ में आया न? और कुछ भी नहीं कर रहा हूं। तो ध्यान हो गया। अगर मैं सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं, और कुछ भी नहीं कर रहा--तो मैं वर्तमान में मौजूद हो गया।

प्रश्नः यह एकाग्रता न हुई क्या?

न, एकाग्रता बहुत और बात है।

प्रश्नः और अगर मैं केवल आपको ही सुन रहा हूं?

अगर तुम सिर्फ केवल मुझे सुन रहे हो, सिर्फ केवल मुझे सुन रहे हो और साथ में तुम्हें पंखे की आवाज, और सड़क की कार का हाॅर्न नहीं सुनाई पड़ रहा, तो एकाग्रता हो गई। तब वह मूच्र्छा है। और तब तुम मुझसे हिप्नोटाइज्ड हो जाओगे। तब तुम मुझे समझोगे कम, प्रभावित ज्यादा होओगे। और जो जितना कम समझता है उतना ज्यादा प्रभावित होता है, यह ध्यान रखना। क्यों? प्रभावित होने के नियम अलग हैं, समझने के नियम बहुत अलग हैं। अगर तुम्हें कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा, सिर्फ मुझे ही सुन रहे हो, तुम्हारी पूरी चेतना का फोकस मुझ पर रुक गया--तो तुम बेहोश हो जाओगे। तुम हिप्नोटाइज्ड हो जाओगे। तब तुम्हें जो भी मैं कहूंगाः वह ठीक ही लगेगा, और प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि तुम मूच्र्छित हो। यह तो एकाग्रता हुई।
लेकिन जागरूकता का मतलब यह है कि यह सब जो घट रहा है इस वक्त चारों तरफ; वह सब घट रहा है। तुम ओपन हो। एक हाॅर्न बजता है, वह भी तुम्हें सुनाई पड़ता है। मैं बोल रहा हूं, वह भी तुम्हें सुनाई पड़ रहा है। तुम्हारे पैर में चींटी काटेगी, वह भी तुम्हें पता चल रहा है। तुम्हारे सिर में दर्द हो रहा है वह भी तुम्हें पता चल रहा है। तुम सिर्फ जागे हुए हो। और जो भी उसके आस-पास घट रहा है, वह सब तुम्हें पता चल रहा है। तुम बेहोश नहीं हो। तो यह जागरूकता हुई।
और तो मैं कहूंगा, तुम ज्यादा ठीक से समझ पाओगे। जब मैं यह कहता हूं कि केवल सुन रहे हो, तो उसका मतलबः मेरा इन चीजों से विरोध नहीं है जो और सुनाई पड़ रही हैं। केवल सुन रहे हो का मेरा मतलब है कि तुम कुछ और तो नहीं कर रहे हो। जो फर्क मैं कर रहा हूंः यानी हो सकता है कि तुम यहां बैठे दिखाई पड़ रहे हो, लेकिन तुम मुझे सुन नहीं रहे, तुम कहीं और चले गए हो। तुम किसी दुकान पर कुछ खरीददारी कर रहे हो। वह यहां किसी को पता नहीं चलेगा सिवाय तुम्हारे। तुम किसी से झगड़ा कर रहे हो, तुम कहीं और चले गए हो--तब तुम जागरूक भी नहीं रहे। तब तुम सपने में खो गए।
यानी तीन स्थितियां हुईं। एक तो स्थिति है हमारे चित्त की आमतौर से कुछ न कुछ करते रहने की। वह एक तरह की ड्रीम-स्टेज है। एक स्थिति है एकाग्र होने की। वह एक तरह की मूच्र्छा की दशा, तंद्रा की दशा है। स्वप्न नहीं है उसमें, तंद्रा है। और एक स्थिति है पूरे जागे होने की। न तो तुम कहीं गए हो, न तुम किसी से बंधे हो, तुम सिर्फ मौजूद हो। अगर इस मकान में आग लगेगी, तो तुम्हें पता चलेगी। अगर कोई चिल्लाता हुआ गुजरेगा, तो तुम जानोगे। जरूरी नहीं है कि कोई चिल्लाता हुआ गुजरे, तो तुम उस पर सोचो। सोचा कि तुम गए फिर...। सोचने की बात नहीं कह रहा हूं। तुम सिर्फ जो भी इंप्रेशंस चारों तरफ पड़ रहे हैं, सबके लिए ओपन हो। उसमें एक इंप्रेशन मेरा भी पड़ रहा हैः तुम उसके लिए भी ओपन हो, क्लोज नहीं हो। एकाग्रता के लिए नहीं कहता हूं, मैं कहता हूं जागरूकता के लिए। ओपननेस के लिए। खुला हुआ मन हो।

प्रश्नः जो लोग भी पृष्ठ पढ़ते हैं किसी भी किताब का, और एकदम से याद हो जाता है। या एक कोई क्वेश्चन होते हैं मैथेमेटिकल, तो लिखते जाते हैं, एकदम उत्तर दे देते हैं, जैसे तुलसी जी के चार शिष्य करते हैं, तो यह एकाग्रता है या ओपननेस है माइंड की?

न ओपननेस है, और न एकाग्रता। उसकी सब ट्रिक्स हैं। वह सब ट्रिक्स की बात है।

प्रश्नः याददाश्त से कुछ...

न, न, न कुछ याददाश्त का यह मामला नहीं है। कोई याददाश्त का...

प्रश्नः जैसे कोई लैंग्वेज उन्होंने पढ़ी नहीं, फ्रैंच है जैसे, फ्रैंच पढ़ते हैं तो वह वैसे ही बोल देते हैं।

हां, हां। वह सब के रास्ते हैं। वह सब के रास्ते हैं। और जितना बुद्धिहीन आदमी हो उतनी जल्दी सीख सकता है, बुद्धिमान नहीं। ...यह जान कर आप हैरान होंगे कि बुद्धिमान आदमी बिलकुल नहीं चाहिए। क्योंकि जितनी बुद्धि सचेतन होगी, उतनी जागरूक होगी, उतना ही उस बुद्धि का एक अनिवार्य हिस्सा होता है। स्मरण करने से ज्यादा विस्मरण करना उस बुद्धि का हिस्सा होता है--भूलने का हैै। क्योंकि उतनी ताजा रह सकती है बुद्धि, जितनी जल्दी भूल जाए।
भूलना जो हैः वह बु.िद्धमत्ता का ज्यादा हिस्सा है, बजाय स्मरण के। स्मरण एक हिस्सा है, लेकिन विस्मरण और भी बड़ा हिस्सा है। जितना बड़ा बुद्धिमान आदमी है उतनी जल्दी उसके चित्त से चीजें हट जाती हैं, और चित्त फिर साफ हो जाता है। फिर चीजों को पकड़ने के लिए वह सक्षम हो जाता है। जितना बुद्धिहीन आदमी जो चीज पकड़ लेता है, वह अटकी रह जाती है। वह हटती नहीं, वह वहीं जड़ की तरह रुका रह जाता है। तो उस चित्त को जड़ बनाने की तरकीबें हैं।

प्रश्नः जिसकी याददाश्त ज्यादा तेज होती है, माना तो आमतौर पर यही गया है कि बहुत बुद्धि...?

बिलकुल ही गलत माना गया है। बुद्धिमान आदमी में याददाश्त हो सकती है, यह बिलकुल दूसरी बात है। इसको समझना चाहिए। असल कठिनाई क्या है, असल कठिनाई क्या है, इसमें इतने बारीक फासले हैं, यह इतनी गलत बात है कि याददाश्त अच्छी होने वाले आदमी को बुद्धिमान समझा जाता है। वह तो हमारी सारी युनिवर्सिटीज भी करती हैं। जिसकी याददाश्त अच्छी है वह, वह गोल्ड मेडल लेकर आता है। उसका कारण बुद्धिमानी नहीं है, और इसीलिए तो युनिवर्सिटी के गोल्ड मेडल जिंदगी में कभी बुद्धिमानी करते हुए दिखाई नहीं प.ड़ते।
आप यह जान कर हैरान होंगे कि अगर दुनिया भर के गोल्ड मेडलिस्टों का पता लगाया जाए तो वे खो कहां जाते हैं, वे जाते कहां हैं? यानी वे आदमी फिर जाते कहां हैं? कभी जिंदगी में उन्होंने कुछ बड़े काम किए हों, ऐसा तो दिखाई नहीं पड़ता। कभी नहीं दिखाई पड़ता। उसका कारण यह है कि उनकी स्मृति की परीक्षा हो गई थी; बुद्धि की तो परीक्षा हुई नहीं थी कोई। और बुद्धि की परीक्षा के अभी तक उपाय भी नहीं निकल पाए हैं।

प्रश्नः स्मृति और बुद्धि दो अलग चीजें हैं?

