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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-02)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं)-ओशो

दूसरा-प्रवचन

समर्पण के फूल


प्रश्नः मौत जो है वह आदमी की निश्चित होती है पहले से या अकस्मात यानी एक्सीडेंट से?

दोनों ही बातें हैं। एक अर्थ में तो निश्चित होती है मौत। इस अर्थ में निश्चित होती है जिस अर्थ में बाजार से घड़ी खरीदें तो गारंटी होती है, दस साल चलेगी। लेकिन घड़ी को चलाएं, कम चलाएं, व्यवस्था से चलाएं तो बीस साल भी चल सकती है। पटक दें, तोड़ डालें तो पांच दिन भी न चले। तो आदमी का शरीर तो एक यंत्र है। आत्मा की तो कोई मौत होती नहीं। और शरीर बिलकुल यंत्र है। शरीर की ही मौत होती है। जब एक बच्चा पैदा होता है तो मां-बाप से जो भी वीर्यकण उसे मिले हैं, उन वीर्यकणों से बना हुआ शरीर कितना चलेगा, उसकी इनर कैपेसिटी होती है। उतना चल सकता है। लेकिन अगर बहुत व्यवस्था दी जाए तो सवा सौ साल भी चल सकता है। और कम व्यवस्था दी जाए तो पचहत्तर साल में भी खत्म हो जाए।

तो उम्र जो है, आत्मा की तो कोई उम्र नहीं है। इसलिए उम्र का सवाल धर्म का सवाल नहीं है। उम्र का सवाल विज्ञान का सवाल है। तो उम्र तो शरीर की है। और शरीर यंत्र है। अगर हिरोशिमा पर एटम बम गिरा दिया जाए तो एक लाख आदमी एक ही साथ मर जाएं।
उनके हाथ की रेखाएं देखी जाएं तो सबकी रेखाएं उसी दिन समाप्त नहीं होती। उसमें कोई बच्चा था, कोई बूढ़ा था। कोई बूढ़ा अभी मरने वाला था, कोई बच्चा अभी सत्तर साल जीने वाला था। पर एक लाख आदमी एक साथ मर जाता है। यह मृत्यु, जितना शरीर चल सकता था, उसके पहले हो गई। अगर बहुत व्यवस्था दी जा सके तो शरीर को बहुत लंबाया जा सकता है।
अब जैसे जहां बहुत सुविधा है, वहां की औसत उम्र लंबी हो गई। जैसे स्वीडन है, या नार्वे है, या अमरीका है। उनकी औसत उम्र अस्सी साल छूने लगी। उसका मतलब केवल इतना है कि शरीर है यंत्र, व्यवस्था पर निर्भर होता है। और आत्मा की कोई उम्र होती नहीं। इसलिए यह सवाल अगर ठीक से समझें तो धार्मिक नहीं है।
यह सवाल बिलकुल ही वैज्ञानिक है। और विज्ञान ही उसका उत्तर देने वाला है। धर्म इसका उत्तर देगा तो सब उत्तर गलत होंगे। असल में धर्मों को कोई हक भी नहीं है कि शरीर के संबंध में कोई उत्तर दें। मगर, हमारी आदतें हैं तो हम उत्तर दिए चले जाते हैं। वह तो बिलकुल वैज्ञानिक का उत्तर होगा। और इसलिए शरीर एक यंत्र भी नहीं है, सैंकड़ों यंत्रों का जोड़ है।
तो यह भी हो सकता है, आपका पूरा शरीर मर जाए और आपकी आंखें दूसरे के काम में आती रहें। आपका पूरा शरीर मर जाए, आपका फेफड़ा किसी दूसरे के हृदय में धड़कता रहे। धीरे-धीरे हम पूरे शरीर के अलग-अलग पाट्र्स को बचा लेंगे। और ऐसा हो सकता है कि आपके मरने के एक हजार साल तक भी आपकी आंखें देखती चली जाएं। दूसरे-दूसरे लोगों में बदलती चली जाएं। वह तो यंत्र है, उसका उपयोग हो सकता है। एक कार बिगड़ गई, उसमें से एक पुर्जा निकाल कर हम दूसरे में लगा सकते हैं। इसलिए इस सवाल को मैं धार्मिक नहीं कहता। एक वैज्ञानिक सवाल है, और वैज्ञानिक से ही पूछा जाना चाहिए। और उसी को उसका उत्तर भी देना चाहिए। वैज्ञानिक जो उत्तर देगा, वह मैंने कहा आपको।

प्रश्न: समर्पण क्यों और कैसे होना चाहिए?

