कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 सितंबर 2018

पथ की खोज-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो) 

सत्य के अज्ञात सागर का आमंत्रण

मैं विचार करता हूं कि किस संबंध में आपसे बातें करूं! बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं! सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं! डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी हैं।
बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बातों को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वे बातें आपको प्रिय न लगने लगें, कहीं वे आपके मन में स्थान न बना लें। क्योंकि मनुष्य विचारों और सिद्धांतों के कारण ही पीड़ित और परेशान है। उपदेशों के कारण ही वह बंधा है और परतंत्र है।

मनुष्य के जीवन में दूसरे के द्वारा कही गई और दी गई बातें ही उस सत्य के बीच बाधा बन जाती हैं, जो कि स्वयं उसके ही पास हैं और सदा से हैं।
ज्ञान बाहर से उपलब्ध नहीं होता है। और जो तथाकथित ज्ञान बाहर से उपलब्ध हो जाए, वह ज्ञान को रोकने में कारण हो जाता है।


मैं भी बाहर हूं। मैं जो भी कहूंगा, वह भी बाहर है। उसे फिर ज्ञान मत समझ लेना। वह ज्ञान नहीं है। वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता है।
जो भी कोई दूसरा आपके लिए देता हो, वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता है। हां, उससे एक खतरा हो सकता है कि वे बातें आपके अज्ञान को ढक दें। आपका अज्ञान आवृत हो जाए, छिप जाए और आपको ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैंने कुछ जाना है। सत्य के संबंध में यह जान कर भ्रम पैदा हो जाता है कि मैंने सत्य को जाना है! सत्य के संबंध में पढ़ कर यह धारणा बन जाती है कि मैं सत्य को जान गया हूं। और जिनको ऐसी धारणाएं बन जाती हैं, वे फिर सत्य को पाने में असमर्थ हो जाते हैं और पंगु हो जाते हैं।
सबसे पहले यह कह दूं कि बाहर से जो भी आता है, वह ज्ञान नहीं हो सकता है। वह सूचनाओं से अधिक नहीं है। और सूचनाएं सत्य नहीं हो सकती हैं।
और स्वाभाविक है कि मुझसे पूछा जा सकता है कि फिर मैं बोलूं..मैं क्यों कुछ कहूं, मैं बाहर हूं। और निश्चय ही आपसे कुछ कहूंगा..क्या कहूंगा? सत्य नहीं, बस सत्य के मार्ग की बाधाएं हटाने के लिए कहूंगा। मैं इतनी ही बात कहना चाहता हूं कि बाहर जो भी है, वह सब बाहर का समझें और उसे ज्ञान नहीं समझें। वह चाहे मेरा हो, वह चाहे किसी और का हो।
ज्ञान मनुष्य के भीतर उसका स्वरूप है। उस स्वरूप को जानने के लिए बाहर खोजने की कोई जरूरत नहीं है। बाहर खोजते हैं, इससे ही तो उसे खोते हैं। बाहर से जो भी सीख लेंगे, वही बाधा बन जाएगा। यदि उस सत्य को जानना हो, जो हमारे भीतर है; तो उसे अनसीखा करना होगा, उसे बाहर करना होगा, उसे छोड़ देना होगा। जिन्हें जानना है, उन्हें शास्त्र को छोड़ देना होता है। जो शास्त्र को पकड़ेंगे, सत्य उन्हें उपलब्ध नहीं होगा।
हम सारे लोग शास्त्र को पकड़े बैठे हैं! दुनिया में जो इतने उपद्रव हैं, वे इन शास्त्रों को पकड़ने से है!
ये जो हिंदू हैं, ये जो मुसलमान हैं, ये जो जैन हैं, ये जो पारसी हैं..ये कौन हैं, इनको कौन लड़ाता है? इनको कौन एक-दूसरे से अलग कर रहा है?
शास्त्र अलग कर रहे हैं, शास्त्र लड़ा रहे हैं! सारी मनुष्यता खंडित है, क्योंकि कुछ किताबें कुछ लोग पकड़े हुए हैं, कुछ दूसरी किताबें कुछ दूसरे लोग पकड़े हुए हैं! किताबें इतनी मूल्यवान हो गई हैं कि वे मनुष्य की हत्या तक कर सकते हैं!
पिछले हजारों वर्षों से हमने लाखों-लाखों लोगों की हत्याएं की हैं, क्योंकि किताबें बहुत मूल्यवान हैं, क्योंकि किताबें बहुत उच्च हैं! किताबों के लिए, मृत किताबों के लिए..मनुष्य के भीतर जो परमात्मा बैठा है, वह कभी भी अपमानित किया जा सकता है, उसकी हत्या की जा सकती है! क्योंकि शास्त्र बहुत मान्य है..इसलिए मनुष्यता को अमान्य किया जा सकता है, अस्वीकार किया जा सकता है! यह हुआ है, यह आज भी हो रहा है!
मनुष्य-मनुष्य के बीच जो दीवार है, वह शास्त्रों की है।
और आश्चर्य तो यह है कि कभी यह ख्याल पैदा नहीं होता कि जो शास्त्र मनुष्य को मनुष्य से अलग करते हों, वे मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकते हैं? जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने की सीढ़ी कैसे बन सकता है?
लेकिन हम अपने अज्ञान में सोचते हैं कि शायद शास्त्र में कुछ मिले! जरूर कुछ मिलता है। शब्द मिलते हैं, सत्य को दिए हुए शब्द मिल जाते हैं! और शब्द स्मरण हो जाते हैं। वे हमारी स्मृति में प्रविष्ट हो जाते हैं और स्मृति को हम ज्ञान समझ लेते हैं! स्मृति ज्ञान नहीं है।
कुछ चीजें सीख लेना, स्मरण कर लेना, ज्ञान नहीं है। ज्ञान का जन्म बहुत दूसरी बात है। स्मृति का प्रशिक्षण बहुत दूसरी बात है। स्मृति के प्रशिक्षण से कोई पंडित हो सकता है, लेकिन उससे प्रज्ञा जाग्रत नहीं होती है। स्मृतिजन्य पांडित्य जड़ता लाता है, जबकि ज्ञान तो जीवन में आमूल क्रांति कर देता है। ज्ञान ही जीवन को जीवंत बनाता है।
तो मैं कोई उपदेश देने का किंचित भी पाप करने को तैयार नहीं हूं। जो भी उपदेश देते हैं, वे हिंसा करते हैं; वे पाप करते हैं।
मित्र, मैं उपदेश देने को नहीं हूं। मैं उपदेशक नहीं हूं। मैं तो सत्य के प्रति स्वयं कैसे जागें, बस वही आपसे कहना चाहता हूं। वह भी इसलिए नहीं कि आप उसे मान लें। वरन इसलिए कि आप उसे सोचें। और हो सकता है कि उसके प्रति जागने में वह सत्य आप में भी जाग जाए। क्योंकि निष्पक्ष चित्त से किसी भी विचार के प्रति जागने से स्वयं में निश्चय ही बहुत सी अंतर्दृष्टियों का जन्म होता है।
जो भी कहता है कि मेरी बात मान लो, वह आपका दुश्मन है। जो भी कहता है कि श्रद्धा कर लो, वह घातक है। वह आपके जीवन को विकसित होने से रोकेगा। जो भी कहता है कि विश्वास करो, वह विवेक के जागरण में बाधा हो जाएगा।
और मनुष्य ने बहुत विश्वास किया है। और विश्वास का जो परिणाम है, वह हमारी दुनिया है। इससे बदतर दुनिया और क्या हो सकती है? इससे ज्यादा रुग्ण और अस्वस्थ मनुष्यता और क्या हो सकती है?
इस बीमार सभ्यता के मूल में वे विश्वासी लोग हैं, जिन्होंने सदा आंख बंद करके श्रद्धा की है और स्वयं के विवेक को प्रसुप्त रखा है। स्वयं के प्रति इससे बड़ा कोई अपराध नहीं है, क्योंकि शेष सब अपराध इसी अंधेपन से पैदा होते हैं। और मनुष्य की पंगु स्थिति उसके विवेक के लंगड़ेपन से ही उत्पन्न हुई है।
और हम आज भी विश्वास किए जा रहे हैं..कोई मंदिर में, कोई मस्जिद में, कोई चर्च में; कोई इस किताब में, कोई उस किताब में; कोई इस मसीहा में, कोई उस मसीहा में! सारी दुनिया विश्वास करती है! लेकिन विश्वास के बावजूद यह परिणाम है!
लेकिन विश्वास का जहर पिलाने वाले और उसके आधार पर ही शोषण करने वाले कहेंगे कि विश्वास कम है, इसलिए ही यह परिणाम है! विश्वास से पैदा हुए अंधेपन को भी वे विश्वास की कमी के कारण बतलाते हैं! उनका बतलाना नहीं, किंतु हमारा उसे मान लेना तो एक अविश्वसनीय चमत्कार ही है।
मैं कहता हूं कि परमात्मा करे कि विश्वास बिल्कुल शून्य हो जाएं। क्योंकि विश्वास की पूर्णता विवेक की मृत्यु के अतिरिक्त और क्या हो सकती है? विश्वास पूरा हुआ तो मनुष्य गया, क्योंकि विवेक भ्रष्ट हो जाएगा। विश्वास विवेक का विरोधी है।
जब भी कोई कहता है कि हमारी बात मान लो, तभी वह यह कहता है कि तुम्हें जानने की कोई जरूरत नहीं है! जब भी कोई कहता है कि विश्वास कर लो, तो वह यह कहता है कि तुम्हें अपने पैरों की कोई आवश्यकता नहीं है! जब कोई कहता है कि श्रद्धा करो, तब वह यह कहता है कि तुम्हें अपनी आंखों की जरूरत नहीं है, हमारे पास आंखें हैं।
मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है।
एक गांव में एक आदमी की आंखें चली गयीं। वह बूढ़ा था, बहुत बूढ़ा था। उसकी कोई नब्बे वर्ष की उम्र थी। उसके घर के लोगों में उसके आठ लड़के थे। उन आठों ने उससे प्रार्थना की, कि आंखों का इलाज करवा लिया जाए। सब कहते हैं कि आंखें ठीक हो जाएंगी।
लेकिन उस बूढ़े आदमी ने कहा कि मुझे आंखों की क्या जरूरत है? मेरे आठ लड़के हैं, उनकी सोलह आंखें हैं। उनकी आठ पत्नियां हैं, उनकी सोलह आंखें हैं। ऐसे मेरे पास बत्तीस आंखें हैं। फिर मुझे खुद आंखों की क्या जरूरत है? मुझे क्या जरूरत है आंखों की? मैं अंधा भी जी लूंगा। उन लड़कों ने बहुत प्रार्थना की, लेकिन वह बूढ़ा माना नहीं! उसने कहा: मुझे जरूरत ही क्या है, मेरे घर में मेरी बत्तीस आंखें हैं!
लेकिन एक रात को भवन में आग लग गई। वे बत्तीस आंखें बाहर हो गयीं, वह बूढ़ा भीतर रह गया! वे बत्तीस आंखें बाहर हो गयीं! और तब याद आया कि अपनी ही आंखें काम आती हैं, किसी और की आंखें काम नहीं आ सकती हैं।
अपना ही विवेक काम आता है, किसी दूसरे से मिले हुए विश्वास काम नहीं आते हैं।
जीवन में चारों ओर चैबीस घंटे आग लगी हुई है! हम चैबीस घंटे जीवन की आग में खड़े हुए हैं! वहां अपनी ही आंख काम आ सकती है, किसी और की नहीं..महावीर की, न कृष्ण की, न बुद्ध की, न राम की, न मेरी और न किसी और की। किसी की आंख किसी दूसरे के काम नहीं आ सकती।
लेकिन तथाकथित धार्मिक लोग, धर्म के व्यवसायी, धर्म के नाम पर शोषण करने वाले लोग समझाते हैं कि विश्वास करो, विवेक की क्या जरूरत है, तुम्हें विचार की क्या जरूरत है! विचार तो उपलब्ध हैं, दिव्य विचार उपलब्ध हैं, इन पर विश्वास करो!
और हम उन विचारों पर विश्वास करते रहे हैं और निरंतर नीचे से नीचे चले गए हैं। हमारी चेतना निरंतर नीचे से नीचे चली गई है। विश्वास से कोई चेतना ऊपर नहीं उठती। विश्वास तो आत्महत्या है, इसीलिए मैं नहीं कहता कि किसी बात पर विश्वास करो। मैं कहता हूं, विश्वास से अपने को मुक्त कर लो। विश्वास से मुक्ति में ही विवेक का जागरण है।
जिस व्यक्ति को भी सत्य का जीवन में अनुभव करना हो और जिस व्यक्ति को भी प्रभु के प्रकाश और प्रेम को अनुभव करना हो, वह स्मरण रखे कि सब भांति के विश्वासों से स्वतंत्र हो जाना, उस मार्ग पर पहली और अनिवार्य शर्त है।
स्वतंत्रता-चित्त की स्वतंत्रता, विवेक की स्वतंत्रता पहली शर्त है सत्य को जानने के लिए।
और जिसका चित्त स्वतंत्र नहीं, स्मरण रखें। वह कुछ भी जान ले, सत्य को नहीं जान सकेगा। सत्य के द्वार पर प्रवेश पाने के लिए चेतना का स्वतंत्र होना अत्यंत अनिवार्य है।
विश्वास बांधते हैं, परतंत्र करते हैं। श्रद्धाएं बांधती हैं, परतंत्र करती हैं। शास्त्र और सिद्धांत बांधते हैं और परतंत्र करते हैं।
कितने आश्चर्य की बात है, एक घर में आप पैदा हो जाते हैं, संयोग से..हिंदू कहो या मुसलमान कहो। और जन्म के साथ आपको विश्वास दे दिया जाता है और फिर जीवन भर आप उससे बंधे रहते हैं! फिर जीवन भर आप कहते हैं कि मैं तो हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं!
कहीं जन्म के साथ कोई ज्ञान मिलता है? जन्म का ज्ञान से कोई संबंध है? पैदाइश से धर्म का कोई संबंध है? अगर पैदाइश से ही दुनिया में लोग धार्मिक हों तो सारी दुनिया आज धार्मिक होनी चाहिए।
यह दुनिया इतनी अधार्मिक है, क्या यही इस बात का सबूत नहीं है कि जन्म के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं हो सकता है?
लेकिन हम सब जन्म से धार्मिक बने हुए हैं! और ये जन्म से बने हुए धार्मिक ही सारे उपद्रव के कारण हैं। दुनिया में इनके कारण ही धर्म का अवतरण नहीं हो पाता है।
जन्म से कोई धार्मिक नहीं होता है, जीवन से धार्मिक होता है। जन्म से किसी का कोई संबंध किसी विश्वास से होने का कोई कारण नहीं है।
लेकिन इससे पहले कि हमारा विवेक जाग्रत हो, हमारा समाज, हमारा परिवार, हमारे मां-बाप, शिक्षक, उपदेशक हमें विश्वास पकड़ा देते हैं! इसके पहले कि विवेक मुक्त आकाश में विचरण करे, विश्वास की जंजीरें उसे जमीन पर रोक लेती हैं और बांध लेती हैं! फिर जीवन भर हम उसी विश्वास के घेरे में भटकते रहते हैं, फिर हम कभी सोच नहीं पाते हैं!
जिस आदमी का कोई भी विश्वास है, जिसकी कोई श्रद्धा है, वह आदमी कभी विचार नहीं कर सकता है, क्योंकि वह हमेशा अपने विश्वास के बिंब से ही देखना शुरू करता है। वह जो भी विचार करेगा, वह पक्षपातपूर्ण होगा। वह जो भी विचार करेगा, उसकी पूर्व-धारणा में आबद्ध होगा। वह जो भी विचार करेगा, वह हमेशा उधार और झूठा होगा। वह उसका निज का नहीं हो सकता है। और जो विचार अपना न हो और जो विवेक अपना न हो, वह असत्य है। उसकी कोई सच्चाई नहीं है। वह कोई वास्तविक आधार नहीं है, जिस पर जीवन खड़ा किया जा सके।
मैं देश भर में लोगों से यही पूछ रहा हूं कि आपके विश्वास तो बहुत हैं, कोई विचार भी है? वे कहते हैं, बहुत विचार हैं। मैं पूछता हूं कि कोई एकाध भी आपका अपना है या कि सब दूसरों के हैं और उधार हैं! जो संपत्ति दूसरे की है, उससे आपके जीवन में कौन सा प्राण मिलेगा?
लेकिन हमारी सारी विचार की संपत्ति उधार है और पराई है, वह दूसरे की है! यह चित्त की अत्यंत गहरी परतंत्रता है। और चित्त को सबसे पहले इस परतंत्रता से मुक्त होना ही चाहिए। मनुष्य का नया जन्म तभी संभव होता है, जब उसकी चेतना उधार विचारों और पराई धारणाओं से मुक्त होती है।
सत्य की खोज में स्वतंत्रता को मैं पहला तत्व कहता हूं।
जो भी सत्य की खोज में जाना चाहते हैं, जिनके भीतर भी प्यास जगी है कि वे जानें कि जीवन का अर्थ क्या है? जिनके भीतर भी यह अभीप्सा चमकी है कि वे समझें कि यह सब जो है..मेरे चारों तरफ फैली सत्ता, उसका प्रयोजन क्या है? उन सबके लिए स्वतंत्रता जीवन-साधना की अनिवार्य सीढ़ी है।
यदि वे चाहते हैं कि जानें कि क्या है अमृत, और क्या है आनंद, और क्या है परमात्मा, तो स्मरण रखें, पहली शर्त, पहली भूमिका होगी कि वे अपने चित्त को स्वतंत्रता की तरफ ले जाएं, चित्त को पूर्णरूप से स्वतंत्र कर दें।
अगर अंततः स्वतंत्रता चाहिए तो प्रथम चरण में ही स्वतंत्रता के आधार देने होंगे।
लेकिन हम सारे बंधे हुए लोग हैं! हम सारे लोग किसी न किसी विश्वास से बंधे हुए हैं। और क्यों बंधे हुए हैं? इसलिए बंधे हुए हैं कि ज्ञान के लिए साहस और श्रम करना होता है। और विश्वास के लिए कोई साहस और श्रम करने की जरूरत नहीं। विश्वास करने के लिए किसी तरह की साधना की कोई जरूरत नहीं। किसी दूसरे पर विश्वास कर लेने के लिए निश्चय ही आपके भीतर साहस की, श्रम की, तपश्चर्या की अत्यधिक कमी अवश्य है।
गहरा आलस्य और तामसिक वृत्ति हो तो विश्वास सहज हो जाता है।
जो खुद नहीं खोज पाता है, वह मान लेता है कि जो दूसरे कहते हैं, ठीक ही कहते हैं।
सत्य के प्रति जिसके मन में कोई श्रद्धा नहीं है, वही सत्य के संबंध में प्रचलित सिद्धांतों में श्रद्धा कर लेता है। सत्य के प्रति जिसकी प्यास सच्ची नहीं है, वही केवल दूसरे के दिए हुए विचारों पर विश्वास कर लेता है।
अगर सत्य की अभीप्सा हो तो कोई किसी धर्म में, कोई किसी सिद्धांतों में कोई किसी संप्रदाय में आबद्ध नहीं हो सकता है। वह तो खोजेगा, निज खोजेगा, अपने सारे प्राणों की शक्ति लगा कर खोजेगा। और जो इस भांति खोजता है, वह निश्चित पा लेता है। और जो भीतर विश्वास करता चला जाता है, वह जीवन को खो देता है। लेकिन जीवन-सत्य उसे उपलब्ध नहीं होता है।
स्वयं की खोज और श्रम हो तो ही सत्य मिलता है।
जो खोजता ही नहीं और मुफ्त में पा लेना चाहता है, वह भूल में है। सत्य तो मुफ्त नहीं मिलेगा, हां, उसका स्वयं का जीवन जरूर मुफ्त में खो जाएगा।
अपने आलस्य और प्रमाद में हम किसी के चरण पकड़ लेते हैं, हम किसी की बांह पकड़ लेना चाहते हैं और जीवन के समाधान को उपलब्ध हो जाना चाहते हैं! किसी गुरु की, किसी साधु की, किसी संत की छाया में हम भी तैर जाना चाहते हैं। यह असंभव है, यह बिल्कुल ही असंभव है। इससे ज्यादा असंभव कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। यह तो आंतरिक परतंत्रता है। यह तो आत्मिक दासता है। इसलिए, किसी की शरण से नहीं बंधना है, वरन अशरण होना है।
यही प्रश्न है कि कैसे हमारा चित्त स्वतंत्र हो, कैसे हम चित्त को स्वतंत्र करें और मुक्त करें? यह बंधा हुआ चित्त जो ढांचों में कैद है, इसे हम कैसे इन पिंजरों के बाहर ले जाएं? क्योंकि मनुष्य के सामने सबसे बड़ी समस्या उसके चित्त-मुक्ति की और स्वतंत्रता की है। प्रश्न परमात्मा का नहीं है, प्रश्न चित्त की स्वतंत्रता का है।
मेरे पास लोग आते हैं, पूछते है: ईश्वर है? तो मैं उन्हें कहता हूं कि ईश्वर की फिकर छोड़ दो। मुझे यह बताओ कि तुम्हारा चित्त स्वतंत्र है? कोई मुझसे पूछे कि आकाश है, कोई मुझसे पूछे कि सूरज है, तो इसका क्या अर्थ हुआ? यही न कि उसकी आंखें बंद हैं? इसलिए उलटे मैं ही उससे पूछूंगा कि क्या तुम्हारी आंखें खुली हैं?
सूर्य तो है, लेकिन सूर्य के होने के लिए आंखों का खुला होना चाहिए। परमात्मा तो है, लेकिन परमात्मा को होने के लिए चित्त खुला होना चाहिए। बंधे हुए चित्त और बंद आंखें उसे कैसे देख सकती है? जो विश्वास में सोए हैं, उनकी आंखें बंद हैं और चित्त बंधा हुआ है।
जिसने कोई भी मान्यता बना ली है, कोई भी आस्था बना ली है, कोई भी धारणा बना ली है, जिसने जानने के पहले कोई मान्यता बना ली है, उस आदमी का चित्त बंद हो गया है, उसने अपने द्वार बंद कर लिए-और अब वह पूछता है कि परमात्मा है, सत्य है? निश्चित ही बंद मन के लिए न सत्य है, न परमात्मा है।
असली प्रश्न, असली सवाल, असली समस्या ईश्वर के होने, न होने की नहीं है; न आत्मा के होने, न होने की है; न सत्य के होने और न होने की है। असली समस्या है कि क्या वह चित्त आपके पास है, जो जान सके? उस चित्त के बिना कोई मार्ग जीवन की उपलब्धि का, जीवन की सार्थकता को जानने का न है, न कभी था और न कभी हो सकता है। केवल वही जान सकते हैं, जिनका विवेक परिपूर्ण रूप से मुक्त होकर जानने में समर्थ है।
कैसे हम अपने चित्त को मुक्ति की ओर ले जाएं? कैसे उसका द्वार खोलें, कैसे उसकी खिड़कियां खोलें, ताकि उनसे प्रकाश आ सके? कैसे हमारी आंखें खुलें और हम देख सकें उसे..‘जो है? ’
जब भी हम कुछ मान लेते हैं, तो हमारी आंखों पर पर्दा पड़ जाता है और हम उसे देख ही नहीं पाते जो कि है, बल्कि उसे देखने लगते हैं, जिसे कि हम मानते हैं! लोगों ने कृष्ण के दर्शन किए हैं, राम के दर्शन किए हैं, क्राइस्ट के दर्शन किए हैं, बुद्ध के दर्शन किए हैं! ये दर्शन हो सकते हैं, अगर वे किसी बात को मान लें, विश्वास कर लें, आग्रहपूर्वक चित्त में उसे ग्रहण कर लें। और निरंतर उसका स्मरण करें और निरंतर उसका विचार करें और अपने को आत्म-सम्मोहित कर लें। उपवास से और तप से, निरंतर चिंतन और मनन से, निरंतर विचार और विश्वास से अगर वे अपने आपको पूरा का पूरा प्रसुप्त कर लें, तो उन्हें अपनी कल्पना के दर्शन हो सकते हैं!
किंतु ऐसा दर्शन सत्य का दर्शन नहीं है। वह हमारी ही कल्पना का साक्षात है, वह हमारे ही विचार का दर्शन है। वह हमारी ही मान्यता का प्रक्षेपण है। यह हमारा ही स्वप्न है, जो हमने पैदा किया है। इसलिए दुनिया में अलग-अलग धर्मों के लोग अलग-अलग ढंग से दर्शन कर लेते हैं! वे दर्शन वास्तविक नहीं हैं।
वास्तविक दर्शन के लिए, परमात्मा जैसा है उसे जानने के लिए, सत्य जैसा है उसे जानने के लिए जरूरी है कि हम अपनी सारी कल्पनाओं को और धारणाओं को छोड़ दें। हमारी सारी कल्पनाएं शून्य हो जाएं, हमारे सारे विचार विलीन हो जाएं, हमारे अपने भीतर कोई मान्यता न हो और तब हम देख सकेंगे।
मान्यता-शून्य चित्त का जो दर्शन है, वह सत्य का दर्शन है।
मान्यता के आधार पर जो दर्शन है, वह अपनी ही कल्पना का प्रक्षेपण है, अपनी ही कल्पना का विस्तार है। इस तरह का दर्शन, धार्मिक दर्शन नहीं है। इस तरह का दर्शन एक मानसिक कल्पना और स्वप्न-सृष्टि है। यह अनुभव वास्तविकता नहीं है, यह अनुभव स्वयं ही बनाई गई अपनी ही मानसिक सृजना है। हमने ही इसे निर्मित किया है।
और बहुत लोगों ने इस भांति परमात्मा के दर्शन किए हैं, किंतु वे परमात्मा के दर्शन नहीं हैं। क्योंकि परमात्मा का कोई रूप नहीं है और उसका कोई आकार नहीं है। सत्य की कोई मूर्ति नहीं है और सत्य के कोई गुण नहीं हैं।
उस सत्य को, जो समस्त में व्याप्त है, जानने के लिए शून्य और शांत हो जाना जरूरी है। अगर मेरा चित्त बिल्कुल निर्विकल्प हो, शांत और सरल हो, अगर मेरे चित्त में कोई विचार न बहते हों, कोई कल्पना न उठती हो, अगर मेरा चित्त बिल्कुल ही मौन हो, तो उस मौन में ही वह जाना जाता है, जो है। उस मौन में ही कुछ जाना जाता है, उस शून्य में ही किसी से संबंध और संपर्क हो जाता है। उस शांति में ही कहीं न कहीं किसी अलौकिक सत्ता से संबंध स्थापित हो जाता है। वही संबंध, वही संपर्क, वही समझ, वही बोध, वही प्रतीति परमात्मा की प्रतीति है। उस सबको जानने के लिए जरूरी है कि जानने के पूर्व ही जो जाना हुआ जान लिया गया है, उसे विदा दी जाए। इसे ही मैं तथाकथित ज्ञान से मुक्त होना कहता हूं।
झूठे ज्ञान से सच्चा अज्ञान ही कहीं ज्यादा मित्र है। मिथ्या ज्ञान रात्रि है। जानने के लिए ‘मैं नहीं जानता हूं’, यह जानना अत्यंत हितकर है। इसलिए उचित है कि हम विश्वासों के मिथ्याजाल को तोड़ दें। और शास्त्रों और सिद्धांतों की धूल को भी स्वयं के चित्त-दर्पण से झाड़ दें।
आह! कितने कूड़े-कर्कट से भरे हैं हम? कितने ग्रसित है हम! और कितने मरे हुए हैं हम! कितना ज्यादा विचार का, सिद्धांत का, शास्त्र का हमारे ऊपर भार है..हम उससे दबे जा रहे हैं! हजारों सालों से मनुष्य चिंतन करता है। और इन हजारों साल के चिंतन का भार एक-एक आदमी के सिर पर है। हजार-हजार वर्षो में जो भी विचार हुए हैं, उनका भार हमारे ऊपर है! इस भार के कारण चित्त मुक्त नहीं हो पाता है, ऊपर नहीं उठता है। हम जब भी विचार करना शुरू करते हैं, इसी भार के घेरे में घूमने लगते हैं, वह हमारा ढांचा है, उन्हीं में हम चलने लगते हैं! जैसे कोल्हू का बैल चलता है अपने रास्ते पर, वैसे ही हमारा चित्त चलता है!
इसके पहले कि किसी को सत्य के अज्ञात जगत में प्रवेश करना हो, उसे सारे ज्ञात मार्गों को छोड़ देना बहुत आवश्यक है। वह जो भी हम जानते हैं, उसे छोड़ देना जरूरी है, ताकि वह जाना जा सके, जो हम नहीं जानते हैं। अज्ञात के स्वागत में ज्ञात को हटाना ही होता हैं। ज्ञात को जाने दें, ताकि अज्ञात आ सके। जो भी हम मानते हैं। उसे हटा लेना है; ताकि उसका दर्शन हो सके, जो है।
एक तो हौजों में भरा हुआ पानी होता है। ऊपर से पानी भर देते हैं, ईंट-गारे से जोड़ देते हैं हौज को। ऊपर से पानी भर देते हैं। दूसरा कुएं का पानी होता है, उसमें जितनी भी मिट्टी और पत्थर हैं, उन्हें निकाल कर बाहर कर देते हैं और तब नीचे से जल-स्रोत आता है। हौज का पानी थोड़े ही दिन में गंदा हो जाएगा। वह ऊपर से भरा हुआ जो है। और कुएं के तो अपने जल-स्रोत हैं। उसका पानी गंदा नहीं होगा। उसका तो प्राणों का संबंध बहुत गहरे तल से है, जहां बहुत जल है। वह तो अंततः सागर से जुड़ा हुआ है। हौज किसी से नहीं जुड़ा है। वह तो ऊपर-ऊपर ही है और इसलिए निष्प्राण है। हौज तो मात्र देह है। कुएं की अपनी आत्मा भी है।
ऐसे ही दो तरह के ज्ञान भी होते हैं। एक तो हौज का ज्ञान होता है, जो ऊपर से भर दिया जाता है और बहुत जल्दी सड़ जाता है। इसलिए ही तो दुनिया में तथाकथित पंडितों के मस्तिष्क से सड़ा हुआ और जरा-जीर्ण मस्तिष्क और कोई नहीं होता। वह सोच-विचार करने में असमर्थ ही होता है। उसकी स्थिति अत्यंत पंगु होती है। उसमें विचार तो बहुत होते हैं, लेकिन विचारणा बिल्कुल भी नहीं होती है। सब भरा हुआ रहता है। वह उसी को दोहराता है! वह जड़-यंत्र की भांति होता है। इसलिए तो पंडितों की बातें बिल्कुल मृत और यांत्रिक होती हैं। उनसे कुछ भी पूछिए, सब पहले से तैयार है! प्रश्न बाद में है, समाधान पहले है! उत्तर उसे मालूम हैं! उत्तर ऊपर से भर दिए गए हैं। अब तो ऐसे यंत्र भी तैयार हो गए हैं, जिनसे आप प्रश्न पूछें और वे उत्तर दे दें!
पंडितों की अब दुनिया में जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि अब तो उनका कार्य यंत्र ही कर देंगे! निश्चय ही उन यंत्रों को भी ज्ञान का भोजन वैसे ही कराना होगा, जैसा कि पंडितों को करना पड़ता है। उत्तर पहले सिखा दीजिए और फिर उत्तर ले लीजिए। वे यंत्र बस स्मृति-घर होंगे। विचार करना उनके बस में नहीं है। तोते..पंडितों के वश में भी वह कभी नहीं रहा है। एक अंतर जरूर होगा कि यंत्र पंडितों से ज्यादा कुशल होंगे! और उनसे एक सुविधा और होगी कि वे किसी को लड़ाएंगे नहीं, झगड़ा नहीं करवाएंगे। उनमें हिंदू, ईसाई और यहूदी का युद्ध खड़ा कराने की वृत्ति नहीं होगी।
यह ऊपर से भरा हुआ जो ज्ञान है, घातक है। यह मस्तिष्क को मुक्त नहीं करता है। मस्तिष्क को बांध देता है, खंडित कर देता है। उसकी उड़ने की क्षमता तोड़ देता है, उसके पंख नष्ट कर देता है। एक दूसरा ज्ञान है, जो भीतर से आता है, कुएं के जल की तरह आता है। निश्चित ही दोनों की प्रक्रिया बिल्कुल अलग और विरोधी हैं। कुएं में मिट्टी को, पत्थर को बाहर निकालना पड़ता है। और हौज में मिट्टी और पत्थर को जोड़ना पड़ता है। एक में पानी है और एक में पानी डालना पड़ता है।
क्या आप ज्ञान को हौज की तरह इकट्ठा कर रहे हैं? अगर इकट्ठा कर रहे हैं तो सावधान हो जाएं, क्योंकि आप अपने ही हाथ से अपने मस्तिष्क को नष्ट कर रहे हैं। वह मस्तिष्क, जो कि परमात्मा तक उड़ सकता है, आप उसे अत्यंत पार्थिव भूमि पर बांध रहे हैं।
बाहर से ज्ञान न इकट्ठा करें, भीतर से ज्ञान को आने दें। भीतर से ज्ञान को आने देने के लिए यह जरूरी है कि ईंट, पत्थर जो इकट्ठे कर लिए हैं, वे अलग कर दिए जाएं। जितना ज्ञान हमने इकट्ठा कर लिया है, उसे हम हटा दें और सरल हो जाएं। यदि झूठे और सीखे हुए ज्ञान को हम हटा दें और सरल हो जाएं तो एक बिल्कुल ही अभिनव ऊर्जा का अनुभव होगा। कोई बिल्कुल ही नई चीज पैदा होनी शुरू हो जाएगी। वह तो सदा मौजूद है, किंतु व्यर्थ के ज्ञान का भार उसे प्रकट ही नहीं होने देता है!
लेकिन, जगत में संपत्ति को, पद को, परिवार को छोड़ना आसान है; विचार को छोड़ना कठिन है। निश्चित ही आप पूछेंगे, कैसे अलग कर दें? विचार तो छोड़ना बहुत कठिन है।
एक आदमी साधु हो जाता है। संपत्ति छोड़ देता है, घर छोड़ देता है; मित्र, प्रियजन छोड़ देता है; पत्नी तथा बच्चे छोड़ देता है। लेकिन जिन विचारों को उसने गृहस्थ रहते पकड़ा था, उनको नहीं छोड़ता है! उनको तो वह पकड़े ही रहता है! अगर वह जैन था तो वह कहता है कि मैं जैन साधु हूं! अगर वह मुसलमान था तो कहता है कि मुसलमान साधु हूं! अगर वह ईसाई था तो कहता है कि मैं ईसाई साधु हूं! जिन विचारों को उसने पकड़ा था, उन्हें पकड़े रहता है और सब छोड़ देता है! और गृहस्थी बाहर है, विचार की गृहस्थी भीतर है। और इसलिए ही कठिन है छोड़ने में। जो उसको छोड़ देता है, वह सत्य को जानने में समर्थ हो जाता है।
घर-द्वार छोड़ने से कोई भी सत्य को कभी नहीं जान सकता है। क्योंकि सत्य के मार्ग में घर की दीवार बाधा नहीं देती। मैं इस घर में बैठा हूं या दूसरे घर में बैठा हूं; ये दीवोलें कोई बाधा नहीं हैं, सत्य को जानने में। मैं किनके साथ बैठा हूं, यह भी कोई बाधा नहीं है। मैं कहां हूं, यह भी कोई बाधा नहीं है।
सत्य को जानने में एक ही चीज बाधक है। भीतर जो विचार की दीवार खड़ी हो जाती है, वही केवल बाधा है। और निश्चित ही उसका विसर्जन एक अति कठिन कार्य है! और जब मैं कहता हूं कि विचारों को छोड़ दें तो प्रश्न उठता है कि उसे कैसे छोड़ें? विचार की पकड़ कैसे जाएगी? वह तो निरंतर हमारे भीतर है। जो हमने सीख लिया है, उसे कैसे भूल सकते हैं?
जरूर जो सीख गया है, उसे भूलने का रास्ता होता है। और जो इकट्ठा किया गया है, उसे बांट देने का रास्ता होता है। और जो भर दिया गया है, उसे खोल देने का रास्ता होता है। असल में जो भीतर लाया गया है, उसे बाहर वापस पहुंचाने का रास्ता वही है, जिस रास्ते से वह भीतर लाया गया है। रास्ता हमेशा वही होता है। मैं जिन सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर आया हूं, उन्हीं सीढ़ियों से वापस चला जाऊंगा। और जिस रास्ते से आप सब आए हैं, उसी रास्ते से वापस लौटना होगा। रास्ता हमेशा वही होता है। आने और जाने में रास्ते का फर्क नहीं पड़ता, केवल दिशा का फर्क पड़ता है, मुंह को बदल देने का फर्क पड़ता है। जिन-जिन रास्तों से हमने विचार को इकट्ठा किया है, उनके विपरीत मुंह कर लेने से विचारों को विसर्जित भी किया जा सकता है।
किन-किन रास्तों से हमने विचार को इकट्ठा किया है?
विचार को इकट्ठा करने में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे गहरा जो तल है, वह ममत्व का है..इस भाव का कि वे मेरे हैं। लगता है कि विचार मेरे हैं! लेकिन क्या कोई विचार आपका है? विवाद में आप कहेंगे कि मेरा विचार ठीक है। जरा विचार करिए, आपका कोई विचार है? या कि सब विचार बाहर से आए हैं? व्यर्थ ही हम कहते हैं कि मेरा विचार है!
जो लोग कहने लगते हैं कि मेरी कोई पत्नी नहीं है, मेरा कोई बच्चा नहीं, मेरा कोई मकान नहीं है, वे भी कहते हैं कि मेरा धर्म है! वे भी कहते हैं कि मेरा विचार है, मेरा दर्शन है! उनको भी विचार के तल पर जो ममत्व का भाव है, मेरे होने का भाव है, वह नहीं जाता है! और जिनका उस तल पर ममत्व नहीं गया है, उनका किसी तल पर ममत्व का भाव नहीं जाएगा! वह चाहे कितना कहे कि मेरी पत्नी यह नहीं है, लेकिन बहुत गहरे मन पर भाव रहेगा कि यह मेरी पत्नी है।
 एक बड़े स्वामी अमेरिका से वापस लौटे थे। सारे यूरोप में, सारे अमेरिका में उन्होंने सत्य-दर्शन की चर्चा की थी। उनका बड़ा प्रभाव हुआ, लाखों-करोड़ों लोगों ने उन्हें पूजा और माना। फिर वे भारत वापस लौट आए। कुछ दिन तक हिमालय में थे। उनकी पत्नी उनसे मिलने गई। स्वामी ने मिलने से इनकार कर दिया! उन्होंने कहा, मैं नहीं मिलता!
उनके पास एक मित्र थे। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, मैंने कभी आपको किसी स्त्री से मिलने को इनकार करते नहीं देखा। यूरोप में, अमरीका में हजारों स्त्रियां आपसे मिलीं और आपने कभी किसी को इंकार नहीं किया! इस स्त्री को क्यों इनकार करते हैं? क्या आप किसी तल पर अब भी उसे अपनी पत्नी नहीं मान रहे हैं? जिसे छोड़ कर चले गए थे, उससे मिलने से क्यों इनकार कर रहे हैं? जरूर ही वे किसी तल पर मान रहे थे कि पत्नी उनकी है, अन्यथा और स्त्रियों से मिलने से इनकार उन्होंने कभी नहीं किया था!
जब तक आपका विचार का ममत्व है, तब तक आप इस भ्रम में मत रहें कि आप कुछ भी छोड़ सकते हैं, क्योंकि असली पकड़ और संपत्ति तो केवल विचार की है। बाकी सारी चीजें बाहर हैं, उनकी कोई पकड़ नहीं है। पकड़ तो सिर्फ विचार की है। वह जो विचार का घेरा है, वह जो विचार की संपत्ति है, जिससे आपको लगता है कि मैं कुछ जानता हूं, विचारणीय है कि क्या उसमें कुछ भी आपका है?
एक बहुत बड़ा साधु था। कुछ दिन पहले उसके आश्रम में एक युवा संन्यासी आया। दो, चार, दस दिन तक उस संन्यासी की बातें सुनी। वह जो वृद्ध साधु था, उसकी बातें बड़ी थोड़ी सी थीं और युवा संन्यासी बिल्कुल थक गया उन्हीं-उन्हीं बातों को बार-बार सुन कर। उसने सोचा कि इस आश्रम को छोड़ो। यहां तो सीखने को कुछ दिखाई नहीं पड़ता!
और तभी एक संन्यासी का आगमन उस आश्रम में हुआ। रात्रि में उस अतिथि संन्यासी ने जो चर्चा की, वह बहुत अदभुत थी, बहुत गंभीर थी, बहुत सूक्ष्म थी, बहुत गहरी थी। उस युवा संन्यासी ने उसकी बातें सुनीं। उस आगंतुक संन्यासी की, अतिथि की बातों से वह मोहित हो उठा और उसको लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो, जिसके पास ऐसा ज्ञान हो..इतना गंभीर, इतना गहरा! और एक यह वृद्ध गुरु हैं, जिसके आश्रम में मैं रुका हूं, उसे कुछ थोड़ी सी बातें भर आती हैं और कुछ नहीं!
फिर उसे यह भी लगा कि यह वृद्ध संन्यासी उस अतिथि संन्यासी की बातें सुन कर मन ही मन में कितना दुखी होता होगा? निश्चय ही उसे अपमान का अनुभव हो रहा है, तभी तो वह आंखें बंद किए बैठा है! यह तो कुछ भी नहीं जानता है। जीवन इसने व्यर्थ ही गंवा दिया है!
उस नये आए साधु ने अपनी बात पूरी की और चारों ओर उसने सबकी तरफ देखा कि उन पर क्या प्रभाव पड़ा है! उसने वृद्ध साधु की तरफ भी देखा। वह वृद्ध साधु बोला कि मैं दो घंटे से बहुत स्मृतिपूर्वक सुन रहा हूं, लेकिन मैं देखता हूं कि तुम कुछ बोलते ही नहीं!
अतिथि संन्यासी ने कहा: आप पागल तो नहीं हैं? मैं दो घंटे से बोल रहा हूं और आप दो घंटे से सुन रहे हैं और फिर भी कहते हैं कि बोलता नहीं!
वृद्ध साधु ने कहा: निश्चित ही मैंने बहुत-बहुत सुना है, लेकिन तुम कुछ भी नहीं बोले। जो भी कहा, सब दूसरों का कहा है! कोई विचार तुम्हारी अपनी अनुभूति से नहीं है! इसलिए मैं कहता हूं कि तुम नहीं बोले। दूसरे तुम्हारे भीतर से बोले, लेकिन तुम नहीं बोले! आह! तुम स्वयं में कितने रिक्त और खाली हो! लेकिन दूसरों की संपत्ति से तुमने अपना दारिद्रय जरूर ढांक लिया है।
विचार की मुक्ति के लिए और विचार की स्वतंत्रता के लिए और विवेक के जागरण के लिए पहली बात, पहला बोध यह है कि कोई भी विचार मेरा नहीं। विचार मात्र पराए हैं, उधार हैं, बासे हैं।
वह जो उनके प्रति मेरे होने का भाव है, मिथ्या है। वह भाव सत्य नहीं है। कोई विचार मेरा नहीं है। वह जो तादात्म्य है विचार से, उसे छोड़ दें।
हम हर विचार से अपना तादात्म्य कर लेते हैं! हम कह देते हैं..जैन धर्म मेरा है, हिंदू धर्म मेरा है; राम मेरे, कृष्ण मेरे, क्राइस्ट मेरे! हम तादात्म्य कर लेते हैं। हम अपने में उनको जोड़ लेते हैं! बड़ा आश्चर्य है।
वस्तुतः कोई विचार आपका नहीं है, कोई धर्म आपका नहीं है। यदि यह बोध स्मरणपूर्वक स्वयं में जाग्रत हो जाए तो एक मौलिक परिवर्तन हो जाता है। परिवर्तन ही नहीं, वस्तुतः क्रांति ही हो जाती हैं।
अपने सारे विचारों को फैला कर देख लें, वे कहीं से आए होंगे। जैसे वृक्षों पर पक्षी संध्या बसेरा करते हैं, ऐसे ही विचार मन में आते हैं और निवास करते हैं। आप केवल एक धर्मशाला की तरह हैं, जहां लोग केवल ठहरते हैं और चले जाते हैं।
एक सराय का मुझे स्मरण आता है। एक छोटी सी सराय थी। वहां कुछ लोग आ रहे थे संध्या को ठहरने। कुछ लोग जिनका काम पूरा हो गया, वे संध्या को विदा हो रहे थे। मैं उस सराय के बाहर बैठा था और हंस रहा था। किसी ने मुझसे पूछा, आप हंसते क्यों है? मैंने कहा, इस सराय को देख कर मुझे अपने मन का ख्याल आता है, इससे हंसी आ रही है। ऐसे ही कुछ विचार आते हैं और चले जाते हैं। और मन केवल सराय है। और कोई भी विचार उसका अपना नहीं है।
मन केवल सराय है। वहां ठहरते हैं विचार और चले जाते हैं। जरा अपने मन को गौर से देखें तो पता चलेगा कि कल जो थे, वे आज नहीं हैं। परसों जो विचार थे, वे आज नहीं हैं, साल भर पहले जो विचार थे, वे आज नहीं हैं। दस साल पहले जो विचार थे, वे आज नहीं हैं। बीस साल पहले जो विचार थे, उनका कोई पता नहीं है। इन पिछले सालों में जिनसे आप गुजरे और जीए हैं, लौटें और देखें कौन से विचार आपके रहे हैं? विचार आए हैं और गए हैं और आप केवल सराय हैं, ठहरने की जगह हैं। फिर भूल से समझते हैं कि वे मेरे हैं! जैसे ही समझ लेते हैं कि वे मेरे हैं, वैसे ही विचार को पकड़ मिल जाती है और दीवारें बननी शुरू हो जाती हैं।
विचार मुक्ति की दिशा में पहली स्मृति है यह जानना कि मैं और विचार भिन्न हैं। मैं सराय हूं। वे यात्री हैं। उनसे ममत्व भ्रांति है। उनसे तादात्म्य भूल है।
और जब यह दिखता है तो क्या होता है? विचार-प्रवाह और चैतन्य की धारा पृथक-पृथक हो जाती है। चेतना साक्षी बन जाती है। वह द्रष्टा मात्र रह जाती है। आप निश्चित ही देखने वाले से ज्यादा नहीं हैं। आप केवल वहां एक दर्शक हैं।
हम तो नाटक में भी तादात्म्य कर लेते हैं! हम तो सिनेमा, फिल्म में भी तादात्म्य कर लेते हैं! वहां फिल्म चलती हो और कोई दुखद चित्र आता है तो हमारे आंसू बहने लगते हैं! और यह छोटे-मोटे आदमी की बात नहीं है।
एक बहुत बड़े विचारक हुए हैं। वे विद्या के सागर ही कहे जाते थे। एक छोटा सा नाटक हो रहा था। उस नाटक को वे भी देखने गए। उस नाटक में एक खलनायक है, जो कि एक अबला के साथ अनाचार करता है, अत्याचार करता है। उसका अत्याचार जब चरम हो उठता तो उनसे बर्दाश्त करना संभव नहीं हुआ! वे इतने गुस्से में आ गए कि उठकर उन्होंने अपना जूता निकाला और उसको मार दिया नाटक में! किंतु वे भूल ही गए कि वह नाटक है! और वे विद्या के सागर समझे जाते थे!
किंतु वह अभिनेता उनसे कहीं ज्यादा समझदार था! उसने उसे, जूते को सिर-माथे ले लिया और कहा कि यह उसके जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है। निश्चय ही उसका अभिनय अदभुत रहा होगा; नहीं तो उसे इतना सत्य मान लेना कैसे संभव था?
किंतु मित्र, जूते मारने वाले पर हंसें नहीं। हम सब यही रोज कर रहे हैं। हंसना ही है तो स्वयं पर हंसें। आप भी कोई कम विद्या के सागर थोड़े ही हैं।
जीवन में विचार के तल पर भी हम दर्शक से ज्यादा नहीं हैं, लेकिन हम विचार से तादात्म्य कर लेते हैं। वह जो विचार मन के पद पर आते और जाते हैं, उनके हम सिर्फ साक्षी हैं।
ख्याल करें, रात आपने स्वप्न देखे, सुबह आप उठे। आप कहते हैं कि स्वप्न आए और गए। आप बच्चे थे, अपने बचपन को देखा। फिर युवा हुए, फिर बूढ़े हुए। जरा ख्याल करें कि आपके भीतर कौन सा तत्व सदा साथ है। उसे खोजें जो निरंतर मौजूद है। सतत मौजूद है। सिवाय देखने वाले के और कोई मौजूद नहीं है। सब आता है और चला जाता है। बचपन आता है और चला जाता है। जवानी आती है, चली जाती है। बुढ़ापा आता है और चला जाता है। जन्म होता है, मृत्यु होती है। सुख आते हैं, दुख आते हैं। धूप आती है, छाया आती है, सम्मान आता है, अपमान आता है। लेकिन ये सारी चीजें आती हैं और जाती हैं।
पूरे जीवन में कौन सा तत्व है, जो न आता है और न जाता है। सिर्फ देखने वाले के सिवाय और कोई दूसरा तत्व नहीं है। वह जो इन सबको देखता है। वह जो देखता है कि धूप आई, वह देखता है कि धूप गई। वह देखता है कि युवा हुआ, वह देखता है कि बूढ़ा हुआ। वह देखता है कि एक विचार आया, वह देखता है कि वह विचार गया। एक देखने वाले सूत्र के सिवाय आपके भीतर बाकी सब आता और जाता है। बाकी कोई तत्व टिकता नहीं है। हां एक चीज टिकी रहती है। वह है देखने की शक्ति और देखने की क्षमता और द्रष्टा होने का, साक्षी होने का केंद्र..वह है हमारी चेतना।
विचार के तल पर साक्षी हो जाएं, विचार को देखें, पकड़ें नहीं। विचार से बंधें नहीं। उसे देखें। मात्र साक्षी होकर देखें। लेकिन हम साक्षी नहीं हो पाते, क्योंकि हमने मान रखा है कि कुछ विचार बुरे हैं और कुछ विचार अच्छे हैं। इसलिए हम अच्छे को पकड़ना चाहते हैं और बुरे को धक्का देना चाहते हैं। इसलिए हम साक्षी नहीं हो पाते हैं।
अच्छे और बुरे का जो भेद करता है, वह साक्षी नहीं हो सकता है।
जो अच्छे बुरे का भेद करता है विचार में, कि यह विचार अच्छा है, वह बुरा, तो स्वभावतः जो अच्छा है, वह उसे पकड़ना चाहता है और जो बुरा है, उसे हटाना चाहता है। विचार केवल विचार है। विचार न अच्छा होता है और न बुरा होता है। जैसे ही हमने अच्छा-बुरा कहा, वैसे ही हम एक को पकड़ने और दूसरे को छोड़ने में लग जाएंगे। इस पकड़-छोड़ में ही तो साक्षी खो जाता है।
और जो एक को पकड़ेगा और दूसरे को छोड़ेगा, वह समझ ले कि वह विचारों से कभी मुक्त ही नहीं हो सकता है, क्योंकि अच्छे और बुरे के मूल्य तो मनुष्य-निर्मित हैं, विचार तो बस विचार हैं। या तो विचार अपनी समग्रता में जाते हैं, या जाते ही नहीं हैं।
विचार कीशंृखला अखंड और एक है। उसके किसी खंड को बचाना और किसी से मुक्त होना असंभव है। वस्तुतः उसके खंड किए ही नहीं जा सकते हैं। अच्छे-बुरे दोनों विचार संयुक्त हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए एक पहलू को जो बचाता है, वह दूसरे को भी अनजाने ही बचा लेता है। जो एक को फेंकना चाहता है, उसे दूसरे को फेंकने की तैयारी भी करनी होती है। इसलिए जिसे हम अच्छा आदमी कहते हैं, तो यह न सोचें कि उसमें बुरे विचार नहीं हैं। उसके भीतर भी बुरे विचार हैं। ऐसा अच्छा आदमी आप खोज ही नहीं सकते हैं, जिसके भीतर बुरे विचार न हों। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोज सकते हैं, जिसके भीतर अच्छे विचार न हों।
हां, ऐसा आदमी जरूर होता है, जिसके भीतर विचार ही न हों। ऐसा दो स्थितियों में होता है कि या तो वह व्यक्ति जड़ हो, मूच्र्छित हो या फिर पूर्ण जाग्रत और चैतन्य हो। मूच्र्छा में भी विचार होते हैं, केवल प्रगट नहीं होते हैं।
विचार से वास्तविक मुक्ति तो पूर्ण बोध में ही होती है। ऐसे व्यक्ति को ही मैं साधु कहता हूं। ऐसे व्यक्ति को ही मैं धार्मिक कहता हूं। वह न अच्छा है, न बुरा है। वह तो बस है। और उसका यह होना ही शुभ है, सत है, परम मंगल है। वह तो मनुष्य भी न रहा, वह तो परमात्मा से ही एक हो जाता है। ऐसा ही व्यक्ति जानता है और ऐसा ही व्यक्ति वस्तुतः जीता है। उसका जानना और जीना एक ही है।
लेकिन जो अच्छे को पकड़ता है, वह स्मरण रखे कि बुरा भी उसके भीतर रहेगा। अच्छा ऊपर होगा और बुरा भीतर। क्या आपको यह ज्ञात नहीं है कि जो तथाकथित सज्जन हैं, वे स्वप्न में वही काम करते हैं, जो दुर्जन दिन में, जागने में करता है। सज्जन वही सब करता है, जिससे वह स्वयं को जागने में करने से रोकता है।
बुरे आदमी बुरे स्वप्न नहीं देखते, अच्छे आदमी बुरे स्वप्न देखते हैं। अक्सर बुरे आदमी अच्छे स्वप्न देखते हैं। बुरे आदमी साधु होने के सपने देखते हैं, और अच्छे आदमी असाधु होने के सपने देखते हैं! स्वप्न जीवन के परिपूरक हैं। इसलिए ही तो तथाकथित साधुओं को अप्सराएं परेशान करती हैं। ये अप्सराएं उनके स्वप्नों के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं हैं।
चित्त जो-जो दमन करता है, वही-वही स्वप्न में रूप धर लेता है। स्वप्न जागरण का दूसरा पहलू है। चेतन से जिसे हम हटाते हैं, वह अचेतन में बस जाता है। इस भांति उससे छुटकारा नहीं है। उलटे उसकी पैठ तो ऐसे और भी गहरी और सूक्ष्म हो जाती है।
सज्जनों के मन खोले जा सकें तो ज्ञात होगा कि दुर्जनों के बराबर ही पाप वे भी कर लेते हैं। यह भेद जरूर है कि वे उन्हें मन ही मन में करते हैं। लेकिन चेतना के लिए इससे कोई भेद नहीं पड़ता है। समाज के लिए तो अंतर पड़ता है, किंतु स्वयं के लिए नहीं।
दुर्जन भी भलाइयों की कल्पना करते हैं, वे भी उनका स्वप्न देखते हैं। असल में दोनों बातें सदा साथ रही हैं। उनमें एक से ही छुटकारा असंभव है। और जो पहलू नीचे दबा रहता है, वह कभी भी ऊपर आ सकता है। इसलिए ही तो तथाकथित साधु असाधु और असाधु साधु होते देखे जाते हैं। यह केवल करवट बदलना है। इससे कोई वास्तविक क्रांति नहीं होती है। अच्छे आदमी में बुरा आदमी छिपा है, बुरे आदमी में अच्छा!
शुभ की आड़ में अशुभ है और अशुभ के नीचे ही शुभ। वैसे ही जैसे सिक्के का चेहरा हम ऊपर कर लें तो पीठ नीचे चली जाती है और पीठ ऊपर कर लेते हैं तो सिक्के का चेहरा नीचे चला जाता है। इस सत्य को ठीक से समझ लें कि अच्छा और बुरा एक ही तथ्य के दो पहलू हैं।
जिसको साक्षी होना है और सत्य को जानना है, उसे समस्त विचार को समान विचार समझना होगा। न कोई अच्छा है, न कोई बुरा है, क्योंकि जैसे ही हमने यह तय किया कि कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है, वैसे ही हम एक को पकड़ने में और दूसरे को हटाने में लग जाएंगे और साक्षी नहीं रह जाएंगे।
साक्षी होने के लिए जरूरी है कि हम निष्पक्ष हों, हमारी कोई धारणा न हो, हमारी कोई कल्पना न हो, हम कुछ आरोपित न करना चाहते हों। विचार जैसे हों, हम उन्हें वैसे ही देखने को राजी हों। न उनकी प्रशंसा और न निंदा। उनके प्रति कोई दृष्टि नहीं। बस, मात्र दर्शन..तटस्थ दर्शन। कोई निर्णय नहीं। कोई मूल्यांकन नहीं, बस दर्शन। निपट दर्शन।
विचारों के प्रति सीधे और सरल साक्षी होना एक अदभुत घटना है। उसमें बड़ा आश्चर्य और रहस्य निहित है। क्योंकि विचारों के सहज और सरल निरीक्षण में विचार तिरोहित होने लगते हैं। और अंततः एक अवर्णनीय मौन, एक अखंड शांति और एक अज्ञात शून्य ही शेष रह जाता है। इस मौन में साक्षी ही शेष बचता है। विचारों का तटस्थ दर्शन उनके प्रति सारे संबंध तोड़ देता है।
और जहां विचारों के प्रति न राग है, न विराग है, वहां वे सहज ही आना बंद कर देते हैं। राग-विराग के जाते ही उनके आगमन और ठहरने के मूल कारण का ही विच्छेद हो जाता है। लेकिन जब तक विचारों के प्रति शुभ-अशुभ के निर्णय की वृत्ति होती है, तब तक यह नहीं हो पाता है। वह वृत्ति चित्त के मौन और शून्य होने में बाधा बन जाती है।
विचारों को किसी भी पक्ष और भाव के बिंदु से देखना, उनसे बंधने और उलझने और ग्रसित होने का आधार है। इस आधार को ही देखे बिना, जो उनसे लड़ता है, वह व्यर्थ ही लड़ता है। वह जानता ही नहीं है कि स्वयं उसकी लड़ाई ही उन्हें प्राण दे रही है। मित्र भी हमको घेरे रहते हैं और शत्रु भी हमको घेरे रहते हैं। एक बार चाहे मित्र न भी घेरें, लेकिन शत्रु जरूर घेरे रहते हैं। वे हमारे चित्त में घूमते ही रहते हैं। मित्रता और शत्रुता..दोनों ही चेतना को विचारों से बांधने के कारण बनते हैं। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें न राग से देखें, न विराग से। वीतराग दर्शन के अतिरिक्त उनसे मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। वस्तुतः उस दर्शन में उनकी जड़ें ही नष्ट हो जाती हैं।
यदि कोई व्यक्ति कामिनी को या कंचन को बुरा मान कर उनसे भागने लगे तो वह पाएगा कि चैबीस घंटे वे ही विचार उसे घेरे हुए हैं! सोते जागते वह उनमें ही डूबा रहेगा! और जितना वह स्वयं को उनमें डूबा हुआ पाएगा, उतना ही भयभीत होगा। और जितना भयभीत होगा, उतना ही उनसे और तीव्रता से भागेगा। और जितना भागेगा, उतना ही और डूबेगा! ऐसे उसके जीवन में एक दुष्चक्र पैदा होगा, जो कि बिल्कुल आत्म-चलित यंत्र सा गति करेगा। ऐसे मोक्ष तो नहीं, नरक जरूर ही निकट आ जाता है।
जिस विचार से आप लड़ते हैं, वही विचार आपका आमंत्रण स्वीकार कर लेता है। जिससे आप लड़ते हैं, वही आने लगता है। मन का नियम है कि जिससे लड़ेंगे, वही आमंत्रित होगा। जिसको आपने धक्का दिया, वह आपके धक्के के कारण ही आना शुरू हो जाएगा। इसलिए विचार से न तो डरना है और न उसे डराना है। न उसे पकड़ना है, न उसे धक्का देना है। उसे तो मात्र देखना है। निश्चय ही इसमें बड़ी सजगता की जरूरत है, क्योंकि बुरा भी विचार आएगा और आदतवश मन होगा कि उसे धक्का दे दें। और अच्छा भी विचार आएगा और मन होगा कि पकड़ लें।
इस मन की यह जो पकड़ने और धक्का देने की प्रवृत्ति है, वह सहज आदत है। बोधपूर्वक, स्मृतिपूर्वक अगर कोई उस पर ध्यान करेगा तो वह वृत्ति धीरे-धीरे शिथिल हो जाएगी, और वह विचार को देखने में समर्थ हो जाएगा। और जो व्यक्ति विचार को देखने में समर्थ हो जाता है, वह वस्तुतः विचार से मुक्त होने में भी समर्थ हो जाता है।
हम विचार को कभी देखते ही नहीं। हम कभी रुक कर, ठहर कर देखते नहीं कि कहां क्या चल रहा है। आपने शायद ही कभी देखा हो। आधा घंटा बैठ कर आपने कभी देखा है कि क्या आपके भीतर चल रहा है? वह चल रहा है, और आप भी चले जा रहे हैं और आप काम किए जा रहे हैं! वह चल रहा है, आप खाना खा रहे हैं! वह चल रहा है, आप लिख रहे हैं, बोल रहे हैं! वह चल रहा है और आप सुन रहे हैं, वह भीतर चलता ही जाता है! वह अलग ही चलता जा रहा है! धीरे-धीरे आपने उसकी फिकर ही छोड़ दी है!
आपको ध्यान ही नहीं है कि भीतर क्या चल रहा है और आप अपना दैनंदिन कार्य बिल्कुल यंत्र की भांति ही किए जा रहे हैं! इसलिए आप करीब-करीब सोए हुए आदमी हैं। भीतर मन कुछ और कर रहा है, आप कुछ और किए जा रहे हैं! आप अनुपस्थित आदमी हैं, आप अपने प्रति उपस्थित नहीं हैं, आप अपने प्रति जागे हुए नहीं हैं।
महावीर से किसी ने एक दिन पूछा कि साधु कौन है? महावीर ने कहा: असुत्ता मुनि। जो सोया हुआ नहीं है, वह साधु है! पूछा: असाधु कौन है? उन्होंने कहा: सुत्ता अमुनि। सोया हुआ असाधु है!
अदभुत सूत्र है। वस्तुतः जो सोया है, वह जीवित नहीं है। वह नाम मात्र को ही जीवित है। वह तो मृत ही है। और हम सारे लोग सोए हुए हैं। हम भीतर क्या चल रहा है, उसके प्रति बिल्कुल सोए हुए है! और वह भीतर ही हमारा असली होना है। हम उसके प्रति सोए हुए हैं! बाहर क्या चल रहा है, बाहर क्या हो रहा है, उसके प्रति जाग्रत हैं! ‘जो बाहर चल रहा है, उसके प्रति जागे हैं; जो भीतर चल रहा है, उसके प्रति सोए हैं! यही जीवन का दुख है और यही जीवन का अज्ञान है। और यही जीवन की परतंत्रता है। और यही जीवन का बंधन है।
उसके प्रति जागना होगा, जो भीतर चल रहा है। विचार की समस्त धारा के प्रति जो जागेगा, समझेगा, साक्षी होगा, वह एक बड़े अदभुत अनुभव से गुजरता है, उसे अनुभव में आना शुरू होता है कि जिन-जिन विचारों का वह साक्षी हो जाता है, वे-वे विचार आने बंद हो जाते हैं। जिस-जिस विचार को वह देखने में समर्थ हो जाता है, वे-वे विचार आने में असमर्थ हो जाते हैं और एक घड़ी आती है कि विचार नहीं रह जाते हैं और तब जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही विवेक है।
विचार दूसरों के हैं, विवेक स्वयं का है। विचार पराए हैं, विवेक आत्मा है। यह विवेक ही वह प्रज्ञा है, जो प्रकाश में और परमात्मा में जगाती है। विचारों के जाने और विवेक के आने की घड़ी से बड़ी सौभाग्य की और कोई घड़ी नहीं है। उस घड़ी में ही विचार नहीं होते हैं और आप होते हैं। बस, आप ही होते है। इस स्वयं की निर्धूम सत्ता में ही जो ज्योतिशिखा जग उठती है, वही मुक्त विवेक है, वही स्वतंत्र हुआ विवेक है। यही स्वतंत्र विवेक सत्य को जानने में समर्थ होता है। परतंत्र विवेक सत्य को जानने में असमर्थ होता है।
स्वतंत्रता पहली भूमिका है। यह स्वतंत्रता साधनी ही होगी। इसे साधे बिना कभी कोई सत्य के संबंध में गति नहीं होगी। कितने ही शास्त्र पढ़ें, कितने ही शब्द समझें, कितने ही सिद्धांत याद कर लें, बस शब्द ही याद हो जाएंगे और कुछ भी नहीं होगा। और शब्द मस्तिष्क को व्यर्थ ही भर देंगे। और बहुत शब्द किसी ज्ञान का लक्षण नहीं है।
शब्द तो पागल में भी बहुत होते हैं, आपसे ज्यादा होते हैं, लेकिन शब्द कोई ज्ञान का लक्षण नहीं है। और यह भी आप निश्चित समझें कि बहुत शब्द बढ़ जाएं तो आप भी पागल हो सकते हैं। पागल में और सामान्य में, पागल में और हममें कोई बहुत भेद नहीं है। हममें शब्द थोड़े कम हैं और उसमें थोड़े और ज्यादा हो गए हैं।
हर आदमी पागलपन के किनारे पर खड़ा रहता है। जरा धक्का लगा कि पागल हो सकता है। शब्द अगर और जोर से बोलने लगे तो वह पागल हो जाएगा। मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि हर तीन आदमियों में एक आदमी तो करीब-करीब पागल होने की हालत में ही है! हर तीन आदमी में! यहां जितने लोग हैं, उनमें से तीन में से एक तो पागल होने की हालत में है ही। और आप यह मत सोचना कि आपका पड़ोसी इस हालत में है। क्योंकि यह इस बात का लक्षण है कि आप गड़बड़ हालत में हैं।
अगर आपको यह ख्याल आ जाए कि मेरा पड़ोसी गड़बड़ हालत में है, तो समझना कि आप भी गड़बड़ हालत में हैं। क्योंकि पागल यह कभी नहीं समझ पाता कि वह स्वयं पागल है। वह तो हमेशा समझता है कि दूसरा ही पागल है। यानी पागल का यह अनिवार्य लक्षण है कि वह हमेशा यह समझता है कि दूसरे लोग पागल हैं! पागल को आप समझा नहीं सकते कि वह पागल है, क्योंकि अगर इतना ही वह समझ जाए तो सबूत हो गया कि वह पागल नहीं है। हम करीब-करीब उस हालत में पहुंचते जा रहे हैं!
प्रतिदिन लाखों व्यक्ति स्वयं को विक्षिप्तता के आक्रमण में घिरा पाते हैं! जल्दी ही वह समय आ जाएगा कि सभ्य संसार में घरों के समक्ष लगी सबसे ज्यादा तख्तियां मनोचिकित्सकों की होंगी! आज भी जो देश बहुत प्रगतिशील हैं, वहां वैसी स्थिति आनी शुरू हो ही गई है!
शायद अकेले अमेरिका में ही पंद्रह से तीस लाख व्यक्ति रोज अपने मानसिक रोगों के लिए विशेषज्ञों से सलाह लेते हैं! उनकी बीमारी क्या है? विचारों की बीमारी है। विचार बढ़ते जाते हैं और उनका होश क्षीण होता जाता है, एक सीमा पर संतुलन खो जाता है। विचार अबाध और असंगत और अनियंत्रित गति से घूमने लगते हैं। स्वयं में तो शांति कभी भी नहीं थी, लेकिन अब उस अशांति की तरंगें बाहर भी आने लगती हैं। स्वयं में जागृति कभी भी नहीं थी, लेकिन अब भीतर की मूच्र्छा दैनंदिन कार्यों को भी प्रभावित करने लगती है। यह कोई नई स्थिति नहीं है! बस मात्रा-भेद है। विचारों की मात्रा भर बढ़ गई है। यही मूच्र्छा विक्षिप्तता बन जाती है।
आप भी देखें..जागें और देखें कि क्या आपमें भी विचार की ऐसी ही विक्षिप्त गति नहीं है, ..ऐसी मात्रा और तीव्रता नहीं है? दस मिनट बैठ जाएं और जो-जो विचार आएं, उन्हें लिखें ईमानदारी से। उनमें से एक भी न छोड़ें, जो भी आए..आधा आए तो आधा लिखें, पूरा आए तो पूरा लिखें। दस मिनट एक कागज पर लिखें और फिर किसी को दिखाएं। वह कहेगा कि यह किसी पागल ने लिखा है। और यदि आपको यह खुद ही समझ में आ जाए कि यह किसी पागल ने लिखा है तो जानना कि पागलपन के करीब तो आप हैं, लेकिन अभी कुछ किया जा सकता है!
जो आपके भीतर चल रहा है, वह उघाड़ कर देखा जा सके तो आप खुद घबरा जाएंगे कि मैं कैसा पागल हूं, क्योंकि यह क्या चल रहा है, यह क्या मेरे भीतर हो रहा है। लेकिन हम कभी रुक कर देखते नहीं कि वहां भीतर क्या हो रहा है और हम समझते हैं कि हम बहुत विचारवान हैं!
मित्र, मात्र विचारों से भरा होना, विचारवान होना नहीं हैं। विचार को, विवेक को, ज्ञान को तो केवल वही उपलब्ध होता है, जो कि विचारों से मुक्त हो जाता है। विचारों की भीड़ के कारण कोई विचारवान नहीं होता। सभी पागल ऐसा समझते हैं! और इसीलिए आपको यह पता हो जाना चाहिए कि जो तथाकथित विचारक अतिविचार में पहुंच जाते हैं, वे पागल हो जाते हैं।
क्या आपको ज्ञात है कि संसार में जो बड़े-बड़े विचारक, कवि, लेखक और चित्रकार हुए हैं, उनमें से बहुतों ने अंततः पागलखानों में शरण ली है? मुझे तो ऐसा लगने लगा है कि अब जो और दूसरे विचारक पागल नहीं हैं, वे जरूर कुछ थोड़े कम विचारक होंगे। एक वक्त आ जाएगा कि जो विचारक पागलखाने होकर न आया हो, हम समझेंगे कि कोई छोटी कोटि का विचारक है। ठीक भी है।
विचार की अंतिम परिणति पागलपन में है, विक्षिप्तता में है।
इसलिए महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को, लाओत्सु को मैं विचारक नहीं कहता हूं। वे विचारक नहीं हैं, ज्ञानी हैं। ज्ञानी और विचारक में जमीन आसमान का अंतर है। जो जानते हैं, वे विचार नहीं करते हैं। और जो नहीं जानते हैं, वही केवल विचार करते हैं। मैं यहां बैठा हूं, सभा खत्म होगी, हम सब उठेंगे और दरवाजे से निकल जाएंगे। कोई विचार नहीं करेगा कि दरवाजा कहां है, क्योंकि दरवाजा हमें दिखाई पड़ रहा है।
लेकिन एक अंधा आदमी यहां बैठा हो, जैसे ही सभा खत्म होगी, वह सोचेगा कहां से जाऊं, कहां दरवाजा है, कहां द्वार है, वह विचार करेगा!
जो देख सकता है, वह विचार नहीं करता। जो नहीं देख सकता है, वह विचार करता है। विचार अज्ञान का लक्षण है। वह ज्ञान का लक्षण नहीं है। तो जितना ही आप विचार करते हैं, समझें कि उतना ही ज्यादा गहन आपका अज्ञान है। विचारों से उस अज्ञान को ही भरने की तो कोशिश चलती है। वह प्रयास एकदम थोथा और व्यर्थ है। वह तो वैसा ही है, जैसे कि कोई अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में विचार इकट्ठा कर आंखों की कमी पूरी करने के ख्याल में हो। अंधापन आंखों से मिटता है और अज्ञान भी। विवेक की आंखें न हों, तो विचारों की भीड़ बस विक्षिप्त ही कर सकती है। और विक्षिप्त अंधे से साधारण अंधा ही बेहतर होता है।
ज्ञान उत्पन्न हो तो विचार क्षीण हो जाएगा, शून्य हो जाएगा। मैंने कहा कि विचार को देखें और उसको क्षीण होने दें।
सजग होने से विचार शून्य होता है, साक्षी होने से विचार शून्य होता है।
और जब विचार शून्य हो जाता है तो विवेक मुक्त हो जाता है।
फिर वह विवेक शास्त्र से नहीं है, सिद्धांत से नहीं है। सत्य को जानने में उसकी गति हो जाती है। स्वतंत्र विवेक छोड़ देता है किनारा। वह अनंत सागर में प्रवेश करता है।
एक छोटी सी कहानी कह कर अपनी चर्चा को पूरी करूंगा।
एक रात कुछ मित्र मौज में थे और उन्होंने कहीं जाकर खूब शराब पी। फिर वे सोचें कि चांद पूरा है, रात बहुत सुंदर और रम्य है। चलो हम चलें और एक झील में नौका-यात्रा करें। वे गए और एक नाव में बैठे और यात्रा शुरू की। उन्होंने पतवारें उठाईं और पतवारें चलाईं। वे रात के आखिरी पहर तक नाव चलाते रहे।
फिर सुबह की ठंडी हवाएं आने लगीं और चांद डूबने को होने लगा। ठंडी हवाओं ने उनके नशे को उखाड़ दिया। कुछ लोग ताजे हुए और उन्होंने कहा कि हम बहुत दूर निकल आए। अब वापस लौटें, क्योंकि घर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो जाएगी, इतने दूर निकल आए हैं अपने किनारे से। ऐसा सोच वे तट पर उतरे, यह देखने को कि कहां हैं, और तट पर जो थे उनसे पूछने को कि कहां हैं। लेकिन तट पर उतरते ही वे हैरान हो गए! वे कहीं भी नहीं गए थे! नाव वहीं खड़ी थी, क्योंकि वे जंजीर खोलना भूल गए थे! उस नाव की जंजीर वहीं बंधी थी! उन्होंने नाव की पतवार बहुत चलाई, लेकिन वे कहीं पहुंच न सके! वे तो ठगे से रह गए, क्योंकि वे व्यर्थ ही रात भर परेशान हुए। और बड़ा सोचते थे कि बड़ी यात्रा हो गई है, किंतु वहीं के वहीं खड़े थे!
मैं कहता हूं कि जीवन में भी ऐसा ही होता है। जिसका विचार और विवेक मुक्त होना चाहता है, उसे विश्वास के किनारे से जंजीर खोलनी है। और जिसकी विश्वास से जंजीर बंधी है, वह स्मरण रखे कि सत्य के जगत में उसकी, कोई यात्रा नहीं हो सकती! वह कहीं नहीं पहुंचेगा। अंत में वह पाएगा कि जहां से उसने प्रारंभ किया था वह वहीं खड़ा है! यात्रा व्यर्थ हुई, पतवार चलाना व्यर्थ हुआ। समाज ने, परंपरा ने उसे जो विचार दिए थे, उन्हीं विश्वासों पर वह खड़ा है मरते वक्त। ऐसे आदमी का जीवन दुर्भाग्य है, उसकी यात्रा व्यर्थ हो गई। वह नाव और उसकी जंजीर को किनारे से खोलना भूल गया।
किनारे से खोल लें अपनी जंजीर को। समाज ने जो दिया है, किसी दूसरे ने जो दिया है, उससे अपनी जंजीर को खोल लें और विवेक को मुक्त होने दें। मुक्त विवेक ही परमात्मा तक ले जाने में पथ बनता है। और बंधन, विचार और विश्वास परमात्मा को रोकने वाली जंजीरें हो जाती हैं। हम सब जंजीरों में बंधे हैं। इन जंजीरों में बंधे होने के कारण परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाता है। साहस करें और जंजीर को छोड़ दें और फिर देखें कि आपकी नाव कहां जाती है।
मैं अंत में यही प्रार्थना करता हूं अपनी नाव को खोल लो, अपनी नाव के पालों को तो उड़ाओ। परमात्मा की हवाएं उसे हमेशा अनंत में ले जाने को तैयार हैं।
मित्रो, अपनी नाव को तो खोलो, अपनी पालों को तो उड़ाओ। परमात्मा की हवाएं आपकी सदा से प्रतीक्षा कर रही हैं। और सत्य का अज्ञात सागर आपको बुला रहा है! क्या उसकी पुकार आपको सुनाई नहीं पड़ती है?
धन्य हैं वे लोग, जो उसकी पुकार सुन लेते हैं। और जो अपनी नाव खोल लेते हैं और अपने पाल खोल लेते हैं। और अभागे हैं वे लोग, जो अपनी नाव को बांधे रहते हैं और श्रम करते हैं और अंत में असफल हो जाते हैं।
प्रभु आपको सामथ्र्य दे कि आप अनंत की पुकार पर यात्रा पर निकल सकें और आपकी नाव खुल सके। विश्वास के किनारे से ज्ञान के असीम सागर में आपका प्रवेश हो सके।
स्मरण रहे कि जो साहस करते हैं, परमात्मा उनके साथ है। और जो कमजोर हैं, रुके रह जाते हैं, परमात्मा उनके लिए क्या कर सकता है!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें