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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

प्रेम है द्वार प्रभु का

मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को, कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोटा सा अनुभव है जो मनुष्य को ज्ञात है और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है। और जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है उसके जीवन में परमात्मा के आने की संभावना नहीं है। न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती हैं, न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं, न मंदिर, मस्जिद पहुंचा सकते हैं, न कोई संगठन हिंदू और मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के पहुंचा सकते हैं।

एक ही बात परमात्मा तक पहुंचा सकती है और वह यह है कि प्राणों में प्रेम की ज्योति का जन्म हो जाए। मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते हैं। जिन्हें हम धर्मगुरु कहते हैं, वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते रहे हैं। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते हैं, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गए हैं। और जो परमात्मा तक पहुंचा सकता था वह प्रेम अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते के किनारे अंधेरे में कहीं पड़ा रह गया है।

इसलिए पांच हजार वर्षों से आदमी प्रार्थनाएं कर रहा है, पांच हजार वर्षों से आदमी भजन पूजन कर रहा है, पांच हजार वर्षों से मस्जिदों और मंदिरों की मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है, लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी, परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी, परमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ में रह गई हैं और आदमी रोज रोज नीचे गिरता गया है, और रोज रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ मग रह गए हैं, सच्चाइयां अत्यंत दुखपूर्ण होती चली गयी हैं।
और आज तो आदमी करीब करीब ऐसी जगह खड़ा हो गया है जहां उसे यह ख्याल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा भी हो सकता है। क्या आपने कभी सोचा है कि यह घटना कैसे घट गई है? क्या नास्तिक इसके लिए जिम्मेदार हैं? या कि लोगों की आकांक्षाएं और अभीप्साएं ही परमात्मा की दिशा की तरफ जाना बंद हो गई है? या कि वैज्ञानिक और भौतिकवादी लोगों ने परमात्मा के द्वार बंद कर दिए हैं? नहीं, परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गए हैं कि परमात्मा का एक ही द्वार था प्रेम, और उस प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान नहीं रहा है। और भी अजीब, कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गई है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने मिल जुलकर प्रेम की हत्या कर दी और मनुष्य को जीवन में इस भांति सुव्यवस्थित करने की कोशिश की कि उसमें प्रेम की किरण के जन्म की कोई संभावना ही न रह जाए।
 प्रेम के अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है जो प्रभु तक पहुंच सकता हो। और इतने लोग जो वंचित हो गए है प्रभु तक पहुंचने से, वह इसीलिए कि वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित रह गए हैं। समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र अप्रेम का केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान (ींवदबमचजपवद) से लेकर उसकी मृत्यु तक की सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को, इसी परिवार को, इसी गृहस्थी को सम्मान दिए जाते हैं, अदब दिए जाते हैं, शोरगुल मचाए चले जाते हैं कि बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ा पवित्र समाज है, बड़ा पवित्र जीवन है। और यही परिवार, यही समाज और यही सयता जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं हैं मनुष्य को प्रेम से रोकने का कारण बन रही है। इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा।
 मनुष्यता के विकास में कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले, कोई कृष्ण, कोई राम, कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाए, यह कोई सवाल नहीं है। अरबों खरबों लोगों में अगर एक आदमी में ज्योति उतर भी आती हो तो यह कोई विचार करने की बात नहीं है। इसमें तो कोई हिसाब रखने की जरूरत भी नहीं है। एक माली एक बगीचा लगाता है। उसने दस करोड़ पौधे उसे बगीचे में लगाए हैं और एक पौधे में एक अच्छा सा फूल आ जाए तो माली की प्रशंसा करने कौन आएगा? कौन कहेगा कि माली तू बहुत कुशल है कि तूने जो बगीचा लगाया है, वह बहुत अदभुत है? देख, दस करोड़ वृक्षों में एक फूल खिल गया है! नहीं, हम कहेंगे यह माली की कुशलता का सबूत नहीं है। माली की भूल चूक से कोई खिल गया होगा, अन्यथा बाकी सारे पेड़ खबर दे रहे हैं कि माली कितना कुशल है! यह माली के बावजूद खिल गया होगा। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाए क्योंकि सारे पौधे तो खबर दे रहे हैं कि माली के फूल कैसे खिले हुए हैं।
खरबों लोगों के बीच कोई एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती है और हम उसी का शोरगुल मचाते रहते हैं हजारों सालों तक! पूजा करते रहते हैं, उसी के मंदिर बनाते रहते हज, उसी का गुणगान करते रहते हैं। अब तक हम रामलीला कर रहे हैं, अब तक हम बुद्ध की जयंती मना रहे हैं। अब तक महावीर की पूजा कर रहे हज, अब तक क्राइस्ट के सामने घुटने टेके बैठे हुए हैं। यह किस बात का सबूत है? यह बात का सबूत है कि पांच हजार साल में पांच छह आदमियों के अतिरिक्त आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सकता। नहीं तो कभी का हम भूल गए होते राम को, कभी के भूल गए होते बुद्ध को, कभी का हम भूल गए होते महावीर को महावीर को हुए ढाई हजार साल हो गए। ढाई हजार साल में कोई आदमी हनीं हुआ कि महावीर को हम भूल सकते। महावीर को अभी तक याद रखना पड़ा है। वह एक फूल खिला था, वह अब तक हमें याद रखना पड़ता है।
यह कोई गौरव की बात नहीं है कि हमें अब तक स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, राम की, मोहम्मद की, क्राइस्ट की या जरथुष्ट की। यह इस बात का सबूत है कि और आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भूला सकें। बस दो चार इने गिने नाम अटके रह गए हैं मनुष्य जाति की स्मृति में। और उन नामों के साथ भी हमने क्या किया है सिवाय उपद्रव के, हिंसा के। और उनकी पूजा करने वाले लोगों ने क्या किया है सिवाय आदमी के जीवन को नर्क बनाने के। मंदिरों और मस्जिदों के पुजारियों और पूजा को ने जमीन पर जितनी हत्याएं की हैं, और जितना खून बहाया है और जीवन का जितना अहित किया है उतना किसी ने भी नहीं किया है। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई; नहीं तो इतने पौधे लगें और फूल न आए, यह बड़े आश्चर्य की बात है। कहीं जरूर भूल हो गई।
मेरी दृष्टि में प्रेम अब तक मनुष्य के जीवन का केंद्र नहीं बनाया जा सका, इसीलिए भूल हो गई है। और प्रेम केंद्र बनेगा भी नहीं क्योंकि जिन चीजों के कारण प्रेम जीवन का केंद्र नहीं बन रहा है, हम उन्हीं चीजों का शोर गुल मचा रहे हैं, आदर कर रहे हैं, सम्मान कर रहे हैं और उन्हीं चीजों को बढ़ावा दे रहे हैं। मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ही गलत हो गयी है। इस पर पुनर्विचार करना जरूरी है, अन्यथा सिर्फ हम कामनाएं कर सकते हैं और कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्या आपको कभी यह बात ख्याल में आयी है कि आपका परिवार प्रेम का शत्रु है? क्या आपको यह बात कभी ख्याल में आयी है कि मनु से लेकर आज तक के सभी नीतिकार प्रेम के विरोधी हैं? जीवन का केंद्र है परिवार और परिवार विवाह पर खड़ा किया गया है जब कि परिवार प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गयी है, आदमी के सारे पारिवारिक विकास की भूल हो गयी है। परिवार निर्मित होना चाहिए प्रेम के केंद्र पर और परिवार निर्मित किया जा सकता है विवाह के केंद्र पर। इससे ज्यादा झूठी और गलत बात नहीं हो सकती। है।
प्रेम और विवाह का क्या संबंध है? प्रेम से तो विवाह निकल सकता है। लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और न ही निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें। प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है और विवाह आदमी की व्यवस्था है। विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है? विवाह, समाज, कानून नियमित करता है, बनाता है। विवाह आदमी की ईजाद है, और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है। हमने सारे परिवार को विवाह के केंद्र पर खड़ाकर दिया है, प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जाएंगे। अदभुत झूठी बात है यह, और पांच हजार वर्षों में भी हमको इसका ख्याल नहीं आ सका है। हम अदभुत अंधे हैं। दो आदमियों के हाथ बांध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते हैं, वे आपस में प्रेम कभी भी नहीं कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में जहां कोई बंधन नहीं, जहां कोई जबरदस्ती हनीं, जहां कोई कानून नहीं। प्रेम तो व्यक्ति का अपना आत्मदान है, बंधन नहीं, जबरदस्ती नहीं। उसके पीछे कोई विवशता, कोई मजबूरी नहीं है। किंतु हम अविवाहित स्त्री या पुरुष के मन में, युवक और युवती के मन में उस प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते हैं, फिर हम कहते हैं कि विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए, और फिर जो प्रेम पैदा होता है, वह बिल्कुल पैदा किया, (बनसजपअंजमक) होता है, कोशिश से लाया गया होता है। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता, वह प्रेम सहजस्फूर्त (एचवदजंदमवने) नहीं होता है। वह प्रेम प्राणों से सहज उठता नहीं है, फैलता नहीं है। और जिसे हम विवाह से उत्पन्न प्रेम कहते हैं वह प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है। प्राणों की झलक और प्राणों का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है। और इस तरह से परिवार बनता है, और इस विवाह से पैदा हुआ परिवार और परिवार की पवित्रता की कथाओं का कोई हिसाब नहीं है। और परिवार की प्रशंसाओं, स्तुतियों की कोई गुनना नहीं है। और यही परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है।
पूरी मनुष्य जाति को विकृत (ढमतअमतज) करने में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में प्रेम से शून्य परिवार सबसे बड़ी संस्था साबित हुई है। प्रेम से शून्य परिवार से ज्यादा असुंदर और कुरूप (न्नहसल) कुछ भी नहीं है, वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है। जब हम एक युवक और युवती को विवाह में बांधते हज, बिना प्रेम के, बिना आंतरिक परिचय के, बिना एक दूसरे के प्राणों के संगीत के, तब हम केवल पंडित के मंत्रों में और वेदी की पूजा में और थोथे उपक्रम में उनको विवाह से बांध देते हैं। फिर आशा करते हैं उनको साथ छोड़ ने के कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जाएगा! प्रेम तो पैदा नहीं होता है, सिर्फ उनके संबंध कामुम (एमगनंस) होते हैं। क्योंकि प्रेम पैदा नहीं किया जा सकता है। हां, प्रेम पैदा हो जाए तो व्यक्ति साथ जुड़कर परिवार निर्माण जरूर कर सकता है। दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाए और फिर आशा की जाए कि प्रेम पैदा हो जाए, यह नहीं हो सकता है। और जब प्रेम पैदा नहीं होता है तो क्या परिणाम होते हैं आपको पता है?
एक परिवार में कलह है। जिसके हम गृहस्थी कहते हैं, वह संघर्ष, कलह, द्वेष ईष्र्या और चैबीस घंटे उपद्रव का अड्डा बना हुआ है। लेकिन न मालूम हम कैसे अंधे हैं कि इसे देखते भी नहीं हैं। बाहर जब हम निकलते हैं मुस्कराते हुए निकलते हैं। सब घर के आंसू पोंछकर बाहर जाते हैं, पत्नी भी हंसती हुई मालूम पड़ती है, पति भी हंसता हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन ये चेहरे झूठे हैं। दूसरों को दिखाई पड़ने वाले चेहरे हैं। घर भीतर के चेहरे बहुत आंसुओं से भरे हुए हैं। चैबीस घंटे कलह और संघर्ष में जीवन बीत रहा है। फिर इस कलह और संघर्ष के स्वाभाविक परिणाम भी होंगे ही।
प्रेम के बिना किसी व्यक्ति के जीवन में आत्मतृप्ति उपलब्ध नहीं होती। प्रेम जो है, वह व्यक्तित्व की तृप्ति का चरम बिंदु है। और जब प्रेम नहीं मिलता है तो व्यक्तित्व हमेशा अतृप्त, हमेशा अधूरा, बेचैन, तड़पता हुआ, मांग करता है कि मुझे पूर्ति चाहिए। हमेशा बेचैन, तड़पता हुआ रह जाता है। यह तड़पता हुआ व्यक्तित्व समाज में अनाचार पैदा करता है क्योंकि तड़पता हुआ व्यक्तित्व प्रेम को खोजने निकलता है। विवाह से प्रेम नहीं मिलता तो वह विवाह के अतिरिक्त प्रेम को खोजने की कोशिश करता है। वेश्याएं पैदा होती हैं विवाह के कारण। विवाह है मूल, विवाह है जड़, वेश्याओं के पैदा करने की। और अब तक तो स्त्री वेश्याएं थीं और अब तो सय मुल्कों में पुरुष वेश्याएं (ऊंसम चतवेजपजनजम) भी उपलब्ध हैं।
 वेश्याएं पैदा होंगी क्योंकि परिवार में जो प्रेम उपलब्ध होना चाहिए था वह उपलब्ध हो रहा है। आदमी दूसरे घरों में झांक रहा है उस प्रेम के लिए। वेश्याएं होंगी, और अगर वेश्याएं रोक दी जाएगी तो दूसरे परिवार में पीछे के द्वारों से प्रेम के रास्ते निर्मित होंगे। इसीलिए तो सारे समाज ने यह तय कर लिया है कि कुछ वेश्याएं निश्चित कर दो ताकि परिवारों का आचरण सुरक्षित रहे। कुछ स्त्रियों को पीड़ा में डाल दो ताकि बाकी स्त्रियां पतिव्रता बनी रहें और सती सावित्री बनी रहे। लेकिन जो संस्थाएं ईजाद करी पड़ती हैं, जान लेना चाहिए कि वह पूरा समाज बुनियादी रूप से अनैतिक होगा। अन्यथा ऐसी अनैतिक ईजाद की आवश्यकता नहीं थी। वेश्या पैदा होती हैं, अनाचार पैदा होता है, व्यभिचार पैदा होता है।, तलाक पैदा होते हैं। यदि तलाक न होता, न व्यभिचार होता, और न अनाचार होता तो घर एक चैबीस घंटे का मानसिक तनाव (ःदगपमजल) बन जाता।
सारी दुनिया में पागलों की संख्या बढ़ती गई है। ये पागल परिवार के भीतर पैदा होते हैं। सारी दुनिया में स्त्रियां हिस्टीरिया (भलेजमतपं) और न्यूरोसिस (छमनतवेपे) से पीड़ित हो रही हैं। विक्षिप्त, उन्माद से भरती चली जा रही है। बेहोश होती हैं, गिरती हैं, चिलाती हैं। पुरुष पागल होते चले जा रहे हैं। एक घंटे में जमीन पर एक हजार आत्महत्याएं हो जाती हैं और हम चिल्लाए जा रहे हैं¬समाज हमारा बहुत महान है, ऋषि मुनियों ने निर्मित किया है! और हम चिल्लाए जा रहे हैं कि बहुत सोच समझकर समाज के आधार रखे गए हैं! कैसे ऋषि मुनि और कैसे ये आधार? अभी एक घंटा मैं बोलूंगा तो इस बीच एक हजार आदमी कहीं छुरा मार लेंगे कहीं टेन के नीचे लेट जाएंगे, कोई लहर पी लेगा। उन एक हजार लोगों की जिंदगी कैसी होगी, जो हर घंटे मरने को तैयार हो जाते हैं? और यह मत सोचना कि वे जो नहीं मरते हैं बहुत सुखमय हैं। कुल जमा कारण यह है कि वे मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। सुख का कोई भी सवाल नहीं है, असल मग मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं तो जिए चले जाते हैं, धक्के खाए चले जाते हैं। सोचते हैं आज गलत है, तो कल ठीक हो जाएगा। परसों सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मस्तिष्क उनके रुग्ण होते चले जाते हैं।
प्रेम के अतिरिक्त को आदमी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता है। प्रेम जीवन में न हो तो मस्तिष्क रुग्ण होगा, चिंता से भरेगा, तनाव से भरेगा। आदमी शराब पीएगा, नशा करेगा, कहीं जाकर अपने को भूल जाना चाहेगा। दुनिया में पढ़ती हुई शराब शराबियों के कारण नहीं है। परिवार ने उस हालत में ला दिया है लोगों को कि बिना बेहोश हुए थोड़ी देर के लिए भी रास्ता मिलना मुश्किल हो गया है। तो लोग शराब पीते चले जाएंगे, लोग बेहोश पड़े रहेंगे, लोग हत्या करेंगे, लोग पागल होते जाएंगे। अमरीका में प्रतिदिन बीस लाख आदमी अपना मानसिक इलाज करवा रहे हैं, और ये सरकारी आंकड़े हैं, और आप तो भली भांति जानते हैं कि सरकारी आंकड़े कितने सही होते हैं! बीस लाख सरकार कहती है तो कितने लोग इलाज करा रहे होंगे, यह कहना मुश्किल है। और जो अमरीका की हालत है, वह सारी दुनिया की हालत है।
आधुनिक युग के मनस्तत्वविद यह कहते हैं कि करीब करीब चार आदमियों में से तीन आदमी एबनार्मल हो गए हैं, रुग्ण हो गए हैं, स्वस्थ नहीं हैं। जिस समाज में चार आदमियों में तीन आदमी मानसिक रूप से रुग्ण हो जाते हों उस मसाज के आधारों को उसकी बुनियादों को फिर से सोच लेना जरूरी है, नहीं तो कल चार आदमी भी रुग्ण हो जाएंगे और फिर सोचने वाले भी शेष नहीं रह जाएंगे। फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी। लेकिन होता ऐसा है कि जब एक ही बीमारी से सारे लोग ग्रसित हो जाते हैं तो उस बीमारी का पता नहीं चलता। हम सब एक से रुग्ण, बीमार और परेशान हैं, तो हमें पता बिल्कुल नहीं चलता है। सभी ऐसे हैं इसीलिए स्वस्थ मालूम पड़ते हैं। जब जब सभी ऐसे हैं तो ठीक है। ऐसे दुनिया चलती है, यही जीवन है। जब ऐसी पीड़ा दिखायी देती है तो हम ऋषि मुनियों के वचन दोहराते हैं कि वह तो ऋषि मुनियों ने पहले ही कह दिया कि जीवन दुख है।
जीवन दुख नहीं है, यह दुख हम बनाए हुए हैं। वह तो पहले ही ऋषि मुनियों ने कह दिया है कि जीवन तो असार है, इससे छुटकारा पाना चाहिए! जीवन असार नहीं है, यह असार हमने बनाया हुआ है और जीवन से छुटकारा पाने की बातें दो कौड़ी ही हैं। क्योंकि जो आदमी जीवन से छुटकारा पाने की कोशिश करता है वह प्रभु को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि जीवन प्रभु है, जीवन परमात्मा है, जीवन में परमात्मा ही तो प्रकट हो रहा है। उससे जो दूर भागेगा वह परमात्मा से ही दूर चला जाएगा।
जब एक सी बीमारी पकड़ती है तो किसी को पता नहीं चलता है। पूरी आदमियत जड़ से रुग्ण है इसलिए पता नहीं चलता तो दूसरी तरकीबें खोजते हैं इलाज की। मूल कारण (ींंनेंसपजल) जो है, बुनियादी कारण जो है उसको सोचते नहीं, ऊपर इलाज सोचते हैं। ऊपरी इलाज भी क्या सोचते हैं? एक आदमी शराब पीने लगता है जीवन से घबरा कर। एक आदमी जाकर नृत्य देखने लगता है, वह वेश्या के घर बैठ जाता है जीवन से घबराकर। दूसरा सिनेमा में बैठ जाता है। तीसरा आदमी चुनाव लड़ने लगता है ताकि भूल जाए सबको। चैथा आदमी मंदिरों में जाकर भजन कीर्तन करने लगता है। यह भजन कीर्तन करने वाला भी खुद के जीवन को भूलने की कोशिश कर रहा है। यह कोई परमात्मा को पाने का रास्ता नहीं है। परमात्मा तो जीवन में प्रवेश से उपलब्ध होता है, जीवन से भागने से नहीं। यह सब पलायन (द्मेबंचम) हैं। एक आदमी मंदिर में भजन कीर्तन कर रहा है, हिल डुल रहा है, हम कहते हैं कि भक्त जी बहुत आनंदित हो रहे हैं। भक्त जी आनंदित नहीं हो रहे हैं भक्त जी किसी दुख से भागे हुए हैं, वहां भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। शराब का ही यह दूसरा रूप है। यह आध्यात्मिक नशा (ेचपतपजनंस पदजवगपबंजपवद) है। यह अध्यात्म के नाम से नयी शराबें हैं जो सारी दुनिया में चलती हैं।
इन लोगों ने जीवन से भाग कर जिंदगी को बदलने नहीं दिया आज तक। जिंदगी वहीं की वहीं, दुख से भरी हुई है। और जब भी कोई दुखी हो जाता है वह भी इनके पीछे चला जाता है कि हमको भी गुरुमंत्र दे दें, हमारा भी कान फूंक दें, कि हम भी इसी तरह सुखी हो जाए, जैसे आप हो गए हैं। लेकिन यह जिंदगी क्यों दुख पैदा कर रही है इसको देखने के लिए, इसके विज्ञान के खोजने के लिए कोई भी नहीं जाता है।
मेरी दृष्टि में जहां जीवन की शुरुआत होती है वहीं कुछ गड़बड़ हो गयी है। और वह गड़बड़ यह हो गयी है कि हमने मनुष्य जाति पर प्रेम की जगह विवाह को थोप दिया है। फिर विवाह होगा और ये सारे रूप पैदा होंगे। जब दो व्यक्ति एक दूसरे से बंध जाते हैं और उनके जीवन में कोई शांति और तृप्ति नहीं मिलती तो वे दोनों एक दूसरे पर क्रुद्ध हो जाते हैं। वे कहते हैं, तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल पा रही है। और वे एक दूसरे को सताना शुरू करते हैं, परेशान करना शुरू करते हैं और इसी हैरानी, इसी परेशानी, इसी कलह के बीच बच्चों का जन्म होता है। ये बच्चे पैदाइश से ही विकृत (ढमतअमतजमक) हो जाते हैं।
मेरी समझ में, मेरी दृष्टि में जिस दिन आदमी पूरी तरह आदमी के जन्म विज्ञान को विकसित करेगा तो शायद आपको पता लगे कि दुनिया में बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग शायद इसीलिए पैदा हो सके हैं कि उनके मां बाप ने जिस क्षण में संभोग किया था, उस समय वे अपूर्व प्रेम से संयुक्त हुए थे। प्रेम के क्षण में गर्भस्थापन (ींवदबमचजपवद) हुआ था। दुनिया में जो थोड़े से अदभुत लोग हुए¬शांति, आनंदित, प्रभु को उपलब्ध, वे वही लोग हैं जिनका पहला अणु प्रेम की दीक्षा से उत्पन्न हुआ था, जिनको पहला जीवन अणु प्रेम में सराबोर पैदा हुआ था।
 पति और पत्नी कलह से भरे हुए हैं, क्रोध से, ईष्र्या से, एक दूसरे के प्रति संघर्ष से अहंकार से एक दूसरे की छाती पर चढ़े हुए हैं, एक दूसरे के मालिक बनना चाहे रहे हैं। इसी बीच उनके बच्चे पैदा हो रहे हैं। ये बच्चे किसी आध्यात्मिक जीवन में कैसे प्रवेश पाएंगे?
मैंने सुना है, एक घर में एक मां ने अपने बेटे और छोटी बेटी को¬वे दोनों बेटे और बेटी बाहर मैदान में लड़ रहे थे, एक दूसरे पर घूंसेबाजी कर रहे थे¬कहा कि अरे यह क्या करते हो। कितनी बार मैंने समझाया कि आपस में लड़ा मत करो, खेला करो। तो उसे लड़के ने कहा: हम लड़ नहीं रहे हैं, खेल रहे हैं, मम्मी डैडी का खेल कर रहे हैं। जो घर में रोज हो रहा है वह हम दोहरा रहे हैं।
यह खेल जन्म के क्षण से शुरू हो जाता है। इस संबंध में दो चार बातें समझ लेनी बहुत जरूरी हैं।
पहली बातें मेरी दृष्टि में, जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम के आधार पर मिलते हैं, उनका संभोग होता है, उनका मिलन होता है तो उस परिपूर्ण प्रेम के तल पर उनके शरीर ही नहीं मिलते हैं, उनके मनस भी मिलता है, उनकी आत्मा भी मिलती है। वे एक लयपूर्ण संगीत में डूब जाते हैं। वे दोनों विलीन हो जाते हैं और शायद, शायद परमात्मा ही शेष रह जाता है उस क्षण में। और उस क्षण जिस बच्चे का गर्भाधान होता है वह बच्चा परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि प्रेम के क्षण को पहला कदम उसके जीवन में उठा लिया है। लेकिन जो मां बाप, पति पत्नी आपस में द्वेष से भरे हैं, घृणा से भरे हैं, क्रोध से भरे हैं, कलह से भरे हैं वे भी मिलती हैं, लेकिन उनके शरीर ही मिलते हैं, उनकी आत्मा और प्राण नहीं मिलते और उनके शरीर के ऊपरी मिलन से जो बच्चे पैदा होते हैं वे अगर शरीरवादी (उंजमतपंसपेज) पैदा होते हों, बीमार और रुग्ण पैदा होते हों, और उनके जीवन में अगर कोई आत्मा की प्यास पैदा न होती हो, तो दोष उन बच्चों को मत देना। बहुत दिया जा चुका है यह दोष। दोष देना उन मां बाप को जिनकी छवि लेकर वह जन्मते हैं जिनका सब अपराध और जिनकी सब बीमारियां लेकर वे जन्मते हैं और जिनका सब क्रोध और घृणा लेकर वे जन्मते हैं। जन्म साथ ही उनका पौधा विकृत हो जाता है। फिर इनको पिलाओ गीता, इनको समझा ओ कुरान, इनसे कहो कि प्रार्थनाएं करो¬सब झूठी हो जाती हैं, क्योंकि प्रेम का बीज ही शुरू नहीं हो सका तो प्रार्थनाएं कैसे शुरू हो सकती हैं?
जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं तो वह मिलन एक आध्यात्मिक कृत्य (ेचपतपजनंस ंबज) हो जाता है। फिर उसका काम (ेमग) से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, वह मिलन शारीरिक नहीं है, वह मिलन इतना अनूठा है, इतना महत्वपूर्ण, जितना किसी योगी की समाधि। उतना ही महत्वपूर्ण है वह मिलन जब दो आत्माएं परिपूर्ण प्रेम से संयुक्त होती हैं, और उतना ही पवित्र है वह कृत्य, क्योंकि परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्म देता है, और जीवन को गति देता है। लेकिन तथाकथित धार्मिक लोगों ने, तथाकथित झूठे समाज ने, तथाकथित झूठे परिवार ने यही समझाने की कोशिश की है कि सेक्स, काम, यौन अपवित्र है, घृणित है। यह पागलपन की बातें हैं। अगर यौन घृणित और अपवित्र है तो सारा जीवन अपवित्र हो गया और घृणित हो गया। अगर सेक्स पाप है तो पूरा जीवन पाप हो गया, पूरा जीवन निदिंत (बवदकमउदमक) हो गया। और अगर जीवन ही परा निदिंत हो जाएगा तो कैसे प्रसन्न लोग उत्पन्न होंगे, कैसे सच्चे लोग अउपलब्ध होंगे? जब जीवन ही पूरा का पूरा पाप है तो सारी रात अंधेरी हो गई। अब इसमें प्रकाश की किरण कहीं से लानी पड़ेगी।
मैं आपको कहना चाहता हूं, एक नई मनुष्यता के जन्म के लिए सेक्स की पवित्रता, सेक्स की धार्मिकता स्वीकार करनी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जीवन उससे ही जन्मता है। परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्माता है। और परमात्मा ने जिसको जीवन की शुरुआत बनाया है वह कदापि पाप नहीं हो सकता है। लेकिन आदमी ने जरूर उसे पाप कर दिया है क्योंकि जो चीज प्रेम से रहित है वह पाप हो ही जाती है। जो चीज प्रेम से शून्य हो जाती है वह अपवित्र हो जाती है। आदमी की जिंदगी में प्रेम नहीं रहा इसलिए केवल कामुकता (एमगनंसपजल) रह गई है, सिर्फ यौन रह गया है। वह यौन पाप हो गया है। वह यौन का पाप नहीं है वह हमारे प्रेम के अभाव का पाप है और उसी पाप से सारा जीवन शुरू होता है। फिर ये बच्चे पैदा होते हैं, फिर ये बच्चे जन्मते हैं।
और स्मरण रहे, जो पत्नी अपने पति को प्रेम करती है उसके लिए पति परमात्मा हो जाता है। शास्त्रों के समझाने से नहीं होती यह बात। जो पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है उसके लिए पत्नी भी परमात्मा हो जाती है, क्योंकि प्रेम किसी को भी परमात्मा बना देता है। जिनकी तरफ उसकी आंखें प्रेम से उठती हैं वही परमात्मा हो जाता है। परमात्मा का कोई और अर्थ नहीं है। प्रेम की आंख सारे जगत को धीरे धीरे परमात्मामय देखने लगती है। लेकिन जो एक को ही प्रेम से भरकर नहीं देख पाता और सारे जगत को ब्रह्ममय देखने की बातें करता है उसकी वे बातें झूठी हैं, उन बातों का कोई आधार और अर्थ नहीं है।
जिसने कभी एक को भी प्रेम नहीं किया उसके जीवन में परमात्मा की कोई शुरुआत नहीं हो सकती, क्योंकि प्रेम के ही क्षण में पहली दफा कोई व्यक्ति परमात्मा हो जाता है। वह पली झलक है प्रभु की। फिर उसी झलक को आदमी बढ़ाता है और एक दिन वही झलक पूरी हो जाती है। सारा जगत उसी रूप में रूपांतरित हो जाता है। लेकिन जिसने पानी की कभी बूंद नहीं देखी और कहता है मुझे सागर चाहिए, कहता है पानी की बूंद से मुझे कोई मतलब नहीं, पानी की बूंद का मैं क्या करूंगा मुझे तो सागर चाहिए तो उससे हम कहेंगे, तूने पानी की बूंद भी नहीं देखी, पानी की बूंद भी नहीं पा सका और सागर पाने चल पड़ा है, तू पागल है। क्योंकि सागर और क्या है पानी की अनंत बूंदों के जोड़ के सिवाय? परमात्मा भी प्रेम की अनंत बूंदों का जोड़ है। प्रेम की अगर एक बूंद निदिंत है तो पूरा परमात्मा निदिंत हो गया। फिर झूठे परमात्मा खड़े होंगे, मूर्तियां खड़ी होंगी, पूजा पाठ हों, सब बकवास होगी लेकिन हमारे प्राणों का कोई अंत संबंध उससे नहीं हो सकता है।
और यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है कि कोई स्त्री अपने पति को प्रेम करती है, अपने प्रेमी को प्रेम करती है तभी प्रेम के कारण, पूर्ण प्रेम के कारण ही वह ठीक अर्थों में मां बन पाती है। बच्चे पैदा कर लेने मात्र से कोई मां नहीं बन जाती। मां तो कोई स्त्री तभी बनती है और पिता तो कोई पुरुष तभी बनता है जब कि उन्होंने एक दूसरे को प्रेम किया हो। जब पत्नी अपने पति को प्रेम करती है, अपने प्रेम को प्रेम करती है तो बच्चे उसे अपने पति का पुनर्जन्म मालूम पड़ते हैं। वह फिर वही शक्ल है, फिर वही रूप हैं, फिर वही निर्दोष आंखें हैं जो उसके पति में छिपी थीं, वह फिर प्रकट हुई हैं। उसने अगर अपने पति को प्रेम किया है तो वह अपने बच्चे को प्रेम कर सकेगी। बच्चे को किया गया प्रेम प्रति को किए गए प्रेम की प्रतिध्वनि है। नहीं तो कोई बच्चे को प्रेम नहीं कर सकता है। मां बच्चे को प्रेम नहीं कर सकती, जब तक उसने अपने पति को न चाहा हो पूरे पूरे प्राणों से। क्योंकि वह बच्चे उसके प्रति की प्रतिकृतियां हैं, वह उसकी ही प्रतिध्वनियां हैं, यह पति ही फिर वापस लौट आया है। यह नया जन्म है उसके पति का। पति फिर पवित्र और नया होकर वापस लौट आया है। लेकिन पति के प्रति अगर प्रेम नहीं है तो बच्चे के प्रति प्रेम कैसे होगा? बच्चे उपेक्षित हो जाएंगे, हो गए हैं।
बाप भी तभी कोई बनता है जब अपनी पत्नी को इतना प्रेम करता है कि पत्नी भी उसे परमात्मा दिखायी देती है, तब बच्चा फिर उसकी पत्नी का ही लौटता हुआ रूप है। पत्नी को जब उसने पहली दहा देखा था तब वह जैसी निर्दोष थी, जब जैसी शांत थी, जब जैसी सुंदर था, तब उसकी आंखें जैसी झील की तरह थीं, इन बच्चों में फिर वहीं आंखें वापस लौट आई हैं। इन बच्चों में फिर वही चेहरा वापस लौट आया है। ये बच्चे फिर उसी छबि में नया होकर आ गए हैं। जैसे पिछले बसंत में फूल खिले थे, पिछले बसंत में पत्ते आए थे। फिर साल बीत गया पुराने पत्ते गिरे गए। फिर नयी कोंपलें निकल आयी हैं, फिर नए पत्तों से वृक्ष भर गया है। फिर लौट और आया बसंत, फिर नया हो गया है। लेकिन जिसने पिछले बसंत को ही प्रेम नहीं किया था वह इस बसंत को कैसे प्रेम कर सकेगा?
जीवन निरंतर लौट रहा है। निरंतर जीवन का पुनर्जन्म चल रहा है। रोज नया होता चला जाता है, पुराने पत्ते गिर जाते हैं, नए आ जाते हैं। जीवन की सृजनात्मक (बतमंजपअपजल) ही तो परमात्मा है, यही तो प्रभु है। जो इसको पहचानेगा वही तो उसे पहचानेगा। लेकिन न मां बच्चे को प्रेम कर पाती है, न पिता बच्चे को प्रेम कर पाता है। और जब मां और बाप बच्चे को प्रेम नहीं कर पाते हैं तो बच्चे जन्म से ही पागल होने के रास्ते पर संलग्न हो जाते हैं। उनको दूध मिलता है, कपड़े मिलते हैं, मकान मिलते हैं लेकिन प्रेम नहीं मिलता है। प्रेम कि बिना उनको परमात्मा नहीं मिल सकता है और सब मिल सकता है।
अभी रूस का एक वैज्ञानिक बंदरों के ऊपर कुछ प्रयोग करता था। उसने कुछ नकली बंदरिया बनायीं। नकली बिजली के यांत्रिक हाथ पैर उनके, बिजली के तारों का ढांचा। जो बंदर पैदा हुए उनको नकली माताओं के पास कर दिया गया। नकली माताओं से वे चिपक गए। वे पहले दिन के बच्चे, उनको कुछ पता नहीं कि कौन असली है, कौन नकली। वे नकली मां के पास ले जाए गए। पैदा होते ही उसकी छाती से जाकर चिपके रहते हैं। वह मशीनी बंदरिया है, वह हिलती रहती है, बच्चे समझते हैं कि मां उनको हिला डुला कर झुला रही है। ऐसे बीस बंदर के बच्चों को नकली मां के पास पाला गया और उनको अच्छा दूध दिया गया। मां ने उनको अच्छी तरह हिलाया डुलाया, मां कूदती फांदती सब करती। बच्चे स्वस्थ दिखाई पड़ते थे। फिर वे बड़े भी हो गए। लेकिन वे सब बंदर पागल निकले, वे सब असामान्य (ःइदवतउं) साबित हुए। उनको दूध मिला, उनका शरीर अच्छा हो गया लेकिन उनका व्यवहार विक्षिप्त हो गया। वैज्ञानिक बड़े हैरान हुए कि इनको क्या हुआ? इनको सब तो मिला, फिर ये विक्षिप्त कैसे हो गए?
एक चीज, जो वैज्ञानिक की लेबोरेटरी में नहीं पकड़ी जा सकी थी वह उनको नहीं मिली। प्रेम उनको नहीं मिला। जो उन बीस बंदरों की हालत हुई वही साढ़े तीन अरब मनुष्यों की हो रही है। झूठी मां मिलती है, झूठा बाप मिलता है। नकली मां हिलती रहती है, नकली बात हिलता रहता है और ये बच्चे विक्षिप्त हो जाते हैं। और हम कहते हैं कि ये शांत नहीं होते, अशांत होते चले जाते हैं। ये छुरेबाजी करते हैं, ये लड़कियों पर एसिड फेंकते हैं, ये कालेज में आग लगाते हैं, ये बस पर पत्थर फेंकते हैं, ये मास्टर को मारते है। मारेंगे। मारे बिना इनको रास्ता नहीं। अभी थोड़ा थोड़ा मारते हैं, कल और ज्यादा मारेंगे। और तुम्हारे कोई शिक्षक, तुम्हारे कोई नेता, तुम्हारे कोई धर्मगुरु इनको नहीं समझा सकेंगे। क्योंकि सवाल समझाने का नहीं है आत्मा ही रुग्ण पैदा हो रही है। यह रुग्ण आत्मा प्यास पैदा करेगी, यह चीजों को तोड़ेगी, मिटेगी।
 तीन हजार साल से जो बात चलती थी वह अब चरम परिणति (बसपउंग) पर पहुंच रही है। सौ डिग्री तक हम पानी को गरम करते हैं, पानी भाप बनकर उड़ जाता है, निन्यानबे डिग्री तक पानी बना रहता है फिर सौ डिग्री पर भाप बनने लगता है। सौ डिग्री पर पहुंच गया है आदमियत का पागलपन। अब वह भाप बनकर उड़ना शुरू हो रहा है। मत चिल्लाइए, मत परेशान होइए! बनने दीजिए भाप और उपदेश देते रहिए, और आपके साधु संत समझाया करें अच्छी अच्छी बातें, और गीता की टीकाएं करते रहें। करते रहो प्रवचन, और टीका गीता पर, और दोहराते रहो पुराने शब्दों को। यह भाप बननी बंद नहीं होगी। यह भाप बनती तब बंद होगी जब जीवन की पूरी प्रक्रिया को हम समझेंगे। समझेंगे कि कहीं कोई भूल हो रही है, कहीं कोई भूल गई है। और वह कोई आज की भूल हनीं है। चार पांच हजार साल की भूल है। शिखर (बसपउंग) पर पहुंच गई है इसलिए मुश्किल खड़ी हुई जा रही है।
ये प्रेम से रिक्त बच्चे जन्मते हैं और फिर प्रेम से रिक्त हवा में ही पाले जाते हैं। फिर वही नाटक ये दोहराएगा और फिर मम्मी और डैडी का पुराना खेल! वे बड़े हो जाएंगे, और फिर वही पुराना नाटक दोहराएंगे¬विवाह में बांधे जाएंगे, क्योंकि समाज प्रेम को आज्ञा नहीं देता। न मां पसंद करती है कि मेरी लड़की किसी को प्रेम करे। न बाप पसंद करते हैं कि मेरा बेटा किसी को प्रेम करे। न समाज पसंद करता है कोई किसी को प्रेम करे। प्रेम तो होना ही नहीं चाहिए। प्रेम तो पाप है। वह तो बिल्कुल ही योग्य बात नहीं है। विवाह होना चाहिए। फिर प्रेम नहीं होगा। फिर विवाह होगा। और पहिया वैसा का वैसा ही घूमता रहेगा।
आप कहेंगे कि जहां प्रेम होता है वहां भी कोई बहुत अच्छी हालत नहीं मालूम होती। नहीं मालूम होगी। क्योंकि प्रेम को आप जिस भांति मौका देते हैं उसमें प्रेम एक चोरी की तरह होता है, प्रेम एक सीक्रेसी की तरह होता है। प्रेम करने वाला डरते हुए प्रेम करते हैं। घबराएं हुए प्रेम करते हैं। चोरों की तरह प्रेम करते हैं, अपराधी की तरह प्रेम करते हैं। सारा समाज उनके विरोध में है, सारे समाज की आंखें उन पर लगी हुई हैं। सारे समाज के विद्रोह में वे प्रेम करते हैं। यह प्रेम भी स्वस्थ नहीं है, क्योंकि प्रेम के लिए स्वस्थ हवा नहीं है। इसके परिणाम भी अच्छे नहीं हो सकते।
प्रेम के लिए समाज को हवा पैदा करनी चाहिए। मौका पैदा करना चाहिए। अवसर पैदा करना चाहिए। प्रेम की शिक्षा दी जानी चाहिए, दीक्षा दी जानी चाहिए। प्रेम की तरफ बच्चों को विकसित किया जाना चाहिए क्योंकि वही उनके जीवन का आधार बनेगा, वही उनके पूरे जीवन का केंद्र बनेगा। उसी केंद्र से उनका जिन विकसित होगा। लेकिन उसकी कोई बात ही नहीं है, उससे हम दूर खड़े रहते हैं, आंखें बंद किए खड़े रहते हैं। न मां बच्चे से प्रेम की बात करती है, न बाप। न उन्हें कोई सिखाता है कि प्रेम हो तब तक तुम मत विवाह करना, क्योंकि वह विवाह गलत होगा, झूठा होगा, पाप होगा, वह सारी कुरूपता की जड़ होगी और सारी मनुष्यता को पागल करने का कारण होगा।
अगर मनुष्य जाति को परमात्मा के निकट लेना है तो पहला काम परमात्मा की बात मत करिए। मनुष्य जाति को प्रेम के निकट ले आइए। जीवन जोखिम के काम में है। न मालूम कितने खतरे हो सकते हैं। जीवन की बनी बनायी व्यवस्था में, न मालूम कितने परिवर्तन करने पड़ सकते हैं। लेकिन मत करिए परिवर्तन, यह समाज अपने ही हाथ मौत के किनारे पहुंच गया है इसलिए स्वयं मर जाएगा। यह बच नहीं सकता। प्रेम से रिक्त लोग ही युद्धों को पैदा करते हैं प्रेम से रिक्त लोग ही अपराधी बनते हैं। प्रेम से रिक्तता ही अपराध (बतपउपदंसपजल) की जड़ है, और सारी दुनिया में अपराधी फैलते चले जाते हैं।
जैसा मैंने आपसे कहा कि अगर किसी दिन जन्म विज्ञान पूरा विकसित होगा तो हम शायद पता लगा पाए कि कृष्ण का जन्म किन स्थितियों में हुआ। किस समस्वरता (भंतउवदल) में, कृष्ण के मां बाप ने किस प्रेम के क्षण में गर्भस्थापन (बवदबमचजपवद) किया इस बच्चे का, प्रेम के किस क्षण में यह बच्चा अवतरित हुआ, तो शायद हमें दूसरी तरफ यह भी पता चल जाए कि हिटलर किस अप्रेम के क्षण में पैदा हुआ होगा। मुसोलिनी किस क्षण पैदा हुआ होगा। तैमूरलंग, चंगेज खां किस अवसार पर पैदा हुए होंगे। हो सकता है कि यह पता चले कि चंगेज खां संघर्ष, घृणा और क्रोध से भरे मां बाप से पैदा हुआ हो। जिंदगी भर वह क्रोध से भरा हुआ है। वह जो क्रोध का मालिक वेग (वतपहदंस उवउमदजनउ) है वह उसको जिंदगी भर दौड़ाए चला जा रहा है। चंगेज खां जिस गांव में गया लाखों लोगों को कटवा दिया। तैमूरलंग जिस राजधानी में जाता दस दस हजार बच्चों को गर्दनें कटवा देता है। भाले में छिदवा देता। जुलूस निकालता तो दस हजार बच्चों की गर्दनें लटकी हुई होती भालों के ऊपर, पीछे तैमूर चलता, लोग पूछते, यह तुम क्या करते हो? तो वह कहता: ताकि लोग याद रखें कि तैमूर कभी इस नगरी में आया था। इस पागल को याद रखवाने की और कोई बात याद नहीं पड़ती थी! हिटलर ने जर्मनी मग साठ लाख यहूदियों की हत्या की। पांच सौ यहूदी रोज मारता रहा। स्टैलिन ने रूस में सात लाख लोगों की हत्या की। जरूर इनके जन्म के साथ कोई गड़बड़ हो गई। जरूर ये जन्म के साथ ही पागल पैदा हुए। उन्माद (छमनतवेपे) इनके जन्म के साथ इनके खून में आया और फिर वह फैलता चला गया। और पागलों में बड़ी ताकत होती है। पागल कब्जा कर लेते हैं और पागल दौड़कर हावी हो जाते हैं¬धन पर, पद पर यश पर। और फिर सारी दुनिया को विकृत करते हैं क्योंकि वे ताकतवर होते हैं।
यह जो पागलों ने दुनिया बनायी है यह दुनिया तीसरे महायुद्ध के करीब आ गयी है। सारी दुनिया मरेगी। पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या की गयी, दूसरे महायुद्ध में साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या की गयी। अब तीसरे में कितनी की जाएगी? मैंने सुना है¬जब आइंस्टीन मर कर भगवान के घर पहुंचा तो भगवान के घर पहुंचा तो भगवान ने उससे कहा कि मैं बहुत घबराया हुआ हूं। क्या तुम तुझे तीसरे महायुद्ध के संबंध में कुछ बताओगे? क्या होगा? उसने कहा, तीसरे महायुद्ध के बाबत कहना मुश्किल है, चैथे के संबंध में कुछ जरूर बता सकता हूं। भगवान ने कहा: तीसरे के बाबत नहीं बता सकते, चैथे के बाबत कैसे बताओगे? आइंस्टीन ने कहा, एक बात बता सकता हूं चैथे के बाबत, कि चैथा महायुद्ध कभी नहीं होगा क्योंकि तीसरे में सब आदमी समाप्त हो जाएंगे। चैथे के होने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि यह करने वाले ही नहीं बचेंगे। तीसरे के बाबत कुछ भी कहना मुश्किल है कि ये साढ़े तीन अरब पागल आदमी क्या करेंगे? कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या स्थिति होगी।
प्रेम से वियुक्त मनुष्यमात्र एक दुर्घटना है, मैं यही निवेदन करना चाहता हूं। वैसे मेरी बातें बड़ी अजीब लगी होंगी लगी होंगी आपको क्योंकि ऋषि मुनि इस तरह की बातें करते ही नहीं। मेरी बात बहुत अजीब लगी होगी आपको। शायद यहां आते समय आपने सोचा होगा कि मैं भजन कीर्तन का कोई नुस्खा बताऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई माला फेरने की तरकीब बताऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई आपको ताबीज दे दूंगा जिसको बांधकर आप परमात्मा से मिल जाएंगे, नहीं, ऐसी कोई बात मैं आपको नहीं बता सकता हूं। ऐसे बताने वाले सब बेईमान हैं, धोखेबाज हैं। समाज को उन्होंने बहुत बर्बाद किया है। समाज की जिंदगी को समझने के लिए मनुष्य के पूरे विज्ञान को समझना जरूरी है। परिवार को, दंपति को, समाज को¬उसकी पूरी व्यवस्था को समझना जरूरी है कि कहां क्या गड़बड़ हुई है। अगर सारी दुनिया यह तय कर ले कि हम पृथ्वी को एक प्रेम का घर बनाएगे, झूठे विवाह का नहीं। वैसे प्रेम से विवाह निकले वह अलग बात है। जितनी कठिनाइयां होंगी, मुश्किल होंगी, अव्यवस्था होगी उसको सम्हालने का हम कोई उपाय खोजेंगे, उस पर विचार करेंगे लेकिन दुनिया से हम यह अप्रेम का जो जाल है उसको तोड़ देंगे और प्रेम की एक दुनिया बनाएंगे तो शायद पूरी मनुष्य जाति बच सकती है और स्वस्थ हो सकती है।
मैं यह भी कहना चाहता हूं कि अगर सार जगत में प्रेम के केंद्र पर परिवार बन जाए तो जो कल्पना हजारों वर्षों से रही है, आदमी को महामानव (ेनचमतउंद) बनाने की, वह जो नीत्से कल्पना करता है और अरविंदा कल्पना करते हैं, वह कल्पना पूरी हो सकती है। लेकिन न तो अरविंद की प्रार्थनाओं से और न नीत्से के द्वारा पैदा किए गए फैसिज्म से वह सपना पूरा हो सकता है। अगर पृथ्वी पर हम प्रेम की प्रतिष्ठा को वापस लौट लाए। अगर प्रेम जीवन में वापस लौट आए, सम्मानित हो जाए और प्रेम एक आध्यात्मिक मूल्य ले ले तो नए मनुष्य का निर्माण हो सकता है¬नयी संतति का, नयी पीढ़ियों का, नए आदमी का। और वह आदमी, वह बच्चा, वह भ्रम जिसका पहला अणु प्रेम से जन्मेगा विश्वास किया जा सकता है, आश्वासन दिया जा सकता है कि उसकी अंतिम श्वास परमात्मा में निकलेगी।
प्रेम है प्रारंभ, परमात्मा है अंत। वह अंतिम सीढ़ी है। जो प्रेम को ही नहीं पता है वह परमात्मा को तो पा ही नहीं सकता, यह असंभावना है। लेकिन जो प्रेम में दीक्षित हो जाता है और प्रेम में विकसित हो जाता है, और प्रेम के प्रकाश में चलता है और प्रेम के फूल जिसकी श्वास बन जाते हैं, और प्रेम जिसका अणु-अणु बन जाता है और जो प्रेम में बढ़ता जाता है, एक दिन वह पाता है कि प्रेम की जिस गंगा में वह चला था वह गंगा अब किनारे छोड़ रही है और सागर बन रही है। एक दिन वह पाता है, कि गंगा के किनारे मिटते जाते है और अनंत सागर आ गया सामने। छोटी सी गंगा की धारा थी गंगोत्री में, छोटी सी प्रेम की धारा होती है शुरू में। फिर वह बढ़ती है, फिर वह बड़ी होती है, फिर वह पहाड़ों और मैदानों को पार करती है। और एक वक्त आता है कि किनारे छूटने लगते हैं। जिस दिन प्रेम के किनारे छूट जाते हैं उसी दिन प्रेम परमात्मा बन जाता है। जब तक प्रेम के किनारे होते हैं तब तक वह परमात्मा नहीं होता। गंगा, नदी रहती है जब तक वह इस जमीन के किनारे से बंधी होती है फिर किनारे छूटते हैं और सागर से मिल जाती है। फिर वह सागर ही हो जाती है।
प्रेम की सरिता है और परमात्मा का सागर है। लेकिन हम प्रेम की सरिता ही नहीं हैं हम प्रेम की नदिया ही नहीं हैं, और हम बैठे हैं हाथ जोड़े और प्रार्थनाएं कर रहे हैं कि हमको भगवान चाहिए! जो सरिता नहीं है वह सागर को कैसे पाएगा? सारी मनुष्य जाति के लिए पूरा आंदोलन चाहिए। पूरी मनुष्य जाति के आमूल परिवर्तन की जरूरत है। पूरा परिवार बदलने की जरूरत है। बहुत कुरूप है हमारा परिवार। वह बहुत सुंदर हो सकता है लेकिन केवल प्रेम के केंद्र पर ही। पूरे समाज को बदलने की जरूरत है और तभी एक धार्मिक मनुष्यता पैदा हो सकती है।
प्रेम प्रथम, परमात्मा अंतिम। क्यों प्रेम परमात्मा पर पहुंच जाता है? क्योंकि प्रेम है बीज और परमात्मा है वृक्ष। प्रेम का बीज ही फिर फूटता है और वृक्ष बन जाता है। सारी दुनिया की स्त्रियों से मेरा कहने का यह मन होता है, और खासकर स्त्रियों से, क्योंकि पुरुष के लिए प्रेम और बहुत सी जीवन की दिशाओं में एक दिशा है जब कि स्त्री के लिए प्रेम अकेली दिशा है। पुरुष के लिए प्रेम और बहुत से आयामों में एक आयाम है। उसके और के लिए प्रेम और बहुत से जीवन आयामों में एक आयाम है उसके और भी आयाम हैं व्यक्तित्व के, लेकिन स्त्री का एक ही आयाम, एक ही दिशा है और वह है प्रेम। स्त्री पूरी प्रेम है। पुरुष प्रेम भी है और दूसरी चीज भी है। अगर स्त्री का प्रेम विकसित हो और वह समझे प्रेम की कीमिया, प्रेम की रसायन तो वह बच्चों को दीक्षा दे सकती है प्रेम की। और गति दे सकती हैं प्रेम के आकाश में उठने की। उनके पंखों को वह मजबूत कर सकती है। लेकिन अभी तो हम काट देते हैं पंख। विवाह की जमीन पर सरको! प्रेम के आकाश में मत उड़ना! जरूर आकाश में उड़ना जोखिम होता है और जमीन पर चलना आसान है। लेकिन जो जोखिम नहीं उठाते हैं वे जमीन पर रेंगने वाले कीड़े हो जाते हैं और जो जोखिम उठाते हैं वे दूर अनंत आकाश में उड़ने वाले बाज पक्षी सिद्ध होते हैं।
आदमी रेंगता हुआ कीड़ा हो गया है क्योंकि हम सिखा रहे हैं, कोई भी जोखिम (त्तपो) न उठाना, कोई खतरा (क्ंदहमत) मत उठाना! अपने घर का दरवाजा बंद करो और जमीन पर सरको! आकाश मग मत उड़ना! जबकि होना यह चाहिए कि हम प्रेम की जोखिम सिखाए, प्रेम का खतरा सिखाए, प्रेम का अभय सिखाए और प्रेम के आकाश में उड़ने के लिए उनके पंखों को मजबूत करें और चारों तरफ जहां भी प्रेम पर हमला होता हो उसके खिलाफ खड़े हो जाए, प्रेम को मजबूत करें, ताकत दें।
प्रेम के जितने दुश्मन खड़े हैं, दुनिया में उनमें नीतिशास्त्री भी हैं, हालांकि थोथे हैं वे नीतिशास्त्री, क्योंकि प्रेम के विरोध में जो हो वह क्या खाक नीतिशास्त्री होगा! साधु संन्यासी खड़े हैं प्रेम के विरोध में, क्योंकि वे कहते हैं कि सब पाप है, यह सब बंधन है, इसको छोड़ो और परमात्मा की तरह चलो। हद हो गई। जो आदमी कहता है कि प्रेम को छोड़कर परमात्मा की तरफ चलो, वह परमात्मा का शत्रु है, क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त तो परमात्मा की तरफ जाने का कोई रास्ता ही नहीं है। बड़े बूढ़े भी खड़े हैं प्रेम के विपरीत क्योंकि उनका अनुभव कहता है कि प्रेम खतरा है। लेकिन अनुभव लोगों से जरा सावधान रहना क्योंकि जिंदगी में कभी कोई नया रास्ता वे नहीं बनने देते। वे कहते हैं कि पुराने रास्ते का हमें अनुभव है, हम पुराने रास्ते पर चले हैं, उसी पर सबको चलना चाहिए। लेकिन जिंदगी को रोज नया रास्ता चाहिए। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई रेलगाड़ी नहीं है कि बनी पटरियां पर दौड़ती रहे। और अगर दौड़ेगी तो एक मशीन हो जाएगी। जिंदगी तो एक सरिता है जो रोज एक नया रास्ता बना लेती है¬पहाड़ों में, मैदानों में, जंगलों में। अनूठे रास्ते से निकली है, अनजान जगत में प्रवेश करती है और सागर तक पहुंच जाती है।
नारियों के सामने आज एक ही काम है। वह काम यह नहीं है कि अनाथ बच्चों को पढ़ा रहीं है बैठकर। तुम्हारे बच्चे भी तो सब अनाथ हैं। नाम के लिए वे तुम्हारे बच्चे हैं। न उनकी मां है, न उनका बाप। समाज सेवक स्त्रियां सोचती हैं कि अनाथ बच्चों का अनाथालय खो दिया तो बहुत बड़ा काम कर दिया। उनको पता नहीं कि उनके बच्चे भी अनाथ ही हैं। तुम दूसरों के अनाथ बच्चे को शिक्षा देने जा रही हो तो पागल हो। तुम्हारे बच्चे खुद अनाथ (वतचींदस) हैं। कोई नहीं हैं उनका, न तुम हो, न तुम्हारे पति। न उनकी मां है और न उनको कोई है, क्योंकि वह प्रेम ही नहीं है जो उनको सनाथ बनाता। सोचते हैं हम आदिवासी बच्चों को जाकर शिक्षा दे दें। वहां तुम जाकर आदिवासी बच्चों को शिक्षा दो और यहां तुम्हारे बच्चे धीरे-धीरे आदिवासी हुए चले जा रहे हैं! ये जो बीटल हैं, बीटनिक हैं, फलां हैं ढिकां हैं, फिर से आदमी के आदिवासी होने की शकलें हैं। तुम सोचते हो, स्त्रियां सोचती हैं कि जाए और सेवा करें। जिस समाज में प्रेम नहीं है उस समाज में सेवा कैसे हो सकती है? सेवा तो प्रेम की सुगंध है।
बस आज तो यही कहना चाहूंगा। आज तो सिर्फ एक धक्का आपको दे देना चाहूंगा ताकि आपके भीतर चिंतन शुरू हो जाए। हो सकता है मेरी बातें आपको बुरी लगें। लगें तो बहुत अच्छा है। हो सकता है मेरी बातों से आपको चोट लगे, तिलमिलाहट पैदा हो। भगवान करें जितनी ज्यादा हो जाए उतना अच्छा, क्योंकि उससे कुछ सोच विचार पैदा होगा। हो सकता है मेरी सब बातें गलत हों इसलिए मेरी बात मान लेने की कोई भी जरूरत नहीं है, लेकिन मैंने जो कहा है उस पर आप सोचना। मैं फिर दोहरा देता हूं उन दो चार सूत्रों को और अपनी बात पूरी किए देता हूं।
आज तक का मनुष्य का समाज प्रेम के केंद्र पर निर्मित नहीं है इसी लिए विक्षिप्त है, पागलपन है, युद्ध हैं, आत्माएं हैं, अपराध हैं। प्रेम की जगह आदमी के एक झूठा स्थानापन्न (ढेमनकव ेनइेजपजनजम) विवाद ईजाद कर लिया है। विवाह के कारण वेश्याएं हैं, गुंडे हैं। विवाह के कारण शराब है, विवाह के कारण बेहोशिया है। विवाह के कारण भागे हुए संन्यासी हैं। विवाह के कारण मंदिरों में भजन करने वाले झूठे लोग हैं। जब तक विवाह है तब तक यह रहेगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विवाह मिट जाए, मैं यह कह रहा हूं कि विवाह प्रेम से निकले। विवाह से प्रेम नहीं निकलता है, प्रेम से विवाह निकले तो शुभ है। विवाह से यदि प्रेम की निकालने की कोशिश भी की जाए तो वह प्रेम झूठा होगा, क्योंकि जबरदस्ती कभी भी कोई प्रेम नहीं निकाला जा सकता है। प्रेम तो निकलता है या नहीं निकलता है। जबरदस्ती नहीं निकाला जा सकता है।
 तीसरी बात मैंने यह कहीं कि जो मां बाप प्रेम से भरे हुए नहीं हैं उनके बच्चे जन्म से ही विकृत (ढमतअमतजमक) एग्नार्मल, रुग्ण और बीमार पैदा होंगे। मैंने यह भी कहा कि जो मां बाप, जो पति पत्नी, जो प्रेम युगल प्रेम से संभोग में लीन नहीं होते हैं वे केवल उन बच्चों को पैदा करेंगे जो शरीरवादी होंगे, भौतिकवादी होंगे जिनकी जीवन की आंख पदार्थ से ऊपर कभी नहीं उठेगी, जो परमात्मा को देखने के लिए अंधे पैदा होंगे। आध्यात्मिक रूप से अंधे बच्चे हम पैदा कर रहे हैं।
 मैंने चैथी बात आपसे यह कही कि मां बाप अगर एक दूसरे को प्रेम करते हैं तो ही वे बच्चों की मां बनेंगी, बाप बनेंगे क्योंकि बच्चे उनकी ही प्रतिध्वनियां हैं, वे आया हुआ नया बसंत हैं, वे फिर से जीवन के दरख्त पर लगी हुई कोंपलें हैं। लेकिन जिसने पुराने बसंत का ही प्रेम नहीं किया वह नए बसंत को कैसे प्रेम करेगा?
और अंतिम बात मैंने यह कि प्रेम शुरुआत है और परमात्मा शिखर। प्रेम में जीवन शुरू हो तो परमात्मा में पूर्ण होता है। प्रेम बीज बने तो परमात्मा अंतिम वृक्ष की छाया बनता है। प्रेम गंगोत्री हो तो परमात्मा का सागर उपलब्ध होता है।
जिसके भी मन की कामना हो कि परमात्मा तक जाए वह अपने जीवन को प्रेम के गीत से भर ले। और जिसकी भी आकांक्षा हो कि पूरी मनुष्यता परमात्मा के जीवन से भर जाए, वह मनुष्यता को प्रेम की तरफ ले जाने के मार्ग पर जितनी बाधाएं हों उनको तोड़े, मिटाए और प्रेम को उन्मुक्त आकाश दे ताकि एक दिन नए मनुष्य का जन्म हो सके।
पुराना मनुष्य रुग्ण था, कुरूप था, अशुभ था। पुराने मनुष्य ने अपने आत्मघात का इंतजाम कर लिया है। वह आत्महत्या कर रहा है। सारे जगत में वह एक साथ आत्मघात कर लेगा। जागतिक आत्मघात। (न्नदपअमतेंस एनपबपकम) का उसने उपाय कर लिया है। लेकिन अगर मनुष्य को बचाना है तो प्रेम की वर्षा, प्रेम की भूमि और प्रेम के आकाश को निर्मित कर लेना जरूरी है।

समाप्त 

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