कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 सितंबर 2018

तंत्र--सूत्र--(भाग--5) प्रवचन--68

लक्ष्य की धारणा ही बंधन है

प्रवचन-68-(ओशो)

 प्रश्नसार:

1-क्या कल्पना भी कामना नहीं है?
2-कल आपने कहा कि मन सत्य है, लेकिन फिर सभी गुरु मन को बाधा क्यों कहते है?
3—केंद्र के रूपांतरण पर इतना जोर क्यों है?
4-स्त्री ओर पुरूष के लिए अलग-अलग विधियां क्यों है?

पहला प्रश्न :

ऐसा कहा गया है कोई भी कामना, चाहे सांसारिक हो अथवा धार्मिक, मुक्ति की ओर नहीं ले जा सकती। लेकिन सुख ओर आनंद की विधायक कल्पना भी तो एक तरह की कामना ही है। इसलिए  क्या यह सत्य नहीं है की कल्पना भी कामना है अत: तनाव पैदा करती है?
कल्पना कामना नहीं है, एक खेल है कामना तो बिलकुल अलग बात है लेकिन तुम अपनी कल्पना को कामना पर आधारित कर सकते हो, तुम अपनी कामना को कल्पना द्वारा प्रक्षेपित कर सकते हो तब वह बंधन हो जाएगी। यदि तुम कल्पना के साथ बिना किसी कामना के खेलते हो-न कहीं पहुंचने के लिए, न कुछ पाने के लिए, बस एक खेल की तरह उसे लेते हो-तब तुम्हारी कल्पना न कामना होती है, न बंधन।

कल्पना की ये विधियां केवल तभी सहयोगी हो सकती हैं यदि तुम उनके साथ खेलो। यदि तुम गंभीर हो गए तो सारी बात ही चूक गए।
लेकिन प्रश्न संगत है। क्योंकि वास्तव में, तुम सोच ही नहीं सकते कि बिना कामना के कुछ किया जा सकता है। तुम तो अगर खेलते भी हो तो कहीं पहुंचने के लिए, कुछ पाने के लिए, जीतने के लिए। यदि भविष्य में कुछ भी मिलने वाला न हो तो तुम्हारा सारा रस खो जाएगा। तुम कहोगे, 'फिर खेलें ही क्यों?'

हम इतने परिणाम-उमुख हैं कि हर चीज को साधन बना लेते हैं। इसे स्मरण रखना चाहिए : ध्यान तो परम लीला है कुछ पाने के लिए, साधन नहीं है, ध्यान बुद्धत्व पाने के लिए साधन नहीं है। ध्यान से बुद्धत्व घटता है, लेकिन ध्यान उसके लिए साधन नहीं है। न ही ध्यान मोक्ष के लिए साधन है। मोक्ष उससे घटता है लेकिन ध्यान उस के लिए साधन नहीं है। तुम ध्यान का किसी फल की प्राप्ति के लिए उपयोग नहीं कर सकते।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि जिन्होंने भी जाना है, वे सदियों से ध्यान के लिए ही ध्यान करने पर जोर देते रहे हैं। उससे कुछ पाने की कामना मत करो, उसका आनंद लो उससे बाहर कोई लक्ष्य मत बनाओ-और बुद्धत्व उसका परिणाम होगा। स्मरण रखो, परिणाम, फल नहीं। ध्यान कोई कारण नहीं है, लेकिन ध्यान में तुम गहरे डूबते हो तो बुद्धत्व घट जाता है। असल में, इस खेल में गहरे डूब जाना ही बुद्धत्व है।’
लेकिन मन हर चीज को कार्य बना लेता है। मन कहता है, कुछ करो क्योंकि उससे  यह लाभ होगा। काल्पनिक या वास्तविक, मन को कुछ चाहिए जिससे सहारा मिल सके जिसे मन प्रक्षेपित कर सके। केवल तभी मन चल सकता है। मन भविष्य के लिए वर्तमान में काम करता है। भविष्य चाहे काल्पनिक ही हो, चाहे कभी आए ही न, लेकिन मन केवल भविष्य की आशा में ही काम कर सकता है। भविष्य के लिए वर्तमान में काम करने को ही कामना कहते हैं। साधन अभी और यहीं है, साध्य बहुत दूर है। साधन और साध्य का यह विभाजन, यह दूरी हारईकामना है।
यदि तुम खेल रहे हो तो वह कोई कामना नहीं है, क्योंकि उसमें साधन भी यहीं है और साध्य भी यहीं है। खेलते समय कोई भविष्य नहीं होता; तुम उसमें इतने लीन हो जाते हो कि भविष्य समाप्त हो जाता है।
खेलते हुए बच्चों को देखो। उनके चेहरों को, उनकी आंखों को देखो। इस समय वे शाश्वत में हैं। वे सुखी हैं, क्योंकि वे खेल रहे हैं। सुख कोई बाद में नहीं आएगा, सुख अभी और यहीं है। क्षण- क्षण वे सुखी हैं। इसलिए नहीं कि बाद में कोई महान घटना घटने वाली है वह घट ही रही है। इस समय वे शाश्वत में हैं। लेकिन उनके मन अभी विकसित नहीं हैं। हम उन्हें विकसित होने को बाध्य करेंगे, क्योंकि यह खेल संसार में कोई बहुत सहयोग न दे सकेगा। उन्हें कुछ कार्य सीखना पड़ेगा।
उन्हें साधन और साध्य को विभाजित करना पड़ेगा। उन्हें इस क्षण और भविष्य के बीच भेद खड़ा करना पड़ेगा। और हम उन्हें भविष्य के लिए वर्तमान की बलि देना सिखा देंगे, यह मार्ग है संसार का, बाजार का, कामना का। कामना सब कुछ को उपयोगिता में बदल देती है।
ध्यान में तुम पुन: एक बच्चे हो जाओगे-खेलते हुए भविष्य के किसी विचार के बिना, इसी क्षण में आनंदित होते हुए कृत्य मात्र का आनंद लेते हुए। फिर कल्पना कामना नहीं रहती। तब तुम कल्पना के साथ खेल सकते हो तब वह सुंदरतम घटनाओं में से एक हो जाती है। और यह खेल, यह पूरी तन्मयता से इस क्षण में होना ही बुद्धत्व है। जिस क्षण यह घटित होता है तुम रूपांतरित हो जाते हो।
तो बुद्धत्व कभी भविष्य में नहीं होता, सदा वर्तमान में होता है; और वह कोई कार्य नहीं है जिसे करना है, वह तो खेल है जिसे खेलना है।
भारतीय धारणा लीला का यही अर्थ है। परमात्मा खेल रहा है; वह किसी कार्य में नहीं लगा है। यह संसार किसी साध्य के लिए साधन नहीं है यह तो मात्र ऊर्जा का एक खेल है। ऊर्जा स्वयं से खेलने में आनंदित है; स्वयं को विभाजित करती है और फिर लुका-छिपी का खेल खेलती है।

