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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-11)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो

ग्यारहवां -प्रवचन

प्रामाणिकता सर्वोपरि है

अंगुलीमाल जो कह रहा है, वह एक क्षण में बदल जाता है। इतनी ताकत का आदमी है। ताकत जो है, उसकी कोई दिशा नहीं है। दिशा हम देते हैं। एक अर्थ में बुरे होने की क्षमता सौभाग्य है। क्योंकि क्षमता तो है। बुरे हुए यह गलती की है। और क्षमता है। और मजे की बात यह है कि बुरा होना हमेशा भले होने से कठिन है। यहां भ्रम तौर से ऐसा नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन बुरा होना अच्छे होने से बहुत कठिन है।
प्रश्नः कांशसली बुरा होता है?
कांशसली...बहुत कठिन है और बहुत शक्ति मांगता है। क्योंकि प्राणों की पूरी आकांक्षा तो सदा ऊपर जाने की है, और आप उसे नीचे ले जाते हैं। बड़ी ताकत लगती है। और जद्दोजहद दुनिया से तो है ही, अपने से भी है। बुरा आदमी दोहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी इकहरी लड़ाई लड़ता है।
अच्छा आदमी सिर्फ आस-पास की दुनिया से लड़ता है। बुरा आदमी आस-पास की दुनिया से तो लड़ता ही है, अपने से भी लड़ता है। और अपने से लड़ता है नीचे जाने के लिए...और भीतर तो कोई निरन्तर ऊपर उठना चाहता है। वह, वह जो ऊपर उठने की चाह है, वह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती। अब रह गई बात ताकत की।


इसलिए जो मीडियाकर हैं, जो बीच के हैं, वे हमेशा अभागे हैं। और उनमें कोई बल नहीं है। वे अगर चोरी नहीं करते तो इसका कारण यह नहीं है कि वे चोरी नहीं करना चाहते हैं। उसका सौ में निन्यानबे मौकों पर कारण यह है कि वे इतना बल नहीं जुटा पाते कि चोरी करें। और इसको वे समझते हैं कि कोई गुण है। यह कोई गुण नहीं हुआ। और चूंकि वे चोरी करने का ही बल नहीं जुटा पाते, इसलिए कभी साधु होने का बल तो वे कभी जुटा पाने वाले नहीं। और आप हैरान होंगे, साधु इसीलिए हार रहे हैं दुनिया में कि सब मीडियाकर साधु बन गए हैं। और सब ताकतवर लोग बुरे लोग हैं। इसलिए बुरे लोगों से साधु जीत नहीं पाते हैं। क्योंकि साधु बुरा आदमी नहीं है।
 और साधु बिलकुल बोगस है। वह मीडियाकर है। वह चोरी नहीं कर सकता था। वह दुकान पर बेईमानी नहीं कर सकता था। इसलिए वह मंदिर में बैठ गया। मंदिर में बैठ जाना कोई पाॅजिटिव एक्ट नहीं है उसका। सिर्फ बचाव है। वह बच गया। और इसलिए ही साधु हार जाता है बुरे आदमी से। बुरा आदमी बहुत शक्तिशाली है। इसलिए हिटलर जीत जाते हैं, नेपोलियन जीत जाते हैं। उनकी दुनिया जीतती चली जाती है। और अच्छा आदमी बिलकुल इंपोटेंट साबित होता है। वह कहता रहता है, कहता रहता है, कोई सुनता नहीं। जब हिटलर और नेपोलियन जैसे ताकत के लोग अच्छे आदमी बनते हैं, तब दुनिया बदलती है। नहीं तो नहीं बदलती। उतनी ताकत चाहिए।

प्रश्नः मगर वह बदलने के लिए भी कोई तो उनके जीवन में कुछ ऐसी हैपनिंग्स हैं?

जरूर हैपनिंग्स हैं। हां, बिलकुल ही हैपनिंग्स हैं। हां, बिलकुल हैपनिंग्स हैं। असल में आप अगर बुरे ही होते चले जाएं, तो भी वह मौका आ जाएगा जहां से आप लौट पड़ेंगे। आप जाएं तो कहीं। हर चीज जाकर लौटती है। हर चीज की सीमा है। लेकिन जो सीमा तक नहीं जाते, वे कभी नहीं लौटते।
 लेकिन मैं कहता हंू कि अगर एक आदमी शराब पीता हो, तो मैं कहता हंू कि थोड़ा बहुत, बह‏ुत मत पीते रहो। क्योंकि तुम कभी नहीं लौट सकोगे। शराब ही पीनी है तो फिर पी ही डालो, और उस सीमा तक जो कि आखिरी तुम्हें मालूम पड़े। और निश्चित तुम वापस लौट आओगे। लौटने के लिए वर्तुल पूरा तो होना चाहिए। हां, कहीं से जाकर, किसी सीमा से जाकर लौट सकते हैं।

प्रश्नः लौटने का वह भी तरीका है एक?

बीच से कभी कोई नहीं लौटता। और बीच से लौटा हुआ, फिर वापस लौट सकता है। क्योंकि बीच से लौटा हमेशा अधूरे से लौटा है। आधा अनुभव उसका बाकी रह गया। बुरा होने का अनुभव भी अगर पूरा हो जाए तो आदमी को अच्छा होने के सिवाय बचता क्या है? आप यह जान कर हैरान होंगे कि हम वही होने को कभी राजी नहीं हैं, जो हम हैं। हम कुछ और होना चाहते हैं। हम निरंतर कुछ और होना चाहते हैं। और अच्छे का मतलब ही एक है।
और मेरी जो परिभाषा है अच्छे और बुरे की--मैं बुरे की परिभाषा उसे कहता हंूः वह स्थिति, जिससे आप कभी राजी न हो सकें। आपको जिस स्थिति से निरंतर हटना ही पड़े। चाहे और बुरे में जाना पड़े। लेकिन जिससे आप राजी न हो सकें। जो सतत आपको भगाती रहे, कहीं और, कहीं और, कहीं और। और अच्छे को कहता हंू मैं वह स्थिति, जहां आप राजी हो सकें, जो भगाए न। और जो कहे यहीं, यहीं, यहीं। तो बुरे के साथ एक डाइनैमिज्म है। इसलिए बुरा कोई चिंतनीय नहीं है।
बुरा चिंतनीय तब है, सिर्फ एक स्थिति में बुरा चिंतनीय है कि उसके ऊपर लिबास अच्छे का हो। और सेल्फ-डिसेप्शन शुरू हो जाए। यानी वह खुद ही समझे कि मैं अच्छा हंू, और वह बुरा है। तब खतरा शुरू होता है। नहीं तो कोई खतरा नहीं है। एक बुरे, सीधे निपट बुरे आदमी से कोई हर्जा नहीं है। और यह आदमी वापस लौट आएगा। यह खालिस आदमी है। यह बुरे से राजी नहीं हो सकेगा, वापस आना पड़ेगा। कन्वर्शन होगा।
लेकिन अगर यह ऐसा आदमी है जो है बुरा, और अपने को अच्छा समझता है तो कनवर्शन में बहुत वक्त लग जाएंगे। जन्म भी लग सकते हैं। क्योंकि इसने एक ऐसा धोखा खड़ा कर लिया है जिसमें अपनी स्थिति मुश्किल में पड़ गई। यह है बुरा, जिसे बदलना चाहिए था, और यह मानता है अच्छा। और अच्छा बदलना चाहता नहीं। अब यह डिच में पड़ गया है। जैसा है वह बदलना चाहिए। और जैसा मानता है वह बिना बदले रहना चाहेगा। इसलिए कई बार जो ऊपर से दिखाई पड़ता है कि यह, यह फलां आदमी बुरी स्थिति में है और फलां आदमी अच्छी स्थिति में, अक्सर उलटा होता है।
आत्म-वंचना की स्थिति में जो लोग हैं, वे सबसे बुरी स्थिति में हैं। जो जानते हैं कि हम बुरे हैं, पहचानते हैं कि हम बुरे हैं, और किसी तरह के धोखे में नहीं हैं--उनकी स्थिति बड़ी अदभुत है। उनका लौटना, आने के करीब है। ये लौट आएंगे। और ये उतनी ही गति से लौटेंगे जितनी गति से गए हैं। इनकी जड़ें जितनी नीचे गई हैं, उतना ऊपर इनका शिखर पहुंच जाने वाला है। अब यह भी मजे की बात है कि जो लोग नीचे कभी भी नहीं गए हैं, एक अर्थ में उनका जीवन अधूरा है। उसमें, जिसको रिचनेस कहें, नहीं है। इसलिए...।

 प्रश्नः ऐसे भी हुआ है, जो बच्चे गुरुकुल में भेजे गए, गुरुकुल से पास होने के बाद ऐसा उलट-फेरा मारा उन्होंने कि जितनी वह शक्तियों में बड़े हुए हों, उनका बिलकुल ही फ्रीज हो जाए।

अनुभव की...वह सत्य ढंग से अच्छे बन गए आदमी में नहीं होती। हो ही नहीं सकती। जो बुरे के बहुत गहरे अनुभव से गुजरा है, उसी के अनुभवों में रिचनेस होती है। और वही आदमी जो बहुत बुरे से गुजरा है, भले के रस को और स्वाद को भी उपलब्ध होता है। इसलिए जीवन की व्यवस्था इस दृष्टि से बड़ी अर्थपूर्ण है। यहां अंधेरे से भी गुजरना इसीलिए है कि प्रकाश दिखाई पड़ सके। और यहां बुरे से भी गुजरना इसीलिए है कि किसी दिन भले का स्वाद आ सके। और यहां पदार्थ की यह लंबी यात्रा भी इसीलिए कि परमात्मा का अनुभव हो सके। ये दिखाई पड़ने वाली उलटी चीजें, उलटी बिलकुल नहीं हैं। किसी एक तीसरी इकाई को दोनों तरफ से समृद्ध करती हैं।
जैसे काले पत्ते पर कोई सफेद लकीर से लिखता है। और सफेद पत्ते पर सफेद लकीर से भी लिखे तो हर्ज नहीं है। लिख तो जाएगा, पढ़ा नहीं जा सकेगा। और जो लिखा हुआ पढ़ा न जा सके, उसके लिखे होने का मतलब क्या है? लिखते हैं हम काले पर, और लिखते हैं सफेद से। वह काले पर उभर कर दिखता है। तो इसलिए बुरे का भी जीवन की व्यवस्था में उतना ही अर्थ और प्रयोजन है, जितना भले का। अशुभ का भी उतना ही महत्वपूर्ण अर्थ और प्रयोजन है, जितना शुभ का। और रावण व्यर्थ नहीं है, निष्प्रयोजन भी नहीं है। और रावण के बिना राम का कोई अर्थ भी नहीं है। और इसलिए जो जानते हैं वे राम का गुणगान न करेंगे और रावण की निंदा न करेंगे।
वे कहेंगेेः राम और रावण एक ही कथा के दो हिस्से हैं--जिनके दोनों के बिना कथा होती नहीं, बनती नहीं। और मजा यह है कि राम को जो भी निखार मिल रहा है वह रावण की वजह से।
जैनों की कथाओं में रावण को भविष्य का तीर्थंकर...यह बड़ा महत्वपूर्ण है। यह कथा ब.ड़ी अर्थपूर्ण है--होने वाले भविष्य का तीर्थंकर। क्यों? वह बुरे की अंतिम सीमा तक पहुंच गया है, अब भले का वर्तुल शुरू होगा। फ्यूचर (10: 25 अस्पष्ट ...)। क्योंकि बुरे को जहां तक छुआ जा सकता है, छू लिया गया। अब लौटना शुरू होगा। काला पत्ता तैयार होगा, अब सफेद लकीर लिखी जाएगी। तो इसलिए अगर कोई बहुत गौर से देखे तो कोई राम पहले है; कोई रावण थोड़ी देर बाद फिर राम है। समय का अंतराल है, स्थिति का अंतराल नहीं है। और इस अनंत समय में...
... दीपंकर खूब हंसने लगा है, और पास भिक्षु इकट्ठे हुए हैं। वे पूछने लगे, क्यों हंसते हैं? तभी उस दीपंकर ने...झुका और बुद्ध के चरण छुए। तो बुद्ध तो बहुत घबरा गए। उन्होंने कहा कि यह क्या करते हैं? मैं छूऊं आपके पैर, सो ठीक है। आप मेरे छुएंगे? यह क्या करते हैं? दीपंकर ने कहा कि तुझे समय का पता नहीं, आज मैं बुद्ध हंू, कल तू हो जाए। और जो पूरे समय की धारा को जानते हैं वहां आगे और पीछे का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि धारा अनंत है। धारा अगर सीमित हो तो आगे और पीछे होता है कोई। अगर न धारा का यहां कोई छोर है, न वहां कोई छोर है तो कौन है आगे, कौन है पीछे? आज तू अज्ञानी है, कल तू ज्ञानी हो जाएगा। होना ही पड़ेगा। कोई अज्ञानी कभी भी ज्ञानी बने बिना कैसे रुक सकता है?
वह जो अज्ञान की जो यात्रा चल रही है, वह ज्ञान की ही यात्रा का प्राथमिक चरण है। तो बुरे की जो यात्रा चल रही है, वह भले का ही प्राथमिक चरण है। और इसलिए खतरा जो है वह बुरे की यात्रा पर जाने वाले के लिए नहीं है। खतरा जो है वह उन मीडियाकर्स के लिए है जो जाते बुरे की यात्रा पर हैं, जा भी नहीं पाते, क्योंकि हिम्मत नहीं जुटा पाते। जाते बुरे की यात्रा पर हैं, आकांक्षा भले की किए जाते हैं; तब जिच पैदा हो जाती है। जाते बुरे की यात्रा पर हैं, होते बुरे हैं, और मान बैठते हैं भला। तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। तब दोहरा रोल हो जाता है। इकहरा रोल बना रहे हैं।
रावण जाने कि रावण होना है। ठीक है, रावण हैं। और जरा भी फिकर न करें राम-वाम की। क्या जरूरत है राम की फिकर होने की? अगर राम निकलने हैं तो रावण होने से ही निकलेंगे। और नहीं निकलने हैं तो बेमानी बात है, कोई होगा राम, तो होगा। उससे मुझे क्या लेना-देना है? मैं जो हो सकता हूं अब, वह मुझे होना है। और अगर इतना बल, और हिम्मत हम हर व्यक्ति को दे सकें, कि जो उसे होना है, वही उसे होना है। कोई की नकल नहीं, कोई की काॅपी नहीं, किसी का अनुकरण नहीं।
बुरा होना है तो बुरा होना है, वह भी आॅथेंटिक। बुरा होने में भी एक आॅथेंटिसिटी है न। भला ही तो आॅथेंटिक नहीं होता, बुरा भी आॅथेंटिक होता है। हां, यह एक अलग ही बात है। बुरा होने की आॅथेंटिसिटी। कि अगर मैं झूठ बोलता हंू तो फिर मैं सच बोलूंगा ही नहीं। आॅथेंटिक झूठ बोलने वाले का मतलब यह होता हैः यह कस्द रहा है कि अब सच मुझसे नहीं होगा। और सच बोलूंगा तो इसको बेईमानी समझूंगा। मतलब, मैं झूठ बोलने वाला हूं।
एक फकीर मुल्ला नसरुद्दीन हुआ। जिस गांव में वह था, उस गांव के सम्राट को यह खयाल पैदा हुआ कि राज्य में झूठ बोलना बंद करवा दूं। तो मुल्ला को बुलाया क्योंकि वह ज्ञानी था। तो गांव के लोगों ने कहा कि मुल्ला से पहले पूछो। क्योंकि ऐसा कभी सुना नहीं कि झूठ बंद हो गया है। और कानून से कभी झूठ बंद हुआ हो, ऐसा कभी सुना नहीं। और ऐसा कभी जाना नहीं जगत में, कि ऐसा कोई वक्त आया हो एक क्षण को भी, कि झूठ न रहा हो। फिर भी मुल्ला से पूछो, वह मुल्ला आया।
सम्राट ने कहा मैंने तो तय किया है, कि झूठ को उखाड़ फेंकंू। और साधारण तय नहीं किया है। झूठ बोला कोई आदमी पकड़ा और मैंने उसको फांसी पर लटकाया, उसी वक्त। कुछ निर्दोष भी मरेंगे, मुझे फिकर नहीं है। लेकिन रोज झूठ बोलने वाले दरवाजे पर लटके हुए मिलेंगे। और कल सुबह से तारीख शुरू होती है नये वर्ष की। कल सुबह ही दरवाजे पर खोज-बीन की जाएगी, कोई झूठ बोलता फंस जाए तो वहीं उसे लटका देना है। तुम क्या कहते हो मुल्ला, इसको रोक दें, झूठ बोलने को?
मुल्ला ने कहाः कल दरवाजे पर मिलेंगे। राजा ने कहाः हम यह पूछते हैं, तुम...उसने कहाः कल दरवाजे पर मिलेंगे। मैं पहला आदमी रहंूगा दरवाजे पर, आप पहले ही मौजूद हो जाएं। दरवाजा खुलेगा और मैं भीतर प्रवेश हो जाऊंगा। पर सम्राट ने कहा कि तुम्हारा मतलब क्या है? उसने कहाः वह दरवाजे पर बात करेंगे। सुबह दरवाजे पर सम्राट खड़ा है। दरवाजा खुला। मुल्ला अंदर घुसा। अपने गधे पर सवार है। सम्राट ने पूछाः मुल्ला, कहां से चले आ रहे हो, कहां जा रहे हो? मुल्ला ने कहाः फांसी पर जा रहा हंू। सम्राट ने कहाः क्या मतलब? मुल्ला ने कहाः फांसी पर लटकने को जा रहा हंू। सम्राट ने कहाः सरासर झूठ बोल रहे हो, फांसी पर लटकवा देंगे। मुल्ला ने कहाः तो लटकवा दो। वही हम कह रहे हैं कि हम फांसी पर लटकने जा रहे हैं। और अगर तुमने लटकाया तो हम जो बोलते थे, वह सच हो जाएगा। और अगर तुमने नहीं लटकाया, तो झूठ बच कर निकला जा रहा है। क्या करते हो? झूठ जाता है। राजा ने कहाः यह तो बड़ी मुश्किल में डाल दिया। तो मुल्ला ने कहा कि छोड़ो तुम यह बकवास। यह तय करना ही मुश्किल है कि क्या सच है और क्या झूठ? तोे कौन फैसला करेगा? दूसरा तो तय कर ही नहीं सकता, उस मुल्ला ने कहा। खुद ही आदमी तय कर ले तो काफी है।
और आदमी अगर तय कर ले, और आॅथेंटिक हो, झूठ पर हो जाए तो कोई फिकर नहीं। और मैं मानता हंू कि उसकी आत्मा पैदा हो जाए अगर झूठ पर भी आॅथेंटिक हो जाए। आॅथेंटिसिटी, प्रामाणिकता लाती है--बल, गति लाती है। और एक आदमी एक दिशा में चला जाए पूरी तरह। तो यह मेरा कहना है, कि बुरे का मतलब यह है कि जिस पर आप ठहर नहीं सकते। ठहर ही नहीं सकते। वह ऐसा है जैसे जलते तवे पर कोई खड़ा हो जाए। वह ठहर ही नहीं सकता बुरे पर। उसे बुरे को तो छोड़ना ही पड़ेगा, छोड़ना ही पड़ेगा। वह और बुरे को पकड़ता जाए और छोड़ता चला जाए। अंततः उसे बुरे को छोड़ना पड़ेगा। और इस बुरे की यात्रा से गुजर कर जिस दिन वह भले की तरफ आना शुरू होगा उस दिन जो इसकी समृद्धि होगी--अनुभव की, वह जो बुरे की रेखा खिंच गई है, उस पर जो सफेद की लिखावट आएगी, वह चमक और है।
और इसलिए वह बोथले साधुओं में कभी नहीं होती। जिन्होंने बुरे को नहीं जाना, और जो किताब पढ़ कर भले हो गए--उनमें कभी कोई चमक नहीं होती। चमक हो ही नहीं सकती। वह चमक बुरे के अनुभव से आती है। वह भले की लिखावट से आती है। लेकिन आती बुरे के अनुभव से है। और यही कठिनाई है कि बेईमान दुनिया में, बुरा आदमी दुनिया में ज्यादा चमकदार, और साधु बिलकुल बोथले बोगा। क्योंकि साधु मीडियाकर है। जो बुरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, वह साधु दिखाई पड़ रहा है। और जो बुरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया उससे भला तो कुछ हो सकता नहीं, बस वह खड़ा रहता है, लेकिन बुरा नहीं करता। उसकी निगेटिव एक स्थिति है कि वह बुरा नहीं करता, वह चोरी नहीं करता, झूठ नहीं बोलता।
एक फकीर था, गुरजिएफ। तो लोग उसके पास आते, साधु आते, फकीर आते। और उस, वह पूछता कि तुम करते क्या हो? एक बहुत बड़ा साधु उससे मिलने आया। और वह उससे पूछता है कि तुम करते क्या हो? वह कहता कि मैं झूठ नहीं बोलता। उसने कहा कि मैं समझा कि तुम झूठ नहीं बोलते, लेकिन यह न करना हुआ। यह न करना हुआ। मैं पूछता हंू, तुम करते क्या हो? कहता है कि मैं मांसाहार नहीं करता, मैं हिंसा नहीं करता। उसने कहाः यह न करना हुआ। तो तुम करते क्या हो? वह कहता है, मैं चोरी नहीं करता। किसी को दुख नहीं पहुंचाता। तो गुरजिएफ कहता हैः इस आदमी को बाहर कर दो। यह आदमी कहता हैः हम यह नहीं करते, हम यह नहीं करते।
सवाल यह है ही नहीं कि तुम क्या नहीं करते? क्योंकि न करने से कहीं कोई आत्मा पैदा हुई है? तुम करते क्या हो? इससे तो बेहतर है तुम चोरी करो। क्योंकि वह करना तो होगा।
गुरजिएफ ने कहाः तू चोरी कर। करना तो होगा। एक्शन तो होगा। उससे बीइंग तो पैदा होगी।

प्रश्नः मगर क्या अच्छा, क्या बुरा? क्या अच्छा, क्या बुरा, क्या इनसान खुद ही जज करेगा?

इसके सिवा कोई और मार्ग नहीं है। और जज करने की कोई बहुत कठिनाई नहीं है। हां, एक तो यह बात कि जिस पर आप ठहर न सकें। और तब वह बच्चों जैसे काम करता रहता है। अब एक बूढ़ा आदमी रुपये इकठ्ठे कर रहा है, इसे बच्चा समझिए। क्योंकि यह काम बच्चे जैसा कर रहा है। यह काम बिलकुल बच्चों जैसा कर रहा है। यह कर क्या रहा है? इधर मौत सामने खड़ी है और वह आदमी तिजोरी भर रहा है। ताले लगा रहा है। अब यह बिलकुल बच्चा है। इसकी कोई स्पिरिचुअल एज नहीं है किसी तरह की। यह गुड्डा-गुड्डियों से खेलने वाला है। वह दूसरी तरह के गुड्डे-गुड्डियों से खेल रहा है।
अब छोटे बच्चे हैं, वे गुड्डा-गुड्डियों से खेल रहे हैं। और एक आदमी बड़ा है, और रामचंद्र जी की बारात लिए चला जा रहा है। और गुड्डा-गुड्डी रख कर जुलूस निकाल रहा है, शोरगुल मचा रहा है, यह बच्चा है। इसकी बुद्धि गुड्डा-गुड्डियों से ज्यादा आगे नहीं गई। इसने गुड्डा-गुड्डी दूसरे बनाए हैं। अच्छे नाम रखे हैं, बड़े नाम रखे हैं। इसकी अक्ल बहुत नहीं है। इसकी मेंटल एज नहीं है कोई। और तब कई दफा...इसलिए कोई हम...कई तरह की उम्र हमारे भीतर हैं, कई तरह की उम्र हमारे भीतर हैं। और मेरी तो तलाश, और मेरी तो अपील उस उम्र से है--वह जो भीतर है।
और यह जो आप पूछते थे कि बुरे को पहचानें कैसे? तो दो बातें हैं। एक तो जिस पर आप रुक न सकें हैं, जिस जगह पर कभी भी खड़े न हो सकें, उस जगह को बुरी मानें। यानी मेरा कहना यह है कि जो भला है, जो आनंदपूर्ण है, वहां रुकने का मन होता है। वहां मन होता है कि यहां ठहरें, यहीं ठहर जाएं। वहां मालूम होता है कि विराम है। विश्राम है। वहां मालूम होता है, आ गई जगह। बुरी जगह का मतलब है कि आप वहां पहुंच तो जाते हैं, लेकिन पहुंचते से मन कहता है कि चलो। आगे चलो। एक आदमी दस लाख रुपये इकट्ठे करता है और मन कहता है कि और करो, और करो, और करो। वह करता चला जाता है। और मन कहता है और करो।
एक सूफी फकीर था इजिप्त में, जुन्नून। और सम्राट था इजिप्त का, वह उसके पास कभी-कभी आता था। बहुत दिन से फकीर नहीं आया था राजधानी में तो सम्राट खुद ही बिना खबर किए उसके झोपड़े पर गया। उसकी औरत बैठी है, बगिया में काम कर रही है। फकीर कहीं पीछे काम करने गया है खेत पर। तो उसने सम्राट को आया देख कर उससे कहा कि आप बैठें, मैं उसे बुला लाती हंू। तो वहीं जहां मेंड़ पर, जहां वृक्ष पर वह काम कर रही थी, उसने कहाः बैठ जाएं। तो सम्राट कहने लगाः मैं यहां टहलता हंू, तू बुला ला। उसकी औरत ने कहा कि कब तक आप टहलते रहेंगे, देर लगेगी, दूर वह है। चलें आप अंदर झोपड़ी में बैठ जाएं। उसने सोचा शायद मेंड़ पर बैठना सम्राट को ठीक नहीं लग रहा। उसे भीतर ले गई। उसने चटाई डाल दी और कहाः आप इस पर बैठ जाएं। सम्राट फिर वहीं टहलने लगा। उसने कहाः तू बुला ला, मैं यहीं टहलता हंू। औरत को गुस्सा आया, उसने अपने पति को लौटते वक्त रास्ते में कहा कि कैसा आदमी है यह सम्राट? इससे मैंने दो-चार बार कहा बैठ जाओ। वृक्ष के नीचे कहा, वहां नहीं बैठा। अंदर लाई, दरी बिछा दी, वहां नहीं बैठा। कैसा आदमी है? फकीर कहने लगाः तू नहीं जानती, सम्राट सिंहासन से नीचे नहीं बैठेगा। सिंहासन पर बिठाएगी, फौरन बैठ जाएगा। वे जो, जहां बैठने को तूने जो जगह बताई हैं, वहां नहीं बैठेगा। और उस औरत से वह कहने लगाः तू यह भी ध्यान रखना, आदमी का मन भी ऐसा ही है--सम्राट। जब तक सिंहासन न मिल जाए, नहीं बैठेगा। तुम बताओगी इस पर बैठ जाओ, वह जाएगा, वहां जाकर नहीं बैठेगा। और कुछ चाहिए, और कुछ चाहिए, और कुछ चाहिए।
बुरा मैं उसे कहता हंू, जहां मन कहे कि और आगे। भला मैं उसे कहता हंू कि जहां मन कहे कि बस यहीं। माइंड की, जो-जो हम कर रहे हैं, जिस चीज का मन कहता है, बस यहां मिल गई मंजिल--यहां। मन कहे, रुको यहां। ऐसे क्षण हैं, जिनमें आप मर जाना चाहें, कहें कि बस। ऐसे क्षण हैं जिनमें आप मर जाना चाहें कि कहें, बस। अब और क्या? जाना, और इतना ऊंचा जाना कि बस यहीं। और ऐसे क्षण हैं, जिनमें आप अनंतकाल तक भागते रहें और ठहरना न चाहें।
तो एक तो मैं पहचान कहता हंू, जहां मन ठहरना न चाहे। जहां मन कहे कि चलो, और पहुंचते ही से कहे कि फिर चलो। दूसरी बात यह है कि आमतौर से कहा जाता है बुरा वह है जो दूसरे को दुख दे। मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हंू कि दूसरे के दुख का तो आपको पता ही नहीं चलता। बुरा वह है जो आप को दुख दे। और ऐसा नहीं कि अगले जन्म में दे। इसको मैं बेईमानी का हिसाब कहता हंू। यह अगले जन्म में कैसे हो सकता है। अभी आग में हाथ डालूंगा तो अभी जल जाऊंगा, अगले जन्म में थोड़े ही जलूंगा। बुरा वह है जो अभी इसी वक्त दुख दे। और बुरा बहुत दुख देता है। और भला वह है जो इसी वक्त सुख दे। नगद। आगे नहीं। और भला बहुत सुख देता है। इतना छोटा सा भला कि एक कोई बच्चा रास्ते पर गिर पड़ा और आपने उठा कर उसे किनारे पर ला दिया। अपने आप रास्ते पर चले गए हैं आप। किस ऊंचाई पर पहुंच गए हैं! कैसी छलांग लग गई है!
और एक बीमार है, और आपने एक फूल तोड़ कर उसके हाथ में दे दिया। और आप लौट प.ड़े। आप दूसरे आदमी हैं। जो फूल देने गया था वह नहीं हैं आप। वह दूसरा ही सम्राट लौट रहा है। और एक छोटा सा एक्ट, इसमें कोई मतलब नहीं है। कई बार आप सिर्फ मुस्कुरा दीजिए एक आदमी को देख कर, और आप कुछ और हो गए हैं। और आप जरा जोर से किसी को आंख करके देखें, और एक गाली देकर देखें, और एक चोट करके देखें। और आप पाएंगे कि आप नीचे ऐसे गिर गए हैं जैसे कोई पहाड़ से गिरा दिए गए हों। दूसरे का सवाल ही नहीं है। यह भी हो सकता हैः आप ऐसा बुरा करें, जिससे दूसरे को फायदा हो जाए। लेकिन ऐसा बुरा आप नहीं कर सकते जिससे आपको फायदा हो जाए। तो वह दूसरा बहुत दूर है आपसे, बहुत फासले पर है।
तो दो बातें मैं मानता हंू बुरे की डेफिनिशन में। एक तो जहां आप ठहर न सकें, और मन कहे चलो। बस चलो, आगे चलो। और दूसरा, जहां मन दुख पाए। अगर ये दो बातों की थोड़ी जांच चलती रहे तो बहुत कठिनाई नहीं कि हम पहचान लें कि कहां बुरा है। और इससे ठीक उलटा भला है--जहां मन रुकने का होने लगे कि यहां ठहर जाओ। अब कहां और खोजना है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, मन कहेगा। मन बिलकुल कहेगा। मन बिलकुल कहेगाः लेकिन जब तक नहीं मिला, तभी तक। वही मैं दुख की परिभाषा कर रहा हंू। वही बुरे की परिभाषा कर रहा हंू। मन कहेगा कि यहां सुख है, जहां नहीं मिला। जैसे ही मिला और मन कहेगा, मामला खत्म हुआ। आगे चलो। मन कहेगाः यह औरत मिल जाए तो बहुत सुख होगा, लेकिन मिली नहीं है यह औरत, यह मिल जाए। और मिलते ही से मन कहेगाः वह जो पड़ोस में दूसरी औरत है, वह मिल जाए।
बायरन की शादी हुई। बायरन ने कोई सात औरतों से प्रेम किया है और शादी नहीं की। और आखिर एक औरत ने उसको मजबूर कर दिया शादी के लिए। तो उसको शादी करनी पड़ी। पर आदमी बहुत, जिसको मैं आॅथेंटिक बुरा आदमी कहता हंू, उन लोगों में से था। जिसके बुरे होने में भी एक गौरव, मजा, एक शान है। हां एक शान है। अच्छे आदमी होते हैं कई ऐसे बोगस और लीच, कि गोबर-गणेश हैं, उनमें कुछ अच्छा नहीं है। कभी बुरा आदमी इतना शानदार होता है कि उसकी चमक खुशी भर देती है। बायरन उन बढ़िया बुरे लोगों में से था।
वह उस औरत का हाथ पकड़ कर चर्च से नीचे उतर रहा है। घंटियां बज रहीं हैं अभी चर्च की। शादी हुई है। और वह सीढ़ियां उतर रहा है, मेहमान विदा हो रहे हैं। और सड़क पर एक औरत एक आदमी का हाथ पकड़े जा रही है। और बायरन अपनी औरत से बोला, बस। उसकी औरत ने कहाः क्या हुआ? सब खत्म। उसने कहा, मतलब तुम्हारा? वह गाड़ी में आकर औरत को बिठाया, उसने कहाः मैं तुमसे कहता हूं, एक क्षण को तुम नहीं थी, वह औरत सब हो गई। और कल तक मैं सोच रहा था कि तुम मिल जाओगी तो क्या होगा? कितनी खुशी होगी? और तुम ही हो अभी विदा। अभी चर्च से विदा हो रहा हंू शादी करके। सीढ़ियां नहीं उतरा हंू, अभी घर नहीं पहुंचा हंू। लेकिन तुम मेरी मुट्ठी में हो और बेकार हो गई हो। हाथ तुम्हारा मेरे हाथ में है और बेकार हो गया। अब तुम मेरी हो और बात बेकार हो गई।
यह मेरी बात समझ रहे हैं न? पा लिया, मामला खत्म हो गया।
तो मन जब तक कहेगाः जरूर जब तक नहीं पा लिया कि यह पा लो तो बहुत सुख है। और पाते ही से मन कहेगा कि वहां है सुख। और मन हमेशा कहेगाः जहां आप नहीं हो, वहां है सुख। यही तो मैं कह रहा हंू। यही तो उसकी दौड़ है। और जहां आप पहुंचे, वहीं वह कहेगा कि यहां क्या रखा हुआ है? बेकार आ गए, मेहनत हो गई, और आगे बढ़ो। यहां कुछ भी नहीं था। भूल हो गई, चूक हो गई। लेकिन मन धोखा कभी नहीं देता। यह धोखा नहीं है। यह तो सीधा-साफ मामला है। यह धोखा क्या है? धोखा कुछ नहीं है। मन यह कहता है कि यहां सुख नहीं है। वहां हो सकता है, क्योंकि वहां हम नहीं हैंै। वहां चलो तो पता चलेगा।
हां, और अनुभव का मतलब है कि जब आप हजार जगह से गुजर चुके, और आप ने हर जगह पाया कि जहां पहुंचे, पहुंचने के पहले लगा कि सुख है, पहुंचते ही से लगा कि सुख नहीं है; लगा कि दुख है। और जैसे ही पहुंचे कि मन ने कहा कि आगे बढ़ो, कुछ भी नहीं है यहां। मजबूरियां हैं कि आप नहीं बढ़ पाते। तो बहुत दुख होता है। मजबूरियां हैं सिर्फ, जिनसे आप नहीं बढ़ पाते। नहीं तो मन तो रोज बढ़ाए। अभी आप कहते हैं कि आठ तलाक करो। आठ तलाक से काम नहीं चलेगा एक जिंदगी में। एक जिंदगी बहुत बड़ी है। आठ तलाक से काम नहीं चलेगा। अगर तलाक को बिलकुल ही नियमित कर दो मन के अनुसार, तो रोज भी एक हो सकता है, और वह भी कम वक्त में।
क्योंकि यह सवाल है। सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं कि कितना? मजबूरियां हैं बहुत तरह की जो, जिनकी वजह से आप रुकते हैं और दुख झेलते हैं। मैं यह कहता हूं, मन जहां से कहता है-- भागो, भागो, और आगे, और आगे। और जहां-जहां पहुंचते हैं, वहीं-वहीं दुख देता है--वहां बुरा है। और जहां मन कहता हैः यहां, वहां नहीं, और देर तो ठीक है। यहां, यहां आनंद है--जहां मैं हूं। अब धोखे की क्या बात है? वहां धोखा हो सकता है, क्योंकि वहां मैं नहीं हूं। जब मैं पह‏ुंचंुगा, तब पता चलेगा। यहां, इस वक्त।
अगर यह हमें साफ होने लगे, डिसिं्टकशन तो इतना बारीक है लेकिन अगर थोड़ा हम प्रयोग करते रहें और दिन के चैबीस घंटे में जांच-पड़ताल थोड़ी सी भीतर जारी रखें, कि यह जो मैंने एक्ट किया है, यह मुझे सुख दिया या दुख दिया। मैंने...यह जो पहुंचा जिस जगह मन की मैं, यहां मैं रुकना चाहता था, कि हट जाना चाहता था, ऐसी एक छोटी परख चलती रहे। तो आपको दो-चार महीने में इतना साफ दिखाई पड़ेगा, इतना साफ कि आप, घटना घटेगी और आप जानते हैं कि बुरी घट रही है कि भली घट रही है। यह अवेयरनेस आ जाए तो जिंदगी बदल जाती है। मैं यह नहीं कहता कि बुरे को छोड़ो। मैं यह कहता ही नहीं। मैं यह नहीं कहताः अच्छे को करो। मैं यह कहता ही नहीं। मैं यह कहता हंू कि तुम सिर्फ पहचानो कि क्या अच्छा है और क्या बुरा? और बुरा छूटने लगेगा। और अच्छा होने लगेगा। वह छोड़ने में क्या है, सवाल नहीं है।
उसकी आत्मा को चलाना बहुत मुश्किल है। रूप तो बचाना बिलकुल आसान है कि ब्रह्मचारी चोटियां बढ़ाए हुए बैठ जाएं। चद्दर-वद्दर लपेट लें। उसी ढंग से रहें। यह सब हो सकता है। लेकिन आत्मा को बचाना बहुत मुश्किल है। हां, क्योंकि असल में...कालात्मा बदल गई। टाइम-स्केल बदल गया। वह टाइम-स्केल बदल गया। और, और ध्यान रखिए ये चिमन भाई, अगर उस पुरानी आत्मा को बचाना हो, तो रूप को बिलकुल नहीं बचाया जा सकता। तो ही आप उस आत्मा को बचा सकते हैं।
नहीं हो सकती। बिलकुल नहीं हो सकती है। अगर उस आत्मा को बचाना है तो बिलकुल ही नये रूप में बच सकती है वह। और मुश्किल यही हो गई कि परंपरावादी जो चित्त है वह पुराने रूप पर, उसका आग्रह भारी है। पूरा आग्रह है।...पूरा का पूरा। कोई मूल्य नहीं है।
कई बार ऐसा होता है कि पुराने रूप को पहचानना तो बिलकुल सरल है। क्योंकि अंधा भी पहचान सकता है। और इसलिए हम रूप को बचा लेते हैं। और रूप के बचाने में ही आत्मा मर जाएगी। हां...बिलकुल पूरा हो जाए, क्योंकि रूप बिलकुल जड़ चीज है। उसे बचा लेने में कोई कठिनाई नहीं है। बिलकुल जड़ है। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। मगर जो आत्मा थी वह बहुत लिक्विड है। बहुत तरल है। उसको आप जैसे ठोंक-पीट करके बांधें कि वह गई। उसको हर युग में अपना नया रूप लेना पड़ता है। हर युग में नया रूप लेना पड़ता है।

प्रश्नः नये रूप की तो कोशिश हुई... आदमी ने यह तो मेहनत किया थोड़े ही। मगर वही पुराना...चैबीस साल में यह हालत कर दिया?

नहीं कुछ नहीं किया। कुछ किया ही नहीं। कुछ नहीं किया। स्वभाव जैसा बनाते हैं, वैसा बन जाता है। मनुष्य-स्वभाव जैसी चीज ही नहीं है। एब्सोल्यूटली नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न। सब कुछ आता है। लेकिन मनुष्य-स्वभाव जैसा कुछ भी नहीं है। यही तो फ्रीडम है मनुष्य की। वह जैसा बनाना चाहे, वैसा बना सकता है। और जो हमको दिखता है मनुष्य-स्वभाव, वह मनुष्य-स्वभाव नहीं है। वह लंबे संस्कारों का परिणाम है केवल। इसलिए तो आप दुनिया में पच्चीस तरह के मनुष्य देखते हैं। मनुष्य-स्वभाव जैसी कोई चीज नहीं है।
 आप मेरा मतलब समझे न? मेरा मतलब यह हैः जैसे कुत्ते का एक स्वभाव है, बिल्ली का एक स्वभाव है; इस अर्थ में मनुष्य का कोई स्वभाव नहीं है। और यही फर्क पड़ गया है एवोल्यूशन में कि पहली दफा एक ऐसा प्राणी पैदा हुआ है जिसका कोई ठोस स्वभाव नहीं है। और वह जैसा होना चाहे वैसा हो सकता है। जैसे हम, उदाहरण के लिएः किसी कुत्ते को हम यह नहीं कह सकते कि तुम आधे कुत्ते हो। लेकिन एक आदमी को कह सकते हैं कि तुम बिलकुल अधूरे आदमी हो। आप कुत्ते को क्यों नहीं कह सकते कि आधे कुत्ते हो? सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। हर कुत्ता पूरा कुत्ता है। कुत्ते होने में कोई रंच भर आप फर्क नहीं कर सकते कि यह कुत्ता कुछ कम कुत्ता है, वह कुत्ता कुछ ज्यादा कुत्ता है--क्यों?
कुत्ते का स्वभाव है फिक्स्ड। उससे कुछ बनाना-वनाना नहीं है। वह बना हुआ पैदा होता है। और आप जो हैं आप बिलकुल अनबने पैदा होते हैं। और सब आपको बनाना है। यही फ्रीडम है, और यही घबड़ाने वाली है। और इसलिए आप कुछ भी बन सकते हैं। कोई भी रूप ले सकते हैं। और यह रूप भी कभी ऐसा नहीं है कि आप इसको एक क्षण में न तोड़ दें। एक क्षण में तोड़ भी सकते हैं।
इसे अगर गौर से देखें, तो यह जो ह्यूमन फ्रीडम है, यही अदभुत बात है। और आप ज्योतिष पर काम करते हैं, यह बड़े मजे की बात है। सौ में निन्यानबे मौकों पर ज्योतिष काम करेगा। एक मौके पर काम नहीं करेगा। और जिस मौके पर काम नहीं करता, वहीं आप हो। बाकी मामले में आप मशीन हैं। बाकी मामले में आप मशीन हैं। जहां-जहां ज्योतिष काम करता है, वहां आप हो ही नहीं। आदमी नहीं हो आप। इसका मतलब हुआ कि प्रिडिक्टेबल हो। प्रिडिक्टेबल का मतलब यह है कि आप बंधे हुए हो। कहा जा सकता है कि कल आप यह करोगे।
बुद्ध के जीवन में एक बहुत बढ़िया घटना आती है कि बुद्ध के पैरों में वे चिह्न हैं जिनको ज्योतिषी कहेंगे, इनको चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। और वे हो गए भिखारी। सब गड़बड़ हो गया ज्योतिष। वह निकले हैं नदी के किनारे। रेत पर उनके पैर का चिह्न बन गया। गीली रेत है। और एक ज्योतिषी काशी से लौटता है। बारह वर्ष अध्ययन किया है, वह सब कुछ जान कर आ रहा है। उसने रेत पर पड़े हुए पैरों के चिह्न देखे। उसने कहा, यह क्या मामला है? रेत पर नंगे पैर, इस छोटे से गांव के किनारे चक्रवर्ती चलेगा? सब गड़बड़ हो गया, बारह साल मैं पढ़ कर लौटा हूं। ये किताबें सब बांध कर लाया हूं। ये बेकार हो गईं। अगर यह चक्रवर्ती यहां चलता है गांव के पास, नंगे पैर, भरी दोपहरी में। इन किताबों को इसी नदी में फेंक कर घर जाना चाहिए। समझना चाहिए, बारह साल बेकार हो गए। मगर इस आदमी को खोज तो लें, यह आदमी कहां है?
तो वह उन पैरों को खोजता हुआ उस झाड़ के पास पहुंचा जहां बुद्ध बैठे हुए हैं। देख कर मुश्किल में पड़ गया। आदमी तो भिखारी है, लेकिन आदमी चक्रवर्ती है। आदमी का चेहरा तो लगता है वह कोई सम्राट ही है। पर आदमी तो भिखारी है। फटे कपड़े पहने हुए हैं। हाथ में भिक्षा-पात्र रखे हुए हैं। जाकर बुद्ध के पास वह बैठ गया और कहा कि मुझे बिगूचन में डाल दिया। बारह साल मेहनत करके लौटा हूं। ये सब शास्त्र नदी में फेंक दूं। पैरों में चिह्न हैं आपके चक्रवर्ती होने के, और आप भिखारी हैं! भिक्षा-पात्र लिए बैठे हैं!
बुद्ध ने कहा कि तुम्हारा ज्योतिष ठीक कहता है। लेकिन मैं ज्योतिष के बाहर हो गया। मैं आदमी हो गया हंू। अब तुम्हारा काम नहीं बनेगा। अगर मैं कुछ न करता तो मैं चक्रवर्ती हो ही जाता। वह एक धारा थी, अंधी। जिसमें जो हो रहा था वह होता। मैंने कुछ गड़बड़ कर दी। अब तुम्हारा ज्योतिष मुझ पर काम नहीं करेगा। तुम्हारा कोई नक्षत्र मेरे संबंध में कुछ भी नहीं कहेगा। अब मैं बाहर हो गया। अब मैं आदमी हो गया हंू।
मेरा मतलब समझे न? फ्रीडम। अब, अब बुद्ध अनप्रिडिक्टेबल हो गए। अब आप प्रिडिक्ट नहीं कर सकते कि यह आदमी क्या कहेगा? क्या करेगा? यह कल क्या होगा? यह अभी घड़ी भर... क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, यह गणना के बाहर हो गया।
यह जो, हमारी चेष्टा यही होनी चाहिए अंततः कि हम निःस्वभाव में लीन हो जाएं। वहां, जहां कि कोई स्वभाव नहीं है। परिपूर्ण स्वतंत्रता। स्वभाव परतंत्रता है। यानी वह कल हम जैसे थे वैसे ही फिर वही कल होने की मजबूरी। मतलब तो यह होता न कि मेरा स्वभाव है क्रोध करना। अगर मैं यह कहंू तो इसका मतलब यह है कि मैं मजबूर हूं। आज आपने गाली दी थी, मैंने क्रोध किया। कल भी आप गाली दोगे, मैं वैसे ही क्रोध करूंगा। जैसे बटन दबाने से आज पंखा चला, कल भी चलेगा। तो मैं आदमी कहां रहा? इस बात की पाॅसिबिलिटी है कि आज आपने गाली दी और मैं क्रोधित हुआ। और कल आप गालियां देने आओ, मैं गले लगा लूं।
यह, यह जो मामला है न, इसकी संभावना है। और इसकी जो संभावना है, वह इस बात की सूचना है कि मनुष्य के पास कोई यंत्रवत स्वभाव नहीं है। यही उसकी स्वतंत्रता है। और ऐसी स्थिति बनती चली जाए कि हम प्रतिपल ऐसे जीएं कि पिछले पल और हमारा आने वाला पल बंधा हुआ न हो। यह मुक्त होने का अर्थ, जीवन-मुक्ति का जो अर्थ होगा, जीवन-मुक्ति का जो अर्थ होगाः वह यह कि कल जो बीत गया, उससे मेरा यह क्षण बंधा हुआ नहीं। मैं जो कह रहा हंू, वह एक डिसकंटिन्यूअस मामला है, वह कंटीन्यूटी के बाहर है। वह कंटीन्यूटी जो कल तक थी वह मैं नहीं हंू। और कल मैं जो होऊंगा, वह कुछ और होगा, वह जो आज नहीं है। ऐसी जो चित्त दशा है वहां परम आनंद है। क्योंकि वहां परम स्वतंत्रता है।
और नहीं तो परतंत्रता है। एक आदमी कहता है कि मैं सिगरेट पीने को मजबूर हूं, क्योंकि मेरी आदत है। आदत का मतलब है कि तुम आदमी नहीं हो। आदत का मतलब कि तुम एक मशीन हो। तुम वक्त पर पुकारते हो कि बस बारह बज गए, अब सिगरेट चाहिए। और तुमको सिगरेट डालनी पड़ती है। यह डालना और निकालना और बारह बजे यह रोज होना, यह बिलकुल मैकेनिकल एक्ट है।
हां, अगर बहुत गौर से देखें, बहुत गौर से देखें तो हम जितने वे लोग भोजन करते हैं, शायद ही कभी हममें से कोई उस वक्त भोजन करता हो जब भूख लगती है। हम सब भोजन करते हैं आदतवश, भूखवश नहीं। और यह बिलकुल दूसरा मामला है। भूख बिलकुल दूसरा मामला है। और आदत बिलकुल दूसरा मामला है। आप, ग्यारह बज गए, रोज ग्यारह बजे भोजन करते हैं। तो ठीक ग्यारह बजे पेट कहता है कि वक्त हो गया, खाना खा। और यह भी हो सकता है, घड़ी किसी ने एक घंटा आगे-पीछे कर दी। और आपको पता नहीं है, अभी दस ही बजे हैं। लेकिन आप हमेशा ग्यारह बजते हैं, आपको फिर भूख लग गई, वक्त हो गया। चल कर खाना खाया। आप मेरा मतलब समझे न? यह बिलकुल मेंटल एसोसिएशन है ग्यारह बजे का। भूख-वूख नहीं लगी है।
और अगर हम ठीक भूख पर खाएं। क्योंकि जब भूख लगे तब की हम प्रतीक्षा करें। तो खाने में जो स्वाद होगा उसका हमें पता ही नहीं है। क्योंकि ग्यारह बजे खा लेना सिर्फ भोजन डालना है। क्योंकि शरीर की जिसको जरूरत कहें, वह तो अभी पैदा नहीं हुई। शरीर ने मांगा ही नहीं। अभी मजबूरी में लार भी छोड़ेगा शरीर। मजबूरी में पेट में जगह भी देगा। आप डाल रहे हैं। आप डिब्बे की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न?
और इसीलिए दुनिया में भोजन तो बहुत बढ़ गया है। लेकिन भोजन का अर्थ बिलकुल खो गया है। मुश्किल से कोई आदमी भोजन कर रहा है। मुश्किल से कोई आदमी भोजन का रस अनुभव कर रहा है। और तब परिणाम यह होता है कि फिर हमें इतर व्यवस्था करनी पड़ती है। क्योंकि खुद भोजन में तो कोई रस नहीं रहा है, इसलिए इतर व्यवस्था करनी पड़ती है। ऐसा भोजन बनाओ जो स्वादिष्ट मालूम पड़े। यह सारा इंतजाम करना पड़ता है। यह सारा इंतजाम सिर्फ उस समाज में बढ़ता है जिस समाज में भोजन आदत बन गई है। नहीं तो इसकी कोई जरूरत नहीं है। और सब ऐसे ही हो गया है।
आप वक्त पर सो जाते हैं रोज। क्योंकि बारह बजे सोना है या दस बजे सोना है। और मैकेनिकल रूटीन है, इसलिए आप सो जाते हैं। चाहे नींद आती हो या न आती हो। और आप वक्त पर उठ जाते हैं, चाहे नींद टूटती हो चाहे न टूटती हो। सभी ऐसा हो गया है। हम आदतें फिक्स कर रहे हैं ऊपर से, बिठा रहे हैं। और तब बड़ी परेशानी होती है।
एक जवान था, वह दस घंटे सोता था; वह बुड्ढा हो गया, अब उसको चार घंटे नींद आती है। लेकिन वह आठ घंटा सोना चाहता है। फिर वह कहता हैः बड़ी मुसीबत हो रही है। सब नींद गड़बड़ हो गई है, नींद नहीं आ रही है।... हां, वह जरूरी नहीं है। मगर वह उसकी आदत तो आठ घंटे सोने की पड़ी है। और अब आठ घंटे सोने की कोशिश में वह चार घंटे सोने का मजा भी खो रहा है। तो आठ घंटे का खयाल आ रहा है। चार घंटे की इंटेंसिटी। वह मुश्किल में पड़ गया है। अब वह परेशानी में रहा है। और यह, यह, यह रोज होता रहेगा। यह रोज होता रहेगा।

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