बहुत अलग चीजें हैं। बहुत अलग चीजें हैं। स्मृति का मतलब हैः किसी चीज को याददाश्त रखने की क्षमता। समझने की क्षमता बहुत अगल बात है। अच्छा, जो आदमी समझता है, वह भी याद रखता है। लेकिन एसेंस को याद रखता है। सिर्फ एसेंशियल याद रह जाता है। क्योंकि बुद्धि पर बोझ बढ़ाने की जरूरत नहीं। एक आदमी पूरी रामायण पढ़ लेता है तो कचरे को याद करने नहीं बैठ जाता कि सारी चैपाइयां याद कर ले। उसे तो, जो करता होगा, बिलकुल बुद्धिहीन है। रामायण का जो सार है, वह जैसे कि फूलों... करोड़ फूलों से निकाल कर हम थोड़ा सा इत्र निकाल लेते हैं। और एक आदमी एक फोए में लगा कर कान में लगा लेता है। हजार किलो का गट्ठर सिर पर लेकर नहीं चलता है। बुद्धिमान आदमी के पास सुगंध बच जाती है, जो उसने जाना--उसकी। जो भी सारभूत है उसमें निकल आता है।
बुद्धिहीन के पास ढेर कचरा होता है, जो सब इकट्ठा कर लेता है। और उसको कठिनाई होती है, कुछ भी छोड़ने में वह डरता है। डरता इसलिए है कि... बुद्धिमान आदमी कुछ भी भूलने में डरता नहीं क्योंकि बुद्धि अपने पास है। सब भी भूल जाए तो बुद्धि तो मेरे पास होगी। एक बात का तो पक्का भरोसा है न, कि मैं जो भी पढ़ा, लिखा, सुना, अगर वह सब भी भूल जाए तो भी मेरी बुद्धि तो मेरे पास रहेगी। तब भी तो कोई समस्या मेरे सामने खड़ी होगी तो मैं उससे लड़ सकूंगा। लेकिन बुद्धिहीन को डर होता है कि मेरे पास अपनी बुद्धि तो कुछ है ही नहीं, तो जो उत्तर मैंने तैयार किए हैं वह भूल न जाएं। नहीं, कल कोई ने सवाल पूछा तो उत्तर कहां से लाऊंगा? तो बुद्धिहीन जो है, वह स्मृति के द्वारा बुद्धिमत्ता की कमी पूरी करता है। वह जो कमी पूरी कर रहा है, पूरे वक्त वह कह रहा है कि यह भी याद कर लूं, यह भी याद कर लूं, क्योंकि पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए। और जरूरत पड़ जाए तो मेरे पास अपनी कोई बुद्धि तो है नहीं कि मैं कुछ निकाल लूंगा। तब तो यही करना पड़ेगा कि जो मैंने जाना उसको खोज कर निकाल लूंगा।

प्रश्नः हम तो यही समझ रहे थे कि हम बुद्धिहीन हैं।

नहीं, बिलकुल नहीं। और स्मृति जो है, वह दो तरह से होती है। एक तो स्मृति है जो, जिसको तरकीबें हैं चीजों को कंठस्थ करने की। चित्त के ऊपर उनकी रेखा किस तरह जोर से पड़ जाए, इसके उपाय हैं। हां, उन उपायों को करने से बुद्धि के ऊपर जोर से असर पड़ जाते हैं जो फिर भूलते नहीं--एक। दूसरी एक स्मृति बहुत और तरह की चीज है। और वह स्मृति है जो समझ के पीछे छाया की तरह चलती है। आप किसी चीज को पूरा समझ लेते हैं--बस, बात खत्म हो गई।

प्रश्नः कहीं देखा हमने, जब पढ़ते थे, स्टूडेंट थे, कोई पृष्ठ उन्होंने पढ़ा है, और वैसे ही वह डिक्टेट करा देते थे।

हां, हां, करा दे सकते हैं। वह करा दे सकते हैं। वह कोई कठिनाई नहीं है बड़ी। इसमें कोई कठिनाई नहीं है बड़ी। लेकिन इससे बुद्धिमान है, ऐसा समझ लेने की भूल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि हो सकता है उस पृष्ठ में एक बात भी उनकी समझ में न आई हो। और पूरा डिक्टेट करा दें।

प्रश्नः नहीं, लगते तो नहीं थे वैसे वह। उसके सब्जेक्ट में नहीं थे। हमारे साथ एक लड़का था...

न, कोई हो सकता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं।

प्रश्नः...बुद्धिमान भी लगता था वैसे। क्योंकि मैथेमेटिक्स तो बगैर बुद्धि के आ ही नहीं सकती?

ना, हमारी तकलीफ क्या है कि हम बुद्धिमान भी तो स्मृति की परीक्षाओं से ही समझते हैं न। कठिनाई जो है हमारी। हमारी जो कठिनाई है वह यह है कि हम बुद्धिमान समझते कैसे हैं? अब तक बुद्धि की परीक्षा का तो उपाय नहीं हो पाया; सब उपाय स्मृति की परीक्षा का है। आप समझते कैसे हैं? आप समझते हैं इसके लिए वह सबसे ज्यादा नंबर लाएगा, सब विषयों में आगे होगा। जो उत्तर आप नहीं दे सकते, वह देगा। जो पढ़ाया जाएगा, वह उसे याद है। वह बुद्धिमान है। आपके पास और बुद्धिमानी का उपाय क्या है जांच का? लेकिन यह टेप-रिकाॅर्ड है, इसको आप बुद्धिमान नहीं कहेंगे। हालांकि यह उतना एक्युरेसी से रिकार्ड करता है, जितना किसी मुनि के कोई शिष्य कभी नहीं कर सकते। समझे न आप? लेकिन यह इतनी एक्युरेसी से रिकाॅर्ड क्यों करता है?
यह रिकाॅर्डिंग की एक व्यवस्था है। और जिस तरह इस पर रिकाॅर्ड हो रहा है, उसी तरह ब्रेन-सेल्स पर भी रिकाॅर्ड हो रहा है। और रिकाॅर्डिंग की व्यवस्था यही है। इसमें फर्क नहीं है। हमारे जो बे्रेन-सेल्स हैं, उन ब्रेन-सेल्स पर भी वही केमिकल्स हैं जो इस रिकाॅर्ड पर लगे हुए हैं। और वही केमिकल्स रिकाॅर्ड करते हैं। जितना जड़बुद्धि आदमी होगा, उसको तरकीबें भर सिखला दी जाएं, वह उतना रिकाॅर्ड कर लेगा। उतना रिकाॅर्ड कर लेगा। और यह भी जान कर आप हैरान होंगे कि दुनिया के सब बुद्धिमान एक अर्थों में भुलक्कड़ होते हैं। बहुत बुद्धिमान लोग एक अर्थ में बड़े भुलक्कड़ होते हैं। इस अर्थ में भुलक्कड़ होते हैं कि जो गैर-जरूरी है उसे वह कभी भी याद नहीं रख पाते।
एडिसन के संबंध में तो यहां तक मामला है कि वह एक हजार आविष्कार किए उस अकेले आदमी ने। वैसी बुद्धि कम लोगों को उपलब्ध होती है। लेकिन स्मृति के मामले में इतना कमजोर था, कि वह जैसे अभी उसने एक कागज पर कुछ लिख कर रखा है। तो उसके पूरे कमरे में कागज लिख कर रखे रहते, क्योंकि वह उसे स्मृति तो उसको थी नहीं। जो खयाल में आया, वह उसने लिखा। अब वे हजार कागज पड़े हैं कमरे में। अब वह कागज कहां गया, यह सवाल उठ गया। क्योंकि वह भी उसे याद नहीं रहा। तो उसकी पत्नी ने एक डायरी बनाई उसके लिए कि तुम डायरी रखो। तो वह डायरी कहां रख आया? वह बाथरूम में रखी है; कि कोर्ट में रखी है; कि किताबों में दब गई--वह कहां है?
एक दिन सुबह बैठा है वह नाश्ते के लिए। तो उसकी पत्नी उसे नाश्ता रख गई। वह अपना काम कर रहा है। तभी उसका एक मित्र आया है मिलने। उसने देखा, वह काम में लगा है, उसने नाश्ता कर लिया। और थाली साफ, खाली करके बगल में रख दी। थोड़ी देर बाद उसने वहां देखा, उसने थाली उठा कर देखी। उसने अपने मित्र से कहाः माफ करना, जरा तुम देर से आए, मैं नाश्ता कर चुका हूं। स्मृति सब खत्म हो गई थी। तो उसने कहा कि माफ करना भई, तुम जरा देर से आए, मैंने नाश्ता कर लिया। तो उसके मित्र ने कहा कि हद हो गई!
यह जो आदमी है, इस आदमी के पास बहुत अदभुत बुद्धि है। बुद्धि लेकिन इतनी तीव्र है, और इतनी सजग है, और इतने तलों पर काम कर रही है कि यह सब नाश्ता किया कि नहीं किया, कि हुआ कि नहीं हुआ, यह या वह, यह सब सरक सकता है। यह फोकस में न रह जाए। समझे न? अब यह सब सरक सकता है। हां, यह कचरा, यह फोकस के बाहर गिर जाए। फोकस की एक सीमा है। बाहर गिर जाए।
अब आप देखते हैं, फोटो-प्लेट होती है। कैमरा आप उतारते हैं, तो (फोटो-प्लेट 45: 36 ...अस्पष्ट) होती है। लेकिन फोटो-प्लेट एक ही दफा में खराब हो जाती है। क्योंकि फोटो-प्लेट की मेमोरी बहुत तगड़ी है। जो पकड़ लिया, वह पकड़ लिया। फोटो-प्लेट ने आपका चेहरा पकड़ लिया, पकड़ लिया। अब खराब हो गई। लेकिन दर्पण है। दर्पण के पास मेमोरी बिलकुल नहीं है। आप सामने आए, बिलकुल दिखाई पड़े। आप गए, बिलकुल गए। दर्पण फिर खाली हो गया। इसीलिए दर्पण के सामने दूसरा कोई आए, तीसरा कोई आए, हजार कोई आए, दर्पण देखेगा और फिर खाली हो जाएगा। तो दर्पण ज्यादा इंटेलिजेंट है फोटो-प्लेट से। समझ रहे हैं मेरा मतलब आप? चूंकि दर्पण जो है वह ज्यादा जीवंत है। फोटो-प्लेट एक ही दफा काम करती है दर्पण का, और फिर खत्म हो जाती है। क्योंकि उसने जो पकड़ लिया, उसने पकड़ लिया।
तो बुद्धिमान आदमी तो रोज इतना जानता चला जाता है, इतना जानता चला जाता है कि उसे रोज हटा देना पड़ता है, बहुत सा। और विस्मरण उसके लिए बड़ी सामथ्र्य होती है। क्योंकि वह जो भी, जितना विस्मरण कर पाए, उतनी ही नई दिशाओं में गति करता है। विस्मरण न कर पाए, तो ये दिशाएं रुक जाती हैं। लेकिन फिर भी ऐसे आदमी में एक तरह की सारभूत स्मृति होती है।
सारभूत स्मृति बिलकुल दूसरी बात है। नाॅन-एसेंशियल छूट जाता है उससे। लेकिन जो भी एसेंशियल है चेतना के लिए, वह सब संरक्षित होता है। और भी एक मजे की बात है कि वह इसे कभी याद नहीं करता। बुद्धिहीन और बुद्धिमान में स्मृति का जो फर्क होगाः बुद्धिहीन याद करेगा तो स्मृति होगी, चेष्टा करेगा तो स्मृति होगी। बुद्धिमान समझेगा और बात खत्म हो जाएगी। जो समझ में आ गया, वह अनिवार्य रूप से उसकी बुद्धिमत्ता का हिस्सा हो जाएगा। वह उसका हिस्सा हो गया।
गांधी जी के पास एक सेक्रेटरी थे, महादेव देसाई। गांधी जी को तो इतने पत्र होते थे कि सब जवाब नहीं दे सकते। तो वह पत्र लिखवाते थे महादेव से। वे जवाब दे देते थे, पढ़ कर सुना देते थे। गांधी जी कहते ठीक, दस्तखत कर देते। तो वल्लभ भाई ने एक दिन उनसे कहा, वल्लभ भाई ने उनको कहा कि यह बात ठीक नहीं है। आप जवाब न दें और महादेव जवाब दें।
एक पत्र आया है वायसराय का। और वल्लभ भाई ने कहा कि मैं नहीं पसंद करता कि वह जवाब लिख दें। क्योंकि कई दफा ऐसा हो जाता है कि जो आपने कभी न लिखा होता, वह-वह लिख दें। लेकिन सुनने पर वह ठीक लगे, और चला जाए। लेकिन आपने कभी न लिखा होता। आप कुछ और ही लिखते यह हो सकता है। यानी गलत न लगे सुनने पर, और आप कह दें कि ठीक है। लेकिन हो सकता है वह वही न हो।
तो गांधी जी ने कहा कि यह पत्र अभी खोला नहीं--पत्र खोला। एक काॅपी महादेव को दी, एक और अपनी रखी। महादेव को कहा, दूसरे कमरे में तुम जाकर इसका उत्तर लिख लाओ। और एक गांधीजी ने उत्तर लिखा। वल्लभ भाई बैठे हुए हैं। वह उत्तर लिख कर आया। महादेव का उत्तर पढ़ा गया, गांधी जी का उत्तर प.ढ़ा गया। वल्लभ भाई से गांधी जी ने पूछाः किसका भेजते हो? तो उन्होंने कहा कि महादेव का ही ज्यादा आपके जैसा है। वल्लभ भाई ने कहाः महादेव का ही ज्यादा आपके जैसा है, आपका नहीं। तो गांधी जी ने कहा कि महादेव निकट रह कर इतना समझा है, इतना समझ गया है कि कई दफा मुझसे भूल हो जाए, उससे भूल नहीं हो सकती। मैं ही भूल कर जाता हूं, मगर वह भूल नहीं करता। वह समझ गया पूरी बात कि यह आदमी क्या कहेगा? इतना भीतर से जी लिया है कि अब यह इसलिए चिंता नहीं होती। यानी मुझसे भूल हो जाती है तो मेरी भूल मुझे महादेव से सुधरवा लेनी पड़ती है कि यह एक...।
अब यह संभावना बिलकुल है। संभावना इसलिए है कि गांधी जी को और हजार काम भी हैं। गांधी जी कितना... हजार काम हैं उनके लिए। महादेव को कोई भी काम नहीं है। गांधी जी को समझना ही एक काम है। वह निकट रह कर इम्बाइब कर गया पूरी स्क्रिप्ट को। और यह हो सकता है कि खुद गांधी जी वह उत्तर न दे पाएं जो कि गांधी जी को देना चाहिए। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यानी बिलकुल एब्सर्ड मालूम होता है। क्योंकि गांधीजी जो उत्तर दें, वही उनका ठीक होना चाहिए। लेकिन यह हो सकता है। और फिर मेरा अपना अनुभव बहुत अजीब है। मेरा अपना अनुभव यह कि मैंने कभी कुछ याद नहीं किया। याद करने से मेरी दुश्मनी ही है। क्योंकि मैं कहता हूं याद हमें करना उस चीज को पड़ता है, जिसे हम समझते नहीं।
मैं इतने दिन युनिवर्सिटी में पढ़ाता था तो मेरे विद्यार्थियों को एक तकलीफ ही थी निरंतर। क्योंकि मैं नोट नहीं करने देता था। मैं उनको कहता कि नोट करने का मतलब ही यह है कि तुम समझ नहीं रहे हो। मेरे ऊपर जुल्म लगा रहे हो। मैं तुम्हें समझाता हूं, फिर समझाऊंगा, दस बार समझाने को राजी हूं। तुम मुझसे कहते जाओ कि हम नहीं समझे, मैं समझाता चला जाऊंगा। तुम जब कह दोगेः समझ गया, तब बात खत्म कर दूंगा, लेकिन लिखने नहीं दूंगा। क्योंकि लिखने का मतलब यह है कि तुम समझ का काम लिखने से लेना चाहते हो। लिख क्यों रहे हो?
लिखने का मतलब यह होता है कि अभी हम समझ तो नहीं रहे, लेकिन लिख लो, याद कर लेंगे, काम चल जाएगा। समझ अगर विकसित हो तो समझ के साथ सारभूत स्मृति आती है। लेकिन वह बिलकुल बाई-प्राॅडक्ट है। और यह सब जो अवधान वगैरह के प्रयोग हैं, ये सब तरकीबें हैं, ट्रिक्स हैं। न तो इनसे उस मनुष्य की बुद्धिमत्ता बढ़ती है। न उसकी चेतना विकसित होती है।

प्रश्नः ... यहां तो इतना प्रशंसा मिलती है जिसका कोई हिसाब ही नहीं है?

भारी पागलपन है। भारी पागलपन है।

प्रश्नः हमलोगों ने जो प्रश्न किए थे उस संबंध में, टेक्नीक हैं...?

टेक्नीक हैं।

प्रश्नः ... कि वह संकेत निश्चत कर लेते हैं?

संकेत है।

प्रश्नः... में शून्यता को तो अनिवार्य स्थान देते है? वह बोले कि हम शून्य की स्थिति में हो जाते हैं सतावधानी में?

पागल सा (...51: 41 अस्पष्ट) शून्य की स्थिति में होओगे। नहीं, मेरा मतलब नहीं समझे। शून्य की स्थिति में जो हो जाए वह सतावधानी होगा, मदारी नहीं करेगा।

प्रश्नः यह एक अलग बात है...

नहीं, नहीं, नहीं, असंभव है--असंभव।

प्रश्नः शून्यता के ट्रिक को मदारीपने में बदल दे?

न, न, बदल ही नहीं सकते तुम। शून्य को तो तुम बदल ही नहीं सकते किसी ट्रिक में। शून्य में नहीं होते, सिर्फ फोकस को केंद्रित कर लेते हैं। और कुछ भी नहीं होने वाला है।

प्रश्नः उन्होंने मुझे यही स्थिति बताई। मैंने उनसे पूछा कि आप सतावधान जब करते हैं, उससे पहले क्या होता है। बोले मैं यहां से पार्लियामेंट हाउस तक जाऊंगा। वे नये... में ठहरे हुए थे। और मुझे मालूम नहीं कि मेरे आस-पास क्या हो रहा है।

हां, नहीं यह तो हो जाएगा। यह शून्य नहीं है न। यही तो मूच्र्छा है। यही तो एकाग्रता है। कंसंट्रेशन है। हां-हां बिलकुल।

प्रश्नः ...पता नहीं लगेगा कि मैं कहां से जा रहा हूं...?

मैं तुम्हें बताऊंः यह जो कह रहे हैं न ट्रिक की बात...। जर्मनी में एक घोड़ा था जो सब सवालों के जवाब देता था। सारी दुनिया में प्रसिद्ध था।

प्रश्नः यहां कुछ बैल मिलते हैं?

हां, बैल मिल जाते हैं।...तो उस घोड़े को, तो उस घोड़े की तो भारी प्रसिद्धि थी यूरोप में। जैसे आपने पूछा कि इस समय कितने बजे हैं, तो घोड़ा ऐसा पैर पटक-पटक कर सात चोट कर देगा। सात बजे हैं--घोड़ा। आपने नोट घोड़े के सामने किया कि कितने नंबर हैं? तो पैर पटक-पटक कर दो, फिर रुक कर एक, फिर रुक कर तीन--ऐसा नंबर गिना देगा।

प्रश्नः उस नोट को देखेगा नहीं?

नहीं नोट, नोट को दिखाना पड़ेगा घोड़े को, नोट को दिखाना पड़ेगा भई घोड़े को। किताब का कौन सा पृष्ठ है तो घोड़े को दिखाना पड़ेगा, घोड़ा यूं करके बता देगा। ऐसी बहुत सी बातें घोड़ा बताता था। तो घोड़ा बहुत प्रसिद्ध था। बहुत प्रसिद्ध था। और सारी ट्रिक घोड़ा चलवाने वाले में थी। सारी ट्रिक जो थी, वह घोड़ा चलवाने वाले में थी। तो उसने उसे सिखाया हुआ था। वह घोड़े पर हाथ रखे रहता। वह उसकी पीठ में इशारा कर जाता--एक, दो, तीन--वह, वह अंगूठे के इशारे की सारी ट्रेनिंग थी उसकी। वह अंगूठा लगाता जाता--एक, तो वह घोड़ा एक पैर मार देता, दो--तो वह दो पैर मार देता। वह ऐसा हाथ रखे रहता घोड़े पर। बस वह सिर्फ बिलकुल आहिस्ता आपको दिखाई भी न पड़े। वह सिर्फ उसको इशारा कर रहा है। वह उतनी, उतनी ही ट्रेनिंग थी (अस्पष्ट.53: 54..)। न घोड़े को नोट से मतलब है, न घोड़े को किसी चीज से मतलब है। तो वह सारी चीज के सिंबल्स हैं, प्रतीक हैं, ट्रिक्स हैं। एक दूसरे को एसोसिएट करने की बात है। और वह सारी टेक्नीक खयाल में जाए तो उसमें कोई मामला नहीं है ज्यादा।

प्रश्नः पर वह मूच्र्छा जो कहते हैं आप, करने की वह किस प्रक्रिया से करते हैं और निर्विचार होने की प्रक्रिया...?

न, न, न। कुछ भी नहीं, उसी चीज में एकाग्र होना पड़ता है न पूरा तो मूच्र्छा हो जाती है। एकाग्र होना पड़ेगा न आपको।

प्रश्नः सतावधान के पहले क्या करते हैं?

हां, वह सारी ट्रेनिंग है एकाग्रता की ही।

प्रश्नः किसी चीज पर एकाग्र करते हैं...?

हां, हां, किसी चीज पर... एकाग्रता तो सरल होगा।

प्रश्नः और धर्म में तो ऐसा सिखाते हैं, हमको एक सिखाने वाला मिला था। उसने टेलीफोन नंबर याद और ध्यान करने बोलाः 562416 अभी भी मुझे याद है। उसने बोला छप्पन यहां दुकान पड़ा था, याद रख लो..., चैबीस तीर्थंकर हैं, चैबीस याद कर लो, सोलह शांति नाथ भगवान हैं तो सोलह नंबर सोच लो, कभी भी तुम भूलोगे नहीं?

सारी ट्रिक्स हैं। सब ट्रिक्स हैं। बल्कि हमारी अजीब हालत है न, साधु-संन्यासी जिनसे ट्रिक्स की कम आशा होनी चाहिए, वहां ज्यादा होती है। और बिलकुल बेमानी है। उस आदमी को कोई लाभ नहीं हो रहा है। न देखने वाले को लाभ हो रहा है।

प्रश्नः उसमें क्या ट्रिक हो सकती है कि जैसे कि किसी फिगर को क्यूब रूप में पढ़ना, उसमें तो ट्रिक नहीं हो सकती...

 शाॅर्टकट फाॅर्मूले हैं। शाॅर्टकट फाॅर्मूले हैं और अनकांशस फाॅर्मूले भी हैं। अब जैसे कि आपको बेहोश करके, आपको हिप्नोटाइज्ड करके बेहोश कर दिया जाए। और आपके अचेतन चित्त को, शब्द रूप समझा दिए जाएं--जैसे आपको बता दिया जाए कि तीन हजार पांच सौ बत्तीस में पांच हजार छह सौ का गुणा करने से यह आएगा। यह आपको बता दिया गया। अब आपको कुछ भी पता नहीं है। आपको कुछ भी पता नहीं है, आप होश में आ गए। लेकिन इसका आप जवाब तत्काल दे देंगे, आपको गुणा-वुणा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यह आपके अचेतन चित्त में तैयार कनक्लूजन है पूरा का पूरा। सिर्फ कुछ लोग, जैसे कि शंकरण और दूसरे लोग जिनकी कि प्रसिद्धि हुई इन सारे मामले में।
हमारे माइंड की जो वर्किंग है...जैसे छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा पढ़ता हैः ग गणेश का। फिर वह गणेश को छोड़ देता है, सिर्फ ग रह जाता है। अगर वह बार-बार पढ़े हर चीज में ग गणेश का, तो वह पढ़ ही नहीं पाए, तो उपद्रव हो जाए। तो वह गणेश छूट जाता है ग रह जाता है। फिर छोटा बच्चा पढ़ता हैः अ छोटा अ, ब छोटा ब--अब। लेकिन बाद में ऐसा नहीं पढ़ता, पढ़ता है अब। अ और ब को अलग नहीं पढ़ता, अब पढ़ता है। आपने खयाल नहीं किया होगा कि आप पूरी लाइन में सारे शब्द थोड़े ही पढ़ते हैं। शब्द का सिर्फ शुरू का हिस्सा पढ़ते हैं। बाद के हिस्से तो सिर्फ निकल जाते हैं।
और इसलिए प्रूफ-रीडिंग वाले को पता चलती हैं भूलें, जो कि उसको कभी पता नहीं चली थीं। क्योंकि प्रूफ-रीडिंग में भी वह वही करता है। उसने देखा कि लिखा है लग्जरी, तो लग्ज पढ़ा और बाकी तो, बाकी तो सिर्फ वही--जो होता है। बाकी वह पढ़ता नहीं, वह सिर्फ बढ़ जाता है। फिर आप पूरा सेंटेंस पढ़ते हैं। पूरा सेंटेंस जैसे अ और ब अब न पढ़ कर पूरा सेंटेंस इकठ्ठा पढ़ते हैं।
और इसकी अगर थोड़ी व्यवस्था की जाए तो आप और शीघ्रता से पढ़ सकते हैं। और यह जो जिनमें इस तरह के कितने भी गणित के सवाल जो कि घंटा, आधा घंटा, दो घंटा, तीन घंटा लग जाए बोर्ड पर करने में, और वह सीधा कर दे बिना अंगुलियों को हिलाए। उसकी चेतना, उसका चित्त बड़ी तीव्रता से काम कर रहा है। और काम करने की व्यवस्था है। किसी में जन्मजात हो सकती है, किसी को ट्रेनिंग से भी लाई जा सकती है। क्योंकि बह‏ुत कचरा है। मजे की बात जो है, वह यह है कि इस सब का अध्यात्म से कोई धेला भर संबंध नहीं है।

प्रश्नः यह स्मृति है या बुद्धि है?

सब स्मृति है। सब स्मृति है, बुद्धि नहीं।

प्रश्नः मैंने आचार्य जी ऐसा समझा है कि ध्यान में सबसे बड़ा बाधक ही कंसंट्रेशन है।

यह तो ठीक समझे हो।

प्रश्नः जहां भी हमारा कंसंट्रेशन हुआ नहीं

ध्यान गया...

प्रश्नः ...कि जागरूकता सब तरफ से गई नहीं और एक तरफ आई नहीं।

बिलकुल ठीक खयाल में आ गया।

प्रश्नः तो मैं ऐसा ही समझ पाया कि अगर दो स्थितियों को हम बचा सकें एक तो सुषुप्ति

हूं, हूं।

प्रश्नः... होने न दें...

बस, बस।

प्रश्नः ... और दूसरा केंद्रीकरण, कंसंट्रेट होने न दें,...

बस तो ध्यान पर चले गए।

प्रश्नः तो स्वयं ही जागरूकता होगी?

यह बिलकुल ठीक खयाल में आ गया। यही मैं कह रहा हूं निरंतर। बस ये दो बातें हो जाएं तो तुम कहीं और जा ही नहीं सकते। ध्यान में चले ही जाओगे और कोई उपाय ही नहीं है दूसरा।

प्रश्नः सारी प्रक्रिया हमारी कंसंट्रेशन से ही चल रही है विचार की। और उसमें एक दूसरी तरफ प्रमाद हो जाना आवश्यक है एक तरफ केंद्रित होकर।

.(ओशो द्वारा कोई उत्तर नहीं)..

प्रश्नः गीता का श्लोक हैः युगस्थः कुल कर्माणी...जिसका मीनिंग कुछ इस तरह है, युग में रहता ह‏ुआ कर्म कर, वर्तमान में रह कर कर्म कर?

ठीक है, यही है। हूं। ठीक है, यही है।

प्रश्नः...यदि हम इस वर्तमान के अंदर जागरूक रहें...तो अगले क्षण का हमलोग विचार न करें, इसी क्षण का विचार करें...तो ऐसा नहीं हो सकता कि एक क्षण के बाद अगला जो कुछ कांटेक्ट होगा वह फिर आगे निकल जाएगा?

तो अभी है कहां? अभी तो है ही नहीं न। और यह क्षण गुजरा कि वह क्षण वर्तमान बन जाएगा। तब तुम कांटेक्ट कर लेना पूरा। कांटेक्ट तो तभी करोगे न जब वह...। वह तो जब भी आएगा तब वर्तमान होकर आएगा, और तो कोई उपाय नहीं है बच कर निकल जाने का उसके। यानी आपके घर के सामने ही से निकलेगा, और कोई रास्ता ही नहीं है पीछे का जहां से कि भविष्य का क्षण निकल जाए। भविष्य के प्रत्येक क्षण को वर्तमान होना ही पड़ेगा।
और आप वर्तमान में जागरूक हो, अब आपको चिंता ही नहीं है। समय का कोई क्षण आपसे बिना पूछे नहीं निकल सकता अब। हां, इससे उलटा हो सकता है कि आप भविष्य के प्रति चिंतित हो तो वर्तमान का क्षण निकल सकता है। आपको पता नहीं चलेगा। आपके हाथ में आना ही पड़ेगा उसे। और आप जागरूक हो। इसलिए किसी ने पूछा एक...
एक सूफी फकीर हुआ है, बायजीद। बायजीद से किसी ने पूछा कि कितनी देर ध्यान करूं? तो बायजीद ने कहाः कितनी देर पागल, तेरे पास कितनी देर है? यह तू मुझे बता दे, तो मैं तुझे बताऊं। उसने कहाः मैं समझा नहीं। तो बायजीद ने कहाः एक क्षण से ज्यादा तेरे पास हैं कहां? तू बस एक क्षण ध्यान कर, बाकी की फिकर छोड़। तू एक क्षण ध्यान करना सीख गया तो बात खत्म हो गई। दो क्षण तो तेरे पास इकट्ठे कभी होते ही नहीं कि तुझे दो क्षण ध्यान करना पड़े। तू ध्यानस्थ हुआ एक क्षण, अब जो भी क्षण तेरे पास आएगा--तू ध्यानस्थ है। तो एक ही क्षण का तो सवाल है।
सच है यह बात। एक क्षण भी कोई जागना सीख जाए तो अनंतकाल के लिए जाग गया। क्योंकि क्षण के बिना अनंतकाल भी तो गुजर नहीं सकता। और वह तो अब यह जो हम यह सारी बातें कहते हैंः आने वाला क्षण, जाने वाला क्षण--यह सब हमारी तभी तक बातें हैं, जब तक हम जागे नहीं हैं। जिस दिन हम जागे, उसी दिन टाइम एवोपरेट हो जाता है। न कोई आने वाला क्षण है, न कोई जाने वाला क्षण है। जो है, वह वर्तमान ही है। वह तो हमारी जो सारी, अभी, अभी, जो हम... हमको जो सोचने का अभी हमारा सिलसिला है न, तुम्हें अंदाज नहीं है।
एक छोटी इल्ली चलती है समझो एक पत्ते पर। तो तुम्हें शायद पता ही नहीं होगा कि इल्ली को लगता है कि पत्ता दोनों तरफ से उसके पीछे जा रहा है। जैसा कि तुमको ट्रेन में लगता है। तुम एक ट्रेन में बैठे हो, और ट्रेन खड़ी है। और बगल की ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया। एक क्षण को तुम चैंक जाते हो, कहीं मेरी ट्रेन तो नहीं चल रही। समझ लो इस तरफ का प्लेटफार्म हो ही नहीं देखने को, या दरवाजे बंद हैं। वह तो इस तरफ का प्लेटफार्म देख कर तुम पक्का कर लेते हो, अपनी गाड़ी नहीं चली। वह प्लेटफार्म वहीं खड़ा हुआ है। लेकिन अगर उस चलती गाड़ी में समझो..।
आइंस्टीन कहा करता था कि अगर हमने...अंतरिक्ष में दो यान चल रहे हैं। जहां कि दोनों तरफ शून्य है, दोनों तरफ शून्य है। और एक यान चल पड़ा, तो दूसरे यान वाले को लगेगा कि मैं भी चल पड़ा। लेकिन वह कैसे जांच करे कि मैं नहीं चला हूं। क्या उपाय है उसके पास जांच करने का? क्योंकि न कोई दरख्त खड़ा है, न कोई प्लेटफार्म है, न कोई है, न कोई है; शून्य है दोनों तरफ। उसे कैसे पता चले कि मैं नहीं चल पड़ा हूं? बगल वाला चला है। समझे मेरा मतलब?
एक इल्ली चलती है एक पत्ते पर तो उसे लगता है कि दोनों तरफ पत्ता पीछे सरक रहा है। और इल्ली को कैसे पता चले कि ऐसा नहीं हो रहा है? इल्ली को उपाय क्या है? वह लौट कर भी देखे तब भी पत्ता पीछे सरक जाता हुआ मालूम पड़ेगा। इल्ली जब भी चलेगी तो इल्ली को कैसे पक्का पता चले कि इल्ली चल रही है कि पत्ता दोनों तरफ पीछे जा रहा है? जिन लोगों ने खोज-बीन की है इल्लियों के बाबत, उनका कहना है इल्ली को कभी पता नहीं चलता। बहुत खोज-बीन इस पर हुई है। नहीं छोटी, लंबी इल्लियां सीधी चलने वालीं, पत्ते पर सब्जी में चलने वाली। उसको पता नहीं चलता, वह वन- डायमेंशनल है। वह सीधी चली जाती हैै। और दोनों तरफ से पत्ता पीछे चला जाता है। अब इल्ली को कैसे पता चले कि मैं चली, कि पत्ता पीछे सरक गया? तो इल्ली को तो ऐसे ही मालूम पड़ता है कि चीजें पीछे सरक रही हैं।
और जो लोग टाइम के बाबत बहुत खोज-बीन करते हैं, उनके अनुभव बहुत दूसरे हैं। या हमको लगता है कि एक क्षण गया और दूसरा आया, और तीसरा आया, और चैथा आया, और पांचवां आया; और यह गया, और वह आया। लेकिन जो वर्तमान में खड़ा हो जाता है वह अचानक पाता है, वह अचानक पाता है कि समय तो वहीं का वहीं खड़ा है, मैं चल रहा हूं। वह जो, जो बुनियादी फर्क पड़ता है, वह यह पता चलता हैः समय तो जहां का तहां है, समय जाएगा कहां? यह कभी आपने सोचा नहीं। कभी आपने सोचा नहीं कि अगर समय जाएगा तो जाएगा कहां? आप कहते हैं कि कल अतीत में चला गया।े अतीत, यानी कहां? कहीं सुरक्षित है? कहीं रखा हुआ है? जाकर कोई जगह है?
अगर कहीं कोई जगह है तब तो हम किसी न किसी दिन दरवाजा खोज लेंगे और वापस पहुंच जाएंगे। तुम जिस दिन जन्मे थे, हम उस दिन को पकड़ लेंगे। तब बड़ी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि फिर दोनों घटनाएं... तुम अभी मौजूद हो, तुम जन्म रहे हो। अगर हमने उस घटना को पकड़ लिया उस जगह जाकर, तो तुम जन्म रहे हो और तुम अभी मौजूद हो। ये दोनों बातें एक कैसे हो सकती हैं? तब तो एक आदमी मर रहा है और पैदा हो रहा है। ये दोनों एक साथ पकड़ी जा सकती हैं। किसी कमरे में अगर अतीत जाकर इकट्ठा हो जाता हो, तब तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा। फिर भविष्य आता कहां से है? आखिर चीजें आने के लिए कहीं से आनी चाहिए न। अगर कोई चीज आ रही है, तो आने-जाने की धारणा ही हमारे डायमेंशन की वजह से है। सच बात बिलकुल उलटी है। सच बात यह है कि हम गतिमान हैं। और चीजें तो थिर हैं अपनी जगह, हम गतिमान हैं। और हम यहां वन-डायमेंशनल हैं। हम पीछे नहीं लौट पाते।
जैसे कि एक आदमी की गर्दन जाम हो और पीछे लौट कर न देख सकता हो। ऐसी मनुष्य की बीइंग है कि वह पीछे नहीं लौट पाता। और आगे भी नहीं जा पाता। बस जहां होता है, वहीं देख पाता है, उतना ही देख पाता है। फोकस उतना ही आगे बढ़ता है। इस बात की पूरी संभावना है कि कोई व्यक्ति इस फोकस के ऊपर उठ जाए। और वह उन चीजों को देख सके जो अभी नहीं हुई हैं। त्रिकालज्ञ का मतलब ही यह होता है। त्रिकालज्ञ का मतलब ही सिर्फ इतना है।
एक आदमी टाइम के बाहर चला जाए तो उन चीजों को देख सके, जो अभी होंगी। उन लोगों के लिए जिनका फोकस अभी वहां नहीं पड़ा है। समझ लो, मैं एक झाड़ के नीचे बैठा ह‏ुआ हूं और आप झाड़ के ऊपर बैठे हुए हैं। एक रास्ता है, उस पर एक बैलगाड़ी आ रही है। मुझे दिखाई नहीं पड़ती, झाड़ के ऊपर वाला बैठा हुआ आदमी कहता हैः एक बैलगाड़ी आ रही है। मैं कहता हूंः अभी तो कोई बैलगाड़ी नहीं है, भविष्य में है, मुझे तो दिखाई पड़ती नहीं। उसके लिए वह वर्तमान है। वह उस ऊंचाई पर खड़े होकर देख रहा है जहां बैलगाड़ी आ चुकी है। उससे भी बड़े वृक्ष पर एक आदमी हो सकता है जिसको और पहले बैलगाड़ी आ चुकी। फिर मेरे सामने बैलगाड़ी आएगी। तब मैं कहूंगाः वर्तमान हुआ। फिर बैलगाड़ी चली जाएगी। मैं कहूंगा, अतीत हो गया। झाड़ वाला कहेगा, अभी नहीं हुई। अभी है, अभी मुझे दिखाई पड़ती है। उससे ऊपर झाड़ वाले को अभी भी दिखाई पड़ती है। असल में टाइम के साथ अगर थोड़े प्रयोग किए जाएं तो बड़े अदभुत अनुभव होते हैं, बहुत हैरानी के। बड़ा हैरानी का अनुभव तो यह होता है कि टाइम नहीं चलता, हम चलते हैं। और हमारा फोकस लिमिटिड है।
जैसे यह कमरा है, और एक आदमी के पास एक दूरबीन है। वह उस कोने से चलना शुरू करता है। उसको दूरबीन पर आप नंबर एक बैठे हुए दिखाई पड़ते हैं। वह कहता है, वर्तमान आ गया। लेकिन शांति बाबू भविष्य में हैं। फिर वह और आगे बढ़ा। उसकी दूरबीन में पहला व्यक्ति गया, वह कहे अतीत में चला गया। शांति बाबू आ गए हैं फोकस में, वह कहता है वर्तमान आ गया। थोड़ी देर में शांति बाबू विदा हो जाएंगे। यह आगे बढ़ता चला आएगा। उस पूरे कमरे से वह गुजर जाएगा। वह कहेगा, कुछ चीजें गईं, कुछ चीजें आती रहीं, कुछ चीजें थीं। लेकिन उस आदमी ने दूरबीन पटक दी, तोड़ दी। और उसने चारों तरफ देखा, कमरा पूरा का पूरा उसे दिखाई पड़ा। तो उसने कहा, यह तो बड़ी हैरानी की बात है। जिसको हम कहते थे चला गया--वह भी है। जिसको हम कहते थे, होने वाला है--वह भी है। जिसको हम कहते थे है--वह भी है। क्योंकि अब तो सब है। अब उसको पूरा कमरा, युगपत दिखाई पड़ रहा है।
असल में चेतना के जैसे-जैसे पल हैं, हमारा माइंड एक फोकस है जिसमें से हम देखते हैं छेद छोटा सा। पर वह दूसरी बात है। कुछ आता, कुछ जाता नहीं। कुछ आता, कुछ जाता नहीं। हम जा रहे हैं। अस्तित्व तो वहीं का वहीं खड़ा है, हम चक्कर लगा रहे हैं। और जो हमें दिखाई पड़ता है वह वर्तमान बन जाता है। और अगर हम वर्तमान पर हम खड़े हो जाएं, क्योंकि हमारे खड़े होने का एक ही रास्ता है कि हम वर्तमान पर खड़े हो जाएं। भविष्य पर तो हम खड़े नहीं हो सकते, क्योंकि वह अभी आया नहीं। उस पर खड़े कैसे होंगे? हम कहेंगेः हम कल खड़े होंगे, जब आ जाएगा। अतीत पर हम खड़े हैं। ...सारी चीजें खड़ी हैं। वह हमारे चलने की वजह से भ्रम पैदा हो रहा था कि सारी चीजें चल रही हैं। और ध्यान में रहे, हम इस तरफ जा रहे हैं तो टाइम हमें इस तरफ जाता हुआ मालूम पड़ रहा है।
जैसे एक आदमी दौड़ रहा है, और बगल का मकान उसे भागता हुआ मालूम पड़ रहा है पीछे की तरफ। वह आदमी खड़ा हो गया, और मकान भी खड़ा हो गया। वह आदमी कहेगा, बड़ी हैरानी की बात है, मैं खड़ा हुआ तो मकान खड़ा हो गया। सच बात यह है कि मकान पहले ही खड़ा था। आप ही सिर्फ भाग रहे हैं। आपके भागने की वजह से एक उलटी गति पैदा हो गई थी दोनों तरफ भागने की, जो कि सिर्फ इलुजरी थी। और शंकर या इस तरह के सारे लोग जो टाइम के बिलकुल खिलाफ हैं, जो कहते हैं कि समय सबसे बड़ा भ्रम है। और इसलिए एक बात कभी खयाल में नहीं आई होगी...जिन लोगों को भी मोक्ष, आत्मा, परमात्मा इस दिशा में कुछ भी गति हुई है, वे एक शर्त जरूर रखेंगे, वे कहेंगेः कालातीत। समय के बाहर। चाहे वह मोक्ष हो, चाहे ब्रह्म हो, चाहे आत्मा हो--वह काल के बाहर होगा। और हमारा सब अनुभव काल के भीतर है।
बड़ी देर लगा दी। नहीं, हम तो बड़ी देर से राह देख रहे थे। शांति बाबू बड़ी जल्दी आते हैं। आइए बैठिए? कैसी तबीयत है? आप तो बड़ी देर लगाए।...क्योंकि साधु के पास ही खाली हाथ न गए तो फिर कहां जाएंगेे।

प्रश्नः जैसा आप कहते हैं कि श्वास पर ध्यान करें तो मन शांत हो जाता है...

हूं, हूं।

प्रश्नः ... मन शांत हो जाए...

तो भी श्वास दीखने लगता है...

प्रश्नः... तो श्वास दीखने लगता है।

... बस, बस यह सब ठीक है।

प्रश्नः यह बात ठीक...?

बिलकुल ही ठीक। असल में, असल में दो छोर हैं। कहीं से भी चलें, दूसरे पर पहुंच जाते हैं। और इसलिए श्वास पर ध्यान रखने को कहता हूं। जापान में बच्चों को वे बचपन से एक बहुत बढ़िया बात सिखाते हैं। वे किसी बच्चे को नहीं कहते कि क्रोध न करो। वे यह कहते हैं कि जब क्रोध हो तब तुम जोर से श्वास लो। और अगर जोर से श्वास लो तो साथ में क्रोध नहीं कर सकते हैं। यह असंभावना है। एक रिदम हो श्वास में तो फिर क्रोध नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी जो लय है, वह टूटनी चाहिए। वह बड़ी होशियारी की बात है। यानी वह नहीं टूटेगी, तो क्रोध नहीं कर सकोगे; क्रोध न करो, तो वह नहीं टूटेगी। और हमारा पूरा शरीर और मन, कोई ऐसी बहुत अलग-अलग चीजें नहीं हैं। एक ही चीज जैसे और गहरे में प्रवेश कर गई है।
तो कहीं से भी शुरू करो। अगर श्वास से शुरू करो, तो मन शांत होगा; अगर मन शांत हो जाए, तो श्वास पर ध्यान चला जाएगा। मन की शांत अवस्था में सिवाय श्वास के और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। बस वही एक रिदम रह जाती है। क्योंकि वह हमारे जीवन की निकटतम...

प्रश्नः आपने मुझे फिर शंका में डाल दिया है कि अलावा श्वास के कुछ दिखाई ही नहीं देता। ऐसा तो नहीं। आप यह जागरूकता की बात कहते हैं उसमें तो यह कि सब कुछ ही दिखाई देता है

दिखाई देने का मेरा मतलब नहीं समझे तुम। मेरा मतलब...

प्रश्नः ...श्वास पर केंद्रीकरण हो जाएगा

न, न, न...

प्रश्नः तब तो दूसरी तरफ...?

केंद्रीकरण के लिए, केंद्रीकरण के लिए भी नहीं कर रहा हूं। जैसे ही तुम शांत होओगे तो तुम्हारे निकटतम चेतना के जो गतिविधि है, जो मूवमेंट है वह श्वास का है। फिर तो सब मूवमेंट दूर है। फिर तो सब फासले पर है। निकटतम मूवमेंट जो है वह श्वास का है। और वह तो हम इतने उलझे हुए हैं बाहर कि हमें श्वास का मूवमेंट पता नहीं चलता। जैसे ही हम शांत होंगे, वह मूवमेंट पता चलेगा।
और वह मूवमेंट भी अपने में इतना है कि जब पता चलेगा तो वही तुम्हें घेर लेगा--एकाग्र नहीं है, वह तो वही तुम्हें घेर लेगा। और सब इतना दूर मालूम होगा, इतना दूर जैसे तुम्हारे बीच और सड़क पर बजने वाले हाॅर्न के बीच मीलों का फासला है। वह फासला इसलिए पैदा हो जाएगा कि तुम अपने भीतर इतने चले गए हो कि वहां से वह सड़क तो बहुत दूर पड़ गई। वहां से तो निकटतम जो ध्वनियों का जगत है, वह श्वास रह जाती है। और वहीं अगर ध्यान बना रहा, बना रहा, तो एक दिन वहां से भी उजड़ जाता है--एकदम, और वह जंप है। वह आखिरी बिंदु है, जिसका हमें बोध रहता है। उस पर से भी वह रिदम अचानक उजड़ जाएगा। अचानक तुम पाओगेः बाहर नहीं गए तुम, श्वास का बोध भी विदा हो गया।

प्रश्नः इसे ही आप विस्फोट कहते हैं?

इसे विस्फोट कहूंगा। मन जब तक शांत है तब तक श्वास दिखाई पड़ेगी, और मन शून्य हुआ कि श्वास भी गई। फिर जो रह जाता है उसे शब्द में कहने का कोई उपाय नहीं है। श्वास आखिरी पड़ाव है। यानी जहां तक हिसाब-किताब रख सकते हो, उसके बाद हिसाब-किताब गया। उसके बाद अचानक तुम्हें ऐसा भी लग सकता है कि बिलकुल मर गए। और पहला अनुभव करीब-करीब ऐेसा ही होगा--कि जैसे समाप्ति हो गई। क्योंकि हमारे जीवन का बोध श्वास से ही बंधा हुआ है। वह विस्फोट की घटना है। वह एक्सप्लोजन है।

प्रश्नः उसका साधन एक मात्र यही है कि श्वास पर ध्यान रखे रखें?

साधन और भी हैं। हां, लेकिन कोई भी साधन से फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह सरलतम मेरे खयाल में हैं। सरलतम हैं।

प्रश्नः मेरे बच्चे ने एक बड़ा अजीब सा प्रश्न किया?

बताइए, बताइए।

प्रश्नः चार वर्ष का बच्चा है। मंदिर गया, वह कहता हैः बतलाओ पापा, भगवान क्या होता है? मैंने उससे कहाः बड़े हो जाओगे, तब समझोगे। वह कहता हैः नहीं, मैं अभी समझ सकता हूं। आप बतलाएं तो सही। उसको कोई उत्तर दिया जा सकता है?

झूठ तो बोल ही दिया। उत्तर तो दे ही दिया। कहते हैं, बड़े हो जाओगे तब समझ जाओगे। कौन बड़ा होकर समझ गया, यह तो पता लगाओ?