तो स्वभावत: भारतीय मनीषियों ने कभी नहीं कहा कि परमात्मा सष्टा है, वे कहते हैं परमात्मा लीलाधर है। क्योंकि सृष्टि शब्द में अपनी एक गंभीरता है, जैसे कि कोई साध्य हो और कुछ करना हो। यह व्यर्थ की बात है कि परमात्मा संसार का सृजन कर रहा है! क्योंकि इसका अर्थ तो यह हुआ कि कोई कमी है और उसे पूरा करने के लिए परमात्मा संसार का सृजन कर रहा है। या इसका अर्थ हुआ कि कोई भविष्य है, तो परमात्मा भी कामना में जीता है।
जैन और बौद्ध, हिंदुओं की लीला की धारणा नहीं समझ पाए इसलिए उन्होंने परमात्मा को मानने से इनकार कर दिया। क्योंकि यदि परमात्मा संसार को बनाता है तो वह कामना करता है। जैन और बौद्ध कहते हैं कि अगर परमात्मा कामना करता है तो वह संसार का ही हिस्सा हो गया। वह स्वयं भी स्वतंत्र नहीं है, स्वयं भी मुक्त नहीं है।
तो उन्होने परमात्मा की धारणा से बिलकुल इनकार कर दिया। क्योंकि वे कहते है कि परमात्मा का अर्थ है जो कामना के पार हो। वे कहते हैं कि महावीर भगवान हैं, क्योंकि वे कामना के पार हैं। लेकिन ब्रह्मा भगवान नहीं हैं क्योंकि वह संसार का सृजन करते हैं, संसार की कामना करते हैं।
वे लीला की अवधारणा को नहीं समझ पाए। लीला की धारणा सृजन की धारणा से बिलकुल भिन्न है। परमात्मा बस खेल रहा है। और तुम यह नहीं पूछ सकते कि क्यों? क्योंकि खेल में किसी क्यों का उत्तर नहीं होता। यदि बच्चे खेल रहे हों तो क्या तुम पूछ सकते हो कि तुम क्यों खेल रहे हो? वे कहेंगे 'हम खेल रहे हैं तो बस खेल रहे हैं।’ खेल स्वयं में ही पर्याप्त है, ऊर्जा गतिमान हो रही है प्रचुर ऊर्जा अतिरेक में बह रही है।
जितने तुम बड़े होते जाते हो उतना तुम्हारा खेल कम होता जाता है। क्यों? क्योंकि अब तुम्हारी ऊर्जा इतने अतिरेक में नहीं बह रही। अब तुम कंजूस हो गए हो। अब तुम जानते हो कि तुम्हारे पास ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा है और उस ऊर्जा को तुम्हें कार्य में, कुछ प्राप्त करने के लिए लगाना है। बच्चों के पास तो ऊर्जा अतिरेक में है। उनके पास इतनी ऊर्जा है कि उन्हें खेलना पड़ता है। खेल तो बस अतिरेक से बहती हुई ऊर्जा की गति है।
फिर बच्चे उसी क्षण में आनंदित हैं। एक बच्चा कूद रहा है, दौड़ रहा है, लेकिन किसी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए नहीं। दौड़ना तो स्वयं में ही एक अनुभव है जीवंत ऊर्जा का, जीवंतता का, जीवित होने का, इतने अतिरेक से भर उठने का कि तुम बिना हिसाब-किताब लगाए ऊर्जा को बाहर फेंक सकते हो।
परमात्मा का अर्थ है पूर्ण ऊर्जा, अनंत ऊर्जा। परमात्मा हिसाबी-किताबी नहीं हो सकता। उसके पास इतना है, अनंत रूप से इतना है कि वह केवल खेल ही सकता है। और यह खेल चलता ही रहता है, कोई इसका अंत नहीं आता। अंत कभी आ भी नहीं सकता, क्योंकि ऊर्जा अनंत है। और तुम यह नहीं पूछ सकते कि क्यों? ऊर्जा गति करती है, उसके लिए कोई क्यों नहीं है।
यदि परमात्मा ने संसार बनाया होता तो तुम पूछ सकते थे, 'क्यों? तुमने संसार क्यों बनाया?' लेकिन यदि वह बस खेल रहा है, तो तुम नहीं पूछ सकते, 'क्यों?' जब तुम भी खेल में सम्मिलित हो जाते हो तो तुम दिव्य हो जाते हो। यदि तुम कर्ता हो तो तुम मनुष्य हो; और यदि खेल रहे हो तो तुम दिव्य हो। तब तुम खेल में भागीदार हो।
इसीलिए तो कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है। हमने राम को पूर्णावतार नहीं कहा, उनको हम अंशावतार कहते हैं, वे दिव्य का एक आशिक अवतरण हैं। लेकिन कृष्ण को हम पूर्णावतार कहते हैं। अंतर यही है कि राम गंभीर हैं। वे अभी भी उपयोगितावादी हैं, साध्य की ओर उन्मुख हैं, कि यह सही है, वह गलत है। सही और गलत केवल कार्य में ही होते हैं, कि यह करना चाहिए और वह नहीं करना चाहिए, कि यह अच्छा है और वह बुरा है। कृष्ण के लिए सब कुछ खेल बन गया है। तो हर चीज गैर-गंभीर बस खेल के अपने नियम है।
यदि तुम नियमों का पालन करते हो यह जानते हुए कि यह खेल है और इसके नियमों का पालन करना है, तो ठीक है। लेकिन यदि तुम नियमों का पालन नहीं करते हो तो उसमें कोई गलती नहीं है, असल में, तब तुम नियम पालन न करने का विपरीत खेल खेल रहे हो। यदि तुम नियमों का पालन करते हो तो आज्ञाकारिता का खेल खेल रहे हो, और यदि तुम नियमों का पालन नहीं करते तो तुम विद्रोह का खेल खेल रहे हो। लेकिन कुछ भी गलत नहीं है। तुम जो खेल खेलना चाहो, तुम्हारी मर्जी है। और यदि तुम गंभीर नहीं होते, तुम जो भी करते हो उसी में आनंदित होते हो तो तुम बुद्ध हो।
नियम होते ही इसलिए हैं क्योंकि खेल को दूसरों के साथ खेलना है। यदि तुम अकेले ही खेल रहे हो तो नियमों का कोई प्रश्न ही नहीं है; तब तुम अपने नियम जब चाहे बदल सकते हो। लेकिन क्योंकि तुम दूसरों के साथ खेल रहे हो तो नियमों का पालन करना पड़ेगा, ताकि तुम उनके साथ खेल सको। इसके पीछे और कोई कारण नहीं है। नैतिकता एक नियम है, प्रेम एक नियम है, समाज भी एक नियम मात्र है-नियमों पर सहमति हो गई है कि हम एक खेल खेल रहे हैं तो सहमत हो जाते हैं।
यदि तुम इस खेल को नहीं खेलना चाहते तो विद्रोही हो सकते हो, लेकिन इसके बाबत गंभीर मत हो जाओ। फिर विद्रोही होने का खेल खेलो। और अगर कोई तुम्हें मार देता है, तुम्हारी हत्या कर देता है या सूली पर लटका देता है, तो तुम जानते हो कि तुम विद्रोही नेता का खेल खेल रहे थे, इसीलिए तुम्हें मारा जा रहा है। उसमें कुछ भी निंदनीय नहीं है। तुम प्रतिस्थापित नियमों के साथ नहीं थे इसलिए वे नियम तुम्हारे विरुद्ध थे-बिलकुल ठीक। इसमें कुछ भी गलती नहीं है और न तुम्हें कोई शिकायत करनी है।
एक बार तुम्हें पता लग जाए कि कार्य की, उपयोगिता की, कहीं पहुंचने की, किसी लक्ष्य की धारणा ही बंधन है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम बाजार का खेल बंद कर दोगे, तुम खेल जारी रखोगे। लेकिन तुम यह जानोगे कि यह खेल है। इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम अपनी पत्नी को तलाक दे दो। तुम विवाह का खेल खेलते रहो। लेकिन भलीभांति जानते हुए कि यह एक खेल है। इसके प्रति गंभीर मत हो जाओ। और यदि तुम तलाक का खेल खेलना चाहो तो खेल सकते हो लेकिन स्मरण रखो कि उसके प्रति गंभीर नहीं होना है। तलाक या विवाह, ये सब वैकल्पिक खेल हैं; संसारी होना या संन्यासी बन जाना, सब वैकल्पिक खेल हैं। लेकिन इनके प्रति गंभीर मत होओ। प्रफुल्लित रहो, उत्सवपूर्ण रहो। और जो भी तुम चुनो वह खेल खेल सकते हो; फिर जो भी परिणाम आए, उसका स्वागत करो, क्योंकि उसमें कुछ भी गंभीर बात नहीं है।
एक बार यह बात तुम्हारी चेतना में गहरी उतर जाए-और यदि तुम ध्यान से खेलना शुरू कर दो तो यह बात गहरी उतरती जाएगी, यह ठीक शुरुआत होगी, क्योंकि ध्यान में तुम अकेले ही खेलने वाले हो। इसीलिए यह ठीक शुरुआत हो सकती है, एक उचित प्रारंभ। तुम क्योंकि अकेले खेल रहे हो इसलिए तुम समाज को भूल सकते हो, और समाज तुम्हें बाधा डालने न आएगा। ध्यान अकेले का खेल है। तुम अकेले ही खेलते हो।
तो जो भी तुम खेलना चाहते हो खेलो, लेकिन परिणाम को भूल जाओ। यदि परिणाम आ गया तो तुमने ध्यान को भी कार्य बना लिया। ध्यान को तो बस खेलो उसका आनंद लो उससे प्रेम करो। ध्यान अपने आप में ही सुंदर है। इसे सुंदर बनाने के लिए किसी और परिणाम की आवश्यकता नहीं है।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, 'हमें ध्यान में बहुत आनंद आ रहा है, लेकिन लेकिन बताइए कि इससे होगा क्या? अंतिम परिणाम क्या होगा? मैं उन्हें कहता हूं, यहीं है, अंतिम परिणाम कि तुम आनंदित हो रहे हो। और आनंद लो!' लेकिन वे कहे चले जाते हैं, 'हमें इसके बारे में कुछ तो बताइए। अंतिम परिणाम क्या होगा? हम पहुंचेंगे कहा?'
उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं है कि वे कहा हैं। उन्हें सदा इसी बात की चिंता है कि वे कहा पहुंचेंगे। मन वर्तमान में नहीं रह सकता इसीलिए भविष्य में जाने के बहाने ढूंढता रहता है। वे बहाने ही कामनाएं हैं।
तो यदि तुम भगवान होना चाहो, बुद्ध होना चाहो, तो तुम्हारा ध्यान कामना ही है ध्यान नहीं। यदि तुम्हारी कोई कामना न हो, तुम बस होने में आनंदित हो, बस जीवित होने का उत्सव मना सको, यदि अपनी तरिक ऊर्जा के खेल का आनंद ले सको-चाहे वह कल्पनाओं के साथ हो, दृश्यों के साथ हो, शून्य के साथ हो-और यदि इस आनंद के क्षण में पूरे हो सको, तभी समझना कि ध्यान हुआ। तब कोई कामना नहीं रहती। और कामना के न रहने पर संसार छूट जाता है। कामना-रहित और खेलपूर्ण मन से तुम ध्यान में प्रवेश कर जाते हो।
तुम उसमें हो ही। लेकिन बार-बार तुम्हें यह समझाना पड़ता है, क्योंकि तुम्हारा मन बड़ा अदभुत है। वह किसी भी चीज को कामना में बदल लेता है-किसी भी चीज को-वह कामना-रहितता को भी कामना में बदल लेता है। लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, 'कामना-रहित स्थिति को कोई कैसे प्राप्त करता है? कामना-रहितता को कैसे प्राप्त करें?' अब यह भी एक कामना बन गई। तुम्हारा मन एक अदभुत यंत्र है : कुछ भी उसमें डालो, कामना बनकर बाहर आ जाता है।
तो इसके प्रति सावधान रहो और वर्तमान क्षण का इतना आनंद लो कि भविष्य में गति करने के लिए कोई ऊर्जा शेष न रहे। तब, किसी भी दिन, किसी भी क्षण तुम्हारा सारा अंधकार मिट जाएगा; अचानक सब बोझ विदा हो जाएगा; अचानक तुम मुक्त हो जाओगे। लेकिन खेल पर, वर्तमान में होने पर, अभी और यहीं होने पर अधिक ध्यान होना चाहिए-भविष्य पर कम से कम।

