तंत्र--सूत्र--(भाग--5) प्रवचन--67
मन और पदार्थ के पार
प्रवचन-67-(ओशो)
सूत्र:
94-अपने शरीर अस्थियों, मांस ओर रक्त को
ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।
95-अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों
में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।
सदियों से विश्वभर के दार्शनिकों में यह विवाद रहा है कि क्या है वह मूल तत्व जिससे यह जगत निर्मित हुआ है?
ऐसे सिद्धांत हैं दर्शन की ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो कहती हैं कि पदार्थ मूल सत्य है और मन बस उसका ही विकास है, पदार्थ मूल है और मन उसी का परिणाम मात्र है, मन भी पदार्थ ही है बस जरा सूक्ष्म रूप में है। भारत में चार्वाक ने, ग्रीस में इपिकुरस ने यह धारणा दी। और आज भी मार्क्सवादी तथा दूसरे भौतिकवादी पदार्थ की भाषा में ही बात करते हैं।
इसके ठीक विपरीत एक दूसरी विचारधारा है, जो कहती है कि पदार्थ की अपेक्षा मन मूल तत्व है और पदार्थ मन का ही एक रूप है। वेदांत तथा अन्य आदर्शवादी दार्शनिकों ने सब कुछ मन तक ही सीमित कर दिया।
इस सदी के आरंभ में ऐसा सोचा जाता था कि भौतिकवादी जीत गए हैं, क्योंकि विज्ञान की खोजें सिद्ध कर रही थीं-या सिद्ध करती प्रतीत होती थीं-कि पदार्थ ही मूल तत्व है। लेकिन इन पिछले दो या तीन दशकों में सारी बात ही बदल गई। इस सदी के एक महान वैज्ञानिक एडिंगटन ने कहा है, 'अब हम कह सकते हैं कि यह संसार पदार्थ की भांति कम और एक विचार की भांति अधिक प्रतीत होता है।’ और मैक्स प्लाक तथा आइंस्टीन जैसे भौतिकविदों ने गहन शोध में पाया कि जैसे-जैसे हम पदार्थ में गहरे प्रवेश करते जाते हैं उतना ही पदार्थ समाप्त होता जाता है, वहां पदार्थ से कुछ अधिक, पदार्थ के पार कुछ प्रतीत होता है। तुम उसे पदार्थ की बजाय मन अधिक सरलता से कह सकते हो, क्योंकि वह ऊर्जा का एक रूप है। एक बात निश्चित है : पुराने अर्थों में यह पदार्थ नहीं रहा।
तंत्र के लिए, योग के लिए तो कोई चुनाव ही नहीं है। तंत्र तो कभी नहीं कहता है कि पदार्थ मूल तत्व है या मन मूल तत्व है। तंत्र का तीसरा मत है, और मेरी दृष्टि में अंतत: यही मत जीतेगा। तंत्र की मान्यता है कि पदार्थ और मन दोनों एक तीसरी वस्तु के ही दो रूप हैं जिसे हम 'एक्स' कह सकते हैं। न तो मन असली चीज है न पदार्थ, बल्कि एक तीसरी ही सत्ता है जो दोनों में मौजूद है, परंतु किसी में सीमित नहीं, दोनों ही उसकी अभिव्यक्तियों हैं। पदार्थ और मन वास्तविक नहीं हैं बल्कि दोनों ही एक तीसरी मूलभूत सत्ता की अभिव्यक्तियां हैं, जो छिपी रहती है। जब भी वह स्वयं को प्रकट करती है तो या तो पदार्थ के रूप में प्रकट करती है या मन के।
तो पदार्थ और मन तथा उनके अनुयायियों के बीच सारा विवाद व्यर्थ है, क्योंकि भौतिकी को अब जिस परम तत्व का पता लगा है वह न तो पदार्थ जैसा है, न मन जैसा है। सारा विभाजन समाप्त हो गया, द्वैत विदा हो गया। इस मूल तत्व का व्यवहार बहुत बेबूझ है : कभी तो वह पदार्थ की भांति व्यवहार करता है, कभी मन की भांति।
तुम जानकर हैरान होओगे कि विज्ञान अलग-अलग अणुओं के बारे में कुछ भी नहीं कह सकता-मनुष्य की भांति उनका व्यवहार भी अनिश्चित है। किसी स्वतंत्र अणु के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा व्यवहार करेगा। ऐसा लगता है जैसे उसे पूरी स्वतंत्रता है कोई कार्य-कारण उसके व्यवहार को निश्चित नहीं कर सकता। हम समूह के व्यवहार की तो पहले से भविष्यवाणी कर सकते हैं, लेकिन एक अणु के व्यवहार की नहीं। कभी तो वह पदार्थ की भांति कार्य-कारण की भाषा में व्यवहार करता है और कभी मन की तरह व्यवहार करने लगता है, जैसे कि उसकी मर्जी हो जैसे कि उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता हो।
तंत्र के साथ विज्ञान की यह अंतर्दृष्टि पूरी तरह से मेल खाती है। लेकिन तंत्र ऐसा क्यों कहता है कि मूल सत्य तीसरी अज्ञात सत्ता एक्स है? इसलिए नहीं कि तंत्र सत्य के बारे में कोई सिद्धांत प्रतिपादित करना चाहता है। नहीं, यह तो केवल साधना में, आध्यात्मिक विकास में सहयोग के लिए कहा गया है।
सत्य यदि तीसरा ही है, मन और पदार्थ केवल उसकी दो अभिव्यक्तियां ही हैं-तो तुम सत्य में दो द्वारों से प्रवेश कर सकते हो : चाहे पदार्थ से, चाहे मन से। यदि तुम पदार्थ के द्वार से प्रवेश करना चाहो तो कुछ भिन्न विधियां हैं। पदार्थ से, शरीर से प्रवेश करने की एक विधि हठयोग है। उसमें तुम्हें शरीर को रूपांतरित करना पड़ेगा, शरीर के कुछ विशेष रासायनिक तत्वों को निखारना पड़ेगा, तब तुम सत्य में प्रवेश करोगे। या, तुम सीधे मन से ही प्रवेश कर सकते हो। राजयोग और दूसरी विधियां मन से प्रवेश करने के उपाय हैं। और तंत्र के लिए दोनों ही सही हैं।
तंत्र से तुम यह नहीं कह सकते कि शरीर की कोई खास मुद्रा सत्य में प्रवेश करने में कैसे सहायक हो सकती है? तंत्र कहता है मुद्राएं सहायक हो सकती हैं। शरीर की मुद्रा मात्र शरीर की ही मुद्रा नहीं है, क्योंकि शरीर वस्तुत: सत्य का ही एक रूप है। तो जब तुम शरीर को कोई विशेष मुद्रा दे रहे हो, तब तुम सत्य को भी एक रूप दे रहे हो।
और ऐसे आसन हैं, जिनसे तुम सरलता से अपने भीतर प्रवेश कर सकते हो। कोई विशेष प्रकार का भोजन भी इसमें सहायक हो सकता है। श्वास की कोई विशेष प्रक्रिया भी तुम्हें सहयोग दे सकती है। भोजन, श्वास, शरीर, ये सब भौतिक चीजें हैं। परंतु तुम इनके द्वारा सत्य में प्रवेश कर सकते हो।
और मन के साथ भी ऐसा ही है-केवल मन पर कार्य करके भी तुम सत्य में प्रवेश कर सकते हो। कई बार तुम्हारे मन में प्रश्न उठा होगा कि शिव पार्वती को कुछ ऐसी विधियां बता रहे हैं जो कल्पनायुक्त हैं। यह प्रश्न उठना अनिवार्य ही है कि कल्पना किस प्रकार सहयोगी हो सकती है?
कल्पना सत्य का एक रूप कल मन भी सत्य का एक रूप है। ओर जब तुम मन में कल्पना को बदलते हो तो तुम सत्य के रूप में परिवर्तन कर रहे हो। तंत्र के लिए कुछ भी असत्य नहीं है। यहां तक कि स्वप्न की भी अपनी वास्तविकता है और वह तुम्हें प्रभावित करती है। तो एक स्वप्न भी मात्र स्वप्न ही नहीं है। स्वप्न भी उतना ही सत्य है जितनी कि कोई और चीज, क्योंकि वह भी तुम्हें प्रभावित करता है, तुम्हें बदलता है। उस स्वप्न के कारण तुम वही नहीं रह जाते जो पहले थे और कभी वही नहीं रह पाओगे।
अगर तुम सपने में चोर हो तो सुबह उठकर तुम कहोगे कि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, यह तो केवल एक स्वप्न ही था। लेकिन तंत्र ऐसा नहीं कहता। चोरी के सपने ने तुम्हें बदल दिया। सुबह तुम्हारी वास्तविकता कुछ और ही होगी, तुम वही नहीं रह सकते। चाहे तुम इसे पहचानो या न पहचानो उस सपने ने तुम्हें प्रभावित किया। वह तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे भविष्य पर प्रभाव डालेगा, वह एक बीज बन गया।
सपना भी असंगत नहीं है। और तुम सोचते हो कि सपने तो बस सपने हैं। ऐसा नहीं है क्योंकि तुम होशपूर्वक किसी सपने का निर्माण नहीं कर सकते, तुम कोई सपना चुन नहीं सकते। तुमको वह ऐसे ही आता है जैसे और चीजें आती हैं। क्या तुम किसी सपने का चुनाव कर सकते हो? क्या तुम तय कर सकते हो कि आज रात तुम फलां सपना देखोगे? क्या तुम किसी सपने की इच्छा कर सकते हो? तुम सपने की इच्छा नहीं कर सकते, क्योंकि उसके लिए तुम्हारी वास्तविकता में परिवर्तन की जरूरत होती है। तभी कोई सपना आता है।
सपना तो एक फूल की भांति है। गुलाब का फूल गुलाब की झाड़ी पर ही लगता है, और फूल को तुम तब तक नहीं बदल सकते, जब तक कि तुम बीज से लेकर आगे की सारी की सारी प्रक्रिया ही न बदल डालो। तुम अकेले फूल को नहीं बदल सकते। सपना फूल की तरह ही है। यदि तुम सपने को बदल सकते हो तो सत्य को भी बदल सकते हो।
तो कई बार कई विधियां कल्पनायुक्त लगेंगी। लेकिन वे भी वास्तविक हैं। तंत्र तुम्हारी कल्पना को बदलने की चेष्टा कर रहा है। अगर कल्पना को बदला जा सके तो उसके पीछे छिपा हुआ सत्य स्वत: ही बदल जाएगा।
जिन विधियों की आज हम चर्चा करेंगे वे तुम्हारी कल्पना, तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारे मन से शुरू होती हैं। तीन बातें स्मरण रखने जैसी हैं। एक : तुम्हारे मन में जो भी होता है वह ऊपर-ऊपर नहीं है, वह तुम्हारे कारण हो रहा है। वह इसलिए हो रहा है क्योंकि तुम एक खास परिस्थिति में हो। तो दो चीजें की जा सकती हैं : या तो परिस्थिति को बदलो, तब तुम्हें शरीर से शुरू करना पड़ेगा, क्योंकि शरीर है परिस्थिति; या परिस्थिति की बजाय परिणाम को बदल डालो। यह जरा कठिन होगा, उसे बदलना सरल नहीं होगा। लेकिन यदि तुम प्रयास करो और करते ही चले जाओ तो तुम्हारा प्रयास उसे बदल देगा।
एक बात निश्चित है : चाहे तुम उस लक्ष्य को न पा सको, जिसके बाबत तुम सोच रहे थे पर यह तथ्य कि तुमने प्रयास किया, तुम्हें बदल देगा। चाहे तुम सफल हो या असफल, लेकिन तुम बदल जाओगे। तुम्हारा प्रयास करना ही तुम्हें बदल देगा।’
तीसरे, यह मत सोचो कि मन केवल मन है और स्वप्न केवल स्वप्न है। यदि तुम अपने सपने को दिशा दे सको-और पश्चिम में दिशामान स्वप्न नाम की चिकित्सा पद्धति प्ररंभ हो भी गई है-यदि तुम अपने सपने को दिशा दे सको तो तुम स्वयं को दिशा दे रहे हो। तब बहुत सी बातें बदल जाएंगी।
एक प्राचीन तिब्बती विधि है : सिंह गर्जना। यदि तुम क्रोध में हो या कामवासना से, घृणा से, द्वेष से भरे हो तो तिब्बती गुरु तुम्हें यह विधि देगा-सिंह गर्जना। तुम्हें दर्पण के सामने बैठकर यह कल्पना करनी होती है कि तुम मनुष्य नहीं सिंह हो। तुम्हें सिंह की तरह से चेहरा बनाना होता है जीभ बाहर लटका कर गर्जना करनी होती है। और इसका इतना अभ्यास करना होता है कि तुम भूल ही जाओगे कि तुम आदमी हो और सिंह होने की कल्पना कर रहे हो यह एकदम सत्य प्रतीत होने लगेगा। और एक क्षण आता है जब तुम अपनी ही कल्पना के शिकार हो जाते हो और सिंह बन जाते हो। अचानक तुमसे एक गर्जना उठती है और तुम रूपांतरित हो जाते हो। उस गर्जना में सब काम, क्रोध और घृणा समाप्त हो जाती है। उसके साथ ही तुम ऐसे गहन मौन का अनुभव करते हो जो अपूर्व है।
प्राचीन तिब्बती मठों में विशेष कक्ष होते थे जिनमें दर्पण ही दर्पण लगे होते थे। जब भी कोई क्रोध, घृणा या द्वेष जैसे किसी मनोवेग से पीड़ित होता तो उसे तब तक के लिए उस कक्ष में भेज दिया जाता, जब तक कि वह चरम सीमा तक न पहुंच जाए। और जब वह चरम सीमा पर पहुंच जाता तो पूरे मठ को पता लग जाता, क्योंकि भीतर से भयंकर सिंह-गर्जना उठती। तब सारा मठ इकट्ठा होकर उस व्यक्ति का स्वागत करता और वह व्यक्ति दूसरा ही होकर बाहर आता।
इसमें तीन दिन भी लग सकते हैं, सात दिन भी लग सकते हैं। भोजन उसे पहुंचा दिया जाता था, मगर उसे बाहर नहीं आने दिया जाता था। उसे तब तक सिंह होने की कल्पना पर दृढ़ रहना पड़ता जब तक कि अचेतन के गहनतम तल से गर्जना न उठे। उस गर्जना में पूरा शरीर भाग लेता, उसकी एक-एक कोशिका, शरीर का एक-एक कोष्ठ गरजता। और उस गर्जना में सब कुछ बाहर फिंक जाता है।
यह गहनतम रेचन है। इसके बाद वह व्यक्ति कभी क्रोधित नहीं होगा, क्योंकि अब वह विष ही उसमें नहीं है, पहली बार उसका चेहरा मानवीय होगा।
तुम्हारा चेहरा मानवीय नहीं हो सकता, क्योंकि बहुत कुछ तुममें दबा हुआ है। द्वेष, घृणा, क्रोध, जो भी तुमने दबाया है सब वहां छिपा पड़ा है। चमड़ी के नीचे पर्त दर पर्त दबी हुई हैं। उन सब से तुम्हारे चेहरे का निर्माण हो रहा है। यदि उन सबको बाहर निकाला जाए...। और यह मात्र दिवास्वप्न है, एक दिशामान दिवास्वप्न!
पश्चिम में अब एक और चिकित्सा पद्धति प्रचलित हो रही है जिसे वे कहते हैं, साइकोड्रामा। वह प्राचीनतम बौद्ध विधियों में से एक है-कि तुम नाटक के हिस्से बन जाओ, इतनी समग्रता से इसे करो कि तुम भूल जाओ कि तुम केवल अभिनय कर रहे हो। अभिनय तब कृत्य बन जाता है और तुम कर्ता बन जाते हो। यही तुम्हें रूपांतरित कर देता है।
तंत्र कहता है कि यदि तुम अपने स्वप्न को, अपनी कल्पना को, अपने मन को बदल सको तो उसके पीछे छिपा सत्य भी बदल जाएगा। मन क्योंकि सत्य से गहरा जुड़ा हुआ है इसलिए तुम उससे शुरू कर सकते हो। ये विधियां उस ढंग और शैली को बदलने के लिए हैं
जिसमें तुम्हारा मन अब तक कार्य करता रहा है।
पहली विधि :
अपने शरीर, अस्थियों मांस और रक्त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।
सरल प्रयोगों से शुरू करो, सात दिन के लिए एक सरल सा प्रयोग करो। अपने खून अपनी हड्डी अपने मांस, अपने शरीर को उदासी से भरा अनुभव करो। तुम्हारे शरीर का रोआं-रोआं उदास हो जाए। एक काली रात तुम्हारे चारों और छा जाए, बोझिल और विषादयुक्त हो जाओ। जैसे किप्रकाश की एक किरण भी दिखाई न पड़ती हो कोई आशा न बचे, घनी उदासी हो, जैसे कि तुम मरने वाले हो। तुममें जीवन नहीं है। तुम बस मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो। जैसे कि मृत्यु आ गई हो। या धीरे-धीरे आ रही है।
सात दिन तक भार करते रहो कि मृत्यु पूरे शरीर से हड्डी-मांस मज्जा तक प्रवेश कर गई हो। बिना इस भाव को तोड़े, इसी तरह सोचते रहो। फिर सात दिन के बाद देखो कि तुम कैसे अनुभव करते हो।
तुम केवल एक मृत बोझ रह जाओगे। सब संवेदनाएं समाप्त हो जाएंगी, शरीर में कोई जीवन अनुभव नहीं होगा। और तुमने किया क्या है? तुमने खाना भी खाया और तुमने सब भी किया जो तुम हमेशा से करते रहे हो। एकमात्र अंतर वह कल्पना ही थी—तुम्हारे चारो और कल्पना की एक नई शैली खड़ी हो गई है।
यदि तुम इसमें सफल हो जाओ......आर तुम सफल हो जाओगे, असल में तुम इसमे सफल हो ही चुके हो। तुम ऐसा कर ही रहे हो, अनजाने ही तुम इसे करने में निष्णात हो। इसीलिए मैं कहता हूं कि निराशा से शुरू करो। यदि मैं कहूं कि आनंद से भर जाओ तो वह बहुत कठिन हो जाएगा। तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते। लेकिन यदि निराशा के साथ तुम यह बहुत कठिन हो जाएगा। तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते। लेकिन यदि निराशा के साथ तुम यह प्रयोग करते हो तुम्हें पता चलेगा। कि इस तरह यदि निराशा आ सकती है। तो सुख क्यों नहीं आ सकता। यदि तुम अपने चारों और एक निराशापूर्ण मंडल तैयार करक एक मृत वस्तु हो सकते हो तो तुम जीवित मंडल तैयार करके जीवंत मंडल तैयार करके जीवंत और नृत्य पूर्ण क्यों नहीं हो सकते।
दूसरे तुम्हें इस बात का पता चलेगा कि जो दुःख तुम भोग रहे थे वह वास्तविक नहीं था। तुमने उसे पैदा किया था। अनजाने में तुम उसे पैदा कर रहे थे। रचा था, अनजाने में तुम उसे पैदा कर रहे थे। इस पर विश्वास करना बड़ा कठिन है। कि तुम दुःख तुम्हारी ही कल्पना है, क्योंकि उससे सारा उतरदायित्व तुम पर ही आ जाता है। तब दूसरा कोई उतरदायी नहीं रह जाता। और तुम कोई उतरदायित्व किसी परमात्मा पर भाग्य पर, लोगों पर, समाज पर, पत्नी पर या पति पर नहीं फेंक सकते; किसी अन्य पर उत्तर दायित्व नहीं लाद सकते। तुम ही निर्माता हो, जो कुछ भी तुम्हारे साथ हो रहा है वह तुम्हारा ही निर्माण है।
तो सात दिन के लिए सजगता से इसका प्रयोग करो। आर कहता हूं उसके बाद तुम कभी भी दुःखी नहीं होओगे। क्योंकि तुम्हें तरकीब कापता लग जाएगा।
फिर सात दिन के लिए आनंद की धारा में होने का प्रयास करो, उसमे बहो, अनुभव करो कि हर श्वास तुम्हें आनंद विभोर कर रही है। सात दिन के लिए दुःख से शुरू करो और फिर सात दिन के लिए उसके विपरीत चले जाओ। और जब तुम बिलकुल विपरीत ध्रुव पर प्रयोग करोगे तो तुम उसे बेहतर अनुभव करोगे। क्योंकि उसमें स्पष्ट अंतर नजर आएगा। उसके बाद ही तुम यह प्रयोग कर सकते हो। क्योंकि यह सुख से भी गहन है। दुःख परिधि है, सुख मध्य में है। और यह अंतिम तत्व है, अंतरतम बिंदु है—ब्रह्मांडीय सार।
‘अपने शरीर, अस्थियों, मांस आर रक्त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।’
शाश्वत जीवन दिव्य ऊर्जा ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो। लेकिन इसे सीधे ही मत शुरू करो, नहीं तो तुम इतने गहरे स्पर्श न कर पाओगे। दुःख से शुरू करो, फिर सुख पर आओ, उसके बाद ही जीवन के स्त्रोत, ब्रह्मांडीय सार, पर जाओ। और स्वयं को उससे भरा हुआ अनुभव करो।
शुरू में तो बार-बार तुम्हें लगेगा कि तुम केवल कल्पना कर रहे हो, लेकिन रुको नहीं। कल्पना करना भी अच्छा ह। यदि तुम किसी मूल्यवान बात की कल्पना भी कर सको ता अच्छा है। तुम कल्पना कर रहे हो। और कल्पना करने से ही तुम बदलने लगते हो। तुम ही तो कल्पना कर रहे हो। कल्पना करते रहो; और धीरे-धीरे तुम भूल जाओगे कि तुम इसकी कल्पना कर रहे हो। यह एक वास्तविकता बन जाएगी।
बौद्ध ग्रंथ लंकावतार सूत्र महानतम ग्रंथों में एक है। बार-बार बुद्ध अपने शिष्य महापती से कहते है कि वे कहे चले जाते है। ‘महामति यह केवल मन है। नर्क भी मन है और स्वर्ग भी मन है। संसार मन है, बुद्धत्व मन है। महापती बार-बार पूछते है, ‘मन है? केवल मन है? यहां तक कि निर्वाण, जागरण, केवल मन? और बुद्ध कहते है, केवल मन, महामति।’
और जब तुम समझते हो कि सब कुछ मन ही है। तुम मुक्त हो जाते हो। तब कोई बंधन नहीं। तब कोई कामना नहीं। लंकावतार सूत्र में बुद्ध कहते है कि पूरा संसार गंधर्व-नगरी है, जादू-नगरी है। जैसे किसी जादूगर ने एक संसार रचा हो। हर चीज ऐसे भासती है। लेकिन वह विचार के कारण ही है।
लेकिन बाह्म सत्य से प्रारंभ मत करो, वह बहुत दूर है। वह भी मन है। लेकिन बहुत दूर है। बहुत पास से, अपनी ही भाव दशा से शुरू करो। और यदि तुम देख लो, जान लो कि वे तुम्हारा ही निर्माण है तो तुम उनके मालिक हो गए।
जब भी तुम दुःख की भाषा में सोचने लगते हो तुम दुःखी हो जाते हो और चारों और के दुःख के प्रति ग्रहणशील हो जाते हो। फिर हर कोई तुम्हें दुःखी होने में सहयोग देने लगता है। हर कोई सहयोग देता है, पूरा संसार तुम्हें सहयोग देने को तैयार रहता है। तुम चाहे जो भी करो। जब तुम दुःखी होना चाहते हो तो पूरा संसार तुम्हें सहयोग देने को तैयार रहता है। तुम चाहे जो भी करो। जब तुम दुःखी होना चाहते हो तो पूरा संसार दुःखी होने में तुम्हारी मदद करता है। सहयोग करता है। तुम सब और से दुःख ग्रहण करने लगते हो। असल में तुम ऐसी भाव दशा में पहूंच जात हो जहां केवल दुःख ही ग्रहण किया जा सकता है।
तो यदि कोई तुम्हें प्रसन्न करने के लिए भी आता है, वह तुम्हें और दुःखी कर जाएगा। वह तुम्हें मित्रवत नहीं दिखाई पड़ेगा। समझदार नहीं लगेगा। तुम्हें लगेगा कि वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। क्योंकि तुम दुःखी हो और वह तुम्हें प्रसन्न करने की कोशिश कर रहा है। वह सोच रहा है कि तुम्हारा दुःख व्यर्थ है। वह तुम्हें गंभीरता से नहीं ले रहा है।
और जब तुम सुखी होने को तैयार होते हो तो तुम एक अलग भाव दशा में पहूंच जाते हो। अब तुम सारे सुख के प्रति खुल जाते हो जो संसार दे सकता है। हर और फूल खिलनें लगते है। हर ध्वनि हर कोलाहल संगीतमय हो जाता है। और हुआ कुछ भी नहीं है। पूरा संसार वही का वही है। पर तुम बदल गये हो। तुम्हारा देखने का ढंग, तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारा नजरिया अलग हो गया; उस दृष्टि कोण से एक अलग ही संसार तुम्हारे सामने प्रकट होता है।
लेकिन दुःख से शुरू करो, क्योंकि उसमे तुम निष्णात हो। मैं एक प्राचीन हसीद संत का एक वाक्य पढ रहा था। मुझे वह बहुत अच्छा लगा। वह कहता है कि ऐसे लोग होते है। जिनका पूरा जीवन भी अगर फूलों की सेज हो जाए तो वह तब तक खुश नहीं होंगे। जब तक कि उन्हें फूलों से कोई पीड़ा न होने लगे। गुलाब उन्हें खुश नहीं कर सकता, जब तक उन्हें उनसे एलर्जी न हो जाए। अगर उनसे कोई पीड़ा होने लगे केवल तभी वे जीवित अनुभव करेंगे। वे केवल दुःख पीड़ा और रोग ही ग्रहण कर सकते है। कुछ और नहीं। वे दुःख ही खोजते रहते है। वे कोई गलती, कोई दुख, कोई विशाद या अंधकार ही खोजने में लगे रहते है। वे मृत्यु उन्मुख होते है।
मैं सैकड़ों-सैंकड़ो लोगो से बहुत गहराई से, बहुत आत्मीयता से, बहुत निकट से मिला हूं, जब वे अपने दुःख के बारे में बताने लगते है तो मुझे गंभीर होना पड़ता है। नहीं तो उन्हें लगेगा कि मैं सहानुभूतिपूर्ण नहीं हूं। यह उन्हें अच्छा नहीं लगता। फिर वे लौटकर मेरे पास न आएँगे। मुझे उनके दुःख के साथ दुःखी और उनकी गंभीरता के साथ गंभीर होना पड़ता है। ताकि वे उससे बाहर निकल सकें। और यह सब उनका ही निर्माण है, उसे निर्मित करने के लिए वे हर संभव प्रयास कर रह है। और जब मैं उन्हें दुःख से बाहर निकालने की कोशिश करता हूं तो वे हर तरह की बाधा खड़ी करते है। निश्चित ही, वे जानते है कि बाधा खड़ी कर रहे है। जान-बूझकर तो कोई भी ऐसा नहीं करेगा।
इसे ही उपनिषाद अज्ञान कहते है। अनजाने ही तुम अपने जीवन को अस्तव्यस्त किए जाते हो। समस्याएं और संताप खड़े करते हो, चाहे कुछ भी हो जाए उससे तुममें कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारा एक ढर्रा बन गया है। मेरे पास लोग आत है, कहते है, हम अकेले है। इसलिए वे दुःखी है। अगले ही क्षण कोई और आता है। और कहता ह कि उसे ऐसी जगह नहीं मिल रही जहां वह अक्ल हो सके। इसलिए वह दुःखी है। फिर कुछ ऐसे लोग है जो इस बात से दुःखी है कि उनके पास करने को कुछ नहीं है। कोई विवाह करके दुःखी है। तो कोई विवाह न होने से दुःखी है। ऐसा लगता है कि तुम दुःखी होने के उपाय खोजने में माहरथ है, मनुष्य को सुखी होना असंभव है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि तुम दुःखी होने के उपाय खोजने में निष्णात हो। और हमेशा तुम सफल होते हो। तो दुःख से शुरू करो और सात दिन के लिए पहली बार पूरी सजगता से दुःखी हो जाओ। यह प्रयोग तुम्हें पूर्णतया रूपांतरित कर देगा। एक बार तुम जान जाओ कि होश पूर्णाक तुम दुःखी हो सकते हो। और जब तुम दुःखी होओगे तभी तुम जाग पाओगे। फिर तुम्हें पता होगा कि तुम क्या कर रहे हो। यह तुम्हारा ही कृत्य है। और यदि तुम अपनी मर्जी से दुःखी हो सकते हो तो सुखी क्यों नहीं हो सकते। उसमें कोई अंतर नहीं है। विधि तो वहीं है। फिर तुम इस विधि का प्रयोग करो।
‘अपने शरीर, अस्थियों मांस और रक्त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।’
ऐसे अनुभव करो जैसे कि परमात्मा तुम में बह रहा हो: तुम नहीं हो, बल्कि ब्रह्मांडीय तत्व तुममें भरा हुआ है। परमात्मा तुममें विराजमान है। जब तुम्हें भूख लगती है तो उसे भूख लगती है—फिर शरीर को भोजन देना पूजा बन जाता है। जब तुम्हें प्यास लगती है तो तुममें विराजमान ब्रह्मांडीय तत्व को प्यास लगती है। जब तुम्हें नींद आती है। तो उसे नींद आती है। वह सोना, आराम करना चाहता है। जब तुम युवा हो तो तुममें वही युवा है। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो वही प्रेम में पड़ता है।
उससे भरा और पूरी तरह उससे भर जाओ। कोई भेद न करो। अच्छा या बुरा जो भी हो रहा है वह उसे ही हो रहा है। तुम तो बस एक और हट जाओ। अब तुम नहीं हो, वही है। तो अच्छा या बुरा स्वर्ग या नर्क, जो भी होता है। उसको ही होता है। सारा उतरदायित्व उस पर आ गया है। तुम तो रहे ही नहीं। यह तुम्हारा न होना, धर्म की परम अनुभूति है।
यह विधि तुम्हें पहुंचा सकती है। लेकिन तुम्हें उससे बिलकुल भर जाना होगा। और तुम्हें तो किसी प्रकार भरने का पता ही नहीं है। तुम्हें लगता है तुम्हारे शरीर में खुले हुए श्वास छिद्र है और महान जीवन-ऊर्जा तुम्हारे शरीर में बह रही है। तुम्हें तो लगता है कि तुम ठोस हो, बंद हो।
जीवन केवल तभी घटित हो सकता है जब तुम बंद नहीं हो, बल्कि खुले और संवेदनशील हो। जीवन-ऊर्जा तुमसे बहती है। और जो भी होता है वह जीवन ऊर्जा के साथ ही होता है। तुम्हारे साथ नहीं होता—तुम तो बस एक अंश हो। और जात भी सीमाएं तुमने अपने चारों और बना ली है वे वास्तविक नहीं है, झूठी है।
तुम अकेले जीवित नहीं रह सकते। यदि तुम पृथ्वी पर अकेले हो जाओ तो क्या तुम जी सकोगे। तुम अकेले नहीं जी सकते। तुम तारों के बिना नहीं जी सकते। एडिंगटन ने कहीं कहा है कि पूरा अस्तित्व मकड़ी के जाले की तरह है। मकड़ी के जाले को तुम कहीं से भी छुओ तो सारा जाला हिलता है। अस्तित्व को तुम कहीं से भी छुओ, पूरा अस्तित्व तरंगायित होता है। पूरा अस्तित्व एक है। अगर तुम एक फूल को छुओ तो तुमने सारे ब्रह्मांड को छू लिया। तुमने अपने पड़ोसी की आंखों में झाँका तो तुमने ब्रह्मांड में झांक लिया, क्योंकि पूरा अस्तित्व एक है। तुम पूर्ण को छुए बिना अंश को नहीं छू सकते और अंश पूर्ण के बिना नहीं हो सकता।
जब तुम्हें यह अनुभव होने लगेगा तो अहंकार समाप्त हो जाएगा। अहंकार तभी पैदा होता है। जब तुम अंश को पूर्ण की तरह लेते हो। जब तुम्हें ठीक-ठीक पता लगना शुरू होता है। कि अंश-अंश है और पूर्ण-पूर्ण है। तो अहंकार गिर जाता है। अहंकार केवल एक नासमझी है।
और स्वयं को ब्रह्मांडीय तत्व से भरा हुआ है। यह विधि तो बहुत अद्भुत है। सुबह से ही जब तुम्हें लगे कि जीवन जाग रहा है, नींद समाप्त हो चुकी है, तो यह पहला विचार होना चाहिए कि तुम नहीं परमात्मा जाग रहा है। परमात्मा नींद से वापस आ रहा है।
इसीलिए तो हिंदू जो कि संसार में धर्म के आयाम में सर्वाधिक गहरे उतरने वाली जाती है, सुबह अपनी पहली श्वास परमात्मा के नाम के साथ लेते है। अब तो यह मात्र एक औपचारिकता रह गई है। और असली बात खो गई है। लेकिन इसका मूल भाव यही था कि सुबह जिस क्षण तुम जागों तो स्वयं को नहीं परमात्मा को स्मरण करो। परमात्मा तुम्हारा पहला स्मरण बन जाए। और रात जब सोने लगो तो तुम्हारा अंतिम स्मरण भी वही हो। परमात्मा का स्मरण बना रहे: वही पहला हो ओर वही अंतिम हो। और यदि सच में ही यह सुबह सबसे पहले और रात सबसे अंतिम स्मरण हो तो दिन भर भी वह तुम्हारे साथ रहेगा।
रात सोते समय तुम्हें उसी से भरे हुए सोना चाहिए। तुम हैरान होओगे कि तुम्हारी नींद का गुणधर्म ही बदल गया। आज रात सोते हुए कृपया स्वयं मत सोओ, परमात्मा को ही सोने दो। जब बिस्तर बिछाओ तो परमात्मा के लिए ही बिछाओ, अतिथि की तरह सत्कार करो। ओर नींद आते-आते यही अनुभव करते रहो कि परमात्मा ही है। हर श्वास उससे भरी हुई है। वहीं ह्रदय में धडक रहा है। अब वह पूरे दिन काम करके थक गया है। और सोना चाहता है।
और सुबह तुम अनुभव करोगे। कि रात तुम अलग ही ढंग से सोए हो। नींद का पूरा गुणधर्म ही ब्रह्मांडीय हो जाएगा। क्योंकि उससे गहरे तल पर मिलन होगा।
जब तुम स्वयं को दिव्य अनुभव करते हो। तो तुम अतल गहराइयों में डूब जाते हो, क्योंकि तब कोई भय नहीं रहता। वरना तो रात जब तुम सो भी रहे होते हो तब भी गहरे जाने से डरते हो। कई लोग अनिद्रा से पीडित है। इसलिए नहीं कि उन्हें कोई तनाव है, बल्कि इसलिए कि वे सोने से भयभीत है। क्योंकि नींद उन्हें गहरी खाई की तरह प्रतीत होती है। जिसकी कोई थाह नहीं दिखती है। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं,जो सोने से डरते है।
एक वृद्ध मेरे पास आए और कहने लगे कि वे भय के कारण सो नहीं सकते। मैंने पूछा, आप डरते क्यों है।
तो वे बोले, मुझे डर है कि कहीं मैं सोते हुए ही मर गया तो मुझे तो पता ही नहीं चलेगा। और मैं नींद में मरना नहीं चाहता। कम से कम मुझे होश तो रहे कि मुझे क्या हो रहा है।
तुम कुछ पकड़े रहते हो जिसके तो तुम सो नहीं सकते, लेकिन जब तुम्हें लगता है कि अब तो परमात्मा ही है तो तुम स्वीकार कर लेते हो। फिर तो अतल गहराइयां भी दिव्य है, फिर तुम अपनी आत्मा के मूल स्त्रोत में गहरे उतर जाते हो। और सारा गुणधर्म बदल जाता है। और जब तुम सुबह उठते हो और तुम्हें लगता है कि नींद जा रही है तो स्मरण रखो कि परमात्मा ही उठ रहा है। तुम्हारा पूरा दिन भी बदल जाएगा।
और पूरी तरह उसी से भरे रहो। जो भी तुम करो, या न करो। परमात्मा को ही करने दो। जो हो बस उसे होने दो। खाओ,सोओ, काम करो, लेकिन सब परमात्मा को ही करने दो। केवल तभी तुम पूरी तरह उससे भर सकते हो, उससे एक हो सकते हो। और एकबार तुम्हें अनुभव हो जाए एक क्षण के लिए भी—मैं कहता हूं एक क्षण के लिए भी—कि ऐसा शिखर का क्षण आ गया कि तुम न बचे। दिव्य ने तुम्हें पूरी तरह से भर दिया। तभी तुम बुद्ध हो जाते हो। उस एक समयातित क्षण में तुम्हें जीवन के रहस्य का ज्ञान होता है। फिर न तो कोई भय है, न कोई मृतयु। जब तुम स्वयं जीवन ही हो गए। फिर यह एक अनंत प्रवाह है, न इसका कोई अंत है, न आदि। तब जीवन परम आनंद हो जाता है।
मोक्ष और स्वर्ग की धारणाएं तो एकदम बचकानी है। क्योंकि वे कोई भौगोलिक स्थान नहीं है। वे तो उस अवस्था के लिए प्रतीक है जब व्यक्ति ब्रह्मांड में डूब जाता है। अथवा ब्रह्मांड को स्वयं में डूब जाने देता ह। जब दा एक हो जात है, जब मन और पदार्थ दोनों ही अभिव्यक्तियां तीसरे पर मूल स्त्रोत पर लौट आती है। सारी खोज ही उसके लिए है। यही एकमात्र खोज है, और जब तक तुम इसको न पा लो, तृप्त नहीं होओगे। इसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। चाहे जन्मों–जन्मों तक तुम भटकते रहो। पर जब तक यह न पा लो, तुम्हारी खोज पूरी नहीं होगी। तुम विश्राम नहीं कर सकते।
यह विधि बहुत सहयोगी हो सकती है। और इसमें कोई खतरा नहीं ह। इसको तुम बिना किसी गुरु क कर सकते हाँ। इस स्मरण रखो। वे सब विधियां जो शरीर से शुरू होती है। बिना गुरु के खतरनाक हो सकती है। क्योंकि शरीर बहुत-बहुत जटिल संरचना है। शरीर एक जटिल यंत्र ह और इसके साथ कुछ भी शुरू करना खतरनाक हो सकता है। जब तक कि कोई ऐसा व्यक्ति न हो जा कि जानता हाँ कि क्या हो रहा है। हो सकता है तुम यंत्र का खराब कर दो और उसे ठीक करना कठिन हो जाए।
वे सब विधियां जो सीधे मन से शुरू होती है, कल्पना पर आधारित होती है। और खतरनाक नहीं होती। क्योंकि उनमें शरीर का बिलकुल भी सहयोग नहीं होता। वे बिना किसी सदगुरू क भी कि जा सकती है। निश्चित ही, यह थोड़ा कठिन होगा, क्योंकि तुममें आत्म विश्वास नहीं है। सदगुरू कुछ करता नहीं है। लेकिन एक उत्प्रेरक माध्यम, कैटालिस्ट बन जाता है। वह कुछ भी नहीं करता—और सच में तो कुछ किया भी नहीं जा सकता—लेकिन मात्र उसकी उपस्थिति स ही तुम्हारा आत्मविश्वास और श्रद्धा जग जाती है। और इससे मदद मिलती है। केवल इस भाव से ही कि गुरु साथ है। तुममें भरोसा आ जाता है। क्योंकि वह साथ ह तो तुम अज्ञात में प्रवेश कर सकते हो।
लेकिन शारीरिक विधियों में गुरु नितांत आवश्यक है, क्योंकि शरीर एक यंत्र है और उसके साथ तुम ऐसा कुछ कर ले सकते हो जिसे अनकिया नहीं किया जा सकता है। तुम स्वयं को नुकसान पहुंचा सकते हो।
मेरे पास एक युवक आया, वह शीर्षासन कर रहा था। घंटों अपने सिर के बल खड़ा रहता था। शुरू-शुरू में तो सब बिलकुल ठीक था और सारे दिन वह विश्रांति और शांति और शीतलता अनुभव करता रहा। लेकिन फिर मुसीबत होने लगी। क्योंकि जब शीतलता समाप्त होती ता सारे शरीर में गर्मी लगने लगती। जो उसे बेचैन कर देती। वह करीब-करीब पागल सा हो गया। और फिर उसने सोचा कि शीर्षासन से शुरू-शुरू में उसे इतनी शीतलता, इतनी शांति, इतना आराम मिला था तो वह और शीर्षासन करने लगा। उसने सोचा कि और शीर्षासन से उसे मदद मिलेगी। जब कि शीर्षासन ही उसे बीमार किया जा रहा था।
मस्तिष्क के यंत्र में केवल एक निश्चित मात्रा में ही रक्त संचार की जरूरत होती है। यदि रक्त संचार कम हो तो तुम्हें कठिनाई होगी। यदि रक्त संचार अधिक हो तो कठिनाई होगी। और हर एक व्यक्ति के लिए यह मात्रा अलग होती है। वह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करती है। इसीलिए तो तुम तकिए के बिना नहीं सो पाते हो। यदि तुम तकिए के बिना सोने की कोशिश करो तो यह तो सो ही नहीं पाओगे या कम सो पाओगे। क्योंकि सिर की और अधिक रक्त दौड़ेगा। तकिए मदद देते है। तुम्हारा सिर ऊँचा हाँ जाता है। इसलिए कम रक्त सिर की और दौड़ता है। इससे नींद आ जाती है। यदि अधिक रक्त दौड़ता रहे तो मस्तिष्क जागा रहेगा। विश्राम नहीं कर पाता।
यदि तुम बहुत अधिक शीर्षासन करो तो हो सकता है कि तुम्हारी नींद पूरी तरह से उड़ जाये। हो सकता है कि तुम बिलकुल भी सो नहीं सको। फिर और भी खतरे है। अभी खोजों से पता चला है कि अधिक से अधिक सात दिन तक तुम बिना सोए रह सकते हो। सात दिन के बाद तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि मस्तिष्क की बहुत सूक्ष्म कोशिकाएं है, जो कि टूट जाएंगी। फिर आसानी से वे जुड़ नहीं सकती। जब तुम शीर्षासन में सिर के बल खड़े होते हो तो सारा रक्त सिर की और दौड़ने लगता है। मैंने ऐसा एक भी शीर्षासन करने वाला नहीं देखा जो किसी भी तरह से प्रतिभाशाली हो। यदि कोई व्यक्ति बहुत शीर्षासन करता है तो वह जड़बुद्धि हो जाएगा। क्योंकि मस्तिष्क की सूक्ष्म कोशिकाएं नष्ट हो जाएंगी। अत्यधिक रक्त-संचार के कारण वे को मन कोशिकाएं नही बच सकती है।
तो यह सब एक गुरु ही निर्धारित कर सकता है, जो जानता है कि कौन सी विधि कितना समय तुम्हारे लिए सहयोगी होगी। कुछ सेकेंड या कुछ मिनट। और यह तो केवल एक उदाहरण हे। सारी शारीरिक मुद्राएं, आसन विधियां, गुरु की देख-रेख में ही करनी चाहिए। कभी भी उन्हें अकेले नहीं करना चाहिए। क्योंकि तुम अपने शरीर को नहीं जानते। तुम्हारा शरीर इतनी बड़ी घटना है कि तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम्हारे छोटे से मस्तिष्क में सात करोड़ तंतु आपस में एक दूसरे से संबंधित है। जुड़े हुए है। वैज्ञानिक कहते है कि उनका आपसी संबंध इस ब्रह्मांड जितना ही जटिल है।
प्राचीन हिंदू ऋषियों ने कहा है कि पूरा ब्रह्मांड लधु रूप से मस्तिष्क में विराजमान है। जगत की सारी जटिलता लधु रूप से मस्तिष्क में है। यदि इन सारे तंतुओं का संबंध तुम्हें समझ आ जाए तो पूरे जगत की जटिलता समझ में आ जाए। न तो तुम्हें किन्हीं तंतुओं का पता है, न ही उनके किसी आपसी संबंधों का। और अच्छा है कि तुम्हें पता नहीं है, नहीं तो इतने महत कार्य को चलते देख तुम तो पागल ही हो जाओ। यह सब केवल बिना पता लगे ही हो सकता है।
रक्त दौड़ता रहता है, लेकिन तुम्हें पता नहीं लगता। केवल तीन शताब्दी पहले ही यह पता चल पाया कि शरीर में रक्त दौड़ता है। इससे पहले ऐसा माना जाता था कि रक्त दौड़ता नहीं,भरा हुआ है। रक्त संचार तो बहुत नई धारणा है। और लाखों वर्षों से मनुष्य है, लेकिन किसी को नहीं लगा कि रक्त दौड़ता है। तुम इसे महसूस नहीं कर सकते। भीतर बहुत गति से बहुत सा काम चल रहा है। तुम्हारा शरीर एक बहुत बड़ी और बहुत नाजुक फैक्टरी है। शरीर हर समय स्वयं को ताजा और नया करने में लगा है। यदि तुम कोई उपद्रव न खड़ा करो तो सत्तर वर्ष तक यह आराम से चलेगा। अभी तक हम कोई ऐसा यंत्र नहीं बना पाए है जो सत्तर वर्ष तक अपनी देख-भाल कर सके।
तो जब भी तुम अपने शरीर पर कोई कार्य शुरू करो तो इस बात का स्मरण रखो कि ऐसे गुरु के पास होना जरूरी है जो जानता हो कि वह तुम्हें क्या करवा रहा है। वरना कुछ मत करो। लेकिन कल्पना में तो कोई कठिनाई नहीं है। यह बड़ी सरल बात है। इसे तुम शुरू कर सकते हो।
दूसरी विधि:
‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।’
इससे पहले कि इस विधि में प्रवेश करूं, कुछ महत्वपूर्ण बातें।
शिव पार्वती से, देवी से, अपनी संगिनी से बात कर रहे है। इसलिए यह विधि विशेषत: स्त्रियों के लिए है। कुछ बातें समझने जैसी है। एक: पुरूष देह और स्त्री देह एक जैसी है; लेकिन फिर भी उनमें कई भेद है। और उनका भेद है। और उनका भेद एक दूसरे का परिपूरक है। पुरूष देह में जो नकारात्मक है, स्त्री देह में वही सकारात्मक होगा; और स्त्री देह जो सकारात्मक है, वह पुरूष देह में नकारात्मक होगा।
यही कारण है कि जब वे दोनों गहन संभोग में मिलते है तो एक इकाई बन जाते है। ऋणात्मक धनात्मक से मिलता है। धनात्मक ऋणात्मक से मिलता है। और दोनों एक हो जाते है। एक विद्युत वर्तुल बन जाते है। इसीलिए तो यौन में इतना आकर्षण है। यह आकर्षण इसीलिए है। आधुनिक मनुष्य बहुत स्वछंद हो गया है। कि अश्लील फिल्में और साहित्य इसका कारण है। इसका कारण बहुत गहरा है जागतिक है।
यह आकर्षण इसलिए है क्योंकि पुरूष और स्त्री दोनों ही अधूरे है। और जो भी अधूरा है उसके पार जाना, पूर्ण होना अस्तित्व की स्वाभाविक प्रवृति है। पूर्णता की और गति करने की प्रवृति परम नियमों में से एक है। जहां भी तुम्हें लगता है कि कुछ कमी है, तुम उसे भरना चाहते हो, पूरा करना चाहते हो। प्रकृति किसी भी तरह के अधूरे पन को नहीं पसंद करती। पुरूष भी अधूरा है, स्त्री भी अधूरी है। और वे पूर्णता का केवल एक ही क्षण पा सकते है। जब उनका विद्युत वर्तुल एक हो जाए, जब दोनों विलीन हो जाएं।
इसीलिए तो सभी भाषाओं में प्रेम और प्रार्थना दोनों बड़े महत्वपूर्ण है। प्रेम में तुम किसी व्यक्ति के साथ एक हो जाते हो। और प्रार्थना में तुम समष्टि के साथ एक हो जाते हो। जहां तक आंतरिक प्रक्रिया का सवाल है, प्रेम और प्रार्थना समान है।
पुरूष और स्त्री देह समान है। लेकिन उनके ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुव भिन्न है। जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तो मैं सोचता हूं कम से कम छ: सप्ताह के लिए वह मध्य स्थिति में रहता है। न तो वह पुरूष होता है न स्त्री ही, उसका एक और झुकाव जरूर होता है, लेकिन फिर भी शरीर अभी मध्य में ही होता है। फिर छ: सप्ताह बाद शरीर या तो स्त्री का हो जाता है। या पुरूष का। यदि शरीर स्त्री का है तो काम ऊर्जा का ध्रुवस्तनों के निकल होगा। यह उसका धनात्मक ध्रुव होगा क्योंकि स्त्री की योनि ऋणात्मक ध्रुव है। यदि बच्चा नर है तो काम केंद्र, शिश्न उसका धनात्मक ध्रुव होगा और स्तन ऋणात्मक होते हे। स्त्री के शरीर में शिश्न का प्रतिरूप क्लाइटोरिस होता है। लेकिन यह निष्क्रय है। पुरूष के स्तनों की भांति ही स्त्री का क्लाइटोरिस भी निष्क्रय है।
शरीर शास्त्री ये प्रश्न उठाते रहते है। कि पुरूष के शरीर में स्तन क्यों होते है। जब कि उनकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती है। क्योंकि पुरूष को बच्चे को दूध तो पिलाना नहीं है। फिर उनकी क्या आवश्यकता है। वे ऋणात्मक ध्रुव है। इसलिए तो पुरूष के मन में स्त्री के स्तनों की और इतना आकर्षण है। वे धनात्मक ध्रुव है। इतने काव्य, साहित्य, चित्र,मूर्तियां सब कुछ स्त्री के स्तनों से जुड़े है। ऐसा लगता है जैस पुरूष को स्त्री के पूरे शरीर की अपेक्षा उसके स्तनों में अधिक रस है। और यह कोई नई बात नहीं है। गुफाओं में मिले प्राचीनतम चित्र भी स्तनों के ही है। स्तन उनमें महत्वपूर्ण है। बाकी का सारा शरीर ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे स्तनों के चारों और बनाया गया हो। स्तन आधार भूत है।
यह विधि स्त्रियों के लिए है। क्योंकि स्तन उनके धनात्मक ध्रुव है। और जहां तक योनि का प्रश्न है वह करीब-करीब संवेदन रहित है। स्तन उसके सबसे संवेदनशील अंग है। और स्त्री देह की सारी सृजन क्षमता स्तनों के आस-पास है।
यही कारण है कि हिंदू कहते है कि जबतक स्त्री मां नहीं बन जाती, वह तृप्त नहीं होती। पुरूष के लिए यह बात सत्य नहीं है। कोई नहीं कहेगा कि पुरूष जब तक पिता न बन जाए तृप्त नहीं होगा। पिता होना तो मात्र एक संयोग है। कोई पिता हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। यह कोई बहुत आधारभूत सवाल नहीं है। एक पुरूष बिना पिता बने रह सकता है। और उसका कुछ न खोये। लेकिन बिना मां बने स्त्री कुछ खो देती है। क्योंकि उसकी पूरी सृजनात्मकता, उसकी पूरी प्रक्रिया तभी जागती है। जब वह मां बन जाती है। जब उसके स्तन उसके अस्तित्व के केंद्र बन जाते है। तब वह पूर्ण होती है। और वह स्तनों तक नहीं पहुंच सकती यदि उसे पुकारने वाला कोई बच्चा न हो।
तो पुरूष स्त्रियों से विवाह करते है ताकि उन्हें पत्नियाँ मिल सके, और स्त्रियां पुरूषों से विवाह करती है ताकि वे मां बन सकें। इसलिए नहीं कि उन्हें पति मिल सके। उनका पूरा का पूरा मौलिक रुझान ही एक बच्चा पाने में है जो उनके स्त्रीत्व को पुकारें।
तो वास्तव में सभी पति भयभीत रहते है, क्योंकि जैसे ही बच्चा पैदा होता है वे स्त्री के आकर्षण की परिधि पर आ जाते है। बच्चा केंद्र हो जाता है। इसलिए पिता हमेशा ईर्ष्या करते है, क्योंकि बच्चा बीच में आ जाता है। और स्त्री अब बच्चे के पिता की उपेक्षा बच्चे में अधिक उत्सुक हो जाती है। पुरूष गौण हो जाता है। जीने के लिए उपयोगी, परंतु अनावश्यक। अब मूलभूत आवश्यकता पूर्ण हो गई।
पश्चिम में बच्चों को सीधे स्तन से दूध न पिलाने का फैशन हो गया है। यह बहुत खतरनाक है। क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री कभी अपनी सृजनात्मकता के केंद्र पर नहीं पहुंच सकेगी। जब एक पुरूष किसी स्त्री से प्रेम करता है तो वह उसके स्तनों को प्रेम कर सकता है। लेकिन उन्हें मां नहीं कह सकता। केवल एक छोटा बच्चा ही उन्हें मां कह सकता है। या फिर प्रेम इतना गहन हो कि पति भी बच्चे की तरह हो जाए। तो यह संभव हो सकता है। तब स्त्री पूरी तरह भूल जाती है कि वह केवल एक संगिनी है, वह अपनी प्रेमी की मां बन जाती है। तब बच्चे की आवश्यकता नहीं रह जाती, तब वह मां बन सकती है। और स्तनों के निकट उसके अस्तित्व का केंद्र सक्रिय हो सकता है।
यह विधि कहती है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों मे प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।’
स्त्रैण अस्तित्व की पूरी सृजनात्मकता मातृत्व पर ही आधारित है। इसीलिए तो स्त्रियां अन्य किसी तरह के सृजन में इतनी उत्सुक नहीं होती। पुरूष सर्जक है। स्त्रियां सर्जक नहीं है। न उनके चित्र बनाए है। न महान काव्य रचे है। न कोई बड़ा ग्रंथ लिखा है। न कोई बड़े धर्म बनाए है। वास्तव में उसने कुछ नहीं किया हे। लेकिन पुरूष सृजन किए चला जाता है। वह पागल है। वह आविष्कार कर रहा है, सृजन कर रहा है। भवन निर्माण कर रहा है।
तंत्र कहता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि पुरूष नैसर्गिक रूप से सर्जक नहीं है। इसलिए वह अतृप्त और तनाव में रहता है। वह मां बनना चाहता है। वह सर्जक बनना चाहता है। तो वह काव्य का सृजन करता है। वह कई चीजों का सृजन करता है। एक तरह से हव उसकी मां हो जाये। लेकिन स्त्री तनाव रहित होती है। यदि वह मां बन सके तो तृप्त हो जाती है। फिर किसी और चीज में उत्सुक नहीं रहती।
स्त्री कुछ और करने की तभी सोचती है यदि वह मां न बन सके। प्रेम न कर सके, अपनी सृजनात्मकता के शिखर पर न पहूंच सके। तो वास्तव में असृजनात्मक स्त्रियां बन जाती है। कवि, चित्रकार, लेकिन वे सदा दूसरे दर्जे की रहेगी। कभी प्रथम कोटी की नहीं हो सकती। स्त्री के लिए काव्य और चित्रों का सृजन उतना ही असंभव है, जितना पुरूष को बच्चे का सृजन करना। वह मां नहीं बन सकता। वह जैविकीय तल पर असंभव है। और इस कमी को वक अनुभव करता है। इस कमी को पूरा करने के लिए वह कई कार्य करता है। लेकिन कभी भी कोई महान से महान सर्जक भी इतना तृप्त नहीं हो पाया, या कभी कोई विरला ही इतना परितृप्त हो सकता है। जितना कि एक स्त्री मां बनकर हो जाती है।
एक बुद्ध अधिक परितृप्त होता है। क्योंकि वह अपना ही सृजन कर लेता है। वह द्विज हो जाता है। वह स्वयं को दूसरा जन्म दे देता है। नया मनुष्य हो जाता है। अब वह अपनी मां भी हो जाता है, पिता भी हो जाता है। वह पूर्णतया परितृप्त अनुभव करता है।
एक स्त्री अधिक सरलता से तृप्ति अनुभव कर सकती है। उसका सृजनात्मकता स्तनों के आस-पास ही होती है। इसीलिए तो विश्व भर में स्त्रियां अपने स्तनों के बारे में इतनी चिंतित रहती है। जैसे कि उनका पूरा अस्तित्व ही वही केंद्रित हो। वे सदा अपने स्तनों के बारे में इतनी सजग होती है। दिखाए चाहे उघाड़़े पर उनके विषय में चिंतित रहती है। स्तन उनके सबसे गुप्त अंग है, उनका खजाना है, उनके अस्तित्व के मातृत्व के सृजनात्मकता के केंद्र है।
शिव कहते है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे हो।’
स्तनों पर अवधान को एकाग्र करो, उन्ही के साथ एक हो जाओ। बाकी सारे शरीर को भूल जाओ। अपनी पूरी चेतना को स्तनों पर ले जाओ। और कई घटनाएं तुम्हारे साथ घटेगी। यदि तुम ऐसा कर सको। यदि पूरी तरह से स्तनों पर अपने अवधान को केंद्रित कर सको, तो सारा शरीर भार-मुक्त हो जाएगा। और एक गहन माधुर्य तुम्हें घेर लेगा। माधुर्य की एक गहन अनुभूति तुम्हारे भीतर बारह चारों और धड़केगी।
जो भी विधियां विकसित की गई है वे करीब-करीब सब पुरूष द्वारा ही विकसित की गई है। तो उनमें ऐसे केंद्रों का उल्लेख होता है जो पुरूष के लिए सरल होते है। जहां ते मैं जानता हूं केवल शिव ने ही कुछ ऐसी विधियां दी है जो मौलिक रूप से स्त्रियों के लिए है। कोई पुरूष इस विधि को नहीं कर सकता। वास्तव में यदि कोई पुरूष अपने स्तनों पर अवधान को केंद्रित करने लगे तो उलझन में पड़ जायेगा।
करके देखो, पाँच मिनट में ही तुम्हारा पसीना बहने लगेगा। और तुम तनाव से भर जाओगे। क्योंकि पुरूष के स्तन ऋणात्मक है, वे तुम्हें नकारात्मकता ही देंगे। तुम्हें कुछ गड़बड़, कुछ अटपटापन महसूस होगा। जैसे शरीर में कोई गड़बड़ हो गई हो।
लेकिन स्त्री के स्तन धनात्मक है। यदि स्त्रियां स्तनों के पास अवधान केंद्रित करें तो बहुत आनंदित अनुभव करेंगी। एक माधुर्य उनके प्राणों में छा जाएगा और उनका शरीर गुरूत्वाकर्षण से मुक्त हो जाएगा। उन्हें इतना हलकापन महसूस होगा जैसे कि वे उड़ सकती है। और इस एकाग्रता से बहुत से परिवर्तन होंगे। तुम अधिक मातृत्व भाव अनुभव करोगी। चाहे तुम मां न बनो
लेकिन स्तनों पर अवधान की यह एकाग्रता बहुत विश्रांत होकर करनी चाहिए, तनाव से भरकर नहीं। यदि तुम तनाव से भर गई तो तुम्हारे और स्तनों के बीच एक विभाजन हो जाएगा। तो विश्रांत होकर उन्हीं में धुल जाओ ओर अनुभव करो कि तुम नहीं केवल स्तन ही बचे है।
यदि पुरूष को यही करना हो तो स्तनों के साथ नहीं काम केंद्र के साथ करना होगा। इसीलिए हर कुंडलिनी योग में पहले चक्र का महत्व है। पुरूष को अपना अवधान जननेंद्रिय की जड़ पर केंद्रित करना होता है। उसकी सृजनात्मकता, उसकी विधायकता वहां पर है। और इसे सदा स्मरण रखो: कभी भी किसी नकारात्मक चीज पर अवधान को केंद्रित मत करो, क्योंकि सभी नकारात्मक चीजें उसके साथ चली आती है। ऐसे ही विधायक के साथ सभी कुछ विधायक चला आता है।
जब स्त्री और पुरूष के दो ध्रुव मिलते है तो पुरूष का ऊपर का भाग ऋणात्मक और नीचे का भाग धनात्मक होता है। जब कि स्त्री में नीचे का भाग ऋणात्मक और ऊपर का भाग धनात्मक होता है। ऋणात्मक और धनात्मक के ये दो ध्रुव मिलते है। तो एक वर्तुल निर्मित हो जाता है। वह वर्तुल बहुत आनंदपूर्ण है, परंतु यह कोई साधारण घटना नहीं है। साधारणतया काम-कृत्य में ये वर्तुल नही बनता। इसीलिए तो तुम काम के प्रति जितने आकर्षित होते हो, उतने ही उस से विकर्षित भी होते हो। उसके लिए तुम कितनी कामना करते हो, कितनी तुम्हें उसकी तलाश होती है। पर जब तुम्हें मिलता है तो तुम निराश हो जाते हो। कुछ भी होता नहीं।
यह वर्तुल केवल तभी संभव है, जब की दोनों शरीर शांति हो। और बिना किसी भय या प्रतिरोध के एक दूसरे के लिए खुले हो। तब मिलन होता है। वह पूर्ण मिलन विद्युत धाराओं का एक मिल कर वर्तुल बन जाता है। जो आनंद का उच्चतम शिखर है।
फिर एक बड़ी अद्भुत घटना घटती है। तंत्र में इसका उल्लेख है, लेकिन तुमने शायद इसके बारे में सुना भी न हो—यह घटना बड़ी अद्भुत है। जब दो प्रेमी वास्तव में मिलते है और एक वर्तुल बन जाते है तो एक बिजली की कौंध जैसी घटना घटती है। एक क्षण के लिए प्रेमी प्रेयसी बन जाता है और प्रेयसी प्रेमी बन जाती है—और अगले ही क्षण प्रेमी फिर प्रेमी बन जाता है। और प्रेयसी फिर प्रेयसी बन जाती है। एक क्षण के लिए पुरूष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरूष हो जाती है। क्योंकि ऊर्जा गति कर रही है। और एक वर्तुल बन गया है।
तो ऐसा होगा कि कुछ मिनट के लिए पुरूष सक्रिय होगा। और फिर वह विश्राम करेगा। और स्त्री सक्रिय हो जाएगी। इसका अर्थ है कि अब पुरूष ऊर्जा स्त्री के शरीर में चली गई है। जब स्त्री सक्रिय होगी तो पुरूष निष्कृय रहेगा। और ऐस चलता रहेगा। साधारण तय तुम स्त्री और पुरूष हो। गहन प्रेम में, गहन संभोग में कुछ क्षण के लिए पुरूष स्त्री हो जाएगा और स्त्री पुरूष हो जाएगी। और यह अनुभव होगा, निश्चित ही अनुभव होगा कि निष्क्रियता बदल रही है।
जीवन में एक लय है, हर चीज में एक लय है। जब तुम श्वास लेते हो श्वास भीतर जाती है, फिर क्षणों के लिए रूक जाती है। उसमें कोई गति नहीं होती। फिर चलती है, बाहर आती है। और फिर रूक जाती है। एक अंतराल पैदा होता है। गति, रुकाव, गति। जब तुम्हारा ह्रदय धड़कता है तो एक धडकन होती है। फिर अंतराल है, फिर धड़कता है, फिर अंतराल है। धड़कन का अर्थ है सक्रियता, अंतराल का अर्थ है निष्क्रियता। धड़कन का अर्थ है पुरूष अंतराल का अर्थ है स्त्री।
जीवन एक लय है। जब पुरूष और स्त्री मिलते है तो एक वर्तुल बन जाता है: दोनों के लिए ही अंतराल होंगे। तुम एक स्त्री हो तो अचानक एक अंतराल होगा और तुम स्त्री नहीं रहोगी पुरूष बन जाओगी। तुम स्त्री से पुरूष से स्त्री बनती रहोगी।
जब यह अंतराल तुम्हें महसूस होगा तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम एक वर्तुल बन गए हो। शिव के प्रतीक शिवलिंग में इसी वर्तुल को दिखाया गया है। यह वर्तुल देवी की योनि और शिव के लिंग से दिखाया गया है। यह एक वर्तुल है। यह दो उच्च तल पर ऊर्जा के मिलन की शिखर घटना है।
यह विधि अच्छी रहेगी: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म धारण कर रहे हे।‘
विश्राम हो जाओ। स्तनों में प्रवेश करो और अपने स्तनों को ही अपना पूरा अस्तित्व हो जाने दो। पूरे शरीर को स्तनों के होने के लिए मात्र एक परिस्थिति बन जाने दो, तुम्हारा पूरा शरीर गौण हो जाए, स्तन महत्वपूर्ण हो जाएं। और तुम उनमें ही विश्राम करो, प्रवेश करो। तब तुम्हारी सृजनात्मकता जगेगी। स्त्रैण सृजनात्मकता तभी जगती है जब स्तन सक्रिय हो जाते है। स्तनों में डूब जाओ। और तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारी सृजनात्मकता जाग रही है।
सृजनात्मकता के जागने का अर्थ है? तुम्हें बहुत कुछ दिखने लगेगा। बुद्ध और महावीर ने अपने पूर्व जन्मों में कहा था कि जब वे पैदा होंगे तो उनकी माताओं को कुछ विशेष दृश्य, कुछ विशेष स्वप्न दिखाई पड़ेंगे। उन कुछ विशेष स्वप्नों के कारण ही बताया जा सकता था कि बुद्ध पैदा होने वाले है। सोलह स्वप्न एक दूसरे का अनुसरण करते हुए आएँगे।
इस पर मैं प्रयोग करता रहा हूं। यदि कोई स्त्री वास्तव में ही अपने स्तनों में विलीन हो जाती है तो एक विशेष क्रम में कुछ विशेष दृश्य दिखाई देंगे। कुछ चीजें उसे दिखाई पड़ने लगेंगी। अलग-अलग स्त्रियों के लिए अलग-अलग चीजें होंगी, लेकिन कुछ मैं तुम्हें बताता हूं।
एक तो कोई आकृति, मानव आकृति दिखाई पड़ेगी। और यदि स्त्री बच्चे को जन्म देने वाली है तो बच्चे की आकृति नजर आएगी। यदि स्तनों में स्त्री पूरी तरह विलीन हो गई है तो उसे यह भी दिखाई देगा कि किसी तरह से बच्चे को वह जन्म देने वाली है। उसकी आकृति नजर आएगी। यदि वह गर्भवती है तो आकृति और भी स्पष्ट होगी। यदि अभी वह मां नहीं बनने वली है और गर्भवती नहीं है, तो उसके आस-पास कोई अज्ञात सुगंध छानें लगेगी। स्तन ऐसी मधुर सुगंधों के स्त्रोत बन सकते है। जो कि इस संसार की नहीं है। जो रसायन से नहीं बनाई जा सकती। मधुर स्वर, लयबद्ध ध्वनियां। सुनाई देंगी। सृजन के सारे आयाम बहुत से नए रूपों में प्रकट हो सके है। महान कवियों और चित्रकारों को जो घटित हुआ है वह उस स्त्री को हो सकता है। यदि वह अपने स्तनों में डूब जाए!
और यह इतना वास्तविक होगा कि उसके पूरे व्यक्तित्व को बदल देगा। वह स्त्री और ही हो जाएगी। और यदि ये अनुभव उसे होते रहते है तो धीरे-धीरे वे खो जाएंगे और एक क्षण आएगा जब शून्यता घटित होगी। वह शून्यता ध्यान की परम स्थिति है।
तो इसको स्मरण रखो; यदि तुम स्त्री हो तो अपने शिव नेत्र पर एकाग्रता मत करो। तुम्हारे लिए स्तनों पर, ठीक दोनों स्तनों के चुचुओं पर अवधान को केंद्रित करना बेहतर रहेगा। और दूसरी बात: एक ही स्तन पर अवधान केंद्रित मत करो। एक साथ दोनों स्तनों पर करो। यदि तुम एक स्तन पर अवधान को केंद्रित करोगी तो तत्क्षण तुम्हारा शरीर व्यथित हो जाएगा। एक ही स्तन पर एकाग्रता होने पर पक्षाघात भी हो सकता है।
तो दोनों पर एक साथ ही अवधान को केंद्रित करो, उसमे विलीन हो जाओ, और जा हो, उसे होने दो। बस साक्षी बनी रहो ओर किसी भी लय से मत जुड़ों,क्योंकि हर लय बड़ी सुंदर, स्वर्ग तुल्य मालूम होगी। उनसे मत जुड़ों। उनको देखती रहो और साक्षी बनी रहो। एक क्षण आएगा जब वह समाप्त होने लगेंगी। और एक शून्यता घटित होती हे। कुछ नहीं बचता। बस खुला आकाश रह जाता है। और स्तन खो जाते है। तब तुम बोधिवृक्ष के नीचे हो।
आज इतना ही।
thank you guruji
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