प्रश्नः मैंने कहा है कि सोच कर बतलाऊंगा कुछ अगर समझाया जा सके?

एक तो यह बात गलत ही है कि कोई बड़े होकर जान लेगा। क्योंकि जानने से बड़े होने का क्या संबंध? वह बच्चा ठीक कह रहा है। क्योंकि बड़े बहुत तो हैं (अस्पष्ट 75: 04...) चारों तरफ, उनमें से कौन जान लेता है? बड़े होने से कौन जान लेता है? दूसरा तुम कहते हो कि सोच कर बताऊंगा, वह भी बिलकुल गलत है। क्योंकि सोच कर अब तक कौन बता सका है?

प्रश्नः नहीं, मैंने तो इस आशा में कह दिया कि आपने पूछ कर बतला दूंगा।

नहीं, तो किसी से पूछ कर भी कहां बता सके हैं? किसी से पूछ कर भी कौन बता सका है? नहीं संभव है। असल में हमें अपना अज्ञान स्वीकार करना चाहिए। जहां भी मौका मिल जाए, अज्ञान को स्वीकार करने का जहां भी मौका मिल जाए उसे चूकना नहीं चाहिए। क्योंकि वह ज्ञान की दिशा में बड़ा कदम है। अज्ञान की स्वीकृति विनम्रता की दिशा में बड़ा कदम है।
मेरी दृष्टि में तो ज्ञान के अतिरिक्त और कोई अहंकार ही नहीं है। न धन का, न यश का, न पद का। यह कोई अहंकार-वहंकार नहीं है। मगर बड़े मजे की बात हैः ज्ञानी ने अपने को बचा लिया है, सबको अहंकारी सिद्ध किया हुआ है। हम नहीं जानते हैं तो यह कहना चाहिए न, कि हम नहीं जानते हैं। और हम जो कर सकते हैं, वह इतना ही कर सकते हैं कि हम नहीं जानते हैं। यह उस बच्चे का भी भाव बनना शुरू हो जाएगा है कि वह भी नहीं जानता है।
क्योंकि न जानने की जो पी.ड़ा है, वही खोज में ले जाती है। उत्तर कोई दूसरा थो.ड़े ही देगा उसे कभी। न तुम दे सकते, न मैं दे सकता। उत्तर तो उसे ही मिलेगा कभी। उसे मिल सके इसका, इसके लिए हम कोई बाधा न डालें, इतना ही हम कर सकते हैं।

प्रश्नः आगे प्रश्न भी पूछ सकता है कि आप मंदिर क्यों जाते है?

जरूर पूछ सकता है और बताना चाहिए। और जो सच्चाई है वह बतानी चाहिए। कि पत्नी के डर से आए हुए हैं; या पड़ोसियों के डर से आए हुए हैं; या समाज के डर से आए हुए हैं; या एक बुरी लत बन गई है, छूटती नहीं; नहीं आते तो ऐसा लगता है कि कुछ खास काम छूट गया है। जैसे सिगरेट पीने का है, ऐसा मंदिर आने का बन गया है। जो सच हो वह उसे कहना चाहिए।

प्रश्नः यह तो बड़ा मुश्किल प्रश्न है, ध्यान में बैठे हैं तब भी वह कहता है कि क्या कर रहे हो?

हां, कहेगा।

प्रश्नः तो फिर उसको कुछ जवाब दिया जा सकता है?

