कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-77

चेतना का विस्तार-तंत्र-सूत्र-5

प्रवचन-सत्रहत्ररवां 

सारसूत्र:

106-हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ।
107-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के यप में है, अन्य कुछ भी नहीं है।
108-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी की मार्गदर्शक सत्ता है, यही हो रहो।
अस्तित्व स्वयं में अखंड है। मनुष्य की समस्या मनुष्य की स्व-चेतना के कारण पैदा होती है। चेतना सबको यह भाव देती है कि वे पृथक हैं। और यह भाव, कि तुम अस्तित्व से भिन्न हो, सब समस्याओं का निर्माण करता है। मूलत: यह भाव झूठा है, और जो कुछ भी झूठ पर आधारित होगा वह संताप पैदा करेगा, समस्याएं, उलझनें निर्मित करेगा। और तुम चाहे जो भी करो, यदि वह इस झूठी पृथकता पर आधारित है तो गलत ही होगा।

तो मनुष्य के संताप की समस्या को शुरू से ही सुलझाना पड़ेगा : वह निर्मित कैसे होती है? चेतना तुम्हें यह भाव देती है कि तुम अपने अस्तित्व के केंद्र हो और अन्य लोग 'अन्य' हैं, कि तुम उनसे अलग हो। यह दूरी इसीलिए है क्योंकि तुम चेतन हो। जब तुम सोए होते हो तो कोई भिन्नता नहीं होती, तुम वापस ब्रह्मांड में मिल जाते हो। इसीलिए नींद से इतना आनंद आता है। सुबह तुम फिर ताजे, जीवंत और ऊर्जा से भरे होते हो।


गहरी नींद में क्या होता है? तुम अपना अहंकार खो देते हो, स्वयं को खो देते हो, ब्रह्मांड के साथ एक हो जाते हो। वह एक हो जाना ही तुम्हें ताजा और जीवंत कर देता है और सुबह तुम आनंदित अनुभव करते हो। सब संताप मिट जाते हैं; सब विवाद, सब अशांतियां समाप्त हो जाती हैं; सब भय, मृत्यु आदि विदा हो जाते हैं क्योंकि मृत्यु तभी संभव है जब तुम पृथक हो। यदि तुम पृथक नहीं हो तो मृत्यु असंभव है। यदि तुम पृथक नहीं हो तो मरेगा कौन? यदि तुम पृथक नहीं हो तो कष्ट कौन भोगेगा?
तो सभी तंत्र, योग और ध्यान की?दूसरी विधियां केवल तुम्हें यही बताने के लिए हैं कि भिन्नता झूठ है और अभिन्नता यथार्थ है। और यदि तुम यह जान सको तो तुम दूसरे ही हो जाओगे, क्योंकि केंद्र तुममें से हटकर ब्रह्मांड में अपना सही स्थान ले लेगा। तुम इस महासागर में बस एक लहर मात्र रह जाओगे। तुम भिन्न नहीं होओगे, इसलिए तुम्हें कोई भय नहीं होगा। तुम असुरक्षित अनुभव नहीं करोगे। तुम मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होओगे। वह सब अहंकार के साथ समाप्त हो जाता है।
हिंदू सदा से मानते रहे हैं कि समाधि एक चेतन निद्रा है। नींद में स्वत: ही ऐसा होता है कि तुम नहीं रहते। केवल अस्तित्व ही होता है, तुम नहीं; लेकिन तुम गहन बेहोशी में होते हो इसलिए तुम्हें पता नहीं होता कि क्या हो रहा है। यदि यही सजगता के साथ हो सके तो तुम संबुद्ध हो जाते हो। बुद्ध उसी स्रोत पर पहुंच जाते हैं जहां तुम हर रात गहरी नींद, स्वप्न-रहित नींद में पहुंचते हो। लेकिन बुद्ध उस स्रोत पर सचेत, जाग्रत, होशपूर्वक पहुंचते हैं। वह जानते हैं कि वह कहां जा रहे हैं, उन्हें पता है कि क्या हो रहा है। और जब वह उस गहन स्रोत से वापस लौटते हैं तो वह दूसरे ही होते हैं। पुराना विदा हो जाता है और एक नई चेतना, एक नई ऊर्जा उससे पैदा होती है।
इस चेतना का केंद्र ब्रह्मांड है; और केंद्र के इस परिवर्तन से तुम्हारी सारी चिंता, तुम्हारा सारा संताप, सब नर्क मिट जाता है। ऐसा नहीं है कि उनका समाधान हो जाता है, बस वे मिट ही जाते हैं अहंकार के बिना वे रह ही नहीं सकते।
तो जागते हुए कैसे गहरी नींद में हुआ जाए? कैसे चैतन्य होकर सोया जाए? अहंकार को छोड़ते समय कैसे होशपूर्ण रहा जाए? अहंकार परिणाम है तुम्हारी सारी व्यवस्था का, तुम्हारे पालन-पोषण का, तुम्हारी जीवन शैली का। अहंकार जरूरी है। और कोई उपाय नहीं है। कोई भी व्यक्ति बिना अहंकार के विकसित नहीं हो सकता.। लेकिन एक सीमा आती है जब अहंकार छोड़ा जा सकता है और छोड़ दिया जाना चाहिए चेतना को उसका अतिक्रमण कर जाना चाहिए। अहंकार अंडे के खोल की तरह है। उसकी जरूरत है, वह तुम्हारी रक्षा करता है। एक बीज के खोल की तरह उसकी जरूरत है, वह रक्षा करता है। लेकिन यह सुरक्षा खतरनाक भी हो सकती है, अगर वह कुछ ज्यादा ही रक्षा करने लगे तो। यदि आवरण रक्षा ही करता चला जाए और बीज को अंकुरित न होने दे तो बाधा बन जाएगा। उसे धरती में मिटना ही होगा, ताकि आंतरिक जीवन उससे विकसित हो सके। उसे मरना ही होगा।
बीज को मरना ही होता है। हर मनुष्य बीज की तरह पैदा होता है। अहंकार बाहरी आवरण है; वह बच्चे की रक्षा करता है। यदि बच्चा अहंकार के बिना, या बिना इस भाव के पैदा होता है कि 'मैं है तो वह जीवित नहीं रह सकता। वह स्वयं को बचा नहीं पाएगा। वह संघर्ष नहीं कर पाएगा, किसी भी तरह से जी नहीं पाएगा। लेकिन एक क्षण आता है जब यह मदद बाधा बन जाती है। बाहर से तो वह रक्षा करती है, लेकिन इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम्हें, तुम्हारी आंतरिक सत्ता को फैलने ही नहीं देती, बाहर आने के लिए अंकुरित होने के लिए मार्ग नहीं देती।
तो अहंकार की जरूरत है-और फिर अहंकार के अतिक्रमण की भी जरूरत है। यदि कोई अहंकार के साथ मर गया तो वह बीज की तरह ही मर गया। वह संभावना को साकार किए बिना ही मर गया, वह चैतन्य होकर अस्तित्व को उपलब्ध न हो सका।
ये विधियां इसीलिए हैं कि बीज को कैसे तोड़ा जाए।
पहली विधि :
हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो अत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक
प्राणी हो जाओ।


'हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानी।’
वास्तव में ऐसा ही है पर ऐसा लगता नहीं। अपनी चेतना को तुम अपनी चेतना ही समझते हो और दूसरों की चेतना को तुम कभी अनुभव ही नहीं करते। अधिक से अधिक तुम यही सोचते हो कि दूसरे भी चेतन हैं। ऐसा तुम इसलिए सोचते हो क्योंकि जब तुम चेतन हो तो तुम्हारे ही जैसे दूसरे प्राणी भी चेतन होने चाहिए। यह एक तार्किक निष्कर्ष है; तुम्हें लगता नहीं कि वे चेतन हैं। यह ऐसे ही है जैसे जब तुम्हें सिर में दर्द होता है तो तुम्हें उसका पता चलता है तुम्हें उसका अनुभव होता है। लेकिन यदि किसी दूसरे के सिर में दर्द है तो तुम केवल सोचते हो, दूसरे के सिर-दर्द को तुम अनुभव नहीं कर सकते। तुम केवल सोचते हो कि वह जो कह रहा है सच ही होना चाहिए। और उसे तुम्हारे सिर-दर्द जैसा ही कुछ हो रहा होगा। लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर सकते।
अनुभव केवल तभी आ सकता है जब तुम दूसरों की चेतना के प्रति भी जागरूक हो जाओ अन्यथा यह केवल तार्किक निष्पत्ति मात्र ही रहेगी। तुम विश्वास करते हो, भरोसा करते हो कि दूसरे ईमानदारी से कुछ कह रहे हैं; और वे जो कह रहे हैं वह भरोसा करने योग्य है, क्योंकि तुम्हें भी ऐसे ही अनुभव होते हैं।
तार्किकों की एक धारा है जो कहती है कि दूसरे के बारे में कुछ भी जानना असंभव है। अधिक से अधिक माना जा सकता है, पर निश्चित रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता। यह तुम कैसे जान सकते हो कि दूसरे को भी तुम्हारे जैसी ही पीड़ा हो रही है, कि दूसरों को तुम्हारे ही जैसे दुख हैं? दूसरे सामने हैं पर हम उनमें प्रवेश नहीं कर सकते, हम बस उनकी परिधि को छू सकते हैं। उनकी अंतस चेतना अनजानी रहती है। हम अपने में ही बंद रहते हैं।
हमारे चारों ओर का संसार अनुभवगत नहीं है, बस माना हुआ है। तर्क से विचार से मन तो कहता है कि ऐसा है पर हृदय इसे छू नहीं पाता। यही कारण है कि हम दूसरों से ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वे व्यक्ति न होकर वस्तुएं हों। लोगों के साथ हमारे संबंध भी ऐसे होते हैं जैसे वस्तुओं के साथ होते हैं। पति अपनी पत्नी से ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह कोई वस्तु हो : वह उसका मालिक है। पत्नी भी पति की इसी तरह मालिक होती है जैसे वह कोई वस्तु हो। यदि हम दूसरों से व्यक्तियों की तरह व्यवहार करते तो हम उन पर मालकियत न जमाते, क्योंकि मालकियत केवल वस्तुओं पर ही की जा सकती है।
व्यक्ति का अर्थ है स्वतंत्रता। व्यक्ति पर मालकियत नहीं की जा सकती। यदि तुम उन पर मालकियत करने का प्रयास करोगे तो उन्हें मार डालोगे, वे वस्तु हो जाएंगे। वास्तव में दूसरों से हमारे संबंध कभी भी 'मैं-तुम' वाले नहीं होते गहरे में वह बस मैं-यह' (यह यानी वस्तु) वाले होते हैं। दूसरा तो बस एक वस्तु होता है जिसका शोषण करना है, जिसका उपयोग करना है। यही कारण है कि प्रेम असंभव होता जा रहा है। क्योंकि प्रेम का अर्थ है दूसरे को व्यक्ति समझना, एक चेतन-प्राणी, एक स्वतंत्रता समझना, अपने जितना ही मूल्यवान समझना।
यदि तुम ऐसे व्यवहार करते हो जैसे सब लोग वस्तु हैं तो तुम केंद्र हो जाते हो और दूसरे उपयोग की जाने वाली वस्तुएं हो जाते हैं। संबंध केवल उपयोगिता पर निर्भर हो जाता है। वस्तुओं का अपने आप में कोई मूल्य नहीं होता; उनका मूल्य यही कि तुम उनका उपयोग कर सकते हो, वे तुम्‍हारे लिए है। तुम अपने घर से संबंधित हो सकते हो; घर तुम्‍हारे लिए है। वह एक उपयोगिता है। कार तुम्‍हारे लिए है। लेकिन पत्‍नी तुम्‍हारे लिए नहीं है। न पति तुम्‍हारे लिए है। पति अपने लिए है और पत्‍नी अपने लिए है।
एक व्‍यक्‍ति अपने लिए ही होता है। यही व्‍यक्‍ति होने का अर्थ है। और यदि तुम व्‍यक्‍ति को व्‍यक्‍ति ही रहने देते हो। और उन्‍हें वस्‍तु न बनाओ। धीरे-धीरे तुम उसे महसूस करना शुरू कर देते हो। अन्‍यथा तुम महसूस नहीं कर सकते। तुम्‍हारा संबंध बस धारणागत, बौद्धिक, मन से मन का, मस्‍तिष्‍क से मस्‍तिष्‍क का ही रहेगा। कभी ह्रदय से ह्रदय का नहीं हो पाएगा।
यह विधि कहती है, ‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।’
यह भी वही बात है। लेकिन पहले दूसरा तुम्‍हारे लिए एक व्‍यक्‍ति की तरह होना चाहिए। वह स्‍वयं के लिए होना चाहिए। किसी शोषण या उपयोग के लिए नही, किसी साधन की तरह नहीं, उसे स्‍वयं में एक साध्‍य की तरह होना चाहिए। पहले वह व्‍यक्‍ति होना चाहिए; वह ‘तुम होना चाहिए, तुम्‍हारे जितना ही मूल्‍यवान। केवल तभी वह विधि उपयोग की जा सकती है।’
‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।’
पहले अनुभव करो कि दूसरा भी चेतन है, तब यह हो सकता है कि तुम महसूस करो कि दूसरे में भी वही चेतना है जो तुममें है। वास्‍तव में दूसरा खो जाता है। और तुम्‍हारे तथा उसके बीच चैतन्‍य लहराता है। तुम चेतना की एक धारा के दो ध्रुव बन जाते है।
गहन प्रेम में ऐसा होता है कि दो व्‍यक्‍ति दो नहीं रहते। दोनों के बीच कुछ बहने लगता है और वे दोनों दो ध्रुव बन जाते है। दोनों के बीच में कुछ आंदोलित होने लगता है। जब यह बहाव घटित होता है तो तुम आनंद से भर उठते हो। यदि प्रेम आनंद देता है तो इसी कारण; दो व्‍यक्‍ति केवल एक क्षण के लिए अपने अहंकार खो देते है। ‘दूसरा’ खो जाता है और बस एक क्षण के लिए अद्वैत अंतस में उतर जाता है। यदि ऐसा होता है तो अहो भाव है, सौभाग्‍य है, तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए। केवल एक क्षण ओर वही क्षण तुम्‍हें रूपांतरित कर देता है।
यह विधि कहती है कि यह प्रयोग तुम सबके साथ कर सकते हो, प्रेम में तुम एक व्‍यक्‍ति के साथ हो सकते हो परंतु ध्‍यान में सबके साथ हो सकते हो। जो भी तुम्‍हारे पास आए उसमे डूब जाओ और अनुभव करो कि तुम दो जीवन नहीं हो। बस एक प्रवाहित जीवन हो। केवल गेस्‍टाल्‍ट बदलने की बात है। एक बार तुम जान जाओ कि कैसे यह होता है। एक बार तुम प्रयोग कर लो तो बहुत आसान है। शुरू-शुरू में यह असंभव लगता है। क्‍योंकि हम अपने अहंकार से बहुत जुड़े हुए है। अहंकार को छोड़ना और प्रवाह में बहना कठिन है। तो अच्‍छा होगा कि पहले तुम किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम भयभीत नहीं हो।
तुम वृक्ष से ज्‍यादा भयभीत नहीं होओगे। इसलिए वहां से शुरू करना सरल रहेगा। किसी वृक्ष के पास बैठकर महसूस करो कि तुम उसके साथ एक हो गए हो। कि तुम्‍हारे भीतर एक प्रवाह, एक संप्रेषण हो रहा है। तुम तिरोहित हो रहे हो। किसी बहती हुई नदी के किनारे बैठ जाओ और प्रवाह को अनुभव करो, महसूस करो कि तुम और नदी एक हो गए हो। आकाश के नीचे लेटकर महसूस करो कि तुम और आकाश एक हो गए हो। शुरू-शुरू में तो यह कल्‍पना मात्र होगा लेकिन धीर-धीरे तुम्‍हें लगने लगेगा कि तुम कल्‍पना के माध्‍यम से वास्‍तविकता को छूने लगे हो।
और फिर व्‍यक्‍तियों के साथ प्रयोग करो। शुरू में तो यह कठिन होगा। क्‍योंकि भय लगेगा। क्‍योंकि तुम वस्‍तु बनते रहे हो। तुम भयभीत हो कि यदि तुम किसी को इतने पास आने दोगे तो वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा। यही भय है तो कोई भी इतनी घनिष्‍ठता नहीं होने देता। एक अंतराल हमेशा बनाए रखना चाहता है। बहुत अधिक निकटता खतरनाक है। क्‍योंकि दूसरा तुमको वस्‍तु बना ले सकता है, वह तुम पर मालकियत करने की कोशिश कर सकता है। वह डर है तुम दूसरों को वस्‍तु बनना चाहता, कोई भी किसी का साधन बनना नहीं चाहता। कोई भी नहीं चाहता, कोई भी नहीं चाहता कि कोई उसका उपयोग करे। किसी का साधन बन जाना स्‍वयं में मूल्‍यवान न रहना। सबसे निकृष्‍ट घटना है। लेकिन हर कोई प्रयास कर रहा है। इसी कारण इतना गहन भय है कि इस विधि को व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू करना कठिन होगा।
तो किसी नदी के साथ, किसी पहाड़ी के साथ, तारों के साथ, आकाश के साथ, वृक्षों के साथ शुरू करो। एक बार तुम जान जाओ कि जब तुम वृक्ष के साथ एक हो जाते हो तो क्‍या होता है। एक बार तुम जान जाओ कि नदी के साथ जब तुम एक हो जाते हो तो कितना आनंद उतरता है। कैसे बिना कुछ खोए तुम पूरे अस्‍तित्‍व को पा लेते हो—तब तुम इसे व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू कर सकते हो।
और यदि एक वृक्ष के साथ, एक नदी के साथ इतना आनंद आता है तो तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते कि एक व्‍यक्‍ति के साथ कितना अधिक आनंद आएगा। क्‍योंकि मनुष्‍य उच्‍चतर घटना है, अधिक विकसित चेतना है। एक व्‍यक्‍ति के साथ तुम अनुभव के उच्‍चतर शिखरों पर पहुंच सकते हो। यदि तुम एक पत्‍थर के साथ भी आनंदित हो सकते हो तो एक मनुष्‍य के साथ परम आनंदित हो सकते हो।
लेकिन किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम अधिक भयभीत नहीं हो, या यदि कोई व्‍यक्‍ति है जिसे तुम प्रेम करते हो—कोई मित्र है, कोई प्रियसी, कोई प्रेमी—जिससे तुम भयभीत नहीं  हो। जिसके साथ तुम्‍हें यह भय न हो कि वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा और जिसमें तुम अपने को मिटा सको—यदि तुम्‍हारे पास ऐसा कोई है तो यह विधि करके देखो। स्‍वयं को होश पूर्वक उसमें मिटा दो।
जब तुम होश पूर्वक स्‍वयं को किसी में मिटा देते हो वह भी स्‍वयं को तुममें मिटा देगा; जब तुम खुले होते हो और दूसरे में बहते हो तो दूसरा भी तुममें बहने लगता है और एक गहन मिलन, एक संवाद घटित होता है। दो ऊर्जाऐं एक दूसरे में समाहित हो जाती है। उस स्‍थिति में कोई अहंकार, कोई व्‍यक्‍ति नहीं बचता,बस चेतना बचती है। और यदि यह एक व्‍यक्‍ति के साथ संभव है तो यह पूरे ब्रह्मांड के साथ संभव है। जिसे संतों ने परमानंद कहा है। समाधि कहा है, वह पुरूष ओर प्रकृति के बीच गहन प्रेम की घटना है।
‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍याग कर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’
हम सदा अपने से मतलब रखते है। जब हम प्रेम में भी होते है तो अपने में ही उत्‍सुक होते है। यही कारण है कि प्रेम  एक विषाद बन जाता है। प्रेम स्‍वर्ग बन सकता है। लेकिन नर्क बन जाता है। क्‍योंकि प्रेमी भी अपने ही स्‍वार्थों में लगे होते है। दूसरे को इसलिए प्रेम किया जाता है क्‍योंकि वह तुम्‍हें सुख देता है। क्‍योंकि उसके साथ तुम्‍हें अच्‍छा लगता है। लेकिन दूसरे को तुमने ऐसे प्रेम नहीं किया। वह अपने आप में ही मूल्‍यवान हो। मूल्‍य तुम्‍हारी प्रसन्‍नता से आता है। एक तरह से तुम परितुष्‍ट होते हो। संतुष्‍ट होते हो। इसलिए दूसरा महत्‍वपूर्ण है। यह भी दूसरे का उपयोग करना ही है।
आत्‍मचिंता का अर्थ है कि दूसरे का शोषण। और धार्मिक चेतना केवल तभी उतर सकती है जब स्‍वयं की चिंता खो जाए। क्‍योंकि तब तुम अ-शोषक हो जाते हो। अस्‍तित्‍व के साथ तुम्‍हारा संबंध शोषण का नहीं रहता। बल्‍कि बांटने का, आनंद का रह जाता है। न तुम किसी का उपयोग कर रहे हो, न कोई तुम्‍हारा उपयोग कर रहा हे। बस होने का उत्‍सव रह जाता है।
लेकिन इस आत्‍मचिंता को दूर करना है—और वह बहुत गहरे में जमी हुई है। यह इतनी गहरी है कि तुम्‍हें उसका पता नहीं है। एक उपनिषद में कहा गया है कि पति अपनी पत्‍नी को पत्‍नी नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करता है। और मां अपने बेटे को बेटे के लिए नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करती है। स्‍वार्थ की जड़ें इतनी गहरी है कि तुम जो भी करते हो अपने ही लिए करते हो। इसका अर्थ है कि तुम सदा अहंकार का ही पोषण कर रहे हो। तुम सदा अहंकार को, एक झूठे केंद्र को पोषित कर रहे हो। जो कि तुम्‍हारे और अस्‍तित्‍व के बीच बाधा बन गया है।
 स्‍वयं की चिंता छोड़ दो। यदि कभी कुछ क्षण के लिए भी तुम स्‍वयं की चिंता छोड़ सको और दूसरे से, दूसरे के अस्‍तित्‍व से जुड़ सको तो तुम एक भिन्‍न वास्‍तविकता में, एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर जाओगे। इसीलिए सेवा, प्रेम, करूणा पर इतना बल दिया जाता है। क्‍योंकि करूणा, प्रेम, सेवा का अर्थ है दूसरे से संबंध, अपने से नहीं।
लेकिन देखो, मनुष्‍य का मन इतना चालाक है कि उसने सेवा, करूणा और प्रेम को भी स्‍वार्थ में बदल दिया है। ईसाई मिशनरी सेवा करता है और अपनी सेवाओं में ईमानदार होता है। वास्‍तव में कोई और इतनी गहनता और लगन से सेवा नहीं कर सकता जितना कि एक ईसाई मिशनरी। कोई हिंदू, कोई मुसलमान ऐसा नहीं  कर सकता। क्‍योंकि जीसस ने सेवा पर बहुत बल दिया है। एक ईसाई मिशनरी गरीबों की, बीमारों की, रोगियों कि सेवा कर रहा है। लेकिन गहरे में उसे अपने से ही मतलब है। उन लोगों से कोई लेना देना नहीं है। यह सेवा बस स्‍वर्ग पहुंचने का एक उपाय है। उसे उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। बस अपने स्‍वार्थ से मतलब है। सेवा से श्रेष्‍ठ जीवन पा सकता है। इसलिए वह सेवा कर रहा है। लेकिन वह मूल बात ही चूक जाता है। क्‍योंकि सेवा का अभिप्राय है दूसरे को महत्‍व देना, दूसरा केंद्र है और तुम परिधि बन गए।
कभी ऐसा करके देखो। किसी को केंद्र बना लो। फिर उसका सुख तुम्‍हारा सुख हो जाता है। उसका दुःख तुम्‍हारा दुःख हो जाता है। जो भी होता है। उसको होता है लेकिन तुम तक प्रवाहित होता है। वह केंद्र है। यदि एक बार बस एक बार भी तुम अनुभव कर सको कि कोई और तुम्‍हारा केंद्र है। और तुम उसकी परिधि बन गए हो, तो तुम एक भिन्‍न अस्‍तित्‍व में अनुभव के एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर गए। क्‍योंकि उस क्षण तुम एक गहन आनंद अनुभव करोगे। जो पहले कभी नहीं जाना होगा। पहले कभी महसूस न किया होगा। तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए।
ऐसा क्‍यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्‍योंकि अहंकार दुःख का मूल है। यदि तुम उसे भूल सको, उसे मिटा सको तो सभी दुःख उसी के साथ मिट जाते है।
‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’
वृक्ष बन जाओ, नदी बन जाओ, पति बन जाओ। बच्‍चा बन जाओ। मां बन जाओ, मित्र बन जाओ—इसका जीवन के हर क्षण में अभ्‍यास किया जा सकता है। लेकिन शुरू में यह कठिन होगा। तो कम से कम इसे एक घंटा रोज करो। उस एक घंटे में तुम्‍हारे करीब से जो भी गूजरें, वही बन जाओ। तुम सोचोगे कि यह कैसे हो सकता है। इसे जानने का और कोई उपाय नहीं है। तुम्‍हें करके ही देखना पड़ेगा।
किसी वृक्ष के साथ बैठो और महसूस करो कि तुम वृक्ष बन गए हो। और जब हवा चलती है तो और पूरा वृक्ष डोलता है, झूमता है, तो उस कंपन को अपने भीतर महसूस करो। जब सूरज उगता है और पूरा वृक्ष जीवंत हो जाता है, तो उस जीवंतता को अपने भीतर महसूस करो। जब वर्षा होती है और पूरा वृक्ष संतुष्‍ट और तृप्‍त हो जाता है, एक लंबी प्‍यास, एक लंबी प्रतीक्षा समाप्‍त हो जाती है। और वृक्ष परितृप्‍त हो जाता है, तो वृक्ष के साथ तृप्‍त और संतुष्‍ट अनुभव करो। और जब तुम वृक्ष के सूक्ष्‍म भाव-भंगिमाओं के प्रति सजग हो जाओगे।
तुम उस वृक्ष को अभी तक कई वर्षों से देखते रहे हो, पर तुम उसके भावों को नहीं जान पाए। कभी वह प्रसन्‍न होता है; कभी दुःखी होता है; कभी उदास, संतप्‍त, चिंतित, व्‍यथित होता है; कभी बहुत आनंदित और अहोभाव से भरा होता है, उसके भाव होते है। वृक्ष जीवंत है और महसूस करता है। और यदि तुम उसके साथ एक हो जाओ तो तुम भी वे अनुभव ले सकते हो। तब तुम अनुभव कर पाओगे कि वृक्ष जवान है या बूढ़ा। वृक्ष अपने जीवन से संतुष्‍ट है या नहीं। वृक्ष अस्‍तित्‍व के साथ प्रेम में है या नहीं। या कि विरूद्ध है, विपरीत है। क्रोधित है; वृक्ष हिंसक है या उसमे गहन करूणा है। जैसे तुम हर क्षण बदल रह हो वैसे ही वृक्ष भी हर क्षण बदल रहा है। यदि तुम उसके साथ गहन आत्‍मीयता अनुभव कर सको, जिसे समानुभूति कहते है....।
समानुभूति का अर्थ है तुम किसी के साथ इतनी सहानुभूति से भर जाओ। कि उसके साथ ही हो जाओ। वृक्ष के भाव तुम्‍हारे भाव हो जाएं। और यदि वह गहरे से गहरा होता चला जाए तो तुम वृक्ष से बात भी कर सकते हो। एक बार तुम्‍हें उसकी भाव दशाओं का पता लगना शुरू हो जाए तो तुम उसकी भाषा समझना शुरू कर सकते हो। और वृक्ष अपने मन की बातें तुम्‍हें बताने लगेगा। अपने सुख-अपने दुख, वह तुम्‍हारे साथ बांटने लगेगा।
और यह पूरे जगत के साथ हो सकता है।
हर रोज कम से कम एक घंटे के लिए किसी भी चीज के साथ समानुभूति में चले जाओ। शुरू में तो तुम्‍हें लगेगा तुम पागल हो रहे हो। तुम सोचोगे, ‘मैं किस तरह की मूर्खता कर रहा हूं?’ तुम चारों और देखोगें और महसूस करोगे कि यदि कोई देख ले या किसी को पता लग जाए तो वह सोचेगा कि तुम पागल हो गए हो। लेकिन केवल शुरू में ही ऐसा होगा। एक बार समानुभूति के इस जगत में तुम प्रवेश कर जाओ तो सारा संसार तुम्‍हें पागल नजर आयेगा। वे लोग बेकार में ही इतना चूक रहे है। क्‍योंकि वे बंद है। वे जीवन को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देते। और जीवन तुममें केवल तभी प्रवेश कर सकता है जब कई-कई मार्गों से, कई-कई आयामों से तुम जीवन में प्रवेश करो। कम से कम एक घंटा हर रोज समानुभूति को साधो।
प्रांरभ में हर धर्म की प्रार्थना का यही अर्थ था। प्रार्थना का अर्थ था ब्रह्मांड के साथ होना, ब्रह्मांड के साथ गहन संवाद में होना। प्रार्थना का अर्थ है पूर्णता। कभी तुम परमात्‍मा से नाराज हो सकते हो। कभी धन्‍यवाद दे सकते हो, पर एक बात पक्‍की है कि तुम संवाद में हो। परमात्‍मा केवल एक बौद्धिक धारणा नहीं रही। एक गहन और घनिष्‍ठ संबंध हो गया। प्रार्थना का यही अर्थ है।
लेकिन हमारी प्रार्थनाएं सड़ गल गई है। क्‍योंकि हमें तो यह भी नहीं पता कि प्राणियों से कैसे जुड़े। तुम किसी प्राणी से नहीं जुड़ सकते। तुम्‍हारे लिए यह असंभव है। यदि तुम किसी वृक्ष से नहीं जुड़ सकते तो पूरे अस्‍तित्‍व के साथ कैसे जुड़ सकते हो। और यदि एक वृक्ष से बात नहीं कर सकते, तुम्‍हें पागलपन लगता है। तो परमात्‍मा से बात करना और भी ज्‍यादा पागलपन लगेगा।
मन की प्रार्थना पूर्ण दशा के लिए हर रोज एक घंटा अलग से निकाल लो और अपनी प्रार्थना को शब्‍दिक मत बनाओ। उसमे भाव भरो। खोपड़ी से बोलने की बजाय अनुभव करो। जाओ और वृक्ष को छुओ। उसे गले लगाओ। चूमो; अपनी आंखें बंद कर लो और वृक्ष के साथ ऐसे हो जाओ जैसे तुम अपनी प्रेमिका के साथ हो। उसे महसूस करो। और शीध्र ही तुम्‍हें एक गहन बोध होगा कि अपने आप को छोड़ कर दूसरा बन जाने का क्‍या अर्थ है।
‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’

दूसरी विधि:
      ‘यह चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है।’
अतीत में वैज्ञानिक कहा करते थे कि केवल पदार्थ ही है और कुछ भी नहीं है। केवल पदार्थ के ही होने की धारणा पर बड़े-बड़े दर्शन के सिद्धांत पैदा हुए। लेकिन जिन लोगों की यह मान्‍यता थी कि केवल पदार्थ ही है वे भी सोचते थे कि चेतना जैसा भी कुछ है। तब वह क्‍या था? वे कहते थे कि चेतना पदार्थ का ही एक बाई-प्रोडेक्ट है, एक उप-उत्‍पाद है। वह परोक्ष रूप में, सूक्ष्‍म रूप में पदार्थ ही था।
लेकिन इस आधी सदी ने एक महान चमत्‍कार होते देखा है। वैज्ञानिकों ने यह जानने का बहुत प्रयास किया कि पदार्थ क्‍या है। लेकिन जितना उन्‍होंने प्रयास किया उतना ही उन्‍हें लगा कि पदार्थ जैसा तो कुछ भी नहीं है। पदार्थ का विश्‍लेषण किया गया और पाया कि वहां कुछ नहीं है।
अभी सौ वर्ष पूर्व नीत्‍शे ने कहा था कि परमात्‍मा मर गया है। परमात्‍मा के मरने के साथ ही चेतना भी बच नहीं सकती क्‍योंकि परमात्‍मा का अर्थ है समग्र-चेतना। लेकिन इन सौ सालों में ही पदार्थ मर गया। और पदार्थ इसलिए नहीं मरा क्‍योंकि धार्मिक लोग ऐसा सोचते है, बल्‍कि वैज्ञानिक एक बिलकुल दूसरे निष्‍कर्ष पर पहुंच गए है कि पदार्थ केवल आभास है। यह केवल ऐसा दिखाई पड़ता है क्‍योंकि हम बहुत गहरे नहीं देख सकते। यदि हम गहरे में देख सके तो पदार्थ समाप्‍त हो जाता है। बस ऊर्जा बच रहती है।
यह उर्जा, यह अभौतिक ऊर्जा-शक्‍ति संतों द्वारा पहले से ही जान ली गई है। वेदों में, बाइबिल में, कुरान में, उपनिषदों में—संसार भर में संतों ने जब भी अस्‍तित्‍व में गहरे प्रवेश किया है तो पाया है कि पदार्थ केवल भासता है; गहरे में कोई पदार्थ नहीं है केवल ऊर्जा है। अब इस बात से विज्ञान सहमत है। और संतों ने एक और भी बात कहीं है जिससे विज्ञान को अभी राज़ी होना है—एक दिन उसे राज़ी होना ही पड़ेगा—संत एक दूसरे निष्‍कर्ष पर भी पहुंचे है, वे कहते है कि जब तुम ऊर्जा में गहरे प्रवेश करते हो तो ऊर्जा भी समाप्ति हो जाती है और बस चेतना बचती है।
तो ये तीन पर्तें है। पदार्थ पहली पर्त है, परिधि है। परिधि के भीतर प्रवेश कर जाओ तो दूसरी पर्त दिखाई पड़ती है। फिर विज्ञान ने भीतर प्रवेश करने का प्रयास किया। और संतों की दूसरी पर्त की पुष्‍टि हो गई। पदार्थ केवल भासता है, गहरे में वह बस ऊर्जा है। और संतों का दूसरा दावा है: ऊर्जा में भी गहरे प्रवेश करो तो ऊर्जा भी समाप्‍त हो जाती है। बस चेतना बचती है। वह चेतना ही परमात्‍मा है, वह अंतरतम केंद्र है।
यदि तुम अपने शरीर में प्रवेश करो तो वहां भी ये तीन पर्तें है। केवल सतह पर तुम्‍हारा शरीर है। शरीर भौतिक दिखाई पड़ता है, पर उसके भीतर प्राण की, जीवंत ऊर्जा की धाराएं बहती है। उस जीवंत ऊर्जा के बिना तुम्‍हारा शरीर बस एक लाश रह जाएगा। इसके भीतर कुछ बह रहा है। उसके कारण ही यह जीवित है। वहीं ऊर्जा है। लेकिन गहरे और  गहरे में तुम द्रृष्‍टा हो, साक्षी हो। तुम अपने शरीर और ऊर्जा दोनों को देख सकते हो। वह द्रष्‍टा ही तुम्‍हारी चेतना है।
हर अस्‍तित्‍व की तीन पर्तें है। गहनत्म पर्त साक्षी चेतना की है, मध्‍य में जीवन ऊर्जा है और सतह पर पदार्थ है, भौतिक शरीर है।
यह विधि कहती है, यह चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है। हो तो अंतत: तुम इसी निष्‍कर्ष पर पहुंचोगे कि तुम चेतना हो। बाकी सब कुछ तुम्‍हारा हो सकता है। पर तुम वह नहीं हो। शरीर तुम्‍हारा है। पर तुम शरीर को देख सकते हो। और जो शरीर को देख रहा है वह पृथक हो जाता है। शरीर जानी जाने वाली वस्‍तु हो जाता है और तुम जानने वाले हो जाते हो। तुम अपने शरीर को जान सकते हो। न केवल तुम जान सकते हो, बल्‍कि अपने शरीर को आज्ञा दे सकते हो, उसे सक्रिय कर सकते हो। निष्‍क्रिय कर सकते हो। तुम पृथक हो। तुम अपने शरीर के साथ कुछ भी कर सकते हो।
और न केवल तुम अपना शरीर नहीं हो, बल्‍कि तुम अपना मन भी नहीं हो। यदि विचार आते है तो तुम उन्‍हें देख सकते हो। या, तुम कुछ कर सकते हो: तुम उन्‍हें बिलकुल मिटा सकते हो, तुम विचारशून्‍य हो सकते हो। या, तुम अपने मन को एक ही विचार पर एकाग्र कर सकते हो। तुम स्‍वयं को वहां केंद्रित कर सकते हो। या तुम विचारों को नदी की तरह प्रवाहित होने देते हो। तुम अपने विचारों के साथ कुछ भी कर सकते हो। तुम्‍हें पता चलेगा कि अब कोई विचार नहीं रहे, अंतस में एक खाली पन आ गया है। लेकिन तुम फिर भी होओगे और उस खालीपन को देखोगें।
केवल एक चीज जिसे तुम अपने से अलग नहीं कर सकते, वह तुम्‍हारा साक्षित्व है। इसका अर्थ है कि तुम वही हो। तुम स्‍वयं को उससे अलग नहीं कर सकते। तुम बाकी हर चीज को स्‍वयं से अलग कर सकते हो। तुम जान सकते हो कि तुम न शरीर हो, न मन हो, लेकिन तुम यह नहीं जान सकते कि तुम अपने साक्षी नहीं हो। क्‍योंकि तुम जो भी करोगे वह साक्षी ही होगा। तुम साक्षी से स्‍वयं को अलग नहीं कर सकते। वह साक्षी ही चेतना है। और जब तक तुम उस अवस्‍था पर न पहुंच जाओ जहां से अब और पीछे जाना असंभव हो, तब तक तुम स्‍वयं तक नहीं पहुंचे।
तो ऐसे उपाय है जिनसे साधक संबंध काटता चला जाता है—पहले शरीर, फिर मन और फिर वह उस बिंदु पर पहुंचता है जहां नहीं छोड़ा जा सकता है। उपनिषदों में वे कहते है, नेति-नेति। यह बड़ी गहरी विधि है। न यह , न वह। तो साधक कहता चला जाता है, ‘यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं’ जब तक कि वह ऐसी जगह न पहुंच जाए जहां यह न कहा जा सके कि ‘यह मैं नहीं हूं’। केवल एक साक्षी बचता है। शुद्ध चेतना बचती है। यह शुद्ध चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी है।
अस्‍तित्‍व में जो कुछ भी है इस चेतना का ही प्रतिफलन है, इसी की एक लहर, इसी का एक सधन रूप है। और कुछ भी नहीं है। लेकिन इसे अनुभव करना है। विश्‍लेषण सहयोगी हो सकता है। बौद्धिक समझ सहयोगी हो सकती है। लेकिन इसे अनुभव करना है कि और कुछ भी नहीं है। बस चेतना है। फिर व्‍यवहार भी ऐसा करो कि बस चेतना ही है।
मैंने एक झेन गुरु लिंची के बारे में सुना है। एक दिन वह अपनी झोपड़ी में बैठा था कि कोई उससे मिलने आया। जो आदमी मिलने आया था वह बहुत गुस्‍से में था—हो सकता है उसका अपनी पत्‍नी से, या अपने मालिक से, या किसी और से झगड़ा हुआ हो—पर वह बहुत गुस्‍से में था। उसने गुस्‍से से दरवाजा खोला, गुस्‍से से अपने जूते उतार कर फेंके और भीतर आकर बड़े आदर से वह लिंची के सामने झुका।
लिंची ने कहा, ‘पहले जाओ और जाकर दरवाजे से तथा जूतों से क्षमा मांगो।’
उस आदमी ने बड़ी हैरानी से लिंची की और देखा। वहां दूसरे लोग भी बैठे थे, वे भी सभी हंसने लगे।
लिंची बोला, ‘चुप रहो।’ और उस आदमी से बोला, अगर तुम क्षमा नहीं मांगना चाहते हो तो यहां से चले जाओ। मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह आदमी बोला, ‘दरवाजे और जूतों से माफी मांगना तो बड़ा विचित्र लगता है।’ लिंची ने कहा, ‘जब तुम उन पर गुस्‍सा निकाल रहे थे तब विचित्र नहीं लग रहा था। अब तुम्‍हें क्‍यों विचित्र लग रहा है। हर चीज में एक चेतना है। तो तुम जाओ और जब तक दरवाजा तुम्‍हें माफ न कर दे, मैं तुम्‍हें भीतर नहीं आने दूँगा।’
उस आदमी को बड़ा अजीब लगा, पर उसे जाना पडा। बाद में वह भी एक फकीर बन गया। और ज्ञान को उपलब्‍ध हो गया। जब वह ज्ञान को उपलब्‍ध हुआ तो उसने सारी कहानी सुनाई, ‘जब मैं दरवाजे के सामने खड़ा होकर माफी मांग रहा था तो मुझे बड़ा विचित्र लग रहा था। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर लिंची ऐसा कहता है तो इसमें जरूर कोई बात होगी। मुझे लिंची में भरोसा था। तो मैंने सोचा चाहे यह पागलपन ही क्‍यों न हो इसे कर ही डालों। पहले-पहले तो जो मैं दरवाजे से कह रहा था, वह झूठ था। दिखावटी था। लेकिन धीरे-धीरे मैं भाव से भर गया। मैं भूल ही गया कि बहुत से लोग मुझे देख रहे है। मैं लिंची के बारे में भी भूल गया। और मेरा भाव वास्‍तविक हो गया। सच्‍चा हो गया। मुझे लगने लगा कि दरवाजा और जूता अपनी मनोदशा बदल रहे है। और जिस क्षण मुझे लगा कि दरवाजा और जूता अब खुश है, लिंची ने उसी समय आवाज दी कि अब मैं भीतर आ सकता हूं। मुझे माफ कर दिया गया है।’
यह विधि कहती है, ‘चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है।’
इस भाव के साथ जीओं। इसके प्रति संवेदनशील होओ। और जहां भी तुम जाओ। इसी मन और ह्रदय के साथ जाओ। कि सब कुछ चेतना है। और कुछ भी नहीं है। देर अबेर संसार अपना चेहरा बदल लेगा। देर अबेर पदार्थ मिट जायेगा। और प्राणी नजर आने लगेगा। असंवेदनशीलता के कारण मुर्दा पदार्थ के संसार में रह रहे थे। वरना तो सब कुछ जीवंत है, न केवल जीवंत है, बल्‍कि चेतना है।   
सब कुछ गहरे में चेतना ही है। लेकिन यदि तुम एक सिद्धांत की तरह ही इसमें विश्‍वास करते हो तो कुछ भी नहीं होगा। तुम्‍हें इसे जीवन की एक शैली बनाना पड़ेगा। जीवन का ढंग बनाना पड़ेगा। ऐसे व्‍यवहार करना पड़ेगा जैसे कि सब कुछ चेतन है। शुरू में तो यह ‘जैसे कि’ ही होगा। और तुम्‍हें पागलपन लगेगा। लेकिन अगर तुम अपने पागलपन पर डटे ही रहो और यदि तुम पागल होने को साहस कर सको तो जल्‍दी ही संसार अपने रहस्‍य प्रकट करने लगेगा।
इस अस्‍तित्‍व के रहस्‍यों में प्रवेश करने का एकमात्र उपाय विज्ञान ही नहीं है। वास्‍तव में तो यह सबसे अपरिष्‍कृत ढंग है। सबसे धीमी विधि है। संत तो एक क्षण के भीतर अस्‍तित्‍व में प्रवेश कर सकता है। विज्ञान तो उतना भीतर उतरने में लाखों वर्ष लगाएगा। उपनिषद कहते है कि संसार माया है। कि पदार्थ केवल भासता है। लेकिन विज्ञान पाँच हजार साल बाद कह सकता कि पदार्थ झूठ है। उपनिषद कहते है वह ऊर्जा चेतना है। विज्ञान को अभी पाँच हजार साल लगेंगे। धर्म एक छलांग है। विज्ञान बहुत धीमी प्रक्रिया है। बुद्धि छलांग नहीं ले सकती है। उसे तर्क से चलना पड़ता है—हर तथ्‍य पर तर्क देना पड़ता है। सिद्ध करना पड़ता है। प्रयोग करना पड़ता है। लेकिन ह्रदय छलांग ले सकता है।
याद रखो, बुद्धि के लिए एक प्रक्रिया जरूरी है। फिर निष्‍कर्ष निकलता है—पहले प्रक्रिया, फिर तर्कपूर्ण निष्पति। ह्रदय के लिए निष्‍कर्ष पहले आता है। फिर प्रक्रिया आती है। यह बिलकुल विपरीत है। यही कारण है कि संत कुछ सिद्ध नहीं कर सकते। उनके पास निष्‍कर्ष है, पर प्रक्रिया नहीं है।
शायद तुम्‍हें पता न हो, शायद तुमने ध्‍यान न दिया हो। कि संत सदा निष्‍कर्षों की बात करते हो। यदि तुम उपनिषाद पढ़ो तो तुम्‍हें निष्‍कर्ष ही मिलेंगे। जब पहली बार उपनिषदों को पश्‍चिमी भाषाओं में अनुवादित किया गया। तो पश्‍चिमी दार्शनिक समझ ही नहीं पाए, क्‍योंकि उनके पीछे कोई तर्क नहीं था। उपनिषाद कहते है। ‘’ब्रह्म है’’ और इसके लिए कोई तर्क नहीं देते। कि तुम इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे कैसे। क्‍या प्रमाण है? किसी आधार पर तुम घोषणा करते हो कि ब्रह्म है? नहीं, उपनिषाद कुछ नहीं कहते, बस निष्‍कर्ष देते है।
ह्रदय तत्‍क्षण निष्‍कर्ष पर पहुंच जाता है। और जब निष्‍कर्ष आ जाए तो तुम प्रक्रिया शुरू कर सकते हो। दर्शन का यही अर्थ है।
संत निष्‍कर्ष देते है। और दार्शनिक उसकी प्रक्रिया बनाते है। जीसस निष्‍कर्ष पर पहुंचे और फिर संत अगस्‍तीन, थाम अकीनस ने प्रक्रिया पैदा की। वह बाद की बात है। निष्‍कर्ष पहले आ गया, अब तुम्‍हें प्रमाण जुटाने होगे। प्रमाण संत के जीवन में है। वह इसके लिए विवाद नहीं कर सकता। वह स्‍वयं ही प्रमाण है। यदि तुम उसे देख सको। यदि तुम देख न सक, तब तो कोई प्रमाण नहीं है। तब धर्म व्‍यर्थ है।

तो इन विधियों को सिद्धांत मत बनाओ। ये तो छलाँगें है—अनुभव में, निष्‍कर्ष में।


तीसरी विधि:
‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्ग दर्शक सत्ता है, यही हो रहो।’
पहली बात, मार्गदर्शक तुम्‍हारे भीतर है, पर तुम उसका उपयोग नहीं करते। और इतने समय से, इतने जन्‍मों से तुमने उसका उपयोग नहीं किया है। कि तुम्‍हें पता ही नहीं है कि तुम्‍हारे भीतर कोई विवेक भी है। मैं कास्‍तानेद की पुस्‍तक पढ़ रहा था। उसका गुरु डान जुआन उसे एक सुंदर सा प्रयोग करने के लिए देता है। यह प्राचीनतम प्रयोगों में से एक है।
एक अंधेरी रात में, पहाड़ी रास्‍ते पर कास्‍तानेद का गुरु कहता है, तू भीतरी मार्गदर्शक पर भरोसा करके दौड़ना शुरू कर दे। यह खतरनाक था। यह खतरनाक था। पहाड़ी रास्‍ता था। अंजान था। वृक्षों झाड़ियों से भरा था। खाइयां भी थी। वह कहीं भी गिर सकता था। वहां तो दिन में भी संभल-संभलकर चलना पड़ता था। और यह तो अंधेरी रात थी। उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ता था। और उसका गुरू बोला, चल मत दौड़।
उसे तो भरोसा ही न आया। यह तो आत्‍महत्‍या करने जैसा हो गया। वह डर गया। लेकिन गुरु दौड़ा। वह बिलकुल वन्‍य प्राणी की तरह दौड़ता हुआ गया और वापस आ गया। और कास्‍तानेद को समझ नहीं आया कि वह कैसे दौड़ रहा था। और न केवल वह दौड़ रहा था। बल्‍कि हर बार दौड़ता हुआ वह सीधी उसी के पास आता जैसे कि वह देख सकता हो। फिर धीरे-धीरे कास्‍तानेद ने साहस जुटाया। जब यह बूढ़ा आदमी दौड़ सकता है तो वह क्‍यों नहीं दौड़ सकता। उसने कोशिश की, और धीरे-धीरे उसे लगा कि कोई आंतरिक प्रकाश उठा रहा है। फिर वह दौड़ने लगा।
तुम केवल तभी होते हो जब तुम सोचना बंद कर देते हो। जिस क्षण तुम सोचना बंद करते हो। अंतस घटित होता है। यदि तुम न सोचो तो सब ठीक है। यह ऐसे ही है जैसे कोई भीतर मार्ग दर्शक कार्य कर रहा है। तुम्‍हारी बुद्धि ने तुम्‍हें भटकाया है। और सबसे बड़ा भटकाव यह है कि तुम अंतर्विवेक पर भरोसा नहीं कर सकते।
तो पहले तुम्‍हें अपनी बुद्धि को राज़ी करना पड़ेगा। यदि तुम्‍हारा विवेक कहता भी है कि आगे बढ़ो तो तुम्‍हें अपनी बुद्धि को राज़ी करना पड़ता है। और तब तुम अवसर चूक जाते हो। क्‍योंकि कई क्षण होते है, या तो तुम उनका उपयोग कर ले सकते हो, या उन्‍हें चूक जाओगे। बुद्धि समय लगाती है। और जब तक तुम सोचते हो, विचार करते हो, तब तक अवसर हाथ से निकल जाता है। जीवन तुम्‍हारे लिए इंतजार नहीं करेगा। तुम्‍हें तत्‍क्षण जीना होता है। तुम्‍हें योद्धा बनना पड़ता है। जैसे झेन में कहते है—क्‍योंकि जब तुम रणभूमि में तलवार लेकर लड़ रहे हो तो तुम सोचते नहीं, तुम्‍हें बिना सोचे विचारे लड़ना होता है।
झेन गुरूओं न तलवार का ध्‍यान की विधि की तरह उपयोग किया है। और जापान में कहते है कि यदि दो झेन गुरु, दो ध्‍यानस्‍थ। व्‍यक्‍ति तलवारों से युद्ध कर रहे हों तो परिणाम कभी निकल ही नहीं सकता। न कोई हारेगा। न कोई जीतेगा। क्‍योंकि दोनों ही विचार नहीं कर रहे। तलवारें उनके हाथों में नहीं है। उनके अंतर्विवेक, विचारवान भीतरी मार्ग दर्शक के हाथों में है। और इससे पहले कि दूसरा आक्रमण करे,विवेक जान लेता है और प्रतिरक्षा कर लेता है। तुम उसके बारे में सोच नहीं सकते क्‍योंकि समय ही नहीं है। दूसरा तुम्‍हारा ह्रद का निशाना बना रहा है। एक ही क्षण में तलवार तुम्‍हारे ह्रदय में घुस जाएगी। इस विषय में सोचने का समय ही नहीं है। कि क्‍या करना है। जैसे ही उसके मन में यह विचार  उठता है कि ह्रदय में तलवार धुसा दो। उसी समय तुममें विचार उठना चाहिए कि बचो। उसी क्षण बिना किसी विलंब के—केवल तभी तुम बच सकते हो। बरना तो तुम समाप्‍त हो जाओगे।
तो वे तलवार बाजी को ध्‍यान की तरह सिखते है और कहते है, ‘हर क्षण अंतर्विवेक से जीओं, सोचो मत। अंतस जो चाहे उसे करने दो। मन के द्वारा हस्‍तक्षेप मत करो।’
यह बहुत कठिन है, क्‍योंकि हम तो अपने मन से ही इतने प्रशिक्षित है। हमारे स्‍कूल हमारे कालेज, हमारे विश्‍वविद्यालय,हमारी संस्‍कृति, सभ्‍यता,सभी हमारे मस्‍तिष्‍क को भरते है। हमारा अपने अंतर्विवेक से संबंध टूट गया है। सब उस अंतर्विवेक के साथ ही पैदा होते है। लेकिन उसे काम नहीं करने दिया जाता। वह करीब-करीब अपंग हो जाता है। पर उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह सूत्र इसी अंतर्विवेक के लिए है।   
‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यही हो रहो।’
खोपड़ी से मत सोचो। सच में तो, सोचो ही मत। बस बढ़ा। कुछ परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। यह कठिन होगा, क्‍योंकि सोचने की पुरानी आदत होगी। तुम्‍हें सजग रहना पड़ेगा कि सोचना नहीं है। बस भीतर से महसूस करना है कि मन में क्‍या आ रहा है। कई बार तुम उलझन में पड़ सकते हो कि यह अंतर्विवेक से उठ रहा है। या मन की सतह से आ रहा है। लेकिन जल्‍दी ही तुम्‍हें अंतर पता लगना शुरू हो जाएगा।
जब भी कुछ तुम्‍हारे भीतर से आता है तो वह तुम्‍हारी नाभि से ऊपर की और उठता है। तुम उसके प्रवाह, उसकी उष्‍णता को नाभि से ऊपर उठते हुए अनुभव कर सकते हो। जब भी तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है। सिर में होता है और फिर नीचे उतरता है। तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है, सिर में होता है। और फिर नीचे उतरता है। यदि तुम्‍हारा मन कुछ सोचता है तो उसे नीचे धक्‍का देना पड़ता है। यदि तुम्‍हारा अंतर्विवेक कोई निर्णय लेता है तो तुम्‍हारे भीतर कुछ उठता है। वह तुम्‍हारे अंतरतम से तुम्‍हारे मन की और आता है। मन उसे ग्रहण करता है। पर वह निर्णय मन का नहीं होता। वह पार से आता है। और यही कारण है कि मन उससे डरता है। बुद्धि उस पर भरोसा नहीं कर सकती। क्‍योंकि वह गहरे से आता है—बिना किसी तर्क के बिना किसी प्रमाण के बस उभर आता है।
तो किन्‍हीं परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। उदाहरण के लिए, तुम जंगल में रास्‍ता भटक गए हो तो इसे करके देखो। सोचो मत बस, अपने आँख बंद कर लो, बैठ जाओ। ध्‍यान में चले जाओ। और सोचो मत। क्‍योंकि वह व्‍यर्थ है; तुम सोच कैसे सकते हो? तुम कुछ जानते ही नहीं हो। लेकिन सोचने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम तब भी सोचते चले जाते हो। जब सोचने से कुछ भी नहीं हो सकता है। सोचा तो उसी के बारे में जा सकता है, जो तुम पहले से जानते हो, तुम जंगल में रास्‍ता खो गए हो, तुम्‍हारे पास कोई नक्‍शा नहीं है, कोई मौजूद नहीं है जिससे तुम पूछ लो। अब तुम क्‍या सोच सकते हो। लेकिन तुम तब भी कुछ न कुछ सोचोगे। वह सोचना बस चिंता करना ही होगा। सोचना नहीं होगा। और जितनी तुम चिंता करोगे उतना ही अंतर्विवेक कम काम कर पाएगा।
तो चिंता छोड़ो, किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और विचारों को विदा हो जाने दो। बस प्रतीक्षा करो, सोचो मत। कोई समस्‍या मत खड़ी करो, बस प्रतीक्षा करो। और जब तुम्‍हें लगे कि निर्विचार का क्षण आ गया है, तब खड़े हो जाओ और चलने लगो। जहां भी तुम्‍हारा शरीर जाए उसे जाने दो। तुम बस साक्षी बने रहो। कोई हस्‍तक्षेप मत करो। खोया हुआ रास्‍ता बड़ी सरलता से पाया जा सकता है, लेकिन एकमात्र शर्त है कि मन के द्वारा हस्‍तक्षेप न हो।
ऐसा कई बार अनजाने में हुआ है। महान वैज्ञानिक कहते है कि जब भी कोई बड़ी खोज हुई है मन के द्वारा नहीं हुई , सदा अंतःप्रज्ञा के ही कारण हुई है।  
मैडम क्‍यूरी गणित की एक समस्‍या को सुलझाने में लगी हुई थी। जो कुछ भी संभव था, उसने सब किया। फिर वह ऊब गई। कई दिन से, हफ्तों से वह उस पर कार्य कर रही थी। और कुछ हल नहीं निकल रहा था। वह पागल हुई जा रही थी। हल का कोई उपाय ही नजर नहीं आ रहा था। फिर एक रात थक कर वह लेट गई और सो गई। और रात को सपने में उसका उत्तर एकदम उभर आया वह उससे इतनी जुड़ी हुई थी कि उसका सपना टूट गया, वह जाग गई। उसी क्षण उसने उत्‍तर लिख दिया। क्‍योंकि सपने में यह तो आया नहीं था कि करना कैसे है, बस उत्‍तर सामने आ गया। उसने एक कागज पर उत्‍तर लिख दिया और फिर सो गई।
सुबह वह हैरान हुई; उत्‍तर बिलकुल ठीक था, पर वह जानती नहीं थी कि उसे निकाला कैसे गया था। कोई प्रक्रिया, कोई तरीका नहीं दिया हुआ था। फिर उसने प्रक्रिया खोजने की कोशिश की। अब वह आसान बात थी क्‍योंकि उत्‍तर हाथ में था। और उत्तर लेकिर पीछे बढ़ना सरल था। इस सपने के कारण उसने नोबल पुरस्‍कार जीता। लेकिन वह सदा ही हैरान रही कि यह हुआ कैसे।
जब तुम्‍हारा मन थक जाता है, और आगे नहीं बढ़ सकता, तो वह थक कर रूक जाता है; थकनें के उस क्षण में अंतर्विवेक इशारे दे सकता है। हल दे सकता है। कुंजियों दे सकता है। जिस व्‍यक्‍ति को मनुष्‍य की कोशिश की आंतरिक संरचना की खोज के लिए नोबल पुरस्‍कार मिला, उसने भी उसकी संरचना को एक सपने में देखा। उसने मानवीय कोशिका की पूरी आंतरिक संरचना को सपने में देखा और सुबह उठकर उसकी पिक्‍चर बना दी। उसे खुद भी भरोसा नहीं था कि यह ठीक है, तो उसे कई वर्षों तक उस पर काम करना पडा। कई वर्ष उस पर काम करने के बाद वह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा कि सपना सच्‍चा था।
मैडम क्‍यूरी के साथ ऐसा हुआ कि जब उसे अंतःप्रज्ञा की इस प्रक्रिया का पता चला तो उसने निश्‍चय कर लिया कि वह प्रयोग करके देखेगी। एक बार एक समस्‍या आ गई जिसे वह हल करना चाहती थी। तो उसने सोचा, ‘इसके लिए क्‍यों व्‍यर्थ ही चिंता करूं, और श्रम करूं? बस सो जाती हूं।’ वह मजे से सो गई, पर कोई हल नहीं आया। तो वह थोड़ी परेशान हुई। कई बार उसने कोशिश की,जब भी कोई समस्‍या आती तो वह सो जाती। लेकिन कोई हल न निकलता। पहले बुद्धि को पूरी तरह से थकाना होता है, तभी हल आता है। खोपड़ी को पूरी तरह से थका देना होता है। नहीं तो वह स्‍वप्‍न में भी चलती रहती है।
तो अब वैज्ञानिक कहते है कि सभी बड़ी खोजें अंतःप्रज्ञा से आती है। बौद्धिक नहीं होती। भीतर मार्गदर्शक का यही अर्थ है।
‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यहीं हो रहो।’
मस्‍तिष्‍क को छोड़ दो और इस अंत:प्रज्ञा में उतर जाओ। पुराने शास्‍त्र कहते है कि बाह्म गुरु केवल तुम्‍हें भीतर के गुरु से मिलवा ने में मदद कर सकता है। बस इतना ही। एक बार बाह्म गुरु तुम्‍हें भीतरी गुरू से मिलवा दे तो उसका काम समाप्‍त हो जाता है।
गुरु के द्वारा तुम सत्‍य तक नहीं पहुंच सकते; गुरु के द्वार तुम बस भीतर के गुरु तक पहुंच सकते हो। और तब वह भीतर का गुरु तुम्‍हें सत्‍य तक ले जाएगा। बाह्म गुरु तो बस एक प्रतिनिधि है, एक विकल्‍प है। उसने अपना भीतरी मार्ग दर्शक खोज लिया है और वह तुम्‍हारे मार्ग दर्शक को देख सकता है, क्‍योंकि वे दोनों एक ही तल पर है; एक ही लय में एक ही आयाम में है। यदि मैंने अपना अंतर्विवेक खोज लिया है तो मैं तुममें झांक कर तुम्‍हारे अंतर्विवेक को महसूस कर सकता हूं। और यदि में वास्‍तव में तुम्‍हारा पथ प्रदर्शक हूं तो मेरा सारा सहयोग तुम्‍हें तुम्‍हारे अंतर्विवेक तक पहुंचाने के लिए होगा।
एक बार तुम्‍हारा अपने अंतर्विवेक से संबंध बन जाए तो मेरी कोई जरूरत नहीं है। अब तुम अकेले चल सकते हो। तो गुरु बस इतना ही कर सकता है। कि वह तुम्‍हें खोपड़ी से नाभि पर ढकेल दे, तुम्‍हारी तार्किक बुद्धि से तुम्‍हें आस्‍थावान मार्गदर्शक की और धक्‍का दे दे। और ऐसा केवल मनुष्‍यों में नहीं है, ऐसा पशु-पक्षियों, वृक्षों, सबके साथ होता है। सब में अंत:प्रज्ञा होती है। और अब तो कई नहीं बातें पता चली है जो बहुत रहस्‍यमय है।
बहुत सी घटनाएं है। उदाहरण के लिए एक मादा मछली अंडे देते ही मर जाती है। पिता अंडों को सेता है। और फिर वह भी मर जाता है। अंडे बिना माता-पिता के रहते है। वे परिपक्‍व हो जाते है। नई मछलियाँ पैदा हो जाती है। ये मछलियाँ अपने माता-पिता के बारे में कुछ भी नहीं जानती। उन्‍हें नहीं पता होता कि वे कहां से आई थी। लेकिन ये मछलियाँ समुद्र के किसी भी हिस्‍से में हों, वे अंडे देने उसी जगह पहुंच जाएंगी जहां उनके माता पिता अंडे देने आए थे। वे स्‍त्रोत पर लौट जाएंगी। ऐसा बार-बार होता रहा है। और जब भी उन्‍हें अंडे देने होंगे वे इसी किनारे पर लौट आएँगी, अंडे देंगी और मर जाएंगी।
तो मां बाप और बच्‍चों के बीच कोई संपर्क नहीं है। पर किसी तरह बच्‍चे जानते है कि उन्‍हें कहां जाना है, और वे कभी चूकते नहीं। और तुम उन्‍हें भटका नहीं सकते ऐसा करने की कोशिश की गई है। लेकिन तुम उन्‍हें भटका नहीं सकते वे स्‍त्रोत पर लौट ही जाएंगे। कोई अंतर्प्रेरणा काम कर रही है।
सोवियत रूस में बिल्‍लियों, चूहों और छोटे जानवरों के साथ प्रयोग करते रह है। एक बिल्‍ली को उसके बच्‍चे से अलग कर लिया गया और बच्‍चों को समुद्र में गहरे ले जाया गया; उसे पता नहीं लग सकता था कि उसके साथ क्‍या हो रहा है। हर तरह के वैज्ञानिक यंत्र बिल्‍ली के साथ लगा दिए गये। ताकि यह पता चल सके कि बिल्‍ली के मन में और ह्रदय में क्‍या चल रहा है। फिर उसके बच्‍चे को मारा गया। गहरे समुद्र में—एक दम से मां को पता चल गया। उसका रक्‍तचाप बदल गया। वह चिंतित हो गई, उसके दिल की धड़कन बढ़ गई—जैसे ही बच्‍चे को मारा गया। और वैज्ञानिक यंत्रों ने बताया कि उसे बड़ी पीड़ा हुई। फिर कुछ समय बाद सब सामान्‍य हो गया। फिर दूसरा बच्‍चा मारा गया,फिर परिर्वतन हुआ। और तीसरे बच्‍चे के साथ भी ऐसा ही हुआ। हर बार बिलकुल उसी समय ही ऐसा हुआ। क्‍या हो रहा था।
अब रूसी वैज्ञानिक कहते है कि मां के पास एक अंतर्प्रेरणा होती है। अनुभूति का एक अंत केंद्र होता है। और वह बच्‍चों के साथ जुड़ा होता है, चाहे वे कहीं भी हों। और वह तत्‍क्षण एक टेलीपैथिक संवेदना अनुभव करती है। मनुष्‍य में मां इतना अनुभव कर सकती। यह बड़ी हैरानी की बात है; मनुष्‍य को अधिक अनुभव करना चाहिए क्‍योंकि वह अधिक विकसित है। लेकिन वह नहीं कर पाती क्‍योंकि मस्‍तिष्‍क ने सब कुछ अपने हाथों में ले लिया है और सारे आंतरिक केंद्र अपंग पड़ गए है।
‘या चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यहीं हो रहो।’
जब भी तुम किसी परिस्‍थिति में बहुत परेशान होओ और तुम्‍हें पता न चले कि उसमें से कैसे निकलना है तो सोचों मत, बस गहरे निर्विचार में चले जाओ और अपने अंतर्विवेक को अपना मार्गदर्शन करने दो। शुरू-शुरू में तो तुम्‍हें भय लगेगा।  असुरक्षा महसूस होगी। पर जल्‍दी ही जब तुम हर बार ही ठीक निष्‍कर्ष पर पहुंचोगे, जब तुम हर ठीक द्वार पर पहुंच जाओगे, तुममें साहस आ जाएगा और तुम भरोसा करने लगोगे।
यदि यह भरोसा आता है तो उसे ही मैं श्रद्धा कहता हूं। यह वास्‍तव में आध्‍यात्‍मिक श्रद्धा है, अंतर्विवेक में श्रद्धा। बुद्धि तुम्‍हारे अहंकार का हिस्‍सा है। वह तो अपने आप पर ही भरोसा है। जिस क्षण तुम अपने में गहरे उतरते हो, तुम ब्रह्मांड की आत्‍मा में पहुंच जाते हो। तुम्‍हारी अंत:प्रज्ञा परम विवेक का अंश है। जब तुम अपना ही अनुसरण करते हो तो सब कुछ उलझा देते हो और तुम्‍हें पता नहीं चलता कि तुम क्‍या कर रहे हो। तुम अपने को बहुत ज्ञानी समझ सकते हो पर हो नहीं।
ज्ञान तो ह्रदय से आता है, बुद्धि से नहीं। ज्ञान तुम्‍हारी आत्‍मा के अंतरतम से उठता है। मस्‍तिष्‍क से नहीं। अपनी खोपड़ी को अलग हटा कर रख दो और आत्‍मा का अनुसरण करो, चाहे वह जहां भी ले जाए। अगर वह खतरे में भी ले जाए तो खतरे में जाओ क्‍योंकि वही तुम्‍हारे लिए और तुम्‍हारे विकास के लिए मार्ग होगा। खतरे से तुम विकसित होओगे और पकोगे। यदि अंतर्विवेक तुम्‍हें मृत्‍यु की और भी ले कर जाये तो उसके पीछे जाओ। क्‍योंकि वहीं तुम्‍हारा मार्ग होगा। उसका अनुसरण करो,उसमें श्रद्धा करो और उस पर चल पड़ो।

आज इतना ही।


1 टिप्पणी: