अंतस
का आकाश ओर रहस्य
प्रवचन-66
प्रश्नसार:
1-आप किसे रहस्य कहते है?
2-मैं अपने को सामान्य अनुभव करता हूं, लेकिन कोई
रूपांतरण नहीं देखता।
3-क्या अच्छे ओर बुरे जैसा कुछ होता है?
4-क्या कल्पना का उपयोग असीम के अनुभव के लिए किया जा सकता है?
पहला
प्रश्न : कम रात आपने कहा जब मन में कोई विचार नहीं रहते तो मन शून्य आकाश बन जाता है और सब रहस्यों के द्वार खुल जाते हैं। मैं इस आंतरिक आकाश को
स्पष्ट और गहरे से अनुभव करता हूं, पर इसमें कुछ ऐसा विशेष नहीं
है जिसे मैं रहस्य कह सकूं। क्या आप बताएंगे कि रहस्य आप कि। कहते हैं और उसे कैसे
अनुभव किया जाता है?
आंतरिक
शून्य स्वयं में ही एक रहस्य है। न तुम उसे अनुभव कर सकते हो और न जान सकते हो। तुम
वह हो सकते हो। और वह तुम हो ही। जब तरिक शून्यता होती है तो तुम नहीं होते। तुम उसे
देख नहीं सकते। यदि तुम उसे देख सको तो तरिक शून्य अभी पैदा ही नहीं हुआ। कौन उसे देखेगा? यदि तुम उसे
देख सकते हो तो तुम उससे भिन्न हो, इसलिए वह आंतरिक नहीं हुआ,
वह बाह्य हुआ। वह तुमसे बाहर है। अंतस अभी शून्य नहीं हुआ, भरा ही हुआ है। द्रष्टा या साक्षी बनकर अहंकार बड़े सूक्ष्म रूप में वहां बैठा
है। अंतस अभी शून्य नहीं हुआ, क्योंकि जब अंतस शून्य हो जाता
है तो तुम नहीं रहते।
तो
पहली बात तो स्मरण रखने की यह है कि तुम रहस्य के साक्षी नहीं हो सकते, तुम रहस्य
हो सकते हो। तुम उसे देख नहीं पाओगे क्योंकि तुम उससे अलग नहीं हो सकते, कोई
द्वैत नहीं हो सकता।
पहली
बात, जब अंतस वास्तव में शून्य होता है तो तुम नहीं होते, क्योंकि तुम्हीं से तो अंतस भरा हुआ है। तुम्हारे ही कारण वह शून्य नहीं है;
तुम्हारे ही कारण सब भरा हुआ है। जब तुम मिटते हो, विदा हो जाते हो तभी अंतस शून्य होता है। तो तुम रहस्य के साक्षी नहीं हो सकते।
जब तक तुम हो, रहस्य प्रकट नहीं होगा। जब तुम नहीं हो,
रहस्य प्रकट होगा।
तो
जब तुम कहते हो कि तुम तरिक शून्य को अनुभव कर रहे हो तो इसका अर्थ हुआ कि तुम शून्य
नहीं हो; शून्य तुम्हें, तुम्हारे चारों ओर घटित हो रहा है,
लेकिन तुम शून्य नहीं हो। तो असल में यह शून्य केवल शून्य का विचार हैं-तभी
तो तुम कह सकते हो कि अब तुम्हारा अंतराकाश शून्य हो गया है। यह एक विचार है। यह शून्य
वास्तविक नहीं है, मन का ही एक खेल है। जब द्रष्टा है तो दृश्य
भी होना चाहिए। तुम शून्य को भी एक वस्तु, एक विचार बना ले सकते
हो।
ऐसा
कहा जाता है कि एक बार बोकोजू इसी तरह शून्य हो गया। इसी तरह की शून्यता उसे घटित हुई
होगी। वह अपने गुरु के पास आया और बोला, 'अब तो कुछ भी नहीं बचा मैं तो शून्य
हो गया।’ गुरु ने कहा, 'बाहर जाओ और इस
शून्य को भी फेंक आओ। यह शून्य भी कुछ तो है ही, इसे क्यों ढो
रहे हो? यदि तुम सच में ही शून्य हो गए तो कहेगा कौन?
फिर कौन उसे ढोएगा कौन उसकी उपलब्धि को महसूस करेगा?' गुरु ने बोकोजू को कहा, 'तुमने अच्छा किया कि तुम शून्य
हो गए, अब जाओ और इस शून्य को भी फेंक आओ।'
तुम
शून्य से भी भर सकते हों-यही समस्या है। और यदि तुम शून्य से भरे हुए हो
तो तुम शून्य नहीं हो।
दूसरी
बात, रहस्य का मेरा अर्थ क्या है? जो तुम समझते हो,
मेरा वह अर्थ नहीं है, क्योंकि तुम सोचते हो कि
रहस्य बड़ा आश्चर्यजनक, चौंका देने वाला, हतप्रभ कर देने वाला होगा, कि तुम्हारे पांवों के नीचे
से जमीन खिसक जाएगी। वह बात ही नहीं है। रहस्य तो शुद्ध अस्तित्व है, जिसमें न कुछ आश्चर्यजनक है, न कुछ चौंकाने वाला है।
न तो तुम ठगे से रह जाओगे, न चौंकोगे, न
हैरान होओगे। रहस्य वास्तव में बिलकुल रहस्यमय नहीं है। यहसाधारण सा अस्तित्व-इसे बिना
कोई समस्या खड़ी किए ऐसा का ऐसा स्वीकार करो।
जब
तुम कोई समस्या खड़ी नहीं करते तो यह अस्तित्व एक रहस्य हो जाता है; जब तुम समस्या
खड़ी करते हो तो रहस्य को नष्ट कर देते हो। अब तुम किसी समाधान, किसी उत्तर की तलाश में हो। फिर वही मन चलता चला जाता है। जब तुम मुझे रहस्य
की बात करते सुनते हो तो सोचते हो कि वह कोई बड़ी विशेष चीज होगी। इस अस्तित्व में कुछ
भी विशेष नहीं है। केवल अहंकार के लिए ही विशेष शब्द का अस्तित्व है।
कहा
जाता है कि जब लिंची को ज्ञान हुआ तो वह हंसा। उसके शिष्यों ने पूछा, 'आप हंस क्यों
रहे हैं?' उसने कहा, 'मैं इसलिए हंस रहा
हूं कि इसे मैं हजारों-हजारों जन्मों से खोज रहा था-और यह इतना साधारण है।'
यही
है रहस्य-कुछ भी विशेष नहीं है।
एक
दूसरे झेन गुरु डोजेन के बारे में कहा जाता है कि जब उसे ज्ञान हुआ तो उसके शिष्यों
ने उससे पूछा,
'बुद्धत्व के बाद सबसे पहले आपने क्या करना चाहा?' कहते हैं कि डोजेन ने कहा, 'मैंने एक कप चाय पीनी चाही।’
इतनी
साधारण बात थी। लेकिन अहंकार को ये बातें आकर्षक नहीं लगती। यदि मैं तुमसे कहूं कि
बुद्धत्व इतनी साधारण घटना है कि उसके बाद तुम एक कप चाय पीना चाहोगे तो तुम्हें लगेगा
कि यह तो बिलकुल बेकार है-क्यों इसे खोजना? फिर अहंकार शुरू हो जाता है। अहंकार
को विशेष चीज की तलाश होती है, कुछ ऐसा जो बस अपवाद हो,
जो साधारणतया न होता हो, कुछ ऐसा जो बस तुम्हें
ही हुआ हो, जो और किसी को भी न हुआ हो-अहंकार को किसी विशेष,
किसी असाधारण चीज की तलाश होती है।
सत्य
असाधारण नहीं है;
सभी ओर घट रहा है। और यदि यह तुम्हें घटित नहीं हुआ है तो विशेष बात
है! क्योंकि सत्य तो सदा मौजूद है। एक क्षण को भी वह अनुपस्थित नहीं होता। बुद्धत्व
तो सदा घटित हो रहा है, यह तो अस्तित्व की धड़कन है-तुम बहरे और
अंधे
हो। इसमें कुछ विशेष नहीं है। बुद्ध होना, जाग्रत
होना तो सबसे साधारण घटना है। जब मैं कहता हूं 'साधारण'
तो मेरा अर्थ है : इसे ऐसा होना चाहिए। यदि यह असाधारण दिखाई पड़ता है
तो तुम्हारे-चरण,
क्योंकि
तुम इतनी बाधाएं खड़ी करते हो-और फिर उन्हें पार करने की चेष्टा करते हो। और फिर तुम
गौरवान्वित अनुभव करते हो। पहली बात, कोई बाधा है ही नहीं। लेकिन तुम्हारे
अहंकार को अच्छा नहीं लगेगा-तुम निकटतम और अंतरंग बिंदु पर पहुंचने के लिए लंबा मार्ग
बनाओगे। और उससे दूर कभी तुम गए भी न थे! रहस्य
तो
किसी रहस्यमय चीज की खोज मत करो। बस साधारण और निर्दोष रहो, फिर सारा अस्तित्व
तुम्हारे लिए खुल जाता है। तुम पागल नहीं हो जाओगे, तुम तो बस
इस बात की व्यर्थता पर मुस्कुरा दोगे कि जो इतने पास था उसे ही तुम चूक रहे थे। और
बीच में कोई बाधा भी नहीं थी। एक तरह से यह तुममें ही था। यह चमत्कार ही था कि तुम
कैसे उसे चूकते रहे।
यदि
शून्य सच्चा है तो पूरी वास्तविकता, जो है, तुम्हारे
सामने प्रकट हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि अभी वह ढंकी है, वह तो
अभी भी प्रकट है। तुम बंद हो। तुम्हारा मन भरा हुआ है। जब तुम्हारा मन शून्य हो जाता
है, खाली हो जाता है, तब तुम सत्य के प्रति
खुल जाते हो और मिलन हो जाता है। और तब सब कुछ अपनी पूर्ण साधारणता में सुंदर हो जाता
है।
इसीलिए
कहा जाता है कि जो जानता है वह बिलकुल साधारण हो जाता है। वह सत्य के साथ एक हो जाता
है। विशेष की कामना करना अहंकार का मार्ग है, और अहंकार के सब मार्ग तुम्हारे और
सत्य के बीच दूरी पैदा करते हैं। शून्य हो जाओ, और तुम्हें सब
कुछ उपलब्ध हो जाएगा।
ऐसा
नहीं है कि तुम्हारे पास कहने को बहुत कुछ होगा-कहने को कुछ भी नहीं है।
ऐसा
समझा जाता है कि कृष्ण या बुद्ध, या जिन्होंने भी उस परम को जाना है, वे इसलिए उसकी व्याख्या नहीं कर सकते क्योंकि वह बहुत जटिल है। नहीं,
उसकी व्याख्या वे इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि वह बहुत सरल है। जटिल की
व्याख्या हो सकती है, स्मरण रखना, सरल की
व्याख्या नहीं की जा सकती। जितनी ही जटिल कोई चीज होती है उतनी ही सरल उसकी व्याख्या
हो जाती है। क्योंकि जटिलता में तुम विभाजन कर सकते हो, तुलना
कर सकते हो। सरल के साथ तुम कुछ भी नहीं कर सकते।
उदाहरण
के लिए, यदि मैं तुमसे पूछ- 'पीला क्या है?' तो तुम क्या कहोगे? अब पीला इतनी सरल बात है,
उसमें जटिलता ही नहीं है। यदि मैं तुमसे पूछ- 'पानी क्या है?' तुम कह सकते हो, 'एच टू ओ।’ यह थोड़ा जटिल है : उसमें हाइड्रोजन है,
आक्सीजन है तो तुम उसकी परिभाषा कर सकते हो। लेकिन यदि मैं तुमसे पूछता
हूं 'पीला क्या है?' तो अधिक से अधिक तुम
यही कह सकते हो कि पीला पीला है। लेकिन वह तो पुनरुक्ति है, उससे
कोई अर्थ नहीं निकलता। यदि मैं पूछ- 'पीला क्या है?' तो तुम क्या करोगे? तुम किसी पीले फूल की ओर इशारा कर
सकते हो, तुम सूर्योदय के पीले रंग की ओर इशारा कर सकते हो,
लेकिन तुम कुछ कह नहीं रहे, सिर्फ इशारा कर रहे
हो।
सरल
की ओर केवल इशारा किया जा सकता है; जटिल की परिभाषा हो सकती है,
व्याख्या हो सकती है। बुद्ध पुरुष मौन रह जाते हैं, इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी बहुत जटिल सत्य का साक्षात किया है, बल्कि उस सरल घटना के कारण वे मौन रह जाते हैं जिसकी परिभाषा नहीं हो सकती,
बस इशारा ही किया जा सकता है। वे तुम्हें उस तक ले तो जा सकते हैं,
परंतु उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते रहस्य कोई जटिल चीज नहीं है, वह तो बहुत सरल है, सरलतम है, लेकिन
तुम्हारा उससे तभी मिलना हो सकता है जब तुम भी सरल हो जाओ। यदि तुम जटिल हो तो तुम
उससे नहीं मिल सकते, कोई मिलने का आधार ही नहीं है। जब तुम एकदम
सरल, निर्दोष और शून्य हो जाते हो, केवल
तभी सत्य का और तुम्हारा मिलन होता है। तब तुममें सत्य प्रतिबिंबित होता है,
तुममें उसकी प्रतिध्वनि उठती है वह तुममें प्रवेश कर जाता है।
लेकिन
किसी विशेष चीज की प्रतीक्षा मत करो। निर्वाण कोई विशेष चीज नहीं है। जब मैं यह कहता
हूं तो तुम्हारे मन में क्या होता है? जब मैं कहता हूं कि निर्वाण कोई विशेष
चीज नहीं है तो तुम्हें क्या लगता है? कैसा लगता है? तुम्हें थोड़ी निराशा होती है। मन में यह प्रश्न जरूर उठ रहा होगा-फिर मेहनत
ही क्यों करें? फिर कोई प्रयास ही क्यों करें? फिर ध्यान क्यों करें? फिर ये विधियां किस लिए हैं?
इस
मन को देखो, यह मन ही समस्या है। मन विशेष की आकांक्षा करता है। और उस आकांक्षा के कारण
मन विशेष चीजों का निर्माण करता चला जाता है। अस्तित्व में कुछ भी विशेष नहीं है :
या तो पूरा अस्तित्व ही विशेष है या कुछ भी विशेष नहीं है।
इस
आकांक्षा के कारण ही मन ने स्वर्ग पैदा किए हैं। और मन एक से संतुष्ट नहीं होता, इसलिए कई स्वर्ग
पैदा कर लिए हैं। ईसाइयों के पास एक स्वर्ग है हिंदुओं के पास सात हैं-क्योंकि इतने
सारे भले लोग हैं, उनमें जरूर श्रेणियां होनी चाहिए। कुछ लोग
बहुत ज्यादा भले हैं, वे कहां जाएं? इसका
कोई अंत नहीं है। बुद्ध के समय में एक संप्रदाय था जो सात सौ स्वर्गों में विश्वास
करता था। तुम्हें अहंकारों को स्थान देना पड़ता है : उच्चतम अहंकार को उच्चतम स्वर्ग
में जाना चाहिए।
मैं
राधास्वामियों की एक किताब देख रहा था। वे कहते हैं चौदह स्वर्ग हैं। केवल उनके गुरु
ही अंतिम में पहुंच पाए हैं। बुद्ध सातवें में हैं, कृष्ण पांचवें में हैं और मोहम्मद
तीसरे में कहीं हैं। केवल उनके गुरु ही चौदहवें में पहुंच पाए हैं। और हर किसी को श्रेणीबद्ध
स्थान दिया गया है। केवल उनके गुरु ही विशेष हैं। यह विशेष होने की आकांक्षा है। और
हर कोई उसी आकांक्षा के अनुसार है।
मैंने
एक कहानी सुनी है। एक पादरी रविवार के दिन पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चों को धार्मिक पाठ
पढ़ा रहा था। वह बता रहा था कि अच्छे लोगों को क्या मिलता है-शोहरत के ताज और स्वर्ग।
जो लोग अच्छे हैं,
स्वर्ग में उनके सिर पर ताज रखा जाएगा। फिर अंत में उसने पूछा,
'सबसे बड़ा ताज किसे मिलेगा?' कुछ देर के लिए तो
वहां सन्नाटा रहा, फिर टोपी बनाने वाले का छोटा सा लड़का खड़ा हुआ
और बोला, 'जिसका सिर सबसे बड़ा होगा।’
हम
सब यही कर रहे हैं। सबसे बड़े सिर की हमारी परिभाषाएं अलग हो सकती हैं, लेकिन हम सब
के पास अंतत: कुछ न कुछ विशेष होने की धारणा है और उस विशेष के कारण ही हम आगे बढ़ते
रहते हैं। लेकिन स्मरण रखो, उस विशेष के कारण तुम कहीं भी नहीं
बढ़ रहे हो, बस कामनाओं में भटक रहे हो। और कामनाओं में भटकना
कोई विकास नहीं है, केवल चक्कर काटने जैसा है।
यदि
तुम अभी भी ध्यान कर सको-भलीभांति जानते हुए कि कोई विशेष घटना नहीं घटने वाली है, बस तुम अपनी
साधारण वास्तविकता से एक हो जाओगे, कि तुम अपनी
साधारण
वास्तविकता के साथ लयबद्ध हो जाओगे-यदि ऐसे मन के साथ तुम ध्यान कर सको तो बुद्धत्व
इसी क्षण संभव है। लेकिन ऐसे मन के साथ तुम्हें ध्यान करने जैसा ही नहीं लगेगा-तुम
कहोगे, 'यदि कोई विशेष घटना नहीं घटने वाली है तो सब कुछ छोड़ ही दो।’
मेरे
पास लोग आते हैं और पूछते हैं, 'मैं तीन महीने से ध्यान कर रहा हूं और अभी रहस्य
तक
कुछ भी नहीं हुआ।’
एक कामना है, और वह कामना ही बाधा है। यदि कामना
न हो तो
वह इसी क्षण हो जाए।
तो
रहस्यमयता की कामना मत करो। असल में किसी चीज की भी कामना मत करो। बस सत्य जैसा है
वैसे ही उसके साथ सहज हो रहो। साधारण हो रहो-साधारण होना सुंदर है। क्योंकि तब न कोई
तनाव होता है न कोई संताप। साधारण हो रहना बहुत रहस्यपूर्ण है, क्योंकि वह
एकदम सरल है। मेरे देखे ध्यान एक खेल है, एक कीड़ा है;
ध्यान कोई कार्य नहीं है। लेकिन तुम्हें यह कार्य जैसा ही लगता है। तुम
इसे कार्य की तरह ही लेते हो।
कार्य
और खेल के बीच अंतर को समझ लेना अच्छा है। कार्य परिणाम-उन्मुख होता है, स्वयं में
ही पर्याप्त नहीं होता। उसका लक्ष्य कहीं और होता है किसी सुख, किसी परिणाम में होता है। कार्य एक सेतु है, साधन है।
अपने आप में वह अर्थहीन है। उसका अर्थ लक्ष्य में है।
खेल
बिलकुल भिन्न बात है। उसका कोई लक्ष्य नहीं है या वह स्वयं ही लक्ष्य है। सुख उसके
पार, उसके बाहर नहीं है; उसमें होना ही सुख है। तुम्हें उसके
बाहर कोई सुख, उसके पार कोई अर्थ मिलने वाला नहीं है-जो कुछ है
वह उसमें ही अंतर्निहित है। तुम किसी लक्ष्य से नहीं खेलते बस अभी उसमें आनंदित होते
हो। वह निरुद्देश्य है।
यही
कारण है कि केवल बच्चे ही खेल सकते हैं; जैसे-जैसे तुम बड़े होते जाते हो वैसे-वैसे
खेलने में तुम कम सक्षम होते जाते हो। लक्ष्य महत्वपूर्ण होता चला जाता है और तुम पूछने
लगते हो 'क्यों मैं क्यों खेलूं?' तुम अधिक
परिणाम-उन्मुख होते चले जाते हो : इससे कुछ मिलना चाहिए, खेल
अपने आप में पर्याप्त नहीं है। अंतर्निहित मूल्य तुम्हारे लिए अर्थ खो देता है। केवल
बच्चे ही खेल पाते हैं क्योंकि वे भविष्य की नहीं सोचते। वे समय की धारणा से मुक्त,
अभी और यहीं हो सकते हैं।
कार्य
है समय; खेल है समय-शून्यता। ध्यान खेल की तरह ही होना चाहिए परिणाम-उन्मुख नहीं। किसी
उपलब्धि के लिए ध्यान नहीं करना है क्योंकि उसमें सारी बात ही खो जाती है। यदि तुम
किसी उपलब्धि के लिए ध्यान कर रहे हो तो तुम ध्यान कर ही नहीं सकते। तुम ध्यान केवल
तभी कर सकते हो जब तुम उसके साथ खेल रहे हो, उसका आनंद ले रहे
हो जब उससे कुछ पाना न हो बल्कि वह स्वयं में ही सुंदर हो। ध्यान के लिए ही ध्यान-तब
वह समय-शून्य हो जाता है। और तब अहंकार नहीं उठ सकता।
कामना
के बिना तुम स्वयं को भविष्य में प्रक्षेपित नहीं कर सकते, कामना के बिना
तुम आशाएं नहीं कर सकते, और कामना के बिना तुम कभी निराश नहीं
होगे। कामना के अभाव में, समय वास्तव में समाप्त हो जाता है
: तुम शाश्वत के एक क्षण से शाश्वत के दूसरे क्षण में गति करने लगते हो। उसमें कोई
श्रृंखला नहीं होती। और तब तुम कभी नहीं पूछोगे कि कुछ विशेष क्यों नहीं हो रहा।
जहां
तक मेरा संबंध है मैं तो अभी तक रहस्य को नहीं जान पाया। यह खेल ही रहस्य है; समय-शून्य
होना, कामना-मुक्त होना ही रहस्य है। और साधारण होना ही लक्ष्य
है-यदि यह शब्द प्रयोग करने की आज्ञा मुझे दो तो-साधारण होना ही लक्ष्य है। यदि तुम
साधारण हो सको तो तुम मुक्त हो जाते हो, तब तुम्हारे लिए कोई
संसार नहीं है।
यह
पूरा संसार असाधारण होने का एक संघर्ष-। कुछ लोग राजनीति में इसका प्रयास करते हैं, कुछ धन में
करते हैं और कुछ धर्म में करते हैं, लेकिन वासना तो वही रहती
है।
दूसरा
प्रश्न :
केवल
ध्यान में ही नहीं वरन दैनंदिन जीवन में भी मैं अस्तित्व के साथ एकरसता, अहंकार- शून्यता
और समय-शून्यता सतत अनुभव करता हूं। फिर भी मैं स्वयं को साधारण पाता हूं? और मैं अपने भीतर उस अमूल रूपांतरण को नहीं देखता जिसकी आप अक्सर चर्चा करते
रहते हैं।
यह
शुभ है। यही लक्ष्य है। इससे कोई समस्या खड़ी मत करो। मजे से साधारण रहो। लेकिन तुम
ऐसा क्यों अनुभव करते हो?
तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि तुम साधारण के साधारण हो? कहीं न कहीं जरूर असाधारण होने की कामना होगी। केवल उसकी तुलना में ही तुम
साधारण अनुभव करते हो, और फिर एक तरह की उदासी घेरेगी ही। लेकिन
साधारण होने में दिक्कत क्या है? जब मैं कहता हूं कि साधारण हो
जाओ तो मेरा क्या अर्थ है? मेरा अर्थ है कि तुम जो भी हो-वही
हो रहो।
कुछ
ही दिन पहले एक युवक मेरे पास आया और बोला, 'मैं अहंकारी हूं और जब भी मैं आपको
सुनता हूं तो मुझे लगता है कि मैं गलत हूं। तो मैं अहंकार से मुक्त कैसे होऊं मैंने
उसे कहा, 'तुम बस अहंकारी रहो और इस तथ्य को स्वीकार करो कि तुम
ऐसे हो और कोई द्वंद्व निर्मित मत करो। निरंहकारी होने का कोई प्रयास मत करो। तुम अहंकारी
हो तो इसे अनुभव करो और अहंकारी रहो।’
उसे
बहुत निराशा हुई,
क्योंकि वास्तव में वह अहंकार के लिए नया मार्ग खोज रहा था। वह अहंकार-शून्यता
की तलाश में था। और मैंने कहा, 'तुम जो हो वही होओ, ताकि कामना गिर जाए और अहंकार गति न कर सके।’ मैंने उसे
कहा, 'तीन महीने तक न तो मेरे पास आओ और न ही अहंकार से लडो-वह
है, उसे स्वीकार कर लो। वह तुम्हारा हिस्सा है, ऐसे तुम हो। उससे लड़ी मत और उससे विपरीत की भाषा में मत सोचो कि कैसे निरहकारी
हुआ जाए, क्योंकि यह अहंकार का ही मार्ग है। उसे स्वीकार कर लो।
स्वीकृति उसकी मृत्यु है।’
लेकिन
उस युवक ने कहा,
'परंतु हर धर्म निरहंकारी होने को कहता है और मैं निरहंकारी होना चाहता
हूं।’
यह
'मैं' कौन है जो निरहंकारी होना चाहता है? अहंकार के उपाय बहुत सूक्ष्म हैं। जब मैं उससे बात कर रहा था तो मुझे लग रहा
था कि वह मुझे नहीं सुन रहा है। यदि मैं उसे निरहंकारी होने के लिए कुछ विधियां देता
तो वह स्वीकार करने को, ग्रहण करने को तैयार होता, क्योंकि तब अहंकार अपना काम शुरू कर सकता था।
लेकिन
मैं कह रहा था,
निरहंकारिता की बात ही मत करो बस जो हो वही होओ। और तीन महीने संघर्ष
मत करो, फिर मेरे पास आना।’
उसने
प्रयास किया। तीन महीने बाद वह फिर आया और मुझसे बोला, 'यह स्वीकार
बहुत कठिन था, लेकिन आपने कहा था तो मैंने प्रयास किया। अब इस
अहंकार से पार जाने के लिए कोई विधि, कोई कुंजी दे दे। उसका सारा
प्रयास ही झूठा था, क्योंकि यदि तुम स्वीकार ही कर लो तो पार
के, की कोई कामना ही नहीं रह जाती।
जब
भी तुम स्वयं को साधारण अनुभव करते हो तो किसी न किसी तरह से असाधारण होने की कोशिश
करते हो। लेकिन हर कोई साधारण है : साधारण होना ही वास्तविक होना है। ऐसा हो सकता है
कि कोई तुम्हें असाधारण लगता हो, क्योंकि उसकी तुलना तुम अपने साथ करते हो,
लेकिन कोई महाविद्वान भी अपने आप में उतना ही साधारण है जितना कि कोई
और; और वह स्वयं को साधारण ही महसूस करता है।
गुलाब
का फूल भी साधारण है और कमल का फूल भी साधारण है, लेकिन गुलाब यदि तुलना करने
लगे और सोचने लगे कि कैसे वह कमल हो जाए तो समस्या खड़ी हो जाएगी। और यदि कमल गुलाब
से उठने वाली मधुर गंध के बारे में सोचने लगे तो गुलाब असाधारण हो जाएगा।
जब
तुम तुलना करते हो तो उस तुलना से ही असाधारणता पैदा होती है-वरना तो सब कुछ साधारण
है। अपने आप में हर चीज बस जैसी है वैसी है। न तो तुलना करो, न कामना करो।
यदि तुम कामना करते हो तो ध्यान तुम्हें निराश करेगा, क्योंकि
ध्यान तुम्हें ऐसी स्थिति में ले आएगा जहां तुम अपनी परिपूर्ण साधारणता को अनुभव करोगे।
इसके
प्रति खुलो, इसका स्वागत करो। यह शुभ है। इससे पता लगता है कि ध्यान बढ़ रहा है,
गहरा हो रहा है। लेकिन कहीं न कहीं असाधारण होने की कामना अभी भी है
और वही बाधा बन रही है।
यदि
वह कामना चली जाए तो तुम साधारण नहीं अनुभव करोगे। तुम बस होओगे।
तुम
कैसे अनुभव कर सकते हो कि तुम साधारण हो? तुम बस होओगे, और मात्र होना, मात्र इस तरह होना कि तुम्हें यह भी पता
न चले कि तुम साधारण हो या असाधारण-उपलब्ध हो जाना है।
यह
शुभ है, इससे निराश मत होओ। यदि तुम निराश होते हो तो याद रखो कि तुम एक कामना को ढो
रहे हो और वह कामना ही जहर पैदा कर रही है। यह पागलपन क्यों है? ऐसा हर किसी के साथ क्यों होता है? यह सारा संसार पागल
है इस कारण से; हर कोई कुछ होना चाहता है कुछ विशेष होना चाहता
है।
जीवन
तुम्हें केवल तभी घटित होता है जब तुम ना-कुछ हो जाते हो। जब तुम इतने खाली हो जाते
हो कि भीतर कोई नहीं बचता,
तो सारा जीवन बिना किसी बाधा, बिना किसी रुकावट
के तुममें से बहने लगता है। तब बहाव पूर्ण और समग्र होता है।
जब
तुम कुछ होते हो तो तुम चट्टान जैसे हो जाते हो और बहाव में बाधा डालते हो-जीवन तुममें
से गति नहीं कर सकता। तुममें संघर्ष है, प्रतिरोध है, और स्वभावत: तुम बड़ा शोर करते हो। और तुम सोच सकते हो कि इतना शोर कर शायद
तुम बड़े असाधारण व्यक्ति हो।’
एक
खाली मार्ग हो जाओ,
कोई प्रतिरोध न करो ताकि जीवन तुममें से बह सके, सरलता से बह सके। फिर कोई शोर नहीं होगा। हो सकता है तुम्हें अपने होने का
पता भी न चले, क्योंकि जब तुम संघर्ष करते हो तभी तुम्हें पता
चलता है कि तुम हो। जितना तुम संघर्ष करते हो उतना ही तुम्हें तुम्हारा होना महसूस
होता है।
जीवन
इतनी शांति से तुममें से बहता है कि तुम अपना होना ही भूल जाते हो। न कोई बाधा है, न प्रतिरोध,
न अस्वीकार, न निषेध। और तुम इतने स्वागत से भरे
होते हो कि तुम यह भी भूल जाते हो कि तुम हो भी।
एक
झेन गुरु के बारे में कहते हैं कि वह अपना ही नाम दिन में कई बार पुकारता था। सुबह
वह कहता, बोकोजू और फिर कहता, 'जी ही, मैं
यहीं हूं।’ बोकोजू उसका ही नाम था। और उसके शिष्य उससे पूछते
कि वह ऐसा क्यों करता है। वह कहता कि मैं भूल जाता हूं। मैं इतना शांत हो गया हूं कि
मुझे खुद को ही याद दिलाना पड़ता है, बोकोजू और फिर मैं कहता हूं
'जी ही, मैं यहीं हूं।’
जीवन
इतना शांत बहाव,
इतनी शांत धारा हो सकता है कि कोई शोरगुल नहीं होता। लेकिन यदि तुम कुछ
होने, असाधारण होने, विशेष होने पर ही अड़े
रहो, तो जीवन तुममें से नहीं बह सकता। तब तुम्हारे और जीवन के
बीच, तुम्हारे क्षुद्र अहंकार और ब्रह्मांड के बीच संघर्ष खड़ा
हो जाता है।
इसी
से विक्षिप्तता पैदा हो रही है। पूरी पृथ्वी एक विक्षिप्त ग्रह बन गई है। और इस विक्षिप्तता
का निदान किसी उपचार,
किसी मनोचिकित्सा से नहीं हो सकता, क्योंकि यह
जीवन की इतनी मौलिक शैली बन गई है। यह कोई बीमारी नहीं है, ऐसे
ही हम जी रहे हैं। हमारे जीने का पूरा ढंग ही विक्षिप्त है।
तो
तुम्हारा उपचार किन्हीं चिकित्सा-पद्धतियों से नहीं हो सकता जब तक कि पूरी जीवन शैली
ही न बदली जाए। और केवल दो ही तरह की जीवन शैलियां हैं : अहंकार-उमुख और निरहंकार-उमुख।
तुम्हें कुछ होना है यह जीवन का एक ढंग है। तब विक्षिप्तता उसका परिणाम होगी। असल में, विक्षिप्त
व्यक्ति सबसे असाधारण व्यक्ति है। उसने असाधारणता उपलब्ध कर ली है, क्योंकि अब वह वास्तविकता से बिलकुल उखड़ गया है, यथार्थ
से उसका कोई संबंध ही नहीं है। अब वह अपने आप में ही जीता है उसने अपना निजी संसार
निर्मित कर लिया है। अब स्वप्न वास्तविक हो गया है और वास्तविक बस स्वप्न मात्र रह
गया है। सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है।
तुम
किसी पागल को राजी नहीं कर सकते कि वह गलत है, क्योंकि वह बहुत तर्क-संगत होता है।
पागल बहुत तर्क-संगत और विचारयुक्त होते हैं।
एक
पागल हर रोज सुबह-सुबह अपने घर से बाहर आकर कुछ मंत्रों का जाप करता और कुछ मुद्राएं
बनाता। तो स्वभावत: जो भी उधर से गुजरता वही पूछता कि वह क्या कर रहा है। और वह पागल
कहता, 'मैं इस मोहल्ले की भूतों से रक्षा कर रहा हूं।’
तो
वह राहगीर कहता,
'लेकिन यहां तो कोई भूत हैं ही नहीं।’
और
वह पागल कहता,
'देखा, मेरे मंत्र जपने से यहां कोई भूत नहीं है।’
वह
एकदम तर्कयुक्त है तुम उसे समझा नहीं सकते-उसके मंत्र जाप के कारण भूत
नहीं
हैं। लेकिन अब वह अपने ही तरिक स्वप्न-जगत में जीता है और तुम उसे बाहर नहीं खींच सकते।
यदि
तुम अपने को कुछ समझते हो-कोई भी कुछ नहीं हो सकता, यह तुम्हारा विक्षिप्त हो गया
है। यह कुछ होना ही तुम्हारी विक्षिप्तता है। और जितना कुछ होने का यह कैंसर बढ़ता जाएगा
उतने ही तुम वास्तविकता से कटते जाओगे।
एक
बुद्ध पुरुष ना-कुछ होता है। उसके सब द्वार खुले हैं। हवा आती है और चली जाती है, वर्षा आती
है और बरस जाती है, सूर्य की किरणें आती हैं और गुजर जाती हैं,
जीवन बहता चला जाता है, लेकिन वह वहां नहीं होता।
जब मैं कहता हूं कि तुम्हें ध्यान घटित हुआ है तो मेरा यही अर्थ है। और यह बहुत साधारण,
स्वाभाविक और वास्तविक है।
तीसरा
प्रश्न :
आप
अक्सर कहते हैं कि यह अच्छा है या बुरा है, यह मल्ल है या सही है। क्या
यह भाषा आप हम लोगों के लिए ही प्रयोग करते है, क्योंकि हम हर
चीज की अखंडता की नहीं देख पाले, या कि अच्छे-बुरे जैसा कुछ होता
है?
नहीं, यह तो केवल
भाषा है। मेरे लिए तो न कुछ अच्छा है न बुरा। लेकिन तुम्हारे लिए यह बहुत खतरनाक होगा।
सत्य खतरनाक हो सकता है। असल में, केवल सत्य ही खतरनाक हो सकता
है-झूठ कभी इतने खतरनाक नहीं होते, क्योंकि उनमें कोई ताकत नहीं
होती, उनमें कोई बल नहीं होता। सत्य बहुत घबड़ाने वाला हो सकता
है। यह सत्य है कि न कुछ अच्छा है न बुरा, न कुछ सही है न गलत;
सब कुछ जैसा है बस वैसा है; सारी निंदा और सारे
विभाजन व्यर्थ हैं। लेकिन तुम्हारे लिए यह खतरनाक होगा। तुम्हारे लिए यह बहुत ज्यादा
हो जाएगा और तुम इसे गलत समझ लोगे। तुम इसे समझ नहीं सकते; जब
न कुछ अच्छा है न बुरा तो तुम समझ नहीं पाओगे और तुम अपने हिसाब से उसकी व्याख्या कर
लोगे।
यदि
मैं कहता हूं कि न कुछ अच्छा है न बुरा तो तुम सोचोगे कि अब तक जिस चीज को तुम बुरा
समझते रहे हो,
उसे अब बुरा समझने की कोई जरूरत नहीं है। तो तुम्हारे लिए यह उच्छृंखलता
हो जाएगी और तुम दोहरी मानसिकता में पड़ जाओगे। तुम सोचोगे कि तुम्हारे लिए न कुछ अच्छा
है न कुछ बुरा है, लेकिन दूसरों को तुम इसकी इजाजत न दोगे। यदि
तुम दूसरों को भी इसकी इजाजत दे सको तभी तुमने समझा; तब यह उच्छृंखलता
न रही, मुक्ति हो गई। लेकिन मापदंड एक होना चाहिए, दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए।
मैं
क्यों कहता हूं कि न कुछ अच्छा है न कुछ बुरा? क्योंकि अच्छाई और बुराई तो व्याख्याएं
हैं, वास्तविकता नहीं हैं।
यदि
बाहर बगीचे में कोई फूल खिला है तो तुम उसे सुंदर कह सकते हो और कोई दूसरा उसे कुरूप
कह सकता है। फूल न सुंदर है न कुरूप। फूल अपनी वास्तविकता में जैसा है वैसा है। और
उसे तुम्हारी व्याख्याओं की परवाह नहीं है। लेकिन तुम्हारे लिए वह या तो एक खाली मार्ग
हो जाओ, कोई प्रतिरोध न करो, ताकि जीवन तुममें से बह सके सरलता
से बह सके। फिर कोई शोर नहीं होगा। हो सकता है तुम्हें अपने होने का पता भी न चले क्योंकि
जब तुम संघर्ष करते हो तभी तुम्हें पता चलता है कि तुम हो। जितना तुम संघर्ष करते हो
उतना ही तुम्हें तुम्हारा होना महसूस होता है।
जीवन
इतनी शांति से तुममें से बहता है कि तुम अपना होना ही भूल जाते हो। न कोई बाधा है न
प्रतिरोध, न अस्वीकार, न निषेध। और तुम इतने स्वागत से भरे होते
हो कि तुम यह भी भूल जाते हो कि तुम हो भी।
एक
झेन गुरु के बारे में कहते हैं कि वह अपना ही नाम दिन में कई बार पुकारता था। सुबह
वह कहता, बोकोजू और फिर कहता, 'जी हो, मैं
यहीं हूं।’ बोकोजू उसका ही नाम था। और उसके शिष्य उससे पूछते
कि वह ऐसा क्यों करता है। वह कहता कि मैं भूल जाता हूं। मैं इतना शांत हो गया हूं कि
मुझे खुद को ही याद दिलाना पड़ता है बोकोजू और फिर मैं कहता हूं 'जी हा मैं यहीं हूं।’
जीवन
इतना शांत बहाव,
इतनी शांत धारा हो सकता है कि कोई शोरगुल नहीं होता। लेकिन यदि तुम कुछ
होने, असाधारण होने, विशेष होने पर ही अड़े
रहो, तो जीवन तुममें से नहीं बह सकता। तब तुम्हारे और जीवन के
बीच, तुम्हारे क्षुद्र अहंकार और ब्रह्मांड के बीच संघर्ष खड़ा
हो जाता है।
इसी
से विक्षिप्तता पैदा हो रही है। पूरी पृथ्वी एक विक्षिप्त ग्रह बन गई है। और इस विक्षिप्तता
का निदान किसी उपचार,
किसी मनोचिकित्सा से नहीं हो सकता, क्योंकि यह
जीवन की इतनी मौलिक शैली बन गई है। यह कोई बीमारी नहीं है ऐसे ही हम जी रहे हैं। हमारे
जीने का पूरा ढंग ही विक्षिप्त है।
तो
तुम्हारा उपचार किन्हीं चिकित्सा-पद्धतियों से नहीं हो सकता जब तक कि पूरी जीवन शैली
ही न बदली जाए। और केवल दो ही तरह की जीवन शैलियां हैं : अहंकार-उन्मुख और निरहंकार-उमुख।
तुम्हें कुछ होना है यह जीवन का एक ढंग है। तब विक्षिप्तता उसका परिणाम होगी। असल में, विक्षिप्त
व्यक्ति सबसे असाधारण व्यक्ति है। उसने असाधारणता उपलब्ध कर ली है, क्योंकि अब वह वास्तविकता से बिलकुल उखड़ गया है, यथार्थ
से उसका कोई संबंध ही नहीं है। अब वह अपने आप में ही जीता है उसने अपना निजी संसार
निर्मित कर लिया है। अब स्वप्न वास्तविक हो गया है और वास्तविक बस स्वप्न मात्र रह
गया है। सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है।
तुम
किसी पागल को राजी नहीं कर सकते कि वह गलत है क्योंकि वह बहुत तर्क-संगत होता है। पागल
बहुत तर्क-संगत और विचारयुक्त होते हैं।
एक
पागल हर रोज सुबह-सुबह अपने घर से बाहर आकर कुछ मंत्रों का जाप करता और कुछ मुद्राएं
बनाता। तो स्वभावत: जो भी उधर से गुजरता वही पूछता कि वह क्या कर रहा है। और वह पागल
कहता, 'मैं इस मोहल्ले की भूतों से रक्षा कर रहा हूं।’
तो
वह राहगीर कहता,
'लेकिन यहां तो कोई भूत हैं ही नहीं।’
और
वह पागल कहता,
'देखा, मेरे मंत्र जपने से यहां कोई भूत नहीं है।’
वह
एकदम तर्कयुक्त है तुम उसे समझा नहीं सकते-उसके मंत्र जाप के कारण भूत नहीं हैं। लेकिन
अब वह अपने ही तरिक स्वप्न-जगत में जीता है और तुम उसे बाहर नहीं खींच सकते।
यदि
तुम अपने को कुछ समझते हो-कोई भी कुछ नहीं हो सकता, यह तुम्हारा स्वभाव ही नहीं
है—लेकिन तुम अपने को यदि कुछ समझते हो तो तुम्हारा एक हिस्सा विक्षिप्त हो गया है।
यह कुछ होना ही तुम्हारी विक्षिप्तता है। और जितना कुछ होने का यह कैंसर बढ़ता जाएगा
उतने ही तुम वास्तविकता से कटते जाओगे।
एक
बुद्ध पुरुष ना-कुछ होता है। उसके सब द्वार खुले हैं। हवा आती है और चली जाती है, वर्षा आती
है और बरस जाती है, सूर्य की किरणें आती हैं और गुजर जाती हैं,
जीवन बहता चला जाता है लेकिन वह वहां नहीं होता। जब मैं कहता हूं कि
तुम्हें ध्यान घटित हुआ है तो मेरा यही अर्थ है। और यह बहुत साधारण, स्वाभाविक और वास्तविक है।
चौथा प्रश्न :
आप
अक्सर कहते हैं कि यह अच्छा है या बुरा है, यह गलत है या सही है। क्या वह
भाषा आप हम लोगों के लिए ही प्रयोग करते है, क्योंकि हम हर चीज
की अखंडता को नहीं देख थाने, या कि अच्छे-बुरे जैसा कुछ होता
है?
नहीं, यह तो केवल
भाषा है। मेरे लिए तो न कुछ अच्छा है न बुरा। लेकिन तुम्हारे लिए यह बहुत खतरनाक होगा।
सत्य खतरनाक हो सकता है। असल में, केवल सत्य ही खतरनाक हो सकता
है-झूठ कभी इतने खतरनाक नहीं होते, क्योंकि उनमें कोई ताकत नहीं
होती, उनमें कोई बल नहीं होता।
सत्य
बहुत घबड़ाने वाला हो सकता है। यह सत्य है कि न कुछ अच्छा है न बुरा, न कुछ सही
है न गलत; सब कुछ जैसा है बस वैसा है; सारी
निंदा और सारे विभाजन व्यर्थ हैं। लेकिन तुम्हारे लिए यह खतरनाक होगा। तुम्हारे लिए
यह बहुत ज्यादा हो जाएगा और तुम इसे गलत समझ लोगे। तुम इसे समझ नहीं सकते; जब न कुछ अच्छा है न बुरा तो तुम समझ नहींपाओगे और तुम अपने हिसाब से उसकी
व्याख्या कर लोगे।
यदि
मैं कहता हूं कि न कुछ अच्छा है न बुरा तो तुम सोचोगे कि अब तक जिस चीज को तुम बुरा
समझते रहे हो,
उसे अब बुरा समझने की कोई जरूरत नहीं है। तो तुम्हारे लिए यह उच्छृंखलता
हो जाएगी और तुम दोहरी मानसिकता में पड़ जाओगे। तुम सोचोगे कि तुम्हारे लिए न कुछ अच्छा
है न कुछ बुरा है, लेकिन दूसरों को तुम इसकी इजाजत न दोगे। यदि
तुम दूसरों को भी इसकी इजाजत दे सको तभी तुमने समझा; तब यह उच्छृंखलता
न रही, मुक्ति हो गई। लेकिन मापदंड एक होना चाहिए, दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए।
मैं
क्यों कहता हूं कि न कुछ अच्छा है न कुछ बुरा? क्योंकि अच्छाई और बुराई तो
व्याख्याएं हैं, वास्तविकता नहीं हैं।
यदि
बाहर बगीचे में कोई फूल खिला है तो तुम उसे सुंदर कह सकते हो और कोई दूसरा उसे कुरूप
कह सकता है। फूल न सुंदर है न कुरूप। फूल अपनी वास्तविकता में जैसा है वैसा है। और
उसे तुम्हारी व्याख्याओं की परवाह नहीं है। लेकिन तुम्हारे लिए वह या तो सुंदर है या
नहीं है। वह सुंदरता और कुरूपता एक व्याख्या है, वास्तविकता नहीं। यह तुम्हारा
मन है जो कहता है कि यह सुंदर है या कुरूप है। फूल को तो इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा,
लेकिन तुम्हें अंतर पड़ेगा। यदि तुम उसे सुंदर कहते हो तो तुम्हारा आचरण
एक तरह का होगा; यदि तुम उसे कुरूप कहते हो तो तुम्हारा आचरण
अलग होगा। तुम अपनी व्याख्या से प्रभावित होओगे।
और
मैं तुमसे बात कर रहा हूं तो मुझे सतत स्मरण रखना पड़ता है कि मैं जो भी कहूंगा, उससे तुम्हारा
आचरण प्रभावित होगा। और जब तक तुम ऐसी स्थिति पर न पहुंच जाओ जहां सारा जोर करने से
होने में बदल जाए, जब तुम कुछ करने में नहीं बस मात्र होने में
ही उत्सुक रह जाओ तब तक तुम नहीं समझ सकते कि जब मैं कहता हूं कि न कुछ अच्छा है न
बुरा है तो उसका क्या तात्पर्य है। चीजें तो बस जैसी हैं वैसी हैं।
लेकिन
यह समझना केवल तभी संभव है जब तुम अपने अंतस में गहरे केंद्रित हो जाओ। और यदि तुम
अपने अंतस में केंद्रित हो तो तुम जो भी करोगे अच्छा ही होगा, तब कोई खतरा
नहीं है। लेकिन अभी तुम अपने अंतस में केंद्रित नहीं हो, तुम
अभी परिधि पर हो। तुम लगातार चुनाव कर रहे हो कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।
असल
में तुमने कभी यह प्रश्न ही नहीं पूछा है, 'क्या होना है?' तुम सदा यही पूछते रहे हो 'क्या करना है और क्या नहीं
करना है, और यह ठीक होगा या नहीं?' तुमने
कभी यह नहीं पूछा है, 'क्या होना है?' और
जब तक होना करने से अधिक महत्वपूर्ण न हो जाए, तब तक अच्छा भी
है और बुरा भी है-तुम्हारे लिए। तब तक कुछ ऐसा है जो करना है और कुछ ऐसा है जो नहीं
करना है।
यह
अंतर मैं कैसे करता हूं और क्यों करता हूं? यदि वास्तव में न कुछ अच्छा है और
न कुछ बुरा है तो यह अंतर क्यों और कैसे बन पाता है?
यह
अंतर भी मैं तुम्हारे लिए ही करता हूं : मैं उस चीज को अच्छा कहता हूं जो तुम्हें तुम्हारे
अंतस की ओर ले जाए,
जहां सब कुछ अच्छा ही होता है, और उस चीज को मैं
बुरा कहता हूं जो तुम्हें तुम्हारे अंतस से दूर ले जाए। यदि तुम स्वयं से दूर होते
चले जाओ तो सब कुछ गलत हो जाएगा।
तुम्हें
तुम तक, तुम्हारे घर तक लौटा लाने में मदद करने के लिए मैं किसी चीज को अच्छा या बुरा
और ठीक या गलत कहता हूं।’अच्छा या बुरा' शब्दों से 'ठीक या गलत' शब्दों
का प्रयोग करना बेहतर है क्योंकि तुम्हें तुम्हारे अंतस तक लौटा लाने की विधियों में
मेरा अधिक रस है। तो वह विधि ठीक हो सकती है जो तुम्हें तुम्हारे अंतस पर ले जाए;
और वह विधि गलत हो सकती है जो तुम्हें अंतस पर न पहुंचाए या बाधा बन
जाए और तुम्हें इधर-उधर के रास्तों पर भटकाती रहे, जो तुम्हें
कहीं पहुंचाने की बजाय गोल-गोल घुमाती रहे।
लेकिन
यदि तुम मुझसे पूछो तो अंतत: न कुछ अच्छा है न बुरा, न ठीक है न गलत। और यदि तुम
इसे अभी समझ सकते हो तो ऐसे जीना शुरू कर दो जहां न कुछ सही है न गलत। और जहां तक तुम
दूसरों से संबंधित हो वहां तो यह बात है ही, दूसरे भी जहां तक
तुमसे संबंधित हैं, यही बात है।
जीसस
कहते हैं, 'दूसरों के साथ वही करो जो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ. करें।’
यह
एक मापदंड का मूल नियम है। और यही उन सब का संदेश है जो तुम्हें तुम तक लौटा लाने में
मदद करना चाहते हैं-बस एक ही मापदंड है जहां न कुछ अच्छा है न बुरा है, न केवल तुम्हारे
लिए बल्कि सब के लिए।
यदि
तुम चोरी कर रहे हो तो यह कहना सरल है कि चोरी करना बुरा नहीं है, लेकिन यदि
कोई और तुम्हारी कोई चीज चुरा रहा हो तो यह कहना कठिन हो जाता कि चोरी करना बुरा नहीं
है।
मैंने
एक चोर के बारे में सुना है। जब चौथी बार वह पकड़ा गया तो जज ने उससे पूछा, 'तुम बार-बार
पकड़े जाते हो, क्या बात है? यदि तुम इतने
कुशल नहीं हो तो चोरी क्यों करते हो?' चोर ने कहा, 'कुशलता की बात ही नहीं है। मैं अकेला हूं और काम बहुत ज्यादा है।’ तो जज ने कहा, 'फिर तुम कोई सहयोगी, कोई साथी क्यों नहीं ढूंढ लेते?' चोर ने उत्तर दिया,
'लोगों के चरित्र इतने गिर गए हैं कि किसी साथी पर भरोसा नहीं किया जा
सकता।’
एक
चोर भी दूसरों के लिए चरित्र की भाषा में सोचता हैं--चरित्र इतने गिर गए हैं कि किसी
साथी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए मुझे सारा काम अकेले करना पड़ता है और काम बहुत
ज्यादा है।’
सब
जानने वालों का यही गहनतम संदेश है : चुनाव करने को कुछ भी नहीं है। सब कुछ स्वीकृत
है। यदि तुम इसे समग्रता से स्वीकार कर पाओ तो तुम रूपांतरित हो गए। लेकिन यदि तुम
चालाक हो और स्वयं को धोखा देना चाहते हो तो यह समग्र स्वीकृति खतरनाक हो जाएगी।
तो
मैं बहुत सी चीजें केवल तुम्हारे कारण ही कहता हूं। और बीच-बीच में मैं वे बातें भी
कहता जाता हूं जो मैं वास्तव में तुमसे कहना चाहता हूं। लेकिन यह बड़े अपरोक्ष ढंग से
ही दिया जा सकता है। तुम इतने खतरनाक हो, इतने आत्मघाती हो, कि तुम कुछ भी कर सकते हो जो तुम्हारे लिए हानिकारक हो सकता है।
मैं
एक उच्चतर सत्य के बारे में बोल रहा हूं-न केवल उच्चतर सत्य, बल्कि परम
सत्य। नरोपा अपने एक गीत में कहता है कि नर्क और स्वर्ग के बीच में केवल एक इंच का
अंतर है। अच्छे और बुरे के बीच एक इंच का अंतर स्वर्ग और नर्क को अलग-अलग करता है।
और
तुम्हें विषाद में रहना पड़ेगा, क्योंकि तुमने विभाजन खड़ा किया है। सारे विभाजनों
को निकट से निकट लाते जाओ और उन्हें एक-दूसरे में विलीन हो जाने दो। अच्छे और बुरे
को अंधकार और प्रकाश को, जीवन और मृत्यु को एक-दूसरे में विलीन
हो जाने दो। तब अद्वैत घटित होता है तब एकरूपता घटती है। वह एकरूपता ही मुक्ति लाती
है, रूपांतरण लाती है।
चौथा
प्रश्न :
आत्म-सम्मोहन
के द्वारा हमारी कल्पना ने ही हमको सीमा के जगत में, नाम और रूप
के जगत में सुख और दुख के जगत में प्रतिष्टित किया है। क्या यही कुंजी असीम,
परम और आनंद के जगत तक पहुंचने के लिए भी प्रयोग की जा सकती?
क्या उसी कुंजी का विपरीत दिशा में भी उपयोग किया जा सकता है?'
तुम
इस घर तक आए हो,
जल्दी ही तुम वापस जाओगे, और फिर उसी रास्ते का
उपयोग करोगे-लेकिन विपरीत दिशा में। जब तुम यहां आ रहे थे तो तुम्हारा चेहरा मेरी ओर
था, जब तुम वापस जाओगे तो तुम्हारी पीठ मेरी ओर होगी। लेकिन मार्ग
वही होगा। घर जाने के लिए किसी और मार्ग की जरूरत नहीं है। केवल दिशा बदल जाती है।
जो
मार्ग तुमने अंधकार में आने के लिए तय किया है मार्ग तो वही होगा-वही एकमात्र मार्ग
हैं-तुम्हें उसी मार्ग से वापस यात्रा करनी पड़ेगी। जो मार्ग तुम्हें दुख और विषाद में
ले आया है, वही मार्ग तुम्हें आनंद और सुख में ले जाएगा। कोई और मार्ग ही नहीं है,
न उसकी कोई जरूरत है। और स्मरण रहे, किसी और मार्ग
पर जाना भी मत, नहीं तो कभी घर नहीं पहुंच सकोगे।
उसी
मार्ग पर दोबारा चलने में तुम्हें थोड़ा जागरूक होना पड़ेगा। परिवर्तन केवल दिशा में
होगा-बस पीछे मुड़ना है। सम्मोहन, आत्म-सम्मोहन इस संसार का निर्माण करते हैं। निर्सम्मोहन,
निरात्म-सम्मोहन तुम्हें वापस यथार्थ तक पहुंचा देंगे। सीमित संसार तो
कहीं है ही नहीं, केवल असीम ही है। यह तो तुम्हारी धारणा है,
तुम्हारा सम्मोहन है, जो इसे सीमित बना देता है।
अपना सम्मोहन हटा लो और संसार असीम हो जाता है। यह तो सदा से ही असीम है।
ध्यान
की सारी विधियां सम्मोहन जैसी हैं। इससे समस्या खड़ी होती है। इससे समस्या खड़ी होती
है जब लोग ध्यान और सम्मोहन के बीच अंतर पूछते हैं। कोई अंतर नहीं है। मार्ग वही है, बस दिशा विपरीत
है।
सम्मोहन
में तुम और नींद में चले जाते हो, और मूर्च्छित हो जाते हो; ध्यान में तुम नींद से बाहर आते हो, होश बढ़ता जाता है।
मार्ग वही है। सम्मोहन में तुम स्वयं को धारणाओं में ढाल रहे हो और ध्यान में तुम स्वयं
को धारणाओं से मुक्त कर रहे हो-लेकिन प्रक्रिया वही है। ध्यान विपरीत सम्मोहन है। तो
जो भी तुमने किया है उसे अनकिया करना है। बस इतना ही है।
एक
सरल सा प्रयोग करके देखो जिससे तुम्हें पता चलेगा कि तुम स्वयं को सम्मोहित कर सकते
हो। अपना कमरा बंद कर लो और बिलकुल अंधेरा कर दो। एक छोटी सी मोमबत्ती ठीक अपने सामने
रख लो। आंखें बिना झपकाए लौ की ओर देखते रहो और सोचते रहो कि तुम्हें नींद आ रही है, तुम्हें नींद
आ रही है। गहरी निद्रा तुम पर छा रही है-इस विचार को भीतर बहने दो। मोमबत्ती की लौ
को देखते रहो और इस विचार को बादल की तरह अपने ऊपर मंडराने दो-तुम सो रहे हो,
सो रहे हो। जब तुम इसे करो तो तुम्हें कहना है, मैं सो रहा हूं मुझे नींद आ रही है, मेरा अंग-अंग शिथिल
हो रहा है।
अचानक
तुम्हें एक सूक्ष्म परिवर्तन महसूस होगा और तीन मिनट में ही तुम्हें लगने लगेगा कि
तुम्हारा शरीर भारी हो गया है। किसी भी क्षण तुम गिर सकते हो। आंखों की पलकें भारी
हो गई हैं और अब ली की ओर देखते रहना संभव नहीं है। आंखें बंद होना चाहती हैं। सब कुछ
शिथिल हो गया है।
अब
तुम महसूस कर सकते हो कि सम्मोहन क्या है : और अधिक सो जाना, तंद्रा में
डूब जाना, बेहोश हो जाना। इस अनुभव को महसूस करो कि क्या हो रहा
है, कैसे तुम्हारा मन आच्छादित हो रहा है। स्पष्टता चली गई,
जीवंतता चली गई, तुम जड़ हो रहे हो, तुम्हारा शरीर अधिक बोझिल हो गया है। इस प्रयोग से तुम्हें पता चलेगा कि कैसे
तुम्हारी चेतना अचेतन हो जाती है।
सात
दिन तक इस प्रयोग को करो,
ताकि तुम पूरी तरह से महसूस कर सको कि यह क्या है और कैसे तुम अंधेरे
कुएं में उतरते चले जाते हो। बढ़ते हुए अंधकार, बढ़ती हुई नींद
और बेहोशी के साथ एक ऐसा क्षण आएगा जब न तुम रहोगे और न ली रहेगी। तुम गहन निद्रा में
चले जाओगे। तुम कब का अनुभव कर सकोगे।
फिर
सात दिन बाद दूसरा प्रयोग करो। वही कमरा हो, वही लौ हो और उसी तरह से उसको देखो,
लेकिन मन में दूसरा विचार करो : 'मैं अधिक जागरूक
हो रहा हूं अधिक जीवंत हो रहा है अधिक सजग हो रहा हूं शरीर हलका होता जा रहा है।’
इस विचार को भीतर चलने दो और लौ की ओर देखते रहो-तुम अचानक जीवन,
होश और चेतना का अनुभव करोगे। सात दिन के भीतर तुम ऐसी स्थिति पर पहुंच
जाओगे जहां तुम इतने जागरूक होओगे कि तुम्हें लगेगा जैसे शरीर है ही नहीं।
एक
ध्रुव पर तो केवल गहन निद्रा है, जहां तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो;
दूसरे ध्रुव पर गहन जागरण है, जहां सब कुछ भूल
जाता है, केवल तुम स्वयं को याद रखते हो। फिर बीच की कई स्थितियां
हैं। जिस स्थिति में हम हैं वह बीच की है-आधे सोए हुए आधे जागे हुए। तो जो भी तुम कर
रहे हो वह आधे सोए हुए और आधे जागे हुए कर रहे हो। दोनों प्रक्रियाएं एक समान हैं।
सघन
विचार वास्तविकता बन जाता है; विचार घनीभूत होकर वस्तु बन जाता है। एक विचार यदि
सतत तुम्हारी चेतना में चलता रहे तो तुम्हें रूपांतरित कर देता है, बीज बन जाता है। तो यदि तुम स्वयं को जागरूक बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हो
तो स्वयं को धारणाओं से मुक्त कर रहे हो और विपरीत दिशा में जा रहे हो।
गुरजिएफ
इसे आत्म-स्मरण कहता है। वह कहता है, 'स्वयं को सतत स्मरण रखो।’
बुद्ध
कहते हैं, 'तुम जो भी कर रहे हो, स्वयं को मत भूलो; लगातार स्मरण करते रहो कि तुम यह कर रहे हो।’ और इस बात
पर उनका इतना आग्रह है कि वे अपने भिक्षुओं से कहते हैं, 'जब
तुम चलो और तुम्हारा बायो पांव ऊपर उठे, तो स्मरण रखो कि तुम्हारा
बायां पांव उठ रहा है, अब पांव नीचे जा रहा है, अब दाया पांव उठ रहा है, अब दाया पांव नीचे जा रहा है।
स्मरण रखो कि श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है। जो
भी हो रहा है उसे सतत स्मरण रखो और हर घटना का स्मरण के लिए एक परिस्थिति की भांति
उपयोग कर लो।
कुछ
भी बेहोशी की,
निद्रा की अवस्था में मत करो।’
और
बुद्ध कहते हैं कि इतना ही पर्याप्त है। यदि तुम चौबीस घंटे इसी तरह से कार्य कर सको
तो देर-अबेर तुम स्वयं ही सम्मोहन से मुक्त हो जाओगे। तुम होश से भर उठोगे।
तो
सम्मोहन और ध्यान एक ही प्रक्रिया की दो विपरीत दिशाएं हैं। तुम सम्मोहन का प्रयोग
स्वयं के जागरण के लिए कर सकते हो; तुम सम्मोहन का प्रयोग गहरी नींद में
जाने के लिए भी कर सकते हो। और यदि तुम सम्मोहन की कला के स्वामी हो जाओ तो जीवन के
सभी द्वार खोलने की कुंजी तुम्हारे हाथ लग जाती है।
यदि
तुम सम्मोहन की कला के स्वामी नहीं हो तो तुम बहुत सी चीजों के शिकार होते हो। यह समझने
जैसा है : यदि तुम्हें यह नहीं पता कि सम्मोहन क्या है तो तुम एक शिकार हो। हर कोई
तुम्हें सम्मोहित करने की कोशिश कर रहा है-मैं कहता हूं हर कोई! हो सकता है वे जान-बूझ
कर न कर रहे हों,
लेकिन सभी कोशिश कर रहे हैं। अलग-अलग ढंग हैं अलग-अलग उपाय हैं।
पूरा
संसार सम्मोहन की चालबाजियों से भरा है : वही विज्ञापन होते हैं अखबार में वही टेलीविजन
पर- वही रेडियो पर। इससे चोट पड़ती चली जाती है और सम्मोहन बन जाता है। तुम मन में दोहराते
रहते हो लक्स सर्वोत्तम साबुन है।’ तुम दोहराए चले जाते हो। तुम जहां भी
जाते हो दीवारों पर यही लिखा है फिल्मों में तुम यही देखते हो, टेलीविजन की स्कीन पर यही है रेडियो पर यही है पत्र-पत्रिकाओं में कहीं भी
देखो : लक्स टायलेट सोप। यह चलता रहता है। तुम इससे सम्मोहित हो जाते हो। फिर तुम दुकान
पर जाते हो और दुकानदार तुमसे पूछता है 'कौन सा साबुन चाहिए?'
तो तुम कहते हो, लक्स टायलेट सोप।’ तुम सोए हुए हो। तुम यह जागे हुए नहीं कह रहे; बार-बार
तुम्हें यह बताया गया है और अब यह तुम्हारे भीतर घर कर गया है। तुम्हें सम्मोहित करने
के लिए करोड़ों रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए जाते हैं। उन विज्ञापनों को लगातार दोहराना
पड़ता है। दोहराना ही ढंग है। फिर उसकी छाप पड़ जाती है, और तुम
उसे बिलकुल भूल जाते हो; फिर अचानक तुम्हारे मुंह से निकलता है,
लक्स टायलेट सोप।’ और तुम सोचते हो कि तुम चुनाव
कर रहे हो। तुम चुनाव करने वाले नहीं हो।
पूरी
शिक्षा प्रणाली एक सम्मोहन है। इसीलिए शिक्षक को ऊंची जगह पर बिठाना पड़ता है। इसे वैज्ञानिक
ढंग से नापना चाहिए,
क्योंकि एक विशेष स्थिति होती है-जिस तरह से मैं यहां बैठा हूं वह गलत
है, वह ठीक नहीं है। तुम्हारी आंखें मुझे देखते समय तनाव में
होनी चाहिए, विश्रांत नहीं-तब तुम सरलता से सम्मोहित हो सकते
हो।
हिटलर
ने हर अनुपात का प्रयोग किया। उसके पास एक विशेषज्ञ कमेटी थी जो निर्धारित करती थी
कि श्रोताओं से कितनी दूरी होनी चाहिए और कितनी ऊंचाई होनी चाहिए जिससे कि आंखें ठीक
इतने तनाव से भर जाएं कि उन्हें सम्मोहित किया जा सके और सुलाया जा सके। फिर सब बत्तियां
बुझा दी जाती थीं-हिटलर जहां भाषण देता था वहां सारा प्रकाश हिटलर पर ही होता था। कोई
कहीं और नहीं देख पाता था,
तो हिटलर की ओर ही देखना पड़ता था। एक खास परिस्थिति में एक खास तनाव
पैदा किया जाता था। इस तनाव की स्थिति में वह थोड़ी देर तक कुछ-कुछ कहता रहता। जो चीजें
उसे तुम्हारे दिमाग में डालनी होतीं वे बातें बाद में वह तब कहता जब श्रोता सोए-सोए
से हो जाते। तब शब्द सीधे अचेतन में उतर जाते और कार्य करने लगते।
अब
तो फिल्मों में त्वरित विज्ञापनों का उपयोग करने लगे हैं। जब तुम फिल्म देख रहे हो
तो दो दृश्यों के बीच,
केवल एक क्षण के छोटे से हिस्से के लिए विज्ञापन निकल जाता है। तुम उसे
पढ़ भी नहीं पाओगे, तुम्हें पता भी नहीं लगेगा कि क्या हुआ। फिल्म
देखते हुए अचानक कुछ क्षण के लिए विज्ञापन आएगा-लेकिन तुम्हें सचेतन रूप से उसका कुछ
भी पता न चलेगा।
सौ
में से केवल दो लोग महसूस कर सकते हैं कि कुछ हुआ है। जिनके पास बहुत सतर्क आंखें हैं
केवल उन्हें लगेगा कि बीच में कुछ था। अट्ठानबे प्रतिशत को तो पता भी न चल पाएगा, लेकिन अचेतन
में वे भी पढ़ लेंगे। वह तुम्हारे भीतर पहुंच जाएगा।
अमेरिकी
फिल्मों में इसका एक प्रयोग किया गया। शीतल पेय के एक विशेष ब्रांड का विज्ञापन इसी
तरह उन्होंने स्कीन पर चलाया-एक नया प्रयोग। केवल दो प्रतिशत लोगों को पता चल पाया
कि कोई विज्ञापन था,
अट्ठानबे प्रतिशत लोग पूरी तरह बेखबर थे, फिर भी
इंटरवल में कई लोग बाहर गए और उसी शीतल पेय की मांग करने लगे। उन्हें पता नहीं था कि
कोई विज्ञापन भी आया, क्योंकि वह बहुत त्वरित था।
तो
चारों ओर सम्मोहन है। शिक्षा उसका उपयोग करती है राजनीति उसका उपयोग करती है बाजार
उसका उपयोग करता है,
सभी उसका उपयोग करते हैं। और यदि तुम सचेत नहीं हो तो तुम उसके शिकार
हो। जागो।
यदि
तुम जाग जाओ तो उसका उपयोग कर सकते हो-दूसरों को सम्मोहित करने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं
को सम्मोहन से मुक्त करने के लिए। और यदि तुम पूरी तरह से सम्मोहन से निकल सको तो तुम
स्वतंत्र हो गए, मुक्त हो गए।
और
ध्यान तथा सम्मोहन में कोई विरोध नहीं है। विरोध है दिशा में, प्रक्रिया
वही है।
आज
इतना ही।
द्वैत नहीं हो सकता।
तो तुम शून्य नहीं हो।
हो। इसमें कुछ विशेष नहीं है। बुद्ध होना, जाग्रत होना तो सबसे साधारण घटना है। जब मैं कहता हूं 'साधारण' तो मेरा अर्थ है : इसे ऐसा होना चाहिए। यदि यह असाधारण दिखाई पड़ता है तो तुम्हारे-चरण,
वह इसी क्षण हो जाए।
व्याख्याएं हैं, वास्तविकता नहीं हैं।
न कुछ बुरा है तो यह अंतर क्यों और कैसे बन पाता है?
thank you guruji
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