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सोमवार, 3 सितंबर 2018

पथ की खोज-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

पथ की खोज (पूर्वनाम- सिंहनाद)

मेरे प्रिय!
मैं एक गहरे अंधेरे में था, फिर मुझे सूर्य के दर्शन हुए और मैं आलोकित हुआ। मैं एक दुख में था, फिर मुझे आनंद की सुगंध मिली और मैं उससे परिवर्तित हुआ। मैं संताप से भरा था और आज मेरी श्वासों में आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
मैं एक मृत्यु में था--मैं मृत ही था और मुझे जीवन उपलब्ध हुआ और अमृत ने मेरे प्राणों को एक नये संगीत से स्पंदित कर दिया। आज मृत्यु मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देती। सब अमृत हो गया है। और सब अनंत जीवन हो गया है।

अब एक ही स्वप्न देखता हूं कि वही आलोक, वही अमृत, वही आनंद, आपके जीवन को भी आंदोलित और परिपूरित कर दे, जिसने मुझे परिवर्तित किया है। वह आपको भी नया जन्म और जीवन दे, जिसने मुझे नया कर दिया है। उस स्वप्न को पूरा करने के लिये ही बोल रहा हूं और आपको बुला रहा हूं। यह बोलना कम, बुलाना ही ज्यादा है।


जो मिला है, वह आपको देना चाहता हूं। सब बांट देना चाहता हूं। पर बहुत कठिनाई है। सत्य को दिया नहीं जा सकता, उसे तो स्वयं ही पाना होता है। स्वयं ही सत्य होना होता है। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं; पर मैं अपनी प्यास तो दे सकता हूं, पर मैं पुकार तो दे सकता हूं और, वह मैं दूंगा और आशा करूंगा कि वह पुकार आपके भीतर--आपके अंतस में प्यास की एक ज्वाला बन जायेगी और आपको उन दिशाओं में अग्रसर करेगी, जहां आलोक है, जहां आनंद है, जहां अमृत है।
मनुष्य दुख के लिये पैदा नहीं हुआ। जीवन दुख के लिये नहीं है। दुख जीवन की सार्थकता नहीं हो सकता और न दुख जीवन का अंत हो सकता है। दुख तो इसलिये है कि जीवन उसे उपलब्ध नहीं कर पा रहा है, जिसे उपलब्ध करने को वह है। जो उसकी अंतर्निहित संभावना है, उसे न पाने से दुख है। दुख दुर्घटना है, वह अंत नहीं है। बीज वृक्ष न हो पाये तो उसे जैसा दुख घेर लेगा वैसा ही दुख मनुष्य को घेर लेता है।
क्या दुख का बोध और दुख का अतिक्रमण, ट्रान्सेन्ड करने की आकांक्षा यह नहीं बताती है कि वह हमारे स्वरूप का अंग नहीं है? क्या दुख का अस्वीकार यह नहीं कहता है कि जो हमारे भीतर है, वह दुख नहीं, दुख-निरोध का प्यासा है? आनंद की प्यास, आनंद की संभावना और सिद्धि की सूचना है। जीवन आनंद को मांगता है--समस्त जीवन आनंद को मांगता है। क्यों? क्योंकि जीवन की सफलता और सार्थकता और पूर्णता आनंद में है। आनंद अर्थ है। आनंद अंत है। आनंद अभिप्राय है। वह जो अभी प्यास में है, जब तक प्राप्ति न बन जावे, तब तक दुख है--तब तक दुख अनिवार्य है।
स्मरण रहे कि आनंद को पाने की बात आपका विचार नहीं है। उसे आपने विचारा नहीं है। किसी से सीखा नहीं है। वह अनसीखी, अनलर्न्ड अभीप्सा है। वह निसर्ग में है। वह आपके प्राणों में है। वह आपका होना, व्हेरि बीइंग है। वह विचार नहीं, प्यास है। यह स्मरण रहे कि वह प्यास है। इस प्यास से ही धर्म का जन्म हुआ है। आनंद की प्यास धर्म की जन्मदात्री है। धर्म का जन्म किसी सोच-विचार से नहीं हुआ। वह चिंतन नहीं है। उसकी स्फुरणा अनंत आनंद की प्यास से हुई है। वह प्यास प्रत्येक के भीतर है। प्रत्येक के प्राणों में उस प्यास की लपटें हैं। उन्हीं प्रज्वलित लपटों से धर्म जन्मता है और रूप लेता है।
इसलिये यह हो सकता है कि सारे तीर्थंकर, सारे अवतार, सारे ईश्वर-पुत्र, सारे पैगंबर भूल जावें, विस्मृत हो जावें... हमारी स्मृति में उनकी कोई भी ध्वनि बाकी न रहे, वे सब ‘न-हुए’ हो जावें और अतीत के चरण चिह्न समय की राह पर धुंधले होकर मिट जावें--पर इससे धर्म नहीं मिट सकता, उनके कारण धर्म नहीं है। विपरीत, वे ही धर्म के कारण थे।
यह हो सकता है कि सारे मंदिर और मस्जिदें और शिवालय धूल-धूसरित हो जावें। उनके खंडहरों के भी निशान खोजे न मिलें। और सारे शास्त्र और आगम विलीन हो जावें, लेकिन धर्म विलीन नहीं होगा। वह उनके कारण नहीं है। वह तो जब तक अंतस आनंद के लिये प्यासे होते रहेंगे तब तक रहेगा और मिट-मिटकर भी पुनर्जीवित हो जायेगा। इस अर्थ में वह शाश्वत है। क्योंकि, आनंद की आकांक्षा शाश्वत है। क्योंकि अमृत की अभीप्सा शाश्वत है। दुख कभी भी नहीं चाहा जा सकता है। बंधन कभी भी नहीं चाहे जा सकते हैं। अज्ञान कभी भी नहीं चाहा जा सकता है। अंधकार के लिये हमारी आत्मा कभी भी प्यासी नहीं हो सकती है। इसलिये धर्म शाश्वत है।
धर्म आवृत्त हो सकता है, पर नष्ट नहीं। धर्म विस्मृत हो सकता है, पर विनष्ट नहीं। हम उसके प्रति सो सकते हैं, पर उसे सदा के लिये खो नहीं सकते। उसकी जड़ें हमारी आत्मा में हैं और इसलिये उसे खो-खोकर भी पुनः-पुनः पा लिया जाता है। उन जड़ों में से फिर नये अंकुर निकल आते हैं और नये फल और बीज लगने शुरू हो जाते हैं।
वस्तुतः जो भी सत्य है, उसे खोना असंभव है। जो भी सत्य है, वह शाश्वत भी है। और जो भी शाश्वत है, वह सत्य भी है। धर्म सत्य है, इसलिये शाश्वत है। धर्म शाश्वत है, इसलिये सत्य है। शाश्वतता, इटरनिटी और सत्य, शब्द ही दो हैं। उनमें निहित सत्य एक ही है।
मैं धर्म की बात कर रहा हूं। मैं संप्रदायों की बात नहीं कर रहा हूं। संप्रदाय धर्म नहीं हैं। वे धर्म की अभिव्यक्तियां हैं, स्वयं धर्म नहीं। वे धर्म के शरीर हैं, धर्म की आत्मा नहीं। वे होते हैं और ‘न’ भी हो जाते हैं। जिसका जन्म होता है, स्वाभाविक है कि उसकी मृत्यु भी हो। जिसका जन्म नहीं होता वही केवल अमृत हो सकता है। अजन्मा ही अमृत हो सकता है। धर्म अजन्मा है; पर संप्रदायों का जन्म होता है। वे जन्मते हैं और संगठित होते हैं। और इसलिये उनकी मृत्यु और विघटन भी अनिवार्य है। इस सत्य का न दीखना बहुत घातक हो गया है। मृत संप्रदायों का बोझ हमें इतना निर्भार और निर्दोष नहीं होने देता कि हम शाश्वत धर्म से परिचित हो सकें। उनकी मृत देहें, लाशें ही धर्म की आत्मा को जानने और जीने में अवरोध बन जाती हैं।
जो धर्म को जानना चाहता है, उसे संप्रदाय से ऊपर उठना होता है। वैसे ही, जैसे जो मुझे जानना चाहे उसे मेरी देह के पार और अतीत देखना होगा। जो मेरी देह पर रुक जायेगा, वह मुझ तक नहीं पहुंच सकता। मैं शरीर में हूं, पर शरीर नहीं हूं। शरीर मेरा आवरण है, ‘मैं’ नहीं। ऐसा ही संप्रदायों के साथ है। वे सब शरीर हैं। धर्म को जानने के लिये उनसे मुक्ति आवश्यक है। उनके पार हुए बिना कोई उसे--उस धर्म को नहीं जान पाता; जो हो तो संप्रदाय जीवित होते हैं, जो नहीं हो तो वे मृत हो जाते हैं।
संप्रदायों के संबंध में नहीं, धर्म के संबंध में ही--विशुद्ध धर्म के संबंध में ही कुछ कहना चाहता हूं। उस धर्म के संबंध में, जिसका कोई भी विशेषण नहीं है--धर्म की आत्मा के संबंध में। धर्म संप्रदायों के ऊपर है, पीछे है और उनका प्राण भी है। और जो अनुपस्थित हो जाये तो वे केवल मुर्दा लाशें रह जाती हैं। और जिसके अभाव में, संप्रदायों की अंत्येष्टि के सिवाय विवेक के पास और कोई चारा नहीं रह जाता है।
काश, हम जान पावें कि संप्रदायों के नाम से जो प्रचलित धर्म है वह कितना मृत है, तो जीवित धर्म की दिशा में हमारे चरण सहज ही गतिमान हो सकते हैं।
मैं अभी यात्रा में था। कोई पूछता था कि मेरा कौन-सा धर्म है? मैं क्या कहता? मैंने कहा, ‘धर्म मेरा है। मैं धर्म का हूं। और धर्म एक ही है। अनेक धर्म नहीं हैं, इसलिये अपने को किसका बताऊं?’
आज सारी जमीन पर ऐसा हुआ है। धर्म नहीं, ‘कोई धर्म’ विचारणीय बन गया है। यह बहुत अनर्थ बात है--बहुत बेहूदी बात है। इसके कारण धर्म विचार के बाहर ही रह जाता है। इसलिये, इतने धर्म-संप्रदाय हैं, इतने मंदिर, इतने पूजागृह, इतने शास्त्र कि चित्त की सारी भूमि उनसे भरी हुई है। पर धर्म कहां है?
शायद हमने धर्म के लिये अवकाश, स्पेस ही नहीं छोड़ा है। चित्त में स्थान ही नहीं है, जहां धर्म हो सके। यह बड़ी दुर्दशा है। इससे हम बिना धार्मिक हुए, धार्मिक होने के भ्रम में पड़ जाते हैं। सांप्रदायिक होना, धार्मिक होना नहीं है। उन दोनों में संगति नहीं, विरोध है। किसी सिद्धांत को, किसी शास्त्र को, किसी संप्रदाय, क्रीड को मानना और धार्मिक होना बड़ी भिन्न बातें हैं। संप्रदाय एक बौद्धिक आग्रह मात्र है। धर्म समग्र चैतन्य की क्रांति है। वह बौद्धिक आग्रहों, सिद्धांतों और विचारों से नहीं होती, वरन उसका आगमन तो तब होता है, जब बुद्धि पूर्ण निराग्रह और निष्पंद होती है।
मैं आपको देख रहा हूं। आपकी आंखों में देख रहा हूं। आपके मस्तिष्क में सरक रहे विचारों की पदध्वनियां मुझे सुनाई पड़ रही हैं। मस्तिष्क तो आपका भी बहुत सिद्धांतों को जानता है। बहुत शास्त्र और बहुत शब्द वहां कोलाहल कर रहे हैं। उनकी खूब भीड़ वहां है। धर्म के संबंध में, सत्य के संबंध में, परमात्मा के संबंध में सीखे गये सिद्धांत आपकी स्मृति में भरे हुए हैं। लेकिन क्या इससे धर्म का दूर का भी संबंध है? क्या यह ‘स्मृति-भार’ धर्म है? क्या ये सीखे हुए सिद्धांत धर्म हैं? क्या इनसे आप आनंद और आलोक को उपलब्ध हुए हैं?
मुझे पूछने की आज्ञा दें कि क्या आपके तथाकथित धर्म-संप्रदाय, विश्वास और मान्यतायें आपकी चेतना में कोई आमूल क्रांति, ट्रांसफार्मेशन उपस्थित करने में समर्थ हुए हैं? उनसे आप भर गये होंगे, लेकिन क्या बदले भी हैं?
मैं आपके जीवन में कोई आनंद-किरण नहीं देख रहा हूं। किसी आलोक का स्पर्श वहां नहीं दिखाई पड़ता। आपकी अंतरात्मा किसी भी संगीत से परिप्लावित नहीं मालूम होती। आपकी आंखें अंतस में उपलब्ध हुई किसी सौंदर्य अनुभूति, किसी सत्य-सान्निध्य की गवाही नहीं देतीं। सिद्धांतों और संप्रदायों से आप भरे होंगे, पर सत्य से क्या अभी वंचित नहीं हैं? संप्रदायों और सिद्धांतों में आप घिरे होंगे, पर धर्म ने अभी आपको मुक्त नहीं किया है।
धर्म का जीवन में जब स्पर्श होता है, तब वैसे ही सब बदल जाता है, जैसे सुबह सूरज के आगमन पर। अगर कोई कहे कि सुबह हो गयी और घना अंधेरा है, तो हम क्या कहेंगे? अगर कोई कहे कि सूरज निकल आया और चारों ओर निबिड़ रात्रि है और आकाश में तारे हैं, तो हम क्या कहेंगे? --कि सूरज अभी नहीं निकला, अंधेरा सूरज की अनुपस्थिति का काफी प्रमाण है।
ऐसा ही आज मनुष्य के साथ हुआ है। धर्म से उसका संस्पर्श क्षीण हो गया है। धर्म के विचार हैं, धर्म-शास्त्रों से संबंध है, धर्म-संप्रदायों से नाता है, पर धर्म से संपर्क नहीं है। और इसका काफी प्रमाण है वह अंधकार, जो हमारी चेतनाओं पर छाया हुआ है। इसका काफी प्रमाण है वह दुख, वह पीड़ा, वह संताप, एंग्विश जिसमें हम डूबे हुए हैं। मनुष्य क्या एक अर्थहीन, अर्थशून्य, मीनिंगलेस इकाई नहीं हो गया है?
यह मैं आपसे कह रहा हूं--किसी और वाष्पीय मनुष्य के संबंध में नहीं, आपके संबंध में कह रहा हूं। क्या, जो मैं कह रहा हूं, वह आपके संबंध में सच नहीं है? उसके सत्य को देखें--अपने में देखें। क्या आपको अपने भीतर कोई कृतार्थता और सार्थकता दिखाई पड़ती है? क्या भीतर वह दिखाई पड़ता है, जिसके कारण जीवन शांति और संगीत हो गया हो? क्या उसके दर्शन कहीं होते हैं, जिसके कारण मात्र जीना, केवल जीना, जस्ट लिव्हिंग भी एक अर्थ से भर जाता है और श्वास-श्वास में कृतार्थता का बोध होने लगता है?
वह तो कहीं नहीं है। विपरीत उसकी जगह एक रिक्तता, एम्पटीनेस है, एक अंधकार, डार्कनेस है, एक अत्यंत ऊब पैदा करने वाला खालीपन है और एक उदासीनता है, जैसी कब्रों के आसपास होती है। और इस रिक्तता और उदासी के कारण ही हम सब किसी भांति, कहीं भी अपने को उलझाये रखना चाहते हैं। इसके कारण ही कोई भी अकेला नहीं होना चाहता और हम सब अपने से ही भागे रहते हैं।
देखें--क्या हमारा जीवन--हमारा सारा जीवन अपने से ही भागने का एक ऐसा ही लंबा उपक्रम नहीं है? क्या यह जीवन है? क्या इसे जीवन कहियेगा? मित्र! यह जीवन नहीं, पलायन है। यह पलायन, एस्केप से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
मैं एक समय एक मरणासन्न व्यक्ति के पास था। उस घर में जैसा अंधकार, उदासी और दुख अनुभव हुआ था--उस घर के वातावरण में जैसा संताप अनुभव हुआ था--वैसा ही मुझे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दिखाई पड़ता है। यह कैसी स्थिति है? पर शायद ऐसा होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि मनुष्य जीवन के मूल-स्रोत से विच्छिन्न हो गया है।
धर्म से विच्छिन्न जो युग होता है--जो मनुष्य होता है, वह आनंद में नहीं हो सकता। स्व-सत्ता से जो विच्छिन्न होता है, उसका सब छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसके सब जीवन-सूत्र और अर्थ खो जाते हैं। और उसके चित्त के द्वार पर अर्थहीनता खड़ी हो जाती है। उसकी दिशा खो जाती है और चलना एक ऊब, बोरडम और क्लांति हो जाती है। क्योंकि उसे कहीं पहुंचना तो नहीं है; बस, चलना ही है। अर्थ-शून्य और उद्देश्यविहीन चलना सार्थक कैसे हो सकता है?
धर्म गंतव्य है। इसलिये धर्म गति को अर्थ देता है। उसके जादू में गति मात्र गति ही नहीं, गीत भी हो जाती है।
मैं उसी मूल-स्रोत, उसी जीवन-स्रोत के संबंध में कुछ कहूंगा और उस साधना के संबंध में भी, जिसके माध्यम से हम उस स्रोत से संयुक्त हो सकते हैं।
उस स्रोत को जानना है और उस स्रोत के मार्ग को जानना है।
जीवन में जो दुख व्याप्त है, वह हमारे कुछ भी करने से दूर होने का नहीं है जब तक कि हम जीवन को ही आमूल न बदल दें। वह दुख किसी बाह्य अभाव के कारण नहीं है। इसलिये सब अभाव मिट जावें तब भी वह बना ही रहता है। शायद और प्रगाढ़ भी हो जाता है क्योंकि तब अभाव दूर करने की व्यस्तता न रह जाने से उसका और भी नग्न साक्षात होता है। एक दरिद्रता वह है जो दरिद्रता में दीखती है, पर एक और गहरी दरिद्रता भी है, जिसके दर्शन पूर्ण समृद्धि में ही होते हैं।
जीवन का दुख किसी बाह्य अभाव के कारण नहीं है। अभावों के कारण कष्ट है। पर कष्ट दुख नहीं है और इसलिये सारे कष्ट मिट जावें तो भी दुख नहीं मिट जाता है। कष्ट और दुख के तल अलग हैं। वे अलग-अलग समस्यायें हैं। कष्ट परिधिगत असुविधायें हैं। दुख केंद्रगत संताप है। कष्ट बहुत हैं, दुख एक ही है। सब कष्टों को भी दूर कर देने से दुख दूर नहीं होता है। उसके निवारण का एकमात्र उपाय धर्म है। दुख असुविधा नहीं है, इसलिये किसी भी सुविधा से वह दूर नहीं होगा। दुख अज्ञान है--आत्म-अज्ञान। अंतस प्रकाश को उपलब्ध हो, तो ही वह दूर हो सकता है।
यह हो सकता है कि कोई सारे जगत को जीत ले, पर यदि वह अपने को अनजीता छोड़ दे, तो पायेगा कि कोई जीत उसकी जीत नहीं है। वह भीतर अब भी हारा हुआ है, अब भी पराजित है--स्वयं से पराजित है। उसकी बाहर की जीतें दूसरों को धोखा दे दें, पर स्वयं उसे धोखा नहीं दे सकतीं। वह दुख-स्थल, वह अंधेरा तो उसमें बना ही रहेगा, जो कि स्वयं को जीते बिना नहीं मिट सकता। उसे तो बाहर की विजय दुंदुभियों में नहीं छिपाया जा सकता है या कि कितनी देर छुपाया जा सकता है? उस दुखस्थल के बोध से टकराकर सब विजयें पराजयें हो जाती हैं और सब उपलब्धियां शून्य बन जाती हैं।
कोई स्वयं को कितनी देर वंचना में रख सकता है? हम सब कुछ पा लें, और स्वयं को खो दें, पर इतना अंधा कौन है कि देर-अबेर यह दीख न जावे? इस सौदे की व्यर्थता दीख ही जाती है। हीरों को खोकर जो कंकड़ों को खरीद लाता है, उसका सौदा भी इतना महंगा नहीं है। सब पाने के धोखे में वह व्यक्ति सब खो रहा है, जो कि स्वयं को खो रहा है। स्वयं को खोना सब खोना है। उस बिंदु के अभाव में सब भी पास में हो, तो उसका कोई मूल्य नहीं। क्योंकि सब मिलकर भी वह नहीं दे सकता है, जो कि उस अकेले ‘स्व’ में छिपा हुआ है।
‘स्व’ से बड़ी कोई संपदा नहीं है, क्योंकि उस अकेले को पाने से ही सब पा लिया जाता है और उस अकेले के खोने से ही सब खो जाता है। वस्तुतः वही एकमात्र संपदा है, क्योंकि वह हमारी अंतर्निहित शक्ति है, हमारा स्वरूप है और उसे पाये बिना कोई कुछ भी नहीं है।
जिसने स्वयं को ही नहीं पाया है, क्या कुछ और पाने के उसके दावे व्यर्थ ही नहीं हैं? जिसने स्वयं को ही नहीं पाया है वह केवल कुछ पाने के स्वप्न ही देख रहा है। उसकी सब संपदा स्वप्न-संपदा है। स्वप्न के खंडित होते ही वह पायेगा कि उसकी दरिद्रता का तो अंत नहीं है। वास्तविक संपदा की उपलब्धि स्वयं को पाने से प्रारंभ होती है। वह जागरण का प्रारंभ है। स्वयं को पाकर ही कोई उस दुःनिद्रा, उस दुःस्वप्न, नाइटमेयर से जागता है, जिसे कि हम जीवन समझ रहे हैं।
मनुष्य की शक्ति विस्तीर्ण होती जा रही है, पर मनुष्य शक्तिहीन होता जा रहा है। यह बात कैसी विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल प्रतीत होती है। पर यही हुआ है। बाहरी हमारी शक्ति बढ़ी है पर भीतर हम शक्ति शून्य हुए हैं। पदार्थ में हमारी गति हुई है, पर स्वयं हमारी सब गति अवरुद्ध हो गई है। पदार्थ को जानने में यह हमें स्मरण ही नहीं रहा कि स्वयं को भी जानना है। हम उस मिट्टी के दीये की भांति हैं, जो सब जगह प्रकाश करता है, पर उसके स्वयं के तले ही अंधेरा इकट्ठा हो जाता है!