दूसरा प्रश्न :

कल आपने कहा कि मन और स्वप्न दोनों सत्य हैं। फिर क्यों आप जैसे गुरु यह सिखाने के लिए इतना श्रम करते हैं कि मन ही एकमात्र बाधा है, मन ही एक मात्र रुकाक्ट है?
गुरु और शिष्य केवल मन का खेल हैं। तुम्हारे मन को गुरुओं की जरूरत है इसीलिए गुरु हैं। तुम्हीं उनका निर्माण करते हो। क्योंकि तुम चाहते हो कि तुम्हें कोई सिखाए इसीलिए शिक्षक हैं। तुम्हारे कारण उनकी जरूरत है।
यह एक खेल है। जब मैं कहता हूं कि विवाह एक खेल है तो यह मत सोचना कि मैं कहूंगा कि गुरु और शिष्य खेल नहीं है। यह भी खेल है। कुछ लोगों को इसमें मजा आता है इसलिए खेलते हैं। यदि तुम्हें इसमें मजा आता है तो गहरे से इसे खेलो; और यदि मजा नहीं आता तो इसे भूल ही जाओ। लेकिन यह खेल बड़ा सुंदर है। यह विवाह से भी गहरा जाता है।
यह बड़ा सुंदर, बड़ा परिष्कृत खेल है। और जब कोई संस्कृति शिखर पर पहुंचती है, तभी यह खेल विकसित होता है, उससे पहले नहीं। असल में केवल भारत में ही यह खेल विकसित हुआ। गुरु और शिष्य का यह खेल यहीं पैदा हुआ। अब पहली बार पश्चिम इसकी खोज कर रहा है, क्य्रोंकि अब पश्चिम शिखर पर पहुंच रहा है। यह सबसे ऐश्वर्यपूर्ण खेल है। यह कोई साधारण-खेल नहीं है, इसलिए केवल वही लोग इसे खेल सकते हैं जिनमें क्षमता है। और यदि तुम जानते हो कि यह एक सुंदर खेल है और तुम इसका मजा लेते हो तो तुम इसे खेल सकते हो।
लेकिन इसके प्रति गंभीर मत होओ। और यदि शिष्य गंभीर हों तो क्षमा भी किए जा सकते हैं, लेकिन जब शिक्षक गंभीर होते हैं तो बहुत अटपटा लगता है। यदि उन्हें इतना भी पता नहीं है कि यह खेल है तो उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता।
सत्य में सब खेल समाप्त हो जाते हैं, लेकिन मन के लिए तो खेलों का अस्तित्व है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम खेलना छोड़ दो, मैं केवल इतना कह रहा हूं कि तुम्हें पता होना चाहिए कि यह एक खेल है, फिर खेलना जारी रखो यदि तुम्हें मजा आता है। यदि तुम्हें मजा नहीं आ रहा हो तो इसे छोड़ दो।
एक बार तुम्हें पता लग जाए कि इस जीवन में सभी संबंध एक न एक तरह के खेल ही हैं तो तुम मुक्त हो जाते हो क्योंकि केवल गंभीरता के कारण ही तुम बंधन में हो। तुम बंधन में हो, क्योंकि तुम सोचते हो कि सब कुछ बहुत गंभीर है। कुछ भी गंभीर नहीं है। लेकिन इस संपूर्ण जीवन को खेल समझ पाना बहुत कठिन है।
यह इतना कठिन क्यों है? क्योंकि इससे अहंकार को चोट लगती है। यदि सब कुछ खेल ही है तो अहंकार खड़ा नहीं रह सकता। अहंकार को भोजन की जरूरत है। गंभीरता है उसका भोजन। अहंकार उसी से पोषित होता है। तो जब तुम शिष्य बनते हो और इसे खेलपूर्ण ढंग से लेते हो तो तुम्हारा अहंकार मजबूत नहीं हो सकता, क्योंकि तुम जानते हो कि यह बस खेल ही है।
इतना अहंकारी होने का क्या प्रयोजन है? लोग सोचने लगते हैं कि वे बड़े महान गुरु के शिष्य हैं। गुरु चाहे महान हो या न हो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, लेकिन शिष्य सोचता है, मैं महानतम गुरु का शिष्य हूं। यही बात विटामिन बन जाती है और अहंकार इससे पोषित होता है, मजबूत होता है।
इसीलिए तो शिष्य गुरुओं के बारे में लड़ते रहते हैं। कोई भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि उसका गुरु नंबर दो है वह नंबर एक ही होता है। और असली बात यह नहीं है कि तुम्हारा गुरु नंबर एक है या नहीं-यह बात ही नहीं है-असली बात तो यह है कि तुम नंबर एक केवल तभी हो सकते हो जब तुम्हारा गुरु नंबर एक हो। शिष्य का अहंकार गुरु की ऊंचाई पर निर्भर करता है। यदि कोई तुम्हारे गुरु के विरुद्ध कुछ कहता है तो तुम्हें इतनी चोट क्यों लगती है? चोट तुम्हारे अहंकार को लगती है। तुम्हारे गुरु का अर्थ है, साकार रूप में तुम्हारा अहंकार। और यदि तुम्हारे गुरु के विरुद्ध कोई कुछ कहे तो तुम सहन नहीं कर सकते। उसे सहन करना असंभव है, क्योंकि वह तुम्हारे अहंकार पर सीधी चोट है।
लेकिन शिष्यों को तो क्षमा किया जा सकता है। वे अज्ञानी हैं और वे जो भी करेंगे गलत ही होगा। वह तो ठीक है। लेकिन तथाकथित गुरु भी खेल को बहुत गंभीरता से ले लेते  हैं। वे हंस नहीं सकते; इस पूरे खेल पर हंसना उनके लिए असंभव है। कोई गुरु वास्तव में केवल तभी गुरु हो सकता है यदि वह जानता हो कि यह एक खेल ही है, कि इस पूरे खेल में वह तुम्हें जागने में सहयोग दे रहा है। और एक क्षण आएगा जब तुम भी हंस सकोगे और पीछे मुड़कर देख सकोगे। और तब तुम अहोभाव से भर जाओगे कि तुम्हारे लिए सब कुछ कितना गंभीर था और गुरु के लिए यह कुछ भी नहीं था। वह तो बस खेल को पूरी ईमानदारी से खेल रहा था और हर तरह से प्रयास कर रहा था, जैसे कि वह तुम्हें कहीं लिए जा रहा हो।
इस 'जैसे कि' को स्मरण रखना, क्योंकि तुम्हें कहीं नहीं ले जाना है। तुम्हें यहीं होना है। तो वे सब प्रयास जो लगते हैं कि तुम्हें कहीं लिए जा रहे हैं, केवल विधियां हैं। तुम्हें कहीं नहीं ले जाया जा सकता। तुम अपने घर में ही हो, घर से बाहर तुम कभी गए नहीं। तुम्हारी जड़ें यथार्थ में, सत्य में जमी हुई हैं। तो नेतृत्व के, मार्ग-निर्देश के गुरु होने के ये सब खेल केवल तुम्हें ऐसी परिस्थितियों में लाने के लिए हैं जहां तुम जाग सको। और तब तुम हंसोगे, क्योंकि तुम पाओगे कि जो भी तुम खोज रहे थे वह तुम्हारे पास ही था।
लेकिन तुम गैर-गंभीरता को नहीं समझ सकते। अहंकार वह भाषा ही नहीं जानता। हर धर्म खेल की तरह पैदा होता है और अंतत: एक गंभीर चर्च बन जाता है। हर धर्म एक नृत्य, एक गीत, एक उत्सव की तरह जन्म लेता है और अंतत: सब कुछ मुर्दा और गंभीर हो जाता है। वास्तव में धर्म गंभीर हो ही नहीं सकता। धर्म को तो आनंदपूर्ण होना चाहिए आनंद की परम अवस्था होना चाहिए। वह गंभीर कैसे हो सकता है।
ईसाई मानते हैं कि जीसस कभी नहीं हंसे। कृष्ण को देखो-तुम दोनों के बीच कोई समानता नहीं खोज सकते। ऐसा नहीं है कि जीसस ऐसे थे, लेकिन ईसाइयों ने उन्हें गंभीर बना दिया है, क्योंकि गंभीर जीसस के आस-पास ही गंभीर चर्च संभव है। और फिर पोप का यह गंभीर और बोझिल खेल शुरू होता है। जीसस जरूर एक प्रफुल्लित, हंसते, आनंद मनाते, खाते, पीते, नाचते व्यक्ति रहे होंगे। उन्होंने अवश्य ही जीवन से गहरा प्रेम किया होगा।
यही उनका पाप था। यही कारण था कि उन्हें सूली पर लटकाया गया। जिन्होंने उन्हें सूली पर लटकाया वे बड़े गंभीर लोग थे। वे पुराने स्थापित चर्च थे। असल में उन्होंने जीसस को नहीं, उनके उत्सव को सूली पर लटकाया। और यदि उन्हें सूली पर न लटकाया गया होता तो ईसाइयत पैदा नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह तो बड़े आनंदित व्यक्ति थे।
जिस क्षण यहूदियों ने उन्हें सूली पर लटकाया, सब कुछ बहुत गंभीर हो गया। मृत्यु प्रमुख हो उठी। और क्रास पर लटकी हुई आकृति निश्चित ही बहुत गंभीर है, मृत है। और इस लाश व क्रास के आस-पास ईसाइयत खड़ी हो गई। और क्रास उनका प्रतीक बन गया। न तो गांव में हंसते हुए जीसस प्रतीक बन पाए न किसी पार्टी में शराब पीते हुए न मित्रों के संग भोजन करते हुए न वेश्या के घर में ठहरे हुए।
नहीं, ये सब प्रतीक न बन सके। क्रास प्रतीक बन गया, और क्रास के साथ गंभीरता, मृत गंभीरता प्रतीक बन गई। उस क्रास और क्रास पर लटके हुए जीसस के कारण ईसाइयत जीवन के विरोध में हो गई। सब कुछ जो जीवंत है, पाप हो गया।
लेकिन हर धर्म अपने-अपने तरीके से ऐसा ही कर रहा है। जो लोग बहुत होशियार हैं वे इस तरह से नहीं करते, वे दूसरा उपाय करते हैं। हमने कृष्ण का स्वरूप नहीं बदला-भारत बड़ी परिष्कृत भूमि है, यह ऐसा नहीं कर सकती-लेकिन कृष्ण को हमने कभी अपने हृदय में स्थान नहीं दिया। ये मात्र एक सुंदर पौराणिक कथानक हैं।
गीता भागवत से अधिक महत्वपूर्ण हो गई। हिंदुओं के लिए कृष्ण का जीवन इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि युद्ध-भूमि में दिया गया उनका संदेश महत्वपूर्ण है। क्यों? क्योंकि वह गंभीर बात है। युद्ध-भूमि जीवन की अपेक्षा मृत्यु के अधिक निकट है। कृष्ण का जीवन तो बहुत जीवंत है, लेकिन वह कहानी बन गया है और कोई उसकी फिक्र नहीं करता। युद्ध-भूमि में कहे गए उनके थोड़े से शब्द उनके पूरे जीवन से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। और ऐसे पंडित हैं जो समझाते हैं कि उनका जीवन तो केवल प्रतीक मात्र है, वास्तविक नहीं। गोपियों के साथ उनका रास रचाना कोई सच्ची घटना नहीं है, गोपियां तो बस इंद्रियों की प्रतीक है। वे मांस-मज्जा वाली वास्तविक नारियों नहीं हैं, बस प्रतीक हैं। और ऐसी चालबाजियां करने में पंडित बहुत होशियार हैं। वे कहते हैं, कृष्ण हैं आत्मा और शरीर की इंद्रियां हैं गोपियां, इंद्रियां आत्मा के चारों ओर नाच रही हैं।
यह एक परिष्कृत देश है। यहां कृष्ण की हत्या की गई, कृष्ण को सूली पर लटकाया गया, परंतु बड़े सुसंस्कृत तरीके से। उनके उत्सव की हत्या कर दी गई, वह प्रतीक मात्र हो गया और निरर्थक हो गया। उनके पूरे वास्तविक जीवन को एक ओर धकेल दिया गया।
वह सचमुच की स्त्रियों के साथ नाचते थे, लेकिन हमारे लिए यह सोच पाना बहुत कठिन है कि कृष्ण स्त्रियों के साथ नाचते थे। हम उन्हें प्रतीक स्त्रियों के साथ नाचने की आज्ञा तो दे सकते हैं परंतु वास्तविक स्त्रियों के साथ नहीं। उससे हम चौंक जाएंगे। जीवन हमें चौंका देता है। हम इतने मुर्दा हो गए हैं कि कोई भी जीवंत चीज हमें चौंका देती है।
हर धर्म उत्सव में पैदा होता है। और जब उत्सव मर जाए तो जानना कि धर्म मर चुका। जब भी कोई नया धर्म पैदा होता है, पुराने धर्म उसके विरुद्ध हो जाएंगे, क्योंकि उसमें उत्सव है। ऐसे ही जैसे जब कोई बच्चा पैदा होता है तो खेलता हुआ, उत्सव मग्न, जीवंत होता है। वह भविष्य में नहीं, अभी और यहीं जीता है। पूरा समाज उसके विरुद्ध होगा; सारा समाज उसको सही रास्ते पर लगाने का प्रयास करेगा। इससे पहले कि वह भटक जाए उसे सही रास्ते पर लाना ही होगा। ऐसा ही हर नए धर्म के साथ होता है।
तो जब मैं ध्यान को एक नृत्य कहता हूं और संन्यास को मैं एक तरिक उत्सव और उल्लास कहता हूं तो स्वभावत: पुराने ढंग के संन्यासी कहेंगे कि यह क्या है? आप इसे संन्यास कहते हैं? और एक तरह से वे सही भी हैं, क्योंकि जिस सब को वे संन्यास मानते रहे हैं, यह संन्यास वह नहीं है। वे लोग मुर्दा मनुष्य में विश्वास करते रहे हैं। जितना अधिक कोई मुर्दा हो उतना ही वे कहेंगे कि अब हुआ असली त्याग! जीवन के त्याग को वे संन्यास कहते हैं। लेकिन मैं जीवन को समग्रता में जीने को संन्यास कहता हूं।
लेकिन ऐसा हमेशा ही होगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम इस सब को गंभीर बना 'लोगे, तुम व्याख्याएं करोगे कि असली अर्थ क्या है। लेकिन असली अर्थ तो सदा स्पष्ट होता है। उसके लिए किसी व्याख्या की जरूरत नहीं होती। हर व्याख्या का मतलब होता है, वह अर्थ देना जा उसके मूल में नहीं था।
गुरु-शिष्य, ज्ञानी-अज्ञानी, यह सब एक विराट खेल है, जागतिक खेल है। अज्ञानियों को ज्ञानियों की आवश्यकता है; न ही ज्ञानी अकेले खेल सकते हैं, उन्हें अज्ञानियों की आवश्यकता है। पर गुरु जानता है कि यह एक खेल है और वह इसके प्रति गंभीर नहीं होता।

तीसरा प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि बाह्य और आंतरिक तथा शारीरिक और मानसिक आयामों में परिवर्तन चेतना में परिवर्तन ला सकता है। इक्का अर्थ हुआ कि परिधि पर हुए परिवर्तन भी चेतना पर प्रभाव डालते है जो कि केंद्र है। लेकिन फिर आप बाह्म परिधि की उपेक्षा  केंद्र को बतलाने पर क्यों जोर देते हैं?
यही कठिनाई है तुम शब्दों को पकड़ लेते हो और अर्थ को चूकते चले जाते हो।
परिधि भी तुम्हारी ही है; केंद्र का ही एक अंग है। परिधि केंद्र का ही अंग है, उसका बाह्य भाग है लेकिन उससे भिन्न नहीं है। केंद्र के बिना क्या तुम परिधि पैदा कर सकते हो? या तुम परिधि के बिना केंद्र पैदा कर सकते हो? दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं, एक ही हैं। परिधि है बाहर की ओर से देखा गया केंद्र। यदि तुम अपनी परिधि को बदलो तो केंद्र पर भी दो कारणों से प्रभाव पड़ेगा : पहला, परिधि केंद्र का ही अंग है; और दूसरा, परिधि को केंद्र के सिवाय कौन बदल सकता है? परिधि को कौन बदलेगा? परिधि को केंद्र ही बदलेगा।
लेकिन केंद्र से कार्य शुरू करने पर अभी भी मेरा जोर है, क्योंकि यदि परिधि को बदलना शुरू करते हो तो केंद्र तक पहुंचने में थोड़ा अधिक समय लगेगा। जो एक क्षण में हो सकता है उसमें कई जन्म लग सकते हैं क्योंकि तुम्हें परिधि से केंद्र तक की यात्रा करनी होगी, सतह से गहराई की ओर जाना पड़ेगा। यदि तुम केंद्र से कार्य शुरू करते हो तो परिधि स्वत: ही बदल जाती है। जब केंद्र रूपांतरित होगा तो परिधि उसका अनुसरण करेगी, क्योंकि परिधि तुमसे अन्यथा नहीं जा सकती।
उदाहरण के लिए, मैं तुम्हें परिधि पर अहिंसा साधने को नहीं कहूंगा, यह समय और ऊर्जा का अपव्यय है। हृदय से अहिंसक होओ, हृदय को प्रेम और करुणा से भरो-और परिधि अनुसरण करेगी। परिधि को तो तुम बिलकुल भूल सकते हो, क्योंकि वहां जो भी होता है वह केंद्र से ही आता है। यदि केंद्र करुणा से भरा है तो परिधि उसका अनुसरण करेगी। और यह करुणा बिलकुल भिन्न होगी। क्योंकि परिधि को पता ही नहीं होगा कि यह करुणा है, परिधि इस करुणा के कारण गर्व से न भर जाएगी; वह तो आनंदित होगी और अनभिज्ञ होगी, करुणा छाया की भांति अनुसरण करेगी। यह सरलतम मार्ग है।
मेरा अर्थ यह है कि यदि तुम किसी वृक्ष को बदलना चाहते हो तो उसकी जड़ों को बदल दो। निश्चित ही, वृक्ष की पत्तियां भी वृक्ष हैं और तुम पत्तियों को बदलने का प्रयास भी कर सकते हो। यदि तुम पत्तियों को बदलो तो जड़ों पर भी प्रभाव पड़ेगा, लेकिन यह बहुत  लंबी प्रक्रिया हो जाएगी। क्योंकि ऊर्जा का प्रवाह जड़ों से पत्तियों की ओर है, पत्तियों से जड़ों की ओर नहीं। तुम प्रकृति से विपरीत दिशा की ओर चल रहे हो। यदि तुम पत्तियों को बदलते ही चले जाओ तो जन्मों-जन्मों में हो सकता है तुम वृक्ष को बदल पाओ परंतु यह व्यर्थ ही इतनी लंबी प्रक्रिया होगी। यदि तुम जड़ों को बदल दो तो वही काम इसी क्षण कर सकते हो। पत्तियों स्वयं ही बदल जाएंगी और भिन्न हो जाएंगी।
तो जब मैं केंद्र पर जोर देता हूं तो मेरा यह अर्थ नहीं है कि केंद्र परिधि से अलग है। और जब मैं केंद्र पढ़? जोर देता हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम केंद्र को प्रभावित नहीं कर सकते-कर सकते हो, लेकिन यह बहुत लंबा मार्ग है। यदि तुम लंबा मार्ग चुनना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी है। उसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि तुम्हें यात्रा में आनंद आता है तो लंबा मार्ग भी ठीक है। यदि तुम मार्ग के दृश्यों का आनंद लेना चाहते हो तो लंबा मार्ग सही है। वरना केंद्र से ही शुरू करो।
यह ऐसे है तुम यहां बैठे हो और मुझे सुन रहे हो; तो इस कमरे में एक केंद्र निर्मित हो गया है-तुम परिधि बन गए, मैं केंद्र बन गया 1 एक समूह-आत्मा बन गई। तुम मेरी ओर केंद्रित हो। यदि कोई इस कमरे को और इस समूह-आत्मा को प्रभावित करना चाहता है तो बेहतर होगा कि वह तुम्हारी अपेक्षा मुझसे शुरू करे। क्योंकि यदि मेरा मन बदलता है तो प्रभाव जल्दी होगा, लेकिन यदि कोई तुमसे आरंभ करे तो बहुत लंबा प्रयास होगा। क्योंकि पहली बात तो यह है कि तुम कई हो और उसे एक-एक करके पहले तुम सबको बदलना पड़ेगा, और फिर वह तुम्हारे द्वारा मुझे बदलने का प्रयास करेगा। यह बहुत लंबा भी हो सकता है और हो सकता है कि कभी सफल भी न हो। दूसरी बात अधिक सरल है। यदि वह मुझे बदल दे और तुम केंद्र की तरह मुझसे जुड़े हो तो तुरंत प्रभाव होने लगेंगे।
तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे मूल स्वरूप में भी यही हो रहा है। वहां केंद्र भी है और तुम्हारे जीवन की परिधि भी है। केंद्र पर सीधी चोट पड़ते ही परिधि अनुसरण करेगी, उसे अनुसरण करना ही पड़ेगा और कोई उपाय ही नहीं है। परिधि को बदलना बड़ा फुटकर कार्य है। तुम एक खंड को बदल लेते हो और निन्यानबे खंड पुराने ही रहते हैं; फिर जब तुम दूसरे खंड की ओर बढ़ोगे तो वे निन्यानबे मिलकर पहले को बदल लेंगे वे उसे .फिर पुराने ढर्रे में लौटा लेंगे। सारा ढंग ही उसके विरुद्ध होगा।
मैं तुम्हारी एक आदत को बदल सकता हूं-उसमें भी बहुत प्रयास की जरूरत होगी-लेकिन सारा ढांचा नहीं बदला जा सकता, क्योंकि केंद्र तुम्हारी पुरानी आदतें दिए चला जाता है। मैंने एक आदत बदल भी ली तो और हजारों आदतें हैं। यह बदली हुई आदत केवल ऊपर से थोपी हुई है। जिस क्षण तुम अचेत होते हो दूसरी सब आदतें और सारे ढाचे मिलकर उसे वापस पुराने ढर्रे में लौटा लाएंगे। तो परिधि पर कार्य करने में बहुत सा प्रयास व्यर्थ जाता है।
मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो छोटी-छोटी चीजों पर जीवनभर लगे रहते हैं। उदाहरण के लिए कोई जीवनभर धूम्रपान छोड़ने की कोशिश ही करता रहता है, वही उसका एकमात्र लक्ष्य है, फिर भी वह उसमें सफल नहीं हो पाता। ऐसे लोगों से मैं पूछता हूं कि यदि तुम इसमें सफल भी हो गए तो क्या पाया? पूरा जीवन धूम्रपान छोड़ने में ही व्यर्थ हो गया, इतना तो उसका मूल्य नहीं। जब तुम उस परम स्रोत, परमात्मा, के पास पहुंचोगे तो केवल यही कह पाओगे कि तुमने धूम्रपान छोड़ दिया है। यह तो कुछ बताने जैसा न होगा। और सारा जीवन तुमने धूम्रपान छोडने में बिताया फिर भी छोड़ न पाए।
यह फुटकर कार्य है। और समस्या धूम्रपान की नहीं है। तुम एक छोटी सी लहर को बदलकर पूरी नदी से लड़ रहे हो, और पूरी नदी बहती चली जाती है। यदि तुम एक लहर को बदल भी लो तो पूरी धारा उस लहर को वापस अपने जैसा बना लेगी, क्योंकि एक स्वभावगत ढांचा, एक अंतर्निहित संरचना निरंतर केंद्र से परिधि की ओर प्रवाहित हो रही है। यह अंतर्निहित प्रक्रिया है। परिधि पर जो भी हो रहा है, वह केंद्र पर पहले ही हो चुका है। इसी कारण परिधि पर कुछ हो रहा है। परिधि तक उन चीजों की सूचना पहुंचती है जो बहुत गहरे में घटित हो रही हैं।
तो कारण की तलाश करो और लक्षणों की अधिक चिंता न लो। यह वैज्ञानिक है। केंद्र को बदलो। यह प्रयास मत करो कि धूम्रपान छूट जाए, यह छूट जाए, वह छूट जाए-गहरे में उतरो। धूम्रपान क्यों है? काम के प्रति यह मोह क्यों है? धन के प्रति यह मोह क्यों है? तुम कंजूस क्यों हो? तुम मुर्दा धन से क्यों चिपके हो? तुम उसे दान दे सकते हो, उससे कोई अंतर न पड़ेगा। दान देने से कुछ हल न होगा। तुम फिर इकट्ठा कर लोगे। और दान देना ही भविष्य के लिए तुम्हारी पूंजी हो जाएगा, तुम्हारे बैंक बैलेंस का हिस्सा हो जाएगा। तुम खेल-खेल में नहीं दे सकते; या कि दे सकते हो? तुम बड़ी गंभीरता से दान दे सकते हो। जब तुम्हें कहा जाए कि दान से तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, तब तुम दान दे सकते हो।
मेरे देखे जो व्यक्ति भविष्य में स्वर्ग पाने की चाह के कारण दान दे रहा है वह उस व्यक्ति से भी अधिक धन से जुड़ा है जो ताश के खेल में अपना भाग्य दांव पर लगा रहा है। वह व्यक्ति कम लालची है। वह धन से खेल सकता है, और उसकी उपलब्धि अधिक गहरी है। हो सकता है वह अनैतिक लगे क्योंकि नैतिकता तो दानियों ने बनाई है। वे कहेंगे, 'तुम धन व्यर्थ गंवा रहे हो।’
वे कभी धन व्यर्थ नहीं गंवाते, वे पूंजी में लगाते हैं। और यह व्यक्ति पागल है, पापी है, धन व्यर्थ गंवा रहा है। लेकिन यह व्यक्ति कम लालची है, और यह उस लालची व्यक्ति से अधिक सरलता से गहराई में उतर सकता है जो स्वर्ग पाने के लिए दान दे रहा है।
तो तुम बाहरी चीजें बदल सकते हो लेकिन उस बदलाव का भी गहराई में ढांचा वही रहेगा। उस ढांचे को ही उखाड़ देना है, रूपांतरित कर देना है। इसीलिए मैं केंद्र से शुरुआत करने पर जोर देता हूं। लेकिन ऐसा मत सोचो कि मेरा यह अर्थ है कि यदि तुम केंद्र से शुरू नहीं कर सकते तो परिधि से भी शुरू मत करो। मेरा यह अर्थ नहीं है। यदि तुम केंद्र से शुरू नहीं कर सकते तो कृपया परिधि से ही शुरू करो। कुछ न करने से तो कुछ करना बेहतर ही है। हालांकि इसमें बहुत समय लगेगा और हो सकता है तुम उसे कभी न कर पाओ, पर प्रयास का अपना ही सौंदर्य है।
मुझे एक घटना का स्मरण आता है। एक हवाई अड्डे के प्रतीक्षालय में एक युवती लगातार रो रही थी। आस-पास के सभी लोग देख रहे थे पर कोई समझ नहीं पा रहा था कि क्या करें। फिर एक आदमी ने साहस किया। वह उस युवती के पास पहुंचा, उसको सांत्वना देते हुए भली-भली बातें कहने लगा। फिर वह उसके गले में हाथ डालकर बोला, 'तुम्हें चुप कराने के लिए क्या मैं कुछ कर सकता हूं?' लेकिन वह सुनी नहीं, वह रोती रही। उसने थोड़ा और कसकर दबाकर कहा, 'तुम्हारा रोना बंद करने के लिए क्या मैं कुछ कर सकता हूं?' अंतत: वह युवती बोली, 'मुझे नहीं लगता है कि आप कुछ कर सकते हैं, क्योंकि मुझे जुकाम है। फिर भी कृपया कोशिश करते रहिए!'
यही मैं भी तुमसे कहता हूं। ऊपर से तो कठिन लगेगा, क्योंकि यह भी जुकाम जैसा ही है। चाहे यह कान-करीब असंभव ही है, लेकिन प्रयास करते रहो। हो सकता है कुछ हो जाए। कौन जानता है? लेकिन यदि तुम सच में ही उत्सुक हो तो केंद्र से शुरू करो।

चौथा प्रश्न :

स्त्रियों और पुरुषों की विधियों में कोई अंतर क्यों होना चाहिए?
क्योंकि वे दोनों भिन्न हैं। दोनों पूरी तरह भिन्न हैं। विपरीत ध्रुव हैं। असल में, अधिक सही प्रश्न तो यह होगा : स्त्रियों और पुरुषों के लिए एक सी विधियां क्यों हैं?
ऐसी विधियां हैं जो स्त्री और पुरुष दोनों उपयोग करते हैं, इसलिए नहीं क्योंकि वे स्त्रियों के अनुकूल हैं, बल्कि इसलिए कि उनके लिए कोई विशेष विधियां विकसित ही नहीं हुईं। वे सदा से मनुष्यता का उपेक्षित अंग रही हैं। सब विधियां पुरुषों द्वारा विकसित हुई थीं। मूलत: पुरुष अपने ऊपर ही प्रयोग कर रहा था : वह अपनी ऊर्जा के प्रारूप, ऊर्जा-पथ के विषय में जानता था। उस पर उसने कार्य किया। और फिर वह दूसरे पुरुषों से बोल रहा था। तो सारी विधियों पुरुषों द्वारा ही विकसित की गईं, स्त्रियों के बाबत कभी नहीं सोचा गया।
स्त्रियां मस्जिद में प्रवेश नहीं कर सकतीं। असल में वे इस्लाम का हिस्सा ही नहीं हैं : मस्जिद पुरुषों के लिए है। कई वर्षों तक बुद्ध आग्रहपूर्वक स्त्रियों को दीक्षित करने से मना करते रहे। महावीर ने कई स्त्रियों को दीक्षित किया, उन्होंने कभी दीक्षा देने से इनकार तो नहीं किया, पर स्त्रियों के लिए अलग से कोई विधि विकसित नहीं की। सभी विधियां पुरुषों के लिए थीं। स्त्रियां उन्हीं से प्रयोग करती रहीं। इसीलिए तो उनके कभी चमत्कारिक प्रभाव नहीं हुए। बस जैसे-तैसे ही, ऐसा तो होना ही था।
असल में तीन सौ धर्मों की इस संसार में कोई जरूरत नहीं है, केवल दो धर्मों की जरूरत है : एक पुरुषों के लिए और एक स्त्रियों के लिए। और इन दोनों धर्मों में आपस में किसी संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं है, दोनों का आपस में परिणय हो सकता है। वे दोनों एक हो जाएंगे, संघर्ष की कोई जरूरत ही नहीं है। जब स्त्री और पुरुष प्रेम में पड़कर एक इकाई की तरह जी सकते हैं तो ये दोनों धर्म भी प्रेम में पड़ सकते हैं-पड़ना ही चाहिए।
स्त्रैण चेतना की सारी तहें, सारा मनोविज्ञान, सारी मानसिकता पुरुष से भिन्न है; भिन्न ही नहीं, बल्कि विपरीत है। उदाहरण के लिए, कुंडलिनी योग। यह स्त्रियों के लिए बिलकुल नहीं है। लेकिन जब मैं यह कहूंगा तो बहुत लोग चौंकेंगे। और खासकर तो स्त्रियां चौंकेंगी। वे सोचेंगी उनके हाथ से जैसे कुछ छिन गया। कुंडलिनी योग स्त्रियों के लिए नहीं है, क्योंकि वह पुरुष के धनात्मक केंद्र पर आधारित है। वह केंद्र शिश्न के ठीक नीचे है। यह पुरुषों के' लिए है, स्त्रियों के लिए नहीं। स्त्रियों के लिए तो वह केंद्र ऋणात्मक है और ऋणात्मक केंद्र से ऊर्जा नहीं ऊर्ध्वगमन नहीं होता, ऋणात्मक केंद्र से ऊर्जा नहीं उठ सकती।
तो करीब-करीब हमेशा ही ऐसा होता है—ऐसा मेरा अनुभव है—कि जब भी स्त्रियां कहती हैं कि वे कुंडलिनी को उठता हुआ अनुभव कर रही हैं तो वे केवल कल्पना कर रही होती हैं। ऐसा हो तो नहीं सकता, लेकिन वे बहुत कल्पनाशील होती हैं, पुरुषों से अधिक कल्पनाशील होती हैं। तो यदि मैं दस स्त्रियों और दस पुरुषों के साथ प्रयोग करूं तो नौ स्त्रियों को ऊर्जा उठती हुई अनुभव होगी, जब कि केवल एक ही पुरुष को यह अनुभव होगा। यह चमत्कार है, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता! मेरे पास वे आ जाती हैं और मैं कहता हूं 'ठीक है, हो रहा है। ' क्या कर सकते हैं? यह असंभव है, वैज्ञानिक रूप से असंभव है, क्योंकि ऊर्जा धनात्मक ध्रुव से ही गति करती है।
तो बिलकुल भिन्न विधियां विकसित होनी चाहिए बिलकुल भिन्न! लेकिन पुरुष और स्त्रियां इतने पास-पास रहते हैं कि वे भूल जाते हैं कि वे भिन्न हैं। दोनों में कुछ भी समान नहीं है। और अच्छा है कि कुछ भी समान नहीं है, इसी कारण तो वे ऊर्जा का एक वर्तुल बन पाते हैं, दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं, एक-दूसरे में समा जाते हैं। लेकिन इस समा जाने का अर्थ यह नहीं है कि वे समान हैं, वे इसीलिए समा पाते हैं क्योंकि वे समान नहीं हैं।
और जब भी दो समान तरह के शरीर और मन एक-दूसरे में समाने का प्रयास करते हैं तो वह विकृति हो जाती है। इसीलिए मैं समलैंगिकता को विकृति कहता हूं। पश्चिम में अब यह बहुत प्रचलित हो गई है। अब समलैंगिक स्वयं को बड़े विकासशील समझते हैं : उनके अपने क्लब हैं, पार्टियां हैं, संस्थान हैं, पत्रिकाएं हैं, प्रचार इत्यादि के साधन हैं। और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। कई देशों में तो उनकी संख्या चालीस प्रतिशत तक हो गई है। देर-अबेर समलैंगिकता सभी जगह एक आम बात हो जाएगी, सामान्य जीवन-शैली हो जाएगी।
अब तो अमेरिका के कई राज्यों में समलैंगिक विवाहों को मान्यता भी मिलने लगी है। यदि लोग आग्रह करें तो सरकार को स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि उसे तो लोगों की सेवा करनी है। यदि दो पुरुष आपस में विवाह करना चाहते हैं तो किसी को व्यवधान डालने की क्या पड़ी है! ठीक है। यदि दो स्त्रियां विवाह करके एक साथ रहना चाहती हैं तो किसी को क्या पड़ी है! उनकी अपनी बात है।
लेकिन मूलत: यह बात अवैज्ञानिक है। उनकी अपनी बात है, पर अवैज्ञानिक है। यह उनकी अपनी बात है और किसी को हस्तक्षेप करने की जरूरत भी नहीं है, परंतु वे मानव ऊर्जा और उसकी गति के मौलिक प्रारूप से अनजान हैं। समलैंगिक कभी आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते। यह बहुत कठिन है। उनकी ऊर्जा-प्रवाह की पूरी संरचना ही बिगडू गई है, पूरी प्रक्रिया विकृत हो गई है। और अब यदि संसार में समलैंगिकता अधिक बढ़ती है तो उन्हें ध्यान की ओर ले जाने के लिए ऐसी विधियां विकसित करनी पड़ेगी जैसी पहले कभी नहीं थीं।
जब मैं कहता हूं कि पुरुष और स्त्री एक पूर्ण के दो विपरीत अंग हैं तो मेरा यह अभिप्राय है कि वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। और उनका परिपूरक होना केवल तभी संभव है जब उनके विपरीत ध्रुव मिलें। इसकी इस तरह देखो : स्त्री के शरीर में योनि ऋणात्मक ध्रुव है और स्तन धनात्मक ध्रुव हैं। यह एक चुंबक है : स्तनों के निकट धनात्मक ध्रुव और योनि के निकट ऋणात्मक ध्रुव। पुरुष के लिए ऋणात्मक ध्रुव स्तनों पर होता है और जननेंद्रिय पर विधायक ध्रुव होता है। तो जब पुरुष और स्त्री के स्तन मिलते हैं तो ऋणात्मक
और धनात्मक ध्रुवों का मिलन होता है; और जब काम-केंद्रों का संभोग में मिलन होता है तो भी ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुवों का मिलन होता है।’अब दोनों चुंबक अपने विपरीत ध्रुवों पर मिल रहे हैं अब वर्तुल बन गया-ऊर्जा बह सकती है, गति कर सकती है।
लेकिन यह दुर्वल केवल तभी बन पाएगा जब स्त्री और पुरुष प्रेम में हैं। यदि वे प्रेम में नहीं हैं तो केवल उनके काम-केंद्रों का मिलन होगा, एक धनात्मक ध्रुव दूसरे ऋणात्मक ध्रुव से मिलेगा। ऊर्जा का आदान-प्रदान तो होगा, परंतु वह रेखाबद्ध होगा, वर्तुल नहीं बन पाएगा। यही कारण है कि प्रेम के बिना तुम कभी तृप्त नहीं हो पाते। बिना प्रेम के संभोग केवल व्यर्थ का खेल रह जाता है। कोई गहरी गति नहीं हो पाती। ऊर्जा गति करती है, लेकिन एक सीधी रेखा में-ऊर्जा का वर्तुल नहीं बनता। और जब तक वर्तुल न बने तुम एक नहीं हो सकते। जब तुम गहन प्रेम में डूबकर संभोग में उतरते हो तो स्तनों का भी मिलन होता है, अन्यथा नहीं।
इसलिए संभोग तो बहुत सरल है, लेकिन प्रेम जरा कठिन बात है। संभोग तो बस शारीरिक है, दो ऊर्जाएं मिलती हैं और शक्ति का अपव्यय होता है। इसलिए यदि केवल काम-वासना हो तो देर-अबेर तुम ऊब जाओगे : बस शक्ति व्यर्थ जाती है और मिलता कुछ भी नहीं। मिलता तो कुछ तभी है जब वर्तुल बनता है। यदि परिपूर्ण वर्तुल बन जाए तो दोनों प्रेमी संभोग के बाद अधिक ऊर्जावान, अधिक जीवंत और अधिक शक्ति-पूरित हो जाएंगे। यदि केवल संभोग ही हो तो दोनों ही स्खलित और क्षीण अनुभव करेंगे। उनकी ऊर्जा नष्ट हुई है। उनको नींद आ जाएगी, क्योंकि वे कमजोरी महसूस करेंगे।
इस एक ध्रुवीय मिलन में पुरुषों को स्त्रियों से अधिक नुकसान होता है। इसी कारण तो स्त्रिया वेश्याएं बन सकती हैं, क्योंकि पुरुष धनात्मक ध्रुव है और स्त्री ऋणात्मक ध्रुव है। ऊर्जा पुरुष से स्त्री की ओर बहती है, स्त्री से पुरुष की ओर नहीं। तो एक स्त्री एक रात में बीस से तीस बार संभोग में उतर सकती है, पुरुष नहीं, पुरुष तो दो बार भी नहीं उतर सकता। यह उम्र पर निर्भर करता है कि कैसे उसकी ऊर्जा बह रही है क्योंकि मिल तो कुछ भी नहीं रहा।
तो मेरे देखे यदि वेश्यावृत्ति बुरी है तो वेश्यावृत्ति के कारण नहीं, बल्कि इसलिए बुरी है कि उसमें वर्तुल नहीं बन पाता। तुम ऊर्जा से नहीं भर पाते। तुम्हारी शक्ति का हास होता है। यदि प्रेम है तो पुरुष और स्त्री दो ध्रुवों पर मिलते हैं। पुरुष स्त्री को देता है और स्त्री पुरुष को वापस लौटा देती है। यह पारस्परिक आदान-प्रदान है।
स्त्रियों के लिए वह ध्यान अच्छा होगा जो स्तनों से शुरू हो, वह उनका धनात्मक ध्रुव है। इसके कारण बहुत कुछ अदभुत एवं असंभावित घटित होता है। पुरुष सदा एकदम से स्त्री में प्रवेश करना चाहता है। वह पूर्व-क्रीड़ा में फोर-प्ले में उत्सुक नहीं होता, क्योंकि उसका धनात्मक ध्रुव सदा तैयार रहता है। और स्त्रियों सदा ही बिना किसी पूर्व-क्रीड़ा के संभोग में उतरने से झिझकती हैं, क्योंकि उनका ऋणात्मक ध्रुव तैयार नहीं होता। और वह तैयार हो भी नहीं सकता। जब तक पुरुष स्त्री के स्तनों से प्रेम करना शुरू नहीं करता, ऋणात्मक ध्रुव तैयार नहीं होगा। वे राजी तो हो जाती हैं, लेकिन उसका सुख नहीं ले पातीं।
और पुरुष सोचता है कि संभोग का कृत्य, रतिक्रिया बड़ी सरल है। समय क्यों व्यर्थ करना? स्त्री में एकदम से प्रवेश करके कुछ ही पलों में वह स्खलित हो जाता है। लेकिन उसमें  स्त्री सम्मिलित न सकी, वह तैयार ही न थी।
इसीलिए तो स्त्रियों को चाह होती है कि उनके प्रेमी उनके स्तनों को स्पर्श करें। यह एक गहन चाह है। जब उनके स्तन ऊर्जा से भर उठते हैं केवल तभी उनके चुंबकीय दंड का दूसरा ध्रुव जो कि धनात्मक है, प्रतिवेदित होता है। तब वे इसमें जीवंत हो सकती हैं, भाग ले सकती हैं तब संप्रेषण हो सकता है-और तब दोनों विलीन हो सकते हैं। पूर्व-क्रीड़ा अत्यंत आवश्यक है।
विवाह रसहीन हो जाते हैं, क्योंकि शुरू-शुरू में तो जब तुम एक नई स्त्री से मिलते हो तो पहले उसके शरीर के साथ खेलते हो तुम्हें पक्का नहीं होता कि वह सीधे ही तुम्हें प्रवेश करने देगी या नहीं, इसलिए तुम खेलते हो। तुम केवल उसे तैयार करने के लिए भूमिका बनाते हो। लेकिन जब वह तुम्हारी पत्नी हो जाती है तो तुम समझने लगते हो कि वह तो सदा ही उपलब्ध है पूर्व-कीड़ा की कोई जरूरत नहीं है। पत्नियां अपने पतियों से इतनी अतृप्त इसलिए नहीं होतीं क्योंकि वे उन्हें प्रेम नहीं करते, बल्कि इसलिए होती हैं क्योंकि वे उन्हें गलत तरीके से प्रेम करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि स्त्री बिलकुल अलग ढंग से जीती है, उसका शरीर उनसे बिलकुल भिन्न, उनसे बिलकुल विपरीत ढंग से व्यवहार करता है।
स्तनों पर यह अवधान, उनमें विलीन हो जाना, स्त्री को ध्यान में नया अनुभव देगा, अपने शरीर के प्रति एक नया अनुभव होगा, क्योंकि अब वह उस केंद्र से पूरे शरीर को स्पंदित होता हुआ अनुभव कर सकेगी। केवल स्त्री के स्तनों को प्रेम करके ही उसे एक गहन आर्गाज्य, सुख के शिखर अनुभव पर लाया जा सकता है, क्योंकि ऋणात्मक ध्रुव स्वत: प्रतिसंवेदित हो जाता है।
और भी कई बातें हैं। यदि तुम स्तनों पर ध्यान एकाग्र करना शुरू करो तो उस मार्ग का अनुसरण मत करो जो तुमने किताबों में पढ़ा है क्योंकि वह पुरुषों के लिए है। किसी नकशे का अनुसरण मत करो, ऊर्जा को स्वयं ही गति करने दो। यह इस प्रकार घटित होगा : केवल थोड़े से सुझाव से ही तुम्हारे स्तन ऊर्जा से भर उठेंगे, ऊर्जा संप्रेषित करने लगेंगे, ऊष्ण हो जाएंगे और तत्क्षण तुम्हारी योनि प्रतिसंवेदित होगी। और तुम्हारी योनि के प्रतिसंवेदना से स्पंदित होने के बाद ही तुम्हारी कुंडलिनी कार्य करना शुरू करेगी। मार्ग अलग होगा और कुंडलिनी अलग तरह से जगेगी।
पुरुष में कुंडलिनी बड़े सक्रिय रूप से, बलपूर्वक जागती है। इसी कारण तो वे इसे सर्प का जागना कहते हैं। बलपूर्वक अचानक एक झटके से सर्प अपनी कुंडली खोल लेता है और कई बिंदुओं पर इसका अनुभव होता है। उन बिंदुओं को चक्र कहते हैं। जब भी कहीं प्रतिरोध होता है तो सर्प बलपूर्वक अपना मार्ग बनाता है। जैसे शिश्न योनि में प्रवेश करता है, वैसा ही मार्ग पुरुष के भीतर है। जब ऊर्जा उठती है तो वह ऐसी है मानो शिश्न भीतर गति कर रहा है।
और सर्प लिंग का प्रतीक है। वास्तव में, सीधे-सीधे इसे पुरुष जननेंद्रिय न बोलना पड़े, इसलिए उन्होंने इसे सर्प कहा है। तुमने कहानी सुनी होगी कि अदन के बगीचे में सर्प ने ईव को शान का फल खाने के लिए फुसलाया था। अब अनुसंधानकर्ता इस बात पर खोज कर रहे हैं कि वह सर्प भी बस जननेंद्रिय का ही प्रतीक है, जिसका उपयोग केवल इसलिए किया गया है कि सीधा-सीघा न कहना पड़े। असल में यह ज्ञान का फल खाने का सवाल है; यह कामुकता का प्रश्न है।
यही प्रतीक भारत में प्रयोग हुआ है : सर्प ऐसे जगता है जैसे जननेंद्रिय जाग्रत होती है, झटके से, और भीतर गति करती है।
स्त्री को ऐसा अनुभव नहीं होगा। उसका अनुभव बिलकुल विपरीत होगा, उसे ऐसा अनुभव होगा जैसा उसे पुरुष जननेंद्रिय के योनि में प्रवेश करने पर होता है-विलीन होने की अनुभूति, स्वागत का भाव, योनि खुलती हुई, स्पंदित होती, माधुर्य, ग्राहकता और प्रेमपूर्ण स्वागत-ऐसी ही घटना भीतर घटेगी। जब ऊर्जा जगती है तो वह ग्रहणशील और विश्रांत होगी, जैसे कि कोई मार्ग खुल रहा हो-वह सर्प के जागने जैसी घटना नहीं होगी, बल्कि एक मार्ग, एक द्वार के खुलने और मार्ग देने जैसी घटना होगी। यह पैसिव और निगेटिव घटना होगी। पुरुषों के साथ ऐसा होता है जैसे कुछ प्रवेश कर रहा हो; स्त्रियों के साथ ऐसा नहीं होता जैसे कि कुछ प्रवेश कर रहा हो, बल्कि ऐसा होता है जैसे कि कुछ खुल रहा हो।
लेकिन पहले किसी ने इस पर कार्य नहीं किया, क्योंकि किसी ने स्त्रियों को कोई महत्व ही नहीं दिया। लेकिन भविष्य के लिए, मैं सोचता हूं कि अब यह अत्यंत आवश्यक है कि स्त्री के शरीर की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, बहुत कार्य और शोध की जरूरत है, लेकिन नैतिकतावादी और आदर्शवादी बकवासों के कारण वह कार्य कठिन है। स्त्रैण शरीर इस घटना में किस प्रकार प्रतिवेदित होगा, इस पर कार्य करना और इसकी एक रूप-रेखा तैयार करना बड़ा दुरूह कार्य है।
लेकिन मैं सोचता हूं कि ऐसा ही यह होगा : सब कुछ बिलकुल विपरीत होगा। ऐसा ही होना चाहिए। एक समान तो हो ही नहीं सकता। लेकिन आत्यंतिक घटना एक ही होगी।

आज इतना ही।



1 टिप्पणी: