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सोमवार, 3 सितंबर 2018

प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-01 

प्रेम गंगा-(विविध)-ओशो 

पहला-प्रवचन

विचार का स्वागत

मेरे प्रिय आत्मन्!
कल संध्या जीवन-क्रांति के सूत्रों पर पहले सूत्र के संबंध में कुछ बातें की थीं। वह पहला सूत्र थाः अतीत से मुक्ति। जो व्यक्ति पीछे लौट कर देखते रहते हैं वे आगे देखने में असमर्थ हो जाते हैं--और जीवन सदा आगे की ओर है, पीछे की ओर नहीं। जो पीछे है, उसका ही नाम मृत्यु है। पीछे वह है, जो मर चुका है। आगे वह है, जो जीवंत है। पीछे की ओर जिनकी दृष्टि है वे मृत्यु को देखने में संलग्न हो जाते हैं, और जो मृत्यु को देखते हैं वे धीरे-धीरे मर जाएं तो आश्चर्य नहीं।

जीवन का दर्शन आगे है--वहां जहां अभी सूरज उगेगा; वहां जहां फूल अभी खिलेंगे; वहां जहां जीवन होगा। वहां नहीं जहां पद-चिह्न रह गए हैं; जहां हम कभी थे, जहां कभी फूल खिले और जहां कभी सूरज निकला, जहां अब रास्ते की उड़ती धूल रह गई है, वहां जीवन नहीं है। चाहे व्यक्ति हो और चाहे राष्ट्र, पीछे की तरफ देखने वाले लोग धीरे-धीरे जड़ हो जाते हैं। भारत भी इसी भांति जड़ हो गया। इसलिए पहली बात मैंने कहीः पीछे की तरफ देखने से मुक्ति चाहिए।
दूसरा सूत्र आज मैं आपसे कहना चाहता हूं।


दिल्ली में पुरी के शंकराचार्य ठहरे हुए थे। एक सुबह एक सज्जन उनके दर्शन को गए और दर्शन के बाद हाथ जोड़ कर उनसे निवेदन कियाः हमारी एक छोटी सी समिति है, जहां हम ब्रह्मज्ञान पर विचार करते हैं, आप कृपा करें और हमारे बीच चल कर हमें उदबोधन दें। शंकराचार्य ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा और कहाः कोट-पतलून और टाई पहन कर ब्रह्मज्ञान पाने की कोशिश कर रहे हो? तो हमारे ऋषि-मुनि नासमझ थे जिन्होंने कोट-पतलून और टाई नहीं पहनी?
वह व्यक्ति तो घबड़ा गया होगा। आस-पास दस-बीस और लोग बैठे होंगे। इस देश में नासमझों की तो कोई कमी नहीं है, वे कहीं भी इकट्ठे हो जाते हैं। वे सब मुग्ध-भाव से प्रसन्न हुए होंगे कि शंकराचार्य ने कितनी अदभुत ज्ञान की बात कही है। और तब शंकराचार्य ने कहा कि कृपा करके अपनी टोपी निकालिए, टोपी के भीतर चोटी है या नहीं? अगर चोटी नहीं है तो ब्रह्मज्ञान कभी भी नहीं हो सकता। और बात यहीं तक नहीं रुकी। जो अंतिम बात उन्होंने कही वह तो बहुत हैरानी की है, और यह अगर मैंने किसी और से सुनी होती तो शायद मैं विश्वास भी नहीं करता, लेकिन कल्याण ने यह पूरी कथा छापी है और बड़ी प्रशंसा से छापी है। तीसरी बात उन्होंने यह कही कि अंत में अब यह बताइए कि पेशाब खड़े होकर करते हैं कि बैठ कर?
खड़े होकर पेशाब करने वालों को ब्रह्मज्ञान की कोई उपलब्धि नहीं होती? यह मुझे पहली बार पता चला कि ब्रह्मज्ञान पाने में पेशाब करने के ढंग का भी संबंध है!
ऐसी मूढ़तापूर्ण बातों पर भी हम विश्वास किए चले जाते हैं, ऐसी मूढ़तापूर्ण बातों को भी हम सहे चले जाते हैं। ऐसी मूढ़तापूर्ण बातों पर भी न संदेह पैदा होता है, न विचार पैदा होता है, न विद्रोह पैदा होता है, न हमारे मानस में कोई बगावत आती है, न कोई इनकार होता है।
इससे क्या समझा जाए? क्या हमने सोचना बंद कर दिया है? निश्चित ही शायद हजारों वर्ष हुए तबसे हमने सोचने का श्रम नहीं उठाया है। हम अंधे की तरह विश्वास करने वाली कौम हो गए हैं। और जो कौम आंख बंद करके विश्वास करने लगती है उस कौम का कोई विकास संभव नहीं होगा।
विकास का द्वार हैः विचार। आत्मघात की पद्धति हैः विश्वास। मरना हो, तो विश्वास करना बहुत उचित है। जीना हो, तो विचार करना जरूरी है। विचार और विश्वास के रास्ते विपरीत रास्ते हैं। और जो देश विश्वास के रास्ते पर चला जाता है, बिलीफ के रास्ते पर चला जाता है, जो कहता है, हमें सोचने की जरूरत नहीं है, हमें तो श्रद्धा करने की जरूरत है; हमें विवेक की जरूरत नहीं है, हमें तो विश्वास की जरूरत है; हमें तो कोई मार्ग दिखाए, हमें तो कोई बताए कि हम क्या मानें और हम मान लेंगे--ऐसी जिस देश की आत्मा हो जाए, उस देश की आत्मा में जंग लग जाती है। उस देश की आत्मा में जहां विचार की चिंगारी नहीं, जहां संदेह की आग नहीं, जहां सोचने की क्षमता से इनकार कर दिया गया है, वहां कोई क्रांति कैसे हो सकती है?
मैंने सुना है, एक अदभुत व्यक्ति हुआ, उसका नाम था, मुल्ला नसरुद्दीन। उसकी जिंदगी की बहुत सी कहानियां हैं। एक दिन सुबह-सुबह एक वृक्ष पर चढ़ कर वह कुल्हाड़ी से वृक्ष को काट रहा है। और जिस शाखा पर बैठा है, उसी शाखा को काट रहा है। शाखा कट जाएगी तो नीचे गिरेगा, जान खतरे में पड़ सकती है। नीचे से निकलने वाले एक राहगीर ने ऊपर की तरफ आंख उठा कर देखा कि यह पागल क्या कर रहा है? और जब देखा कि गांव का सबसे बुद्धिमान आदमी, मुल्ला नसरुद्दीन यह कर रहा है तो उसने चिल्ला कर कहा कि हद हो गई, अगर कोई मूढ़ ऐसा करता होता तो ठीक था, तुम यह क्या कर रहे हो? जिस शाखा पर बैठे हो उसी को काट रहे हो? गिरोगे, मर जाओगे।
लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन तो अपने को बुद्धिमान समझता था। उसने कहा, जाओ, जाओ अपने रास्ते पर, जो सलाह बिना मांगे दी जाती है वह सलाह कभी ली नहीं जाती। और यह भी कहा कि तुमने मुझे बुद्धू, बुद्ध‏ु समझा हुआ है, मेरे पास अपनी बुद्धि है। और वह उस कुल्हाड़ी से लकड़ी को काटता रहा। आखिर वह शाखा कट गई और मुल्ला जमीन पर गिरा। गिरने पर उसे खयाल आया कि वह आदमी ठीक कहता था, मैंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया तो बहुत गलती की।
दौड़ कर वह भागा और दूर जाकर रास्ते पर उस आदमी को पकड़ा और उसके पैर छुए और क्षमा मांगी और कहा, मुझसे बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं किया। उस आदमी ने कहाः विश्वास का सवाल नहीं था, तुमने विचार ही नहीं किया। यह विश्वास का सवाल नहीं था कि तुम मुझ पर विश्वास करो, यह सवाल था कि तुम विचार करो कि तुम जो कर रहे हो, वह क्या कर रहे हो? लेकिन तुमने विचार करने से इनकार कर दिया। और अब तुम दूसरी भूल कर रहे हो कि अब तुम मेरे पैर पकड़ कर मुझ पर विश्वास करने की कोशिश कर रहे हो। तब भी तुमने विचार नहीं किया था, अब भी तुम विचार नहीं कर रहे हो।
लेकिन नसरुद्दीन ने कहाः छोड़ो ये बातें, अब तो मुझे मेरा गुरु मिल गया। जिसने भविष्य की तक बात बता दी, जिसने यह बता दिया कि तुम गिरोगे वृक्ष से, भविष्य को कौन जानता है! लेकिन तुम भविष्य को भी जानते हो। अब मैं इसलिए आया हूं तुमसे पूछने कि मेरी मौत कब होगी? यह तुम बता दो, क्योंकि तुम भविष्य को जानने वाले हो। उस आदमी ने कहाः मैं कोई भविष्य को जानने वाला नहीं हूं। और वह कोई भविष्य को जानने की बात न थी, सीधी-साफ थी कि जिस शाखा पर बैठ कर कुल्हाड़ी चला रहे हो, अगर उसी को काटोगे तो गिरोगे और चोट खाओगे। लेकिन मुल्ला कैसे मानने वाला था? उसने जोर से पैर पकड़ लिए और कहा कि जब तक मेरी मौत का न बताओगे, मैं तुम्हें छोडंूगा नहीं। माना ही नहीं। तो उस आदमी ने गुस्से में कहा कि अभी मर जाओगे, जाओ।
