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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम दर्शन-(प्रवचन-02)

प्रेम दर्शन-(साधना-शिविर)-ओशो 

दूसरा-प्रवचन

आनंद के क्षण

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैंने सुना है, एक गांव था जिसमें सभी लोग अंधे थे। और जब भी उस गांव में भूल से कोई आंख वाला पैदा हो जाता, तो उस गांव के चिकित्सक उसकी आंख का आपरेशन कर देते थे यह सोच कर कि यह बेचारा कुछ गलत पैदा हो गया है।
ठीक ही था उनका तर्क। अंधो की भीड़ कैसे माने कि किसी के पास आंख भी होती हैं? और इसलिए इस पृथ्वी पर जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा हुआ है, तो अंधों की भीड़ ने उसे मार डाला है। सिर्फ इस कारण कि यह हमारे विश्वास के बाहर है कि ऐसा आदमी ठीक हो सकता है? हम उसे मिटा डालना चाहते हैं। मर जाने के बाद हम पूजा करते हैं जरुर। मर जाने के बाद पूजा बहुत आसान है। पूजा भी जिनसे हम छुटकारा चाहते है उनकी ही करते है। पुज्य बना कर हम अपने और उनके बीच एक फासला बना लेते हैं--राम, कृष्ण, बुद्ध, क्राइस्ट हम कहने लगते हैं, वे भगवान हैं और हम आदमी हैं। सोचते हम हैं कि शायद इस भांति हम उन्हें आदर दे रहे हैं। हम सिर्फ एक चालाक तरकीब खोज रहे हैं जिससे हम धार्मिक होने से बच जाएं।

जब हम किसी आदमी को भगवान कह देते हैं तो फिर आदमी होने के कारण धार्मिक होना हमारे बस के बाहर की बात हो जाती है। फिर हम कहते हैं, हम साधारण आदमी हैं, हम कैसे धार्मिक हो सकते हैं? बुद्ध हो सकते हैं, महावीर हो सकते हैं, कृष्ण हो सकते हैं, वे अवतार हैं, वे तीर्थंकर हैं, हम साधारण आदमी हैं, हम कैसे भगवान हो सकते हैं?
मनुष्य ने अपने को धर्म से बचाने की जो तरकीबें ईजाद की हैं उनमें एक बड़ी से बड़ी तरकीब यह है कि धार्मिक लोगों को भगवान बना कर हमने आदमी की सीमा के बाहर कर दिया है। जब कि कोई भी भगवान नहीं है या सभी भगवान हैं। दो के अतिरिक्त तीसरा कोई उपाय नहीं। अगर राम भगवान हैं तो आप भी भगवान हैं। हां, यह हो सकता है कि एक जागा हुआ भगवान हो, एक सोया हुआ भगवान हो, यह हो सकता है। एक ने पहचान लिया हो अपनी भगवत्ता को और एक ने न पहचाना हो। लेकिन इससे कोई भेद नहीं पड़ता है। या दूसरा रास्ता यह है कि भगवान कोई भी नहीं है।
अब तक हमने एक तरकीब निकाली है जिसमें कुछ लोग भगवान हैं और बाकी लोग भगवान नहीं हैं। उन दोनों के बीच अलग-अलग खाई हैं जिसे पार नहीं किया जा सकता। इसलिए जो इस पार आदमी के तट पर खड़े हैं वे थक कर मान लेते हैं कि हम आदमी हैं, हमसे कुछ हो नहीं सकता। किंतु पुराने धर्म नेे मनुष्य और परमात्मा को जोड़ा कम खाई ज्यादा खड़ी की है।
एक और बात मुझे स्मरण आती है जो मैं कहना चाहूंगा और वह यह कि पुराने धर्मों में किसी भाति संसार को और परमात्मा को भी दुश्मनों की तरह निरुपित कर दिया। कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि महात्मा सदा से ही परमात्मा के खिलाफ हैं। खिलाफ इसलिए कहता हूं कि परमात्मा तो संसार को रोज बनाए चला जाता है और महात्मा संसार की रोज निंदा किए चले जाते हैं। परमात्मा थकता नहीं है बनाने से और महात्मा थकते नहीं हैं मिटाने से। वे इस कोशिश में लगे हैं कि सारे लोग संसार से कैसे मुक्त हो जाएं? वे इस कोशिश में लगे हैं कि आवागमन कैसे बंद हो जाए? वे सारी जिंदगी को आसार, अर्थहीन करने की कोशिश में लगे हैं।
तो मैं कहना चाहता हूं कि अब तक जिसको हम महात्मा कहते रहे हैं वह परमात्मा का कुछ दुश्मन मालूम पड़ता है। परमात्मा तो जीवन को रोज बनाए चला जाता है, वह थकता ही नहीं है, अथक निर्माण करता चला जाता है। और महात्मा कहते हैं, सब असार है, सब व्यर्थ है।
ध्यान रहे, अगर संसार को और परमात्मा को हमने दुश्मन बनाया तो इसके दो परिणाम होंगे। इसका पहला परिणाम तो यह होगा कि जो संसार में है वह परमात्मा की तरफ आंख उठाना बंद कर देगा। और दूसरा परिणाम यह होगा कि जो परमात्मा की तरफ आंख उठाएगा वह संसार से भागना शुरू कर देगा। दोनों परिणाम महंगेे और खतरनाक हैं। क्योेंकि बुरा आदमी परमात्मा की तरफ आंख न उठाएगा। और अगर बुरा आदमी परमात्मा की तरफ आंख न उठाएगा तो वह अच्छा कैसे होगा? और भला आदमी संसार छोड़ कर भाग जाएगा। और जब भला आदमी संसार छोड़ कर भाग जाता है तो संसार और बुरा हो जाता है। क्योंकि भला आदमी उसे भला कर सकता था। वह छोड़ कर भाग जाता है।
पिछले पांच हजार वर्षों की दुखद कथा यह है कि बुरा आदमी परमात्मा को नहीं देखता, भला आदमी संसार को नहीं देखता। भला आदमी इस संसार की तरफ पीठ कर लेता है, संन्यासी हो जाता है। और भले आदमियों ने संन्यास लेकर मनुष्य को जितना नुकसान पहुंचाया उतना बुरे लोगों ने नहीं पहुंचाया। क्योंकि जब अच्छा आदमी जगह खाली कर देता है तो बुरे आदमी जगह भर देंगे, बुरे आदमी जगह खाली नहीं छोड़ेंगे। और जब अच्छा आदमी भागेगा तो बुरा आदमी कब्जा कर लेगा। सारी पृथ्वी पर बुरे आदमी का कब्जा है, क्योंकि अच्छा आदमी भगोड़ा सिद्ध हुआ है, वह भाग रहा है। वह कहता है, हमें कुछ भी नहीं करना, सब छोड़ कर भाग जाना है। अच्छा आदमी एक तरह से अपने हाथ से अपने को क्लीव, अपने को शक्तिहीन कर रहा है, इंपोटेेंट कर रहा है। और बुरा आदमी जोर से ताकत में लगा है।
जमीन पर इतना अधर्म है उसका एक कारण यह भी है कि भला आदमी संसार को प्रेम नहीं करता। जिसे हम प्रेम नहीं करते उसे हम बदल भी नहीं सकते। जिससे हम घृणा करते हैं उसे हम बदलेंगे क्यों? बल्कि जिसे हम घृणा करते हैं वह जितना भी बुरा होता है उतना हमें रस आता है कि ठीक ही हमने घृणा की, इस योग्य ही था, संसार छोड़ने ही योग्य था।
यह संसार इतना बुरा नहीं है जितना दिखाई पड़ रहा है। और जितना दिखाई पड़ रहा है उसमें अधिकतर हमारी मेहनत से बुरा हुआ है। हमारी मेहनत से यह सुंदर भी हो सकता था। मैं मानता हूं कि भविष्य में कोई भी धर्म जो मनुष्य को संसार विमुख करता होगा वह धर्म जिंदा नहीं रह सकता, उसके मरने की घड़ी आ गई है।