हां-हां। जो जवाब सूझे वह देना चाहिए। जो दिखे सच-सच, जवाब देने के लिए नहीं--जो हो। मैं जो, मैं जो कह रहा हूं वह यह है कि एक तो जवाब होता है देने के लिए। नहीं उसका कोई मतलब ही नहीं, मूल्य ही नहीं। हम सब बच्चों को इसी तरह तो बिगाड़ रहे हैं कि हम वे जवाब दे रहे हैं, जो देने चाहिए। और आज नहीं कल बच्चे भी पता लगा लेते हैं कि सब झूठ है। सब मां-बाप झूठ थे, उनकी सब परंपराएं झूठ थीं। सब शास्त्र झूठ थे, सब गुरु झूठ थे। सरासर सब तरफ झूठ थे। यह बच्चों को जिस दिन पता चलता है, उस दिन उनके जीवन में बड़े संकट का क्षण होता है। अनास्था हम पैदा करवाते हैं झूठी आस्था थोप कर। जब अनास्था पैदा होती है तो हम दुख लाते हैं। वह दुख तो आने ही वाला है। वह हमने खुद बीज बो दिया उसका। मेरा तो कहना यह है कि हम नहीं जानते तो हमें साफ कहना चाहिए।
मैं पीछे लारेंस से कह रहा था। लारेंस एक बगिया में घूम रहा है। एक छोटा बच्चा उसके साथ है, और उससे पूछता है कि वृक्ष हरे क्यों हैं? तो वह लारेंस कहता हैः दि ट्रीज आर ग्रीन बिका.ज दे आर ग्रीन। हरे हैं क्योंकि हरे हैं। वह बच्चा कहता है, आप कैसा पागलपन का उत्तर देते हैं? यह कोई उत्तर हुआ। वृक्ष हरे हैं क्योंकि हरे हैं। लारेंस ने कहाः बस इतना ही उत्तर मुझे पता है। इसके आगे, इसके आगे मैं अज्ञानी हूं। इसके आगे मैं अज्ञानी हूं। अब यह जो आदमी है, अत्यंत ईमानदार है।
मेरी दृष्टि में सत्य की खोज में, अगर कहीं कोई सत्य है तो ऐसा व्यक्ति पहुंच भी सकता है। लेकिन जानने वाले लोग कभी नहीं पहुंच सकते हैं। वे जो पहले से जाने हुए बैठे हैं। पंडित तो कभी नहीं पहुंचता, पहुंच ही नहीं सकता है। पापी पहुंच भी सकता है। क्योंकि पापी विनम्र हो सकता है, पंडित नहीं हो सकता है विनम्र। लेकिन हमें कभी भी मानने में तकलीफ होती है कि हम नहीं जानते हैं। बहुत तकलीफ होती है।
 एक नसरुद्दीन के बाबत एक उल्लेख है। उसके गांव के सम्राट ने नसरुद्दीन को पकड़वा कर बुलवा लिया। और उसने कहा कि मैंने तय किया है कि कल से, कल मेरा जन्म-दिन है और कल से राजधानी में असत्य बंद करवा दूंगा। और जो असत्य बोलेगा, उसको सूली पर लटका दूंगा। तो नसरुद्दीन ने कहा कि यह सूली कहां है आपकी? क्योंकि कल सुबह सबसे पहले मैं ही आ जाना चाहता हूं। तो उसने कहाः ठीक दरवाजे पर नगर के सूली है। और दरवाजे पर ही कल पूछताछ जारी रहेगी। जो आदमी झूठ बोलता हुआ पकड़ा जाएगा उसे सूली वहीं दरवाजे पर दे देंगे, ताकि पूरा गांव देखे। तो नसरुद्दीन ने कहा कि कल सुबह दरवाजे पर ही मिलेंगे। पर राजा ने कहाः मैंने तुम्हें बुलाया था यह पूछने के लिए कि जो मैं कर रहा हूं, वह ठीक है? उसने कहाः यह कल ही, वहीं बात हो जाएगी। वह नसरुद्दीन बहुत अदभुत आदमी है।
सुबह दरवाजा खुला तो नसरुद्दीन अपने गधे पर बैठा हुआ पहला आदमी प्रवेश किया दरवाजे में। राजा ने पूछा, अरे कहां जा रहे हो सुबह-सुबह? तो नसरुद्दीन ने कहा कि सूली पर लटकने। तो उस राजा ने कहा यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। तुम सरासर झूठ बोल रहे हो। तो नसरुद्दीन ने कहा कि झूठ बोलने वाले को सूली पर लटका दो। तो उस राजा ने कहा, फिर तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। सूली पर लटका कर तुम सच हो जाओगे। फिर नसरुद्दीन ने कहा कि फिर तय कर लो, जैसा ठीक समझो। तो मैं जाऊं कि रुकूं। तो उस सम्राट ने कहाः तुमने बड़ी मुश्किल में डाल दिया। तो नसरुद्दीन ने कहा कि अभी तक तय ही नहीं हुआ, सच क्या है और झूठ क्या है? और तुम सूली दे रहे हो? तुम इस झंझट में पड़ो ही मत। तुम इस झंझट में ही मत पड़ो, क्योंकि इतना आसान नहीं है यह तय कर लेना। और नसरुद्दीन ने कहा कि हम तो अज्ञानी हैं। हमसे तुमने पूछने बुलाया था तो हमने कहा कि अपना अज्ञान कल सुबह दरवाजे पर ही प्रकट कर देंगे। और अगर अब तुम ज्ञानी हो तो जैसा ठीक समझो, मैं सूली पर जाने को तैयार हूं।
असल में बच्चों के प्रश्न तो हमेशा सच्चे होते हैं, और बूढ़ों के उत्तर सदा झूठे होते हैं। यह बच्चों और बूढ़ों के बीच एक निरंतर संघर्ष है। बच्चे के झूठ पूछने का कोई कारण ही नहीं है। वे जब पूछेंगे, ठीक ही पूछेंगे। नहीं हैं उत्तर आदमी के पास, बहुत सी बातों के उत्तर नहीं हैं। तो स्वीकार करना चाहिए कि उत्तर नहीं है। लेकिन कोई मानने को राजी नहीं कि उत्तर नहीं है। यह न मानने के कारण हमने फिलाॅसफी की इतनी (84: 01... अस्पष्ट) सिस्टम खड़ी की हैं। यह बच्चों के द्वारा उठाए गए..., उत्तर बड़ों के द्वारा दिए गए--प्रश्नों के उत्तर दिए गए। लेकिन सब झूठ हैं। और सच की पहली तो बात यह कि जो नहीं मालूम, नहीं मालूम। उसे कहना ठीक नहीं है। और जो हम कर रहे हैं, उसके पीछे जो मोटिव हैं वह भी साफ कहना चाहिए कि हम इसलिए कर रहे हैं।
और अगर हम इतनी सच्चाई बरतें तो मेरा अपना मानना हैः बच्चे को भी रास्ता मिलेगा, और हमको भी रास्ता मिलेगा। क्योंकि बच्चे हमें उस स्थिति में डाल देते हैं जहां सच में हम हैं, लेकिन जिसको हम कभी स्वीकार नहीं करते हैं। वह हमें बहुत बार धक्के देकर वहां खड़ा कर देते हैं, कि जहां पता चल जाए कि हम अज्ञानी हैं। लेकिन हम अपना फिर लिबास ओढ़-आढ़ कर, कपड़े झाड़ कर खड़े हो जाते हैं। हम फिर इंतजाम करके कह देते हैं कि हमें सब मालूम है। लेकिन कितनी देर?
अगर बहुत गौर से देखें, तो यह बच्चे थोड़े ही पूछ रहे हैं आपसे? बहुत गौर से सोचें, तो यह आपकी ही सरलता आपसे पूछती है। यह आपका ही बचपन आपसे फिर बार-बार पूछता है। और जो झूठ हमने ओढ़ रखे हैं, अपने बचपन को भुला दिया सब तरह से, वह बार-बार हमसे पूछ रहा है। और जब भी वह पूछता है तब ही हमारा सब वह पांडित्य हिलता है। क्योंकि वह सब बिलकुल झूठा खड़ा हुआ है। इसका कहीं कोई मतलब नहीं है।
और मेरा मानना है कि गिरना चाहिए। आदमी के भविष्य के लिए सबसे सुखद यही घटना घटेगी कि आदमी अपने अज्ञान को स्वीकार कर ले। और व्यर्थ के ज्ञान के ताने-बाने न बुने। तब हो भी सकता है कि यह करोड़ों न जानने वाली चीजों में एक-आधा चीज हम जान भी लें। वह सब हो भी सकता है। और कम से कम एक बात तो पक्की है कि हम कुछ भी न जान सकें--तो यह जो अज्ञान की स्वीकृति है, ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो जान ही सकता है। क्योंकि तब वह कोई हाइपोथिसिस और कोई सिद्धांत नहीं ठोंकता। नहीं, कोई उत्तर दे ही मत। और किसी से उत्तर मत पूछिए।
उस बच्चे ने अच्छे प्रश्न उठाए हैं। उसको बुरे उत्तरों को देकर, उसको खराब न करें। उसके प्रश्नों को और बढ़ाएं। उसे कहें कि मुझे भी पता नहीं है, और मैं भी यही पूछना चाहता हूं, लेकिन किससे पूछूं? लो मैं भी तुमसे यही पूछता हूं। इसमें हर्ज क्या है? बच्चे ही बूढ़ों से पूछेंगे, यह क्या जरूरी है? यह क्या जरूरी है? यह हमारा पुराना खयाल बना हुआ है कि बूढ़े उत्तर दें, और बच्चे सवाल करें। यह कोई जरूरी नहीं है। सब उलटा भी हो सकता है। बहुत बार इससे उलटा हो भी जाता है। और नहीं मालूम है, नहीं मालूम। और मेरी अपनी दृष्टि है कि अगर हमें इतना भी खयाल में आ जाए कि हमें नहीं मालूम है तो इतना आनंद उतरता है, उसके पीछे जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि हम एकदम हलके हो गए।
आस्पेंस्की गया था गुरजिएफ को मिलने। तो आस्पेंस्की जब मिला तो उसके पहले उसकी किताब जगत विख्यात हो गई। और उसकी एक किताब तो बहुत ही अदभुत थी। टर्शियन आर्गनम उसकी एक किताब है। और कहा जाता है दुनिया में तीन ही किताबें हुई हैं (अस्पष्ट...87: 05)। उसमें एक अरस्तु की आर्गनम नाम की किताब है। और दूसरी बैकल की किताब हैः नोवन आर्गनम। और तीसरी आस्पेंस्की की किताब हैः टर्शियन आर्गनम। तो पहली किताब का नाम हैः पहला सिद्धांत। दूसरी किताब का नाम हैः दूसरा सिद्वांत। तीसरी किताब का नाम हैः टर्शियन, थर्ड, तीसरा सिद्धांत। यह किताब उसकी प्रकाशित हुई थी, और बहुत अदभुत किताब है।
वह गुरजिएफ नाम के एक साधारण गरीब फकीर से मिलने गया, एक गांव में। मित्रों ने उससे कहा कि जाओ। जिन मित्रों ने उससे कहा, उसने उन्हें कहा कि वह मुझे क्या सिखाएगा? उन मित्रों ने कहा कि सिखाएगा तो वह शायद ही, लेकिन जो-जो तुम्हें सीखे होने का भ्रम है वह छीन लेगा--सिखाएगा शायद ही। बाकी जो-जो तुम्हें सीखे होने का भ्रम है, वह छीन सकता है।
सिर्फ कौतूहलवश आस्पेंस्की गया। बड़ी देर हो गई गुरजिएफ चुप बैठा है, और दस पंद्रह लोग बैठे हैं। वह भी चुप बैठा है। आस्पेंस्की तो बेचैन हो गया। न कोई बोलता, न कोई पूछता, न कोई उत्तर देता। वह सोचता था कि कुछ बात चलेगी तो मैं भी पूछ लूंगा। घबड़ा गया। वह पड़ोसी जो उसको लेकर आया था उससे कहा कि मैं कुछ पूछूं? तो उसने कहा कि इन सब के बीच तुम बड़े अज्ञानी सिद्ध होओगे, अगर पूछा। क्योंकि यहां पूछने और उत्तर देने का मामला खत्म हो चुका है। ये लोग उस जगह पहुंच गए हैं जहां चीजें हैं। ऐसा है? उसने कोई उत्तर-वुत्तर नहीं लिखा। तो गुरजिएफ कहता है कि ऐसा है। पूछा कि ऐसा है? उत्तर नहीं है। फिर भी आस्पेंस्की ने कहा, अरे यह क्या बोलता है? हर चीज के उत्तर हो सकते हैं।
तो उसने पूछा गुरजिएफ से कि मैं कुछ पूछना चाहता हूं। तो गुरजिएफ ने एक कागज उठा कर उसको दे दिया, और कहा कि इस पर लिख दो कि तुम जो भी पूछते हो उस शब्द में खुद भी तो कुछ नहीं जानते हो। अगर खुद भी जानते हो तो फिर मुझे बेकार परेशान मत करो। क्योंकि जाने हुए को जनाना बहुत मुश्किल है। इस कागज पर लिख दो। इस पर लिख दो जो भी तुम न जानते हो। तो फिर उस संबंध में मैं तुमसे कुछ कहूंगा। क्योंकि जो नहीं जानता, वह सुन सकता है।
आस्पेंस्की ने लिखा हैः मैं इतनी मुश्किल में कभी नहीं पड़ा था। बड़ी-बड़ी किताबें लिखी थीं, लेकिन उस छोटे कागज पर लिखना बहुत मुश्किल होने लगा था। कलम उठाता हूं कि क्या लिखूं? ईश्वर को जानता हूं? उत्तर आता है कि नहीं जानता, और ईश्वर पर मैंने किताबें लिखी हैं। आत्मा को जानता हूं? उत्तर आता है, कहां? कुछ पता तो नहीं है। और आत्मज्ञान पर मैंने ग्रंथ लिखे हैं। और लोग मुझसे पूछने आते हैं। और मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। धीरे-धीरे वे जो दस-बारह चुप बैठे हैं लोग, वे सब हंसने लगे हैं। बह‏ुत जोर से हंसने लगे हैं और मेरा पसीना छूटा जा रहा है। और वह गुरजिएफ कहता है कि जल्दी लिख दो। जो भी तुम्हें आता हो, कुछ भी, जो भी आता हो वह लिख दो तो मैं थोड़ा पहचान तो लूं क्या तुम्हें आता है? फिर आगे बात करेंगे। जो तुम्हें न आता होगा, उस संबंध में बात कर लेंगे। वह उनकी हंसी, और उसका पसीना... ठंडी रात, वह कागज वापस लौटा देता है। और वह कहता है, यह कागज वापस ले लें। क्योंकि किसी चीज को जानता हूं, यह कहने की हिम्मत नहीं पड़ती मेरी। तो गुरजिएफ खूब हंसता है। वे सब लोग खूब हंसते हैं। (..टेप ब्लैंक.है.)
...खोज रहा हूं और तुम भी खोजो। और तुम्हें पता चल जाए तो मुझे भी बता देना। और मुझे पता चल जाएगा तो मैं तुमको बता दूंगा। लेकिन अभी पता नहीं, अभी पता नहीं है। इतनी अगर सरलता हो तो सच में खोज हो सकती है। तब बाप-बेटे दोस्त हो गए। तब एक खोज पर निकल गए वे दोनों। तब कल वह उसे कुछ पता लगेगा तो वह बताएगा। और कौन जाने पहले उसे पता लग जाए! यह कोई पक्का थोड़े ही है? यह कोई पक्का...। किसी न किसी तरह से वह तुम्हारा नोइंग एटिट््यूट है, वह टूट जाएगा। वह बिलकुल टूट जाएगा। और बड़ी घटना घटती है, और वह टूटता है।

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