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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अंतर्यात्रा के सूत्र

परमात्मा को जानने के पहले स्वयं को जानना जरूरी है। और सत्य को जानने के पहले स्वयं को पहचानना जरूरी है। क्योंकि जो मेरे निकटतम है, अगर वही अपरिचित है तो जो दूरतम हैं, वह कैसे परिचित हो सकेंगे! तो इसके पहले कि किसी मंदिर में परमात्मा को खोजने जाए, इसके पहले कि किसी सत्य की तलाश में शास्त्रों में भटकें उस व्यक्ति को मत भूल जाना जो कि आप हैं। सबसे पहले और सबसे प्रथम उससे परिचित होना होगा जो कि आप हैं। लेकिन कोई स्वयं से परिचित होने को उत्सुक नहीं है। सभी लोग दूसरे से परिचित होना चाहते हैं। दूसरे से जो परिचय है, वही विज्ञान है, और स्वयं से जो परिचय है, वही धर्म है। जो स्वयं को जान लेता है, बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को भी जान लेता है। लेकिन जो दूसरे को जानने में समय व्यतीत करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है, दूसरे को तो जान ही नहीं पाता, धीरे-धीरे उसके स्वयं को जानने के क्षार भी बंद हो जाते हैं। ज्ञान की पहली किरण स्वयं से प्रकट होती है और धीरे-धीरे सब पर फैल जाती है। ज्ञान की पहली ज्योति स्वयं में जलती है और फिर समस्त जीवन में उसका प्रकाश, उसका आलोक दिखाई पड़ने लगता है।

जो स्वयं को नहीं जानता है, उसके लिए ईश्वर मृत है चाहे वह कितनी ही पूजा करे और कितनी ही अर्चनाएं, चाहे वह मंदिर बनाए, मूर्तियां बनाए और कुछ भी करे। एक काम अगर उसने छोड़ रखा है स्वयं को जानने का, तो जान लें कि परमात्मा से उसका कोई संबंध कभी नहीं हो सकेगा। परमात्मा से संबंध की पहली बुनियादी, आधारभूत शर्त है..स्वयं से संबंधित हो जाना। क्योंकि वही सूत्र है, वही सेतु है, वही मार्ग है, वही द्वार है, परमात्मा से संबंधित होने का। और तब जो परमात्मा प्रकट होता है वह मनुष्य द्वारा निर्मित परमात्मा की कल्पना नहीं है, बल्कि वही है जो है। तब वह हिंदू का परमात्मा नहीं है और मुश्किल का परमात्मा नहीं है, जैन का और ईसाई का नहीं है। तब वह बस परमात्मा है। उसका कोई रूप नहीं, नाम नहीं, उसका आदि नहीं, अंत नहीं। फिर उसकी कोई सीमा नहीं है। वैसा जो सत्य है जो हमें सब तरफ घेरे हुए हैं कैसे दिखाई पड़ेगा? यदि हम स्वयं को जाने बिना उसे देखने की दौड़ में पड़ गए तो वह दौड़ शुरू से ही भ्रांत होगी। और उस भ्रांति में हम जो भी जान लेंगे, वह हमारे अज्ञान को और गहन करेगा और सघन बनाएगा।
एक अंधा आदमी अपने एक मित्र के घर मेहमान था। मित्र ने उसके स्वागत में बहुत बहुत मिष्ठान्न बनाए। उस अंधे को कुछ पसंद आए। उसने पूछा यह क्या है? दूध से बनाई कोई मिठाई थी। उसके मित्रों ने कहा, दूध से बनी मिठाई है। उस अंधे आदमी ने कहा, क्या तुम कृपा करोगे और दूध के संबंध में मुझे कुछ समझाओगे, मुझे कुछ बताओगे कि यह दूध कैसा होता है? तो मित्रों ने वही किया जो तथाकथित ज्ञानी हमेशा से करते रहे हैं। वे उसको समझाने लग गए। एक मित्र कहा, दूध होता है शुद्ध सफेद बगुले के पंखों की भांति। वह अंधा आदमी बोला, मजाक करते हैं मुझसे आप? मैं तो दूध ही हनीं समझ पा रहा हूं। यह बगुला और उसके पंखे, एक और नई कठिनाई हो गई। क्या मुझे बताएंगे कि यह बगुला और उसके सफेद पंख कैसे होते हैं? तो मैं पहले बगुले को समझु, शुभ्रता को समझे तो दूध को समझा पाऊंगा। पहली समस्या तो वहीं रह गई, यह दूसरा प्रश्न खड़ा हो गया कि ये बगुले के सफेद पंख कैसे होते हैं? यह बगुला कैसा होता है? मित्र अचरज में पड़ गए। एक मित्र ने तरकीब निकाल। उसने अपना हाथ उठाया, अंधे का हाथ पकड़ा। कहा कि मेरे हाथ पर अपना हाथ फिराओ और कहा कि जिस तरह मेरा हाथ मुड़ा हुआ है उसी तरह बगुले की गर्दन मुड़ी हुई होती है। उस अंधे आदमी ने मुड़े हुए हाथों पर हाथ फेरा। वह उठकर नाचने लगा और बोला कि मैं समझ गया, मुड़े हुए हाथ की भांति दूध होता है। समाज गया कि दूध मुड़े हुए हाथ की भांति होता है। वे मित्र बहुत परेशान हो गए। इससे तो बेहतर था कि वे अंधे को न समझाते। क्योंकि यह जानना ही अच्छा था कि नहीं जानते हैं। यह जानना तो और खतरनाक हो गया कि दूध मुड़े हुए हाथ की भांति होता है।
जिन्होंने स्वयं की आंखें खोल कर नहीं देखा उनके हाथों में शास्त्रों की यही गति हो जाती है, सिद्धांतों की यही गति हो जाती है। इसीलिए परमात्मा हमारे लिए मृत हो गया है। उसकी मृत्यु हो गई है। उसकी मृत्यु इसलिए हुई है कि हमारी आंखें बंद हैं। हम अंधे हैं। इसलिए परमात्मा को मरना पड़ा है। हमारे अंधेपन ने उसकी हत्या कर दी है। क्या तुम आंखें खोलने राजी हैं? जिनको प्रेम है जीवन से, सत्य से वे आंखें खोलने को राजी हों तो सारे जगत में परमात्मा का आलोक प्रकाशित हो सकता है। वे आंख कैसे खुलेंगी? स्वयं के द्वार जो बंद हैं उन्हें कैसे खोलेंगे? उसके कुछ सूत्र हैं।
पहला सूत्र है ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान का बोध चाहिए। चित्त की एक ऐसी दशा चाहिए जहां हम स्पष्ट रूप से जानते हैं कि मैं कुछ भी हनीं जान रहा हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है। ऐसे अबोध की, अज्ञान की स्पष्ट स्वीकृति पहला सूत्र है ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा। यदि वस्तुतः सम्यक और सत्य जो ज्ञान है उसे पाना है तो तथाकथित ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा, मनुष्य के मन पर ज्ञान बहुत बोझिल है। पत्थरों और पहाड़ों की भांति उसकी छाती पर ज्ञान सवार है। हम सब कुछ जानते हुए मालूम होते हैं जब कि हम कुछ भी नहीं जानता है। इतना रहस्यपूर्ण है यह जगत! आपके द्वार पर जो पत्थर पड़ा है उसे भी आप नहीं जानते हैं। आपके आंगन में जो फूल खिलते हैं उनको भी नहीं जानते। कुछ भी तो हम नहीं जानते हैं। जीवन में इतना अज्ञात और इतना रहस्य भरा हुआ है लेकिन हमारा अहंकार कहता है कि हम कुछ जानते हैं। पिता का अहंकार कहता है कि तुम मेरे लड़के हो, मैं तुम्हें भलीभांति जानता हूं। लेकिन क्या पिता होने से ही कोई बेटे को जान जाता है? पिता एक मार्ग से ज्यादा क्या है? वह प्रभु, बेटे को दुनिया में लाने में द्वार बनता है, मार्ग बनता है। जैसे कोई एक चोर रास्ते से होकर गुजरे और लौटते वक्त चोर रास्ता कहने लगे कि..ठहरो! मैं तुम्हें भली भांति जानता हूं। क्योंकि थोड़ी देर पहले तुम मेरे पास से गुजरे थे तो इस चोर रास्ते को हम क्या कहेंगे? जब एक पिता अपने बच्चे को कहता है कि मैं तुम्हें भलीभांति जानता हूं तो क्या वह भी वैसी ही गलती नहीं कर रहा है?
जानने के इस भ्रम में ही, जीवन का जो रहस्य है उससे हम अपरिचित रह जाते हैं। हम सभी चीजों को जानते हुए मालूम पड़ते हैं। यह जानने का भ्रम टूटना चाहिए तो ही जीवन में रहस्य का जन्म होता है और अज्ञात के प्रति आंखें खुलनी शुरू होती है। ज्ञात के तट से जो मुक्त नहीं होता है, अज्ञात सागर की यात्रा उसके लिए नहीं है। परमात्मा बिल्कुल अज्ञात है और हम स्वयं बिल्कुल अज्ञात हैं। हमारे भीतर क्या है हम नहीं जानते। तो जो हम जानते हैं उसी को अगर पकड़े रहें तो इस अज्ञात में यात्रा नहीं हो सकेगी। हम ज्ञात से बंधे हैं।
जो जो हम जानते हैं उसी से हम बंधे हैं। किसीने एक शास्त्र पढ़ लिया है, गीता या कुरान या बाइबिल या कुछ और। किसी ने कुछ सुन लिया है किसी ने कुछ अनुभव कर लिया है और वह उससे बंधा है। जो ज्ञान से बंधता है वह अतीत से बंध जाता है। क्योंकि ज्ञान हमेशा बीते हुए (ढेंज) का होता है, जो हो गया है, बीत गया है। जो आपने जान लिया वह अतीत हो गया, जो जान लिया वह गया। वह मुर्दा हो गया। वह मर गया। उस मेरे हुए के साथ जो बंधा रहता है उसकी भविष्य में यात्रा कैसे हो सकेगी? वह आगे कैसे जाएंगे? ज्ञान तो हमेशा बीता हुआ है। जो भी आपने जान लिया वह गया। और परमात्मा है अनजाना (न्नदादवूद), अज्ञात। तो इस जाने हुए से अगर हम बंध गए तो उस अनजाने को कैसे जान सकेंगे? इसलिए ज्ञान की गठरी जो उतार देता है, वही उस सागर में यात्रा कर पाता है जो कि परमात्मा का है, ईश्वर का है।
पहला सूत्र है ज्ञान से मुक्त हो जाना। लेकिन हम सब तो ज्ञान की तलाश में हैं। हम सब तो इस खोज में हैं कि ज्ञान कहीं मिल जाए। भगवान न करे कि आपको कहीं ज्ञान मिल जाए। ज्ञान मिला कि आप वही बंद हो जाएंगे, वहीं ठहर जाएंगे, रुक जाएंगे। जो ज्ञानी हो जाते हैं, वही ठहर जाते हैं और मुर्दा हो जाते हैं। पंडित से ज्यादा मरा हुआ कोई आदमी कभी देखा है? दुनिया में जितना पांडित्य बढ़ता है उतना मुर्दापन बढ़ता है। क्यों? क्योंकि वह अपने जाने से, अपने ज्ञान से बंध जाते हैं। वह बंधन उनके चित्त को फिर उड़ानें नहीं लेने देता है। अनंत सागर की, आकाश की, परमात्मा की उड़ान में जान में वह असमर्थन हो जाते हैं। उनके पैर जमीन से बंध जाती हैं। ज्ञान से मुक्त होने का साहस ही किसी व्यक्ति को धार्मिक बनाता है। तो पहला सूत्र है ज्ञान के तट से अपनी जंजीरें खोल दीजिए। बड़ी घबराहट लगेगी। घन छोड़ देना बहुत आसान है। लेकिन ज्ञान छोड़ना बहुत कठिन है। इसलिए जो लोग घन छोड़कर भाग जाते हैं वे लोग भी ज्ञान नहीं छोड़ पाते। धन छोड़कर भाग जाते हैं लेकिन उसी धन से जो किताबें खरीदते हैं उसका बस्ता बांधकर साथ ले जाते हैं। वे ज्ञान नहीं छोड़ते। एक आदमी संन्यासी हो जाता है, घर छोड़ देता है, परिवार छोड़ देता है, पत्नी और बच्चों को छोड़ देता है, लेकिन हिंदू होने को नहीं छोड़ता है, मुसलमान होने को नहीं छोड़ता है, जैन होने को नहीं छोड़ता है।
कैसी अजीब और आश्चर्य की बात है कि अब तक जमीन पर साधु पैदा नहीं हुए। हिंदू साधु होता है, मुसलमान साधु होता है, ईसाई साधु होता है, यह भी क्या पागलपन की बात है। साधु होना चाहिए जमीन पर। हिंदू, ईसाई और मुसलमान ये नाम कैसे साधु के पीछे लगे हैं? असाधु के साथ ये बीमारियां लगी रहें तो समझ में आता है लेकिन साधु के साथ इन बीमारियों को देखकर बहुत हैरानी होती है, बहुत आश्चर्य होता है। लेकिन ज्ञान जो पकड़ लिए गए हैं हिंदू का, मुसलमान का, जैन का उसे वे छोड़ते नहीं, उसे छोड़ना क्यों नहीं चाहते? वह भी तो एक आंतरिक संपदा है। इसलिए वह भी एक धन है। रुपया बाहर की संपत्ति है, ज्ञान भीतर की संपत्ति है। बाहर की संपत्ति छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। भीतर की संपत्ति जो छोड़ता है, वही केवल परमात्मा में संबद्ध होता है। क्राइस्ट ने कहा है कि धन्य हैं वे जो दरिद्र हैं। कौन? क्या वे जिनके पास लंगोटी नहीं है? अगर वे ही धन्य हैं तो क्राइस्ट ने बहुत गलत बात कही है। तो उसका मतलब यह हुआ कि वह गरीबी, दीनता और दरिद्रता के समर्थन में हैं। लेकिन नहीं, क्राइस्ट ने कहा है..पुअर इन स्प्रिट जो आत्मा से दरिद्र हैं। क्या मतलब? आत्मा से दरिद्र का मतलब यह कि जिन्होंने ज्ञान की संपदा को फेंक दिया, जिन्होंने कहा कि हमारे पास भीतर कोई संपदा नहीं है, हम कुछ भी नहीं जानते, हम बिल्कुल अज्ञान में हैं, हमारा कोई ज्ञान नहीं है, जिन्होंने अतीत से, बीते से, जो गया उससे अपने को बांध नहीं रखा है। धन्य हैं वे लोग जिन्होंने ज्ञान की संपत्ति को छोड़ दिया है, वे ही लोग, केवल वे ही थोड़े से लोग सत्य को और परमात्मा को जान सकते हैं। तो क्या तैयारी है इस बात की आप ज्ञान को छोड़ दें?
धन को छोड़ने की तैयारी करवाने वाले लोग गलत साबित हुए हैं। धन छोड़ने का कोई बड़ा सवाल नहीं है। धन बाहर है। अगर उसे छोड़ दीजिए तो इससे जो उपलब्धि होगी वह भी केवल बाहर की ही होगी। ज्ञान भीतर है। अगर उसे छोड़ा तो जो उपलब्धि होगी, वह भीतर की होगी। और स्मरण रखिए, दुनिया में केवल दो ही सिक्के हैं..धन के और ज्ञान के। और दो ही तरह के लोग हैं धन को इकट्ठा करने वाले लोग और ज्ञान को इकट्ठा करने वाले लोग।
एक बादशाह समुद्र के किनारे अपने महल में निवास करता था। एक सांझ वह छत पर खड़ा हुआ था। सड़कों जहाज आते थे और जाते थे समुद्र में। उसने अपने वजीर को कहा कि देखते हो सैकड़ों जहाज आ रहे हैं और जा रहे हैं। उनके वजीर ने कहा पहले मुझे भी सैकड़ों दिखाई पड़ते थे। कुछ दिन से मुझे केवल दो ही जहाज दिखाई पड़ रहे हैं। उसके राजा ने कहा दिमाग खराब हो गया है? दो जहाज दिखाई पड़ते हैं? सैकड़ों आ रहे हैं, जा रहे हैं। उस वजीर ने कहा, हो सकता है कि मुझे गलत दिखाई पड़ता हो, लेकिन फिर भी मुझे दो जहाज दिखाई पड़ते हैं। एक तो धन का जहाज है और दूसरा है ज्ञान का जहाज। और इन दो ही जहाजों की सारी यात्रा है। या तो कोई धन खोजने जा रहा है या कोई ज्ञान खोजने।
धन से भी अहंकार तृप्त होता है। धन है मेरे पास। धन की खोज से तृप्ति होती है कि मैं कुछ हूं, कोई हूं। भूल जाते हैं हम कि मैं अपने को नहीं जानता। धन के मेरे पास, मैं कुछ हूं। जरा किसी धनी को धक्का दें तो कहेगा कि जानते नहीं कि मैं कौन हूं? लेकिन अगर उनका धन छिन जाए तो फिर वह यह नहीं कहेगा कि जानते नहीं कि मैं कौन हूं। धन था तो वह कुछ था। एक आदमी मंत्री है तो वह कुछ है। वह मंत्री न रह जाए और जैसी कि रोज होता है, कोई मंत्री है फिर नहीं भी रह जाता। भूतपूर्व मंत्री रह जाता है। मर गया। वह मंत्री तब नहीं रह गया। जैसे कपड़े की कीज निकल जाए वैसा आदमी हो जाता है, बिल्कुल ढीला ढीला। उसको धक्का दो तो बिल्कुल नहीं कहता कि जानते हो..मैं कौन हूं, बल्कि वह कहेगा कि कहीं आपको चोट तो नहीं लग गई? लेकिन वह कल जब मंत्री था और आप पास से निकल जाते धक्का देकर, आपकी छाया का भी धक्का लग जाता तो कहता कि ठहरो! जानते नहीं कि मैं कौन हूं।
तो धन, पद, अनुभव यह भाव देता है कि मैं कुछ, हूं। इस मैं कुछ हूं के भ्रम में वह यह ख्याल ही भूल जाता है कि मैं यह भी नहीं जानता कि मैं कौन हूं। कुछ हूं के भ्रम में कौन हूं इस बात का स्मरण नहीं रह जाता। एक और खोज है ज्ञान की। ज्ञानी को भी दंभ पैदा हो जाता है कि मैं कुछ हूं और ज्ञानी धनी से कहीं ज्यादा दंभी होता है। क्योंकि वह यह कहता है कि यह धन तो बाहर की संपत्ति है। यह तो भौतिकवादी है। और हम! हम तो अध्यात्मवादी हैं, हम तो ज्ञान के खोजी हैं। धन, यह तो क्षुद्रवाद है। लेकिन इस ज्ञान से भी क्या हो रहा है? ज्ञान से भी अहंकार मजबूत हो रहा है कि मैं कुछ हूं।
 ज्ञानियों की आंखों में देखिए, उनके आसपास ढूंढिए और खोजिए। वहां शांति नहीं मिलेगी, मिलेगा अहंकार। नहीं तो ज्ञानी शास्त्रार्थ करते, घूमते घूमते और एम दूसरे को हराते और पराजित करते? जहां किसी को हराने का भाव आता है वहां सिवाय अहंकार के और क्या होगा? ज्ञानी शास्त्र लिखते हैं और वह भी दूसरे शास्त्रों के खंडन, निंदा, गाली गलौज में? अगर इन ज्ञानियों के शास्त्र देखें तो बहुत हैरान हो जाएंगे। जितनी गाली गलौज की जा सकती है वह सब वहां मौजूद है। जितना जो भी मनुष्य के मन में दूसरे मनुष्य के प्रति हिंसा, घृणा और क्रोध हो सकता है वह सब वहां मौजूद है। यह क्या है? इन ज्ञानियों ने खुद भी लड़ा और दुनिया को लड़ाया और ऐसी दीवाल खड़ी कर दी जिसको तोड़ना मुश्किल हुआ जा रहा है। ये दीवालें सब अहंकार की दीवालें हैं और ये ज्ञानी अगर धन को छोड़ भी दें तो छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अहंकार फिर भी तृप्त होता है। अहंकार अपनी जगह है। धन छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़।
धनी का अहंकार होता है। त्यागी का अहंकार होता है। और त्यागी का अहंकार धनी के अहंकार से ज्यादा खतरनाक होता है। क्योंकि वह ज्यादा सूक्ष्म है और दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञानी का अहंकार होता है कि मैं जानता हूं। यह जो जानने का भाव है यह सूक्ष्मता भीतरी दीवार है। यह सर्व से, समस्त से जुड़ने नहीं देगी। यह तोड़ देगी। अहंकार तोड़ने वाली इकाई है। वह आपको तोड़ता है सबसे तब आप अकेले रह जाते हैं। आप सबसे टूट जाते हैं। अहंकार तोड़ता है इसलिए अहंकार परमात्मा की तरफ ले जाने वाला नहीं होता है। अहंकार किसी भी भांति अपने को भरी सकता है..स्वार्थ से, ज्ञान से, धन से। न मालूम कितने और किन रूपों से भर सकता है। अहंकार जहां है, मैं कुछ हूं यह भाव जहां है वहां सर्व के साथ सामंज्य नहीं हो सकेगा। क्योंकि मैं कुछ हूं वही स्वर सारे संगीत को विकृत कर देगा। क्या यह नहीं हो सकता कि यह मैं चला जाए? यह हो सकता है, यह हुआ है। जमीन पर आगे भी यह होता रहेगा। यह आपके भीतर भी घटित हो सकता है।
ज्ञान के भ्रम को विसर्जित करने में मन डरता है। डर यह है कि अगर मेरा ज्ञान ही गया तो फिर मैं तो न कुछ हो गया। फिर तो मैं नामहीन हो गया। लेकिन जिन्हें परमात्मा को खोजना है, वे स्मरण रखें कि उन्हें न कुछ होना पड़ेगा। प्रेम के द्वार पर जो कुछ होकर जाता है उसे खाली हाथ वापस लौटना पड़ता है। प्रेम के द्वार पर जो न कुछ होकर जाता है उसे हमेशा द्वार खुले मिलते हैं और स्वागत मिलता है।
रूसी ने एक गीत गाया है। गाया है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। द्वार खटखटाया। किसी ने पूछा कौन हो? प्रेमी ने कहा, मैं हूं तेरा प्रेमी। तुरंत सन्नाटा हो गया। उसने बहुत बार द्वार भड़भड़ाए और कहा, बोलती क्यों नहीं हो? मैं तुम्हारा प्रेमी द्वार पर पड़ा खड़ा हुआ, चिल्ला रहा हूं। आधी रात गयी भीतर से किसी ने कहा लौट जाओ। यह द्वार न खुल सकेगा। क्योंकि प्रेम के द्वार पर जो आदमी कहता है कि मैं हूं प्रेम के द्वार उसके लिए कैसे खुल सकते हैं? प्रेम के घर में दो कि लिए कोई जगह नहीं है, लौट जा। वह प्रेमी लौट गया। वर्षा हो गई, सर्दी आई, धूप आई, दिन आए और गए। चांद उगे और गिरे और न मालूम कितने वर्ष बीते। और फिर एक बार रात उस दरवाजे पर फिर दस्तक सुनी गयी। और फिर उससे किसी ने पूछा कि कौन हो? बाहर से किसी ने कहा कि अब तो तू ही है। और कहते हैं द्वार खुल गए और पीछे पता चला कि द्वार तो खुले ही हुए थे। केवल मैं के कारण बंद मालूम पड़ते थे। मैं नहीं था तो कोई दीवार न थी। मैं परमात्मा और मनुष्य के बीच में रुकावट है। मैं पर पहली और गहरी और सूक्ष्म चोट वही होगी जहां मैं सबसे गहरी जड़ें हैं। वह जो जानने का भाव, वह जो जानने का ख्याल है, उसे तोड़ना होगा। और सच्चाई तो यह है कि हम जानते भी कुछ नहीं है, तोड़ने में कठिनाई क्या है? क्या जानते हैं? क्या जाना है? कुछ भी तो नहीं। जीवन ऐसे निकल जाता है जैसे पानी पर कोई लकीर खींचता है। जान ही क्या पाते हैं? कभी सोचा है कि क्या जान पाए हैं? कुछ भी तो नहीं लेकिन छोड़ने में भय होता है। उस भय को जो पार नहीं करता वह परमात्मा के रास्ते में यात्रा नहीं हो सकता है। उस भय को पार करना होगा।
 पहला सूत्र है ज्ञान के अहंकार को चोट देना। उसे बिखेरना, उसे जानना। चोट देते ही एक अदभुत क्रांति भीतर मालूम होगी। जिंदगी बिल्कुल और तरह की दिखाई पड़ने लगेगी। जिस फूल के पास कल गुजरे थे उसी फूल के पासे से जब आज गुजरेंगे तो फूल दूसरा दिखाई पड़ेगा। क्योंकि कल आप सोचते थे कि मैं जानता हूं इस फूलों को। जिस फूल को आप जानते थे तो वह इस भ्रम के कारण ही न कुछ था, लेकिन आज उस फूल के पास से निकलेंगे और यह जानते हुए कि नहीं जानते हैं, तो शायद एक पल ठहर जाएंगे और उस फूल को देखेंगे तब शायद वह रहस्यपूर्ण मालूम होगा और न मालूम कितने दूर का संदेश लाता हुआ मालूम पड़ेगा। उस फूल को भी अगर पूरी तरह शांति से देखेंगे तो शायद परमात्मा के किसी सौंदर्य की झलक वहां दिखाई देगी। लेकिन जानने वाले व्यक्ति को वह नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि वह सब जगह से अंधे की भांति निकल जाता है।
यह जो ज्ञान का दंभ है, वह आदमी को अंधा कर देता है। यह चीजों को देखने नहीं देता है। पैर के नीचे जो दूब है परमात्मा वहां भी है, आसपास जो लोग हैं, परमात्मा वहां भी है। हवाएं हैं, आकाश है और बादल हैं और सब कुछ है और जो कुछ है सब में वही है। लेकिन वह दिखाई तो नहीं पड़ता क्योंकि देखनेवाली आंख नहीं है। यह ज्ञान जो रोके हुए है सारे रहस्य के द्वार पर्दे की तरह, दीवालें की तरह। तो पहली चोट इन ज्ञान पर ही करनी पड़ेगी और ज्ञान पर आप चोट कर पाए तो एक दूसरा अभिनव क्षितिज खुलता हुआ दिखाई पड़ेगा..जो कि प्रेम का है, जो ज्ञान को छोड़ने को राजी होता है उसके लिए प्रेम के द्वार खुल जाते हैं।
तो पहला सूत्र है, ज्ञान से तोड़ना अपने को। और दूसरा सूत्र है, प्रेम से जोड़ना। जानने का भाव छोड़ दें और प्रेम करने के भाव को जान लें। जानने वाला नहीं जान पाता है और प्रेम करने वाला जाना लेता है। हम तो कुछ ऐसे हजारों वर्षों से प्रेम के विरोध में पाले गए हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। ज्ञान के पक्ष में और प्रेम के विरोध में पाले गए हैं। मैं आप से निवेदन करता हूं कि ज्ञान के विरोध में, प्रेम से, प्रेम के जीवन में गति करें। प्रेम में चरण रखें। जब प्रेम की दिशा में चित्त प्रवाहित हो जाएगा तो परमात्मा से ज्यादा निकट कोई भी नहीं है ओर अगर ज्ञान की दिशा में बुद्धि काम करती रहेगी तो परमात्मा से ज्यादा दूर कोई नहीं है। विज्ञान कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा क्योंकि विज्ञान की खोज किसी तथाकथित ज्ञान की ही खोज है। इसलिए विज्ञान जितना बढ़ता जाता है वह कहता है कि ईश्वर कहीं नहीं है। विज्ञान इसी तथाकथित ज्ञान की चरम परिणति है। लेकिन प्रेम तो हर कदम पर परमात्मा को पता है। प्रेम तो हिल भी हनीं पाता बिना परमात्मा के। लेकिन प्रेम की भाषा को गणितज्ञ कैसे समझेगा? ज्ञानी कैसे समझेगा? प्रेम की भाषा उसकी समझ में बिल्कुल भी नहीं आती।
एक फकीर था। वह प्रेम के गीत गाता और प्रेम की हो बातें करता था। अनेक लोग उससे कहते कि तुम परमात्मा की बातें क्यों नहीं करते। वह कहता कि परमात्मा की बातें क्या करें। जो प्रेम को ही नहीं जानता उससे परमात्मा की बातें करनी नासमझी है। वह कहता कि हम तो प्रेम की ही बातें करते हैं। जो प्रेम को नहीं जानता उससे परमात्मा के लिए क्या कहें? जिन्होंने दिया नहीं देखा उनको सूरज की क्या खबर कहें। वह क्या समझेंगे सूरज को और जिसने दिया देखा है उससे भी क्या सूरज की बात करें? क्योंकि जिसने दिया देख लिया है उसने सूरज भी देख लिया है।
एक दिन एक पंडित पहुंचा और उसने कहा कि तुम प्रेम ही प्रेम रटे जाते हो। यह भी पता है कि प्रेम कितने प्रकार का होता है? पंडित हमेशा प्रकार पूछता है। वह पूछता है कि कितने प्रकार का प्रेम होता है, कितने प्रकार के सत्य होते हैं, कितने प्रकार के ईश्वर होते हैं? वह तो हर जगह यही बात पूछता है। पंडित ने उस फकीर से भी पूछा कि कितने प्रकार का प्रेम होता है। मालूम है? वह फकीर बोला, हैरान कर दिया तुमने। प्रेम तो हम जानते हैं। प्रकार का तो हमें आज तक कोई पता नहीं चला। यह प्रकार क्या होता है? प्रेम में और प्रकार? पंडित हंसा। उसने कहा हंसने की बारी मेरी है। अपनी झोली से उसने किताब निकाली और कहा कि यह किताब देखो। इसमें लिखा है कि प्रेम पांच प्रकार का होता है। और तुम प्रेम की बकवास कर रहे हो और प्रकार तक का पता ही नहीं! क्या खाक तुम्हें प्रेम का पता होगा? अभी अ, ब, स, भी नहीं आता है तुम्हें प्रेम का। तुम्हें अभी प्रकार भी मालूम नहीं है। यह तो पहली क्लास है प्रेम की। तो पहले प्रकार सीखो, प्रेम के संबंध में शास्त्र पढ़ो, प्रेम के सिद्धांत सीखो फिर प्रेम की बातें करा। वह फकीर बोला कि भूल हो गयी भाई, हम तो प्रेम ही करने लगे। यह तो गलती हो गयी। प्रकार सीखने के लिए किसी प्रेम के विद्यालय में भर्ती होना था। मैं नहीं हो पाया। यह गलती हो गयी। उस पंडित ने कहा कि सुनो, मैं तुम्हें अपना शास्त्र सुनाता हूं। उसने शास्त्र सुनाया। बड़ी भारी व्याख्या की जैसी कि पंडितों की हमेशा से आदत रही है। वे भारी व्याख्यान करते रहे हैं, बिना इस बात को जाने कि जिसकी वे व्याख्या कर रहे हैं उसे वे जानते भी हनीं। उसने बड़ी बारीक व्याख्या की, बड़े सूक्ष्म तर्क उठाए। फकीर बिना कोई जवाब दिए शांति से सुनता रहा। पंडित ने सोचा ठीक है। फकीर प्रभावित है। क्योंकि पंडित एक ही बात जानता है। या तो विवाद करो या फिर शांत रह जाओ, विवाद मत करो। उसने देखा कि फकीर विवाद नहीं करता है तो वह मान रहा है। तब उसने कहा, सुनी पूरी बात? समझ में आयी? कैसा लगा? तुम्हें कैसा लगा मेरी बात सुन कर? उस फकीर ने कहा कि मुझे ऐसे लगा, जैसे एक दफा एक फूल की बगिया में एक जौहरी सोने को कसने के पत्थर को लेकर घूस आया और माली से बोला देखो कौन कौन फूल सच्चे हैं, मैं अभी पता लगाता हूं। और अपन सोने के पत्थर पर फूलों को घिस घिस कर देखने लगा। और सभी फूल कच्चे साबित हुए। सभी फूल झूठे साबित हुए। तो जैसा उस माली को लगा था वैसे ही मुझे लगा। जब तुम प्रेम के प्रकार करने लगे।
प्रेम की भाषा अभेद की भाषा है, ज्ञान की भाषा भेद की भाषा है ज्ञान तोड़ता है, ज्ञान विश्लेषण करता है, प्रेम जोड़ता है। विज्ञान तोड़ता है। तोड़ता चला जाता है। आखिर में मिलता है परमाणु, आखिरी टुकड़ा! प्रेम और धर्म जोड़ता चला जाता है, जोड़ता चला जाता है। आखिर में मिलता है परमात्मा। विज्ञान परमाणु पर पहुंचता है जो कि तोड़ता है, तोड़ता है। प्रेम परमात्मा पर पहुंचता है जो कि जोड़ता है, जोड़ता है। जोड़ने से द्वार मिलेगा परमात्मा का, तोड़ने से नहीं। इसलिए पहला सूत्र है ज्ञान को छोड़ दें। दूसरा सूत्र है प्रेम को फैलने दें और विकसित होने दें। लेकिन यह कैसे प्रेम फैलेगा और विकसित होगा? क्या जबरदस्ती किसी को जाकर प्रेम करना शुरू कर दीजिएगा? ऐसे लोग भी हैं जो जबरदस्ती भी करते हैं, सेवा करते हैं, इस आशा में कि शायद परमात्मा मिल जाए।
एक स्कूल में एक पादरी ने बच्चों को समझाया कि तुम प्रेम करो, सेवा करो। विना एक सेवा का काम किए सोओ की मत। दूसरे दिन उसने बच्चों से पूछा कि तुमने कोई सेवा का, प्रेम का कृत्य किया? तीन बच्चों ने हाथ उठाए और कहा कि हमने किया। बड़ा खुश हुआ पादरी। तीस बच्चे थे। कम उठाए और कहा कि हमने किया। बड़ा खुश हुआ पादरी। तीस बच्चे पूछा कि तुमने क्या प्रेम का कृत्य किया? बच्चे ने कहा, मैंने एक बूढ़ी स्त्री को सड़क पार करवाई है। उस पादरी ने कहा, धन्यवाद। बहुत अच्छा किया दूसरे लड़के से पूछा, तुमने क्या किया? उसने कहा कि मैंने भी एक बूढ़ी स्त्री को सड़क पार करवाई है। पादरी को थोड़ा सा ख्याल हुआ कि इन दोनों ने एक ही काम किया। उसने कहा तुम ने भी अच्छा किया। तीसरे बच्चे से पूछा तुमने क्या किया? उसने कहा मैंने भी एक बूढ़ी स्त्री को सड़क पार करवाई है। पादरी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, क्या तुम तीनों ने एक ही सेवा का कृत्य किया? तुमको तीन बूढ़ी स्त्रियां मिल गयी जिनको तुमने सड़क पर करवाई? उन्होंने कहा, नहीं, आप गलत समझे। तीन नहीं थीं। हम तीनों ने उसी को पार करवाया। उसने पूछा, क्या तुम तीन लोगों की सहायता की जरूरत पड़ी उसको पार कराने में? उन बच्चों ने कहा, वह पार होना ही नहीं चाहती थी। हमने जबरदस्ती किसी तरह उसे पार किया। वह भागती थी। पार होना नहीं चाहती थी।
ये जो सेवक सारी दुनिया में सेवा करते हुए मालूम पड़ते हैं वे उसी तरह के खतरनाक लोग हैं। ये जबरदस्ती सेवा किए चले जाते हैं। ये उन बूढ़े लोगों को सड़क पार करवा देते हैं जिनको पार करना नहीं है। दुनिया में सेवकों ने जितना उपद्रव किया है उतना और किसी ने नहीं किया है। ये सोचते हैं कि इस भांति हम अपना मोक्ष तय कर रहे हैं। हमको क्या फिकर है कि आपको सड़क पार करनी या नहीं करनी है। हम तो अपने मोक्ष का इंतजाम कर रहे हैं। आपको पार करना हो या न करना हो, हम आप को पार करवाए देते हैं।
इस तरह को जबरदस्ती प्रेम और सेवा उत्पन्न नहीं होती। प्रेम कोई कृत्य नहीं है। प्रेम आपका प्राण बने, तभी सार्थक है। प्रेम आपका प्राण कैसे बनेगा? कैसे यह संभव होगा कि प्रेम आपसे प्रवाहित हो उठे? यह छोटी सी बात अगर ख्याल में आ जाए तो प्रेम को प्रवाहित होने में कोई भी बाधा नहीं है। और वह छोटी सी बात यह नहीं है कि आपके प्रेम से दूसरों को लाभ होगा, बल्कि वह छोटी सी बात यह है कि प्रेम के अतिरिक्त आप भी आनंद में प्रतिष्ठित नहीं हो सकेंगे। प्रेम आनंद में प्रतिष्ठा देता है। प्रेम किसी का कल्याण नहीं है। प्रेम आपका ही आनंद है। कभी आपने कोई ऐसा आनंद जाना है जो प्रेम से रिक्त और शून्य रहा हो? जब भी आप आनंद में रहे होंगे तब जरूर किसी प्रेम की दशा में ही आनंद में रहे होंगे। लेकिन प्रेम में खुद को खोना पड़ता है, छोड़ना पड़ता है। खुद को छोड़ने की सामथ्र्य जिसमें हैं, उसके भीतर उसके प्राण प्रेम से भर सकते हैं। हमने अपने को जरा भी छोड़ने को राजी नहीं हैं। हम आपने को खोने को राजी नहीं हैं जब कि खोने वाला हृदय, देनेवाला हृदय और बांटनेवाला हृदय ही प्रेम करने वाला, हृदय है।
यह जो मांगने वाला हृदय है, यही प्रेम न करने वाला हृदय है। हम सब चैबीस घंटे मांग रहे हैं। और जब सभी लोग मांग रहे हैं तो जिंदगी अगर घृणा से भर जाए, हिंसा से भर जाए तो आश्चर्य क्या? और अगर ईश्वर की हत्या हो जाए, तो आश्चर्य कैसा? इसमें कौन सी आश्चर्य की बात है? मांगने वाला हृदय धार्मिक हृदय नहीं है। बांटने वाला, देने वाला जरूरी नहीं है कि अपना कपड़ा बांट दें और धन बांट दें। यह सवाल नहीं है। हृदय के बांटने वाले भाव को चैबीस घंटे मौके हैं, चैबीस घंटे चुनौतियां हैं सब तरह से, सब तरह से। मौका है कि प्रेम आपके दिल में जगे और फैले। लेकिन इस प्रेम के लिए खोना पड़ेगा खुद को, देना पड़ेगा खुद को। खुद को खोए बिना कोई रास्ता नहीं है। और खोने के दो रास्ते हैं। या तो नशा करें और अपने को खो दें जैसे कि सब लोग खोते हैं। शराब पीते हैं और खुद को खो देते हैं। राम राम जपते हैं और इतनी देर जपते हैं दिमाग ऊब जाता है और नींद आ जाती है और खो जाते हैं। कोई नाटक देखता है, संगीत सुनता है और मूर्छित हो जाता है, खो जाता है। अपने के भूला देने के लिए, अपने को विस्तृत करने के लिए बहुत से रास्ते हैं। एक तो यह खोना है। यह खोना हम सारे लोग जानते ही हैं। लेकिन यह खोना नहीं है, यह सोना है। यह मूर्छित होना है।
एक और खोना है प्रेम में। प्रेम जो खोता है उसे आत्मा का स्मरण हो जाता है और नशे में जो खोता है उसे जो स्मरण है, वह भी भूल जाता है। प्रेम में कैसे खोएं? क्या करें? एक बात अगर ख्याल में आ जाए तो प्रेम आग से बहेगा। और आप खो सकेंगे। वह बात यह है स्वयं को एक इकाई की तरह समझ लेना भूल हैं। आप पैदा हुए हैं। आपको पता है कैसे और कहां से? आप मर जाएंगे। पता है कहां और क्यों? आप जीवित हैं। पता है कैसे? आपकी श्वास चल रही है। पता है कौन चला रहा है? क्यों चल रही है? लोग कहते हैं कि में श्वास ले रहा हूं। कभी आपने सोचा है कि इससे ज्यादा झूठ और कोई बात हो सकती है कि आप कहें कि मैं श्वास ले रहा हूं? अगर आप श्वास ले रहे हैं, तो फिर दुनिया में कोई आप को मार ही नहीं सकेगा। वह मारे, आप श्वास लेते चले जाए। फिर क्या होगा? फिर तो मृत्यु कभी न आ सकेगी। क्योंकि आप श्वास लेते चले जाएंगे। मृत्यु क्या करेगी? लेकिन हम सब जानते हैं कि मृत्यु क्या करेगी? श्वास हम लेते नहीं हैं, श्वास चल रही है। और कहते हम यह हैं कि श्वास मैं ले रहा हूं। लेकिन जिंदगी भर कहते हैं कि मेरा जन्म। झूठा है यह बात। मेरा जन्म क्या हो रहा है, मैं कहा हूं? उसी जन्म में कहते हैं मेरी श्वास, मेरा जीवन।
इस मैं में व्यर्थ जुड़ते चले जाते हैं जो कि कहीं भी सच्चा नहीं है, और जो कि है भी नहीं। इसको जोड़ते जोड़ते हम मन में कल्पित कर लेते हैं फिर ऐसा लगता है कि मैं हूं। और यह मैं हूं मांगने लगता है। क्योंकि वह बिना मांगे जी नहीं सकता है। इकट्ठा करने लगता है धन, ज्ञान, त्याग और पूछने है कि मैं मोक्ष कैसे जाऊं। स्वर्ग कैसे जाऊं? परमात्मा को कैसे पाऊं? वह सब मैं की वजह से है। मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि आप अहंकार छोड़ने की कोशिश करें। और यदि आपने कोशिश की तो कभी नहीं छोड़ पाएंगे, क्योंकि छोड़ने की कोशिश कौन करेगा? वही मैं। और हो सकता है कि एक दिन वह यह घोषणा कर दे कि मैं सब बिल्कुल अहंकारी नहीं हूं। मैं तो अब बिल्कुल विनम्र हो गया हूं, अहंकार तो मुझे में है ही नहीं। तो छोड़ने की कोशिश से वह नहीं जाएगा। जिस दिन जीवन को उसकी समग्रता में देखेंगे उसी दिन उस सम्यक दर्शन के प्रकाश में वह नहीं पाया जाएगा। जिस दिन दिखेगा, जन्म अज्ञात है, यात्रा अज्ञात है, मृत्यु अज्ञात है, उसी दिन वह विसर्जित हो जाएगा।
फिर उसे छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह विलीन हो जाएगा, वह पाया नहीं जाएगा। एक हंसी आएगी और लगेगा कि मैं तो था ही नहीं और जिस दिन यह दिखाई पड़ेगा कि मैं नहीं है उसी दिन दिखाई पड़ेगा वह जो है। उसका नाम ही परमात्मा है और उसी दिन वह बहने लगेगा जिसका नाम प्रेम है। उसी दिन सारे हृदय के द्वारों से एक प्रेम की गंगा चारों तरफ बहने लगेगी। एक प्रकाश, एक आनंद, एक थिरक और एक संगीत स्वयं में पैदा हो जाएगा। उस पुलक और संगीत का नाम धर्म है। उस पुलक, संगीत प्रेम और आलोक में जो जाना चाहता है उसी का नाम परमात्मा है।
पत्थरों का परमात्मा मर गया है और अगर हम प्रेम के परमात्मा को जन्म नहीं दे सकें तो फिर मनुष्य जाति को बिना परमात्मा के रहना होगा और सोच सकते हैं कि बिना परमात्मा के मनुष्य जाति का क्या होगा? जीवन में जो भी पाने जैसा है वह प्रेम है। क्यों? क्योंकि प्रेम परमात्मा की सुगंध है और जो प्रेम को पा लेता है, वह धीरे-धीरे सुगंध के मूल स्रोत को पा लेता है। वह परमात्मा किसी का भी नहीं है और बस का है। वह परमात्मा किसी मंदिर और मस्जिद में कैद नहीं है और वह परमात्मा किसी मूर्ति में आबद्ध नहीं है। वह सब तरफ फैला है। उसे देखने वाली प्रेम की आंखें चाहिए। अंधे शास्त्रों को पढ़ते रहेंगे उससे कुछ नहीं होगा और प्रेम की आंखवाले आंख खोल कर देख लें तो सब आनंद ही जाता है।
ये दो सूत्र मैंने कहे..ज्ञान के तट से जंजीरें तोड़ लें और प्रेम के आकाश की यात्रा में पंख खोल दें। पाल खोल दें। प्रेम की हवाएं आपको ले जाएगी, लेकिन ये दोनों बातें तभी हो सकती हैं जब इन दोनों के बीच एक मध्य बिंदु हो, वह मैंने से अंत में कहा। वह आपका अहंकार है। अहंकार छोड़ें तो ही ज्ञान से छुटकारा हो सकता है और अहंकार जाए तो ही प्रेम के और परमात्मा के द्वार खुल सकते हैं। अहंकार बिल्कुल भी नहीं है। उसको बिदा करना है जो है ही नहीं। उससे हाथ जोड़ना है जो है ही नहीं। ताकि उसे पाया जा सके जो है, सदा से है, सदा रहोगे, अभी है, यहीं है।  

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