ऐसा धर्म चाहिए जो संसार को रूपांतरित करता हो, संसार से भगाता न हो। ऐसा धर्म चाहिए जो गृाहस्थ को संन्यासी न बनाता हो वह जो गृहस्थ होने में ही संन्यास को ले आता हो। ऐसा धर्म चाहिए जो जिंदगी के बीच हमें मिल जाए, जिंदगी को छोड़ कर जिसके लिए हमें जाना और भागना न पड़े। कितने लोग भागेंगे? और थोड़ा हम सोचें, अगर संन्यासी की बात सच है और सारे लोग संन्यासी हो जाएं, तो एक भी आदमी एक क्षण जिंदा नहीं रह सकेगा। संन्यासी भी उन पर जिंदा है जो संन्यासी नही हैैं। मंदिर में बैठ कर जो चैबीस घंटे पूजा कर रहा है वह भी उनके श्रम के कारण पूजा कर रहा है जो चैबीस घंटे दुकानों पर श्रम कर रहे हैं। यह आश्र्चयजनक है कि संन्यासी का शोषण हमें दिखाई नहीं पड़ा। लेकिन संन्यासी शोषक है, और बहुत अदभुत ढंग से।
अभी एक संन्यासी मुझे मिलने आया था। मैं कुछ दूसरी सभा में जाता था, मैंने उनसे कहा, उन्होंने पूछा था कि मैं ध्यान कैसे करूं? तब मैंने उनसे कहा आश्चर्य कि आप संन्यासी कैसे हो गए? क्योंकि ध्यान के बिना कोई संन्यास में प्रवेश कैसे कर सकता है? संन्यासी होकर पूछ रहे हैं कि ध्यान कैसे करूं! इधर कल सुबह ध्यान है, उसमें आ जाइए, उनसे मैंने कहा। उन्होंने कहाः फिर मुझे जरा बाहर एक सज्जन बैठे हैं उनसे पूछना पड़ेगा। मैंने कहाः उनसे क्यों पूछना पड़ेगा? उन्होंने कहा कि मैं पैसे अपने पास नहीं रखता हूं, पैसे वे सज्जन रखते हैं। टैक्सी में मेरे साथ होते हैं तो वे पैसे चुकाते हैं। अगर वे आने को राजी होंगे तभी मैं आ सकता हूं, क्योंकि पैसे मैं नहीं रखता हूं। अब मैंने कहा कि बड़े चालाक और कनिंग आदमी मालूम पड़ते हो, पैसों का काम तो लेना ही है, टैक्सी में पैसे तो देने ही हैं। अपनी जेब में रहें कि दूसरे की जेब में, इससे क्या फर्क पड़ता है? फर्क थोड़े ही पड़ता है। पैसा दूसरे की जेब में, पापी दूसरा हो जाता है, टैक्सी में हम बैठते हैं। नरक जाएगा वह जिसने पैसे चुकाए, स्वर्ग जाऊंगा मैं जिसके लिए पैसे चुकाए गए। अगर ऐसा हो रहा है तो फिर जगत में बड़ा अन्याय होता होगा। वैसे दूसरे की जेब में हाथ डाल कर जीना बहुत आसान है।
एक सुबह एक बगीचे में बर्नार्ड शाॅ घूम रहा था और साथ में चैस्टटन नाम का लेखक था। और चैस्टटन बहुत मोटा था और बर्नार्ड शाॅ तो बहुत दुबला-पतला था। चैस्टटन अपने दोनों खीसों में हाथ डाले हुए था, तो बर्नार्ड शाॅ ने उससे पूछा कि चैस्टटन, कभी-कभी मैं सोचता हंू कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक आदमी जिंदगी भर अपने खीसे में हाथ डाले हुए बिता दे? चैस्टटन ने कहा कि हो सकता है, लेकिन हाथ अपने हो खीसे दूसरे के चाहिए।
अपने ही खीसे में हाथ डाल कर जिंदगी बिताना बहुत मुश्किल हो जाएगा। संन्यासी यह काम कर रहा है हजारों साल से, हाथ अपने हैं खींसे दूसरे के हैं, वह जिंदगी बिता रहा है--वह पूजा कर रहा है, वह प्रार्थना कर रहा है, वह ध्यान कर रहा है--खीसे दूसरे के हैं।
यह उधार संन्यास है। अब तक का सारा धर्म उधारी पर खड़ा हो तो वास्तविक नहीं हो सकता है। लेकिन यह हो क्यों गया? इसके पीछे बात क्या है? यह कैसे संभव हुआ कि हमने धर्म को संसार का दुश्मन, लाइफ निगेटिव बना दिया? जिंदगी का निषेध हमने धर्म को क्यों बना लिया? धर्म ने जिंदगी को भरा क्यों नहीं, खाली क्यों किया? धर्म ने जिंदगी में और फूल क्यों न जोड़े, लगे फूलों को क्यों गिराया? और धर्म ने जिंदगी की निंदा क्यों की प्रशंसा क्यों न की?
क्योंकि अगर मैं एक चित्रकार का चित्र देखूं और उस चित्र की निंदा करूं, तो ध्यान रहे, चित्र की निंदा नहीं होती, निंदा हमेशा चित्रकार की हो जाती है। चित्र की कोई निंदा होती है? जिन्होंने संसार की निंदा की है उन्होंने गहरे में परमात्मा की निंदा कर दी है। शायद उन्हें इस रहस्य का पता न हो। लेकिन यह बात है संसार की निंदा अंत तक परमात्मा की निंदा है। क्योंकि, क्योंकि संसार की सारी गहराई में तो वही तो मौजूद है, उसके सृजन में वही मौजूद है। उसके पानी में, सूरज में, रोशनी में वही मौजूद है। अगर यह चित्र है तो वह चित्रकार है; अगर यह नृत्य है तो वह नृतक है। अगर नृत्य की निंदा की जाए तो नृत्य की कोई निंदा नहीं होती निंदा सब नर्तक की हो जाती है। लेकिन बड़ी अदभुत बड़ी कंट्राडिक्ट्री बात चलती रही। संसार की निंदा चलती रही, भगवान की प्रशंसा चलती रही। और इन दोनों के बीच हमें कभी विरोध नहीं दिखाई पड़ा।
यह विरोध देखना पड़ेगा। क्योंकि इस विरोध में दोहरे नुकसान हुए हैं। इस विरोध में बड़ा नुकसान तो यह हो गया कि आदमी को जीना तो पड़ेगा संसार में ही, कोई उपाय नहीं है, संन्यासी भी संसार में ही जीता है, कोई और कहीं जी नहीं सकता। जीना भी संसार में ही है, मरना भी संसार में ही है। नाम हम बदल लें, कपड़ों के रंग बदल लें, वह सब खेल की बातें हैं, उससे कुछ हो नहीं सकता। लेकिन जीना संसार में है, अगर संसार निंदित हो जाएगा तो जीवन निंदित हो जाएगा। और जिसके मन में जीवन की निंदा आ गई, वह जीवन के देवता की खोज कभी भी नहीं कर पा सकता है। कैसे करेगा? और यहां कुछ बात ऐसी है, इस फर्क को थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है या एक मूर्तिकार एक मूर्ति बनाता है, मूर्ति बनती जाती है, मूर्तिकार अलग है, मूर्ति अलग है; मूर्ति बन गई, मूर्तिकार अलग चला गया, मूर्ति अलग रह गई। मूर्ति अलग हो जाती है, मूर्तिकार अलग हो जाता है, लेकिन परमात्मा इतना भी अलग नहीं है जीवन से, वह तो वैसा ही है जैसे कोई नाचता है, नृत्य करता है, तो नृत्य और नर्तक में जरा भी फर्क नहीं है। नृत्य है वहीं नर्तक है। नर्तक गया नृत्य भी गया। नर्तक के बिना नृत्य नहीं हो सकता। तो परमात्मा और जगत के बीच नृत्य और नर्तक जैसा संबंध है, वह वही है, थोड़े उतरेंगे गहरे तो वह मिल जाएगा।
जैसे हम सागर के किनारे जाएं, और लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर कभी देखा आपने? सागर कभी देखा ही नहीं होगा? लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई पड़ता ही नहीं है, सिर्फ लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। लेकिन लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि कोई भी लहर सागर के बिना नहीं हो सकती। लेकिन सागर बिना लहर के हो सकता है। लेकिन सागर लहरों में दबा है, लहरें दिखाई पड़ती हैं, सागर नीचे दबा है। और अगर कोई लहर की निंदा से भर गया, तो सागर के प्रति प्रेम से कैसे भरेगा? क्योंकि लहर का प्रेम ही तो गहरे में उतारेगा, तो सागर में पहुंचना हो जाएगा। लहर में जो गहरे उतरता है वह सागर में पहंुच जाता है। लेकिन जो लहर से ही लौट आता है वह सागर में कैसे गहरे उतरेगा?
मैं यह कहना चाहता हूं कि संसार में, जीवन में वह जो प्रकट है, जो रूप में चारों तरफ मौजूद है आकार में, उसमें जो गहरे उतरेगा वह निराकार में पहुंच जाता है। वे जो चारों तरफ लहरे हैं अनंत जीवन की, उनको जो प्रेम करेगा वह धीरे-धीरे उसको भी उपलब्ध हो जाता है जो सबके भीतर छिपा है। लेकिन अब तक यह नहीं हो सका। क्योंकि हमने परमात्मा को जीवन से उलटा और दूर रख कर पूजा है। इसीलिए परमात्मा भी मरा हुआ रहा और जीवन अधार्मिक रहा। परमात्मा को जीवन से दूर रखेंगे तो मरा हुआ परमात्मा होगा। शायद इसलिए हमने पत्थर की मूर्तिंयां खोजीं, क्योंकि पत्थर शायद सबसे ज्यादा मरा हुआ मालूम पड़ता है। तो हमने पत्थर की मूर्तियां बनाईं, ताकि हम मरे हुए भगवान को हम मंदिरों में स्थापित कर सकें, उसकी पूजा कर सकें, उसे जैसा चाहें खड़ा कर सकें, जैसा चाहें बिठा सकें। असली परामात्मा चारों तरफ मौजूद है, लेकिन उससे काम नहीं चलता हमारा, हमें एक और परमात्मा अपना बनाना पड़ता है।
यह क्यों हुआ? जीवन के विपरीत और जीवन के विरोध में हमने परमात्मा की धारणा क्यों की? ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ पैथालाॅजिकल, कुछ रुग्ण-चित्त लोंगों के प्रभाव में यह परिणाम हुआ है। यह आपको खयाल में आया होगा कभी, जब आप आनंद के क्षण में होंगे, प्रसन्न होंगे, कोई प्रियजन आया होगा, फूल खिला होगा, रात के अंधेरे में दीया जल गया होगा, मन शांत होगा, आनंदित होगा किसी क्षण में जब आप आनंदित होंगे, तब आपके मन में जीवन की निंदा नहीं होगी। जब आप आनंद में होते हैं तब जीवन का स्वीकार होता है। लेकिन सिर में दर्द हो, पेट में तकलीफ हो, बुखार चढ़ा हो, तब सारे जीवन की निंदा शुरू हो जाती है, सब बेकार मालूम पड़ता है। हम भीतर जिस हालात में होते हैं उसकोे हम प्रोजेक्ट करते हैं।
अमरीकी सुप्रीमकोर्ट का एक चीफ जस्टिस था। वह बीस साल पहले पेरिस आया था, जब जवान था, नई शादी हुई थी। फिर बीस साल बाद वह वापस पेरिस आया। वह बूढ़ा हो चुका था, जिंदगी की रेत हाथ से बिखर जा चुकी थी। पेरिस में अपनी पत्नी के साथ घूम कर उसने बार-बार कहा, पेरिस अब वैसा नहीं मालूम होता। उसकी पत्नी हंसती और चुप रह जाती। जब बार-बार उसने कहा, तो उसने कहा कि माफ करिए, पेरिस तो अब भी वैसा ही है, लेकिन हमारे पास जवानी की आंखें नहीं रह गईं, हम बूढ़े हो गए हैं। वह जो पेरिस हमने देखा था वह तो अब भी वैसा ही है, लेकिन हम बूढ़े हो गए हैं। हमारे भीतर कुछ सिकुड़ गया, टूट गया, अंधेरा हो गया, मरने के करीब हो गया, तो पेरिस वैसा दिखाई नहीं पड़ता है। निश्चित ही, हमें जो दिखाई पड़ता है वह वही नहीं है जो है, हमें वही दिखाई पड़ता है जो हम देख सकते हैं।
मैंने सुना है कि एक गांव में ऐेसा हुआ कि एक गरीब आदमी ने गांव के राजा से एक गाय खरीद ली, वह बहुत मुश्किल में पड़ गया गाय खरीद कर। क्योंकि राजा की गाय थी और गरीब आदमी का घर था, और उसने उसके सामने घास डाला, वह सूखा घास था, और वह गाय ने खाने से इनकार कर दिया। उसे हरी घास सदा मिली थी। उसने बहुत कहा, गरीब ब्राह्मण था, उसने कहा, हम तुझे माता मानते हैं, तेरे लिए आंदोलन करते हैं, जेल भी जाते हैं, और तू इतनी दया नहीं करती अपने बेटे पर कि तू हमारा घास खा ले। लेकिन गाय ने बिलकुल न सुना। क्योंकि गाय मानती ही नहीं आदमी को अपना बेटा। आदमी कहता हो कहता हो। बल्कि मैंने सुना है कि गाय आपस में विचार करती हैं कि यह अपने आप सेल्फ अपाइंटेड बेटा कैसा? इस आदमी को हमने कब कहा कि बेटा है, गाय मानने को राजी नहीं है, क्योंकि आदमी अभी इस योग्य भी नहीं कि गाय भी उसको बेटा मान सके। बहुत ब्राह्मण रोया-धोया, लेकिन गाय नहीं मानी, नहीं मानी। वह परेशान हो गया।
गांव में एक बूढ़ा था उसके पास गया कि शायद उसके पास कुछ तरकीब हो। उस बूढ़े ने कहा कि तू कुछ न कर बाजार से हरा चश्मा खरीद ला और गाय की आंख पर चढ़ा दे। उस आदमी ने कहाः चश्मा और गाय की आंख पर, आप कह क्या रहे हैं? उसने कहाः तू पहले यह कर फिर लौट कर आ। वह आदमी गया और एक सस्ता चश्मा गाय की आंख पर चढ़ा दिया, हरा था रंग, सूखी घास हरी दिखाई पड़ने लगी, गाय चर गई। मां कहने से जो न मानी थी, चश्मा के बदलने से मान गई। वह आदमी बड़ा चकित हुआ! वह लौट कर बूढ़े को धन्यवाद देने गया, उसने कहा, श्रीमान, आपको गायों का बहुत अनुभव मालूम हाता है। उसने कहा कि बिलकुल नहीं, मुझे आदमियों का अनुभव है, उसी आधार पर मैंने कह दिया।
जो दिखाई पड़ता है वह वही नहीं है जो दिखाई पड़ता है, जो हमारी आंख पर चश्मा है, रुग्ण आंख सारे जीवन में असार अर्थहीन को देखती है। इसलिए जितना रुग्ण-चित्त होता है जगत उतना मीनिंगलेस मालूम पड़ता है, अर्थहीन मालूम पड़ता है। जितना प्रफुल्लित-चित्त होता है, जगत उतना अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है।
बच्चों को जगत अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। अनंत रहस्यों से भरा हुआ मालूम पड़ता है, छोटा कंकड़ भी हीरा मालूम पड़ता है। बच्चे नदी के किनारे छूट जाते हैं तो कंकर-पत्थरों से जेब भर लेते हैं। बूढ़े कहते हैं, फेंको क्या पागलपन कर रहे हो? उन बूढ़ों को पता नहीं कि उन्होंने कंकर नहीं भरे, बच्चों की दुनिया में कंकड़ होते ही नहीं, सब हीरे-जवाहरात ही होते हैं। बच्चे बामुश्किल कंकड़-पत्थर फेंक देते हैं, नहीं मानते हैं बूढ़े तो फेंक देते हैं। उनकी समझ के बाहर होता है कि बात क्या है, कि इतना रंगीन, इतना चमकदार पत्थर, इतना कीमती, प्राणों से प्यारा, फिंकवाया जा रहा हैं? बच्चे आंसू लिए लौट आते हैं। बच्चों की दुनिया में जीवन में एक अर्थ है, क्योंकि बच्चे के भीतर एक प्रफुल्लित...।
दुनिया के सारे धर्म क्योंकि बूढ़े आदमियों ने निर्मित किए हैं, इसलिए रुग्ण हैं। आज भी मंदिर और मस्जिद में बूढ़ा आदमी दिखाई पड़ता है, जवान दिखाई नहीं पड़ता, बच्चे नहीं दिखाई पड़ते। कुछ बच्चे दिखाई पड़ते हैं जो बूढ़े ही पैदा होते हैं, उनकी बात अलग है। कुछ बच्चे बूढ़े पैदा होते हैं। कुछ बूढ़े बुढ़ापे तक बच्चे रह जाते हैं, उनकी बात अलग है। लेकिन मंदिर-मस्जिद बूढ़े लोगों से भरी हैं। पिछला सारा धर्म बूढ़े आदमी की दृष्टि है जीवन के प्रति, युवा दृष्टि नहीं है, इसलिए उसमें प्रफुल्लता और आनंद नहीं है। इसलिए पुराने संत को हंसते हुए देखना बहुत मुश्किल है। रोती हुई शक्ल जरूरी क्वालिफिकेशन है संत होेने की। और जिन लोगों को रोती हुई शक्ल जन्म से मिलती है वे संत हो सकते हैं। हम सोच ही नहीं सकते कि जीसस कहीं किनारे पर रास्ते में चैरस्तेे पर खड़े हुए हंसते हुए मिल जाएं। अगर मिल जाएं तो हमें शक होगा कि कोई और आदमी है। महावीर को हंसता हुआ हम सपने में भी नहीं देख सकते, कितनी आंख बंद करो सोचो कि महावीर हंसते हुए दिखाई पड़ें, नहीं दिखाई पड़ते, इसलिए नहीं कि महावीर नहीं हंसे होंगे, महावीर नहीं हंसेगा तो कौन हंसेगा? जीसस नहीं हंसेगा तो कौन हंसेगा? लेकिन जिन लोगों ने धर्म की व्यवस्था दी है वे सारे के सारे वृद्धचित्त लोग, उन्होंने हंसी भी छीन ली।
मेरे पास आ जाते हैं लोग, अगर मैं हंस रहा हूं बैठ कर तो मुझे कई लोग कह जाते हैं कि आप हंसे मत, कोई नया आदमी मिलने आ रहा है वह क्या कहेगा, वह क्या साचेगा कि आप और हंसते हैं इस तरह। उन्होंने महावीर के भी होंठ सी दिए होंगे इन्हीं व्यवस्थापकों ने। ईसाई कहते हैं, जीसस नेवर लाॅफ, जीसस हंसे ही नहीं। अब जीसस हंसे ही नहीं, पत्थर थे? और जीसस नहीं हंसेंगेे तो कौन हंसेंगा? जीसस हंसे होंगे जैसे झरने खिलखिला कर हंसते हैं, ऐसे हंसे होंगे, जैसे चांद से फूल झड़ जाते हैं, ऐसे हंसे होंगे। लेकिन वे जो बूढ़ों का गिरोह सारे धर्म को व्यवस्था दे रहा है। ध्यान रहे, धर्म तो पैदा हुआ है सदा युवा चित्त में, वह जो यंग मांइड है, और उसको जो व्यवस्था दी है वह सदा दी है बूढ़े चित्त ने। व्यवस्थापक और जन्मदाता अलग-अलग हैं। महावीर से धर्म जन्म लेता है लेकिन जो व्यवस्था देने आते हैं वे बूढ़े लोग हैं।
मैंने तो यहां तक सुना है कि एक आदमी को सत्य मिल गया, तो शैतान के शिष्य बहुत घबड़ा गए, और उन्होंने शैतान को जाकर कहा कि गुरुदेव बहुत मुश्किल हो गई, एक आदमी को सत्य मिल गया है, दुनिया मुश्किल में पड़ जाएगी, हमारा राज्य डूबनेे के करीब है। उसने कहाः घबड़ाओ मत। इतनी देर क्यों लगाई, पहले क्यों न आए? उन्होंने कहा कि दूसरे कामों में लगे थे, काम ही काम है हमारे लिए जमीन पर, पता ही नहीं चला कि यह आदमी कब चुपचाप सत्य को उपलब्ध हो गया? और पता चल जाता अगर यह जंगल जाता, तो हम इसके पीछे लग जाते, लेकिन यह घर में बैठे-बैठे उपलब्ध हो गया। हमको पता भी नहीं था कि आदमी दुकान करते-करते, बाजार में बैठे-बैठे सत्य को उपलब्ध हो जाएगा! हम तो जंगल में संन्यासियों के पीछे पड़े रहते हैं। हमें इसका खयाल भी नहीं था। लेकिन हो गया है, जल्दी करें। उसने कहाः कोई फिकरमत करो। तुम ढोल ले लो, मंजीरे ले लो, और गांव-गांव में डूंडी पीटो कि फलां आदमी को सत्य उपलब्ध हो गया है। उन्होंने कहा कि हम अपने हाथ से अपनी हत्या बुला रहे हैं, हम डूंडी पीट कर खबर करें? तुम फिकर मत करो, उस शैतान ने कहाः तुम तो खबर कर दो फौरन। मरे, बूढ़े, बीमार लोग उसके आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे, वे जल्दी से व्यवस्था दे देंगे। और जहां व्यवस्था दी गई कि वहां सत्य मर जाता है। फिर फिकर मत करना।
महावीर एक युवा चित्त हैं, जो बूढ़े हो ही नहीं सकते। कभी आपने महावीर की कोई बूढ़ी मूर्ति देखी? ऐसा नहीं कि महावीर बूढ़े न हुए होंगे। शरीर है तो बूढ़ा होगा। कभी आपने बुद्ध की बूढ़ी तस्वीर देखी? बुद्ध बूढ़े हुए, अस्सी साल रहे, तो बूढ़े हुए, जब मरे तो बूढ़े हुए ही होंगे, लेकिन फिर यह मूर्ति जवान क्यों? हम सोच ही नहीं पाते कृष्ण को बूढ़ा, मुश्किल है बहुत, वे बूढ़े भी हो जाएंगे तो भी नाचते रहेंगेे, तो फिर कैसे बूढ़े होंगे, बहुत मुश्किल है। वे बूढ़े भी हो जाएंगे तब भी उनका गीत चलता रहेगा, बांसुरी बजती रहेगी, वे बूढ़े नहीं हो सकते। हमने बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की, राम की, बूढ़ी तस्वीरें नहीं बनाईं, उसका कारण है। वे हमेशा युवा थे, भीतर से युवा थे, चित्त सदा ताजा था, वह कभी बूढ़ा नहीं हुआ। उन्होंने जिंदगी को सदा ताजगी से, प्रफुल्लता से, आनंद से देखा। लेकिन उनके आस-पास जो गिरोह इकट्ठा होता है--अनुयायियों का, भक्तों का, श्रद्धालुओं का, वे डुबाते थे। सारे धर्म को अनुयायी और व्यवस्था देने वाले लोग डुबाते रहे। उन्हें वह सुख कौन होता है, यह बड़े मजे की बात है।
जब एक कृष्ण जैसा आदमी गांव में नाचने लगता है और गीत गाने लगता है और उसकी आंखों से एक रोशनी टपकने लगती है, तो उसके आस-पास कौन इकट्ठा होता है? उसके आस-पास वे लोग इकट्ठे हो जाते हैं जो दुखी हैं और सोचते हैं कि हमें भी ऐसा आनंद कैसे मिल जाए? जब एक युवा-चित्त प्रकट होता है तो बूढ़ा चित्त आस-पास इकट्ठा हो जाता है कि शायद कोई तरकीब से मैं भी इसी आनंद को उपलब्ध हो जाऊं। जब कोई स्वस्थ्य आदमी आता है तो बीमार इकट्ठे हो जाते हैं कि शायद हमें भी स्वास्थ्य मिल जाए। तो जब भी कोई धार्मिक चेतना पैदा होती है तो उसके आस-पास रुग्ण, पैथालाॅजिकल, बीमार चित्त इकट्ठे हो जाते हैं। वे इकट्ठे होते हैं इस आशा में कि हम स्वस्थ्य हो जाएं, हम भी आनंदित हो जाएं। लेकिन वे इतने क्रोनिक, वे इतने ज्यादा गहरे बीमार होते हैं कि वे तो नहीं हंस पाते, वे जो एक हंसी का फव्वारा पैदा हुआ था वे उसे घेर कर रोने की दुनिया में बदल देते हैं। और व्यवस्था हो जाती है।
अब तक हंसने वाला धर्म पैदा नहीं हो सका एक धर्म जो हंस सके। एक धर्म जो जीवन के साथ नाच सके। एक धर्म जो जीवन को आलिंगन कर सके। और जीवन के क्षुद्रतम में विराट को देख सके, ऐसा धर्म पैदा नहीं हो सका। इसलिए मैं कहता हूं कि अतीत का सारा धर्म रुग्ण और बीमार है। स्वस्थ्य धर्म चाहिए। स्वस्थ धर्म की पूरी व्यवस्था और होगी। स्वस्थ धर्म की पूरी अवधारणा और होगी। स्वस्थ धर्म का पूरा आयाम, दिशा और होगी। पहला आयाम तो यह तोड़ देना पड़ेगा कि जीवन और परमात्मा के बीच कोई शत्रुता है, जीवन असार है, निंदा योग्य है यह छोड़ देना होगा। जीवन दुख है, जीवन बुरा है, यह छोड़ देना होगा। जीवन दुख हो जाता है अगर हमारे पास दुख को ही खोजने की आंख हो। जीवन आनंद हो जाता है अगर हमारे पास आनंद को खोजने की आंख हो। जीवन फूल बन जाता है अगर हम फूल खोजने में समर्थ हैं। जीवन कांटे हो जाता है अगर हम कांटे ही गिनने में समर्थ हों।
कोई मुझसे कहता था कि अगर एक निराशावादी को हम गुलाब के पौधे के पास खड़ा कर दें, तो उसे फूल दिखाई ही नहीं पड़ेंगे, क्योंकि वह कांटे गिनने में लग जाएगा। कांटे गिनने में कई कांटे चुभ जाएंगे। जो कांटे गिनेगा वह चुभने से बच भी नहीं सकता। और जब कांटे चुभ जाएंगे तो क्रोध भी आ जाएगा, और कांटों की निंदा भी आ जाएगी। और जिसके हाथ से खून बह रहा हो और आंख से क्रोध बह रहा हो और कांटे ही कांटेे जिसे दिखाई पड़ रहे हों, उसे फूल दिखाई पड़ेंगे गुलाब के? उसे नहीं दिखाई पड़ेंगे। वह शायद समझेगा कि सब धोखा है, सब माया है, फूल सब इलुजन है, असली तो कांटा है। यह फूल जो दिखाई पड़ रहा है, जरूर धोखा है। यह फूल शायद कांटों की तरकीब है लोगों को पास बुलाने की कि लोग पास आ जाएं और कांटे चुभ जाएं। वह कहेगा कि कांटे ही कांटे हैं, फूल कहां हैं? और यदि फूल दिखाई पड़ता है तो वह धोखा होगा। क्योंकि कांटों के बीच फूल खिल कैसे सकता है? जिस पौधे में कांटे ही कांटे खिले हैं वहां फूल हो कैसे सकता है? लेकिन एक आशावादी को गुलाब के फूल के पास खड़ा कर दें, तो उसकी नजर पहले ही फूल पर पड़ जाएगी, कांटे पर पड़नी संभव नहीं है। वह फूलों की तलाश में है। जो जिस बात को खोज रहा है, वह उसे मिल जाता है। वह फूल पर पहली ही उसकी नजर पड़ जाएगी। फूल न तो चुभते हैं और न खून गिरा जाते हैं। लेकिन फूलों का भी अपना ही स्पर्श है, जो भीतर फूलों को खिला देता है। और जब फूल का आनंद, फूल का सौंदर्य भीतर फूल खिला दे, तो उसके पास जो कांटे हैं वे भी फिर कांटे नहीं मालूम पड़ते, वे भी फिर फूल के संगी और साथी मालूम पड़ते हैं, हैं भी। क्योंकि वे सब कांटे फूल की रक्षा कर रहे हैं। वे किसी को गड़ने को नहीं बने हैं, वे फूल को बचाने कोे बने हैं। और जब कोई फूल के प्रेम में इतना डूब जाता है कि फूल से एक हो जाता है, तो फिर कांटे मिट जाते हैं, क्योंकि एक ही रसधार में फूल है, उसी रसधार से कांटा भी आया है, और दोनों एक ही रसधार के हिस्से हैं। इसलिए कांटा कांटा कैसे हो सकता है जब फूल की रसधार से ही आया है।
हम कैसा देखते हैं इस पर सब निर्भर है। जीवन असार दिखाई पड़ा है क्योंकि हमने दुखी चित्त से जीवन को देखा है। फिर जब हम दुखी चित्त से जीवन को देखते हैं तो वह असार दिखाई पड़ता है। और जब असार दिखाई पड़ता है तब हम और दुखी होते हैं। हम और दुखी होते हैं वह और ज्यादा असार दिखाई पड़ता है। फिर एक चक्कर शुरू हो जाता है, जिसमें अंतिम निर्णय होता है कि यह सब नरक है, इससे छुटकारा चाहिए। फिर आदमी भागना शुरू कर देता है। यह अब तक की कहानी है।
यह आगे की कहानी नहीं होनी चाहिए। किस भांति रुग्ण-चित्त लोगों ने हमें प्रभावित किया है। स्वस्थ-चित्त आदमी हमें प्रभावित नहीं कर पाया। और हमने ऐसी-ऐसी बातें खोज ली हैं जिससे हम रुग्ण-चित्त को बहुत आदर देने लगे हैं। अगर एक आदमी नंगा सड़क पर खड़ा हो जाए, भूखा रहे, उपवास करे, बीमार रहे, पीकल की तरह पीला हो जाए, तो हम कहेंगे कि तेज प्रकट हो रहा है, त्याग का तेज प्रकट हो रहा है। वह बेचारा सिर्फ पीला हुआ जा रहा है भोजन की कमी से। हम कह रहे हैं कि तेज प्रकट हो रहा है। अगर हमारे सब त्यागी, तेजस्वी खड़े किए जाएं तो उसमें से निन्यानबे प्रतिशत बीमार और रुग्ण होंगे। लेकिन हमने एक खयाल बना लिया है।
क्रोपाटकिन नाम का एक जर्मन यात्री भारत से वापस लौटा, तो उसने अपनी एक किताब में एक अदभुत बात लिखी। उसकी किताब मैं पढ़ रहा था, तो मुझे लगा कि उसने हमें पढ़ा है। बड़ा व्यग्ंय किया है। उसने लिखा है कि हिंदुस्तान जाकर मुझे पता चला कि टू बी हेल्दी इ.ज टू बी अनस्प्रीचुअल। स्वस्थ्य होना गैर-आध्यात्मिक होना है। और बीमार होना, रुग्ण होना, गंदा होना, कुरूप होना परमहंस होने की भूमिका है। जब तक कोई आदमी पाखाना साथ रख कर खाना न खा सके, तब तक परमहंस नहीं है। जब तक किसी आदमी के रग-रग, रेशे-रेशे शरीर के निकल कर हड्डी-हड्डी दिखाई न पड़ने लगेे, तब तक वह तपस्वी नहीं है। जब तक कोई आदमी बिलकुल मरने के किनारे न पहुंच जाए, तब तक, तब तक वह त्यागी नहीं है। हम मृत्यु की पूजा कर रहे हैं क्या कि जीवन की? हम मृत्यु की ही पूजा कर रहे हैं, हमारे मंदिरों में मृत्यु का देवता ही विराजमान मालूम पड़ता है। हमारे चित्त में भी मृत्यु का देवता विराजमान है। रुग्ण को, बीमार को, गंदगी को, कुरूपता को, सबकी पूजा हो रही है। हालांकि हमने सबके लिए एक्सप्लेनेशंस और व्याख्याएं खोज ली हैं, हम व्याख्याएं खोजने में बहुत चतुर हैं।
अभी एक संन्यासी मुझे मिलने आए थे। उनके पास बैठना बहुत कठिन था, आध्यात्मिकता उनकी बहुत दुर्गंध फेंक रही थी। वे स्नान नहीं करते हैं, दतून नहीं करते हैं। अब दांतों को क्या पता कि आध्यात्मिक आदमी के दांत में बास नहीं आनी चाहिए। अब शरीर को क्या पता कि इस पर धूल नहीं जमनी चाहिए और पसीना नहीं बहना चाहिए। शरीर अपने ढंग से चलता है, चाहे किसी का शरीर हो। तो मैंने उनसे कहा कि इतनी दुर्गंध आ रही है आपके शरीर से। उन्होंने कहा कि यह शरीर तो सब मिट्टी है, इसका क्या माया-मोह, असली चीज तो आत्मा है। मैंने उनसे कहा कि जिसके शरीर में भी अति दुर्गंध है, उसकी आत्मा में सुगंध होने की संभावना कम है। क्योंकि जिसकी नींव ही सड़ गई हो उसके मंदिर का कलश आकाश में उठा होगा, यह बड़ा डर है, मुश्किल है। क्योंकि सारी आत्मा शरीर पर ही खड़ी होती है, शरीर उसका मकान है। हम एक आदमी के मकान में प्रवेश करते हैं, तो आदमी के बाबत उससे बिना मिले बहुत कुछ पता चल जाता है। किसी आदमी के घर में जाने से जरूरी नहीं कि उस आदमी से मिले हीं, उसके घर को देख कर ही बहुत कुछ पता चल जाता है। क्योंकि वह आदमी ही रहता है न वहां? वह आदमी जिस ढंग से रहता है, वह उस आदमी के होने का ही तो सबूत है।
लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं, हमारे शास्त्र में वर्जित है स्नान करना, क्योंकि स्नान का मतलब है शरीर को सजाना; हम शरीरवादी नहीं हैं, हम आत्मवादी हैं। मैंने कहा कि भोजन करते हैं या नहीं? भोजन तो करता हूं। आत्मवादी को भोजन भी नहीं करना चाहिए। श्वास लेते हैं या नहीं? श्वास तो लेता हूं। आत्मवादी को श्वास भी नहीं लेनी चाहिए। मैंने कहाः आप जिंदा कैसे हैं, आत्मवादी को एकदम मर जाना चाहिए, आत्मवादी को आत्मघात के सिवाय कोई रास्ता नहीं, जैसा आत्मवाद रहा है अब तक। अगर जीना हो तो पापी हो जाना पड़ेगा। आत्मघात, इसलिए कुछ धर्मों में तो मरने को भी बड़ी ऊंची बात दे दी है, संथारा और न मालूम क्या-क्या पागलपन।
एक आदमी अगर मरे तो परमत्याग हो जाता है। दो तरह के, फिर कुछ लोग इकट्ठा मरने की हिम्मत जुटा लेते हैं। कुछ लोग धीरे-धीरे मरते रहते हैं। फिर भी इकट्ठा मर जाने वाले बेहतर हैं, समाप्त तो हो जाते हैं। जो धीरे-धीरे मरते हैं वे अपने चारों तरफ भी दुर्गंध और गंदगी फैलाते हैं। कुछ लोग इकट्ठे मर सकते हैैं, कुछ धीरे मरते हैं। लेकिन धर्म क्या मरना सिखाता है या कि जीना? धर्म मरने की व्यवस्था है या जीने की कला है? पर अब तक ऐसा रहा है।
मैं सोचता हूं कि यह जो आदमी गंदगी का आरोपण किए हुए बैठा है, यह कह तो यह रहा है कि मेरे शास्त्र में लिखा है, इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूं। लेकिन जहां तक मेरी समझ है वह यह है कि यह आदमी गंदा रहना चाहता है। और शास्त्र बहाना है। यह आदमी गंदा रहना चाहता है। और शास्त्र बहाना हैै। और उसने गंदगी को भी आध्यात्मिक व्याख्या दे दी है। इस तरह के और गंदे लोग भी रह गए होंगे उन्होंने शास्त्र भी लिख दिया होगा। लेकिन एक आदमी भूखा मरने से भी पीड़ित हो सकता है। किसी आदमी का स्वास्थ्य भी जा सकता है, लेकिन वह दूसरों को भी समझाने जाएगा अस्वाद। किसी आदमी का स्वाद चला गया हो, बीमार का चला जाता है। स्वस्थ आदमी का लक्षण है कि वह कितना स्वाद ले सकता है। जितना स्वस्थ आदमी है उतना ज्यादा स्वाद लेगा। और यह बड़े मजे की बात है कि जो जितना ज्यादा स्वाद लेता है स्वाद से उतना ही मुक्त हो जाता है। जिसने पूरा स्वाद ले लिया है वह स्वाद से बिलकुल मुक्त हो जाता है। लेकिन बीमार आदमी को स्वाद नहीं आता। बुखार से भरे आदमी को स्वाद नहीं आता, वह यह नहीं कहता कि मैं बुखार से भरा हूं, वह जिसकोे स्वाद आता है वह उससे कहता है कि तुम पापी हो, स्वाद ले रहे हो? स्वाद पाप है। स्वाद लेना फिर भी बंद नहीं होगा स्वस्थ आदमी का जब तक कि वह भी बीमार होने की पूरी व्यवस्था न कर ले। बीमार हो जाएगा तो उसका भी स्वाद खो जाएगा।
जीवन की सब तरफ से निंदा की है रुग्ण-चित्त लोगों ने। और उन्होंने ढंग से व्याख्या कर दी है कि हजारों साल से सुनने के बाद हमको भी लगता है कि ठीक ही कहते मालूम होते हैं। क्योंकि ठीक का आमतौर से वही मतलब होता है जो बहुत दिन से कहा जा रहा है। बहुत बार सुनने से ठीक मालूम पड़ने लगता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा हैः किसी भी झूठ को सच बनाना हो, तो एक ही तरकीब है, उस झूठ को बार-बार दोहराए चले जाओ। बस दोहराए चले जाओ, रिपिटीशन, सूत्र दोहराए चले जाओ।