वह आदमी तो चला गया, मुल्ला ने सोचा कि यह आदमी तो जो भी कहता है ठीक ही कहता है। वह उसी वक्त गिर गया और मर गया। आस-पास से लोग आए और उसको उठा कर उसकी अरथी को मरघट की तरफ ले जाने लगे। लेकिन बीच में एक रास्ता आता था--दोराहा, जहां से एक रास्ता पश्चिम, एक पूरब की तरफ से जाता था। वे अरथी को ले जाने वाले लोग सोचने लगे कि पूरब से चलें या पश्चिम से, मरघट की तरफ कौन सा रास्ता जल्दी पहुंचाता है? मुल्ला ने ऊपर से सिर उठाया अरथी के और कहा कि मैं मर चुका हूं, अगर मैं जिंदा होता तो तुम्हें बता देता। रास्ता तो पूरब का जो है वही जल्दी पहुंचता है, जब मैं जिंदा था तो पूरब के रास्ते से ही जाता था। लेकिन अब चूंकि मैं मर चुका हूं, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं।
लोगों ने उसकी अरथी नीचे पटक दी और कहा कि तुम कैसे मूढ़ हो? जब तुम बोल रहे हो तो तुम जिंदा हो। उसने कहाः यह कभी नहीं हो सकता। मैंने अपने गुरु पर विश्वास कर लिया है। और मेरे गुरु कभी भूल नहीं करते, कभी झूठ नहीं बोलते। भविष्य की बातें बता देते हैं। उन्होंने कहा कि तुम अभी मर जाओगे, मैं मर गया। अब मैं जिंदा नहीं हूं। अब कोई लाख कहे, मैं विश्वास नहीं छोड़ सकता। मैं तो अपने गुरु के चरणों को पकड़े हुए हूं, उन्होंने जो कहा है वह ठीक कहा है।
इस मुल्ला नसरुद्दीन पर हमें हंसी आती है। लेकिन शायद हमें पता नहीं कि वह यह कहानी हम पर हंसने के लिए लिख गया है। हम सबकी हालत ऐसी ही है। जीवन के तथ्यों को देखने की हमारी तैयारी नहीं। वह आदमी जिंदा है, वह आदमी बोल रहा है। लेकिन वह कहता है चूंकि मेरे गुरु ने कह दिया है, इसलिए मैं मर गया हूं। जीवित, जीवंत होते हुए भी, जीते हुए भी इस तथ्य पर देखने की उसकी तैयारी नहीं है। लेकिन जो कहा गया है उस पर विश्वास की तैयारी है। हम भी जो है उसे नहीं देख रहे हैं, जो कहा गया है और जो हमने विश्वास कर लिया है; उसको ही देखे चले जा रहे हैं, उसको ही दोहराए चले जा रहे हैं। और कोई हमें लाख बताए कि जिंदगी कुछ और है, तो भी हम मानने को तैयार नहीं हैं।
हम सबको दिखाई पड़ती है कि चारों तरफ की जो जिंदगी हैः सच है, यथार्थ है। लेकिन हमारी किताबों में लिखा है कि बाहर का जो जगत है, वह माया है। (अस्पष्ट...23: 33) हम वही दोहराए जा रहे हैं कि ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। और जगत चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है। चारों तरफ जगत अपने पूरे यथार्थ में मौजूद है। लेकिन किताब में लिखा हुआ है कि जगत माया है और ब्रह्म सत्य है, हम वही दोहराए चले जा रहे हैं। ब्रह्म हमें कहीं पर नहीं दिखाई पड़ रहा, जगत हमें प्रतिपल दिखाई पड़ रहा है।
जो दिखाई पड़ रहा है उसे इनकार कर रहे हैं, जो नहीं दिखाई पड़ रहा है उसकी गवाही भरे चले जा रहे हैं। आश्चर्यजनक है यह बात। और इस भांति का अंधापन लेकर अगर कोई कौम चलेगी तो उस कौम का कोई सुंदर भविष्य नहीं हो सकता है। न अतीत सुंदर था, न वर्तमान सुंदर है और न भविष्य सुंदर हो सकता है।
जीवन कैसा है? जीवन के सत्य कैसे हैं? उन्हें वैसे ही देखना जरूरी है अगर उन्हें बदलना हो। अगर किसी दिन ब्रह्म को भी खोजना हो, तो जगत को माया कह कर उसे नहीं खोज सकते हैं आप। अगर ब्रह्म को भी खेाजना हो तो जगत में जो सत्य है, उसकी खोज करके ही उसे भी खोजा जा सकता है। सत्य की खोज से ही अंततः हम सत्य तक पहंुच सकते हैं। कल्पनाओं की घोषणाओं से और विश्वासों के अंबार लगा लेने से कुछ भी नहीं हो सकता।
लेकिन हम सब, जो दिखाई पड़ता है उसे, उसेे मानने की हमारी उतनी तैयारी नहीं है जो हमें कहा गया है। यह अंधापन दूसरा अवरोध है जो जीवन में क्रांति आने के मार्ग पर बाधा बन कर खड़ा हो गया है। विश्वास से मुक्ति आवश्यक है। और क्यों मुक्ति आवश्यक है? ताकि विचार का प्रवाह, ताकि विचार की प्रक्रिया, ताकि विचार का जन्म हो सके।
विचार और विश्वास के संबंध में थोड़ी बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
विश्वास का अर्थ हैः अंधापन। विश्वास का अर्थ हैः मैं नहीं, दूसरा जो कह रहा है वह ठीक है। विश्वास का अर्थ हैः अपने को इनकार करना और दूसरे को स्वीकार करना। विश्वास का अर्थ हैः उस चुनौती को इनकार करना जिसने विचार का मौका दिया था। विश्वास का अर्थ हैः समस्या खड़ी है सामने उसे न देखना, समाधान बताया किसी ने उसे ही पकड़ कर दोहराए चले जाना।
मैंने सुना है, जापान के एक छोटे से गांव में दो मंदिर थे। एक पूरब का मंदिर था, एक पश्चिम का मंदिर था। दोनों मंदिरों में बहुत झगड़ा था। जैसा कि मंदिरों में झगड़ा होता है। आज तक पृथ्वी पर ऐसा नहीं हो सका कि मंदिरों में झगड़ा न हो। मंदिर कभी भी मित्रता नहीं बना पाए। मंदिरों के बीच कोई मैत्री नहीं है। मंदिर दुश्मन हैं, और मंदिरों की दुश्मनी बहुत महंगी पड़ी है। क्योंकि जब जमीन पर मंदिर ही दुश्मन हो तो और कौन सी चीजें दोस्त हो सकती हैं?
उन दोनों मंदिरों में भी भारी झगड़ा था। एक मंदिर का पुरोहित दूसरे मंदिर के पुरोहित को देखना भी पसंद नहीं करता था। उन दोनों पुरोहितों के पास दो छोटे बच्चे हैं। दोनों पुरोहितों ने कह रखा है उन बच्चों से कि दूसरे मंदिर के बच्चे के साथ मत बोलना। हम बोलचाल पर नहीं है। हजारों साल से ये मंदिर आपस में नहीं बोलते-चालते हैं। लेकिन बच्चे बच्चे हैं। छोटे बच्चों को बिगाड़ना इतना आसान नहीं है। बूढ़े बिगाड़ने की कोशिश भी करें तो भी काफी समय लग जाता है। बच्चे कभी खेलते हुए एक-दूसरे मंदिर के पास भी पहंुच जाते थे। दोनों मंदिर के बच्चे कभी आपस में बात भी कर लेते थे।
एक दिन रास्ते पर पूरब के मंदिर का बच्चा जा रहा है बाजार की तरफ और पश्चिम के मंदिर के बच्चे ने पूछा, कहां जा रहे हो? उस बच्चे ने कहाः कहां जा रहा हूं? जहां हवाएं ले जाएं। दूसरा बच्चा ठगा खड़ा रह गया, उसे कुछ सूझा नहीं। उसने जाकर अपने गुरु को कहा कि आज दूसरे मंदिर के बच्चे से मैं हार गया हूं। मैंने पूछा था, कहां जा रहे हो? उसने कहा, जहां हवाएं ले जाएं। फिर मुझे कुछ भी न सूझा, उसने ऐसी कठिन बात कह दी। उसके गुरु ने कहाः यह बहुत बुरी बात है, हम कभी उस मंदिर से हारे नहीं। कल तुम फिर पूछना और जब वह कहे जहां हवाएं ले जाएं तो कहना कि अगर हवाएं ठहरी हों और चल न रही हों तो कहीं जाओगे कि नहीं? ताकि तुम जीत कर लौटो और वह हार कर लौटे।
दूसरे दिन वह बच्चा जाकर रास्ते के किनारे तैयार खड़ा हो गया। अब तैयार आदमी कभी भी बुद्धिमान नहीं होते। जो भी रेडीमेड है, और जिनके दिमाग में सब तैयार है, उनमें बुद्धि कभी नहीं होती। बुद्धिमान आदमी के पास बुद्धि होती है, तैयारी नहीं। बुद्धि एक दर्पण है। जिंदगी सवाल खड़ा करती है, बुद्धि के पास उत्तर तैयार नहीं होता, रखा हुआ नहीं होता कि निकाला और दे दिया। बुद्धि समस्या का साक्षात्कार करती है और जवाब पैदा होता है, उत्पन्न होता है; तैयार नहीं होता है।
वह बच्चा खड़ा हो गया रास्ते के किनारे। और तैयार रखे है अपना उत्तर। दूसरा बच्चा निकला, उसने पूछा, कहां जा रहे हो? उस बच्चे ने कहाः जहां पैर ले जाएं।
अब बहुत मुसीबत हो गई। क्योंकि उत्तर की तैयारी थी कि जहां हवाएं ले जाएं तो कह देंगे कि अगर हवाएं बंद हों तो क्या करोगे? लेकिन यह तो नया ही सवाल है कि जहां पैर ले जाएं, अब क्या करोगे? बंधा हुआ उत्तर हमेशा नई समस्या के सामने हार जाता है। समस्या रोज नई हो जाती है, उत्तर पुराना होता है। उत्तर बेतुका हो जाता है, उत्तर की कोई संगति नहीं रह जाती, कोई कंसिस्टेंसी नहीं होती।
वह लड़का फिर हार कर वापस लौट आया। अपने गुरु से कहा कि फिर हार गया, बड़ी मुश्किल हो गई। वह उस मंदिर का लड़का तो बहुत बेईमान है, वह तो बदल गया। कल तो कुछ कहता था, आज कुछ कहता है। उस पुजारी ने कहाः उस मंदिर के लोग हमेशा से बेईमान रहे हैं, उनकी बातों का कोई भरोसा नहीं है। वे हमेशा बदल जाते हैं।
सच तो यह है कि अगर बदलना बेईमानी है तो पूरी जिंदगी बेईमान है, भगवान बेईमान है। और जो नहीं बदलते वे ही ईमानदार हैं अगर, तो मरी हुई चीजें ही सिर्फ ईमानदार हो सकती हैं, जीवन कभी ईमानदार नहीं हो सकता।
लेकिन उस पुजारी ने कहाः फिर तैयार करो उत्तर। फिर भी उन्हें न सूझा कि तैयार उत्तर हमेशा हार जाते हैं। अब ठीक से तैयार रखो और जब वह कहे कि जहां पैर ले जाएं, तब कहना कि भगवान न करे कि कभी पैर लंगड़े हो जाएं, अगर पैर टूट गए तो फिर क्या होगा? वह लड़का फिर उत्तर तैयार करके उसी रास्ते पर खड़ा हो गया। फिर दूसरे दिन, फिर उस मंदिर से वह युवक निकला। उसने फिर पूछा है, कहां जा रहे हो? तैयार है उत्तर उसके पास आज; लेकिन फिर बदलाहट हो गई। उस लड़के ने कहाः कहां जा रहा हूं? बाजार, साग-सब्जी खरीदने जा रहा हूं। वह बंधा हुआ उत्तर फिर वहीं रह गया। वह हार फिर हो गई।
जीवन है सतत परिवर्तन, जीवन है रोज नया। और विश्वास सब पुराने हैं। कोई विश्वास नया नहीं है। विचार नया हो सकता है, विश्वास कभी नया नहीं हो सकता। न हिंदू का विश्वास नया हो सकता है, न मुसलमान का, न जैन का, न पारसी का, न सिक्ख का। किसी का विश्वास नया नहीं हो सकता, क्योंकि विश्वास आता है अतीत से, विश्वास आता है पीछे से, विश्वास आता है किसी और से। विश्वास है सीखा हुआ उत्तर, विश्वास है रेडीमेड दिमाग।
और जिस आदमी के पास ऐसे तैयार उत्तर हैं वह आदमी जीवंत समस्या का साक्षात्कार करने में असमर्थ हो जाता है। समस्या होती है नई और हम अपने पुराने खजाने में खोज करते हैं कि लाएं उत्तर। और हमें तब बड़ी परेशानी होती है, जब हम पाते हैं कि इसके लिए तो कोई उत्तर नही है तो या तो फिर हम अपने उत्तर के अनुकूल समस्या को शक्ल देने की कोशिश करते हैं, उसमें भी हम हार जाएंगे। और या फिर हम ठगे खड़े रह जाते हैं अपने समाधान को पकड़े और समस्या आगे बढ़ती चली जाती है। और जिंदगी मुश्किल में पड़ जाती है।
इस देश में ऐसा पिछले तीन-चार हजार वर्षों से निरंतर हुआ है। हमारे पास बहुत समाधान हैं, हमारे पास उत्तर की कमी नहीं है, हमारे पास शास्त्रों की कमी नहीं है, गुरुओं की कमी नहीं है। हमें सब बातें बता दी गई हैं; और हमारे साथ जो दुर्भाग्य है वह यह कि हमने सब बातें कंठस्थ कर ली हैं। और हम उन्हीं बातों के आधार पर जिंदगी में जो भी समस्या खड़ी होती है उसको हल करने की कोशिश करते हैं। हम विचार नहीं करते, हम अपने विश्वास को सामने खड़ा कर लेते हैं। और हमारा विश्वास कुछ भी नहीं कर पाता। क्योंकि विश्वास बासा है, समस्या ताजी और नई है। बासे उत्तर नये प्रश्नों के लिए अर्थहीन हैं।
नये प्रश्नों के लिए नये उत्तर चाहिए। नये उत्तर कहां से आएंगे? विश्वास कभी भी नये उत्तर नहीं दे सकता। नये उत्तर के लिए चाहिए विचार। और विचार का अर्थ हैः दूसरे पर निर्भर नहीं। विचार सदा अपने पर निर्भर होता है। विचार का अर्थ हैः स्वयं सोचना होगा। स्वयं सोचना होगा और इतनी तेजी से सोचना होगा कि समस्या बदल न जाए। नहीं तो हम सोचते बैठे रहें, और समस्या बदल जाए तो हम सोच कर भी निकालेंगे तो किसी अर्थ का नहीं होगा। मन ऐसा चाहिए--इतना विचारपूर्ण, सारे देश का, सारे समाज का, सारी समाज की प्रतिभा ऐसी चाहिए कि वह सोचने में त्वरित, इंटेंस थिंकिंग हो कि चीजें बदल न जाएं और हम देख पाएं।
सुभाष बाबू के एक भाई थे, शरदचंद्र। वे एक बार ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। कोई रात के तीन बजे होंगे, बाथरूम में गए हैं, हाथ-मुंह धो रहे हैं। नींद है, जल्दी अगले स्टेशन उतरना है। तैयारी करनी है, घड़ी खोल कर रख दी है। हाथ-मंुह धोया है, धक्का लगा, घड़ी सरक गई और संडास से नीचे गिर गई। कीमती घड़ी है, किसी मित्र ने पश्चिम से भेजी है। क्या करें? चेन खींची, एक मील गाड़ी आगे सरक आई है। कंडक्टर ने, गार्ड ने कहाः मुश्किल है इस अंधेरी रात में आपकी घड़ी को खोजना। कैसे पता चलेगा, कहां घड़ी है, कहां गिरी है? शरदचंद्र ने कहाः पता चल जाएगा, मैंने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे ही डाल दी थी। हवा चल रही है, सिगरेट जल रही होगी। और जहां सिगरेट पड़ी हो उसके एक फीट के आस-पास के घेरे में ही घड़ी होनी चाहिए। ज्यादा फासला नहीं होगा। आदमी दौड़ाया गया, और जलती सिगरेट के पास वह घड़ी पड़ी हुई मिल गई।
लोग पूछने लगे शरदचंद्र से, तुमने कैसे यह पता लगाया कि जलती हुई सिगरेट पीछे डाल दूं? किस किताब में पढ़ा, किस गुरु से पूछा? यह कहां से सीखा उत्तर? शरदचंद्र ने कहाः मेरी आदत ही किसी से कुछ सीखने की नहीं है। जब सवाल खड़ा हो तब पूरे प्राण से उसका मुकाबला करना है, और अगर पूरे प्राण से किसी भी सवाल का मुकाबला किया जाए तो ऐसा कोई सवाल नहीं है जिसका जवाब न हो, और ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो। और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो अगर समस्याओं से संघर्ष करे तो उसकी प्रतिभा से उत्तर आने शुरू न हो जाएं। क्योंकि प्रत्येक प्रतिभा के गहरे में स्वयं परमात्मा बैठा हुआ है।
लेकिन हम तो कभी भीतर से पूछते ही नहीं। हम तो पूछते हैं बाहर से, हम तो पूछते हैं दूसरे से। तो भीतर का परमात्मा तो सोया ही रह जाता है, उसको जगने की कोई जरूरत ही नहीं आती। विश्वास करने वाले आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता। क्योंकि जो आदमी विश्वास करता है उसके भीतर के परमात्मा को जगने का मौका ही नहीं मिलता।
मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूंः जो विचार करता है, और इतना तीव्र विचार करता है कि अपने सारे व्यक्तित्व को विचार की अग्नि में, सारे व्यक्तित्व के साथ कूद पड़ता है सोचने के लिए। उसका रोआं-रोआं, उसका कण-कण, उसके मन की सारी शक्ति सोचने लगती है। तब ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसका समाधान न हो। तब ऐसा कोई सवाल नहीं, जिसका जवाब न हो।
आदमी जो पूछ सकता है, वह आदमी उत्तर दे सकता है। आदमी जिस बात को उलझा सकता है, उसे आदमी सुलझा सकता है। लेकिन विचार की प्रक्रिया से यह संभव है, विश्वास की प्रक्रिया से नहीं। असल में विश्वास सिर्फ विचार से बचने का उपाय है। जो लोग विचार के श्रम से बचना चाहते हैं, वे विश्वास कर लेते हैं। वे कहते हैंः हम क्यों झंझट में पड़ें, जो जानता हो हम उसकी मानते हैं। और तब, तब वे जो स्वयं जान सकते थे, उसका मौका ही कभी नहीं आएगा। और ध्यान रहे, हम जिन शक्तियों का उपयोग करते हैं वे विकसित होती हैं, और जिनका हम उपयोग नहीं करते हैं वे विकसित नहीं होती हैं, पंगु हो जाती हैं, नष्ट हो जाती हैं।
एक-दो वर्ष तक बैठ जाएं और पैरों को मत चलाएं, फिर पैरों में लकवा लग जाएगा। एक-दो वर्ष तक अंधेरे में बैठ जाएं आंख बंद कर लें, फिर आंखें रोशनी खो देंगी। एक-दो वर्ष तक हम जिस अंग का भी उपयोग नहीं करेंगे, वही अंग व्यर्थ हो जाएगा। और विचार की प्रक्रिया का यह देश हजारों साल से उपयोग नहीं कर रहा है। तोे अगर हमारे विचार की क्षमता नष्ट हो गई हो, तो आश्चर्य नहीं है। और हम बचपन से...बच्चा पैदा हुआ तो मां-बाप यह चाहते हैं कि विश्वास करे, स्कूल में गुरु चाहता है विश्वास करे, सारा समाज चाहता है कि विश्वास करे। तो बच्चे के विचार करने की क्षमता को हम विकसित ही नहीं होने देते।
हम सब चाहते हैं कि विश्वास करो। बाप अपने बेटे से कहता है कि हम जो कहते हैं वह ठीक है, हमारा अनुभव है, हमारी उम्र है, हमने जाना है; तुम अभी क्या जानते हो? बाप थोपता है उसके ऊपर कि जो हम कहते हैं वह ठीक है, क्योंकि मैं बाप हूं। अब बाप होने से कोई बात कहीं ठीक होती है? बाप होने से किसी बात के ठीक होने का कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन ठीक हो तो भी बात का ठीक होना, न ठीक होना उतना मूल्यवान नहीं है जितना मूल्यवान यह है कि आप बच्चे की विचार की प्रक्रिया को रोक रहे हैं। आप उसे विश्वास करने के लिए मजबूर कर रहे हैं, आप उसको डरा रहे हैं, धमका रहे हैं, और बच्चा अगर मान लेगा आपकी बात तो इसलिए नहीं कि उसके विचार को जंच गई; इसलिए कि आप पिता हैं, नुकसान पहुंचा सकते हैं, भोजन रोक सकते हैं, चांटा मार सकते हैं, घर के बाहर निकाल सकते हैं। इन भयों के कारण वह आपकी बातें मान लेगा। और उस बच्चे की जिंदगी में विचार तो बंद हो जाएगा, भय की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
हम सब डरे हुए लोग हैं। हम सोचते ही नहीं हैं, हम इतने डर गए हैं कि सोचने का सवाल ही नहीं है। अगर हमारे मन में सवाल उठे कि भगवान है? हमें फौरन डर लगता है कि कहीं अगर हमने कहा कि नहीं है तो भगवान नाराज न हो जाए, कहीं नरक न भेज दे।
युनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं लड़के। अगर वैसे आप उनसे पूछिए तो वे बड़े विद्रोह की बातें करेंगे, अगर वैसे आप उनसे पूछिए तो वे किसी पुरानी बात को मानने को राजी नहीं होंगे, लेकिन परीक्षा के वक्त देखिए वे सब आस्तिक हो जाएंगे। हनुमानजी के मंदिर के सामने खड़े हैं। बी.एससी. पढ़ते हैं, एम. एससी. के विद्यार्थी हैं और हनुमानजी से कह रहे हैं कि नारियल चढ़ा देंगे। फियर! जहां भय पकड़ा और आप भी, और हम सब, जब स्वस्थ होते हैं, कोई परेशानी नहीं होती, भगवान-वगवान की हम चिंता नहीं करते। बीमारी आ जाए, दुख आ जाए, नौकरी छूट जाए, और एकदम भगवान की याद आती है। क्यों?
क्योंकि भगवान हमने विचारा थोड़े ही है, भगवान हमारे भीतर भय के साथ संयुक्त होकर बैठ गया है। हमने कुछ सोचा ही नहीं है कभी, हमारे भीतर तो फियर है, भय है। जब भय पकड़ता है बस तब हम हाथ जोड़ने लगते हैं। अभी पता चल जाए कि इंदौर के ऊपर बम गिरना है, फिर देखिए? मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में कितनी भीड़ हो जाएगी? अभी पता चल जाए कि बम गिरने वाला है, आपके घुटने एकदम जमीन में मुड़ जाएंगे, हाथ जुड़ जाएंगे आकाश की तरफ कि बचाओ, हे भगवान बचाओ!
मैंने सुना है, एक फकीर एक नाव से यात्रा कर रहा था। कोई दस-बीस लोग थे नाव में। सारे लोग दूर-दूर से बहुत सा धन कमा कर वापस लौटते थे, व्यापारी थे। कोई सोना लाया था, कोई हीरे-जवाहरात लाया था। बहुत कमाइयां थीं सबके पास। सब प्रतीक्षा में थे, कब नाव जमीन से लग जाए। एकाध दिन की देरी थी और जोर का तूफान आ गया। रात है अंधेरी, तूफान है खतरनाक। लहरें पानी की नाव के भीतर घुसने लगीं। खतरा है, बचना मुश्किल है। वे सारे के सारे, बीस के बीस लोग हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर अंधेरी रात में भगवान की तरफ आंख बंद किए हाथ जोड़े बैठे हैं, और चिल्ला कर कह रहे हैंः हमें बचाओ! हे भगवान हमें बचाओ! कोई कह रहा है कि मैं अपना सारा धन गरीबों में बांट दूंगा, कोई कह रहा है कि मैं अपने महल को धर्मशाला बना दूंगा, कोई कह रहा है मंदिर बना दूंगा, कोई कह रहा है कि जो भी मैं कमा कर लाया हूं सब जमीन पर अभी जाकर बांट दूंगा, लेकिन मेरे प्राण बचाओ!
उन्होंने, सारे लोगों ने उस फकीर से भी कहा कि तुम भी प्रार्थना करो। तुम तो फकीर हो, संन्यासी हो, तुम्हारी आवाज शायद ज्यादा ठीक से सुनाई पड़े भगवान को। लेकिन वह फकीर बैठा हुआ हंसता रहा, उसने प्रार्थना नहीं की। जब वे सारे प्रार्थना कर रहे थे, तभी वह फकीर एकदम से चिल्लाया कि सावधान! कहीं भय के कारण आश्वासन मत दे देना कि सब दे देंगे; मकान दे देंगे, मंदिर बना देंगे; क्योंकि जमीन दिखाई पड़ रही है, सूरज निकल रहा है। वे सारे के सारे लोग जल्दी से हाथ-पैर छोड़ कर खड़े हो गए--भगवान खत्म! वे वायदे खत्म! वे सब अपना सामान बांधने लगे और उन्होंने उस फकीर से कहाः तुमने अच्छा बचा दिया, हम तो बच गए, नहीं तो हम कह ही दे रहे थे कि सब दे देंगे। जिन्होंने कह दिया था, वे भी कहने लगे, कहने से क्या होता है?
जीवन के किसी सत्य से हमारा विचार का संबंध नहीं है। जीवन का सारा का सारा यह जो हमारा व्यापार है, वह सारा का सारा विश्वास पर और भय पर खड़ा हुआ है। और ध्यान रहे, विश्वास सदा भय पर खड़ा होता है। निर्भय व्यक्ति कभी विश्वास नहीं करता, विचार करता है। फियरलेस, अभय व्यक्ति जो डरता नहीं, वह विचार करता है। सिर्फ डरपोक, कायर विश्वास करते हैं, विचार नहीं करते।
इसलिए जो कौम जितना विश्वास करती है, उतनी ही कायर, डरी हुई कौम होती चली जाती है। यह हिंदुस्तान एक हजार साल तक गुलाम रहा, ऐसे ही नहीं। इसकी गुलामी के पीछे मानसिक कारण हैं। यह कौम विश्वास करने वाली कौम है। और विश्वास करने वाली कौम भयभीत कौम होती है। और भयभीत कौम को गुलाम बनाया जा सकता है। असल में जो आदमी विश्वास करता है, वह गुलाम होता ही है मेंटली। मानसिक रूप से वह गुलाम होता है। एक मेंटल स्लेवरी होती है उसकी, वह दूसरे का गुलाम है।
यह देश आज मुक्त तो हो गया है, लेकिन इसकी मानसिक दासता नहीं खो गई है। इसकी मानसिक दासता अपनी जगह खड़ी है। और उस मानसिक दासता के कारण अपनी जगह खड़े हैं। और जिन बीजों से मानसिक दासता पैदा हुई थीं, उनको हम पानी सींच रहे हैं। उनमें सबसे गहरा बीज है विश्वास का। लेकिन हम तो यह कहते हैं कि विश्वास बड़ा ऊंचा गुण है। क्यों कहते हैं यह?
गुरु समझाते हैं कि विश्वास नहीं करोगे तो भटक जाओगे। नेता समझाते हैं कि विश्वास करो। धर्म समझाते हैं विश्वास करो। सब समझाते हैं विश्वास करो। तो मैं यह कौन सी उलटी और गलत बात आपसे कह रहा हूं कि विश्वास नहीं, विचार करो? क्यों सारे लोग विश्वास के लिए कहते हैं? कुछ कारण हैं।
सबसे बड़ा कारण यह है कि अगर आदमियों का शोषण करना हो तो उन्हें विश्वासी बनाना जरूरी है। चाहे वह शोषण राजनीतिक नेता करे, चाहे धर्मगुरु करे, चाहे कोई और करे। जिनका भी शोषण करना हो, उन्हें विश्वास के जहर से उनके दिमाग को सुला देना एकदम जरूरी है। जो भी विश्वास करने लगता है वह किसी का भी गुलाम हो जाता है। वह किसी भी तरह की गुलामी झेल सकता है।
अब हिंदुस्तान में करोड़ों शूद्र हजारों वर्षों से गुलामी झेल रहे हैं। लेकिन किसी शूद्र ने कोई बगावत नहीं की। आश्चर्यजनक मालूम पड़ता है यह! इतने लंबे समय तक, इतने हजारों वर्षों तक करोड़ों-करोड़ों लोग जानवर की तरह जी रहे हैं। न उन्होंने बगावत की, न दूसरे लोगों को कोई बगावत सूझी कि कोई कहता कि नहीं, यह शूद्रों के साथ जो हो रहा है अन्याय है। कोई बगावत करता! नहीं, किसी को कोई खयाल ही पैदा नहीं हुआ।
हिंदुस्तान में हजारों वर्षों से करोड़ों स्त्रियां गुलामी की हालत में हैं, लेकिन न स्त्रियों को कोई खयाल है, न किसी पुरुष को कोई खयाल है कि यह गुलामी है। पति कहलाता है स्वामी, और पत्नी उसके नीचे लिखती है चिट्ठी में--आपकी दासी। और किसी को कोई फिकर नहीं कि यह सब क्या हो रहा है? और पत्नी समझती है कि बहुत सम्मान में लिख रही है दासी, और पति देव समझते हैं कि बहुत आदर की बात हो रही है यह। यह खतरनाक बात है।
लेकिन गुलामी का, विश्वास का हमारा भाव इतना गहरा और पुराना हो गया कि विचार की कोई किरण ही वहां नहीं फूटती कि हम सोचें, कि हम सोच कर समझने की कोशिश करें। अगर हम सोचेंगे तो क्रांति निश्चित हो जाएगी। विचार विद्रोह है, विचार विद्रोही है। विचार के भीतर छिपी है क्रांति की किरण। इसलिए जिन्हें भी शोषण करना है, वे लोगों को समझाते हैं, विश्वास करो, विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। और समाज का पूरा ढांचा, शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, धर्म सब मनुष्य को इस भांति ढालते हैं कि उसके भीतर विचार भर पैदा न हो पाए, बस वह विश्वासी बने। और बड़ा होते-होते उस जगह पहुंच जाए जहां भेड़ें होती हैं, आदमी नहीं।
मैंने सुना है कि एक स्कूल में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहा था। और उन बच्चों से उसने पूछा कि मैं तुमसे एक सवाल तुमसे पूछता हूं। और बड़ी हैरानी हुई उस दिन, क्योंकि एक बच्चा जो कभी भी जवाब नहीं देता था, वह जोर से हाथ हिलाने लगा। उस शिक्षक ने पूछा कि अगर एक बगीचे के भीतर बारह भेड़ें बंद हों और एक भेड़ छलांग लगा कर बगीचे के बाहर हो जाए तो भीतर कितनी भेड़ें बचेंगी? तो एक बच्चा जिसने कभी हाथ नहीं हिलाया था, जो कभी उत्तर नहीं देता था वह जोर से हाथ हिलाने लगा। गुरु ने कहाः आश्चर्य, तू तो कभी उत्तर नहीं देता! कितनी भेड़ें बचेंगी? उस लड़के ने कहाः एक भी नहीं। बिलकुल भी नहीं। उस गुरु ने कहाः पागल, जवाब भी दिया तो ऐसा। मैं पूछ रहा हूं बारह भेड़ें हैं, एक भेड़ छलांग लगा जाए तो कितनी बचेंगी? वह कहने लगा, बिलकुल नहीं। गुरु ने कहाः आश्चर्य! क्या तुझे गणित के अंक भी नहीं आते? तू बारह का अर्थ भी नहीं समझता? उस बच्चे ने कहाः मैं सब समझता हूं। लेकिन गणित मुझे चाहे कम आता हो, मेरे घर में भेड़ें हैं, मैं भेड़ों को भलीभांति जानता हूं। अगर एक निकल गई तो सब निकल जाएंगी।
यह सवाल गणित का नहीं है, उस बच्चे ने कहा। यह सवाल भेड़ों के स्वभाव का है। और मैं भेड़ों को भलीभांति जानता हूं। आप कहते हैं, एक निकल गई, फिर एक नहीं बचेगी। और भेड़ों को गणित का कोई भी पता नहीं है कि गणित क्या होता है। भेड़ का स्वभाव क्या है? भेड़ का स्वभाव हैः विश्वास। और आदमी के भीतर आदमियत तभी पैदा होती है, जब वह विश्वास से ऊपर उठता है और विचार की किरणों को छूता है। लेकिन आदमी को भेड़ बना कर रखना जरूरी है, अगर उसका शोषण करना हो।
और सारी दुनिया में शोषण चल रहा है। हिंदू क्या हैं, मुसलमान क्या हैं, जैन क्या हैं, ईसाई क्या हैं? ये अलग-अलग गुरुओं के द्वारा शोषित लोगों की जमाते हैं। ये अलग-अलग गुरुओं के शोषण के धंधे हैं। ये अलग-अलग दुकानें हैं, जिन-जिनका शोषण किया गया है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है, ईसाई के सिद्धांत अलग हैं, हिंदू के सिद्धांत अलग हैं, मुसलमान के सिद्धांत अलग हैं, सब मामलों में झगड़ा है, लेकिन एक मामले में किसी का झगड़ा नहीं है। इस मामले में किसी का झगड़ा नहीं है कि विश्वास करना चाहिए। इस मामले में सब सहमत हैं। और सारे मामलों में झगड़े हैं। ईश्वर कैसा है, है या नहीं? आत्मा कैसी है? पुनर्जन्म होता है या नहीं? मोक्ष है या नहीं? इन सब मामलों में मतभेद हैं। लेकिन विश्वास के मामले में सारे धर्म राजी हैं कि विश्वास करना चाहिए। श्रद्धा करनी चाहिए। बिलीफ और फेथ यही मूल आधार हैं।
थोड़ा समझने जैसा हैः जिनका सब मामलों में झगड़ा है, इस मामले में झगड़ा क्यों नहीं है? इस मामले में झगड़ा नहीं हो सकता। यह ट्रेड सीक्रेट है। यह बुनियादी धंधे का सूत्र है। दुकानें अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन दुकानों के चलने का नियम एक ही होता है। सब दुकानों के चलने का नियम एक होता है। दुकानदारों में आपस में झगड़ा हो सकता है, लेकिन धंधे के सूत्र एक होते हैं, धंधे के चलने की पटरी एक होती है। विश्वास सारे धर्म सिखा रहे हैं।
और इसलिए चार-पांच हजार वर्षों से धर्मों का प्रभाव है, लेकिन मनुष्य के जीवन में कोई प्रतिभा का, मनुष्य के जीवन में कोई गरिमा का दर्शन नहीं होता। और जितने लोग धार्मिक हो जाते हैं उतने, उतने श्रीहीन, उतना उनका व्यक्तित्व खो जाता है। उतना वे गिरवी रख देते हैं किसी के पास अपना सब कुछ। चारों तरफ गुरु बैठे हुए हैं दुकानें खोल कर, और जो भी उनके चरण पकड़ लेते हैं और अपनी आत्मा को उनके चरणों में रख देते हैं, उनको वे धार्मिक कहते हैं। अपने को बेच देना और गिरवी रख देने वाले लोग धार्मिक हो जाते हैं।
लेकिन ध्यान रहे, इसीलिए जवान आदमी मुश्किल से धार्मिक होता है, बूढ़े लोग धार्मिक हो पाते हैं। क्योंकि जवान आदमी को डराना जरा मुश्किल है। बूढ़ा आदमी डरने लगता है, मौत करीब देख कर घबड़ाने लगता है। हाथ-पैर थर्राने लगते हैं, लगता है कि पता नहीं मरने से क्या होगा, क्या नहीं होगा? और तब इसीलिए मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों में, गुरुद्वारों में बूढ़े आदमियों की भीड़ दिखाई पड़ती है। वे जो बूढ़े आदमी दिखाई पड़ते हैं सारी दुनिया में, चर्चों में और मंदिरों में वे अकारण नहीं हैं, उसका कारण है। मरने के करीब पहुंच कर आदमी भयभीत हो जाता है, डरने लगता है। डरने की वजह से मंदिर पहुंच जाता है कि पता नहीं अब किसी गुरु का चरण पकड़ लेना जरूरी है, अब किसी पर विश्वास कर लेना जरूरी है। अब हमसे नहीं हो सकेगा, अब किसी के सहारे की जरूरत है। अब मौत करीब आती है, हाथ-पैर कंपने लगे हैं। लेकिन अगर धर्म असली होगा तो बुढ़ापे में छुएगा, यह हैरानी की बात है। अगर धर्म असली होगा तो जवानी में छुएगा, बचपन में छुएगा, लेकिन असली धर्म हो नहीं सका। विश्वास वाला धर्म असली हो नहीं सकता है।
विचार, लेकिन विचार की प्रक्रिया थोड़ी दुरूह है जरूर। विश्वास बहुत आसान है, क्योंकि हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ विश्वास कर लेना पर्याप्त है। विचार में हमें कुछ करना पड़ता है। इसलिए जितना आलसी आदमी हो, जितना प्रमादी आदमी हो, जितना काहिल और सुस्त आदमी हो, उतना ही विश्वास की तरफ चला जाएगा। जितना हिम्मत का आदमी हो, सक्रिय आदमी हो, तेजस्वी हो उतना विचार की तरफ जाएगा। विचार में हमें कुछ करना पड़ेगा। मुझे कुछ करना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा और सोचना खतरनाक है।
खतरनाक इसलिए है कि सोचना एक चिंता है, एक एंजायटी है। सोचने का मतलब है कि जीवन के बड़े सवालों पर मुझे जवाब खोजने हैं। मैं क्यों हूं? मैं क्या हूं? मैं कहां से हूं? मैं कहां जा रहा हूं? जीवन के बड़े-बड़े अल्टीमेट चरम सवालों पर मुझे जवाब खोजने हैं। प्राण घबड़ाते हैं। मुझ जैसा छोटा आदमी क्या कर सकेगा? यह अपने बस के बाहर बात मालूम पड़ती है कि मैं जान सकूं कि जीवन का अर्थ क्या है? कि मैं जान सकूं कि जीवन क्यों है? अस्तित्व का राज मुझे पता चल सके तो डर लगता है, जिसको पता हो उसको मान लेना चाहिए। मैं कैसे पता लगा पाऊंगा?
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूंः अगर कभी भी पता लगा पाएंगे तो आप ही पता लगा पाएंगे, और कोई आपको बता नहीं सकता है। यह जीवन का ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है कि कोई और किसी दूसरे को दे दे। यह ट्रांसफरेबल नहीं है। हस्तांतरणीय नहीं है कि मैं आपको दे दूं, आप किसी और को दे दें। जीवन का राज और रहस्य स्वयं ही जानना पड़ता है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, जीवन में जो भी सुंदर है, श्रेष्ठ है, सत्य है--वह स्वयं ही खोजना पड़ता है। स्वयं की ही खोज से वह मिलता है। क्योंकि वह स्वयं के भीतर ही मौजूद है। वह कहीं और नहीं है कि कोई और दे दे। वह मेरे भीतर है।
और मेरे भीतर जाने का रास्ता विश्वास नहीं है। मेरे भीतर, अपने भीतर जाने का रास्ता विचार है। जब मैं विचार करूंगा तो मुझे भीतर जाना पड़ेगा, जब मैं विश्वास करूंगा तो मुझे बाहर जाना पड़ेगा। अगर विश्वास करना हो तो महावीर के पीछे जाओ, अगर विश्वास करना हो तो बुद्ध के पीछे जाओ, अगर विश्वास करना हो तो राम को पकड़ो। और अगर विचार करना हो तो अपने सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। विचार करना हो तो स्वयं के पास आओ, विश्वास करना हो तो किसी दूसरे के पास जाओ। विश्वास ले जाता है बाहर, विचार ले जाता है भीतर। विश्वास जोड़ देता है दूसरे से, विचार जोड़ता है स्वयं से। विश्वास है दूसरे के सहारे जीने की हिम्मत, और विचार है अपने पैरों पर खड़े होने का साहस।
निश्चित ही विचार कर देता है अकेला, विश्वास जोड़ देता है भीड़ से। यह कभी आपने देखाः विचारकों की भीड़ नहीं दिखाई पड़ेगी आपको, विश्वासियों की भीड़ मिलेगी हमें। विचारकों की भीड़ देखी है कभी? विश्वासियों की भीड़ होती है। हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, सिक्खों की भीड़, जैनियों की भीड़--यह सब विश्वासियों की भीड़ है। कभी महावीर-बुद्ध को भी साथ-साथ देखा है?
आप हैरान होंगे जान कर यह बात कि महावीर और बुद्ध दोनों एक ही समय में, एक ही इलाके में पैदा हुए, समसामयिक थे। और ऐसा भी हुआ कि कभी एक ही गांव में भी ठहरे। और एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के एक हिस्से में महावीर ठहरे, और दूसरे हिस्से में बुद्ध ठहरे। एक ही गांव से गुजरे, एक ही गांव से गुजरे, एक ही रास्तों से गुजरे, चालीस साल तक बिहार के छोटे से इलाके में दोनों रहे, लेकिन दोनों का कोई मिलना नहीं हुआ। दोनों का कोई साथ भी नहीं हुआ, दोनों की कोई भीड़ भी नहीं बनी। शायद लोग समझेंगे, कैसे लोग थे? आपस में मिले क्यों नहीं?
कोई जरूरत न थी। विचार करने वाले को किसी के सहारे और साथ की कोई जरूरत नहीं है। विश्वासी को बड़ी जरूरत है; क्योंकि विश्वासी अपने को तो पाता है कमजोर, सोचता है दूसरे के साथ हो जाएं तो थोड़ी ताकत आ जाए।
तो विश्वासी भीड़ इकट्ठी करता है। फिर वह भीड़ की संख्या में ताकत मानता है। वह कहता हैः हिंदू, हिंदुओं की इतनी, इतनी करोड़ संख्या हैं; मुसलमान, मुसलमानों की इतनी करोड़ संख्या हैं; फलाने लोगों की इतनी करोड़ संख्या हैं--फिर विश्वासी संख्या बढ़ाने में लगते हैं। अपनी-अपनी संख्या बढ़ाओ, कनवर्ट करो, हिंदू को ईसाई बनाओ, ईसाई को आर्यसमाजी बनाओ, शक्लें बदलो, तिलक बदलो, आदमियों को इधर से उधर लाओ। क्यों इतनी सब परेशानी है? यह इतना सर्कस फैलाने की क्या जरूरत है किसी को, हिंदू को ईसाई बनाओ, ईसाई को हिंदू करो, चर्च वाले को मंदिर में लाओ, मस्जिद वाले को यहां ले जाओ, इस सबकी क्या जरूरत है? इसकी जरूरत है। डरे हुए लोग हैं। जितनी उनकी संख्या बढ़ जाती है, उतनी हिम्मत आती है कि चलो हमारे साथ इतने ज्यादा लोग हैं।
विचारवान आदमी अकेला पर्याप्त होता है। उसे किसी के साथ की कोई जरूरत नहीं है। विचारवान आदमी अकेला ही होता है। सच तो यह है कि विचार जब वह करता है तो पाता है प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। अकेला ही है, अकेला ही हो सकता है। साथ भ्रम है, साथ झूठ है, साथ कल्पना है। एक-एक व्यक्ति एक गहरे अर्थ में अकेला है--अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, अकेला जीता है। जीवन के महत्वपूर्ण हिस्सों में सब हम अकेले हैं। कोई किसी के साथ भीतर नहीं जा सकता। हम इतने लोग यहां बैठे हैं, लेकिन सब अकेले बैठे हैं। हम इतने लोग यहां हैं, लेकिन कौन किसके साथ है?
जैसे-जैसे विचार बढ़ता है, वैसे-वैसे व्यक्ति को अपने अकेले होने का बोध स्पष्ट होता है। और जैसे-जैसे व्यक्ति को अकेलेपन का बोध होता है, व्यक्ति भीतर की तरफ जाता है, बाहर की तरफ नहीं। क्योंकि बाहर की तरफ जाने का एक ही कारण है कि हम दूसरे को साथी सोच लें, दूसरे को मित्र बना लें, दूसरे को संगी बना लें। दूसरे की तलाश में हम बाहर जाते हैं। पति जाता है पत्नी की तलाश में बाहर, पत्नी जाती है पति की तलाश में बाहर; गुरु जाता है शिष्यों की तलाश में बाहर, शिष्य जाते हैं गुरुओं की तलाश में बाहर। लेकिन जिसे सत्य की तलाश में जाना है और स्वयं की तलाश में जाना है, उसे अपने भीतर जाना होगा।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं, इस देश की प्रतिभा को जो सबसे बड़ी जंग खा गई, वह जंग खा गई इसलिए कि हमने विचार करने की, विचार करने की जो महान क्षमता थी, उसको खोकर विश्वास करने के कचरे को पकड़ रखा है। और तब एक-एक आदमी के भीतर विचार का कुआं नहीं खुद पाता। हम कुआं खोद ही नहीं पाते अपने भीतर--कि जहां जल-स्रोत हैं चेतना के, वहां हम पहुंच जाएं। और ध्यान रहे, जो खोदेगा, वह पहुंचेगा। जो नहीं खोदेगा, वह बाहर खड़ा रह जाता है। अपने ही घर के बाहर खड़ा रह जाता है। और जब हम अपने ही बाहर खड़े रह जाते हैं। तो हम (अस्पष्ट ...48: 53), हम बिलकुल ही ऊपरी आदमी होते हैं। सच पूछा जाए तो हम सच्चे आदमी नहीं होते।
मैंने सुना है, एक दार्शनिक एक खेत के पास से निकलता था। और उस खेत में एक झूठा आदमी खड़ा था। झूठा आदमी यानी लकड़ी के डंडे पर हंडी लगी थी, कुर्ता पहने हुए था। ऐसे तो हम भी अपने को खोजें तो हंडी और कुर्ते, और लकड़ी और डंडे के सिवाय और बहुत कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन हम अपने को असली आदमी समझते हैं, उसको नकली आदमी समझ लेते हैं।
वह नकली आदमी खड़ा था खेत के पास, और एक दार्शनिक वहां से निकलता था। बहुत बार निकला था, उसे बड़ी हैरानी होती थी कि यह नकली आदमी अकेला खड़ा-खड़ा घबड़ा नहीं जाता? धूप भी आती है तब भी खड़ा रहता है; वर्षा आती है तब भी खड़ा रहता है; दिन भी, रात भी अकेले ही खड़ा रहता है। ऊब जाता होगा, घबड़ा जाता होगा। उस दार्शनिक को दया आई। उस दार्शनिक ने एक दिन जाकर उस नकली आदमी से पूछा कि मेरे मित्र, अगर नाराज न हों तो एक सवाल पूछूं? और वह सवाल यह है कि वर्षा में देखता हूं तो तुम खड़े हो, सर्दी में देखो तो तुम खड़े हो, धूप आए तो तुम खड़े हो, रात आए तो तुम खड़े हो, अंधेरी तो, उजेली तो, तुम कभी ऊबते नहीं, घबड़ाते नहीं यहां खड़े-खड़े?
वह नकली आदमी हंसने लगा। उसने कहाः बड़े पागल हो, तुम्हें पता नहीं। बिलकुल ऊबता नहीं, बड़ा मजा आता है। उस दार्शनिक ने पूछाः मजा क्या है? उसने कहाः मजा एक, दूसरों को डराने का मजा है। पशु-पक्षियों को डराता रहता हूं चैबीस घंटे, फुरसत कहां अपने को जानने की कि अपन अकेले हैं। दूसरों में उलझा रहता हूं--कभी कौआ आ गया, कभी लोमड़ी आ गई, कभी कोई आ गया। उन्हीं को भगाता रहता हूं। उनको भगाने में इतना मजा आता है, इतना उनको डराने में मजा आता है कि तबीयत बड़ी प्रसन्न रहती है। और फुरसत किसे है अपने को जानने की?
उस नकली आदमी को पता ही नहीं कि लकड़ी के डंडों पर कुर्ता पहना हूं। और हंडी खोपड़ी की जगह लगी हुई है। खोपड़ी जैसी चीज भीतर कुछ भी नहीं है। सिर्फ हंडी लगी हुई है। लेकिन दूसरों से फुरसत मिले तो वह अपनी तरफ जाए। और वह कह रहा है कि मुझे इतना मजा आता है दूसरों को डराने में कि कौन फिकर करे अपनी। फुरसत कहां है? सो भी नहीं पाता, रात-दिन धंधा जारी है। जब देखो तब भगाने के काम में लगा रहता हूं।
उस दार्शनिक ने सुना, उसने कहाः बात तो तुम बिलकुल ठीक कहते हो। दूसरों को डराने में मजा तो हमको भी बहुत आता है। आखिर एक मिनिस्टर को क्या मजा आता है? दूसरों को डराने का मजा। एक राष्ट्रपति को क्या मजा आता है? दूसरों को डराने का मजा। एक धनपति को क्या मजा आता है? पड़ोसियों को डराने का मजा। मजा क्या है? अगर मेरे पास बहुत बड़ा मकान है, तो मजा क्या है? मजा यह है कि जिनके पास छोटे मकान हों, उनको मैं डरा पाता हूं। अगर मैं दिल्ली के सिंहासन पर बैठ जाऊं, तो मजा क्या है? वह जिनको मैं नीचे छोड़ आया हूं सिंहासन के, उनको मैं डरा पाता हूं। सारी दुनिया में सारी दौड़ दूसरे को डराने की है। सारा मजा दूसरे को डराने का है।
उस दार्शनिक ने कहाः बात तो तुम ठीक ही कहते हो, मजा तो हमको भी बहुत आता है दूसरों को डराने में। वह नकली आदमी हंसने लगा। उसने कहाः जरूर आएगा, आएगा ही। सभी नकली आदमियों को दूसरों को डराने में मजा आता है। तुम सोचते हो कि मैं ही हंडी और डंडी पर लटकाया हुआ हूं, जरा जाकर अपने शरीर की जांच-पड़ताल करनाः तो हड्डियां डंडियां मिलेंगी और खोपड़ी हंडी मिलेगी, और कुर्ते पहने हुए हो। तो दार्शनिक तो बहुत डर गया।
क्योंकि बात तो यह सच है। जब तक हम अपने भीतर नहीं गए तो हम हंडियों और डंडियों और कुर्तों से ज्यादा क्या हैं? जब तक हम भीतर नहीं गए, जब तक हमने उसे नहीं जाना जो न हड्डी है, न मांस है, न मज्जा है। तब तक हम हड्डी और डंडी, और हंडी और कुर्तों से ज्यादा क्या हैं? लेकिन नहीं, फुरसत किसे है? सब दूसरे को डराने में लगे हैं।
हेड मास्टर मास्टरों को डरा रहा है। हेड क्लर्क छोटे क्लर्कों को डरा रहा है। स्कूल का गुरु, कोई नहीं मिल रहा है तो छोटे-छोटे बच्चों को डरा रहा है। पति पत्नी को डरा रहा है, पत्नी मौका मिल जाए पति को डरा रही है। सब डरा रहे हैं। और इतना मजा आ रहा है कि सर्दी आए, गर्मी आए, परेशानी हो, फुरसत किसको है? अपने को जानने की फुरसत किसको है? और इस दूसरे को हम डरा रहे हैं, दूसरे हमें डरा रहे हैं। और भीतर जाने का उपाय नहीं मालूम होता है। विचार करेंगे तो भीतर जा सकते हैं, विश्वास करेंगे तो बाहर ही भटकते रह जाएंगे। भीतर नहीं जा सकते।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहता हूंः विचार। विचार का क्या अर्थ है? विचार का अर्थ हैः जीवन की किसी भी समस्या के संबंध में बंधे हुए पिटे-पिटाए समाधानों को स्वीकार मत करना। जीवन की समस्या खड़ी हो--तो नग्न, निर्विचार, निरुत्तर, बिना किसी समाधान के उस समस्या के सामने खड़े होओ। पूरी तरह उस समस्या को अपने प्राणों के दर्पण में बनने देना। पूरी तरह उस समस्या को देखना, जानना, पहचानना; उत्तर की जल्दी मत करना कि कोई बंधा हुआ उत्तर मैं दे दूं।
एक छोटी सी समस्या हम ले लें, तो खयाल में आ जाए कि विचार करने में हम क्या करेंगे? अब सबसे बड़ी समस्या क्या है आदमी के सामने। वह यह है कि हम जान सकें कि हम कौन हैं? मैं कौन हूं? कभी आपने सोचा, बैठ कर विचार किया कि मैं कौन हूं? किया होगा शायद कभी तो पता चला होगा कि मैं फलां-फलां नाम का आदमी हूं, फलां-फलां का बेटा हूं। तो पता चला होगा कि मैं फलां-फलां गांव का तहसीलदार, फलां-फलां स्त्री का पति हूं। तो पता चला होगाः यह मेरा नाम है, यह मेरा गांव है। यही आप हैं? यही आपका होना है? किसी के बेटे, किसी के बाप, किसी के पति, किसी पद पर, किसी धन पर--यही बस होना है? इतने ही आप हैं?
अभी मेरे एक डाक्टर एक मित्र हैं। वे ट्रेन से चलते थे कोई चार-छह बरस पहले, और दरवाजे पर खड़े थे। भीड़ थी और गिर गए चलती गाड़ी से। सिर को कुछ चोट लगी, जिंदा तो रहे, कोई नुकसान न पहुंचा, लेकिन स्मृति खो गई। भूल गए खुद का नाम, भूल गए बाप का नाम। बचपन के मेरे साथी थे। मैं उनको मिलने गया, देखने गया। मुझे आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे, पूछने लगे कि आप कौन, कहां से आए हैं? बचपन से साथ रहे। मैंने पूछाः मुझे नहीं पहचाना? तो उनके पिता ने कहाः आपको पहचानने का सवाल ही कहां है, वह अपने को ही नहीं पहचानता। वह खुद का ही नाम भूल गया है।
चोट खा गए हैं, स्मृति डगमगा गई है। हैं तो पूरी तरह अब भी, लेकिन वह जो रिकाॅर्ड थी स्मृति की, वह जो टेप-रिकार्डिंग थी भीतर स्मृति की, वह डांवाडोल हो गई, वह पुंछ गई। हम भी अपने को यही समझ रहे हैं, यह याददाश्त कि मेरा नाम क्या है? यही हम हैं, अगर नाम हमारा छीन लिया जाए तो हम खत्म हो जाएंगे? अगर हम भूल जाएं कि हमारा घर कहां है तो हम खत्म हो जाएंगे?
स्वामी राम लौटे अमरीका से और टिहरी-गढ़वाल के घर मेहमान हुए। वह राजा उनसे सुबह-सुबह मिला और पूछने लगा कि एक सवाल, एक छोटा सा सवाल मुझे पूछना है। बहुत लोगों से पूछा कोई जवाब नहीं देता। और आपसे मैं जवाब चाहता हूं, और फिजूल की बातें मुझे पसंद नहीं। राम ने कहाः मुझे खुद भी फिजूल की बातें पसंद नहीं। आप जल्दी से पूछिए, फिजूल की बातें क्यों कर रहे हैं? सवाल पूछिए। उस राजा ने कहाः सवाल मेरा यह है कि मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं, मुझे मिला दे सकते हैं। राम ने कहाः अभी मिलना है कि थोड़ी देर ठहर सकते हैं?
तो राजा बहुत हैरान हुआ, क्योंकि और भी से लोगों से पूछा था, कोई उपनिषद, कोई गीता और न मालूम क्या-क्या बकवास जारी करता था। यह आदमी कैसा है? न उपनिषद बोलता, न गीता बोलता है, बोलता है अभी मिलना है या थोड़ी देर रुक सकते हैं? यह तो मामला ही कुछ गड़बड़ है। उस राजा ने समझा कि शायद समझने में भूल हो गई। उसने कहाः महाशय, शायद आप भूल गए, मैं भगवान के लिए पूछ रहा हूं, ऊपर वाले के लिए। आप किसी आदमी की बात तो नहीं समझ गए। राम ने कहा कि अगर तुम आदमी की बात भी करते तो भी मैं भगवान की ही बात समझता। मुझसे भूल होनी मुश्किल है, मैं उसके सिवाय किसी की बात समझता ही नहीं हंू। अब तुम फिजूल समय क्यों जाया कर रहे हो? मैं तुमसे पूछता हूं कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुकते हो? राजा ने कभी सोचा भी नहीं था कि सवाल ऐसा आएगा। अभी मिलना है?
अभी, अभी आपसे कोई पूछने लगे, अभी मिलते हैं? तो आप भी कहेंगे कि कल मैं आकर सोच कर जवाब दूंगा। कम से कम अपने बच्चों से पूछ आऊं, अपनी पत्नी से पूछंू, अपने घर के लोगों से, कि ईश्वर से मिल लूं। पता नहीं ईश्वर से मिलना कैसा खतरनाक हो, लौटना हो पाए या न हो पाए? तो ज्यादातर तो आप नहीं लौटेंगे। आप सोचेंगे कि मरने के बाद ही मिलेंगे, सभी लोग यही सोचे बैठे हैं। मरने के पहले शायद ही कोई ईश्वर से मिलने को राजी हो? वह तो मिलता नहीं है इसलिए हम मंदिर-वगैरह चले जाते हैं। अगर वह मिलता होता तो हम मंदिर से बच कर निकलते।
डेंजरस, खतरनाक है ईश्वर से मुलाकात। क्योंकि ईश्वर से मुलाकात के बाद आप वही नहीं रह सकते हैं, जो आप हैं। यह कोई साधारण रिस्क, साधारण जोखम नहीं है। ईश्वर से मिल कर आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। यह वैसे ही है जैसे सोना निकल जाता है आग से, फिर वह वही नहीं रह सकता--जो था। सब नकली जल जाएगा, सब कचरा जल जाएगा। ईश्वर का साक्षात्कार, सत्य का साक्षात्कार आग से गुजरना है।
उस राजा ने कहाः अब आप नहीं मानते हैं तो ठीक है, अभी मिलवा दीजिए। लेकिन कुछ डरा हुआ है। स्वामी राम ने कहाः डरते हैं क्या? डरिए मत। एक छोटा सा काम कर दीजिए। एक कागज पर लिख दीजिए कि आप कौन हैं? तो मैं ईश्वर के पास पहुंचा दूं। नहीं तो वे मुझसे पूछेंगे, कौन मिलना चाहता है? तो मैं क्या कहूंगा?
राजा ने कहाः यह बिलकुल ठीक है, मुझसे भी कोई मिलता है तो मैं लिखवा कर ले लेता हूं कि कौन है। राजा ने लिखा अपना नाम, अपने महल का पता, राम को दिया। राम ने कहाः इससे नहीं चलेगा। यह सब झूठा पता-ठिकाना है। राजा कहने लगाः झूठा? आप क्या बात करते हैं। मेरे महल में ठहरे हैं, मुझे अच्छी तरह जानते हैं, मैं ही मालिक हूं, मैं ही राजा हूं, मेरा यह नाम है। राम ने कहा कि अगर तुम्हारा नाम बदल दिया जाए तो तुम बदल जाओगे? उस राजा ने कहाः नाम के बदलने से मैं क्यों बदलूंगा? नाम भर बदलेगा, मैं तो मैं ही रहूंगा। तो राम ने कहाः एक बात तय हो गई कि नाम ऊपर से चिपकाया गया है, बदला जा सकता है। तुम वही रहोगे। नाम के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेबलिंग है, एक डिब्बे के ऊपर लेबल लगा है और राम, किसी डिब्बे पर कृष्ण, किसी डिब्बे पर कुछ और है। नाम का लेबिल बदल दो, डिब्बे के भीतर का कंटेंट थोड़े ही बदल जाएगा। लेबल के बदलने में, भीतर तो जो है--वह है।
राम ने कहाः तुम तो तुम ही रहोगे, नाम बदल जाएगा तो फिर नाम तुम नहीं हो। और मैं तुमसे यह पूछता हूंः आज महल तुम्हारे पास है, कल सड़क के भिखारी हो जाओ तो तुम तुम ही रहोगे कि बदल जाओगे? उस राजा ने सोचा और कहा कि मैं तो मैं ही रहूंगा, अच्छे वक्त मेरे पास नहीं होंगे, महल नहीं होगा, भीख मागंूगा; राजा नहीं रहूंगा, लेकिन मैं तो मैं ही रहूंगा। मैं कैसे बदल जाऊंगा? तो राम ने कहाः फिर यह राजा होना भी नाॅन-एसेंसियल हुआ, यह भी फिर गैर-महत्वपूर्ण हुआ। यह भी सारभूत न हुआ।
तुम क्या हो? जो राजा के बदलने पर भी नहीं बदलोगे? नाम के बदलने पर भी नहीं बदलोगे। अभी तुम्हारी उम्र कम है, कल बूढ़े हो जाओगे, तब बदल जाओगे? उस राजा ने कहाः मैं बूढ़ा होकर भी यही रहूंगा, जो जवान होकर हूं। तो राम ने कहाः फिर जवानी भी बेमानी है और बुढ़ापा भी बेमानी है। फिर तुम कौन हो? वह जो नहीं बदलेगा, वह जो सारी बदलाहट हो जाएगी, फिर भी वही रहेगा। जो है वह कौन है? तो उस राजा ने कहाः यह तो मुश्किल में डाल दिया, उसके बाबत तो मैंने कभी सोचा नहीं।
हमने भी नहीं सोचा है। किसी ने भी नहीं सोचा है।
तो राम ने कहाः तो फिर सोच कर आओ, क्योंकि मुझसे भगवान पूछेंगे कि कौन मिलना चाहता है? तुम मुझे झंझट में मत डालो। मैं क्या कहूंगा, कौन मिलना चाहता है? तुम्हें खुद ही पता नहीं है कि तुम कौन हो? उस राजा ने कहा, तब मैं सोच लूं तो फिर आऊं। वह राजा फिर नहीं गया वापस। क्योंकि सोचा नहीं होगा।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि अगर कोई सोच ले कि मैं कौन हूं? तो उसे फिर किसी भगवान के पास जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह जानते ही मैं कौन हूं, आदमी भगवान के पास पहुंच जाता है--यह द्वार है। भीतर यह जो मैं हूं, इस द्वार के खुलते ही वह सब खुल जाता है--जो परमात्मा है। हम सब परमात्मा के मंदिर के द्वार हैं। बंद द्वार हैं इसलिए बाहर, खुल जाएं तो भीतर। लेकिन खुलेगा कैसे? विचार की हैमरिंग, विचार की हथौड़ी चाहिए। और विचार का मतलब क्या है कि आप बैठ कर सोचने लगें कि मेरा नाम यह है तो फिर व्यर्थ हो गई बात।
लेकिन एक और बात ध्यान में ले लें, अगर आपने बैठ कर यह भी सोचा कि मैं आत्मा हूं, मैं परमात्मा हूं, अहं-ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं; मैं सच्चिदानंद हूं, मैं शुद्ध-बुद्ध हूं। अगर यह भी सोचा तो भी मैं आपसे कहता हूंः आप सोच नहीं रहे हैं। यह फिर बकवास जो आपने सीख ली है, वही दोहरा रहे हैं। यह सोचना नहीं है। यह आपने सुन रखा है, किताब में पढ़ रखा है। लिखा हैः अहं-ब्रह्मास्मि। आप भी बैठ गए हैं आंख बंद करके और कह रहे हैं, मैं ब्रह्म हूं। यह आपको पता नहीं है और न आप सोच रहे हैं। यह भी सोचना नहीं है, यह भी दोहराना है। यह भी विश्वास है। आपको कहां पता है कि आप ब्रह्म हैं। और अगर पता ही हो जाए कि आप ब्रह्म हैं तो फिर दोहराने की क्या जरूरत रह जाएगी?
नहीं, यह मत दोहराइए, सिर्फ पूछिए अपने से कि मैं कौन हूं? और अगर उत्तर मालूम नहीं है तो निरुत्तर पूछिए, पूछिए अपने से--मैं कौन हूं? मत दोहराइए कि मैं कौन हूं? मुझे पता नहीं, पूछता हूं सिर्फ--मैं कौन हूं? भीतर पूछिए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और कोई उत्तर मत दीजिए, सिर्फ प्रश्न को खड़ा करिए। और आप हैरान हो जाएंगे, यह प्रश्न तीर की तरह भीतर घुसने लगेगा। और एक दिन वहां पहुंच जाएगा, जहां से उत्तर आता है कि मैं कौन हूं? वह उत्तर फिर सोचा हुआ है, फिर वह उत्तर विचारा ह‏ुआ है। फिर वह स्वयं के प्राणों से निकसित, वह स्वयं से आया हुआ होगा।
और तब वह जो उपनिषद के ऋषि कहते हैं, वह जो महावीर कहते हैं, वह जो बुद्ध कहते हैं--जहां से उनके भीतर से आया था, वहीं से आपके भीतर से भी आ जाएगा। और वह उत्तर सोचा हुआ, विचारा हुआ होगा। और वह आपकी सारी प्रतिभा को जगा देगा। और वह आपके भीतर अंधेरे में जैसे कोई दीया जल जाए, कोई सूरज जल जाए, वैसा प्रकाश कर देगा। आपकी प्रतिभा में पहली दफा गरिमा और गौरव प्रकट होगा। आपकी प्रतिभा पहली तरह, पहली बार जीवंत और प्रकाशित बनेगी।
और वैसी प्रतिभा ही जीवन के सत्य की दिशा में और जीवन की क्रांति की दिशा में दूसरा कदम है। चाहे व्यक्ति, चाहे समाज, चाहे पूरी मनुष्यता अगर हम कोई भी कं्राति चाहते हैं, तो हमें विश्वासों के अंधेरे से जाग कर छूट जाना होगा और विचार की किरणों का स्वागत करना होगा।
विचार का स्वागत दूसरा सूत्र है। विश्वास से मुक्ति और विचार का स्वागत।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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