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बुधवार, 5 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-08)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो 

आठवां-प्रवचन

हिंदुस्तान आध्यात्मिक देश नहीं है


(अस्पष्ट)...वैसे उस मेथड से यह तीव्र है बहुत। मतलब कि जल्दी होगा। (अस्पष्ट)...लगता भी है बिलकुल। एकदम होना शुरू होता है। और वह करीब सौ में से पांच प्रतिशत लोगों के काम का है वह मेथड। यह सौ में से करीब साठ प्रतिशत लोगोें के काम का है।
एक तो ऐसा कोई देश नहीं है जहां महात्मा न हुए हों। लेकिन उन महात्माओं के संबंध में पता चलने में दो-तीन तरह की कठिनाइयां हैं। एक कठिनाई तो यह है कि महात्मा, हम अपने ही महात्माओं के संबंध में जानते हैं। अगर हम आपसे पूछें कि ईसाइयत ने कितने महात्मा पैदा किए हैं? तो जीसस का नाम साधारणतया खयाल में आएगा। जो लोग और थोड़ा ज्यादा जानते हैं वह संत फ्रांसिस का या अगस्तीन का नाम ले सकेंगे।
लेकिन हजारों उच्च कोटि के साधु ईसाइयत ने पैदा किए हैं जिनका हमें कोई पता नहीं है। ठीक ऐसे ही ईसाई को भी पता नहीं है आपके महात्माओं का। अब मुसलमानों ने सूफी फकीर इतनी कीमत से पैदा किए हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। लेकिन हम एक-दो रूमी या 2: 44 .(अस्पष्ट) इस तरह के दो-चार नामों का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन हजारों की संख्या में लोग पैदा हुए हैं।


चीन में तो इतना बड़ा वर्ग पैदा हुआ है कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल। लेकिन हम लाओत्सु, कनफ्यूशियस और च्वांग्त्सु--तीन के नाम के अलावा, साधारणतः शिक्षित आदमी भी चैथे का नाम नहीं ले सकता। जापान ने बहुत संन्यासी पैदा किए। कई मामलों में तो ऐसा है...जैसे थाईलैंड। थाईलैंड की कुल आबादी आज चार करोड़ है। और बीस लाख संन्यासी हैं आज भी। लेकिन हमें इसकी कोई जानकारी नहीं होती। तो सारी दुनिया के संन्यासियों की जानकारी न होना, पहला तो उसकी वजह से बाधा पड़ती है। दूर की तो बात छोड़ दें।
अगर हम साधारणतः शिक्षित हिंदू से पूछें कि गौतम बुद्ध के बाद बुद्धों में और हिंदुस्तान में कौन से महात्मा हुए हैं? बाहर की तो बात छोड़ दो। तो साधारण शिक्षित हिंदू इसका भी उत्तर नहीं दे सकता। अगर बहुत ही नाम ले सकेगा तो शायद नागार्जुन एक नाम है जो बहुत शिक्षित आदमी ही ले सकता है। लेकिन बसुबंधु का नाम नहीं सुना होगा उसने; दिग्नाथ का नाम नहीं सुना होगा उसने; धर्मकीर्ति का नाम नहीं सुना होगा; चंद्रकीर्ति का नाम नहीं, ये नाम ही नहीं सुने होंगे। अब ये इतनी ही कोटि के लोग हैं जैसे शंकराचार्य। लेकिन शंकराचार्य हिंदू परंपरा के हैं इसलिए आपको नाम याद है। नहीं तो सच्चाई तो यह है कि शंकराचार्य ने जो भी कहा है, वह सब का सब नागार्जुन का कहा हुआ है। ओरिजिनल आदमी नागार्जुन है। लेकिन वह बौद्ध था इसलिए हम उसको भूल गए।
अगर हम हिंदू से पूछें कि जैनियों के कितने महात्मा हुए हैं? तो वह महावीर के सिवाय शायद नाम न ले सकेगा। जैनियों के चैबीस तीर्थंकरों का नाम भी हिंदू नहीं बता सकता, सिवाय महावीर को छोड़ कर। बाकी और तेईस तीर्थंकरों, कि कौन थे वे? तो इसलिए बाहर के मुल्कों की तो हम बात छोड़ दें, हमारे पड़ोस में जो रह रहा है उसके बाबत भी हम नहीं जानते। सारे जगत में इतने महात्मा हुए हैं कि उनका हिसाब लगाने की कठिनाई है। अब जैसे, आपको अंदाजा भी नहीं होगा, आज भी कैथोलिक मांक्स और नन्स की संख्या बारह लाख है सारी दुनिया में। उनके साधु और संन्यासिनियों की संख्या बारह लाख है, साधु-संन्यासिनियों की!
तो एक तो अपरिचय सबसे बड़ी कठिनाई है। अब तिब्बत में कितने संन्यासी हुए हैं? बहुत शिक्षित आदमी दो नाम ले सकता है, माक्र्स और मिरले का। वह भी बहुत शिक्षित आदमी। लेकिन वह भी नहीं बता सकता कि और जो हजारों संख्या में संन्यासी हुए, उनका क्या रिकाॅर्ड है? तो एक तो अपरिचय बहुत बड़ी बाधा है। दूसरी बाधा यह है कि हर मुल्क में संन्यासी की व्यवस्था भिन्न है।
 तो जिसको आप अपना संन्यासी कहते हैं, उसकी तो व्यवस्था आपको स्वीकृत है कि वह संन्यासी है। दूसरे का जो संन्यासी है उसकी दूसरी व्यवस्था है। अब यह समझो कि जैन। अगर दिगंबर जैन है तो वह मानता है कि महात्मा का लक्षण है कि वह नंगा हो। तो अपना महात्मा तो उसको महात्मा मालूम पड़ता है, दूसरे का महात्मा मालूम नहीं पड़ता महात्मा। क्योंकि उसकी डेफिनिशन में नहीं आता वह। उसको नग्न होना चाहिए। वह उसकी अनिवार्य शर्त है। तो दिगंबर जैनी कहेगा कि हमारे धर्म में तो महात्मा हुए दूसरे के महात्मा नहीं हुए। क्योंकि दूसरे के वह, वह बुद्ध को भी महात्मा मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वे कपड़े पहनते हैं। कृष्ण को महात्मा मानने को तैयार नहीं है क्योंकि उसकी परिभाषा के बाहर है।
अब जैन की परिभाषा में अहिंसा अनिवार्य है। तो कृष्ण उसकी परिभाषा के बाहर हैं, क्योंकि हिंसा उन्होंने करवा दी। राम उसकी परिभाषा के बाहर हैं क्योंकि वह युद्ध करें; जीसस उसकी परिभाषा में नहीं आ सकते, मोहम्मद उसकी परिभाषा में नहीं आ सकते।
तो दूसरी जो बुनियादी कठिनाई है, वह हम सब की डेफिनिशन है महात्मा की। अब जैसे हिन्दू जितने महात्मा हैं वेद के और उपनिषद के, जैन या बौद्ध उनको महात्मा नहीं मान सकते। क्योंकि वे सब विवाहित हैं। वे सपत्नीय हैं। यानी जैन तो ये कल्पना ही नहीं कर सकता है कि रामचंद्रजी सीताजी के साथ खड़े हैं और लोग उनकी पूजा कर रहे हैं। तो फिर महात्मा कैसे हैं? क्योंकि महात्मा में अपत्निक होना अनिवार्य है उनके हिस्से में, उनकी डेफिनिशन में। सही और गलत की बात नहीं कर रहा।
अब कैथोलिक जो साधु है वह आपको साधु नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि हिंदुओं में दिमाग में खयाल है कि साधुओं को गेरुआ वस्त्र पहनना चाहिए। कैथोलिक गेरुआ वस्त्र नहीं पहने हुए है। वह सड़क से निकल जाएगा, आप नहीं समझेंगे कि यह साधु है ।
तो सारी दुनिया के साधुओं की अपनी डेफिनिशन है अपने सम्प्रदाय की। वह उस डेफिनिशन के भीतर जीता है। अब जैसे कि गोविंद सिंह। तो गोविंद सिंह को सिक्ख तो मानेगा कि महात्मा है, लेकिन जैन नहीं मान सकता। क्योंकि महात्मा और तलवार रखे, यह उसके बाहर की बात है। महात्मा और लड़े, समझ के बाहर की बात है। तो दूसरी कठिनाई है डेफिनिशन, कि आप किसको महात्मा कहते हैं? और इससे मुश्किल खड़ी हो जाती है।
तीसरी एक और कठिनाई है। और वह कठिनाई यह है कि कुछ मुल्कों में तो महात्मा जो है वह फाॅर्मल है, और कुछ मुल्कों में वह इनफार्मल है। कुछ मुल्कों में तो महात्मा जो है वह फार्मल प्रोफेशन है। यानी वह आदमी अलग मालूम पड़ता है। उसका कपड़ा अलग है, उसके रहने का ढंग अलग है, उसके जीने का ढंग अलग है। कुछ मुल्कों ने फार्मल महात्मा पैदा नहीं किए, इनफार्मल महात्मा हैं उनके। वे रहते घर में हैं। जैसे और लोग रहते हैं वह वैसे ही रहता है, जैसे और लोग चलते हैं वैसे ही चलता है, लेकिन महात्मा है। तब हमें और मुश्किल हो जाती है। अब जैसे कि सूफियों में हजारों सूफी ऐसे हैं जिनकी हैसियत वही है जो कि किसी शंकराचार्य की, किसी रामानंदाचार्य की। लेकिन कोई सूफी मोची! और वह मोची का काम ही जिंदगी भर करता रहता है। फार्मल रूप से वह कभी महात्मा की घोषणा नहीं करता। अब जैसे कबीरदास हैं वे अपना कपड़े ही बुनते रहे। फार्मली कभी महात्मा नहीं हुए।
तो तीसरी तकलीफ यह है कि जिन मुल्कों में फार्मल महात्मा हैं, उन मुल्कों में तो दिखाई पड़ता है। और जिन मुल्कों में फार्मल नहीं है, जिंदगी में घुला-मिला है उन मुल्कों में दिखाई नहीं पड़ता। अब एक आदमी गेरुआ वस्त्र पहने है तो हम कह देंगे, महात्मा है; एक आदमी जैनियों का वस्त्र पहने हुए है तो हम कह देंगे कि महात्मा है; अगर वह आदमी कोट-पतलून पहने हुए है तो महात्मा नहीं रह जाएगा।
लेकिन कोट-पतलून से महात्मा होने का विरोध क्या है?
उससे कोई, उससे कोई विरोध नहीं है, क्योंकि महात्मा होना एक भीतरी कवालिटी की बात है। तुम क्या पहने हुए हो, उससे कोई संबंध नहीं है।
तो ये सारी कठिनाइयां हैं। इन कठिनाइयों की वजह से सब मुल्कों को यह सुविधा है कि वे यह समझ लें कि महात्मा हमारे यहां हुए हैं और दूसरों के यहां नहीं हुए हैं। दूसरी जो बात हैः मैं इसको नहीं मानता। सारी दुनिया में महात्मा हुए। क्योंकि महात्मा होना वैसे ही है, जैसे कवि होना; वैसे ही है, जैसे चित्रकार होना; वैसे ही है, जैसे मूर्तिकार होना; संगीतज्ञ होना, नृत्यकार होना। महात्मा होना मनुष्य के भीतर छिपी हुई कोई क्षमता है। वह सब जगह प्रकट होगी। उसके रूप कैसे होते हैं?
वे भिन्न होंगे? अब जैसे कि रामकृष्ण। अब बंगाल में तो रामकृष्ण भी मछली खाते हैं और विवेकानंद भी मछली खाते हैं। और उनको कभी खयाल नहीं आया बंगाल के बाहर भी सब मिल गए--कि मछली खाना महात्मा होने में विरोध हो सकता है। जब विवेकानंद पहली दफा बाहर आए तब उनको पता चला कि यह बड़ी मुश्किल बात है। क्योंकि मछली खाए महात्मा, यह जरा मुश्किल मामला हो गया। तो वे तकलीफ की बातें हैं, लेकिन इससे कोई लेना-देना नहीं है। इससे कोई लेना-देना नहीं है।
अब ऐसा हम सोच ही नहीं सकते कि जीसस, और शराब पीते थे? लेकिन जिस मुल्क में जीसस थे वहां शराब पीना साधारण पेय था। वह कोई बुराई थी नहीं। उसमें कभी उनके खयाल में आने का मामला नहीं था। हम सोच भी नहीं सकते कि महावीर या बुद्ध शराब पीएंगे। और अगर महावीर शराब पी लें तो कोई महात्मा मानने को तैयार नहीं होगा। ये सारी कठिनाइयों की वजह से ऐसा भेद मालूम पड़ता है, ऐसा है नहीं।
दूसरी बात यह है कि हिंदुस्तान कोई ज्यादा स्प्रिचिुअल है दूसरे मुल्कों से, यह भ्रांति है। स्प्रिचुअलिटी एक डाइमेन्शन है हर आदमी का। वह उसमें गति कर सकता है। और सारी दुनिया में सब तरफ लोगों ने गति की है। इतना जरूर हम कह सकते हैं कि हमारी एंफेसिस स्प्रिचुअलिटी पर शायद दूसरों से थोड़ी ज्यादा रही है। उन्होेंने जिंदगी के और आयामों पर उतनी एंफेसिस नहीं की जितनी हमने स्प्रिचुअलिटी पर एंफेसिस की है। एंफेसिस का फर्क है। वह फर्क बुनियाद में नहीं है बहुत। एंफेसिस का फर्क है। स्प्रिचुअल हम ज्यादा हैं, ऐसा नहीं है।
हमने जिंदगी को स्पिरिचुअल बनाने की सबसे ज्यादा आग्रहपूर्ण वृत्ति रखी है। इतना आग्रह किसी ने नहीं रखा। और इसका परिणाम उलटा हुआ है। इसका परिणाम यह नहीं हुआ कि हम स्पिरिचुअल हो गए हैं, इसका मतलब है कि हम हिप्पोक्रेट हो गए हैं। असल में किसी चीज पर अगर ज्यादा एम्फेसिस दी जाए तो हिपोक्रेसी पैदा होती है।
समझ लो कि एक समाज है उसमें दस कवि पैदा होते हैं। और ठीक है कवि पैदा होते हैं। हम स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन कोई समाज को यह वहम पड़ जाए कि हमारे मुल्क में सभी को कवि होना चाहिए तो उस मुल्क में फाल्स पोएट्स पैदा हो जाएंगे। क्योंकि कवि होना व्यक्ति की क्षमता है। लेकिन अगर आप यह पक्का कर लें कि कवि होना जरूरी है तो कुछ ऐसे लोग कवि हो जाएंगे...तो कवि नहीं सिर्फ तुकबंद हैं।
तो मेरा अपना मानना है कि एंफेसिस ने हिंदुस्तान को स्प्रिचुअल नहीं बनाया, बल्कि फाल्स स्प्रिचुअलिटी पैदा की है। स्प्रिचुअलिटी जिंदगी का एक हिस्सा है और कुछ लोग उसमें शामिल यात्रा करेंगे। मगर ये स्ट्रग्ल हालांकि नाॅन-एंफेटिक होनी चाहिए। तो वे ही लोग जाएंगे जो जाने चाहिए। अन्यथा अगर आपने बहुत एंफेसिस की तो वे लोग भी चले जाएंगे जो नहीं जाने चाहिए। और बहुत एंफेसिस में यह भी हो सकता है कि जो लोग जाने चाहिए थे, वे रुक जाएं। क्योंकि उन्हें लगे कि यह उपद्रव का मामला है। हम अपने घर में छुप कर चुपचाप कर लें जो करना है।
यह, इसकी वजह से हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचा, फायदा नहीं हुआ। हिंदुस्तान में हजारों की संख्या में ऐसे लोग संन्यासी हो गए जो निपट संसारी हैं। जिन्होंने जाकर संन्यास को भी संसार बना दिया। एक आदमी घर छोड़ कर भागेगा। और अगर सिर्फ संन्यास होने का उसे पागलपन सवार है, संन्यास होना उसकी वस्तुतः स्थिति नहीं है तो वह जाकर एक आश्रम खड़ा कर लेगा। और आश्रम में वही सब उपद्रव बड़े पैमाने पर शुरू हो जाएगा जो घर पर छोटे पैमाने पर होता था। अगर घर पर वह तिजोरी में पैसे रखता था तो आश्रम में भी संपत्ति इकट्ठी करनी शुरू कर देगा। अब अगर घर में वह मुकदमेबाजी करता था जमीन के लिए तो आश्रम की जमीन के लिए भी मुकदमेबाजी लड़ेगा। वह आदमी तो वही है जिसकी कहीं...वह कहीं भी चला जाएगा तो खुद ही जाएगा। वह अपना सारा का सारा लेकर वहां पहुंच जाएगा। और वहां सब उपद्रव शुरू हो जाएंगे।
अब यह बड़े मजे की बात है न कि शंकराचार्य जी जमीन के लिए अदालत में मौजूद होते हैं और एक ही गद्दी पर दो शंकराचार्य कब्जा कर लेते हैं। और दोनों घोषणा कर देते हैं कि मैं असली हूं। फिर दोनों को हाईकोर्ट तय करती है कि असली कौन? अब मजा यह कि जिस दिन हाईकोर्ट को तय करना पड़े कि असली संन्यासी कौन है और, और यह दो आदमी जब तय करवाने जाएं हाईकोर्ट में, तो मैं मानता हूं जो इसमें असली संन्यासी होगा वह तो भाग खड़ा होगा, वह कहेगा कि हां मैं संन्यासी नहीं हूं। क्योंकि यह हाईकोर्ट से तय करवाने जाएंगे?

प्रश्नः मेरे ख्याल से संन्यासी वैसे ही नहीं जाएगा कि मैं संन्यासी हूं?

हां, नहीं जाएगा। वही मेरा कहना है कि यह बहुत एम्फेसिस की वजह से दोहरा नुकसान होगा। जो सच में होने की क्षमता रखता था, वह शायद पीछे खड़ा हो जाएगा या चुपचाप हो जाएगा।

प्रश्नः तो इसका यह मतलब हुआ जितने ज्यादा संन्यासी हैं, उनमें से तो फिर ज्यादा पाखंडी हैं?

ज्यादा होने की संभावना ही नहीं है। क्योंकि संन्यास ऐसा फूल है कि बहुत बड़ी संख्या में खिलना मुश्किल है। अभी मनुष्यता उस योग्य भी नहीं है कि बहुत बड़ी संख्या में खिल जाए। बहुत मुश्किल है। आर्डुअस। इसलिए (अस्पष्ट 16: 24)हिंदुस्तान में पचास लाख संन्यासी हैं। पचास लाख संन्यासी जिस मुल्क में हों उस मुल्क की तो जिंदगी सुगंध से भर जाए। मगर कुछ किसी मतलब के नहीं हैं उनमें से, और पचास लाख संन्यासी में अधिकतम संन्यासी जो हैं वे, जिसको कहना चाहिए कि यूनिफाॅर्म संन्यासी हैं। उनका काम यूनिफाॅर्म संन्यासी का है। इतना वे काम पूरा कर देते हैं।
तीसरी जो बात हैः हमारा यह जो आग्रह है कि हम बहुत आध्यात्मिक हैं, यह किसी इनफीरियाॅरिटी कांप्लेक्स का परिणाम है। असल में हुआ क्या है, आध्यात्मिक हम नहीं हैं; लेकिन भौतिक हम नहीं हो पाए। हमारी एक कमी रह गई। असल में मैटीरियलिज्म मेें जितनी हमारी गति होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाई। न समृद्ध हैं, न शक्तिशाली हैं। सब तरह से दीन-हीन हैं। हजार साल की गुलामी की है। तो एक बात तो तय हो गई कि मैटीरियलिज्म का दावा हम नहीं कर सकते। वह तो दावे के हम बाहर हैं। अब इतना ही रह गया है कि हम उसको उलटा दावा जरूर कर सकते हैं।
अच्छा, मजा यह है कि मैटीरियलिज्म का आप दावा करें तो उसकी परीक्षा हो सकती है कि आप सच भी कर रहे हैं कि नहीं। स्पिरिचुअलिज्म की कोई वैलेडिटी नहीं होती, कोई एक्सपेरीमेंट नहीं होता। अब एक आदमी कहे कि मैं अमीर हूं तो जांच पड़ताल हो सकती है कि--है कि नहीं; एक आदमी कहे कि मैं ताकतवर हूं तो कुश्ती लड़वाई जा सकती है कि--है कि नहीं। लेकिन एक आदमी कहेः मैं तो आध्यात्मिक हूं, तो यह कोरा स्टेटमेंट हो सकता है। लेकिन यह इतनी भीतरी बात है कि जिसकी जांच ही नहीं हो सकती कि मामला कहां तक है, और कहां तक नहीं ?
तो भारत को इधर बहुत वर्षों से, कहना चाहिए कि दो हजार वर्षों से बड़ी दीनता में जीना पड़ रहा है और उसके अहंकार को बड़ी चोट लगी है। और इस अहंकार को कहीं से तो प्रकट होने के लिए सब्स्टीट््यूट मार्ग चाहिए। तो हम दो हजार साल से जितने नीचे गिरे हैं, उतने हमने जोर से यह घोषणा की कि हम आध्यात्मिक लोग हैं। होता यह है कि कई बार ऐसा हो जाता है कि अंगूर न मिल पाएं तो हम उन्हें खट्टे कहना शुरू कर देते हैं। यह हमारे मन की स्थिति है।
हम भौतिकवाद का इनकार करने लगे, क्योंकि वह हमें मिल नहीं पाया। और जिनको मिल गया उनको हम कहने लगे कि वे सब संसारी हैं। यानी उनको मिल जाने को भी हम कंडेम करने लगे। इससे हमारे दिल को बड़ी राहत मिली है। पर हमारे पास भी कोई दावा चाहिए। इसलिए हमने एक दावा करना शुरू किया कि हम आध्यात्मिक हैं। सच्चाइयां उलटी हैं। सच्चाइयां उलटी हैं। अगर आज हम आध्यात्मिक क्वालिटी को खोजने निकले दुनिया में तो हिंदुस्तान में सबसे कम मिलेगी। यूनिफाॅर्म की बात नहीं कर रहा हूं।
 वह जो क्वाालिटी है आदमी की अब जैसे कि मैं उदाहरण के लिए कहूं, मुझे....।
एक जाॅर्ज माइट अंग्रेज लेखक था। वह हिंदुस्तान आया। तो दिल्ली स्टेशन पर वह उतरा है। और एक सरदार जी ने, एक ज्योतिषी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा कि मैं आपका हाथ देखूंगा। तो उस आदमी ने कहा, लेकिन मैं हाथ दिखाना नहीं चाहता। न मैं भरोसा करता हूं, न मैं विश्वास करता हूं। इसलिए कृपा करके आप मेरा हाथ छोड़ दें। क्योंकि मैं आपसे हाथ छुड़ाऊं जबरदस्ती तो अशिष्टता होगी। लेकिन वह तो जोर से हाथ पकड़े हुए है और उसने तो बताना ही शुरू कर दिया, ज्योतिषी ने। और वह आदमी कह रहा है कि आप हाथ छोड़ दें, मैं जबरदस्ती छुड़ाऊं तो अशिष्टता होगी। और मेरा कोई भरोसा नहीं, न मैं आपसे पूछना चाहता हूं। लेकिन वह तो ज्योतिषी ने जोर से हाथ पकड़ा और बताना भी शुरू कर दिया जोर-जोर से, दस-पांच आदमी भी खड़े हो गये। जब वह दो-चार मिनट बता चुका तो उसने कहा कि अब आप माफ करिए, मुझे जाने दीजिए। तो उस ज्योतिषी ने कहा कि मेरी दो रुपये फीस हो गई। तो जाॅर्ज माइट ने कहा कि ठीक है, आप यह दो रुपये ले लो, हालांकि यह ज्यादती है क्योंकि मैं मना कर रहा हूं और आप जबरदस्ती बताए चले जा रहे हैं, इसलिए फीस देने के लिए मैं बाध्य नहीं। लेकिन ठीक है आपने मेहनत की है तो आप ये दो रुपये ले लें। जैसे ही उसको दो रुपये दिए कि उसने तो और बताना शुरू कर दिया। उसने कहाः देखिए, लेकिन अब मैं आपको फीस नहीं दूंगा। अब आप मत बताइए। लेकिन तब तक एक रुपया फीस और हो गई। यह जाॅर्ज माइट ने अपनी पूरी किताब में लिखा था, (अस्पष्ट.20: 48..)। उसने कहा कि मैंने उसको कहा कि मैं आपको अब पैसे नहीं दूंगा क्योंकि यह ज्यादती है। तो उस आदमी ने मेरा हाथ जोर से पटका और कहा कि पैसे के पीछे मरे जाते हो, वल्र्डी आदमी हो तुम, उस ज्योतिषी ने उसको कहा। तो माइट ने लिखा है कि मैं सोचता हूं कि हम दोनों में वल्र्डी कौन था? उस, उस आदमी ने मुझे आखिर मेें गाली दी कि तुम वल्र्डी हो, क्योंकि तुम दो रुपये के पीछे मरे जा रहे हो।
अब यह जो हमारी मनोदशा है...न तो चरित्र है हमारे पास आज, जो किसी भी दूसरी कौम से मुकाबला कर सके, न नैतिकता है, न अध्यात्म है। लेकिन पांच हजार वर्ष की हमारे पास विरासत जरूर है। हमारे पास कुछ किताबें जरूर हैं। ऐसी किताबें दुनिया में सब जगह हैं। (अस्पष्ट. 21: 46..)हमारे पास ही ऐसी किताबें नहीं हैं। सारी दुनिया में इस तरह की किताबें हैं।
बल्कि कई दफा तो मुझे हैरानी होती है कि हमारी दो हजार साल पुरानी जो किताब है, उसके मुकाबले यूनान की दो हजार साल पुरानी किताब ज्यादा श्रेष्ठ मालूम होती है, ज्यादा विकसित मालूम होती है। क्योंकि हमारी किताब में सिर्फ एक स्टेटमेंट है। जैसे उपनिषद हैं। उनमें सिर्फ बेयर स्टेटमेंट है। न कोई आर्गुमेंट है, न कोई ग्रोथ है। एक आदमी कह रहा है कि ब्रह्म है और ब्रह्म ही सब कुछ है, यह स्टेटमेंट है सिर्फ। अगर इसी समय की दो हजार साल पुरानी सुकरात की किताब देखें तो उसमें स्टेटमेंट ही नहीं है सिर्फ, उसमें लाॅजिकल काॅ.जे.ज भी हैं। अगर वह कह रहा है कि ईश्वर है तो उसके लिए प्रमाण देने की कोशिश कर रहा है, तर्क भी दे रहा है। विपरीत तर्क का खंडन भी कर रहा है।
अगर हम दोनों किताबों को सीधा टाइम स्केल पर रख कर देखें तो हमें पता लगेगा कि यूनान की किताब ज्यादा विकसित मस्तिष्क से लिखी हुई मालूम पड़ती है। हमारी किताब पोएटिक है, शिक्षाविद नहीं है। मगर यह पोएटिक ट्रेडिशन हमारे पास है बड़ी। हम इसके वसीयतदार होकर दावा करते हैं। मगर स्पिरिचुअलिटी का किताबों से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गीता को पैदा करने के लिए कृष्ण काफी हैं। कोई पचास हजार आदमी और पचास लाख या पांच करोड़ आदमियों को आध्यात्मिक होने की जरूरत नहीं है। एक जीसस काफी हैं (अस्पष्ट.23: 12..)पैदा करने के लिए। और एक सुकरात काफी है। हमारे पास एक कृष्ण हुआ यह सच है; एक बुद्ध हुआ यह सच है; एक महावीर हुआ यह सच है। इनके वक्तव्य हमारे पास हैं। लेकिन हम कोई आध्यात्मिक मनुष्य हैं, यह सिद्ध नहीं होता।
एक आइंस्टीन पैदा हो जाए जर्मनी में तो इसलिए जर्मनी साइंटिस्ट नहीं हो जाती। एक बुद्ध पैदा हो जाए तो हम कोई स्पिरिचुअल नहीं हो जाते। ये दावे बड़े हैं। एक इंडिविजुअल की बात है वह। इसके लिए सबको दावा करने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हमारे मन में दावे का कारण है। क्योंकि हम इतने हीन हो गए हैं कि जितना ही दावा करते हैं हमको सुख मिलता है। इसलिए हमको विवेकानंद में बहुत सुख मिला। क्योंकि विवेकानंद ने हमारी ईगो को, हमारे अहंकार को खूब तृप्ति दी। विवेकानंद को हिंदुस्तान में कोई पूछता भी नहीं था अमेरिका जाने के पहले। किसी को पता भी नहीं था इस आदमी का कि यह आदमी भी है। यह आदमी अगर आपके गांव से निकला होगा, और निकला होगा क्योंकि पूरे उत्तर भारत में पैदल घूमता रहा। किसी को पता नहीं था यह आदमी। और यह आदमी जिंदगी भर यहां रह कर मर जाता, हमको किसी को भी पता नहीं चलता। लेकिन हमको पता इसलिए चला क्योंकि उसने जाकर अमेरीका में हमारे अहंकार को बड़ी तृप्ति दी। तो इसकी प्रतिष्ठा हमें अपनी प्रतिष्ठा मालूम हुई। फिर हमने कहा कि यह भगवान है। जब यह आदमी लौटा तो हमने बहुत शोरगुल मचाया। लेकिन बड़े मजेे की बात है कि वह शोरगुल पंद्रह दिन में फिर शांत हो गया। विवेकानंद के आने के बाद महीने-पंद्रह दिन तक स्वागत-समारोह और ये सब चले, और उसके बाद सभी शांत।
विवेकानन्द ने सोचा था कि हिंदुस्तान में जाकर बड़ा काम हो पाएगा। कुछ काम नहीं हुआ। बल्कि विवेकानंद को जितना सम्मान दूसरे मुल्कों में मिला, उतना सम्मान भी हम नहीं दे पाए। और कलकत्ते में तो आते ही उनके खिलाफ जो आध्यात्मिक आदमी हुए हैं, हमने उनके खिलाफ पर्चेबाजी शुरू कर दी। और हमने उनमें गलतियां खोजनी फौरन शुरू कर दी। यह आदमी ऐसे कपड़े क्यों पहने हुए हैं, यह निवेदिता इसके साथ क्यों आ गई है? हमने यह सब शुरू कर दिया। आप यह जान कर हैरान होंगे, निवेदिता ने ही सारा काम किया पश्चिम में। रामकृष्ण मिशन के लिए सारा काम निवेदिता का फैलाया हुआ है। लेकिन हिंदुस्तान ने क्या बदला दिया उसको? विवेकानंद के मरने के बाद निवेदिता को रामकृष्ण आश्रम से निकाल बाहर किया। जब वह मरी तो रामकृष्ण आश्रम में नहीं थी, अलग एक मकान में मरी थी।
हमारा यह जो मन है, हमारे अहंकार को तृप्ति मिले, वहां तक तो हम कुछ भी घोषणा करने को तैयार हैं। लेकिन जब हमारी असलियत प्रकट होती है तो हम बहुत नीच साबित होते हैं। मैं नहीं मानता हूं कि यह मुल्क कोई आध्यात्मिक मुल्क है। हां, इसमें एंफेसिस अध्यात्म पर रही है, और इससे दोहरे नुकसान हुए हैं। न तो आध्यात्मिक हो पाया, और उस गलत एंफेसिस की वजह से...तो मैं गलत इसलिए कहता हूं कि मैं किसी भी एंफेसिस को गलत कहता हूं। मैं जिंदगी के सरल होने के पक्ष में हूं।
अगर एक आदमी कवि हो सकता है तो मैं कहता हंू कि वह कवि हो लेकिन कविता को कोई जीवन के ऊपर थोपने की कोशिश न करे। और एक आदमी अगर वैज्ञानिक हो सकता है तो वह वैज्ञानिक हो, लेकिन विज्ञान को जिंदगी बनाने की चेष्टा न की जाए। और एक आदमी आध्यात्मिक हो सकता है तो बहुत मजे से हो, लेकिन जिंदगी पर अध्यात्म का चोगा न ओढ़ाने की कोशिश की जाए। जिंदगी सरल हो, जो-जो हो सकता है वह हो। और हम सब चीजों को स्वीकार करने वाले हों। उस मुल्क को मैं उतना ही ब्राॅड-माइंडिड कहता हूं, जिसका एंफेसिस किसी भी चीज पर नहीं है। क्योंकि जब भी हम किसी चीज पर एंफेसिस देते हैं तो किसी चीज पर एम्फेसिस कम करनी पड़ती है।
अगर हम अध्यात्म पर बहुत जोर देंगे तो विज्ञान पिछड़ जाएगा। अगर हम विज्ञान पर बहुत जोर देंगे, अध्यात्म पिछड़ जाएगा। अगर हम कविता पर बहुत जोर देंगे तो यथार्थ पिछड़ जाएगा। और अगर यथार्थ पर बहुत जोर देंगे तो जिंदगी में कल्पना और कविता खाली हो जाएंगी। और जिंदगी में सब चीजों का इकट्ठा समन्वय है, इसलिए मेरी मान्यता यह है कि सब फूल खिलने चाहिए। और कल्चर नाॅन-एम्फेटिक होना चाहिए। यानी हम पूरा जोर किसी चीज पर न दें। जो हो जाए उसको हम सहारा दें। एक बुद्ध हों पैदा, हम बड़े खुश। लेकिन हम यह न चाहेंगे कि आइंस्टीन की हत्या पर बुद्ध पैदा हों। क्योंकि आइंस्टीन का होना उतना ही जरूरी है। एक आदमी इंजीनियर हो, बहुत उपयोगी है। लेकिन हम यह न चाहेंगे कि जिंदगी से कविता बिलकुल मर जाए। क्योंकि इंजीनियर मकान ही बना सकता है, लेकिन मकान में बैठे लोगों को कविता भी जरूरी है।
तो मेरा अपना जो खयाल हैः वह यह है कि जिन संस्कृतियों ने किसी एक चीज से जोड़ दिया, उन्होेंने नुकसान पहुंचा दिए। तो जोर किसी पर भी देने की जरूरत नहीं है। जिंदगी मल्टी-डाइमेन्शनल है। और उसके सब डाइमेन्शन अंगीकार होने चाहिए। और वह जितनी विविध होती है उतनी रसपूर्ण होती है। इसलिए हिंदुस्तान में एक तरह की बोर्डम पैदा हो गई है। इसलिए आज अध्यात्मवादी की बात सुनते वक्त बोर्डम मालूम होती है। क्योंकि कितनी बार सुन चुके वही बात, वही बात कहे चले जा रहे हैं। दोहराए चले जा रहे हैं। इसलिए सुनने वाला आदमी धीरे-धीरे, धीरे-धीरे टूटता जा रहा है। आज अध्यात्मवादी बहुत हैं मुल्क में लेकिन सुनने वाला उनको कोई भी नहीं है। या सुनने वाले मरे मुर्दे हैं बिलकुल जो कि सो रहे हैं, जिन्हें सुनने की भी जरूरत नहीं है।
कोई भी संस्कृति बोर्डम पैदा करेगी अगर एकतरफा हो जाएगी। सबका समन्वय है। और जिंदगी में ऐसे क्षण हैं, एक आदमी की जिंदगी में भी ऐसे क्षण हैं जब उस आदमी की जिंदगी में भी फर्क होते रहते हैं। आज कविता प्रीतिकर लगती है, कल नहीं भी लग सकती है। और आज विज्ञान सब कुछ मालूम होता है, कल नहीं भी मालूम हो। और मैं मानूंगा कि जिस आदमी की जिंदगी में ऐसे क्षण हैं परिवर्तन के, वह आदमी अन्ततः ज्यादा रिचर होकर दुनिया से विदा होगा।
तो मैं ऐसा भी नहीं मानता कि एक सुर जिंदगी में होना चाहिए कि बचपन से लेकर बुढ़ापे तक आदमी का एक सा व्यक्तित्व हो। उसमें अनेक स्वर होने चाहिए। और अनेक स्वरों के बीच एक हार्मनी होनी चाहिए। कांफ्लिक्ट नहीं होनी चाहिए। न तो मैं चाहता हूं कि समाज में एंफेसिस हो और न मैं चाहता हूं व्यक्ति में एम्फेसिस हो। विविधता मेरा प्रेम है।
मुझे लगता है जितना वैविध्य हो, जितनी भिन्नता हो, उतना ही सब सुंदर हो जाता है। सब रंग, सब रंग होने चाहिए जिंदगी में। इसमें मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भारत की बजाय पश्चिम में जो संस्कृति विकसित हो रही है वह ज्यादा मल्टी-डाइमेन्शनल है। और हमें आज नहीं कल, मल्टी-डाइमेन्शनल होना पड़ेगा। एक डाइमेन्शन में सारी गति देने से हजार तरह के नुकसान हैं। हमारी सारी की सारी प्रतिभा जो है वह संन्यास की तरफ मुड़ गई है, सारी प्रतिभा।
अब जैसे दिग्नाथ जैसा आदमी जो है, या नागार्जुन जैसा आदमी है, इनके पास बड़ी अदभुत प्रतिभा थी। लेकिन संन्यास के मरूस्थल में सब खो जाता है। हां, कुछ लोगों के पास संन्यासी होने की प्रतिभा होती है वह बात अलग है। लेकिन अगर मुल्क के सारे लोग संन्यासी होने लगें तो वह जो विविधता मुल्क में आनी चाहिए, और जो और दिशाएं खोज में आनी चाहिए, वे सब बन्द हो जाएंगी। तो मैं एम्फेटिकली एम्फेसिस के खिलाफ हूं। तो मैं बिलकुल ही इस बात को पसंद करता हूं कि जिंदगी में विविधता आए। मौजूद होना चाहिए। और शायद ऐसे समाज को मैं आध्यात्मिक कहूंगा जो सब तरह के लोगों को, जो वे हो सकते हैं--होने की सुविधा देता है, प्रशंसा देता है, सहारा देता है।
क्योंकि मेरे मन में आत्मा जो है वह एक बहुत बड़ी चीज है। और वह अनेक रूपों में प्रकट हो सकती है। अगर हम एक कवि को कवि न होने दें तो वह आदमी कभी अपनी आत्मा को उपलब्ध न हो पाएगा। क्योंकि उसके लिए तो आत्मा तक पहुंचने का रास्ता काव्य ही है। अगर हम एक नृत्यकार को नाचने न दें तो हम उसे आत्मा तक कभी न पहुंचने देंगे, क्योंकि उसका रास्ता तो नाचना ही है जिससे वह आत्मा तक पहुंचेगा। रविशंकर सितार से ही अपनी आत्मा खोजेगा। इसको अगर हमने उपवास करा कर किसी मंदिर में बिठा दिया तो यह आदमी अपनी आत्मा को कभी नहीं खोज पाएगा। इसकी आत्मा का अपना रास्ता है।
अब मैं किसको अध्यात्म कहूं?
मैं तो उस वृत्ति को आध्यात्मिक कहता हूं जो सब रास्तों को अंगीकार करती है और मानती है कि अपने-अपने रास्ते से लोग वहां पहुंच जाएं जो वे होने को पैदा हुए हैं। आप जो होने को पैदा हुए हैं वह आपको हो जाना चाहिए, वही आपकी आत्मा की उपलब्धि है। उसी से आप जान पाएंगे जीवन के सत्य को।
इधर मेरी, मेरी पहु‏ंच बहुत और तरह की है। मैं यह नहीं कहता कि जीवन का सत्य कोई फिक्सड चीज है, कि कहीं रखा है और आप जाकर दरवाजा खोल कर पा लेंगे। ऐसा नहीं मानता हूं। जीवन का सत्य एक प्रोसेस है। और जो मेरे लिए जीवन का सत्य होगा, वह जरूरी नहीं कि आपके लिए होगा। हालांकि मैं अपने जीवन के सत्य को जिस दिन पा लूंगा और आप अपने जीवन के सत्य को पा लेंगे, हम दोनों की यात्राएं अलग होंगी, लेकिन तृप्ति समान होगी। वह तृप्ति जो है, वह जो फुलफिलमेंट है। वह समान होगा।
एक गणितज्ञ भी जब अपनी गणित की दुनिया में पूरा का पूरा उतर जाता है तो किसी ध्यानी से पीछे नहीं रह जाता। वहीं पहुंच जाता है। और एक चित्रकार जब चित्र को बनाता है और चित्र में पूरा उतर जाता है, तब वह किसी प्रार्थना करने वाले से पीछे नहीं रह जाता--मैं यही कहूंगा। इसलिए मेरे लिए अध्यात्म का मतलब भी और है। मेरे लिए आत्मा की खोज का मतलब भी और है। और मेरे लिए सारा का सारा मामला इनडिविजुअल है। और सबसे खतरनाक और वायलेंट वे लोग हैं जो अपने को दूसरे पर थोप देते हैं।
इसलिए गुरुओं से ज्यादा वायलेंट आदमी मैं दूसरों को नहीं मानता। क्योंकि अगर मैं आपका गुरू होता हूं तो मैं यह स्वीकार कर रहा हूं कि मैं तुम्हें अपने जैसा बना कर रहूंगा। और तुम अगर शिष्य बनते हो तो तुम इसीलिए शिष्य बन रहे हो कि मैं आप जैसा बनने की कसम खाता हूं। उसमें खतरा होने ही वाला है। क्योंकि कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। और मैंने अगर आपको, अपने को आपके ऊपर थोपा तो आपको नुकसान पहुंचाऊंगा। और आपने अगर मुझे ओढ़ा तो भी आप अपने को नुकसान पहुंचाएंगे। और हो सकता है इससे सिर्फ एक परवर्टिड पर्सनैलिटी पैदा हो और कुछ भी, कुछ नहीं।

प्रश्नः 35: 17 जैसा अभी आपने कहा है, लाइफ इज मल्टीडायमेंशनल। वाॅट डू यू थिंक शुड बी अवर एटीट््यूट फाॅर दि...। वैदर वी नो दैट वाॅट अवर पेरेंटस...और वाॅट शुड बी अवर एटिट््यूट फार अवर फैमिली? फार अवर...

इसमें दो-तीन बातें हैं। एक तो यह सवाल शुड का नहीं है। जब हम कहते हैं कि मां और पिता के प्रति क्या रुख होना चाहिए, सभी बात गलत हो जाती है। असल में मां अगर मां है तो एक रुख तय हो ही गया है। पिता अगर पिता है तो एक रुख तय हो ही गया है। असल मेें पिता का पिता होना और मां का मां होना एक रुख को तय कर ही दिया। अब इसमें होना चाहिए की गुंजाइश नहीं है। कोई मुझसे नहीं पूछता कि मेरा मेरी प्रेयसी के प्रति क्या रुख होना चाहिए? कोई नहीं पूछता यह। अभी तक मुझसे किसी ने नहीं पूछा। उसका कारण है। क्योंकि प्रेयसी के प्रति रूख तय हो ही गया। लेकिन मां के प्रति हम पूछते हैं, क्योंकि कोई रुख नहीं है। पिता के प्रति कोई रुख नहीं है। इसलिए हम कोई फाॅर्मल इंपोजिशन चाहते हैं। यह सवाल बन गया है। यह सवाल प्रेयसी के प्रति नहीं है, पत्नी के प्रति होता है यह सवाल। कि पत्नी के प्रति क्या रुख होना चाहिए? उसका मतलब यह है कि प्रेम मर चुका।
तो जैसे ही हम इसको शुड बनाते हैं, जैसे ही हम कहते हैं कि क्या होना चाहिए पिता के प्रति मेरा रूख? तब मैं कहूं कि बात तो समाप्त हो चुकी है। पिता अब वह आदमी रहा नहीं, आप बेटे रहे नहीं। इस तथ्य को, पहले से इसको जान लेना चाहिए कि वह जो पिता और बेटे का होना था, वह विदा हो गया है। अब तो कुछ-कुछ चेष्टा करके कायम रखना पड़ेगा। अब यह संबंध एक ड््यूटी का होगा, एक लव का नहीं होगा। अब यह कर्तव्य का होगा।
तो मेरा पहला तो सुझाव यह है कि यह स्थिति ठीक से हमें समझ लेनी चाहिए कि मामला ऐसा ही यह समाप्त हो गया है। और अगर समाप्त हो गया है तो कोई भी उपाय नहीं है कि इसे जिंदा किया जा सके। सिर्फ अभिनय किया जा सकता है। सिर्फ एकिं्टग की जा सकती है। असल में पिता के साथ हम उसके पिता होने का और अपने बेटे होने का एक्ट कर रहे हैं तो वह बोझ भी मालूम पड़ेगा। अगर ऐसा हो गया है तो पहला कर्तव्य तो मैं यह कहूंगा कि यह अपने पिता से कह दो कि ऐसा हो गया है--पहला कर्तव्य। क्योंकि जिनसे हमारे संबंध हैं निकट के, उनके प्रति अभिनय करने को मैं अनुचित मानता हूं। सत्य का पहला कदम तो यह हुआ कि कह दो कि यह बात सच है। विनम्रता से इसे स्वीकार कर लो कि अब कोई उपाय नहीं है। अब ज्यादा से ज्यादा मैं कर्तव्य ही निभा सकता हूं। इसकी स्वीकृति बहुत से लाभ लाएगी।
अगर यह स्वीकृति आ जाए तो जिंदगी में बहुत से उलझाव कम हो जाएं। क्योंकि हमारी बहुत सी अपेक्षाएं कम हो जाएं। अगर मुझे साफ-साफ अपनी पत्नी से कह देने की बात आ गई कि अब हमारे बीच जो संबंध है वह एक कर्तव्य का है। इसलिए अब तुम मुझसे वे अपेक्षाएं मत करना जो एक प्रेमी से की जाती हैं, तो मैं तुमसे वह अपेक्षा नहीं करूंगा जो एक प्रेयसी से की जाती है--सब चीजें स्मूथ हो जाएंगी, सीधी चल सकेंगी। क्योंकि अपेक्षाएं उपद्रव पैदा करेंगी, अपेक्षाएं जाल पैदा करेंगी; जो चाहा जाएगा, वह कभी पूरा नहीं होगा; जो मांगा जाएगा, वह कभी मिलेगा नहीं; जो पुकारा जाएगा, वह हम दे न सकेंगे--और जाल बढ़ते जाएंगे। और जब जाल बढ़ेंगे तो हम और एक्ट करेंगे, और झूठ, और पाखंड--वह सब उपद्रव हो जाएगा।
तो मेरा अपना मानना हैः यह पिता के संबंध में नहीं; मां के संबंध में नहीं; पत्नी के, मित्र के, किसी के, विशेष के संबंध में नहीं। मेरा मानना है यह कि सदा अपने संबंधों को साफ और सत्य रखना है। उनको साफ, जो भी संबंध जैसा हो उसको वैसा ही जाहिर कर देना, ताकि गलत अपेक्षाएं न बनें। डिसइलूजनमेंट के मौके न आएं, तो फ्रस्ट्रेशन भी नहीं आएगा। अगर मुझे लगता है कि मेरे आपके बीच मित्रता समाप्त हो चुकी है, तब मैं इसको व्यर्थ ही ढोता न रहूं। यह भी मेरी मित्रता का अंतिम कृत्य होना चाहिए, जहां आपसेे कह दूं कि यह बात समाप्त हो गई। अब हम दो परिचित आदमी ही हो सकेंगे। और मैं नहीं जानता जब मित्रता समाप्त हो गई, तो मैं नहीं कह सकता कि कल परिचय भी समाप्त हो जाए। और मैं यह भी नहीं कह सकता कि कल मित्रता फिर लौट आए। आ जाएगी तो मैं आपको निवेदन कर दूंगा।
हमारी कठिनाई क्या है? हमारी कठिनाई यह है कि जिंदगी चैबीस घंटे बदल रही है। और हम न बदले होने का धोखा दिए जा रहे हैं। कल सुबह मैंने आपसे कहा था कि तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकता और आज मुझे ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे साथ एक क्षण जीना मुश्किल है। मगर मैं धोखा वही कायम किए हुए हूं। अब भीतर मेरा मन कह रहा है कि तुम्हारे साथ एक क्षण जीना मुश्किल है, और बाहर से मैं आज भी यही कहे चला जा रहा हूं कि तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता। अब यह जिंदगी बहुत जटिल और उलझन की हो जाएगी।

प्रश्नः ऐसा क्यों?

ऐसा इसीलिए कि हमने कुछ सिद्धांत मान रखे हैं जो झूठे हैं। जैसा हमने मान रखा है, कि हम भविष्य के लिए वायदे कर सकते हैं, यह झूठी बात है। भविष्य के लिए वायदे किए नहीं जा सकते। क्योंकि भविष्य का हम कोई भी वायदा नहीं कर सकते। मैं कल आपको प्रेम करूंगा, इसका वायदा करना ही खतरनाक है। यह वायदा कभी पूरा हो नहीं सकता। क्योंकि कल के लिए मैं आज कुछ भी नहीं कह सकता। कल मैं मैं ही रहूंगा, यही पक्का नहीं है। लेकिन हमने जो जिंदगी बनाई उसमें हम भविष्य के वायदे कर रहे हैं। वह हमारी बांडे हैं। फिर जब हम वायदे करते हैं तो हमारा अहंकार वायदों को पकड़ लेता है, और वह कहता है कि कल मैंने ही तो कहा था कि तुम्हारे बिना नहीं जी सकूंगा। अब मैं कैसे कह सकता हूं? अब तो मैं बंध गया हूं। तो अब मैं दोहरे काम करूंगा, भीतर कुछ और जानूंगा, बाहर कुछ और करूंगा। अब सब जाल फैलते चले जाएंगे।
तो मनुष्य ने जो सिद्धांत तय किए हैं उनमें कुछ बुनियादी भूलें हैं। क्योंकि मेरा मानना यह है कि भविष्य के बाबत कोई भी वायदा परहेप्स के साथ जुड़ा हुआ है। इसे हमें जानना चाहिए। यानी जब मैं आपसे कह रहा हूं कि कल भी मैं आपको प्रेम करूंगा तो मैं यह कह रहा हूं कि आज मैं ऐसा सोचता हूं कि कल भी प्रेम कर सकूं तो अच्छा। यह अभी का सोचना है मेरा। यह अभी मुझे लग रहा है कि कल भी प्रेम करूंगा तो बहुत अच्छा। लेकिन कल क्या लगेगा, यह मैं कुछ नहीं कह सकता। कैसे कह सकता हूं? कल आ जाए उसकेे पहले कहने का कोई उपाय भी नहीं।
तो एक तो हमने, भविष्य के लिए निर्णय लेते हैं हम, वह खतरनाक है। मैं यह नहीं कहता कि निर्णय आप न लें, निर्णय आप लेने पड़ेंगे। क्योंकि जीना है तो निर्णय लेने पड़ेंगे। लेकिन निर्णय सदा ही इस अनिश्चय को जानते हुए लिए जाएं, तो आप कल जब निर्णय टूटेगा तो परेशान नहीं होंगे--एक। दूसरी बात यह है कि हम सब अपना एक इमेज बनाते हैं, जो हम नहीं हैं। हम सब इस कोशिश में लगे रहते हैं कि हम अच्छे दिखाई पड़ने चाहिए। हम इस कोशिश में नहीं रहते कि हम सच्चे दिखाई पड़ने चाहिए। अच्छे दिखाई पड़ने चाहिए। हमको बचपन से ही सिखाया जा रहा है कि अच्छे आदमी बनो। कोई नहीं सिखा रहा, सच्चे आदमी बनो।
हमारी सारी शिक्षा जो है वह अच्छे आदमी बनने की है। तो बचपन से ही हमारे ऊपर एक खयाल पैदा किया जा रहा है कि अच्छे आदमी बनो। फिर अच्छे आदमी की एक धारणा हम पैदा कर लेते हैं। अब अच्छा बेटा हुआ है जो बाप का आदर करता हो। हमको बचपन से कहा जा रहा है कि अच्छा बेटा जो है वह बाप का आदर करता है। हमें यह कभी नहीं कहा गया कि सच्चा बेटा वह है जो जब तक आदर करता है तो आदर करता है, और नहीं करता तो अपने बाप को निवेदन कर पाता है कि मेरा आदर विदा हो गया। वह नहीं है अब। अच्छा बेटा वह है जो कि मरते दम तक कुछ भी हो लेकिन आदर करता है! अच्छी पत्नी वह है कि पति चाहे वेश्यागामी हो तो भी उसको परमात्मा मानती रहे! अब यह अच्छी पत्नी का जो ख्याल हम जोड़ रहे हैं, यह खतरनाक है। सच्ची पत्नी का नहीं है यह ख्याल, यह अच्छी पत्नी का है।
और अच्छे और सच्चे में मैं फर्क करता हूं। मेरे हिसाब से तो सच्चा ही अच्छा है। तो हमने क्या किया है? हमने जो इमेजेस इंपोज किए हैं एक-एक बच्चे के ऊपर, वे मंहगे पड़ते हैं। और वे खोल की तरह हमारे जीवन को जकड़ लेते हैं। फिर जिंदगी भर उसी ढांचे में हमको जीना पड़ता है। वह ऐसा है जैसे बचपन में पाजामा पहना था, और फिर बुढ़ापे तक उसी में जीना पड़ रहा है। पाजामा फटे, तो मुश्किल है; पाजामा अलग करो, तो मुश्किल है; पाजामा बदलो, तो मुश्किल है। लेकिन शरीर के कपड़े तो बदल जाते हैं; आत्मा पर पहनाए गए जो शिकंजे हैं, वे बैठे रह जाते हैं। ये सारी की सारी बुनियादी झूठी बातें हैं। फिर इसमें कई बहुत बड़ी महत्व की बातें हमारे खयाल में नहीं हैं।
बाप अपने बेटे को प्रेम करता है। इससे वह सोचता है कि बेटा भी बाप को प्रेम करे--इसमें गलती है। मां अपने बेटे को प्रेम करती है तो वह सोचती है कि बेटा भी मां को उतना ही प्रेम करे--इसमें गलती है। यह अवैज्ञानिक है। इसको मैं समझाऊंगा आपसे, कि कर्तव्य शब्द ही गंदा है। इसमें कोई अपवाद तो नहीं। असल में कठिनाई क्या है, एक मां अपने बेटे को प्रेम करती है। तो मां अपने बेटे को प्रेम करती है इसलिए वह स्वभावतः सोचती है कि उसी भांति का प्रेम बेटा भी उसे करे। लेकिन उसे पता नहीं है कि इसी भांति का प्रेम बेटा अपने बेटे को करेगा। यह जीवन की व्यवस्था है।
इस मां से ही पूछो कि जितना प्रेम तू अपने बेटे को कर रही है इतना तूने अपनी मां को किया है? तो पता चल जाएगा फर्क। बाप अपने बेटे से उतना ही प्रेम चाहता है जितना उसने किया है। उससे पूछो कि तुमने इतना प्रेम अपने बाप को किया है?
नहीं किया है। असल में जीवन में जो प्रेम की धारा है आगे की तरफ है, पीछे की तरफ नहीं है। हो ही नहीं सकती, हो तो बड़ा खतरनाक हो जाएगा। क्योंकि जिंदगी को जाना है आगे। अगर बेटा अपने बाप को बहुत प्रेम करे इतना जितना अपने बेटे को न कर पाए तो दुनिया का बहुत नुकसान हो जाएगा।
नहीं, जीवन की जो बायोलाॅजिकल व्यवस्था है उसमें धारा आगे की तरफ जा रही है। मां अपने बेटे को प्रेम करेगी, बेटा अपने बेटे को प्रेम करेगा, वह इस तरह चुकाएगा प्रेम को। तो और कोई उपाय नहीं है। लौट कर चुकाने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन मां अपेक्षा कर सकती है कि जितना प्रेम मैंने अपने बेटे को किया, उतना ही वह मुझे करे। अगर इतना ही बेटा अपनी मां को करेगा तो पत्नी को प्रेम नहीं कर पाएगा।
इसलिए जो बेटे अपनी मां को बहुत प्रेम करेंगे, उनकी जिंदगी में पत्नी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि उसके सारे प्रेम की धारा पत्नी की तरफ बहनी चाहिए, नहीं तो मुश्किल हो जाएगा मामला। इसलिए जैसे ही पत्नी घर में आती है, मां परेशान होना शुरू हो जाती है। क्योंकि फौरन पता चलता है कि बेटा उसका नहीं रहा। एकदम जो धारा उसे कल तक आश्वस्त मालूम पड़ती थी वह अब पत्नी की तरफ बहने लगी है। अब वह बेटा अपनी पत्नी के पास एकांत में बैठना पसंद करता है, अपनी मां के पास बैठना पसंद नहीं करता। वह बेटा अपनी पत्नी को लेकर एकांत में घूमने जाना चाहता है, अपनी मां को लेकर घूमने नहीं जाना चाहता। अब यह बड़े मजे की बात है कि वह मां ही इस पत्नी के लिए परेशान थी--कि शादी करो, जल्दी करो, बड़ी खुशी मनाई थी, बैंड-बाजे बजाए थे, शोरगुल मचाया था--वही सबसे ज्यादा मुश्किल में पड़ जाएगी कल, यह उसे पता नहीं था। लेकिन वह पता न होने का कारण है कि वह मनुष्य के विज्ञान के बाबत पूरी जानकार नहीं है।
असल में मां को जानना चाहिए कि उसका काम पूरा हो गया। वह स्त्री आ गई जिसकी तरफ उसका प्रेम अब बहेगा। और उसने अपनी जो, जिसको कहना चाहिए अमानत, वह एक दूसरी स्त्री को सौंप दी, अब उसे रास्ते से हट जाना चाहिए। अब वह सिर्फ कोने में हो सकती है, छाया में हो सकती है, सामने नहीं हो सकती। अब कभी-कभी यह बेटा उसको प्रेम कर सकता है, अगर वह बिलकुल मांगे न--तो। अगर वह मांगे तो कभी-कभी भी मुश्किल हो जाएगा। अगर उस मां ने प्रेम डिमांड किया, तब तो जरा सा प्रेम देना भी मुश्किल हो जाएगा। अगर वह बिलकुल डिमांड न करे, अनडिमांडिंग हो जाए। हो ही जाना चाहिए। चुपचाप अंधेरे में हट जाए, कभी बेटे को ख्याल आ जाए, वह बात अलग। और बेटा अगर ज्यादा देर उसके पास बैठे तो भी उसको कहे कि नहीं, अब इतनी ज्यादा देर उसके पास बैठने की जरूरत नहीं है। जिंदगी आगे जानी है। तो यह बेटा अपनी मां को प्रेम कर पाएगा।
और बेटे को भी इतनी समझ होनी चाहिए, हमें कोई भी समझ नहीं जिंदगी की, क्योंकि जिंदगी की समझ बहुत और बात है और सिद्धांत बहुत और बात है।
तो बेटे को भी यह पता होना चाहिए कि जिस मां ने उसे इतना बड़ा किया है, उसने कभी सोचा भी नहीं कि कोई और स्त्री किसी दिन उसके प्रेम को इस तरह छीनने वाली सिद्ध हो जाएगी। यह कभी नहीं सोचा, उसकी कल्पना के बाहर है। और जब बेटे के मन की पूरी धारा अपनी पत्नी की तरफ बहेगी, तब उसे अगर थोड़ी भी समझ हो, समझ ही होगी। अगर उसे थोड़ी भी समझ हो तो उसे जानना चाहिए कि जिस जगह से प्रेम हट कर अब बदल रहा है, उस जगह के प्रति सहानुभूति।
प्रेम मैं नहीं कहता हूं, ड््यूटी मैं नहीं कहता हूं; सिंपेथी मैं कहता हूं। जिस मां ने उसे बड़ा किया है, प्रेम दिया है, वह मां, अचानक एकदम से उसकी तरफ से उसकी प्रेम की धारा बदल रही है। अब वह सिर्फ सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है। सिंपैथेटिक हो सकता है, कंपेशन हो सकता है; प्रेम नहीं हो सकता। और अगर सिंपेथी न होगी तब फिर ड््यूटी रह जाएगी, जो आप कह रहे हैं। वह ड््यूटी जो है वह यह है कि एक फर्ज है मेरा कि चूंकि वह मेरी मां है और उसने क्योंकि मुझे पैदा किया है, इसलिए ठीक है कि मैं उसकी फिकर करूं, उसका आदर करूं, उसके कभी पैर छू लूं।
लेकिन यह ड््यूटी बहुत ही आॅफिशियल शब्द है। यह जो ड्यूटी है, जैसे हम दफ्तर में ड््यूटी बजाते हैं क्योंकि तनख्वाह लेते हैं। वह उस समय का कृत्य है। कर्तव्य का मतलब ही होता है कि जिसे करना पड़े। जो करने योग्य है वह नहीं, जिसे करना पड़े। दैट विच इ.ज टू बी डन। और जब कभी मां और पिता के साथ हमारा ऐसा संबंध हो जाए कि कुछ करना पड़ता है, तब सहानुभूति भी न रही।
और मेरा मानना यह है कि मां-बाप क्योंकि प्रेम की मांग करते हैं, इसलिए बेटे कर्तव्य ही दे पाते हैं। अगर मां-बाप सिर्फ सहानुभूति की मांग करें तो बेटे सहानुभूति दे पाएं। सहानुभूति बीच की चीज है। वह न तो प्रेम है, और न कर्तव्य है। वह प्रेम और कर्तव्य दोनों नहीं है। सहानुभूति का मतलब ही सिर्फ इतना है कि हम अनुभव कर पा रहे हैं कि अगर हम उनकी जगह होते, तो क्या होते? और हम यह भी अनुभव कर पा रहे हैं कि कल हम उनकी जगह पहुंच जाएंगे, क्योंकि हमारे भी बेटे होंगे।
अब घर में जो लड़की बहू बन कर आई है, अगर वह इतना समझ पाए कि कल उसकी भी बहू आएगी, और उसका बेटा भी एक दिन उससे इसी तरह टूटेगा, तब उसके मन को क्या होगा? इसी तरह वह किसी के बेटे को तोड़ रही है, उसके मन को क्या हो रहा होगा? इसको अगर वह फील कर पाए तो सहानुभूति होगी। और अगर वह कहे कि ठीक है कि मेरे पति, मेरे पति की मां है, इसलिए कर्तव्य से मैं उसको खाना भी खिलाती हूं, पैर भी दाब देती हूं, यह मेरा कर्तव्य है, हालांकि मेरा क्या लेना-देना। और उसे पता नहीं कि यह, यह कर्तव्य अगर है तो बोझ बन जाएगा...
नहीं, सहानुभूति का मतलब हैः टु बी इन अनदर्स प्लेस। सहानुभूति का मतलब इतना ही होता है कि मैं आपकी जगह खड़े होकर देख पाऊं कि चीजें क्या हुईं। एक बेटे को मैंने बड़ा किया हो; बीस साल का बनाया हो; पढ़ाया हो; लिखाया हो; रात भर जागी हूं; खाना नहीं खाया उसे खाना खिलाया है; कपड़े नहीं पहने; उसे पढ़ाया है, और अचानक एक दिन पाया जाता है कि एक लड़की आई है--अजनबी, अपरिचित, जिससे उससे कोई संबंध न था--वह सब कुछ हो गई है और मैं कुछ भी नहीं। इस जगह अपने को जो रखने की क्षमता है, वह सिंपैथी है।
तो अगर बाप को, बाप को आप वही प्रेम तो नहीं दे सकते जो बाप ने आपको दिया था, इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। यह सोसाइटी जिस दिन स्वीकार कर लेगी बहुत अच्छी हो जाएगी। यह हमें जान ही लेना चाहिए कि यह संभव नहीं है। क्योंकि हम अपने बाप के बाप नहीं हो सकते। इसलिए संभव नहीं है और कोई कारण नहीं है। हम बेटे ही हो सकते हैं। इसलिए बाप ने जो हमें प्रेम दिया वह हम लौटा नहीं सकते। हम अपने बेटे को दे देंगे। बस इतना ही होगा और कुछ नहीं होने वाला। लेकिन बाप को तो हम नहीं लौटा पाएंगे। तो बाप ने जो हमें दिया था, वह हम नहीं लौटा पाएंगे। तो बाप की जो मनःस्थिति है उसको फील करना सहानुभूति है।
तो मेरा अपना मानना है कि हमारे जितने संबंध हैं वे तीन तरह के होते हैं। या तो प्रेम के संबंध होते हैं। जहां प्रेम का संबंध होता है वहां कभी सवाल नहीं उठता। वहां कोई सवाल ही नहीं उठता। प्रेम के संबंध में सवाल ही नहीं है। जहां प्रेम समाप्त होता है वहीं से सवाल शुरू होते हैं। और जब प्रेम समाप्त होता है तो आप दो काम कर सकते हैं; या तो आप दूसरे व्यक्ति की जो अब स्थिति होगी उसके साथ खड़े होकर अनुभव कर सकते हैं तो सहानुभूति बन जाएगी। सहानुभूति सारे सवालों का जवाब बन जाएगी। सवाल तो होंगे, लेकिन जवाब मिल जाएंगे। कहीं खोजने न जाना पड़ेगा। और अगर सहानुभूति पैदा न हुई तो फिर कर्तव्य रह जाएगा। और कर्तव्य में सवाल ही सवाल होंगे और जवाब कभी नहीं मिलेंगे। क्योंकि वह सिर्फ बर्डन है, जिसको ढोना है।

प्रश्नः पर क्या उसको बर्डन समझना चाहिए? अगर एक बच्चा होता है छोटा, पैदा होता है। मां-बाप उसको पाल-पोस कर, आप खुद मुसीबत झेल कर उसको बड़ा करते हैं। अगर बड़ा करते हैं किसलिए बड़ा करते हैं ?

ये जो हमारी बात है न, यह भ्रांति है हमारी कि मां-बाप मुसीबत झेल कर बड़ा करते हैं। अगर मां-बाप मुसीबत झेलते, कोई बच्चा बड़ा हो ही नहीं सकता। यह हमारी भूल है। यह मां-बाप का दावा है, यह गलत दावा है। मां अगर मुसीबत झेलती तो दुनिया में कोई बच्चा बड़ा हो ही नहीं सकता था। यह बच्चे के लिए मुसीबत नहीं झेली जा रही। यह मां की खूबी है इसलिए वह झेल रही है। हालांकि दावा वह बाद में यही करेगी कि मैंने तेरे लिए मुसीबत झेली है। वह दावा झूठ है।
यह मां को आनंद मिल रहा है इस बच्चे को बड़ा करने में, इसलिए वह झेल रही है। सच्चाई तो यह है। और यह बायोलाॅजिकल सच्चाई है। इसमें कोई आदमी की मां और जानवर की मां का फर्क नहीं है। मां को मजा आ रहा है इस दुख झेलने में, जिसको हम दुख कह रहे हैं। यह दुख तीसरे आदमी को दिखाई पड़ रहा होगा कि मां अपने बेटे के पास रात भर बैठी कितनी तकलीफ झेल रही है। यह तकलीफ थर्ड परसन के खयाल में आई हुई बात है। यह मां बड़े मजे में है। मां को तकलीफ तो तब होगी जब बेटा न हो उसके पास, जिसके लिए रात भर जागा जा सके।
इसलिए जो स्त्री मां नहीं बन पाती वह बहुत तकलीफ में रह जाती है। जो स्त्री मां नहीं बन पाती उसकी कोई बेसिक नीड कम रह जाती है जो पूरी नहीं हो पाती। कोई चाहिए था जिसके लिए वह जागे; कोई चाहिए था जिसके लिए वह भूखी रहे; कोई चाहिए था जिसके लिए वह रोए और परेशान हो। वह भी उसकी बेसिक नीड है, वह उसका फुलफिलमेंट है। इसलिए किसी मां ने अपने बेटे के लिए कोई तकलीफ नहीं झेली, यह मैं मां की तरफ से कह रहा हूं। यह मैं बेटे की तरफ से नहीं कह रहा हूं।
 यानी मैं यह कह रहा हूं कि जहां तक मां का संबंध हैः किसी मां ने कोई तकलीफ नहीं झेली। नर्सें वगैरह तकलीफ झेलती हैं, मां वगैरह तकलीफ नहीं झेलती। इसलिए अगर हम किसी दिन ऐसे बच्चे पैदा कर सकें जो मां को बिलकुल तकलीफ न दे, तो उन बच्चों से मां का प्रेम नहीं हो सकेगा। अगर हम किसी दिन ऐसा बच्चा पैदा कर सकें जो मां को बिलकुल ही तकलीफ न दे, किसी तरह की तकलीफ ही मां को न हो जिसकी वजह से, तो आप पक्का जान लें, मां और बेटे का संबंध खत्म हो जाएगा।

प्रश्नः वह तो हो ही जाएगा जब आप कहते हैं।

न, मेरा मतलब यह है, मेरा मतलब यह है कि मां बनने का हिस्सा है वे सारी तकलीफें। वह उसके मां होने की पी.ड़ा है। उसमें बेटे के लिए कुछ भी नहीं। वह मां होने की वजह से सब कुछ है। जिस दिन हम ऐसा समझ लेंगे, उस दिन कोई मां भी अपने बेटे से यह नहीं कहेगी कि मैंने तेरे लिए तकलीफें झेलीं। और जब हम यह कहते हैं कि उसने किसलिए तकलीफें झेलीं तब भी हम भूल की बातें करते हैं। असल में हम जो सोचते हैं वह सोचने में दो बातें होती हैं, जिनमें भूल हो जाती है। काॅ.ज और परपज में अक्सर भूल हो जाती है।
हम सोचते हैं, किसलिए? तो किसलिए का मतलब होता है: एंड क्या था उसका? सच्चाई यह है कि मां के दिमाग में कोई एंड कभी नहीं होता, वह किसलिए तकलीफें झेल रही है। यह एंड तो तब उसके दिमाग में उठता है जब वह अचानक पाती है कि जिस बेटे के लिए उसने तकलीफें झेलीं--यह भी पीछे का खयाल है, जब झेली थीं तब तक का खयाल नहीं है। यह उस दिन का खयाल है जब कोई और औरत उसके बेटे को अपनी तरफ खींच लेगी। उस दिन उसे, वह पहली दफा कांशस होगी कि मैंने इतनी तकलीफें जिस बेटे के लिए झेलीं, वह इस औरत के लिए झेलीं थी कि यह बेटा उसके पास चला जाए। जिस दिन बेटा उसे रूपये लाकर नहीं देगा और बुढ़ापे में उसकी सेवा नहीं करेगा, उस दिन वह कांशस होगी कि मैंने इसलिए तकलीफें झेली थीं कि मेरा बेटा मुझे बुढ़ापे में खाना देगा।
लेकिन किसी मां ने कभी यह नहीं सोचा है कि बेेटा बड़ा होकर उसे खाना देगा इसलिए वह उसके लिए तकलीफें झेल रही है, ये बिलकुल झूठी बात है। यह जो है, परपज नहीं है पहले। यह जिसको कहें कि आफ्टर थाॅट। यह पीछे खयाल में आई हुई बात। लेकिन न तो मां को पूरा पता है, न बेटे को पूरा पता है। और चीजों को हमने छिपा कर रखा है। न तो बेटा यह कह पाता है अपनी मां से कि तू भ्रांति कर रही है, तूने मेरे लिए तकलीफें नहीं झेलीं; और न मां बेटे से कह पाती है यह सच बात कि मैंने तेरे लिए तकलीफें नहीं झेलीं, तकलीफें मैंने किसी अपनी ही वजह से झेली हैं। इसमें तेरा कोई कसूर नहीं है। ये दोनों बातें साफ हो जाएं तो सहानुभूति बन सकती है। जब मां कहती हैः मैंने तेरे लिए तकलीफें झेलीं, इससे बेटे के मन में सहानुभूति पैदा नहीं होती, सिर्फ क्रोध पैदा होता है। तो यह (59: 47 अस्पष्ट)...बह‏ुत जारी।
अब मैं एक, एक युवक को जानता हूं जिसने अपनी मां से यह कहा कि मैंने तुझसे कब कहा था, तू मेरे लिए तकलीफें झेल? यह कोई समझौता है? मैंने तुझसे कब कहा था कि तू मेरे लिए तकलीफें झेल। तू मुझसे पूछ लेती कि हम तेरे लिए तकलीफें झेल रहे हैं तो तू इतने काम करेगा, कि नहीं करेगा? मैैंने तुझसे कब कहा कि तू मुझे पैदा कर? और जिस बात में मैं पार्टी ही नहीं था, उसका दावा मुझ पर नहीं किया जा सकता। यानी मैं जिसमें पार्टी ही नहीं हूं--आपने तकलीफें झेलीं, अपनी मौज से झेली होंगी; आपने पैदा किया, अपनी मौज से पैदा किया होगा। लेकिन एक दिन जब मैं पार्टी ही नहीं था जिस मामले में, उसके लिए मैं फंस जाऊंगा... कल तुम मुझ पर मुकदमा चलाओगे कि आपके लिए मैंने यह किया।
नहीं किसी मां ने न तो कभी किया है, न कोई दावे का सवाल है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं बेटे से यह कह रहा हूं कि वह मां को इनकार कर दे। यह मैं नहीं कह रहा हंू। मैं यह कह रहा हूं कि माताएं ये दावे छोड़ दें, तो बेटे ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण हो सकेंगे। क्योंकि माताएं ये दावे करती हैं, बेटे और क्रोध से भर जाते हैं। क्रोध भरेगा ही। क्योंकि जिस बात के लिए मैंने कभी समझौता नहीं किया था उसका मुझ पर दावा किया जा रहा है। मैंने कभी नहीं कहा था कि मुझे पढ़ाओ-लिखाओ तो मैं तुम्हें बुढ़ापे में धन लाकर दूंगा। मैंनेे कभी नहीं कहा। यह तुम्हारी अपेक्षा भी रही होगी तो भी मेरे सामने जाहिर नहीं की। नहीं तो मैं तय कर लेता उसी वक्त कि अगर मुझे कमा कर लाकर देना है तो मैं पढ़ूं-लिखूं अन्यथा न पढ़ूं-लिखूं, इंकार कर दूं। तो जब कोई ये बातें कहता है किसी से, तो हालांकि न तो बेटे इसको स्वीकार करते हैं कि आप गलत बातें कह रही हैं। वे भी मन में तो सोचते हैं, ऊपर से तो कहते हैं कि यह बिलकुल ठीक बात है, आपने मेरे लिए बड़ी तकलीफें झेलीं। लेकिन इससे क्रोध पैदा होता है। सहानुभूति मुश्किल हो जाती है।
इस दुनिया में कोई आदमी किसी के लिए तकलीफें नहीं झेलता है। अगर कोई तकलीफें झेल रहा है तो अपने लिए झेल रहा है। अगर हम इस सत्य से परिचित हो जाएं तो बाप अच्छे बाप हो जाएंगे, मां अच्छी मां हो जाएगी, बेटे अच्छे बेटे हो जाएंगे, पत्नी अच्छी पत्नी हो जाएगी। लेकिन हम सबको धोखा दे रहे हैं। बेटा भी अपनी मां को कह रहा है कि तूने मेरे लिए कितनी तकलीफें झेलीं। यह बिलकुल झूठी बात है। मां भी कह रही है कि मैंने तेरे लिए कितनी तकलीफें झेलीं। ये फिक्शन्स हैं, ये फैक्ट नहीं। और इसकी वजह से हम बहुत परेशानी में पड़ते हैं। पति भी अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तेरे लिए कितनी तकलीफें झेल रहा हूं। झूठी है यह बात। कोई किसी के लिए तकलीफें नहीं झेल रहा।
अगर आपको किसी स्त्री से प्रेम है तो आप उसके लिए तकलीफें झेलते हैं। क्योंकि आपको उससे प्रेम है। यह आपका सुख है कि आप उसके लिए तकलीफें झेलें। न कोई पत्नी अपने पति के लिए तकलीफें झेलती है। जिससे उसे प्रेम है उसके लिए तकलीफें झेलना उसका आनंद है। लेकिन जब तक प्रेम होता तब तक वेे सवाल नहीं उठते। जब प्रेम विदा हो जाता है, तब दिक्कतें खड़ी हो जाती हैं। इसलिए सब सवाल उठते हैं। बातों को लौट-लौट कर सामने रखने लगते हैं।
पत्नी कहती है कि मैं तेरे लिए इतनी तकलीफें झेल रही हूं, और पति कहता है कि मैंने तेरे लिए इतनी मुसीबतें झेलीं। जिस दिन यह कहने का सवाल आ जाए, समझ लेना चाहिए कि उस दिन प्रेम समाप्त हो गया है। हम प्रेम के बाहर हो गए। लेकिन आदमी सच्चा नहीं है। हम कभी नहीं बता पाते किसी को कि हम प्रेम के बाहर हो गए हैं। इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि हम कह पाएं कि हम प्रेम के बाहर हो गए हैं। इससे बहुत झूठ पैदा होती है।
मैं सब तरह के झूठ के खिलाफ हंू। और मैं यह मानता हूं कि हम जिंदगी के बाबत जितने सच्चे हैं...तकलीफ तो होगी थोड़ी सी, बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि हम सब झूठ में जी रहे हैं। उसमें एक आदमी थोड़ा सच्चाई में जीना शुरू करेगा तो पहले तो बहुत चैकन्ना कर देगा वह आपको। लेकिन यह दो दिनों की ही बात है, वह आदमी खुद भी एट ई.ज हो जाएगा, आपको भी एट ई.ज कर देगा। और हम समझ लेंगे कि वह आदमी ठीक ही तो कह रहा है कि बात समाप्त हो गई। और समाप्त हो गई। जितना यह सच्चा हो सके, हम झूठे आश्वासन जितने कम दें, और झूठी बातों पर जितना निर्णय करें उतना सुखद है। फिर हम सहानुभूति कर सकते हैं।
अगर एक लड़की को मैं प्रेम करता हूं, और सच में मुझे आज ऐसा लगता है कि जिंदगी भर उसे प्रेम कर सकूंगा, यह इस मोमेंट की फीलिंग है। यह फीलिंग यह बताती है कि इस वक्त मैं उसको प्रेम करता हूं और कुछ नहीं बताती। भविष्य के बाबत ऐसा कुछ पता नहीं चलता। इससे इतना ही पता चलता है कि इस क्षण में जैसी हालत मेरी है, उस हालत को मैं जिंदगी भर टिकाना चाहूंगा तो आनंदपूर्ण होगा। कल लेकिन मैं पाता हूं अचानक कि वह फीलिंग तो चली गई, वह अब नहीं है। तब दो रास्ते हैं मेरे सामने। एक रास्ता तो यह है कि मैं धोखा दिए चला जाऊं। जितना मैं धोखा दूंगा इस स्त्री को, उतनी ही मेरी घृणा बढ़ती जाएगी। और जितना मैं कर्तव्य निभाऊंगा, उतना मेरे सिर पर बोझ बढ़ता जाएगा। और जब बोझ बढ़ेगा, घृणा बढ़ेगी और मुझे धोखा देने का...।

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