स्मरण रहे कि मनुष्य चाहे अपनी शक्ति का विस्तार दूर-दिगंत तक कर ले, लेकिन तब तक वह शक्तिहीन ही होगा, जब तक कि उस छोटे बिंदु पर उसकी विजय नहीं है, जो कि वह स्वयं है। उस जीवंत कण पर--उस चैतन्य-अणु पर--विजय से ही शक्ति के, परम शक्ति के आधार रखे जाते हैं। उसे पाकर ही शक्ति का और ऊर्जा का जन्म होता है।
मित्र! मैं इस विजय के लिये आपको आमंत्रित करता हूं; इस चुनौती, चैलेन्ज को स्वीकार करें। आज तक कोई भी, कभी भी बाहर के जगत में कुछ भी पाकर आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है। आनंद आंतरिक जीत से मिलता है। हम भी उस आंतरिक को जीतें। हम भी उस मार्ग पर चलें, जिस पर वास्तविक विजेता चले हैं। वीरों और विजेताओं के उस मार्ग के संबंध में मैं कहूंगा। वह मार्ग ही धर्म है। स्वयं की विजय का मार्ग ही धर्म है।
थोड़ा हम सोचें। भीतर की पराजय को सोचें। स्वयं के भीतर हम कैसे सर्वहारा हैं! बाहर जिनकी विजय की पताकायें उड़ रही हैं या कि जो उनके उड़ाने के स्वप्न देख रहे हैं--वे भीतर क्या हैं? क्या वहां थोड़ी भी विजय है? क्या अपनी जीत का एक भी चिह्न वहां है? देखेंगे तो पायेंगे कि वहां सब हार है--हम वहां बिल्कुल हारे हुए हैं। थोड़ा-सा क्रोध उठेगा तो उस पर नियंत्रण नहीं हो सकता। काम की ज्वाला धधकेगी तो उससे जलना ही होगा। उससे बचाव नहीं है। अहंकार की लपटें पकड़ेंगी तो उन्हें शांत नहीं किया जा सकता। काम, क्रोध, लोभ, मोह, कुछ भी हो, किसी पर कोई वश नहीं है। उनका ही हम पर वश है। उनके हम दास हैं--हम जो कि बाहर सम्राट बने बैठे हैं! वासनाओं के वेगों में यंत्रों की भांति हम चलते हैं।
इतनी परतंत्रता है कि मनुष्य हम अपने को क्या कहें--यह स्थिति है। यंत्रों जैसी स्थिति है। अपना ही मन है और हम उसके मालिक नहीं। और जिनके भीतर इतनी पराजय है, वे बाहर विजय के स्वप्न देखते हों तो पागल हैं। स्वयं की इन पराजयों को जीते बिना, कोई मनुष्य पूरे अर्थों में मनुष्य नहीं बनता है। वासनाएं जब तक मालिक हैं और विवेक दास है तब तक हम मनुष्य से नीचे के तल पर हैं। विवेक की वासना पर विजय, अंधी वासनाओं पर विवेक की जीत से मनुष्य का जन्म होता है।
विजय का पहला चरण वासनाओं पर रखना होता है--अपने ही मन पर रखना होता है। भीतर जो भी अंधे वेग हैं और वृत्तियां हैं, उन्हें जीतकर ही हम कह सकते हैं कि मन हमारा है। अन्यथा कहने को ही वह हमारा है, पर हमारा जरा भी नहीं। उसके अचेतन, अन्कांशस वेग और प्रवाह हमें बहाये लिये जाते हैं। उनकी आंधियों में हमारी अपनी कोई सत्ता नहीं, कोई प्रभुता नहीं। चेतन विवेक को अचेतन की आंधियों के सामने बार-बार हार जाना पड़ता है। चेतन की लौ उनमें बार-बार बुझी-बुझी हो जाती है। यह संघर्ष जीवन भर चलता है, पर बहुत कम ऐसे सौभाग्यशाली होते हैं जो कि समाधान तक पहुंच पाते हैं। संघर्ष बहुत करते हैं, पर समाधान नहीं आता, क्योंकि सम्यक विधि का--जीत की सम्यक विधि, राइट मैथड का बोध ही नहीं होता है। सम्यक-विधि के अभाव में अकेला संघर्ष स्वयं को ही तोड़ देगा, पर समाधान उससे नहीं आ सकता। विजय के लिये विधि चाहिये--सम्यक विधि चाहिये, तभी कहीं पहुंचना और कुछ पाना हो सकता है।
एक कथा कहीं मैंने पढ़ी है। एक बार एक राजा ने सात जंगली घोड़े पकड़े। उसने उन्हें वर्ष भर खूब खिलाया-पिलाया और उनसे कोई काम भी नहीं लिया। वे स्वच्छंद घोड़े बहुत शक्तिशाली और खतरनाक हो गये। उन्हें अस्तबल से भी निकालना कठिन हो गया। उनके पास जाना भी खतरे से खाली नहीं था। तब उसने राज्य में घोषणा की कि जो सात व्यक्ति उन पर सवारी करेंगे, उन्हें वह सम्मानित करेगा और अपनी सेना में उच्च पदों पर लेगा और उनमें जो प्रथम आयेगा, उसे वह अपनी घुड़सवार सेना का सेनापति बनायेगा।
बहुत लोग उन घोड़ों को देखकर ही वापिस लौट गये। पर सात बहादुर सवारों ने साहस किया। प्रतियोगिता हुई। सौ मील के गंतव्य पर उन पर सवारी करके पहुंचना था। उन घोड़ों के लिये वह काम घंटों का भी नहीं था, पर राजा ने सात दिन का समय दिया था। उसने कहा कि सवार यदि सात दिन में भी उन घोड़ों को लेकर गंतव्य पर पहुंच सके, तो वह मानेगा कि उन्होंने घोड़ों को जीत लिया है!
नियत दिन पर घोड़े बाहर निकाले गये। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। उन घोड़ों के बाहर निकालते ही वे सवारों को लेकर--राह छोड़कर--जंगल की ओर भागे। उन्हें वश में करना था। सवार उनके ऊपर थे, लेकिन जरा भी उनके ऊपर नहीं थे। सवारों का उन पर कोई वश नहीं था। सवार उन्हें नहीं, वे ही उन सवारों को ले गये। सवार उन्हें नहीं ले जा सके, पर वे सवारों को लेकर हवा हो गये थे।
एक दिन बीता, दो दिन बीते, लोग चिंतित हुए। न सवारों का कोई पता था, न घोड़ों का कोई पता था। पर तीसरे दिन एक सवार लौटा--लहू-लुहान। वह भी चोट खाया हुआ, घोड़ा भी चोट खाया हुआ। फिर धीरे-धीरे सब लौटे, पर एक नहीं लौटा। जो सबसे पहले सवार हुआ था, वह नहीं लौटा। अत्यंत टूटे हुए और क्लांत छह सवार और घोड़े सात दिन की अवधि के पूर्व ही निश्चित गंतव्य पर पहुंच गये। पर प्रथम का अंत तक कोई पता नहीं था। करीब-करीब तय ही था कि वह समाप्त हो गया है और अब नहीं लौटेगा। पर सातवें दिन सूरज डूबने के पूर्व--समय के पूर्व ही वह भी लौटा और उसे देखकर सब चकित हो गये। वह गीत गाता लौट रहा था और उसका घोड़ा भी स्वस्थ था और प्रसन्न था और बहुत उमंग से भरा था और अपने मालिक के प्रति उसकी आंखों में कृतज्ञता और प्रेम था।
राजा ने उससे कहा : ‘तुम अकेले ही सवार मालूम होते हो, बाकी कोई भी सवार नहीं है। उन सबकी सवारी घोड़ों ने ही की है!’
उस राजा ने उसे अपना सेनापति बनाया। उसकी सवारी का रहस्य क्या था? वही रहस्य, सीक्रेट मन की सवारी का भी है। वह सवार अदभुत था। वह चार दिन तक केवल घोड़े की पीठ का साथी रहा। उसने सवार बनने की नहीं, साथी बनने की कोशिश की। उसने घोड़े की लगाम को छुआ भी नहीं। उसने उसे कोई दिशा नहीं दी। उसने उसे कोई इशारा तक नहीं किया। वह उसके ऊपर था पर बिल्कुल अनुपस्थित था। उसने उसे पता भी नहीं चलने दिया कि वह है।
घोड़ा स्वच्छंद था, घोड़ा मुक्त था और सवार केवल दर्शक था। घोड़ा जब थक जाता, वह उसे विश्राम देता, उसके लिये भोजन और छाया की व्यवस्था करता। वह जब फिर भागने को उत्सुक होता, वह चुपचाप उसकी पीठ पर हो जाता, लेकिन ऐसे जैसे कि कोई पीठ पर नहीं है--सवार नहीं, मात्र दर्शक। और यह रहस्य, सीक्रेट था। घोड़ा चार दिन में मित्र हो गया, विनीत हो गया। प्रेम से जीत हो गई थी और पराया अपना हो गया था। वह शत्रु नहीं रहा, मित्र हो गया। शत्रु को अस्वीकार किया जा सकता है, मित्र को अस्वीकार करना मुश्किल था। फिर सवार ने उसे जहां चाहा वह वहीं आ गया था।
इस जगत में, इस जमीन पर कोई तीन अरब सवार हैं और तीन अरब घोड़े हैं। पर उनमें से शायद ही कुछ हों जो कि सवार हों, बाकी सब किसी भांति घोड़ों से लटके हुए हैं। वे भी लहू-लुहान हैं और घोड़े भी लहू-लुहान हैं। यह यात्रा बड़े कष्ट और पीड़ा की है। जिसे सवारी ही नहीं मालूम, उसकी भी यात्रा कोई यात्रा है? जो अपने घोड़े पर, जो अपने मन पर ही सवारी नहीं कर पा रहे हैं, वे जीवन के अंत में, यात्रा के अंत में अपने को थका हुआ, टूटा हुआ और हारा हुआ पावेंगे। वे यात्रा के अंत में पावेंगे कि यात्रा व्यर्थ गई। यात्रा के अंतिम चरण में जिसे हम संतृप्ति कहें; संतुष्टि, फुलफिलमेंट कहें, उसको वह उपलब्ध नहीं हो सकेगा। आनंद उनका भाग्य नहीं होगा। जो उन्हें मिल सकता था, वे पायेंगे कि वह उन्होंने अपने ही हाथों खो दिया है।
धर्म मन को जीतने का उपाय है। लोग सोचते हैं कि धर्म मन से लड़ने का उपाय है। वे गलत सोचते हैं। लड़ाई से क्या कभी कोई जीत हुई है? शत्रु पर कभी विजय नहीं हो पाती है। शत्रु को हराया जा सकता है, पर जीता नहीं जा सकता। और ‘हराने’ और ‘जीतने’ में, मित्र! बहुत अंतर है। शत्रु हारने से टूट जाता है, दमित हो जाता है, पर शत्रुता नहीं टूटती। उस तल पर वह अपराजित ही बना रहता है। उसके भीतर आपकी विजय की स्वीकृति कभी भी नहीं हो पाती है। इसलिये मैं कहता हूं कि शत्रु आज तक नहीं जीते गये हैं, केवल मित्र ही जीते जाते हैं। केवल मित्रों पर ही विजय होती है। मित्रता में ही शत्रुता हारती और नष्ट होती है।
और यह नियम आंतरिक विजय में तो और भी ज्यादा निरपवाद और अपरिहार्य है। बाहर के शत्रु तो अन्य हैं, अंतस के शत्रु तो अन्य भी नहीं हैं। वे हमारी ही शक्तियां हैं--हमारी ही दिग्भ्रमित शक्तियां हैं। उन्हें नष्ट नहीं करना है। उन्हें हराना नहीं है। उन्हें जीतना है, और मार्ग देना है। उनका विनाश नहीं, संपरिवर्तन, ट्रान्सफार्मेशन अपेक्षित है। उनके विनाश से तो हम ही नष्ट हो जावेंगे। किंतु उनका संपरिवर्तन एक नये जीवन का प्रारंभ बन जाता है। जैसे खाद और मिट्टी परिवर्तित हो फूलों में और सुगंध में बदल जाते हैं, ऐसे ही जिन्हें, अज्ञान में हम अपने शत्रुओं की भांति जानते हैं, वे ही वेग और शक्तियां, एनर्जी.ज संपरिवर्तित हो, दिव्य-ऊर्जा और भागवत-जीवन के आधार बनते हैं। इसी अर्थ में धर्म उनका विनाश नहीं, विजय है।
आंतरिक वृत्तियों पर विजय का पहला नियम और सूत्र उनसे मैत्री है--मित्रता है। जो अपने जीवन की आंतरिक शक्तियों के साथ मित्रता साध लेता है, वह उनका विजेता हो सकता है। साधारणतः लोग बहुत विपरीत ढंग से धर्म को सोचते हैं कि महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट या कृष्ण--ये सब मन से शत्रुता को कह रहे हैं। यह धारणा गलत है। यह दृष्टि असत्य है। वे कोई भी शत्रुता को नहीं कह रहे हैं। वे विजय को कह रहे हैं। और विजय की सिद्धि मैत्री में और केवल मैत्री में ही संभव होती है।
जो जानता है, वह स्वयं के भीतर शत्रुता और अंतर्द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट को नहीं कह सकता है। उस भाषा में सोचना ही भूल है। वह भाषा आत्मघाती, सुइसाइडल है। अपनी ही शक्तियों से लड़कर परिणाम क्या हो सकता है? उससे शक्ति का हृस ही होगा और जीवन-ऊर्जा क्षीण होगी। भोग भी शक्ति का अपव्यय बन जाता है और दमन व संघर्ष भी। मैं तीसरे विकल्प को आपको समझाता हूं।
प्रत्येक के भीतर शक्तियों का एक अविजित क्षेत्र है। साधारणतः हम अंधे होकर उन शक्तियों के हाथ में यंत्र बने रहते हैं। वासनायें ही हममें सब कुछ होती हैं और विवेक शून्य होता है। या फिर, उतने ही अंधे होकर हम उनसे संघर्ष और विरोध करने लगते हैं। पहली अति भी भूल है और दूसरी अति भी। वस्तुतः तो अति मात्र ही भूल होती है। मार्ग सदा मध्य में है, वह अन-अति में है। वह समता में और सम्यक्त्व में है।
मनुष्य को--इसके पहले कि वह अपने को जीते और जाने--अपनी सारी अंतर्निहित शक्तियों से मैत्री करनी होती है। उन्हें जानना और उनसे परिचित होना होता है। उनसे संघर्ष नहीं, सहयोग को निर्मित करना होता है। एक शब्द में, उसे अपने से प्रेम करना होता है। हम अपने से भी प्रेम नहीं करते हैं। तो हम किसी दूसरे को क्या प्रेम करेंगे? अपने प्रति प्रेम का रुख अपनायें। अपने शरीर और मन दोनों के प्रति प्रेम की भावना करें। वे आपके जीवन के उपकरण हैं। आपकी आत्मा के मंदिर हैं। सहानुभूति और प्रेम के प्रकाश में ही वे अपने रहस्य खोलते हैं और आपको उनमें प्रवेश मिलता है।
प्रेम ही प्रवेश देता है। विरोध कैसे प्रवेश देगा? शत्रुता कैसे द्वार खोलेगी? शत्रुता का रुख ही उनके द्वार बंद कर देता है। वह वैसे ही है जैसे कि जिन दरवाजों पर ‘अपनी ओर खींचो’, पुल लिखा हो, कोई उन दरवाजों को धक्के, पुश दे। प्रेम अपनी ओर खींचता है और जीवन में अनुभूतियों के समस्त द्वारों पर ‘अपनी ओर खींचो’ यही लिखा हुआ है।
स्वयं को प्रेम करो और देखो। और तब आपको मेरी बात की सत्यता का पता चलेगा। प्रेम से स्वयं के भीतर वह वातावरण बनता है जो आत्म-निरीक्षण, सेल्फ आब्जर्वेशन को जन्म देता है। प्रेम की भूमि में ही आत्म-निरीक्षण का बीज अंकुरित होता है। प्रेम से पैदा हुआ सामंजस्य और संगीत ही उसके लिये खाद और पानी बन जाता है।
स्वयं के चित्त के मार्गों को जानने के लिए उनके निरीक्षण के लिये एक आंतरिक सामंजस्य, इनर हार्मनि की भूमिका बहुत आवश्यक है। विरोध, दमन और शत्रुता से प्रारंभ करने वाले उसे कभी पैदा नहीं कर पाते। जिससे शत्रुता और विरोध है, उसका निरीक्षण कैसे किया जा सकता है? वैसी स्थिति में तो निरीक्षण के पूर्व ही दमन शुरू हो जाता है।
चित्त को उसके समस्त वेगों और वासनाओं में जानना है। उसके समस्त ज्ञात और अज्ञात, चेतन और अचेतन रूपों से परिचित होना है। उसकी समस्त भूमि ज्ञात करनी आवश्यक है। स्वयं के भीतर ऐसा कोई कोना नहीं रह जाना चाहिये जो कि हमें ज्ञात न हो और जिस तक हमारा निरीक्षण न पहुंच गया हो। ऐसे कोने ही हममें बेसुरता पैदा करते हैं। और वे वासनायें और वेग ही हमें शत्रु जैसे मालूम होते हैं जिनसे कि हम परिचित नहीं हैं। विवेक जिन वासनाओं से पूर्णतया परिचित है और जिनके प्रति पूरी तरह जागृत हो जाता है, वे वासनायें अपना दंश छोड़ देती हैं और विवेक के प्रति विनीत और समर्पित हो जाती हैं।
चित्त के प्रति चेतना की पूर्ण सजगता, अवेअरनेस में वासनाओं का धुंआ विलीन हो जाता है और केवल विवेक की अग्निशिखा ही शेष रह जाती है।
जीवन का दुख और पीड़ा यही है कि भीतर हमारे एक स्वर नहीं है, एकता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति बहुत से स्वरों की अनेकता और भीड़ है। ये स्वर एक दूसरे से असंगत और स्व-विरोधी हैं। उनमें कोई सामंजस्य और कोई समस्वरता नहीं है। वे सब विभिन्न और विपरीत, और दिशाओं में दौड़ते मालूम होते हैं। उनकी यह स्थिति जीवन को संगीत नहीं, संताप बना देती है। और व्यक्ति नहीं, एक अराजकता, एनार्की ही हमारा भाग्य हो जाती है। वृत्तियों, इच्छाओं और वासनाओं की यह अंधी विक्षिप्तता ही दुख है। यही बंधन है। इससे मुक्त होना ही मोक्ष है।
क्या आपको अपने भीतर विरोधी स्वर और विक्षिप्तताएं नहीं दिखाई पड़ती हैं? मैं किसी सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं। जो तथ्य है, मात्र वही कह रहा हूं। जीवन के सिद्धांतों से नहीं, जीवन के तथ्यों से ही मुझे प्रयोजन है। और तथ्य जानने हों तो शास्त्रों में नहीं, स्वयं में देखें। किन्हीं सिद्धांतों से तुलना और किन्हीं परिकल्पनाओं का विचार न करें। अपने को देखें--अपने व्यवहार और चर्या को और अपनी अंतसवृत्तियों को--तो वहां एक व्यक्ति नहीं, अनेक व्यक्ति दिखाई देंगे--वहां व्यक्तियों का प्रवाह दिखाई देगा। और उस प्रवाह में कोई एकता, यूनिटी नहीं प्रतीत होगी।
‘मैं’ और ‘एक नाम’ से अपने को जानने की आदत एकता का भ्रम देती है, पर एकता दुर्लभ है। व्यक्ति होना कठिन है। उसका जन्म तो तब होता है, जब भीतर की सब अराजकता और विक्षिप्तता विलीन हो जाती है। वह तो उस अप्रमत्त स्थिति का नाम है, जब वासनाओं की आंधियां नहीं होती हैं और विवेक की शिखा अकंप जलती है। अभी तो आप अपने को क्षण-क्षण बदलता हुआ पावेंगे और बदलाहट ही नहीं, क्षण भर पहले जो थे, क्षण बाद उसके विरोध में भी पावेंगे।
स्वयं का ही हम प्रतिक्षण विरोध करते और खंडित करते हैं। और जिसे हम स्वयं बनाते हैं, उसे स्वयं ही मिटा देते हैं। जिसे हम प्रेम में बोते हैं, उसे घृणा में उखाड़ देते हैं। और शांति में जिसकी नीवें भरते हैं, अशांति में उसके शिखर गिरा देते हैं। एक हाथ से देते हैं और दे भी नहीं पाते हैं कि दूसरे से छीन लेते हैं! यही हमारी पराजय है, यही हमारा आत्मघात है। इस असंगति और असंगीत से जो मुक्त नहीं होता है, वह जीवन के आनंद को और सौंदर्य को नहीं जान पाता है। वह व्यर्थ जीता है और बोझ ढोता है।
मित्र! हम व्यर्थ ही जीते हैं। व्यर्थ ही नहीं, अनर्थ जीते हैं। और एक बहुमूल्य अवसर खो जाता है--बहुत अमूल्य अवसर खो जाता है। जिसमें कुछ हुआ जा सकता था, उसमें हम केवल मिटते और न होते हैं। और यह सिर्फ इसलिये कि हमारे भीतर ऐक्य, यूनिटी नहीं है। और स्मरण रहे जिसके भीतर ऐक्य नहीं है, जो ‘एक’ नहीं है, उसके भीतर कुछ भी नहीं है। एकता, स्वयं के भीतर एक का जन्म वास्तविक जीवन का आधार है।
आप एक हो या नहीं? अपने से पूछो और अपने में देखो। खोजो! खोजने से ज्ञात होगा कि वहां तो बहु-चित्त हैं। वहां तो अनेक हैं। एक चित्त का ख्याल भ्रम है। वह सबसे असत्य बात है। चित्त हैं, चित्त नहीं और यही पीड़ा है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह है ही नहीं। अनेकता, मल्टिप्लिसिटी जब तक है, तब तक मनुष्य नहीं है। आप एक भीड़, क्राउड हैं। किंतु जिसे जीवन को पाना हो, उसे व्यक्ति, इन्डिवीजुअल होना आवश्यक है।
एक बनो। व्यक्ति बनो। व्यक्ति यानी अविभक्त! मैं यही सिखाता हूं। अनेकता से और अराजकता से ऊपर उठो। यही मेरी शिक्षा है। यही मंत्र मैं आपको देना चाहता हूं। इसे ही मैंने परम सत्य तक पहुंचने का मार्ग जाना है।
यह कैसे होगा? हमारे भीतर अनेकता है पर और भीतर प्रवेश करने पर अनेकता नहीं है। वस्तुतः जो केंद्र है, वहां अनेकता नहीं है। वस्तुतः जो ‘मैं हूं’ वहां अनेकता नहीं है। चित्त अनेक हैं, पर चेतना, कांशसनेस अनेक नहीं है। हम चूंकि चित्त को ही अपना होना जानते हैं, इसलिये विभक्त और खंडित मालूम होते हैं। चित्त के साथ तादात्म्य, आइडेंटिटी ने हमें खंडित किया हुआ है। जैसे कोई खंडित दर्पण में स्वयं को देखे और पाये कि वह खंड-खंड हो गया है--ऐसी ही यह भूल हमारी है। चित्तों के भीतर चेतना को खोजना है और दर्पण के खंडित प्रतिबिंबों के पीछे उसे जानना है जिसके कि वे प्रतिबिंब हैं। उसे जानते ही अनेकता के धुएं में एकता की ज्योति उपलब्ध हो जाती है।
एक होना नहीं है, क्योंकि यदि हम वस्तुतः एक नहीं हैं तो कभी भी एक नहीं हो सकते हैं। जो हम वस्तुतः हैं, वही हमें होना है। जो हैं वही होना है। उसे ही पाना है, जो कि पाया ही हुआ है। वह संभव हो सके, इसलिये अपने में बहुत गहरे देखना आवश्यक है, दृष्टि जब स्वयं की आत्यंतिक गहराई में प्रवेश करती है तो अनेकता की लहरों के नीचे एकता का धरातल मिलता है। दृष्टि का, दर्शन का यह आत्यंतिक, अल्टिमेट प्रवेश ही योग है। दृष्टि जैसे-जैसे अंतस में चलती है, वैसे-वैसे अनेकता और अराजकता विलीन होती है। और फिर एक क्षण आता है, जबकि कोई भी दृश्य नहीं रह जाते हैं। दृश्यों का विलीन हो जाना, चित्तों का विलीन हो जाना है। फिर देखने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। बस, यही बचता है जो कि देखता है। यही वह ‘एक’ है, जिसे पाने से व्यक्ति का जन्म होता है।
दर्शन का अंतर्गमन ‘एक’ पर पहुंचाता है, और बहिर्गमन ‘अनेक’ पर। ‘अनेकता’ संसार है; ‘एकता’ मोक्ष है।
मैं अपने भीतर निरीक्षण करता हूं तो जो अनेक है, उसे संसार और जो एक है, उसे स्वयं जानता हूं। भीतर अनेक क्या है? वासनाएं अनेक हैं, विचार अनेक हैं, भावनाएं अनेक हैं। एक क्या है? विवेक एक है, चैतन्य एक है। वही एक ‘मैं’ हूं। वासनाओं का, विचारों का, भावनाओं का प्रवाह किसके समक्ष है? वे किसके लिये दृश्य हैं? वही ‘मैं’ हूं, जिसके वे समक्ष हैं और जिसके लिए दृश्य हैं। ‘मैं’ स्वयं के लिये दृश्य नहीं हो सकता है। ‘मैं’ स्वयं के समक्ष नहीं हो सकता, इसलिये जो भी मेरे समक्ष है, वह निर्णीत रूप से ‘मैं’ नहीं हूं, यह बोध जगाना है। इस बोध से वासनाओं, विचारों और भावनाओं से बंधा हुआ मिथ्या तादात्म्य क्षीण होता है और अंततः नष्ट होता है। उस आभास के विसर्जन पर ही चित्तों से जो अतीत है, उस चेतना की अनुभूति होती है। वह अनुभूति ‘एक’ में ले जाती है और ‘एक’ बनाती है।
यह जीवन क्रांति वासनाओं, विचारों और भावनाओं के दमन, रिप्रेशन से नहीं होती है। वह उनसे युद्धरत होने से नहीं होती। वह होती है सम्यक निरीक्षण, राइट आब्जर्वेशन से। वह होती है उनके प्रति जागृत होने से। ‘सहज सजगता’--इन दो शब्दों में ही सारी विधि है। चित्त जिनसे राग करता है, उनसे द्वेष करना कठिन नहीं है। द्वेष राग का ही दूसरा रूप है। वह उसकी ही प्रतिक्रिया, रिएक्शन है। वह राग से अन्य नहीं, राग का ही उलटा रूप है। वह शीर्षासन करता हुआ राग है। वह मुक्ति नहीं, दूसरी ओर से नये रूप में पुराना ही बंधन है।
राग और विराग, भोग और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक में दूसरा भी प्रच्छन्न रहता है। एक ऊपर होता है, तो दूसरा उसके नीचे छिपा रहता है। इसलिये भोगी के चित्त में त्याग की अंतःधारा चलती रहती है और तथाकथित त्यागी के अवचेतन में भोग की। त्यागी भोग के सपने देखता है और भोग के आक्रमणों से पीड़ित रहता है और भोगी भी त्याग के सपने देखता है और त्याग का आकर्षण अनुभव करता है।
पुण्यात्मा कहे जाने वाले लोग जो सपने देखते हैं, उनमें अपने को पापियों जैसा ही पाते हैं, यह बहुत अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ है कि चित्त में प्रत्येक वृत्ति अपनी विरोधी, किंतु पूरक वृत्ति को सदा छिपाये रखती है। उनमें से किसी को भी चुनना चित्त के बाहर और ऊपर जाने का मार्ग नहीं है। वे दोनों ही चित्त की हैं और चित्त में हैं। उनमें से चुन लेना तप नहीं है। तप दोनों के बीच अ-चुनाव, च्वाइसलेसनेस में है। अ-चुनाव तपश्चर्या है। वही असली और कठिन बात है। राग और विराग के द्वंद्व में जो तटस्थ है, वही तपस्वी है।
मैं संसार छोड़कर संन्यास लेने को नहीं कहता। मैं कहता हूं संसार और संन्यास की वृत्तियों के प्रति सम्यक जागरण को। संसार छोड़कर जो संन्यास लिया जाता है, वह संसार का ही रूप होता है। उसमें संसार छुपा रहता है और संन्यासी का प्राण बना रहता है। वह संन्यास वास्तविक नहीं, और केवल वेषभूषा का संन्यास है। वास्तविक संन्यास संसार का विरोध नहीं है। वह राग के विपरीत विराग नहीं है। वह राग और विराग से मुक्ति है। वह संसार और संन्यास दोनों से मुक्ति है। वह उन दोनों में नहीं है। वह एक तीसरी अवस्था है। वह द्वंद्व के बाहर है, वही केवल स्वयं में ले जाता है।
और द्वंद्व के बाहर क्या ले जाता है? --द्वंद्व के प्रति जागरण! वही द्वंद्व के बाहर ले जाता है। जागरण तीसरा सूत्र है। वह द्वंद्व के बाहर और अतीत है। उसे साधने को ही मैंने तपश्चर्या कहा है। वह साधना अदभुत रहस्यों का उदघाटन करती है और अलौकिक जगत के द्वार खोलती है। जागरण चेतना में प्रतिष्ठित करता है और विकल्पों के ऊपर उठाता है। वह निर्विकल्प बनाता है और निर्विकल्पता में जो खड़ा होता है, वह वासना में नहीं, विवेक में खड़ा हो जाता है। विकल्प में जो है, वह वासना में है। निर्विकल्प में जो है, वह विवेक में है।
वासना और विवेक का सेतु निर्विकल्प साक्षी भाव है। लेकिन जो वासना के दमन में पड़ जाते हैं, वे बुरी तरह भटक जाते हैं। इस जगत में दो भटकनें हैं : भोग की भटकन और दमन की भटकन। संसार और तथाकथित संन्यास, दोनों उलझने हैं और बंधन हैं। तपश्चर्या दोनों के बीच संयम और संतुलन उपलब्ध करने में है। जैसे कोई दो खाइयों के बीच पतली पगडंडी पर चले, संयम ऐसा ही संभलकर चलना है। एक से बचने वाला दूसरी में गिर जाता है। जिसे बचना है, उसे दोनों से बचना होता है। भोग और दमन दोनों ही वरणीय नहीं हैं।
मैं तथाकथित साधुओं और धार्मिकों को देखता हूं, तो उन पर मुझे बहुत दया आती है। वे तपश्चर्या में नहीं, आत्महिंसा में लगे हुए हैं। उसे ही उन्होंने तप जाना है। वह तप नहीं, हिंसा है। हिंसा और घृणा की वृत्तियों को उन्होंने अपने ही प्रति उलटा लिया है। वे अपने ही दुश्मन बन गये हैं। और स्वयं के दमन और स्वयं को सताने में उन्हें जो रस आ रहा है, वह हिंसा का ही रस है। यह अत्यंत सूक्ष्म हिंसा है और ऊपर से दिखाई नहीं पड़ती है, इसलिये ज्यादा खतरनाक भी है। यह हिंसा सिवाय अहंकार-संवर्धन के और कहीं नहीं पहुंचाती है। और यह भी स्मरणीय है कि जो अपने प्रति हिंसक होता है, वह वस्तुतः दूसरों के प्रति अहिंसक नहीं हो सकता है। वैसा होना असंभव है।
अहिंसा का प्रारंभ स्वयं से ही होता है। स्वयं के प्रति हिंसा करने वाला, दूसरों के प्रति अहिंसक दीख सकता है, क्योंकि वह हिंसा की वृत्ति और वेग को स्वयं पर ही तृप्त कर लेता है। किंतु वह अहिंसक नहीं है और किसी भी क्षण उसका विस्फोट हो सकता है और उसके रुखों और क्रियाओं में अहंकार और हिंसा की झलक तो सदा ही प्रच्छन्न रहती है।
वस्तुतः जिसका भी दमन किया जाता है, वह कभी नष्ट नहीं होता। उसके दबे वेग और प्रवाह बने ही रहते हैं और विस्फोट के लिये अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते हैं। दमन से वासनाओं के बीज दग्ध नहीं होते और वर्षा आने पर उनमें पुनः अंकुर आ जाते हैं। फिर जिसे दबाया है, उसे रोज दबाना होता है। उसे प्रतिक्षण दबाना होता है--वस्तुतः उसे दबाये ही रहना होता है। फिर भी कोई फल नहीं आता है और अंततः पाया जाता है कि जो जहां था, वह वहीं ही है।
एक कथा स्मरण आती है। उसे कहूंगा।
एक संध्या दो भिक्षु किसी पहाड़ी नदी को पार करते थे। एक था वृद्ध संन्यासी, दूसरा युवा। वृद्ध आगे था, युवा पीछे। नदी तट पर एक युवती खड़ी थी। वह भी नदी पार करना चाहती थी। किंतु अपरिचित पहाड़ी नदी थी और तीव्र उसका प्रवाह था। युवती उतरने का साहस नहीं कर पा रही थी।
वृद्ध संन्यासी उसके निकट आया तो उसकी दुविधा देख उसने सोचा कि उसे हाथ का सहारा दे दूं। लेकिन यह क्या? हाथ का सहारा देने के विचार के आते ही, जैसे कोई सोया सर्प अचानक फन उठा ले ऐसे ही कामवासना उसके रोयें-रोयें में कांप गई।
शरीर वृद्ध था, पर वासना अभी भी युवा थी। विकारों को दबाया था, पर वे मौजूद थे। दमन के अनेक वर्ष एकदम विलीन हो गये। बहुत तप, संघर्ष किया था, उसकी कोई रेखा भी शेष न रही।
यह क्या हुआ? क्या सब श्रम जल पर रेखायें खींचने जैसा ही व्यर्थ नहीं हो गया था? वह अपने से ही भयभीत वृद्ध आंखें नीचे झुकाकर नदी पार करने लगा। पर आंखें झुकाने या बंद करने से तो कुछ होता नहीं है।
स्त्री या पुरुष बाहर नहीं हैं, वे तो भीतर ही छिपे हैं। काश! विकार बाहर होते तो उन्हें छोड़कर भागा जा सकता था, लेकिन वे तो भीतर हैं, भागने वाले के साथ हैं। उन्हें छोड़कर भागने का उपाय नहीं। उन्हें दमन करने का भी उपाय नहीं, क्योंकि दमन से वे आप में और भी गहरे प्रविष्ट हो जाते हैं और आपके चित्त-भवन के और भी अंधेरे, अज्ञात और अचेतन प्रकोष्ठों में उनका निवास हो जाता है। वे चेतन, कांशस से हट जाते हैं, पर अचेतन, अन्कांशस के अतिथि हो जाते हैं।
उस वृद्ध ने नदी पार की। उसने पीछे नहीं देखा, किंतु उसका मन पीछे की ओर ही भाग रहा था। वह युवती तो उसके शरीर के पीछे थी, किंतु उसके मन में युवती आगे थी। उसके मन में अनेक विकल्प उठे। सोचता था, सहारा दे ही क्यों न दिया? लेकिन एक वासनाग्रस्त लिप्सा भी उसके मन में व्याप्त होती चली गई। वह बहुत घबड़ा गया और ग्लानि से भर गया। उसने भगवान का स्मरण किया और कहा, ‘मुझे क्षमा करें। बड़ी भूल हुई है। यह मैंने क्या कर लिया है?’
यूं ऊपर से उसने कुछ भी नहीं किया था, पर असली करना तो सब भीतर घटित होता है। बाहर तो केवल उसकी प्रतिछायाएं ही आती हैं। विचार ही असली कर्म हैं। बंधन और मोक्ष वही हैं। वे विचार फिर वस्तुतः कर्म में आते हैं या नहीं इससे बहुत भेद नहीं पड़ता।
वह वृद्ध संन्यासी जब नदी के उस पार पहुंचा, तो उसे याद आया कि उसके पीछे उसका युवा साथी भी आ रहा है। वह चिंतित हुआ कि कहीं वह भी उसी पाप-चिंतना में न पड़ जावे, जिससे वह स्वयं पीड़ित और पतित हुआ है।
उसने लौटकर देखा--और वह आंखें फाड़े देखता ही रह गया? उसे अपनी आंखों पर विश्वास करना मुश्किल था। वह युवक उस युवती को कंधे पर लिये नदी पार हो रहा था! उसे आग लग गई और वह उत्तप्त और अशांत हो गया। उसका स्वयं का काम क्रोध में परिणत हो गया।
फिर वे बड़ी देर तक आश्रम की ओर चुपचाप चलते रहे। वृद्ध इतना क्रुद्ध था कि कुछ भी बोल नहीं सका। अंततः जब वे आश्रम में प्रवेश करने लगे, तो उसका बांध टूट ही गया।
वह बोला, ‘आज तुमने बहुत पाप किया है। विकारों के उस ढेर को तुमने कंधे पर क्यों लिया था? उस युवती को स्पर्श क्यों किया? अब मैं इस पाप के संबंध में गुरु को बिना बताये कैसे रह सकता हूं? तुमने संन्यास का और शील का नियम भंग किया है।’
उस युवक ने यह सुना और उत्तर में कहा, ‘क्षमा करें। उस युवती को तो मैं नदी तट पर ही छोड़ आया हूं, लेकिन प्रतीत होता है कि आप उसे अभी भी अपने कंधे पर लिये हुए हैं।’
यह आश्चर्यजनक है, किंतु स्वाभाविक है। दमन का यह सहज परिणाम है। जिसने कंधे पर नहीं लिया था, वह उसे कंधे पर लिये हुए था और जिसने लिया था उसने लिया ही नहीं था। प्रश्न कंधों का नहीं, मन में लेने और न लेने का है। और यह मन बहुत सूक्ष्म और बहुत वंचक है।
जो इसे नहीं जानते हैं और इसके सूक्ष्म मार्गों से परिचित नहीं होते, वे लड़ते तो हैं, लेकिन कभी जीतते नहीं। उनका श्रम व्यर्थ जाता है और उनकी जिंदगी आत्म-वंचना की एक लंबी कथा हो जाती है। और स्वयं के प्रति धोखे में बने रहना, दूसरों को धोखे में रखने से बहुत ज्यादा घातक है।
दमन ऊपर से फूल चिपका देता है, और भीतर कांटे ही कांटे होते हैं।
दमन ऊपर से सुगंध छिड़क देता है, और भीतर दुर्गंध बनी रहती है।
दमन ऊपर से शुभ्र वस्त्र दे देता है, और भीतर कालिख ही कालिख होती है।
कुछ भी बदलता नहीं है, और सब बदला हुआ मालूम होने लगता है। भीतर सब वही, बाहर सब भिन्न दिखता है। इससे स्वयं भी धोखे में आ जाना संभव होता है। क्योंकि हमें जैसा दूसरा मानते हैं, वैसा ही हम स्वयं को भी मानने लगते हैं। स्वयं को भी हम दूसरों के माध्यम से ही तो जानते हैं। वह जानना भी हमारा प्रत्यक्ष, इमीडिएट और सीधा नहीं है। वह भी परोक्ष, मीडिएट है। इससे ही हम दूसरों के सामने अपने शील को, अपनी नैतिकता को और अपने शुभ को सिद्ध करना चाहते हैं, ताकि उस पर हम स्वयं विश्वास कर सकें। दूसरों को विश्वास दिला देने से हमें स्वयं विश्वास आ जाता है। इससे ही यदि दूसरे हमारी निंदा करें, आलोचना करें--हमें और हमारी साधुता को स्वीकार न करें--तो हम उनसे भय खाते और दुखी होते हैं, क्योंकि वे इस भांति हमारे तथाकथित आत्म-विश्वास को तोड़ते हैं। उनने ही हमें बनाया है, वे ही हमें मिटा भी सकते हैं।
वासना और विकार को जिसने छिपाया है, उसकी यही गति है। वह और उसका चरित्र दूसरों के मतों, ओपीनियन्स से बने हुए हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत कागजी होता है और पानी की थोड़ी-सी बूंदें उसके रंग-रूप को बहा ले जाती हैं।
आपसे मैं यही पूछता हूं? आपके इरादे क्या हैं? क्या कागजी व्यक्तित्व चाहते हैं या कि अपने आधार फौलाद पर रखने हैं? कागजी व्यक्तित्व बनाना हो तो किसी और से पूछें--मैं तो केवल फौलादी आधारों के ही संबंध में बता सकता हूं! ऊपर से सुगंध छिड़क लेने का रास्ता मैं नहीं जानता हूं--मैं तो कैसे आपके प्राणों से सुगंध उठने लगे, आपकी श्वास-श्वास और रंध्र-रंध्र सुवास में परिणत हो जावे, वही और केवल वही बता रहा हूं। निश्चित ही मेरा मार्ग लंबा है, क्योंकि वह मार्ग है। जो मार्ग ही नहीं हैं और केवल आभास हैं, वे ही छोटे हो सकते हैं।
मैं दमन को नहीं, विसर्जन को कहता हूं। सवाल यह नहीं कि आप क्या दबा लेते हैं? दबाइयेगा कहां? उसे केवल दूसरे से छिपा लेंगे--लेकिन स्वयं से? वहां तो वह विसर्जन से ही विलीन होता है। वासना छिपानी नहीं, मिटानी है। उससे मुक्त होना है। उसे कैद नहीं करना है। बंदी वासना और बंदी विकार आपको भी बंदी रखते हैं। वे जितने आपके बंदी हैं, आप भी उनके उतने ही बंदी हैं।
एक व्यक्ति एक गाय को बांधकर लिये जाता था। किसी फकीर ने उससे पूछाः ‘मित्र! गाय को तुम बांधे हो या कि गाय तुम्हें बांधे हुए है?’ यह प्रश्न बहुत अपूर्ण है। बंधन सदा पारस्परिक, म्युचुअल होते हैं। जिसे आप बांधते हैं, उससे आप भी बंध जाते हैं। वासनाओं को बांधना नहीं है, उन्हें विसर्जित करना है। विसर्जन से ही आपकी स्वतंत्रता फलित होती है। वही व्यक्ति स्वतंत्र है, जिसके बंधन नहीं हैं और जो किसी के बंधन में नहीं है।
भोग में आप वासनाओं के बंधन में होते हैं। दमन में वासनाएं आपके बंधन में होती हैं। दोनों ही स्थितियां परतंत्र हैं। स्वतंत्र वह है जो वासनाओं से मुक्त है--जिसकी कि वासनाएं हैं ही नहीं। उनके अभाव में ही केवल स्वतंत्रता है।
वासना-अभाव स्वतंत्रता है। शेष सब परतंत्रताओं के ही रूप हैं। राग और विराग, भोग और त्याग, सभी परतंत्रताएं हैं। वीतरागता ही एकमात्र स्वतंत्रता है।
मैं एक गांव में था। किसी ने वहां पूछा थाः ‘लेकिन साधु तो दमन को कहते हैं और धर्मों की शिक्षाएं तो दमन के ही लिये हैं?’ मैंने कहा, ‘जो दमन के लिये कहे, वह जानता ही नहीं है। वह मार्ग अज्ञान का है, ज्ञान का नहीं। ज्ञान दमन को नहीं, मुक्त होने को कहता है।’
धर्म--कोई वास्तविक धर्म दमन नहीं सिखाता है। लेकिन समझने वालों में भूल हो सकती है, क्योंकि अकसर हम वही समझ लेते हैं जो कि समझना चाहते हैं। और हमारी समझ हमारे तल की ही होती है। उदाहरण के लिये, महावीर को लें। उनका जीवन उत्कट साधना का जीवन था। वैसे तपस्वी बहुत कम हुए हैं। पर उन्हें समझा नहीं जा सका और जो उनके पीछे हैं, वे उन्हें बिल्कुल भी नहीं समझ सके। यही समझा जाता है कि महावीर दमन के मार्ग के प्रणेता थे। वे अपनी देह, और मन का दमन कर रहे थे। इससे असत्य और कोई बात नहीं हो सकती। महावीर की अत्यंत विधायक, पाजिटिव साधना, ऐसे अत्यंत नकारात्मक, निगेटिव रूप ले लेती है।
महावीर देह और मन का दमन नहीं कर रहे थे। वे तो उसे जगा रहे थे कि जिसके प्रकाश में देह, मन के बंधन विसर्जित हो जाते हैं। उनका कार्य उस विधायक तत्व के जागरण से संबद्ध था, देह मन को सुलाने से नहीं। उस विधायक का जागरण अपने आप ही देह और मन से मुक्ति बन जाता है। पर बाहर से जो देखते हैं, उन्हें नकार ही दिखाई पड़ेगा। उन्हें छोड़ना ही दिखाई पड़ेगा--पाना नहीं। जबकि पाना सब छोड़ने के पूर्व है। उन्हें विसर्जन दमन जैसा प्रतीत होगा, क्योंकि जिसके कारण विसर्जन हो रहा है, उसके प्रति उनमें आंखें नहीं हैं।
महावीर के आचरण को ही जो जानते हैं, वे दमन ही देख पावेंगे। पर जो उनके अंतस को जानते हैं, वे कुछ और जानते हैं। उनका जानना बहुत भिन्न है। वे साधना की विधायकता को जानते हैं। नकारात्मक जो भी दिखाई पड़ता है, वह उस विधायक का सहज परिणाम मात्र है। असार को छोड़ना नहीं, सार को पाना ही आधारभूत है। मैंने ऐसा ही जाना है। महावीर के अंतस में देखता हूं, तो ऐसा ही पाता हूं।
संसार असार है, ऐसा मानकर जो साधना के जीवन को अपनाता है, वह बहुत कच्ची नींव पर भवन खड़ा करता है। पक्की नींव तो तब उपलब्ध होती है, जब ज्ञात होता है कि आत्मा सार है। संसार का असार अनुभव होना साधना के लिये जिज्ञासा हो सकती है, लेकिन साधना का जीवन नहीं। उस जीवन की शुरुआत तो उसके अनुभव से होती है जो कि सार है। असार के बोध पर खड़ी साधना नकारात्मक है। सार का आधार साधना को विधायकता देता है। और उसके बाद ही वास्तविक जीवन में प्रवेश होता है। निषेध और नकार कहीं भी ले जाने में समर्थ नहीं हैं। दमन निषेध है। वह अशुभ का विरोध है। विसर्जन निषेध नहीं है, शुभ का जागरण है। दमन नकार है। विसर्जन विधेय है।
सुबह सूरज उगता है। घास पर, वृक्षों के पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदें उसकी किरणों के आते ही विलीन हो जाती हैं, वाष्पीभूत हो जाती हैं। फिर उन्हें ढूंढ़कर भी नहीं पाया जा सकता। उनका जीवन रात्रि के शीतल अंधकार में था। प्रकाश और उत्ताप उनका जीवन नहीं है। ऐसे ही जब भीतर ज्ञान के सूरज का जन्म होता है तब विकार की, वासना की बूंदें वाष्पीभूत, एव्हपोरेट हो जाती हैं। उन्हें दमन नहीं करना होता। न उन्हें मिटाने को ही कुछ करना होता है। बस, वे नहीं पाई जाती हैं। ज्ञान का और उनका सह-अस्तित्व, को-एग्जिस्टेंस असंभव है। ज्ञान और वासना साथ-साथ नहीं होते। ज्ञान के आते ही वासना, पेशन विलीन होती है और उसमें अंतर्निहित शक्ति करुणा, कम्पेशन में परिणत हो जाती है।
अज्ञान के साथ वासना होती है, ज्ञान के साथ करुणा। वासना अज्ञान का प्रगट रूप है, करुणा ज्ञान का। वासना अज्ञान की देह है, करुणा ज्ञान की। इसलिये ही, वासना से अज्ञान पहचाना जाता है। जहां करुणा है, वहां ज्ञान है। वही ज्ञान की कसौटी है। वही ज्ञान की परीक्षा है। वही ज्ञान की खबर है।
किंतु इससे कहीं यह भ्रांति आपके मन में न पैदा हो जावे कि वासना को करुणा में बदलना है। वह परिवर्तन सीधा नहीं होता। वह परिवर्तन परोक्ष है। ज्ञान के जागरण और अज्ञान के विलीन होने से वह परिवर्तन होता है। जिस भ्रांति के प्रति मैं आपको सचेत कर रहा हूं, वह बहु-प्रचलित है। उसके कारण ही दमन और नकार ने धर्मों की अंतरात्मा को ग्रसित कर लिया है। ज्ञान को जगावें--शेष सब उसके बाद होता है। सूर्य न हो, उसका उत्ताप न हो और अंधेरी और सर्द रात्रि हो, तो ओस की बूंदों को आप छिपा सकते हैं, मिटा नहीं सकते। और जो छिपाने में लगा है, वह गलती में लगा है। उस आत्म-वंचना में कोई न पड़े। शक्ति और श्रम के अपव्यय के अतिरिक्त उसमें कुछ भी नहीं है।
एक शब्द को अपने स्मरण में रख लें। वह शब्द हैः ‘विसर्जन।’ विसर्जन की प्रक्रिया बहुत मूलभूत है। वह शब्द समस्त योग का सार सूत्र है। उस प्रक्रिया का रहस्य इसमें है कि वह विसर्जन ही नहीं, वस्तुतः संपरिवर्तन, ट्रांसफार्मेशन भी है। शक्तियां विसर्जित नहीं होतीं, वे संपरिवर्तित होती हैं। उनके रूप बदलते हैं और उनकी दिशा बदलती है। अधोगमन की जगह ऊर्ध्वगमन आता है। पशु की ओर उन्मुख न होकर, शक्तियां प्रभु की ओर उन्मुख हो जाती हैं। उनका उदात्तीकरण, सब्लिमेशन ही विसर्जन है।
जगत में जो भी है, वह कुछ भी नष्ट नहीं होता है। और जो नहीं है, उसका सृजन भी नहीं होता है। न सृजन है, न विनाश है। जगत में केवल परिवर्तन है। वासनाओं के नष्ट होने का अर्थ है कि वह शक्ति जो वासना में प्रगट थी, उसने अभिव्यक्ति का दूसरा मार्ग ले लिया है। अभिव्यक्ति का मार्ग बदलता है, शक्ति नष्ट नहीं होती। जो प्रेम में प्रगट होती है, वह वही शक्ति है, जो कि घृणा में प्रगट होती थी। जो पशुता में परिलक्षित होती है, वही शक्ति दिव्यता में भी मौजूद होती है। लोहा स्वर्ण बन जाता है और कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं। शक्ति का ऊर्ध्वगमन है, विनाश नहीं। उसे समझें और स्मरण रखें; क्योंकि उस पर ही साधना की सारी दिशा निर्भर होती है।
वासना और विकार के साथ सीधा कुछ भी नहीं करना है। वे केवल मार्ग हैं। मैं--वह शक्ति--जो कि उन मार्गों पर गतिमय हूं, यदि दूसरे मार्गों पर गतिमय हो जाऊं, तो वे मार्ग समर्थ हो जावेंगे। उनके साथ नहीं, अपने साथ कुछ करना है। इसे ही मैं साधना की विधायकता कहता हूं। इस भांति उस प्रकाश की अनुभूति होती है, जिसकी उपस्थिति में वासना और विकार का अंधकार विलीन हो जाता है। अंधकार को मिटाना नहीं होता; प्रकाश को जलाना होता है।
जो अंधेरे को मिटाने और निकालने में लगे हैं, उनकी आस्था दमन है। मैं प्रकाश जलाने को कहता हूं। मेरी आस्था दमन नहीं, विसर्जन है। पाप प्रश्न नहीं है, प्रश्न प्रभु है। पाप को नहीं मिटाना, प्रभु को जगाना है। और जब मैं पाप का चिंतन करते और उसे मिटाने और जीतने का उपाय सोचते लोगों को देखता हूं तो मेरी पीड़ा का अंत नहीं रहता है। पाप का विचार व्यर्थ है। पाप है कहां? उसकी वास्तविक सत्ता कहां है, जो कि उसके साथ कुछ भी किया जा सके? वह तो स्व-बोध का अभाव ही है। उस पर नहीं, स्व-बोध पर कार्य करना है।
धर्म पाप-त्याग से नहीं, प्रभु-उपलब्धि से फलित होता है। यह मैं सबसे कहना चाहता हूं। उन हृदयों तक यह पुकार पहुंचाना चाहता हूं जो कि पाप-त्याग के विचार से पीड़ित हैं। उनकी अभीप्सा शुभ है, पर मार्ग ठीक नहीं। उनकी आकांक्षा शुभ है, पर दिशा विपरीत है। ऐसे शुभाकांक्षी हृदय भी व्यर्थ ही पीड़ा पाते हैं, क्योंकि अंधकार को सीधा निकालना और मिटाना असंभव है।
मनुष्य को पाप में मानना भूल है। मनुष्य पाप में नहीं, अज्ञान में है। जो भी पाप है, वह उसके अज्ञान का फल है। पाप नहीं अज्ञान--चोट अज्ञान पर करनी है और वह चोट ज्ञान से ही हो सकती है। अंधकार पर चोट करनी है, तो वह चोट प्रकाश से ही हो सकती है।
प्रकाश से चोट करें--ज्ञान से चोट करें--जागरण से चोट करें। प्रकाश को जलाने में लगें और फिर देखें कि क्या होता है?
अंधकार क्या है? अज्ञान क्या है? वे तो मात्र अभावों के नाम हैं! अपने में उनका कोई होता नहीं! उनके भीतर वे कुछ भी नहीं हैं! स्वयं में वे एकदम खाली हैं। समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं? एक दिन किसी से मैंने पूछा कि प्रकाश क्या है? उन्होंने कहाः ‘अंधेरे का न होना।’ यह परिभाषा ठीक लगती है न? पर यह ठीक नहीं है। भाषा की दृष्टि से तो ठीक ही है, पर सत्ता की दृष्टि से नहीं।
प्रकाश अंधेरे का न होना नहीं है। प्रकाश तो प्रकाश का ही होना है। वह किसी का न होना नहीं, अपना ही होना है। उसकी स्वयं की सत्ता है। अंधेरे को तो हम कह सकते हैं कि वह प्रकाश का अभाव है। पर प्रकाश को नहीं कह सकते कि वह अंधेरे का अभाव है। यह इसलिये नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अंधेरा हो तो अंधेरे को हटाकर प्रकाश नहीं किया जा सकता। और प्रकाश न हो तो अंधेरे को लाकर उसे नष्ट ही किया जा सकता है। अंधेरे के साथ और अंधेरे के द्वारा कुछ भी नहीं किया जा सकता है। उसके साथ जो भी करना हो वह उसके साथ नहीं, प्रकाश के साथ करना होगा। इसलिये प्रकाश तो सत्ता है, अंधेरा सत्ता नहीं, वह प्रकाश की असत्ता मात्र है।
और ऐसा ही पाप है। और ऐसा ही अज्ञान है। और ऐसा ही संसार है। इनसे जो सीधा लड़ता है वह पागल है और जो लोगों को ऐसा सीधा लड़ने को समझाता है, वह उन्हें पागल होने की राह बताता है। सभ्यता जैसे बढ़ती है, विक्षिप्तता बढ़ती जाती है। इसका कारण क्या है? सभ्यता पागलों को क्यों पैदा करती है?
इसका कारण दमन है। इसका कारण बिना प्रकाश जलाये, अंधेरे से लड़ना है। और बहुत-से साधक और साधु जो पागल हो जाते हैं, उसका कारण भी यही है। उनका उन्माद और तथाकथित विक्षिप्त मस्ती परमात्मा से नहीं, वासनाओं के दमन से आती है। स्वास्थ्य के नहीं, वे सब विक्षिप्तताओं के ही रूप हैं।
सम्यक साधना उन्माद में नहीं, उन्माद-मुक्ति में ले जाती है और उससे मस्ती नहीं आनंद का जन्म होता है। मस्ती आवेश है, उत्तेजना है। आनंद आवेश-शून्य, आवेग-रहित, अनुत्तेजना की अत्यंत शांत स्थिति है। मस्ती दमन से और आनंद विसर्जन से आता है। मस्ती मानसिक है, आनंद आत्मिक है। मस्ती रुग्णता है, आनंद स्वास्थ्य है। मस्ती सुख है, वह मादक है। वह दुख की और होश की विरोधी है। आनंद सुख-दुख का अभाव है। आनंद पूर्ण शांति है।
वास्तविक धर्म का संबंध मस्ती से नहीं, आनंद से है।
मस्ती के दौरे होते हैं और उनके बाद बहुत दुख और रिक्तता का बोध होता है। वह नशा है और नशे की भांति ही उसमें बार-बार जाने की इच्छा होती है। मस्ती में सब भूल जाता है। वह ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। आनंद आता है, तो जाता नहीं है। वह स्वरूप है, आवेग नहीं। वह ऊपर से आरोपण नहीं, अंतस का आरोहण है। आनंद मूर्च्छा नहीं, ज्ञान है। मस्ती भ्रम है, आनंद अंतस की वास्तविक क्रांति है। इसलिये ध्यान रहे कि हमारा लक्ष्य आनंद है, मस्ती नहीं। उन्माद नहीं, अप्रमाद--मादकता नहीं, अप्रमत्तता जीवन का लक्ष्य है।
वासना शक्ति का दमन चित्त के संतुलन को नष्ट करता है। उस असंतुलन में अनेक कल्पनायें साकार रूप धरने लगती हैं। बहुत-से प्रक्षेप, प्रोजेक्शन और भ्रांत के साक्षात होने लगते हैं। जो नहीं है, वह दीखने लगता है। इन्हें ही लोग धार्मिक अनुभूतियां समझ बैठते हैं। ईश्वर और देवी-देवताओं के भी साक्षात हो जाते हैं। वे न तो साक्षात हैं, न ही अनुभूतियां हैं। मन की स्वप्न देखने की जो क्षमता है, उसके ही ये खेल हैं। मन का जो अल्प-सा अंश चेतन है, वह भी यदि किसी भांति मूर्च्छित हो जावे, तो जागते में ही स्वप्न-शक्ति सक्रिय हो जाती है। और जो पूर्व धारणाएं चित्त में घर किये हों, वे सत्य जैसी भासने लगती हैं। इस भांति संसार से तो संबंध टूटता है, पर सत्य से नहीं, स्वप्न से जुड़ जाता है। चित्त का असंतुलन यही कर सकता है। सत्य से संबंधित होने के लिये तो उसका पूर्ण संतुलन चाहिये। चित्त जब सहजता और संतुलन की स्थिति में आता है, तभी उसके द्वार सत्य के लिये खुलते हैं। वह संतुलन ही द्वार है।
चित्त का संतुलन कैसे हो? दमन और संघर्ष से नहीं, मैत्री, प्रेम और निरीक्षण से--वासना के विसर्जन और संपरिवर्तन से वह होता है।
क्या आपको ज्ञात है कि आप अपने से जरा भी प्रेम नहीं करते? आपकी स्वयं के प्रति जो घृणा है, वही दमन, संघर्ष और आत्मविग्रह का रूप ले लेती है। हम अपने से भी प्रेम नहीं करते हैं! क्राइस्ट ने कहा हैः ‘अपने पड़ोसी को अपने जैसा ही प्रेम करो।’ मैं पूछता हूं कि आप अपने से भी प्रेम कहां करते हैं? पड़ोसी तो दूर है, पहले अपने से तो प्रेम करो! जो अपने से प्रेम करता है वह सबसे प्रेम करने लगता है। प्रेम तो भाव की अवस्था है। वह भीतर हो तो सहज ही सर्व के प्रति व्याप्त हो जाती है। आत्म-त्याग, सेल्फ रिनन्सिएशन नहीं, आत्म-प्रेम, सेल्फ-लव--इस पर चिंतन करो--सोचो और आप पाओगे कि आत्म-प्रेम ही वास्तविक आत्म-त्याग है। और जिसे हम त्याग करके जानते हैं, वह सब प्रच्छन्न स्वार्थ, सेल्फिशनेस ही है।
प्रेम करो--स्वयं को प्रेम करो। अपने प्रति प्रेम से भरो। उससे बहुत ऊर्जा का जन्म होता है। प्रेम अदभुत शक्ति है। और जब आप स्वयं अपने प्रति प्रेम से भरते हो, तो चित्त अपने रहस्य क्रमशः खोलने लगता है और उसके प्रेमपूर्ण निरीक्षण से उसके भीतर आपका प्रवेश होता है। प्रेम संतुलन लाता है; घृणा और दमन नहीं। प्रेम निरीक्षण को संभव बनाता है; घृणा और विरोध नहीं। इसलिये मुझे आज्ञा दें कि मैं आपको स्वयं अपने से प्रेम करना सिखाऊं।
यह कहना कैसा अजीब लगता है, पर सत्य यही है कि हम अपने से ही प्रेम नहीं करते हैं। और जो अपने से प्रेम नहीं करता, वह अपना सम्मान भी नहीं करता। वह अपने जीवन का भी आदर नहीं करता। और इसलिये उसे कैसे भी व्यय और व्यतीत करता है।
एक रात्रि एक व्यक्ति क्रोध में मुझे न मालूम क्या-क्या कह गये थे। उनके जाने पर किसी ने पूछा था, ‘आपने उन्हें कुछ कहा नहीं? हम तो बहुत क्रोधित हो गये थे, किंतु आप चुप थे, किसलिए चुप रहे?’ मैंने कहा--‘मैं अपने आपको इतना प्रेम करता हूं कि क्रोध करना मुझे संभव नहीं है। क्रोध न करके उन पर नहीं, स्वयं पर ही मैंने दया की है। क्रोध तो अग्नि है, वह स्वयं को ही जलाती है और जो अपने को प्रेम करता है, वह कैसे उसे अपने भीतर सुलगा सकता है?’ स्वयं से प्रेम का अभाव ही अनाचरण बन जाता है। सदाचरण स्वयं से प्रेम का परिणाम है।
मैं जितना अपने और अपने जीवन के प्रति प्रेम से भरता गया, मैंने पाया कि जिसे हम अशुभ कहते हैं, उसका करना अपने आप असंभव हो गया। फिर यह भी पाया कि जिसे शुभ कहें, उसके फूल भी जीवन में अनायास लगने लगे। प्रारंभ में अपने से प्रेम शुरू किया था, फिर जाना कि वह तो सबसे प्रेम बन गया है!
देखो--अपने से प्रेम करके देखो। जीवन की जो ज्योति आप में है, उसे प्रेम करो। उसका प्रेम आपमें बहुत सृजनात्मकता, क्रिएटीविटी पैदा करेगा। भोग भी स्वयं का ध्वंस है। दमन भी ध्वंस, डिस्ट्रक्शन है। वे दोनों विनाश हैं और आत्मघाती, सुइसाइडल हैं। प्रेम सृजन है। उस भाव-भूमि में परिवर्तन के आधार रखे जाते हैं और जीवन ज्योति ऊर्ध्वगामी होती है। जिन्हें ऊपर जाना है, उन्हें प्रेम की सीढ़ी है।
स्व-सत्ता से प्रेम ‘विधायक धर्म’, पाजिटिव रिलीजन की अनिवार्य शर्त है। उसके अभाव में धर्म पैदा भी हो तो वह नकारात्मक, निगेटिव ही होगा। हम जो धर्म विहीन हुए हैं और हमारा युग जो अधार्मिक दीख रहा है, उसका मूल कारण विज्ञान की भौतिकता, मटिरियलिज्म और नास्तिकता नहीं है, न ही धर्म विरोधी विचार हैं। उसका मूल कारण हैः धर्म की नकारात्मकता।
नकारात्मक धर्म--ऐसा धर्म जो कि जीवन के निषेधों पर खड़ा है, बहुत दिन तक जीवित नहीं रह सकता है। नकार की परिणति मृत्यु है। धर्म की नकारात्मकता, उसका जीवन-निषेधक, लाइफ-निगेटिव रूप अपना घात स्वयं ही कर लेता है। उसे मारा नहीं जाता, वह स्वयं ही मर जाता है। जीवंत धर्म, लिव्हिंग रिलीजन जीवन-निषेधक नहीं होता है। वह किसी इनकार पर नहीं, किसी स्वीकार पर खड़ा होता है। उसका प्राण ‘नहीं’ नहीं, ‘हां’ होता है।
एक साधु एक अपरिचित और अजनबी देश में मेहमान था। वह एक आश्रम में ठहरा। उस आश्रम के प्रधान ने अपने आश्रम के अंतेवासियों की प्रशंसा में उससे कुछ बातें कहीं। उसने कहा, ‘हमारे साधु असत्य नहीं बोलते, हिंसा नहीं करते, परिग्रह नहीं रखते, मदिरा नहीं पीते’ और वे जो-जो नहीं करते थे, उसने वह सब बताया। उस अतिथि साधु ने सब सुनकर कहा, ‘क्षमा करें और एक बात पूछने की आज्ञा दें। मैं यह तो समझ गया कि आपके साधु क्या-क्या नहीं करते हैं, अब मैं यह जानना चाहता हूं कि वे करते क्या हैं?’
यही मैं भी पूछना चाहता हूं। सबसे सब जगह यही पूछ रहा हूं। वह प्रीतिकर न भी लगे तो भी पूछना ही होगा। आपसे प्रेम है, इसलिये पूछना ही होगा, आप जिसे धर्म मान रहे हैं, वह किसी विधायक साधना पर खड़ा है या कि किन्हीं ‘न करने’ की निषेध आज्ञाओं पर? धर्म आपका जीवित है या कि मृत? जीवित धर्म पार ले जाता है और मृत डुबा देता है। वह जीवन-दृष्टि मृत है, जो ‘नहीं करने’ पर निर्भर होती है। वह धर्म नहीं, धर्म का पतन है। वह धर्म का आभास मात्र है।
धर्म जब अपने विधेय को, योग को खो देता है, तब वह नकार आज्ञाओं का संकलन मात्र रह जाता है। धर्म का ऐसा नकार रूप ही नीति, मारलिटी है। नीति धर्म का पतन है। वह धर्म की मृत्यु है। नीति का अर्थ है नकार। यह न करो, वह न करो--यही उसका रूप है। छोड़ना और त्यागना उसका प्राण है। उसे यदि पूरा माना जावे, तो आत्मघात ही परिणाम होगा। उसका चरम तार्किक परिणाम यही होगा कि जीना मात्र अनैतिक है। केवल मृत्यु ही पूर्ण अर्थों में नैतिक हो सकती है, क्योंकि मृत्यु में ही ‘न करना’ पूरा होता है।
धर्म नकार नहीं है। वह पूर्ण विधेय है। और पूर्ण जीवन को पाने का मार्ग है। वह ‘न करना’ नहीं, वरन ‘कुछ करना’ है। वह त्यागना और छोड़ना नहीं वरन पाना है। धर्म चरम उपलब्धि है। वह अंधकार विनाश नहीं, प्रकाश का प्रदीप्त होना है। निश्चय ही प्रकाश के आने से अंधकार नष्ट होता है, किंतु वह धर्म की साधना नहीं, साधना का अपरिहार्य परिणाम है। निश्चय ही धर्म को पाने से बहुत कुछ छूटता है, पर वह ‘छोड़ना’ नहीं ‘छूटना’ है। और उन दोनों में बहुत भेद है। ‘छोड़ना और त्यागना’ दमन है, आत्महिंसा है; ‘छूट जाना’ विसर्जन है, मुक्ति है।
धर्म विनष्ट हुआ है, नकारात्मक आधारों से। उसे पुनर्जीवित करना है तो विधायक आधार देने होंगे। मृत्यु पर नहीं, जीवन पर धर्म को खड़ा करना होगा। त्याग का संकोच नहीं, उपलब्धि का विस्तार उसे देना होगा। छोड़ने की निराशा नहीं, पाने की आशा और उत्साह से उसे परिपूरित करना होगा। तभी आपके मरणासन्न प्राणों में पुनः शक्ति का संचार होगा और आपकी अंधकार से भरी आंखें सूर्य की ओर उठ सकेंगी।
इसलिये मैं अपने दोनों हाथ उठाकर आपको पुकार रहा हूं कि उठो, और धर्म की विधायकता का उदघोष अपने जीवन में करो। मैं चाहता हूं कि आपका जीवन दिव्य आनंद की घोषणा बने और उस परम सत्य के आधार रखे जा सकें, जो कि हमने अपने ही हाथों नष्ट कर दिये हैं।
धर्म की विधायकता का सिंहनाद अत्यंत आवश्यक है। उससे ज्यादा बहुमूल्य आज कुछ भी नहीं है--कभी भी नहीं था। धर्म को खोकर हम मनुष्य को बहुत दिन नहीं बचा सकते हैं। धर्म नहीं लौटा तो मनुष्यता को भी गया हुआ मान लेना चाहिये। मनुष्य की नीवें हिल गई हैं और वह विनाश की कगार पर खड़ा है। उसके ऊपर बाहर से कोई संकट नहीं है। संकट, क्राइसिस उसके भीतर है। उसका संकट उसका स्वयं से टूट जाना है। उसका संकट धर्म को भूल जाना है।
अपने भीतर देखो। क्या वहां संकट नहीं है? क्या हमारी जड़ें जीवन की भूमि से टूट नहीं गई हैं?
और अपने बाहर भी देखो। क्या जो आपके साथ हुआ है, वही सबके साथ नहीं हुआ है?
और सोचो कि यह सब क्यों हुआ है?
मनुष्य क्यों मर रहा है? क्या इसका कारण यही नहीं कि हम वह मार्ग भूल गये हैं जो हमें जीवन के मूल-स्रोत से जोड़ता है? क्या इसका कारण यह नहीं है कि विश्वसत्ता से हम वियुक्त हो गये हैं?
समस्त संकटों का कारण यही है। मनुष्य की सारी रुग्णता का कारण यही है। धर्म का विस्मरण--धर्म की विस्मृति हमारे दुख और दुर्भाग्य के मूल में है।
और धर्म भूला जा सका, विस्मृत किया जा सका, उसके जीवन विरोधी रुख के कारण। उसकी मृत्योन्मुखी धारा के कारण हम क्रमशः धर्म से टूटे और अलग हुए। वह अमृत की तलाश न रहा और मृत्यु की साधना बन गया। वह आनंद का अन्वेषण न रहा और दुख से संघर्ष का पथ हो गया। वह प्रभु की खोज न रहा और संसार-त्याग बन गया। इस नकार दृष्टि ने हमें धर्म से वियुक्त किया है। इस पर मनन करें। इस सत्य को देखें और सजग हों।
इस निदान की सजगता से ही--धर्म की इस मिथ्या धारा के प्रति सचेत होने से ही--धर्म की सत्य अंतरात्मा को समझा और जाना जा सकता है और उसे जीने के लिये कदम उठाये जा सकते हैं। विचार में उसे प्रथम जानना होता है, जिसे कि आचार में जीना हो। आचार के प्रथम चरण विचार में ही रखे जाते हैं। विचार ही, विवेक ही अंततः आचार बन जाता है।
विचार शक्ति है। मनुष्य के पास सबसे बड़ी शक्ति वही है। उसके ऊर्ध्वगमन के लिये वही उसका साथी है। पर इस शक्ति को हम दूसरों के उधार विचारों से दबाये रखते हैं। और कभी सक्रिय नहीं होने देते। पर विचारों के कारण स्व-विचार पैदा ही नहीं हो पाता है। विचारों को अलग करें और ‘विचार’ को जगावें। फिर ‘विचार’ के प्रकाश में देखेंगे तो जिस तथ्य की ओर मैं इंगित कर रहा हूं, उसका दर्शन होगा। यह मेरा मत नहीं है। मैं केवल तथ्यों की बात कर रहा हूं।
धर्म नकारात्मक कैसे हो जाता है?
धर्मानुभूति तो सदा विधायक होती है, पर जो उसे स्वयं नहीं जानते और जीते उसके लिये यह नकारात्मक प्रतीत होगी। दूसरों से जो जानते हैं--दूसरों में देखकर जो जानते हैं, वे उसके नकारात्मक रूप को ही देख पाते हैं। वह रूप धर्मानुभूति की देह है। चर्म-च्रुओं से केवल उसका ही दर्शन होता है। बाहर से धर्म की अंतरात्मा नहीं दिखती और इससे ही भ्रांति का जन्म और पोषण होता है।
धर्म जो है--उस अनुभूति का स्वयं में जो रूप है, वह बाहर से नहीं, भीतर प्रवेश करके ही जाना जा सकता है। और कोई मार्ग नहीं है। धर्म के स्वरूप को स्वयं की अनुभूति से ही जाना जाता है। किसी और की अनुभूति उस रहस्य को किसी दूसरे के समक्ष नहीं खोल सकती। उस भांति जो समझने चलते हैं, वे धर्म की देह पर ही रुक जाते हैं।
धर्म का विषयगत, आब्जेक्टिव ज्ञान संभव नहीं। उसका तो प्रेम की भांति सदा विषयीगत, सब्जेक्टिव ज्ञान ही होता है। प्रेम में होकर ही प्रेम जाना जायेगा--धर्म में होकर ही धर्म। बाहर से और दूर से--दर्शन की भांति जो जाना जाता है, वह सत्य नहीं होगा। धर्म को दर्शक की भांति नहीं जानना है--उसे तो जीना होगा और तभी उसकी विधायकता अनुभव होगी। उसमें डूबकर और मिटकर ही उसका परिचय होता है।
किंतु अधिकतर लोग स्वयं धर्म-प्रविष्ट नहीं होते और दूसरों में हुए परिवर्तनों को देखकर ही धर्म का अनुमान लगाते हैं। यह अनुमान बिल्कुल ही असत्य होगा। क्योंकि वे आचरण को ही देखेंगे, अंतस को नहीं। और आचरण धर्म के संबंध में क्या बता सकता है? वह धर्म का प्राण नहीं, मात्र लक्षण है। इस आचरण को देखकर जो धर्म का विचार होता है, वही नकारात्मक दृष्टि का जन्मदाता है।
अंतस में होती है सत्य-उपलब्धि, आचरण में होता है त्याग असत्य का। अंतस में पैदा होता है ब्रह्मचर्य, आचरण में त्याग होता है काम, सेक्स का। अंतस में जागता है प्रेम, आचरण में हिंसा शून्य होती है। अंतस से प्रभु आता है, आचरण से पशु विलीन होता है। अंतस प्रकाश से भरता है, आचरण से अंधकार तिरोहित होता है।
व्यक्ति की अंतरात्मा में जो अनुभूति घटित होती है, उसका क्रम यही है। पर बाहर से क्रम उलटा दीखता है। बाहर दीखता है कि असत्य, काम, हिंसा और अंधकार छोड़ा जा रहा है। बाहर से मात्र त्याग का ही प्रत्यक्ष होता है और उपलब्धि अनुमानित होती है। त्याग प्रत्यक्ष होता है, उपलब्धि मान्यता होती है। इससे ऐसी निष्पत्ति पैदा हो जाती है कि धर्म का मूल त्याग है। जबकि मूल उपलब्धि है और त्याग उस उपलब्धि का गौण परिणाम है।
महावीर को हमने देखा है। उसी मार्ग पर जाते और भी वीरों को देखा है। पर हम उनके अंतस को नहीं देख पाये और हमने उन्हें देखकर जिस धर्म की कल्पना की है, वह मात्र उनके बाह्याचरण पर आधारित है। वह धर्म अधूरा और आंशिक है और मूल पर नहीं, गौण पर खड़ा है। उसकी भित्तियां ही हमने अज्ञान पर रखी हैं।
महावीर में हमने क्या देखा? देखा कि वे घर को, संपत्ति को, सुविधा को, मित्रों को, प्रियजनों को--सबको छोड़कर गये हैं। हमने देखा कि वे सब छोड़कर गये हैं। पर हम यह नहीं देख सके कि वे किस संपदा की गंध पाकर इस संपत्ति को छोड़कर गये? यह मात्र छोड़ना नहीं था। और कोई संपदा-राशि भी तो आकर्षित कर रही थी! यह त्याग नहीं था, कोई उपलब्धि बुला भी तो रही थी। असार को सार के लिए छोड़ना क्या मात्र त्याग ही है? घर से यदि कोई कूड़े-कचरे को बाहर कर देता है, तो क्या वह त्याग है?
नहीं, मित्र! मैं इसे त्याग कहने में असमर्थ हूं। उस शब्द की ध्वनि ठीक नहीं है। उसमें ‘छोड़ने’ का जो भाव है, वह सम्यक नहीं है। कुछ और ही कहना होगा, क्योंकि ‘छोड़ने’ से ज्यादा महत्वपूर्ण उस छोड़ने में ‘पाना’ है। यद्यपि यह सत्य है कि जो छोड़ा जाता है, वही हमें दिखाई पड़ता है। क्योंकि उस स्थूल को ही जानने और पहचानने की हमारी क्षमता है।
हम जिसे प्राणों की भांति पकड़े हुए हैं, किसी के द्वारा उसी का छोड़ा जाना हमें ‘महान त्याग’ दिखाई पड़ता हो तो आश्चर्य नहीं है! जो जितना ज्यादा धनलिप्सा से भरा होगा, उसे धन का त्याग उसी मात्रा में महान दिखाई पड़ेगा। और जिसकी जितनी ज्यादा कामेष्णा होगी वह उतना ही काम-त्याग से प्रभावित होगा। यही नियम है। इसलिये जब आप किसी त्याग को महान कहो तो स्मरण रखना कि उससे उस त्याग की महानता तो नहीं, किंतु आपकी उस दिशा में आसक्ति और पकड़ की सूचना अवश्य ही मिल जाती है।
हमारी स्थूल दृष्टि स्थूल के त्याग को देखती है और सूक्ष्म संपदा के लोक में वास्तविक संन्यासियों को जो मिलता है, वह हमें गोचर नहीं होता। काश! हमें वे जो पाते हैं, वह भी दीख सके, तो धर्म के संबंध में हमारी दृष्टि आमूल बदल जावे। तब धर्म मूलतः ‘पाना’ मालूम हो, ‘छोड़ना’ नहीं।
महावीर के जीवन में एक त्याग तो हमने वह देखा, जब वे घर से गये। फिर बाद में और भी गहरे त्याग हमने देखे। हमने देखा कि उन्होंने हिंसा छोड़ दी है। पर हम उस दिशा और अनुभूति के संबंध में अंधे ही रहे, जिसे पाने से उनकी हिंसा छूटी थी। अत्यंत आंतरिक और सूक्ष्म को देख पाना हमें संभव नहीं हुआ, अहिंसा हमें उनकी साधना का मूलाधार मालूम हुई, जबकि मूलाधार कुछ और ही था, अहिंसा तो उस मूल का परिणाम और प्रकाशन थी। ऐसे ही हमने उनके समस्त विकार विलीन होते देखे। हमने माना कि वे विकार छोड़ रहे हैं। जबकि वे तो निर्विकार को पा रहे थे और विकार उनसे अनायास ही जा रहे थे। वह विकारों का त्याग नहीं, निर्विकार का आगमन था। एक दिन उनके जीवन में कोई अंधकार न रहा। हमने कहा, ‘उन्होंने सारा अंधकार छोड़ दिया है’ जबकि अंधकार न कभी किसी ने छोड़ा है और न छोड़ा जा सकता है। भीतर एक सूर्य का जन्म होता है और बाहर अंधकार नहीं पाया जाता है।
साधना सत्य को पाने की है, असत्य को छोड़ने की नहीं। वह अंधकार-त्याग नहीं, आलोक-उपलब्धि है, किन्तु जो हमें दिखाई पड़ता है, वह नकार, निगेटिव है। विधायक, पाजिटिव के हमें दर्शन ही नहीं होते हैं। हमारी इस मिथ्या-दृष्टि ने ही हमें सिकोड़ दिया है। उसने ही हमें मृत कर दिया है। धर्म से अधिक जीवंत, लिव्हिंग और कुछ भी नहीं है। लेकिन नकार पर आधारित करने से उससे अधिक मृत, डेड भी और कुछ नहीं होता।
धार्मिक जीवन से आनंद की किरणें विलीन हो गई हैं। ऐसे धर्म के ढांचे मुर्दों के रहने के लिये कब्रें तो हो सकते हैं, लेकिन जीवितों के विकास के लिये उनमें कोई संभावना नहीं। जहां उपलब्धि का आनंद न हो और विधायक सृजन का संगीत न हो, वहां जीवन के पौधे के लिये न भूमि है, न खाद है, न पानी है, न प्रकाश है। वहां उजड़ जाना ही पौधों का भाग्य होगा और मुरझाकर मर जाना ही उनकी नियति, डेस्टिनी होगी। इसलिये मैं कहता हूं कि नकार जीवन का नियम नहीं है और निषेध जीवन की पद्धति नहीं। वे जीवन के नहीं मृत्यु के आधार हैं। और जो उनसे चलता है, वह आत्मघात की दिशा में चलता है।
महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को--सभी को हमने गलत देखा है। वह गलत दृष्टि किसी एक समाज और संप्रदाय की ही वसीयत नहीं है। वह सार्वभौम है और सारे जगत की है। इसलिए सारे धर्म एक से ही विकृत और विक्षिप्त हो गये हैं। नकार के विष ने सभी को कुरूप कर दिया है और अंतःसत्ता विसंगति से भर गई है। जिनके जीवन धर्म के अमृत से पुनर्जीवित हुए हैं उनके बाहर जो दृश्य घटित हुआ, उसके प्रति ही हमारी खंडित दृष्टियां संवेदनशील रही हैं और उनके भीतर जो अदृश्य आंदोलन हो रहे थे, हम उनके प्रति अंधे रहे हैं। उनके भीतर जो हो रहा था वही वास्तविक था। वह हमें नहीं दीखा। उनके बाहर जो हो रहा था, वह उसका मात्र परिणाम था। मिलता सब कुछ आत्मा में है। छूटता सब कुछ शरीर पर है। किंतु शरीर दीखता और आत्मा दीखती नहीं।
हमारे सब धर्म तीर्थंकरों, बुद्धों और अवतारों के शरीर को देखकर निर्मित होते हैं। यही मूल भूल है। धर्म की नौकाएं इसी चट्टान से टकराकर टूट-फूट जाती हैं। और फिर इन टूटी-फूटी नौकाओं से यात्रा तो क्या होगी, उलटे उन्हीं को हमें सिर पर लेकर चलना होता है। मैं सारी पृथ्वी पर यही देख रहा हूं। धर्म की नौकाएं संसार के सागर में पार ले जाने के लिये नहीं, बल्कि धर्मानुयाइयों के सिर का बोझ बन गई हैं। वे ऐसे पंख नहीं हैं जो कि परम सत्य तक उड़ाकर ले चलें, बल्कि ऐसे मृत बोझ, डेड वेट हैं जिनके कारण गति ही असंभव हो गई है। क्या उन नौकाओं के बोझ से झुकी आपकी गर्दनें मुझे दिखाई नहीं पड़ रही हैं? और क्या आपके पंखहीन प्राणों की तड़फड़ाहट मुझे सुनाई नहीं पड़ती है?
धर्म नकार से मुक्त होकर ही ऐसी नौका बनता है, जो कि संसार के पार ले जाती है। और धर्म नकार से मुक्त होकर ही ऐसे पंख बनता है, जो कि आत्मा के पक्षी को सत्य के सूर्य तक ले जाने में समर्थ होते हैं।
इस वर्ष जब पतझड़ हो रही थी तब मैं एक संन्यासी के साथ वन में था। सारा वन गिरे पत्तों से भरा था और पत्ते प्रतिक्षण गिरे ही जा रहे थे। उस संन्यासी से मैंने कहा कि आपको गिरे हुए और गिरते हुए पत्ते दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन क्या वे पत्ते भी दिखाई पड़ रहे हैं जो कि अभी अदृश्य हैं, लेकिन जल्दी ही उगेंगे और दृश्य हो जावेंगे? उन्होंने मुझे हैरानी से देखा और कहा, वे कैसे दिखाई पड़ सकते हैं? मैंने उससे कहा, ‘निश्चय ही वे दिखाई नहीं पड़ते हैं, लेकिन उनके लिये ही स्थान बनाने को पुराने पत्ते गिर रहे हैं। इनके गिरने के पूर्व उनका ऊगना प्रारंभ हो गया है। अदृश्य में वे अंकुरित हो गये हैं और उनके उस अदृश्य अंकुरण के कारण ही दृश्य में यह सारा परिवर्तन हो रहा है।’
इस सत्य को ही मैं धर्म के संबंध में भी सत्य पाता हूं। अदृश्य में जो उपलब्धियां अंकुरित होती हैं, उनके कारण ही दृश्य में त्याग फलित होते हैं। पुराने मृत पत्तों को जैसे नये और जीवित पत्तों के लिये स्थान रिक्त कर देना होता है, वैसे ही आत्मा के अदृश्य लोक में जब सार्थक का उदय होना प्रारंभ होता है, तो आचरण के दृश्य लोक में निरर्थक का त्याग प्रारंभ हो जाता है।
ज्ञान त्याग नहीं करता। ज्ञान से त्याग होता है। वह अनायास ही होता है। उसके लिये वस्तुतः कोई प्रयास अपेक्षित नहीं है। त्याग के लिये जहां प्रयास है, वहां अज्ञान है। अज्ञानी त्याग ‘करते’ हैं, ज्ञानी से त्याग ‘होता’ है। इसलिए अज्ञानी को त्याग का स्मरण होता है, उसमें उसकी अहंता तृप्त और पुष्ट होती है। ज्ञानी को त्याग का स्मरण भी नहीं होता। उसे ज्ञात नहीं होता कि क्या उससे छूट गया है। उसकी स्मृति और प्रज्ञा, जो मिला है उसके आनंद में मग्न होती है। जिसने सिर्फ छोड़ा है और कुछ भी पाया नहीं, स्वाभाविक ही है कि उसका चित्त उसी त्याग को विचारे और स्मरण करे। उस दरिद्र की संपत्ति वही है। जैसे शरीर में कहीं घाव हो तो चित्त बार-बार वहीं दौड़ आता है। ऐसे ही अज्ञानी जो छोड़ता है, उसकी स्मृति वहीं पहुंच जाती है। ज्ञान के अभाव में त्याग--उपलब्धि-शून्य त्याग--एक प्रकार का घाव ही है। वह पके पत्तों का गिरना नहीं, कच्चे पत्तों का तोड़ना है।
किसी व्यक्ति के हाथ में कंकड़-पत्थर हों और फिर वह रत्नों के ढेर को पा ले, तो वह क्या करेगा? क्या वह उन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का विचार करेगा? क्या उन्हें छोड़ने के लिये उसे प्रयास करना होगा? या कि वे छूट जावेंगे और उसे उनके छूटने का पता भी चलेगा? और जब वह कंकड़-पत्थर छोड़कर रत्नों को बटोरेगा तो क्या उसे हम त्याग कह सकेंगे? और क्या उस व्यक्ति को बाद में उन छोड़े गये कंकड़-पत्थरों की स्मृति आयेगी और वह उन्हें छोड़ सका, इसके लिये गौरव अनुभव करेगा? मैं इन प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं दूंगा, क्योंकि वे उन प्रश्नों में ही निहित हैं।
वह त्याग त्याग नहीं है, जिसे करना पड़े। और वह त्याग भी त्याग नहीं है, जिसकी कि स्मृति बनी रहे। ऐसा त्याग उपलब्धि-शून्य और अज्ञानपूर्ण है। इस तरह के त्याग से कोई कहीं नहीं पहुंचता, विपरीत वह अहंकार को प्रगाढ़ करता है, जो कि मुक्ति-पथ में सबसे बड़ा अवरोध है। अज्ञानपूर्ण त्याग से स्वभावतः ही ‘मैं’ मजबूत होता है, क्योंकि उसमें ‘मैंने त्याग किया है’, इस भाव का सतत आवर्तन है। ऐसा त्याग ‘मैं’ भाव को इतना घनीभूत कर देता है कि उस व्यक्ति में ‘अहं’ के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। और ‘अहं’ जितना घनीभूत हो, ‘ब्रह्म’ से दूरी उतनी ही ज्यादा हो जाती है। तथाकथित साधु और संन्यासियों में जो अहंकार और क्रोध साकार रूप ले लेता है, उसका कारण उपलब्धि-शून्य त्याग ही है। उनके अहंकार और क्रोधोन्मत्त अभिशापों की कथाओं से कौन परिचित नहीं है? मैं तो हमेशा आश्चर्य करता हूं कि हम कैसे भले लोग हैं, उन्हें आज भी ऋषि-महर्षि कहे जाते हैं!
त्याग वास्तविक हो तो सहज होता है और उसकी कोई रुग्ण स्मृति शेष नहीं रह जाती है। वास्तविक त्याग से मेरा अर्थ है कि जिसके मूल में और केंद्र में उपलब्धि हो। उपलब्धि की भूमि पर जो खड़ा हो, वह त्याग अत्यंत सहज और सरल होता है। ऐसे त्याग से अहं-भाव विलीन हो जाता है और आंतरिक उपलब्धि व्यक्ति को अनंत कृतज्ञता और विनय से आपूरित कर देती है। ज्ञान का जो प्रवाह आता है वह ‘मैं’ के सब कूड़े-कचरे को बहा ले जाता है और जो मिलता है वह प्रभु का प्रसाद मालूम होता है।
‘मैं’ आंतरिक दरिद्रता का लक्षण है, इसलिये जो अंतस में समृद्ध होते जाते हैं, वे कभी उससे पीड़ित नहीं होते। अहंकार दरिद्रता की और निरहंकारिता समृद्धि की सूचना है। ‘मैं-भाव’ में हम अपनी दीनता-हीनता को छिपाते हैं और जो नहीं हैं, वह होने की घोषणा करते हैं। इसलिये स्मरण रहे कि अहंकारी से दीन-हीन इस जगत में दूसरा नहीं होता है। वह बहुत दया-योग्य है, क्योंकि उसके पास कुछ भी नहीं है। वह एक ऐसा भिखारी है जिसने कहीं से चुराकर बादशाह के वस्त्र पहन लिए हैं! और निश्चय ही एक भिखारी बादशाह के वस्त्रों में क्या और भी भिखारी नहीं लगने लगता है!
मैं जब भी त्याग से भरे त्यागियों को देखता हूं, तो उनकी आत्म-प्रवंचना पर बहुत दया आती है। त्याग हो, तो त्याग से भरा हुआ होना नहीं हो सकता। जो सहज छूट गया है, उसकी स्मृति कैसी? उसकी स्मृति में रस कैसा! उसके कारण आत्म-प्रशंसा कैसी? वास्तविक त्याग अपने पीछे कोई रेखा नहीं छोड़ता है। जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनके पीछे कोई पद-चिह्न नहीं बनते हैं, ऐसी ही उड़ान सहज और सत्य त्याग की भी होती है। उसमें भी पीछे चिह्न नहीं छूटते हैं। यदि त्याग के भी चिह्न छूटते हों, तो त्याग मुक्त कैसे करेगा? जो अपने पीछे चिह्न नहीं छोड़ता है, उसी से मुक्ति आती है।
एक कथा स्मरण आ रही है। एक फकीर था--अत्यंत अपरिग्रही और त्यागी। वह था और उसकी पत्नी थी। दोनों लकड़ियां काटते और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाते। संध्या जो पैसा बचता, उसे बांट देते। एक बार चार-छह दिन लगातार पानी गिरा। वे लकड़ियां काटने नहीं जा सके और उन्हें भूखा ही रहना पड़ा। भिक्षा वे मांगते नहीं थे और संपत्ति उनके पास थी नहीं। उनने वे दिन उपवास और उपासना में बिताये।
फिर जब पानी बंद हुआ, तो वे लकड़ियां काटने गये। जिस दिन वे लकड़ियां काटकर भूखे और थके वापिस लौट रहे थे, उस दिन एक घटना घटी। पति आगे था, पत्नी पीछे थी। पति ने राह के किनारे किसी राहगीर की स्वर्ण अशर्फियों से भरी थैली पड़ी देखी। उसने अपने मन में सोचा, ‘मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया है। मैं तो कांचन मुक्त हो गया हूं। लेकिन मेरी पत्नी के मन में कहीं स्वर्ण देख प्रलोभन न आ जाये’--ऐसा विचारकर, ऐसे सोच से, ऐसी सदिच्छा से उसने उन स्वर्ण अशर्फियों को गड्ढे में ढकेल ऊपर से मिट्टी डाल दी।
वह मिट्टी डाल ही रहा था कि उसकी पत्नी भी पहुंच गई। उसने पूछा कि यह क्या करते हैं? उस साधु चरित्र व्यक्ति को बताना ही पड़ा, क्योंकि असत्य न बोलने का उसका व्रत था। उसने कहा, ‘यहां बहुत सी स्वर्ण अशर्फियां पड़ी थीं। मैं तो अपरिग्रही हूं। स्वर्ण पर मेरा मन नहीं आता। मैंने तो जान लिया है कि स्वर्ण असार है, लेकिन तुम स्त्री हो, अनेक दिन की भूखी-प्यासी हो, दुख और दरिद्रता के कारण कहीं उस स्वर्ण पर तुम्हारा मन न आ जावे, इसलिये मैंने उस पर मिट्टी डाल दी है।’ यह सुन पत्नी चुपचाप आगे बढ़ गई। उसने उत्तर में कुछ भी न कहा। उसके पति ने पूछा, ‘तुम कुछ बोली नहीं? तुमने कोई प्रतिक्रिया नहीं की?’ यह सुन वह रोने लगी। और उसने कहाः ‘मैं दुखी हूं कि तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है और मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए देख मैं तुम्हारे लिये अति चिंता से भर गई हूं।’
मैं भी इसमें चिंता के लिये कारण देखता हूं। जो छोड़ा गया हो और जिसका त्याग न हुआ हो, उसका दीखना बंद नहीं होता है। विपरीत वह और भी प्रगट और प्रगाढ़ होकर दीखने लगता है। वह तो घाव की भांति अनुभव होता है। सतत ही उसकी प्रतीति बनी रहने लगती है। वह चित्त का आवास बन जाता है। जैसे पक्षी सब जगह उड़कर बार-बार अपने नीड़ पर लौट आते हैं, ऐसे ही चित्त उस पर लौटने लगता है। इस भांति जिसे हम छोड़ा हुआ जानते हैं, वही हमारा पकड़ा हुआ हो जाता है। उसके ही विचार और उसके ही स्वप्न मन को घेरते हैं और उसकी ही चाह अंतस्तल में सरकती है। ऐसा त्याग, त्याग नहीं दमन है। और दमन से जीवन द्वंद्वमुक्त नहीं और भी द्वंद्वग्रस्त हो जाता है।
धर्म छोड़ना नहीं सिखाता। धर्म तो उस विधि को सिखाता है जिससे जो व्यर्थ है, वह अपने आप ही छूट जाता है। वैसे छूट जाने का नाम ही त्याग है। वह विधि श्रेष्ठ को, सार को, सत्य को पाने की है। निकृष्ट, असार और असत्य उसे पाने से अपने आप ही मरण को प्राप्त होता है। अंधेरे से मुक्ति तभी है जब प्रकाश का आगमन हो जाता है।
मैं एक यात्रा पर था। किसी ने वहां कहा, ‘महावीर ने हिंसा छोड़ी, अब्रह्मचर्य छोड़ा, असत्य छोड़ा।’ मैंने उनसे कहा, नहीं, महावीर ने हिंसा नहीं छोड़ी, अब्रह्मचर्य नहीं छोड़ा, असत्य नहीं छोड़ा। ऐसी झूठी बात उनके लिए न कहें तो कृपा होगी। महावीर ने तो प्रेम पाया, सत्य पाया, ब्रह्म पाया। उन्होंने यह सब नहीं साधा जो आप यह कह रहे हैं और दुनिया कह रही है। उन्होंने तो केवल आत्मा साधी और उसे साधने में यह सब अपने आप ही सध गया।
एक किसान गेहूं बोता है तो भूसा उसे अपने आप मिल जाता है, लेकिन क्या इससे कोई कहेगा कि उसने भूसा बोया? मित्र! बोया तो गेहूं ही जाता है और भूसा उसके साथ ही मिल जाता है। और यदि कोई भूसा बोये तो उसे क्या मिलेगा? गेहूं तो उससे आयेगा नहीं, भूसा भी नहीं आयेगा। भूसा बोने वाला भूसा भी खो देगा। ऐसे ही अहिंसा या अपरिग्रह नहीं बोया जाता है, बोयी तो आत्मा जाती है और जब आत्मा की फसल आती है तो अहिंसा और अपरिग्रह भूसे की भांति अपने आप चले आते हैं।
और कुछ नहीं--बस, आत्मा को साधो और आत्मा को बोओ। उससे प्रथम और उससे प्रमुख और कुछ भी नहीं है। आत्मा जैसे-जैसे सधती है और जैसे-जैसे आत्मा के बीजों में अंकुर आते हैं, वैसे-वैसे ही आत्म-अज्ञान के कारण जो जीवन व्यवहार था, वह विलीन होता है।
अज्ञान कारण है--हिंसा का, परिग्रह का, प्रलोभन का। अज्ञान जायेगा तो वे जावेंगे। उसके अतिरिक्त उनका जाना मान लेना भ्रांति है। अज्ञान के रहते उनका जाना मान लेना आत्म-वंचना, सेल्फ-डिसेप्शन है। मूल तो अज्ञान है। वे तो केवल लक्षण हैं। वे तो केवल उस मूल अज्ञान की सूचनाएं मात्र हैं। उन्हें जो लक्षण न समझ बीमारी ही समझ लेता है, उसकी जीवन-दिशा दिग्भ्रमित हो जाती है। वह कुएं से बचता और खाई में गिर जाता है। वह ‘भोग’ से बचता है और तथाकथित ‘त्याग’ में गिर जाता है।
यह स्मरण रखिए कि हिंसा और परिग्रह, ईर्ष्या और तृष्णा, काम और क्रोध, ये लक्षण हैं, बीमारियां नहीं। बीमारी तो आत्म-अज्ञान है। बीमारी तो वह अविद्या है जिसके कारण मैं स्वयं ही स्वयं को नहीं जान पा रहा हूं। उस मूर्च्छा को तोड़ने से ये लक्षण अपने आप ही शून्य हो जाते हैं। लेकिन उस नासमझ को मैं क्या कहूं, जो बीमारी को भूल, लक्षणों को ही मिटाने में लग जाता हो? उसकी चिकित्सा में न निदान है, न चिकित्सा है। और उसकी चिकित्सा के परिणाम में बीमारी तो नहीं बीमार के ही मिट जाने की ज्यादा संभावना है।
धर्म के जगत में ऐसे नीम-हकीमों ने बहुत हानि पहुंचाई है। वे लोग ज्यादा सौभाग्यशाली हैं, जो उनके उपदेश से बच जाते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित चिकित्सा में शरीर ज्वरग्रस्त हो, तो शरीर के उत्ताप को किसी भांति कम करना या दबा देना ही प्रधान बात है। जबकि शरीर-उत्ताप बीमारी का लक्षण मात्र है। वह तो शरीर की आंतरिक अस्वस्थता और रुग्णता की सूचना भर है। वह बीमारी नहीं, बीमारी की खबर है। बीमारी तो कहीं भीतर है और गहरे में है। और बीमारी की ये सूचनाएं वस्तुतः शत्रु नहीं, मित्र हैं। क्योंकि उनके अभाव में तो बीमारी का पता भी नहीं चल सकता है!
प्रकृति की यही व्यवस्था है कि भीतर बीमारी हो तो वह बाहर लक्षण प्रगट कर देती है। और जो साधारण बीमारियों के संबंध में सत्य है, वही उन बीमारियों के संबंध में भी सत्य है जिन्हें हम हिंसा, असत्य और अब्रह्मचर्य कहते हैं। बाह्य और आंतरिक प्रकृति के मौलिक नियम भिन्न नहीं हैं। ये सूचनायें हितकारी हैं और इसलिये ही मिलती हैं कि हम अपनी अंतर्दशा के प्रति सचेत और सावधान हो जावें और उनके उपचार के लिये मार्ग और औषधि खोजें। जो ऐसा न करके उन सूचनाओं को दबाने में लग जाते हैं, वे अपने ही शत्रु हैं।
मित्र! लक्षणों को सीधा नहीं, बीमारी को मिटाकर ही मिटाना होता है। उनकी मृत्यु परोक्ष ही होती है। और उनकी परोक्ष मृत्यु में भी शुभ है। जो उनको सीधा ही अंत करने में लगा है, वह अंतस में छिपी बीमारी की रक्षा कर रहा है। सतत संघर्ष से यदि वे लक्षण क्षीण हो गये और उसे मूल बीमारी की सूचना मिलनी बंद हो गई, तो उसका इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है।
मेरे प्रिय! यदि आपके भीतर हिंसा है, घृणा है, क्रोध है, यदि आपके भीतर मोह है, तृष्णा है, ईर्ष्या है--तो सीधे इन्हें नहीं, बल्कि उसे मिटाना है, जिसकी कि ये संततियां हैं। ये प्रकृति की सूचनाएं हैं--ये आपके अंतस चेतना में भेजी गई खबरें हैं। इन्हें समझें और इनके संदेश को पढ़ें। इनकी निंदा में पड़े रहने से कुछ भी न होगा और न ही इनके विपरीत धारणाओं के व्रत और प्रतिज्ञाएं लेने से कुछ होना है। इन सबका इशारा क्या है और किस तरफ है? क्या ये सब एक ही केंद्र की ओर इंगित नहीं कर रही हैं? वह केंद्र आत्म-अज्ञान है। भीतर घना अंधकार है। उस अंधकार से ही उत्पन्न ये पुत्र-पुत्रियां हैं। उस अंधकार की ही ये शाखा-प्रशाखाएं हैं। चलें! यदि कुछ करना ही है तो उस मूल को लक्ष्य बनावें और उसे ही बेधें। उसकी मृत्यु ही इन सबकी भी मृत्यु बन जाती है।
धर्म बीमारी के लक्षणों को नहीं, बीमारी को ही दूर करता है। कोई भी वास्तविक चिकित्सा यही करेगी। और धर्म तो परम चिकित्सा है।
यह हम सोचें कि वह मूल रोग क्या है, जो प्रत्येक मनुष्य को पकड़े हुए है? वह रोग हमारे साथ ही पैदा होता है, और अधिकतर मामलों में हम मर जाते हैं, पर वह नहीं मरता! ऐसे बहुत कम भाग्यशाली लोग हैं, जो अपने मरने के पहले ही उसकी मृत्यु का दर्शन कर पाते हैं। पर यदि श्रम हो और संकल्प हो तो प्रत्येक उसकी मृत्यु का दर्शन कर सकता है। श्रम और संकल्प और साधना ही उस सौभाग्य की निर्मात्री है।
वह मूल रोग क्या है? ‘मैं कौन हूं?’--यह न जानना ही वह मूल रोग है। और जो जान लेते हैं कि वे कौन हैं--उसे जो कि उनका प्रामाणिक होना, आथेंटिक बीइंग हैं, वे उस रोग से मुक्त होकर स्वस्थ हो जाते हैं। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित। जो स्वयं को जानते हैं, वे स्वयं में स्थित हो जाते हैं। वही परम स्वास्थ्य और सौभाग्य है।
स्वयं का ज्ञान स्वयं में लाता है, और स्वयं का अज्ञान स्वयं के बाहर ले जाता है। स्वयं के बाहर होना ही अस्वास्थ्य है। वही मूल रोग है। स्वयं के बाहर होने और बाहर ही भटकने से बड़ी और कोई पीड़ा नहीं है। वही बुद्ध का ‘दुख’ है और महावीर का ‘बंध’ और क्राइस्ट के शब्दों में ‘स्वर्ग से निष्कासन।’
हम जब अपने से बाहर भटकते हैं और कोई आश्रय नहीं मिलता, जो कि वस्तुतः आश्रय हो और कोई शरण नहीं मिलती, जो कि वस्तुतः शरण हो, तो जो संताप पैदा होता है, वही अंततः धर्म की प्यास बन जाता है।
मनुष्य अपने से ही अपरिचित और अपने लिए ही अजनबी है। यह अज्ञान, असुरक्षा और भय पैदा करता है। जीवन के प्रति अज्ञान से ही भय पैदा होता है। और भय से हिंसा, परिग्रह और तृष्णा का जन्म है।
मैं स्वयं को ही न जानूं, इससे बड़ा त्रास और क्या हो सकता है? कैसा दुख और कैसा आश्चर्य है कि मैं सब जानता हूं और स्वयं को ही नहीं जानता? हम इतने लोग यहां हैं। हम सब एक दूसरे को देख रहे हैं, लेकिन कोई भी स्वयं को नहीं देख रहा है। हमें सबकी उपस्थिति का पता है, पर अपनी उपस्थिति का कोई पता नहीं! उसको--उसकी उपस्थिति, प्रेजेंस को--जो आपके भीतर है, जानना है। उसके होने से आपका होना है और उसके न होने से आपका न होना हो जाता है। वह उपस्थिति ही आप हो। जो देह दीख रही है, वह नहीं, वरन जो उसके भीतर उपस्थिति है, वह आप हो। वह उपस्थित, वह सत्ता, वह चेतना, वह ज्ञान, वह बोध आपके भीतर है--वही आप हो, किंतु उसका ही बोध हमें नहीं है। वह बोध सबके प्रति उन्मुख है, उसे स्वयं के प्रति उन्मुख करना है। धर्म इसका ही विज्ञान है।
आत्म-अज्ञान रोग है, धर्म उपचार है। और आत्म-ज्ञान स्वास्थ्य लाभ है। यह स्वास्थ्य लाभ जीवन की सबसे बड़ी घटना और सबसे बड़ी क्रांति है। उसकी धुरी पर फिर सब बदल जाता है और विष अमृत हो जाता है और कांटे फूल बन जाते हैं। जहां घृणा थी, वहां प्रेम के फूल लगते हैं। और जहां हिंसा की अग्नि थी, वहां अहिंसा की शीतल हवाएं बहती हैं। उस ज्ञान के आगमन पर जहां अनाचार का अंधकार ही अंधकार था, वहीं आचार के आलोक-दीप प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
सम्यक ज्ञान आधार है, सम्यक आचार उसका सहज परिणाम। सम्यक ज्ञान बीज है, सम्यक आचार है उसका सहज अंकुरण। इसलिए मूलतः ज्ञान साधना है। आचार उसके पीछे-पीछे अनिवार्य छाया की भांति चलता है। किंतु जो निषेध और नकार से चलेगा, वह आचरण साधेगा और ज्ञान के आने की प्रतीक्षा करेगा। वह ज्ञान को आचार का परिणाम मानता है, ऐसी दृष्टि मिथ्या है। जो विधायक धर्म को समझता है, वह ज्ञान को साधता है और आचार को परिवर्तित होते देखता है।
अज्ञान केंद्र है अनाचार का, तो निश्चय ही ज्ञान केंद्र होगा सदाचार का। मेरे प्रिय! अनाचार को सदाचार में नहीं, मूलतः अज्ञान को ज्ञान में बदलना है। अज्ञान ज्ञान में परिणत हो तो अनाचार अपने आप आचार में बदल जाता है। जैसे-जैसे ज्ञान का जागरण होता है, वैसे-वैसे ही अनाचार विसर्जित होता है। ऐसा मैंने स्वयं जाना है। मैंने स्वयं ही अपने भीतर यह घटित होते देखा है।
मैं जिस क्षण अपने प्रति जागा और लौटकर मैंने स्वयं को देखा, उसी क्षण सब बदल गया। दूसरे ही क्षण मैं दूसरा व्यक्ति हो गया। और स्वभावतः पहले व्यक्ति के विलीन होने के साथ ही उसका संसार भी विलीन हो गया था। मैं दूसरा था, तो संसार भी दूसरा था। वस्तुतः हमारा संसार हम ही हैं। प्रत्येक अपना संसार है। और जिसे हम बाहर देख रहे हैं, वह भीतर का ही आरोपण है। जो भीतर है और जैसा भीतर है, वही बाहर पर आरोपित हो रहा है। संसार में हम दर्पणों के सामने खड़े हैं और अपनी ही मुखाकृतियों के दर्शन कर रहे हैं। भीतर घृणा है तो बाहर से घृणा ही आती मालूम होती है। और भीतर जब प्रेम का स्रोत फूटता है, तो सारे संसार का प्रेम स्वयं की ओर ही प्रवाहित होता दीखने लगता है। स्वयं को बदलो तो निश्चय ही संसार बदल जाता है। और स्वयं को बदलना हो तो स्वयं को जानना जरूरी है।
एक बार कुछ ग्रामीणों ने वर्षा में आई हुई नदी पार की थी। बहुत पूर था और बहुत तेज उस नदी की धार थी। उस पार निकलकर उनने अपने आपको गिना था कि कहीं कोई नदी में छूट तो नहीं गया है? और स्वयं को न गिनकर उनके दुख का अंत न रहा, क्योंकि दस वे आए थे और गिनती में नौ होते थे। उन्होंने बार-बार गिना--उन सबने गिना, पर गिनती नौ ही होती थी। वे खोये हुए साथी के लिए बैठकर रोने लगे।
वे किंकर्तव्यविमूढ़ थे। कुछ उनकी समझ में नहीं आता था कि अब क्या करें? और तभी एक अपरिचित व्यक्ति का वहां से निकलना हुआ था। उसने उन्हें रोते देख कारण पूछा। वे ग्रामीण रोते हुए बोले कि उनने अपने एक साथी को नदी में खो दिया है--दस आये थे और नौ ही रह गये हैं। उस व्यक्ति ने उनको गिना। वे तो दस ही थे। उसने उनसे गिनती करने को कहा तो देखा कि वे गिनते तो ठीक हैं, पर प्रत्येक अपनी गिनती को छोड़ जाता है।
उन ग्रामीणों की जो तकलीफ थी, वही तकलीफ इस दुनिया में प्रत्येक आदमी की है। हम अपने को ही गिनना भूल जाते हैं! वे तो बेचारे कम से कम किसी साथी के खो जाने के कारण रो रहे थे, हम तो अपने ही खो जाने के कारण रो रहे हैं! सबका बोध है, अपना ही बोध नहीं है। सबको गिन लिया है, खुद को ही छोड़ गए हैं। इसका ही नाम अज्ञान है। खुद को गिन लें--चाहे सब छूट भी जावें--तो मैं उसे ज्ञान कहूंगा। क्योंकि जो अपने को नहीं गिन पाता है, उसका दूसरों को गिनना ठीक कैसे होगा? और जिसने अपने को गिन लिया है, उसने दूसरों को गिन ही लिया, क्योंकि सागर की एक बूंद को भी जो जान लेता है, वह सागर को ही जान लेता है।
स्वयं को जानने वाला सर्व को जान लेता है और सर्व को जानने की चिंता से ग्रस्त स्वयं को ही खो देता है।
क्या यह बात समझ में नहीं आती है? जो अपने भीतर ही चैतन्य उपस्थिति को नहीं जान रहा है, वह दूसरे के आकार को ही जान सकता है, आत्मा को नहीं। वह किसी की आत्मा को कैसे जानेगा? जो अपने ही आकार के भीतर नहीं गया, वह दूसरे के आकार को कैसे पार कर सकता है? स्वयं की देह पर ही जो रुक रहा है, वह सबकी देहों के बाहर ही रुक जावेगा। अपने में ही छिपी निकटतम चेतना जिसे अजनबी है, उसे ब्रह्मांड में व्याप्त चेतना से कोई संपर्क नहीं हो सकता है। स्वयं को ही जिसने अभी शरीर जाना है, उसे संसार पदार्थ है। जो स्वयं को आत्मा की भांति जान लेता है, विश्व उसे परमात्मा हो जाता है। स्वयं में जिसे जितनी गहराई उपलब्ध होती है, विश्वसत्ता में भी उसकी पहुंच उतनी ही गहरी हो जाती है। यह ‘स्व’ तो द्वार है। और सत्य के लिए यह अकेला ही द्वार है। और कोई द्वार नहीं है।
इसलिये मैंने कहा कि जो स्वयं को नहीं जानता उसका सब जानना झूठा है। और जो स्वयं को जान लेता है, वह बिना जाने भी सब जान लेता है। व्यक्ति के भीतर जो चिदगुण हैं, वह परमात्मा के सब रहस्यों को अपने में लिये हुए हैं। छोटे-से बीज में जैसे वृक्ष छिपा होता है, ऐसे ही छोटे-से व्यक्ति में विराट का आवास है। वह ‘स्व’ ही नहीं, ‘सर्व’ भी है। आत्मा आत्मा ही नहीं, परमात्मा भी है।
वह ‘एक’ ही गिनने जैसा है, वह ‘एक’ ही गुनने जैसा है। वह ‘एक’ आप स्वयं हो। वह ‘एक’ ही सब में बैठा है। उस ‘एक’ के अतिरिक्त कहीं भी, कुछ भी नहीं है। जहां भी सत्ता है, जीवन है, अस्तित्व है, वहीं ‘एक’ मौजूद है। लेकिन यदि उस ‘एक’ को जानना है, तो सर्वप्रथम स्वयं में ही जानो। उस ‘एक’ के लिए एक ही मार्ग है और वह आप स्वयं हो। स्वयं में जानकर वह फिर समस्त में जान लिया जाता है। वे भूल में हैं, जो उसे ‘पर’ में जानना चाहते हैं, क्योंकि ‘पर’ में तो कोई द्वार ही नहीं है।
सत्य का द्वार केवल स्वयं में ही है, इसे मैं पुनः स्मरण दिलाता हूं।
स्वयं को जानना है, पर वहां तो बहुत अंधकार मालूम होता है। जन्मों-जन्मों का यह अंधकार है। शक्ति है हमारी अल्प, और अंधकार है पुराना। यह कैसे मिटेगा? लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि अंधकार की कोई शक्ति नहीं होती। प्रकाश का क्षीण-सा आघात भी उसे भगा देता है।
अंधकार जैसा अज्ञान भी है। वह कितना ही घना हो और आवास उसका कितना ही पुराना हो, ज्ञान की एक किरण के समक्ष भी वह खड़ा नहीं हो सकता है। अभाव सदा ही कमजोर होता है। वस्तुतः तो वह होता ही नहीं है। यदि इस कक्ष में अंधेरा भरा हो--हजारों-हजारों वर्षों से भरा हो--और मैं आपसे कहूं कि एक दीया जलावें और इस अंधेरे को दूर करें, तो क्या आप मुझसे कहेंगे कि एक दीये से क्या होगा और इतना पुराना अंधकार एक नये-नये जले दीये से कैसे मिटेगा? नहीं, आप ऐसा नहीं कहेंगे, क्योंकि आप जानते हैं कि प्रकाश के लिए नये और पुराने अंधकार में भेद नहीं पड़ता है। उसके लिये दोनों ही समान हैं। और उसकी उपस्थिति दोनों के लिये समान रूप से मृत्यु है।
अंधकार पुराना ही होने से नहीं टिकता है। उसका टिकाव प्रकाश के न होने में है। प्रकाश झूठा हो या कि प्रकाश हो ही नहीं और उसके होने का भ्रम ही हो, तो अंधेरा टिक सकता है। एक व्यक्ति बुझा दीया लिये हुए अंधकार में खड़ा हो और सोचता हो कि अंधकार पुराना है, इसलिये नहीं मिटता है तो बात दूसरी है! यह मैं हंसी में नहीं कह रहा हूं। संसार में सदा ही बहुत लोग हैं जो कि बुझे दीये लिये हुए अंधकार को मिटाने की प्रार्थना किया करते हैं! वे सुन लें कि अंधकार प्रार्थना से नहीं, प्रकाश से मिटता है और बुझे दीयों को मात्र लिये फिरने से भी उसमें ज्योति आने की नहीं है। वह ज्योति हमें अपने ही प्राणों की अग्नि से डालनी होती है।
जो स्वयं में अग्नि को जलाता है, उसके ही हाथ के दीये में प्रकाश अवतरित होता है और उसकी ही राह से अंधकार सदा के लिये मिट जाता है। प्रकाश क्या जलाना है, स्वयं ही जलना है और प्रकाश बनना है।
हमारे हाथों में इन बुझे दीयों का ही इतिहास है। एक बाउल फकीर ने किसी गीत में कहा हैः ‘धर्म को उपलब्ध आत्माएं ज्ञान की जलती हुई मशालें लेकर आगे बढ़ती हैं। अंधेरे में भटकते हजारों अंधेजन आनंद और अनुग्रह से उनके पीछे हो लेते हैं। किंतु उन ज्योतिर्मय आत्माओं के देहपात के साथ ही उन अंधों में से ही कोई उन मशालों को उठा लेता है। लेकिन दूसरों को वे मशालें सदा बुझी हुई ही उपलब्ध होती हैं। क्योंकि उनका प्रकाश उनमें नहीं, वरन उन आत्माओं में ही था जिनके हाथों की वे शोभा थीं। मशालें तो बुझ जाती हैं, पर क्रिया-कांड के डंडे जरूर हाथ में रह जाते हैं।’
हमारे हाथों में बुझे दीयों का यही इतिहास है। ऐसे अंधे अंधों का नेतृत्व करते हैं और अंधकार से ही अंधकार को हटाने का प्रयास चलता है।
मित्रो! बुझे दीयों को फेंको और स्वयं स्वयं के लिये दीया बनो। अपनी ज्योति को जलाओ। जो ज्योति किसी भी मनुष्य में कभी भी जली हो, वह आप में भी जल सकती है।
यह आत्म-श्रद्धा, यह आत्म-विश्वास--कि जो कभी भी किसी भी मनुष्य में संभव हुआ है, वह मुझ में भी हो सकता है--सत्य की यात्रा में अत्यंत प्राथमिक आवश्यकता है।
मनुष्य तो बीजों की भांति है। एक बीज वृक्ष बन सकता है, तो दूसरे बीज भी अवश्य ही बन सकते हैं। एक हृदय प्रकाश से भर सकता है, तो सब हृदय भर सकते हैं। और एक व्यक्ति प्रभु को पा सकता है, तो सब पा सकते हैं।
मैं यदि उन ऊंचाइयों को न छू पाऊं जो मेरे ही किसी सजातीय बीज ने पाई हैं, तो स्मरण रहे कि दोष मेरी संभावना का नहीं--मेरा है। मेरी प्यास अधूरी होगी, मेरे प्रयास अधूरे होंगे, लेकिन इस कारण मेरी आत्मा अधूरी है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।
आत्माएं समान हैं अर्थात संभावनाएं, पोटेंशिअलिटी.ज समान हैं। आत्मा यानी आत्यंतिक, अल्टिमेट संभावना। वही हमारी आत्मा, एसेंशियल बीइंग है, जो होने की हमारी अंतिम और चरम संभाव्यता है। और किसी अर्थ में नहीं--इस अर्थ में ही प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है।
इसलिये उस अंधेरे का चिंतन मत करो जो कि वस्तुतः चारों ओर घिरा है। क्योंकि उसके चिंतन से पुरुषार्थ जागता नहीं, उलटे और सो जाता है। और उस स्थिति पर भी केंद्रित मत बनो जिसमें कि आप अपने को पा रहे हो। क्योंकि वह आपकी स्थिति नहीं, केवल दुर्घटना है।
उसे देखो जो कि आप हो सकते हो। उसका चिंतन करो जिसे कि आप पा सकते हो। आप यदि बट-बीज हो तो बट के विराट वृक्ष का मनन करो। आप जो पूर्ण होकर होओगे, वस्तुतः वही आप आज और अभी भी हो। अपनी आत्यंतिक गहराई में आपका होना इस क्षण भी वही है, जो आपकी आत्यंतिक ऊंचाई में कभी प्रगट होगा। गहराई और ऊंचाई एक ही है। बीज और विकास एक ही है। संभावना और सत्य एक ही है।
मैं बुद्ध हूं, मैं महावीर हूं, मैं कृष्ण हूं, अपने हृदयों के हृदय में इसे निरंतर जानो। अपने ब्रह्म होने को स्मरण करो। ओ अमृत पुत्रो! इस सत्य की विस्मृति ही संसार बन गई है।
इसलिये मैंने कहा है कि अज्ञान कितना ही घना हो उसके घनेपन की कोई चिंता नहीं, क्योंकि मैं तो आपके भीतर अनंत प्रकाश की संभावना देख रहा हूं। जो आपको नहीं दिखाई पड़ रहा है, वह मुझे दिखाई पड़ रहा है। क्योंकि मैंने स्वयं में अंधकार को भी जाना था और अब आलोक को भी जाना है। उस घने अंधकार में जो कि आप हो, आलोक की एक किरण भी फूट पड़ी, तो वह अंधकार और उस अंधकार के साथी आप, दोनों का ही कोई पता नहीं चलेगा। अंधकार विलीन हो जावेगा और आप नवीन हो जावेंगे। वह आलोक किरण आप में अवश्य ही फूट सकती है। उसके होने की प्राथमिक झलक भी प्रत्येक में है।
जब आप अपने को नहीं जान रहे हैं, तब कम से कम इतना तो जान रहे हैं कि आप अपने को नहीं जान रहे हैं। अज्ञान का यह बोध ज्ञान का प्रथम चरण है। यह बहुत बड़ी बात है और बहुत बड़ी सूचना है और इसमें बहुत दूरगामी परिणाम अंतर्गर्भित है। ज्ञान की किरण की पहली झलक यही है। पत्थर में यह झलक नहीं है, पौधे में यह झलक नहीं है, पशु में भी यह झलक नहीं है। पत्थर में सत्ता है। पौधे में सत्ता और जीवन है। पशु में सत्ता, जीवन और चेतना तीनों।
किंतु स्व-चेतना, सेल्फ-कांशसनेस सिर्फ मनुष्य में है। यह स्व-चेतना बहुत बड़ी संक्रांति की सीमा-रेखा है। यह बोध कि ‘मैं हूं’ और यह बोध कि ‘मैं स्वयं को नहीं जानता हूं’, वस्तुतः अर्ध स्व-चेतना है। स्व-चेतना पूर्ण तो तभी होगी जब मैं यह जानूं कि ‘मैं कौन हूं?’ इस अर्ध स्व-चेतना को पूर्ण करना है। लेकिन, निश्चय ही, उसकी पूर्णता की ओर पहला चरण आत्म-अज्ञान का बोध ही है।
मनुष्य में जब स्व-चेतना पूर्ण हो जाती है, तो वह मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाता है।
ज्ञान का पहला जागरण यही है कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। इसे हम अज्ञान का अंतिम साथ भी कह सकते हैं। वस्तुतः यह अज्ञान से ज्ञान में संक्रमण का बिंदु है।
इसलिये धर्म सबसे पहले यही सिखाता है कि हम स्वयं को नहीं जानते हैं। और जो-जो भ्रांतियां इस बोध में बाधा हों, जो-जो मिथ्या तादात्म्य इसमें आड़े आते हों, धर्म उन सब पर निर्मम आघात करता है। मनुष्य का अज्ञान उसके इसी मिथ्या ज्ञान में है कि वह स्वयं को जानता है। यह कैसा आश्चर्य है कि यह भ्रम सभी को बना रहता है! यह भ्रम जैसे कि जन्मजात है और सार्वभौमिक है। धर्म का संपर्क सबसे पहले इसी स्वप्न को तोड़ देता है।
स्वयं को जानने के स्वप्न से जाग जावें। आंखें खोलकर देखें। जो आपके आसपास हैं, वे ही अपरिचित नहीं, आप स्वयं भी अपने से अपरिचित हैं।
एक पत्र मुझे मिला था। लिखने वाले ने लिखा था कि वह मुझसे अपरिचित है। मैंने उससे पूछा है कि क्या वह स्वयं से परिचित है? यही मैं आपसे पूछता हूं। एक-दूसरे की ओर नहीं, अपनी ओर देखें। सुबह जब दर्पण के सामने खड़े हों तो क्षणभर को शांत और मौन होकर अपने से पूछें कि क्या मैं इस व्यक्ति को जानता हूं? रात्रि जब शैया पर लेटें तो अपने से पूछें, ‘क्या मैं स्वयं को जानता हूं?’
और आपको कोई भी उत्तर नहीं मिलेगा और आप जानेंगे कि आप अपने आपको नहीं जानते हैं।
यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इस बोध के बाद ही आगे कोई गति हो सकती है।
मैं वह नाम नहीं हूं, जिससे कि मैं जगत में जाना जाता हूं। कैसा आश्चर्य है कि नाम-धाम को दूसरे मेरा परिचय मान लेते हैं और मैं स्वयं भी अपना परिचय मान लेता हूं! किसी का कोई नाम नहीं है। सब अनाम पैदा होते हैं। और पुनः अनाम ही विलीन हो जाते हैं।
अपने अनाम होने पर चिंतन करें। उससे नाम का भ्रम मिटता है और नाम से मुक्ति होती है। जानें कि आपका कोई नाम नहीं है और फिर अपनी ओर देखें। क्या वहां आप एक बिल्कुल अपरिचित सत्ता को नहीं पाते हैं? नाम की स्थिरता और निरंतर आवर्तन से स्वयं से परिचित होने की भ्रांति पैदा होती है। इस नाम को बिल्कुल पोंछकर मिटा दें, चित्त से उसे अलग कर दें, वह सत्य नहीं है। वरन मात्र एक काल्पनिक, काम-चलाऊ संज्ञा और संकेत है। उससे आपका कोई भी संबंध नहीं है। अपने भीतर खोजें तो पायेंगे कि वहां आपका कोई भी नाम नहीं है।
और जैसा नाम है वैसा ही रूप है। आपका ‘रूप’ भी आप नहीं है। ‘रूप’ रोज बदलता है, फिर भी हमारी मूर्च्छा नहीं टूटती है।
एक दिन मैं अपने पुराने चित्र देखता था। उनमें कोई भी एकता नहीं है। वे सब भिन्न-भिन्न हैं। उन्हें हम अलग-अलग व्यक्ति के चित्र कहें तो भी कोई हर्ज नहीं है। वस्तुतः वे अलग-अलग व्यक्तियों के ही हैं। मेरा जो व्यक्ति रूप कल था वह आज नहीं है और जो आज है वह कल नहीं होगा। जन्म के समय जो शिशु रूप होता है उसमें और मृत्यु के समय जो वृद्ध रूप होता है उसमें, क्या कोई भी एकता है, कोई भी समानता है? किसी भी भांति वे एक नहीं हैं, फिर भी किसी आंतरिक मूर्च्छा और सम्मोहन के कारण हम उन्हें एक ही माने जाते हैं।
शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। एक क्षण को भी वहां ठहराव, रेस्ट नहीं है। आप जैसा शरीर लेकर यहां आये थे, वही शरीर लेकर वापस नहीं लौटेंगे। बहुत बदलाहट वहां हो गई होगी। शरीर वृद्ध हो गया होगा। उसमें बहुत कुछ मर गया और बहुत कुछ नया हो गया होगा। करोड़ों छोटे-छोटे जीव कोष्ठ आपकी देह को बनाते हैं। वह जीव कोष्ठों के एक विशाल नगर की भांति है। उसमें बहुत परिवर्तन और प्रवाह चलता रहता है। शरीर शास्त्री कहते हैं कि सात वर्षों में पूरी देह के कोष्ठ नये हो जाते हैं। अर्थात सत्तर वर्ष जो देह चलती है, वह दस बार पूरी की पूरी बदल जाती है। इस देह को स्वयं का होना मान लेना बड़ी भूल है। शरीर को स्वयं समझ लेना बड़ा अज्ञान है।
हेराक्लितु ने बहुत सदियों पूर्व कहा था, ‘आप एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिह्वर।’ उसने ठीक ही कहा था। जगत परिवर्तन है और जैसे नदी प्रतिक्षण बदल रही है, ऐसे ही जगत भी बदल रहा है। शरीर जगत का हिस्सा है और वह नदी की भांति ही बदलता रहता है। एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है, तो एक ही शरीर से दुबारा मिलन भी संभव नहीं है। मैं आपसे पूछता हूं कि क्या आप एक ही व्यक्ति से दुबारा मिले हैं? यह असंभव है। जो कहते हैं कि जगत में कुछ भी असंभव नहीं है, उनके लिए भी यह असंभव है। जैसे दो और दो पांच नहीं हो सकते हैं, वैसे ही यह भी संभव नहीं है। नाम-रूप का जो जगत है, वह सतत प्रवाहशील है। वहां कुछ भी स्थिर नहीं है। शरीर उसका ही संयोग और संघात है।
‘मैं’ जो और जैसा दिखाई पड़ता हूं, वह भी ‘मैं’ नहीं हूं। क्योंकि दिखाई पड़ने वाली सतह तो नदी की धार की भांति बही जा रही है। वह नहीं, उसके भीतर और उसके अतीत ही कहीं मेरा होना हो सकता है। शरीर नहीं, शरीर के पार ही मेरी सत्ता हो सकती है।
शरीर के भीतर चलें। शरीर की सतत प्रवाही सतह के नीचे और पीछे देखें। वहां क्या है? वहां मन है। वह मन भी एक क्षण को भी ठहरा हुआ नहीं है। शरीर के परिवर्तन से भी बहुत ज्यादा तीव्र उसके परिवर्तन की गति है। शरीर तो ठहरा हुआ लगता भी है, उस मन में तो कोई ठहराव प्रतीत भी नहीं होता है। आकाश में बादल एक क्षण को भी बिना ठहरे बदलते रहते हैं, ऐसी ही स्थिति मन के विचारों की है। इन जड़विहीन, रूटलेस बादलों जैसे विचारों को अपना स्वरूप और सत्ता मत समझ लेना। जिस पर इनका आना और जाना है, उसे खोजना होगा। बदलियों के पीछे उस आकाश को खोजना होगा, जिसमें और जिस पर कि उनका खेल चलता है।
विचार परिवर्तन की तीव्रतम शृंखला को उपस्थित करते हैं। कोई मुझे कहता था कि प्रकाश का वेग एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकेंड है और विद्युत का वेग दो लाख अठासी हजार मील प्रति सैकेंड है, जबकि विचार का वेग बाईस लाख, पैंसठ हजार, एक सौ बीस मील प्रति सैकेंड है। यह ठीक ही होगा। विचार से अधिक गति और किसमें हो सकती है? स्वप्नों से अधिक परिवर्तनशील और क्या हो सकता है?
यह स्मरण रखें कि जहां परिवर्तन है वहां आपकी आत्यंतिक सत्ता नहीं है।
यह मन एक क्षण प्रेम से भरता है और दूसरे क्षण घृणा से भर जाता है। एक क्षण शुभ विचार इसमें बहते हैं, दूसरे क्षण अशुभ बहने लगते हैं। जो थोड़ी देर पहले करुणा से भरा था, वह थोड़ी देर बाद क्रूरता में देखा जाता है। झील पर हवाओं के थपेड़ों से उठी लहरों की भांति इसकी दशा है। मेरी मानें और जरा भीतर देखें। क्या वहां किसी फिल्म की भांति विचार नहीं बह रहे हैं? प्रत्येक के भीतर मन का यह छविगृह है और हम सब उसके चित्रों की शृंखला के दर्शक बने हुए हैं। इस छविगृह में जो दिखाई पड़ रहा है, वह नहीं, बल्कि जो देख रहा है, वही मेरा होना है, वही मैं हूं।
मैं न नाम हूं, न रूप हूं, न दृश्य हूं; वरन इन तीनों के पार और अतीत जो अनाम, अरूप द्रष्टा है, वही मेरी सत्ता और आत्मा है। इसे समझना, मनन करना और देखना। क्रमशः उस परम सखा की ओर दृष्टि ले जाने से एक दिन उसका दर्शन होता है और सारा जीवन आमूल परिवर्तित हो जाता है।
शरीर परिवर्तनशील है, चित्त परिवर्तनशील है। इसलिये मैंने कहा कि उनका होना हमारा वास्तविक होना नहीं है। ऐसा मैंने क्यों कहा है? ऐसा इसलिए कहा है कि हमारे भीतर सब बदलता जाता है, फिर भी कुछ है जो कि नहीं बदलता है। परिवर्तन की परिधि के भीतर कुछ सदा अपरिवर्तित और सनातन भी है। उसके ही आधार पर परिवर्तन होते हैं और जैसे फूलों की माला उनके भीतर अनस्यूत धागे पर टिकी होती है, वैसे ही सारे परिवर्तन उस अपरिवर्तित पर टिके होते हैं। उसके बिना तो माला बिखर जायेगी और फूल अलग-अलग हो गिर पड़ेंगे। शरीर और चित्त दोनों ही संग्रह और संयोग हैं। उनका आधार उनके बाहर है। वह आधार ही आत्मा है।
शरीर, मन का सतत प्रवाही संघात किसी अप्रवाही सत्ता के आधार के बिना हो ही कैसे सकता है? जैसे आकाश में बादल आते और जाते हैं, ऐसे ही उस पर और उसमें शरीर व मन का आना और जाना है। शरीर और मन से स्वयं का तादात्म्य, आइडेंटिटी समझ लेना ही अज्ञान है। यह तादात्म्य ही संसार का मूल है। जो इस तादात्म्य को भेदकर उसे जानने में समर्थ हो जाता है, जो कि शरीर व मन के अतीत है, वह ज्ञान को--आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होता है।
हमने देखा कि शरीर और मन निरंतर बहा जा रहा है। लेकिन फिर अतीत की स्मृति किसे होती है? मैं अपने बालपन को स्मरण कर पाता हूं। आज युवा हूं, कल वृद्ध हो जाऊंगा। वृद्ध होकर पाऊंगा कि शरीर और मन की गंगा का बहुत जल बह गया है। लेकिन फिर भी स्मृति का धागा उस सबको सम्हाले हुए है, जो कि बह गया है और अब कहीं भी नहीं है। स्मृति-विषयों, मेमोरि कंटेंट्स के प्रति जो मेरी जागरूकता, अवेअरनेस है वह तो अविच्छिन्न होती है। इससे दीखता है कि हमारे भीतर समस्त विच्छिन्नताओं के बीच प्रतीति की कोई अविच्छिन्न, कांस्टेंट एंड कंटिन्युअस तत्व मौजूद है। यह तत्व परिवर्तनों से घिरा है, पर स्वयं अपरिवर्तित है। यह ठीक भी है। क्योंकि जो समस्त परिवर्तनों को अनुभव करता है, वह स्वयं परिवर्तनशील नहीं हो सकता है। इस अविच्छिन्न चेतना तत्व का नाम ही आत्मा है। जो इस तत्व पर ध्यान करते हैं, वे न केवल इस जन्म के अतीत, वरन अतीत के समस्त जन्मों को भी स्मरण कर पाते हैं।
स्मृति-विषय, मेमोरि कंटेंट्स तो मन की ही अचेतन पर्तों पर लिपिबद्ध होते हैं। लेकिन उन्हें देखने वाला, उनके प्रति जागरूक और सचेतन होने वाला जो चेतना-तत्व है, वह उनसे पृथक और उनके पीछे है। इसलिए ही वह उनका स्मरण और उनकी प्रत्यभिज्ञा कर पाता है। स्मृति के स्मरण के रहस्य को समझने, उसका मनन करने से, उसमें झांकने से, मृत्यु के पीछे किसी अमृत और अनित्य के पीछे किसी नित्य तत्व के दर्शन होते हैं।
मनुष्य की सत्ता दोहरी है। उसके भीतर दो सत्तायें मिलती हैं और उनका संगम होता है। मनुष्य परिवर्तन और अपरिवर्तन, अनित्य और नित्य, मृत्यु और अमृत का जोड़ है। शरीर और आत्मा से हम इस द्वैत की ही सूचना देते हैं। मनुष्य की परिधि निरंतर परिवर्तित होती रहती है। और उसका केंद्र सदा अपरिवर्तित बना रहता है।
जो अपने भीतर केवल परिवर्तन को ही जानता है, वह अपनी देह से ही परिचित है। उसका परिचय अपने आवास और अनात्म से ही है। वह स्वयं को नहीं जानता है। और इस मौलिक अज्ञान के कारण उसका जीवन अपने ही हाथों अंधकार से और घने अंधकार में गिरता जाता है। वह स्वयं ही अपने दुख के बीज बोता है और स्वयं ही अपने संताप के कारागृह निर्मित करता है। उसका जीवन अथक आत्म-उत्पीड़न बन जाता है।
अज्ञान में हम जो भी बनाते हैं, वह अंततः स्वयं के लिए नर्क ही सिद्ध होता है। लेकिन यदि हम अपने अपरिवर्तनशील तत्व से भी परिचित हो सकें, तो जीवन की दिशा बदल जाती है और अंधकार की जगह आलोक में हमारे चरण गतिमय हो जाते हैं। उसके प्रकाश में ही हम पहली बार जीवन के अभिप्राय और धर्म से परिचित होते हैं और उसके माध्यम से ही पहली बार सत्य-जीवन में हमारी प्रतिष्ठा होती है। उसे जानते ही बंधन विलीन हो जाते हैं और दुख की प्रेत छायाएं हमारा पीछा छोड़ देती हैं।
उस नित्य को, उस अमृत को कैसे हम जान सकेंगे? किसी के प्रयास से वह नहीं जाना जाता है और न किसी की प्रार्थना से। स्वयं का अथक प्रयास, अपना ही श्रम उस तक ले जाता है। अपने ही चरणों के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है, और अपने ही श्रम के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं है। इसे भलीभांति स्मरण रखना; अन्यथा सत्य को भीख में पा लेने की आकांक्षा से अनेक जीवन-अवसर व्यर्थ ही अपव्यय हो जाते हैं।
सत्य को जानना है, स्वयं को जानना है, तो जो ‘स्व’ नहीं है, ‘आत्म’ नहीं है, उससे तादात्म्य तोड़ना होगा। ‘अनात्म’ से समस्त तादात्म्य तोड़ना होगा। अनात्म से अतादात्म्य में जो प्रगट होता है, वही आत्मा है। परिधि को छोड़ो और केंद्र की ओर चलो। परिवर्तनशील को छोड़ो और अपरिवर्तनशील की ओर चलो। यही साधना की दिशा है।
किस-किस से हमारा तादात्म्य है? ‘शरीर’ से है, ‘विचार’ से है, ‘भाव’ से है--तादात्म्य की इन सभी दीवारों को गिरा दो। उन दीवारों से अपने को मुक्त कर लो जो कि परिवर्तनशील हैं। जो भी परिवर्तनशील है, जानो कि आप वह नहीं हो। इस स्मृति को केंद्रीभूत करो कि जो भी परिवर्तनशील है, वह मैं नहीं हूं। उसे श्वास-प्रश्वास में स्थायी करो। उसे सोते-जागते प्राणों के प्राण में निनादित होने दो। उस स्मृति के तीर को चेतना में गहरे से गहरा प्रविष्ट करना होता है। उसका अविच्छिन्न हो जाना जरूरी है, तभी लक्ष्य-भेद होता है।
शरीर, विचार, भाव--सभी में यह बोध रहे कि वे मेरी सत्ताएं नहीं हैं। यह स्मरण खोने न पावे। सुबह से सांझ, सांझ से सुबह इस बोध को गहराते ही जाना है। शरीर को जब भी जानें, तो जानें कि यह ‘शरीर मैं नहीं हूं।’ चित्त को जब भी जानें, तो जानें कि यह ‘चित्त’ मैं नहीं हूं, श्वास आती हो, प्रश्वास जाती हो तो जानें कि ‘यह मैं नहीं हूं’। शरीर, प्राण और चित्त--तीनों ‘मैं नहीं’, इस स्मृति-साधना से क्रमशः तादात्म्य की मोह-निद्रा टूटती है और जागरण आता है। जैसे कोई गहरी नींद में सोया हो और हम उसे बुलाते ही जावें, तो अंततः उसकी नींद टूट ही जाती है। ऐसे ही स्वयं की नींद भी तोड़नी होती है। स्वयं को बुलाकर स्वयं की ही नींद तोड़नी है।
स्मृति-साधना स्वयं को बुलाने की विधि और पद्धति है। उसके अहर्निश प्रयोग से काया का और चित्त का ‘पर’ और पृथक होना अनुभव होता है। उनके और स्वयं के बीच भेद और अंतर स्पष्ट होता है। हम उससे दूर होने लगते हैं, जो कि हम नहीं हैं। और क्रमशः उसमें हमारी प्रतिष्ठा होती है, जो कि हमारा वास्तविक होना है। इस भांति हमारी प्रवासी आत्मा अपने निवास पर आती है। शरणार्थीपन मिटता है और हम स्वयं अपने गृह में आते और उसके मालिक बनते हैं।
परिवर्तनशील परिधि से नाता तोड़ना ही क्रमशः अपरिवर्तनशील केंद्र से नाता जोड़ना बन जाता है। फिर किसी क्षण में, जब साधना का उत्ताप वाष्पीकरण के बिंदु पर पहुंच जाता है, अनायास और अनपेक्षित विस्फोट होता है। और जैसे कोई गहरी नींद से जाग जाता है, ऐसे ही हमारी चेतना शरीर और चित्त होने की मोह-निद्रा से जाग जाती है। अपूर्व आलोक अनुभव होता है और उस आलोक में जो जाना जाता है, वही सार है, वही सत्य है, वही समग्र की आधारभूत सत्ता है।
सत्य को ऐसे ही जाना जाता है। विचार से नहीं-- साधना से, विधि से। स्वयं में प्रवेश से उसकी प्राप्ति है और जो शास्त्रों में ही भटकते रहते हैं, वे व्यर्थ ही भटकते हैं। शब्द में नहीं, स्वयं में उसकी उपलब्धि का द्वार है। स्वयं के व्यक्तित्व की परिवर्तनशील परिधि से क्रमशः अपने को मुक्त करने का नाम ध्यान है। और मुक्त हो जाने की चरम अवस्था का नाम समाधि है।
महावीर बारह वर्षों में यही करते थे। बुद्ध भी यही करते थे। सत्य का कोई भी साधक यही करता है। क्रमशः भीतर सरकता है, केंद्रोन्मुख होता है, परिवर्तनशील से तादात्म्य तोड़ता है और स्मरण स्थापित करता है कि ‘यह मैं नहीं हूं।’ उस क्षण तक वह जानता ही चला जाता है कि ‘यह मैं नहीं हूं’, जब तक कि अस्वीकार करने को कुछ उसे शेष ही नहीं रह जाता है। फिर वह स्वयं ही शेष रह जाता है। फिर वही शेष रह जाता है--जो वह है। ज्ञेय कुछ भी नहीं बचता है, मात्र ज्ञाता ही रह जाता है। ज्ञेय के अभाव में उसे ज्ञाता भी क्या कहें? अच्छा हो कि कहें कि सिर्फ ज्ञान ही शेष रह जाता है।
ज्ञेय और ज्ञाता से मुक्त यह शुद्ध ज्ञान ही आत्मा है। इस क्षण सारी सीमायें गिर जाती हैं, काल और देश समाप्त हो जाते हैं। अनंत और असीम में चेतना विराजमान होती है। यही उसका स्वरूप है। इसी की उसे खोज और तलाश है और जब तक इसे पा न लिया जावे तब तक उसे अशांति और असंतोष स्वाभाविक है। जिसे हम बूंद की भांति जानते हैं, वह सागर है। और जब तक हम उसे सागर की भांति ही अनंत और असीम नहीं जानेंगे, तब तक दुख से छुटकारा नहीं है। सीमा ही दुख है। सीमा से ऊपर उठ जाना दुख के अतीत हो जाना है।
एक बार ऐसा हुआ कि एक राजा ने सौ ब्राह्मणों को किसी अवसर पर भोज दिया। भोज के बाद उसने उन ब्राह्मणों से कहा, ‘मैं ज्ञानियों का एक उपनिवेश बसाना चाहता हूं। राजधानी के बाहर झील के पास जो मेरा रम्य वन है, वहां आप सौ ब्राह्मण जितनी भूमि चाहें, ले लें। जो जितनी भूमि घेरकर उस पर अपनी दीवार बना लेगा, वह भूमि उसकी ही हो जावेगी।’
उन ब्राह्मणों ने अपनी सामर्थ्य भर जमीन घेर ली। वह भूमि बहुत बहुमूल्य थी और वे ब्राह्मण बहुत दरिद्र थे! जिसके पास जो था, सब बेचकर उन्होंने बड़ी-बड़ी भूमि को घेरकर दीवारें बना लीं। दीवार से भूमि को घेर लेना ही तो एकमात्र मूल्य था!
फिर, छह माह बाद वह राजा वहां गया। उसने उन ब्राह्मणों से कहा, ‘मैं देखता हूं कि आपने जमीन काफी घेरी है, फिर भी बहुत काफी नहीं घेरी। और जमीन घेर लो और यह भी स्मरण रखना कि जिसका घेरा सबसे बड़ा होगा, उसे राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने का मेरा संकल्प है!’
यह भी ठीक ही था कि जिसकी समृद्धि का घेरा सबसे बड़ा हो, वही राजगुरु बने। राजा के गुरु होने की मर्यादा के यह अनुकूल ही था। वे ब्राह्मण पागलों की भांति अपने घेरे बड़े करने में लग गये। उनमें बड़ी प्रतियोगिता थी। यही प्रतियोगिता सभी जगह है। सभी अपने घेरे बड़े करने में लगे हैं। सभी की आकांक्षा राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने की है! उन ब्राह्मणों ने बड़ी से बड़ी भूमि घेरी।
छह माह बाद पुनः वह राजा उनके बीच गया। उसने उनसे कहा, ‘ब्राह्मणो, जिसका घेरा सबसे बड़ा हो, वह सूचित करे।’ इसके पहले कि कोई उठता, एक दरिद्रतम ब्राह्मण उठा। उसके पास तो वस्त्रों के नाम पर केवल एक लंगोटी थी। सभी हैरान हुए, क्योंकि सभी जानते थे कि उसका घेरा ही सबसे छोटा है। वह तो दीवार भी नहीं बना सका था, घास-फूस की छोटी-सी बाड़ी ही उसने बांधी थी! उतनी ही उसकी सामर्थ्य भी थी। लेकिन उस दरिद्रतम ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं राजगुरु के पद पर अपने को घोषित करता हूं।’ राजा चकित हुआ। उसकी दरिद्रता से कौन परिचित नहीं था? और ब्राह्मणों ने समझा कि शायद वह पागल हो गया है!
उसने जब दावा किया, तो राजा को उसकी भूमि का निरीक्षण करने जाना पड़ा। जब राजा और सारे ब्राह्मण वहां गये, तो उन्होंने देखा कि जो घास-फूस का घेरा था, वह भी रात्रि उसने जला दिया है और दीवार के नाम पर केवल राख ही शेष रह गई है। उस ब्राह्मण ने कहा, ‘राजन! मेरा घेरा सबसे बड़ा है। क्योंकि मेरा कोई घेरा ही नहीं है।’ राजा यह सुन, उसके पैरों पर गिर पड़ा। सच ही जिसका कोई घेरा नहीं है, उसने सभी को घेर लिया होता है, और जो सीमाएं तोड़ देता है, वह असीम हो जाता है।
मैं आपकी ओर देखता हूं, तो क्या पाता हूं? पाता हूं कि आप बहुत घेरों में घिरे हैं। वह जो असीम है, अपने ही हाथों सीमाओं में बंधा हुआ है। परमात्मा को आपके भीतर मैं बंदी हुआ देख रहा हूं। सीमाओं को तोड़ो और अपनी परमात्म-शक्ति को मुक्त होने दो। घास-फूस की दीवारों में आग लगा दो और उन्हें राख हो जाने दो। उनकी राख पर ही उसके दर्शन होंगे, जो कि परम शक्ति है और परम आलोक है।
अपने को मिटाकर ही अपने को पाया जाता है। अहं को तोड़कर ही ब्रह्म की उपलब्धि होती है। आज तक सदा ऐसा ही हुआ है। इसी मूल्य पर--इसी यज्ञ से, इसी द्वार से ही--स्वयं को खोकर ही स्वयं को पाया जाता रहा है। और कोई मार्ग नहीं है। जिसके जितने ज्यादा घेरे हैं, वह उतना ही घिरा और छोटा होता है, वह उतना ही विराट से दूर और अलग हो जाता है। वह अपने ही हाथों क्षुद्र अणु बन जाता है। और जो जितना घेरों को गिरा देता है और उनसे मुक्त हो जाता है, वह उतना ही विराट हो जाता है। अणु से आत्मा होने की राह और विधि यही है।
उठो! जागो और सारे घेरों को गिरा दो। वे घेरे ताश के पत्तों के ही घेरे हैं, क्योंकि उनकी सत्ता मिथ्या तादात्म्य से ज्यादा गहरी नहीं है। शरीर, विचार और भाव के इन घेरों को स्मृति की साधना से विच्छिन्न करो। ध्यान की अग्नि में उन्हें जला दो, और फिर देखो कि तुम्हारे भीतर क्या है और कौन है?
प्रत्येक के भीतर वह मौजूद है, जो घेरे में है, लेकिन फिर भी अनघिरा है। और प्रत्येक के भीतर उसका आवास है, जो मृत्यु से गुजरता है, लेकिन अमृत है। मिट्टी के दीये में जैसे ज्योतिशिखा होती है, ऐसे मृत्यु के दीये में जीवन की ज्योति है। दुर्भाग्य है उनका जो कि अपने भीतर केवल मिट्टी के दीये को ही जानते हैं, और जीवन की ज्योति से वंचित हैं। पर वे अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकते हैं। क्योंकि वे जानें या न जानें, लेकिन जीवन की, अमृत की ज्योति सतत उनके भीतर भी जल रही है।
धर्म क्या है? इस ज्योति को जानने का विज्ञान धर्म है। इस ज्योति को जानना ही होगा। उसके बिना जीवन अपूर्ण और अधूरा है। और उसे जाने बिना शांति और सांत्वना नहीं मिलेगी। उसे जाने बिना जन्मों-जन्मों की दौड़ें रेत पर खींची हुई रेखाओं की तरह मिट जाती हैं। वे सब निष्फल हैं। आत्मज्ञान ही विश्राम का स्थल है।
तृष्णा की धूप से क्लांत और अज्ञान की यात्रा से थके राही को वहीं छाया और विश्रांति मिलती है। इसलिए इस स्थल को पाना ही होगा। अपनी सारी ऊर्जा को इकट्ठा कर प्रयास करो। और अपने सारे संकल्प को घनीभूत कर सत्य को पाने चलो, तो सफलता सुनिश्चित है, क्योंकि सत्य की दिशा में सम्यक रूप से उठाया गया कोई भी चरण कभी व्यर्थ नहीं जाता है।
प्रभु की अनुकंपा आपके ऊपर हो, प्रभु करे कि आप स्वयं को पा सकें, प्रभु आपको प्रेरणा और प्रकाश दे कि आप अनंत आनंद और अमृत से संयुक्त हो सकें, यही मेरी कामना है। आपकी क्षुद्र क्रियाएं वहां नहीं पहुंचायेंगी। आपकी सस्ती पूजा और अर्चना वहां नहीं पहुंचायेंगे। आपके दो कौड़ी के दान-धर्म वहां नहीं पहुंचायेंगे। आपके खड़े किए हुए क्षण-भंगुर मंदिर, मस्जिद और शिवालय वहां नहीं पहुंचायेंगे। बाहर के जगत में आपका किया हुआ कुछ भी वहां पहुंचाने में समर्थ नहीं है। क्योंकि आपका सब किया हुआ आपके घेरों को ही बनाता और आपकी दीवारों को ही सुदृढ़ करता है। उससे आपकी अहंता मिटती नहीं, और मजबूत होती है। उस सबसे आपको लगता है कि ‘मैं’ कुछ हूं।
दानी को लगता है--‘मैं कुछ हूं।’ पंडित को लगता है--‘मैं कुछ हूं।’ त्यागी को लगता है--‘मैं कुछ हूं।’ साधु को लगता है --‘मैं कुछ हूं।’ और इस भांति सब किया हुआ अधर्म हो जाता है। अधर्म ‘मैं’ को भरता है, धर्म ‘मैं’ को छीनता है। वह व्यक्ति धर्म की दिशा में है जो निरंतर अपने ‘मैं’ को विलीन होता हुआ पाता है। वह सतत ‘मैं’ से शून्य की तरफ बढ़ता है। वह निरंतर अकिंचन से अकिंचन होता चला जाता है और फिर एक दिन बिल्कुल शून्य ही हो जाता है। और उसे स्मरण भी नहीं रहता है कि वह है। उसका होना हवा-पानी की भांति ‘मैं-शून्य’ हो जाता है। और तभी वह जान पाता है कि वह कौन है?
‘मैं’ के मिट जाने से आत्मा का जन्म होता है। इसलिये कोई ऐसा न कहे कि ‘मेरी आत्मा’, क्योंकि आत्मा मेरी और तेरी नहीं होती है। जहां न ‘मैं’ होता है, न ‘तू’ होता है, वहां जो होता है, उसका नाम आत्मा है। जब सब ‘मैं’, ‘तू’ के बोध गिर जाते हैं, तभी हम आत्मा से संयुक्त होते हैं। वह आत्मा सबके भीतर है, वह सत्ता सबमें है, किंतु वह किसी की भी नहीं है।
धर्म आत्यंतिक साहस की बात है, क्योंकि उसमें स्वयं को ही तोड़ना और मिटाना होता है। वह ‘मैं’ की मृत्यु से गुजरना है। वह अपने को सीमाओं की सुरक्षा से अलग कर असीम की असुरक्षा में सौंपना है। असीम की असुरक्षा के इस आमंत्रण को ही मैं संन्यास कहता हूं। सीमा की सुरक्षाओं से जो नहीं निकल पाता है, वही गृही है, वही गृहस्थ है। ‘मैं’ की, अस्मिता की सीमाओं को जो तोड़ देता है, वह अपनी बूंद-सत्ता को छोड़ता है और जिसमें इतना साहस है वही--केवल वही सागर-सत्ता को पाता है।
प्रभु आपको इतना साहस दे कि बूंद के सागर होने के इस आरोहण में आप सफल हो सकें।
मेरी इन बातों को इतने मौन से और इतनी प्रीति से आपने सुना है, उसके लिये मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। बहुत प्रेम मैं आपके प्रति अनुभव कर रहा हूं। मेरा प्रेमपूर्ण आलिंगन स्वीकार करें। मेरी बाहें तो छोटी हैं, पर हृदय इतना बड़ा है कि सब उसमें समा जावें। मेरी बाहों को नहीं, मेरे प्रेम को देखें और उसे अनुभव करें। प्रेम के अनुभव में ही प्रभु है।

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