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बुधवार, 5 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-09)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो 

नौवां-प्रवचन

शास्त्र को नहीं, समझ को आधार बनाए


प्रश्नः जीवन और मौत, क्योंकि एक-दूसरे को फॉलो करते हैं, और निश्चय ही उनमें से कुछ न कुछ टाइमिंग का फर्क तो होगा ही।... मृत्यु के बाद जो लाइफ मिलती है, लोग कहते हैं कि एक चेंज आॅफ ड्रेस होता है। सिर्फ पहनावा बदल जाता है, आत्मा वही रहती है। वह पहनावा जो हमें मिलता है, या तो वह हमारी मर्जी से मिलता है, हमारी कंसेंट से ही दिया जाता है या हमें फोर्स करके दिया जाता है। जन्म तो हमें अपनी मर्जी से दिया जाता है। तो फिर उसका मतलब यह है कि उस वक्त हमारे मन में था कि हम यह पहनावा लेकर क्या करेंगे? और क्या करेंगे, वह हम भूल चुके हैं। हमारा लक्ष्य क्या है? और अगर वह हमें दिया गया है तो निश्चय ही हमें कुछ न कुछ सोच करके दिया गया है कि तुम जाओ और यह करो। तो अब यह हमारा लक्ष्य क्या है? अगर हम सबका लक्ष्य एक ही है तो फिर सबके एनवायरनमेंट्स और ड्रेसेज सेम क्यों नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हमारा लक्ष्य है--परमात्मा को पाना ही है हमारा लक्ष्य। कुछ कहते हैं, आप तो जानते हैं कि परमात्मा वैसे तो मिल ही नहीं सकता। जैसे, कितनी देर निर्विचार और कुछ न करने से परमात्मा मिलता है। और जिंदगी जद्दोजहद का नाम है। ऐसी कंट्राडिक्शन सी आ जाती है। हमारा लक्ष्य क्या है? यही हमारा प्रश्न है।


ऐसे बहुत से प्रश्न उठते हैं। इन प्रश्नों में, इस तरह के प्रश्नों में बुनियादी भूल हो जाती है, वह हमारे खयाल में नहीं आती। और चूंकि प्रश्न में ही भूल होती है, इसलिए इनका कोई भी उत्तर कभी ठीक नहीं हो सकता। प्रश्न को सीधा लेकर हम सोचना शुरू कर देते हैं। बिना इसकी फिकर किए कि प्रश्न में ही कोई बुनियादी भूल है। और तब जो भी उत्तर हमें मिलते हैं, वे सब गलत होंगे। और किसी से संतोष नहीं होता है। इसलिए सबसे पहले तो प्रश्न पर विचार करें कि उसमें कि बुनियादी भूल नहीं है, फिर हम आगे बढ़ें।
जैसे, जब भी हम कहते हैं कि जीवन में हमारे आने का लक्ष्य क्या है? तभी हमने जीवन को अलग, और अपने को अलग कर लिया--जो कि गलत है। हम जीवन से अलग कोई भी नहीं हैं। हम जीवन से भिन्न नहीं हैं। जीवन ही हम हैं। तो भाषा बुनियादी दिक्कत दे देती है। भाषा कहती है कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? जैसे मैं अलग हूं और जीवन कुछ अलग है। मैं ही जीवन हूं। मेरे भीतर जो जीवन है, इसको ही दिया गया मैं एक नाम हूं। यह एक दूसरा नाम है, वह एक तीसरा नाम है। अगर हम लहरों को भी नाम दे दें, पानी पर लहरें उठीं--उनको नाम दे दें। तो हर लहर यह पूछ सकती है कि--मैं लहर क्यों बनती हूं और क्यों मिटती हूं? लेकिन उसे पता नहीं कि वह जो पूछ रही है वह बात ही गलत है।
 जीवन से भिन्न हम नहीं हैं। इसलिए भिन्न करके उठाए गए कोई भी सवाल का ठीक जवाब कभी भी नहीं मिल सकेगा। इसलिए यह मत पूछिए कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? इतना ही पूछें कि जीवन का लक्ष्य क्या है? तो प्रश्न ज्यादा ठीक जगह पर आएगा। यह मत पूछिए कि मैं किसलिए जन्मा हूं? मुझे किसलिए जीवन मिला है? आप अलग नहीं हैं। जीवन के पहले आप नहीं थे जिसको जीवन दे दिया गया हो। जैसे आपको कपड़े मिले हैं, ऐसे आपको जीवन नहीं मिला। आप थे कपड़े मिलने के पहले, और कपड़े छीन लिए जाएंगे तब भी आप होंगे।
तो कपड़े आपको मिलते हैं, तब हम पूछ सकते हैं कि कपड़ों का क्या लक्ष्य है? मुझे कपड़े किसलिए दिए गए हैं? तो कोई न कोई उत्तर मिल जाएगा--कि इसलिए दिए गए हैं। जीवन ऐसी चीज नहीं है कि आप थे और आपको जीवन दिया गया। आप ही जीवन हो। इसलिए ‘मैं’ को और ‘जीवन’ को अलग न करें, पहली तो समझने की बात यह है। अलग करते से भूल हो जाएगी। और हम रोज अलग करते हैं। हमारी भाषा की जो व्यवस्था है उससे ऐसी कठिनाई पैदा हो जाती है।
कोई कहता है कि मुझे क्रोध आ गया। कोई कहता है कि मैं प्रेम में पड़ गया। वह यही भूल कर रहा है। जब तुम क्रोध में होते हो या प्रेम में होते हो, तो ऐसा नहीं होता है कि तुम अलग हो और प्रेम अलग है। नहीं, जब तुम प्रेम में होते हो तो तुम ही प्रेम होते हो; और जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम ही क्रोध होते हो। क्रोध कोई ऐसी फॉरेन बाॅडी नहीं है कि आ गई और तुम कुछ अलग थे। जब तुम क्रोध में होते हो, तब तुम क्रोध ही होते हो। लेकिन भाषा कहती है कि मैं क्रोध में था। मुझे अलग कर लेती है, क्रोध को अलग कर देती है।
जैसे कि सागर में तूफान आया हो, फिर तूफान शांत हो गया हो। तो भाषा कहती है कि अब तूफान शांत है। जैसे कि तूफान ऐसी कोई चीज है जो कि शांत होकर भी हो सकता हो। सागर के शांत हो जाने का नाम तूफान का न होना है। सागर के अशांत हो जाने का नाम तूफान का होना है। तो अब तूफान शांत है, यह बिलकुल ही गलत है। अब तूफान है ही नहीं। क्योंकि शांत तूफान जैसी कोई चीज नहीं होती। तूफान का मतलब ही अशांति है। शांत तूफान नहीं होता।
तो यहां भी इसको इस तरह न शुरू करके कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? जीवन का क्या लक्ष्य है? पहले तो प्रश्न को इतनी बदलाहट देनी जरूरी है। और जैसे ही यह बदलाहट दोगे तो दूसरा खयाल ( 7ः 05...अस्पष्ट) होना शुरू हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि जैसे ही हम पूछेंगे, जीवन का लक्ष्य क्या है? तब हमें पूछना चाहिए कि यह सवाल पूछा जा सकता है कि नहीं पूछा जा सकता? सवाल का बन जाना काफी नहीं है पूछने के लिए। सवाल तो कोई भी बन सकता है। काफी नहीं है पूछने के लिए। यह सवाल पूछा जा सकता है कि जीवन का लक्ष्य क्या है?
समझ लो कि कोई उत्तर दे कि यह रहा लक्ष्य। तो उस लक्ष्य के बाबत भी हम पूछ सकेंगे कि इसका लक्ष्य क्या है? कोई कहेगा, यह रहा। उसके बाबत भी हम पूछ सकेंगे, इसका लक्ष्य क्या है? तब तो इस शंृखला का कोई अंत नहीं हो सकता। कोई पूछे कि जीवन का लक्ष्य है--प्रेम। तो हम पूछेंगे कि प्रेम का क्या लक्ष्य है? कोई कहे कि जीवन का लक्ष्य है--परमात्मा। तो हम पूछेंगे कि परमात्मा का क्या लक्ष्य है? यह जो हमारा सवाल है, यह ऐसा है जो हर उत्तर पर वापस लागू हो जाएगा। इसलिए इस सवाल को ठीक से समझ लेना जरूरी है, नहीं तो इसकी तृप्ति कभी नहीं होगी। क्योंकि यह हर दिए गए उत्तर पर उतनी ही संगति से लागू हो सकता है जितनी संगति से पहले प्रश्न पर लागू था। मैं कोई भी उत्तर दूंगा--अ ब स। तुम फिर पूछ सकते होः लेकिन इसका क्या लक्ष्य है?
इस बात को इसलिए कह रहा हूं कि यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि एक स्थिति तो हमें स्वीकार करनी पड़ेगी जो बिना लक्ष्य के हो। जिसको अल्टीमेट कहें, परम कहें। उसके आगे हमें लक्ष्य को नहीं रखना पड़ेगा--अंत है, उसका कोई अर्थ नहीं रहेगा। मैं जीवन को ही परम मानता हूं। मैं कहता हूं--सारे लक्ष्य जीवन के लिए हैं, और जीवन का लक्ष्य कोई भी नहीं है। सारे लक्ष्य जीवन के लिए हैं, सारे साधन जीवन के लिए हैं। हंसते हैं हम जीवन के लिए, रोते हैं हम जीवन के लिए; जीते हैं जीवन के लिए, मरते हैं जीवन के लिए; प्रार्थना भी जीवन के लिए है, प्रेम भी जीवन के लिए है; और परमात्मा भी जीवन के लिए है। हमारे सारे जीवन के सब साधन जीवन के लिए हैं। और तब जीवन किसी के लिए नहीं हो सकता। वह स्वयं लक्ष्य है। वह किसी का साधन नहीं बनता, मीं.ज नहीं बनता।
तो जीवन चूंकि परम है, अंतिम है, उसके ऊपर कुछ भी नहीं है। इसलिए जीवन का लक्ष्य क्या है? जब हम पूछते हैं, तो गलती हो जाती है। मैं आपसे पूछूं कि घड़ी का लक्ष्य क्या है? तो आप बता सकते हैं कि मुझे टाइम बताती है। क्योंकि आप साध्य हो, घड़ी साधन है। पूछूं, आपके कपड़े का क्या लक्ष्य है? आप कहते हैं मुझे सर्दी से बचाता है, या धूप से बचाता है। आप साधन नहीं हो, साध्य हो। कपड़ा लक्ष्य है। आपकी कार का क्या लक्ष्य है? आप कहते होः मुझे दुकान तक ले जाती है। मुझे घर तक लौटा लाती है। लेकिन कोई पूछे कि आपका लक्ष्य क्या है? तब जरा मुश्किल शुरू होगी। वह मुश्किल इसलिए कि हमने परमात्मा को जीवन से अलग किया है।
मैं तो कहता हूंः पूरे जीवन को पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है। मैं जीवन और परमात्मा को अलग नहीं करता। जीवन जो है वह सेकुलर शब्द है, और परमात्मा रिलीजियस शब्द है। बस इतना ही फर्क है। शब्द का ही फर्क है वह। जीवन की पूर्णता को पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है। जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। लेकिन तब हमें बड़ी कठिनाई होती है।
हमें कठिनाई इसलिए होती है कि जिस जिंदगी में हमें हर चीज का लक्ष्य होता है, उसमें यह स्वीकार करना कि जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, बहुत बेचैनी में डाल देता है। क्योंकि हमारे सब सोचने के ढंग लक्ष्य के हैं। सब सोचने का हमारा ढंग यह है कि--किसलिए? जो हमारे सोचने का ढंग है जिंदगी में कि किसलिए, वह हम इस पर भी पूछना चाहते हैं कि--किसलिए? जीवन किसलिए? हम कपड़ा लेते हैं तो पूछना चाहते हैं; मकान बनाते हैं तो पूछना चाहते हैं; बगीचा लगाते हैं तो पूछना चाहते हैं--किसलिए? यही सवाल हम जीवन पर भी लागू कर देते हैं कि किसलिए जीवन? और जब मैं कहता हूं कि अपने आप में एक लक्ष्य है, तो मेरा मतलब यह है कि अगर तुमसे यह कहा जाए, इसको इस भांति कहा जाए कि जीवित होना ही अपने आप में आनंद है। इसके लिए किसी और आनंद के होने की जरूरत नहीं।
समझो कि एक सम्राट है और एक रेगिस्तान में फंस गया है। और कोई उससे कहता है कि रास्ता हम बता देंगे, आधा राज्य दे दो। तैयार हो जाएगा। फिर प्यास से मरा जा रहा है और कोई कहता है, एक गिलास हम पानी दे देंगे, आधा राज्य दे दो। तो वह आधा राज्य भी दे देगा। वह पूरा राज्य खोकर सिर्फ अपने को बचा लेगा। कोई उससे पूछे कि तुम बड़े पागल हो, अपने को बचा कर क्या करोगे? तो वह यही कहेगा कि अपने को बचाना अपने में ही सुखद है। राज्य था अपने लिए, हम राज्य के लिए न थे। सब खोया जा सकता है जीवन के लिए--सब।
इसलिए उपनिषद एक बहुत अदभुत बात कहते हैं। बड़ी कठोर भी है बात, पर बड़ी अदभुत है। वह बात यह है कि मां बेटे को प्रेम करती है अपने ही लिए, बेटे के लिए नहीं। उसे सुखद है प्रेम करना। पति प्रेम करता है पत्नी को अपने ही लिए। पत्नी को नहीं, उसे सुखद है। यानी जब हम ऐसा भी दिखाते हैं कि पति कहता है कि मेरा लक्ष्य अपने बेटे के लिए ही सब कुछ करना है, तब भी वह गलत बोल रहा है। तब भी वह गलत बोल रहा है। यह उसका ही बेटा है। यह उसके ही जीवन की धारा है। यह उसके ही जीवन की एक शाखा है। उसे बचाने में वे आनंद देते हैं।
जीवित होना अपने आप में आनंद है--अकारण, अनकाॅज्ड। अगर तुम सिर्फ जीवित हो, समझ लो बीमारी दुख देती है। बीमारी इसलिए दुख देती है, वह तुम्हें जीवित होने में पूरी तरह से बाधा डालती है। और कोई कारण नहीं उसके दुख का। तुम्हारे जीवन का जितना फूल खिलना चाहिए, नहीं खिलने देती। इसलिए बीमारी दुख देती है, गरीबी दुख देती है। और कोई कारण नहीं। गरीबी में जीवन के फूल को खिलना मुश्किल हो जाता है। एक दिन अमीरी भी दुख देने लगती है। क्योंकि बहुत अमीरी में भी जीवन के फूल के खिलने में बाधा पड़नी शुरू हो जाती है। मित्र न हों तो भी मुसीबत होती है, क्योंकि वे भी जीवन के खिलने में बाधक हैं। बहुत मित्र हो जाएं, अति आग्रह से भर जाएं तो भी जीवन के फूल में दिक्कत हो जाए।
हम मित्र भी इसीलिए खोजते हैं, शत्रु भी इसीलिए बना लेते हैं, मकान भी इसलिए बनाते हैं, एक दिन मकान को छोड़ कर जंगल भी इसीलिए चले जाते हैं कि जहां हमारे जीवन का फूल खिल सके--पूरा, हम उसकी तलाश में चैबीस घंटे लगे हुए हैं। और वह जो जीवन का फूल है, उसके खिलने में ही अपना आनंद है। उसके बाहर कोई आनंद नहीं है। तो दो तरह के आनंद पर ध्यान देना जरूरी है। एक साधन का आनंद होता है, वह अपने आप में नहीं होता। वह साध्य तक पहुंचा दे, तो होता है।
आपके पास एक कार है जो बहुत तेज चलती है, बहुत बढ़िया है। सब ठीक है। लेकिन एक ही खराबी है कि जहां आप जाना चाहते हैं, वह वहां नहीं ले जाती। बस वह फिर बेकार हो गई। क्योंकि उसका मूल्य एक ही था कि आप जहां जाना चाहें, वहां पहुंचा दे। उसका और कोई मूल्य नहीं था। उसका मूल्य, उसका साधन की तरह मूल्य था। आपके पास पैसा है, उसका साधन की तरह मूल्य है कि आपको वह बंदी न बनाए। आपको मुक्त करे। आप जब जो करना चाहें तो पैसे की कमी की वजह से न रुक जाए। आपका जीवन जैसा होना चाहे, पैसा बाधा न डाल दे।
तो पैसे का एक साध्य के लिए उपयोग है। जीवन में सब चीजों का उपयोग जीवन को साध्य मान कर है। और जिसके लिए सब चीजें साधन का काम करती हैं, वह खुद किसी के साधन का काम नहीं करता। वह मालिक है। वह परम सम्राट है। वह किसी का भी नौकर नहीं; सब नौकर उसके हैं। सब नौकर उसके हैं। तो जीवित होना अपने आप में परम आनंद है। वह किसी भी तल पर हो।
एक पौधा खिला है, उसका भी परम आनंद सिर्फ होने में है। जस्ट बीइंग, जस्ट टू बी। होना ही। एक पक्षी है, एक मनुष्य है--इन सबका आनंद सिर्फ होने में है--मात्र होने में। अब मात्र होना इतना बड़ा मिरेकल है, छोटी-मोटी घटना नहीं है। वह तो चूंकि हमको मुफ्त मिल गया है इसलिए हम ये बातें पूछते हैं। अगर किसी दिन हमको पैसे लग कर मिलें, तब हमको पता चले। कितना मूल्य चुकाने को राजी हम न हो जाएंगे, अगर मात्र होना हमें किसी भी कीमत से मिलता हो! एक आदमी मर रहा है और उसको अगर एक क्षण भी मिल सकता हो होने का, तो कौन सा मूल्य है जिसको चुकाने से इंकार करेगा? वह सब मूल्य चुकाने को राजी हो जाएगा। लेकिन चूंकि हमें जीवन मुफ्त मिला हुआ है, इसलिए हमारे मन में ये सवाल उठते हैं, किसलिए?
एक सूफी कहानी मैंने सुनी है। एक सूफी फकीर एक गांव से गुजरता है और एक आदमी उससे गिड़गिड़ा कर रो रहा है। और उससे कह रहा है कि मैं तो मरने का, आत्महत्या करने की सोचता हूं। मेरे पास कुछ भी नहीं है, एक पैसा मेरे पास खींसे में नहीं है। तो वह सूफी फकीर उससे कहता है, तू घबड़ा मत। तेरे पास बहुत है, लेकिन तुझे पता नहीं है। हम तेरी बिक्री करवाएंगे। कहता है कि इस गांव का जो राजा है, उसको अजीब-अजीब चीजों का शौक है। हम तेरी आंख बिकवाए देते हैं। एक-एक आंख का एक-एक लाख रुपया दिलवाए देते हैं। उसने कहा, क्या कहते हो? मैं और आंख बेचूं? लाख क्या, करोड़ भी कोई दे तो मैं आंख न बेचूं। तो उसने कहा कि तेरे पास तो करोड़ की चीज है, फिर तू अभी तो कह रहा था कि मेरे पास एक पैसा नहीं। क्योंकि इसमें उसको उससे कुछ खर्च नहीं करना पड़ा है। यह उसे सहज मिली हैं। यह उसे सहज मिली हैं। और जब सहज मिली हैं, इसलिए हमें सारी कठिनाई है।
अगर जीवन तुमसे पूछ कर तुम्हें मिले तो तुम कुछ भी चुकाने को राजी हो जाओे। लेकिन चूंकि जीवन तुम्हें बिना पूछे मिलता है, क्योंकि तुम होते ही नहीं जीवन पर पूछने के पहले, तो इसलिए मिलेगा ही बिना पूछे। कोई उपाय नहीं है। इसलिए जब तुम्हें मिल जाता है, चूंकि मुफ्त मिलता है, इसलिए हम उसका खयाल नहीं कर पाते हैं। इसलिए हम जीवन का लक्ष्य पूछने में लग जाते हैं कि लक्ष्य क्या है मेरे होने का? लेकिन ध्यान रहे, हमारे सारे होने का लक्ष्य शुद्ध होना है। हम पूरी तरह से कैसे हो जाएं? हम पूरी तरह से कभी नहीं हो पाते। इसलिए जब भी हम कभी पूरी तरह से हो पाते हैं क्षण भर को भी, तब हमें परम आनंद का अनुभव होता है।
समझ लो कि तुम एक दुश्मन के पास बैठे हो, तब तुम पूरी तरह से नहीं हो पाते। क्योंकि दुश्मन की मौजूदगी तुम्हें पूरे वक्त डराए रखती है। तुम सिकुड़े हुए होते हो। जैसे कि फूल की सब पंखुड़ियां बंद हैं। तुम भयभीत होते हो, तुम डरे होते हो कि पता नहीं कब हमला हो जाए? पता नहीं यह आदमी क्या करे? तो तुम खिल नहीं पाते। तुम सिकुड़े होते हो। तुम अपने मित्र के पास बैठे हो, तब तुम खिल जाते हो। इसलिए मित्र के पास जो आनंद मिलता है, वह होने का आनंद है और कोई आनंद नहीं है। क्योंकि यही आदमी किसी का शत्रु होकर बैठ जाए, कल यह ही आदमी तुम्हारा शत्रु होकर बैठ जाए तो आनंद नहीं देगा। जिसको हम प्रेम कहते हैं और जिनको हम प्रेम करते हैं, वे वे ही लोग हैं जिनके पास बैठ कर हमारे होने का फूल थोड़ा सा खिल पाता है। और कुछ भी नहीं है कारण उसमें।
जिनकी मौजूदगी में हम भयभीत नहीं हैं, जिनके पास होने में हम डरे हुए नहीं हैं, जिनसे सुरक्षा नहीं करनी है हमें अपनी, बस उनके पास हमारा फूल खिल जाता है। उसके खिलने में हमें जो रस आता है, वह रस अपने आप में ही, एण्ड इन इटसेल्फ, उसके बाहर, उसका कोई लक्ष्य नहीं। फिर चाहे ध्यान में मिलता हो, चाहे प्रार्थना में मिलता हो, कहीं भी मिलता हो। जहां भी जीवन में आनंद मिलता है, वह वही क्षण है जहां हम अकारण हो पाते हैं। सिर्फ होना। जब यह नहीं मिलता है तो जीवन दुखद होता चला जाता है। जब दुखद हो जाता है, तब हम पूछते हैं कि लक्ष्य क्या है इस होने का? और गलत सवाल पूछ लेते हैं।
गलत सवाल इसलिए पूछ लेते हैं कि जीवन इतना बहुमूल्य है, उससे बहुमूल्य कुछ भी नहीं। इसलिए वह किसी का भी साधन नहीं बन सकता। हम कहीं भी उसे लगा नहीं सकते। हम कह नहीं सकते कि यह, यह कुर्सी पाने का जीवन का लक्ष्य है। यह मकान बनाना जीवन का लक्ष्य है। ये सब इतनी फिजूल बातें मालूम पड़ती हैं कि इनसे हम क्या जीएं? परमात्मा भी पाने को अगर कोई कहे कि जीवन का लक्ष्य है, तो भी वह गलत कहता है। क्योंकि उसे पता ही नहीं। पहली तो बात कि परमात्मा जीवन का ही दूसरा नाम है। इसलिए उसको लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता। इसलिए परमात्मा भी परम है। जीवन परम है। परम का मतलब हैः दि अल्टीमेट, जिसके आगे नहीं है।
तो अगर इसे इस भांति सोचोगे, तब तो कभी हल होने के करीब बात पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुमने सीधे सवाल और जवाब की भाषा में सोचा तो कभी हल होने के पास नहीं पहुंच सकते। कभी नहीं पहुंचोगे। क्योंकि सवाल गलत है। और सवाल गलत इतने मजे से पूछा जा सकता है। असल में दुनिया के अधिकतम लोग गलत सवाल पूछ कर मुसीबत में पड़े रहते हैं। उन्हें खुद ही पता नहीं चलता है। उन्हें खुद ही पता नहीं चलता।
समझ लो कि एक आदमी पूछ सकता है कि हरे रंग में कैसी सुगंध होती है। सवाल बिलकुल ठीक है, भाषा में कोई गलती नहीं है। भाषा का बनाव ठीक है। हरे रंग में कैसी सुगंध होती है? हमको दिख जाएगा कि सवाल गलत है, क्योंकि हरे रंग से सुगंध का क्या लेना-देना? लेकिन एक अंधे आदमी से यह सवाल पूछो कि हरे रंग में कैसी सुगंध होती है? वह कहेगाः मुझे पता नहीं। मैं पूछूंगा, पता लगाऊंगा। क्योंकि उसे हरे रंग का ही पता नहीं है। उसे सुगंध का तो पता है, लेकिन उसे हरे रंग का कोई पता नहीं है।
अब समझ लो, एक ऐसा आदमी जो अंधा भी है और जिसकी नाक भी काम नहीं करती, उसे बास भी नहीं आती। वह कहेगा भई जरूर होती होगी। हर चीज में कोई न कोई गंध होती है। हरे रंग में भी कोई गंध होती होगी। लेकिन मुझे पता नहीं है, मैं पूछूंगा। और अगर सारी ही भीड़ इस तरह की हो, उसमें हम इस तरह का सवाल पूछें, तो उत्तर देने वाले भी मिल जाएंगे। कोई कहेगा ऐसी सुगंध होती है, कोई कहेगा वैसी सुगंध होती है। तृप्ति तुम्हारी कभी न होगी, क्योंकि तुमने एक गलत सवाल पूछा था। और गलत जवाब मिलते चले गए। वह गलत जवाब से तृप्ति नहीं होगी, लेकिन तुम्हें भी खयाल न आएगा कि सवाल ही गलत था।
आदमी ने बहुत से गलत सवाल उठा कर हजारों साल से मेहनत की है। और मेहनत करता चला जा रहा है। जैसे कि वह कहता है कि किसने बनाया जगत को? अब यह गलत सवाल पूछ लिया। अब इसका हल होने वाला नहीं है। नहीं होने का और कोई कारण नहीं है। क्योंकि कोई बनाने वाला अलग होता, तब तो हल हो जाता। असल में यह जगत और बनाने वाला एक ही है। यहां ऐसा मामला नहीं है जैसे एक चित्रकार चित्र बनाता है। यहां ऐसा मामला है जैसे एक नृत्यकार नाचता है।
तो चित्रकार जब चित्र बनाता है तो चित्र तो अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। चित्रकार मर जाए तो भी चित्र जिंदा रहता है। चित्र बन जाने के बाद चित्र और चित्रकार दो हो जाते हैं। लेकिन नर्तक, एक डांसर है। वह नाच रहा है। नर्तक मर जाए तो नृत्य नहीं बचेगा। नृत्य और नर्तक दो चीजें नहीं हैं। ये बिलकुल एक हैं। असल में नर्तक है, तब तक नृत्य है। और जब तक वह नृत्य कर रहा है तभी तक वह भी नर्तक है। नहीं तो उसके बाद नर्तक आप उसको कह भी नहीं सकते। क्योंकि वह जब तक नाच रहा है तभी तक नर्तक है।
तो ये हम जो गलत सवाल उठा लेते हैं, अब यह गलत सवाल हमने उठा लिया कि जगत को किसने बनाया? अब इसके लिए हम हजारों साल से लगे हुए हैं। कोई कहेगा, ईश्वर ने बनाया। वह जो सवाल उठाने वाला था, वह पूछता हैः ईश्वर को किसने बनाया? उसको आप डांट नहीं सकते। क्योंकि आपने पहली ही गलती स्वीकार कर ली, रोकना था तो वहीं रोकना था। उसको आप कह नहीं सकते कि तुम नास्तिक हो। वह कहता, पहला सवाल पूछा आपने, तब...। और जब आप कहते हैं कि बिना बनाए कोई चीज बन नहीं सकती, तो फिर परमात्मा बिना बनाए कैसे बन सकता है?
अब इसका कोई अंत नहीं होगा। आप कहो, परमात्मा का और बड़ा पिता है, और उसका भी बड़ा पिता है, कहते चले जाओ। हर आखिरी सवाल पर वही का वही मामला खड़ा हो जाएगा--कि इसको किसने बनाया? क्योंकि एक बुनियादी भूल हो गई सवाल में। वह भूल यह थी कि आपने बनाने वाले को, बनाई गई चीज को दो में तोड़ लिया। हमने अब तक जो कल्पना की है परमात्मा की, वह कुम्हार जैसी की है। जैसे कुम्हार घड़े बनाता है। उससे गड़बड़ हो गई। उससे गड़बड़ हो गई। क्योंकि हम कहते हैं, घड़े बनेंगे कैसे? कुम्हार चाहिए बनाने वाला। वे तो बन गए, लेकिन कुम्हार को किसने बनाया? अब वह सिलसिला शुरू होगा जिसका कोई अंत नहीं होगा।
मेरी अपनी समझ यह है कि बजाय सवाल खोजने के, सवाल का उत्तर खोजने के, सवाल के भीतर खोजने की फिकर करनी चाहिए कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही। नहीं तो एक छोटी सी भूल फिर बड़ी-बड़ी फिलाॅसफी.ज खड़ी कर देंगी। और वह बुनियादी भूल मेें अटकाव हो जाता है, फिर कुछ हल नहीं होता। तो मैं तुमसे कहूंगा कि पहली तो बात यह है कि तुम और जीवन अलग नहीं हो। इसलिए ऐसा मत पूछो कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? तुम ही जीवन हो। इसलिए ऐसा पूछो की जीवन का लक्ष्य क्या है? फिर मैं तुमसे कहूंगा कि जीवन का लक्ष्य क्या है?
यह पूछने के पहले यह सोच लो कि एकाध चीज तो ऐसी होनी ही चाहिए जो अपने में लक्ष्य होगी। सब चीजें जिसका साधन बनेंगी, और जो खुद किसी का साधन नहीं होगी। अगर तुम कहो कि हम ऐसी किसी चीज को नहीं मानते तो फिर तुम्हारे प्रश्न का कभी उत्तर नहीं होगा। फिर तुम प्रश्न ही मत पूछो। और अगर तुम कहते हो कि ऐसी कोई चीज को हम स्वीकार करते हैं, एक तो ऐसी चीज होनी चाहिए जिसकी तरफ सब जाते हैं, लेकिन जो किसी की तरफ नहीं जाती।
तो मैं कहता हूंः उसको ही मैं जीवन कहता हूं। अगर धर्म की भाषा में कहना चाहूं तो उसको परमात्मा कहता हूं। वह हमारे प्रेम की बात है। किसी को परमात्मा शब्द अप्रीतिकर लगे, वह कहे जीवन है, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी को लगे कि जीवन तो बहुत साधारण शब्द है, हमें कुछ और अच्छा शब्द चाहिए, तो वह कहे परमात्मा, जो उसे कहना हो--कहे। और इस जीवन का आनंद होने में ही है।
और दूसरी बात तुमने जो पूछी वह भी इसी भूल से पैदा हुई है, इसी सवाल की भूल से। तुम पूछते हो कि मर जाते हैं फिर जन्म होता है; फिर मरते हैं फिर जीवन होता है, जैसे वस्त्र बदल जाते हैं। इस सबमें तुम जो भूल कर रहे हो, वह यही कर रहे हो। अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए कि तुम्हीं जीवन हो, तो मरते कभी भी नहीं फिर। क्योंकि जीवन की कोई मृत्यु संभव नहीं है। सिर्फ रूपांतरण है। मृत्यु कभी नहीं है। क्योंकि मृत्यु का मतलब होता हैः समाप्त हो गई वह बात--जो थी। इस जगत में कुछ भी मर नहीं सकता इन अर्थों में, सिर्फ बदलता है।
अभी यह, यह पौधा खड़ा हो गया है। हम इसे कल काट कर फेंक दे सकते हैं। तो हम कहेंगे, मर गया। लेकिन कुछ भी नहीं मर गया। इस टोटली जगत में कोई फर्क नहीं पड़ा। इस टोटल जगत में जितना था, उतना ही है अब भी। पौधे के कट जाने पर भी। पौधे की मिट्टी मिट्टी में चली गई होगी, पौधे का पानी पानी में चला गया होगा, पौधे के प्राण विराट में चले गए होंगे--पर सब वहीं है। कहीं कुछ चला नहीं गया। अगर हम समग्र जगत को देखें, तो जितना है उतना ही है। इसमें एक रेत का कण बढ़ नहीं सकता, और एक रेत का कण घट नहीं सकता। क्योंकि वह आएगा कहां से? और जाएगा कहां? रूपांतरण हो रहा है। तुम्हारे घर का पानी बह कर दूसरे घर में चला गया है। तुम्हारे घर में तुम कह रहे हो, पानी मर गया है। तो दूसरे घर में हो गया है। वहां लोग बैंड-बाजा बजा रहे हैं कि पानी का जन्म हो गया है। वह पानी सिर्फ यात्रा कर गया।
जीवन की कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु बिलकुल ही झूठा शब्द है। लेकिन जीवन रूपांतरण है, क्योंकि जीवन गति है। तो इसलिए यह भी खयाल में ले लेना कि जीवन को कोई एक मरी हुई चीज मत समझ लेना। जीवन एक प्रोसेस है, एक चीज नहीं है। एक गति है जो चैबीस घंटे हो रही है, होती चली जा रही है, कभी ठहरी नहीं है। अभी भी तुम नहीं ठहरे हो, लेकिन हमारी भाषा यहां भी भूल करती है। हम कहते हैं, फलां आदमी बूढ़ा है। गलत है यह बात कहना।
ऐसा कहना चाहिए कि फलां आदमी बूढ़ा हो रहा है। है की स्टैटिक हालत में कोई नहीं होता। जिसको हम बूढ़ा कहते हैं, वह भी बूढ़ा हो रहा है। जब हम कह रहे हैं, उस बीच भी बूढ़ा हो गया। और दो मिनट और बूढ़ा हो गया। हम कहते हैं, नदी है। ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि नदी एक क्षण को भी है नहीं, हो रही है। नदी ठहरी कहां? हम कहते हैं, यह बच्चा है। यह बच्चा हो रहा है। है की स्थिति में तो इस जगत में कुछ भी नहीं है। सब होने की स्थिति में है। सब चीजें हो रही हैं प्रतिपल।
तो जीवन का अर्थ ही हैः गति। जीवन का अर्थ ही हैः परिवर्तन। जीवन का अर्थ ही हैः होने की निरंतर अनंत क्षमता। तो जब यह क्षमता एक जगह छोटी पड़ जाती है, जब एक मकान तुम्हें छोटा पड़ने लगता है--तुम्हारे घर में दस बच्चे हो गए, पिता हो गए, और सारा परिवार बड़ा हो गया, मकान छोटा पड़ गया। अब तुम नए मकान की तलाश करते हो। यह मकान छोटा पड़ गया। होने ने इतना बड़ा कर लिया रूप, अब यह मकान छोटा पड़ गया। अब तुम नया मकान खोजते हो।
 तो जीवन की यह धारा रोज-रोज, प्रतिदिन नया-नया खोज रही है। एक दिन तुम्हारा यह मकान, यह शरीर भी छोटा पड़ जाता है, उसकी जरूरतों के लायक नहीं रह जाता। उसे नया मकान खोजने की ही यात्रा पर निकल जाना पड़ता है। तो उस, उस जीवन ने बहुत यात्रा की है। वह पशुओं से आया है, पौधों से आया है, पक्षियों से आया है मनुष्य में है। मनुष्य पर भी यात्रा का अन्त नहीं है। मनुष्य के बाद भी यात्रा है।
तो जीवन कहीं मरता नहीं। लेकिन जहां से जीवन घर बदलता है, वहां से हम दिक्कत में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमने घर को जीवन समझा हुआ है। तो हम दिक्कत में पड़ जाते हैं एकदम। हम कठिनाई में पड़ जाते हैं। हम कहते हैं, यह तो खत्म हो गया आदमी, हम रो-धो कर निपटारा कर देते हैं। मगर वह आदमी नई यात्रा पर निकल गया है। वह ऊर्जा, वह शक्ति जो उस आदमी को बनाती थी, नई यात्रा पर चली गई। और वह जो तुम कहते हो, टाइम गैप होगा। वह टाइम गैप होगा, वह होगा ही। वह तो सभी यात्रा में हो रहा है। वह तो प्रतिपल हो रहा है। अभी भी टाइम गैप है, अभी भी टाइम गैप है।
तुम यहां आए हो, तुम यहां से वही आदमी थोड़े ही वापस लौटोगे जो तुम आए थे। कैसे लौट सकते हो? हां कोई मरा हुआ आदमी यहां मेरे पास आ गया हो, तो वह वैसा ही लौट जाएगा जैसा आया था। नहीं तो घंटे भर मैं कुछ बात करूंगा, कुछ होगा, कुछ सोचेगा पक्ष में, विपक्ष में। वह आदमी दूसरा होकर जाने वाला है, वही नहीं होकर जा सकता। वह तो घर वालों की अगर आंख तुम्हारी बहुत पैनी हो तो वे कहेंगे कि दूसरा आदमी आ गया है, यह आदमी नहीं गया था। आंख पैनी नहीं है, बोथली है। ऊपर की शक्ल देखती है। बाकी भीतर क्या हो गया है इसकी फिकर नहीं करती। इसलिए हमें कठिनाई मालूम नहीं पड़ती। रोज सब बदल रहा है।
एक दिन जब पूरी तरह से तुम्हारा शरीर बदलता है, तब चिंता हो जाती है। और चिंता उन्हें हो जाती है जिन्होंने तुम्हारे शरीर को ही सब कुछ समझ रखा था। वे दिक्कत में पड़ जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि अब यह आदमी गया। और उस शरीर के बाद फिर हमें वह दिखाई नहीं पड़ता। वह आदमी, उससे हमारा कोई मिलन नहीं होता। इसलिए हम कहते हैं कि गया, समाप्त हो गया। हमारे लिए समाप्त हो जाने का इतना ही मतलब है कि अब हम मिल नहीं सकते। अब वह अवेलेबल नहीं है। और कुछ मतलब नहीं है। मतलब जिस तरह वह कल तक अवेलेबल था, कि हम चाहते तो बुला लेते कि भई, क्या कर रहे हो? अब हम बुलाते हैं कि क्या कर रहे हो? तो वह कुछ उत्तर नहीं आता।
तो नाॅन-अवेलेबिलिटी को हम कहते हैं मृत्यु। लेकिन हम कोई नये साधन खोजें तो शायद वह फिर अवेलेबल हो जाए। और साधन हैं। कि जो आदमी नहीं है, अब उससे संबंध बांधे जा सके, उससे बात की जा सके। जो आदमी दूर यात्रा पर निकल गया है, उससे भी संवाद किया जा सके। लेकिन फिर हमें नये साधन खोजने पड़ें। नये साधन खोजने पड़ें तो वह फिर वापस अवेलेबिलिटी की सीमा में आ जाए। वह उपलब्ध हो जाए। तब हम ऐसा न कहें कि वह मर गया। हम इतना ही कहें कि वह दूसरे शरीर की यात्रा पर चला गया।
न ही कोई मरता है कभी, और न ही कोई जन्मता है। जन्म-मृत्यु झूठे शब्द हैं। हां, जीवन-स्थान बदलता है। उससे कठिनाई होती है, उससे बहुत कठिनाई होती है।
हमारे देखने की दृष्टि की सीमा के बाहर जब कोई चला जाता है, तब मुश्किल हो जाती है। समझो कि एक बड़े वृक्ष पर एक आदमी बैठा हुआ है। तुम वृक्ष के नीचे बैठे हुए हो। अब ऊपर वृक्ष वाला आदमी कहता है कि एक बैलगाड़ी आ रही है, आ गई। उसे दिखाई पड़ता है दूर तक। एक बैलगाड़ी उसे दिखाई पड़ रही है। तुम कहते हो, कैसी बैलगाड़ी? कोई बैलगाड़ी नहीं है। होगी भविष्य में। लेकिन वह कहता है, नहीं, वर्तमान में है। अब बड़ा मजा है। एक वृक्ष के नीचे बैठा है, और एक वृक्ष के ऊपर बैठे आदमी का भविष्य और वर्तमान भी अलग-अलग हो जाता है।
क्योंकि उसके लिए वह वर्तमान है, उसे वह दिखाई पड़ रही है कि बैलगाड़ी रास्ते पर है। तुम कहते हो, होगी भविष्य में। तुम कहते हो, भविष्य-वक्ता मालूम होते हो। बैलगाड़ी तो कहीं रास्ते पर है नहीं, रास्ता तुम देख रहे हो दोनों तरफ, ओर-छोर साफ है। रास्ते पर बैलगाड़ी नहीं है। तुम्हारी जो दृष्टि की सीमा है, उसके जरा भी पार है तो नहीं है। थोड़ी देर में बैलगाड़ी तुम्हारी दृष्टि-सीमा में आएगी। तुम कहोगे, ठीक भविष्यवाणी की थी। बैलगाड़ी आ गई। बैलगाड़ी है। घड़ी भर बाद बैलगाड़ी तुम्हारी दृष्टि की सीमा के फिर बाहर चली जाएगी। तुम फिर कहोगे कि बैलगाड़ी नहीं है। वह आदमी कहेगा, अभी भी है, अभी भी उसे दिखाई पड़ रही है। तुम कहोगे, अतीत हो चुकी, पास्ट हो गई। थी कभी, अब कहां है? रास्ता खाली पड़ा है। वह आदमी कहेगा, अभी भी है, पास्ट नहीं हो गई। अभी भी दिखाई पड़ रही है।
तो हमारी कितनी दृष्टि-सीमा है, तो जो हमारी आम दृष्टि-सीमा है, उसमें जन्म में आदमी प्रकट होता है, रास्ते पर आता है। जहां से हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि हां, यह दिखाई पड़ा। और मृत्यु में उस जगह के बाहर हो जाता है, जहां से हमें दिखाई नहीं पड़ता। तो ये दो बिंदु जो हैं उस आदमी के जन्मने और मरने के नहीं हैं, हमारी दृष्टि-सीमा के हैं। हमारी दृष्टि जहां तक देख पाती थी वहां तक हमने यह सीमा बना ली। हमने कहाः यह एक आदमी फलां-फलां तारीख को पैदा हुआ था, और यह आदमी फलां-फलां तारीख को मर गया। यह जो दो तारीख है इस आदमी के मरने और जन्मने की नहीं, हमारी दृष्टि-सीमा के पथ को दो पत्थर लग जाते हैं। हमको लगता है, बच्चा यहां पैदा हुआ, यहां खत्म हो गया। यह आदमी इस तारीख को इस रास्ते पर प्रकट हुआ था, इतना ही कहना चाहिए। इस तारीख को इस रास्ते से अप्रकट हो गया। हम नहीं देख पाते, कहां खो गया।
ऐसा अगर देखो...और मेरा मानना यह है कि सवाल बहुत उत्तर का नहीं है। सवाल प्रश्नों को बहुत-बहुत ठीक से देखने का है। और प्रश्न को ठीक देखना मैं उसी बात को कहता हूं जिससे तुम्हारा चित्त गतिमान हो जाए। चिंतन में चला जाए। और और नये विस्तार खुलते चले जाएं तुम्हें देखने के, और तुम्हारा खयाल बड़ा होता चला जाए। और ऐसा मत सोचना कि कभी कोई ऐसा फार्मूला तुम्हें मिल जाएगा, जैसे तुम अपनी किताब में लिख लोगे और कहोगे कि यह उत्तर हुआ।
जिंदगी इतनी बड़ी है कि सब फार्मूले छोटे हैं। इसलिए जितने फार्मूले अब तक बनाए गए सब बेकार साबित होते हैं। बड़े से बड़ा आदमी भी जो फार्मूला दे जाता है, वह भी बहुत जल्दी बेकार हो जाता है। उसका कारण यह नहीं कि वह आदमी बड़ा नहीं था। उसका कारण है कि फार्मूला कितना भी बड़ा हो, बड़ा नहीं हो सकता। जिंदगी बहुत बड़ी है। हमें उसकी कुछ, उसकी कल्पना भी नहीं है कि वह कितनी बड़ी है। अब यहां एक, एक पौधे में भी प्राण हैं। हम कभी नहीं सोचते उसके जन्म और मृत्यु की। क्योंकि हमारा उससे कोई संबंध नहीं है। वह भी एक दिन जन्मता है और एक दिन मरता है। लेकिन हम कभी नहीं सोचते इस भाषा में कि पौधा जन्मा और मरा। हम उसे उखाड़ कर फेंक देते हैं। हम कभी नहीं सोचते हैं कि कोई, कोई एक जीवन-पथ पर आई हुई आत्मा को अलग कर दिया। हमारे सोचने की बात है। हमारे सोचने का दायरा बड़ा छोटा है।
हम आदमी तक ही सोचते हैं। आदमी तक ही हमारा सोचना जाता है। जब यह सोचना बड़ा होेने लगता है, और बड़ा होने लगता है, तो एक पशु को भी मारना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि लगता है कि हमें क्या हक है कि जीवन-पथ पर आए हुए एक व्यक्ति को हम अलग करें। हम कौन हैं? तब एक पौधे को भी उखाड़ना मुश्किल हो जाता है। हमें लगता है कि हम कौन हैं जीवन-पथ पर? और कौन कह सकता है कि पौधा हमसे कुछ पीछे है?
पौधे के अपने होने का आनंद है। और अगर होने का आनंद ही जीवन है तो हमारे होने के आनंद में और पौधे के होने के आनंद में कोई फर्क नहीं हो सकता। वह पौधे का ढंग है होने का, यह हमारा ढंग है होने का। हम जिस तरह प्रफुल्लित हो रहे हैं, एक शांत हवा है, और ठीक भोजन किया है, ठीक प्रेम से घर में बैठे हैं; पौधे को भी पानी मिला है, ठंडी हवा आई है, वह भी इतना ही आनंदित होगा।
तो यह तो हमारा कितना दृष्टि-पथ बड़ा होता चला जाए, तब तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि सारा का सारा जीवन है। सब तरफ जीवन है। उस जीवन में हम भी एक लहर हैं। और यह जो अनंत सागर है, अनंत लहरों वाला, यह किसी का साधन नहीं है। यह अपने में ही साध्य है। और इसको साधन बनाना बहुत खतरनाक है। यह भी खयाल में ले लेनाः इसको जिन लोगों ने साधन बनाया, उन्होंने मनुष्य को बहुत नुकसान पहुंचाया।
किसी ने कहा कि परमात्मा को पाना साधन है। तो उसने अपनी बलि दे दी फिर उसके लिए। क्योंकि फिर वह साध्य हो गया। तो वह साध्य हो गया। फिर उसने कहा कि अगर भूखे मर कर परमात्मा मिलेगा, तो मैं भूखा मरूंगा। अगर शीर्षासन करके मिलेगा, मैं शीर्षासन करूंगा। अगर किसी ने कहा, पहाड़ पर मिलेगा, तो मैं पहाड़ च.ढ़ूंगा। किसी ने कहाः अपने को कोड़े मारोगे तब मिलेगा, तो वह अपने को कोड़े मार रहा है। किसी ने कहा कि सर्दी और धूप में खड़े रहो--ऐसे मिलेगा, तो वह वैसा कर रहा है। अब वह अपने साथ साधन का व्यवहार कर रहा है। क्योंकि अब वह साध्य नहीं रह गया। समझे न?
इसलिए सारी दुनिया में जिन लोगों ने परमात्मा को साध्य मान लिया, उन्होंने अपने साथ बहुत दुव्र्यवहार किया है। करेंगे वे, क्योंकि साधन के साथ सद्व्यवहार नहीं हो सकता। असल में जिसको हमने साधन कहा, उसके साथ दुव्र्यवहार शुरू हो गया। किसी ने कहा कि स्वर्ग लक्ष्य है पाना, तो फिर स्वर्ग पाने के लिए जो भी किया जा सकता है, वह करेगा। अगर मुसलमानों ने कहा कि हिंदुओं को काट दो इससे बहिश्त मिलेगी, तो हिंदू काटे जा सकते हैं। अगर हिंदुओं ने कहा कि मुसलमान मार डालो, इससे स्वर्ग मिलेगा, तो मुसलमान काटे जा सकते हैं। तो फिर आदमी के साथ हमने साधन का व्यवहार कर लिया। किसी ने कहा कि बलि पर बकरे को चढ़ा दो, गाय को चढ़ा दो, तो मोक्ष का इंतजाम हो जाएगा। तो हमने गाय काट दी, बकरा काट दिया। आदमी भी काटे!
क्योंकि हमने, एक बुनियादी बात हम चूक गए कि जीवन किसी का भी साधन नहीं है। जीवन परम साध्य है। इसलिए धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूंः जिसको यह खयाल में आना शुरू हो गया कि जीवन की बलि किसी के लिए भी नहीं चढ़ाई जा सकती। जीवन परम साध्य है। नहीं तो कहीं न कहीं बलि चढ़ेगी। कोई राष्ट्र के लिए चढ़वा देगा, कोई धर्म के लिए चढ़वा देगा, कोई यज्ञ के लिए चढ़वा देगा, कोई तपश्चर्या के लिए चढ़वा देगा। बलि कहीं न कहीं चढ़ जाएगी--उसकी, जिसकी कि बलि चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं, जिसके लिए सब है। उसको हम किसी चीज के लिए चढ़ा देंगे।
तो इधर मेरे लिए तो इसमें बहुत से इंप्लीकेशंस हैं। यह मेरा तो मानना यह है कि दुनिया अगर अच्छी बनानी है तो जीवन को अंतिम सत्य स्वीकार करना चाहिए। तो फिर हम जीवन के साथ दुव्र्यवहार न कर सकेंगे। नहीं तो हम करेंगे।
एक पति मरता है, वह अपनी पत्नी को सती करवा लेगा। क्योंकि पत्नी का जीवन कोई साध्य नहीं था। वह सिर्फ पत्नी थी, दासी थी पति की। अब पति मर रहा है तो उसके होने की क्या जरूरत? उसको भी कूद जाना चाहिए आग में। क्योंकि जीवन को हम कभी भी नहीं जो कि उसको आखिरी चीज मानते। इसलिए किसी भी चीज पर चढ़ा देते हैं। अब एक बेटा तुम्हारे घर में पैदा हुआ है। अब बाप को उसे डाक्टर बनाना है। और हो सकता है बेटा डाक्टर बनने को नहीं पैदा हुआ है। तो बाप उसको सब तरह से बलि चढ़ा देगा डाक्टरी के लिए, डाक्टर बना कर रहेगा। चाहे उसकी सब बलि चढ़ जाए। वह जो होने को पैदा हुआ था, उसके लिए कोई रास्ता न रह जाए, कोई फिकर नहीं। वह दुखी हो जाए, कोई फिकर नहीं। वह जिंदगी भर चिंतित रहे, कोई फिकर नहीं। फ्रस्ट्रेटिड रहे, कोई फिकर नहीं। केवल बाप ने एक लक्ष्य बना लिया कि उस बेटे का जीवन जो है वह डाक्टर होने के लिए है। तब वह डाक्टरी में उसको लगाने में लग जाएगा। वह सब तरफ से उसको डाक्टर बना कर रहेगा, चाहे उसका कुछ भी परिणाम हो।
तो अब तक हमने चूंकि सदा इस तरह सोचा है कि जीवन का कोई लक्ष्य होना चाहिए, तो हमने जीवन के साथ बहुत ही दुव्र्यवहार किया है। जिस दिन हम ऐसा सोचेंगे कि जीवन लक्ष्यातीत, लक्ष्य के पार है, सब लक्ष्य आकर उसमें मिल जाते हैं। जैसे कोई पूछे कि सागर किससे मिलता है, हम कहेंगेः नहीं, सभी नदियां आकर सागर से मिल जाती हैं। सागर किसी से मिलने नहीं जाता। सागर अपने में ही जीता है। ऐसा ही जीवन है। सारी धाराएं जीवन में आकर मिल जाती हैं। सुख की, दुख की, धर्म की, अधर्म की, राम की, रावण की--सब धाराएं जीवन में आकर मिल जाती हैं। और जीवन, जीवन कहीं नहीं जाता। अगर यह खयाल में आ जाए तो हम जीवन के साथ सद्व्यवहार कर सकेंगे। और जीवन के साथ सद्व्यवहार ही धर्म है।
इसे ऐसा सोचो, मैं नहीं कहता हूं कि मैं उत्तर दे रहा हूं। क्योंकि मैं तो कहता हूं तुम्हारा सवाल नहीं है ठीक, इसलिए इसका उत्तर तो हो नहीं सकता। मैं उत्तर नहीं दे रहा, मैं तो तुम्हारे सिर्फ सवाल का ही विश्लेषण कर रहा हूं। मैं उत्तर नहीं दे रहा हूं। यानी मैं तो सिर्फ यही कह रहा हूं कि हम इस सवाल पर सोच रहे हैं। उत्तर का सवाल नहीं है। उत्तर देने की बात नहीं है। और जो कोई तुम्हें उत्तर दे, समझना कि उसे, उसे कुछ पता ही नहीं चला। कुछ पता नहीं चला। ऐसा जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा, जीवन की परम धन्यता। उस दिन बहुत ही अदभुत होगा। बहुत अदभुत होगा।

प्रश्नः (ध्वनि-मुद्रण अस्पष्ट)

हां, यह भी मेरे जीवन में सम्मिलित है, हां। मेरे लिए वह भी सम्मिलित है।
नहीं, नहीं आप मत लें, आप मत लें, आप तो जो लें...(44: 48)। मैं आत्मा के लिए जीवन का प्रयोग करता हूं। जीवन सर्वग्राही शब्द है। जो भी है वह सब जीवन है। वह भी हमारी दृष्टि है। हमने जीवन में भी भेद किए हैं। कुछ जो ऊंचा जीवन है, उसको हम अलग किए हैं। कुछ जो नीचा जीवन है, उसको हम अलग किए हैं। लेकिन जीवन में कुछ नीचा और ऊंचा नहीं है। जीवन एक इकट्ठी धारा है। तो मेरी नजर में ऐसा नहीं है कि कुछ जीवन का कोई एक अलग रूप, ऊंचा रूप जिसकी मैं बात कर रहा हूं, और आप किसी और जीवन की। नहीं, जिस जीवन की आप बात कर रहे हैं--उसको ही।
जीवन सर्वग्राही है। उसमें राम भी गृहीत है और रावण भी। तो ऐसा नहीं सोच लेना कि जब मैं जीवन की बात कर रहा हूं तो राम का जीवन है, और रावण का काटता हूं। क्योंकि मेरी तो समझ यह है कि रावण अगर कट जाए तो राम का होना उतना ही असंभव है; जितना कि जड़ कट जाए तो पौधे का होना असंभव है। तो जीवन की गहराई में राम और रावण तो किसी एक ही जड़ से जुड़े हैं। और एक ही साथ हो सकते हैं। यह तो हमारी जल्दबाजी है और हमारे सिद्धांत हैं कि हम उनको दो में काट देते हैं।
कभी एक रामलीला खेलने की कोशिश करें, रावण का पार्ट न रखें उसमें। तब आपको पता चलेगा कि कैसा असंभव है यह मामला। राम को अकेले कैसे प्रकट करोगे? अकेले राम से रामलीला खेलें तो पता चलेगा कि यह, यह चलता ही नहीं काम आगे। यह एक सेकेंड नहीं चल सकती रामलीला। और चलेगी तो इतनी मोनोटोनस हो जाएगी कि कोई देखने नहीं आएगा। लेकिन हमारा मन जो हर चीज को काटता है, वह चीजों को दो में तोड़ देता है। हम कहते हैं कि अंधेरा अलग और प्रकाश अलग। लेकिन जीवन की गहराइयों में अंधेरे और प्रकाश का स्रोत एक ही है। यह तो हमारा दिमाग हर चीज को तोड़ कर चलता है। दो में बिना तोड़े हम नहीं मानते।
असल में बुद्धि बिना द्वैत में तोड़े मानती ही नहीं। वह कहती हैः दो में तोड़ो ही। नहीं तो उसका काम नहीं है। फिर वहां, खत्म हो गया उसका काम। तो वह कहती हैः दो में तोड़ो। अंधेरा अलग और प्रकाश अलग। हम कहते हैंः परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। तो फिर अंधेरा स्वरूप कौन है? तो परमात्मा की बिना आज्ञा के अंधेरा है? तब तो परमात्मा से ज्यादा शक्तिशाली हो जाएगा। नहीं वे, वे दोनों ही उसका स्वरूप हैं--अंधेरा भी और प्रकाश भी। और जब हम बहुत गहरे में देखेंगे तो उन दोनों में विरोध न दिखाई पड़ेगा, डिग्री का फासला दिखाई पड़ेगा। जिसको हम अंधेरा कहते हैं उसमें भी किसी प्राणी को प्रकाश दिखाई पड़ता है। सिर्फ डिग्री की बात, हमारी आंख के लिए अंधेरा हो गया। हमारी आंख जहां तक प्रकाश को पकड़ती थी, अब वहां नहीं पकड़ती।
अभी आप दोपहर की रोशनी में से घर के भीतर जाएं तो अंधेरा मालूम होता है। दस मिनट के बाद उजाला मालूम पड़ने लगता है। बात क्या हो गई? वह कमरा वही है, वहां कुछ नहीं बदला है। आपकी आंख की देखने की क्षमता में फर्क हो गया है। परमात्मा की आंख चूंकि सभी देख पाती है, जीवन की आंख--उसके लिए अंधेरा और प्रकाश अलग नहीं हो सकते। बहुत गहरे में बुरा और भला भी अलग नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। हम जुड़े हैं। हमारी तकलीफ है कि हम जोड़ में चीजों को देख नहीं सकते, हम तोड़ेंगे। और जब तक हम बुरे और भले में लड़ाई न खड़ी करवा दें, और अंधेरे और प्रकाश को दुश्मन न बना दें, तब तक हमारा चित्त न मानेगा। असल में बुद्धि जहां है, अति, वहां दुश्मनी अनिवार्य है। वहां हम चीजों को शत्रुतामय ही लेंगे। वहां मित्रता में न ले सकेंगे।
तो मैं नहीं कहता हूं जीवन सारा जीवन, सारा जीवन गृहीत है मुझे। और जिसको आप बुरा कहते हैं, उस बुरे में ही अच्छे के फूल लगते हैं। जिसको आप कांटा कहते हैं, उसी गुलाब पर, गुलाब के फूल लगते हैं। इसलिए मत कहिए बुरा और भला है।
एक मुझे खयाल आता है कि एक, एक सूफी फकीर हुआ जुन्नून। तो उसने एक रात प्रार्थना की कि हे परमात्मा! सबसे अच्छा आदमी कौन है मेरे गांव में? तो उसे खबर आई कि तेरा पड़ोसी। तो वह दूसरे दिन से पड़ोसी को नमस्कार करने लगा। हालांकि उसका मन नहीं मानता था कि एक साधारण सा आदमी जो इसको नमस्कार कहता था सदा फकीर मान कर, अब उसको मैं नमस्कार करूं। उसका कभी मन नहीं माना। लेकिन अब जब परमात्मा ने यह कहा कि सबसे अच्छा आदमी यही है। फिर एक दिन उसे खयाल आया कि मैं यह भी तो पूछ लूं कि सबसे बुरा कौन है? उसने रात पूछा कि परमात्मा एक कृपा की, इतना और बता दे कि सबसे बुरा आदमी कौन है? तो उसने कहाः तेरा पड़ोसी। उसने कहाः अब तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। वही पड़ोसी जिसको सबसे अच्छा कहा था? उसने कहाः वही। उसने कहाः लेकिन बहुत मुसीबत की बात हो गई। तो आवाज आई कि अच्छे और बुरे दो चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वह तेरा पड़ोसी किसी क्षण में परम शुभ होता है, किसी क्षण में परम अशुभ हो जाता है। सुबह कुछ होता है, सांझ कुछ हो जाता है। वह तेरा पड़ोसी दोनों होता रहता है। तो, तो, तू, तू उसको जरा गौर से देखना। उसे जरा गौर से देखना, वह दोनों होता रहता है। जिंदगी बहुत ही, जिसको हम कहें, विरोधों का समागम है। वहां सब विरोध समाहित हैं।
एक और मैं पढ़ता था। एक आदमी गांव में बहुत बुरा है। इतना बुरा है कि सारा गांव उससे परेशान है। तो उस गांव के संन्यासी ने रात परमात्मा से प्रार्थना की कि इस आदमी को अब उठा ही ले, बहुत बुरा है। तो परमात्मा ने उससे कहाः कि जिसे मैं पचास साल से जिला रहा हूं, तो कुछ सोच कर जिला रहा हूं। और तुम सब मुझसे भी ज्यादा समझदार हो, उसको उठाने की फिकर कर रहे हो। आखिर मैं ही उसे जिला रहा हूं। और पचास साल से मैं उसे श्वास और जीवन दे रहा हूं। तो तुम मुझसे भी ज्यादा बुद्धिमान हो कि मुझे सलाह देते हो कि इस आदमी को उठा लूं। और जिसे मैं पचास साल से बरदाश्त कर रहा हूं, तुम न कर सकोगे?
जिंदगी बहुत विरोधों का जोड़ है। मगर हमारी बुद्धि काट कर देखती है, इसलिए कठिनाई होती है। हम कहते हैंः यह, यह, यह, यह गृहस्थ है, यह संन्यासी है; यह अच्छा है, यह बुरा है; यह मंदिर है, यह मकान है--ऐसा हम बांटते हैं। हमारे बांटने से सब मुुश्किल हो जाती है। उस बांटने को मैं पसंद नहीं करता। जैसी जिंदगी पूरी है, उसे हम वैसा देखें। और उस पूरी जिंदगी को ही परमात्मा समझें, तभी कुछ होगा। और जिस दिन हम पूरी जिंदगी को परमात्मा समझें, उस दिन जिसे हम बुरा कहते हैं, उसका रूपान्तरण तत्काल शुरू हो जाता है। वह बदलना शुरू हो जाता है।

प्रश्नः (रिकार्डिंग छूट गई है)

...शास्त्र को मानता ही नहीं तो शास्त्रार्थ कैसे करूंगा? मेरी आप बात समझे न?

प्रश्नः यह आप लिख दीजिए।

न, न, न। यह, यह जो मामला है न, लिखूंगा तो शास्त्र बन जाएगा। इसलिए लिखता तो कुछ हूं नहीं। आप समझे न? कोई शास्त्र मुझे बनाना नहीं। लिखता तो कुछ हूं नहीं। समझे आप? लिखे पर तो मेरा भरोसा नहीं है। लिखे गए के तो खिलाफ कहता हूं। इसलिए मैं तो क्या लिखूं? वह शास्त्र बन जाएगा। कल आप मुझ ही को दिखाने लगे कि यह आपने कल लिखा था। मेरी आप बात समझे न? मैं, आपकी चुनौती थी, मैं तो चुनौती शब्द को भी अधार्मिक समझता हूं। क्योंकि ये, ये गंदे दिमाग के भाव हैं, चुनौती। तो मैंने तो कहा कि निमंत्रण स्वीकार है। हां, आपका निमंत्रण स्वीकार है। आप वहां आते हों, जिनको भी लाते हों, मजे से बोलें। उनको जो भी कहना हो वे कहें। न तो मुझे विवाद में रस है, और न मैं मानता हूं कि विवाद से धर्म का कोई संबंध है।

प्रश्नः आप कहते हैं यह शब्द अच्छा नहीं है...

न, न, न। मैं...न, न मैं जो, मैं जो कह रहा हूं...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आप, आप, आप...। मैं समझ गया आपकी बात। आप उनको लिवा लाएं जिन मित्रों को भी वहां बात करनी है, मंच पर लिवा लाएं।

प्रश्नः नहीं, बात नहीं, ये तो शास्त्रार्थ करना है।

मेरी तरफ से तो बात ही होगी, आपकी तरफ से शास्त्रार्थ रहे, हर्जा नहीं है। मेरी तरफ से तो बातचीत ही है।

प्रश्नः आपकी बातचीत यह है कि लोग भ्रम में रह जाते हैं, आपका नाम आचार्य है।

आप लोगों का भ्रम तोड़ने के लिए लिवा लाइए।

प्रश्नः मुझे टाइम, मुझे टाइम भी तो दीजिए न बात करने का।

कहिए।

प्रश्नः दो मिनट टाइम तो दीजिए।

हां, हां, कहिए, कहिए।

प्रश्नः हम तो एक बात पूछना चाहते हैं, आप वेदों को नहीं मानते...

मैं तो, मैं तो...फिर आप प्रश्न पूछते हैं न?

प्रश्नः मैं ज्यादा नहीं बोलूंगा, मैं पांच मिनट बोलूंगा। ज्यादा नहीं बोलूंगा।

अच्छी बात है। बोलिए, बोलिए, बोलिए, बोलिए।

प्रश्नः आप वेदों को नहीं मानते, आप शास्त्रों पर विश्वास नहीं रखते। नहीं अगर रखते आप उन पर विश्वास तो जनता को कम से कम जो भ्रम में बैठ जाती है कि ये शास्त्रों पर विश्वास रखते हैं, वह तो दूर हो, एक। दूसरा यह है, आप जो चीजें साफ कहते हैं कि लेख को नहीं मानते। आपका लेख हमने पढ़ा, जिसके अंदर लिखा है कि एक लड़का, एक लड़की साथ-साथ इकट्ठे रहें, और उसके बाद फिर वह शादी करें या न करें।

समझा मैं।

प्रश्नः तो यह लेख में नहीं था?

अब मेरी यह बात सुने। आप कह लें पूरी बात, आप पूरी बात कह लें।

प्रश्नः जब मालूम था, इतना आप प्रचार नहीं कर सकते?

...कह ली आपने पूरी बात। हां, मैं जो कहता हूं वह लिखा जाता है, मैं तो नहीं लिखता। तो लेख वह नहीं है, मेरा तो सब वक्तव्य है। मैं तो कुछ नहीं लिखता। मैंने अभी कुछ कहा, वह आप लिख कर ले जाएं तो लेख हो जाएगा। लेकिन मैं कुछ नहीं लिखता, वह मेरी तरफ से लेख नहीं है। मेरी तरफ से तो वक्तव्य है, एक बात। दूसरी बात, अगर आपको लगता है कि जनता में भ्रम फैल रहा है तो उसे तोड़ने की बराबर कोशिश करें। भ्रम नहीं फैलना चाहिए। उसको तोड़ने की कोशिश करें। उसको बराबर तोड़ें। और कोई वहां तोड़ सकता हो मंच पर आकर तो वहां बुला लाएं। वहां वह बात कहे। लेकिन मेरे लिए वह बातचीत है, शास्त्रार्थ नहीं है।
क्योंकि मैं यह समझता हूं कि यह तो बड़ी प्रेमपूर्ण बात होनी चाहिए। अगर, अगर जनता का भ्रम ही तोड़ना है तो यह भी बड़ी प्रेमपूर्ण बात होनी चाहिए कि मैं, जो मुझे ठीक लगता है, मैं कहूं आपको। गलत लगता है आप कहेंगेः यह ठीक नहीं है, गलत है। मुझे लगता है नहीं ठीक है, गलत है, तो मैं कहूं। इसमें न कोई विवाद है, न कोई शास्त्रार्थ है, न कोई झगड़ा है। यह तो बड़े मजे की बात है। बड़ी मित्रतापूर्ण हो सकती है। इसमें तो कोई ऐसा कारण नहीं है। तो मेरी तरफ से बातचीत है। मेरी तरफ से बातचीत है। आप लिवा लाइए।

प्रश्नः (ध्वनि-मुद्रण अस्पष्ट)

हां, बिलकुल ही, जो भी, जैसा आपको सुविधा लगे। हां, आपकी सुविधा से जमा लेंगे...।

प्रश्नः आचार्य जी, निवेदन यह है कि हमारे कानों के अंदर ये शब्द आए कि कुछ भ्रांतियां हैं, जो आचार्य जी के विषय में आप लोगों को है, ऐसा हमें कहा गया है। और उन भ्रांतियों को दूर करने के लिए, अगर आप वहां आकर कोई बात करना चाहते हैं तो आठ बजे आकर वहां कर सकते हैं। प्रार्थना यह है आचार्य जी, कि कौन सी भ्रांति है, जो भ्रांति है वह परस्पर की बात से पहले ही दूर हो जाए। एक बात मैं आपसे प्रश्न करूं, आप कह दें कि नहीं, आपने गलत समझाया तो भ्रांति यहीं समाप्त हो जाती है। हमने इसी बात को समाप्त करने के लिए एक पत्र आज प्रातः आपके पास भेजा। उसमें हमने पांच प्रश्न रखे थे, उन पांच बातों के संबंध में आपकी क्या मान्यता है? आपकी क्या स्थिति है? वह हमें पता लग जानी चाहिए। अगर तो हम आपके उत्तर से यह समझें, कि हमारा और आपका कोई मतभेद है ही नहीं, तो भ्रांति समाप्त हो गई। और अगर हम यह देखते हैं कि आपके और हमारे विचारों में कोई मतभेद है; आपकी मान्यता में, हमारी मान्यता में कोई मतभेद है तो फिर पता चल जाएगा कि इस विषय पर आपके सामने शंका समाधान करने के लिए हम लोग पहुंचें।

मैं समझा आपकी बात...।

प्रश्नः लेकिन जो पत्र हमने आपको लिखा उस पत्र के उत्तर में जो पत्र आपका आया, उसमें आपने उस पत्र के, न तो उसको अक्नाॅलेज किया, न उस पत्र के अंदर लिखी ‏हुई किसी बात का भी आपने उत्तर दिया।

 तो उसका कारण है, उसका कारण है। उसका कारण है कि मेरे साथ और आपके बीच जो कठिनाई है, और जो रहेगी देर तक, जल्दी जा नहीं सकती--उसका कारण है। उसका कारण है कि आपके खयाल में हां और न में उत्तर हो सकते हैं, मेरे खयाल में नहीं हो सकते हैं। जिंदगी में जितने महत्वपूर्ण सवाल हैं उनका हां और न में उत्तर नहीं होता। मेरी दृष्टि जो है।
तो इसलिए, इसलिए कठिनाई क्या है, आप जो लिख कर भेज देते हैं, तो आप तो पूछते हैं कि इसका हां या न में उत्तर दे दें। तो मेरे लिए जो कठिनाई हो जाती है, मेरे लिए जिंदगी में ऐसा कोई भी सवाल नहीं है जिसका हां और न में उत्तर हो सके। जितना महत्वपूर्ण सवाल है, उतना ही हां और न के बाहर होना शुरू हो जाता है। जो उत्तर होगा या तो उसमें हां और न दोनों होंगे, या दोनों नहीं होंगे। क्योंकि मैं जो अब जैसे अभी कह रहा था कि जिंदगी में सारे विरोधों का समागम है, इसलिए कठिनाई होती है।
क्यों आपके उत्तर नहीं दिए, पिछली दफा भी भेजे थे मुझे। पर वे आप उत्तर चाहते हैं हां और न में। आप चाहते हैं कि आप ईश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं करते? तो आप हां या न में जवाब दे दें। अब मेरे लिए तो यह इतना सैक्रेलीजियस है कि ईश्वर को हां और न में अगर कोई भी आदमी उत्तर देता है तो ईश्वर को दो कौड़ी का सिद्ध कर देता है। दो कौड़ी का। ईश्वर इतनी बड़ी बात है कि आपके हां और न में उत्तर नहीं हो सकता। इसलिए ईश्वर जैसी बड़ी बात पर आप ऐसे पूछते हैं जैसे बाजार में आप पूछते हैं कि इसका दो रुपये दाम है कि तीन रुपये, हां या न में जवाब दे दें। तो मैं उनका उत्तर नहीं दे सकता हूं।
नहीं दे सकता हूं इसलिए कि मुझे तो यह लगता है कि प्रश्न ही अधार्मिक है। ये धार्मिक चित्त से उठे हुए प्रश्न ही नहीं हैं। ईश्वर है या नहीं, इसमें धार्मिक आदमी एकदम चुप रह जाएगा। सिर्फ अधार्मिक बोलेगा। दो तरह के अधार्मिक लोग हैं, एक कहेगें कि हां है, एक कहेंगे कि नहीं हैं--ये दोनों अधार्मिक हैं। लेकिन धार्मिक आदमी एकदम चुप रह जाएगा।
अब उपनिषद कहते हैं कि अगर कोई कहे कि मैंने उसे जान लिया, तो जानना कि उसने नहीं जाना। अब उपनिषद के ऋषि से आप पूछोगे कि ईश्वर है? और अगर वह कहेः हां, तो वह गया। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मैंने जान लियाः वह है। अब उपनिषद के ऋषि के पास आप जाओगे, तो आप कठिनाई में पड़ोगे। क्योंकि वह हां और न में जवाब न देगा।
अभी एक फकीर हुआ बर्मा में, थूउन। उसके पास कुछ लोग गए। अभी मरा है एक दस साल पहले। और उससे उन्होंने पूछा कि ईश्वर के संबंध में कुछ कहो। तो वह चुप रह गया। उन्होंने फिर कहा कि हम बड़ी दूर से आए हैं कुछ कहो, तो वह फिर चुप रह गया। उन्होंने उसे हिलाया, उसने कहा कि हम पहाड़ चढ़ कर इतने परेशान हुए। तो उसने कहा कि मैं कह तो रहा हूं, लेकिन तुम सुनते नहीं हो।
और मजाक सुनिए आप। आप चुप बैठे हैं, हम पूछते हैं, कुछ कहते नहीं हो, और कहते हैं, कि कह रहा हूं। तो उसने कहा कि मैं यही कह रहा हूं कि चुप अगर हो जाओ, मौन अगर हो जाओ, तो उसका कुछ पता लगे।
अब मेरी कठिनाई है। आप मेरी कठिनाई शायद नहीं समझ पाते, आप तो पूछ लेते हैं हां और न में जवाब दें। मैं हां और न में जवाब नहीं दे सकता हूं। मेरे पास हां और न में जवाब है नहीं। तो इसलिए कठिनाई हो जाती है। अब दूसरी बात यह हो जाती है कि आप, आप जैसे पूछते हैं कि आप वेद के निंदक हैं या नहीं? न मैं प्रशंसक हूं, और न निंदक हूं। असल में मैं किसी किताब का प्रशंसक नहीं हूं, और निंदक भी नहीं हूं। क्योंकि मेरा मानना है कि निंदा भी इनवर्टिड प्रशंसा है। वह शीर्षासन करती हुई प्रशंसा है। मेरा कोई संबंध ही नहीं वेद से। आप पूछते हैंः आप निंदक हैं या प्रशंसक हैं। आप अजीब बात पूछते हैं!
एक स्त्री सड़क पर जा रही है। आप पूछते हैंः आप इसके प्रेमी हैं या दुश्मन? मैं कहता हूंः मेरा कोई संबंध ही नहीं है इससे। आप कहते हैंः हां और न में जवाब दे दें, आप इसके प्रेमी हैं या नहीं हैं? अगर मैं कहूं इसका प्रेमी हूं, मैं झंझट में पड़ता हूं; अगर मैं कहूं कि इसका प्रेमी नहीं हूं, तब भी मैं एक एटिट््यूट देता हूं। इससे मेरा कोई संबंध ही नहीं है, इररेलेवेंट है। अब आप जब मुझसे जो सवाल पूछते हैं, उनकी कठिनाई यह हो जाती है कि आप सोचते हैं कि हर आदमी की रेलेवेंस होनी चाहिए। मेरा वेद से कोई नाता ही नहीं है। मेरा कोई लेना-देना ही नहीं है। हमारा रास्ता कहीं कटता ही नहीं है। आप पूछते हैंः निंदक हैं कि प्रशंसक? न मैं प्रशंसक हूं, न मैं निंदक हूं। वेद वहां रहेें, मैं यहां रहा। हमारे बीच कोई लेन-देन नहीं है। और आप उत्तर चाहते हैं हां और न में।
अगर मैं यह कहूं--हां, मैं प्रशंसक हूं। तो आप कहेंगेः तो ठीक है, आ जाइए, आर्य-समाज में भर्ती हो जाइए। अगर मैं कहूं कि मैं निंदक हूं, अगर मैं कहूं कि मैं निंदक हूं तो आप कहेंगे, आइए विवाद कर लीजिए। मैं दोनों नहीं हूं। तो इसलिए कठिनाई है। तो इसलिए भ्रांतियां तो स्वाभाविक हैं। और मैं मानता हूं भ्रांति होना बुरी बात नहीं, बुद्धि का लक्षण है। सिर्फ बुद्धिहीनों में भ्रांति नहीं होती।
बुद्धि होगी थोड़ी तो भ्रान्ति होगी, चर्चा होगी। अच्छा है, बुरा भी नहीं है। लेकिन इसको तो अत्यंत प्रेमपूर्ण ढंग से लिया जा सकता है। इसमें कोई, इसमें कोई विरोध, और दुश्मनी, और वैमनस्य का कोई कारण नहीं है। न किसी को सही-गलत सिद्ध करने का कारण है। अच्छा तो यही है कि किन्हीं को भी आप, जिनको ठीक समझते हों वे आ जाएं। मैं बात करूंगा, वह उत्तर दे दें, उनको ठीक लगता हो। जो भी वे कहना हो--वे कहें; मुझे जो ठीक लगता है--मैं कहूं। लोग सुन लेंगे उनको, जो ठीक लगेगा वे समझ लेंगे। भ्रांतियां आप तोड़ सकेंगे, तो तोड़ देंगे। नहीं तोड़ सकेंगे, नहीं तोड़ेंगे। और बढ़नी होंगी, और बढ़ जाएंगी, और घटनी होगी और घट जाएंगी।
मुझे तो नहीं लगता कि आदमी के बस में भ्रांतियां तोड़ना और बढ़ाना है। इसलिए हम जो बन सकता है, करते हैं। उससे जो हो जाए, वह परमात्मा के हाथ में है। कर्म हमारे हाथ में और फल उसके हाथ में है। तो इसलिए आप उनको, जिन मित्रों को भी लाना हो, उनको लिवा लाइए। और...।

प्रश्नः पहली चीज तो यह है कि मेरी बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं करती कि किसी भी चीज का जवाब हां और न में नहीं दिया जा सकता।

नहीं तो आप यह स्वीकार न करें।

प्रश्नः आप बोले, मैंने तो उसमें कोई किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया, फिर अगर आप थोड़ा सा...


ठीक है, ठीक है। न, समझा मैं। नहीं ठीक है। न, न, बिलकुल आप कहें। आप बिलकुल कहें।


प्रश्नः पहली चीज तो यह है कि जहां तक स्थिति होती है चिन्तन की, उस समय मनुष्य कह सकता है कि मैं चिंतन की अवस्था में हूं। अभी मेरे मन के अंदर कन्फ्यूजन है, मैं हां या न में जवाब नहीं दे सकता। लेकिन कुछ स्थितियां ऐसी होती है जिनमें हां और न का जवाब तुरंत मिलता है। यह जितने मेरे भाई बैठे हैं, मुझे कहेंगे कि आचार्य मेरे सामने बैठे हैं या नहीं बैठे, मैं तत्काल कहूंगा कि हां बैठे हैं। कहेंगे। मेरे सामने वृक्ष है। मुझे कोई पूछे कि वृक्ष है या नहीं है, मैं तत्काल कहूंगा कि हां है।

ठीक है।

प्रश्नः नहीं नहीं, यानी कई ऐसे सवाल होते हैं, जिनके संबंध में तत्काल उत्तर दिया जा सकता है, हां में और न में।

बिलकुल, बिलकुल।

प्रश्नः ऐसी बात नहीं। अगर कोई व्यक्ति यह कहता है कि मैं अभी हां या न में उत्तर नहीं दे सकता, तो यह है कि उसके अभी चिंतन में कुछ अधूरापन है, या वह चिंतन की अवस्था में किसी परिणाम पर नहीं पहुंचा इसलिए कहता है कि मैं अभी हां या ना में उत्तर नहीं दे सकता।

समझा।

प्रश्नः दूसरी बात आपकी आचार्य जी यह है कि आपने कहा कि मैं हां और न में कभी उत्तर देता नहीं, लेकिन अभी आपने जो कुछ कहा उसमें दे भी दिया। आपने स्पष्ट कह दिया कि मैं तो वेद को मानता नहीं। वेद वहां है और मैं यहां हूं। आपने तत्काल उत्तर दे भी दिया। आपने तत्काल यह कह भी दिया कि वेद के साथ मेरा कोई सरोकार भी नहीं है। वेद वहां हैं और मैं यहां हूं। तत्काल आपने उत्तर दे भी दिया। और कहां आप कहते हैं कि मेरा हां और न में उत्तर हो ही नहीं सकता। तो मेरी कुछ बुद्धि के अंदर यह बात आती है कि आप विद्वान हैं। लेकिन विद्वान भी कई विषयों के अन्दर अभी भ्रांति में होते हैं, उनकी स्थिति यह नहीं होती कि वह हर बात के अंदर चिंतन की जो परम अवस्था है, वहां तक पहुंच कर निश्चित रूप से यह कह दें कि हां, मैं यह मानता हूं, यह नहीं मानता।

समझा।

प्रश्नः शायद ऐसी कोई संभावना है कि आपके चिंतन में भी अभी वह स्थिति नहीं आई कि आप इन प्रश्नों में से एक पर या दो पर किसी वस्तु के हां या न का उत्तर दे सकें।

समझा, मैं समझा आपकी बात।

प्रश्नः तो मैं यह कहता हूं कि कुछ ऐसी बातें हैं जो बेसिक बातें होती हैं। उन बेसिक बातों का पता चल जाए हमको तो उसके आधार पर आप समझा सकते हैं।

मैं समझा, सब मैं समझ गया आपकी बात। आपने दो-तीन बातें कहीं। एक तो यह कि आप सहमत हों मुझसे, ऐसी मेरी अपेक्षा नहीं। मैं जो कहता हूंः उसे स्वीकार करें, ऐसी अपेक्षा नहीं। वह किसी से भी नहीं, आपसे नहीं, किसी से भी मेरी अपेक्षा नहीं कि मुझे कोई स्वीकार करे, अस्वीकार करे। वह तो वही हुआ कि मैं फिर दूसरे से हां और न में उत्तर मांगने लगा। अपना निवेदन कर दे रहा हूं, आप क्या करते हैं वह आपकी मर्जी है।
दूसरी बात हां और न में उत्तर आप ठीक कहते हैंः वृक्ष सामने है या नहीं, हां और न में उत्तर हो जाएगा। बिलकुल हो जाएगा। अगर वृक्ष जैसी ही बात परमात्मा के संबंध में होती तो हां और न में उत्तर कभी का हो गया होता। वृक्ष के संबंध में आपने न सुना होगा कि कोई नास्तिक है, जो कहता है कि वह नहीं है। लेकिन परमात्मा के संबंध में मामला इतना छोटा नहीं है, जितना आप समझ रहे हैं और जितना छोटा उसको बना रहे हैं। मैं सामने हूं, यह तो ठीक है। इसलिए आपको अमृतसर में एक नास्तिक न मिलेगा कहने वाला जो कह दे कि सामने नहीं है। लेकिन परमात्मा के लिए मिल जाएगा। परमात्मा मुझसे बहुत बड़ी बात है। मैं बहुत छोटी चीज हूं।
तो पदार्थ के संबंध में उदाहरण परमात्मा के लिए देना बड़ी गहरी नास्तिकता से होता है। आस्तिकता से नहीं होता। यह तो आप बिलकुल ठीक कहते हैं। वृक्ष का मुझसे भी पूछिए तो मैं भी कह दूंगा। और मैं समझता हूं शायद ही विवाद खड़ा हो और चुनौती का पोस्टर लगाना पड़े। मैं भी कह दूंगा--है। लेकिन वृक्ष के संबंध में आप पूछ नहीं रहे। जिस संबंध मे आप पूछ रहे हैं, वह बहुत गहरा है। और गहरे के संबंध में यह जो आपका कहना है, यह बहुत ठीक है कि यह हो सकता है कि किसी में चिंतन कम हो, किसी का चिंतन बहुत कम हो, इसलिए हां और न में उत्तर न दे सके। यह हो सकता है। यह हो सकता है। लेकिन इतिहास कुछ और कहता है।
चिन्तन जितना कम होता है, उतने ही हां और न में उत्तर आसान होते हैं। जितना चिंतन कम होता है, हां और न में उतने ही उत्तर आसान होते हैं। चिंतन जितना गहरा होता है, हां और न की सीमाएं टूटने लगती हैं। और जिस दिन चिंतन पूर्ण गहराई पर होता है, उस दिन हां और न घुल-मिल कर एक हो जाते हैं। और इसलिए जितना चिंतन गहरा होगा उतना उत्तर मुश्किल हो जाता है, आसान नहीं। इसलिए जो परम ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं, उनको उत्तर देना सदा मुश्किल हो गया। वेद कहता है कि वह है भी या नहीं, यह भी कहना मुश्किल है। तो आपसे तो कमजोर, कमजोर रहा होगा।
...नहीं, नहीं बात कर लेंगे। पहले पूरी बात तो कर लूं।

प्रश्नः ...वेद में लिखा है कि वह है कि नहीं?

न, न, आप, आप, आप पूरी बात तो सुन लें।

प्रश्नः हां जी।

...आप पूरी बात तो सुन लें।
जितनी गहरी चेतना गई है कभी भी, उतना ही आदमी का जो आश्वस्त रूप है, वह डगमगा जाता हैै। क्योंकि जितना वह गहरा जाता है, उसके पैर के नीचे की जमीन निकल जाती है।
सागर के तट पर खड़े होकर निर्णय लेना बहुत आसान है, सागर में घूम कर निर्णय लेना बहुत मुश्किल है। सागर के तट पर खड़े होकर कह सकते हैं गहराई कितनी है। सागर में घूम कर जब गहराई का पता चलना शुरू होता है, तब पता चलता है कि कहने के बाहर है गहराई। तो जितना चिंतन गहरा होगा, उतना निर्णय मुश्किल है, ऐसी मेरी समझ है। वह आप मानें, ऐसा जरूरी नहीं है। दूसरी बात, सत्य का निर्णय चिंतन से कभी होता नहीं। सत्य का निर्णय तो चिंतन के अतीत जाने से होता है। सत्य का निर्णय विचार करने से होता नहीं। सत्य का निर्णय तो निर्विचार में डूबने से होता है।
लेकिन विवाद तो विचार का ही हो सकता है। चर्चा तो विचार की हो सकती है। इसलिए मैं मानता नहीं कि विवाद से, विचार से, प्रवचन से कभी कोई सत्य का निर्णय हुआ है, या कभी हो सकता है। वह प्रवचन से उपलब्ध हो सकता है, ऐसा कभी हुआ नहीं। नहीं तो हम सबको उपलब्ध हो गया होता। विचार हम सब करते हैं, प्रवचन हम सब सुनते हैं, शास्त्र हम सब पढ़ते हैं। तो उसकी अनुभूति विचार की अनुभूति ही नहीं है, वह तो निर्विचार मौन की अनुभूति है। तो उसका निर्णय विवाद से कैसे हो? इसलिए जब मुझसे कोई कहता है कि शास्त्रार्थ कर लें, विवाद कर लें, तब मुझे हैरानी लगती है कि यह मामला ऐसा है!
यह मामला ऐसा है कि जिसका निर्णय ही तर्क और विचार से होने वाला नहीं है। उसका निर्णय तर्क और विचार से करने चलें, वह होगा नहीं। हां, विवाद का मजा आ जाएगा। अहंकार की तृप्ति हो जाएगी। कोई जीत सकता है, कोई हार सकता है। लेकिन इससे सत्य का कोई लेना-देना नहीं है। अगर मैं और आप विवाद करें तो हो सकता है तर्क में आप मुझसे जीत जाएं, इससे भी तय नहीं होता कि सत्य निर्णित हुआ। हो सकता है कि मैं जीत जाऊं। उससे भी तय नहीं होता कि सत्य निर्णित हुआ। सत्य का कोई निर्णय दूसरे की अपेक्षा में है ही नहीं। सत्य का निर्णय एकदम स्वानुभूति का है।
 और यह जो मैंने आपसे कहा कि वेद। वेद के संबंध में न मैं प्रशंसा करता हूं, न मैं निंदा करता हूं। तो जब मैंने यह कहा कि वेद वहां रहा, मैं यहां रहा--तो इसमें मैं कोई, कोई वेद के संबंध में कोई भी वक्तव्य नहीं दे रहा हूं। सिर्फ इतना ही कह रहा हूं, वेद का अपना होना है, मेरा अपना होना है, आपका अपना होना है। इस संबंध में मैं कोई निर्णय ही नहीं ले रहा हूं कि कोई निर्णय लूं। क्योंकि निर्णय हम उस संबंध में लें जिससे हमें लगता हो कि सत्य का मार्ग मिलेगा। मेरी दृष्टि में शास्त्र से सत्य का कोई मार्ग नहीं जाता। इसलिए शास्त्र के संबंध में कोई निर्णय मैं नहीं लेता।
यानी मैं मानता हूं शास्त्र जो है, वह सत्य के मार्ग से उतर कर है। उसका सत्य से कोई., सत्य के मार्ग से कोई वास्ता नहीं है। किसी शास्त्र का, वेद का सवाल नहीं है--कुरान, बाइबिल का सवाल नहीं है। किसी शास्त्र का, मेरी बोली हुई जो किताब है वह भी सत्य नहीं दे सकती। कोई किताब सत्य नहीं दे सकती। अब इसलिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। मुश्किल यह हो जाती है, कि जब कोई किताब सत्य नहीं दे सकती, तो मैं निंदा नहीं कर रहा हूं किसी किताब की। किसी विशेष किताब से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं किताब मात्र के लिए मेरी अपनी दृष्टि आपकोे सृजन कर रहा हूं कि किताब सत्य की अभिव्यक्ति है, अनुभूति का स्रोत नहीं। अब ये सारी जो बाते हैं, ये सारी बातें किसी को भी करने की उत्सुकता हो तो वह करने को तैयार है। और कोई सोचता हो कि पहले मेरे बाबत पक्का निर्णय कर लें कि मेरा क्या-क्या मानना है, और तब विवाद हो सके तो, तो मुश्किल मामला है।
मुश्किल इसलिए मामला है, मुश्किल इसलिए मामला है कि तब तो उसेे चार-छह महीने मेरे पास रहना पड़े, तो फिर वह समझे मेरी बात को। धीरे-धीरे मुझे देखे, समझे और उसको फिर कुछ खयाल में आ जाए। क्योंकि मैं तो कोई डेफिनिट स्टेटमेंट देता नहीं। उसको कुछ समझ में आ जाए वह उसको डेफिनिट स्टेटमेंट मान ले, तो मान ले, तो कुछ...।
तो, चूंकि इसलिए आप जब मुझे लिख कर भेज देते हैं, तो मेरी जो कठिनाई हो जाती है वह यह हो जाती है कि उसको मैं कैसे हस्ताक्षर करके, हस्ताक्षर खाली कागज पर करके दे सकता हूं। क्योंकि खाली कागज में मेरा वक्तव्य आ जाता है। क्योंकि मैं मानता हूं ऐसे खाली कागज जैसे किसी दिन हो जाएं, तो मिल सकता है परमात्मा। तो खाली कागज पर जब भी दस्तखत चाहिए हों मुझसे, आप ले लें। सिद्धांत पर मैं दस्तखत नहीं करता, क्योंकि मैं मानता हूं किसी सिद्धांत से परमात्मा के लेने-देने का कोई संबंध नहीं है।

प्रश्नः परमात्मा के मुतल्लक ही आप बात करते हैं, उसके अलावा भी बात करते हैं?

मैं उसके अलावा कोई बात नहीं करता। उसके अलावा कोई बात नहीं करता।

प्रश्नः आप परमात्मा के अलावा भी बातें करते हैं, आपका लेख वह आपका बोला हुआ हो, छपाया है, आपकी मर्जी से... उसके अंदर यह लिखा है कि एक आदमी, एक लड़का एक लड़की को लेकर एक साल तक उसके साथ रह जावे या, या इसे प्यार समझ लो, करता रहे, उसके बाद वह शादी करे या न करे। ये चीजों को अगर आप उपदेश कहते हैं, बहुत दूर का उपदेश तो नहीं है, यह कोई बहुत दूर का उपदेश नहीं है। इस देश का है, इसका तो विचार हो सकता है। आप भले लिख कर न कहें, वाणी से कहें इन बातों पर। यह बात गलत है, समाज के लिए गलत है। यह कोई ईश्वर की बात तो नहीं है। आपने कहा कि मैं ईश्वर की बात करता हूं?

मैं तो ईश्वर के सिवाय...न, आप प्रश्न उठा देते हैं न। हां।

प्रश्नः देखिए इसके अलावा आप खाली ईश्वर की बात कोे जाते हैं। आप कहते हैं कि मैं किसी और चीज के आधार पर नहीं जाता। दुनिया के अंदर ऐसा कोई नहीं है, जो किसी का आधार न हो, हर चीज के सच और झूठ को देखने के लिए कोई आधार होता है। हर चीज के लिए। उसका अगर आधार नहीं तो आप कुछ कहेंगे, कल एक आदमी और कहेगा, मैं कुछ कहता हूं कि शायद...संसार को चलाने के लिए खाली बातों से नहीं बात चल सकती, कोई न कोई शास्त्र या कोई आधार मुकर्रर करना पड़ता है। आज नहीं करोड़ों वर्ष पहले से ही मुकर्रर करना पड़ता था। वे लोग भी तो मानते थे कि यह बात शास्त्र की है या नहीं है। इसके लिए कोई चीज को आधार तो मान कर आप चलते हैं। आपका आधार क्या है? मैं नहीं कहता आप वेद को मानें, मैं नहीं कहता आप बाइबिल को मानें, मैं नहीं कहता आप कुरान को मानें। मगर आपका कोई आधार है? ईश्वर है, इसके लिए भी आप कहते हैं कि ईश्वर है। अभी आपसे कोई प्रश्न करेगा, आप कह सकेंगे कि ईश्वर है या नहीं। यदि मैं जवाब नहीं दूंगा तोे फिर आपको निश्चय ही नहीं है, तो फिर लोगों को क्या कहोगे? इसके लिए ईश्वर है, हां या न में जवाब देना ही पड़ेगा आपको।

समझा।

प्रश्नः अगर ईश्वर नहीं है, तो आप इसके लिए इतने लोगों को भ्रम में क्यों डालेंगे? ईश्वर है या नहीं, इसके लिए एक उत्तर तो बन गया। इसके लिए ईश्वर के मुतल्लक भी, है या नहीं, यह कहना ही पड़ेगा। इसलिए आप बताइए कि इस तरह हम लोगों का भ्रम तो और बढ़ जाएगा।

समझा मैं। अब इसमें दो-तीन बातें है, समझनी चाहिए। पहली बात तो यह कि मैं तो ईश्वर के अतिरिक्त और किसी की बात नहीं करता हूं। क्योंकि मेरे लिए ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। तो मेरे लिए तो विवाह की समस्या भी ईश्वर की ही समस्या है। और मेरे लिए तलाक की समस्या भी ईश्वर की ही समस्या है। क्योंकि मेरे लिए ईश्वर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। तो मेरे लिए राम की समस्या भी और रावण की समस्या भी, ईश्वर की समस्याएं हैं।
तो अगर मैं कभी यह कहता हूं कि विवाह के लिए मेरा कोई वक्तव्य है तो मेरे लिए तो वह धर्म की ही समस्या है। क्योंकि मेरे लिए सारी समस्याएं ही धर्म की हैं, एक। दूसरी बात, कि यह जो आप कहते हैं कि कोई आधार चाहिए। कोई आधार चाहिए, तो मेरी दृष्टि में, मेरी समझ में, अपनी समझ के अतिरिक्त और कोई आधार न है, न हो सकता है। क्यों?
क्योंकि अगर मैं यह भी निर्णय करूं कि वेद मेरा आधार है, तो भी यह मेरी समझ का निर्णय है। अल्टीमेटली मेरी समझ ही निर्णायक है। वेद नहीं। अगर मैं कहूं कि कुरान आधार है, तो भी मेरी समझ का निर्णय है। और कल मैैं इसको बदलूं तो दुनिया में मुझे कोई रोकने वाला नहीं है। कल मैं कह दूंः कुरान आधार नहीं है, तो भी मेरी समझ का निर्णय है। जब मेरी ही समझ से निर्णय लेना है कि वेद आधार है या नहीं तो फिर मेरी ही समझ आखिरी आधार बन जाती है। फिर और कोई आधार नहीं है।
तो मेरी दृष्टि में अपनी समझ ही आधार है। और जो यह आप कहते हैं कि सबकी समझ अलग-अलग हो जाएगी। है ही, हो नहीं जाएगी। सबकी समझ अलग-अलग है ही। और जो आप यह कहते हैं कि समाज कैसे चलेगा? समाज कैसे चलेगा? सबकी समझ अलग-अलग हो जाएगी। सबकी समझ अलग-अलग है ही। और समाज के चलने का जुम्मा न तो मुझ पर है, और न आप पर है। और जिस पर है उसने सबको अलग-अलग समझ दी हुई है। और उसने, अगर उस, अगर वह भी हम जैसा समझदार होता तो हम सबको एक सी समझ दे देता तो झंझटें बिलकुल आसान हो जाती हैं, झंझट बिलकुल न होती। हम सबको व्यक्तिगत सूझ-बूझ दी गई है, और हम सबकी व्यक्तिगत सूझ-बूझ ही हमारा मूल आधार है।
इसलिए मेरे लिए न तो कोई शास्त्र, न कोई सिद्धांत आधार है, मेरे लिए मेरी समझ आधार है। और, और जब मेरी... मैं कहता हूं मेरी समझ मेरे लिए आधार है तो मैं यह नहीं कहता कि मेरी समझ को आप अपना आधार बनाएं। आपकी समझ आपके लिए आधार होगी। और अगर आप मेरे संबंध में भी कोई निर्णय लेंगेः अच्छा या बुरा, पक्ष में या विपक्ष में, तो वह आपकी समझ का निर्णय होगा। उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं ।
रह गई बात यह कि लोग भ्रमित हो रहे हैं। यह आपकी समझ का खयाल है। यह मेरी समझ का खयाल नहीं है। मुझे लगता है कि जिससे उन्हें लाभ हो सके, वह मैं कर रहा हूं। आपको लगता है कि उससे हानि हो रही है, आप लोगों को समझाएं कि इससे हानि हो रही है। और लोग आपके लिए भी उपलब्ध हैं, मुझे भी उपलब्ध हैं। आप दोनों बातें समझा दें। फिर उनको जो ठीक लगे, वे समझ लें। फिर भी उनकी ही समझ अंत में आधार बनेगी। मेरे हिसाब में तो जिन कारणों से लोग भ्रमित हो रहे हैं, उनको मैं तोड़ने की कोशिश करता हूं। आपको लगता है मेरे कारण भ्रमित हो रहे हैं, आप मेरी बातों को तोड़ने की कोशिश करें। इसमें कोई भी झगड़ा नहीं है। इसमें कहीं भी कोई झगड़ा नहीं है। हम दोनों का काम एक ही है।
मैं भी यही चाहता हूं कि लोग, लोग भ्रमित न हों, आप भी यही चाहते हैं कि लोग भ्रमित न हों। जिस वजह से मुझे लगता है, वे भ्रमित हो रहे हैं, मैं उसकी खिलाफत करूंगा। आपको लगता है मेरी वजह से हो रहे हैं, आप मेरा विरोध करेंगे। लेकिन इसमें कोई शत्रुता नहीं है। काम हम दोनों का एक ही है। हम एक ही रास्ते पर काम कर रहे हैं। इसमें कुछ विरोध जैसी बात नहीं है। तो इसको बहुत मजे से लें, इसको गंभीरता से न लें। इसको बहुत मजे से लें। और जिन-जिन सवालों को आपको उठाना है, उन-उन सवालों को उठा लें, उन-उन सवालों को उठा लें। और उन सवालों पर लोगों को सुनने दें। और लोगों को सोचने दें, लोग क्या सोचते हैं?

प्रश्नः ओशो, एक प्रश्न मैं आपसे पूछना चाहता हूं?

हां कहिए।

प्रश्नः वह यह है कि आप कहते हैं कि मेरी मान्यता मेरा अपना विचार है। तो मैं आपसे यह प्रार्थना करना चाहता हूं कि देखिए आदमी अधूरा है...

है ही।

प्रश्नः ...तो मैं, मेरी आंखें काम न करती हों,

हां, हां।

प्रश्नः मेरे कान काम न करते, आकाश न होता...

ठीक है। एकदम ठीक है।

प्रश्नः मेरे पैर काम न करते हों, और टैक्सी न होती।

ठीक है।

प्रश्नः तो क्योंकि हम अधूरे हैं तो मैं आपसे यह प्रार्थना करना चाहता हूं कि कुरान और बाइबिल की बात तो छोड़ दें, वह बाद में आएगी।... लेकिन जिस तरह आंख के लिए भगवान ने सूरज बनाया, कान के लिए परमात्मा ने आकाश बनाया, मेरी जिह्वा के लिए रस बनाया, और इस तरह एक-एक इंद्री के लिए एक-एक चीज बनाई भगवान ने। इस तरह मेरे मन के लिए भी, उसे लाइट देने के लिए, जैसे निदान हर चीज का होता है, तो वेद शुरू में आए। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि जब आप कुरान और बाइबिल को वेद के साथ मिलाते हैं तो पीड़ा होती है। क्योंकि वेद तो आदि के हैं। सारी दुनिया मानती है कि वेद आदि का ग्रंथ है। तो भगवान ने जो विधान बनाया, शुरू के आदमियों का नाम था बीच के नहीं। क्योंकि वह अधूरा नहीं है, वह अपूर्ण नहीं है इन ज्ञान की तरह, जो अनुभव से कोई सीखता है।

समझा।

प्रश्नः तो वह सब चीजें पहले का सीखा हुआ है। तो मेरे कहने का भाव यह है एक तो बाहर से क्योंकि इनसान अधूरा है...

समझा।

प्रश्नः ...इसलिए हम आप पर विश्वास नहीं कर सकते...

समझा।

प्रश्नः ...हम कहते हैं कि यदि आप भी हमें किसी जंगल में न भेज दें...।

ठीक है।

प्रश्नः और दूसरी बात यह है कि मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी, संभोग से...।

एक बात इसकी करूं, फिर दूसरी करें तो अच्छा है।

यही मैं कह रहा हूं कि इंसान अधूरा है। बिलकुल ठीक कहते हैं। इसलिए इंसान का कोई भी निर्णय पूरा नहीं हो सकता। और आपका यह निर्णय कि वेद भगवान का बनाया हुआ पूरा नहीं हो सकता, यह निर्णय आपका है। यह निर्णय आपका है न। निर्णय तो हम लेंगे। चूंकि जो भी निर्णय हम लेंगे, वह अधूरे होने वाले हैं। मैं तो, आप तो मेरी बात कह रहे हैं और अपने खिलाफ कह रहे हैं। मैं यही तो कह रहा हूं कि हमारे सब निर्णय अधूरे हैं, इसलिए हमारा कोई भी निर्णय अंधा होकर मानने योग्य नहीं है। हमारे सब निर्णय सोचने योग्य हैं। आप कहिए कि ये वेद भगवान का बनाया हुआ है, यह सोचने योग्य है। आपका वक्तव्य है यह।
और आप एक मनुष्य हैं, जैसा मैं एक मनुष्य हूं।

प्रश्नः दूसरा सवाल है एक...

...उनकी मैं पूरी बात उनसे कर लूं। उनका सवाल...आप अपना सवाल अलग करेंगे तो अच्छा होगा।
हम ही चूंकि निर्णायक हैं इस बात के भी, कि वेद भगवान का बनाया हुआ है या नहीं। क्योंकि मैं यह निर्णय ले सकता हूं कि नहीं है। यह आप बात समझे न? या मैं निर्णय ले सकता हूं--है। इस बात पर भी, चूंकि किसी भी सत्य पर निर्णय अंतिम हमारा होने को है, तो इसलिए अंततः अधूरा आदमी ही निर्णय लेगा। और अधूरे आदमी के सभी निर्णय अधूरे हैं। यह नहीं कहता कि मेरी बात पूरी है। यह नहीं कहता मैं। मेरी बात उतनी ही अधूरी है, जैसी कोई भी अधूरी बात होगी। और इसलिए सोचने के योग्य है, मानने-वानने के योग्य नहीं है कि मेरी बात आप मान लें। सोचने के योग्य है। सब बातें सोचने के योग्य हैं।
और जब आप यह कहते हैं कि आपको चोट लगती है कि मैं वेद के साथ कुरान और बाइबिल को कह देता हूं। वह बाइबिल वाला मेरे पास आता है। वह कहता हैः उसको भी चोट लगती है कि आप बाइबिल के साथ वेद का नाम ले देते हैं। वह भी मुझसे यह कहने वाला आदमी मिल जाता है मुझे। कुरान वाले को भी चोट लगती है। सो चोट के मामले में आप तीनों में कोई भेद नहीं है। चोट के मामले में कोई भेद नहीं है। चोट उनको भी लगती है कि कहां आप वेद का नाम ले रहे हैं, कुरान के साथ। तो चोट की तो बात मत करिए। अगर चोट की बात करते हैं, चोट तो लगेगी ही।
असल में कोई भी बात जो आपसे थोड़ी भिन्न होगी, उसमें चोट लगेगी ही। लेकिन विचारशील आदमी का लक्षण ही यह है कि उस चोट को समझने की कोशिश करे। उस चोट को अगर हम दुश्मनी बना लें, और गाली-गलौच बना लें, तब तो मजा चला जाता है। कुछ चोट तो लगेगी। आप जब मुझसे कुछ मेरे खिलाफ कहेंगे, तो चोट लगेगी, चोट लगनी चाहिए। चोट हमारे जिंदा होने का लक्षण है। फिर उस चोट को समझने की कोशिश करनी चाहिए कि कहां तक उस चोट का क्या उपयोग हो सकता है। और कहां तक हम सोच-विचार सकते हैं।
मेरा अपना जो निजी मामला है, वह इतना ही है कि मैं आपको अगर सोच-विचार में डाल दूं, तो मेरा काम पूरा हो जाता है। इसलिए आप मेरे काम में पड़े हुए हैं। आप इस खयाल में मत रहना कि आप मेरे काम में नहीं पड़े हुए। आप मेरे काम में पड़े हुए हैं। मेरा काम ही इतना है कि मैं आपको सोच-विचार में डाल दूं। और सोच-विचार में आप पड़ जाएं तो मेरा काम पूरा हो गया। क्या आप निर्णय लेंगे वह आपका होने वाला है?

प्रश्नः मैं आपसे प्रार्थना करना चाहता हूं कि आप तो ऐसी बातें न करें जैसी हमारी सरकार करती है, कि सबको खुश करना। और जो आदमी सबको खुश करता है, किसी को खुश नहीं कर पाता।

नहीं, अगर मैं सबको खुश करने वाला होता तो आप यहां आए न होते। तो आप यहां न आए होते। आपको मैं कभी का खुश कर लिया होता। वह तो आप बात ही मत सोचिए। न वह तो आप कहिए ही मत।

प्रश्नः मैं आपसे यह प्रार्थना कर रहा हूं कि एक गुरु ये कहते हैं कि भगवान ने जब आंख दी, सूरज दिया; भगवान ने जब कान दिए, आकाश दिया, तो जब आप यह कहते हैं कि कुरान है तो हातिम है, तो आपको युुक्तिपूर्वक कहता हूं कि...

समझ गया। कहिए, कहिए।

प्रश्नः ...कुरान आया बाद में, चैदह सौ साल हुए मुसलमानों को बने...

हां, हां।

प्रश्नः ...और आंख बनी सृष्टि के आदि में...

समझ गया।

प्रश्नः ...और कोई ऐसा विधान बनना चाहिए कि सृष्टि के आदि में हो,

मैं समझ गया। मैं समझ गया।

प्रश्नः ...न तो बीच में आए। जब आप बीच में आए तो इसका मतलब है कि पीछे-पीछे पहले जो नालायक था...

समझ गया, समझ गया।

प्रश्नः ...बाद में उसको अक्ल आई और उसमें कुछ इंप्रूवमेंट...

आप...आप ठीक युक्ति देते हैं।

प्रश्नः मैं आपसे यह प्रार्थना करना चाहता हूं क्योंकि वह इंप्रूवमेंट के बाहर है...

मैं समझ गया।

प्रश्नः...वह सब इंप्रूवमेंटों का बाप है।

ठीक है।

प्रश्नः ...इसलिए उसने जो बात शुरू में की वह पूरी थी...

मैं समझ गया।

प्रश्नः ...तोे शुरू में वेद आया...

मैं समझ गया।

प्रश्नः...जब आप वेद को और कुरान के साथ, और बाइबिल के साथ करवाते हैं तब मुझे वही बात...

मैं समझ गया। मैं आपकी बात...

प्रश्नः ...आती है जो हमारी सरकार करती है।

मैं आपकी बात समझा। जैसे आप युक्ति देते हैं न, युक्ति के साथ एक बड़ा मजा है। सदा उसकी विरोधी युुक्ति उतने ही वजन की होती है। उसमें वजन कम नहीं होता। आप जैसे युक्ति देते हैं कि वेद पहले आया, और भगवान को जो ठीक बात देनी थी, वह पहले दे देनी थी। सेक्स लड़के में चैदह वर्ष में आता है, पहले नहीं आता। सेक्स चैदह वर्ष में...आंख तो पहले आ जाती है लेकिन सेक्स चैदह वर्ष में आता है, पहले नहीं आता। कुरान और बाइबिल वाला कहता है कि जब लड़का प्रौढ़ हो जाता है, तब सेक्स आता है। बच्चे को देने योग्य नहीं है। तो ज्ञान प्रौढ़ को दिया जाता है। और जब दुनिया प्रौढ़ हो गई...यह मैं अपनी बात नहीं कह रहा। जब दुनिया प्रौढ़ हो गई और इस योग्य बुद्धि हुई लोगों की कि उनको ज्ञान दिया जा सके, तब कुरान और बाइबिल दिए गए। अब क्या करिएगा?
आपकी दलील, उनकी दलील में कोई फर्क नहीं है। आपकी दलील और उनकी दलील में कोई फर्क नहीं है। ज्ञान बच्चे को दिया जाए या जवान को दिया जाए या बूढ़े को दिया जाए। और आप भी मानेंगे कि छोटे बच्चे की बजाए बूढ़े की बात ज्यादा काम की है--क्यों? बच्चा तो पहले आया। उसको ज्ञान पहले ही दे देना था, तब बूढ़े को क्यों?
बूढ़े को आप बच्चे से ज्यादा ज्ञानी समझ रहे हैं। क्योंकि वह बाद के अनुभव के जगत से आया। वह कुरान और बाइबिल वाला यह कहता है, जैसा आप कहते हैं। और दोनों बचकानी बातें हैं, मेरे लिए दोनों युक्तियां नहीं हैं। न आपकी युक्ति, न उसकी युक्ति। मेरे लिए दोनों बचकानी बातें हैं। वे दोनों बचकानी इसलिए हैं कि वह भी यही कहता है कि जब मनुष्य इस योग्य हुआ, आंख तो बहुत पहले दे दी क्योंकि वह अयोग्य को भी दी जा सकती है। लेकिन ज्ञान अपात्र को नहीं दिया जा सकता है।
वह तब दिया जब आदमी पात्र हुआ। जब इस योग्य हुआ कि आदमी अब ज्ञान को झेल सकेगा, तब उसको दिया। वह मैच्योर हुआ, तब उसको दिया गया। अब इन दलीलों में क्या मतलब है? अब इन दलीलों से क्या हल है? यानी यह मेरे लिए तो अर्थ की ही नहीं हैं ये दलीलें। इसलिए दलील में तो पड़ें मत, क्योंकि दलील तो बहुत बचकाना खेल है। उसमें कुछ मतलब नहीं है।

प्रश्नः अरबों साल से है, यह अब चैदह सौ साल से है। यह जो आप अधूरा समझाते हैं?

क्या?

प्रश्नः आप अपने इतिहास को उठा कर देखें, तो असंख्य सालों से आपका इतिहास है। यह अभी चैदह सौ साल से है, वह करोड़ों-करोड़ों, कई दफा हो चुके हैं।

हां, हां।

प्रश्नः यह दलील तो टिकती नहीं है आपकी।

यह, यह ठीक कहते हैं।

प्रश्नः यह जो दलील आपने अभी दी है...

यह जो आप लोगों का है न...।

प्रश्नः नहीं, नहीं, नहीं मैं ये पूछता हूं?

हां, कहिए।

प्रश्नः अगर चैदह सौ साल की दलील को आप प्रौढ़पन देंगे, तो यह हमारे शास्त्र तो लगभग अभी कलियुग को हुए चार लाख बत्तीस हजार वर्ष...।

आपके शास्त्र के मुताबिक न? आपके शास्त्र को कोई माने तब न।

प्रश्नः हमारे शास्त्र के साथ प्रमाण है?

हां, हां।

प्रश्नः उसके लिए, अभी इसके लिए पूरी जांच-पड़ताल हुई। मैं प्रमाण देता हूं कि हमारी चीजें प्रामाणिक हैं...

हां, हां।

प्रश्नः...और उनकी प्रामाणिक नहीं हैं। मगर यहां पर आप कोई मुसलमानों की तरफ से कोई नुमाइंदा तो हैं नहीं कोई, मैं आपको प्रमाण दूं।

नहीं, नहीं मुझे...

प्रश्नः बात सुन लीजिए...आप उनकी तरफ से नुमाइंदा तो नहीं हैं।

नहीं।

प्रश्नः यहां तो सब जनों का विचार हो रहा है

हां, हां।

प्रश्नः सब जनों के विचार के अंदर जो प्रौढ़ की बात आपकी है, यह बिलकुल नहीं बनती, क्यों? क्योंकि ये कई दफा प्रौढ़ हो चुके हैं। कई दफा युग बदल चुके हैं। कई दफा यह हो चुका है। इसलिए प्रौढ़ होने की यह दलील आपकी यह सिर्फ एक बात है कि चतुरता से किसी को...

न, न, न।

प्रश्नः आप बात तो कीजिए जिसके लिए हम आए हैं...

मैं, मैं समझ...मेरे लिए तो...।

प्रश्नः आप अगर हमसे शास्त्रार्थ नहीं करना चाहते, हम मुंह जबानी शास्त्रार्थ कर लेंगे।

न, न, न, आप नहीं समझे। आप नहीं समझे।

प्रश्नः तो मुंह जबानी का मतलब लिख कर दें।

न, न। मैं समझ गया।

प्रश्नः दलील से नहीं करते हैं?

मैं...मैं समझ गया आपकी...

प्रश्नः आप अगर यह बात कहें कि चार उनके चेले आप बैठा कर करें...

न,न,न...।

प्रश्नः यह कोई दलील नहीं है।

न,न,न...।

प्रश्नः आप अगर लिख कर दें तो अच्छा है।

न...।

प्रश्नः नहीं लिख कर करते तो जबानी...।

न,न, उनसे तो करिए ही मत।

प्रश्नः यह आप क्यों कहते हैं कि जबानी शास्त्र नहीं होता?

न, आप तो बात करिए मत। आप आपस में मत करिए।

प्रश्नः दलील जो होता है, वह लिख करके होता है...

समझ गया।

प्रश्नः ...हम तो चाहते हैं कि लिख कर हो तो ज्यादा अच्छा है। बोलना कम पड़े, वह लिखा जाए पहले, पीछे उसके बाद बोला जाए।

न-न, आप तो बड़ा अच्छा चाहते हैं।

प्रश्नः हम इधर से, एक-दो पंडित इधर से बोलते हैं, वे पहले लिख करके बोल दें। आप लिख करके बोल दें उसके बाद जनता उसे सुन ले। यह ठीक है।

मैं तो कुछ लिखता नहीं। मैं तो कुछ लिखता नहीं।

प्रश्नः खाली बोलते हैं?

हां, खाली बोल दूंगा, आप बोल कर मजे से बात करें। जो भी बात करनी है, मजे से करिए।

प्रश्नः आप बोलते हैं न, आप हमारे साथ स्थान, समय पंडित हम अपना नियुक्त करेंगे।

हां, हां, हां, बिलकुल...आप बिलकुुल नियुक्त...।

प्रश्नः हम लोग सदा आपसे शास्त्रार्थ कर सकते हैं।

न, न, न, किसी भी दिन आइए।

प्रश्नः आपके साथ शास्त्रार्थ करने में हमें गौरव होगा। इसके लिए समय, कितने-कितने मिनट तक बोलने का टाइम होगा।

हां, बिलकुल जैसा आप कहें, बिलकुल।

प्रश्नः स्थान...

हां, हां।

प्रश्नः समय, पंडित वह सब नियुक्त कीजिए।

बिलकुल करिए न।

प्रश्नः और उस पर बोल-बोल कर...

न, न, बड़े मजे से, बड़े मजे से।

प्रश्नः ...आप अपने विषय, किस विषय पर आप शास्त्रार्थ करेंगे, सारी चीज। क्योंकि हां के, न के अंदर आप सवाल-जवाब देते नहीं।

नहीं देते।

प्रश्नः अभी वह है या नहीं, यह भी आप जवाब नहीं देते।

वह भी चर्चा करेंगे।

प्रश्नः नहीं चर्चा की बात नहीं है।

वह भी चर्चा करेंगे।

प्रश्नः आपने.....

मेरे लिए तो चर्चा की ही बात है।

प्रश्नः आपकी दृष्टि में ईश्वर है या नहीं, यह भी पता नहीं। क्योंकि हां-न में तो जवाब कोई।

मेरे लिए तो, मेरे लिए क्या है? मेरे लिए क्या है? वह उसके लिए ही चर्चा करेंगे। आप किसी को भी लिवा लाइए।

प्रश्न: आप निश्चित कहिए आपके लिए क्या है? ये हम चर्चा करने के लिए बैठे हैं।

आप जो निश्चित करने की बातें करते हैं न, वही तो मेरा विरोध है। मेरा कहना ही यह है, मेरा कहना ही यह है कि निश्चित सिर्फ तुच्छ बातें होती हैं। जितनी विराट चीज है, उतनी अनिश्चित! जितनी असीम है, उतनी अनिश्चित है! जितनी महान है, उतनी अनिश्चित है!

प्रश्नः आप मांग रखिए, हम मांग मंजूर करेंगे।

हां। तो...

प्रश्नः जो मांग चाहिए ...

हां, हां।

प्रश्नः वह लिखिए...

हां, हां।

प्रश्नः हम लिख लेते हैं, आप बोलते रहिए। उस पर ही बातचीत होगी।

आपको जो करना होः लिखिए, जो करना हो करिए। मुझे उसमें कोई तकलीफ नहीं है।

प्रश्नः हम जो कहेंगे, वह कहेंगे आप छोटी है। छोटी बात आप करना नहीं चाहते। आप बड़ी कीजिए।

हां। नहीं मैं...आप बिलकुल लिवा लाइए। जिनको लाना है सांझ की मीटिंग में लिवा लाइए बस।

प्रश्नः यह बात नहीं। आप अभी निश्चित करेंगे कि इन-इन विषयों पर बातचीत होगी।

मुझे तो खुद ही पता नहीं, कि सांझ मैं क्या बोलूंगा। आप तो समझते नहीं। आपकी तकलीफ यह है, आपकी तकलीफ, आप मुझे नहीं समझ पा रहे हैं। आपकी तकलीफ यह है कि मैं कोई पंडित नहीं हूं।

प्रश्नः वे कहते हैं हमें ही पता नहीं कि हम क्या बोलेंगे!

...मैं पंडित नहीं हूं कि कोई जो पहले से तय करके बोलने आता है। मैं तो बैठ जाऊंगा। जो निकलेगा वह बोलूंगा। मैं कोई पंडित नहीं हूं जो इधर से तय करके जाता हूं कि यह भाषण करना है। तो मैं तो जो निकलेगा, वह बोलूंगा। उसमें...

प्रश्नः यह बात पहले निश्चित नहीं करते, यह बात नहीं होती। निश्चित तो होता है कोई एक सिद्धांत को आज...।

अब आप अपनी तरफ से कह रहे हैं न।

प्रश्न: कल आप दूसरी जगह और कुछ कह सकते हैं।

बिलकुल कहूंगा।

प्रश्नः क्योंकि आपका कोई सिद्धांत ही नहीं है?

उसमें कोई अड़चन नहीं है मुझे।

प्रश्नः तो फिर समझने वाले क्या समझेंगे?

समझने वाले समझने की कोशिश करेंगे, इस आदमी के पास कोई निश्चित सिद्धांत नहीं है, और क्या समझेंगे?

प्रश्नः क्या समझेंगे? आप उलझा रहे हैं।

बहुत अच्छा। इतना भी काम हो जाए तो काफी है।

प्रश्नः हमने एक बात रखी, उसी बात पर कहिए। हमने एक बात रखी कि आपने यह लिखा...

हां।

प्रश्नः ...कि एक साल तक एक लड़का, एक लड़की...?

हां-हां, बिलकुल इस पर बात करेंगे। आपको जिस पर बात आपको उठानी है, वह उठाइए।

प्रश्नः हम वे सारी बातें, उसके लिए समय निश्चित करके, आप यह कीजिए, सारी बातें उसमें पांच ईश्वर, जो-जो आप कहें।

मैं तो जो बोलूंगा, आपको मैं कहे देता हूं। मैं वहां, मैं वहां...

प्रश्नः आपने आज कुछ कह दिया, कल आप कहीं कुछ और...?

कहूंगा, कहूंगा। क्योंकि कल मैं मर नहीं जाऊंगा, समझ लें आप।

प्रश्नः आप भ्रम फैलाने आए हैं?

बिलकुल, भ्रम फैलाने ही आया हूं, ऐसा ही समझ लें आप।

प्रश्नः जो सारी व्यवस्था है, उसमें आप उथल-पुथल करने आए हैं।

करना है, करना है, करना है। यह बिलकुल करना है, यह आप ठीक समझे। यह आप बिलकुल ठीक समझे।

प्रश्नः और आप उथल-पुथल करना चाहते हैं।

मैं अव्यवस्थित आदमी हूं, अराजक आदमी हूं, समझे आप? मैं सारी व्यवस्था मिटाना ही चाहता हूं--हां। (अस्पष्ट 92: 28...)करूंगा, आप इसका विरोध करे--हां। मैं तो यह कोशिश करूंगा। मैं तो बिलकुल...

प्रश्नः हम इस तरह से करना चाहते हैं जिसका लुत्फ सभी लोगों को मिल सके, अशब्द न कहें हम।

वह तो आपके ऊपर निर्भर करेगा।

प्रश्नः आप जब यह शब्द कहते हैं...

वह तो आपके ऊपर निर्भर करेगा...

प्रश्नः आप जब यह शब्द कहते हैं कि मैं यह करने आता हूं तो उसका जवाब हमारे पास वह है कि हम दूसरे ढंग से रुला पाएं।.... फिर आप कहते हैं कि मैं गलत करने आया हूं।

सुनिए मेरी, आपकी बात मैंने सुन ली, आपकी बात मैंने सुनी, आपकी बात मैंने सुनी। मैं जो आज कहूंगा, उसके लिए कल बंधा हुआ नहीं हूं। समझे आप।...

प्रश्नः पर जानिए बह‏ुत...

नहीं, मेरी बात तो सुन लें आप पूरी...

प्रश्नः ...तब आपका सिद्धांत देख कर...

न, न, न। पर मेरी, पर मेरी सुननी पड़ेगी न आपको। आप, मैं अपनी...। आप मुझे समझ तो लें न, ताकि आपको आसानी पड़े। आपको आसानी पड़ेगी उसमें।

प्रश्नः बताइए।

मुझे तो जो मैंने आज कहा है, उसके लिए मैं बंधा नहीं हंू--क्यों? क्योंकि कोई भी अपने अतीत से नहीं बंध सकता। कल के लिए मैं कुछ भी नहीं कह सकता। कल तक मैं जिंदा रहूंगा, चैबीस घंटे आगे बढ़ूंगा। उस आगे बढ़ने में कल मुझे क्या ठीक लगेगा, वह मैं कहूंगा।

प्रश्नः यहां जो विचार की बात हो रही है...

मेरी आप बात समझ लें न। मेरा, मुझे आप समझ लेंगे तो आपको आसानी पड़ेगी।

प्रश्नः पूरी तरह, ठीक है, ठीक है।

और मैं व्यवस्था-विरोधी हूं...

प्रश्नः बहु‏त अच्छा कहा है आपने, बह‏ुत अच्छा। आपने कहा है...

मैं व्यवस्था-विरोधी हूं।

प्रश्नः बह‏ुत अच्छा, बह‏ुत अच्छा। फिर कहिए एक दफा।

समझे न आप, व्यवस्था-विरोधी।

प्रश्नः आज जो कहा है, कल उसके खिलाफ भी कह सकते हैं?

हां, बिलकुल कह सकता हूं। उसकी पूरी संभावनाएं हैं। इसकी संभावना है।

प्रश्नः यह क्यों कहते हैं आप?

न, न। अभी...।

प्रश्नः जब आपको आपनी ही बात पर...बह‏ुत अच्छा है। यह चीजें अगर आप लिख दें...

हैं बिना ही लिखी, आप लिखी समझें, इसमें क्या हर्जा है? मगर खयाल रखें कि इनके खिलाफ कल कह सकता हूं। इसका खयाल रखें।

प्रश्नः अगर मैं ...

हां इनके खिलाफ कल कह सकता हूं।

प्रश्नः मतलब ये है आप मदारी की तरह ...

आप मुझे समझ लें, उस हिसाब से चलें। उस हिसाब से ठीक होगा--हां।

प्रश्नः जहां से...

उससे ठीक...। हां इसमें...।

प्रश्नः फिर ठीक है महाराज! फिर ठीक है। जैसी आप दलील से बात कहते हैं, आज क्या कहूं आपसे। कल यह दलील कहते-कहते आपने यह लिख दिया कि महाराज, एक साल तक लड़की-लड़का इकट्ठा रहें...

हां, हां...

प्रश्नः और उसके बाद फिर शादी करें, न करें।

हां, हां।

प्रश्नः कोई लिख दे बहन और भाई की शादी हो जाए तो आप...

लिख सकता है, ऐसे लोग हैं।

प्रश्नः आपके बीवी बच्चे ठीक नहीं है...

...ऐसे लोग हैं।

प्रश्नः क्या हर्जा है इसमें?

...ऐसे लोग हैं।

प्रश्नः क्योंकि घर का माल घर में रह जाए क्या हर्जा है?

...ऐसे लोग हैं, ऐसे लोग हैं।

प्रश्नः जाति को मानना नहीं...

हां, हां।

प्रश्नः समाज को मानना नहीं...

ऐसे...

प्रश्नः ...उसके लिए क्या नुकसान?

ऐसे लोग हैं।

प्रश्नः मगर दुनिया के अंदर कोई ऐसा आदमी नहीं है किसी पद्धति के अंदर...आप बिना किसी पद्धति के बात करते हैं?

आप बिलकुल ठीक कहते हैं।

प्रश्नः ऐसे विचारों के लिए भूमि तैयार कर रहे हैं?

जी?

प्रश्नः ऐसे विचारों के लिए भूमि तैयार कर रहे हैं?

बिलकुल, बिलकुल कर रहा हूं। आप बिलकुल ठीक कहते हैं।

प्रश्नः आप भूमि तैयार कर रहे हैं?

बिलकुल भूमि तैयार कर रहा हूं।

प्रश्नः ठीक कह रहा हूं...

बिलकुल तैयार कर रहा हूं।

प्रश्नः आप रास्ते पर नहीं हैं?

...

प्रश्नः परमात्मा का जो स्वरूप है, जिसको आपने नाम दिया, वह कैसा और कौन सा देना चाहते हैं?

जरूर। परमात्मा को समझने जाइएगा तो कभी नहीं समझ पाइएगा। समझ की बात नहीं है।

प्रश्नः अभी तो आप कह रहे थे...

नहीं यह मैं, मैं जो आपको जो कह रहा हूं, आपको जो मैं कह रहा हूं

प्रश्नः किसी का आधार नहीं मानते...

नहीं, मैं कह...

प्रश्नः वे चीजें समझ से बाहर हैं...

नहीं, मैं नहीं कह रहा कि आधार मानिए। मैं यही कह रहा हूं कि आप समझ से ही मेरी बात समझने की कोशिश करिए, कि परमात्मा समझ के बाहर का मामला है; भीतर का नहीं है। जब तक आप समझने की कोशिश में रहेंगे, तब तक आप परमात्मा को न समझ पाएंगे, और सब समझ लेंगे। और सब समझ लेंगे।

प्रश्नः तो क्या स्वरूप है उसका?

उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि सभी कुछ वही है। स्वरूप उसका होता है जो सब कुछ न हो--कुछ हो।

प्रश्नः अच्छा उसका कोई विधान भी है?

नहीं, कोई विधान नहीं है।

प्रश्नः उसका कोई विधान नहीं है?

वह परम स्वतंत्र है।

प्रश्नः परम स्वतंत्र का भी तो कोई विधान होता है?

परम स्वतंत्रता ही विधान है उसका।

प्रश्नः जैसे भारत बना, भारत परम स्वतंत्र हुआ?

यह परम स्वतंत्र नहीं है। यह दूसरे की गुलामी की जगह अपनी गुलामी है। यह परम स्वतंत्र नहीं है।

प्रश्नः आचार्य जी हमारा भारत जो था, यह परतंत्र था?

यह दूसरे का परतंत्र था, अब अपना ही परतंत्र है।

प्रश्नः यह स्वतंत्र हुआ, स्वतंत्र होने के बाद इसका कोई अपना विधान बना, भारतीय जो दृष्टिकोण थे, वह इसने अपनाए।

हां-हां।

प्रश्नः...कि ये हमारे भारतीय दृष्टिकोण हैं।

हां ये...।

प्रश्नः ये हमारा विधान है।

यह भारतीय ढंग की गुलामी है।

प्रश्नः ऐसे जो परमात्मा है, परम स्वतंत्र जो आप कह रहे हैं, जो परमात्मा है, वह परम स्वतंत्र है। मगर जो परम स्वतंत्र परमात्मा है, उसका कोई विधान भी तो है न।

विधान परतंत्रता का होता है, स्वतंत्रता का नहीं होता।

प्रश्नः कैसे?

.......

प्रश्नः आप कर्म का फल मानते हैं?

एक मिनट...एक मिनट, इनकी बात कर लूं, आपकी बात करता हूं।

प्रश्नः आप कर्म का फल मानते हैं या नहीं?

मैं बात तो कर लूं इनसे पूरी, फिर आपकी बात कर लूं।

प्रश्नः हां कर लीजिए, कर लीजिए।

स्वतंत्रता का कोई विधान नहीं होता।

प्रश्नः स्वतंत्रता का कोई विधान नहीं होता?

विधान सब परतंत्रता के होते हैं। पराई परतंत्रता के हों तो हम परतंत्रता कहते हैं, अपनी ही परतंत्रता के हों तो हम स्वतंत्रता कहते हैं। अंग्रेज की परतंत्रता थी, तो परतंत्रता थी। अब हम ही बैठ गए उस परतंत्रता को, हम ही थोप कर अपने ऊपर, तो वह स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का...

प्रश्नः ... और शासन क रे?

स्वतंत्रता का कोई विधान नहीं है। परमात्मा का कोई विधान नहीं है।

प्रश्नः यही बात पहलेे अनुचित थी?

हां तो इस पर, यही तो मैं कहता हूं यह सब चर्चा करें।

प्रश्नः आप कर्म के फल को मानते हैं? मैं बुरा करता हूं तो उसका फल मुझे भोगना पड़ेगा कि नहीं?

तत्काल। तत्काल भोग लेते हैं, कभी और नहीं भोगना पड़ेगा। कभी और नहीं भोगना पड़ेगा।

प्रश्नः अगर तत्काल भोग लेते हैं तो कोई पैदा होते ही अंधा होता है, कोई पैदा होते ही पचास लाख का मालिक होता है तो उसका क्या मतलब है?

उसके भी मतलब हैं।

प्रश्नः क्या?

अब उसके लिए आराम से आइए तो बात करें। क्योंकि वह विवाद का नहीं...मतलब हैं उसके। अंधा जो पैदा होता है, उसके मतलब हैं।

प्रश्नः नहीं-नहीं आप बताएं।

हां, तो बिलकुल इसके लिए कल दोपहर आ जाएं, इसको अलग से बात करें।

प्रश्नः नहीं-नहीं, आप करिए, दोपहर को क्या आना है?

कल दोपहर आ जाएं।

प्रश्नः यहां पर आप करिए। आप के पास कोई

न, न, न, न...। यह, यह जो, यह जो बात है न, यह जो बात है न...

प्रश्नः उसको छोड़ दीजिए।

मैं आपको...

प्रश्नः अपनी आत्मा से पूछिए?

न-न-न। मैं सम...

प्रश्नः ...कि कर्म-भोग तो सबको भोगना पड़ेगा।

हां न, भोगिए न, कौन मना कर रहा है?

प्रश्नः भोगना पड़ेगा? आप कहते हैं, तत्काल भोगते हैं...

यही तो मैंने कहा, यह, यह जो बात आपने उठाई न, यह जो बात आपने उठाई, कल तीन बजे फिर आ जाएं, फिर इसको उठा लें।

प्रश्नः नहीं, तीन बजे क्या आना?

अब तो वक्त हुआ।

प्रश्नः इसी बात पर आप शास्त्रार्थ करिएगा?

फिर आप तो हां और न वाले हैं। आप समझ ही नहीं पा रहे हैं मेरी बात।

प्रश्नः तो हां-न तो पूछते ही हैं?

आप तो ऐसा पूछते हैं कि... न। मुझे तो...

प्रश्नः हां-न वाली...हम तो समझ रहे हैं।

मुझे तो समझने, मुझे तो समझने की...

प्रश्नः आप कहते हैं कि आप नहीं समझ रहे हैं?

मुझे तो समझने की आपको उत्सुकता ही नहीं।

प्रश्नः मुझे भी आपको समझाने की आवश्यक्ता नहीं है?

फिर कैसे आ गए?

प्रश्नः हम तो इस बात के लिए आए हैं...

फिर कैसे आ गए?

प्रश्नः कि आप यह बताइए...कर्म-फल...?

यहां आप कैसे आ गए? किसी कर्म-फल के कारण आ गए, मालूम पड़ता है।

प्रश्नः आप किस कर्म-फल के कारण यहां आ गए? हमारे पाले पड़ गए आपको? आपका भी कर्म-फल पड़ गया हमारे ऊपर?

ये जो बातें आपको और करनी हैं, वह कल तीन बजे आकर करिए। तीन से साढ़े चार का वक्त होगा। और शाम...।

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