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सोमवार, 17 सितंबर 2018

मन का दर्पण-(प्रवचन-01)

मन का दर्पण-(विविध) 

पहला-प्रवचन-(ओशो)

एक नया द्वार

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का जीवन रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा अशांत होता चला जाता है और इस अशांति को दूर करने के जितने उपाय किए जाते हैं उनसे अशांति घटती हुई मालूम नहीं पड़ती और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है। और जिन्हें हम मनुष्य के जीवन में शांति लाने वाले वैद्य समझते हैं वे बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होते चले जाते हैं। ऐसा बहुत बार होता है कि रोग से भी ज्यादा औषधि खतरनाक सिद्ध होती है। अगर कोई निदान न हो, अगर कोई ठीक डाइग्नोसिस न हो, अगर ठीक से न पहचाना गया हो कि बीमारी क्या है, तो इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो तो आश्चर्य नहीं है।

मनुष्य के जीवन में अशांति का मूल कारण क्या है? दुख, पीड़ा क्या है? मनुष्य के तनाव और टेंशन के पीछे कौन सी वजह है उसका ठीक-ठीक पता न हो तो हम जो भी करते हैं वह और भी कठिनाइयों में डालता चला जाता है।


एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करूं, जिससे मैं कह सकूं कि मनुष्य के जीवन की मूल परेशानी क्या है। और जब तक हम उसे दूर नहीं करते, तो चाहे पूरब की संस्कृतियां हों, चाहे पश्चिम की; चाहे धार्मिक कहे जाने वाले लोग हों और चाहे भौतिक कहे जाने वाले लोग हों, कोई अंतर नहीं पड़ता, आदमी अशांत ही होता चला जाता है।
एक सम्राट के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी और भीड़ बढ़ती ही चली जा रही थी। सुबह से लोग आने शुरू हुए थे और अब सांझ होने के करीब थी, करीब-करीब पूरी राजधानी द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। कुछ ऐसी घटना वहां घट गई थी कि जो भी आकर खड़ा हो गया था उसने लौटने का नाम नहीं लिया। सारे नगर में खबर फैल गई थी। हर आदमी राजमहल की तरफ ही भागा चला जा रहा था। और घटना बहुत छोटी थी, किसी की कल्पना में भी नहीं हो सकती थी कि इतनी बड़ी बन जाएगी।
सुबह ही सुबह एक भिखारी ने भीख मांगी थी सम्राट के द्वार पर। सम्राट अपने राजमहल की सीढ़ियों पर खड़ा था। उस भिखारी ने कहा था, क्या आप मेरे भिक्षापात्र को भर देंगे? सम्राट ने कहा कि निश्चित ही। लेकिन उस भिखारी ने कहाः इसके पहले कि मेरा भिक्षापात्र भरा जाए, मेरी शर्त आपको पता है? मैं बिना शर्त भिक्षा नहीं लेता हूं। सम्राट बहुत हंसा और उसने कहा कि यह पहला मौका है कि कोई भिखारी और शर्त के सहित भिक्षा मांगता हो, क्या है शर्त तुम्हारी? उस भिखारी ने कहाः शर्त तो ऐसे छोटी है, आप सम्राटों के लिए बहुत कठिन नहीं, लेकिन मैं कह दूं, मेरा भिक्षापात्र पूरा भर सकते हों तो ही मुझे भिक्षा दें अन्यथा मैैं किसी और द्वार पर मांगूंगा। सम्राट और भी हंसने लगा और उसने कहाः पागल मालूम होते हो। इतना छोटा सा भिक्षापात्र लिए हो, हम उसे भी न भर सकेंगे ऐसा संदेह का कारण क्या है? फिर सम्राट ने मजाक में ही अपने वजीर को कहा कि अब धन से भर दो इसके भिक्षापात्र को; अन्न से नहीं, स्वर्णमुद्राओं से भर दो ताकि यह भिखारी अपनी आगे के लिए शर्त भूल जाए और समझ ले कि सम्राटों के द्वार पर भिक्षा कैसे मांगी जाती है। उस भिखारी ने फिर कहा कि ध्यान रहे, मेरी शर्त खयाल है न, पात्र पूरा भर देंगे, अधूरा तो नहीं लौटना पड़ेगा? क्योंकि अधूरा पात्र लिए मैं कभी लौटता नहीं हूं।
सम्राट के वजीर स्वर्ण-अशर्फियां ले आए, उस भिक्षु के पात्र में उन्होेंने डाला, और डालते ही सम्राट को अपनी भूल पता चल गई। वे अशर्फियां उस पात्र में गिरते ही खो गईं जैसे गिरी ही न हों, पात्र खाली का खाली। और तब समझ में आया कि शर्त बहुत महंगी पड़ गई है। लेकिन सम्राट बड़े सम्राटों से नहीं हारा था, इस भिखारी से हार जाएगा इसकी भी उसकी तैयारी न थी। उसने अपने वजीरों को कहा कि चाहे मेरे सारे खजाने खाली हो जाएं लेकिन यह पात्र भरना ही है। फिर एक दौड़ शुरू हुई, खजानों से धन का आना और उस भिक्षु के पात्र में डाला जाना और उन सबका खो जाना और पात्र खाली का खाली! इसलिए वह भीड़ इकट्ठी हो गई थी। सांझ होते-होते राजा के खजाने खाली होने लगे लेकिन पात्र के भरने का कोई भी आसार दिखाई नहीं दिया।
फिर राजा थक गया, हार गया, उस भिखारी के पैरों पर गिर पड़ा और उससे पूछने लगा, जाने के पहले--मैं तो हार गया, मैंने स्वीकार कर लिया कि तुम्हारे पात्र को पूरा नहीं भर सकूंगा, और भूल हो गई मुझसे, लेकिन जाने के पहले इतना बता जाओ, यह पात्र किस जादू से निर्मित है? किन मंत्रों से सिद्ध किया है? यह पात्र भरता क्यों नहीं? वह भिखारी कहने लगाः न कोई मंत्र, न कोई जादू। एक बहुत छोटा सा राज है इस पात्र का। इस पात्र को मैंने आदमी के हृदय से बनाया है। न आदमी का हृदय कभी भरता है, न यह पात्र कभी भरता है।
मुझे पता नही कि यह कहानी कहां तक सच है। यह भी पता नहीं कि आदमी के हृदय से कोई पात्र बन सकता है या नहीं बन सकता है। लेकिन उसे जानने की जरूरत भी नहीं है। एक बात निश्चित है कि आदमी का हृदय कभी भरता नहीं। चाहे कितने ही खजाने मिल जाएं, चाहे कितना ही धन, चाहे कितना ही यश, जो भी मिल सकता है मिल जाए और आदमी के हृदय का पात्र खाली का खाली रह जाता है। और आदमी के हृदय की भी एक ही शर्त है कि मुझे भर दो। मुझे नहीं भरोगे तब तक मैं शांत नहीं हो सकता हूं। आदमी का हृदय कहता है मुझे भर दो तो ही मैं शांत हो सकता हूं, तो ही मैं सुखी हो सकता हूं। और आदमी का हृदय कभी भरता नहीं। और इन दोनों के बीच में जो तनाव है वह अशांति बन जाती है।
महत्वाकांक्षा, एंबीशन के अतिरिक्त और कोई अशांति नहीं है। महत्वाकांक्षा किसी भी तरह की हो सकती है। एक आदमी बहुत बड़ा महल खड़ा करना चाहे तो भी महत्वाकांक्षा है और एक आदमी स्वर्ग में प्रवेश करना चाहे तो भी महत्वाकांक्षा है। और एक आदमी धन के अंबार लगाना चाहे और पृथ्वी पर सबसे बड़ा धनपति बन जाना चाहे तो भी महत्वाकांक्षा है, तो भी एंबीशन है। और एक आदमी नग्न खड़ा होकर सबसे बड़ा तपस्वी बन जाना चाहे तो भी एंबीशन है, तो भी महत्वाकांक्षा है।
आदमी जब तक कुछ भी बनने के लिए आतुर है तब तक उसके प्राणों में महत्वाकांक्षा की आग जलती है। अगर कोई आदमी धार्मिक बनने के लिए भी दीवाना हो जाए, घर-द्वार छोड़ कर संन्यासी हो जाए, तो भी पीछे जो आग जल रही है वह महत्वाकांक्षा की आग है।
कोई आदमी छोटे क्लर्क से बड़ा क्लर्क बनना चाहता है, कोई आदमी मजदूर से अमीर बनना चाहता है, कोई भिखारी से सम्राट बनना चाहता है, कोई पापी से पुण्यात्मा बनना चाहता है, कोई असाधु से साधु बनना चाहता है, लेकिन जब तक कोई आदमी कुछ बनने की पागल दौड़ में है तब तक शांत नहीं हो सकता, तब तक अशांति उसके जीवन में रहेगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या बनना चाहता है। बनना चाहने की दौड़ ही अशांति का आधारमूल है। और सारी मनुष्य-जाति अशांत है। इससे प्रतीत होता है कि सारी मनुष्य-जाति महत्वाकांक्षा के ज्वर से पीड़ित और परेशान है। यह मत सोच लेना आप कि राजनीतिज्ञ परेशान हैं सिर्फ, संन्यासी भी परेशान हैं। और यह मत सोच लेना आप कि पश्चिम के लोग परेशान हैं, पूरब के लोग भी परेशान हैं। और यह भी मत सोच लेना कि धनी परेशान हैं, दरिद्र भी परेशान हैं। एक-एक आदमी परेशान है। जब सारी मनुष्यता इतनी परेशान हो तो बीमारी कहीं जड़ से हमें पकड़ती होगी। छोटे बच्चे पैदा हुए और महत्वाकांक्षा पकड़नी शुरू हो जाती है। हमारे शिक्षालय, स्कूल, विद्यापीठ, विश्वविद्यालय सभी महत्वाकांक्षा की दीक्षा देते हैं। वे सब ट्रेनिंग सेंटर्स हैं, जहां एंबीशन सिखाई जाती है, महत्वाकांक्षा सिखाई जाती है।
पहले दिन बच्चा स्कूल में गया और हम सिखाते हैं कि प्रथम आने की कोशिश शुरू करो, पीछे मत रह जाना, सबसे आगे खड़ा होना जरूरी है, और दौड़ शुरू हुई। बच्चे के झूले से जो दौड़ शुरू होती है वह कब्रिस्तान तक चलती है। सारा जीवन अशांति की एक लंबी यात्रा हो जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दौड़ किस दिशा में चलती है, लेकिन दौड़ चलती रहती है।
जो लोग इस दौड़ के प्रति सजग हो जाते हैं, और जो लोग अपने भीतर से इस दौड़ की व्यर्थता को समझ लेते हैं, और जो लोग इस दौड़ की व्यर्थता के प्रति जागरूक हो जाते हैं, अवेयर हो जाते हैं, वे लोग तत्क्षण शांत हो जाते हैं, उन्हें शांत होने के लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता है। ऐसा भी नहीं है कि शांत हो जाने पर वे जिंदगी से पहाड़ों पर भाग जाएंगे, ऐसा भी नहीं है कि दफ्तरों में काम नहीं करेंगे, ऐसा भी नहीं है कि खाना नहीं बनाएंगे, बुहारी नहीं लगाएंगे, कपड़े भी नहीं बनाएंगे, ऐसा भी नहीं है कि जिंदगी का सारा काम छोड़ देंगे। नहीं, बल्कि मेरी दृष्टि यह है कि जैसे ही महत्वाकांक्षा की दौड़ छूट जाती है, प्रत्येक काम एक नया आनंद और नया अर्थ ले लेता है। तब भीतर दौड़ नहीं होती, बाहर श्रम होता है। तब भीतर तनाव नहीं होता, बाहर सृजन होता है। तब भीतर तो गहरी शांति छा जाती है और भीतर जितनी गहरी शांति होती है आदमी उतनी ही तत्परता से बाहर सक्रिय हो जाता है।
बैलगाड़ी को रास्ते से गुजरते देखा होगा, उसका चाक घूमता चला जाता है, लेकिन बीच में एक कील थिर खड़ी रहती है। वह कील नहीं चलती। वह कील चुपचाप खड़ी रहती है, वह चलती ही नहीं। उस खड़ी हुई कील पर चाक घूमता चला जाता है। कील बिलकुल खड़ी रहती है और चाक घूमता है। खड़ी हुई कील पर घूमते हुए चाक का आधार है। अगर कील भी घूमने लगे तो फिर बैलगाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती, गिरेगी और नष्ट हो जाएगी। आदमी का चित्त न घूमे, आदमी का व्यक्तित्व घूमे। आदमी का व्यक्तित्व एक चाक बन जाए, गतिमान हो, लेकिन आदमी का चित्त एक कील हो--थिर, शांत, मौन, वहां कोई दौड़ नहीं। और जब आदमी का चित्त भी दौड़ने लगता है और व्यक्तित्व भी दौड़ता है, तो दुर्घटना शुरू हो जाती है, जीवन अशांत हो जाता है।
लेकिन आमतौर से लोग सोचते हैं कि चित्त अगर नहीं दौड़ेगा, तो फिर, फिर तो सब ठहर जाएगा। वे यही कह रहे हैं कि अगर कील नहीं घूमेगी तो फिर चाक ठहर जाएगा। नहीं, कील के घूमने से चाक नहीं ठहरता। कील के घूमने से ही चाक के गिर जाने की संभावना है। कील खड़ी रहे तो ही चाक घूमेगा और ठीक से घूमेगा। लेकिन अब तक जिस सूत्र पर हमने मनुष्य का निर्माण करने की कोशिश की है वह यह है कि चित्त को दौड़ाओ, उसकी आत्मा को व्यथित और परेशान करो, उसकी आत्मा में जहर डाल दो पागलपन का कि वह पागल हो जाए, कि मैं कुछ हो जाऊं, कुछ हो जाऊं, और इसी बुखार के आधार पर आदमी से काम लो। यह काम स्वस्थ नहीं है। हम जो भी काम कर रहे हैं, सारा काम अस्वस्थ है, ज्वरग्रस्थ है, फीवरिश है। क्योंकि भीतर प्राण पागल की तरह दौड़ रहे हैं। काम हम करने में उत्सुक नहीं हैं, हम आगे जाने में उत्सुक हैं। इसलिए कोई भी काम आनंद नहीं देता, कोई भी काम शांति नहीं देता, कोई भी काम जीवन की प्रफुल्लता नहीं बनता है, कोई भी काम संगीत नहीं बन पाता, कोई भी काम प्रार्थना नहीं बन पाता है। हर काम को हम सीढ़ी बनाते हैं कि आगे पहुंच जाएं। और आगे पहुंच कर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, और आगे की सीढ़ियां दिखाई पड़ेंगी। और कहीं भी पहुंच कर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जहां भी हम होंगे आगे की नजर होगी। और जहां हम होंगे इसलिए वहां हम अस्वस्थ, परेशान और पीड़ित होंगे, वहां से हट जाने के लिए आतुर होंगे, कहीं और पहुंचने के लिए उत्सुक होंगे। और जहां हम पहुंचने के लिए उत्सुक हैं वहां पहुंच कर भी फिर यही प्रक्रिया दोहरेगी। इसलिए आदमी कहीं भी पहुंच जाए, नहीं पहुंच पाता कहीं। कुछ भी पा ले, खाली रह जाता है। कुछ भी मिल जाए, ऐसा नहीं लगता कि मिल गया। जिंदगी भर एक अनफुलफिलमेंट, एक अपूर्णता, एक अपूर्ति, एक रिक्तता, एक एंप्टीनेस प्राणों को पकड़ते रहते हैं। महत्वाकांक्षा होती है जितनी चित्त में, मन उतना ही खाली रह जाता है। जितनी कम महत्वाकांक्षा होती है, मन उतना ही भर जाता है। जितना भरा हुआ मन होता है उतना ही जीवन आनंद होता है। जितना जीवन आनंद होता है उतना प्रत्येक काम एक नया ही अर्थ ले लेता है।
कबीर भी कपड़ा बुनता था। नहीं, शांत हो जाने से कपड़ा बुनना बंद नहीं हुआ। मन शांत हो जाने से कबीर की वह धुन्नकधुन समाप्त नहीं हुई। लोगों ने आकर कबीर को कहा भी कि बंद करो यह सब, अब किसलिए कपड़े बुनते हो? कबीर ने कहा कि पहले कपड़े बुनता था, ज्वरग्रस्त था, कपड़े बुनने से कोई मतलब न था, कुछ और पाना था, उसके लिए कपड़ा बुनता था। अब भी कपड़ा बुनता हूं, अब कुछ पाने के लिए नहीं, कुछ देना है इसलिए कपड़ा बुनता हूं। पहले कपड़ा बुनता था, जो पहनता था उससे मुझे कुछ चाहिए था। अब भी कपड़ा बुनता हूं, अब जोे भी कपड़ा ले जाता है उसे एक सुंदर कपड़ा दे सकूं इसलिए कपड़ा बुनता हूं।
कपड़ा बुन कर कबीर बाजार में बेचने जाते थे। हजारों लोगों ने, लाखों लोगों ने बाजार में जाकर कपड़े बेचे हैं। हजारों जुलाहोें ने कपड़े बुने हैं। लेकिन कबीर जैसा जुलाहा खोजना बहुत मुश्किल है। कबीर नाचते हुए जाते थे, एक कपड़ा बुन लाए थे। लोग पूछते कि इतने खुश किसलिए हो रहे हो? कबीर कहते कि इतने आनंद से बुना है यह कपड़ा, अब उस राम की तलाश में निकला हूं जो इसे पहनेगा।
गोरा कुम्हार, कुम्हार ही था, फिर मन शांत हो गया तो घड़े और बर्तन बनाने बंद नहीं कर दिए थे। फिर तो वह और भी सुंदर घड़े बनाने लगा। क्योंकि अब जिनके पास घड़े जाने थे वे परमात्मा हो गए थे। शांत चित्त को सारा जगत परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। फिर भी काम जारी रहेगा।
अभी भी मां घर में खाना बनाती है, अभी वह अपने बेटे के लिए खाना बनाती है। मन शांत हो जाए तो परमात्मा के लिए खाना बनाएगी। वह बेटा बदल जाएगा और परमात्मा सामने आ जाएगा। अभी भी एक आदमी द्वार पर बुहारी लगाता है, कल भी बुहारी लगा सकता है। एक अशांत आदमी बुहारी लगा रहा है, बुहारी लगाने से उसे कोई भी प्रयोजन नहीं है। एक शांत आदमी भी बुहारी लगाएगा, लेकिन बुहारी लगाना वही अर्थ ले लेगी जो किसी कवि को कविता का है, किसी संगीतज्ञ को संगीत का है, किसी प्रेमी को प्रेम का है।
व्यक्तित्व शांत होगा तो भी जगत सक्रिय होगा, लेकिन वह सक्रियता हिंसा नहीं रह जाएगी, वह सक्रियता प्रतिस्पर्धा नहीं रह जाएगी, वह सक्रियता महत्वाकांक्षा की पागल दौड़ नहीं रह जाएगी, शांत चित्त की क्रिएटिविटी होगी, शांत चित्त का सृजन होगा।
लेकिन अब तक हमने मनुष्य को ढाला है महत्वाकांक्षा के सूत्र में। और अब भी हम सजग नहीं हो गए हैं कि आने वाले बच्चों को महत्वाकांक्षा की दिशा में न ढालें। अब भी हम उन्हें उसी दिशा में ढाल रहे हैं। हर बाप अशांत है, हर शिक्षक अशांत है, हर मां अशांत है लेकिन फिर बच्चों को उसी ढांचे में ढाल रहे हैं जिस ढांचे में हम ढले हैं। बड़ी आश्चर्य की बात है। अगर हमारा पूरा समाज अशांत है तो आने वाले बच्चों के लिए हम कुछ व्यवस्था करें कि वे उसी ढांचे में न जाएं जिसमें हम गए थे। लेकिन हर बाप यह कोशिश करता है कि बेटा उस जैसा बन जाए जैसा वह है। मां यह कोशिश करती है कि उसका बेटा वैसा बन जाए जैसा वह है। और कोई मां, कोई बाप, कोई शिक्षक यह नहीं पूछता कि हम क्या हैं? हम इतने अशांत और दुखी हैं, हम आने वाले बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को भी इतना ही अशांत और दुखी छोड़ जाने कोे इतने आतुर क्यों हैं? हर पीढ़ी अपनी ही शक्ल में नई पीढ़ी को ढाल देती है और सोचती है बहुत बड़ा काम कर दिया है। और जो रोग जारी थे वे जारी रहते हैं। और कोई पीढ़ी तैयार नहीं होती कि रोग की बुनियादों को समझे।
महत्वाकांक्षा के आधार पर दुनिया हजारों वर्ष जी ली। कोई तीन हजार वर्ष का इतिहास ज्ञात है, तीन हजार वर्ष में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं जमीन पर। प्रतिदिन युद्ध चल रहा है, किसी न किसी कोने में आदमी की हत्या चल रही है। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध का मतलब क्या होता है? पांच युद्ध प्रतिवर्ष हो रहे हैं। एक-एक युद्ध में करोड़ों लोगों की हत्या हो रही है। पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या हुई। दूसरे महायुद्ध में साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या हुई। और अब तीसरे की तैयारी है जिसमें हम पूरी मनुष्यता को समाप्त करने का इंतजाम कर रहे हैं।
फिर भी कोई नहीं पूछता कि महत्वाकांक्षा की शिक्षा से इतने युद्ध आए, महत्वाकांक्षा की शिक्षा से सारी मनुष्य-जाति का जीवन एक पागलखाने में, एक मेडहाउस में बदल गया है। लेकिन नहीं, हम यह जरूर पूछेंगे कि अशांत हैं शांत कैसे हो जाएं? फिर कोई आदमी हमको आकर कहेगा कि माला फेरने से शांति हो जाती है। महत्वाकांक्षा की भीतर आग जल रही है, माला फेरने से क्या होगा? फिर एक आदमी कहेगा कि राम-राम जपने से शांति हो जाती है। भीतर महत्वाकांक्षा का जहर घूम रहा है नस में, मस्तिष्क में, प्राणों में, राम-राम जपने से क्या होगा? फिर न राम-राम जपने से कुछ होगा, न माला फेरने से कुछ होगा। फिर हम माला फेंक देंगेे, और राम-नाम को भी फेंक देंगे और कहेंगे कुछ भी नहीं होता, सब बेकार है। या आप कहेंगे कि हमारे भाग्य में नहीं है, या कहेंगे कि हमारे पिछले जन्मों का कर्म ठीक नहीं है। लेकिन कोई भी यह न पूछेगा कि भीतर जो प्राणों को जलाने वाली आग है अशांति की उसे बुझाने का, उसे मिटाने का कोई उपाय किया है? उस आग को हम रोज नया फ्यूल, रोज नया ईंधन देते चले जाएंगे, रोज नई लकड़ियां उसमें लगाते चले जाएंगे। वहां आग को भड़काते रहेंगे एक हाथ से और दूसरे हाथ से यहां शांत होने के लिए मंदिरों की, योगियों की, महर्षियों की तलाश करते रहेंगे कि कोई ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन बता दे, कोई ध्यान बता दे, कोई तप बता दे, कोई महर्षि मिल जाए जिसके हम पैर पकड़ लें और आशीर्वाद दे दे, कोई ताबीज बता दे वह हम ताबीज बांध लें। सब करेंगे हम, लेकिन एक बुनियादी सवाल को नहीं पूछेंगे कि हम अशांत क्यों हैं? शांत होने की कोशिश करेंगे हम, लेकिन यह कभी न पूछेंगे कि हम अशांत क्यों हैं? और अगर हम यह पूछें कि हम अशांत क्यों हैं, तो मैं नहीं समझता कि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसे अपनी अशांति का कारण दिखाई न पड़ जाए।
लेकिन उसे हम देखना भी नहीं चाहेंगे। क्योंकि उसे देखने का मतलब जिंदगी का रूपांतरण होगा। क्योंकि उसे देखने का मतलब एक ट्रांसफार्मेशन होगा। क्योंकि उसे देखने के बाद आप वही आदमी नहीं रह जाएंगे जो थे, एक नये आदमी को जन्म लेने की मजबूरी हो जाएगी। और कोई आदमी बदलना नहीं चाहता है, हर आदमी वही रहना चाहता है जो वह है। कोई आदमी बदलने को राजी नहीं है। और जो आदमी बदलने को राजी नहीं है वह आदमी न शांत हो सकता है, न आनंदित हो सकता है, न आलोक को उपलब्ध हो सकता है। बदलने की क्षमता ही सच कहा जाए तो आदमी होने की क्षमता है। कोई जानवर कभी नहीं बदलता। जानवर वैसा ही जीता है जैसे उसका बाप जीता है। उसका बाप भी वैसे जीता था, उसका बाप भी वैसे जीता था। अगर जाकर जानवरों से पूछा जाए तो वे कभी नहीं बदलते, वे हमेशा पुरानी परंपरा के अनुसार चलते हैं। कभी कोई फर्क नहीं लाते। जानवर बड़े परंपरागत होते हैं, ट्रेडिशनल होते हैं। जो उनके बाप ने किया था वही वे करते हैं। और कभी कोई जानवर अपनी जिंदगी में कोई बदलाहट नहीं लाता।
रेवोल्यूशन, क्रांति सिर्फ आदमी का लक्षण है किसी पशु का नहीं। और जो आदमी अपनी जिंदगी में कोई क्रांति नहीं लाता उसे समझ लेना चाहिए, वह पशुओं के साथ खड़ा होता है मनुष्यों के साथ खड़ा नहीं होता। लेकिन हम सब देखते हैं चारों तरफ और फिर भी वही करने के लिए तैयार रहते हैं जो हम थे कल। नया होने की हमारी हिम्मत ही नहीं है। और इसलिए हम जिंदगी के असली कारणों को देखते भी नहीं। आंख बंद रखते हैं कि उनको न देखें। कौन करता है किसी को अशांत?
मुझे न मालूम कितने लोग मिलते हैं, जो पूछते हैं, हम शांत कैसे हो जाएं? मैं उनसे कहता हूं, यह मत पूछो, यह गलत सवाल है। शांत होने का सवाल ही मत पूछो, यह पूछो कि अशांत क्यों हो? अपनी अशांति को समझने की कोशिश करो और तुम पाओगे कि कोई अशांति नहीं टिक सकती। लेकिन अशांति हम नहीं समझना चाहते हैं, हम शांत होना चाहते हैं। अशांति को समझेंगे तो व्यक्तित्व को बदलना पड़ेगा, क्योंकि तब हमें पता चलेगा कि मैं अपने कारण अशांत हूं। मुझे कोई दुनिया में अशांत नहीं किए हुए है। और अगर यह मुझे पता चल जाए कि मैं अपने कारण अशांत हूं तो फिर किसको दोष दूंगा? भाग्य को, भगवान को, समाज को, जगत को, किसको दोष दूंगा? फिर दोषी मैं रह जाऊंगा। और दुनिया में कोई आदमी अपने को दोषी नहीं ठहराना चाहता, दूसरे को दोषी ठहरा कर मुक्त हो जाना चाहता है।
महत्वाकांक्षा मनुष्य के जीवन के दुखों का मूल आधार है। और जब तक कोई आदमी एंबीशस है, महत्वाकांक्षी है, तब तक उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि वह अशांत रहेगा। पश्चिम में क्यों योगियों का इतना समादर बढ़ रहा है? आप समझते हैं? पश्चिम में एंबीशन अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। पश्चिम पागलपन की आखिरी सीमा पर पहुंच गया है।
इधर विवेकानंद को कोई नहीं पूछता, अमरीका में पूछताछ शुरू हो जाएगी। शायद हम सोचेंगे कि विवेकानंद बहुत प्रतिभाशाली हैं इसलिए अमरीका में पूछताछ होती है। विवेकानंद निश्चित ही प्रतिभाशाली हैं, लेकिन भारत में कोई क्यों नहीं पूछताछ करता था? अभी पागलपन उस जगह नहीं पहुंचा जहां इलाज करने वाले को खोजने की जरूरत हो। लेकिन पहुंच रहा है पागलपन, बढ़ता चला जा रहा है। पूरब से कोई भी चला जाता है और पश्चिम में आदमी पहुंच जाता है उसके पास कि हमें शांत होने का उपाय बताओ।
न्यूयार्क में तीस प्रतिशत लोग बिना दवा लिए रात को नहीं सो रहे हैं। तीस प्रतिशत छोटी संख्या नहीं है। तीस प्रतिशत आदमियों की नींद खो गई है। और न्यूयार्क के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इस सदी के पूरे होते-होते न्यूयार्क में कोई आदमी बिना दवा लिए, बिना ट्रेंक्वेलाइजर लिए नहीं सो सकेगा। तो फिर न्यूयार्क का आदमी पूछेगा कि मुझे नींद कैसे आए? वह पूछता फिरेगा कि मुझे नींद कैसे आए? और अगर कोई तरकीब बता देगा कि नींद इस तरह आती है।
आपको पता है, विवेकानंद ने जब पहली दफा पश्चिम में, अमरीका में ध्यान की बात की, तो अमरीका में ध्यान के लिए एक नया शब्द प्रचलित हो गया। चूंकि आप तो दवा के कारखानों से संबंधित हैं, आप शब्द को समझ सकेगें। न्यूयार्क में और अमरीका के बड़े नगरों में विवेकानंद की ध्यान की बात को सुन कर कई लोगों ने प्रयोग किया और उनको नींद आ गई। तो उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहाः यह तो बहुत अच्छी तरकीब है। यह नॅान-मेडिशनल ट्रैंक्वेलाइज्.ार है। दवा भी नहीं लेनी पड़ती और नींद भी आ जाती है। नॅान-मेडिशनल ट्रैंक्वेलाइजर है। लेकिन वह आदमी नहीं पूछेगा कि मुझे नींद क्यों नहीं आती है? वह कहेगा कि मुझे नींद लाने की दवा चाहिए या कोई तरकीब चाहिए। वह यह नहीं पूछेगा कि मुझे नींद क्यों नहीं आती है? अगर दिन भर कोई आदमी चित्त को खींच कर रखेगा महत्वाकांक्षा के लिए तो चित्त के सारे के सारे स्नायु जकड़ जाएंगे, वे रात को भी ढीला होने से इनकार कर देगें, वे तने ही रह जाएंगे। फिर नशे की जरूरत पड़ेगी, दवाओं की जरूरत पड़ेगी। हम दवाएं खोजेंगे, नशे खोजेंगे, मेथड्स खोजेंगे, शांत होने के लिए ध्यान की तरकीब पूछेंगे, जप-तप, और न मालूम क्या-क्या पूछेंगे। लेकिन बुनियादी सवाल नहीं पूछेंगे कि आखिर मेरा मस्तिष्क इतना खिंचा हुआ क्यों है? कौन खींच रहा है इसे?
मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। लेकिन उस तरफ हमारा ध्यान नहीं है। मुल्क भर में मैं घूमता हूं, न मालूम कितने तरह के लोग मुझे रोज मिलते हैं। जो भी आदमी मिलता है वह पूछता है कि क्या करें, कोई शांति नहीं है। और ऐसा नहीं है कि गरीब पूछता हो तो समझ में आ जाता है; समझ में आता है कि तकलीफ है--मकान नहीं है, रोटी नहीं है, बच्चे बीमार हैं, लेकिन अमीर भी यही पूछता है। वह भी यही कहता है कि बहुत तकलीफ में हूं, बहुत परेशानी में हूं। तब खयाल आता है कि गरीबी-अमीरी से इस परेशानी का कोई संबंध नहीं है। आदमी की बनावट में कहीं कोई तत्व गड़बड़ हो गया है; वह गरीब के साथ भी वही है, अमीर के साथ भी वही है।
वह तत्व क्या है? उस तत्व को मैं एक ही शब्द में कहना चाहता हूंः वह तत्व एंबीशन है, वह महत्वाकांक्षा है। और अगर चाहते हैं कि जिंदगी में एक नया द्वार खुले और हम अनुभव कर सकें कि कितना आनंद है इस जगत में--चांद-तारों में, फूलों में, पौधों में, आकाश में, बादलों में, मनुष्यों में, जीवन के एक-एक पल में, श्वास लेने में भी कितना आनंद है। हम कहेंगे, श्वास लेने में आनंद, एक बोझ की तरह हम चल रहे हैं, श्वास लेना आनंद कहां है? करोड़ों लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कब मौत आ जाए, श्वास लेना आनंद कैसे हो सकता है? अभी मैं घंटे भर यहां बोलूंगा, तो घंटे भर में जमीन पर साठ लोग आत्महत्या कर लेंगे। हर मिनट एक आदमी आत्महत्या कर रहा है। करोड़ों लोग मरने को उत्सुक हैं। आप कहते हैं श्वास लेने में आनंद है, आप कहते हैं चांद-तारों में आनंद है। कहीं कोई आनंद नहीं दिखाई पड़ता। न चांद-तारों में, न लोगों की आंखों में, न बच्चों में, न मनुष्यों में, न स्त्रियों में, न पौधों में, कहीं कोई आनंद नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि आनंद जब भीतर ही न हो तो वह कहीं कैसे दिखाई पड़ सकता है। वह भीतर हो तो चारों तरफ दिखाई पड़ने लगता है। फिर धूप और अर्थ ले लेती है, छाया और अर्थ ले लेती है। एक-एक चीज और अर्थ ले लेती है। नये इशारे प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। लेकिन जब भीतर कुछ हो तब। तब यह संभव है। हमारे भीतर के विचार ही फैल कर हमारा अनुभव बन जाते हैं।
अमरीका की एक युनिवर्सिटी कुछ प्रयोग कर रही है, विचारों के चित्र लेने का प्रयोग कर रही है। और वे सफल हुए कुछ प्रयोगों में, और हैरानी का अनुभव हुआ। एक आदमी को फूलों की बगिया में बिठाया गया है और उस आदमी से कहा गया है, जो भी उसे सोचना हो सोचे। और उसके सामने बहुत सेंसेटिव प्लेट, बहुत सेंसेटिव कैमरे की, संवेदनशील कैमरे की फिल्में लगाई गई हैं, जो उसके चित्त के विचारों को पकड़ने की कोशिश में हैं। चारों तरफ फूल हैं लेकिन उस कैमरे ने जो उसका विचार पकड़ा वह एक छुरी का है, एक छुरी। बहुत वैज्ञानिक जो प्रयोग कर रहे थे, बहुत हैरान हुए। उससे पूछाः बात क्या है? उसने कहा कि मैं तो किसी आदमी की हत्या करने का विचार कर रहा हूं। मेरे मन में तो छुरा है। चारों तरफ फूल थे, वे उसके मन में नहीं थे। उसके मन में छुरा था।
सामने की सेंसेटिव फोटो प्लेट उसके छुरे को पकड़ती है। उस आदमी को जिसके मन में छुरा था फूल दिखाई पड़ सकते हैं? जिसके मन में छुरा हो उसे फूल कैसे दिखाई पड़ सकते हैं? फूल देखने के लिए छुरे वाला मन नहीं चाहिए। जिस आदमी के भीतर चित्त अशांति के न मालूम कितने आयाम खोल रहा है उसे चारों तरफ की शांति का कोई अनुभव हो सकता है? उसे पता भी नहीं चल सकता कि कहीं शांति है। बाहर जगत में हमें वही दिखाई पड़ने लगता है जो हमारे भीतर है।
जगत हमारा प्रोजेक्शन है। वह हमारे ही भीतर का फैलाव है। हम वही देख लेते हैं जो हम हैं। ध्यान रहे, हम जो हैं हम वही देख लेते हैं। अगर एक चमार एक रास्ते के किनारे बैठ कर जूते सीता है तो सड़क पर चलते हुए लोगों के चेहरे वह कभी भी नहीं देखता है। उसे लोगों के जूते ही दिखाई पड़ते रहते हैं। वह दिन भर देखता रहता है कौन आदमी कैसे जूते पहने हुए है। चमार जूते को देख कर अंदाज लगा लेता है कि ऊपर किस तरह का आदमी होगा। आदमी को देख कर अंदाज लगाने की जरूरत नहीं पड़ती, नीचे का जूता बता देता है कि यह क्लर्क है कि मैनेजर है, गरीब है कि अमीर है, नेता है कि अनुयायी है, सब जूते को देख कर पता चल जाता है। दिन भर जूते को देखता रहता है, जूता ही उसके लिए एक मात्र अस्तित्व है। रात सपना भी जूतों का देखता होगा। उसके लिए दुनिया जूतों का एक अंबार है। उसके लिए दुनिया जूतों का एक ढेर है। इस दुनिया में न फूल खिलते हैं, इस दुनिया में न चांद ऊगता है, न इस दुनिया में कोई हंसता है, न इस दुनिया में आंसू हैं, इस दुनिया में जूते हैं। जूतों में ही वह आदमी जीता है। उसी का विस्तार चारों तरफ फैलना शुरू हो जाता है।
हम जो भीतर होते हैं वही हमें चारों तरफ बाहर दिखाई पड़ने लगता है। और चूंकि हम भीतर अशांत हैं, चूंकि हम भीतर पीड़ित और दुखी हैं, बाहर भी एक दुखपूर्ण जगत, एक अशांत जगत हमें दिखाई पड़ता है। और जब हम सुनते हैं कि कोई बुद्ध कहता है कि बहुत आनंद है, तो हमें हैरानी होती है कि झूठ कहता होगा। जब कोई क्राइस्ट कहता है कि परम शांति है, तो हम कहते हैं, झूठ कहता होगा। जब कोई कृष्ण कहता है कि बड़ा नृत्य चल रहा है जगत में, बड़ी लीला चल रही है परमात्मा की, तो हम चैंक कर सुनते हैं। यह बात हमें सच नहीं मालूम पड़ती। ये सारे के सारे लोग हमें इल्यूजन में, भ्रम में, सपने में मालूम पड़ते हैं।
यह बड़े मजे की बात है हम सब सपने में हैं और थोड़े से लोग जो जागते हैं वे हमें सपने में मालूम पड़ते हैं। ठीक भी है। क्योंकि जो हमें नहीं दिखाई पड़ता उसे हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं?...जिस बीज से सारा का सारा जाल पैदा होता है उस बीज को तोड़ कर देखें।
मैं एक प्रयोग के लिए कहता हूं। एक पंद्रह दिन के लिए एंबीशन छोड़ कर देखें, सिर्फ पंद्रह दिन के लिए। एक पंद्रह दिन के लिए ऐसे जीएं कि जो है ठीक है। कुछ भी नहीं होना है, कुछ भी नहीं पाना है। कहीं नहीं पहुंचना है, जो है ठीक है। एक पंद्रह दिन के लिए एक छोटा सा प्रयोग करें। केवल पंद्रह दिन के लिए। कुछ नहीं खो जाएगा। पंद्रह दिन में कहीं पहुंच भी नहीं जाइएगा। पंद्रह दिन में कुछ हो भी नहीं जाएगा। एक पंद्रह दिन के लिए एक छोटा सा एक्सपेरिमेंटल, लिविंग, जीवन में एक छोटा सा प्रयोग कि पंद्रह दिन के लिए मैं एंबीशन छोड़ता हूं। पंद्रह दिन एक नॅान-एंबीशस आदमी की तरह जीऊंगा, जिसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। और आप पंद्रह दिन के बाद दुबारा दुनिया में महत्वाकांक्षा रखने में समर्थ नहीं रह जाएंगे। पंद्रह दिन में आपको दुनिया एक नई ही शक्ल में दिखाई पड़ेगी। वे ही लोग जो कल भी दिखाई पड़े थे, वे ही मकान, वे ही रास्ते एक नया अर्थ ले लेंगे। एक पंद्रह दिन के लिए कोई आदमी महत्वाकांक्षा से मुक्त हो जाए और पाएगा कि दुनिया ने एक नया अर्थ, नया रूप, नया रंग ले लिया है। यह जमीन जहां हम पूछते थे, परमात्मा कहां है, पूछना बंद कर देंगे। वह हमें चारों तरफ दिखाई पड़ सकता है, लेकिन थोड़ी हिम्मत की जरूरत है, थोड़ी हिम्मत की जरूरत है, थोड़े प्रयोग की जरूरत है। और थोड़े अपने पर प्रयोग की जरूरत है और अपने को समझने की जरूरत है। पंद्रह दिन कोई बहुत बड़ा वक्त नहीं है। लेकिन पंद्रह दिन का एक छोटा सा प्रयोग सारी जिंदगी को नया अर्थ दे सकता है।
देखें थोड़ा प्रयोग करके। मंदिरों में जाकर देखा होगा, साधु-संन्यासियों के पास बैठ कर देखा होगा, गीता, कुरान, बाइबिल पढ़ कर देखे होंगे, वह सब करके देखा होगा। उससे कुछ भी नहीं होगा। महत्वाकांक्षी चित्त जो भी पढ़ेगा उसमें से भी महत्वकांक्षा निकाल लेगा। अगर वह गीता पढ़ेगा, तो वह कहेगा कि बहुत ठीक, स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ जा सकता है? मैं क्या करूं कि मैं भी उसी परम आनंद को उपलब्ध हो जाऊं, जिसकी गीता में बात कही है। महत्वाकांक्षा जारी है। अगर वह बाइबिल पढ़ेगा, तो पढ़ लेगा उसमें कि किंग्डम अॅाफ गॅाड, वह कहेगा, किंग्डम अॅाफ गॅाड को मैं कैसे पा लूं? मैं कैसे राजा हो जाऊं उस राज्य का जिसको जीसस कहते हैं।
जीसस के आठ शिष्य थे। जिस दिन जीसस को पकड़ा गया, जीसस को फांसी लगने का वक्त आया, तो उन आठों शिष्यों ने रात में जीसस से पूछा कि आप तो जा रहे हैं, एक बात बता दें। आप कहते थे कि परमात्मा का राज्य है, हम उसी राज्य के लिए आपके साथ आए थे। हमें यह बता दें कि मरने के बाद हमारी पोजिशंस क्या होंगी उस राज्य में? आप तो परमात्मा के बगल पर बैठ जाएंगे सिंहासन के, वह हम समझ गए, लेकिन हमारी स्थितियां क्या होंगी? हमारे पद, ओहदे क्या होंगे?
ये जो आदमी जीसस की बातें सुन कर आए हैं, ये भी स्वर्ग में पद और ओहदे का हिसाब रख कर आए हैं कि वहां इनको क्या पद, ओहदा होगा। वह एंबीशस माइंड अपना काम जारी रखे हुए है। वह महत्वाकांक्षी चित्त वही कर रहा है जो उसे करना है। तो चाहे गीता पढ़ें, चाहे मंदिरों में पूजा करें, चाहे उपवास, व्रत करें, वह जो एंबीशस माइंड है वह वही पूछता रहेगा कि मेरा पद, ओहदा क्या होगा? मरने के बाद स्वर्ग में, अगले जन्म में मेरी जगह क्या होगी? क्या मुझे मिलेगा? वह हमेशा ऐसी भाषा में पूछता है कि मैं क्या हो जाऊंगा? और जो आदमी इस भाषा में पूछता है कि मैं क्या हो जाऊंगा वह आदमी उसी रोग से ग्रसित है जिस रोग के कारण वह यह भी नहीं जान पाता कि मैं क्या हूं? क्या होने की दौड़ के कारण हमें पता ही नहीं चल पाता कि हम क्या हैं।
एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने सुना है, ईजिप्त में एक बहुत पुराना मंदिर है, हजारों वर्ष पुराना मंदिर है। लेकिन उस मंदिर के देवता का कभी किसी ने कोई दर्शन नहीं किया था। उस देवता के ऊपर पर्दा पड़ा हुआ था और पुजारी भी उसे नहीं छू सकते थे। सौ पुजारी थे उस मंदिर के और सौ पुजारी इकट्ठे ही उस मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते थे, ताकि कोई एक पुजारी उसका पर्दा उठा कर अंदर की मूर्ति को न देख ले। हजारों वर्ष की परंपरा यही थी कि मूर्ति को देखना अनुचित है, अधार्मिक है, पाप है। कभी किसी ने उस मंदिर की मूर्ति नहीं देखी थी। जिन्होंने देखी होगी वे कई जमाने पहले खो गए थे। हजारों लोग उस मंदिर के दर्शन करने आए, लेकिन वे पर्दे के सामने ही दर्शन करके चले जाते थे। कौन पाप करता? लेकिन एक दिन एक पागल युवक आया उस मंदिर में और झुक कर जब वह पूजा कर रहा था, अचानक दौड़ा और उसने पर्दा उठा लिया। एक क्षण में यह हो गया। पर्दा उठा कर उसे क्या दिखाई पड़ा? बहुत आश्चर्य की बात हुई। वहां कोई मूर्ति न थी। वहां सिर्फ एक दर्पण था जिसमें उसे अपना ही चेहरा दिखाई पड़ा। वहां कोई मूर्ति थी ही नहीं। वहां सिर्फ एक दर्पण था, जिसमें उसने अपने को ही देखा।
लेकिन उस मंदिर का राज सारे लोगों में फैल गया। लोगों ने आना उस मंदिर में बंद कर दिया। क्योंकि जिस मंदिर में मूर्ति न हो भगवान की और धोखा दिया गया हो, सिर्फ दर्पण रखा हो, तो उस मंदिर में कौन जाएगा? उस मंदिर में कोई भी नहीं गया। धीरे-धीरे वह मंदिर गिर गया। और उसके पुजारी उजड़ गए। क्योंकि जिस मंदिर में सिर्फ दर्पण हो वहां कौन जाएगा।
और मैं आपसे कहता हूं कि अगर लोग जानते होते, तो और सब मंदिरों को छोड़ देते, उसी मंदिर में जाते, क्योंकि जहां जो हम हैं वही दिखाई पड़ जाए, वही मंदिर है।
धर्म का एक ही राज है कि हमें दिखाई पड़ जाए कि हम कौन हैं। धर्म एक दर्पण बन जाए और हमें पता चल जाए कि हम कौन हैं।
लेकिन धर्म तभी दर्पण बनता है जब हम वह दौड़ छोड़ दें जो कुछ होने की दौड़ है। वह जो बिकमिंग है, वह जो कुछ होने का पागलपन है, जब छूट जाए और मन दौड़ न रहा हो, तब मन दर्पण बन जाता है, और उसका हमें पता चलता है जो हम हैं। और बड़े मजे की बात यह है कि जो हम हैं अगर उसका पता चल जाए तो फिर कुछ भी पाने को शेष नहीं रह जाता, और कुछ भी होने को शेष नहीं रह जाता। क्योंकि हम वही हैं जो परमात्मा है। और हम वह होना चाह रहे हैं जो ना-कुछ है। ना-कुछ होने की दौड़ में हम उसे खो देते हैं जो हम हैं। जैसे कोई सम्राट भिखारी होने की दौड़ में लगा हो, जैसे कोई स्वस्थ आदमी बीमार होने की दौड़ में लगा हो। जैसे कोई जिंदा आदमी कब्र खोज रहा हो, अपनी मौत खोज रहा हो। ऐसे ही क्या हम हैं उसका हमें कोई पता नहीं और हम जो खोज रहे हैं वह दो कौड़ी की चीजें खोजते हैं और जीवन उसमें नष्ट कर देते हैं। फिर इसमें हो जाते हैं पीड़ित, दुखी, अशांत, तनावग्रस्त और रोते-रोते जिंदगी बीतती है, जिंदगी एक बोझ, एक बोर्डम, एक ऐसा बोझ हो जाती है जहां न कोई खुशी है, न कोई संगीत।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं। थोड़ी सी क्या मैंने एक ही बात कही है। मैंने यह कहा है कि अगर महत्वाकांक्षा है, तो अशांत होना अनिवार्य है। अगर महत्वाकांक्षा के साथ जीना है, तो फिर शांति की कभी बात मत पूछना और कभी खोजना भी मत। फिर कहीं जाना ही मत, फिर व्यर्थ समय खराब होगा। और अगर कोई कहता हो कि महत्वाकांक्षा रहते हुए शांत हो सकते हैं, तो वह आदमी धोखा देगा और शोषण करेगा।
महत्वाकांक्षा रहते शांत होना असंभव है। अगर महत्वाकांक्षी रहना है, तो अशांत रहने की तैयारी रखना, और भूल कर भी शांति का कोई उपाय मत खोजना। और अगर शांत होना है, तो शांत होने की बात ही मत पूछना, महत्वाकांक्षा को छोड़ देना। और पाया जाता है कि महत्वाकांक्षा के जाते ही शांति ऐसे चली आती है जैसे दीये के बुझते अंधकार आ जाता है। दीया बुझा और फिर अंधकार को लाने नहीं जाना पड़ता कहीं, कि दीया बुझा करफिर घर के बाहर गए कि अंधकार आओ। वह दीया बुझा कि अंधकार आ जाता है। फिर उसे पुकारना नहीं पड़ता।
महत्वाकांक्षा का दीया बुझा कि शांति चारों तरफ से चली आती है। शांति मौजूद ही है, आ भी नहीं जाती, वह सिर्फ महत्वाकांक्षा के कारण दिखाई नहीं पड़ती। और जिस दिन कोई व्यक्ति शांत हो जाए उसी दिन सत्य को जान लेता है, उसी दिन जीवन के अर्थ को जान लेता है, उसी दिन सारा दुख मिट जाता है, सारी मृत्यु समाप्त हो जाती है। उसके द्वार खुल जाते हैं जो अमृत है। उसके द्वार खुल जाते हैं जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरता है। उसके द्वार खुल जाते हैं जिसके द्वार खुल जाने के बाद फिर न कोई आकांक्षा रह जाती है, न कोई इच्छा रह जाती है। उस अनंत को, उस असीम को ही ईश्वर कहा है। वे जो शांत हो जाते हैं, ईश्वर को उपलब्ध हो जाते हैं। वे जो अशांत हैं वे और भी गहरी से गहरी अशांति में उतरते चले जाते हैं। वे अपने हाथ से अपने लिए नरक निर्मित कर लेते हैं और जो स्वर्ग उन्हें मिला था, जिस पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार था, उस स्वर्ग को अपने हाथों खो देते हैं। हम उन अभागे लोगों में से हैं जिन्होंने स्वर्ग का अधिकार खो दिया है और नरक निर्मित कर लिया है। हम उन अभागे लोगों में से हैं कि प्रकाश जिनकी मालकियत थी, जो जिसके मालिक थे, उसको खो दिया है और द्वार-द्वार भीख मांगते भटक रहे हैं। हम अपने हाथों बने भिखारी हैं। और हम जिस दिन चाहें, जिस क्षण चाहें यह भिखमंगापन मिट सकता है और हमारा सम्राट प्रकट हो सकता है। धर्म हमारे भीतर सम्राट के प्रकट होने की प्रक्रिया का नाम है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। इसलिए नहीं कि मेरी बातें सुनेंगे और एक मनोरंजन होगा। मनोरंजन बहुत हो रहा है। इसलिए भी नहीं कि मेरी बातें सुनने से आपको कोई लाभ होे जाएगा। यह धोेखा भी बहुत दिन चल चुका है कि अच्छी बातें सुनने से कुछ लाभ हो जाए। नहीं, अच्छी बातेें सुन लेने से कुछ भी नहीं होता है जब तक कि कोई प्रयोग करने का साहस हममें न हो। और प्रयोग का थोड़ा सा भी साहस हो, तो एक इंच प्रयोग भी उतना ले जाता है जितना हजारों मील की बातचीत कहीं नहीं ले जाती।
तो मैंने एक छोटे से प्रयोग के लिए कहा हैः नॅान-एंबीशन के, गैर-महत्वाकांक्षा के एक छोटे से प्रयोग के लिए। एक पंद्रह दिन के लिए हिम्मत करके देखें। छोड़ दें पंद्रह दिन कुछ भी नहीं होना है। और आप पाएंगे कि जिंदगी में एक नया ही द्वार खुल गया जो बंद था। उस द्वार से हवाएं आएंगी, उस द्वार से प्रकाश भी आएगा, उस द्वार से जीवन की वर्षा भी होगी। और कुछ होगा जिसे शब्दों में कहना असंभव है।

मेरी बातें इतने प्रेम और शांति से सुनीं, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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