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सोमवार, 17 सितंबर 2018

मन का दर्पण-(प्रवचन-03)

मन का दर्पण-(विविध)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो) 

असंग की खोज

एक तो संगठनों पर मेरी कोई भी आस्था नही है, क्योंकि संगठन सभी अंततः खतरनाक सिद्ध होते हैं। और सभी संगठन अनिवार्यरूपेण संप्रदाय बनते हैं। तो एक तो संगठन कोई नहीं बनाना है। जीवन जागृति केंद्र एक बिलकुल मित्रों के मिलने का स्थल भर है, कोई संगठन नहीं है। ऐसा कोई संगठन नहीं है कि उसकी सदस्यता से कोई बंधता हो। न ऐसा कोई संगठन कि वह कोई किसी विशेष विचारधारा को मान कर उसका अनुयायी बनता हो।
अगर ठीक से मेरी बात समझें, तो मैं किसी विचार को नहीं फैलाना चाहता, विचार करने की प्रक्रिया को भर फैलाना चाहता हूं। यानी मैं कोई आइडियालाॅजी या कोई सिद्धांत नहीं देना चाहता किसी को। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सोचने-समझने, स्वयं सोचने-समझने में कैसे समर्थ हो, इसकी व्यवस्था देना चाहता हूं।

दूसरे जो संगठन हैं, मिशन हैं, उनकी नजर बिलकुल दूसरी है। उनकी नजर यह है कि वे कोई विचार आपके दिमागों में डालना चाहते हैं। तो एक तो सबसे पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि न कोई संप्रदाय, न कोई संगठन।

बस कुछ मित्रों को यह ठीक लगता है कि समाज में, देश में सोच-विचार की क्रांति हो, प्रत्येक व्यक्ति सोचने लगे और सोचने में जो बाधाएं हैं वे दूर हो सकें। फिर वह क्या सोचे, और उसका सोचना उसे कहां ले जाए, इस सबके लिए हम कोई उसको बांधने की चेष्टा में नहीं हैं।
मेरी समझ यह है कि अगर सम्यक चिंतन शुरू हो, तो आदमी वहीं पहुंचेगा जहां सत्य है। पुराने सारे संप्रदाय यह कोशिश करते रहे हैं, सारे संगठन, कि आदमी में सोचना पैदा न हो पाए, वे जो बताते हैं वह उसमें बैठ जाए। और उनको यह डर भी रहा है कि अगर उसने सोचा, तो हो सकता है जो हम बताते हैं वह उससे राजी न हो।
तो जो लोग भी कोई आइडियालाॅजी देना चाहते हैं समाज को, कोई सिद्धांत देना चाहते हैं, वे हमेशा विचारने के दुश्मन होंगे। क्योंकि उनको हमेशा डर होगा कि विचार कहीं ऐसा न हो कि यह सिद्धांत के विपरीत पड़ने लगे। इसलिए मैं तो कोई सिद्धांत देना ही नहीं चाहता। मैं तो कैसे प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के सिद्धांत को खोज सके, उसकी प्रक्रिया उसे कैसे साफ हो सके। फिर जहां उसकी प्रक्रिया उसे ले जाए वह जाए, हमारा कोई आग्रह नहीं कि वह यहां जाए, यहां जाए, यह बने, यह हो, इसका सवाल नहीं है। लेकिन वह स्वतंत्र चेतना उसके भीतर जन्म जाए, इतनी हमारी फिकर है। अगर यह खयाल में आ गया, तो जीवन जागृति केंद्र कोई संगठन नहीं है, यह तो पहले समझ में आ जाना चाहिए, सिर्फ मित्रों का एक मिलन-स्थल है। इसलिए उसमें वे लोग भी आ सकते हैं जो मेरे खिलाफ सोचते हों, बस सोचते हों, इतना काफी है। वह कोई, कोई मेरे पक्ष में सोचना चाहिए यह आग्रह उसमें नहीं हो सकता। यही आग्रह संप्रदाय बनाता है कि हमारे जो पक्ष में हैं वे इकट्ठे हो जाएं, फिर जो विपक्ष में हैं वे विपक्ष में इकट्ठे हो जाएं, और फिर उपद्रव शुरू गया। मेरे विरोध में भी कोई सोचता हो, बस सोचता हो, उसका स्वागत है, वह इस मित्रों के मिलन का हिस्सा बन सकता है। इसलिए सबके लिए खुले द्वार उसके होने चाहिए।
फिर वहां क्या करिएगा? काम कठिन हो गया। क्योंकि अगर एक सिद्धांत लोगों के दिमाग में डालना हो तो काम बहुत सरल है। मेरा काम कठिन है थोड़ा। इसलिए अगर पांच साल से गांव-गांव में भटकता हूं, लेकिन वह जो मैं चाहता हूं वह नहीं हो पाता। क्योंकि अगर होगा तो लोग उसको उस तरह का बनाने की कोशिश में पड़ जाते हैं फौरन। और वह मैं चाहता नहीं हूं। इसलिए थोड़ा सा नाजुक सवाल है। और वह नाजुक सवाल यह है कि जो लोग इकट्ठे होंगे वे लोग क्या करें इकट्ठे होकर? अगर कोई झंडा गाड़ना हो इसलाम का या कोई जैन धर्म का या मुसलमान धर्म का या कम्युनिज्म का, तो बहुत आसान मामला है, लोग इकट्ठे हो जाएंगे। यहां कोई झंडा गाड़ना नहीं है, जितने गड़े हुए झंडे हैं सब उखाड़ देने हैं और अपना कोई गाड़ना नहीं है। यह थोड़ा मामला मुश्किल का है। लेकिन वह अगर खयाल में आ जाए...झंझट में पड़ जाओगे। मेेरा मतलब समझ रहे न?
इस मामले में मेरी दृष्टि यह है कि एक-एक व्यक्ति अनूठा जीवन है। और जो उसके भीतर होगा वह कभी किसी के भीतर नहीं हुआ है, और न कभी किसी के भीतर हो सकता है। लेकिन अब तक का जो मामला था वह अजीब था, वह यह था कि एक आदमी तय करता है कि यह जो हुआ है यही सबके भीतर होना चाहिए। और जो उसके भीतर हुआ, वह बेचारा उसको आइडियल बना देता है, आदर्श बना देता है। और हजारों लोग वैसा होने की कोशिश करने लगते हैं।
यह कोशिश इतनी बड़ी हिंसा है जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। यानी गुरुओं ने जितनी बड़ी हिंसा की और किसी ने कभी भी नहीं की। ये हिटलर और चंगीज खान इसके मुकाबले में कुछ हिंसक नहीं हैं। क्योंकि गुरु यह कोशिश करता है कि एक उसने ढांचा दे दिया है, एक पैटर्न, कि अब तुम इसमें ढल जाओ। और ढल गए तो सफल, नहीं ढले तो गए। अब तुम उस पैटर्न में ढलने की कोशिश कर रहे हो कि यह तुम्हारा जीवन का लक्ष्य हो गया। और तुम जीवन की अलग ही किरण थे। और तुम्हारा अपना ही रास्ता होने का था। और तुम अपने ही रास्ते पर गए होते तो ही आनंदित हो सकते थे। क्योंकि आनंद का एक ही मतलब है, तुम्हारा जीवन जो हो सकता है अगर हो जाए तो आनंद मिलेगा और तुम्हारा जीवन जो हो सकता है अगर न हो पाए तो तुम दुखी रहोगे। और तुम्हारा जीवन वही हो सकता है जो तुम हो। कोई दूसरा तुम्हारा जीवन नहीं हो सकता। अगर तुम महावीर बनने की कोशिश किए, तुम दुख में पड़ोगे। अगर तुम गांधी बनने की कोशिश किए, तुम दुख में पड़ने वाले हो। अगर तुमने कृष्ण बनने की कोशिश की, तुम झंझट में पड़े। क्योंकि यह जो बनने की कोशिश है न! और जब हम पूछते हैं और पूछते हम इसीलिए क्योंकि अब तक हमें इसी ढंग से सारा का सारा समझाया गया कि दूसरे से पूछ लो, कोई बता देगा कि जीवन का लक्ष्य क्या है।
मेरी अपनी समझ यह कहती है कि अनंत है जीवन और अनंत है लक्ष्य। मेरा मतलब समझ रहे न? अनंत है जीवन और अनंत है लक्ष्य। और प्रत्येक जीवन का अपना ही लक्ष्य है। और जब तक वह न मिल जाए तब तक बड़ी भटकन है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी मुश्किल है। और वह तब तक नहीं मिलेगा जब तक किसी और जैसा जीवन बनाने की कोशिश की, वह मिल ही नहीं सकता। क्योंकि भटक गए तुम।

उन पूर्व-धारणाओं से मुक्त होने का क्या करें?

हां-हां, असल बात यह है कि जैसे ही तुम जान लो कि यह पूर्व-धारणा है, तुम मुक्त हो जाओगे। पूर्व-धारणा से मुक्त होने के लिए कुछ और नहीं करना होगा। जैसे एक आदमी को हम कहें कि दो और दो चार होते हैं, और वह कहे कि मैं तो अब तक मानता रहा कि दो और दो पांच होते हैं। अब मेेरी समझ में आ गया कि दो और दो चार होते हैं। लेकिन दो और दो पांच होते हैं इसको मैं कैसे छोडूं? अब उससे क्या कहेंगे? उससे कहेंगे, तुम पागल हो गए, अब छोड़ने का सवाल कहां? अगर तुमको यह समझ में आ गया कि दो और दो चार होते हैं, तो दो और दो पांच नहीं होते हैं, वे गए, खतम हो गई बात। वे तो तभी तक होते थे दो और दो पांच जब तक दो और दो चार नहीं होते थे। मेरा मतलब समझ रहे न? लेकिन वह आदमी पूछे कि आपकी बात तो समझ गए कि दो और दो चार होते हैं, अब यह बताइए कि वे दो और दो जो पांच होते थे उसको कैसे छोड़ें? उसे बताया जा सकता है। वह छूट जाना चाहिए, क्योंकि यह दूसरी बात जो समझ में आ गई न, तो गई वह।
कोई भी धारणा जो तुम पकड़े रहे हो, अगर उससे अन्यथा धारणा समझ में आ जाए, तो वह छूट गई। लेकिन तुम कहते हो वह भी अर्थपूर्ण है। उसमें अर्थ दूसरा है। असल पूर्व-धारणा में खतरा नहीं है, वह तो छूट जाए, लेकिन लोभ लगे हुए हैं पूर्व-धारणा के, वे लोभ नहीं छूटते। यह तो समझ में आ गया कि दो और दो चार होते हैं। लेकिन किसी ने कहा है कि अगर दो और दो पांच नहीं मानोगे तो नरक चले जाओगे। मैं दूसरी बात कह रहा हूं। किसी ने समझाया होगा कि दो और दो जो पांच मानता है तो स्वर्ग जाता है, और जो दो और दो पांच नहीं मानता वह नरक जाता है। अब तुम्हें समझ मैं तो आ गया कि दो और दो चार होते हैं, अब तुम कहते कैसे छोड़ेें? अब यह धारणा का सवाल नहीं है। धारणा के पीछे कुछ और भी जुड़ा हुआ है जिसका सवाल आ गया। वह सवाल यह है कि दो और दो पांच वाले ने तो कहा था, स्वर्ग जाते हैं, आप कहते हैं कि दो और दो चार वाला स्वर्ग जाएगा। क्योंकि वह पहले में लोभ जुड़ा हुआ है। वह लोभ जान ले रहा है।
असली सवाल, यह सब देखने की जरूरत है अपने भीतर। एक बात मेरी समझ में आ आई कि गलत है फिर छूटती क्यों नहीं? नहीं छूटती, पीछे कोई लोभ है,कोई भय है, कोई प्रलोभन है, कोई और स्वार्थ है। और वह स्वार्थ कहता है कि पकड़े रहो, छोड़े तो मुश्किल में पड़ जाओगे। समझे न?
तो अब हमें उसकी जांच करनी पड़ेगी कि वह स्वार्थ क्या है? अगर तुमने स्वार्थ को पकड़ लिया, वह पकड़ नहीं पाओगे तब तक तुम मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि वह भीतर से काम कर रहा है। धारणा ऊपर है, स्वार्थ भीतर है। वह स्वार्थ अगर तुमने पकड़ लिया, तो ध्यान रहे, पकड़ते ही वह स्वार्थ भी विलीन हो जाने वाला है। क्योंकि सत्य से बड़ा कोई स्वार्थ नहीं है। किसी मनुष्य के लिए नहीं। लेकिन पकड़ में न आए तो मुश्किल है। अगर तुम एक बार पकड़ लो, तो सत्य से बड़ा कोई स्वार्थ है ही नहीं। इसलिए कोई भी स्वार्थ सत्य के सामने नहीं टिकता है। लेकिन न पकड़ो, और वह अनकांशस में, अंधेरे में बैठा हुआ काम करता रहे, तुम्हें पता ही नहीं चले, वहां से वह धागे खींचता रहे। तो यहां तुम सोचते रहो कि भई यह तो समझ में आ गया कि ठीक नहीं है, लेकिन वह छूटे कैसे? पीछे कोई और चीज पकड़े हुए है। उसकी खोज-बीन करनी चाहिए।
और मन के रास्ते बहुत सूक्ष्म हैं। जो चीज समझ में आ गई उसे छोड़ने की जरूरत ही नहीं है। उससे विपरीत छूट गई। लेकिन न छूटती हो तो सोचना कि यह मामला फिर धारणा का नहीं है अब, इसमें कुछ और लगाव भी पीछे जुड़े हुए हैं। और इतनी बात ध्यान रखना, कि असत्य से चाहे किसी ने कितने ही प्रलोभन दिए हों, कभी कोई हित उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन हमारे डर और भी कई तरह के हैं। प्रलोभन भी हैं, भय भी हैं। बहुत तरह के भय हैं।
अब अभी एक घर में मैं ठहरा हुआ था। उस परिवार की लड़की मुझसे मिलने आई। और वह मुझसे कहने लगी कि आप कहते हैं कि बिना प्रेम के विवाह नहीं करना चाहिए। यह बात गलत है। क्योंकि मैंने तो बिना प्रेम के विवाह किया था और मेरा प्रेम पूरा है। मैंने कहाः अगर पूरा है, तो बात खतम हो गई, तू मेरी झंझट में क्यों पड़ती है? मुझसे पूछने क्यों आई हो? यानी मेरी बात ही थी, तेरा तो अनुभव है। मेरी तो बात ही थी। इसलिए एकदम ठीक है, खतम हो गई बात। नहीं, उसने कहा, नहीं, मुझे बात करनी है आपसे। मैंने कहाः बात करनी है तो मुझे लगता है कि तुझे कुछ डर है। घंटे भर उससे मैं बात किया। वह कहने लगी, आपकी बात तो समझ में आ गई, लेकिन मन मानने का नहीं करता। मैंने कहाः मन मानने का नहीं करता क्योंकि मामले औैर उलझे हुए हैं। अब तुझे दिखाई पड़ रहा है कि तेरे पति से तेेरा कोई प्रेम नहीं है, तुझे पूरी तरह दिखाई पड़ रहा है। लेकिन इसको तू देखना ही नहीं चाहती। क्योंकि यह देख कर बड़ा खतरा खड़ा हो जाएगा। यह तथ्य देखना बहुत खतरनाक हो जाएगा। क्योंकि फिर कुछ करना पड़ेगा। क्योंकि फिर क्या करोगे? और फिर समाज का इतना जाल और सारे उपद्रव हैैं।
वह लड़की एकदम रोने लगी। जो इतनी तेजी से कह रही थी, वह एकदम रोने लगी। उसने कहा कि आप, आप आगे बात ही मत करिए। मैं तो इसीलिए लड़ने आई, लेकिन अब मेरे खयाल में आया, मुझे खयाल में ही नहीं था। मैं इसलिए लड़ने आई थी कि मैं किसी तरह आपके सामने यह सिद्ध कर दंू कि सिर्फ विवाह से भी प्रेम हो सकता है, तो निशिं्चत हो जाती। तेरे भीतर तो वही दिक्कत है कि प्रेम तो बिलकुल नहीं है। लेकिन अब कोशिश करके मानना पड़ेगा कि प्रेम है; क्योंकि और कोई उपाय नहीं है।
अब वह प्रेम की बात लेकर आई थी, लेकिन वह प्रेम की बात सिद्धांत का मामला नहीं था उसके सामने। उसके सामने भीतर कुछ और मामला था। वह उस भीतर के मामले को...यहां कुछ दो-एक वर्ष हुए इंदौर से एक सज्जन जबलपुर गए। मुझसे कहा कि मैं ऋषिकेश गया, अरविंद आश्रम गया, और कहीं शांति नहीं मिली। तो किसी ने आपका नाम ले दिया है अरविंद आश्रम में तो वहां से यहां आ गया। मुझे शांति चाहिए। तो मैंने उन सज्जन को कहा, वे कोई ठेकदार हैं यहां इंदौर में, और काफी पैसे वाले होेंगे। उनसे मैंने यह पूछा, कि जब आप अशांति पैदा किए थे तो किससे पूछने गए थे? अरविंद आश्रम गए थे, ऋषिकेश गए थे, मेरे पास आए थे, कहां गए थे? शांति के लिए तो आप हमको जिम्मेवार ठहरा रहेे हैं कि वह अरविंद आश्रम हो आया कुछ शांति नहीं मिली। वह आदमी यह कह रहा है कि ऋषिकेश हो आया, कुछ नहीं सार, कोई शांति नहीं मिली। मैंने उनसे पूछाः यही तुम यहां से भी कहते जाओगे। वह उसके पहले कि तुम कहते हुए जाओ, मैं तुमसे यह समझ लूं कि तुम अशांति किससे पाए थे, कौन गुरु है? यानी कुछ जगह जहां से अशांति तुमने पाई हो?
वह आदमी कहने लगा, अशांति, अशांत तो मैं खुद ही हो गया। तो मैंने कहाः अशांत तुम खुद हो गए और शांति तुम मुझसे या किसी और से चाहते हो, तो फिर बहुत मश्किल मामला है। अशांत तुम हो गए, तो तुम्हें समझना चाहिए कि अशांत किस प्रक्रिया से हो गए? कौन सा रास्ता अख्तियार किया जिससे अशांत हो गए? कौन सी तरकीब लगाई कि जिससे अशांत हो गए? ठीक उलटे वापस लौट आओ।
एक आदमी चला गया पूरब की तरफ और कहता है कि मैं पश्चिम की तरफ कैसे जाऊं? उससे हम कहेंगे कि तुम उलटे चल पड़ो, वापस अपनी जगह पर आ जाओगे।
लेकिन, मैंने कहाः तुम बईमान हो, तुम जिस तरकीब से अशांत हो गए उसको छोड़ना भी नहीं चाहते और शांति की तरकीब भी चाहते। यानी जो मामला चल रहा है पूरा वक्त माइंड में वह यह है कि वह अशांति यूं तो ठीक है, वे कहने लगे, वह तो छोड़िए, उसका कुछ मतलब नहीं था, आप तो हमें शांति का रास्ता बता दीजिए। यानी वह जो हम करते रहे हैं, जो हो रहा है, वह तो ठीक है, उसको तो छोड़िए, उससे क्या करना आपको, आप तो शांति का रास्ता बताइए।
अब आप समझते हैं कि शांति का रास्ता कहां से आ जाएगा? इस आदमी को लौटना पड़ेगा। क्योंकि अशांति एक यात्रा है--और कदम-कदम उठाए गए हैं, और जाल बढ़ाया गया है, इसको वापस लौटना पड़ेगा। वह कहता है, उसकी तो बात ही मत करिए, आप तो मुझे शांत होने का रास्ता बता दीजिए, मैं उसका उपयोग करूंगा और शांत हो जाऊंगा।
मैंने उसको कहा कि न मेरे पास कोई रास्ता है, और न किसी और के पास कोई रास्ता है। तुम फिजूल भटको मत। इससे तुम और अशांत होते चले जाओगे। तुम दो दिन रुक जाओ यहां, और तुम मुझे ईमानदारी से कहो कि तुम अशांत कैसे हो गए हो? और अगर वह तुम नहीं कह सकते, तो बात खतम, मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। और तुम किसी से यह जाकर मत कहना कि वहां मैं गया और शांत होकर नहीं लौटा। क्योंकि इसका कोई संबंध ही नहीं मुझसे शांत होने का तुम्हारा। मैं इतना कर सकता हूं कि तुम अशांत कैसे हुए, उसकी प्रक्रिया की बात कर सकता हूं कि तुम ऐसे-ऐसे अशांत हो गए हो। मैं यह भी कह सकता हूं कि तुम ऐसे-ऐसे शांत हो जाओगे। और वह जो प्रक्रिया होगी ठीक उससे उलटी होगी जो तुम्हारी...अब हर आदमी अलग ढंग से अशांत हुआ है, आप कभी सोचते हैं? और सब आदमी एक गुरु के पास बैठ कर एक मंत्र लेकर शांत हो रहे हैं। यह कैसी बेवकूफी, यह हो ही नहीं सकती। यह एब्सर्ड है बिलकुल। क्योंकि अशांत वे इनडिविजुअल ढंग से हुए। और प्रत्येक के अशांत होने का अपनी मैथडोलाॅजी है, वह दूसरे जैसी नहीं है। और एक गुरु को पकड़े हुए हैं और वह सबके कान फंूक रहा है कि हम सबको शांत कर देंगे।
यह जीवन का जो मसला और उलझाव है उस उलझाव में एक बुनियादी बात समझ लेना कि जीवन का सब उलझाव नितांत वैयक्तिक है। इसलिए सुलझाव भी व्यक्तिगत होने वाला है। इसमें सामुहिक नुस्खे नहीं हैैं। अभी तो यह तो भीतर की बात है, अभी तो डाक्टर्स यह कहने लगे हैं, जो अभी नवीनतम शोध होती वह यह होती है कि बीमारी भी एक-एक की इनडिविजुअल है। अगर मुझको टी. बी. हो जाए और आपको टी. बी. हो जाए, तो ये दो टी. बी. हैं, ये एक ही टी. बी. नहीं हैं। उसका कारण यह है, और इसीलिए एक ही दवाई हो सकता है दोनों पर काम न करें। बीमारी एक है। लेकिन वह आदमी का पूरे का पूरा कंपोजिशन अलग है। हो सकता है उस आदमी को पहले टी. बी. के मलेरिया हुआ हो और मुझको न हुआ हो। तो वह जो टी. बी. उसके भीतर आई है उसके पीछे मलेरिया का सारा का सारा पृष्ठभूमि खड़ी हुई है। और मुझे मलेरिया हुआ नहीं कभी और टी. बी. हो गई, तो मेरी टी. बी. के पीछे वह पृष्ठभूमि नहीं मलेरिया की जो उसके पीछे है। अब वह आदमी क्रोधी हो सकता है और मैं क्रोधी नहीं हूं, तो मेरी टी. बी. और तरह की टी. बी., उस आदमी की और तरह की टी. बी। वे क्रोध के जर्म भी उस टी. बी. को दूसरी शकल देंगे। यानी अगर इस पर गौर इस वक्त, लेकिन इसमें कठिनाई है डाक्टर्स की कि अगर हम यह मान लें कि एक-एक बीमारी इनडिविजुअल ह, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि इनडिविजुअल दवा चाहिए। मजबूरी की वजह से एक ही दवा पिला रहे हैं।
लेकिन सचाई यह है, सचाई यह है कि एक-एक बीमारी--आपका जुकाम, आपका ही जुकाम है, दुनिया में न कभी किसी को वैसा हुआ, न हो सकता है। क्योंकि आपका पूरा कंपोजिशन, पूरा व्यक्तित्व। आप जिस बाप के बेटे हैं आप ही हैं, आपके बाप वह दूसरा नहीं है। और आप, और मजा यह है कि अभी जो नवीनतम चिंतन चलता है वह यह कहता हैः एक बाप के भी दो बेटे एक ही बाप के बेटे नहीं हैं। क्योंकि डेढ़ वर्ष में बाप बदल जाता है। सब बदल जाता है। डेढ़ वर्ष में मां बदल जाती है। एक ही बाप के दो बेेटे भी एक ही बाप के बेटे नहीं हैं। डेढ़ वर्ष में दूसरा बेटा पैदा होता है दो साल बाद। दो साल में मां भी बहुत बदल गई, बाप भी बहुत बदल गया। सारी धारा बदल गई। एक नई धारा से अब यह फिर नया बेटा पैदा हुआ। इसके मां-बाप बिलकुल अलग हैैं। इसलिए दो भाईयों में भी कोई तालमेल नहीं है। इसका नहीं होने का कुल कारण यह है कि उनमें भी कोई तालमेल नहीं हो सकता।
वे जो दो जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं वे भी बुनियादी रूप से अलग हैं। क्योंकि जो अणु उनको बनाते हैं वे दोनों अलग-अलग अणु हैं। अब बाप के एक संभोग में कोई एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं, इतने अणु हैं। यानी एक करोड़ जीवाणु हैं। और वे एक करोड़ जीवाणु प्रत्येक इनडिविजुअल हैैं। एक जीवाणु से दूसरा बिलकुल वैसा ही भिन्न है जैसा हमारे पूरे समाज में हम भिन्न हैं। वे एक करोड़ जीवाणु जो हैं वे सब अलग-अलग ढंग के हैं। अब उनमें से एक एक बच्चे को पैदा करता है, उसमें से दूसरा दूसरे बच्चे को पैदा करता है। वे दोनों बच्चे अलग होने वाले हैं। यह बहुत ध्यान से समझ लेना कि जीवन में अत्यंत वैयक्तिक है। और इसलिए जीवन का सारा उलझाव व्यक्ति का उलझाव है। और अंततः सुलझाव सब व्यक्तिगत होंगे।
इसलिए मैं इतना जोर देता हूं कि गुरु-वुरु बेमानी की बातें हैं। किसी के पीछे-वीछे चलना सब फिजूल है। फिकर तुम अपनी करो। और अपने पूरे व्यक्तित्व की, पूरे चित्त की करो। यह मुझसे मत पूछो कि क्या लक्ष्य है। वह लक्ष्य तो तुम्हारे जीवन भर चलने से उदघाटित होगा। जरूरी नहीं है कि हो जाए। क्योंकि लाख में से एकाध का होता दिखाई पड़ता है अब तक। बाकी का तो होता ही नहीं। वे बिना ही लक्ष्य के जीते हैं और मरते हैं। लेकिन हो सकता है, पासिबिलिटी भर है। और वह संभावना कम हो जाएगी अगर तुमने किसी और के चक्कर में पड़ कर चलना शुरू किया, तो एकदम कम हो जाएगी। तुम किसी के चक्कर को ही मत मानना। एक मौका तुम्हें भगवान ने दिया है कि तुमको बना दिया है। अब तुम क्यों फिकर करते हो। अब तुम इसकी फिकर करो कि क्या मैं कर सकता हूं खोज-बीन, वह करूं। कूद जाऊं पूरी ताकत से। कोई फिकर नहीं, नहीं मिलेगा तो नहीं मिलेगा। कोई ठेका भी नहीं है कि मिलना ही चाहिए। कोई ऐसी मजबूरी भी नहीं है ऊपर से कि मिलना ही चाहिए। लेकिन अगर तुम कूद गए, तो वह जरूर मिल जाएगा। वह जरूर मिल जाएगा। क्योंकि तुम्हारे कूदने में ही उसके मिलने की शुरुआत शुरू हो जाती है।
अपने चित्त को समझो, अपने व्यक्तित्व को समझो, अपने को समझो। और समझ उधार मत लाओ कभी भी। क्योंकि किसी की भी समझ उसके अपने व्यक्तित्व की समझ है। यानी अगर मैं कुछ भी कहूंगा, अगर मैं कोई जीवन का लक्ष्य भी बताऊं, तो वह मेरे जीवन के लक्ष्य की समझ होगी मेरी। तो मैं यही कह सकता हूं कि मैं अपने जीवन की लक्ष्य की समझ को किस-किस भांति खोज रहा हूं। वह लक्ष्य तो मेरा ही होना वाला है, वह मैं ही हो सकता हूं, तुम तुम ही हो सकते हो। और अगर ठीक से समझो, तो जब तक तुम तुम्हीं नहीं हो जाते तब तक तुम्हें आत्मवान कहलाने का कोई हक नहीं है। आत्मवान होने का इतना ही मतलब है कि तुम उस जगह पहुंच गए जहां तुम अद्वितीय हो गए, जहां तुमने वह जगह पा ली कि अब, अब तुम तुम जैसे तुम ही हो और कोई भी नहीं है। इसकी फिकर, यानी, मेरा मतलब समझ रहे तुम? एक-एक व्यक्ति के जीवन की दिशा और लक्ष्य बिलकुल उसका अपना है।
एक मैं तुम्हें घटना बताऊं, विनसेंट वानगाॅग का नाम तुमने सुना होगा। सुना न? पढ़ा न वानगाॅग को? वानगाॅग का बाप एक चर्च का पादरी है। और वह चाहता है उसका बेटा भी इस चर्च का पादरी हो जाए। और वानगाॅन चित्रकार है। और चित्र से कोई पैसे नहीं मिलते, भूखा मरना पड़ेगा। और पादरी का धंधा भी प्रतिष्ठित है--पैसा भी मिलता है, आदर भी है, इज्जत भी है। वानगाॅग को पढ़ा-लिढ़ा कर जबरदस्ती किसी तरह, वह पास भी नहीं हो पाता है पादरी की परीक्षा में। लेकिन फेल भी हो गया, तो भी उसे एक दूसरे दूर के गांव के चर्च में पादरी की जगह मिल जाती है, जहां कोई जाने को राजी नहीं है। वह वहां चला गया। छह महीने बाद उसके घर के लोग वहां देखने गए, तो चर्च में कोई आता-जाता ही नहीं। क्योंकि छह महीने में उसने कोई एक प्रवचन नहीं दिया। बल्कि कोई आ जाता है तो उसको बिठा कर माॅडल बना कर वह अपना पेंट करता रहता है। कोई अगर आ गया, कोई बुड्ढा-बुड्ढी आ गया प्रार्थना-व्रार्थना करने, तो वह प्रार्थना कर रहा है और वह जो पादरी है वह उसका पेंट कर रहा है। अब उसके पास रंग के लिए पैसे भी नहीं है, तो वह कोयले से ही पेंट कर रहा है।
फिर उसकी कमेटी को खबर हो गई, भई कहां का पादरी भेजा हुआ है? न तो वह कभी बोला एक दिन, न उसने कभी समझाया। बल्कि हम फंस जाएं तो वह और दरवाजा लगा कर कहता है कि थोड़ी देर बैठ जाइए जरा आपका चित्र बना लंू। तो वह चित्र बना रहा है। तो उसको तो चर्च से निकाल दिया गया फौरन। यह, यह कहां का आदमी आ गया! इसको बाहर करो, इसकी कोई जरूरत नहीं है।
उसके घर के लोगों ने समझाया कि तुम भूखे मर जाओगे। तो उसने जो बात कही, उसने कहा कि दो बातें मुझे दिखाई पड़ती हैंः या तो मैं अपने शरीर को भर लूंू या अपनी आत्मा को भर लंू। या तो मेरी आत्मा भूखी रह जाए या मेरा शरीर भूखा रह जाए। तो दोनों में से मैंने यही चुना कि शरीर भूखा रह जाए, कोई दिक्कत नहीं, लेकिन आत्मा को मैं भरना चाहता हूं। तो मैं नमस्कार करता हूं, मुझे पादरी नहीं होना। वह हो जाऊंगा तो मेरा शरीर भर जाएगा, लेकिन आत्मा मेरी सदा के लिए खाली रह जाएगी।
इतनी हिम्मत न हो तो आत्मा नहीं मिलती। तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे बड़े-बड़े जगतगुरुओं के पास जो आत्मा नहीं वह विंनसेंट वानगाॅग के पास है। हालांकि वह शराब पीता है। हालांकि वह वेश्याओें के घरों में भी पड़ा रहता है। लेकिन तुम्हारे बड़े से बड़े साधु के पास आत्मा नहीं है जो उसके पास है। मेरा मतलब समझ रहे तुम? मेरा मतलब इनडिविजुअल होने की हिम्मत।
एक वेश्या के घर में वह...उसे किसी लड़की ने कभी कोई प्रेम नहीं किया; क्योंकि वह आदमी अजीब है। बहुत सी चीजें होती हैं जिनको प्रेम किया जाता है--पैसा हो, शकल हो, इज्जत हो, आदर हो। वह उसके पास कुछ भी नहीं है। न उसके पैसा है, न इज्जत है, न आदर, सब जगह अपमानित। उसे कभी किसी ने कोई प्रेम ही नहीं किया। किसी लड़की ने कभी उससे कहा ही नहीं कि मैं तुम्हें पसंद करती हूं।
एक लड़की से उसका प्रेम था, लेकिन वह उसकी चचेरी बहन लगती है। उसके घर के लोगों ने कहा कि यह तो शादी हो नहीं सकती, इसलिए तुम इस घर में आना ही मत।
तो एक सांझ वह गया हैः सारे घर के लोग खाना खाने पर बैठे हुए हैं, जैसे ही वह अंदर घुस गया है, लड़की को उठा दिया टेबल से उन लोगों ने, एक थाली खाली रह गई है, उसने जाकर कहा कि कहां है वह लड़की, मैं आखिरी बार मिलने आया हूं; क्योंकि मैं विदा ले लंू, मैं जा रहा हूं। उन्होंने कहा कि नहीं, उससे तुम नहीं मिल सकते, वह यहां है भी नहीं। उसने कहाः वह है तो जरूर, क्योंकि थाली एक टेबल पर आधी खाई रह गई है, आप सब खाना खा रहे हैं, वह उठाई गई है। और ज्यादा देर मैं नहीं उससे मिलंूगा, सिर्फ एक दफा देख लंू, क्योंकि आखिरी वक्त, फिर दुबारा शायद मैं लौटंू भी नहीं, कल का भरोसा भी नहीं है कुछ। उन्होंने कहा कि नहीं, किसी शर्त पर हम उसे तुम्हें देखने नहीं देेंगे। उसने कहाः देखो, मैं और तो कुछ दांव नहीं लगा सकता हूं, आग जल रही है, उस आग पर उसने अपना हाथ रख दिया। उसने कहाः जितनी देर में हाथ रखे रह सकंू उतनी देर तक उसे देखंूगा, बस। उसका हाथ जलने लगा, और हाथ रखा हुआ है आग पर। और घर के लोगों ने उसे धक्का दिया। और उस लड़की के बाप ने कहा कि वह इतना पागल है कि अगर तुम लड़की को सामने ले आए, उसका पूरा शरीर जल जाएगा, वह हिलेगा नहीं, लेकिन पूरा देखता रहेगा जब तक जिंदा रहे।
इस आदमी के भीतर कुछ है जिसको हम कहेंगे बहुत ठोस। मेरा मतलब समझे न तुम? उसे अलग कर लिया है। उसको जिंदगी में, वह पेरिस चला आया है और किसी वेश्या के पास गया हुआ है। उस वेश्या ने उससे मजाक में ऐसा कह दिया कि तुम्हारा कान बहुत सुंदर है। वह घर गया और कान काट कर कपड़े में बंद करके उसके सामने जाकर रख दिया। क्योंकि यह शरीर तो कल खतम हो जाएगा। कल इसको लोग जला देंगे। और इस शरीर में कोई भी चीज सुंदर है किसी ने कभी कही नहीं थी। तूने सिर्फ कान की तारीफ की है, ये कान तू सम्हाल।
यह आदमी तो बिलकुल पागल मालूम होगा! लेकिन तैंतीस साल की उम्र में उसने कोई दो सौ के करीब पेंटिंग छोड़ गया है। एक-एक पेंटिंग की कीमत चार-चार, पांच-पांच लाख रुपया है, अब। उस वक्त तो चार-चार, पांच-पांच पैसे भी नहीं थी। और आज लोग कहते हैं कि वानगाॅग से बड़ा चित्रकार ही नहीं हुआ कभी। और होगा तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे।
अब अगर तुम, अगर कोई चित्रकार वानगाॅग के पीछे चलने लगे और कहीं कान काट कर दे आए, तो बेवकूफी है। नहीं, उसका कोई मतलब नहीं होगा। वह वही कर सकता है। और कोई करेगा तो नासमझी है। अब महावीर नग्न खड़े हो गए, वह समझ में आने वाला है। न मालूम कितने नासमझ नंगे घूम रहे उनके पीछे। वे बिलकुल पागल हैैं। बिलकुल पागल हैं। उनमें कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। उन्हें पता ही नहीं कि हम यह क्या कर रहे हैं। तो वह केवल नंगे होने की प्रदर्शनी है, इससे ज्यादा नहीं है। और उनके नग्नपन में वह सौंदर्य ही नहीं है जो महावीर के में है। क्योंकि वह नंगापन कोई उधार नहीं था किसी से। वह किसी मौज से आ गया है, कपड़े छूट गए हैं, वह आदमी नंगा खड़ा है। उसे पता भी नहीं कि वह नंगा है। इनको पूरी तरह पता है, ये अभ्यास कर रहे हैं।
मैं एक...हां, यह बिलकुल अभ्यास से किया हुआ नंगापन है। इसकी प्रैक्टिस करनी पड़ती है। मैं इधर एक, एक जैन साधु हैं, वे ब्रह्मचारी हैं, तो वे एक बीना के पास एक छोटी जगह में कहीं रहते हैं। मुझे बहुत दफे कहा था कभी आना। तो मैं उधर निकल रहा था, तो गया। दूर जंगल में रहते हैं। तो मैं जब उनकी झोपड़ी के पास पहंुचने लगा तो ऐसे खिड़की में से मुझे दिखा कि वे अंदर नंगे टहल रहे हैं। जब मैंने दरवाजे पर जाकर दस्तक दी, तो देखा कि वे चादर लपेट लिए। तो मैंने उनको कहा कि खिड़की से मुझे दिखाई पड़ा कि आप नंगे हैं। आपने चादर क्यों लपेट ली? उन्होंने कहा कि मैं जरा अभ्यास कर रहा हूं। अब मैं मुनि होने का अभ्यास कर रहा हूं। थोड़ी हिम्मत बढ़ाता हूं। पहले अभी अकेले कमरे में नंगा टहलंूगा, फिर अपने मित्रों में दो, चार-दस में, फिर थोड़ा गांव में, फिर दिल्ली में। ऐसा धीरे-धीरे जाएंगे।
यह अभ्यासित नंगापन है। प्रैक्टिस। यह सर्कस हो गई, इसका क्या मतलब है? अगर महावीर ने ऐसा किया हो तो दो कौड़ी का है वह नंगापन। उसका कोई मतलब ही नहीं रहा। लेकिन महावीर को करने का कोई कारण नहीं, वह उनकी सहज अपने व्यक्तित्व की खोज है। अब उसके पीछे जो गया वह मरा।
तो किसी के पीछे मत जाना। हमेशा इसकी फिकर करना कि मैं क्या हो सकता हूं। और कभी फिकर मत करना कि दुनिया क्या कहती है। क्योंकि तुमने यह फिकर की कि दुनिया क्या कहती है तुम फिर वह नहीं हो सकोगे जो तुम हो सकते हो। फिकर ही मत करना। यह चार दिन की जिंदगी है, इसमें फिकर मत करना कि दुनिया क्या कहती है। यही तपश्चर्या है कि तुम फिकर मत करना की दुनिया क्या कहती है। इससे बड़ा कोई तप नहीं है। क्योंकि दुनिया पूरे वक्त कहेगी कि ऐसा कमीज पहनो, ऐसा कपड़ा पहनो, सब ऐसा पहन रहे हैं। ऐसे उठो, सब ऐसे उठ रहे हैं। ऐसे बैठो, सब ऐसे बैठ रहे हैं। दुनिया तुम्हारे पर पूरे वक्त कोशिश करेगी कि तुममें व्यक्तित्व न हो। क्योंकि व्यक्तित्व खतरनाक है। तुम समाज एक अंग रहो, बस।
तुम्हारी आत्मा खो जाएगी, अपनी। वह कैसे तुम खो सकते हो उसकी बात मैं करता हूं, वह क्या है जिसको खोजना है उसकी बात मैं नहीं करता।

हूं, कुछ और बात हो तो कर लें, फिर उठना पड़ेगा।

क्योंकि इनमें से कुछ भी तुम्हारे इनर डिस्टेंस को कोई भी चोट नहीं पहंुचाता है। इनमें से कुछ भी। लेकिन अगर तुम्हें भीतर का कोई पता न हो, तो फिर तुम एक पत्नी के पति, और एक मकान के किराएदार, और दफ्तर के नौकर, यही रह जाते। तुम इसका जोड़ हो फिर। अगर भीतर कुछ भी नहीं है तो, ठीक। अगर भीतर कुछ भी नहीं है, तो तुम एक जोड़ हो इन्हीं चीजों का--एक लड़के के पिता, एक स्त्री के पति, एक मकान के किराएदार, एक दफ्तर के नौकर, किसी के मित्र, किसी के दुश्मन, सिर्फ तुमको इन सबका जोड़ है। इन सबको जोड़ दिया जाए, तो तुम बन गए। लेकिन तुम यह मानने को राजी नहीं होओगे कि मैं इन सबका जोड़ भर हूं। तुम कहोगेः समथिंग मोर। यह तो मैं हूं कि एक पत्नी का पति हूं, और एक लड़के का बाप हूं, और एक मकान का किराएदार हूं। लेकिन मैं भी हूं! और वह जो मैं है वह न किसी मकान का किराएदार है, और न किसी पत्नी का पति है, और न किसी बेटे का बाप है।
तुम यह तो कहोगे न कि मैं कुछ इस सबके अतिरिक्त भी हूं? और वह जो अतिरिक्त होना है वही तुम्हारा इनर एक्झिस्टेंस है, वही तुम्हारा अतंर-आत्मा है। इसका मतलब यह हुआ, इसका मतलब यह हुआ कि हमारे चारों तरफ बाहर के संबंध हैं। लेकिन कौन संबंधित है उन बाहर के संबंधों में? अगर भीतर कुछ भी नहीं है और संबंध ही संबंध हैं, तब तो कोई संबंधित नहीं है, फिर तो कोई संबंधित नहीं है। मैं हूं न! मैं किसी का पति हूं! तो मैं तो हूं, पति होने के अतिरिक्त, तब तो मैं पति हो सका हूं, नहीं तो पति भी नहीं हो सकता। मेरा होना तो जरूरी है न पति बनने के लिए। और अगर मैं पति ही रह गया हूं, तो मैंने आत्मा खो दी। मेरा वह जो अतिरिक्त होना है, वह कायम रहना चाहिए।
इसका मतलब यह हुआ कि निश्चित ही हम बाहर संबंधित हैं। और हमारे संबंध हमारा जीवन है, लेकिन हमारे संबंध हमारी आत्मा नहीं है। और जीवन और आत्मा में इतना ही फर्क है। लाइफ और एक्झिस्टेंस में इतना ही फर्क है। हमारे संबंध हमारा जीवन है। लेकिन हम जीवन से ज्यादा हैं। क्योंकि हम संबंधों के पहले हैं। संबंधों के बीज भी अलग हैं। और संबंध टूट जाएंगे तो भी हम होंगेे। हम नये संबंध खड़े कर लेंगे। तुम एक मकान के किराएदार हो कल तुम दूसरे मकान के किराएदार हो सकते हो, परसों तुम बिना मकान के रास्ते पर खड़े हो सकते हो कि हम मकान को इनकार करते हैं।
बुद्ध ने महल छोड़ा, तो जिस जंगल में वे गए, वहां के साधुओं ने एक छोटा झोपड़ा बना दिया। वे उस झोपड़े में रात सोने को जा रहे थे और उन्हें खयाल आया, यह क्या हुआ? एक साया छोड़ा दूसरा स्वीकार कर लिया, इससे फर्क क्या पड़ा? उन्होंने कहा कि नहीं, इस झोपड़े में मैं नहीं जाऊंगा, मैं झाड़ के नीचे ही सो रहूंगा। क्योंकि महल से झोपड़े में गया, मकान बदल गया, लेकिन फिर भी मैं एक मकान का वासी ही रहा न? मैं झाड़ के नीचे सोता हूं। अब यह जो आदमी झाड़ के नीचे सो गया यह कल मकान के भीतर भी था, वह एक संबंध था, यह एक दूसरा संबंध है। और यह जो भीतर आदमी है यह संबंध बदल ले सकता है।
मेरा कहना यह है कि तुम सारे संबंधों में रहो, भागने को मैं कहता नहीं, क्योंकि भागोगे कहां, जहां भी भागोगे नये संबंध निर्मित हो जाएंगे। अगर बुद्ध से मिलना हो, तो उनसे मैं कहूंगा कि आप अगर झोपड़े से भागे तो झाड़ से संबंध निर्मित हुआ। आप सोए तो कहीं? कल तक कहते महल में सोता हूं; अगर झोपड़े में सोते तो कहते झोपड़े मेें सोता हूं, आज कहोगे कि झाड़ के नीचे सोता हूं। सोओगे तो झाड़ से संबंध बनेगा, झोपड़े से बनेगा। न बनाओगे तो आकाश से बनेगा। जाओगे कहां? अगर पत्नी को छोड़ कर भाग जाओगे कल एक शिष्या मिल जाएगी, उससे एक संबंध बनेगा। बेटे को छोड़ कर भागोगे कल एक शिष्य मिल जाएगा, उससे संबंध बनेगा। जाओेगे कहां?
होने का मतलब ही संबंधित होना है। टू बी इ.ज टू बी रिलेटिड। नहीं तो हो ही नहीं सकते। तो इसलिए मैं कहता हूं कि संन्यासी पागलपन में पड़ा हुआ है। वह कहीं भी जाएगा वह फिर संबंधित हो जाएगा। इधर घर था, उधर आश्रम होगा। इधर परिवार के लोग थे, वहां एक नया परिवार होगा, आश्रम का परिवार होगा। मगर यह जारी रहेगा। क्योंकि मैं हूं और तुम हो और चारों तरफ सब हैं, तो हम किसी न किसी रूप में संबंधित होंगे, हम बच नहीं सकते। हमारे संबंध निगेटिव भी हो सकते हैं, तो भी हम संबंधित होंगे।
जैसे समझ लो कि इंदौर में इलेक्शन हो रहा है, और मैं वोट करने नहीं गया, तो भी मैं जिम्मेवार हूं जो आदमी चुनता है उसके लिए। लेकिन मैंने वोट नहीं किया हालांकि। लेकिन हो सकता है मेरे वोट करने से वह आदमी नहीं आता, मेरे वोट न करने से वह आदमी आ गया। कहीं भी मैं भाग सकता नहीं हूं। अगर आपका मुनि वोट नहीं कर रहा है, तो इसलिए यह न समझ ले कि वह वोट करने से बच गया। वह वोट भला न करे, लेकिन वह जो आदमी चुना जा रहा है उसके लिए जिम्मेवारी उसकी है। वह चाहे घर में बैठा रहे, रिस्पांसिबिलिटी है। इस वक्त मुल्क में जो हुकूमत चल रही है मैं जिम्मेवार हूंू। मैंने कभी वोट नहीं किया, लेकिन मैं जानता हूं कि मैं जिम्मेवार हूं। इससे सवाल नहीं उठता, चाहे हम निगेटिवली रिलेटिड हों, लेकिन रिलेटिड होंगे।
रिलेशन तो, अंतर्संबंध तो अनिवार्यता है। जीवन है, इसलिए भागने का कोई सवाल नहीं है। अब सवाल यह है कि चाहे इन अंतर्संबेंधों के बीच हम उसे खोज सकते हैं जो संबंध मात्र नहीं है, वह जो बीइंग है। उसे खोजा जा सकता है।
बल्कि मेरा अपना कहना हैः उसे संबंधों में जितनी सरलता से खोजा जा सकता है संबंधों से भाग कर उतनी सरलता से नहीं खोजा जा सकता। आज जब तुम रात अपनी पत्नी के गले में हाथ डाल कर प्रेम की बातें करने लगो, तब तुम देखना, कि यह जो तुम पेे्रम की बातों कर रहे हो और ये संबंध की बातें कर रहे हो, इसके अतिरिक्त भी तुम कुछ हो कि नहीं? और तब तुम पूरी तरह पाओगे कि एक पत्नी है और एक पति है और मैं भी हूं। और वह पति बिलकुल नहीं है, वह मामला ही और है।
मैं कल नसरुद्दीन की बात कह रहा था रात। उसका एक राजा की पत्नी से प्रेम था। वह फकीर था। तो एक रात वह उस पत्नी से विदा ले रहा है, उस राजा की पत्नी से, कोई तीन बजे हैं, और उस गांव को छोड़ रहा है। वह उस स्त्री से कहता है कि तुझसे सुंदर स्त्री मैंने कभी नहीं देखी। तुझे ही चाहा है, तू ही सब कुछ है। वह स्त्री तो खिल कर फूल हो गई। नसरुद्दीन जैसे आदमी ने यह बात कही। और तभी उसने कहा कि ठहर, ठहर! तू फूल मत जा, क्योंकि ये बातें में और स्त्रियों से भी कह चुका हूं। मैं ये बातें और स्त्रियों से भी कह चुका हूं। और वायदा नहीं करता कि आगे नहीं कहूंगा, आगे भी कहूंगा। और जो भी स्त्री मिलती है उससे ही यह कहता हूं। तो तू फूल मत जाना।
अब वह नसरुद्दीन बहुत अदभुत आदमी है। वह जो, जो घटना थी उस घटना को उसने दूसरा विस्तार दे दिया। उसने कहा कि मैं अलग हूं घटना से, और ये बातें मैंने औरों से भी कही हैं। ये बातें औरों से भी कहूंगा। और यह बता कर उसने यह भी बता दिया कि यह जो कहने वाला है इससे भी अतिरिक्त उसके भीतर एक कांशसनेस है जो इसको भी जानती है कि यह तो रोज कह रहा है। न मालूम किस-किस स्त्री से क्या-क्या कह रहा है।
तो हमारे संबंधों के बीच हमें धीरे-धीरे उसकी खोज करनी चाहिए जो संबंधित नहीं है--असंबंधित, असंग, वह जो असंग खड़ा हुआ है संबंधित होते हुए।
जब तुम चल रहे हो रास्ते पर, तब भी तुम्हारे भीतर कोई है जो नहीं चल रहा है। जब तुम मुझे सुन रहे हो, तब भी तुम्हारे भीतर कोई है जो नहीं सुन रहा है। जब तुम प्रेम कर रहे हो, तब भी तुम्हारे भीतर कोई है जो नहीं प्रेम कर रहा है। जब तुम लड़ रहे हो, तब भी तुम्हारे भीतर कोई है जो नहीं लड़ रहा है। सारे कमिटमेंट के बीच कोई अनकमिटेट पाॅइंट है, और उसी का नाम बीइंग, उसी का नाम आत्मा है। और उसकी खोज जारी रखनी चाहिए। और उससे भागने की कोई जरूरत नहीं है। अपने सारे संबंधों में खयाल रखो कि मेरे भीतर कोई असंबंधित भी है क्या? अगर है तो उसकी कांशसनेस बढ़ाए चले जाओ, बढ़ाए चले जाओ। और तब तुम पाओगेे कि जिंदगी एक नाटक हो गई, और जिंदगी एक अभिनय हो गई। और तब तुम पाओगे कि अच्छा हो कि बुरा, सुख आए कि दुख, सफलता मिले कि असफलता, यश मिले कि अपयश, तुम्हारे भीतर एक बिंदु है जो बाहर है। यह बिंदु हमेशा आउटसाइडर है।
वह जो तुम मुझसे पूछते हो कि आप इनसाइडर कि आउटसाइडर? यह बिंदु हमेशा आउटसाइडर है। यह कभी भी इनसाइडर नहीं है। यह कभी भीतर आया नहीं, वह हमेशा बाहर खड़ा है। जिसको पुराने शास्त्रों ने कुटस्थ आत्मा कहा है, वह आउटसाइडर है। वह जो हमेशा ही बाहर है। यानी तुम कुछ भी उपाय करो, वह भीतर होता ही नहीं। तुम कुछ भी उपाय करो तुम उस बिंदु को भीतर ला ही नहीं सकते। अगर तुम किसी की हत्या भी कर रहे हो, अब हत्या बहुत ही टोटल एक्ट है। क्योंकि जब तक कि कोई पूरी तरह से न भर जाए कोई किसी की हत्या नहीं करता। हत्या करने का मतलब है तुम पूरी तरह से डूब गए तब तुम करते हो। लेकिन हत्या करते क्षण में भी तुम्हारे भीतर एक है जो देख रहा है कि तुम हत्या कर रहे हो और अलग है। उस क्षण में भी अगर तुम जाग कर देखो तुम पाओगे कि तुम हत्या भी कर रहे हो और तुम्हारे भीतर कोई अलग है।
इस जो निरंतर बाहर है और बाहर ही है और भीतर नहीं हो सकता। इसका बोध जितना बढ़ता चला जाए, उतना, उतना कहना चाहिए कि सत्य के निकट हम पहंुचने लगे। और जब यह पता चल जाए कि कोई बाहर है, तो फिर भीतर होना एक नाटक हो गया, और एक खेल हो गया, और एक मौज हो गई, और एक मजा हो गया। फिर तुम इनसाइडर हो सकते हो। लेकिन उससे कोई, फिर कोई उसमें कोई कठिनाई नहीं है। फिर तुम पति हो सकते हो, तुम दुकानदार हो सकते हो, तुम दोस्त हो सकते हो, तुम दुश्मन हो सकते हो, और वह सब खेल है। और तुम उसी तरह खेल रहे जैसे कोई खेल खेल रहा हो। उतना ही। मगर वह जो आउटसाइडर है, वह जो बाह्य है, बाहर खड़ा हुआ बिंदु है, वह स्पष्ट से स्पष्ट होते जाना चाहिए। और ध्यान जिसे मैं कहता हूं, उसे ध्यान मैं इसी को कहता हूं कि भीतर रहते हुए जगत के वह जो सदा बाहर है उसको जानने की प्रक्रिया का नाम ध्यान है। सब भीतर होते हुए जो सदा बाहर है।
हम सब भीतर हैं और बाहर भी हैं। लेकिन भीतर में हम इतने भूल जाते हैं कि बाहर होने का हमेें कोई पता नहीं, इसलिए हम बहुत दुख उठाते हैं, व्यर्थ दुख उठाते हैं। यानी वह मामला ऐसा ही है जैसे कि कोई आदमी अभिनय कर रहा हो और भूल जाए।
मुझे किसी ने सुनाया...और वह जो रावण बना है और वह जो स्त्री सीता बनी है। रामलीला शुरू हुई है, और वह स्वयंबर हो रहा है। रावण भी वहां आया हुआ था। लेकिन खबर आई है कि लंका में आग लग गई है। खबर आती है, बाहर शोरगुल मचता है, लंका में आग लगी है। तो रावण चला जाता है। इस बीच राम का स्वयंबर हो जाता है। वे बाहर चिल्ला रहे हैं कि लंका में आग लगी है, और उस रावण ने कहा कि लगी रहने दो, आज तो हम स्वयंबर करा कर ही जाएंगे। वह जो रावण बना था आदमी, उसने कहा, लगी रहने दो, आज तो हम स्वयंबर करके ही जाएंगे।
अब बड़ी मुश्किल फैल गई। क्योंकि मामला यह है कि यह आदमी अगर न हटे यहां से तो सारी रामलीला खतम हो गई, क्योंकि वह आगे, आगे का फिर उपाय ही नहीं है। और उसने कहा कि कहां है धनुषबाण? लाओ हम तोड़े देते हैं। और उसने तो उठ कर, वह जनक के सामने धनुषबाण रखा है, उसने तो तोड़ दिया। अब क्या करोगे? अब बड़ी मुसीबत हो गई। अब तो यह हो गया कि अब होगा क्या इसके आगे? क्योंकि सीता का वरण करो उससे। धनुषबाण तोड़ दिया।
तो वह जनक जो था वह बहुत बुद्धिमान बूढ़ा था गांव का। उसने जोर से चिल्ला कर कहा कि भृत्यो, यह तुम बच्चों के खेलने का धनुष कहां उठा लाए, शिवजी का धनुषबाण कहां है? जल्दी से पर्दा गिराया, उस आदमी को धक्का देकर बाहर निकाला। तो पता चला कि वह जो था उसका उस स्त्री से प्रेम था, वह जो सीता बनी थी। वह यह भूल ही गया कि मामला यह नाटक में चल रहा है, वह तो अपने उस खयाल में आ गया कि यह मौका काहे को चूकना। यह मौका मिला नहीं था कभी, यह मौका मिल गया, उसने कहा, अब झंझट क्यों करनी। और वरण करो अपने घर जाओ। नाटक-वाटक नहीं रहा था मामला। समझे न?
यह जो चारों तरफ हमारी जिंदगी है, वह अगर हमें बाहर के बिंदु का बोध हो जाए, तो एकदम नाटक हो जाती है। यह ऐसे हो जाएगी कि तुम पूरे रास्ते भी इसको करोगे और पूरे वक्त बाहर रहोगे। और नहीं कुछ होता है कुछ परिणाम, तो कोई चिंता नहीं, कुछ फिकर नहीं।
तो एक ही साथ इनसाइड और आउटसाइड होना ही कला है जीवन की।
अभी तक दो तरह के लोग हैंः इनसाइडर्स हैं, वे कहते हैं, हम कैसे बाहर जाएं, हम तो उलझे हैं--पत्नी है, बच्चा है, इनसे कहां से बाहर जाएं, एक यह। दूसरे यह कहते हैंः हम सब पत्नी-वत्नी छोड़ कर भाग आए, हम तो बाहर हो गए, हम भीतर जाते नहीं। ये दोनों गड़बड़ हैं।
ऐसा संन्यासी चाहिए जो गृहस्थ हो सके। ऐसा गृहस्थ चाहिए जो संन्यासी हो। तब धर्म की पूरी की पूरी संभावना है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, ये सारे शब्द हैं। ये सारे शब्द हैं। इसलिए इनको अगर उपयोग करिए तो बिलकुल हो सकता है। लेकिन जिस आनंद को आप पाने वाले हैं, जिस आनंद को मैं पाने वाला हूं, तो कहना चाहिए, आनंद नंबर एक, आनंद नंबर दो; आत्मा नंबर एक, आत्मा नंबर दो। आप मेरा मतलब समझे न? ये जो शब्द हैं ये तो बिलकुल एक से हैं कि आनंद को पाना जीवन का लक्ष्य है। कह दें, कोई हर्जा नहीं है। लेकिन आप जिस भांति से यह आनंद पाएंगे उस भांति से आप ही पा सकते हैं।

प्रश्नः एप्रोज अलग है और लक्ष्य एक हो।

लक्ष्य तो है ही नहीं अभी, अभी तो वे ही वे है। अभी लक्ष्य कहां है, लक्ष्य आ जाए तो मामला ही खतम हो गया। और जिस दिन लक्ष्य आएगा उस दिन तो आप ही नहीं बचोगे। वह तो वे पर ही आप हो। यानी यह ध्यान रखना कि यह जो, यह जो जीवन का जो राज है पूरा का पूरा, रास्ते पर जब तक आप हो, पहंुच रहे हो जब तक तभी तक आप हो, पहंुच गए कि आप खतम, फिर तो आप वहां हो ही नहीं। न वहां मैं हूं, न कोई और है वहां। और जहां तक हम हैं वहां तक हम बिलकुल अलग-अलग हैं। हमारा आनंद भी अलग-अलग है, दुख भी अलग-अलग है, सुख भी अलग-अलग है, हमारी चिंता भी अलग-अलग है। हमारा सब होना अलग-अलग है। और जहां सब एक हो जाएगा वहां सब एक इसीलिए हो जाएगा कि आप ही नहीं बचोगे, मैं भी नहीं बचंूगा।
जैसे, मेरा मतलब आप समझें, गंगा जा रही है और नर्मदा जा रही है और गोदावरी जा रही है और कावेरी भागी चली जा रही है, सबके अपने रास्ते हैं--अपने पहाड़ हैं, अपने प्रपात हैं, अपना मार्ग है। न गंगा का रास्ता गोदावरी का रास्ता, न गोदावरी का रास्ता गंगा का रास्ता। जब तक गंगा गंगा है तब तक अलग है, और जैसे ही समुद्र में गिरी गंगा नहीं रह गई, गोदावरी गिरी गोदावरी नहीं रह गई। और वहां गिर कर न कोई रास्ता है, न कोई गोदावरी है, न कोई गंगा है।
तो जो चरम परिणति है, जो अंतिम पहंुचना है, वह पहंुचने की तो बड़ी अदभुत बात है, क्योंकि वहां पहुंचने वाला खतम हो जाता है। पहंुचता है और खतम हो जाता है। और जब तक पहंुचना चल रहा है तब तक आप अलग हैं, मैं अलग हूं।
इसलिए जो तथ्य की बात है वह यह है कि हम जानें कि हम अलग हैं। और वह जो अंतिम चरम बात होगी, उसको तो करने का कोई मतलब नहीं है, वहां तो कोई बचता नहीं है। वहां तो गए और गए, आप भी गए और मैं भी गया। और जब तक आप हैं तभी तक तो हम पूछ रहे हैं कि जीवन का लक्ष्य क्या है? जब तक मैं हूं तब तक मैं खोज रहा हूं कि जीवन का लक्ष्य क्या है, तब तक हम बिलकुल अलग-अलग हैं। और यह जो मेरा जोर है, यह मेरा जोर है कि आप अपने तईं ही खोजें यह इसीलिए जोर है। कि आप अपने तईं ही खोजें तो आप जरूर पहंुच जाएंगे उस सागर तक जहां आप नहीं रह जाएंगे। और उस सागर के लिए न तो आनंद कहा जा सकता, और न सत्य कहा जा सकता, उस सागर के लिए कोई नाम देना संभव नहीं है, ये सब रास्ते एप्रोच के ही नाम हैं, सब बीच के नाम हैं, वहां कोई नाम नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, तो इसलिए मैं कह रहा हूं कि वह जो आपके भीतर छिपा है, जो अंत में रुका है, जो अंत में मिलेगा, उसे कैसे पाया जा सकता है उसकी विधि की चर्चा हो सकती है। लेकिन वह क्या है कोई दूसरा उसे आपके लिए निर्धारित नहीं करेगा। यह तो मैं कह ही रहा हूं। उसकी विधि की चर्चा हो सकती है।

प्रश्नः विधि भी अलग-अलग हो सकती है, अनंत हो सकती है।

अनंत तो होने ही वाली है, लेकिन चर्चा से, वह विधि की चर्चा से आप अपनी विधि को खोजने में सहयोग पा सकते हैं। अलग-अलग ही होने वाली है। हम रास्ते पर चलते भी हैं, तो मैं भी चल रहा हूं, आप भी चल रहे हैं, फिर भी हम अलग-अलग चलते हैं। अगर एक अंधे आदमी से पूछें, तो वह बता देगा कि कौन आ रहा, पैर की आवाज सुन कर। दो आदमियों के पैर का जो चाप है, वह बिलकुल अलग-अलग होता है।
एक संन्यासी हैं, अंधे हैं, वे दस साल पहले मुझे मिले थे। और दस बाद अचानक, वे ट्रेन में थे ऊपर की बर्थ पर, मैं नीचे की बर्थ पर, जिस स्टेशन से मैं चढ़ा, ऊपर सोए थे, अंधे हैं, जैसे ही मैं चढ़ा, तो न तो मेरा किसी ने नाम लिया न कुछ, लेकिन मैं बात कर रहा था जो लोग छोड़ने आए थे, मैं लेटने लगा तो उन्होंने मेरा नाम लिया और कहा कि आप हैं क्या? मैंने कहाः आपको कैसे पता चला? उन्होंने कहाः आंख न होने से अब तो आवाज से ही पहचानता हूं, आवाज ही खयाल रखता हूं, यह आवाज से।
अंधा आदमी आपके पैर की चाप पहचानने लगता है कि कौन आ रहा है। क्योंकि पैर की चाप तो सब अलग-अलग चापें हैं। चलते हम दोनों हैं।
विधि भिन्न-भिन्न होगी, बिलकुल एक हो तो भी भिन्न-भिन्न होगी; क्योंकि हम भिन्न-भिन्न हैं। यह भिन्नता पर मेरा जोर इसलिए है कि किसी दिन आप अभिनेता पर पहंुच जाएं। और अगर आपने पहंुचे पहले ही अभिनेता कायम करने की कोशिश की, तो आप कभी नहीं पहुंच पाएंगे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बिलकुल ही। लेकिन आप अलग तरह से छोड़ेंगे। आप अलग तरह से छोड़ेंगे और जो छोड़ेंगे वह दूसरा है आपका, जो ये छोड़ेंगे वह दूसरा है। शब्दों में तो बिलकुल कामन दिखाई पड़ेगा कि पहला सब छोड़ देना है। लेकिन एक आदमी चोर है और एक आदमी संन्यासी है, और दोनों सुन रहे हैं कि पहलासब छोड़ देना है। और दोनों, एक चोर को चोरी छोड़ देनी है, एक संन्यासी को संन्यास छोड़ देना है। दोनों के लिए मामला बहुत अलग है। और दोनों की छोड़ने की प्रक्रिया अलग होगी। क्योंकि चोरी और ढंग से पकड़नी पड़ती है, संन्यास और ढंग से पकड़ना पड़ता है। मेरा मतलब, शब्दों में तो बिलकुल ठीक है, ऐसा लगेगा कि छोड़ देना है।
एक घटना कहूं, फिर उठें अपन।
बुद्ध ने एक रात, उनका नियम था रोज का, कि आखिरी प्रवचन जब रात का होता तो वे कहते कि अब भिक्षुओं, रात के काम में लग जाओ। तो रात का काम यह थाः आखिरी ध्यान और फिर विश्राम। तब रोज-रोज यह कहना कि ध्यान करो फिजूल थाः रात्रि का आखिरी काम करो। उस दिन एक चोर भी आया था, एक वेश्या भी आई थी सुनने। जैसे ही उन्होंने कहा कि अब रात्रि का आखिरी का काम करो। भिक्षु तो सोचे कि चलो ध्यान करें। चोर ने सोचा, बड़ी देर हो गई, रात का वक्त हो गया, अपना काम शुरू करें, कहां की झंझट में, कहां की बातों में पड़े हैं। वेश्या ने सुना उसे खयाल आया कि धंधे का वक्त चुका जा रहा है, जाऊं अपने रात का काम करूं। दूसरे दिन सुबह बुद्ध ने कहा कि भिक्षुओं तुम्हें पता नहीं रात मैंने एक ही बात कही थी, लेकिन एक ही अर्थ नहीं निकला। एक चोर ने समझा कि जाऊं चोरी करूं, एक वेश्या ने समझा कि जाऊं दुकान खोलंू, तुमने समझा कि जाएं ध्यान करें। और मैंने एक ही बात कही थी कि रात का कार्य करो।
शब्द तो एक ही हैं, वह गृहीता मन अलग-अलग है। मेथड की भी जो मैं बात करूंगा वह एक ही करूंगा, लेकिन वह आपके साथ अलग-अलग हो जाने वाली है। यह ध्यान में रहे, तो धीरे से आप अपने अलग मेथड को खोजने में सुविधा होगी। और अगर ऐसी जिद्द कर ली कि जो कह दिया उसको लकीर के फकीर होकर पूरा कर देना है, तो उसमें खतरा हो जाएगा, तो उसमें खतरा हो जाएगा।

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