समर्पण इसलिए कि हम व्यक्ति दिखाई ही पड़ते हैं, हैं नहीं। हम अलग दिखाई ही पड़ते हैं, हैं नहीं। यह बड़ी भ्रांत प्रतीति है कि हम अलग हैं। यह जो समस्त जीवन है, हम उससे जुड़े हुए हैं। ऐसे ही जैसे पत्ते को यह भ्रम हो सकता है कि वह वृक्ष से अलग है। और यह तो भ्रम उसको होता ही है कि दूसरे पत्तों से अलग है। उसी शाखा पर लगे दूसरे पत्तों से अलग है। यह तो पत्ते को भ्रम होता ही है। क्योंकि पड़ोस का कोई पत्ता सूख जाता है, वह तो नहीं सूखता उसके साथ। अगर एक ही होता तो वह भी सूख जाता। पड़ोस के पत्ते को कोई तोड़ लेता है तो वह तो नहीं टूटता उसके साथ। अगर एक ही होता तो टूट जाता। पड़ोस में कोई बच्चे की तरह पत्ता है नया, ताजा, कोई बूढ़े की तरह पत्ता है। तो हर पत्ता अपने को अलग समझे यह बिलकुल स्वाभाविक है। यद्यपि सत्य नहीं है। लेकिन अगर पत्ता थोड़ा भीतर प्रवेश करे और देखे कि हम तो एक ही शाखा से जुड़े हैं। और एक ही शाखा से रस मुझमें भी आता है और बगल के पत्ते में भी जाता है पड़ोस में। तो फिर वह यह भ्रांति नहीं रह जाएगी कि मैं अलग हूं। एक शाखा दूसरी शाखा से अलग दिखाई पड़ेगी। लेकिन अगर दोनों भीतर प्रवेश करें तो पता चलेगा कि एक ही वृक्ष से जुड़ी हैं। और एक वृक्ष दूसरे वृक्ष से अलग दिखाई पड़ता है। लेकिन दोनों वृक्ष नीचे जाएं तो पता चलेगा एक ही जमीन से जुड़े हैं।
हम जितने गहरे जाएंगे, उतना हमें पता चलेगा कि ‘मैं’ जैसी बात भ्रांति है। समर्पण का इतना ही मतलब है। समर्पण का अर्थ है कि मैं भ्रांति हूं। टूटे हुए अलग आयलैंड की तरह। द्वीप की तरह मैं नहीं हूं। मैं सागर की तरह हूं, जहां सारी लहरें जो मेरे पड़ोस में दिखाई पड़ रही हैं, वे मुझसे भिन्न नहीं हैं। और जिससे वे जुड़ी हैं, उससे अलग होना या अपने को अलग समझना अहंकार है। और जिससे सब लहरें जुड़ी हैं, उसके साथ एक होकर लीन हो जाना समर्पण है।
समर्पण का कुल मतलब इतना है कि वह जो विराट है हमारे चारों तरफ, जिससे हम पैदा होते हैं, जिसमें हम जीते हैं और जिसमें हम लीन हो जाते हैं, उससे हम क्षण भर को भी अपने को अलग न करें। अलग न करने के भाव का नाम समर्पण है। वह विराट के प्रति लहर का समर्पण है। लहर चाहे तो अपने कोे अलग समझ सकती है। कोई रोकने नहीं आएगा। सागर उससे कहेगा नहीं कि तुम अलग नहीं हो। लेकिन लहर का अपने को अलग समझना व्यर्थ के दुख पैदा करवाएगा। क्योंकि कभी लहर उठेगी, कभी गिरेगी। अगर वह सागर से एक समझ ले तो फिर लहर को मरने का डर नहीं रहेगा। लेकिन अगर लहर अपने को अलग समझे तो मरने का डर रहेगा। फिर तो मरना पड़ेगा। पास की लहरें मर रही हैं।
समर्पण का अर्थ तो इतना ही है कि हम विराट के हिस्से हैं। विराट की ही श्वास हममें चलती है। विराट का ही जीवन हममें से निकलता और फैलता है। विराट को परमात्मा कहें, सत्य कहें, जो भी नाम देना चाहें, हम अलग नहीं हैं। यह जिस दिन प्रतीति होगी, उसी दिन समर्पण हो जाएगा। समर्पण क्या? के संबंध में कह रहा हूं।
और समर्पण कैसे हो, उसके संबंध में भी यही कहना है कि अगर आप समझ लें अपनी वस्तुस्थिति कि सत्य क्या है? तो समर्पण हो जाएगा। अगर आप समझें, जैसा कि हम सब समझते हैं कि हम अलग हैं तो कठिनाई है खड़ी। चिंताएं हैं, दुख हैं, पीड़ाएं हैं--वे सब अलग होने के ही उपद्रव हैं। मौत आएगी तो मेरी आएगी, बीमारी आएगी तो मुझ पर आएगी। हारूंगा तो मैं हारूंगा।
तो मुझे जीतना है, मुझे बीमार नहीं होना, मुझे मरना नहीं है। लेकिन एक बार मुझे यह पता चल जाए कि ‘मैं’ हूं ही नहीं। मुझसे बहुत बड़ी शक्ति मेरे भीतर से प्रकट हुई है। होगी प्रकट, लौट जाएगी। स्वस्थ होगी, अस्वस्थ होगी, जीतेगी, हारेगी--यह वह जाने। तो मैं तत्काल निशिं्चत हो जाता हूं। चिंता विदा हो गई।
धार्मिक व्यक्ति निशिं्चत हो जाता है। अधार्मिक व्यक्ति चिंता से घिरा रह जाता है। अधार्मिक व्यक्ति की बड़ी चिंताएं हैं। उसकी एग्ंजाइटी बड़ी गहरी है। धार्मिक व्यक्ति को चिंता का कोई कारण ही नहीं है। चिंता तभी तक है जब तक मैं हूं। और जब मैं नहीं हूं तो चिंता कौन करे? और किस बात की करे? और क्यों करे? इस सत्य को समझते ही कि हम जुड़े हैं चारों तरफ से, समर्पण संभव हो जाता है।
समर्पण किया नहीं जाता, समर्पण एक्ट नहीं है। वह आपका कृत्य नहीं है। कोई आदमी कहे कि मैं परमात्मा के प्रति अपने को समर्पण करता हूं। कभी नहीं कर पाएगा क्योंकि वह कह रहा है कि मैं परमात्मा के प्रति अपने को समर्पण करता हूं। उसके समर्पण में भी वह मौजूद रहेगा। और कल वह कह सकता है कि वापस लेता हूं अपना समर्पण, तो परमात्मा क्या करेगा? जिसने दिया था, वह वापस ले सकता है।
तो समर्पण जो है, सरेंडर जो है, इट इ.ज नाॅट एन एक्ट, यह कृत्य नहीं है कि आप कर सकें। यह एक हैपनिंग है, कि आपकी समझ में आ जाए तो आप अचानक पाते हैं कि समर्पित हो गया। कर नहीं सकते। ऐसा नहीं कह सकते कि मैंने समर्पण किया। जिस दिन होता है, उस दिन आप इतना ही कह सकते हैं कि मैं कैसा पागल था कि मैंने समर्पण नहीं किया था। अब तो समर्पण हो गया है। इसकोे आप वापस नहीं लौटा सकते। यह पाॅइंट आॅफ नो रिटर्न है। इससे आप वापस नहीं लौट सकते। लेकिन अगर किया है तो वापस लौट सकते हैं।
इसलिए ‘कैसे’ जब आप पूछते हैं तो मैं उसे कृत्य नहीं कहता। आप करके नहीं समर्पण कर पाएंगे। समझ कर। अगर आपको समझ में आ जाए कि सारा जीवन जुड़ा है, सूरज ठंडा हो जाए, आप ठंडे हो जाएंगे। हवाएं न चलें कल, हवाओं से आॅक्सीजन विदा हो जाए, आप विदा हो जाएंगे। बचेंगे नहीं फिर एक क्षण भी। कल पृथ्वी ठंडी हो जाए, समाप्त हो जाएंगे। जुड़े हैं हम पूरे वक्त। इस पूरे जोड़ के बीच हमारा होना है।
 हमारा होना इनडिपेंडेंट नहीं है। हमारा होना स्वतंत्र होना नहीं है। हमारा होना एक बहुत विराट शक्ति पर प्रतिपल परतंत्र है। प्रतिपल उस पर निर्भर है। यह निर्भरता की समझ आपको समर्पण में ले जाएगी। और समर्पण के बिना धर्म है ही नहीं। समर्पण के बिना कोई, कोई अनुभूति नहीं है जीवन की।
जिस दिन व्यक्ति स्वयं को खोता है, उसी दिन परमात्मा को पाने का हकदार हो जाता है। और जब तक अपने को बचाता है तब तक परमात्मा को खोए रहता है। लेकिन हजार तरह के धार्मिक लोग दिखाई पड़ेंगे, जो समझते हैं कि परमात्मा को खोज रहे हैं; जो समझते हैं परमात्मा की पूजा कर रहे हैं; जो समझते हैं परमात्मा को पाकर रहेंगे। लेकिन उनका समर्पण कहीं भी नहीं है। तब धर्म धोखा हो जाता है। चलता बहुत है, परिणाम उसका कुछ भी नहीं होगा।
अगर ठीक से समझें तो धर्म बहुत गहरे अर्थों में आत्मघात है। बहुत गहरे अर्थों में। साधारण आदमी जब सुसाइड करता है तो सिर्फ शरीर को ही खत्म करता है। धार्मिक आदमी असल में अपने ‘मैं’ को ही समाप्त कर देता है। समाप्त कर देता है, कहने में ठीक बात नहीं आती। अनुभव करता है। जब देखता है चारों तरफ तो समाप्त हो जाता है।
लाओत्सु का एक वचन है कि जब तक मैंने खोजा परमात्मा को तब तक न पा सका। क्योंकि मैं तो मौजूद ही था खोजने वाला। मैं मौजूद था उसे नहीं पा सका। जब मैंने खोज भी छोड़ दी, और जब मैंने खोजने वाले को भी छोड़ दिया, तब मैंने पाया कि मैं पागल कहां खोजता फिर रहा था, वह यहीं था। बस मेरी मौजूदगी की वजह से मुझे दिखाई नहीं पड़ता था। उसने कहा है कि जब मैं एक सूखे पत्ते की तरह हो गया, हवाएं पूरब ले जातीं तो मैं पूरब जाता, क्योंकि मैं एक सूखा पत्ता हो गया था। हवाएं पश्चिम जातीं तो मैं पश्चिम जाता, मेरी अपनी कोई मंजिल न थी। मुझे कहीं पहुंचना न था। हवाएं पश्चिम ले जाती तो मैं राजी था, हवाओं पे सवार हो जाता; पूरब ले जाती तो पूरब चला जाता। जमीन पर गिरा देती तो मैं विश्राम करता और आकाश में उठा देती तो मैं सूरज का आनंद लेता। इस भाव-दशा का नाम समर्पण है।
तो समर्पण कृत्य नहीं है। समर्पण इस बात की प्रतीति है कि हम अलग नहीं हैं, विराट से जुड़े हैं। बस समर्पण हो जाएगा। और जैसे ही समर्पण होगा वैसे ही जिंदगी में क्रांति हो जाएगी। तब एक आदमी आपको गाली दे रहा है तब आपको ऐसा नहीं लगेगा कि आपको गाली दी जा रही है। अब आप नहीं हैं। और अब आपको ऐसा भी नहीं लगेगा कि वह आपका दुश्मन हो सकता है, क्योंकि वह भी विराट का हिस्सा है। तब क्रोध असंभव हो जाएगा। तब चिंता असंभव हो जाएगी। अशांति असंभव हो जाएगी। तब जो हुआ है, उसकी स्वीकृति आ जाएगी। समर्पण का जो परिणाम होगा वह टोटल एक्सेप्टिबिलिटी होगा। फिर जो भी हो रहा है उसकी स्वीकृति आ जाएगी। फिर हम कभी कहेंगे ही नहीं कि इससे अन्यथा भी होना चाहिए। जो हो रहा है, ठीक हो रहा है।
ऐसा देखें, खोजें, चारों तरफ जिंदगी को तो पता चलने लगेगा कि नाहक ही, नाहक ही मैं अपने को सम्हाले हुए परेशान हो रहा हूं। और जिसे सम्हाल रहा हूं वह वैसे ही है जैसे कोई आदमी हवा को बांधने के लिए मुट्ठी बांध ले। और जितनी जोर से मुट्ठी बांधे, उतना ही पाए कि हवा मुट्ठी में और भी नहीं रह गई। हवा को पकड़ना हो तो मुट्ठी बांधना राज नहीं है; हवा को पकड़ना हो तो मुट्ठी खोलना राज है। अब यह बड़ा उलटा राज है। क्योंकि दुनिया की सब चीजें पकड़नी हो तो मुट्ठी बांधनी पड़ती है। सिर्फ हवा को पकड़ना हो तो मुट्ठी खोलनी पड़ती है। जितनी खुली मुट्ठी है उतनी ज्यादा हवा उसके पास होगी। जितनी बंद मुट्ठी है उतनी हवा कम हो जाएगी।
तो दुनिया में सब चीजें पानी हों तो अहंकार की जरूरत है। सिर्फ परमात्मा के मामले में नियम बिलकुल हवा जैसा हो जाता है। उसे पाना हो तो अहंकार सबसे ज्यादा गैर-जरूरी चीज है। जितना अहंकार होगा उतनी मुट्ठी बंद हो जाएगी, और उसका पाना मुश्किल हो जाएगा। तो समर्पण जो है वह एंटीडोट, वह सिर्फ अहंकार की विपरीत यात्रा है। उससे ज्यादा कुछ भी नहीं।

(प्रश्न ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आप पूछते हैं कि आत्मा के आवागमन और कर्म के संबंध में कुछ...सच तो यह है कि आत्मा का आवागमन शब्द ठीक नहीं है। लेकिन हमारी भाषा में काम चलाना पड़ता है। आवागमन तो सिर्फ शरीरों का होता है। आत्मा तो है, सो है। एक शरीर थक जाता है जीर्ण हो जाता है तो बदल जाता है। आत्मा न तो आती, न जाती। आत्मा है, जो है उसी का नाम आत्मा है। लेकिन हमारी तरफ से काम चल सकता है। हमारी तरफ से हम ऐसा सोच सकते हैं। क्योंकि निश्चित ही एक शरीर छूटता है, दूसरा शरीर, तीसरा शरीर। यह सारी यात्रा शरीरों की बदलाहट की है। आप अपने घर में कपड़े लाते हैं। और कपड़े बदल लेते हैं, तब आप कभी नहीं कहते कि यह मेरा आवागमन हो रहा है। आप इतना ही कहते हैं कि कपड़े आ, जा रहे हैं। कपड़े बदल रहे हैं। कभी नहीं कहते कि मैंने कपड़े बदल लिए तो मेरा आवागमन हो गया। आपका क्या आवागमन हुआ? कपड़े का ही आवागमन हुआ। कपड़ा आया और गया। पुराना गया, नया आया। कपड़े बदले। आप तो जो हैं, सो हैं।
ठीक आत्मा के ऊपर कोई आवागमन नहीं घटता। सिर्फ कपड़े बदलते चले जाते हैं और गहरे कपड़े हैं शरीर के। सत्तर साल चलते हैं, अस्सी साल चलते हैं, सौ साल चलते हैं। वह जो इसके भीतर न आता, न जाता, वह आत्मा है। जब यह ख्याल में आ जाए कि इन कपड़ों के भीतर कोई निवासी है, इस भवन के भीतर कोई रहने वाला है तो यह भी खयाल में आ जाएगा कि जो भी हम कर रहे हैं, जो भी हम कर रहे हैं, उस करने का भी जो परिणाम है, वह परिणाम भी आत्मा तक नहीं पहुंचता। वह परिणाम भी मन तक पहुंचता है।
शरीर की बदलाहट होती रहती है हर जन्म के साथ। मन की बदलाहट हर जन्म के साथ नहीं होती। वह और भी गहरा कपड़ा है। जैसे कि आपने ऊपर का कोट बदल लिया और कमीज पुरानी है। मन जो है वह और भी गहरा कपड़ा है जो हर जन्म के साथ नहीं बदल जाता। उसकी यात्रा हजारों-लाखों साल की है। तो हर मृत्यु में मन नहीं मरता। सिर्फ एक मृत्यु में मन मरता है जब समाधि के बाद आदमी मरता है। तब मन नहीं रहता, फिर मन भी मर जाता है। लेकिन मन के मरते ही फिर नये शरीर ग्रहण करने का उपाय नहीं रह जाता।
मन जो है, आत्मा और शरीर के बीच सेतु है, ब्रिज है। मन के बिना शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। तो मन आप पुराने जन्म का लेकर आते हैं। अनेक जन्मों का लेकर आते हैं। शरीर आप नया कर लेते हैं। लेकिन मन आपके पास पुराना होता है। जब आप कपड़े बदलते हैं तब आपके पास मन पुराना ही होता है। कपड़े नये होते हैं। और उसी मन के आधार से आप कपड़े भी बदलते हैं। उस मन की क्या पसंदगी-नापसंदगी, उससे आप कपड़े बदलते हैं। मन वही रहता है। वह कंटीन्यू करता है।
यह जो मन है यह हमारे किए हुए, सोचे हुए, भाव किए हुए, जीए हुए समस्त कर्मों, समस्त विचारों, समस्त भावनाओं का सार अंश है। कहें कि मन हमारा व्यक्तित्व है, पर्सनैलिटी है। इसलिए हम सबके व्यक्तित्व अलग-अलग हैं, आत्मा अलग-अलग नहीं है। हमारे व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। क्योंकि हम सबके मन अलग-अलग हैं। यह जो मन है, यह आपके साथ चलेगा। साथ चलने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि इस शरीर के गिरने के साथ नहीं गिरेगा। और इसी मन के आधार से आप नये गर्भ में प्रवेश करेंगे या नया शरीर ग्रहण करेंगे।
यह मन हमारे समस्त जीवन का टोटल है। समस्त जीवन का। जो आपने किया उसका भी, जो आपने नहीं किया, उसका भी। क्योंकि करना भी कृत्य है, न करना भी कृत्य है। अगर मैं इस कमरे में आया और मैंने चोरी की, तो भी मैंने एक कृत्य किया। और इस कमरे में मैं आया और मैंने चोरी नहीं की, तो भी मैंने एक कृत्य किया। और दोनों का परिणाम मेरे मन पर होने वाला है। जो हम करते हैं वह, और जो हम नहीं करते हैं वह भी, हमारे मन को निर्मित कर रहा है।
हमारा मन पूरे वक्त निर्मित हो रहा है। मन चैबीस घंटे क्रियेट किया जा रहा है। सोते समय भी मन निर्मित हो रहा है। क्योंकि आपने कुछ और सपने देखे, मैंने कुछ और सपने देखे। और मन निर्मित हुआ। सपने में भी निर्मित हो रहा है। गहरी नींद में भी निर्मित हो रहा है। अगर ठीक से हम समझें तो मन जो है वह हमारे समस्त जीवन का लेखा-जोखा है। वह निर्मित होता रहा है। वह आपके साथ होगा, जब तक कि आप उसको तोड़ ही न डालें। उसे तोड़ने का नाम ही समर्पण है। उसे मिटा डालने का, उसे पोंछ डालने का, उसे विदा कर देने का नाम ही ध्यान है।
तो अब जो जानते हैं उनसे आप पूछें कि ध्यान का क्या अर्थ है? तो वे कहेंगेः नो-माइंड। मन न हो, तो ध्यान हो जाए। कबीर ने कहाः अ-मनी अवस्था। मन के बिना जो अवस्था है, वह ध्यान हो जाएगा। जब तक मन है तब तक ध्यान नहीं होगा। और जैसे ही ध्यान हो जाएगा, वैसे ही वह वासना जो नये कपड़े, नये शरीर ग्रहण करने की थी, वह विदा हो जाएगी। जीवन फिर भी होगा, पर वह अशरीरी हो जाएगा। वह शरीर का नहीं रह जाएगा।
संचित से केवल इतना ही अर्थ है। संचित का अर्थ है आपका पास्ट, आपका अतीत, जो भी आपने कल किया है, वह आज आपके साथ मौजूद है। उससे भागने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप जो भी हैं, वह आपके सभी पिछले कलों, कलों का जोड़ है। टोटल यस्टरडेज। वही आप हैं। वह आपका मन है। इस मन पर सब संचित है। इस मन को विदा करते ही यह संचित भी सब विदा हो जाएगा। फिर भी आप रहेंगे। फिर भी आप जीएंगे। काम करेंगे, लेकिन फिर मन निर्मित नहीं होगा।
अगर एक दफा समर्पण आ गया तो फिर मन निर्मित नहीं होता। समर्पण जो है वह मन के निर्माण की प्रक्रिया को रोक देता है, समाप्त कर देता है। फिर आप ऐसे जीएंगे जैसे परमात्मा के सिर्फ एक साधन के बतौर जी रहे हैं। फिर ऐसे जीएंगे कि आप कर्ता नहीं हैं, कर्ता वही है। फिर ऐसे जीएंगे कि बांसुरी हैं आप, स्वर उसके हैं। तब फिर मन निर्मित नहीं होता।
तो मन निर्मित तभी तक होता है जब तक ईगो-सेंट्रिक है। जब तक हम किसी से जुड़े हैं, तब तक मन निर्मित होता है। जब हम कहने लगते हैं वाॅय? तो फिर मन निर्मित नहीं होता। फिर अच्छा है तो उसका, बुरा है तो उसका। फिर सभी उस पर समर्पित है। फिर आप चोर हैं तो वही चोर है, और संत हैं तो वही संत है। फिर आप नहीं हैं बीच में। और जिस दिन यह घड़ी घट जाती है मन की कि वही कर रहा है, मैं नहीं हूं, तो व्यक्ति में वह क्रांति घटित होती है, जिससे बड़ी कोई क्रांति नहीं।
जो आदमी कहता है कि मैं अच्छे काम कर रहा हूं--वह भी संचित करेगा, उसका भी ईगो बनेगा, अहंकार बनेगा। हां, उसके पास स्वर्ण अहंकार होगा। गोल्डन ईगो होगी उसके पास। बाकी होगी तो ही। जो आदमी बुरे कर्म कर रहा है वह कह रहा है कि मैं बुरे कर्म कर रहा हूं, उसके पास लोहे का अहंकार होगा, बस। और कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। और कई बार सोने का अहंकार, लोहे के अहंकार से भी बदतर सिद्ध होता है। कई बार। क्योंकि लोहे को तो छोड़ने का तो मन होता है, सोने को छोड़ने का मन नहीं होता। उसे पकड़ने का मन होता है। तो जिस कैदी को सदा ही कारागृह में रखना हो उसको लोहे की जंजीर न पहना कर सोने की जंजीर पहनानी चाहिए। क्योंकि लोहे की जंजीर तो कैदी तोड़ना भी चाहेगा, सोने की जंजीर को खुद ही बचाने में लग जाएगा।
तो चाहे अच्छे कर्म हों, चाहे बुरे कर्म हों, बांधते दोनों हैं। संचित दोनों होते हैं। सिर्फ अकर्म संचित नहीं होता। कर्म संचित होते हैं। अकर्म संचित नहीं होता। इसलिए अकर्म ही एक मात्र साधना है। लेकिन अकर्म का मतलब यह नहीं कि कोई काम छोड़ कर भाग जाए। क्योंकि कोई भागेगा तो भागना भी काम ही है, कर्म ही है। अगर कोई कहेगा कि मैं जा रहा हूं संसार छोड़ कर, तो भी कर्म हो रहा है।
अकर्म का एक ही मतलब हैः समर्पण। कि वह जो भी कर रहा है, मैं नहीं कर रहा हूं, परमात्मा ही कर रहा है। ऐसा जान कर, ऐसा मान कर नहीं। ऐसा जान कर जीए, मान कर जीएगा तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मान कर जीने से कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर वे इसी के मन का काम है। अभी काम जारी है। अभी समर्पण मैं ही करूंगा। नहीं, ऐसा जान कर जीने लगे तो, तो कर्म विदा हो जाते हैं। संचित विदा हो जाता है, मन विदा हो जाता है। फिर जो शेष रह जाता है वही शुद्ध अस्तित्व है। उसको कोई नाम दें--ब्रह्म कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, कोई भी नाम दें।

प्रश्नः मन की, और जैसा आप कहते हैं कि जन्म-जन्म से यह चलता है, मन तो वही होता है, आदमी की मृत्यु के बाद कोई सूक्ष्म मेमोरी रह जाती है?

हां, मन वही होता है और आदमी की मृत्यु के बाद सारी स्मृति आदमी के पास रह जाती है। लेकिन उसकी पर्तें जम जाती हैं। जैसे कि इस कमरे को हम सात साल तक साफ न करें, तो आज भी धूल आएगी। और सात साल तक इस कमरे में आती रहेगी। सात साल बाद जब हम इस कमरे में आएंगे तो जो ऊपर की परत होगी, वह तो आज की होगी और नीचे की परतें नीचे दब गई होंगी। सात साल पुरानी परत भी होगी, लेकिन वह बहुत नीचे होगी। हो सकता है ऊपर की परत को पता भी न हो कि नीचे धूल की सात साल पुरानी परतें भी जमी हैं।
तो मन यात्रा कर रहा है, और यात्रा है प्रोग्रेसिव। आप उसमें रोज कुछ एड कर रहे हैं, कुछ जोड़ रहे हैं। तो कल दब जाएगा आज से। फिर आज दब जाएगा आने वाले कल से। और दबता चला जाएगा। पिछला जन्म दब जाएगा इस जन्म से, उसका भी पिछला जन्म दब जाएगा दो जन्मों से और नीचे जिसको अनकांशियस कहते हैं मनोवैज्ञानिक, अचेतन कहते हैं, उसमें छिपता चला जाएगा। कई बार ऐसा हो सकता है कि आप खुद अपने अनकांशियस हों और आपकेे बीच इतना बड़ा फासला होता है। क्योंकि इतनी यात्रा बीच में हो गई धूल की कि आप हाथ फैला कर अंदर तक पहुंच भी नहीं पाते, आपको पता भी नहीं होता। और खतरनाक भी है पहुंचना।
क्योंकि आदमी एक ही जिंदगी की स्मृृतियों को पूरा झेल नहीं पाता, उसमें भी पगला जाता है, पागल हो जाता है। इसलिए प्रकृति का पूरा इंतजाम है। आप अगर, चैबीस घंटे की भी स्मृतियां आपको रह जाएं और न भूल पाएं तो आप पागल हो जाएंगे। इसलिए प्रकृति पूरे वक्त छांट रही है। जो व्यर्थ है उसको कचरे में फेंक रही है। भीतर डाल रही है। तलघर है आपके मन में एक, वहां डालती जा रही है। जो काम का है उसे बचाती है। बहुत थोड़ा सा बचाती है। सभी नहीं बचा लेती।
अगर हम पूछें कि पिछले वर्ष एक साल में आपके मन में क्या स्मृतियां रह गई हैं? तो शायद दो-चार बातें होंगी जो स्मृति के लायक बच गई होंगी, बाकी फेंक दी गई हैं। तो पूरे वक्त साॅर्टिंग हो रही है आपके दिमाग में। होना जरूरी है, नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाए। क्योंकि कल फिर जीना है। और जब पिछला कल बहुत मजबूत हो तो कल जीने में कठिनाई डालेगा। इसलिए उसको हटता जाना पड़ रहा है। बहुत जरूरी है वह, उसमें से हम बचा लेंगे। बाकी को हम हटा डालेंगे। तो पिछले जन्म का अगर आपको याद रह जाए तो आपका यह जीवन बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा।
क्योंकि हो सकता है जो आपकी पत्नी है, वह पिछले जन्म में मां रही हो। तब आप बड़ी दुविधा में पड़ जाएं। ऐसी दुविधा में पड़े होते हैं। बड़ी दुविधा में पड़ जाएं कि अब क्या हो? क्योंकि इस जन्म में जो मित्र है वह अगले जन्म का दुश्मन हो सकता है। और अगले जन्म का जो दुश्मन है वह इस जन्म में मित्र हो सकता है। उसका भूल जाना ही जरूरी है, भूल जाना लेकिन मिट जाना नहीं। भूल जाने का मतलब इतना ही है कि वह गहरे परत में डाल दिया गया।
अगर आप चाहें और विशेष उपाय करें तो वह जगाया जा सकता है। इसलिए उसके अलग टेक्नीक हैं। उसको स्मरण किया जा सकता है। उसमें प्रवेश किया जा सकता है, वे सारे जन्म जितनी आपने यात्रा की, सब जाने जा सकते हैं। आदमी के ही नहीं, आपके पशु जन्म भी और पशु के ही नहीं आपके वृक्षों के जन्म भी। उनकी स्मृतियां भी आपके पास शेष हैं। अगर आप कभी पत्थर भी रहे हैं तो उसकी भी स्मृतियां हैं। रास्ते पर पड़ी ठोकरों की, उसकी भी स्मृतियां हैं। पहाड़ों से गिरने की, उसकी भी स्मृतियां हैं। नदियों में बह जाने की, उसकी भी स्मृतियां हैं, वे आपमें संचित हैं। उनमें उतरा जा सकता है।
लेकिन उतरा तभी जा सकता है जब आप इस जीवन में बिलकुल निशिं्चत हों और शांत हो जाएं। नहीं तो एक्सप्लोजन इतना बड़ा होगा कि आपके बस के बाहर हो जाएगा सम्हालना। वह बर्रे के छत्ते को छूने जैसा हो जाएगा। तो उसको न छूना चुपचाप ही गुजरना बेहतर है। जब तक कि यह जिंदगी इतनी शांत न हो जाए कि अब कोई चीज आपको परेशान नहीं करे, तब फिर आप परेशानी में उतर सकते हैं। इसमें बड़ी कीमत का है उसका अनुभव करना, उन स्मृतियों को जगा लेना। बड़ी कीमत का है।
बुद्ध और महावीर तो दोनों ने ही अपने ध्यान की प्रक्रिया और अपनी साधना में इसको अनिवार्य बनाया हुआ था। उसको वे जाति-स्मरण कहते थे, पिछले स्मरण को। वे कहते थे हर साधक को इसमें से गुजारना ही। क्योंकि एक बार आपको दो जन्मों का भी स्मरण आ जाए तो आप फौरन बदल जाते हैं। क्योंकि पिछले जन्म में भी आपने बहुत धन इकट्ठा किया था, और फिर मर गए। उसके पहले भी आपने बहुत धन इकट्ठा किया था, फिर मर गए। उसके पहले भी आपने बहुत धन इकट्ठा किया था और फिर मर गए। तो इस जन्म में बहुत धन इकट्ठा करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि आप जानते हैं सब धन इकट्ठा करके आखिर मर जाना है। उस जन्म में भी आपने किसी को कहा था कि तेरे बिना नहीं जी सकेंगे। उसके पहले भी किसी से कहा था, और उसके पहले भी किसी से कहा था। अब इस जन्म में कहना बहुत मुश्किल हो जाएगा कि तेरे बिना नहीं जी सकेंगे, क्योंकि जन्मों से जी रहे हैं। तो उसकी स्मृति तो काम की बन सकती है, लेकिन उसकी पूर्व-भूमिका में चित्त बहुत शांत हो जाना चाहिए। नहीं तो उसकी स्मृति खतरनाक भी हो सकती है।

प्रश्नः समर्पण के बाद कुछ करना संभव है ही नहीं, तो जितना भी काम किया है जो भी कंफटर््स दिए हैं, उन लोगों ने दिए हैं, जिन्होंने समर्पण नहीं किया है, जिनमें ईगो है?

साधारणतः ऐसा हुआ है। ऐसा होना जरूरी नहीं है। साधारणतः ऐसा हुआ है कि जगत में जितना भी काम किया है वह उन लोगों ने किया है जिन्होंने समर्पण नहीं किया है। लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। जरूर उन्होंने कंफटर््स दिए हैं। रेलगाड़ी उन्होंने नहीं बनाई जिसने समर्पण किया है। हवाई जहाज उन्होंने नहीं बनाया जिन्होंने समर्पण किया है। लेकिन जिन्होंने समर्पण किया है उन्होंने कंफर्ट से कोई बहुत बड़ी चीज, सुपर सुविधा से कोई बहुत बड़ी चीज आदमी को दी है, वह आनंद है। उन्होंने भी कुछ दिया है। और सुपर सुविधा के साथ एक मजा है कि जब तक वह तुम्हारे पास न हो तभी तक सुपर सुविधाएं मालूम पड़ती हैं। जब तुम्हारे पास हो तब मालूम नहीं पड़ती।
और आनंद का दूसरा हिसाब है। जब तक तुम्हारे पास न हो, तब तक उसका पता नहीं चलता। जब तुम्हारे पास हो तभी पता चलता है। सुख और सुविधा सिर्फ उन्हीं के लिए सुख और सुविधा मालूम होती है जो सुख और सुविधा में नहीं हैं। सिर्फ उन्हीं के लिए। जो महल में बैठा है, उसे महल की सुविधा बिलकुल मालूम नहीं पड़ती। हां, जो महल के बाहर सड़क पर खड़ा है उसे मालूम पड़ती है। अब यह बड़ा मजेदार मामला है। यह आदमी जो सड़क पर खड़ा है यह भी अगर कल महल में पहुंच जाए, तो इसे भी मालूम पड़ने वाली नहीं है।
सुख और सुविधा दूर का ढोल है। निकट से उसकी प्रतीति नहीं होती कभी। पास गए, कि खो जाती है। बल्कि आदमी के मन की जो कुशलता है, वह यह है कि वह हर सुविधा में असुविधा खोज लेता है। हर सुविधा में असुविधा खोज लेता है। वह खोजता ही चला जाएगा। इसलिए सुविधा देने वाले वैज्ञानिक भी अब थक गए हैं और घबड़ा रहे हैं, कि हम सुविधा देते चले जाते हैं लेकिन आदमी को कोई सुख तो मिलता नहीं। बल्कि हर सुविधा के बाद वह और बड़ी सुविधा की मांग करता है। कि और बड़ी सुविधा दो। और अब हमने बहुत सुविधाएं देकर देख ली। इससे कोई फर्क नहीं पड़ा है।
जिन्होंने समर्पण किया है उन्होंने भी कुछ दिया है। पर उनके देने की चीज बड़ी सूक्ष्म। उन्होंने वह दिया है जो सुख-सुविधा तो नहीं है, लेकिन आनंद है। और आनंद के साथ दूसरी खूबी है। सुख-सुविधा के साथ, सुख-सुविधा के साथ, व्यक्ति रोज असुविधाएं खोज लेता है, सुविधाओं में भी। जब तक आपके पास कार नहीं है, तब तक रास्ते से गुजरती एंबेसेडर बड़ी सुविधा की मालूम पड़ती है। जिस दिन हो जाती है उस दिन आदमी कहता है कि इसका दरवाजा ठीक नहीं लगता, आवाज करता है। इसकी गद्दी ठीक नहीं, चलने में आवाज होती है। पेट्रोल की बास आती है। उस दिन के बाद जो भीतर बैठा आदमी है, वह एंबेसेडर की शिकायत करता ही मिलेगा। जो बाहर खड़ा आदमी है वह एंबेसेडर की मांग करता मिलेगा और जो भीतर बैठा हुआ आदमी एंबेसेडर की शिकायत करता ह‏ुआ मिलेगा।
सुख-सुविधा वाला चित्त जो है वह हर सुविधा में फिर असुविधा खोज लेगा। क्योंकि चित्त तो नहीं बदला, कार के बाहर का आदमी भीतर बैठा दिया गया। आदमी वही है। वह सड़क पर असुविधाएं खोज रहा था, लेकिन उसे पता नहीं कि जंगल में जो चढ़ रहा है, जिसके पास सड़क नहीं है वह सड़क में बहुत सुविधा देख रहा है। सड़क पर बड़ी सुविधाएं है। बस उसको जंगल से सड़क पर ले आओगे सुविधाएं खत्म हो गईं। उसे लगता है कि कार में सुविधाएं हैं। जो कार में चल रहा है वह देखता है कि हवाई जहाज में बड़ी सुविधाएं हैं। दचकी भी नहीं हैं। हवाई जहाज में जो बैठा है उससे पूछो उसकी असुविधाएं और हो गई हैं। सुविधा खोजने वाला चित्त सदा असुविधा खोज लेता है। और आनंद खोजने वाला चित्त असुविधा में भी, दुख में भी, पीड़ा में भी आनंद खोज लेता है। एक बार आनंद का सूत्र पता चल जाए, तो हर जगह खोजा जा सकता है।
 जिन्होंने समर्पण किया उन्होंने भी बहुत दिया। लेकिन उसका हमें पता नहीं चलेगा, क्योंकि हम सब सुविधा खोजने वाले लोग हैं। हमारी भाषा में उसका कोई भी मूल्य नहीं है। आनंद वगैरह का क्या मतलब? अगर एक आदमी के सामने कार रखो और कहो कि दूसरी तरफ आनंद, तो सौ में से निन्यानबे आदमी कार पसंद करेंगेे, आनंद नहीं। क्योंकि आनंद से क्या मतलब? यह आनंद है क्या? और आनंद कोई ठोस चीज नहीं जिसको कार के सामने खड़ा किया जा सके। कार बड़ी ठोस चीज है। या करोड़ों की संपत्ति रखो और कहो कि इधर भगवान खड़ा है। तो भगवान तो दिखाई नहीं पड़ता, संपत्ति दिखाई पड़ती है। वह आदमी कहेगा कि पहले संपत्ति ले लें, फिर भगवान को भी देख लेंगे। चुनाव वह संपत्ति का करेगा।
 तो जिस चीज की हमें मांग नहीं है, उसका हमें पता नहीं चलता कि वह दी गई है या नहीं दी गई। जिसकी हमें मांग है, उसका हमें पता चलता है कि वह दी गई है। लेकिन पश्चिम के मुल्कों को अब पता चलना शुरू हो गया है कि बुद्ध ने, पतंजलि ने, जीसस ने, कृष्ण ने जो दिया है उसका मूल्य हमारे वैज्ञानिक ने जो दिया है, उससे बहुत ज्यादा है। और उनको पता चलना शुरू हुआ, क्योंकि सुविधाएं सीमा छू लीं, सैचुरेशन पाॅइंट आ गया। हम गरीब कौन हैं? हमारे पास सुविधाएं बिलकुल नहीं हैं। तो हमें अभी लगता है कि सुविधाएं जिन्होंने दिया उन्होंने बड़ा काम किया है। यह बहुत दिन नहीं लगेेगा दुनिया को। और समर्पण करने वाले लोग बहुत थोड़े हुए हैं, न के बराबर। और समर्पण करने वाला आदमी जो देता है वह इतना सूक्ष्म है कि न कहीं कोई माप-तोल हो सकती है, न तराजू पर तोला जा सकता है, न उसका कोई रिकाॅर्ड बनाया जा सकता है। वह बड़ा सूक्ष्म है।
मैं अगर एक पत्थर तुम्हारे सिर पर मार दूं, तो उसका निशान रह जाएगा। और मैं प्रेम से तुम्हारे सिर पर हाथ रख दूं, उसका कोई निशान नहीं रह जाएगा। रास्ते पर तुम निकलोगे तो पत्थर लगा हो तो हर आदमी पूछेगा, क्या हो गया? लेकिन प्रेम का हाथ तुम्हारे सिर पर पड़ा हो तो रास्ते पर कोई नहीं पूछेगा कि क्या हो गया? क्योंकि वह कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा। वह कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा।
इसलिए जितने समर्पित लोग हुए, उन्होंने जगत को जो दिया है वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। वह प्रेम के हाथ की तरह है। जिनको अनुभव होगा, उन्हीं को पता चलेगा। हां, लेकिन जितने उपद्रवी लोग हुए, वह पत्थर की चोट की तरह है उनकी सारी बात। वह दिखाई पड़ती है। इसलिए तो हम इतिहास बुद्ध और महावीर और कृष्ण का नहीं लिखते। क्या इतिहास लिखें? हिटलर, चंगीज और मसोलिनी, उनका हम इतिहास लिखते हैं। उनकी पत्थर की चोट हैं, जो दिखाई पड़ती है। उनकी लकीरें साफ हैं। जितना सूक्ष्म है, उतना पकड़ के बाहर है। इसलिए खयाल में नहीं आता। बाकी दिया तो उन्होंने ही है। तो उनका दिया हुआ भी तभी पता चलेगा, जब तुम्हारी सुविधा की दौड़ पूरी हो चुकी होगी।
इसलिए मैं नहीं कहता कि रुको पहले, दौड़ो। अनुभव से जानो कि सब सुविधाएं मिलकर असुविधाएं हो जाती हैं। और सब सुख मिलते ही दुख हो जाते हैं। बस जब तक नहीं मिलते तब तक प्रतीत होता है कि...। इसलिए सुखी से सुखी आदमी वे हैं, जिनको सुुख नहीं मिलता। यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। और दुखी से दुखी आदमी वे हैं, जिन्हें सुख मिल जाता है। इसलिए गरीब कौमें जितनी प्रसन्न मालूम होती हैं, अमीर कौमें उतनी प्रसन्न नहीं रह जाती। जंगल का आदिवासी जितना मस्त मालूम होता है उतना निवार का निवासी नहीं मालूम होता। हालांकि इसके पास कुछ नहीं है, उसके पास सब है।
कुछ नहीं है जिसके पास उसे सबके पाने की आशा है। और जिसके पास सब है, उसकी वह आशा भी टूट गई। अब वह बड़ी उदासी में है। इसलिए जब भी कोई कौम कोई समाज समृद्धि का शिखर छू लेता है तब इतिहास शुरू हो जाता है, तत्काल। क्योंकि अब पाने को कुछ नहीं रह जाता और चित्त उदास हो जाता है। यानी वह ऐसे ही है जैसे हम पहाड़ की चोटी पर दौड़ रहे थे और सोच रहे थे कि पहाड़ की चोटी पर जाकर सब मिल जाएगा। तो जो पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुंचे थे सिर्फ दौड़ में थे, वे बड़े प्रसन्न थे। फिर एक आदमी पहाड़ की चोटी पर जाकर खड़ा हो जाता है और पाता है कि हाथ खाली हैं, वहां कुछ भी नहीं। वह एकदम उदास हो जाता है। करीब-करीब ऐसा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुविधाएं आदमी को न मिले। कह रहा हूं जरूर मिलनी चाहिए। पूरी तरह मिलनी चाहिए, जल्दी मिलनी चाहिए। ताकि वह सुविधाओं से मुक्त हो जाए। और उसे पता चल जाए कि कुछ है नहीं। कुछ है नहीं।
समर्पण करने वाले लोगों ने जो दिया है, वह दिखाई नहीं पड़ता। गैर-समर्पण करने वालों ने जो दिया है, वह प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन आखिरी मूल्य उसी का है जो दिखाई नहीं पड़ता है। और जो दिखाई पड़ता है, उसका बहुत ज्यादा देर मूल्य रहने वाला नहीं है।
अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो दिखाई तो उसका शरीर पड़ता है। अगर इस शरीर से ही प्रेम करता हूं तो यह दो दिन का प्रेम है, ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। दो दिन बाद यह शरीर जो दिखाई पड़ता है, भूलने योग्य हो जाएगा। लेकिन अगर इसमें कुछ अदृश्य भी मेरे प्रेम का हिस्सा है तो वह चलेगा, क्योंकि वह कभी चुकता नहीं।
इंद्रियां जिस चीज को पकड़ लेती हैं वह चुकने वाली चीज है। इंद्रियां जिसे नहीं पकड़ पाती, वही न चुकने वाली चीज है। पर यह लेखा-जोखा बहुत बाद में हो पाता है जब तुम्हें सुविधाएं व्यर्थ हो जाएं। और आनंद की कोई किरण मिले, तब तुम जान पाते हो कि बुद्ध ने क्या दिया। तब तुम जान पाते हो कि आइंस्टीन ने क्या दिया? और मजे की बात यह है बुद्ध बिना आइंस्टीन के आनंदित हो सकते हैं; आइंस्टीन बिना बुद्ध के आनंदित नहीं हो सकते। आइंस्टीन भी मरते वक्त तब बेचैन हो गए सब देकर भी। और बेचैनी उसकी वही कि वह आनंद की तो कोई झलक का पता नहीं। तो बुद्ध बिना किसी के आनंदित हो सकते हैं। लेकिन सुविधाएं सब मिल जाएं तो तब भी तुम बुद्ध के बिना आनंदित नहीं हो सकते हो। वह घटना घटनी ही चाहिए।
सुविधाएं जरूरी हैं; जीवन का अन्त नहीं। सुविधाएं मार्ग हैं; मंजिल नहीं। सुविधाएं होनी चाहिए, लेकिन सुविधाएं ही अकेली हों तो जीवन बड़ा व्यर्थ हो जाता है। उससे तो असुविधा का जीवन भी थोड़ा सार्थक और मीनिंगफुल रहता है। न तुम्हारे पास बड़ा मकान है, न बड़ी कार है। तो तुम दौड़ते रहते हो यह मिल जाए, यह मिल जाए तब तक कम से कम रस रहता है। तुम्हें पता नहीं कि अगर एक नियम बनाया जाए कि एक आदमी को जो भी चाहिए इसी वक्त दे देते हैं, आप पांच मिनट में पाओगे कि वह आदमी आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि अब कुछ करने को उसको बचेगा नहीं। वह एकदम फिजूल हो जाएगा, एकदम फ्युटाइल, कुछ मतलब नहीं रहा। या तो आत्महत्या करेगा, कहेगा कि अब बेकार हो गया हूं।
इसलिए जितनी समृद्ध कौम होती है, आत्महत्या बढ़ती जाती है। आज अमरीका जितनी आत्महत्याएं करता है, उतना हिंदुस्तान नहीं करता; जितना हिंदुस्तान करता है, उतना आदिवासी बस्तर का नहीं करता। आत्महत्या का कोई कारण ही नहीं है। क्योंकि, क्योंकि जीवन में बड़ी आशाएं हैं। आत्महत्या आती है निराशा से, और निराशा आती है जिस चीज में बहुत आशा बांधी थी उसको पा लेने पर पता चलता है कि बेकार गई यह आशा। यह तो हम नाहक दौड़े थे। हमने समय भी गंवाया, शक्ति भी गंवाई, और पाया है...यह तो हाथ में कुछ भी नहीं आया है।
तो मेरी दृष्टि में सुविधा की, सम्पत्ति की, सुख की एक ही खूबी हैः वह पाकर व्यर्थ हो जाती है। न पाओ तो सार्थक बनी रहती है। इसलिए मैं कहता हूं कि पा लेना चाहिए। बिना पाए अगर तुम मानकर चलोगे तो गड़बड़ होगी। तुम पा ही लो। उसकी कोशिश कर लो पूरी। और जिंदगी में अनुभव करो। सब कुछ न कुछ पा लेते हैं। कोई कार ही मिले, बड़ा मकान ही मिले, ऐसा नहीं है। हाथ में घड़ी नहीं होती तो घड़ी की फिकर होती है कि वह मिल जाए तो बड़ा आनंद आएगा। एक रात, दो रात--हाथ में घड़ी आ जाए तो फिर नींद भी नहीं आती। रात में भी दो-चार दफा उसमें टाइम देखने का मन होता है। फिर चार-छह दिन बाद आदमी पाता है कि बात खत्म हो गई। अब कुछ और चाहिए जो मिले तो आनंद आएगा।
जो भी तुम पा रहे हो एक साइकिल पा ली है; एक जूते की जोड़ी पा ली है; एक कपड़ा पा लिया है। एक पत्नी पा ली है, कुछ भी पा लिया है। जो भी पा लिया है उसे गौर से देखो कि जब तुमने नहीं पाया था तो तुम कितनी आशा बांधे थे, और जब पा लिया है तब कितनी आशा फलीभूत हुई है। तब तुम एकदम हैरान हो जाओगे।
लेकिन हम इतना गौर से नहीं देखते। जब एक चीज व्यर्थ हो जाती है, हम तत्काल दूसरी चीज में संलग्न हो जाते हैं। देखने का मौका नहीं मिल पाता। गैप नहीं मिल पाता। घड़ी बेकार हो गई तो कार चाहिए; कार बेकार हो गई तो हवाई जहाज चाहिए; हवाई जहाज बेकार हुआ तो कुछ और चाहिए। मगर हम कभी लौट कर यह नहीं देखते कि सब चीजें हमने चाहीं और सब बेकार हो गईं।
अगर यह दिखाई पड़ जाए तो तुम्हारी चाह ही बेकार हो जाएगी। डिजायर ही बेकार हो जाएगी। तुम कहोगे कि अभी एक ही चीज बेकार है, चाह। बाकी सब चीजें तो ठीक ही हैं, एक चीज जरूर बेकार है, वह चाह बेकार है। जिस दिन यह घड़ी घटेगी, उस दिन तुम्हारे जीवन में जिन्होंने समर्पण किया उनकी खोज सार्थक होगी। उसके, उसके पहले नहीं होगी।

प्रश्नः माना जिन्होंने समर्पण किया है, जो देते हैं, उसको ग्रहण करने के लिए देते हैं, सुविधा भी जरूरी है?

हां-हां, मैं मना नहीं कर रहा।

प्रश्नः सुविधा जरूरी है?

हां।

प्रश्नः तो सुविधा वे देंगे जिन्होंने समर्पण नहीं किया है?

हां-हां, वे देते हैं।

प्रश्नः तो समर्पण करने वाला और न समर्पण करने वाला, दोनों जरूरी होगा न ?

समर्पण करने वाला तो इतना कम है। और अगर समर्पण करने वाला बहुत बढ़ जाए तो सुविधा की कोई जरूरत ही नहीं है। जिंदगी जैसी होगी बहुत सुविधापूर्ण होगी। वह तो मांग भी तुम्हारी ही पूरी कर रहा है। वह तो ऐसे ही है कि हम कहते हैं कि एक आदमी डाक्टर है, तो वह बीमारों को ठीक कर रहा है। लेकिन वह बीमारों को ही ठीक कर रहा है न। लेकिन कल अगर बीमार बीमार होना बंद हो जाए तो डाक्टर किसको ठीक करेगा। डाक्टर को कहेंगे कि अब तुम विदा हो जाओ। उसकी जरूरत तो इसलिए है वह जो सुविधा पैदा करने वाला है, वह तुम्हारी जरूरत है। तुम उसको पैदा करवा रहे हो। तुम कह रहे हो हमको बड़ा मकान चाहिए, तो आर्किटेक्ट जो है वह बड़े मकान का नक्शा बना रहा है। कल तुम कहोगे कि बड़े मकान का सवाल नहीं है, बड़े दिल का सवाल है। बड़े मकान में रह कर देख लिया, अब तो छोटा झोपड़ा हो तो चलेगा। लेकिन दिल बड़ा चाहिए तो आर्किटेक्ट कहेगा कि मैं बेकार हो गया हूं। क्योंकि दिल को बड़ा बनाने का कोई नक्शा उसके पास नहीं है। तो वह तो तुम्हें तब तक बड़ा मकान देता जाएगा, और कितने बड़े मकान देता जा रहा है वह। डेढ़ सौ मंजिल के मकान दे दिए कि तुम आकाश छू लो। लेकिन डेढ़ सौ मंजिल के मकान पर जो आदमी बैठा है वह उतना ही परेशान है, जितना परेशान वह पहली मंजिल के मकान पर था। बल्कि शायद और भी ज्यादा परेशान है। और अब वह कहां जाए, अब आकाश पर चढ़ गया। अब वह कहां जाए? अब वह उसको कह रहा है, हम चांद पर पहुुंचा देते। वह चांद पर जाने की आशा बांध रहा है।
टोक्यो में उन्नीस सौ पचहत्तर के लिए एक कंपनी ने चांद के लिए टिकट इश्यू करनी शुरू की है। और जिन लोगों को लेना है वे ले लें, वे टिकट अभी से। एडवांस कह रहे हैं कि हम उन्नीस सौ पचहत्तर में पहुंचा देंगे। अब जिनके पास कुछ नहीं बचा जमीन पर करने को वे उस टिकट, अब जो नहीं चांद पर पहुंच पाएगा, उसके दुख का अंत नहीं है। बड़ा मजा यह है कि अब वह गरीब आदमी है जो चांद पर नहीं पहुंच पाया। भारी गरीब आदमी है। वह रोएगा और चिल्लाएगा कि यह बड़ा हमारा सब आनंद छिना जा रहा है। कुछ लोग चांद पर चले जा रहे हैं। और वे जो चांद पर चले जा रहे हैं, वे वही कि जो आदमी जमीन पर थे और जमीन चांद से बहुत सुंदर है।
मगर जो निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता। चांद पर कुछ भी नहीं है। एकदम रूखा-सूखा पत्थर के सिवाए। लेकिन अब चांद बहुत सुंदर हो गया है, क्योंकि वह कुछ लोगों की ग्रिप्स में है अब। थोड़े ही लोग जा सकते हैं। लाखों रुपये का खर्च होगा। थोड़े लोग जा सकते हैं। वह लौट कर जो मून रिटर्नड लोग होंगे उनकी तख्तियां लग जाएंगी बाहर कि ये चांद से लौटे हैं। उनके स्वागत-समारोह हो जाएंगे। हालांकि कोई उनसे नहीं पूछेगा कि तुम्हें मिला क्या? जो तुम्हें जमीन पर नहीं मिला था, तुम्हें मिला क्या? वह कोई उनसे नहीं पूछेगा। वैसा ही था।

प्रश्नः चाह खत्म हो जाए तो फिर आपका समर्पण अपने आप हो जाएगा?

हो ही गया, हो ही गया। समर्पण हो जाए तो चाह खत्म हो जाएगी। चाह खत्म हो जाए तो समर्पण हो जाएगा। वे एक ही सिक्के के पहलू हैं उनमें कुछ भेद नहीं है, उसमें कोई भेद नहीं है।

प्रश्नः आपने कहा कि अब बायोलाॅजिस्ट यह कहते हैं कि जो मेमरी है, स्मृति है वह दिमाग में रहती है, मन में भी एक स्मृति होती है?

हां, बिलकुल ही। असल में जो जीवशास्त्री हैं वे तो यही कहते हैं कि स्मृति जो है, वह ब्रेन में, मस्तिष्क में होती है, वह शरीर का हिस्सा है। वह शरीर का हिस्सा है। इसलिए शरीर के साथ वह स्मृति तो मर जाएगी जो ब्रेन में होती है। लेकिन बायोलाॅजिस्ट इससे गहरा गया नहीं कभी। जिसको वह ब्रेन कहता है, मस्तिष्क कहता है, उसको हम मन नहीं कह रहे थे। अगर हमारी तरफ से समझा जाए तो ब्रेन सिर्फ मैकेनिज्म है और मन उसकी सक्रिय शक्ति है।
जैसे कि बल्ब जल रहा है। तो कोई भी आदमी देख कर कहेगा कि बल्ब तो...बल्ब में बिजली है। तो हम बल्ब तोड़ दें, तो बिजली टूट गई। और वह प्रमाण भी दे देगा, कि लट्ठ मार देगा बल्ब में तो बल्ब टूट जाएगा, तो बिजली भी टूट जाएगी, अंधेरा हो जाएगा। लेकिन फिर भी वह ठीक बात नहीं कह रहा है। प्रमाण उसने पक्का दे दिया और हम उसको इनकार भी न कर पाएंगे।
बल्ब बिजली नहीं है, बल्ब सिर्फ मैकेनिज्म है जिससे बिजली प्रकट होती है। बल्ब जब टूट जाएगा तब भी बिजली होगी, बिजली नहीं टूटती बल्ब के टूटने से। हां, सिर्फ प्रकट होने का उपाय बंद हो गया।
तो ब्रेन जो है वह मैकेनिज्म है। इसमें स्मृति संरक्षित होती है। इसमें मन जो है वह इसकी सक्रिय शक्ति है। उसमें भी स्मृति का काउंटर-पार्ट संरक्षित होता है। उसमें भी, और इसलिए तो कई बार ऐसा हो जाता है, आप कहते हैं कि बिलकुल जबान पर रखी है बात, लेकिन याद नहीं आ रही। अगर जबान पर रखी है तो याद क्यों नहीं आ रही? किसकी जबान पर रखी है? आप कहते हैं मेरी जबान पर रखी है। और आपको ही याद नहीं आ रही। कहीं न कहीं डिसलोकेशन हो गया। माइंड और बे्रन के बीच डिसलोकेशन हो गया। माइंड कह रहा है कि है मालूम मुझे, लेकिन बे्रन का जो फंक्शन होना चाहिए उसके साथ पैरलल, वह नहीं हो पा रहा। डिसलोकेशन हो गया है। तो आप थोड़ी देर सिगरेट पीने लगे कि जाकर बगीचे में घूमने लगे, और एकदम से आ गया, डिसलोकेशन मिट गया। रिलैक्स हो गए। माइंड और ब्रेन के बीच संबंध फिर तय हो गए। तो मन ने कहा कि हम तो पहले ही कह रहे थे, थी तो रखी जबान पर।
वह जबान पर नहीं रखी थी। सिर्फ जो भीतरी सूक्ष्म मन है, वह कह रहा था कि इस आदमी को हम जानते हैं। लेकिन मैकेनिज्म उसका रिस्पांस नहीं कर रहा था, कि कब जाना, कहां जाना, कैसे जाना, उसके डिटेल्स नहीं दे रहा था वह। इसलिए बस। तो यह जो मन है, यह आपके साथ चला जाएगा। अब ब्रेन तो टूट जाएगा। यह फिर नये शरीर में जब बे्रन होगा, तब फिर हमको ब्रेन को ट्रेंड करना पड़ेगा। फिर ट्रेनिंग होगी उसकी। और फिर मन उससे फिर काम लेना शुरू कर देगा।
आज नहीं कल, बायोलाॅजी भी उस बात को कह पाएगी। लेकिन विज्ञान तो बहुत एक-एक कदम चलता है, और चलना भी चाहिए। वैज्ञानिक का मतलब भी वही है। विज्ञान जो है, छलांगें नहीं ले सकता। लेनी भी नहीं चाहिए। छलांगें तो धर्म लेता है, लेनी चाहिए। असल में धर्म जो है, वह सदा विज्ञान से आगे की छलांग लेता है। जिसको हजार, दो हजार साल में विज्ञान सिद्ध करेगा, धर्म उसे दो हजार साल पहले कहना शुरू कर देता है। वह प्रोफेटिक है। हम लोगों को वह बात कहने लगता है जो अभी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होगी, लेकिन कभी होगी।
तो स्मृति तो, साधारण स्मृति तो हमारे मस्तिष्क में होती है। लेकिन ठीक इसको कोरेस्पांस करने वाला समानांतर हमारा मन है। जिसमें सूक्ष्म स्मृति होती है। सूक्ष्म स्मृतियां आपके साथ चली जाएंगी। और उन सूक्ष्म स्मृतियों को फिर जगाया जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन अभी तो, अभी जहां तक विज्ञान की गति है, बायोलाॅजी की खासकर, बायोलाॅजी की गति बहुत कम है। कहना चाहिए बायोलाॅजी सबसे अविकसित विज्ञान है अभी। अभी तो विकसित विज्ञानों में सिर्फ फिजिक्स, पीछे केमिस्ट्री, उनका विकास हुआ ढंग से।
यह बड़े मजे की बात है कि फिजिक्स अकेले विज्ञान का ठीक से विकास हुआ है। जिसको हम ठीक वैज्ञानिक कह पाएं। तो फिजिक्स के ठीक विकास का यह परिणाम हुआ है कि आदमी जो भी समझता था फिजिकल वल्र्ड के बाबत, वे सब गलत हो गए। जो आज तक समझता था, कहता था कि मैटर है तो फिजिक्स कहता है मैटर नहीं है, पदार्थ है यह। एक ही विज्ञान ठीक से विकसित हुआ है।
तो जो विज्ञान ठीक से विकसित हुआ है उसकी अनुभूतियां और प्रतीतियां धर्म के बहुत करीब आ गईं। जो विज्ञान जितना कम विकसित है धर्म से उसका फासला उतना ज्यादा होता है। होगा ही। मेरा मतलब समझ रहे हैं न आप? क्योंकि धर्म की बहुत दूर की छलांग है, वह इनसाइट। कल की बात कह देता है, ऐसा हो जाएगा। लेकिन कल आएगा तभी प्रमाण मिलेंगे न? अभी बायोलाॅजी सबसे कम विकसित है और साइकोलाॅजी और भी कम विकसित है।
तो इसलिए बायोलाॅजी...लेकिन बायोलाॅजी जोर से विकसित हो रही है। पिछले बीस वर्षों में जिस गति से बायोलाॅजी ने विकास किया है वह बहुत ही हैरानी का है, और स्वाभाविक है। क्योंकि जैसे ही हमने पदार्थ की पूरी खोज कर ली, वैसे ही हम जीवित पदार्थ की खोज करेंगे। उसके पहले कर भी नहीं सकते। पदार्थ की खोज हो जाए तो फिर हम जीवित पदार्थ की खोज कर पाएं। और जीवित पदार्थ की खोज से और बड़ी हैरानी की घोषणाएं होने वाली हैं जो कि अभी मरे हुए पदार्थ की खोज से नहीं हुई।
मनुष्य की पूरी की पूरी धारणाओं का रूपांतरण हो जाएगा। और धर्म की बहुत सी अनुभूतियां निकट से, करीब सिद्ध हो जाएंगी। लेकिन ठीक वैसी सिद्ध नहीं होंगी जैसा धार्मिक लोगों ने कहा है। थोड़े फर्क होंगे। क्योंकि प्रोफेसी एक बात है, और प्रयोग बिलकुल दूसरी बात। थोड़े हेर-फेर होंगे डिटेल्स के। लेकिन मूल अनुभूतियां करीब-करीब सही हो जाने वाली हैं। उसमें वक्त लगने की बात है।

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