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शनिवार, 8 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-74

संवेदनशीलता ओर आसक्ति-

प्रवचन-चौहत्ररवां 

प्रश्नसार:

1-संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए?
2-आप अपने ही शरीर को ठीक क्या नहीं कर सकते?
3-स्वयं श्रम करें या आप पर सब छोड़ दें?
4-क्या सच में जीसस को पता नहीं था कि पृथ्वी गोल है?   


पहला प्रश्न :

ध्यान की गहरई के साथ-साथ, व्यक्ति वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति अधिकाधिक और संवेदनशील होता जाता है। लेकिन इस गहन संवेदनशीलता के कारण व्यक्ति स्वयं को हर चीज के साथ जुड़ा हुआ और एक गहन अंतरंगता में पाला है, और यह अक्सर एक सूक्ष्म आसक्ति का कारण बन जाता है। तो संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए?

संवेदनशील होते हुए कैसे हुआ जाए? ये दोनों बातें विरोधी नहीं है, विपरीत नहीं है। यदि तुम अधिक संवेदनशील हो तो तुम विरक्त होओगे; या तुम यदि विरक्त हो तो अधिकाधिक संवेदनशील होते जाओगे। संवेदनशीलता आसक्ति नहीं है, संवेदनशीलता सजगता है। केवल एक सजग व्यक्ति ही संवेदनशील हो सकता है। यदि तुम सजग नहीं हो तो असंवेदनशील होओगे। जब तुम बेहोश होते हो तो बिलकुल असंवेदनशील होते हो; जितनी अधिक सजगता, उतनी ही अधिक संवेदनशीलता।


बुद्ध पुरुष पूर्णतया संवेदनशील होता है, उसकी संवेदनशीलता परम होती है, क्योंकि वह अपनी परिपूर्ण क्षमता से अनुभव करेगा और सजग होगा। लेकिन जब तुम संवेदनशील होते हो और सजग होते हो तो तुम आसक्त नहीं होओगे, तुम विरक्त रहोगे। क्योंकि सजगता की यह घटना ही तुम्हारे और वस्तुओं के बीच, तुम्हारे और व्यक्तियों के बीच, तुम्हारे और संसार के बीच सेतु को तोड़ डालती है, सेतु को नष्ट कर देती है। बेहोशी और नींद ही आसक्ति के कारण हैं।
यदि तुम सजग हो तो सेतु अचानक टूट जाता है। जब तुम सजग होते हो तो संसार से जुड़ने के लिए कुछ भी नहीं बचता। संसार भी है, तुम भी हो, लेकिन दोनों के बीच का सेतु टूट गया है। वह सेतु तुम्हारी बेहोशी से बना है।
तो ऐसा मत सोचो कि तुम आसक्त हो रहे हो क्योंकि तुम अधिक संवेदनशील हो गए हो। नहीं, यदि तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी तो तुम आसक्त नहीं होओगे। आसक्ति तो बड़ा स्थूल गुण है, सूक्ष्म नहीं है। आसक्ति के लिए तुम्हें सजग और जागरूक होने की जरूरत नहीं है। कोई जरूरत नहीं है। जानवर भी बड़ी सरलता से, बल्कि अधिक सरलता से आसक्त हो सकते हैं। किसी मनुष्य से ज्यादा एक कुत्ता अपने मालिक से आसक्त होता है। कूत्ता पूरी तरह बेहोश है इसलिए आसक्ति हो जाती है।
इसीलिए जिन देशों में मानवीय संबंध निर्बल पड़ गए हैं जैसे कि पश्चिम में वहां मनुष्य जानवरों से कुत्तों से या अन्य जानवरों से संबंध स्थापित करता जा रहा है। क्योंकि मानवीय संबंध तो अब रहे ही नहीं। मानव समाज समाप्त होता जा रहा है और हर मनुष्य एकाकी, अजनबी, अकेला महसूस करता है। भीड़ है,' लेकिन तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं है। तुम अकेले हो भीड़ में। और यह अकेलापन तुम्हें खलता है। तो आदमी भयभीत हो जाता है और डरने लगता है।
जब तुम किसी से जुड़े होते हो, आसक्त होते हो और दूसरा तुम्हारे साथ आसक्त होता है तो तुम्हें लगता है कि इस संसार में इस अजनबी संसार में तुम अकेले नहीं हो। कोई तुम्हारे साथ है। किसी से संबंधित होने का यह' भाव तुम्हें एक तरह की सुरक्षा देता है। जब मानवीय संबंध असंभव हो जाते हैं तो पुरुष और स्त्रियां जानवरों से संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। पश्चिम में वे कुत्तों और दूसरे जानवरों से बहुत जुड़े हुए हैं लेकिन यहां पूर्व में चाहे तुम गौओं की पूजा करते हो लेकिन उनसे जुड़े हुए नहीं हो। तुम चाहे कहे चले जाओ कि गाय की तुम दिव्य-पशु की तरह पूजा करते हो लेकिन तुम्हारी क्रूरता का भी कोई अंत नहीं है।
पूर्व में तुम पशुओं के साथ इतने क्रूर हो कि पश्चिम समझ ही नहीं पाता कि तुम कैसे स्वयं को अहिंसक मानते हो। संसार भर में, विशेषत: पश्चिम में, जानवरों को मनुष्यों की क्रूरता से बचाने के लिए बहुत सी समितियां हैं। पश्चिम में तुम किसी कुत्ते की पिटाई नहीं कर सकते। यदि तुम उसकी पिटाई करो तो यह एक अपराध होगा और तुम्हें उसकी सजा मिलेगी। असल में क्या हो रहा है कि मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं लेकिन मनुष्य अकेला नहीं जी सकता। उसे कोई संबंध चाहिए कोई नाता चाहिए, एक भाव कि उसके साथ कोई है। जानवर बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि वे बहुत आसक्त हो जाते हैं; कोई भी मनुष्य इतना आसक्त नहीं हो सकता।
आसक्ति के लिए होश आवश्यक नहीं है; बल्कि होश उसमें बाधा है। जितने तुम होशपूर्ण होओगे उतने ही कम तुम आसक्त होओगे, क्योंकि आसक्ति की आवश्यकता नहीं रहती। तुम किसी से जुड़ना क्यों चाहते हो? क्योंकि अकेले तुम्हें लगता है कि तुम पर्याप्त नहीं हो। तुममें कुछ कमी है। तुममें कुछ अधूरा है। तुम पूर्ण नहीं हो। तुम्हें किसी की जरूरत है जो। तुम्हें पूरा करे। इसीलिए आसक्ति है। यदि तुम होशपूर्ण हो तो तुम पूरे हो, तुम पूर्ण हो; वर्तुल पूरा हो गया, तुममें कुछ कमी नहीं रही, तुम्हें किसी की आवश्यकता नहीं रही। अकेले ही तुम पूरी तरह स्वतंत्र अनुभव करते हो पूर्णता का अनुभव करते हो।
इसका यह अर्थ नहीं कि तुम लोगों से प्रेम नहीं करोगे, बल्कि केवल तुम्हीं प्रेम कर सकते हो। जो व्यक्ति तुम पर निर्भर है वह तुम्हें प्रेम नहीं कर सकता; वह तुम्हें घृणा करेगा। जिस व्यक्ति को तुम्हारी जरूरत है वह तुम्हें प्रेम नहीं कर सकता। वह तुमसे घृणा करेगा, क्योंकि तुम बंधन हो गए हो। उसे लगता है कि तुम्हारे बिना वह जी नहीं सकता, तुम्हारे बिना वह सुखी नहीं हो सकता, तो तुम ही उसके सुख और दुख के कारण हो। वह तुम्हें खो नहीं सकता। इससे वह बंदी अनुभव करेगा, वह तुम्हारा बंदी है; और वह विरोध प्रकट करेगा, इसके विरुद्ध संघर्ष करेगा। लोग घृणा और प्रेम दोनों साथ-साथ करते हैं, लेकिन यह प्रेम बहुत गहरा नहीं हो सकता।
केवल एक जाग्रत व्यक्ति ही प्रेम कर सकता है क्योंकि उसे तुम्हारी जरूरत नहीं है। लेकिन तब प्रेम का अलग ही आयाम होता है : प्रेम आसक्ति नहीं रहता, परतंत्रता नहीं रहता। प्रेम न तो तुम पर आश्रित है न तुम को स्वयं पर आश्रित करेगा, वह सवंत्र रहेगा ओर तुमको  भी स्वतंत्र रहने देगा। वह दो स्वतंत्र व्यक्तियों का, दो संपूर्णताओं का, दो पूर्ण आत्माओं का मिलन होगा। वह मिलन एक उत्सव, एक मंगल पर्व होगा, परतंत्रता नहीं। वह मिलन एक मस्ती होगा, खेल होगा।
इसीलिए तो हमने कृष्ण के जीवन को कृष्णलीला, कृष्ण का खेल कहा है। वह इतने लोगों को प्रेम करते हैं पर उनमें कोई आसक्ति नहीं है। कृष्ण की गोपियों और गोपालों की ओर से ऐसा नहीं है। कृष्ण के मित्रों की ओर से ऐसा नहीं है : वे आसक्त हो गए हैं। इसीलिए तो जब कृष्ण वृंदावन से द्वारिका चले जाते हैं तो वे लोग रोते और चिल्लाते हैं और दुखी होते हैं। उन्हें बड़ा विषाद होता है, क्योंकि वे सोचते हैं कि कृष्ण उन्हें भूल गए हैं। वह भूले नहीं हैं, लेकिन वह दुखी नहीं हैं क्योंकि उनके लिए कोई परतंत्रता न थी; वह द्वारिका में भी उतने ही आनंदित हैं जितने वृंदावन में थे, और उनका प्रेम द्वारिका में भी उतना ही बह रहा है जितना वृंदावन में बहता था। प्रेम के पात्र बदल गए हैं लेकिन प्रेम का स्रोत वही है। तो जो भी उनके निकट आता है, उसे प्रेम का उपहार मिलता है। और यह उपहार बेशर्त है : बदले में कुछ आकांक्षा नहीं है बदले में कुछ मांग नहीं है।
जब प्रेम एक जाग्रत चेतना से बहता है तो बेशर्त उपहार होता है। और जो व्यक्ति प्रेम बांट रहा होता है वह आनंदित होता है क्योंकि वह दे रहा है। देना मात्र ही उसका आनंद है, उसका उल्लास है।
तो याद रखो, जितना तुम महसूस करो कि ध्यान से तुम अधिक संवेदनशील हो गए हो, उसी अनुपात में तुम उतने ही कम आसक्त और अधिक विरक्त हो जाओगे। क्योंकि तुम स्वयं में अधिक थिर हो जाओगे स्वयं में अधिक केंद्रित हो जाओगे तुम किसी दूसरे का अपने केंद्र की तरह उपयोग नहीं करोगे।
आसक्ति का अर्थ क्या है? आसक्ति का अर्थ है कि तुम किसी दूसरे का अपने प्राणों के केंद्र की तरह प्रयोग कर रहे हो। मजनू लैला से आसक्त है; वह कहता है कि वह लैला के बिना जी नहीं सकता। इसका अर्थ है कि प्राणों का केंद्र कहीं और हो गया है। जब तुम कहते हो कि तुम इसके बिना या उसके बिना जी नहीं पाओगे तो तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है। तब तुम स्वतंत्र इकाई की तरह नहीं जी रहें तुम्हारा केंद्र कहीं और खिसक गया है।
तुम्हारे केंद्र का किसी दूसरे में चले जाना ही आसक्ति है। यदि तुम संवेदनशील हो तो तुम दूसरे को महसूस करोगे, लेकिन वह तुम्हारे जीवन का केंद्र नहीं बन जाएगा। तुम अपने केंद्र पर रहोगे और इस केंद्रस्थता के कारण दूसरे को तुमसे कई आशीष मिलेंगे। लेकिन वे आशीष ही होंगे कोई सौदा नहीं। तुम बस इसलिए दोगे कि तुम्हारे पास बहुत अधिक है, तुम अतिरेक में बह रहे हो। और तुम धन्यभागी होओगे कि दूसरे ने स्वीकार कर लिया। इतना ही पर्याप्त होगा और यही अंत होगा।

इसीलिए मैं कहे चला जाता हूं कि मन बड़ा धोखेबाज है। तुम सोचते हो कि तुम ध्यान कर रहे हो, और उसके कारण तुम संवेदनशील हो गए हो। फिर प्रश्न उठता है कि तुम आसक्त क्यों हो जाते हो? यदि तुम आसक्त हो जाते हो तो यह इस बात का स्पष्ट सूचक है कि यह संवेदनशीलता सजगता के कारण नहीं है। वास्तव में यह संवेदनशीलता ही नहीं है। हो, भावुकता हो सकती है; जो कि बिलकुल अलग बात है। तुम भावुक हो सकते हो; छोटी-छोटी बातों पर रो-चीख सकते हो, उद्वेलित हो सकते हो, और बड़ी आसानी से तुम्हारे भीतर एक तूफान खड़ा किया जा सकता है। लेकिन वह भावुकता है, संवेदनशीलता नहीं।
मैं एक कहानी तुम्हें कहूं। बुद्ध एक गांव में ठहरे हुए थे। एक स्त्री उनके पास रोती और चीखती-चिल्लाती आई। उसका बच्चा, इकलौता बच्चा अचानक मर गया था। बुद्ध गांव में थे, तो लोगों ने कहा, 'रो मत। इस आदमी के पास जा। लोग कहते हैं वे महा-करुणावान हैं। यदि वे चाहें, बच्चा पुनरुज्जीवित हो सकता है। तो रो मत। इस बुद्ध के पास जा।’
वह स्त्री अपने मरे हुए बच्चे को लेकर रोती-चिल्लाती आई और पूरा गांव उसके पीछे आया। पूरा गांव चिंतित था। बुद्ध के शिष्य भी चिंतित थे; उन्होंने मन ही मन प्रार्थना करनी शुरू कर दी कि बुद्ध करुणा कर दें। इस बच्चे को आशीर्वाद दे दें कि वह जी उठे पुनरुज्जीवित हो जाए।
बुद्ध के कई शिष्यों ने रोना शुरू कर दिया। वह दृश्य बड़ा करुण था, हृदय-विदारक था। सब लोग मौन थे। बुद्ध भी मौन रहे। उन्होंने मरे हुए बच्चे को देखा, फिर रोती-बिलखती मां की ओर देखा और बोले, 'रो मत, बस एक काम कर और तेरा बच्चा फिर से जी उठेगा। इस मृत बालक को इधर ही छोड़ दे वापस नगर में जा, हर घर में जा और हर परिवार से पूछ कि कभी उनके घर में, उनके परिवार में कोई मरा है या नहीं। और यदि तू वह घर ढूंढ सके जिसमें कभी कोई भी न मरा हो उनसे तू कुछ खाने को मांग-कुछ रोटी, कुछ चावल या कुछ भी-लेकिन उसी घर से जिसमें कभी कोई न मरा हो। और उस रोटी या चावल से बच्चा तत्क्षण जी उठेगा। तू जा। समय व्यर्थ मत गंवा।’
वह स्त्री तो प्रसन्न हो गई। उसे लगा कि अब चमत्कार घटने ही वाला है। उसने बुद्ध के पांव छुए और गांव की ओर दौड़ी, जो कि बहुत बड़ा नहीं था, कुछ ही झोपड़ियां थीं, थोड़े से परिवार थे। वह एक घर से दूसरे घर पूछती फिरी। लेकिन हर घर ने यही कहा, 'यह असंभव है। ऐसा एक भी घर नहीं है-इस गांव में ही नहीं बल्कि सारी पृथ्वी पर-ऐसा एक भी घर नहीं है जहां कोई भी न मरा हो, जहां लोगों ने मृत्यु को और उससे पैदा होने वाले दुख, पीड़ा और विषाद को न झेला हो।’
धीरे-धीरे स्त्री ने महसूस किया कि बुद्ध एक चाल चल रहे थे। यह असंभव था। लेकिन फिर भी आशा थी। वह तब तक पूछती रही जब तक पूरे गांव में न घूम ली। उसके आंसू सूख गए उसकी आशा मर गई, लेकिन अचानक उसने महसूस किया कि एक नई शांति, एक नई सौम्यता उस पर उतर रही है। अब उसने महसूस किया कि जो भी पैदा हुआ है वह मरेगा ही। केवल कुछ वर्षों का सवाल है। कोई जल्दी मरेगा, कोई देर से मरेगा, लेकिन मृत्यु अपरिहार्य है।
वह वापस लौटी, दोबारा बुद्ध के पांव छुए और बोली, 'लोग जैसा कहते हैं, सच में ही लोगों के प्रति आपके मन में महाकरुणा है।’ कोई भी समझ नहीं सका कि क्या हुआ। बुद्ध ने उसको संन्यास में दीक्षित किया, वह भिक्षुणी, संन्यासिनी बन गई। वह दीक्षित हो गई।
आनंद ने बुद्ध से पूछा, 'आप उस बच्चे को जिला सकते थे। इतना प्यारा बच्चा था और उसकी मा इतनी संतप्त थी।’ लेकिन बुद्ध ने कहा, 'यदि बच्चा पुनरुज्जीवित भी हो उठता तो भी उसे मरना पड़ता ही। मृत्यु अपरिहार्य है।‘ आनंद ने कहा, लेकिन लगता नहीं है कि आप लोगों के प्रति और उनके दुख, संतापों के प्रति संवेदनशील हैं।’ बुद्ध ने उत्तर दिया, 'मैं संवेदनशील हूं तुम भावुक हो। बस इसलिए क्योंकि तुम रोने लग गए, क्या तुम सोचते हो कि तुम संवेदनशील हो? तुम बचकाने हो। तुम जीवन को नहीं समझते। तुम्हें वास्तविकता का पता नहीं है।’
ईसाइयत और बौद्ध धर्म में यही अंतर है। कहते हैं क्राइस्ट ने लोगों को जिलाने के कई चमत्कार किए। लजारस जब मरा तो जीसस ने उसे छुआ और वह दोबारा जी उठा। पूर्व में हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि बुद्ध किसी को छूकर जिला दें। साधारण लोगों को, साधारण मन को जीसस बुद्ध से अधिक प्रेमपूर्ण और अधिक करुणावान लगेंगे। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि बुद्ध अधिक संवेदनशील हैं अधिक करुणावान हैं। क्योंकि यदि लजारस जी भी उठा तो कोई अंतर न पड़ा। फिर भी उसे मरना पड़ा। अंतत: लजारस को मरना पड़ा। तो यह चमत्कार किसी काम का न था, किसी परम मूल्य का न था। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि बुद्ध ऐसा करेंगे।
जीसस को करना पड़ा क्योंकि वह कुछ नया कह रहे थे, इजरायल के लिए एक नया संदेश लाए थे। और संदेश इतना गहरा था कि लोग उसे समझ न पाते, इसलिए उसके आस-पास उन्हें चमत्कार खड़े करने पड़े। क्योंकि लोग चमत्कारों को समझ सकते हैं लेकिन गहन संदेश को रहस्यपूर्ण संदेश को नहीं समझ सकते। वे चमत्कारों को समझ सकते हैं, चमत्कारों के द्वारा वे संदेश के प्रति खुल सकते हैं और ग्रहणशील हो सकते हैं। जीसस उस धरती पर बौद्ध संदेश ले जा रहे थे जिसके पास बुद्धत्व की, बुद्ध पुरुषों की कोई परंपरा नहीं थी।
हम समझ सकते हैं कि बुद्ध अपने उन शिष्यों से अधिक संवेदनशील थे जो रो-धो रहे थे। वे लोग भावुक थे। तो अपनी भावुकता को संवेदनशीलता मत समझो। भावुकता तो सामान्य है, संवेदनशीलता असामान्य है। वह प्रयास से घटती है। वह एक उपलब्धि है। तुम्हें उसे अर्जित करना होता है। भावुकता को अर्जित नहीं करना पड़ता उसके साथ तुम पैदा होते हो। यह तो एक पाशविक परंपरागत गुण है जो तुम्हारे शरीर और मन की हर कोशिका में है। संवेदनशीलता एक संभावना है। अभी तुम्हारे पास संवेदनशीलता नहीं है। उसे तुम पैदा कर सकते हो उसके लिए कुछ कर सकते हो, फिर वह तुम्हें घटित होगी। और जब भी घटित होगी, तुम विरक्त हो जाओगे।
बुद्ध पूर्णतया विरक्त थे। मृत बच्चा सामने था, लेकिन वह बिलकुल उद्विग्न नहीं दिखाई पड़े। वह स्त्री, वह मां दुखी थी, और वह उसके साथ चाल चल रहे थे। यह आदमी क्रूर दिखाई पड़ता है, और यह चाल उस मा पर जरा ज्यादती है जिसका बच्चा मर गया है। उन्होंने उसे एक पहेली पकड़ा दी। और वे अच्छी तरह जानते थे कि वह खाली हाथ वापस लौटेगी। लेकिन मैं फिर कहता हूं कि उनमें सच्ची करुणा है, क्योंकि वह उस स्त्री के विकास में, परिपक्व होने में मदद कर रहे थे। जब तक तुम मृत्यु को न जान लो तब तक तुम परिपक्व नहीं हुए; और जब तक तुम मृत्यु को स्वीकार न कर लो, तुम्हारे प्राणों में कोई केंद्र नहीं है। जब तुम मृत्यु को एक यथार्थ की भांति स्वीकार कर लेते हो, तुम उसके पार चले जाते हो।
बुद्ध ने उस परिस्थिति का उपयोग किया। उन्हें मरे हुए बच्चे की परवाह कम थी, जीवित मां की परवाह अधिक थी; क्योंकि वह जानते थे कि मरा हुआ बच्चा तो दोबारा पैदा हो ही जाएगा, किसी चमत्कार की कोई जरूरत न थी। लेकिन यदि बच्चा जी उठता तो मा एक अवसर खो देती। हो सकता है जन्मों तक फिर किसी बुद्ध से उसका मिलन न होता।
तो पूर्व फ्रेंकेवल निम्न श्रेणी के साधु ही चमत्कार कर रहे हैं; श्रेष्ठ साधुओं ने तो कभी कोई चमत्कार नहीं किया, वे उच्च तल पर कार्य करते हैं। बुद्ध भी चमत्कार कर रहे हैं, लेकिन चमत्कार उच्च तल पर हो रहा हैं-मां रूपांतरित हो रही है।
लेकिन इसे समझ पाना कठिन है, क्योंकि हमारे मन स्कूल हैं और हम केवल भावुकता को ही समझते हैं, संवेदनशीलता को नहीं समझ सकते। संवेदनशीलता का अर्थ है एक सजगता, जो अपने चारों ओर जो भी हो रहा है उसे महसूस करे। और यह तुम तभी महसूस कर सकते हो जब तुम आसक्त न होओ। इसे याद रखो : यदि तुम आसक्त हो तो महसूस करने के लिए मौजूद न रहे, अपने से बाहर निकल गए।
तो यदि तुम किसी के विषय में सच्चाई जानना चाहते हो तो उसके मित्रों से मत पूछो। वे आसक्त हैं। और उसके शत्रुओं से भी मत पूछो। वे भी आसक्त हैं, विपरीत छोर से आसक्त हैं। किसी ऐसे व्यक्ति से पूछो जो तटस्थ हो, न मित्र हो न शत्रु हो। केवल वही सच कह सकता है।
मित्रों का विश्वास नहीं किया जा सकता, शत्रुओं का भी विश्वास नहीं किया जा सकता; लेकिन हम मित्रों या शत्रुओं का ही विश्वास करते हैं। दोनों ही गलत होंगे, क्योंकि दोनों के ही पास तटस्थ दृष्टि नहीं है, दोनों के ही पास अनासक्त दृष्टिकोण नहीं है। वे अलग खड़े होकर नहीं देख सकते, क्योंकि उस व्यक्ति में उनका स्वार्थ निहित है। मित्रों का अपना स्वार्थ है और शत्रुओं का अपना स्वार्थ है। वे अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखते हैं और उन दृष्टिकोणों से आसक्त होते हैं।
यदि तुम आसक्त हो तो जीवन को उसकी समग्रता में अनुभव नहीं कर सकते। जिस क्षण तुम आसक्त हुए, तुमने एक दृष्टिकोण अपना लिया। समग्रता खो गई; केवल अंश तुम्हारे हाथ में बचा। और अंश हमेशा झूठे होते हैं क्योंकि सत्य पूर्ण ही होता है।
ध्यान करो, अधिक संवेदनशील होओ, और इसे कसौटी की तरह लो कि तुम अधिकाधिक अनासक्त होते जा रहे हो। यदि तुम्हें लगे कि आसक्ति बढ़ रही है तो तुम ध्यान में कहीं भूल कर रहे हो। यही कसौटी है। और मेरे देखे, न तो आसक्ति को हटाया जा सकता है और न अनासक्ति को साधा जा सकता है। तुम केवल ध्यान साध सकते हो-और अनासक्ति एक परिणाम की तरह, एक उप-उत्पाद की तरह चली आएगी।
यदि ध्यान सच में ही तुम्हारे भीतर फलित होता है तो तुममें अनासक्ति का भाव जग जाएगा। फिर तुम कहीं भी जा सकते हो, तुम अछूते, अभय ही रहोगे। फिर जब तुम अपना शरीर छोड़ोगे तो उसे निर्विकार छोड़ोगे। तुम्हारी चेतना बिलकुल परिशुद्ध होगी, उसमें कुछ भी विजातीय नहीं होगा। जब तुम आसक्त होते हो तो अशुद्धियां तुममें प्रवेश कर जाती हैं।
यह मौलिक अशुद्धि है कि तुम अपना केंद्र खो रहे हो और कोई दूसरा तुम्हारे प्राणों का केंद्र हो रहा है।

दूसरा प्रश्न :

यदि श्रद्धा पर्वतों को भी हिला सकती है तो आप अपने ही शरीर को ठीक क्यों नहीं कर
सकते?


मेरा कोई शरीर नहीं है।
यह भाव बिलकुल गलत है कि तुम्हारा कोई शरीर है। शरीर तो अस्तित्व का है; तुम्हारा नहीं है। तो यदि शरीर अस्वस्थ है अथवा शरीर स्वस्थ है तो अस्तित्व उसकी चिंता लेगा। और जो व्यक्ति ध्यान में है उसे साक्षी बने रहना चाहिए, चाहे शरीर स्वस्थ हो चाहे अस्वस्थ हो।
स्वस्थ होने की कामना भी अज्ञान का हिस्सा है। अस्वस्थ न होने की कामना भी अज्ञान का हिस्सा है। और यह कोई नया प्रश्न नहीं है, यह प्राचीनतम प्रश्नों में से एक है। यही बुद्ध से पूछा गया था; यही महावीर से पूछा गया था। अब तक जितने भी बुद्ध पुरुष हुए हैं, अज्ञानियों ने सदा उनसे यही प्रश्न पूछा है।
देखो, जीसस ने कहा कि श्रद्धा पर्वतों को भी हिला सकती है, लेकिन वह क्रास पर मरे। वह क्रास को नहीं हिला पाए। तुम या तुम्हारे जैसा कोई और वहां खड़ा प्रतीक्षा कर रहा होगा। शिष्य प्रतीक्षा कर रहे थे क्योंकि वे जीसस को जानते थे और वह बार-बार दोहराते रहे थे कि श्रद्धा पर्वतों को भी हिला सकती है। तो वे किसी चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे, और जीसस चुपचाप क्रास पर मर गए। लेकिन यही चमत्कार था : वह अपनी ही मृत्यु के साक्षी हो सके। और अपनी ही मृत्यु का साक्षी होना जीवंतता का महानतम क्षण है।
बुद्ध विषाक्त भोजन से मरे। छ: महीने लगातार उन्होंने पीड़ा झेली। और कई शिष्य थे जो प्रतीक्षा कर रहे थे कि वे कोई चमत्कार करेंगे। लेकिन चुपचाप उन्होंने पीड़ा झेली और चुपचाप मर गए। उन्होंने मृत्यु को स्वीकार कर लिया। ऐसे शिष्य थे जो उनको ठीक करने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें कई दवाएं दी जा रही थीं।
उन दिनों का एक बड़ा चिकित्सक, जीवक, बुद्ध का निजी चिकित्सक था। जहां भी वह जाते वह उनके साथ ही जाता था। कई बार लोगों ने पूछा होगा, 'यह जीवक आपके साथ क्यों चलता है?' लेकिन यह जीवक की अपनी आसक्ति थी। जीवक अपनी आसक्ति के कारण बुद्ध के साथ चल रहा था। और जो शिष्य प्रयास कर रहे थे कि बुद्ध का शरीर संसार में कुछ और समय तक रह जाए, चाहे कुछ ही दिन और, वे भी आसक्त थे। स्वयं बुद्ध के लिए तो रोग और स्वास्थ्य समान थे।
इसका यह अर्थ नहीं है कि रोग पीड़ा नहीं देगा। वह तो देगा ही! पीड़ा तो शारीरिक घटना है, होगी ही। लेकिन वह आंतरिक चैतन्य को विचलित नहीं करेगी। आंतरिक चैतन्य अविचलित रहेगा, सदा की तरह संतुलित रहेगा। शरीर पीड़ित होगा, लेकिन अंतरात्मा सारी पीड़ा की साक्षी मात्र रहेगी, कोई तादात्म्य नहीं होगा।
और इसकी मैं चमत्कार कहता हूं। यह श्रद्धा से ही संभव है। और तादात्म्य से बड़ा कोई पर्वत नहीं है, याद रखो। हिमालय कुछ भी नहीं है; अपने शरीर के साथ तुम्हारा तादात्म्य उससे भी बड़ा पर्वत है। श्रद्धा से हिमालय तो चाहे हिले न हिले, यह बात असंगत है, लेकिन तुम्हारा तादात्म्य उससे नष्ट किया जा सकता है।
लेकिन जो हम नहीं जानते उसको समझ ही नहीं सकते, हम केवल अपने मन के अनुसार सोच सकते हैं। हम वहीं की सोचते हैं जहां हम हैं, हमारा ढर्रा वही रहता है।
कई बार मेरा शरीर रुग्ण होता है और लोग मेरे पास आकर कहते हैं, 'आप बीमार क्यों होते हैं? आपको तो बीमार नहीं होना चाहिए; एक बुद्ध पुरुष को बीमार नहीं होना चाहिए।’
लेकिन तुम्हें किसने कहा कि ऐसा होता है? मैंने तो कभी किसी बुद्ध पुरुष के बारे में नहीं सुना जो बीमार न रहा हो। बीमारी शरीर की होती है। उसका तुम्हारी चेतना से या तुम्हारे संबुद्ध होने या न होने से कोई लेना-देना नहीं है। और कई बार ऐसा होता है कि बुद्ध पुरुष अबुद्धों से अधिक रोगग्रस्त होते हैं। कई कारण हैं... अब क्योंकि वे शरीर से हट जाते हैं, इसलिए शरीर के साथ सहयोग नहीं रह जाता; गहरे में वे स्वयं को शरीर से पृथक कर लेते हैं। तो शरीर तो रहता है लेकिन आसक्ति और सेतु टूट जाता है।
उस दूरी के कारण कई बीमारियां होती हैं। अब वे शरीर में तो हैं लेकिन उसके साथ उनका सहयोग नहीं रहा। इसीलिए हम कहते हैं कि बुद्ध पुरुष कभी दोबारा पैदा नहीं होता, क्योंकि अब वह किसी शरीर के साथ सेतु नहीं बना सकता। सेतु टूट गया है। जब वह शरीर में होता है तब भी, वास्तव में मर ही गया होता है।
बुद्ध जब करीब चालीस वर्ष के थे तो उन्हें बुद्धत्व की घटना घटी। जब वह अस्सी वर्ष के थे तब उनकी मृत्यु हुई, तो वह चालीस वर्ष और जीए। जिस दिन वह शरीर छोड़ रहे थे आनंद रोने लगा और बोला, 'हमारा क्या होगा? आपके बिना हम अंधकार में गिर जाएंगे। आप जा रहे हैं और हम अभी संबुद्ध भी नहीं हुए। हमारी अपनी ज्योति अभी जली नहीं और आप जा रहे हैं। हमें छोड्‌कर न जाएं!'
कहते हैं कि बुद्ध ने कहा, 'क्या? क्या कह रहे हो आनंद? मैं तो चालीस वर्ष पहले ही मर गया था। यह अस्तित्व तो केवल आभास-अस्तित्व था, छाया मात्र था। किसी तरह चल रहा था, लेकिन उसमें बल नहीं था। यह तो अतीत का ही आवेग था।’
यदि तुम एक साइकिल को पैडल मार रहे हो फिर रुक जाओ और पैडल न मारो, तुम साइकिल को कोई सहयोग नहीं दे रहे फिर भी आवेग के कारण, अतीत में तुमने जो ऊर्जा दी है उसके कारण वह कुछ समय तक चलती रहेगी।
जिस क्षण कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, उसका सहयोग समाप्त हो जाता है। अब शरीर अपने ढंग से चलेगा। उसके पास अपना आवेग है। कई जन्मों से उसे आवेग दिया गया है। उसका अपना जीवन-काल है जो पूरा होगा। लेकिन अब, क्योंकि शरीर के साथ कोई तरिक बल नहीं है तो वह साधारण लोगों से अधिक बीमार हो सकता है।
रामकृष्ण कैंसर से मरे। रमण कैंसर से मरे। शिष्यों को तो बड़ा धक्का लगा, लेकिन अपने अज्ञान के कारण वे समझ नहीं पाए।
एक बात और समझने जैसी है। जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है तो
यह उसका अंतिम जन्म होता है। तो सारे अतीत के कर्म और पूरा लेन-देन इसी जन्म में पूरा होना है। पीड़ा-यदि उसे कोई पीड़ा होनी है तो-बहुत सघन हो जाएगी। तुम्हारे लिए कोई जल्दी नहीं है, तुम्हारी पीड़ा तो कई जन्मों पर फैल जाएगी। लेकिन रमण के लिए तो वह अंतिम जन्म है। जो भी अतीत से आया है उसे पूरा होना है। हर चीज में हर कर्म में एक सघनता होगी। यह जीवन एक प्रगाढ़ जीवन हो जाएगा।
कई बार ऐसा होता है-इसे समझना थोड़ा कठिन है-एक क्षण में कई जन्मों की पीड़ा झेल लेनी पड़ती है। एक क्षण में सघनता बहुत अधिक हो जाती है, क्योंकि समय को सिकोड़ा अथवा फैलाया जा सकता है।
तुम जानते हो कि कई बार तुम्हें झपकी लग जाती है और तुम कोई सपना देखते हो, और जब तुम जागते हो तो पता चलता है कि तुम कुछ ही सेकेंड सोए हो। लेकिन तुमने इतना लंबा सपना देखा! यह संभव है कि एक छोटे से सपने में पूरा जीवन देखा हो। क्या हुआ? इतने थोड़े से समय में तुम इतना लंबा सपना कैसे देख पाए?
समय का केवल एक ही तल नहीं है जैसा कि हम साधारणत: समझते हैं समय के कई तल हैं। स्वप्न-समय का अपना अस्तित्व है। जागते समय भी समय बदलता रहता है। घड़ी के हिसाब से चाहे न बदले, क्योंकि घड़ी तो यंत्र है, लेकिन मनोवैज्ञानिक हिसाब से समय बदलता रहता है। जब तुम सुखी होते हो समय तेजी से बहता है। जब तुम उदास होते हो, समय धीमा हो जाता है। यदि तुम पीड़ा में हो तो रात लगता है कभी खतम नहीं होगी; और यदि तुम सुखी और आनंदित हो तो पूरी रात एक क्षण में बीत सकती है।
जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है सब लेन-देन पूरा करना होता है : दुकान बंद करने का समय आ गया। लाखों जन्मों की यात्रा है और सारे हिसाब-किताब साफ करने हैं, क्योंकि और कोई अवसर नहीं मिलेगा। बुद्धत्व के बाद बुद्ध पुरुष एक दूसरे ही समय में जीता है और उसे जो भी होता है वह गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। लेकिन वह साक्षी बना रहता है।
महावीर पेट के दर्द से मरे, अल्सर जैसा कुछ था, कई वर्षों तक वह पीड़ित रहे। उनके शिष्य जरूर कठिनाई में पड़े होंगे क्योंकि उन्होंने इसके आस-पास एक कहानी गढ़ ली। वे समझ ही नहीं पाए कि महावीर क्यों पीड़ा झेलें तो उन्होंने एक कहानी गढ़ ली जिससे शिष्यों के बारे में कुछ पता चलता है, महावीर के बारे में नहीं।
वे कहते हैं कि एक व्यक्ति जो बड़ी दुष्ट-आत्मा था, गोशालक महावीर की पीड़ा का कारण था। उसने अपनी दुष्ट शक्ति महावीर पर फेंकी, और अपनी करुणा के कारण महावीर उसे पचा गए, और इसी कारण वह पीड़ित हुए। इससे महावीर के बारे में कुछ पता नहीं चलता लेकिन शिष्यों की कठिनाई के बारे में पता चलता है। वे महावीर को पीड़ित देखने की कल्पना भी नहीं कर सकते तो कारण उन्हें कहीं और खोजना पड़ा।
एक दिन मुझे जुकाम था--यह मेरा सदा का साथी है-तो कोई आया और बोला, 'आपने जरूर किसी और का जुकाम ले लिया होगा।’ इससे मेरे बारे में कुछ पता नहीं चलता, उसके बारे में पता चलता है। उसके लिए यह समझ पाना कठिन है कि मैं पीड़ित हूं। तो उसने कहा, 'आपने जरूर किसी और का जुकाम ले लिया होगा।’ मैंने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन शिष्यों को समझाना असंभव है। जितना ही तुम उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश करो, उतना ही उन्हें विश्वास हो जाता है कि वे सही हैं। अंत में उसने मुझसे कहा, 'आप कुछ भी कहें, मैं नहीं सुनने वाला। मैं तो जानता हूं! आपने किसी और की बीमारी ले ली है।’
अब क्या किया जाए? शरीर का बीमार होना या स्वस्थ होना, उसके अपने मामले हैं। यदि तुम अभी भी उनके बाबत कुछ करना चाहते हो तो तुम अभी भी शरीर से आसक्त हो। वह अपने अनुसार चलेगा; तुम्हें उसके बारे में ज्यादा चिंता लेने की जरूरत नहीं है।
मैं केवल एक साक्षी हूं। शरीर पैदा हुआ है, शरीर मरेगा, केवल साक्षीत्व ही रह जाएगा। वह सह रहेगा। केवल साक्षीत्व ही पूर्णतया शाश्वत है, बाकी सब बदलता रहता है, बाकी सब एक बहाव है।

तीसरा प्रश्न :

काल रात आपने विस्तार से समझाया इक किस प्रकार साधक ध्यान के प्रति तीव्र तथा
निष्ठापूर्ण प्रयास न करके स्वयं को धोखा देते हैं। लेकिन कर्ड़ साधक जो निष्ठापूर्वक आपसे ध्यान की विधियों के विषय में पूछते है, आप उन्हें सब कुछ आप पर छोड़ देने को कहते है कि आप ही उनके आध्यात्मिक विकास की फिक्र करेंगे। लेकिन कई साधक इस तरह अपने आध्यात्मिक रूपांतरण के प्रति असंतोष का अनुभव करते हैं। इसमें, कृष्णा समझाएं इक ये साधक किस प्रकार स्वयं को धोखा दे रहे हैं।

पहली बात, जब वे कोई विधि की मांग करते हैं तो मैं उन्हें विधि देता हूं। यह एक विधि है : सब कुछ मुझ पर छोड़ दो। यह तो सबसे शक्तिशाली विधियों में से एक है। और ऐसा मत समझो कि यह सरल है; यह बहुत कठिन है, कई बार तो असंभव होता है। किसी पर सब छोड़ देना बहुत कठिन होता है।
लेकिन यदि तुम छोड़ सकी तो उस समर्पण में ही तुम्हारा अहंकार समाप्त हो जाएगा; उस समर्पण में ही तुम्हारा अतीत समाप्त हो जाएगा; उस समर्पण में ही एक नया सूत्र जन्म लेता है, तुम दूसरे ही हो जाते हो। अब तक तुम अपने अहंकार के साथ जी रहे थे; अब से तुम अहंकार के बिना जीओगे समर्पण के पथ पर चलोगे।
तो ऐसा मत सोचो कि यह कोई विधि नहीं है। यह एक विधि है, अति मौलिक विधियों में से एक है। और यह मैं हर किसी को नहीं दे देता। यह मैं उन्हीं को देता हूं जो बड़े अहंकारी होते हैं क्योंकि उनके लिए कोई भी विधि कठिनाई खड़ी करेगी। उनका अहंकार उसका शोषण कर लेगा। वे उससे और अहंकारी हो जाएंगे। वे इस विधि को छोड्‌कर और कुछ भी साध सकते हैं। लेकिन उस साधने से उनका अहंकार नष्ट नहीं होगा, बल्कि और भी तृप्त हो जाएगा। वे महान 'ध्यानी' बन जाएंगे। वे संसार को त्याग सकते हैं, लेकिन वे कुछ भी करें, उनका अहंकार मजबूत होगा।.
तो जब भी मुझे लगता है कि किसी साधक का अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और कोई भी विधि उसके लिए विषाक्त होगी, तभी मैं कहता हूं 'सब कुछ मुझ पर छोड़ दो।’ ऐसा नहीं है कि यह अंत होगा, बल्कि यह तो शुरुआत होगी। और यह उन सब के लिए सही शुरूआत होगी जो अहंकार-केंद्रित हैं। यदि वे सब कुछ मुझ पर छोड़ सकें तो मैं उन्हें दूसरी विधियां देना शुरू करूंगा-लेकिन सभी। फिर दूसरी विधिया विषाक्त सिद्ध नहीं होंगी। एक बार अहंकार ने रहे तो वे विधियां उन्हें रूपांतरित कर देती है। ओर यदि उनका समर्पण इतना समग्र हो कि रूपांतरित होने के लिए कुछ बचे ही न तो दूसरी किन्हीं विधियों की जरूरत ही नहीं होगी। यह भी संभव है। और यह उन्हीं के लिए संभव है जो बड़े अहंकारी हैं; केवल वही पूर्णतया समर्पण कर सकते हैं।
यह बड़ा अटपटा, विरोधाभासी लगेगा। लेकिन याद रखो, तुम वही छोड़ सकते हो जो तुम्हारे पास हो। यदि तुम्हारे पास मजबूत अहंकार हो ही नहीं, तो तुम क्या छोड़ोगे? तुम क्या समर्पण करोगे? यह तो एक भिखारी से उसकी सारी संपदा छोड़ने के लिए कहने जैसा है। वह राजी हो जाएगा, वह कहेगा, 'ठीक है।’ लेकिन इस 'ठीक है' का कोई अर्थ नहीं है। यह एकदम व्यर्थ है, क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। और यदि तुम्हारे पास एक मजबूत अहंकार हो, अर्थात एक केंद्रित, सुगठित अहंकार हो तो तुम उसे पूर्णतया छोड़ सकते हो, क्योंकि उसको टुकड़ों में छोड़ना कठिन होगा। वह इतना ठोस और सुगठित होगा कि उसे हिस्सों में छोड़ना कठिन होगा। या तो तुम उसे पूरा ही छोड़ सकते हो या बिलकुल नहीं छोड़ सकते। यह जीवन के अनेक विरोधाभासों में से एक है कि समर्पण के लिए पहले बड़े मौलिक अहंकार का होना जरूरी है।
तो मेरे देखे, एक उचित शिक्षा अहंकारों को मजबूत बनाएगी, एकदम दूसरी अति पर ले जाएगी, जहां उनसे बड़ी पीड़ा पैदा हो जाए; और फिर समर्पण। तभी समर्पण संभव है।
यह मेरा अनुभव रहा है, पश्चिम से आने वाले लोगों का अहंकार पूर्व के लोगों की अपेक्षा बहुत मजबूत होता है, क्योंकि पश्चिम में समर्पण की, निष्ठा की, गुरु और शिष्य की कोई धारणा नहीं है। असल में, पाश्चात्य मन समझ ही नहीं सकता कि गुरु क्या है। और वे इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते कि कोई किसी को समर्पण कर सकता है।
पूरी पाश्चात्य शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता अहंकार पर, अहंकार-तृप्ति पर आधारित है। और पश्चिमी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मानसिक रूप से स्वस्थ होने के लिए तुम्हारे पास एक मजबूत अहंकार होना चाहिए। तो सारा पश्चिमी मनोविज्ञान अहंकार को मजबूत करने में सहयोग देता है : बच्चे का अहंकार हर तरह से पुष्ट होना चाहिए वरना वह मानसिक रूप से रुग्ण हो जाएगा।
लेकिन पूर्वीय धर्म कहते हैं कि जब तक तुम अहंकार को छोड़ न दो, तुम परम सत्य को नहीं जान सकते, तुम नहीं जान सकते कि जीवन का रहस्य क्या है। दोनों विपरीत दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं।
मेरे देखे, जो पाश्चात्य प्रशिक्षण है, शुरुआत में वह संसार भर में हर व्यक्ति को मिलना चाहिए। हर व्यक्ति को एक मजबूत अहंकार दिया जाना चाहिए। पैंतीस वर्ष की आयु तक तुम्हें अपने अहंकार के शिखर तक पहुंच जाना चाहिए; पैंतीस वर्ष की आयु में वह अपने शिखर पर होना चाहिए जितना मजबूत हो सके उतना मजबूत होना चाहिए। केवल तभी समर्पण संभव है।
तो जब भी पश्चिमी साधक मेरे पास आते हैं और मैं उन्हें कहता हूं कि वे सब मुझ पर छोड़ दें तो वे बड़े हिचकते हैं, झिझकते हैं। और यह असंभव जैसा लगता है। लेकिन कभी-कभी जब समर्पण घटता है तो वे बहुत गहरी अनुभूति को उपलब्ध होते हैं।
पूर्वीय लोगों के साथ समर्पण बहुत कठिन नहीं है। वे तैयार रहते है। तुम कहो, 'समर्पण करो, 'वे कहेंगे, 'हा।’ उनकी ओर से जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। उनके कोई बहुत मजबूत, बहुत विकसित अहंकार नहीं होते। वे समर्पण कर सकते हैं, लेकिन वह समर्पण नपुंसक है। वह काम नहीं देगा।
तो लगभग हमेशा ऐसा होता है कि पूर्वीय व्यक्ति को मैं तत्क्षण कोई विधि पकड़ा देता
हूं कि इस पर काम करो, ताकि उसके अहंकार को सहयोग मिले। और पाश्चात्य व्यक्ति को मैं हमेशा कहता हूं 'समर्पण करो।’ वे अपने भीतर उस बिंदु तक पहुंच ही चुके हैं इसलिए वे समर्पण कर सकते हैं, उनकी हिचकिचाहट ही बताती है कि वे समर्पण कर सकते हैं। लेकिन उनका समर्पण एक संघर्ष होने वाला है और जब यह संघर्ष होता है तो साधना बन जाता है। जब संघर्ष होता है तो उसका कुछ अर्थ होता है; वह उन्हें रूपातरित कर देगा।
तो पहली बात कि जब मैं कहता हूं 'सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, ' तो यह एक विधि है; और यह मैं उन्हीं लोगों को कहता हूं जिनके पास बड़े विकसित अहंकार होते हैं।
दूसरी बात : 'लेकिन कई साधक इस तरह से अपने आध्यात्मिक रूपांतरण के प्रति असंतोष का अनुभव करते हैं।’
ठीक है, यही तो लोग हैं जिन्हें मैं कहता हूं 'समर्पण करो।’ वे बहुत असंतुष्ट अनुभव करते हैं। वे कुछ करना चाहते हैं, समर्पण करना नहीं चाहते। मैं जानता हूं कि वे असंतुष्ट होंगे, क्योंकि उनका अहंकार प्रतिरोध करेगा; वह हर तरह से समर्पण न करने का प्रयास करेगा; लेकिन ऐसा होगा ही। उन्हें इस असंतोष से गुजरना पड़ेगा और उन्हें समझना पड़ेगा कि सब कुछ मुझ पर छोड़ देना तो बस एक शुरुआत है। यदि वे यह भी नहीं कर सकते तो अभी मैं उन्हें कोई विधि नहीं दूंगा। वे या तो मुझे छोड़ सकते हैं या सब कुछ मुझ पर छोड़ सकते हैं। कोई और विकल्प नहीं है। एक बार मैंने किसी से कह दिया कि 'सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, 'तो मैं उसे दूसरी कोई विधि नहीं दूंगा।
मैं जानता हूं कि यह कठिन और दुष्कर होगा, लेकिन इससे गुजरना ही है। जितना कठिन हो, जितना दुष्कर हो, उतना ही बेहतर है, क्योंकि इसका अर्थ है कि उसका अहंकार बहुत मजबूत है और वह संघर्ष कर रहा है। उसे एक न एक दिन आना पड़ेगा-मेरे पास या किसी और के पास, इसका सवाल नहीं है-और उसे समर्पण करना पड़ेगा।
गुरु का सवाल नहीं है; समर्पण का सवाल है। तुम कहां समर्पण करते हो इसका कोई महत्व नहीं है। तुम एक पत्थर के बुद्ध को समर्पण कर सकते हो। वह भी काम देगा। समर्पण तुम्हें रूपांतरित कर देता है। उसका अर्थ है अपने अहंकार को एक ओर रख देना, स्वयं को निर्भार कर लेना; पहली बार जीना; अतीत से नहीं बल्कि वर्तमान में जीना-ताजे, युवा और निर्भार होकर।
और तीसरी बात : 'इसमें कृपया समझाएं कि ये साधक किस प्रकार स्वयं को धोखा दे रहे हैं।’
वे स्वयं को धोखा दे सकते हैं। वे मुझसे कह सकते हैं, 'हा, हम सब आप पर छोड़ते हैं, 'और सब बचाए रख सकते हैं। वे स्वयं को धोखा दे सकते हैं कि उन्होंने सब समर्पित  कर दिया और अपने तरीके से चलते रह सकते हैं। समर्पण कभी आशिक नहीं हो सकता केवल समग्र ही हो सकता है; ओर फिर तुम अपनी धारणाएं ,अपनी पसंद ओर नापसंद नहीं बचा सकते।
ऐसा कुछ ही दिन पहले हुआ। एक आदमी मेरे पास आया और बोला, 'मैं सब आप पर छोड़ दूंगा। आप जो भी कहेंगे, मैं करूंगा।’ मैंने उसे कहा, 'जरा धीरे-धीरे दोहरा।’ 'आप जो भी कहेंगे, मैं करूंगा, ' उसने दोहरा दिया। मैंने उसे और भी धीरे-धीरे दोहराने को कहा। वह थोड़ा परेशान हो गया और बोला, 'क्यों?' और तब उसे खयाल आया कि मैं धीरे-धीरे दोहराने को क्यों कह रहा था। वह बोला, 'शायद आप सही हैं। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि सब आप पर छोड़ देना कठिन है और आप जो कहें उस सबको मानना भी कठिन है।’ तो मैंने उसे कहा कि इसे सशर्त बना लो, इसे निश्चित कर लो ताकि तुम बदल न सको। उसने कहा, 'ठीक, जो भी मैं चाहूं मुझे चुनने की स्वतंत्रता दें।’
इसी तरह तुम धोखा दे सकते हो। भीतर तुम मालिक बने रहते हो; तुम चुनते रहते हो कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। और जैसा अक्सर होता है, तुम जो भी चुनोगे गलत ही होगा। क्योंकि जो मन चुन रहा है वह गलत है, नहीं तो मेरे पास आने की कोई जरूरत ही न होती। जब मैं कहता हूं समर्पण करो तो इसका अर्थ है अब तुम नहीं चुनोगे, अब मैं चुनूंगा और तुम अनुसरण करोगे। और यदि तुम पूरी तरह अनुसरण कर सकी तो वह दिन दूर नहीं है जब मैं कहूंगा, 'अब कोई जरूरत नहीं है। अब तुम चुन सकते हो।’
तुम्हें मिटना है : सतह को, झूठे अहंकार को मिटना है। फिर तुम्हारी अपनी सत्ता अस्तित्व में आती है। मैं हमेशा तुम्हें अपने पीछे नहीं चलाऊंगा। यह कोई बड़ा सुखदायी काम नहीं है। जब तुम्हारा अहंकार नहीं रहता तो तुम्हारा अपना गुरु, आंतरिक गुरु अस्तित्व में आता है। बाह्य गुरु और कुछ नहीं अंतरिक गुरु का प्रतिनिधि ही है। एक बार तरिक गुरु आ जाए तो बाह्य की आवश्यकता नहीं रहती। और तुम्हारा गुरु स्वयं ही तुम्हें कहेगा, 'अब अपना अनुसरण करो। अकेले चलो। अब तुम्हें किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है आंतरिक मार्गदर्शन शुरू हो गया है। अब तुम्हारे पास अपना अंतर्प्रकाश है। तुम उसके द्वारा देख सकते हो। अब वह तुम्हारा पथ-प्रदर्शक होगा।’
लेकिन अभी, जैसे तुम हो, यह संभव नहीं है। तुम्हारे पास कोई प्रकाश नहीं है। तुम देख नहीं सकते। और तुम्हारा मन जहां भी ले जाएगा वह गलत ही होगा। जन्मों-जन्मों से यह मन तुम्हें चलाता रहा है और हमेशा तुम्हें बंधे-बंधाए ढर्रों में ले जाता रहा है। इसकी पुरानी आदतें हैं और उन्हीं के अनुसार यह तुम्हें चलाता रहा है। मन एक यंत्र है। इस यंत्रवत्ता में अंतराल पैदा करने के लिए समर्पण चाहिए। यदि तुम कुछ दिन के लिए भी किसी को समर्पण कर सको तो तुम्हारे वर्तमान और अतीत के बीच एक अंतराल आ जाएगा। एक नई शक्ति तुममें प्रवेश कर जाएगी। अब तुम अतीत से सातत्य नहीं रख सकते; जैसे तुम हमेशा से रहते आए हो, अब वैसे नहीं रह सकते। एक परिवर्तन होगा। इसी अंतराल का अर्थ है समर्पण।
लेकिन तुम धोखा दे सकते हो। तुम कह सकते हो, 'हा, मैं समर्पण करता हूं 'और हो सकता है तुम! समर्पण न किया हो। या हो सकता है तुम सोचते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है, पर अचेतन रूप से तुम संघर्ष कर रहे हो। केवल समर्पण में ही नहीं, बल्कि हर जगह जहां 'लेट गो' की, अपने को छोड़ने की जरूरत होती है, हम संघर्ष करते हैं।
पश्चिम में यौन के विषय पर बड़ी शोध चलती है क्योंकि लोग गहन काम-शिखर में कम सक्षम होते जा रहे हैं। वे यौन में तो उतरते हैं लेकिन उससे कोई आनंद नहीं मिलता। यह बड़ा उबाने वाला कृत्य हो गया है। वे बस परेशान होते हैं, कमजोर अनुभव करते हैं। और फिर यह एक नित्यकर्म रह जाता है। उन्हें पता ही नहीं होता कि करना क्या है। काम-शिखर में जो महत्वपूर्ण है, वह है गहन आनंद। और यदि वही न मिले तो सब व्यर्थ है और निरर्थक है और हानिकारक भी है।
मनोविज्ञान की कई शाखाएं इस प्रश्न पर खोज कर रही हैं : 'मनुष्य को क्या हो गया है? वह यौन में काम-शिखर को उपलब्ध क्यों नहीं होता? इतना असंतोष क्यों है?'
सभी शोधकर्ता यही इंगित करते हैं कि इसका कारण है मनुष्य समर्पण नहीं कर पाता, इसीलिए वह काम-शिखर को उपलब्ध नहीं हो पाता। प्रेम करते समय, गहन संभोग के क्षण में भी तुम्हारा मन नियंत्रण करता रहता है। तुम नियंत्रण करते रहते हो। तुम अपने को छोड़ते नहीं। तुम छोड़ने से डरते हो, क्योंकि यदि तुम यौन-ऊर्जा को अनियंत्रित होने दो तो तुम्हें पता नहीं कि वह तुम्हें कहा ले जाएगी। तुम पागल हो सकते हो, तुम मर भी सकते हो। यही भय है। तो तुम नियंत्रण करते रहते हो। तुम अपने शरीर को नियंत्रित करते रहते हो।
मन का यह नियंत्रण पूरे शरीर को ऊर्जा का एक बहाव नहीं बनने देता। फिर यौन एक स्थानीय प्रक्रिया बन जाता है पूरा शरीर उसमें संलग्न नहीं होता, पूरा शरीर एक अंतर्नृत्य में भाग नहीं लेता; और आनंद का क्षण चूक जाता है। तुम बस ऊर्जा खो देते हो और पाते कुछ भी नहीं, विक्षोभ ही होता है।
तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम तब तक काम-शिखर उपलब्ध नहीं कर पाओगे, जब तक गहन 'अनियंत्रण' में न होओ जब तक मन न मिट जाए और अहंकार न मिट जाए; जब तक शरीर अपनी ऊर्जा, अपने वेग द्वारा नियंत्रण न ले ले और अपने अचेतन स्रोतों द्वारा प्रवाहित न होने लगे; जब तक 'तुम' न मिट जाओ। वह आनंद तुम्हें उस परम आनंद की झलक दे सकता है जो परमात्मा के प्रति, अस्तित्व के प्रति तुम्हारे अहंकार के संपूर्ण समर्पण से घटित होता है।
समाधि-समस्त योग और तंत्र का जो परम लक्ष्य है-एक गहन संभोग है प्रकृति के साथ, अस्तित्व के साथ। गुरु तो बस तुम्हें उस स्थिति में ले आने का प्रयास कर रहा है जहां तुम कम से कम अपने अहंकार का समर्पण कर सको। फिर तुम्हारे और तुम्हारे गुरु के बीच एक गहन आनंद घटित होगा। जहां भी 'अनियंत्रण' होता है, आनंद घटता है-यह नियम है। तो यदि तुम किसी गुरु के प्रति समर्पण कर सकते हो तो किसी की मत सुनो। यदि सारा संसार भी कहे कि यह गुरु गलत है तो मत सुनो। यदि तुम समर्पण कर सकते हो तो यह गुरु सही है। उसके द्वारा तुम एक आनंदपूर्ण क्षण उपलब्ध कर पाओगे। और यदि सारा संसार भी कहे कि यह गुरु सही है और तुम उसको समर्पण न कर पाओ तो वह तुम्हारे लिए बेकार है। तो जहां भी तुम्हें समर्पण का भाव उठे, वहीं तुम्हारा गुरु है।
ऐसी जगह खोजो ऐसे व्यक्ति को खोजो जिसकी उपस्थिति में तुम समर्पण कर सको जिसकी उपस्थिति में तुम एक क्षण के लिए भी अपने मन को छोड़ सको। एक बार बाहर से यह बल तुममें प्रवेश कर जाए तो तुम्हारा मार्ग बदल जाएगा, तुम्हारा जीवन एक नयी दिशा ले लेगा।
तुम स्वयं को धोखा दे सकते हो : तुम सोचते रह सकते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है, लेकिन भीतर से तुम अच्छी तरह जानते हो कि तुमने समर्पण नहीं किया है। और याद रखो : तुम गुरु को धोखा नहीं दे सकते; वह जानता है। और जब तक वास्तव में ही समर्पण नहीं हो जाता वह आग्रह करता रहेगा। तुम तरकीब कर सकते हो, कोई चाल चल सकते हो, लेकिन गुरु को धोखा नहीं दे सकते। तुम अपना सिर उसके चरणों में रख सकते हो, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं होगा। हो सकता है यह बस एक झूठा भाव हो, तुम बिलकुल भी न झुक रहे होओ। लेकिन यदि झुकना सच में ही हो जाए तो गुरु काम कर सकता है।
तो जब भी मैं कहता हूं 'समर्पण करो या 'मुझ पर छोड़ दो और मैं देख लूंगा, 'तो मेरा यही तात्पर्य है। मैं जो भी कहता हूं मेरा बिलकुल वही तात्पर्य होता है। मैं तुम्हारे भीतर एक अंतराल पैदा करना चाहता हूं अतीत से एक अलगाव पैदा करना चाहता हूं। एक बार अंतराल आ जाए तो देर-अबेर तुम अपने पैरों पर चल पाओगे। लेकिन उससे पहले, यदि तुम अपने आप चले तो वही अतीत की कहानी दोहराते रहोगे। कुछ नया संभव नहीं होगा। नए के लिए, नए पथ पर चलाने के लिए कुछ बाहर से तुममें प्रवेश करना चाहिए।

अंतिम प्रश्न :

आपने कहा कि जीसस को पता नहीं था इक पृथ्वी गोल है। जो ईसाई यह मानते हैं कि जीसस परमात्मा थे, उनको यह बड़ा अजीब लगता है। क्या ऐसा संभव नहीं है कि जीसस जैसा बुद्ध पुरुष, जिसे गुहा विज्ञान का ज्ञान हो उसे ब्रह्मों और ब्रह्मांड और अकार्शीय तत्वों के अंतर्संबंध का खगोलीय और नक्षत्रीय ज्ञान भी हो? कृपया सम्झाएं।

नहीं, जीसस का उसमें कोई रस नहीं था। जब जीसस ने कहा कि पृथ्वी चपटी है तो वह उसी जानकारी का उपयोग कर रहे थे जो उन दिनों प्रचलित थी। उन्हें इसमें कोई रस नहीं था कि पृथ्वी चपटी है या गोल है; यह उनके लिए निरर्थक था। उन्हें उन लोगों में ज्यादा रस था जो 'चपटी' या 'गोल' पृथ्वी पर रह रहे थे।
यह बात समझने जैसी है। जीसस के लिए इन बातों की चर्चा करना बिलकुल व्यर्थ है। इससे क्या अंतर पड़ता है? उदाहरण के लिए भूगोल की पुस्तकों से तुम जानते हो कि पृथ्वी गोल है। यदि तुम्हारी भूगोल की पुस्तकें यह सिखाती कि पृथ्वी चपटी है, जैसे वे पहले सिखाती थीं, तो उससे तुम्हें क्या फर्क पड़ जाएगा? क्या तुम कोई बेहतर आदमी हो जाओगे? क्या तुम 'चपटी' पृथ्वी पर या 'गोल' पृथ्वी पर ज्यादा ध्यानी हो जाओगे? इससे तुम्हारी आत्मा में और तुम्हारी चेतना की गुणवत्ता में क्या अंतर पड़ेगा यह असंगत है।
जीसस को तुम्हारी चेतना में रस था और वह व्यर्थ में उन चीजों पर विवाद नहीं करते जो असार हैं। केवल प्रज्ञाहीन लोग बेकार की चीजों में घिसटते रहते है। यदि तुम जीसस को बताते कि पृथ्वी गोल है तो वह हां कह देते। उन्हें इससे कोई फर्क न पड़ता, क्योंकि इसमें उनका रस ही नहीं है। यह प्रचलित धारणा थी कि पृथ्वी चपटी है। और वास्तव में, साधारण मन के लिए, पृथ्वी अभी भी चपटी है। चपटी दिखाई पड़ती है। गोलाई तो एक वैज्ञानिक तथ्य है, लेकिन जीसस कोई वैज्ञानिक नहीं थे।
उदाहरण के लिए, मैं जानता हूं यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य न कभी उगता है न अस्त होता है। पृथ्वी घूम रही है, सूर्य नहीं घूम रहा। लेकिन फिर भी मैं 'सूर्यास्त' और 'सूर्योदय' शब्दों का उपयोग करता हूं। सूर्योदय मूलत: गलत है। शब्द ही गलत है, क्योंकि सूर्य कभी उदय ही नहीं होता। सूर्यास्त गलत है, सूर्य कभी 'अस्त' नहीं होता। तो दो हजार वर्ष बाद कोई कह सकता है कि यह व्यक्ति संबुद्ध नहीं था क्योंकि वह कहता था 'सूर्य उदय होता है' 'सूर्योदय', 'सूर्यास्त'। क्या उसे ये छोटी-छोटी बातें भी नहीं पता थीं?
लेकिन यदि मुझे हर शब्द बदलना पड़े तो मैं व्यर्थ संघर्ष करूंगा और उससे किसी की सहायता नहीं होगी। जीसस ने तो बस प्रचलित जानकारी का उपयोग किया, और प्रचलित धारणा यह थी कि पृथ्वी चपटी है। उन्हें इससे कोई मतलब न था। यदि आज वे यहां होते तो कहते कि पृथ्वी गोल है।
लेकिन यह भी एकदम वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि पृथ्वी बिलकुल गोल नहीं है। अब वे कहते हैं कि यह बिलकुल गोल नहीं है, अंडे जैसी है। अंडे जैसा आकार है। लेकिन कौन जानता है? कल हो सकता है वे बदल जाएं और कहें कि ऐसा नहीं है। विज्ञान तो बदलता जाता है, क्योंकि जैसे-जैसे यह ज्यादा सही होता है, ज्यादा जानकारी उपलब्ध करता है, ज्यादा तथ्य पता चलते हैं, ज्यादा प्रयोग होते हैं, तो चीजें बदल जाती हैं। लेकिन जीसस या बुद्ध जैसे व्यक्ति को इन बातों से कोई प्रयोजन नहीं है।
एक बात याद रखो : विज्ञान की तथ्यों में रुचि है, धर्म का सत्य में रस है। तथ्यों में उसका रस नहीं है, सत्य में रस है। तथ्य तो विषयों के संबंध में होते हैं, सत्य तुम्हारे संबंध में, तुम्हारी चेतना के संबंध में है। तो हर बुद्ध पुरुष को तथ्यों के बारे में प्रचलित जानकारी का उपयोग करना पड़ता है। लेकिन जीसस या बुद्ध के बारे में तुम्हें उससे निर्णय नहीं लेना चाहिए। तुम गलत ढंग से निर्णय ले रहे हो। उनके बारे में निर्णय उसी से लिया जा सकता है जो उन्होंने सत्य के संबंध में, मानव चेतना के तरिक सत्य के संबंध में कहा है। उस संबंध में वे हमेशा बिलकुल सही होते हैं, चाहे उनकी भाषाएं अलग हों।
बुद्ध एक भाषा में बोलते हैं, जीसस अलग भाषा में बोलते हैं, कृष्ण किसी और भाषा में बोलते हैं। वे अलग-अलग जानकारी का उपयोग करते हैं, अलग-अलग विधियों, उपायों का प्रयोग करते हैं, लेकिन उनकी देशना का केंद्र बिंदु एक ही है। और वह है-यदि तुम मुझे कहने दो तो-कि पूर्ण बोध को कैसे उपलब्ध हुआ जाए।
बोध सभी बुद्ध पुरुषों की मौलिक देशना है। वे कई गाथाओं, विधियों, उपायों, प्रतीकों, पुराण-कथाओं का उपयोग करते हैं, पर वे सब असंगत हैं। तुम चाहो तो उन्हें बाहर छोड़ दो, उन्हें एक ओर रख दो, लेकिन मूल केंद्र को बचा लो। सभी जाग्रत पुरुषों का मूल केंद्र बोध ही है।
तो जीसस अपने शिष्यों को बताते हैं कि कैसे और सजग हुआ जाए, मूर्च्छित् नहीं हुआ जाए, सपनों में न खोएं, बल्कि कैसे होशपूर्ण, बोधपूर्ण हुआ जाए।
वह एक गाथा कहा करते थे। वह कहते थे एक बार ऐसा हुआ, एक बड़ा भूपति, एक बड़ा जमींदार, एक बड़ा धनी व्यक्ति दूर की यात्रा पर गया। उसने अपने नौकरों से कहा कि वे सदैव सजग रहें, क्योंकि वह किसी भी दिन, किसी भी क्षण वापस आ जाएगा। ओर जब भी वह वापस आए घर उसके स्वागत के लिए तैयार रहे। वह किसी भी क्षण वापस आ सकता था। नौकरों को सजग रहना पड़ता, वे सो भी नहीं सकते थे। रात को भी उन्हें सजग रहना पड़ता, क्योंकि वह किसी भी क्षण आ सकता था।
जीसस कहा करते थे कि तुम्हें हर क्षण सजग रहना है, क्योंकि परमात्मा किसी भी क्षण तुममें उतर सकता है। हो सकता है तुम चूक जाओ। यदि परमात्मा तुम्हारे द्वार खटखटाए और
तुम गहरी नींद में सोए हुए हो तो तुम चूक सकते हो। तुम्हें सजग रहना है। अतिथि किसी भी क्षण आ सकता है। और अतिथि तुम्हें पहले से नहीं बताएगा कि वह आ रहा है।
जीसस कहते थे कि उस गृहपति के नौकरों की भांति सतत सजग रहो, जागरूक, प्रतीक्षारत, साक्षी रहो; क्योंकि परमात्मा किसी भी क्षण तुममें प्रवेश कर सकता है। और यदि तुम सजग नहीं हो, वह आएगा, द्वार खटखटाएगा और वापस चला जाएगा। और हो सकता है फिर वह क्षण जल्दी न आए; कोई नहीं जानता कि कितने जन्म लग जाएं जब परमात्मा दोबारा तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे। और यदि तुम सोने के आदी हो गए हो तो हो सकता है कि वह दस्तक तुम कई बार पहले भी चूके हो और बार-बार चूकते रहो।
सजग रहो। यही मूल केंद्र है। बाकी सब तो बस इस केंद्र तक पहुंचने के लिए उपयोगी होता है। तो बस यह कहने से कि पृथ्वी चपटी है, जीसस प्रज्ञाहीन नहीं हो जाते। और बस यह जानने से कि पृथ्वी गोल है, तुम प्रज्ञावान नहीं हो जाते। यह इतना आसान नहीं है।

आज इतना ही।


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