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सोमवार, 3 सितंबर 2018

पथ की खोज-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

मूच्र्छा परिग्रह

तीन तरह के प्रश्न पूछे हैं अभी। एक तो ईश्वर संबंधी है, ईश्वर है या नहीं है?

जब भी हम ईश्वर के संबंध में सोचते हैं तो हम एक व्यक्ति की तरह, एक इंडिविजुअल की तरह सोचते हैं। जब हम पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं तो हमारा मतलब होता है, एक व्यक्ति की तरह ईश्वर कहीं बैठा हुआ है या नहीं बैठा हुआ। व्यक्ति की तरह ईश्वर की जो कल्पना है, वह मनुष्य की अपनी ही कल्पना में निर्मित हुई है। मनुष्य ईश्वर की कल्पना ऐसी ही करता है जैसा वह स्वयं है। वह काम करता है, ईश्वर काम करता होगा। वह कुछ बनाता और मिटाता है, तो ईश्वर बनाता और मिटाता होगा। ईश्वर की जो कल्पना है, वह मनुष्य के ही रूप का विस्तृत रूपांतरण है। और यह मनुष्य की कल्पना के लिए बिल्कुल स्वाभाविक है, अगर बिल्लियां कल्पना करें तो ईश्वर की कल्पना बिल्ली जैसी होगी। अगर कुत्ते कल्पना करें तो ईश्वर की कल्पना कुत्ते जैसी होगी। बिल्कुल स्वाभाविक है कि हम अपने ही रूप में ईश्वर को कल्पित करते हैं।
इस कल्पना में एक तो सहज स्वाभाविकता भी है। क्योंकि हम और कोई रूप जानते नहीं, दूसरा अहंकार की एक तृप्ति भी है कि ईश्वर भी हमारे जैसा ही है, हमारा सजातीय है। जब कि ईश्वर अगर है तो व्यक्ति नहीं हो सकता है, व्यक्ति इसलिए नहीं हो सकता है कि जो भी व्यक्ति है, जो भी एक सीमा में बंधा है, जिसकी भी एक देह और एक रूप है, वह शाश्वत नहीं हो सकता, वह नित्य नहीं हो सकता।

दूसरी बात, जो एक जगह केंद्रित हो व्यक्ति की तरह, वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता है। वह सब जगह नहीं हो सकता है, जो एक जगह हो। यह जो हमारी ईश्वर की धारणा है व्यक्ति की तरह, यह बहुत ही भ्रांत है। ईश्वर को व्यक्ति न मान कर, शक्ति मानना ज्यादा उपादेय है। और शक्ति का अर्थ अगर हम समझें तो मैं कहूंगा, भगवान तो नहीं हैं जगत में, भगवत्ता जरूर है। डिवनिटी तो नहीं है, डिवाइननेस जरूर है; कोई भगवान तो नहीं है, लेकिन भगवत्ता; कोई देवता तो नहीं है, लेकिन दिव्यता; कोई चैतन्य व्यक्ति तो नहीं है, लेकिन चेतना का अनंत प्रवाह जगत में है। जगत में पदार्थ तो हमें दिखाई पड़ता है। पदार्थ के भीतर हमें चैतन्य का भी प्रवाह अनुभव होता है। एक पौधे को बढ़ते हुए देखते हैं, एक बच्चे को पैदा होते हुए, जीवित और फिर मरते देखते हैं। सारे जगत में पदार्थ दिखाई पड़ता है, पदार्थ के किनारे ही किनारे कोई अदृश्य चैतन्य भी विकसित और जीवित, पल्लवित होता दिखाई पड़ता है।
पदार्थ की समग्रीभूत एकता, टोटेलटी का नाम जगत है। चैतन्य की समग्रीभूत एकता का नाम ईश्वर है। जगत में जड़ पदार्थ है और चैतन्य परमात्मा है। यह व्यक्ति की तरह कोई परमात्मा नहीं जिसकी पूजा की जा सके, जिसकी स्तुति की जा सके, जिसको बुलाया जा सके, जो वक्त पर आपके काम पड़ जाए। चैतन्य का एक प्रवाह है, जिसको आप तो नहीं बुला सकते लेकिन जिसमें आप सम्मिलित हो सकते हैं। जिसको आप तो आमंत्रित करके अपने द्वार नहीं ला सकते, लेकिन अपने द्वार तोड़ कर जिसमें आप सम्मिलित हो सकते हैं। एक बूंद सागर को अपने में तो नहीं बुला सकती, लेकिन बूंद सागर में गिर जा सकती है।
यदि हमारे भीतर हमें चैतन्य का अनुभव हो, तो हमें सारे जगत में चैतन्य का विस्तार अनुभव होगा। हमें वही अनुभव होता है जगत में, हम उसी को अनुभव कर पाते हैं जो हमें अपने भीतर अनुभव होता है। अगर आपको ज्ञात होता हो कि आप केवल देह हैं, शरीर हैं, तो दूसरे भी केवल आपको देह और शरीर दिखाई पड़ेंगे। स्वाभाविक भी है, अगर मुझे अनुभव होता हो कि मैं केवल शरीर मात्र हूं, तो आप मुझे केवल शरीर मात्र ही दिखाई पड़ेंगे। और तब सारा जगत मुझे मैटर और पदार्थ दिखाई पड़ेगा। लेकिन अगर मुझे भीतर अनुभव होता हो उसका जो कि आत्मा है, चेतना है, तो फिर आप मुझे शरीर दिखाई नहीं पड़ेंगे। जिस क्षण मैंने जान लिया कि मैं आत्मा हूं, आप भी मुझे आत्मा दिखाई पड़ेंगे। तब जगत मुझे पदार्थ दिखाई नहीं पड़ेगा। पदार्थ के भीतर मुझे चैतन्य का अनंत स्रोत और प्रवाह दिखाई पड़ेगा।
कहीं सोया हुआ, कहीं जागा हुआ, जहां बिल्कुल जड़ है वहां भी वह चैतन्य का प्रवाह एकदम अनुपस्थित नहीं है, वहां वह प्रसुप्त है, वहां भी दिखाई पड़ेगा। तो परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, एक अनुभूति है। संसार भी एक अनुभूति है और परमात्मा भी एक अनुभूति है। जो व्यक्ति अपने को देह मानता है, उसे सारा जगत पदार्थ दिखाई देता है। जो अपने को आत्मा जानता है, उसे सारा जगत परमात्मा दिखाई देता है। मेरे लिए ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं, ईश्वर चैतन्य का अनंत स्रोत और प्रवाह है। और यह अनंत स्रोत और प्रवाह है, पूजा और अर्चना करने के किसी मतलब का नहीं है। यह अनंत स्रोत और प्रवाह है, ज्ञान की एक अनुभूति है। और इस अनुभूति तक पहुंचने के लिए आप स्वयं अपने चैतन्य को जानने में समर्थ हो जाएं तो पहुंच जाते हैं।
ईश्वर की जो धारणाएं हैं कि आपने अगर बुरा किया, तो आप पर क्रुद्ध हो जाएगा। अगर आपने उसकी स्तुति की तो आप पर प्रसन्न हो जाएगा। ये आदमी की अपने ही रूप में बनाई गई धारणाएं हैं। पुराने ईश्वर की ढेर धारणाएं हैं कि वह अपने दुश्मनों को नष्ट कर देता है। जो उसका विरोध करते हैं उनको नरक में डाल देता है। उनको सड़ाता और गलाता है। यह हमने आदमी की कल्पना में ही किया। और जो उसकी स्तुति करते हैं और उसकी खुशामद करते हैं, और उसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं, और उसके मंदिर की मूर्ति के सामने रोज सिर टेकते हैं, उन पर वह बड़ा प्रसन्न हो जाता है और उनको बड़े पुण्य का लाभ देता है। और उनको स्वर्गों में विराजमान करता है, और सुख के अनंत द्वार खोल देता है।
यह एक सामान्य आदमी की जो शक्ल है, वही शक्ल बड़े रूप में ईश्वर की है। सामान्य आदमी खुशामद से प्रसन्न होता है और निंदा से क्रुद्ध होता है। ईश्वर में कोई भी भाव नहीं हो सकते। जिसमें भाव हों वह अभी ईश्वर नहीं हुआ। ईश्वर की सत्ता निर्भाव होगी। और निर्भाव व्यक्ति नहीं हो सकता है। निर्भाव व्यक्ति नहीं हो सकता है। आपसे कोई ईश्वर का ऐसा संबंध नहीं है कि आप उसको पिता बना लें, पुत्र बना लें, माता बना लें, पत्नी बना लें, प्रेमी बना लें। सारी दुनिया में ये जो ईश्वर के रूप प्रचलित हैं, हम किसी न किसी रूप में वे ही संबंध उससे भी कायम कर लेते हैं जो हमारे आस-पास के लोगों से हैं। सूफी हैं वे उसे अपना प्रेयसी समझते हैं, ढेर भक्त हैं उसे अपना पति समझते हैं, ढेर भक्त हैं जो उसे अपना पिता समझते हैं। पिता तो बहुत लोग समझते हैं, कोई उसे मां के रूप में भी समझता है। ऐसे भक्त भी हैं जो वात्सल्य भाव रखते हों, उसको पुत्र के रूप में और बच्चे के रूप में समझते हों। जो मनुष्य के अपने संबंध हैं, उन्हीं संबंधों को वह प्रोजेक्ट कर लेता है परमात्मा पर।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, इसलिए आप उससे संबंधित नहीं हो सकते। और उससे आपका कोई संबंध कायम नहीं हो सकता है। फिर जब आप अपने भीतर उसका अनुभव करेंगे जो असंग है और असंबंधित है, जिसका किसी से कोई संबंध नहीं है, उस चैतन्य का अनुभव करेंगे, उस वक्त आप परमात्मा से संबंधित हो जाएंगे। मेरी धारणा आपको कह रहा हूं, ईश्वर पूजा के योग्य नहीं है, ईश्वर होने के योग्य जरूर है। यानी आप पूजा तो नहीं कर सकते, लेकिन हो सकते हैं। ईश्वर आपके ही भीतर छिपी हुई एक संभावना है, अनुभूति की। अगर आपके भीतर परिपूर्ण उस चैतन्य का विकास हो, तो आप ईश्वर हो सकते हैं। ईश्वर होने की संभावना है, ईश्वर के आराधना की कोई संभावना नहीं, ईश्वर को प्रसन्न करने की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि वहां कोई है नहीं जो प्रसन्न हो जाए। वहां कोई व्यक्ति केंद्र नहीं है जो आपसे प्रभावित हो जाए। आपके भीतर कोई छिपा हुआ बीज है जो विकसित हो तो ईश्वर में परिणत हो जाएगा। आप बीज रूप से परमात्मा हैं। और चाहें तो आप वृक्ष रूप से परमात्मा हो सकते हैं। जो अभी बीज है वह कल विकास हो सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति, और प्रत्येक चेतना इस भांति दो स्थितियों में होती है, एक तो वह स्थिति है जब चेतना को प्रतीत होता है कि मैं पदार्थ हूं, ये अज्ञान की स्थिति है, और जब चेतना को प्रतीत होता है कि मैं परमात्मा हूं, ये ज्ञान की स्थिति है। अज्ञान की स्थिति दुख की स्थिति है, ज्ञान की स्थिति आनंद की स्थिति है। इसलिए कहा परमात्मा परम आनंद है। मेरे लिए वह कोई व्यक्ति नहीं है।

दूसरे तरह के प्रश्न पाप और पुण्य से संबंधित हैं।
यह पूछा है कि पाप और पुण्य में क्या फर्क है? और हर किसी की कल्पना में अंतर हो सकता है। अलग-अलग कल्पना हो सकती है पाप और पुण्य की। इसलिए वास्तव में पाप और पुण्य क्या है?

यह सच है अगर हम दुनिया के अलग-अलग लोगों की कल्पनाएं समझें, तो पाप और पुण्य की सारे लोगों की कल्पनाएं अलग हैं। हो सकता है जो बात किसी एक परंपरा में पाप हो, वह दूसरी परंपरा में पाप न हो। यह भी हो सकता है कि वह दूसरी परंपरा में पुण्य हो। एक परंपरा किसी भी तरह की हिंसा को पाप समझती है, ऐसी परंपराएं हैं जो बलि वध को पाप नहीं समझतीं, पुण्य समझती हैं। तो पाप-पुण्य की सारे जागतिक कल्पनाओं में बड़ा भेद है, यह बहुत स्वाभाविक है पूछना कि फिर पाप क्या है और पुण्य क्या है।
मैं आपको बताऊं, मेरे लिए पाप और पुण्य कर्म से संबंधित नहीं हैं। यह जरा दिक्कत की बात मालूम होगी। आमतौर से हम यही सोचते हैं, पाप कर्म और पुण्य कर्म, कुछ कर्म पाप हैं और कुछ कर्म पुण्य हैं। ऐसा हम सोचते हैं। मैं ऐसा नहीं सोचता। पाप और पुण्य मेरे लिए कर्म न होकर चित्त की स्थितियां हैं। इसे समझ लेना जरूरी होगा। पाप और पुण्य मेरे लिए कर्म न होकर चित्त की स्थितियां, स्टेट अॅाफ मांइड हैं। वही कर्म एक स्थिति में पाप हो सकता है और दूसरे चित्त की स्थिति में पुण्य हो सकता है। वही कर्म एक चित्त की स्थिति में पाप हो सकता है, दूसरे चित्त की स्थिति में पुण्य हो सकता है; एक स्थिति में बंधनकारी हो सकता है, दूसरी स्थिति में बंधनकारी नहीं हो सकता है।
जैसे आप भी राह पर चलते हैं, कीड़े मरते होंगे, आप श्वास लेते हैं कीड़े मरते होंगे, इन सबका पाप बंध है। महावीर भी तीर्थंकर होने के बाद भी रास्ते पर चलते हैं और श्वास लेते हैं। तीर्थंकर कैवल्य-ज्ञान को पा लेने के चालीस वर्ष बाद तक भी वे श्वास लेते हैं, कीटाणु मरते हैं, फिर उनका पाप बंध? और अगर उनका पाप बंध होता है तो महावीर को फिर जन्म लेना होगा और उन पापों का निपटारा करना होगा। तीर्थंकर का फिर जन्म होता नहीं, या तो यह बात गलत होगी और या फिर तीर्थंकर की चित्त की स्थिति में वही कर्म पाप न देता होगा जो कर्म आपकी चित्त की स्थिति में पाप देता है।
एक व्यक्ति एक मंदिर बनाता है, कहने वाले समझाने वाले पुरोहित और पंडितों का वर्ग कहेगा, यह पुण्य कर्म है। लेकिन वह आदमी मंदिर बना कर एक तख्ती उसके ऊपर अपने नाम की लगा देता है। यह पुण्य कर्म नहीं रहा, यह पाप कर्म हो गया। इसने मंदिर बनाया ही नहीं, इसने मंदिर में जो भगवान की मूर्ति रखी है, वह झूठी है। यह अपनी ही रखना चाहता था, नहीं रख पाया। यह अपने लिए ही बनाया गया मंदिर है, जो तख्ती उसके बाहर लगी है, वह इसकी सूचना है। यह अपने अहंकार की प्रतिष्ठा है, भगवान की प्रतिष्ठा नहीं है। यह मंदिर बनाना पुण्य कर्म नहीं है, ये पाप कर्म हो गया। आपके चित्त की स्थितियां पाप की होती हैं और पुण्य की होती हैं, कर्मों का कोई प्रश्न नहीं है।
जैसे खुद महावीर की भी धारणा यह है कि अगर परिपूर्ण जागरूक चित्त की अवस्था में कोई कर्म किया जाए तो वह पाप नहीं हो सकता है। और मूच्र्छित चित्त की अवस्था में कोई कर्म किया जाए, वह पाप हो जाता है। जैसे आप अनुभव करेंगे, अगर आपको क्रोध करना है तो आप होश में क्रोध नहीं कर सकते हैं। आज तक जमीन पर कोई व्यक्ति होश में क्रोध नहीं कर सका है। क्रोध करने के लिए मूच्र्छित होना, बेहोश होना जरूरी है। इसलिए सारे क्रोध करने वाले क्रोध के बाद पछताए पाए जाते हैं, पश्चात्ताप करते हैं कि बड़ा बुरा हो गया, कैसे मैंने कर लिया, मैं नहीं चाहता था और किया। निश्चित ही होश में आने पर पश्चात्ताप हो रहा है, उन्होंने जो किया, बेहोशी में किया होगा।
दुनिया का कोई बुरा काम बेहोशी के बिना नहीं किया जा सकता। बेहोशी बड़ी जरूरी शर्त है, आज तक किसी आदमी ने किसी की हत्या होश में नहीं की है और न कोई कर सकता है। एक बड़े आवेश की, बेहोश स्थिति चाहिए। तब कोई कर सकता है। मूच्र्छा चाहिए, मूच्र्छा के आवेग में जो होगा वह पाप है। मेरी बात समझ लें आप, चित्त की मूच्र्छा के आवेग में होगा जो कर्म, वह पाप है और चित्त की परिपूर्ण जागरूक, अमूच्र्छित स्थिति में जो कर्म होगा, वह पुण्य है। चित्त की अमूच्र्छित अवस्था में जब आप परिपूर्ण होश में भरे हैं जो होगा, वह पुण्य है। और जब आप भीतर बेहोश हो गए हैं, आप को कुछ पता नहीं चल रहा कि आप हैं भी या नहीं और कोई कर्म कर रहे हैं, वह कर्म बेहोशी है। आपने सबने क्रोध किया है, उसका स्मरण कर लें। उस क्रोध की स्थिति में आप होश में नहीं होते हैं। तो क्रोध पाप है और अक्रोध पुण्य है, अशांति पाप है और शांति पुण्य है। शांति से जो कर्म निकले वह पुण्य कर्म होगा, अशांति से जो कर्म निकले वह पाप कर्म होगा। शांति से कोई भी ऐसा कर्म निकलना असंभव है, जो किसी को दुख पहुंचा सके। शांति से कोई भी कर्म ऐसा निकलना असंभव है, जो किसी को दुख पहुंचा सके।
महावीर घर छोड़ना चाहते थे। उनके पिता से उन्होंने आज्ञा चाही कि मैं घर छोड़ना चाहता और संन्यस्त होना चाहता हूं। उनके पिता ने कहा कि मेरे रहते, मेरा युवा पुत्र घर छोड़ेगा तो मुझे बहुत दुख होगा। जब मैं न रह जाऊं तब तुम संन्यासी हो जाना, महावीर रुक गए। महावीर रुके कि जब तक पिता हैं, वे संन्यास न लेंगे। महावीर का जो संन्यास था, वह एक बड़ी परम शांति से निकल रहा था। यह भी उन्हें संभव नहीं था कि वह पिता को यद्यपि पिता को मोह के कारण दुख हो रहा था, लेकिन यह भी उन्हें संभव नहीं हुआ कि पिता को दुख दें कोई बात ना थी और थोड़े दिन रुक जाते हैं। वह रुक गए, दो वर्ष रुके, पिता कि मृत्यु हुई, अंत्येष्टि करके वापस लौटते थे, रास्ते में उन्होंने अपने बड़े भाई को कहा, अब मैं संन्यस्त हो जाऊं। उनके बड़े भाई ने कहा तुम कैसे पागल हो, एक वज्राघात हुआ कि पिता नहीं रहे और तुम आज घर छोड़ दोगे। और तुम्हें यह भी संकोच नहीं होता कि अभी हम पिता को समाप्त करके ही लौटते हैं। तो मैं जब तक ना कहूं तब तक संन्यस्त मत होना।
महावीर फिर रुक गए। वे फिर दो वर्ष रुके, इन दो वर्षों में घर के लोग हैरान हुए कि वे तो संन्यस्त हो ही चुके हैं। घर में थे, लेकिन घर में ना होने के बराबर हो गए हैं। हवा की तरह उनका होना हो गया है। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, फिरते हैं, लेकिन जैसे घर में नहीं हैं। जैसे घर का उन्हें पता ही नहीं चल रहा है, जैसे वे वन में ही हैं, ऐसा ही जी रहे हैं। घर के लोग हैरान हुए, उन्होंने कहा, अब इनको रोक रखना व्यर्थ है और घर के लोगों ने कहा, अब आप चाहें तो चले जाएं, क्योंकि जहां तक हम समझते हैं, आप जा ही चुके हैं। और सिर्फ नाममात्र को हमारे कारण उपस्थित हैं। महावीर चले गए। यह संन्यस्त होना पुण्य कर्म है। एक व्यक्ति की पत्नी मर गई, एक व्यक्ति को घाटा लग गया और वह संन्यासी हो जाता है, वह पाप कर्म है। वह क्रोध में, आवेश में, दुख में, पीड़ा में, मूच्र्छा में अगर संन्यास भी लिया तो पाप है। मेरी आप बात समझ रहे हैं। यानी मैं यह कह रहा हूं कि चित्त की अवस्था की बात है, आपके कर्म की नहीं। संन्यस्त होने जैसा कर्म भी पाप कर्म हो सकता है। अगर चित्त की अवस्था मूच्र्छा है। संन्यास जैसी चीज, पाप कर्म हो सकती है अगर चित्त मूच्र्छित है। और मूच्र्छा में संन्यास लिया हो और संन्यास शांति से फलित हुआ हो, शांति से विकसित हुआ हो, तो पुण्य कर्म हो जाएगा।
मेरी बात बिल्कुल साफ समझे होंगे कि मैं यह कह रहा हूं कि कर्म बिल्कुल अर्थहीन है, विचारणीय नहीं हैं, आपके चित्त की स्थिति विचारणीय है।
चित्त की स्थिति विचारणीय है और इसी सिलसिले में एक प्रश्न और आपने पूछा है कि पुण्य कर्मों के फल से संपत्ति मिलती है। यह बिल्कुल झूठ है, यह बिल्कुल असत्य है। पुण्य कर्मों के फल से संपत्ति नहीं मिलती। पुण्य कर्मों के फल का संपत्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर मेरी बात आप समझे तो पहले तो मैंने ये कहा कि पुण्य कोई कर्म नहीं है चित्त की अवस्था है..पाप भी कोई कर्म नहीं है चित्त की अवस्था है, तो पाप की चित्त अवस्था से दुख की चित्त अवस्थाएं मिलेंगी। और पुण्य की चित्त अवस्था से, आनंद की चित्त अवस्थाएं मिलेंगी। संपत्ति से कोई वास्ता नहीं।
यह हो सकता है एक दरिद्र जिसके पास बिल्कुल संपत्ति नहीं है..आनंद में हो, और यह हो सकता है, और रोज हो रहा है, जिसके पास बहुत संपत्ति है..वह बिल्कुल नरक में हो। जो संपत्ति को तौलेंगे, वे संपत्तिशाली को कहेंगे कि इसे पुण्य कर्म का फल मिला। मैं चित्त की अवस्थाएं तौलता हूं, तो मैं कहूंगा कि वे जो दरिद्र हैं, उनको पुण्य का फल मिला।
संपत्ति आपके पुण्य और पाप से नहीं मिलती, संपत्ति समाज की व्यवस्था से मिलती है।
सोवियत रूस में बीस करोड़ लोग हैं, उन्होंने संपत्ति बांट ली, तो उन्होंने पाप और पुण्य कर्म क्या समान कर लिए? बीस करोड़ लोगों ने संपत्ति बांट ली आपस में, अब आप के जैसा करोड़पति वहां नहीं है और आप के जैसा भिखमंगा वहां नहीं है। तो क्या वहां ऐसा बीस करोड़ लोग में एक भी आदमी नहीं है, जिसके कर्म में भिखमंगा होना बदा हो, तो सोचने जैसी बात है कि बीस करोड़ लोगों में एक भी आदमी ऐसा नहीं है जिसके कर्म में भिखमंगा होना बदा हो और एक भी आदमी ऐसा नहीं जिसके कर्म में संपत्तिशाली होना बदा हो। पहले राजा भी कर्म से हुआ करते थे। अब बेचारों का कोई पता नहीं सारी जमीन पर, शायद अब कोई ऐसे कर्म नहीं करता कि राजा हो। थोड़े दिनों में सारी दुनिया में समाजवाद होगा सारी जगह संपत्ति वितरित हो जाएगी। तो फिर कोई ऐसे कर्म नहीं करेगा कि कोई भिखमंगा हो। यह संपत्तिशाली ने अपने शोषण को छिपाने का उपाय निकाला है कि वह कहता है कि मेरे पुण्य का फल है। यह पुण्य का फल नहीं है, यह प्रत्यक्ष रोज जो शोषण कर रहा है, उसका फल है। संपत्ति पुण्य से नहीं मिलती, शोषण से मिलती है और यह हो सकता है, इस शोषण में जो ऊपर हों वह बुरे लोग हों..बजाय उनके कि जो शोषण में नीचे हैं और शोषित हुए हैं।
लेकिन सारी धार्मिक परंपराएं..साधु, संन्यासी और पंडित, धनपति से पलते और पुसते हैं। वे सब धनपति के नीचे जीते हैं और पोषण पाते हैं। अब तक दुनिया के सारे धर्मों की जो परंपराएं हैं, वे नहीं जिन्होंने परंपराओं को शुरू किया, बल्कि जो परंपराएं हैं, जो संस्थाएं हैं, जो व्यक्ति हैं, जो पुरोहित हैं, जो वर्ग पैदा हुआ है उसका शोषण का लाभ उठाने को वे सबके सब संपत्तिशाली से पलता और पुसता है। इसलिए वे संपत्तिशाली के हमेशा समर्थन में हैं। और एक तरकीब ईजाद की गई कि वे ये कहे कि संपत्ति गरीब को इसलिए नहीं मिली की उसने पिछले जन्म में पाप किए हैं। और संपत्ति धनपति को इसलिए मिली कि उसने पीछे पुण्य किए हैं। और इस भांति जो संघर्ष संभावित है, संपत्तिशाली के विरोध में गरीब का, उसको रोकने में उपयोग करे। और जो संभव है कि गरीब टूट पड़े अमीर पर, उसे रोकने में उपयोग करे इस विचार का। यही वजह थी कि कार्लमाक्र्स ने यह कहा कि सब धर्म अफीम का नशा है और संपत्तिशालियों के पक्ष में है, इस वजह से उसने यह कहा।
यह गरीब के लिए अफीम का नशा है, उसको सुलाता है और उससे कहता है, तुम्हारे पाप का फल है और अमीर को यह मौका देता है कि तेरे पुण्य का फल है। यह बात बिल्कुल झूठी है। और आज नहीं कल साफ हो जाएगा, अब साफ हो गया काफी कि दुनिया में संपत्ति कर्म से नहीं बंटेगी, अब समाज की व्यवस्था से बंटेगी। अभी भी समाज की व्यवस्था से ही बंटी हुई है। तो फिर कर्म से क्या बंटेगा। मेरा मानना है, कर्म से चित्त की स्थितियां मिलती हैं। सोवियत रूस में बीस करोड़ लोगों की संपत्ति बराबर कर दी। लेकिन चित्त की स्थितियां बराबर नहीं की हैं और न कभी की जा सकती हैं। उन बीस करोड़ लोगों में सभी लोग समान सुखी नहीं हैं, समान संपत्ति दी जा सकती है, समान मकान दिए जा सकते हैं, समान शिक्षा दी जा सकती है, समान वस्त्र दिए जा सकते हैं, सब समान दिया जा सकता है। लेकिन चित्त की समान स्थिति नहीं दी जा सकती है। वहां दुख और सुख के भेद होंगे, वहां शांति और अशांति के भेद होंगे, वहां क्रोध और अक्रोध के भेद होंगे। जो पाप की चित्त स्थिति में कर्म करेगा, स्वाभाविक है कि वह पाप की चित्त स्थिति को प्रगाढ़ करेगा। और आने वाले जन्मों में उसे जो चित्त मिलेगा, वह और भी मूच्र्छित चित्त होगा और भी दुखी चित्त होगा जो जागरूक चित्त से कर्म करेगा, वह जागरूकता के प्रति और प्रगाढ़ होगा। आने वाले जन्मों में, आने वाले दिनों में, उसे और भी जागरूक चित्त मिलेगा, जो कि और ज्यादा आनंद और शांति के निकट उसे ले जाएगा। तो आपके भीतर की शांति और सुख..शांति और आनंद आपके कर्मों के फल होते हैं, आपके बाहर की संपत्ति और सुविधा आपके कर्मों के फल नहीं होते हैं। मेरी धारणा..मैं आपको कह रहा हूं जो आपके पास है, वह आपके कर्मों का फल नहीं है। जो आप हो, वह आपके कर्मों का फल है। इसे मैं फिर दोहराऊं, जो आपके पास है, वह आपके कर्मों का फल नहीं है। जो आप हो..वह आपके कर्मों का फल है।
यह जो पूछा है, इसलिए स्वाभाविक है अनेक बार पापी के पास धन देखा जाता है, पुण्य आत्मा के पास धन नहीं देखा जाता तो हमको बड़ी मुश्किल होती है, ये समझाने में कि कैसे इस बात को समझाए, तो फिर बड़ी झूठी दलीलें उसके लिए इकट्ठी की जाती हैं। जब कि सच्चाई कुल इतनी है कि धन से कोई संबंध पाप का और पुण्य का नहीं है, कोई दूर का भी संबंध नहीं है। आपके आंतरिक चित्त-स्थितियों का संबंध है। फिर एक और मजे की बात है कि यह इतनी ज्यादा सेल्फ कंट्राडिक्ट्री, इतनी स्व-विरोधी बात प्रचलित रही है कि हम यह कहते हैं कि पुण्य का फल तो धन है, लेकिन जब कोई आदमी धन का त्याग करता है तो इस कर्म को भी हम पुण्य कहते हैं। महावीर ने सारे धन का त्याग किया तो हम कहते हैं, यह बड़ा पुण्य कर्म है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि पुण्य का फल भी धन मिलता है और धन का त्याग भी पुण्य कहलाता है। अगर पुण्य का फल धन होता हो तो धन के त्याग की चित्त-स्थिति किसी पाप का परिणाम होना चाहिए। यानी किसी को ये ख्याल उठे कि हम धन छोड़ दें, तो जरूर किसी पाप के किसी कर्म का कारण होना चाहिए कि धन छोड़ने का भाव पैदा हो रहा है उसे, धन जो कि पुण्य का फल है..अगर धन का उपलब्ध होना पुण्य का फल है तो धन का छोड़ना कैसे पुण्य हो जाएगा। लेकिन धन को छोड़ने को हम पुण्य मानते हैं और मैं भी मानता हूं, इसलिए नहीं कि वह कर्म पुण्य है बल्कि इसलिए कि धन को पकड़ना तो मूच्र्छा में होता है, धन को छोड़ना जागृति में होता है।
धन को पकड़ना तो बिल्कुल मूच्र्छित अवस्था है, कोई भी पकड़ता है। लेकिन जो परिपूर्ण जागरूक है, वही केवल धन को छोड़ सकता है। धन को पकड़ना हमारी मूच्र्छा का हिस्सा है। धन को छोड़ना, कोई मूच्र्छित हालत में धन नहीं छोड़ सकता। इसलिए धन को छोड़ना मेरे लिए पुण्य है। क्योंकि वह चित्त की अवस्था में तभी संभव होगा जब कि कोई परिपूर्ण जागरूक हो जाए। महावीर या बुद्ध जैसे लोग जिनके पास सब था, उसे छोड़ कर चले गए, तो आप सोचते हैं यह कोई सामान्य स्थिति में संभव है। यह परिपूर्ण जागरूक स्थिति चाहिए, इतनी जागरूक स्थिति चाहिए कि उन्हें वहां कोई सुख दिखाई ही नहीं दे रहा। जब बुद्ध गांव के बाहर निकलते थे जो आदमी उन्हें छोड़ने गांव के बाहर, उनके घोड़े का..जो उन्हें छोड़ने गया था, गांव के बाहर। उसने उनसे कहा कि इतनी धन संपत्ति को छोड़ कर आप जा रहे हैं। बुद्ध ने कहा मैं धन-संपत्ति को नहीं केवल विपत्ति को छोड़ कर जा रहा हूं। बुद्ध ने कहा, मेरे पीछे तुम्हें महल दिखाई पड़ता है, मुझे केवल अग्नि की लपटें दिखाई पड़ती हैं। हमें जहां महल दिखाई पड़ रहे हैं, वहां बुद्ध को अग्नि की लपटें दिखाई पड़ रही हैं। यह बहुत किसी परिपूर्ण जागरूकता में संभव होता है, जहां जीवन का सत्य जैसा है, वैसा दिखाई पड़ता है और तब उसके अनुकूल व्यवहार शुरू हो जाता है। तो आपको मैं पाप कर्म छोड़ने को नहीं कहता और पुण्य कर्म करने को नहीं कहता। मैं आपको कहता हूं कि अपने चित्त की मूच्र्छित अवस्था को छोड़ें और जागरूक अवस्था को पैदा करें। जितनी मूच्र्छा भीतर छूटती चली जाएगी उतने पाप कर्म छूटते चले जाएंगे, जितनी जागरूकता भीतर आएगी उतने पुण्य कर्म अपने आप घटित होने लगेंगे। अगर उसके पहले कोई मूच्र्छित अवस्था में पुण्य का कर्म करेगा, वह भी पाप ही होगा।
मूच्र्छित अवस्था में पुण्य असंभव है। कोई पुण्य संभव नहीं हो सकता और जागरूक अवस्था में कोई पाप संभव नहीं है, कोई पाप संभव नहीं है। इसलिए पाप से पुण्य की तरफ नहीं जाना है। मूच्र्छा से अमूच्र्छा की तरफ जाना है। महावीर का एक प्रसिद्ध सूत्र है, जिसमें उन्होंने कहा, मूच्र्छा परिग्रहो। उनसे किसी ने पूछा कि परिग्रह क्या है? तो सामान्य साधु कहेगा: धन-संपत्ति परिग्रह है। महावीर ने कहा: मूच्र्छा परिग्रह है। मेरी पूरी चर्चा उस एक दो शब्दों में है..मूच्र्छा परिग्रह। कोई भी कहेगा, परिग्रह क्या है, तो कहेगा: धन है, मकान है, स्त्री है, पुत्र है, ये परिग्रह हैं। महावीर ने कहा: मूच्र्छा परिग्रह है। धन नहीं है परिग्रह..धन में मूच्र्छा। मकान नहीं है परिग्रह..मकान में मूच्र्छा। मकान में मूच्र्छा हो, तो मकान मेरा मकान हो जाता है। स्त्री में मूच्र्छा हो, तो वह मेरी स्त्री हो जाती है। धन में मूच्र्छा हो, तो वह मेरा धन हो जाता है। मूच्र्छा ममत्व को पैदा करती है। ममत्व बंधन हो जाता है। बंधन पाप है। अमूच्र्छा अममत्व को पैदा करती है, वैराग्य को पैदा करती है, अनासक्ति को पैदा करती है। अनासक्ति मुक्ति है। इसलिए मुक्ति पुण्य है।
तो मूल में अगर पकड़ लिया जाए भीतर, तो या तो मूच्र्छा पकड़ में आएगी और या जागरण पकड़ में आएगा। तो मूच्र्छा पाप और अमूच्र्छा पुण्य है। फिर मूच्र्छा में जो भी हो वह सब पाप और अमूच्र्छा में जो भी हो वह सब पुण्य। इसलिए एक-एक कर्म पर फुटकर कर्मों पर कोई निर्णय नहीं लेता हूं कि वह पाप है या पुण्य..इकट्ठा निर्णय लेता हूं कि कर्म के करने वाला मूच्र्छित है या अमूच्र्छित है। सामान्य धारणा यह है कि एक आदमी पाप भी कर सकता है और पुण्य भी कर सकता है, मैं ऐसा नहीं मानता। जो पाप कर सकता है, पुण्य नहीं कर सकता और जो पुण्य कर सकता है, वह पाप नहीं कर सकता। मैं जो कह रहा हूं, आपको सामान्य धारणा हमारी यह है..एक आदमी पाप भी कर सकता है और वह पुण्य भी कर सकता है, कभी पुण्य भी कर सकता है, कभी पाप भी कर सकता है। मेरा मानना है, यह असंभव है। एक आदमी या तो पाप ही कर सकता है या पुण्य ही कर सकता है और अगर एक आदमी एक भी पुण्य किया..पाप करना असंभव हो जाएगा। मेरी धारणा आपकी समझ में आ गई, अगर वह पुण्य करेगा तो अमूच्र्छित हालत में करेगा और अमूच्र्छा अगर आ जाए, एक क्षण को भी आ जाए तो फिर उसे खोया नहीं जा सकता है।
ज्ञान के साथ एक ही खराबी है, उसे खोया नहीं जा सकता है। कोई भी ज्ञान की किरण आपमें फूट जाए, उससे फिर आप वंचित नहीं हो सकते, उसे फिर भुलाया नहीं जा सकता, वह फिर आपका साथ हो जाएगी।
एक भारतीय साधु था, बोधिधर्म वह चीन गया, वहां एक बादशाह था वू, उसने बड़े मंदिर बनवाए, बड़ी मूर्तियां बनवाईं, बड़े शास्त्र छपवाए, उसने करोड़ों रुपये खर्च किए। जब बोधिधर्म गांव पर गया, चीन की सीमा उसने पार की तो वू ने उसका स्वागत किया। स्वागत करने के बाद, बड़ा विराट स्वागत किया। स्वागत करने के बाद उससे कान में पूछा पास जाकर कि मैंने इतना-इतना खर्च किया है..इतने मंदिर बनवाए, इतनी मूर्तियां, इतने शास्त्र छपवाए, मुझे क्या फल होगा? स्वाभाविक था यह पूछ लेना, आप भी पूछना चाहेंगे कि मैंने इतने उपवास किए, क्या फल होगा?
मैं इतनी बार मंदिर गया वर्ष में, क्या फल होगा? मैंने इतनी बार गीता पढ़ी, क्या फल होगा? मैंने इतनी बार रामायण करवा दी है घर में तो क्या फल होगा? उसने भी पूछना चाहा कि मैंने इतना व्यय किया है, इसका क्या फल होगा? वह बोधिधर्म बोला: कुछ भी नहीं। कोई फल नहीं होगा और उलटा पाप तुझे लगा, पाप तुझे इसलिए लगा कि तुझे यह अहंकार और उत्पन्न हुआ कि मैंने इतना किया, मैं करने वाला हूं, इतना मैंने किया यह दंभ और उत्पन्न हुआ। यह स्मरणीय है, मूच्र्छित कर्मों का अंतिम परिणाम अहंकार होता है। अमूच्र्छित कर्मों का अंतिम परिणाम निर-अहंकारिता होता है। मूच्र्छा में जो भी कर्म होंगे, उससे मैं मजबूत होता चला जाता है। अमूच्र्छा में जो कर्म होंगे उससे मैं पिघलता और विलीन होता चला जाता है। इस दृष्टि को अगर समझेंगे, विचार करेंगे तो और तरह से पूरी बात आपको सोचनी पड़ेगी। तब प्रश्न कर्मों का बिल्कुल नहीं, कत्र्ता का हो जाएगा। मेरे लिए प्रश्न कर्मों का बिल्कुल नहीं, सच में हो भी नहीं सकता कर्मों का प्रश्न, विचारणीय मेरे कर्म नहीं हैं..मैं हूं। और अगर मैं गलत हूं तो मुझसे गलत कर्म निकलते हैं और अगर मैं ठीक हूं तो मुझसे ठीक कर्म निकलते हैं। अभी आमतौर से हम उस आदमी को तो छोड़ देते हैं विचार के बाहर, जिससे कर्म निकल रहे हैं और कर्मों का फुटकर विचार करते हैं कि कौन सा कर्म ठीक है और कौन सा गलत है। यह असंभव है कि जो आदमी वेश्यालय जाता है, वह मंदिर भी जा सके। मंदिर जा सकता है, कौन सी दिक्कत है लेकिन मैं कहता हूं, जो वेश्यालय जाता है वह मंदिर भी जा सके, ये असंभव है। और अगर वह मंदिर में भी जाएगा तो वैसा ही मूच्र्छित जाएगा। जैसे मूच्र्छित वेश्यालय की सीढ़ियां उसने पार की, ठीक वैसे ही मूच्र्छित मंदिर की सीढ़ियां पार करेगा। यह भी मैं मानता हूं कि जो मंदिर जा सकता है, वह वेश्यालय जाना असंभव है। हो सकता है वेश्यालय में चला जाए, लेकिन वह वैसे ही जाएगा जैसे मंदिर में गया था। वैसे ही निरविकार और वैसा ही शांत वेश्यालय में भी प्रवेश कर जाएगा। अगर मनुष्य भीतर ठीक हुआ है तो उससे गलत होना असंभव है क्योंकि जो भी कर्म निकलता है, वह मेरे भीतर से निकलता है। आकस्मिक, अनायास थोड़े ही है, कुछ भी एक्सीडेंटल थोड़े ही है, मुझसे निकल रहा है, मेरे भीतर से पैदा हो रहा है। एक गुलाब के पौधे पर गुलाब के फूल लग जाते हैं। चमेली के फूल कभी नहीं लगते। गुलाब के फूल आकस्मिक नहीं हैं, गुलाब के फूल के भीतर जो क्षमता है, वह बाहर फूलों में आ जाती है, गुलाब बन जाते हैं। आपके भीतर जो व्यक्ति है, वह आपके कर्मों में बाहर निकल आता है और प्रकट हो जाता है।
कर्म बिल्कुल विचारणीय नहीं व्यक्ति विचारणीय है। परिवर्तन कर्मों का नहीं करना, व्यक्ति का करना है। यह मैं आपसे नहीं कहता, झूठ बोलना छोड़ दें। मैं आपसे नहीं कहता कि हिंसा करना छोड़ दें, मैं आपसे नहीं कहता कि चोरी करना छोड़ दें यह नासमझ कहते होंगे। यह मैं बिल्कुल नहीं कहता कि आप छोड़ दें, यह आप छोड़ ही कैसे सकते हैं। अभी जिस तरह के आदमी आप हैं, आप यही करेंगे। और अगर जबरदस्ती करके छोड़ा तो दूसरी तरफ से फिर यही करेंगे। आप बच नहीं सकते। आपसे फूल यही निकलेंगे जो आपसे निकल सकते हैं। मैं आपसे यह नहीं कहता कि आप इनको छोड़ दें। मैं आपसे कहता हूं, आप दूसरे व्यक्ति हो जाएं। कर्म ना बदलें भीतर जो व्यक्ति चैतन्य है उसको बदलें, वह अगर बदल गया तो फूल दूसरे आने शुरू हो जाएंगे। बिल्कुल बात उलटी हो गई। मेरे हिसाब से सामान्यतया सोचा जाता है, जो पुण्य कर्म करेगा, उसका व्यक्तित्व बदल जाएगा। और मैं कहता हूं जिसका व्यक्तित्व बदल जाएगा, उसके कर्म बदल जाएंगे। कर्मों से व्यक्तित्व परिवर्तित नहीं होता, व्यक्ति के परिवर्तन से कर्म परिवर्तित हो जाता है। दूसरी तरह के प्रश्न यह थे।

 और तीसरी तरह के दो प्रश्न हैं। वह यह कि पूछा है कि मैंने जो चर्चा की है धर्म की वह व्यक्ति-केंद्रित मालूम होता है। अब भी चर्चा कर रहा हूं वह भी व्यक्ति-केंद्रित है। तो पूछा है कि समाज का क्या होगा?

अगर धर्म व्यक्ति केंद्रित है और व्यक्ति ही के लिए सब धर्म हैं। तो फिर समाज का क्या होगा? यह प्रश्न बड़ा संगत मालूम पड़ता है। अगर धर्म सब व्यक्ति केंद्रित है और व्यक्ति की ही चिंता है और सब को अपनी-अपनी फिकर करनी है तो फिर सब का क्या होगा। फिर समाज का क्या होगा लेकिन एक बात हम भूल जाते हैं, समाज है कहां..कभी समाज से आपका मिलना हुआ। कभी समाज से कोई साक्षात्कार हुआ कभी समाज से कोई मुलाकात हुई, आज तक समाज तो कभी मिलना हुआ नहीं। समाज को खोज कर भी कहीं आप पकड़ नहीं पा सकेंगे। जब भी पकड़ में आएगा व्यक्ति पकड़ में आएगा, जब भी मुलाकात होगी, व्यक्ति से मुलाकात होगी। समाज कहीं है नहीं, समाज केवल शब्द है, समाज केवल एक संज्ञा है। व्यक्ति है, व्यक्तियों के अंतर-संबंधों का नाम, इंटर रिलेशनशिप का नाम समाज है।
समाज कोई चीज नहीं है, समाज हमारे संबंधों का इकट्ठा नाम है। हम यहां इतने लोग बैठे हैं, सब एक दूसरे से संबंधित हैं तो एक समाज बन जाएगा। हमारे सारे संबंधों के इकट्ठे जोड़ का नाम समाज है। वह जो हमारी रिलेशनशिप है एक दूसरे से, वह जो इंटर रिलेशनशिप है। उसी का नाम समाज है। समाज कोई है नहीं, समाज व्यक्तियों के जोड़ का नाम है। व्यक्ति जैसे होते हैं, अंतिम जोड़ का फल वैसा हो जाता है। व्यक्ति जैसे होते हैं..समाज वैसा हो जाता है। परिवर्तन व्यक्ति में अगर हो तो समाज परिवर्तित हो जाएगा। अगर मूच्र्छित लोग हैं तो समाज मूच्र्छित होगा और मूच्र्छा कई गुणी हो जाएगी। दस मूच्र्छित लोग हैं तो दस गुणी ही मूच्र्छा नहीं होगी। सैकड़ों गुणी हो जाएगी, क्योंकि दस लोगों के मूच्र्छित कर्म आपस में मिल कर इतना संघर्ष, इतना उपद्रव पैदा करेंगे कि इकट्ठा परिणाम दस से बहुत ज्यादा होगा। यानी जोड़ ना होगा गुणन फल होगा। दुनिया में इस समय तीन अरब लोग हैं। अगर ये तीन अरब लोग मूच्र्छित हैं तो तीन अरब लोगों के मूच्र्छित कर्म मिला कर जो रूप उपस्थित कर रहे हैं, वह हमारे सामने हैं। अगर व्यक्ति अमूच्र्छित होंगे, तो समाज का एक अमूच्र्छित रूप प्रकट होगा। धर्म का जोर व्यक्ति पर है, क्योंकि व्यक्ति ही सत्य है और समाज व्यक्ति का ही फल है। जैसा व्यक्ति, वैसा समाज होगा। तो जब हम यह कहते हैं अपनी फिकर करो, अगर आपने अपनी फिकर की तो सबकी फिकर अपने आप हो जाएगी। और अगर आपने सबकी फिकर की और अपनी फिकर नहीं की तो किसी की फिकर नहीं होगी। क्योंकि सब तो कहीं है ही नहीं। जो समाज की फिकर कर रहा है और अपनी फिकर नहीं कर रहा है, वह अपनी तो कर ही नहीं रहा, वह किसी की भी नहीं कर रहा।
समाज की फिकर एक मिथ, एक कल्पना, एक झूठी बात, एक कहानी है, अपनी फिकर एक वास्तविक तथ्य है। दिख सकता है कि अपनी फिकर करना बड़ी स्वार्थ की बात है। लेकिन हम यहां बीस लोग बैठे हैं। अगर हम बीस ही लोग अपनी फिकर कर लें तो बीस लोगों से मिल कर जो समाज बनता है। उसकी फिकर पूरी हो जाएगी। और अगर हम बीस ही लोग अपने को छोड़ कर बाकी उन्नीस की फिकर करें, ऐसा बीस ही लोग करें कि अपनी फिकर छोड़ दें बाकी उन्नीस की फिकर करें तो इस कमरे में फिकर तो बहुत होंगी, परिणाम कुछ भी नहीं होगा। परिणाम इसलिए कुछ नहीं हो सकता कि मैं अपने जीवन में तो कोई परिवर्तन कर सकता हूं, दूसरे के जीवन में क्या परिवर्तन कर सकता हूं। मैं दूसरे पर आरोपित कर सकता हूं जबरदस्ती। जब कि वह दूसरा भी दूसरे पर आरोपित करने में लगा होगा। जीवन-क्रांति का बुनियादी सूत्र, अपने में परिवर्तन करना है। दूसरे में परिवर्तन करना नहीं। यह मैं...थोड़ा आगे हटे..देखिए अब आप एक-एक आगे सरक रहा है तो पूरे हम सरक गए। और अगर सारे लोग ये सोचे कि बाकी लोग सरक जाएं और हर आदमी यह सोचे कि मैं क्यों सरकूं, यह तो बड़ा स्वार्थ होगा। दूसरे लोगों को सरकाऊं तो यहां कलह तो हो सकती है, सरकना नहीं हो सकता। आप सरकते हैं..सब सरक गए। समाज सरक गया। आप सरक गए सब सरक गए। सूत्र बुनियादी परिवर्तन का अपने से शुरू होता है। और समाज के परिवर्तन की जो चिंता है वह परिणामदायी नहीं है। तो धर्म निश्चित वैयक्तिक है, समाज से उसका कोई भी वास्ता नहीं। इसलिए वास्ता नहीं कि समाज तो है ही नहीं, व्यक्ति हैं। वे ठोस इकाइयां हैं। उनमें कोई परिवर्तन हो, वह परिवर्तन सब पर फलित होगा।
इसी संदर्भ में एक और प्रश्न पूछा हुआ है।

पूछा है कि अगर सारे व्यक्ति अपने-अपने उत्कर्ष में लग जाएं, तो राष्ट्र का क्या होगा? राष्ट्र का उत्कर्ष करना है। और सारे व्यक्ति अगर अपनी-अपनी आत्म-साधना में लग जाएं, तो राष्ट्र का क्या होगा?

जैसे कि शांति उत्कर्ष की विरोधी है। जैसे की व्यक्तियों का अपना आत्मिक जीवन को उपलब्ध कर लेना राष्ट्र की उन्नति में बाधक है। प्रश्न इस भांति से यह ख्याल देता है और यह उनका प्रश्न नहीं, बहुत लोगों का प्रश्न है पूरे मुल्क में, यह डर है कि अगर व्यक्ति शांत हो जाए, आत्मा को उपलब्ध हो जाए तो शायद संसार के लिए निरुपयोगी हो जाएगा। इससे ज्यादा और गलत कोई बात नहीं हो सकती। अशांत आदमी तो विकास में सहायक है और शांत आदमी बाधक हो जाएगा, यह बड़ी अजीब बात है! अगर पागलों से यह पूछा जाए कि आप सब स्वस्थ हो जाएं और वे यह कहने लगें, सब स्वस्थ हो जाएंगे तो राष्ट्र का क्या होगा? पागल अगर यह कहें कि सब स्वस्थ हो जाएंगे तो फिर राष्ट्र का क्या होगा, तो उनका प्रश्न जितना संगत होगा, उतना ही प्रश्न यह भी संगत है। मैं तो यह कह रहा हूं कि जब आप भीतर शांत होते हैं तो आपकी शांति किसी के भी जीवन में, किसी के भी विकास में बाधा नहीं हो सकती। बल्कि प्रत्येक के विकास में सहयोगी हो जाएगी। उसके कारण हैं। अशांति अनिवार्य रूप से दूसरों के जीवन में बाधा उत्पन्न करती है। अशांत आदमी को बाधा उत्पन्न करने में सुख मिलता है। शांत व्यक्ति अनिवार्यतया दूसरों के जीवन में बाधा तो उत्पन्न करता ही नहीं। लेकिन शांति के कारण उसमें करुणा पैदा होनी शुरू हो जाती है। अशांति के कारण हिंसा पैदा होती है; शांति के कारण करुणा पैदा होती है। उससे जितना बन पड़े वह सहयोगी हो जाता है।
अगर आत्मिक रूप से सारे लोग अपने भीतर जीवन में उतर रहे हों, तो राष्ट्र का या समाज का कोई अहित होने को नहीं है। फिर हमको एक और ख्याल बैठा हुआ है। और वह ख्याल संन्यासियों की परंपरा जो सारी दुनिया में पिछले दिनों चली है, उसकी वजह से बैठ गया। हम को ख्याल बैठा हुआ है: जो व्यक्ति भी आत्म-साधना में लगेगा वह संसार के प्रति विमुख हो जाएगा, वह संसार छोड़ कर भाग जाएगा। यह बात बिल्कुल ही गलत है। यह हो सकता है कि शांति की साधना के समय थोड़े दिन उसे संसार की तरफ पीठ कर लेनी पड़े, लेकिन जैसे ही वह शांति को उपलब्ध होगा, संसार की तरफ वापस उसका मुंह हो जाएगा।
हमने महावीर को घर छोड़ कर जंगल तो जाते देखा। हमने यह ख्याल नहीं किया कि फिर बारह वर्ष के बाद जंगल छोड़ कर वापस बस्ती में कैसे आ गए? महावीर को हमने राज-पाठ छोड़ कर जाते हुए देखा है, पर हम यह बात भूल जाते हैं जो कि उनकी जिंदगी का दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा है कि वे वापस फिर वन को छोड़ कर लोगों के बीच कैसे आ गए? जिस संसार की तरफ एक दिन पीठ की थी, उसकी तरफ वापस मुंह कैसे हो गया?
यह संभव है कि आप शांति की साधना करें, थोड़ा आपको उदासीन होना पड़े। थोड़ा आपको घंटे, दो घंटे चैबीस घंटे में से अलग हो जाना पड़े। लेकिन शांति की उपलब्धि पर यह संभव नहीं है कि आपको अलग हो जाना पड़े। तब तो आप बिल्कुल बीच में हो जा सकते हैं। शांत आदमी को डर नहीं होगा, अशांत को डर हो सकता है। शांत व्यक्ति जितनी सक्रियता में उतर सकता है, अशांत कभी नहीं उतर सकता। क्योंकि अशांत के भीतर इतनी सक्रियता होती है कि बाहर वह सक्रिय नहीं हो पाता। शांत के भीतर कोई सक्रियता नहीं होगी। बाहर उसका जीवन अनंत कर्म का जीवन हो सकता है।
संन्यास संसार का विरोधी नहीं है, बल्कि मेरे हिसाब में तो संन्यास को जो उपलब्ध करता है, वही व्यक्ति पूरे संसार के लिए उपयोगी हो जाता है। यानि गृहस्थ मैं उसको कहूंगा जो थोड़े लोगों के लिए उपयोगी है। संन्यस्त में उसे कहूंगा जो सबके लिए उपयोगी है। संन्यास का कोई विरोध नहीं है, आत्म-साधना का कोई विरोध नहीं है। आप अपने को साधते हैं, इससे कोई जगत में विरोध नहीं पैदा होता। और दूसरी बात आपको कह दूं। यह जो ख्याल पैदा हुआ है कि जैसे अगर मैं किसी को कहूं कि आप स्वास्थ्य के लिए थोड़ा व्यायाम करो, तो वह यह कहने लगे कि अगर सब लोग ऐसा व्यायाम करने लगें, तो फिर राष्ट्र का क्या होगा? उसको ख्याल ऐसा पैदा होता है, जैसे चैबीस घंटे वह व्यायाम ही करेगा। बात ठीक है कि अगर चैबीस घंटे ही वह व्यायाम करे, तो राष्ट्र बड़ी दिक्कत में पड़ जाएगा। अगर सारे लोग चैबीस घंटे व्यायाम करें, तो राष्ट्र बड़ी दिक्कत में जरूर पड़ जाएगा। लेकिन व्यायाम चैबीस घंटे नहीं किया जाता। अगर मरना हो तो बात दूसरी है। जीना हो तो व्यायाम चैबीस घंटे नहीं किया जाता। जीने के लिए थोड़ा सा व्यायाम काफी है। व्यायाम आधे घंटे होगा, लेकिन स्वास्थ्य के परिणाम चैबीस घंटे हो जाते हैं।
तो आध्यात्मिक साधना कोई चैबीस घंटे नहीं करनी होती। कोई साधना चैबीस घंटे नहीं करनी होती। साधना तो अल्प समय में ही करनी होती है। उसके परिणाम चैबीस घंटे पर हो जाते हैं। अगर आप आधा घंटे भी परिपूर्ण शांत होने का प्रयोग करते हैं। तो आप पाएंगे कि चैबीस घंटे पर अपने आप एक शांति परिव्याप्त हो गई है। आपको चैबीस घंटे कोई शांत होने के लिए थोड़े ही उपाय करना होगा। अगर आधा घंटे को आप प्रकाशित होने का उपाय करते हैं तो आप पाएंगे कि चैबीस घंटे पर एक प्रकाश की धीमी धारा व्याप्त हो गई है। कोई चैबीस घंटे मंदिर में थोड़े ही बैठे रहना होगा। अगर आप आधा घंटा मंदिर में सच में बैठे हैं तो आप पाएंगे कि आपके चैबीस घंटे में आप जहां भी प्रवेश करते हैं, वहां मंदिर मौजूद है किसी न किसी रूप में। यानी दुकान छोड़ कर मंदिर में नहीं बैठना होगा, मंदिर में थोड़ी देर बैठे तो मंदिर ही दुकान में उपस्थित हो जाएगा। तो, तो साधना वास्तविक है और अगर दुकान का इतना डर हो कि जब मंदिर में ही बैठे रहें तभी दुकान से दूर रहते हैं तो फिर बात अलग है..तो साधना जरूर, जरूर अर्थ की नहीं होती, तो जरूर यह खतरा हो सकता है कि सभी लोग मंदिर में बैठे तो दुकानों और मकानों का क्या होगा।
आध्यात्मिक जीवन की साधना कोई चैबीस घंटे का काम नहीं है। थोड़ी देर उस तरफ अपने में प्रयास करने हैं। थोड़ी देर उस सुराग को खोदना है और चैबीस घंटे जो सामान्य आपके जीवन में चलता है, उसे चलने देना है। लेकिन वह सुराग अगर ठीक से फूटा तो आपके चैबीस घंटे के जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाएंगे। आपके बिना जाने एक आदमी बीज बो देता है, अपने बगीचे में तो कोई चैबीस घंटे बीज के पास थोड़े बैठा रहता है। एक आधा घंटा उसकी देखभाल कर लेता है। फिकर कर लेता है कि जानवर उसे चर तो नहीं जाते हैं। बागुड़ लगा देता है। आधा घंटा सुबह उसकी फिकर कर लेता है, कोई चैबीस घंटे उसके पास बैठ कर उस पौधे को बढ़ाना थोड़ी पड़ता है। आधे घंटे की फिकर, लेकिन पौधे में बढ़ना शुरू हो जाता है। एक दिन पौधा वृक्ष हो जाता है और फूल से भर जाता है। अब कोई यह कहने लगे कि हम कैसे पौधा लगाएं, हमको दूसरे काम भी करने हैं! हम उसको कहेंगे आप ना समझी की बातें कर रहे हैं। पौधा आपके किसी काम में विरोध नहीं है।
आध्यात्मिक जीवन के बीज डालना कोई चैबीस घंटे का काम नहीं है। उसे डालें..आधा घंटा, घंटा उसकी फिकर करें। आपके चैबीस घंटे के जीवन में क्रमश: परिवर्तन आना शुरू होगा। और एक दिन आप पाएंगे कि चैबीस घंटे में वह परिव्याप्त हो गया है और आपको उसके लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है। यानि आपकी दूसरी चेष्टाओं से धर्म का कोई विरोध नहीं है। धर्म की साधना अपने आप में प्रतियोगी नहीं है आपकी किसी चेष्टा से..आप दुकान करते हैं, आप नौकरी करते हैं, आप कुछ और करते हैं। धार्मिक साधना आपके करने से विरोधी नहीं है। इसलिए विरोधी नहीं है कि धार्मिक साधना कोई सांसारिक काम नहीं है जिसके और सांसारिक कामों से प्रतियोगिता और काम्पिटीशन हो। इसे आप जरा ठीक से समझ लेना। काम्पिटीशन और प्रतियोगिता उन चीजों में होती है, जो एक ही तल की होतीं हैं। एक आदमी एक दुकान कर रहा है। उसकी सामथ्र्य इतनी है कि एक दुकान कर सके और आप उससे कहें कि दूसरी और खोल लो, तो वह कहेगा यह तो बड़ा मुश्किल होगा। हम दूसरी खोल लेंगे तो इसकी कौन फिकर करे। दो दुकानों में विरोध हो सकता है, दो कामों में विरोध हो सकता है..धर्म कोई काम नहीं है। धर्म विश्राम है। आपके किसी काम से उसका विरोध नहीं है न कोई प्रतियोगिता है। आपके सारे काम चलते हुए, वह बिल्कुल ही अलग तरह की बात है। जिसका किसी से कोई विरोध नहीं कोई मतलब नहीं। इसे थोड़ा समझें, आपके सब काम दूसरों से संबंधित हैं। यह काम ऐसा है जिसका दूसरों से कोई संबंध नहीं।
 आपके सब काम दूसरों से संबंधित हैं। यह ऐसा काम है जिसका दूसरों से कोई संबंध नहीं है। इसका अपने से संबंध है। आपकी एक पत्नी है और आप दो पत्नियां और ले आएं तो उपद्रव है। क्योंकि वही संबंध दो स्त्रियों से और होगा। और संघर्ष शुरू होगा। लेकिन आपकी एक पत्नी है और आप अपने से संबंधित होना शुरू हो जाएं, तो कोई विरोध नहीं होने वाला। क्योंकि यह कोई संबंध नहीं है किसी और से, इसका किसी और से प्रतियोगिता नहीं है। अपने से संबंधित होने में किसी संबंध का कोई विरोध नहीं है। यह मामला ही बहुत भिन्न और अलग है। मैंने कहा, सारे तो काम हैं, यह विश्राम है। और सारे दूसरों से संबंध हैं, यह अपने से संबंध हैं। और सारी क्रियाएं बाहर जाती हैं, यह क्रिया बाहर नहीं जाती, यह भीतर जाती है। आपके इससे कोई विरोध नहीं है, कोई भी विरोध नहीं है। इससे जीवन की किसी धारा में कोई विरोध पैदा नहीं होगा। बल्कि जब यह आंतरिक शांति उत्पन्न होने लगेगी तो जीवन की सारी धाराएं समृद्ध हो जाएंगी।
अगर आप धर्म को उपलब्ध हुए, तो लोग सोचते हैं कि सारा प्रेम छूट जाएगा। मैं ऐसा नहीं सोचता, मैं यह सोचता हूं, पहली दफा प्रेम उत्पन्न होगा। आप जिस मोह को प्रेम समझें हैं। वह प्रेम नहीं है। मोह तो छूट जाएगा। प्रेम पहली दफा उत्पन्न होगा। आप सोचते हैं सारे लोगों से संबंध टूट जाएंगे। और मैं आपको कहूंगा अभी तो आपका किसी से कोई संबंध नहीं है। पहली दफा आप संबंधित होंगे। पहली दफा रिलेशनशिप पैदा होगी। अभी तो कोई रिलेशनशिप नहीं है। अभी तो अपना-अपना स्वार्थ है। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है, किसी से किसी का कोई संबंध नहीं है। और अभी जिसको हम प्रेम समझ रहे हैं, वह केवल मोह है। मोह भी ऐसा है कि वह भी बुनियाद में स्वार्थ है। तब वास्तविक प्रेम उत्पन्न होगा। धर्म आपसे कुछ भी छीनेगा नहीं। जो-जो व्यर्थ है उसे अलग कर देगा। जो-जो सार्थक है, उसे वापस आपको दे देगा। इसलिए धर्म से कोई आदमी रंक और भिखारी नहीं बनेगा। समृद्ध हो जाएगा। तो मैं कोई विरोध नहीं देखता संसार में और धर्म में, आत्म-साधना में और किसी तरह के किसी विकास में कोई विरोध नहीं है।

प्रश्नः आंतरिक आनंद की स्थितियां क्या हैं?

आप पूछ रहे हैं: ‘आंतरिक आनंद की स्थितियां, यानी कि क्या हैं? ’
अभी हम दो तरह की स्थितियां जानते हैं। एक तो दुख की स्थिति है और एक सुख की स्थिति है। इनको बताने की किसी को कोई जरूरत नहीं है। दुख की स्थिति वह है जिसमें से हम बाहर होना चाहते है। जिसके भीतर हम जरा भी नहीं रुकना चाहते। और सुख की स्थिति वह है जिसके भीतर ही हम रुके रहना चाहते हैं और डरे रहते हैं कि कहीं बाहर न हो जाएं। दुख में एक तनाव होता है कि बाहर हो जाएं और सुख में एक तनाव होता है कि कहीं बाहर ना हो जाएं। जरा बात समझ रहे है। दुख में एक इच्छा होती है कि फौरन बाहर हो जाएं। सुख में एक इच्छा होती है कि कहीं बाहर न हो जाएं। दुख से हटना चाहते हैं, सुख को पकड़ कर रखना चाहते हैं। आनंद की स्थिति इन दोनों से भिन्न है। आनंद की स्थिति, इन दोनों से भिन्न है। एक ऐसी चेतना की स्थिति जिससे न तो आप बाहर होना चाहते हैं और न आप इतने भयातुर होते हैं कि कहीं वह छूट न जाए, न इससे घबड़ाए हुए होते हैं। आनंद की वह टेंशनलेस जैसी स्थिति है, जहां न छूटने का डर होता है और न छोड़ने की इच्छा होती है। यानी मेरा मतलब यह हुआ कि दो तरह के टेंशन हैं दुनिया में..एक दुख का और एक सुख का। दो तरह की उत्तेजना हैं दुनिया में एक सुख की और दुख की। दुख की उत्तेजना अप्रीतिकर है, सुख की उत्तेजना प्रीतिकर है। दुख की उत्तेजना के पीछे आकांक्षा होती है कि सुख की उत्तेजना मिल जाए। सुख की उत्तेजना के पीछे भय होता है कि कहीं दुख की उत्तेजना न आ जाए। मेरा मतलब हुआ कि दुख के बीच सुख की धारणा उपस्थित रहती है। सुख के बीच दुख की धारणा उपस्थित रहती है। यह एक ही पहलू एक ही सिक्के के दो हिस्से है। एक उपस्थित रहता है दूसरा अनुपस्थित रहता है, ऐसा मत सोचना।
दूसरा नीचे रहता है, मौजूद रहता है। जब दुख में आप होते हैं तो आकांक्षा के रूप में सुख मौजूद रहता है। और जब आप सुख में होते हैं तो भय के रूप में दुख मौजूद होता है। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक ऐसी चेतना की स्थिति है, जहां न सुख है और न दुख है। जहां दोनों ही तनाव नहीं हैं, उसका नाम आनंद है। आनंद सुख का पर्यायवाची नहीं है। सुख-दुख का जहां अभाव है। उस स्थिति का नाम आनंद है। दुख के अभाव का नाम सुख है। सुख के अभाव का नाम दुख है। सुख-दुख दोनों के अभाव का नाम आनंद है। इसका क्या रूप हुआ अनुत्तेजना। कोई उत्तेजना जहां नहीं है। न कुछ पाने की, न कहीं जाने की। न किसी से हटने की, न कहीं पहुंचने की। जहां कोई उत्तेजना नहीं है। उस परिपूर्ण शांति का नाम आनंद है। शांति और आनंद पर्यायवाची हैं। एक ही अर्थ रखते हैं उत्तेजना शून्य चित्त की स्थिति का नाम आनंद है। उत्तेजना का नाम दुख और सुख है। इसलिए यह संभव है कि सुख की उत्तेजना अगर ज्यादा बढ़ जाए तो दुख में परिणित हो जाती है। सुख की उत्तेजना अगर ज्यादा हो जाए दुख में परिणित हो जाती है। वे दोनों उत्तेजनाएं हैं। दोनों ही उत्तेजनाएं हैं। आनंद अनुत्तेजित स्थिति है। चित्त की टेंस स्थिति का नाम या तो सुख होगा या दुख होगा। अगर प्रीतिकर है तो सुख, अगर अप्रीतिकर है तो दुख। चित्त की नॅान-टेंस स्थिति का नाम, जब चित्त बिल्कुल तना हुआ नहीं है..उस स्थिति का नाम आनंद है। उसी आनंद को पाने के लिए सारे धर्मों के उपाय हैं।

प्रश्नः जब हम सोए हैं तो बात कहते हैं कि हम खूब सोए हैं। सोने का जो मालूम हुआ, वह किसको हुआ?

मनुष्य जो है वह एक ईकाई नहीं है। उसका बीइंग जो है वह यूनिटरी नहीं है। उसका जो व्यक्तित्व है, वह दोहरा है। उसमें द्वैत है। एक तो उसका शरीर है जो पदार्थ से बना है। और उसका चेतन है जो आत्मा से बना है। तो मनुष्य के भीतर दो तल हैं, या दो व्यक्तित्व हैं। एक पदार्थ का व्यक्तित्व है, एक चैतन्य का व्यक्तित्व है। तो जब हम कहते हैं कि हम, तो ‘हम’ शब्द बड़ा गलत है। यह एक की सूचना नहीं देता, यह दो की सूचना देता है। जब हम कहते हैं: मैं, तो यह दो की सूचना देता है। जब मैं कहता हूं कि मैं रात सोया, तो यह बात सच है कि मेरा एक हिस्सा जो पदार्थ से बना है, रात सोया हुआ था। और यह भी बात सच है कि मेरा एक हिस्सा जो कि चेतन से बना हुआ है, वह रात जागा हुआ था..और जानता था कि सो रहा है कोई। उन मेरे मैं के दो हिस्से हैं, दो पार्ट हैं: एक मेरा शरीर है और एक तो मेरी चेतना। मेरी चेतना कभी नहीं सोती। सोने का प्रश्न नहीं है, वह जानती है कौन सोया है। मेरा शरीर सोता है, वह यंत्र है, थकता है और विश्राम चाहता है। वापस शक्ति पाने के लिए उसे विश्राम देना होता है। शरीर सो जाता है, आप कभी नहीं सोते। जो नहीं सोता है..उसे जानना ही साधना है। जो सोता है उसे ही मानते रहना जीवन को व्यर्थ कर देना है। जो सोता है, वह मर जाएगा। जो नहीं सोता है, वह नहीं मरेगा वह अमृत है। इसीलिए पुराने दिनों में निद्रा को भी अल्प मृत्यु ही समझा जाता रहा है। वह भी मृत्यु का ही रूप है। जो सोता है, वह एक दिन समाप्त हो जाएगा, बिल्कुल सो जाएगा। जो अभी सोने के बीच में जागा हुआ है अगर हम उसको पहचान लें और जान लें, तो हम मृत्यु के बीच में उसे जानेंगे जो कि नहीं सो रहा है। उसको ही जानना साधना है।

कोई पूछ रहे हैं कि साधना क्या क रें, कैसे करें?

अभी तो बता ही सकता हूं चर्चा में थोड़ा सा। सच में ही करनी है तो मेरे पास दो-चार दिन रुक कर प्रयोग समझने चाहिए।
यह मैंने कहा कि जो सो जाता है। वही जब एक दिन अंतिम रूप से सो जाता है तो हम कहते हैं कि मृत्यु हो गई। और हमारे भीतर कुछ..एक तत्व है जो जागता है और सुबह जाग कर कहता है कि रात मैं बहुत गहरी नींद में सोया। जो यह कहता है कि रात मैं बहुत गहरी नींद में सोया जरूर वह सोया नहीं होगा। तो अब रास्ता उसे जानने का क्या है जो कि नहीं सोता। उसे जानने का एक ही रास्ता है। आप के भीतर जो भी सो सकता है उसे बिल्कुल सुला दें। और सुलाते चले जाएं। और जब आप ऐसे तत्व पर पहुंच जाएं कि जिसको आप नहीं सुला सकते, जिसको आप कितने ही सुलाएं, वह जागे ही रहता है जागे ही रहता है। तो आप समझना कि आप अपने पर पहुंच गए। योग इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उन सारे तत्वों को सुलाने का नाम समाधि है। जो सो सकते हैं। शरीर को सुला दें कि बिल्कुल सो गया। श्वास को बिल्कुल सुला दें कि सो गई। मन को विचार को बिल्कुल सुला दें कि सो गया। सब सो गया है। और इस वक्त भी आपके भीतर कोई जागा हुआ है जो कि सो ही नहीं सकता सुला नहीं सकते आप जो आप स्वयं हैं। जो सबको सुला रहा है। उसे स्वयं नहीं सुलाया जा सकता। वह जागा ही रहेगा। समाधि एक तरह की मृत्यु का अनुभव है जिसमें जो मर सकता है, मरा हुआ पड़ा है। और जो नहीं मर सकता वह अमृत बिंदु भीतर जागा हुआ है।
इस समाधि के दो चरण हैं: एक चरण देह को सुलाने का है। दूसरा चरण मन को सुलाने का है। देह को तो रोज रात हम सुला देते हैं। लेकिन वह भी हम नहीं सुला देते। निद्रा आप नहीं लेते हैं निद्रा आप पर आती है। इसलिए कभी न आए तो आपके हाथ में नहीं होता कि इसको आप ले आएं। आप थक जाते हैं तो नींद आती है। थकान से जो नींद आती है वह तो नींद है। और अगर आप अपनी सु-चिंता से शरीर को छोड़ दें, तो वह नींद न होगी, वह आसन हो जाएगा। जो अपने आप आ जाती है वह तो नींद है वह तो प्राकृतिक है। अगर आप अपनी तरफ से शरीर को ऐसे छोड़ देंगे तो वह मुर्दा है। उसमें कोई प्राण ही नहीं है। तो वह साधना का हिस्सा हो जाएगा। शरीर पर अपने आप नींद आती है तब वह बिल्कुल मृत पड़ जाता है। आप अपनी तरफ से उसे मृत छोड़ दें तो साधना शुरू हो गई। एक आधा घंटे को शरीर को बिल्कुल मृत छोड़ दें। थोड़े ही दिन भाव और अभ्यास करने से अनुभव करेंगे कि शरीर बिल्कुल मृत पड़ा हुआ है। अपने ही शरीर को आप देखेंगे कि वह मुर्दा है जड़ की तरह पड़ा हुआ है। अगर उस पर कोई चींटी भी चढ़ रही हो तो वह ऐसी मालूम पड़ेगी कि जैसे किसी के शरीर पर चढ़ रही है। थोड़े ही दिन के प्रयोग से आप जानेंगे कि जैसे किसी के शरीर पर चढ़ रही है। उस पर अगर कोई पत्थर भी गिरा दे तो ऐसा लगेगा कि किसी के शरीर पर गिरा दिया। अगर शरीर को मृत करने का भाव और अभ्यास करेंगे। तो थोड़े ही दिनों में शरीर बिल्कुल मृतवत मालूम होगा।
जैसे-जैसे भाव की प्रगाढ़ता होगी कि शरीर मृत होता जा रहा है। वैसे-वैसे श्वास आपकी धीमी होती चली जाएगी। श्वास सूचक है। शरीर अगर जीवित है तो सांस ह, ै अगर शरीर मृत होता चला जा रहा है, श्वास मंद होती चली जाएगी। जब शरीर की साधना में परिपूर्णता आएगी तो आप हैरान हो जाएंगे, शरीर बिल्कुल अगर मृत अवस्था में पड़ा होगा, श्वास बिल्कुल स्थिर हो जाएगी। श्वास का पता नहीं चलेगा। नींद में श्वास तेज हो जाती है। समाधि में श्वास विलीन हो जाती है। इसलिए नींद में और इस स्थिति में बहुत फर्क है। नींद में आपकी श्वास जितनी आप लेते हैं उससे बहुत तेज होती है, इसलिए आप खर्राटा भी लेते हैं। श्वास बहुत तेज हो जाती है। क्योंकि सारे शरीर का यंत्र अपने को सुव्यवस्थित करने का प्रयोग करता है। सारे शरीर में सारी खराबी निकाली जाती है, सारी व्यवस्था होती है। पूरा कारखाना शरीर का अपना काम करता है। श्वास की और ज्यादा जरूरत होती है। सारी सफाई होती है। और इसीलिए इतनी तेज श्वास चलाने के लिए, इतनी बड़ी यांत्रिक सफाई के लिए आप अगर होश में रहें तो बाधा देंगे। इसलिए प्रकृति आपको बेहोश कर देती है। आप बाधा देंगे कोई काम करेंगे, यह करेंगे, वह शक्ति जो पूरे शरीर की सफाई और व्यवस्था में लग रही है, वह दूसरे कामों में लगाएंगे, इसीलिए प्रकृति आपको मूच्र्छित कर देती है। आपका शरीर बिल्कुल निढाल होकर पड़ जाता है। समाधि में दूसरी स्थिति होती है। शरीर की सफाई नहीं होती। शरीर की सारी क्रियाएं शून्य होने लगती है। शरीर की सारी क्रियाएं बंद हो जाती है तो शरीर जड़ हो जाता है। मृत हो जाता है। इस अवस्था को मैं आसन कहता हूं। जब शरीर बिल्कुल मृतवत हो। श्वास बिल्कुल धीमी होते-होते करीब-करीब न हो जाएगी। ज्ञात नहीं होगा कि आ रही है कि नहीं आ रही है। बहुत अल्प रह जाएगी।
यह पहला हिस्सा है, इसको आसन कहता हूं। दूसरा हिस्सा मन का है, उसको मैं ध्यान कहता हूं। शरीर बिल्कुल ऐसा हो जाए कि नहीं है तो आसन हो गया। और मन ऐसा हो जाए कि नहीं है तो ध्यान हो गया। रात को शरीर निढाल होकर पड़ जाता है। लेकिन मन चलता रहता है। विचार चलते रहते हैं। कोई दस-पांच मिनट को रात्रि के किसी क्षण में विचार भी बंद हो जाते हैं। स्वप्न भी बंद हो जाते हैं, उस वक्त का नाम सुषुप्ति है। सुषुप्ति में आप अपनी आत्मा में होते हैं। चैबीस घंटे में हर व्यक्ति थोड़ी देर को अपनी आत्मा में प्रविष्ट होता है। उस स्थिति का नाम सुषुप्ति है। और उसी स्थिति में आपको आनंद अनुभव होता है। जब सुबह आप कहते हैं कि रात बड़ी गहरी नींद थी, मुझे आनंद आया। और जिस रात गहरी नींद में नहीं हो, उस रात आनंद नहीं आया। गहरी नींद क्या आनंद देगी। वह सुषुप्ति के क्षण जब कि स्वप्न भी बंद हो जाते हैं, आप अपनी आत्मा में प्रवेश करते हैं। वही प्रवेश आनंद देता है। लेकिन वह भी मूच्र्छा में होता है। आप अपनी तरफ से वहां नहीं गए। भेजे गए हैं। प्रकृति ने आपको भेजा है अपने भीतर। समाधि में आप अपनी तरफ से जाते हैं। तो एक अंग हुआ कि शरीर मृतवत हो जाए। दूसरा अंग हुआ कि चित्त बिल्कुल शून्य हो जाए। विचार विलीन हो जाएं। चित्त में कोई विचार न रह जाए। कोई विचार न रह जाए। शरीर को बिल्कुल छोड़ देने से शरीर मृतवत हो जाता है। और चित्त को बिल्कुल छोड़ देने से उसमें सारी पकड़ छोड़ देने से, पकड़ छोड़ने से।
पकड़ दो तरह की है चित्त पर हमारीः एक तो पकड़ हमारी यह है कि चित्त में कोई बुरी चीज न आ जाए। तो हम ऐसा हाथ रोके रखते हैं कोई चित्त में बुरा विचार न आ जाए। और चित्त में जो भले विचार हैं उनको हम पकड़े रहते हैं कि कहीं वह चले न जाएं। जो हम सुख-दुख के साथ करते हैं, वही शुभ और अशुभ विचारों के साथ करते हैं। शुभ विचार को पकड़ते हैं, अशुभ विचार को धक्का देते हैं। पकड़ छोड़ने का अर्थ है..न आप धक्का दें और न आप पकड़ें। चित्त में जो आता हो, जो जाता हो, आने दें जाने दें। आप बिल्कुल तटस्थ होकर रह जाएं। आप को कोई मतलब नहीं। जैसे किसी धर्मशाला के कमरें में बैठे हैं लोग आ रहे हैं और जा रहे हैं। जा रहे हैं और आ रहे हैं। आपको कोई मतलब नहीं। आप अपने कोने में बैठे हैं। चित्त में ऐसे तटस्थ साक्षी का प्रयोग कि आप सिर्फ देखने वाले मात्र हैं। जो आता है आए, जो जाता है जाए। न हमने किसी को रोकना, न हमने किसी को भेजना। शुरू में दिक्कत होगी, क्योंकि बहुत दिनों के बुरे रोके हुए विचार एकदम से प्रवेश कर जाएंगे। और बड़ी घबड़ाहट देंगे क्योंकि कई दिनों से रोका हुआ है दरवाजे पर उनको कि अंदर मत आना। कई को भीतर दबाया हुआ कि उठ मत आना। तो एकदम से विस्फोट होगा, सब निकलेंगे। और जबरदस्ती ही शुभ विचारों को रोक रखा है बहुत दिन से जैसे हाथ छोड़ेंगे, वह सब पक्षी जैसे विचार होंगे एकदम उड़ जाएंगे। शुभ विचारों के पक्षी एकदम उड़ जाएंगे। अशुभ विचारों के जीव-जंतु एकदम आपके भीतर खड़े हो जाएंगे। बहुत घबड़ाहट होगी।
इसी घबड़ाहट की वजह से पकड़े हैं। शुभ को अशुभ को दबाए हुए हैं। बुरे को दबाए हुए हैं अच्छे को पकड़े हुए हैं। इसी स्थिति में हिम्मत और साहस का नाम तपश्चर्या है। इस स्थिति में शुभ को पकड़ने, अशुभ को रोकने की चेष्टा छोड़ दें। जो होता है, वह हो हम चुपचाप खड़े देखते रहें। बड़े साहस का बिंदु है। बड़ी हिम्मत की जरूरत है। इतना भी सोच होगा, विकार का। लेकिन इसके पूर्व की विकारों से मुक्ति हो विस्फोट होना जरूरी है। इसके पूर्व की जिन विकारों को जन्मों-जन्मों से इकट्ठा किया है उनका विसर्जन हो उनका उठना और उनका मुक्त होना जरूरी हो। और इसके पहले कि वास्तविक शुभ का जन्म हो, जबरदस्ती जिस शुभ को पकड़ रखा है, उसका छोड़ देना जरूरी है। शुभ छा.ेड दें। अशुभ की रोक छोड़ दें। शुभ-अशुभ का विचार छोड़ दें और चुपचाप पड़े रह जाएं और देखते रहें। कुछ ही दिनों में बहुत अशुभ का विकार उठेगा, उसे देखते रहें। सब शुभ के पक्षी उड़ जाएंगे, उन्हें उड़ते हुए देखते रहें। धीरे-धीरे आप हैरान होंगे कि सारे विकार का जो तूफान आया था, वह विलीन होता चला जा रहा है। अगर आपने फिर पकड़ शुरू कर दी, तो बात अलग है। अगर पकड़ शुरू नहीं की, तो सारा तूफान विलीन हो जाएगा। कितनी ही बड़ी आंधी हो, वह थोड़ी देर में शांत होती चली जाएगी, शांत हो जाएगी। आखिर में आप पाएंगे कि आंधी तो कोई भी नहीं है..न वहां शुभ है, न वहां अशुभ है। आप अकेले ही खड़े रह जाएंगे। न वहां कोई बुरा विचार है, न कोई भला विचार है। न वहां पाप का कोई विचार है, न वहां कोई पुण्य का विचार है। आप वहां बिल्कुल अकेले ही खड़े रह जाएंगे। उस लोनलीनेस में, उस अकेला खड़े होने की स्थिति में आपको उसका पता चलेगा जो आप हैं। और उसका पता चलेगा जो सोते समय सोता नहीं और मरते समय मरता नहीं। इस स्थिति का नाम ध्यान है। शरीर का मृतवत हो जाना आसन है। चित्त का मृतवत शून्य हो जाना ध्यान है। दोनों के जोड़ का नाम समाधि है। समाधि में स्व का बोध संभव होता है।
यह तो मैं इतना कह ही सकता हूं फिलहाल, कभी इकट्ठे होते हैं तो इसका प्रयोग भी किया जा सकता है। यानी कि मैं आपको मरना सिखा सकता हूं। और जो मरना सीख ले उसे अमृत का पता हो जाए।








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