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रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-03)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

राष्ट्रभाषा और खंडित देश

मेरे प्रिय आत्मन्!
प्रश्नों के ढेर से लगता है कि भारत के सामने कितनी जीवंत समस्याएं होंगी। करीब-करीब समस्याएं ही समस्याएं हैं और समाधान नहीं हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी?
राष्ट्रभाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्रभाषा सिर्फ लादी जा सकती है और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्रभाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्रभाषा के काम चलाता है तो हम क्यों नहीं चला सकते। आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए।
लेकिन राष्ट्रभाषा का मोह बहुत महंगा पड़ रहा है। भारत की प्रत्येक भाषा राष्ट्रभाषा होने में समर्थ है इसलिए कोई भी भाषा अपना अधिकार छोड़ने को राजी नहीं होगी--होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि हमने जबरदस्ती किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बना कर थोपने की कोशिश की तो देश खंड-खंड हो जाएगा। आज देश के बीच विभाजन के जो बुनियादी कारण हैं उनमें भाषा एक है। राष्ट्रभाषा बनाने का खयाल ही राष्ट्र को खंड-खंड में तोड़ने का कारण बनेगा। लेकिन हमें वह भूत जोर से सवार है कि राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। अगर राष्ट्र को बचाना हो तो राष्ट्रभाषा से बचना पड़ेगा। और अगर राष्ट्र को मिटाना हो तो राष्ट्रभाषा की बात आगे भी जारी रखी जा सकती है।


मेरी दृष्टि में भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, सब राष्ट्रभाषाएं हैं। उनको समान आदर उपलब्ध होना चाहिए। किसी एक भाषा का साम्राज्य दूसरी भाषाओं पर बरदाश्त नहीं किया जाएगा, वह भाषा चाहे हिंदी हो और चाहे कोई और हो। कोई कारण नहीं है कि तमिल या तेलगू या बंगाली या गुजराती को हिंदी दबाए। लेकिन गांधी जी के कारण कुछ बीमारियां इस देश में छूटीं, उनमें एक बीमारी हिंदी को राष्ट्रभाषा का वहम देने की भी है। हिंदी को यह अहंकार गांधी जी दे गए कि वह राष्ट्रभाषा है। तो हिंदी प्रांत उस अहंकार से परेशान हैं और वह अपनी भाषा को पूरे देश पर थोपने की कोशिश में लगे हुए हैं। स्वाभाविक है कि इसकी बगावत हो। हिंदी का साम्राज्य भी बरदाश्त नहीं किया जा सकता हैं, किसी भाषा का नहीं किया सकता हैं। कोई अड़चन भी नहीं है। सिर्फ संसद में हमें यांत्रिक व्यवस्था करनी चाहिए कि सारी भाषाएं अनुवादित हो सकें। और वैसे भी संसद कोई काम तो कोई करती नहीं है कि कोई अड़चन हो जाएगी। सालों तक एक-एक बात पर चर्चा चलती है, थोड़ी देर और चल लेगी तो कोई फर्क नहीं होने वाला है। संसद कुछ करती हो तो भी विचार होता कि कहीं कार्य में बाधा न पड़ जाए। कार्य में कोइ बाधा पड़ने वाली नहीं मालूम होती हैं।
फिर मेरी दृष्टि यह भी है कि यदि हम राष्ट्रभाषा को थोपने का उपाय न करें तो शायद बीस पच्चीस वर्षों में कोई एक भाषा विकसित हो और धीरे-धीरे राष्ट्र के प्राणों को घेर ले। वह भाषा हिंदी नहीं होगी, वह भाषा हिंदुस्तानी होगी। उसमें तमिल के शब्द भी होंगे, तेलगू के भी, अंग्रेजी के भी, गुजराती के भी, मराठी के भी। वह एक मिश्रित नई भाषा होगी जो धीरे-धीरे भारत के जीवन में से विकसित हो जाएगी। लेकिन, अगर कोई शुद्धतावादी चाहता हो कि शुद्ध हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना है तो यह सब पागलपन की बातें है। इससे कुछ हित नहीं हो सकता है।

एक मित्र ने यह भी पूछा है कि क्या अंग्रेजी को देश से हटाया जाए?

अंग्रेजी को देश से हटाना बहुत आत्मघाती होगा। विगत दोे सौ वर्षों में अंग्रेजी के माध्यम से हम जगत से संबंधित हुए हैं। और विगत दो सौ वर्षों में जो भी महत्वपूर्ण निर्मित हुआ है, वह अंग्रेजी भाषा-भाषी लोगों के द्वारा निर्मित हुआ है। और आने वाले भविष्य में भी अंग्रेजी का जगत निरंतर विकास आविष्कार और खोज करता रहेगा। यदि अंग्रेजी को भारत से हटाने की चेष्टा की गई तो हम अपने हाथ से जगत से टूट कर एक कुएं में बंद हो जाएंगे। वह बहुत महंगा पड़ेगा। लेकिन हमको सुखद लग सकता है कि अंग्रेजी अंग्रेजोें की भाषा है इसलिए हटाओ। लेकिन अब सवाल अंग्रेजों की भाषा का नहीं, अब सवाल अंतर्राष्ट्रीय भाषा का है। और हमें अच्छा लग सकता है कि अंग्रेजों की भाषा है इसलिए हटाओ, तो अंग्रेजों की मोटरें, और रेलगाड़ियां और हवाई जहाज हटाने के संबंध में क्या खयाल है? सारी टेक्नालॉजी पश्चिम से आई है और अगर उस टेक्नालॉजी में दुनिया के साथ खड़े होना है तो अंग्रेजी पर अधिकार अत्यंत आवश्यक है। हमारे हित में है, पश्चिम के हित में नहीं है।
आज सारी दुनिया धीरे-धीरे अंग्रेजी जगत से संबंधित होती जा रही है। हर युग की एक भाषा होती है। उस युग की भाषा वही होती है जो उस युग को सर्वाधिक दान देती है। हमारे देश की कोई भी भाषा अभी जगत भाषा नहीं बन सकती क्योंकि जगत के विकास में हमारा आज कोई कंट्रीब्यूशन, कोई दान नहीं है। न हमने यंत्र दिए हैं, न समृद्धि दी है, न सुख दिया है। हमने विश्व को रूपांतरित करने के लिए आज कुछ भी नहीं दिया है। जो भाषा आज सर्वाधिक दान करेगी वही भाषा जगत की भाषा बनेगी। हमें इतने समर्थ होना पड़ेगा, इतने आविष्कारक, इतने वैज्ञानिक, तब हमारी कोई भाषा जागतिक महत्व की हो सकती है लेकिन आज अंग्रेजी से अपने को तोड़ना बहुत महंगा पड़ जाएगा।
सच तो यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद हमें अंग्रेजी को बचाने की तीव्रतम चेष्टा करनी चाहिए। सौभाग्य से या दुर्भाग्य सेे ऐतिहासिक संयोग था कि हमें डेढ़ सौ या दोे सौ वर्ष अंग्रेजी से संबंधित होने का मौका मिला। इस मौके को हम अपना वरदान सिद्ध कर सकते हैं। आज दुनिया में गैर-अंग्रेजी भाषी देशों में हमारा देश अकेला देश है जो ढंग से अंग्रेजी में सोच सकता है, विचार सकता है, बात कर सकता है। इस मौके को खो नहीं देना चाहिए। यह मौका हमने खोया है। बीस वर्षों में अंग्रेजी की क्षमता हमारी निरंतर कम हुई है क्योंकि हमको यह खयाल है कि अब अंग्रेजी की कोई जरूरत नहीं है। अंग्रेजी की जरूरत रोज-रोज बढ़ती चली जाएगी। न केवल अंग्रेजी की जरूरत पड़ेगी बल्कि भविष्य में हमें रूसी भी सीखनी पड़ेगी, चीनी भी सीखनी पड़ेगी। भविष्य में हमें और जगतिक भाषाओं पर भी अधिकार उपलब्ध करना पडेगा। जिस पर है, देश के नासमझ नेता उसको छोड़ने की बात कर रहे हैं। जिन पर नहीं है, उन पर अधिकार करने की बात तो बहुत दूर है।
अंग्रेजी बचाने की चेष्टा अत्यंत जरूरी है। लेकिन अंग्रेजी को कोई राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है इसलिए राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। राष्ट्रभाषा की जरूरत ही नहीं है। देश की सभी भाषाएं राष्ट्रभाषा की हैसियत से काम करें, अंग्रेजी हमारा अंतर्राष्ट्रीय संबंध की भाषा रहे और उसमें जितने निष्णात हो सकें, उतना अच्छा है। लेकिन अंग्रेजी के साथ गुलामी का दंश जुड़ गया। उस दंश से हमें बचना चाहिए और गुलामी ने कुछ अच्छाइयां भी दी हैं और कुछ बुराइयां भी दी हैं। बुराइयों को काट डालना जरूरी है, अच्छाइयों को बचा लेना जरूरी है। सिर्फ इसलिए कि वह गुलामी के क्षणों में हम पर आयीं, उनसे छूट जाना अपने ही हाथों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना होगा।
ठीक से समझा जाए तो मुसलमानों की हुकूमत इस देश में एक हजार साल चली और उसका कुल कारण इतना था कि मुसलमान संस्कृति ने भारत को कुछ भी शिक्षित करने की कोशिश नहीं की। अंग्रेज भी भारत में एक हजार साल चल सकते थे--ज्यादा चल सकते थे, लेकिन अंग्रेजों ने एक भूल की--उन्होंने भारत को शिक्षित करने की कोशिश की। उनकी शिक्षा ही बगावत का कारण बनी। हिंदुस्तान में जो बगावत, विद्रोह और क्रांति की भावना पैदा हुई, लोकतंत्र, स्वतंत्रता का जो खयाल पैदा हुआ वह पश्चिम से आया। भारत की कांग्रेस संस्था जिसने इस क्रांति को अगुआई दी, अंग्रेजों के द्वारा निर्मित संस्था थी। और भारत के सारे नेता, जिन्होंने इस देश को विचार दिए और क्रांति में लेे गए, पश्चिम में शिक्षित हुए थे और पश्चिम से स्वतंत्रता का खयाल लेकर लौटे थे और क्रांति का खयाल लेकर लौटे थे।
क्रांति का खयाल भारतीय नहीं है। भारत ने कभी क्रांति नहीं की है। विद्रोह और बगावत की बात भारतीय नहीं है। भारतीय मन संतोष और तृप्ति को मानता है, क्रांति और बगावत को नहीं। भारतीय मन सब स्थितियों में राजी होने को तैयार है--तोड़ने को, बदलने को नहीं। परिवर्तन की आकांक्षा बिलकुल अभारतीय है और अंग्रेजों के द्वारा इस देश में आई। विज्ञान की भी सारी क्षमता उनके मार्ग से हम तक आई। निश्चित ही गुलामी बहुत दुखद थी और गुलामी में जो भी हमारे पास आया उससे हमारा दुख का संबंध हो गया। लेेकिन हमें सोच समझ कर काम करना पड़ेगा। माना कि पैर में घाव हो जाए तो बहुत दुख होता है, हम घाव को अलग कर देते हैं, पैर को बचा लेते हैं। लेकिन पैर को ही अलग नहीं कर देते।
बहुत घाव लगे गुलामी में, लेकिन उन घावों के साथ कुछ पश्चिम की संस्कृति का श्रेष्ठ भी हम तक आया है। उसे बचा लेने की अत्यंत जरूरत है। क्यों? क्योंकि आधुनिकीकरण में--भारत के मॉर्डनाइजेशन में, वह पश्चिम से जो आया है उसकी अनिवार्य जरूरत पड़ेगी। अन्यथा हम बहुत पिछड़े हुए हो जाएंगे। आज विज्ञान की श्रेष्ठतम शाखाओं में जो भी उपलब्ध किया जा रहा है उसका अगर हम अनुवाद करने बैठें तो हम दोे सौ वर्ष तोे अनुवाद में लगा देंगे। और दोे सौ वर्ष जब तक हम इसका अनुवाद करेंगे तब तक विज्ञान ठहरा नहीं रहेगा। वह दोे सौ वर्ष आगे निकल चुका होगा। इतने जोर से क्रांति हो रही है कि अनुवाद के द्वारा काम नहीं हो सकता। हमें सीधा ही संपर्क बांधना होगा अन्यथा हम संपर्क से खो जाएंगे। और इस सीधे संपर्क के लिए अंग्रेजी को बचा लेना अत्यंत जरूरी है। और अब हम अंग्रेजी को हिम्मत से और प्रेम से बचा सकते हैं क्योंकि वह अब गुलामी की बात नहीं है, अब वह अंतर्राष्ट्रीय संबंध की और सीखने की बात है। अंग्रेजी तो अनिवार्य होनी ही चाहिए, उससे तो छुटकारा नहीं है। उससे छुटकारे की बात ही महंगी पड़ जएगी।
हमारा मन करता है क्योंकि अंग्रेजी सीखने की कठिनाई है। हमारा मन करता है, इससे छुटकारा हो जाए। युवक पसंद करेगा अंग्रेजी से छुटकारा हो जाए। असल में कठिनाई से बचने की कौन कोशिश नहीं करता है? लेकिन कठिनाइयों से कौम जो बचने की कोशिश करती है वह धीरे-धीरे कमजोर हो जाती है और नष्ट हो जाती है। पिछले, अतीत, इतिहास में भी हमने कठिनाइयों से बचने की कोशिश में बहुत कुछ गंवाया है। अब आगे हम कठिनाइयों से बचेंगे तो बहुत बुरी बात हो जाएगी। कठिनाइयों से नहीं बचना है। कठिनाइयों को स्वीकार करना पड़ेगा, उनकी चुनौती माननी पड़ेगी और उन कठिनाइयों से गुजर कर देश की नई पीढ़ी को ठीक से निर्मित करना होगा।
अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा की तरह हमें सीखनी ही है, उससे छुटकारा नहीं लेना है। और राष्ट्रीय भाषा विकसित हो सकती है, अगर थोपी न जाए। हिंदी धीरे-धीरे विकसित हो रही है। उसके प्रति प्रेम था दक्षिण में भी, बंगाल में भी, गुजरात में भी, सब तरफ उसके प्रति प्रेम था। लेकिन जैसे ही राष्ट्रभाषा का खयाल आया और हिंदी ने कोशिश की कि राष्ट्रभाषा बन जाए और हिंदी साम्राज्यवादी कुछ नेतागण पागल की तरह उसको राष्ट्रभाषा बनाने में लग गए, वैसे ही तनाव पैदा होे गया और रेसिस्टेंस शुरू हो गया। सारा मुल्क तन गया और उसने कहा, यह बरदाश्त नहीं किया जा सकता--नहीं करना चाहिए। गलत है बरदाश्त करना।
कोई भी चीज थोपी नहीं जा सकती और भाषाएं थोपने से विकसित नहीं होतीं। भाषाएं प्रेम से, अंतर्संबंधों से विकसित होती हैं। वे अपने आप विकसित होती चली जाती हैं। अगर देश साथ-साथ जीएगा तो धीरे-धीरे एक भाषा, आम बोलचाल की भाषा विकसित हो जाएगी। वह हिंदुस्तानी होगी। उसमें सब भाषाओं के शब्द होंगे और वह हिंदी से ज्यादा बहुमूल्य होगी, समृद्ध होगी। क्योंकि सभी भाषाओं की धाराएं उसमें आकर मिल जाएंगी। वह अकेली हिंदी नहीं होगी, वह एक बिलकुल ही नई भाषा होेगी। उस नई भाषा की दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं।
पहला कदम है, राष्ट्रभाषा की बात बंद कर दें।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि देश की एकता के लिए क्या किया जाए? देश का इंटिग्रेशन, राष्ट्रीय एकता कैसे हो?

उसमेें कुछ बातें सोचनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह कि देश की सारी राजनीति देश को खंड-खंड बनाए रखने पर जीवित है और वे ही राजनीतिज्ञ बातें करते हैं कि राष्ट्र एक कैसे हो? गुजरात का राजनीतिज्ञ जिंदा है गुजरात की अलग इकाई पर, महाराष्ट्र का राजनीतिज्ञ जिंदा है महाराष्ट्र की अलग इकाई पर, मैसूर का राजनीतिज्ञ मैसूर की अलग इकाई पर जिंदा है। मैसूर और महाराष्ट्र लड़ते रहेंगे, कि एक जिला मैसूर में हो कि महाराष्ट्र में, और ऊपर दिल्ली में बैठ कर वे विचार करेंगे--वे ही लोग, कि राष्ट्र की एकता कैसे हो? असल में राजनीतिज्ञ लोकल, स्थानीय स्वार्थ पर जिंदा है और राष्ट्रीय स्वार्थ की बात कर रहा है, इसलिए यह एकता संभव नहीं हो सकती है।
यह एकता संभव एक ही तरह से हो सकती है कि देश में स्थानीय सरकारों को विदा किया जाए, सिर्फ केंद्रीय सरकार हो; उसके अतिरिक्त देश की एकता नहीं हो सकती। देश में केंद्रीय सरकार हो, लेकिन राजनीतिज्ञ पसंद न करेगा। क्योंकि फिर इतने गवर्नर कैसे होंगे, इतने मुख्यमंत्री कैसे होंगे, इतने मंत्री, उपमंत्री कैसे होंगे? बहुत कठिनाई हो जाएगी। थोड़े से लोगों के हाथ में ही फिर सत्ता होगी। इतने लोग सत्ताधिकारी होने का मजा नहीं ले सकेंगे। उनकी सत्ताधिकारी होनी की इच्छा देश को खंड-खंड तोड़ती चली जाती है। फिर तेलंगाना चाहता है अलग राज्य बन जाए, पंजाब चाहता है अलग राज्य बन जाए, झारखंड चाहता है बिहार में अलग राज्य बन जाए, बरार चाहता है विदर्भ अलग राज्य बन जाए। क्योेंकि राजनीतिज्ञ देखते है कि एक प्रदेश दो हिस्सों में टूटे तो फिर दो मुख्यमंत्री होते हैं, दो मंत्रालय होते है, दो गवर्नर होते है। राजनीतिज्ञ को सुविधा मिलती है देश जितने हिस्सों में टूटे। राजनीतिज्ञ का हित इस पर निर्भर है कि देश टूटता चला जाए और फिर राजनीतिज्ञ ऊपर बैठ कर बातेें करते हैं कि राष्ट्र की एकता कैसे हो? सेमिनार बुलाता है, विचार करता है। वह विचार बेकार है, उनसे कुछ हल नहीं हो सकता है। अगर देश को एक बनाना है तो देश में एक केंद्रीय सरकार के अतिरिक्त और सरकारों की कोई जरूरत नहीं है। एक सरकार के रहते ही लोकल हित समाप्त हो जाएंगे, स्थानीय हित समाप्त हो जाएंगे। फिर नर्मदा का जल गुजरात का है कि मध्यप्रदेश का, यह सवाल नहीं रहेगा। फिर नर्मदा का जल नर्मदा का होगा। अभी बहुत झंझट है। फिर कौन सा जिला मैसूर में रहे कि महाराष्ट्र में, इस पर गोली नहीं चलेगी। क्योंकि जिला अपनी जगह है, अपनी जगह रहेगा। वह पूरे देश का होगा। एक केंद्रिय सरकार निर्मित होते ही देश एक होने लगेगा।
हां, देश के विभाजन एडमिनिस्ट्रेशन के आधार पर होने चाहिए--झोनल, चार टुकड़े हो जाएं। जोनल एडमिनिस्ट्रेशन की बात है, राजनीतिक विभाजन की बात नहीं है। इकाइयां हो जाएं, जैसे रेलवे की इकाइयां हैं। रेलवे में कोई झगड़ा नहीं है कि वेस्टर्न रेलवे और सेंट्रल रेलवे से युद्ध कर रही हो। कोई झगड़ा नहीं है, एडमिनिस्ट्रेटिव विभाजन है। देश का विभाजन प्रशासनिक होना चाहिए, राजनीतिक नहीं। पोलिटिकल विभाजन खतरनाक है। और अगर पोलिटिकल विभाजन चलता है तो एक-एक राज्य को हमें और छोटे राज्यों में तोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि छोटे राजनीतिज्ञ छुटभय्यों के लिए क्या किया जाए? उन्हें भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री और गवर्नर होना है। फिर उनको रोकने का कारण भी क्या है? फिर गुजरात एक क्यों हो? चार गुजरात क्यों न हों? सौराष्ट्र अलग क्योें न हो?
आखिर सौराष्ट्र के भी राजनीतिज्ञ हैं, उनको भी मजा लेने का हक है। जबसे गुजरात बना, तबसे वे बेचारे बड़े परेशान हैं। वे मुझे मिलते हैं। मेरे कई मित्र हैं उनमें। वह बड़े परेशान हैं। जब सौराष्ट्र था तो उनमें कोई मुख्यमंत्री था, कोई मंत्री था, कोई कुछ था। वह अब कुछ भी नहीं रह गए। तो उनकी चेष्टा अगर हो कि सौराष्ट्र अलग हो तो बुरा क्या है? मैं यह कहता हूं, या तो फिर देश को टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ दें, एक-एक गांव में एक-एक मिनिस्ट्री बना दो, तो तृप्ति हो सकती है। फिर भी होगी पक्का नहीं है, क्योंकि मोहल्ले लड़ सकते हैं। मुश्किल है मामला। राजनीति कहां रुकेगी कहना मुश्किल है।
तो एक रास्ता तो यह है कि एक-एक पंचायत एक-एक मंत्रालय हो जाए और या एक रास्ता यह है कि राष्ट्र की एक ही केंद्रीय सरकार हो। एक केंद्र होते ही देश के विभाजन की जो हमें शक्ल दिखाई पड़ती है, वह विदा हो जाएगी। चर्चिल ने हिंदुस्तान की आजादी मिलते वक्त एक बहुत दुखद भविष्यवाणी की थी। उसने कहा था कि दे तो रहे हो आजादी इनको, लेकिन बीस साल में ये वही हालत कर लेंगे जो अंग्रेजों से लेते समय मुसलमान साम्राज्य की थी कि बाप बेटे को मार रहा था, बेटा बाप को कैद कर रहा था। सारा देश खंड-खंड में बंट गया था। दिल्ली का सामरज्य सम्राट कहलाता जरूर था लेकिन आगरा भी वश में नहीं है। नाम ही रह गया। सारा मुल्क खंड-खंड था। एक-एक सिपहसालार, एक-एक सेनापति अपना राज्य बनाए हुए बैठा गया था। चर्चिल ने कहा था, बीस साल में, हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ अंग्रेजोंने मुसलमनोंसे जब भारत लिया था उसी हालत में भारत को पहुंचा देंगे। हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ उसकी भविष्यवाणी को पूरी करने में जी-जान से लगे हुए हैं। वे सब चेष्टा कर रहे हैं कि कहीं चर्चिल गलत न हो जाए। देश को खंड-खंड तोड़े चले जा रहे हैं। निपट मूढ़ता की बातें हैं। चंडीगढ़ कहां हो? गोलियां चलें, आदमी मरें, छोटी-छोटी बातों पर!
लेकिन उसका मूल कारण क्या है? मूल कारण है कि हम छोटे-छोटे सभी राजनीतिज्ञों को सत्ता-अधिकार का रस देने की तैयारी दिखला रहे हैं। और फिर वे ही लोग मिल कर कहते हैं कि राष्ट्र की एकता कैसे हो, तब बहुत कठिनाई हो जाती है। जैसे चोर मिल कर विचार करें कि देश में चोरी कैसे बंद हो? सब एक-दूसरे की तरफ देखें, हंसें, भाषण करें और विदा हो जाएं। चोर कैसे देश में चोरी बंद करवाने का विचार कर सकते हैं? हां, कर सकते--इसलिए--सिर्फ--ताकि पूरा देश सुन ले कि हम भी चोरी के खिलाफ हैं, ताकि चोरी करने में सुविधा हो जाए। अक्सर चोर ऐसा करते हैं। अगर कहीं चोरी हो जाए तो जिसने चोरी की है, उसके बचने का सबसे सरल उपाय यह है कि वह जोर से चिल्लाने लगे चोर के खिलाफ कि किसने चोरी की है, पकड़ो। तो फिर उसको कोई न पकड़ेगा क्योंकि इतना तो पक्का है कि इस आदमी ने चोरी नहीं की है। राजनीतिज्ञ चिल्लाते हैं कि देश की एकता चाहिए तो खयाल में आता है कि इन बेचारों का कोई हाथ नहीं है, ये निर्दोेष मासूम हैैं। और इनका ही हाथ है। इन्होंने देश को खंड-खंड किया है। देश खंड-खंड कहां है? सिवाय राजनीतिज्ञों के स्वार्थ के देश का कोई खंड-खंड होना नहीं है।
राजनीतिज्ञों को विदा करना पड़ेगा। छोटे-छोटे राजनीतिज्ञों की सबकी तृप्ति को रोकना पड़ेगा। एक राष्ट्र एक केंद्रीय सरकार के निर्मित होते ही बन जाएगा। एडमिनिस्ट्रेटिव--प्रशासनिक विभाजन होने चाहिए। जिले हों, प्रदेश हों, जोन हों, लेकिन उनकी कोई अपनी राजनीतिक केंद्रीय व्यवस्था न हो। अन्यथा कोई खतरा नहीं है, कोई कठिनाई नहीं है कि मद्रास कल कहे कि हम अलग होना चाहते हैं, रोकने का क्या हक है किसी को? और बंगाल कहे कि हम अलग होना चाहते हैं, रोकने का हक क्या है किसी को? जितनी सत्ता इन छोटे टुकड़ों के हाथ में इकट्ठी होती चली जाएगी उतना देश खंड-खंड होता चला जाएगा। और देश इतना बड़ा है--यह हमारा सौभाग्य है--लेकिन इतने बड़े देश को हम उसका बड़ा होना दुर्भाग्य में भी बदल सकते हैं। छोटे-छोटे टुकड़े भी काफी बड़े हैं हमारे। उन टुकड़ों में भी हम तृप्त हो सकते हैं।
पहला खतरा हमने हिंदुस्तान-पाकिस्तान को बांट कर किया है। बंटवारा शुरू हो गया। उसी दिन...वह भी राजनीतिक बंटवारा था, उसमें भी गहरे में राजनीतिक बंटवारे की ही बात थी। दो गवर्नर जनरल होने चाहिए, दोे प्रधानमंत्री होने चाहिए, दो राष्ट्रपति होने चाहिए। वह मजा भी गहरे में राजनीतिज्ञों का था। और हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ जो निरंतर कहते रहे कि हम बंटने न देंगे, हमारी लाश पर से बंटवारा होगा, वे सब जिंदा रहे। किसी की लाश पर से बंटवारा न हुआ। बंटवारा हुआ--आम आदमी की लाश से बंटवारा हुआ। और जो कहते थे कि बंटवारा हमारी लाश पर होगा उन्होंने बंटवारे पर दस्तखत किए। क्यों किए दस्तखत? कारण था; हिंदुस्तान के सब राजनीतिज्ञ बूढ़े हो गए थे। बूढ़े राजनीतिज्ञ खतरनाक सिद्ध हुए। उनको लगा कि अगर दोे-चार-पांच वर्ष और आजादी की लड़ाई चलानी पड़ी तो कम से कम हम राष्ट्र को मुक्त करने वाले न होंगे, कोई और होगा। और कम से कम सत्ता न कर पाएंगे, कोई और करेगा।
हिंदुस्तान जिद्द कर सकता था कि या तो स्वतंत्र होंगे तो अखंड या गुलामी ही बेहतर है; लेकिन खंड-खंड नहीं होंगे। लेकिन हिंदुस्तान का राजनीतिज्ञ बूढ़ा हो गया था। उस बूढ़े को डर था कि कहीं मैं मर जाऊं, तो न मालूम किसके सिर पर सेहरा बंधे आजादी का कि किसने आजादी ली! वे जल्दी में थे। वे अपने मरने के पहले इंतजाम कर लेना चाहते थे अपने ऐतिहासिक मूल्य का। उन्होंने जल्दी में स्वीकार कर लिया। फिर इसके बाद एक पागल दौड़ शुरू हुई। और हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ को गांधी जी कुछ हथियार दे गए हैं जो बड़े खतरनाक हैं। वे सिखा गए हैं कि अनशन कर दोे, बस...सब हो जाएगा। बस अनशन करो और बंटवारा करवा लो। अनशन करो और जो मांग पूरी करवानी हो वह करवा लो। हर आदमी को वह यह सिखा गए हैं कि अपने मरने की धमकी दोे और फिर सब पूरा हो सकता है। तो देश भर बंट रहा है। जो भी मरने की धमकी दे सकता है वह देश को दो टुकड़ों में, कहीं भी किसी भी प्रदेश को, दोे टुकड़ों में बंटवा सकता है। बस मरने की धमकी चाहिए।
इतना कमजोर हमारा मन हो गया है कि हम किसी भी धमकी, बलवे, हिंसा सब पर राजी हो जाते हैं और जो करना है वह करने नहीं देते हैं। नहीं, हिंदुस्तान के छोटे-छोटे राजनीतिज्ञ हिंदुस्तान को खंड-खंड में बांट देंगे। इनसे बचने की जरूरत है। हिंदुस्तान एक है। कृपा करके राजनीतिज्ञ बीच से हट जाएं और हम पाएंगे हिंदुस्तान एक है। वह बंटा कहां है? लेकिन बांटने वाले लोग ही कर रहे हैं कि देश बंट गया है और इसको एक करना है। उनकी एक करने की भाषा से ऐसा पता चलता है कि कम से कम ये बेचारे बंटवाने वाले नहीं हैं। राजनीतिज्ञ को अलग कर दें, देश कहां बंटा हुआ है? देश इकट्ठा है।
कौन लड़वा रहा है? वह राजनीतिज्ञ लड़वा रहा है। और बिना लड़वाए राजनीतिज्ञ के हाथ की ताकत कम हो जाती है। जब वह लड़वाता है तभी ताकत में होता है। जब वह एक जिले के लिए मैसूर और महाराष्ट्र को लड़वाते हैं तो मैसूर के राजनीतिज्ञ की भी ताकत बढ़ती है और महाराष्ट्र के राजनीतिज्ञ की भी ताकत बढ़ती है और वे अपने वोटर को समझाएं रखते हैं कि जिला हम लेकर रहेंगे। और अगर जिला लेना हैं तो मुझे मुख्यमंत्री बना रखो, तभी जिला आ सकता है, नहीं तो नहीं आ सकता है। और मजा यह है कि जनता को जिला कहां रहता है, इससे क्या फर्क पड़ता है?
मैंने सुना है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा तो एक पागलखाना था दोेनों मुल्कों की सीमा पर। उसके बंटवारे का भी सवाल आ गया। उसको बांटना पड़ेगा। अधिकारियों ने जाकर पागलों से कहा कि तुम कहां रहना चाहते हो, हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में? उन्होंने कहाः हम तो यहीं रहना चाहते हैं। उन्होंने कहाः यह सवाल नहीं है, तुम्हें कहीं जाना नहीं पड़ेगा, रहोगे तुम यहां, लेकिन तुम यह बताओ--हिंदुस्तान में जाना है कि पाकिस्तान में? पागल बड़ी मुश्किल में पड़ गए। उन्होंने कहाः जब रहेंगे यहीं, तब जाने का सवाल ही क्या है? अधिकारियों ने कहाः तुम समझते नहीं, ये बड़ी गहरी गंभीर बातें हैं। तुम तो यह बताओ, तुम जाना कहां चाहते हों? उन्होंने कहाः हम जाना ही नहीं चाहते। अधिकारियों ने कहाः घबड़ाओ मत, रहना यहीं रहेगा, लेकिन फिर भी तुम कहां जाना चाहते हो? वे पागल कहने लगे, हम सोचते थे, हम पागल हैं, आप कब से पागल हो गए हैं? फिर कोई रास्ता न मिला। अब पागलों को समझाया न जा सका कि रहोगे यहीं, लेकिन हिंदुस्तान या पाकिस्तान चले जाओगे। तब फिर यह हुआ कि बीच से पागलखाना बांट दिया गया। तब पागलखाने के दोे हिस्से हो गए। एक हिस्सा हिंदुस्तान में चला गया, एक पाकिस्तान में चला गया। बीच में एक दीवाल खींच दी गई। अब भी वह पागल कभी-कभी दीवाल पर चढ़ कर एक-दूसरे से बातें करते हैं और वे कहते हैं, बड़ी अजीब बात है। हम सब वहीं के वहीं हैं, सिर्फ एक दीवाल बीच में आ गई। हम हिंदुस्तान में हो गए, तुम पाकिस्तान में हो गए। कुछ समझ में नहीं आता। ये बाहर के पागल क्या करते रहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता!
हम और छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटते चले जाएंगे। राजनीतिज्ञ की ताकत हमें पागल बनाने में निर्भर है। जब वह हमें पागल बनाने में समर्थ हो जाता है तब उसमें ताकत आ जाती है। जब तक वह हमें पागल नहीं बना पाता, तब तक वह निहत्ता हैं, उसमें कोई शक्ति नहीं है। लेकिन राजनीतिज्ञ हमको किसी भी चीज पर पागल बना सकता है--हिंदू होने पर, मुसलमान होने पर, गुजराती-भाषी होने पर, मराठी-भाषी होने पर, ब्राह्मण होने पर, शूद्र होने पर, किसी भी तरह हमें पागल बना सकता है। राजनीतिज्ञ की ताकत हम किस मात्रा में पागल हो सकते हैं, इसी पर निर्भर है। अगर देश को एक करना है, तो देश के पागल होने की क्षमता कम करनी पड़ेगी। देश में सैनिटी बढ़ानी पड़ेगी, पागलपन कम करना पड़ेगा। हम छोटी-छोटी बातों पर इतने जल्दी पागल होते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। किसी ने खबर कर दी कि गाय की पूंछ कट गई, कुछ लोग पागल हो जाएंगे। अब गाय की अगर पूंछ कट भी गई हो तो भी दोे-चार हजार लोगों को मरने और मारने की जरूरत समझ में नहीं आती। और हमारे बच्चे अगर कभी भविष्य में पढ़ेंगे तो बहुत हंसेंगे कि हमारे बापदादे सब पागल थे क्या? गाय की पूंछ कट गई तो चार हजार लोगों को मरने-मारने की क्या जरूरत थी? गाय की पूंछ कट गई थी तो इलाज करवा देना था, प्लास्टिक सर्जरी करवा देनी थी। गाय की पूंछ फिर से जुड़ सकती थी, लेकिन गाय की पूंछ पर यह हो सकता है। एक पत्थर की मूर्ति का हाथ कट जाए तो हजारों लोग मर सकते हैं। औरतों के स्तन काटे जा सकते हैं, बच्चों की हत्या की जा सकती है, लोगों को आग लगाई जा सकती है।
अगर हम इस तरह पागल होने को तत्पर हैं तो यह देश इकट्ठा नहीं हो सकता। पागलपन तुड़वाता है। और राजनीतिज्ञ की ताकत--ध्यान रहे, हमें पागल बनाने में है। वह जितने दूर तक हमें पागल बना सकता है उतना शक्तिशाली रहेगा। जिस दिन हम पागल बनने से इनकार कर देंगे, एक बड़ी अदभुत घटना घटेगी, हमको राजनीतिज्ञ पागल मालूम होगा, जिस दिन हम पागल होने सें इनकार कर देंगे। हमें दिखाई पड़ेगा कि यह क्या पागलपन की बातें चला रखी हैं! राजनीतिज्ञ पागल मालूम होगा अगर जनता थोड़ी सैनिटी, थोड़ा स्वस्थ होने की कोशिश करे। राष्ट्र को एक करना हो तो उसे स्वस्थ करना होगा। उसके पागलपन के बुनियादी कारण हटाने पड़ेंगे।

अब एक मित्र ने पूछा है अभी कि आप कहते हैं कि कोई हिंदू न रहे, कोई मुसलमान न रहे, तो फिर शादी हो जाएगी और खून अशुद्ध मिल जाएगा, तो सब पतन नहीं हो जाएगा?

अब ये पागलपन की बातें हैं। खून सभी शुद्ध होता है, हिंदू का भी और मुसलमान का भी। एक मुसलमान का खून निकाल कर लेबोरेटरी में चले जाएं और अगर कोई डाक्टर बता दे कि यह मुसलमान का खून है तो आश्चर्य, मिरेकल समझना। कोई खून नहीं बताया जा सकता कि हिंदू का है, कि मुसलमान का है, कि ईसाई का है, कि ब्राह्मण का है, कि शूद्र का। खून सिर्फ खून है। खून शुद्ध और अशुद्ध नहीं होता, चमड़ी शुद्ध और अशुद्ध नहीं होती, हड्डियां शुद्ध और अशुद्ध नहीं होतीं। दोे हड्डियां निकाल कर जांच नहीं की जा सकती कि ब्राह्मण की शुद्ध हड्डी कौन सी है और भंगी की अशुद्ध हड्डी कौन सी है? खून से कोई शुद्धता का संबंध नहीं है।
और आश्चर्य की बात यह है कि जितने निकट का खून होता है उतने ही अस्वस्थ बच्चे पैदा हो सकते हैं। जितना ही दूर का खून होता है उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होते हैं। हम भी मानते हैं, सामान्यतया अपनी बहन से हम शादी नहीं करते हैं। क्यों? क्या तकलीफ है? एक ही तकलीफ है कि खून बहुत करीब है और करीब खून से उतना टेंशन पैदा नहीं होता कि बच्चा स्वस्थ हो सके इसलिए दूर शादी करते हैं। बचाते हैं कि बहन से शादी न हो जाए, फासले पर शादी करते हैं। अगर बहन से शादी करने में बचाव करते हैं तो क्या उचित न होगा, और फासले पर शादी करने से और स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे? अब तो प्राणीशास्त्री जानते हैं कि क्रास-ब्रीडिंग का कितना बेहतर परिणाम है। एक अंग्रेज सांड को ले आएं और हिंदू गाय से दोस्ती करवा दें तो जो बच्चा पैदा होगा, वह हिंदू बैल से कभी पैदा नहीं हो सकता। इतना फासले का ब्रीडिंग जब होता है तो स्वस्थ जानवर पैदा होते हैं।
आदमी के साथ भी नियम वही है। जितना फासले का संबंध होगा उतने स्वस्थ लोग पैदा होंगे। हिंदू-मुसलमान का संबंध ज्यादा अच्छा है बजाय हिंदू और हिंदू के। हिंदुस्तानी और चीनी का संबंध ज्यादा अच्छा है बजाय हिंदुस्तानी-हिंदुस्तानी के। एशिया के रहने वाले का संबंध योरोप के निवासी से ज्यादा बेहतर है बजाय एशिया के भीतर। और अगर किसी दिन हमने चांद-तारों पर कोई जाति खोज ली तो इंटरप्लेनेटरी विवाह जितने अच्छे होंगे उतने और कहीं नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उस प्लेनेट पर करोड़ों वर्षों से जो विकास हुआ होगा और इस प्लेनेट पर जो विकास हुआ है, अगर एक लड़की और लड़का हिम्मत करके शादी कर लेंगे तो ये दोनों विकास की धाराएं मिल कर जिस बच्चे को पैदा करेंगे, वह दोनों विकास की धाराओं का वंशज होगा। वह उतना ही कीमती, समृद्ध बुद्धि और शरीर लेकर पैदा होगा।
मगर हमें पागल बनाने की तरकीबें हैं कि खून...शुद्ध खून खोजना चाहिए। शुद्ध खून का कोई मतलब ही नहीं होता है। बीमार खून और स्वस्थ खून होता है, लेकिन शुद्ध और अशुद्ध खून नहीं होता है। कोई खून शुद्ध नहीं है खून की तरह; सभी शुद्ध हैं या सभी अशुद्ध हैं। चमड़ी के फासले बनाए हुए हैं कि गोरी चमड़ी और सफेड़ चमड़ी। और पता है कि यह फासला कितना होता है? एक पिगमेंट होता है छोटा सा, जो काली चमड़ी को काला बना देता है--और मुश्किल से छटांक का चैथाई हिस्सा। उतना पिगमेंट जिसके शरीर में होता है उसकी चमड़ी काली हो जाती है; उतना नहीं होता है तो गोरी हो जाती है। वह जो चैथाई छटांक का हिस्सा है पिगमेंट का, वह भी इसलिए है कि ज्यादा और कम धूप भीतर ले जाई जा सकें। काली चमड़ी इसलिए हैं कि जहां बहुत धूप हैं, वहां चमडी रोके धूप को,भीतर ना जाने दें। काली चमड़ी प्रोटेक्टिव है, सुरक्षा करती है, भीतर धूप को नहीं जाने देती है। सफेद चमड़ी--सर्द हो जगह तो ठीक है, गर्म जगह हो तो बड़ी गलत है। वह धूप को भीतर घुस आने देती है और मुश्किल में डाल देती है। काली और सफेद चमड़ी में कुछ ऊंचा और नीचा नहीं है।
आप बाजार में निकलते हैं, काला छाता लगा कर। सफेद छाता लगा कर नहीं निकल जाते हैं--क्यों? सफेद छाता बेमानी है क्योंकि काला छाता रोशनी को रोकने का काम करता है, किरणों को वापस लौटा देता है। सफेद छाता सब किरणों को पी जाता है। उस काले छाते में काला पिगमेंट है, जो किरणों को वापस भेज देता है। वह काला छाता हम लगाते हैं बिना फिकर किए--कि काला क्यों लगाएं, सफेद छाता लगाएं! गोरा छाता बहुत अच्छा होगा, लेकिन धूप में काला छाता ही बेहतर है। जहां गर्म मुल्क हैं, श्रम करने वाले लोग हैं--जिन्हें दिन भर धूप में रहना है, उनकी चमड़ी अगर काली न होगी तो वे जिंदा नहीं रह सकते।
लेकिन किसने कहा कि काली चमड़ी सुंदर नहीं होती है? काली चमड़ी का अपना सौंदर्य है, सफेद चमड़ी का अपना सौंदर्य है। कोई नीचा-ऊंचा नहीं है। कोई नीचा-ऊंचा नहीं है! हमने कृष्ण को काला बनाया है। कृष्ण का मतलब ही काला है, सांवला। और हमने काला इसलिए बनाया है कि हमने काले के रंग का सौंदर्य भी समझा है। सच बात यह है कि गोरे रंग में एक विस्तार होता है लेकिन गहराई नहीं होती, काले रंग में गहराई होती है जो गोरे रंग में नहीं होती है। गोरे रंग में एक हमला होता है, गोरा रंग एग्रेसिव है, हमलावर है। अगर सड़क से गोरा रंग निकल जाए तो हमें देखना ही पड़ता है, वह आक्रामक है, हिंसात्मक है। काला रंग अनाक्रामक है, वह हमला नहीं करता है। आपको देखना हो तो देखें, प्रतीक्षा करता है, वेट करता है, अहिंसात्मक है। वह काला रंग जो है, वह हिंसा नहीं करता है। देखा है, नदी जब गहरी हो जाती है तब सांवली हो जाती है, उथली होती है तो सफेद हो जाती है। गहराई आ जाती है नीले रंग में। आकाश नीला दिखाई पड़ता है बहुत गहराई के कारण, और कोई कारण नहीं है। काले रंग में एक गहराई है। काले रंग का अपना सौंदर्य है, सफेद रंग का अपना सौंदर्य है। लेकिन कौन कहता है कि सफेद अच्छा और काला बुरा है। जब कोई ऐसा कहता है तो भूल की बातें करता है। गलत बातें करता है और इस तरह से पागलपन पैदा होता है।
अब अमरीका में पागलपन है कि नीग्रो को मारो, क्योंकि वह काला है। बड़ी अजीब बात है। हिंदुस्तान में भी वही है। हमने तो वर्ण की जो व्यवस्था की, वह कलर पर निर्भर है। वर्ण का मतलब रंग। असल में काले रंग के लोगों को हमने शूद्र बना दिया है, नीचे धक्का दे दिया है। वर्ण का मतलब है रंग। वह भी रंग के आधार पर तय हुआ था कभी। गोरी चमड़ी के लोेग ऊपर बैैठ गए, वह ब्राह्मण हो गए, क्षत्रिय हो गए, वैश्य हो गए। काली चमड़ी के लोगों को उन्होंने नीचे धक्के देकर शूद्र बना दिया, अस्पृश्य बना दिया कि छूने योग्य नहीं है। वह रंग का ही विभाजन था। लेकिन रंग से कोई संबंध है? काले रंग का अपना आनंद है, सफेद रंग का अपना आनंद है। फिर स्वार्थ-स्वार्थ की बात है। किसी को काला रंग अच्छा लग सकता है, किसी को सफेद रंग अच्छा लग सकता है। लेकिन इसमें कोई वैल्युएशन नहीं हो सकता है, इसमें कोई ऊंचा-नीचा नहीं है। इसमें कोई नीच और ऊंच नहीं है। यह सब पागलपन हैैं, छोड़ने पड़ेंगे। वर्ण का पागलपन छोेड़ना पड़ेगा, जाति का पागलपन छोड़ना पड़ेगा, धर्म का पागलपन छोड़ना पड़ेगा तो देश राजनीतिज्ञ के हाथ से अभी मुक्त हो जाए। और देश अगर राजनीतिज्ञ के हाथ से मुक्त हो जाए तो देश सदा एक है, देश को बांटा कहां है?
बंटा कहां है देश? सच तो यह है कि अगर सारी दुनिया राजनीतिज्ञों से मुक्त हो जाए तो पूरी मनुष्यता एक है। इसलिए मुझसे यह मत पूछें कि देश को एक कैसे करें। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि देश को अनेक करने की तरकीबें भर पहचान लें और उन तरकीबों में न फंसें, देश एक हो जाएगा।
जैसे मैंने यह मुट्ठी बांधी और मैं किसी से जाकर पूछूं कि यह मुट्टी कैसे खोलंू? तो वह आदमी कहेगा कि खोलने का कोई सवाल ही नहीं है। कृपया करके बांधें मत। मुट्ठी अपने से खुल जाएगी। मुट्ठी को खोलना नहीं पड़ता है, बांधना पड़ता है। बांधना क्रिया है, खोलना क्रिया नहीं है। शब्द में मालूम पड़ता है, खोलना क्रिया है। खुलना अपने से हो जाता है। खुलना स्वभाव है। एक होना मनुष्य का स्वभाव है। बंटना, खंडित होना हमारी तरकीब है। बहुत व्यवस्था और मेहनत से बंटना पड़ता है। अगर हम न बटें तो हम एक तो अभी हो जाएंगे। अगर मैं अपनी लड़की को न समझाऊं कि तू हिंदू है और मेरा पड़ोसी अपने लड़के को न समझाए कि तू मुसलमान है, तो उनको प्रेेम से रोकने वाला कोई न होगा। वे आपस में पास आ सकते हैं और प्रेम कर सकते हैं। लेकिन मैं समझा रहा हूं कि तू हिंदू है और उसका आदमी समझा रहा है कि तू मुसलमान है। हम दीवालें खड़ी कर रहे हैं बीच में। वे लड़की और लड़के के बीच एक फासला खड़ा कर रहे हैं, वह करीब न आ सकेंगे, उनके बीच एक सख्त दीवाल खड़ी हो गई है।
नहीं, यह मत पूछिए कि एक कैसे हों, इतना ही पूछिए कि अनेक कैसे हो गए हैं? औैर अनेक होने की तरकीब समझ लीजिए और उससे मुक्त हो जाइए। एकता स्वाभाविक रूप से फलित हो जाएगी। मनुष्य एक है, शैतानों ने उसे अनेक किया हुआ है। वे बड़े मेहनती हैं। शैतान सदा से मेहनती हैं। वह भारी श्रम करके अनेक करते हैं। वे दिन-रात चेष्टा में लगे हैं कि आदमी को कैसे तोडें। और जब शैतान देखता है कि अब तोड़ना इतना ज्यादा हो गया है कि आदमी घबड़ाता है तो शैतान ही नई शक्ल लाकर कहता है कि सब एक हो जाओ। भाइयो, हिंदू-मुलसमान सब भाई बन जाओ। वह देखता है कि अब तोड़ा नहीं जा सकता है आगे, तो एक करने की बात करो। थोड़ा लोग रिलैक्स हो जाएं, फिर तोड़ो। फिर तोड़ने की बात करो।
एक सज्जन ने पूछा है कि हिंदू और मुसलमान एक क्यों नहीं हो सकते हैं?
हिंदू-मुसलमान हैं इसीलिए एक नहीं हो सकते। आदमी-आदमी एक हो सकता है, हिंदू-मुसलमान एक नहीं हो सकते। वह हिंदू-मुसलमान होने का बोध ही उन्हें दोे कर रहा है और अगर वे चेष्टा करके एक भी हो जाएं--जैसा कभी-कभी होता है, गले मिलने का भी तो इन्तजाम करते हैं न--कि हिंदू-मुसलमान गले मिल रहे हैं, फोटो उतर जाती है, अखबार में छप जाती है, बस इससे ज्यादा ‘एक’ कुछ भी नहीं होता है। वह जो गले मिले थे, दूसरे दिन फिर छुरे खींच लेते हैं। वह जो एक होने की बात है, उसकी बुनियाद में हमने मान रखा है कि अनेक को हम स्वीकार करते हैं। हम हिंदू को हिंदू मानते हैं, मुसलमान को मुसलमान मानते हैं।
यह बड़े मजे की बात है, कोई बच्चा हिंदू की तरह पैदा होता है कि कोई बच्चा मुसलमान की तरह पैदा होता है? बच्चे सिर्फ आदमी की तरह पैदा होते हैं। पुरानी पीढ़ी उनको बिगाड़ने का उपाय करती है। और सिखाना शुरू करती है कि तुम यह हो। उनमें जहर डालती है। और जहर डाल कर बड़े होते-होते तक उनको पक्की तरह से हिंदू-मुसलमान बना देती है। अगर मैं हिंदू हूं और मेरे घर में एक बच्चा पैदा हो और मैं मुसलमान मित्र को दे दूं और वह मुसलमान के घर बड़ा हो, तो क्या अपने आप वह बच्चा कभी भी पता लगा पाएगा कि वह हिंदू है? कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय ही नहीं है। उस बच्चे को कभी भी पता नहीं चलेगा क्योंकि बच्चा कोई होता ही नहीं। बच्चा तो खाली होता है बिना लेबल के। लेबल हम लगाते हैं। बच्चा कोई लेबल लेकर नहीं आता है, वह सिर्फ आदमी की तरह आता है। फिर हम लेबल लगाते हैं और लेबल लगाने से उपद्रव शुरू हो जाते हैं।
नहीं, लेबल लगाने बन्द करने पड़ेंगे। जो बाप अपने बेटे को प्रेम करता हो, कृपा करके उस पर लेबल न लगाएं। जो मां अपने बेटी को प्रेम करती है वह कृपा करके उस पर लेबल न लगाए। अगर हम यह तय कर लें कि हम अपने बच्चों को लेबल नहीं लगाएंगे और लगे-लगाए लेबल को उखाड़ कर फेंक देंगे तो कौन है, जो हमें अलग करेगा? कोई हमें अलग करने को नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि मैं कहता हूं कि आप गीता न पढ़ें, कुरान न पढ़ें। मैं मुसलमान नहीं हूं, मैं कुरान पढ़ता हूं। मैं हिंदू नहीं हूं, मैं गीता पढ़ता हूं। मैं ईसाई नहीं हूं, मैं बाइबिल पढ़ता हूं। मुझे कौन रोकता है? सच बात तो यह है कि जब मैं कोई न रह जाऊंगा तो मैं निष्पक्ष मन से गीता, कुरान, बाइबिल तीनों को पढ़ सकूंगा। जब तक मैं मुसलमान हूं, तब तक मैं कुरान एक ढंग से पढ़ता हूं, और गीता दूसरे ढंग से पढ़ता हूं। जब तक मैं हिंदू हूं तब तक गीता को मैं पवित्र ढंग से पढ़ता हूं और कुरान को ऐसे पढ़ता हूं जैसे--जैसे स्टेप-मदर, दूसरी मां, दूसरे के बेटे को देखती है। स्टेप-मदरली ढंग से पढ़ता हूं। उसको मैं ऐसे नहीं पढ़ता, जैसे गीता को पढ़ता हूं। नहीं, जिस दिन मैं कोई नहीं हूं उस दिन मैं सबको पढूंगा। उस दिन सारी दुनिया की संस्कृति का, सारा अतीत...का मैं वारिस हो जाऊंगा। अभी मैं सारी दुनिया की संस्कृति का वारिस नहीं हूं। अभी मैं एक धारा का वारिस हूं। जब मैं सारी दुनिया का वारिस हो जाऊंगा तब जीसस से मुझे कुछ सीखना है तो मैं मुक्त हूं, और मोहम्मद से कुछ सीखना है तो मैं बंधा नहीं हूं और कृष्ण से मुझे कुछ सीखना है तो मेरे मन के द्वार खुले हैं। मैं सबसे सीख सकूंगा। सारी दुनिया का सारा अनुभव मेरा हो जाएगा।
क्या हमारे बच्चे ज्यादा समृद्ध न हो जाएंगे अगर वे सिर्फ आदमी हो जाएं? नहीं, हम उन्हें दरिद्र बनाते हैं क्योंकि हम उन्हें हिंदू बना देते हैं, मुसलमान बना देते हैं। और हमारा लेबल का मोेह इतना गहरा है कि उसके कारण हम करीब-करीब अंधे हो जाते हैं, हम दूसरे की तरफ कभी देखते ही नहीं। अब जीसस जैसे प्यारे आदमी को पढ़ने से हम वंचित रह जाएंगे क्योंकि हम ईसाई नहीं हैं। अब जीसस जैसा आदमी बहुत अदभुत है। उससे जो वंचित रह गया, वह दुनिया के बहुत बड़े महत्वपूर्ण धन से वंचित रह गया। मोहम्मद की अपनी शान है--जो उनसे वंचित रह गया, वह एक बहुत प्यारे आदमी को जानने से वंचित रह गया। जिसनेे कृष्ण को नहीं जाना, वह चूक गया, अक हीरे से चूक गया, जो मुफ्त में मिल सकता था। जो महावीर को प्रेम नहीं कर पाया, उसकी जिंदगी में, उसकी आत्मा में कुछ कमी रह जाएगी। जिसने बुद्ध के चरणों में बैठ कर थोड़ी देर राहत की श्वास न ली, उसकी शांति में कुछ कमी रह जाएगी।
और मजा यह है कि इनमें से जो एक दे सकता है वह दूसरा नहीं दे सकता। वे सब यूनिक हैं, वे सब बेजोड़ हैं। बुद्ध कुछ और दे सकते हैं, महावीर कुछ और, मोहम्मद कुछ और--जीसस कुछ और, जरथुस्त्र कुछ और। लेकिन अब तक हमने अपने बच्चों को एक धारा से जोड़ कर बाकी दुनिया की धारा से वंचित किया है। भविष्य में एक नागरिक पैदा करना है जो विश्व का नागरिक हो तो हमें धर्मों से, जातियों से, रंगों के पागलपन से मुक्त होना पड़े और तब हम एक हैं। एक होना हमारा स्वभाव है। अनेक हम किए गए हैं तरकीब से। तरकीब से हम सावधान हो जाएं, हमें एक होने से कोई भी नहीं रोक रहा हैं।
एक-दोे छोटे प्रश्न और।

एक मित्र ने पूछा हैः वह भी एक जीवित सवाल है। हिंदुस्तान में साधु-संन्यासी, सज्जन जिनको हम कहें, वे सब आधुनिकता के बड़े विपरीत हैं। वे कहते हैं, आधुनिक हुए तो अपना सब खो जाएगा, भारतीय न रह जाओगे। अतीत की संपदा है, वह खो जाएगी। वे कहते हैं कि आधुनिक होने से बचना, अन्यथा अपनी संस्कृति खो जाएगी।

असल में जो संस्कृति जिंदा होती है, वह आधुनिक होकर ही बचती है। आधुनिक होकर खोती नहीं हैं। सिर्फ जिस संस्कृति को मरना हो वहीं आधुनिक होने से बचती सकती है। जैसे मैंने कल भी श्वासें ली थीं और अगर मैं यह सोचूं कि अगर मैं आज भी श्वास लूंगा तो कलवाला आदमी मर जाएगा, तो फिर मैं मरूंगा। मुझे आज श्वास लेनी पड़ेगी। तो ही मैं जिंदा रह सकता हूं। आधुनिकता का मतलब है कि आज वर्तमान में श्वास लेने की क्षमता। और जिंदगी रोज बदलती जाती है, जिंदगी को रोज आधुनिक होना पड़ता है। उसे रोज नये कदम उठाने पड़ते हैं, उसे नये रास्तों पर चलना पड़ता है, नई बातें सीखनी पड़ती हैं, नये वातावरण, नये माहौल से समायोजित होना पड़ता है। भारत एक अगर कसम लेकर बैठ जाए कि हम तो सब पक्के वही रहेंगे, जो हम पीछे थे, हम तो अपनी चोटी बढ़ा कर रखेंगे, नहीं तो भारतीय नहीं रह जाएंगे, हम तो जनेऊ पहनेंगे नहीं तो भारतीय नहीं रह जाएंगे...।
और यह छोटे-मोटे भारतीय का मामला नहीं है, जिनको हम बड़े-बड़े भारतीय कहते हैं, उनकी बुद्धि भी उतनी ही छोटी होती है। उसमें कोई बड़ा फर्क नहीं होता है। मदनमोहन मालवीय जैसा आदमी अंग्रेज से हाथ मिलाने में डरते थे कि कहीं अपवित्र न हो जाएं। जो कौम इतनी घबड़ाई हुई हो जाएगी कि किसी से हाथ न मिला सके, उस कौम का कोई भविष्य नहीं हो सकता। इंग्लैंड गए थे गोलमेज कांफ्रेंस में, तो गंगाजल साथ में ले गए थे पीने के लिए। थेम्स नदी का जल जो है, वह भगवान का बनाया हुआ नहीं है। वह गंगा ही का जल भगवान ने बनाया हुआ है। वह गंगा का जल उनको जाता रहा पीने के लिए। क्या पागलपन है? ऐसी कौम जिंदा नहीं रह सकती है। इधर शंकर जी की पिंडी छिपाए हुए थे पगड़ी में भीतर, जिससे शंकर जी रक्षा करते रहें। कोई अपवित्र छू न जाए। ऐसे आदमी के साथ शंकर जी भी अपवित्र हो जाएंगे। जो ऐसा अपवित्रता से डरा हुआ है, वह जिंदा कैसे रहेगा? यह आदमी जिंदा रहने की कोशिश नहीं कर रहा है। पूरी कौम हमारी ऐसी हो गई है, तो हम ऐसे डर गए और हम अपनी प्राचीनता को किसी भी तरह घसीटने के लिए कुछ भी दलीलें दिए चले जाते हैं।
मैंने एक किताब पढ़ी। एक सज्जन ने वह किताब लिखी है। हिंदू धर्म वैज्ञानिक है, उसने सिद्ध किया है। उसने बड़े मजे की बातें लिखी है। इतने मजे की बातें कि पश्चिम के वैज्ञानिकों को पता चल जाए तो उनको भी बड़ा लाभ हो। उसने लिखा है कि हमने चोटी क्यों बढ़ाई, उसका वैज्ञानिक कारण है। जैसे कि मकानों के ऊपर लोहे के डंडे लगाते हैं बिजली गिराने को, जिससे बिजली का असर न हो। हम बड़े वैज्ञानिक थे। हमने चोटी बांध कर खड़ी कर ली थी जिससे बिजली पार हो जाए। हमारी चोटी की वैज्ञानिकता सिद्ध कर रहे हैं। हम सारी दुनिया में अपने को हंसी-योग्य सिद्ध कर लेने में लगे हैं। हम पागलपन में लगे हैं। इस भांति हम जिंदा न रह सकेंगे। उस किताब में लिखा है, खड़ाऊं हिंदू क्यों पहनते हैं। नस दब जाती है पैर की, उस नस के दबने के कारण आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। तो वैसी नस को पैर से काट ही डालो तो बड़ा अच्छा हो जाए! उसको दबा ही दोे। अब तो दबाने के बड़े उपाय हैं, खड़ाऊं पहनने की जरूरत नहीं है। नस को दबा ही दोे, नसबंदी बहुत अच्छी होगी। यह इस तरह की नसबंदी बहुत अच्छी हो जाएगी, बर्थ-कंट्रोल के लिए बड़े फायदे की होगी। हम अपनी व्यर्थता को भी आधुनिक ढांचा पहनाने में उत्सुक हैं।
नहीं, जो व्यर्थ है उसे छोड़ना पड़ेगा और अगर उसे हम नहीं छोड़ें तो उसके साथ हम मूढ़ बनते हैं। हम सारे जगत में हंसने योग्य हुए चले जा रहे हैं। हम व्यर्थ ही अपने आप हंसने योग्य बनने की कोशिश में लगे हैं। हमें आधुनिक होना पड़ेगा। आधुनिक होना जीवन का धर्म है। आधुनिक होने का मतलब है कि जो आज है जिंदगी’ हमें उसके योग्य होकर खड़ा होना पड़ेगा। इसका यह मतलब नहीं है--आधुनिक होने का मतलब पाश्चात्यीकरण नहीं हैं। मॉर्डनाइजेशन का मतलब वेस्टर्नाइजेशन नहीं है। पाश्चात्यीकरण की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन आधुनिकीकरण तो करना ही पड़ेगा। जिंदगी को सब तरफ से नया करना पड़ेगा। नहीं करेंगे तो हम मरेंगे। किसी और को उससे नुकसान नहीं होगा।

एक मित्र ने पूछा है कि सभी साधु-संत फिल्मों के विरोध में है। आपका क्या कहना है?

यह अंतिम प्रश्न। इस संबंध में बात कर लेनी उचित है क्योंकि इधर भारत में ऐसा समझा जा रहा है कि फिल्मों के कारण लोग बिगड़े जा रहे हैं। यह बिल्कूल उल्टी बात है। बिगड़े हुए लोगों की वजह से अच्छी फिल्में बनाना मुश्किल हो रहा हैं। फिल्मों की वजह से कोई नहीं बिगड़ रहा है। कोई फिल्म किसी को बिगाड़ नहीं सकती, लेकिन लोग अगर बिगड़े हों तो अच्छी फिल्म को चलाना मुश्किल है, कठिन है। और फिल्म एक अर्थ में बहुत बड़ा काम कर रही है। फिल्म एक अर्थ में बड़ा काम यह कर रही है, कि जो काम आप करना चाहते हैं, और नहीं कर पाते, वह फिल्म में देख कर राहत मिलती है। और शांति से घर लौट आते हैं। अगर फिल्में न हों तो आप यह काम सड़कों पर खड़े होकर करेंगे और उपद्रव बढ़ेगा, कम नहीं होगा--इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं।
अगर फिल्म में एक आदमी डिटेक्टिव फिल्म देखता है और हत्या की घटना देखता है और एक कार को दौैड़ते देखता है और उसके पीछे पुलिस को लगे देखता है तो जब तेज गति हो जाती है तो आपने देखा है कि फिल्म के सारे लोगों की रीढ़ सीधी हो जाती है, फिर कोई कुर्सी से टिका नहीं रह जाता। उनके भीतर भी कुछ हो रहा है, वे भी तैयार हो गए हैं, जैसे कार की स्टेयरिंग पर वे खुद ही बैठे हों। उनके हाथ-पैर तैयार हो गए हैं, श्वास बंद हो गई है, पलकों ने झपकना बंद कर दिया। एक क्षण चूक जाएं तो चूक जाएं। इतने थ्रिल में उनके भीतर जो उत्तेजना की आकांक्षा है, वह तृप्त हो जाती है। अगर फिल्में अलग कर दी जाएं तो यह उत्तेजना हमें और रास्तों से लानी पड़ेगी। विनोबा जी, आचार्य तुलसी और इस तरह के लोग फिल्मों के बड़े विरोध में हैं। वह कहते हैं, फिल्में अश्लील हैं और अश्लील फिल्में नहीं होनी चाहिए। और मैं आप से कहता हूं, अश्लील फिल्मों के कारण आदमी कम अश्लील है। अगर फिल्में अश्लील न हों तो आदमी को अश्लील होना पड़ेगा।
और कौन कहता है कि फिल्मों की वजह से अश्लीलता है? कालिदास ने तो फिल्म नहीं देखे थे, जहां तक मेरा खयाल है। लेकिन अगर उनके नाटक पढ़ें तो आज की कोई फिल्म उतनी अश्लील नहीं है, जितना कालिदास रहे होंगे। कालिदास जंगल में भी जाएं तो फलों में उन्हें फल नहीं दिखाई पड़ते हैं, स्त्रियों के स्तन ही दिखाई पड़ते हैं। तो यह दिमाग फिल्म से बिगड गया था? कालिदास का दिमाग फिल्म ने खराब किया था? यह खजुराहो के मंदिर कोई फिल्म एक्टरों ने खोदें हैं? खजुराहो के मंदिरों पर मैथुन के चित्र किसने खोदे हैं? यह तो आज के नहीं है। काम-सूत्र किसने लिखा है? यह तो आज का नहीं है और भर्तृहरि के शंृगार-शतक किसने रचे हैं? यह तो इसमें फिल्म प्रोड्यूसर का इसमें कोई भी हाथ सिद्ध नहीं किया जा सकता है। आदमी जो चाहता रहा है हमेशा से वह अलग-अलग माध्यम में उसे देना पड़ा है। आदमी बदले तो बदलाहट हो सकती है, माध्यम बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। अब वे कहते हैं कि नग्न तस्वीरें न हों, लेकिन आदमी नग्न तस्वीरें देखना चाहता है।
मैं दिल्ली में था। साधुओं ने एक जलसा किया था अश्लील पोस्टरों के खिलाफ भूल से वह मुझे भी बुला ले गए। कई लोग भूल से मुझे बुला लेते हैं फिर पीछे बहुत पछताते हैं। उन्होंने समझा,के मैं भी अश्लील पोस्टर के खिलाफ में...अश्लील पोस्टर के खिलाफ में कौन न बोलेगा? तो मैं बड़ा हैरान हुआ। मैंने उन साधुओं से कहा कि पहली तो बात यह है कि आप साधु हो, आप अश्लील पोस्टर देखने गए कहां, आप किसलिए गए? तुम्हें किसी ने बुलाया था अश्लील पोस्टर देखने को? तुम किसलिए अश्लील पोस्टर देखने जाते हो, तुम्हें क्या परेशानी है? उन्होंने कहा कि हम तो इसलिए देखने जाते हैं कि लोग उनको देख कर बिगड़ न जाएं। कुछ लोग ऐसे हैं, अगर आप सिनेमा में पकड़ जाएं और विद्यार्थी हैं तो आपका शिक्षक आपको समझाएगा और अगर शिक्षक पकड़ा जाए तो वह कहेगा कि हम जरा देखने आए थे कि कौन-कौन विद्यार्थी आए थे। बहुत मजे की बातें हैं, यह साधु पोस्टर देखने जाते हैं, बेचारे--कृपा करके कि दूसरे लोग न बिगड़ जाएं और सच बात यह है कि साधु जितनी नग्न तस्वीरें देखना चाहता हैं उतना कोई भी नहीं देखना चाहता हैं। क्योंकि साधु ने जिंदगी से अपने को तोड़ लिया है। उसकी आकांक्षाएं भीतर दबी रह गई हैं।
एक संन्यासी मेरे पास मेहमान थेे तो मैंने यह घटना वहां कही।वह संन्यासी मेरे पास रहे दोे-चार दिन, निकट से बातें कीं तो फिर वह सच्चा बोल सके। साधु से सच्ची बातेें निकलवानी बहुत कठिण हैं क्योंकि उसे झूठी जिंदगी जीनी पड़ती है। वह सच्ची बात नहीं कह सकता हैं। मेरे पास रहे, धीरे-धीरे उनको लगा कि नहीं, सच्ची बात कही जा सकती है। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं नौ साल का था तब मैं साधु हो गया। मेरे पिता दीक्षित हुए और घर में कोई न था, मां मर गई थी इसलिए पिता दीक्षित हुए होंगे। स्त्रियां जिंदा रहें तो भी साधुता की प्रेरणा देती हैं और मर जाएं तो भी। जिंदा स्त्रियों से भी कई लोग भाग कर साधु होते हैं और कुछ लोग मरी हुई स्त्रियों की वजह से साधु होते हैं। पिता साधु हो गए। मां मर गई। अब बेटा कहां जाए? तो उन्होंने उसेे भी दीक्षा दे दी। नौ साल के बच्चे को दीक्षा दे दी। अब उन संन्यासी की उम्र बावन वर्ष है। बावन्न वर्ष का साधु है वह, लेकिन उनकी बुद्धि नौ वर्ष पर रुक गई है, उससे आगे नहीं बढ़ी। बढ़ भी नहीं सकती क्योंकि जिंदगी से अलग खड़े हो गए। तो उन्होंने मुझसे कहा कि मेरे मन में सदा होता है कि टॉकीज से बाहर इतनी भीड़ रहती है, भीतर होता क्या है? कभी मैं भीतर नहीं गया और आपसे मैं दिल की बात कह सकता हूं। ऐसा नहीं हो सकता है, कि, कोई तरकीब से मैं टॉकीज के भीतर जाकर एक दफा देख लूं कि वहां हो क्या रहा है। इतनी भीड़ लगी रहती है। मंदिर के सामने तो क्यू लगता ही नहीं, कोई आता ही नहीं। मगर वहां पैसा दे-दे कर लोग खड़े हैं, मुश्किल से टिकट मिलती है, फिर भी भीतर जाते हैं। वहां भीतर हो क्या रहा है?
हमें समझ में नहीं आएगी उनकी तकलीफ, क्योंकि हमने भीतर जाकर देखा है। उनकी तकलीफ वही समझ सकतें हैं। मैंने कहाः मैं भिजवा देता हूं। पड़ोस से एक मित्र को बुलवाया। उन्हीं की जाति के वहे संन्यासी थे। उन मित्र से मैंने कहाः मुझे तो तीन घंटा खराब करने का समय नहीं हैं। आप इन्हें किसी फिल्म में ले जाएं। उन्होंने कहा माफ करिए, अगर किसी ने मुझे देख लिया कि साधु महाराज को फिल्म दिखला रहा हूं तो मैं तक परेशानी में पड़ जाऊंगा। उन्होंने कहा कि मैं कंटोनमेंट एरिया में ले जा सकता हूं, वहां हमारी जाति का कोई भी नहीं है। मगर वहां अंग्रेजी फिल्म चलती है। साधु अंग्रेजी नहीं जानते। पर उन साधु ने कहाः कोई हर्जा नहीं, देख तो लेंगे। समझेंगे नहीं तो कोई बात नहीं अंग्रेजी ही सही। वह बेचारे जब रात अंग्रेजी फिल्म देख कर लौटे तो उनके मन से जैसे बोझ उतर गया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हलका हो गया। मेरे मन में मोक्ष जाने की इतनी आकांक्षा न थी जितनी टॉकीज के भीतर जाने की थी। और अगर मैं मर जाता इसी आकांक्षा को लेकर तो पता नहीं टॉकीज में डोर-कीपर की जगह पैदा होता अगले जन्म में, या क्या होता!
मैंने उन संन्यासीयों से कहाः आप क्यों परेशान हैं अश्लील पोस्टरों से? और ध्यान रहे, आदमी नग्न स्त्री को देखना चाहता है। क्यों? बजाय पोस्टर को मिटाने के यह सोचना जरूरी है कि आदमी नग्न स्त्री में इतना उत्सुक क्यों है? उत्सुकता का कारण क्या है? और कारण साधु-संतों ने ही दिया है। कारण यह है कि हम स्त्री-पुरुष को इतनेे दूरी पर खड़ा करते हैं कि करीब-करीब वे एक जाति के प्राणी नहीं, दोे जाति के अलग जानवर हो जाते हैं। अलग-अलग खड़ा करके इतने फासले को बड़ा करते हैं कि एक दूसरे को जानने की उत्सुकता शेष रह जाती है। और फासले इतने ज्यादा होते हैं कि जानने का मौका ही नहीं मिलता है एक-दूसरे को कि जान पाएं, परिचित हो पाएं। अगर लड़के और लड़कियों को करीब और निकट खड़ा किया जा सके, वे एक-दूसरे के साथ खेलते हों, दौडते हो, तैरते हों तो अश्लील पोस्टर धीरे-धीरे विदा हो जाएंगे।
अभी मैंने एक घटना पढ़ी। सिडनी में एक नग्न अभिनेत्री को लाया गया प्रदर्शन के लिए। बीस लाख की आबादी का गांव है। बहुत प्रचार किया लेकिन दोे आदमी टाकीज में देखने गए, सिर्फ दोे आदमी। अहमदाबाद में कितने आदमी जाते, सोच सकते हैं? अगर दोे आदमी भी पीछे रह जाते तो चमत्कार है। सभी लोग जाते--जाना ही पड़ता। इसमें कोई उपाय न था। कोइ विकल्प नहीं था। हां, इतना फर्क पड़ता कि कुछ लोग सामने के दरवाजे से जाते, कुछ सज्जन लोग पीछे के दरवाजे से जाते। यह फर्क पड़ सकता था, लेकिन जाना तो पड़ता। दोे आदमी देखने आए सिडनी में, एक मिरेकल है, चमत्कार है। एक नग्न सुंदरी का नृत्य हो रहा हो और पूरी टॉकीज खाली हो और दोे आदमी देख रहें हैं, यह बात क्या है? सिडनी में क्या बात हो गई है? स्त्रीयां और पुरुष इतने निकट खड़े हो रहे हैं कि यह बात बेहूदी है, अगर हम यह घोषणा करें कि एक आदमी का नंगा हाथ दिखाया जाएगा तो आप देखने जाएंगे? नहीं देखने जाएंगे, क्योंकि नंगे हाथ तो देख चुके हैं और कोई कारण नहीं है।
लेकिन एक जमाना ऐसा था--बट्र्रेंड रसल ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि एक जमाना ऐसा था कि इंग्लैंड में विक्टोरियन एज में स्त्रियां इतना बड़ा घाघरा पहनती थीं कि उनका पैर का अंगूठा भी नहीं दिखाई पड़ता था। पैर का अंगूठा भी नहीं दिखाई पड़ता था! घाघरा चारों तरफ जमीन को छूता था। तो बट्र्रेंड रसल ने लिखा है कि उस जमाने में बड़ी अजीब बात थी कि अगर किसी स्त्री का पैर का अंगूठा दिख जाए तो बड़ी रस-विमुग्धता पैदा हो जाती थी। चित्त रसमग्न हो जाता था, काव्य का झरना बहने लगता था, एकदम कविता निकलने लगती। पैर का अंगूठा देख कर ! अब हम हसेंगे कि पैर का अंगूठा देख कर कविता निकलती थी! पागल हो गए हैं। अब तो पैर के अंगूठे सब तरफ दिखाई पड़ रहे हैं, कोई कविता नहीं निकलती। सिडनी में नंगी स्त्री को देख कर भी कोई कविता नहीं निकली। हिंदुस्तान में अभी भी निकलती है।
अश्लील फिल्म बनानी पड़ती है, अश्लील पोस्टर लगाना पड़ता है। हमारी मांग है। और अगर अश्लील पोस्टर न लगेगा और नंगी फिल्म न होगी तो खतरा है। हम सड़क पर स्त्री को वस्त्र पहने चलने देंगे या न चलने देंगे। हम उसके वस्त्र छीन सकते हैं। स्त्रियां सड़क पर निर्वस्त्र नहीं की जा रही हैं क्योंकि निर्वस्त्र स्त्रियों को देखने की टॉकीज में व्यवस्था है, नहीं तो खतरा पूरा है। यह जो हमारे मन की मांग है उसको पूरा करंगे। और हम कर भी लेते हैं। मौका मिलता है तो फिल्म पर हम निर्भर रहते भी नहीं हैं। वह तो मौका नहीं मिलता है तब तक हम फिल्म पर निर्भर रहते हैं। मौका मिल जाए, हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए, फिर हम फिल्म की फिकर करते हैं? फिर हमे जो स्त्री मिल जाए, नंगी कर लेते हैं। हम कर लेंगे। वह हमारे भीतर है। साधु-संन्यासी उससे छुटकारा नहीं दिला सकते क्योंकि वे ही उस वृत्ति को जन्माने में मूलभूत कारण हैं। स्त्री और पुरुष को निकट लाना पड़ेगा, सरलता से निकट लाना पड़ेगा। वे जितने निकट आ जाएंगे उतने ही उनके फासले से पैदा हुई बीमारियां दूर हो जाएंगी।
भारत में जलता हुआ प्रश्न वह भी है। विशेषकर युवकों के सामने बहुत बड़ा सवाल है। वे बड़ी कठिनाई में पड़ गए हैं। पुरानी सारी व्यवस्था उनकी निंदा करती है और उनके चित्त और उनकी शिक्षा उन्हें मुक्त करने की व्यवस्था करती है। वे बहुत कठिनाई में हैं। कल उस संबंध में मैं बात करना चाहूंगा कि युवकों की पीढ़ी, उनकी भूखी पीढ़ी, उत्तप्त पीढ़ी, विद्रोही पीढ़ी, वह एक सवाल है। उस संबंध में भी सवाल पूछे गए हैं।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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