अभी देखते हैं न, सड़क पर पनामा सिगरेट का बोर्ड लगा हुआ है। तो पहले बोर्ड लगा होता था, वह सीधे ही प्रकाश में रहता था, जलता-बुझता नहीं था। अब वह एडोल्फ हिटलर की किताब पढ़ ली लोगों ने। अब उन्होंने जलते-बुझते बल्ब लगा दिए हैं। उसका मतलब हैः रिपिटीशन। आप रास्ते से निकलेंगे--पनामा बुझ गया, फिर दुबारा जला, फिर पढ़ना पड़ेगा--कोई उपाय नहीं है। फिर बुझ गया, फिर जला, फिर पढ़ना पड़ेगा। आप सात-पांच मिनट उसके सामने गए तो आपको दस दफा पढ़ना पड़ेगा--जितनी दफा जलेगा-बुझेगा। अगर एक ही तरह का प्रकाश होता तो एक ही बार पढ़ने से छुटकारा हो जाता। वह बार-बार जलने-बुझने से आपको दस दफा पढ़ना पड़ रहा है। लेकिन आप कहेंगे, क्या फर्क पड़ता है? मैंने दस दफा पढ़ लिया तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मन में दस दफा पनामा शब्द दोहराया, मन में पनामा बैठ गया। अखबार खोला--पनामा, रेडियो खोला--पनामा। मित्र मिलेे, सिगरेट देखी, पैकेट देखा--पनामा। फिर आप बाजार गए सिगरेट खरीदने और दुकानदार ने पूछा कौन सी सिगरट चाहिए, आपने कहा कि पनामा दे दीजिए। और आपने सोचा की हम सोच कर आए हैं। आप गलती में हैं। आप सोच कर नहीं आए हैं। होशियार लोगों ने सिर्फ आपको सोचने के लिए मजबूर कर दिया है, आपको परसुएट कर लिया है।
अभी बहुत अदभुत आदमी है उसने एक किताब लिखी है। उस किताब का नाम हैः द हिडन परसुएटर्स। छिपे हुए फुसलाने वाले लोग। वे चारों तरफ से फुसला रहे हैं। वह हजार ढंग से फुसला रहे हैं। एक बात अगर दोहराई जाए, दोहराई जाए, दोहराई जाए, बिलकुल बिना फिकरकिए कि वह क्या है। आपको लोग मिल जाएंगे मानने वाले, और जब लोग मिल जाएंगे मानने वाले तो बहुत डर है कि आप भी मानने लगें। क्योंकि इतने लोग जब मान रहे हैं तो ठीक ही होगा।
मैंने सुना है कि एक पत्रकार मर गया था। वह मर कर सीधा स्वर्ग पहुच गया। क्योंकि पत्रकारों को यह खयाल होता है कि उनको तो नरक जाना नहीं पड़ेगा। उनके लिए तो सब दरवाजे खुले हैं। मिनिस्टर के दरवाजे जाएं तो जल्दी से कहता है कि भीतर आइए। उसने सोचा कि भगवान भी डरता तो होगा पत्रकारों से, जल्दी दरवाजा खोलेगा। लेकिन दरवाजा बंद था। बहुत दरवाजा ठोंका-पीटा। पत्रकार नाराज भी बहुत हो गया। कई दफा कहा कि जाकर अभी रिपोर्ट लिख दूंगा। बामुश्किल द्वारपाल ने झांक कर देखा, कहा कि कौन हैं आप? उसने कहा कि मैं पत्रकार हूं, आप समझते नहीं है, यह मेरा कार्ड देखिए, फलां-फलां पत्र का प्रतिनिधि हूं। उसने कहा कि होंगे, एक तो स्वर्ग में, एक तो पत्र चलते नहीं हैं, कोई पढ़ता नहीं, क्योंकि किसी की किसी में उत्सुकता ही नहीं है। और यहां कोई ऐसे उपद्रव भी नहीं होते कि अखबारों में छापने लायक खबरें मिल जाएं, बहुत दिन से यहां कुछ होता ही नहीं। एक अखबार है वह भी खाली कागज ही रहता है, उसमें कुछ रहता ही नहीं। और दस पत्रकारों की जगह है वह सदा से भरी हुई है। आप नरक की तरफ चले जाएं वहां काफी काम है।
उसने कहाः लेकिन मैं स्वर्ग में रहना चाहता हूं। अब एक काम करते हैं, कि दस, मुझे एक दिन के लिए भीतर आ जाने दे, चैबीस घंटे में एक को दस में से राजी कर लूंगा नरक जाने के लिए, फिर तो मैं रह सकता हूं। तो उसने कहाः तुम्हारी मर्जी, आ जाओ, हमें क्या फर्क पड़ता है। उसने द्वार खोल दिए और कहा कि चैबीस घंटे मेें लौट कर बाहर हो जाना अगर कोई राजी न हो। वह पत्रकार भीतर गया। जो भी उसे मिला उसने कहा कि सुना आपने नरक में एक नया अखबार निकल रहा है, एडिटर की जरूरत है। सब-एडिटर की जरूरत है। रिपोर्टर्स की जरूरत है। बड़ी लंबी तनख्वाहें हैं, कार का इंतजाम है, बंगले का इंतजाम है, चपरासी का इंतजाम है। शाम तक उसने सारे स्वर्ग में खबर पहुंचा दी। सोचा एकाध पत्रकार तो बहक के नरक की तरफ चला जाएगा।
दूसरे दिन सुबह जब वह गया तो द्वारपाल ने उसे देख कर एकदम दरवाजे पर ताला लगा दिया और कहा कि बाहर मत चले जाना। उसने कहाः क्यों? उसने कहा कि दसों के दस चले गए हैं। अब तुम रहो, क्योंकि यहां तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। उसने कहा कि अब मैं बिलकुल नहीं रह सकता, जब दस गए हैं तो जरूर बात में कोई दम होगा। मुझे बाहर जाने दो। क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि झूठी बात को दस लोग मान लें। कभी नहीं हो सकता। उस पहरेदार ने कहा कि अरे पागल, तूने ही यह अफवाह उड़ाई है। उसने कहाः चैबीस घंटे हो गए, बार-बार देाहराने से मैं ही भूल गया हूं कि यह सच है कि झूठ है?
आदमी झूठ बोले, दस-पांच दिन एक झूठ बोलते रहें, पंद्रहवें दिन आपको शक होगा कि यह सच है या झूठ? दोहराने से सब झूठ सत्य जैसे मालूम होने लगते हैं। यह एक बहुत बड़ा झूठ है कि जीवन असार है। इससे बड़ा कोई झूठ नहीं। क्योंकि अगर जीवन ही असार है तो फिर सार क्या होगा? मैं इसलिए कहता हूं कि इससे बड़ा झूठ नहीं। अगर जीवन ही निंदा योग्य है तो फिर स्वागत योग्य क्या होगा? नहीं यह बड़ा झूठ है लेकिन यह बहुत बार दोहराया गया है, और हजारों साल से दोहराया जा रहा है। और आज तक के मनुष्य का मन इसी झूठ के इर्द-गिर्द बनाया गया था, कि जीवन असार है, जीवन बुरा है, जीवन पाप है। इस दोहराने में तरकीबें उपयोग की गई हैं, कि इसे कैसे समझाया जाए। समझाने के बड़े रास्ते हैं। अगर मैं किसी से कहूं कि फलां व्यक्ति से मेरा प्रेम है, वह पूछे, प्रेम? प्रेम में क्या रखा हुआ है? तो बताना मुश्किल हो जाएगा। अगर वह कहे कि प्रेम में क्या रखा है? तो मैं क्या बताऊं? अगर मैं कहूं कि उस व्यक्ति के पास बैठने से मुझे बहुत आनंद मिलता है, वह कहता है कि बड़े पागल हो, पास बैठने से क्या मिल सकता है? तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण अनुभव हैं वे कोई भी बताए नहीं जा सकते, लेकिन उनका खंडन किया जा सकता है। यह बड़े मजे की बात है, जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसका समर्थन करना मुश्किल है। उसका खंडन करना बहुत आसान है। अगर मैं आपको दिखाऊं कि देखें चांद कितना सुंदर है और आप कहें कि क्या रखा है इसमें, तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। क्योंकि मैं कैसे समझाऊं कि चांद सुंदर है? चांद का सुंदर होना इतना डेलीकेट, इतना नाजुक मामला है कि मुझे लगता है कि चांद सुंदर है, सुंदर होने को उसमें है क्या? एक गोला लटका हुआ है जो चमक रहा है, इसमें सौंदर्य क्या है? मैं आपसे कहता हूं कि यह फूल बहुत सुंदर है, आप कहते हैं कि इसमें कुछ भी तो नहीं है, लाल रंग की पंखुड़ियां लगी हुई है और क्या है? मैं कहता हूं, ये तितली देखते हैं, आप कहते हैं, इसमें कुछ दम नहीं है, जरा इसके दोनों पंख उखाड़ दो, अभी मर जाएगी।
तो निंदा बहुत आसान है, प्रशंसा बहुत कठिन है। निंदा एकदम ही आसान है, वैसे ही जैसे कुछ चीज सृजन करना मुश्किल है। तोड़ देना, विनष्ट कर देना बहुत आसान है।
मैं एक जगह गया हुआ था एक गांव में, एक मित्र मुझे पहाड़ पर ले गए थे। वहां एक जलप्रपात है। रात थी चांदनी, पूरा चांद था। हम गए। एक मील नीचे उतरे हैं। पहाड़ी पर दूर से ही एक मील फासले से गर्जन सुनाई पड़ रहा है जलप्रपात का। निमंत्रण आ रहा है, पुकार आ रही है, हवाएं ठंडी हो गई हैं। मैं उतर कर भागने लगा हूं। मेरे मित्र से मैंने कहा कि जल्दी आओ, फिर मैंने उनसे कहा कि तुम्हारा ड्राइवर गाड़ी के अंधेरे में क्यों बैठा रहे, बाहर इतना चांद बरस रहा है, उसे भी बुला लो। वे हंसे, उन्होेंने कहाः आप ही बुला लें। मैं कुछ समझा नहीं। मैं गया लेने उस ड्राइवर को, कहा, पागल, भीतर क्यों बैठा है, तू भी आ? उसने कहाः जाइए आप ही जाइएः मैंने कहाः क्यों? उसने कहाः वहां कुछ भी नहीं है, मैं तो हैरान होता हूं कि लोग क्यों इतनी मेहनत करते हैं? कुछ पत्थर पड़े हैं और ऊपर से पानी गिर रहा है, और कुछ भी नहीं है।
मैं अवाक खड़ा रह गया! वह ठीक कह रहा था। आखिर एक जलप्रपात पर, एक वाटरफाॅल पर होगा भी क्या? पत्थर पड़े होंगे, पानी गिरता होगा। बड़ी सरल व्याख्या कर दी उसने। मैंने उससे कहा कि पागल, तू नाहक ड्राइवरी कर रहा है, तुझमें योग्यता तो धर्मगुरु हो जाने की है।
यह तो ट्रेड सिक्रेट है धर्मगुरुका कि प्रत्येक चीज को तोड़ कर कह दे कि इसमें क्या है। कुछ भी तो नहीं है। एक सुंदर स्त्री में क्या है? एक सुंदर पुरुष में क्या है? हड्डी-मांस-मज्जा, मवाद, पीक, खून, ये सब हैं।
सारे शास्त्र इस नासमझी से भरे हुए हैं। इतने रस से उन्होंने यह विवरण दिया है, ऐसा मालूम पड़ता है कि ये लोग, इनका परमात्मा से कोई वास्ता था या किसी अस्पताल में नौकरी करते थे? बस खून मांस-मज्जा-हड्डी इस सबका विवरण दिया हुआ है। इन्हें शायद इससे ज्यादा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा। लेकिन जब एक सुंदर आदमी खड़ा होता है तो हड्डी और मांस और मज्जा ही नहीं होता, हड्डी-मांस और मज्जा से प्रकट होता है। लेकिन जो प्रकट होता है वह कुछ और है। जब एक जलप्रपात, एक नदी एक पहाड़ से गिरती है, तो पत्थर और पानी ही नहीं होता, पत्थर और पानी से प्रकट होता है। लेकिन जो प्रकट होता है वह कुछ और है। लेकिन वह जो प्रकट होता है और पकड़ में नहीं आता, अगर सहानुभूति की आंख हो, प्रेम की आंख हो तो दिखाई पड़ जाए। अगर प्रेम की आंख न हो, सहानुभूति की आंख न हो, तो पत्थर और पानी ही रह जाएगा और वह दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
पिकासो है एक बड़ा चित्रकार। एक अमरीकी करोड़पति ने अपना एक चित्र बनवाया। उससे दाम तय नहीं किए। करोड़पति था इसलिए सोचा कि दाम तय करना गरीब आदमी का लक्षण है। पता तो था कि पिकासो अनाप-शनाप दाम मंागता है, लेकिन हर अमीर को अपना चित्र पिकासो का बनवाना जरूरी है, तभी अमीरी का पता लगता है कि इतना खर्चीला चित्र बनवाया। तो कुछ पूछा नहीं। चित्र बन गया। छह महीने, नौ महीने लग गए। बार-बार खबर की, पिकासो ने कहा, जल्दी मत करिए, भगवान भी जब आपको बनाता है तो नौ महीने लग जाते हैं। मैं तो कोशिश कर रहा हूं। साल पूरा हुआ, दो साल होने लगे, उसने कहा, भई, बहुत देर लग गई। पिकासो ने कहाः आ जाइए, ले जाइए, चित्र हालांकि अभी अधूरा है। वह आदमी आया और उसने कहा कि दो साल हो गए और अधूरा है? तो उसने कहा कि आप मर जाएंगे और अधूरे रहेंगे, पूरे तो आप भी नहीं हो पाएंगे, यह तो चित्र है बेचारा, मैंने कोशिश बहुत की लेकिन अधूरा है। फिर भी उसने कहाः अच्छा मैं इसे ले जाता हूं, जैसा भी है। कितने दाम हुए? पिकासो ने दाम बताए, तो करोड़पति घबड़ा गया, उसने कहा, पचार हजार डालर? पचास हजार डालर? उसने कहाः इसमें है ही क्या जिसके पचास हजार डालर मांग रहे हो? थोड़ा सा रंग पोत दिया है, कैनवस का टुकड़ा है और रंग है, और है ही क्या?
पिकासो ने अपने सहयोगी को कहा कि चित्र भीतर ले जाओ, इस आदमी की आंख भी नहीं पड़नी चाहिए, चित्र खराब हो जाएगा। और एक कैनवस का टुकड़ा ले आओ इससे दोगुना बड़ा और रंग की भरी हुई ट्यूबें ले आओ, और टुकड़े को रंग दो और इस सज्जन को दे दो, और कहो कि बिना पैसे दिए ले जाओ। इन्हें जो करना हो कर ले। वह ले आया। तो उस करोड़पति ने कहा कि पागल हो गए हैं आप, मैं इस रंग और कैनवस का क्या करूंगा? तो पिकासो ने कहा कि फिर जो मैं दे रहा था वह रंग और कैनवस ही नहीं था, रंग और कैनवस मे प्रकट हुआ था कुछ। जिसके मैं दाम मंागता हूं वह कुछ अलग है, उसका रंग कैनवस से कोई मतलब नहीं। रंग, कैनवस यह रहा, इसे तुम ले जाओ।
यह पिकासो जो कह रहा है ठीक कह रहा है। एक फूल में पंखुड़ी ही नहीं है, और एक सुंदर चेहरे में हड्डी-मांस-मज्जा ही नहीं है, और इस जगत में जो हमें दिखाई पड़ रहा है वही नहीं है, न दिखाई पड़ने वाला मौजूद है। लेकिन सहानुभूति और प्रेम से भरी आंख चाहिए तब वह दिखाई पड़ेगा, नहीं तो वह दिखाई नहीं पड़ेगा।
निंदा और खंडन करने वाले लोगों ने प्रत्येक चीज की एनालिसिस कर दी है, विश्लेषण कर दिया है और सामने रख दिया है कि यह रहा, बात खत्म हो गई। मैं आपसे कहना चाहता हूंः अब तक का धर्म विश्लेषण पर खड़ा है। मैं जिस धर्म की बात कर रहा हूं उसका एक सूत्र हैः विश्लेषण नहीं संश्लेषण, एनालिसिस नहीं सिंथेसिस। उसको मत देखो जिसके जोड़ से बना है, उसको देखो जो जोड़ कर बाहर है और जोड़ से प्रकट हो रहा है। पत्थर और पानी मत देखो, प्रपात देखो, प्रपात बात ही और है। पत्थर और पानी से कोई मतलब नहीं है। पत्थर और पानी सिर्फ प्रपात को प्रकट करने के माध्यम हैं। केमिकल्स को मत देखो, खनिजों को मत देखो, फूल को देखो, फूल कुछ और है--न पंखुड़ी है, न पत्ता है, न रंग है, फूल कुछ और है। रंग, पंखुड़ी, पत्ते से प्रकट हुआ है। हड्डी-मांस-मज्जा मत देखो, आदमी देखो, आदमी परमात्मा है, हड्डी-मांस-मज्जा से प्रकट हुआ है। लेकिन जब परमात्मा प्रकट होता हो हड्डी-मांस-मज्जा से तो हड्डी-मांस-मज्जा भी हड्डी-मांस-मज्जा नहीं रह जाती, क्योंकि जिसे परमात्मा ने अपने प्रकट होने के लिए चुना वह सब पवित्र हो गया है। जिससे परमात्मा प्रकट हुआ है वह सब पवित्र हो गया है। जहां उसके चरण पड़े हैं वहीं पवित्रता हो गई है। जहां उसकी आंख है वहीं पवित्रता हो गई है। जहां उसका फूल खिला वहीं पवित्रता हो गई है।
लेकिन पुराना धर्म बहुत गंदी बातों से भरा हुआ है। क्योंकि वह असार सिद्ध करने की चेष्टा में लगा था। उसने सिद्ध भी कर दिया, वह सफल भी हो गया दुर्भाग्य से, उसने सिद्ध भी कर दिया कि सब असार है। और सब असार अब जब मालूम होने लगा तब हमें मुश्किल खड़ी हो गई। आज शिक्षित आदमी जीने की बजाए मरना पसंद कर रहा है।
अभी मैं एक घंटा यहां बोलूंगा उस बीच न मालूम कितने लोग पृथ्वी पर आत्महत्या कर लेंगे। अंदाजन हर सेकेंड में एक आदमी आत्महत्या कर रहा है। हर मिनट मेें साठ आदमी मर रहे हैं। ऐसे तो बहुत लोग मर जाएंगे। आत्महत्या करके साठ आदमी मर रहे हैं हर मिनट। क्या हुआ है यह, असार सिद्ध हो गया है? अब वे संन्यासी भी नहीं होते, वे कहते कि इतनी देर क्या लगानी कि तीस-चालीस साल में मरे, अभी मर जाते हैं। विकार है, कुछ सार नहीं है, सब मीनिंगलेस है।
शेक्सपीयर के वचन इस सदी की छाती पर खोद देने जैसे हैं। शेक्सपीयर ने कहीं कहा है कि जिंदगी सिर्फ एक शोरगुल है और कुछ भी नहीं। सिर्फ शोरगुल और कुछ भी नहीं? इसमेें सारी पुरानी जो चिंतना है वह इसमें पकड़ गई है। और उस व्यक्ति ने मनुष्य को धार्मिक नहीं बनने दिया है। धार्मिक मनुष्य कैसे पैदा हो सकता है?
तो दूसरा सूत्र आज मैं आपसे कहना चाहता हूं और वह यह कि धर्म को जीवन स्वीकार का, लाइफ अफर्मेशन का, जीवन-प्रेम का, जीवन-आलिंगन का धर्म बनाना पड़ेगा। परमात्मा की बात ही छोड़ देनी चाहिए। जीवन काफी है। अगर कोई आदमी जीवन में उतर जाए तो परमात्मा को पहुंच जाता है, वह दूसरी बात है। सीधा जीवन काफी है। लेकिन इस जीवन के प्रति हमें विश्लेषण का रुख नहीं संश्लेषण का रुख लेना पड़ेगा। हमें चीजें तोड़-तोड़ कर नहीं देखनी पड़ेंगी, हमें चीजेें जोड़-जोड़ कर देखनी पडेंगी। और जब हम सब चीजों को जोड़ते-जोड़ते अंत में परम जोड़ पर पहंुच जाते हैं, तो वह जो अल्टीमेट टोटल जहां सब जुड़ जाता है जो है, तो उसी परम जोड़ का नाम परमात्मा है। अगर परमात्मा को कोई भी खंड-खंड करके खोजने गया तो नहीं पाएगा, अगर अखंड करने गया तो पा लेगा। सब जोड़ लेगा तो पा लेगा। और यहीं यह बात भी ध्यान रख लेनी जरूरी है कि विज्ञान इसीलिए परमात्मा को नहीं स्पर्श कर पाता है क्योेंकि उसकी प्र्रकियाएं एनालिसिस, वह चीजों को तोड़ कर देख रहा है।
पुराने धर्म और नये विज्ञान में फर्क नहीं है। पुराने धर्म और नये विज्ञान में एक बात एक सी है। पुराने धर्म भी चीजों को तोड़-तोड़ कर कहता था, असार है। नया विज्ञान भी चीजों को तोड़-तोड़ कर अणुओं पर पहुंचता है, परमाणुओं पर पहुंचता है, फिर कहता है, कोई आत्मा नहीं मिलती, कोई परमात्मा नही मिलता। नहीं मिलेगा। नहीं मिलेगा इसलिए नहीं कि नहीं है, नहीं मिलेगा इसलिए कि जिस प्रक्रिया से आप चल रहे हैं वह उसे खोजने की नहीं उसे खोने की प्रक्रिया है। किसी भी चीज को तोड़ कर नहीं मिलेगा।
एक सितार है उसे कोई बजा रहा है, उसके तारों से कोई संगीत निकल रहा है, आपके हाथ में दे दिया, आपने कहा कि हम संगीत की खोज करके रहेंगे। सब तार तोड़ डाले, सितार खोल डाला, टुकड़े कर डाले और कहा कि सब देख लिया कहीं कोई संगीत नहीं है। कहां है संगीत? कुछ तार के टुकड़े हैं, कुछ लकड़ी के टुकड़े पड़े हैं। कुछ भी संगीत नहीं है। सब झूठ थी, बात अफवाहें थीं। गलत कहा था लेागों ने कि संगीत भी होता है। संगीत होता है लेकिन सितार तोड़ कर नहीं मिलता, सितार से खुद के प्राण ही जुड़ जाएं तो मिलता है। अकेले सितार में भी नहीं मिलेगा। अकेला सितार भी रखा रहे तो संगीत नहीं मिलेगा। जब एक जीवंत आत्मा उस सितार के तारों से जुड़ जाती है और किसी अनजाने जगत में दोनों का तालमेल और नृत्य होने लगता है, तब संगीत जन्मता है। लेकिन अगर कोई सितार तोड़ कर खोजने जाए--छोड़ो सितार को, सितार मुर्दा है, संगीतज्ञ को ही कोई तोड़ कर देखे, हड्डी-हड्डी भी उसकी काट डाले--पकड़ लें किसी रविशंकर को और ले जाएं लेबोरेटरी में और तोड़ दें, टुकड़े कर दें, और खोपड़ी और शरीर सब काट कर और कहें कि कुछ भी नहीं है, कहां है संगीत? कहां है वीणा? न वीणा में मिला, न वीणावादक में मिला, अफवाहें, झूठी थी बात, दोनों तो खोज लिए? अब तो कुछ खोजने को भी न बचा। फिर भी संगीत था--न वीणा में था, न वीणावादक में था। दोनों के मेल में था। और दोनों का मेल कुछ बात और है जिसे पकड़ा नहीं जा सकता।
अकेली वीणा संगीत पैदा नहीं करती। अकेला संगीतवादक गीत पैदा नहीं कर पाता। दोनों मिलते हैं किसी मिलन में वहां पैदा हो जाता है। प्रेमी में होता है, प्रेम की प्रेयसी में होता है। दोनों को तोड़ें-फोड़ें कहीं नहीं मिलेगा। दोनों के किसी मिलन में होता है। और उस मिलन को पकड़ने का अब तक तो कोई उपाय नहीं, और भगवान करे कि कभी उपाय न हो। क्योंकि किसी दिन हम प्रेम को पकड़ लें और लेबोरेटरी में चले जाएं तो फिर हम सिंथेटिक प्रेम पैदा कर लेंगे। और पुड़ियां बांधे और बेच दें और दुकानों पर तख्तियां लगा लें कि यहां प्रेम बिकता है। और लोग लेने पहुंच जाएं क्योंकि प्रेम की सबको जरूरत है, किसी के पास नहीं। वे सब पहुंच जाएं कि हमें भी एक पुड़िया चाहिए। अमीर जरा मंहगा प्रेम खरीदेगा और गरीब जरा सस्ता प्रेम खरीदेगा। जो भिखमंगे हैं वे मांगेंगे और जो चोर हैं वे चोरी कर लें। लेकिन फिर दुनिया से प्रेम उठ जाएगा। प्रेम कमोडिटी नहीं बन सकती। क्योंकि प्रेम एक ऐसा अदृश्य मिलन है दो दृश्यों का। दृश्य पकड़ में आ जाते हैं--प्रेमी मिल जाएगा, प्रेमिका मिल जाएगी, लेकिन प्रेम पकड़ में नहीं आता है।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह अदृश्य में घटित होता है। जो गैर-महत्वपूर्ण है उसके माध्यम से प्रकट होता है। पदार्थ है माध्यम परमात्मा के प्रकट होने का, पदार्थ परमात्मा का दुश्मन नहीं है। शरीर है माध्यम आत्मा के प्रकट होने का, शरीर आत्मा का दुश्मन नहीं है। और जो बेचारा माध्यम बना है वह मित्र ही हो सकता है, दुश्मन कैसे हो सकता है? लेकिन इसके लिए चाहिए एक सिंथेटिक एटिट््यूट, एक जोड़ का भाव।
एक छोटी सी कहानी और आज की बात मैं पूरी करूंगा। कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर है।
एक बहुत अदभुत आदमी हुआ, मार्क ट्वेन। वह बहुत प्यारा आदमी था। उसका एक मित्र था, एक उपदेशक, जो निरंतर जगह-जगह बोलता और लाखों लोग उसे सुनने आते। लेकिन मार्क ट्वेन उसे सुनने कभी नहीं गया था। उसने एक दिन मार्क ट्वेन से कहा कि लाखों लोग मुझे सुनने आते हैं, तुम नहीं आए अब तक? पागल हो, चूक रहे हो, अमृत बरस रहा है और तुम नहीं लुट रहे? मार्क ट्वेन ने कहा कि क्या होगा बोलने में, बोलने में सिवाय शब्दों के और कुछ भी न होता है, न हो सकता है? उसने कहाः नहीं, तो फिर तुम आओ शब्दों में क्या रखा है, शब्द तो कहीं मिल जाते हैं, बोलने में कुछ और है।
मार्क ट्वेन गया। सामने बैठा रहा। बोलता था मित्र, सुनता रहा। लेकिन चेहरे पर एक भाव-रेखा न आई। जब मित्र बोल चुका तो उसने पूछा रास्ते में कि आप कुछ बोले नहीं, कैसा लगा? मार्क ट्वेन ने कहाः लगने का क्या था, शब्द ही शब्द थे और कुछ भी न था? एक घंटा मेरा खराब किया। और तुमसे मैं यह भी कह दूं कि रात मैं एक किताब पढ़ रहा था जो कुछ तुम बोले एक-एक शब्द उसमें लिखा है। उसने कहाः पागल हो गए हैं आप? ऐसी किताबें हो सकती है जिसमें मेरे कुछ शब्द हों, लेकिन ऐसी किताब असंभव है जिसमें मेरे सारे शब्द लिखे हों। मार्क ट्वेन ने कहाः तो शर्त बांध लें। सौ डालर की शर्त लग गई। मित्र ने सोचा आज तो मार्क ट्वेन हार जाएगा। लेकिन दूसरे दिन उसने एक डिक्शनरी, एक शब्दकोष भेज दिया। उसने कहा कि इसमें सब एक-एक शब्द लिखे हुए हैं। वह बाजी जीत गया। शब्दकोष में तो सभी शब्द लिखे हुए हैैं। उसने एनालिसिस का रास्ता पकड़ा, वाक्य नहीं पकड़े। शब्द पकड़ लिए, अक्षर पकड़ लिए, तो मिल गए।
मैं तो अगर हंू तो उसको कहूं--अब तो वह मर गया मार्क ट्वेन--उसको कहूं कि तूने इतनी बड़ी डिक्शनरी भेजी, यह भी गलती की, सिर्फ बारहखड़ी भेज देता, तो भी काम चल जाता। उसमें भी सब आ जाता। उसमें भी सब आ जाता क ख ग घ और यह लिख कर भेज देना था एक कागज पर कि इसमें सब आ गया है जो भी आप बोले।
यह विश्लेषक की दृष्टि है। यह नीचे से नीचे खंड को पकड़ लेती है, लेकिन अखंड को भूल जाती है। धर्म है अखंड की खेाज। उसको खोजने के लिए समन्वय की दृष्टि चाहिए। कल उसकी हम बात करेंगे कि कैसे वह दृष्टि उपलब्ध हो जाए। और जो लोग उस दृष्टि को ही उपलब्धि करने में उत्सुक हों, वे कल सुबह ध्यान के लिए उपस्थित हो जाएं, ठीक साढ़े आठ बजे, ताकि हम उस अखंड दृष्टि में प्रवेश भी कर सकें।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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