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सोमवार, 3 सितंबर 2018

पथ की खोज-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(ओशो) 

जीवन-दर्शन

मैं जीवन-दर्शन के संबंध में कुछ कहूं, उससे पहले आपको कुछ कहना चाहूंगा कि जीवन यद्यपि हमें मिला हुआ मालूम होता है, हमें प्रतीत होता है कि हम जी रहे हैं। लेकिन सच में जीवन बहुत कम लोगों को उपलब्ध होता है। जन्म तो बहुत लोगों को मिलता है, सभी को मिलता है। जीवन सभी को नहीं मिलता। जन्म तो आपको मिलता है, जीवन आपको पाना होता है। जन्म तो आपको नेचर से, प्रकृति से मिलता है, जीवन आपको साधना से उपलब्ध करना होता है।
एक स्मरण मुझे आता है, एक साधु के पास एक व्यक्ति दीक्षित हुआ। जो व्यक्ति दीक्षित हुआ था, वह बहुत वृद्ध था। उसकी उम्र काफी थी। उस साधु ने उस वृद्ध साधु को, उस दीक्षित साधु को पूछा, आपकी उम्र क्या है?
उस साधु ने कहा: अभी तो मेरी उम्र केवल वर्ष भर है। सुन कर जो लोग बैठे थे, हैरान हुए। उन्होंने पूछा, वर्ष भर? यह तोनितांत ही असत्य है। वह आदमी वृद्ध था। उस वृद्ध साधु ने कहा: एक वर्ष पहले जो मुझे जीवन अनुभव हुआ, उसके पहले मुझे कोई जीवन अनुभव नहीं हुआ था। मैं जी रहा था, लेकिन जीवन का मुझे कोई पता नहीं था। हम जी रहे हैं यह एक बात है, हमें जीवन का अनुभव हो, यह बिल्कुल दूसरी बात है। जीवन के अनुभव को उपलब्ध करने के लिए ही धर्म है। जो धर्म के मार्ग से नहीं गुजरेगा, उसे जीवन उपलब्ध नहीं होता।


हम करीब-करीब मृत हैं, हम करीब-करीब मरे हुए लोग हैं। इसलिए यह कह रहा हूं कि हम करीब-करीब मरे हुए लोग हैं। और हम जिसे जीवन समझ रहे हैं वह मृत्यु है। यह इसलिए कह रहा हूं, मैं भी जन्मा। जिस दिन मेरा जन्म हुआ। मैं उसी दिन मरना भी शुरू हो गया हूं। मेरी मृत्यु भी उसी दिन से प्रारंभ हो गई है। हम जिसे जीना समझते हैं, वह एक क्रमिक मृत्यु है। एक ग्रेजुअल डेथ है। जिससे हम रोज-रोज मरते चले जाते हैं। एक दिन मृत्यु पूरी हो जाती है। जन्म पर मृत्यु का प्रारंभ होता है। मृत्यु की मृत्यु पर ही समाप्ति हो जाती है। जिसे हम जीवन करके जानते हैं उसे जीवन करके जानना नासमझी है। उसे क्रमश: धीमे-धीमे मृत्यु करके जानना ही उचित होगा। हम प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं। और जो भी इस मरण की प्रक्रिया से चिपका है, जो स्मरण की प्रक्रिया को ही जीवन समझ रहा है, वह होश में नहीं जी रहा। वह बहुत स्वप्न में है। वह बहुत निद्रा में है। वह करीब-करीब मूच्र्छित है। वह करीब-करीब मूच्र्छित है और उसकी सारी क्रियाएं मूच्र्छा में चल रही हैं।
 जीवन का पहला अनुभव मनुष्य को इस सत्य के अनुभव से शुरू होता है कि अपने भीतर वह उसको जान सके जिसकी मृत्यु नहीं होगी। और यह ठीक भी है..जीवन और मृत्यु दोनों शब्द विरोधी शब्द हैं। जीवन की मृत्यु संभव नहीं है और मृत्यु का कोई जीवन संभव नहीं है। साधारणतया हम देखते हैं, एक व्यक्ति जीवित था और मर गया। मैं आपसे कहना चाहूंगा, उसके भीतर जो मृत था वही मरा है। उसके भीतर जो जीवित था, वह नहीं मर सकता। हममें दोनों जुड़े हैं, मनुष्य में जीवन और मृत्यु का मेल हुआ। महावीर की भाषा में कहें तो मनुष्य में जीव का और अजीव का मेल हुआ। जीवन और मृत्यु का हमारे भीतर मेल है, हम संगम हैं। हममें दोनों हैं: मृत्यु भी है और जीवन भी है। हममें वह हिस्सा भी है जो मरेगा इस क्षण भी मरा हुआ है। और हममें वह हिस्सा भी है, जो जीवित है और जीवित रहेगा और जिसकी मृत्यु संभव नहीं है।
मनुष्य एक द्वैत, एक डुआलिटी है। मनुष्य के भीतर दो मनुष्य हैं। मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्व की पर्तें हैं: मनुष्य एक दुविधा है एक दुई है। मनुष्य दो है, इकाई नहीं है। मेरे भीतर इकाई नहीं है। नास्तिक की, पदार्थवादी की यही घोषणा है, मनुष्य यूनिटरी है, इकाई है। उसका कहना है, मनुष्य केवल देह है, उसके भीतर कोई आत्मा कोई चैतन्य नहीं है। उसका कहना है, मनुष्य केवल मृत्यु है, उसके भीतर कोई जीवन नहीं है। पदार्थवादी का, भौतिकवादी की यह घोषणा है कि मनुष्य केवल मृत्यु है, उसके भीतर कोई जीवन नहीं है। उसमें सब मुर्दा है, सब पदार्थ है, सब जड़ है। वह मैटर है, उसके भीतर कोई चैतन्य नहीं है। कोई परमात्मन उसके भीतर नहीं।
अध्यात्मवादी की यह घोषणा है, मनुष्य यूनिटरी नहीं है, मनुष्य इकाई नहीं है, मनुष्य डुआलिटी है, द्वैत है। मनुष्य के भीतर दो हैं। उसके भीतर कुछ है जो पदार्थ है, उसके भीतर वह भी है जो पदार्थ का अतिक्रमण करता है, पदार्थ को ट्रांसेंड करता है। पदार्थ के पार पदार्थ से भिन्न, पदार्थ से अलग भी उसके भीतर कुछ है, वही उसकी आत्मा है। तो जो अपने को शरीर मान कर समाप्त हो जाएंगे, वे मृत थे और मृत हो गए। और जो अपने को, जीवन को अनुभव करेंगे..अपने भीतर उस तत्व को अनुभव करेंगे और उससे स्पंदित होंगे जो कि मृत नहीं है और कभी मृत नहीं होगा, जो कि अमृत है..जो उससे स्पंदित होंगे और उससे संबंधित होंगे, वे जीवन को अनुभव करेंगे। मैंने कहा जन्म सब को मिलता है जीवन सब को नहीं मिलता। मृत्यु सब को मिलती है अमृत सभी को नहीं मिलता। जो केवल जन्म पर समाप्त है, उसे मृत्यु भर मिलेगी। और जिसने जीवन को उपलब्ध किया उसे अमृत भी मिलता है। अमृत को उपलब्ध करते ही जीवन, आनंद, शांति, प्रभुसत्ता से व्याप्त हो जाता है। और मृत्यु को ही जीवन भर पकड़े रह कर उसके ही घेरे में जीते रह कर स्वाभाविक है कि जीवन दुख और पीड़ा में परिणित हो जाए। जो मृत्यु को अपना केंद्र बनाए हुए है, जो मरणधर्मा से जुड़ा हुआ है और जो समझ रहा है कि यह मरणधर्मा ही मैं हूं और इस मरणधर्मा के आस-पास बहुत सी मरणधर्मा वस्तुओं को इकट्ठा कर रहा है और समझ रहा है कि उनसे उसने कुछ जोड़ा और उपलब्ध किया..वह भूल में है।
एक साधु एक गांव से गुजरता था। एक व्यक्ति ने, जो बहुत समृद्धशाली था; बहुत ही संपत्तिशाली था; उस साधु के पैर पकड़े और उसको कहा कि मेरे पास बहुत है। अब तुम्हारे प्रति मेरे मन में इतना आदर और प्रेम आया कि मैं चाहता हूं कि मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूं। मेरे पास बहुत है, मैं कुछ करना चाहता हूं। उस साधु ने कहा सच ही करोगे, सच ही करोगे! तुम कहते तो है कि तुम्हारे पास बहुत है। मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। तुम मुझे बिल्कुल खाली और नग्न और भिखमंगे दिखाई देते हो। वह हंसने लगा वह बोला आप समझते नहीं। मेरे पास बहुत संपत्ति है। उस सारी संपत्ति को मैं साथ थोड़े लिए फिरता हूं। मेरे पास बहुत है, आप कहें और पूरा हो जाएगा।
उस साधु ने कहा: तुम कहते हो माने लेता हूं। विश्वास मुझे नहीं आता। तुम्हारी आंखों में झांकता हूं भीतर, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। अभी तो तुम्हें यह भी पता नहीं है कि तुम भी हो। जिसे यह भी पता नहीं है कि वह है, उसके पास और क्या होगा। लेकिन तुम कहते हो तो माने लेता हूं। एक छोटा सा काम है, कर देना। उसने अपनी वस्तुओं से एक कपड़ा सीने की एक सुई निकाली और उस व्यक्ति को दी। और कहा इसे सम्हाल कर रख लो। जब हम दोनों मर जाएं तो वापस कर देना। वह आदमी घबड़ा गया होगा। आप भी घबड़ा गए होते। कोई भी घबड़ा गया होता। साधु पागल प्रतीत हुआ होगा। मृत्यु के बाद सुई को लौटाना कोई पागल ही सोच सकता है। लेकिन उस व्यक्ति ने खुद ही मांगा था काम, इसीलिए कुछ कहा नहीं। रात भर वह सोचता रहा। मित्रों से पूछा, उनसे पूछा जो समझदार थे। लेकिन लोगों ने कहा पागल हुए हो। मृत्यु के बाद सुई नहीं लौटाई जा सकती। क्योंकि मृत्यु तक सुई को ले जाया नहीं जा सकता। मृत्यु के पीछे सुई को ले जाना असंभव है। माना कि सुई छोटी है, अल्प है, क्षुद्र है लेकिन उसे किस मुट्ठी में बांधोगे कि मौत के पार ले जाओ। सब मुट्ठियां इसी पार रह जाती हैं। सारी पकड़ इसी पार छूट जाती है। कुछ भी ले जाया नहीं जा सकता। तो रात अंधेरे में लौटा और साधु को उसने सुई वापस दी। पैर पकड़े और क्षमा मांगी। और कहा इसे अभी वापस ले लें कि कहीं उधारी ऊपर न रह जाए। क्योंकि मृत्यु के बाद तो वापस नहीं कर सकूंगा। इसे वापस ले लें। मैं क्षमा मांगता हूं। यह मेरे सामथ्र्य के बाहर है। मैं इसे मृत्यु के पार नहीं ले जा सकता। वह साधु बोला यह तो मैं जानता था कि इसे मृत्यु के पार नहीं ले जा सकते। लेकिन क्या इससे तुम्हारे मन में एक प्रश्न उठा। क्या तुम्हारे मन में एक ख्याल उठा कि तुम्हारे पास कुछ और भी है जिसे तुम मृत्यु के पार ले जा सकते हो। वह आदमी बोला, उसी ने तो मुझे चैंका दिया है। और एकदम नग्न और भिखमंगा कर दिया है। पहली दफा मेरे पास कुछ भी नहीं है, जो मैं मृत्यु के पार ले जा सकूं ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।
जो अपने मरणधर्मा शरीर को सब समझेगा, वह मरणधर्मा वस्तुएं अपने पास इकट्ठी कर लेगा। उसी वस्तुओं के संग्रह को महावीर ने परिग्रह कहा है। उनको इकट्ठा कर लेना जो मृत्यु के पार न जा सकेंगी। और उनमें मोह को और आसक्ति को स्थापित कर लेना परिग्रह है। जो मृत्यु के इसी तरफ छूट जाएगा। उसे अपना जीवन समझ लेना परिग्रह है। जो मृत्यु की लपटों को नहीं पार कर सकता, उस क्षणभंगुर को सब कुछ मान लेना परिग्रह है। वह मूच्र्छा परिग्रह है जो व्यक्ति अपने को देह समझेगा, पदार्थ समझेगा। वह अपने आस-पास पदार्थ को इकट्ठा करेगा। स्वाभाविक ही, स्वाभाविक ही वह पदार्थ को इकट्ठा करेगा। क्योंकि वह पदार्थ है और पदार्थ के इकट्ठे होने से सुख प्रतीत होगा, समृद्धि प्रतीति होगी, सत्य प्रतीत होगी। होगा प्रतीत कि मैं कुछ हूं, कुछ मेरे पास होगा तो मुझे लगेगा कि मैं कुछ हूं। इसीलिए सारे जगत में दौड़ है कि मेरे पास कुछ हो, क्योंकि कुछ होने से मुझे लगेगा कि मैं कुछ हूं। जितना ज्यादा मेरे पास होगा उतना ज्यादा मैं हो जाऊंगा। जितना कम मेरे पास होगा उतना कम मैं हो जाऊंगा। मेरे पास कुछ भी न होगा तो मैं तो शून्य हो जाऊंगा।
हम सब शून्य की तरह घूमते हुए लोग हैं। जिनके पास तो जिनके भीतर तो कुछ नहीं है, लेकिन जिनके बाहर कुछ इकट्ठा है, उसी के बलबूते पर वे कुछ बने हुए हैं। किन्हीं के पास धन है, किन्हीं के पास पद है, किन्हीं के पास ज्ञान है, किन्हीं के पास त्याग है, किन्हीं के पास कुछ है, किन्हीं के पास कुछ है। उसके बलबूते पर वे बने हैं कि हम कुछ हैं, मैं कुछ हूं। भीतर एक शून्य खड़ा है और बाहर हम समृद्ध को इकट्ठा किए हैं। शून्य को दबाए हुए हैं और छिपाए हुए हैं। लेकिन मौत शून्य को उघाड़ देगी और तब पता चलेगा, पास में कुछ भी नहीं है। और तब ज्ञात होगा, एक प्रवंचना में नष्ट कर लिया अपने को। और तब ज्ञात होगा, एक भ्रम में, एक स्वप्न में खो दिया अपने को, पास तो कुछ भी नहीं है।
मृत्यु भी शून्य को उघाड़ेगी। जो व्यक्ति मरने के पहले उस शून्य को उघाड़ लेता है, वह जीवन को उपलब्ध हो जाता है। मृत्यु भी शून्य को अनिवार्यतया उघाड़ देगी। जिस खालीपन को अकेलेपन को मृत्यु नग्न कर देगी। उसे जो अपने हाथ से मृत्यु के पहले उघाड़ लेता है, वह साधु है, संन्यासी है, वह साधक है। साधना का कोई और अर्थ नहीं है, जो मृत्यु उघाड़ेगी..उसे स्वयं उघाड़ लेना साधना है। जो मृत्यु छीन लेगी, उसे स्वयं छोड़ देना साधना है। सिर्फ उतने को बचा लेना जिसे कि मृत्यु नहीं छीन सकेगी। सिर्फ उतने को बचा लेना जिसे मृत्यु नहीं छीन सकेगी। अपरिग्रही हो जाना है। उतने को बचा लेना जिसे कोई नहीं छीन सकेगा। क्योंकि जिसे मृत्यु नहीं छीन सकेगी उसे फिर कौन छीन सकेगा? मृत्यु अंतिम छीनने वाला है, सबसे समर्थ छीनने वाला है। अपने हाथ से अपने शून्य को उघाड़ लेना, अपने अकेलेपन को उघाड़ लेना और जान लेना कि भीतर मैं क्या हूं। जो मेरे पास है उसके भ्रम में मैं न रहूं, जो मैं हूं, वही मेरा है। जो मेरे पास है वह मेरा नहीं है, वह किसी का भी नहीं है। जब मैं नहीं था तब भी वह था, जब मैं नहीं रहूंगा तब भी वह रहेगा। जो मेरे पास है, जब मैं नहीं रहूंगा तब भी वह रहेगा। जब मैं नहीं था तब भी था। वह मेरा नहीं हो सकता है। मैं ही केवल मेरा हो सकता हूं। इस मैं को जानना होगा जो कि मेरा अकेला साथी है..जीवन में, मृत्यु में; जन्म में, मरण में; सुख में, दुख में। जो हर परिवर्तन में मेरे साथ है और अपरिवर्तित है। इस मैं को ही जानना होगा। इसको जो नहीं जानता वह भ्रांति में है, भूल में है। इसे जो जानता है वह ज्ञान को और आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
इस मैं को जानना होगा। दो ही रास्ते हैं: एक रास्ता है, उसे जानें हम जो हमारे पास है, जो हमें घेरे हुए है, जो हमारे चारों तरफ मौजूद है। जो हमारे चारों तरफ मौजूद है, उसका नाम संसार है। मेरे चारों तरफ जो वस्तुएं हैं, अगर मैं अपने को केंद्र मान लूं, मेरे चारों तरफ पर जो पर स्थित है अनंत-अनंत लोकों तक, तो वह संसार है। इसको जानना, इसे साइंस करती है, विज्ञान करता है। जो मेरे चारों तरफ है उसे जानने का उपाय विज्ञान करता है। लेकिन वही तो सब कुछ नहीं है, मैं भी तो हूं। मेरे चारों तरफ जो है, वही सब कुछ नहीं है। मेरे भीतर भी कुछ है वह..उसे जानने का उपाय धर्म करता है। केंद्र को जानने का उपाय धर्म है। परिधि को जानने का उपाय विज्ञान है। आज जगत में केवल विज्ञान रह गया है। आज जगत में धर्म नहीं है।
धर्म के नाम से जो चल रहा है, वह बिल्कुल भी धर्म नहीं है। इस धर्म के अभाव में हमारे पास सब है, केवल हम को छोड़ कर। इस धर्म के अभाव में हम सब जानते हैं केवल अपने को छोड़ कर। इस धर्म के अभाव में हम सब इकट्ठा कर लेंगे और स्वयं को खो देंगे। और उसे इकट्ठा करने का क्या मूल्य हो सकता है, जिसके, जिसकी कीमत में, जिस सौदे में स्वयं को खो देना पड़ता हो। महावीर ने सब छोड़ा, बुद्ध ने सब छोड़ा। सब छोड़ा इसलिए, सब छोड़ा इसलिए कि अगर स्व मिल जाए तो सब छोड़ कर भी सस्ता सौदा हुआ कि अगर स्व मिल जाए अगर स्वयं मिल जाऊं तो सब छोड़ कर भी सस्ता सौदा हुआ। सस्ता इसीलिए हुआ कि वह अकेली संपत्ति है जो छीनी नहीं जा सकती है। और वह अकेला जानना है जो मनुष्य को अमृत से, अनंत से, अनादि से जोड़ देता है। और वह अकेला जानना है जो जीवन में प्रवेश देता है। उसके आस-पास मृत्यु है। मेरे चारों तरफ मृत्यु है। इतना और मुझे जान लेना है कि मेरे भीतर भी तो मृत्यु नहीं है।
मेरे चारों तरफ मृत्यु है, यह मैं जानता हूं। रोज मरते देखता हूं दरख्तों को, रोज मरते देखता हूं पशुओं को, पक्षियों को, रोज मरते देखता हूं प्रियजनों को, अप्रियजनों को। मेरे चारों तरफ जो भी हैं, मित्र हैं, शत्रु हैं..जो भी मेरे चारों तरफ हैं, उन सब को मरते देखता हूं। चारों तरफ मृत्यु पर्याप्त है, कहीं जीवन तो दिखाई नहीं देता। एक केंद्र और जान लेने का है कि मेरे भीतर भी तो कहीं मृत्यु व्याप्त नहीं है। वहीं भर मृत्यु अभी तक देखी नहीं गई है। चारों तरफ मृत्यु ही मृत्यु है। शायद हम मृत्यु के एक सागर में खड़े हैं। कोई ऐसा बिंदु नहीं है बाहर जो न मर जाता हुआ देखा गया हो। सब बिंदु बाहर मर जाते और टूट जाते हैं। बाहर कुछ भी थिर नहीं है। बाहर कुछ भी अमृत नहीं है। बाहर कोई भी शाश्वत जीवन नहीं है। अब एक बिंदु और शेष रह जाता है कि मैं उस भीतर में और देख लूं। अगर वहां भी मृत्यु हो तो जीवन मीनिंगलेस है। सारी व्यर्थ की कथा है।
शेक्सपियर की एक पंक्ति है: ए टेल टोल्ड बाइ एन इडियट फुल अॅाफ चुरियन नाइ.ज सिग्नीफाइंग नथिंग। सब यह एक मूर्ख के द्वारा कही हुई कथा है, जिसमें शोरगुल तो बहुत है, अर्थ कुछ भी नहीं। अगर वहां भीतर भी मृत्यु है तो फिर सिर्फ अज्ञानी ही जी सकते हैं। ज्ञानी अपने को तत्क्षण समाप्त कर लेंगे। फिर कोई मायने नहीं है, फिर कोई अर्थ नहीं है। भीतर जानना बहुत ही जरूरी है। इसीलिए कि वहां अगर ज्ञात हो जाए कि मृत्यु है तो सब जीना फिर व्यर्थ है। और अगर वहां ज्ञात हो जाए कि मृत्यु नहीं है तो सारा जीना सार्थक हो जाएगा। और अगर मुझे अपने भीतर के केंद्र पर ज्ञात हो जाए कि मृत्यु नहीं है तो मैं सब के केंद्र के भीतर जान लूंगा कि मृत्यु नहीं है। मृत्यु दिखती है, मृत्यु है नहीं। अगर मुझे अपने भीतर दिख जाए, अगर मैं अपने भीतर जान लूं कि मेरे भीतर एक बिंदु है जो नहीं मरता है तो मैंने जान लिया कि सबके भीतर एक बिंदु है जो नहीं मरता है। जो भी मरते हैं, मरे हैं, मरेंगे, मर सकते हैं..उनके भीतर कुछ है जो नहीं मर सकता है। तब मृत्यु दिखती है, अमृत पीछे खड़ा है, अगर मुझे अपने भीतर यह बोध हो जाए।
धर्म का संबंध उस अमृत के बोध से है। धर्म का संबंध आपके शास्त्रों से और ग्रंथों से, मंदिरों और मस्जिदों से नहीं है। और धर्म का संबंध इन व्यर्थ के विवेचनों और बकवासों से नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। जगत को किसने बनाया कि कर्म होता है या नहीं..धर्म का इन सारी चीजों से कोई संबंध नहीं है। धर्म का तो एक ही चीज से संबंध है कि सारे मृत्यु के बीच कुछ अमृत है या नहीं और अगर उस अमृत का पता चल जाए तो आत्मा भी है और परमात्मा भी है और फिर सब है। और अगर उस अमृत का पता न चले और ज्ञात हो जाए कि वहां मृत्यु है तो न तो कोई परमात्मा है और न तो कोई आत्मा है। न कोई धर्म है फिर कुछ भी नहीं। फिर हमारे सारे पूजागृह और हमारी सारी आराधनाएं और हमारे सारे शास्त्र और हमारे सारे धर्म के क्रियाकांड स्वप्न में की हुई बकवासों से ज्यादा नहीं हैं। इनमें फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता।
उस बिंदु को जानना है, जो मैं हूं। जो मेरे भीतर है, उससे परिचित होना है। कैसे उससे हम परिचित होएं! जो हमारे बाहर है उससे तो हम परिचित हो जाते हैं..दीखता है, परिचित हो जाते हैं। दीखता है, सब दिखाई पड़ रहा है। एक मैं ही अकेला हूं जो मुझे दिखाई नहीं पड़ता हूं और यह भी ठीक है। दूसरे को देखा जा सकता है, स्वयं को देखा भी कैसे जा सकेगा। जो देखा जा सकेगा वह तो देखने से ही दूसरा हो जाएगा। जो देखा जा सकेगा वह तो देखने मात्र से दूसरा हो जाएगा। क्योंकि देखने में ही दूसरा हो जाएगा। सब दिखना दूसरे का हो सकता है, स्वयं का दिखना कैसे होगा। सच तो यह है कि स्वयं का दिखना नहीं हो सकता है। आत्म-दर्शन शब्द लगता तो अच्छा है, है झूठा। आत्म-दर्शन हो नहीं सकता। सब दर्शन पर दर्शन है। सब देखने में दूसरा दिखाई पड़ता है। देखना मात्र दूसरे का होता है तो फिर आत्म-दर्शन का क्या अर्थ होगा। स्वयं को कैसे देखिएगा आप! क्योंकि देखेंगे तो दो हिस्सों में टूट जाइएगा। जो देख रहा है और जो दिखाई पड़ रहा है। जो देख रहा है उसको कैसे देखिएगा! उसे तो नहीं देखा जा सकता। तो फिर क्या आत्म-दर्शन नहीं होगा? क्या स्वयं का दिखना नहीं हो सकता है? स्वयं का दिखना जरूर हो सकता है। उस अर्थ में नहीं हो सकता जिस अर्थ में दूसरे का देखना होता है, दूसरे का दर्शन होता है। बहुत भिन्न अर्थों में स्वयं का परिचय होगा। वह उस क्षण होगा, जब आपको कुछ भी न दिखाई पड़ रहा हो और आप हैं। जब आपको कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है और आप हैं, वह जस्ट सीइंग की हालत है। जब आप केवल देख रहे हैं और दिखाई कुछ भी नहीं पड़ रहा। उसी क्षण आपको स्वयं का अनुभव होगा।
एक साधु का मुझे स्मरण आता है। एक गांव के किनारे एक पहाड़ी की टेकरी पर खड़ा है। उसके कुछ मित्र पास से निकलते हैं और सोचते हैं वहां क्या करता होगा! किसी ने कहा, कभी-कभी उसकी गाय खो जाती है, उसे खोजता है। किसी ने कहा, कभी-कभी कोई मित्र साथ होते हैं, पीछे छूट जाते हैं, उनकी प्रतीक्षा करता है। किसी ने कहा, मुझे तो ऐसा नहीं मालूम होता, न प्रतीक्षा मालूम होती है उसकी आंखों में, न खोज मालूम होती। लगता है, वह प्रभु के चिंतन में लीन खड़ा है। ये तीनों यह तय नहीं कर सके कि वह साधु वहां क्या करता होगा? वे उसके करीब गए, वे उसके निकट पहुंचे। उन्होंने उससे पूछा, पूछा उन्होंने, आपकी गाय खो गई, उसे देखते हैं? उस साधु ने कहा: नहीं। अपना तो कुछ भी नहीं है जो खो सके। उस साधु ने कहा: नहीं। अपना तो कुछ भी नहीं है जो खो सके। दूसरे ने पूछा: आप किसी मित्र की प्रतीक्षा करते हैं? उस साधु ने कहा: नहीं। अपना न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। न अपने कोई आगे है, न अपने कोई पीछे है जिसकी प्रतीक्षा हो सके। उस तीसरे व्यक्ति ने सोचा: अब तो निश्चित ही मेरी बात ठीक होगी। उसने कहा: आप ईश्वर का चिंतन कर रहे हैं? उस साधु ने कहा: नहीं। कोई ईश्वर नहीं है जिसका चिंतन किया जा सके और सब चिंतन व्यर्थ है। उन तीनों ने इकट्ठा पूछा, आप क्या कर रहे हैं फिर? उसने कहा मैं कुछ कर नहीं रहा। मैं केवल हूं, मैं कुछ कर नहीं रहा। मैं केवल मौजूद हूं। उसने कहा: आई एम जस्ट स्टेंडिंग। मैं तो बस खड़ा हुआ हूं, कुछ कर नहीं रहा।
जब भी आप कुछ कर रहे हैं, अपने से बाहर होंगे। जब भी आप कुछ कर रहे हैं, दूसरे से संबंधित होंगे। जब आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब आप अपने भीतर होंगे। अपने से संबंधित होंगे। एक ऐसी घड़ी जब आप कुछ कर नहीं रहे। और कुछ सोच नहीं रहे और कोई विचार नहीं हो रहा। उस घड़ी आप उस बीइंग से, उस अॅाथेेंटिक बीइंग से, उस सत्ता से संबंधित होेंगे जिसको महावीर ने आत्मा कहा है। और वहां आप जानेंगे, वहां आपको पहली दफा ज्ञात होगा, मृत्यु नहीं है। इस स्थिति का नाम जब आप कुछ भी नहीं कर रहे और केवल हैं। इसे थोड़ा समझ लें। जब आप कुछ भी नहीं कर रहे और केवल हैं। निश्चित ही मैं चलता हूं, इसका अर्थ है कि मैं चाहूं तो न भी चलूं। निश्चित ही मैं चलता हूं, इसका अर्थ है कि मैं चाहूं तो न भी चलूं। मैं बोलता हूं, इसका अर्थ है कि मैं चाहूं तो न भी बोलूं। मैं किसी को प्रेम करता हूं, इसका अर्थ है कि मैं चाहूं तो किसी को प्रेम न भी करूं। मैं हिलता-डुलता हूं, मैं चाहूं तो न भी हिलुं-डुलूं।
मैं जो भी क्रिया करता हूं चाहूं तो उस क्रिया को न भी करूं। निश्चित ही मैं क्रियाओं से अलग हूं। इसीलिए चाहूं तो क्रिया कर सकता हूं और चाहूं तो न करूं। मैं बोलने से अलग हूं इसीलिए चाहूं तो बोलता हूं और चाहूं तो अबोल हो जाऊं, न बोलूं। मेरी सत्ता मेरी क्रियाओं से पृथक है, इसीलिए मैं क्रियाओं को बदल लेता हूं। हम क्रियाएं तो रोज बदलते रहते हैं, एक क्रिया करते हैं, फिर दूसरी करते हैं, फिर तीसरी करते हैं। लेकिन कभी हम यह ख्याल नहीं करते। इसी ख्याल से योग का जन्म हुआ कि क्या हम उस घड़ी में भी हो सकते हैं, जब हम क्रियाएं कोई भी न करें।
यह तो मैंने आपसे कहा कि हम क्रियाएं बदल लेते हैं, इस बात की सूचना है कि हम चाहें तो क्रियाएं न भी करें। हम एक क्रिया से दूसरी पर चले जाते हैं, दूसरी से तीसरी पर चले जाते हैं। योग इस विचार से जन्मा कि क्या ऐसी भी घड़ी हो सकती है जब मैं एक क्रिया से तो जाऊं लेकिन दूसरे पर न जाऊं। मैं सारी क्रियाओं से तो चला जाऊं, कोई क्रिया तो न रह जाए करने को और मैं बिल्कुल अकेला रह जाऊं। मैं रहूं और मैं कुछ करता हुआ न रहूं, इस घड़ी का नाम समाधि है, इस घड़ी का नाम सामायिक है, इस घड़ी का नाम ध्यान है। जब क्रिया तो कोई भी नहीं है, मात्र आप ही अकेले रह गए हैं अपने आत्यंतिक अकेलेपन में। अपनी निपट इकाई में आप अकेले रह गए हैं। जब तक क्रिया होती है, शरीर का सहयोग होता है। बिना शरीर के सहयोग के क्रिया नहीं हो सकती। इसीलिए क्रियाओें के बीच कभी आप आत्मा को नहीं जान सकते, शरीर को ही जानेंगे। जब तक क्रिया है तब तक आप शरीर को ही जानेंगे, क्योंकि सब क्रिया शरीर से होती है। और जब तक आप क्रियाओं को ही जीवन समझेंगे तब तक आप मृत ही रहेंगे। क्योंकि क्रियाएं सब शरीर से होती हैं। और सब क्रियाएं मरणधर्मा हैं। सब क्रियाएं मर जाएंगी। सब क्रियाओं के फल मर जाएंगे। उसे जानना होगा जो शरीर से नहीं होता। वह अक्रिया की स्थिति है, जब आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं, केवल हैं उस क्षण में; जब आप केवल हैं, सारी इंद्रियां शिथिल हैं और शून्य हैं; कोई इंद्री सक्रिय नहीं है; सारा शरीर मृत है; जैसे है ही नहीं; उस घड़ी में आपको उसका पता चलेगा जो शरीर नहीं है।
महावीर ने या बुद्ध ने या क्राइस्ट ने जिस आत्मा की बात कहीं है, वह कोई दार्शनिक धारणा नहीं है। वह कोई ऐसी बात नहीं है कि किन्हीं विचारकों ने तय किया कि आत्मा होनी चाहिए। और कुछ तर्क दिए, कुछ आग्र्युमेंट दिए, कुछ प्रमाण दिए और तय कर दिया कि आत्मा जरूर होनी चाहिए। आत्मा कोई तार्किक धारणा नहीं है, कोई तार्किक निष्पत्ति नहीं है, यह एक अनुभव से निकला हुआ फल है, यह एक अनुभव है।
महावीर को, बुद्ध को, या क्राइस्ट को इसका अनुभव हुआ है और करोड़ों लोगों को इसका अनुभव हुआ है..जिन लोगों ने भी साहस किया है क्रिया को छोड़ देने का; जिन्होंने ने भी शून्य होने का साहस किया है; जिन्होंने जीते जी पूरी तरह मरने का साहस किया है; उन्होंने उसको अनुभव कर लिया है। जो मृत्यु से डरते हैं, वे धर्म को अनुभव नहीं कर सकते। साधारतया तो मृत्यु से डरने वाले लोग ही धार्मिक देखे जाते हैं। और जैसे-जैसे मृत्यु करीब आने लगती है और लोग बूढ़े होने लगते हैं, लोग धार्मिक होने लगते हैं। मृत्यु से डरने वाला कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता, मृत्यु से भयभीत धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म बड़े अभय में, बड़े साहस में, बड़े दुस्साहस में घटित होता है। मृत्यु से डरने वाला धार्मिक कैसे होगा? धार्मिक तो वह हो सकता है जो मृत्यु के पहले मृत्यु को अनुभव करने का साहस रखता हो। मृत्यु के पहले मर जाने की प्रक्रिया जान ले और मर के देख ले। पूरी तरह जब उसके भीतर सब मरा हुआ पड़ा होगा, तब उसे ज्ञात होगा कि एक तत्व मेरे भीतर अब भी जाग्रत है; अब भी जीवित है जो मरा हुआ नहीं है। सब मेरे भीतर मरा हुआ पड़ा है। सारी देह मृत मालूम होती है, सारा मन निष्प्राण निश्चित मालूम होता है।
और तब भी मेरे भीतर कुछ है कोई दीप, कोई ज्योति जो जीवित है। और जिसे बुझाना, मिटाना असंभव है। जब उसे यह अनुभव होगा तब वह सुनिश्चित रूप से जीवन से संयुक्त हुआ और उसने जाना कि मैं आत्मा हूं। और उसने जाना कि मैं देह नहीं हूं। मनुष्य देह और आत्मा का जोड़ है। लेकिन आप, आप आत्मा हैं। मनुष्य आत्मा और देह का जोड़ है। लेकिन आप, आप आत्मा हैं जिस क्षण आप जानेंगे कि मैं आत्मा हूं उसी क्षण आप मनुष्य नहीं रह जाते। आप मनुष्य से ऊपर उठ जाते हैं। आप मनुष्य से भिन्न हो जाते हैं। यह भी न जानना कि मैं देह हूं, पशु होना है। यह जानना कि मैं देह हूं, मनुष्य होना है। यह जानना कि मैं देह भी नहीं उसके ऊपर कुछ हूं, दिव्य हो जाना है। यह जानना भी नहीं कि मैं देह हूं, यह पशु का लक्ष्ण है। यह जानना कि मैं देह हूं, यह मनुष्य का लक्षण है। यह जानना कि मैं देह से ऊपर कुछ हूं, दिव्य हो जाना है। तीन रास्ते हैं..एक पशु का रास्ता है, एक मनुष्य का रास्ता है, एक दिव्यता का रास्ता है। किसमें हम सम्मिलित होना चाहते हैं, किसमें हम प्रविष्ट होना चाहते हैं, यह हमारे चुनाव, हमारे संकल्प पर है।
मैंने कहा, जिस क्षण उसका बोध हो जाएगा जो मेरे भीतर अमृत है, उस दिन आप धार्मिक हो जाएंगे। पैदाइश से कोई धार्मिक नहीं होता। इस भ्रम में कोई न रहे कि कोई जैन घर में पैदा हुआ है तो जैन हो गया। अगर यह बात इतनी सस्ती होती कि कोई आदमी जैन घर में पैदा होने से जैन हो जाए, कोई आदमी इस्लाम के घर में पैदा होने से इस्लाम हो जाए तो धर्म होना बिल्कुल ही सस्ती बात होती। वह पैदाइश की बात होती। कोई पैदाइश से धार्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म का कोई संबंध आपकी खून और हड्डियों से नहीं है और आपकी मांस और मज्जा से नहीं है। और एक अधार्मिक और एक धार्मिक आदमी के शरीर अगर काटे जाएं, उनके खून और मांस और मज्जा से तय न हो सकेगा कि कौन धार्मिक था और कौन अधार्मिक। जन्म तो केवल देह का है। उस देह के जन्म से कोई धार्मिक नहीं होता। इसलिए यह भ्रम छोड़ दें अपने मन से कि कोई किसी धर्म में पैदा हो गया है तो धर्म का हो गया है। धर्म में कोई पैदा नहीं होता।
 धर्म में तो अपने ही स्वयं के प्रयास से प्रवेश करना होता है। धर्म में अपने आप कोई पैदा नहीं होता। धर्म को तो अपने भीतर पैदा करना होता है। आप का जन्म धर्म में नहीं हो सकता, धर्म का जन्म आपमें हो सकता है। आप आमंत्रित कर सकते हैं धर्म को। और मैंने कहा कि धर्म का जन्म इस बोध से होता है कि आपके भीतर कोई नित्य तत्व उपस्थित है, मौजूद है। जब तक यह बोध न हो तब तक कोई अपने ऊपर व्यर्थ की वंचना न ढांके कि वह धार्मिक है। और किन्हीं सस्ते उपायों से कि मंदिर की पूजा से कि दो-चार पैसे दान कर लेने से कि वर्ष में कभी दो-चार दिन उपवास कर लेने से, कोई इस झूठे दंभ को न पाले कि वह धार्मिक हो गया। ये दंभ को पालने के बड़े सस्ते उपाय हैं, इनका इससे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। धार्मिक होना बड़े दुस्साहस की, बड़े हिम्मत की, बड़े प्रयास की, बड़ी सतत चेष्टा की बात है। धार्मिक होना एक बड़ी उपलब्धि है। और वह उपलब्धि तभी संभव हो सकती है, जब इस मिट्टी की देह के भीतर उसका बोध हो जाए जो कि मिट्टी नहीं है।
 इस मिट्टी के दीये के भीतर उसका बोध हो जाए, जो ज्योति है तो आप धार्मिक हुए, तो धार्मिक जीवन में अग्रसर हुए। उस धारा में आपन्न हुए, उस स्रोत में समाविष्ट हुए, उस अनंत-अनंत स्रोत के अंग बनें। जिसकी अनंत-अनंत काल से जाग्रत पुरुषों की जिसकी परंपरा है। उस दिन फिर आप धार्मिक होकर एक ही साथ सब हो जाएंगे। एक ही साथ सब हो जाएंगे, धार्मिक होकर आप क्रिश्चियन हो जाएंगे। क्योंकि वह करुणा जो क्राइस्ट में है, आपमें उत्पन्न हो जाएगी। धार्मिक होकर आप जैन हो जाएंगे, क्योंकि वह जैनत्व, वह विजय इंद्रियों पर और शरीर पर आत्मघटित हो जाएगी जो जैन में होनी चाहिए। और आप इस्लाम के हिस्से हो जाएंगे और वह शांति और भ्रातृत्व आपमें पैदा हो जाएगा, उस ज्योति के अनुभव से, जो मनुष्य में होना चाहिए। जो आदमी धार्मिक है, उसी क्षण वह सब धर्म उसके हो गए। क्योंकि सब कोई धर्म नहीं है एक ही धर्म है। वह सारे धर्म उसके हो गए।
अगर महावीर को, कोई क्राइस्ट से पूछे कि क्या महावीर क्रिश्चियन हैं? मैं समझता हूं क्राइस्ट कहेंगे, उनसे बेहतर क्रिश्चियन खोजना कठिन है। अगर कोई महावीर से पूछे कि क्या क्राइस्ट जैन हैं? तो महावीर कहेंगे, उनसे बेहतर जैन को खोजना मुश्किल है। जो भी आदमी धार्मिक है, वह तत्क्षण सब धर्मों का हो गया। सब धर्मों का इसलिए हो गया कि सब कोई धर्म नहीं है, धर्म एक ही है। उस शाश्वत चैतन्य को अनुभव कर लेना धर्म है। उसके अनुभव के बाद जीवन अपने आप धार्मिक हो जाता है। धार्मिक होने से उसका अनुभव नहीं होता, उसके अनुभव होने से जीवन धार्मिक हो जाता है। जो उस चैतन्य को अनुभव करेगा उसे असत्य बोलना असंभव हो जाएगा। असत्य किससे बोलेगा, अपने को ही सभी दीयों के भीतर जलता हुआ अनुभव करेगा। असत्य किससे बोलेगा, अपने को ही सबके भीतर प्रतिबिंबित, प्रतिफलित पाएगा। अपनी धुन को ही सारे घरों में गूंजता हुआ अनुभव करेगा। अपने को ही उपस्थित पाएगा अनेक-अनेक रूपों में..झूठ, असत्य किससे बोलेगा। परिग्रह किसलिए करेगा। अब जानता है कि अपनी प्रतिष्ठा के लिए न पदों की जरूरत है, न धन की जरूरत है। अब जानता है कि अपनी सुरक्षा के लिए किसी साधन की, किसी सामग्री की जरूरत नहीं है। क्योंकि जानता है अपनी कोई असुरक्षा, अपनी कोई इनसिक्योरिटी ही नहीं है। अब जानता है कि अपनी रक्षा की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि भीतर जो है वह स्वयं रक्षित है और अपनी प्रतिष्ठा की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि भीतर जो है वह स्वयं प्रतिष्ठित है, अब वह कैसे परिग्रह करेगा और किसलिए परिग्रह करेगा। अब वह अब ब्रह्मचर्य से कैसे भरेगा, किसके प्रति भरेगा, सभी तरफ वही है। सभी तरफ शायद उसके लिए करीब-करीब सारी देह आईने और दर्पण बन गई हैं, जिनमें वह अपने को ही देखता है और उपलब्ध पाता है।
ऐसा व्यक्ति जिसने आत्मा को अनुभव किया, अनिवार्यतः उसके जीवन में अहिंसा के, सत्य के, प्रेम के, करुणा के, अपरिग्रह के, ब्रह्मचर्य के फूल अपने आप पैदा हो जाएंगे। धर्म की अनुभूति उसको चारों तरफ जीवन में धार्मिक बना देगी।
इनकी चेष्टाएं नहीं करनी होती हैं, कोई चेष्टा नहीं करता है कि अहिंसा और सत्य और प्रेम आ जाए, चेष्टा से वे आते भी नहीं। और चेष्टित प्रेम का मूल्य भी क्या होगा, वह अभिनय होगा। अगर मैं कोशिश करूं आपको प्रेम को करने की, तो अभिनय होगा। मुझसे प्रेम बहे, वह वास्तविक होगा। अहिंसा चेष्टित हो, मिथ्या हो, अहिंसा सहज प्रवाहित हो, वास्तविक हो। सत्य चेष्टित हो झूठा होगा। अपने आप सहज स्पंदित हो, वास्तविक होगा। जीवन में धार्मिकता होगी, अगर भीतर आत्मा का अनुभव होगा। आत्मा का अनुभव जीवन का अनुभव है। आत्मा को जानना जीवन को जानना है। और जो उसे जान लेगा उसके जीवन में संगीत ही संगीत और आनंद ही आनंद और नृत्य ही नृत्य व्याप्त हो जाएगा। उसके भीतर कहीं दुख की कोई प्रतिध्वनि भी नहीं सुनाई पड़ेगी। यह जो मैं कह रहा हूं आपसे, यह ऐसे नहीं कह रहा हूं कि मुझे कोई यह विचार मालूम होता है। ऐसे ही नहीं कह रहा हूं कि यह कोई अच्छी बात मालूम होती है या कोई तार्किक बात मालूम होती है। इतना साफ मुझे दीखता कि इससे ज्यादा साफ और कोई चीज नहीं दिखती है। आप मुझे जो यहां मौजूद हैं, आपकी देह जितनी मौजूद मालूम होती है उससे कहीं ज्यादा मौजूद वह ज्योति मालूम होती है जिसकी मैं बात कर रहा हूं। आपकी आंखों से, आपके स्पंदन से, आपकी सारी हरकतों से उस जीवन का अनुभव होता है जो भीतर मौजूद है। और एक बार भी आपकी देह पारदर्शी हो जाए और एक दफा ट्रांसपेरेंट हो जाए और हम उसके भीतर झांक सकें। यह सारा जगत जीवन की ज्योतियों से भरा हुआ अनुभव होता है।
जो अपने भीतर जीवन को जान लेगा वह सब तरफ जीवन को अनुभव कर लेगा। इसी जीवन की स्वीकृति, महावीर की अहिंसा में प्रकट हुई है। अहिंसा का अर्थ है, मैंने सबके जीवन को स्वीकार कर लिया। हिंसा का अर्थ है, मैं किन्हीं के जीवन को स्वीकार नहीं करता और उनके जीवन को समाप्त करने को राजी हूं। हिंसा का अर्थ है, मैं किन्हीं के जीवन को स्वीकार नहीं करता और अपने जीवन के लिए उनको समाप्त करने को राजी हूं। अहिंसा का अर्थ है मैंने सबके जीवन को स्वीकार कर लिया।
सबके भीतर जीवन का मुझे अनुभव हुआ। आत्म अनुभव का यह परिनमन अहिंसा है। जीवन अनुभव हो सकता है क्योंकि है, क्योंकि मौजूद है। सिर्फ देह से थोड़ा सरकना होगा, देह से थोड़ा पीछे आना होगा। धारा थोड़ी उलटी बहानी होगी, जीवन-मरण देह की तरफ बहते हैं। साधना में हमें देह से, चैतन्य की तरफ प्रवाहित होना होगा। जो चीजें हमें जड़ता की तरफ ले जाती हैं, उनसे मुक्त करना होगा। और चैतन्य की तरफ ले जाती हैं, उनकी तरफ प्रवाहित होना होगा। देह और आत्मा के बीच, अभी हम देह की तरफ प्रवाहित हैं, साधना में हमें चैतन्य की तरफ प्रवाहित होना है। और हमें वह करना होगा जिससे चैतन्य जगता है और वह छोड़ देना होगा जिससे जड़ता आती है। आप कभी देखें यह अनुभव करें, किन-किन चीजों से आपके भीतर चैतन्य जगता है। और किन-किन चीजों से आपके भीतर जड़ता आती है। जिन-जिन चीजों को धर्मों ने पाप कहा है, वह आपके भीतर जड़ता को पैदा करते हैं। जिन-जिन चीजों को धर्म ने पाप कहा है, वह आपके भीतर आपके शरीर को प्रगाढ़ करते हैं और आपकी चेतना को विलिप्त करते हैं। और जिन-जिन चीजों को धर्म ने पुण्य कहा है, वह आपके भीतर चैतन्य को आविष्कृत करते हैं। और जड़ को विस्मृत करते हैं, उदाहरण के लिए आप क्रोध में होते हैं, तब आप जड़ हो जाते हैं, मूच्र्छित हो जाते हैं। और जब आप शांति में होते हैं तब आप चैतन्य में हो जाते हैं। जड़ता से, मूच्र्छा से मुक्त हो जाते हैं।
जब कोई व्यक्ति किसी की हिंसा करता है, हत्या करता है तब बिल्कुल जड़ और मूच्र्छित हो जाता है। तब वह अपने वश में अपने होश में नहीं होता और जब कोई व्यक्ति किसी को बचाने के लिए अग्नि में कूद पड़ता है, तब वह बड़े चैतन्य के अनुभव को उपलब्ध होता है। जब भी जो-जो चीजें आपके भीतर चैतन्य को विकसित करती हैं और प्रतिष्ठित करती हैं, उनका निरंतर प्रयोग करने से आप धीरे-धीरे शरीर से प्रवाह चेतना की तरफ होता है। एक दिन ऐसी स्थिति आ जाती है कि आप देह में होते हैं, लेकिन विदेह हो जाते हैं। देह होती है लेकिन आपको देह का कोई पता नहीं होता।
एक छोटी सी घटना और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक साधु का मुझे स्मरण आता है। उसके आश्रम में एक युवक दीक्षित हुआ। तीन वर्ष बीते, उस साधु ने उसकी तरफ आंख भी उठा कर नहीं देखा। जब भी वह आकर कुछ पूछता, वह साधु आंख नीची कर लेता। कुछ भी पूछता, हां और न में उत्तर दे देता, कभी बात को आगे न बढ़ाता। युवक बहुत हैरान था। सबसे बात करता, सबकी तरफ आंख उठाता, इसके प्रति क्या बात थी? आंख भी न उठाता, आंख से कभी देखता भी नहीं। तीन वर्ष बीते, एक दिन युवक बगीचे से निकलता था, साधु अपनी कुटी में था, उसने आंख उठा कर युवक को भर आंख देखा। वह तो कृत्य-कृत्य हो गया, वह तो प्रफुल्लित हो गया। लेकिन जैसे ही वह प्रफुल्लित हुआ, साधु की आंख वापस नीचे झुक गई। युवक बहुत हैरान हुआ। लेकिन हैरान ही हो सकता था। फिर तीन वर्ष बीते, उस साधु ने उसे आंख उठा कर नहीं देखा। तीन वर्ष बाद वह तो धीरे-धीरे भूल भी गया था। यह उसकी आदत का हिस्सा हो गया था। एक दिन उसने देखा साधु उसे देख कर मुस्कुराया है। एकदम से अवाक रह गया कि वह आदमी छह वर्षों के बाद मुस्कुराया, पहली दफा संबंध जाहिर किया। पहली दफा स्वीकृति दी है। पहली दफा प्रेम का एक नाता दिया है, तो अवाक खड़ा रह गया कि आज यह संभव कैसे हुआ? छह वर्ष की इस अंधेरी रात के बाद अचानक यह सूरज कैसे? वह अवाक खड़ा था कि साधु की मुस्कुराहट बुझ गई। फिर और तीन वर्ष बीते..न उसने देखा, न वह मुस्कुराया। युवक धीरे-धीरे भूल ही गया। भूल ही गया कि साधु भी है। भूल ही गया कि कोई नीचे भी देखता है, अपनी तरफ नहीं देखता। भूल ही गया कोई मुस्कुराता नहीं, कभी इशारे नहीं करता संबंध के, प्रेम के, भूल ही गया कोई है भी।
तीन वर्ष बीते, एक दिन साधु ने उसे रोका, उसके कंधे पर हाथ रखा, उसकी तरफ देखा, उसकी तरफ मुस्कुराया, उससे कुछ बोला। वह साधु बोला: आज मैं इतना प्रसन्न हूं, आज मैं तुमसे बोल कर इतना प्रसन्न हूं और तुम्हें बता दूं कि नौ वर्ष मैंने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया। जब तुम आए थे, तुम इतने उत्सुक थे कि तुम्हारी देह को कोई देखे। तुम इतने उत्सुक थे कि तुम्हारी देह को कोई देखे कि मैं डरा कि देखना ठीक नहीं, क्योंकि तुम्हारी देह को कोई देखे, इससे जो प्रसन्नता होती है, वह जड़ता लाती है।
तुम देह की तरफ, देह की तरफ प्रवाहित होते हो। हम सब चाहते हैं कि देह को हमारी कोई देखे। हम सब चाहते है कि कोई हमें देखे। क्या है आप में देखने को? क्या है किसी में देखने को? अपनी ही देह को बहुत गौर से देखें, कुछ भी देखने योग्य मालूम नहीं पड़ेगा। और अगर आपकी ही आंख में अपनी देह में कुछ देखने योग्य मालूम नहीं पड़ता, तो दूसरों की आंखों को कष्ट देने की कौन सी जरूरत है? और अगर आपको अपनी ही देह में कुछ देखने योग्य मालूम नहीं पड़ता, तो दूसरों की देहों में आंख गड़ाने की भी कौन सी जरूरत है? वहां भी कुछ न होगा।
उस साधु ने कहा: मैंने नहीं देखा, क्योंकि तुम बड़े उत्सुक थे कि कोई देखे। तुम बड़े उत्सुक थे कि...से भी मिले। कोई देखे और...सूत्र भी मिले। तुम हो, यह दिखाना चाहते थे। तुम हो, यह जनाना चाहते थे। तुम कुछ विशिष्ट हो और केंद्रीभूत हो, यह अनुभव करना चाहते थे। इस डर से मैंने तुम्हें देखा भी नहीं अपने को रोका। उस दिन सिर्फ देखा था तीन वर्ष बाद, सोचा था कि शायद अब तुम्हें यह भूल गया होगा। लेकिन देखते ही तुम इतने प्रसन्न मालूम हुए और मैं डर गया और मैंने आंख नीची कर ली। तुम पानी की तरह तो हो गए थे, थोड़े तरल, तो थोड़े लिक्विड तो हो गए थे। लेकिन अभी हवा की तरह नहीं हुए थे। अभी पानी की तरह तो हो गए थे कि बहने लगे थे, लेकिन हवा की तरह विरल नहीं हुए थे कि उड़ने लगो। मैं डर गया। तीन वर्ष बाद तुम्हें देख कर मुस्कुराया था। सोचा था अब क्या होता है, तुममें पहले जैसी खुशी तो पैदा नहीं हुई। तुम खुश तो नजर नहीं आए थे, लेकिन अवाक रह गए थे। तुम्हारे मन में प्रश्न उठा था कि मैं क्यों मुस्कुरा रहा हूं। अब तुम पानी की तरह तो नहीं रह गए थे, हवा की तरह विरल हो गए थे। खुशी तो तुम्हें नहीं हुई थी लेकिन प्रश्न उठा था। थोड़ी सी अड़चन और थी पानी नीचे की तरफ बहता है, तरल होता है। हवा सब तरफ बहती है विरल होती है। लेकिन तुम अभी अग्नि की तरह नहीं हुए थे कि ऊपर की ही ऊपर की ही तरफ उठ सको। मैं और रुका अभी तुममें कुछ बंद शेष था जो प्रश्न बन गया था। पहली दफा बहुत प्रगाढ़ था तो प्रसन्नता बन गया था। दूसरी तरफ थोड़ा ही शेष था तो प्रश्न बन गया था। मैं रुका और तीन वर्ष और बीतें। आज तुम्हें पास बिठा कर बात कर रहा हूं। आज तुम्हें देख कर हंस रहा हूं आज तुमसे प्रीति से बात कर रहा हूं। तुम्हारे कंधे पर हाथ रखे हूं और तुम मुझे ऐसे देख रहे हो जैसे मैं किसी और से बात कर रहा हूं। उस साधु ने कहा आज मैं तुम्हारे पास तुम्हारे कंधे पर हाथ रख कर बात कर रहा हूं। और तुम मुझे ऐसे देख रहे हो जैसे मैं किसी और से बात कर रहा हूं। आज मैं खुश हूं, आज तुम अग्नि की तरह हो गए। आज तुम्हारे भीतर अब वही केवल तुम्हें अनुभव हो रहा है, जो अग्नि की तरह है और निरंतर ऊध्र्वगामी है। मनुष्य में पदार्थ है जो निम्नगामी है। पदार्थ नीचे गिरता है।
 मनुष्य के भीतर चैतन्य है..जो अग्नि है, ऊध्र्वगामी है। अग्नि ऊपर की तरफ उठती है। मनुष्य मिट्टी का और अग्नि का जोड़ है। मनुष्य मिट्टी का दीया है और अग्नि की ज्योति है। मिट्टी मृत्यु है। वह अग्नि की ज्योति जीवन है। जो मिट्टी के दीये को ही अपना होना समझेगा उसे जीवन उपलब्ध नहीं हो सकता। और जो अग्नि की ज्योति को अपना होना समझेगा उसे जीवन उपलब्ध हो जाएगा। जो उसे अनुभव करेगा उसे जीवन उपलब्ध हो जाएगा। जीवन-दर्शन मेरी दृष्टि में ऐसा कुछ है, ऐसा कुछ है कि मिट्टी की इस देह के भीतर हमें अमृत चैतन्य का अनुभव हो सके। ईश्वर करे यह प्यास जगे आपके भीतर, प्यास जगे कि हम मिट्टी की जगह उस अग्नि को भी जान लें जो निरंतर ऊपर से ऊपर उठती है, ऊध्र्वगामी है। यह प्यास जगे, यह प्यास तीव्र हो। कोई भी वजह नहीं है इस दुनिया में, कोई ताकत आपको उसे अनुभव करने से रोक नहीं सकेगी। क्योंकि जो निरंतर भीतर है उसे अनुभव कर लेना सरल है।
मनुष्य दूर-दूर की इतनी विजय कर लेता है, दूर के साम्राज्य जीत लेता है, पहाड़ियों पर गौरीशंकर की पताकाएं गाड़ देता है, चांद-तारों पर अपने निवास बना लेता है, समुद्र की गहराइयों में जाएगा और आकाश के कोनों को छान डालेगा। जो मनुष्य इस विस्तीर्ण जगत में दूर-दूर अपनी विजय के चिह्न बना देगा, हस्ताक्षर कर देगा, वह मनुष्य क्या अपने भीतर विजय की पताका नहीं गाड़ सकता है? क्या वह मनुष्य वहां हस्ताक्षर नहीं करेगा? निश्चित-निश्चित कर सकता है। मनुष्य की सामथ्र्य अपरिसीम है, लेकिन जीवन अल्प है। मनुष्य की सामथ्र्य अपरिसीम है, लेकिन जीवन अल्प है। सामथ्र्य बहुत है कि हम अपने भीतर विजय के चिह्न बना दे। लेकिन जीवन अल्प है। इसलिए जब समय रहते चेत जाता है वह अपने भीतर विजय को उपलब्ध हो जाता है। और जो समय रहते नहीं चेतता, वह व्यर्थ हो जाता है। और उसकी सारी जीवन की सामर्थ और सरिता मरुस्थल में विलीन हो जाती है। वह फल को सार्थकता को उपलब्ध नहीं होती। आपकी सरिता जीवन की ऐसी मरुस्थल में विलीन न हो। इसी उद्यान में, उस सरिता में फूल आ जाएं, यह मैं कामना करता हूं।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम से, इतने शांत होकर कि आपको जैसे भूल ही गया कि आप मिट्टी की देह हो। और मुझे थोड़ी देर में लगने ही लगा कि आप सबके भीतर एक ज्योति जल रही है और आप सब ज्योति के दीये हो। यहां लोग मिट गए और अग्नि का प्रवाह मेरे लिए हो गया। इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। परमात्मा करे आपकी ज्योति रोज से रोज ऊपर उठे, एक दिन आप मिट्टी के दीये बिल्कुल न रह जाएं, यही कामना है। मेरी इस कामना को स्वीकार करें।  

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