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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

जीवन की कला

मैं अत्यंत आनंदित हूं। छोटे छोटे बच्चों के बीच बोलना अत्यंत आनंदपूर्ण होता है। एक अर्थ में अत्यंत सृजनात्मक होता है। बूढ़ों के बीच मुझे बोलना इतना सुखद प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उनमें साहस की कमी होती है, जिसके कारण उनके जीवन में क्रांति होना करीब करीब असंभव है। छोटे बच्चों में तो साहस अभी जन्म लेने को होता है। इसलिए उनके साहस को पुकारा जा सकता है और उनसे आशा भी बांधी जा सकती है। एक बिल्कुल ही नई मनुष्यता की जरूरत है। शायद उस दिशा में तुम्हें प्रेरित कर सकूं इसलिए मैं खुश हूं।
मैं थोड़ी सी बातें बच्चों से कहना चाहूंगा, कुछ अध्यापकों से और कुछ अभिभावकों से जो यहां मौजूद हैं, क्योंकि शिक्षा इन तीनों पर ही निर्भर होती है।

पहली बात तो मैं यह कहूं कि विद्यालय सारी दुनिया में बनाए जा रहे हैं, विश्वविद्यालय बनाए जा रहे हैं। सारी दुनिया का ध्यान बच्चों की शिक्षा पर दिया जा रहा है और ज्यादा से ज्यादा लोग शिक्षित भी होते जा रहे हैं, लेकिन परिणाम बहुत शुभ नहीं है।

अभी हमारे मुल्क में शिक्षा कुछ कम है, कुछ दिनों में बढ़ जाएगी, लेकिन शिक्षा के साथ-साथ जगत में न शांति आ रही है, न आनंद आ रहा है। हम मानते हैं कि शिक्षा देकर बहुत कुछ हो जाएगा लेकिन ऐसा होता नहीं। जरूर शिक्षा के आधारों में भूलें होंगी, निश्चित ही कुछ आधार भूत गड़बड़ होगी। शिक्षा का उपक्रम असफल होंगी, निश्चित ही कुछ आधारभूत गड़बड़ होगी। शिक्षा का उपक्रम असफल ही है। एक विवेकपूर्ण संस्कृति पैदा करने में वह बिल्कुल विफल है। हम देखते हैं कि जो मनुष्य शिक्षित हैं, वे मनुष्यता की दृष्टि से उन मनुष्यों से भी नीचे हो गए है, जो कि अशिक्षित हैं। पहाड़ों में जो आदिवासी हैं, वे हमसे ज्यादा प्रेमपूर्ण हैं। हम जो बहुत ज्यादा कठोर, असय, वा पाषाण हृदय होते जा रहे हैं, वह सब शिक्षा से ही हो रहा है। वही शिक्षा तुम्हें भी मिल रही है, वही शिक्षा सारी दुनिया में सारे बच्चों को मिल रही है। इससे डर मालूम हो रहा है। तुम्हारा भविष्य कुछ बहुत प्रकाशपूर्ण नहीं है। अगर इस शिक्षा पर तुम निर्भर रहे तो तुम्हारे संबंध में बहुत आशा नहीं बांधी जा सकती। क्योंकि आज तक इस दीक्षा से जो कुछ पैदा हुआ है वह किसी भी भांति सुखद नहीं है।
जैसा कि अभी यहां कहा गया कि विद्याक्रम में धार्मिक शिक्षा जोड़ी जाए, लेकिन वह भी हो तो भी कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि दुनिया में धार्मिक शिक्षा बहुत दिनों से दी जा रही है, उसके परिणाम अच्छे नहीं हैं। धर्म की शिक्षा के नाम पर क्या सिखाया जाता है? अगर जैन धर्म से संबंधित विद्यालय है तो जैन धर्म की शिक्षा सिखाई जाती है और किसी दूसरे धर्म का, तो दूसरे धर्म के शास्त्र पढ़ाए जाते हैं। लेकिन शास्त्र जानने से क्या होता है? सिखाने के नाम पर बच्चों से शब्द और शास्त्र कंठस्थ करा लिए जाते हैं। कोरी बातें तुम्हारे दिमाग में डाल दी जाती हैं। तुम्हें बता दिया जाता है कि आत्मा है, स्वर्ग है, मोक्ष है। तुम्हें बता दिया जाता है कि कैवल्य-ज्ञान का क्या अर्थ है, सम्यक दर्शन क्या है, सम्यक चरित्र क्या है। यह सब तुम सीख लेते हो, उसकी परीक्षा दे देते हो और परीक्षा में अत्तीर्ण भी हो जाते हो। लेकिन इससे कोई बेहतर आदमी पैदा नहीं होता। मैं ऐसी धार्मिक शिक्षा के विरोध में हूं, क्योंकि उससे परिणाम भले की जगह बुरे ही निकलते हैं।
ऐसी शिक्षा के परिणाम स्वरूप छोटे-छोटे बच्चे यदि जैन स्कूल में पढ़े तो जैन ही हो जाते हैं, मुसलमान स्कूल में पढ़ें तो मुसलमान हो जाते हैं, ईसाई स्कूल में पढ़ें तो ईसाई हो जाते हैं, और फिर ये जैन, मुसलमान, ईसाई आपस में झगड़ाकर परेशानी पैदा करते हैं। इन सांप्रदायिक बुद्धि के लोगों से मनुष्यता का निरंतर घात होता है। इस भांति की शिक्षा से तुम्हारे भीतर धर्म का नहीं, वरना धार्मिक संकीर्णता और जड़ता का जन्म होता है। तुम संप्रदायों से बंध जाते हो; सारी मनुष्यता के साथ, एकात्मकता के साथ न बंधकर एक अलग छोटे से टुकड़े के साथ बंध जाते हो और इन टुकड़ों के कारण दुनिया में बहुत संघर्ष, बहुत वैमनस्य और बहुत ईष्र्या चली है। इसके इतने दुखद परिणाम हुए है, इतनी हिंसा बढ़ी है, कोई हिसाब नहीं। तो फिर क्या करें? मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि धार्मिक शिक्षा की जरूरत नहीं है, धार्मिक साधना की जरूरत है। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि धार्मिक शिक्षा या तो जैनियों की होगी या मुसलमानों की होगी या हिंदुओं की होगी..लेकिन धार्मिक साधना न तो जैन की होती है, न मुसलमान की होती है, न हिंदू की होती है। धार्मिक साधना तो बात ही अलग है..उसका संप्रदाय से कोई संबंध नहीं है। धार्मिक साधना का क्या अर्थ है?
धार्मिक साधना का अर्थ है: बच्चों को सत्य के लिए तैयार करो, प्रेम के लिए तैयार करो। धार्मिक साधना का अर्थ है: बच्चे को शांति के लिए तैयार करो, ध्यान के लिए तैयार करो, आत्मा के भीतर जाने के लिए तैयार करो। सत्य न तो जैन का होता है, न मुसलमान का होता है, न हिंदू का होता है। प्रेम न तो जैन का होता है, न मुसलमान का होता है, न हिंदू का होता है। ध्यान किसी संप्रदाय का नहीं होता। लेकिन हम देते हैं धार्मिक शिक्षा और देनी चाहिए धार्मिक साधना। लेकिन आज धार्मिक साधना देने के लिए कोई उत्सुक नहीं है। बच्चों को मनुष्य बनाने की किसी की भी उत्सुकता नहीं है। हिंदू डरा हुआ है कि उसका लड़का ईसाई न हो जाए इसलिए उसके दिमाग में रामायण और गीता भर दी जाती है। ऐसे ही ईसाई भी भयभीत है। यह भय है सारी दुनिया में। और इस भय की वजह से सभी धर्म कहते हैं कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जाए। उनकी कोई इच्छा मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की नहीं है। उनकी इच्छा तो हिंदू बनाने की है, जैन बनाने की है, मुसलमान बनाने की है। और जो मनुष्य ऐसे विशेषणों के साथ है, वह ठीक मनुष्य नहीं है। मैं पूछना चाहता हूं कि क्यों बच्चों को हिंदू बनाया है, जैन बनाना है, ईसाई बनाना है..क्या सांप्रदायिक मूढ़ताओं और संकीर्णताओं और वैमनस्यों ने मनुष्य जाति की काफी हानि नहीं कर ली है? धर्म का जन्म इन धर्मों के कारण ही तो नहीं हो पाता है। इसलिए जिनका धर्म से प्रेम है, उनके सामने पहला लक्ष्य है: मनुष्य जाति की धर्मों से मुक्ति। जिसे धर्म का होना है, उसके लिए धर्मों के होने का कोई भी मार्ग नहीं है।
अगर मनुष्य बनाना है तो धार्मिक शिक्षा में नहीं, धार्मिक साधना में जाना पड़ेगा। और धार्मिक साधना का रास्ता बिल्कुल अलग है धार्मिक शिक्षा से। धार्मिक शिक्षा से थोथा पांडित्य पैदा होता है, धार्मिक साधना से धार्मिक चित्त पैदा होता है। पांडित्य और ज्ञान में अंतर है। थोथा पांडित्य दुनिया में मिट जाए तो बेहतर। दुनिया में ज्ञान चाहिए। धार्मिक चित्त से संतत्व पैदा होता है। और संतत्व बहुत कम है, क्योंकि जिस संत को यह ख्याल हो कि मैं जैन हूं, हिंदू हूं, मुसलमान हूं, तो समझ लेना कि वह अभी पंडित ही है। अभी तो तथाकथित संत भी इस हालत में नहीं है कि पूर्ण मनुष्यता के साथ अपना तादात्म्य कर सके। संत घर द्वार को छोड़ देता है, बच्चे छोड़ देता है, पत्नी को छोड़ देता है, वस्त्र भी छोड़ देता है लेकिन मुझे शक है उसने समाज को छोड़ा या नहीं। अगर वह हिंदू घर में पैदा हुआ तो उसने हिंदू पन को तो छोड़ा ही नहीं और यदि वह जैन घर में पैदा हुआ है तो वह अभी भी जैन बना हुआ है। वह कहता है कि मैंने समाज को छोड़ा लेकिन समाज को कहां छोड़ा? जिस समाज ने सिखाया कि तुम जैन हो, हिंदू हो, मुसलमान हो..वह उसी का तो हिस्सा बना हुआ है। पत्नी को छोड़ना बहुत आसान है, पत्नी को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। यदि मौका मिल जाए तो पत्नी छोड़ने को हर कोई राजी हो सकता है। पत्नी को छोड़ना कठिन नहीं है, क्योंकि पत्नी को, झेलना एक उत्तरदायित्व है। अपने बच्चों को छोड़कर भागना भी कठिन हनीं है, हर कोई कमजोर और काहिल बच्चों को छोड़कर भागना भी चाहेगा। वह कोई कठिनाइयां नहीं हैं। और जिस समाज में छोड़कर भागनेवाले को आदर मिलता हो वहां तो यह बहुत ही सरल बात है। छोड़ने से व्यक्ति उत्तरदायित्व से तो बच ही जाता है और आदर को भी उपलब्ध हो जाता है। अहंकार की भी तृप्ति होती है और बोझ भी कह हो जाता है।
यदि छोड़ना है तो समाज के उन संस्कारों को, उसके दिए गए विचारों को, समाज के द्वारा भीतर डाले गए ख्यालों को छोड़ो, किंतु समाज के द्वारा डाले गए घेरे को तोड़ना कठिन है। इसे जो जोड़ता है मेरी दृष्टि में वही साधु है। और जो इसके भीतर खड़ा है, वह पंडित से ज्यादा कभी नहीं है। दुनिया में साधना की जरूरत है। ऐसे साधु यदि दुनिया में हो सकें तो दुनिया एक अलग ढंग की दुनिया हो सकती है। एक बहुत बड़ी दुनिया का निर्माण हो सकता है जहां सारी दुनिया के बीच प्रेम का सागर लहरा सके। यह कौन करेगा? अगर यह छोटे छोटे बच्चे नए ढंग से तैयार किए जाए तो यह हो सकता है। नहीं तो नहीं हो सकता है। मगर यह छोटे बच्चे भी उन्हीं ढांचों में ढाले जा रहे हैं, जिनमें हजारों सालों से ढलाई चल रही है। ये भी उन्हीं ढांचों में डालकर तैयार किए जाएंगे और उन्हीं लड़ाइयों को लड़ेंगे, ईष्र्याओं को पालेंगे और उन्हीं घृणाओं में जीएंगे जिनमें इनके मां बाप जिए थे।
दुनिया को बदलने के लिए शिक्षा बुनियादी से धार्मिक होनी चाहिए, लेकिन धार्मिक शिक्षण नहीं, धार्मिक साधना। इन बातों का स्पष्टी करण हो जाए तो इस गुरुकुल में भी एक क्रांति हो सकती है। धार्मिक साधना की फिकर कीजिए। बच्चों को हिंदू या जैन बनाने की कोशिश छोड़ दीजिए। बहुत दिन दुनिया में हिंदू, जैन टिकने वाले नहीं हैं। दुनिया में धर्म बचेगा, हिंदू, जैन नहीं। न यह दुनिया में बचने ही चाहिए। क्योंकि इनके कारण दुनिया में परेशानियां ही हुई हैं। यह भी मैं निवेदन करना चाहता हूं कि दुनिया से अगर हिंदू, जैन, मुसलमान, बौद्ध, ईसाई चले जाए तो कोई हर्जा नहीं, महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट भी नहीं जाते। जैन के मिटने से महावीर नहीं मिटते बल्कि जैनों के होने से महावीर मिटे हुए हैं। जैनों की वजह से महावीर सबके हो नहीं पाते। एक घेरा डाले है जैनी महावीर के चारों तरफ और इनकी वजह से दूसरों के लिए दरवाजा बंद है। कितने जैन हैं जिन्होंने बाइबिल को पढ़ा हो, क्योंकि बाइबिल को ईसाइयों ने बांधकर रखा है। क्या आपको पता नहीं कि बाइबिल में अदभुत हीरे भरे हैं? कितने ईसाई हैं जिन्होंने महावीर की वाणी पढ़ी है, क्योंकि महावीर को जैन बांधकर रखे हुए हैं। और महावीर की वाणी में अदभुत खजाने भरे हैं। दुनिया में जितने भी महत्वपूर्ण खजाने थे उस खजानों पर दुष्टों ने कब्जा कर लिया है, और पूर्ण मनुष्य जाति को उससे वंचित कर दिया है। यह घेरे टूटने चाहिए ताकि यह सारी संपत्ति सबकी हो जाए। महावीर सबके हों, राम सबके हों, कृष्ण सबके हों, क्राइस्ट सब के हों।
विज्ञान तो तुम सब पढ़ते होगे। विज्ञान की खोज तो सारी दुनिया की खोज होती है। एडीसन अगर कोई खोज करता है तो वह किसकी होती है? आईन्स्टीन अगर कोई खोज करे तो वह खोज सारी दुनिया की हो जाती है। कोई भी वैज्ञानिक दुनिया में खोज करता है तो सारी दुनिया की हो जाती है। लेकिन धर्म के संबंध में जो बहुमूल्य खोज हुई है वह सारी दुनिया की अभी तक नहीं हो पाई है। इससे दुनिया बहुत दरिद्र है। इससे दुनिया की जो आध्यात्मिक समृद्धि हो सकती थी वह नहीं हो पाई।
 बच्चों को इस भांति तैयार किया जाना चाहिए कि वे मनुष्य बने, धार्मिक बनें। धार्मिक होना तथाकथित धर्म भेदों में उलझने से दूसरी बात है। एक दिन एक साधु मेरे पास ठहरे हुए थे। सबेरे ही उठकर उन्होंने पूछा कि जैन मंदिर कहां है? मैंने पूछा कि क्या करिएगा जैन मंदिर को जानकर? उन्होंने कहा कि मैं आत्मध्यान के लिए वहां जाना चाहता हूं, सामायिक के लिए वहां जाना चाहता हूं। मैंने कहा कि आप निश्चित हैं कि आपका आत्मघात ही करना है? और कोई बात तो नहीं है? उन्होंने कहा कि निश्चित हूं, मुझे शांति चाहिए और आत्मघात करना चाहता हूं, और कुछ नहीं। मैंने कहा कि यहां जो जैन मंदिर है, वह जो बाजार में है, हमारे बगल में एक चर्च हैं, वहां एकदम सन्नाटा है, एकदम शांति है और आज रविवार भी नहीं है, इस लिए वहां कोई ईसाई भी नहीं आएगा, आप वहां जाए और आत्मध्यान करें, चर्च का नाम सुनते ही साधु सटपटाए और कहने लगे चर्च में? मैंने कहा आपको तब आत्मध्यान से कोई संबंध नहीं है। जिसे चर्च शब्द से बाधा है, वह आत्मा को जान सकेगा यह असंभव है। यह मारे साधु की बुद्धि है। जिसको चर्च जैसी छोटी चीज से बाधा है वह आत्मा जैसी विराट शक्ति से कैसे परिचित हो सकता है? यह असंभव है। मैंने कहा कि आपको जैन मंदिर जाना है, आपको आत्मघात से कोई मतलब नहीं है, न ध्यान से कोई मतलब है। जैन मंदिर इसलिए जाना है कि बचपन से ही सिखाया गया है कि मंदिर जाना धर्म है।
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आत्मा में जाना धर्म है, किसी मंदिर में जाना धर्म नहीं। लेकिन शिक्षा अगर होगी तो वह सिखाएगी कि जैन मंदिर में जाना धर्म है, और साधना अगर होगी तो वह सिखाएंगी कि भीतर जाना धर्म है। एक ईसाई से भी मैं यही कहता हूं कि चर्च अगर दूर है और जैन मंदिर पड़ोस में हैं तो वहीं बैठ जाओ, हिंदू मंदिर पड़ोस में है तो वहीं बैठ जाओ। सवाल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप किस मंदिर में बैठे हैं, सवाल महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने भीतर प्रवेश करते हैं या नहीं? जहां आप अपने भीतर प्रवेश करते हों वहां धर्म से संबंधित होते हैं और जहां आप मकानों का हिसाब-किताब रखते हैं वहां आपका धर्म से कोई संबंध नहीं है।
मैं एक महानगरी में जाता था। वहां एक मित्र के यहां ठहरता था। उनकी बगल में ही चर्च था। बहुत सन्नाटे का स्थान था। मैं सुबह ही उठता और चर्च में चला जाता। मेरे मित्र ने कहा, आपने मुझे क्यों नहीं कहा, मैं आपको मंदिर ले चलता। मैंने कहा, मेरा काम तो यही पूरा हुआ। लेकिन में चर्च में गया इस कारण से बहुत दुखी हुए। फिर पांच वर्षों के बाद दोबारा उनके यहां मेहमान हुआ। सुबह से वे मुझ से बोलः धर्मस्थान चलिए। गया तो हैरान हो गया। वे उसी चर्च में ले गए थे उसको अब ईसाइयों ने बेच दिया था। अब स्थान मंदिर हो गया था। मैंने उनसे पूछा, यह वही जगह है, जहां मैं पहले आया था। उस समय आप नाराज हुए थे। इस बार इस जगह आप बड़ी खुशी से मुझे लेकर आए हैं। इस जगह में तो कोई भी फर्क नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा: बहुत फर्क पड़ गया है, पहले चर्च था अब पवित्र मंदिर है।
जिनकी बुद्धि इन तख्तियों में लटकी हो, उनको भी कभी आत्मा से संबंध हो सकता है? यह असंभव है लेकिन यह तख्ती तुम्हें भी सिखाई जा सकती है, इस नाम पर कि तुम्हें धार्मिक शिक्षा दी जा रही है और यह खतरनाक होगी। यह कोई धार्मिक शिक्षा नहीं है। बच्चों को सिखाया जाना चाहिए कि तुम भीतर कैसे जा सको और यह बड़े मजे की बात है कि बूढ़े की बजाए बच्चे बड़ी आसानी से आत्म प्रवेश कर सकते हैं, क्योंकि बूढ़ों की बजाय बच्चे ज्यादा सरल हैं, ज्यादा सौम्य हैं, ज्यादा भावयुक्त हैं। इसलिए बच्चों में बहुत शीघ्रता से भीतर प्रवेश हो सकता है। बच्चे बहुत शीघ्रता से ध्यान में और सामायिक में प्रवेश पा सकते हैं। लेकिन बच्चे को कोई सिखाने वाला नहीं है। और सिखाएगा कौन? क्योंकि जो सिखानेवाला है उसे भी कोई पता नहीं। वह शिक्षक जो बच्चों के लिए धर्म शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया है उसका भी आत्मा से कोई संबंध नहीं। और यही सारी कठिनाई हो गई है।
शिक्षकों को भी पुनः स्थिति होने की आवश्यकता है। लेकिन यदि वे सोच विचार करें तो वे स्वयं ही सम्यक दिशा में दीक्षित हो सकते हैं। वे स्वयं ही अपने विवेक को जागृत कर सकते हैं। और जिन शिक्षकों की ध्यान में गति हो, वे छोटे-छोटे बच्चों को ध्यान में ले जा सकते हैं। ध्यान कठिन भी नहीं है। ध्यान अत्यंत सरल प्रक्रिया है और एक बार उसकी छोटी सी भी झलक मिल जाए तो उसे छोड़ना कठिन है। एक बार थोड़ा सा आनंद मिल जाए तो मनुष्य का मन ऐसा है कि वह अपने आप आनंद की तरफ बहता है। मैं यहां बोल रहा हूं और एक व्यक्ति पास में वीणा बजाने लगे तो आपमें से बहुतों का मन उसकी तरफ अपने आप बह जाएगा। क्योंकि वीणा मग जो आनंद की झलक है वह मन को अपने भीतर की ओर ले जाती है। एक बार पता चल जाए कि भीतर एक आनंद है, उसकी थोड़ी सी भी झलक तुम्हीं मिल जाए तो तुम्हारा मन बार-बार वहीं लौट जाता है। दुनिया में बहुत से कामों के बीच चैबीस घंटे में यदि दो चार बार भी मन भीतर प्रवेश कर जाए तो जीवन में एक ताजगी होगी, एक आनंद होगा, जो अदभुत होगा। इस ताजगी और आनंद का यह परिणाम होगा कि तुम्हारे भीतर क्रोध और वासनाएं क्षीण होती चली जाएगी।
गुरुकुल के भीतर सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि बहुत बड़े मकान बनाए जाए, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि वहां धर्म की शिक्षा दी जाए। यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि वहां खास ढंग से कपड़े पहनाए जाए, खास तरह का खाना खिलाया जाए, खास समय पर उठा जाए, ये सब बातें बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह जीवन का अत्यंत क्षुद्र अनुशासन है। और इनमें ही यदि विद्यार्थियों को बहुत अधिक बांध दिया जाए तो बाद में वे ऊंचा उठने में असमर्थ हो जाते हैं। विवेकानंद से किसी ने अमेरिका में पूछा कि आपके देश में धर्म की बहुत चचा है, लेकिन धार्मिक लोग तो दिखाई नहीं पड़ते? विवेकानंद ने कहा किः मेरे देश मग दुर्भाग्य हो गया है, मेरे देश का सारा धर्म चैके और चूल्हे का धर्म हो गया है। इसलिए सब गड़बड़ हो गई है। हमारा। मन चैके और चूल्हे में उलझ गया है। हमारा सारा चिंतन एक जगह केंद्रित है: क्या खाओ, क्या न खाओ, किस समय खाओ और किस समय न खाओ। यह सब अच्छी बातें हो सकती हैं लेकिन खतरा यह है कि तुम्हारा मन इन्हीं सारी बातों में उलझ जाए तो तुम इनसे ऊपर उठ कर विराट शक्ति तक न पहुंच पाओगे।
गुरुकुल में जीवन की बहुत बुनियादी शिक्षा दी जानी चाहिए। मात्र आजीविका की शिक्षा पूरी शिक्षा नहीं है। तुम पांच-छह वर्षों तक रहोगे इस बीच तुम किसी न किसी तरह आत्मा से संबंधित होने के मार्ग को पा जाओ तो इसको मैं जीवन की शिक्षा और साधना कहूंगा। यही धर्म की साधना है। जीवन जीने की सम्यक कला ही तो धर्म है। धर्म जीवन विरोधी नहीं है। और जो धर्म जीवन विरोधी हो उसे धर्म ही न जानना। वह जरूर मृत्युमुख रुग्ण मस्तिष्कों की उपज होगा। ऐसी मृत्युमुख शिक्षाओं ने ही जीवन से धर्म का संबंध तोड़ दिया है। फिर शिक्षाओं को जबरदस्ती ही थोपना पड़ता है। क्योंकि हमारे भीतर जो जीवन है, वह उनका विरोध करता है।
सम्यक धर्म का तो जीवन में सदा स्वागत है क्योंकि वैसे धर्म के आधारों पर ही तो जीवन आनंद को, सौंदर्य को, सत्य को और अमृतत्व को उपलब्ध होता है। मिथ्या धर्म सदा ही नकारात्मक होता है। यही उसकी पहचान है। सम्यक धर्म होता है सदा विधायक। मिथ्या धर्म आत्म कलह में डालता है। वह कहता है यह न करो, वह न करो। विधायक धर्म आत्मसृजन में संलग्न करता है। वह जीवन की सभी शक्तियों को ऊध्र्वमुखी बनाता है। वह कहता है: यह करो, यह करो, यह करो। वह छोड़ने को नहीं, पाने को कहता है। उसका जोर सदा ऊपर उठने पर होता है। निश्चय ही जो ऊपर उठता है, उससे बहुत कुछ अपने आप छूटता जाता है। लेकिन बल पाने के लिए है, खोने के लिए नहीं। वह कहता है: संसार को नहीं छोड़ना है बल्कि परमात्मा को पाना है।
इस संबंध में यह ध्यान रहे कि धर्म की साधना बच्चों पर थोपी न जाए क्योंकि जो थोपा जाता है प्राण उसके प्रति विरोध से भर जाते हैं। छोटे छोटे बच्चों के प्राण भी विरोध से भर जाते हैं और फिर यह विरोध जीवन भर उनके साथ रहता है। मैं एक बार थोड़े दिन के लिए एक संस्कृत महाविद्यालय में था। वहां के छात्रालय में सौ के करीब विद्यार्थी थे। वे सभी विद्यार्थी शासन से छात्रवृत्ति पाते थे। छात्रवृत्ति के कारण उनसे कुछ भी करवाया जा सकता था। उन्हें तीन बजे रात्रि से उठकर स्नान करके प्रार्थना करनी पड़ती थी। सर्दियों के दिन थे। पहले ही दिन जब मैं स्नान करने कुएं पर गया तो एकदम अंधकार था। मैंने देखा कि विद्यार्थी वहां स्नान भी करने जाते थे और प्रिसिंपल से लेकर परमात्मा तक को गालियां भी देते जाते थे। यह स्वाभाविक ही था। उस गहरी सर्दी में स्नान करने के लिए बाध्य करने में प्रिसिंपल का हाथ था, इसलिए वे पुरस्कार स्वरूप प्रिसिंपल को गालियां देते थे और प्रिसिंपल के सत्संग के कारण बेचारे परमात्मा को भी गालियां खानी पड़ती थी।
धर्म के प्रति अरुचि पैदा करना बहुत आसान है। प्रश्न तो है रुचि पैदा करने का। और धार्मिक शिक्षा देनेवाले रुचि पैदा करने में अक्सर ही असफल होते हैं। शायद मनुष्य के मन के अत्यंत सीधे सादे नियमों पर भी हम ध्यान नहीं देते है, इसीलिए उस महाविद्वालय में जिस भांति प्रार्थना करवाई जा रही थी, उससे प्रार्थना के साथ भावों का संबंध होना असंभव है। प्रार्थना तो प्रेम और आनंद से स्फुरित हो, तो ही सार्थक हो सकती है। इसलिए मेरा कहना है: बच्चों के साथ जल्दबाजी न करना। भय से, दंड से, धर्म का संबंध न जोड़ना। ऐसी बातें उनके चित्त को सदा के लिए अधार्मिक बना देती हैं। मैंने उस महाविद्यालय के प्रिसिंपल को यह कहा था तो वे मानने को राजी नहीं हुए थे, उलटे उन्होंने कहा: हम कोई जबरदस्ती नहीं करते हैं। मैंने कहा: एक सूचना निकालिए कि कल से जिसे स्वेच्छा से प्रार्थना में आना हो वे ही आवें। सूचना निकली गई। दूसरे दिन सौ में से एक भी नहीं आया। तब वे हैरान हुए। मैंने कहा: ऐसी प्रार्थना का क्या मूल्य है? फिर मैं उन बच्चों को सुबह सात बजे लेकर प्रार्थना के लिए बैठता था। प्रार्थना क्या थी, बस हम मौन होकर बैठते और सुबह की चिड़ियों के गीत सुनते। प्रभातकालीन मौन में बच्चों को आनंद आने लगा। धीरे धीरे वे सभी बच्चे स्वेच्छा से सम्मिलित होने लगे। यदि किसी दिन कोई बच्चा न आ पाता तो दुखी होता, क्योंकि सुबह की प्रार्थना का जो आनंद था, उसकी कमी उसे दिन भर खलती। उस छात्रावास में प्रार्थना एक आनंद हो गई। वे क्षण अमूल्य हो गए। उस आनंद और शांति के लिए बच्चे के हृदय सहज ही परमात्मा के प्रति कृतज्ञात से भर जाते थे। और ये वे ही बच्चे थे जो पहले परमात्मा को गालियां देते थे।
गुरुकुल जैसे स्थानों में जबरदस्ती जरा भी नहीं होनी चाहिए। और धर्म के संबंध में तो जरा भी नहीं होनी चाहिए। इस बात से बहुत बड़ी हानि नहीं है कि बच्चा देर तक सोता रहा, लेकिन हम बात से हानि है कि बच्चा जबरदस्ती उठाया गया। देर से सोने में दुनिया में कोई हानि नहीं हुई। दुनिया में बहुत से महापुरुष देर से सोकर उठते रहे हैं। देर से उठने या जल्दी उठने का इतना महत्वपूर्ण मामला नहीं है। यह ठीक है कि कोई जल्दी उठे, सुखद है, स्वास्थप्रद है, लेकिन कोई बड़ी हानि नहीं होती है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि बच्चों के साथ किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिए। शिक्षक और मां-बाप बच्चों के साथ बहुत प्रकार की हिंसा करते हैं, और उनको ख्याल नहीं होता कि वे हिंसा कर रहे हैं। वे समझते हैं कि बहुत प्रेम प्रकट कर रहे हैं। वे समझते हैं कि हम बच्चों को बड़ा सुधार रहे हैं। अगर इस ढंग से बच्चे सुधरे होते तो आज सारी दुनिया सुधर गई होती। दुनिया तो सुधरती नहीं और आप उन्हें सुधार जा रहे हैं। आपके सुधार में जरूर गड़बड़ होगी। और अक्सर यह होता है कि जो मां-बाप बच्चे को सुधारने में लगे हैं, उनके बच्चे उतने बिगड़ते हैं, जितने दूसरे के नहीं बिगड़ते हैं।
अति अनुशासन के घातक परिणाम होते हैं। अनुशासन की जगह बच्चों के विवेक को जगाए। उनमें स्वयं की विचार शक्ति को पैदा करें। यांत्रिक अनुशासन नहीं, चाहिए सजग विवेक। लेकिन यांत्रिक अनुशासन थोपना आसान है, इसलिए हम उसे ही चुन लेते हैं। नहीं मित्रों, चाहे विवेक जगाना कितना ही कठिन हो, और उसके लिए कितना ही श्रम और प्रतीक्षा करनी पड़े, तो भी यांत्रिक अनुशासन चुनना उचित नहीं है। मनुष्य की विकृति में यांत्रिक अनुशासन से अधिक और किसी चीज का हाथ नहीं है। यांत्रिक अनुशासन की प्रतिक्रिया स्वरूप ही अच्छृंखलता खड़ी होती है। क्या आज तक यही नहीं देखा गया कि जिनके मां-बाप बच्चों को सुधारने में लग जाते हैं, उसके विपरीत ही बच्चे खड़े होते हैं? इसके पीछे कारण हैं। क्योंकि अच्छा करने के पीछे आप बच्चों के साथ हिंसा करने लगते हैं, क्योंकि आपके पा ताकत है..लेकिन बच्चा प्रतिहिंसा को इकट्ठी करता रहेगा और वह आज नहीं कल उसका बदला लेगा और बदला खतरनाक होगा। जब भी लड़के के हाथ में ताकत आएगी वह आपके विरोध में खड़ा हो जाएगा। और जो जो आपने सिखाया था, उसके उल्टा वह चलने लगेगा। दुनिया में इतनी अनैतिकता है, दुनिया में इतनी अनुशासनहीनता है, लड़के आज्ञा तोड़ रहे हैं, लड़के मां-बाप की मर्यादाएं नष्ट कर रहे हैं। इसमें मां-बाप और शिक्षक का ही हाथ है। सारी मर्यादाएं जबरदस्ती थोपी जा रही हैं और उनके विरोध में प्रतिक्रिया खड़ी होती है।
इन बच्चों के साथ आपकी बहुत बड़ी कृपा यह होगी कि इन बच्चों के साथ किसी भी तरह हिंसा का वातावरण गुरुकुल में न हो। इन पर किसी भी प्रकार का बलपूर्वक अनुशासन न हो। अच्छे करने के लिए भी नहीं, क्योंकि दुनिया में जबरदस्ती से कोई कभी अच्छा हुआ ही नहीं है। आप कहेंगे कि फिर तो स्वच्छंदता हो जाएगी, फिर इन बच्चों का क्या होगा? तो मैं यह निवेदन करूं कि बच्चे प्रेम से बदलते हैं, जबरदस्ती से नहीं। जितना ज्यादा से ज्यादा प्रेम दिया जा सके, उतना वे अनुगृहीत होते हैं। जितनी स्वतंत्रता दी जा सके, उतना वे आदर से भरते हैं। जितना बच्चों को ज्यादा ज्यादा प्रोत्साहन दिया जा सके, मुक्त किया जा सके, उतना ही उनके मन में पैदा होती है और वे मानने को तैयार होते हैं। बच्चों को जितना ज्यादा दबाया जाए उतना ही विरोध पैदा होती है।
फ्रायड का नाम आपने सुना होगा। वह बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक हो गया है। एक दिन वह, उसकी पत्नी और उसका बच्चा बगीचे में घूमने गए। जब रात हो गई और वे घर को लौटने लगे तो बच्चा दिखाई नहीं दिया। पत्नी घबड़ाई गई और बोलीः अब बच्चे को कहां खोजें? क्या आप सोच सकते हैं कि फ्रायड ने क्या पूछा? उसने पूछः तुमने बच्चे को कहीं जाने के लिए मना तो नहीं किया था? पत्नी ने कहा: बड़े फुहारे पर जाने के लिए मना किया था। फ्रायड बोला: तो चलें, वहीं चल कर देख लें। वह वहां फुहारे पर पैर लटकाए बैठा हुआ था। उसकी पत्नी बोली कि आपने कैसे पहचान लिया कि बच्चा बड़े फुहारे पर ही गया होगा? फ्रायड ने कहा कि पूरी मनुष्य जाति का अनुभव यही है। जिन बातों के लिए मां-बापों ने मना किया, बच्चे वहीं गए। इसलिए मना करनेवाले मां-बाप जिम्मेवार हैं। उनकी मनाही में जिम्मा है।
बच्चे वहां जाएंगे जहां मना किया गया है। मना करते वक्त जरा सोच समझ कर ही मना करना। क्योंकि हम जिस बात को कह रहे हैं मत करो, वह करने की प्रेरणा बन रही है। बच्चे के मन में यह बात बल पकड़ रही है कि वहां कुछ होगा, कुछ रहस्यपूर्ण, जानने जैसा और कुछ करने जैसा। आप उसके भीतर खोज को जगा रहे हैं। भीतर जिज्ञासा को जगा रहे हैं। दुनिया में जो पतन हुआ है, वह मत करो की शिक्षा के कारण ही हुआ है। अभी भी धर्म-गुरु, संन्यासी यह कहते हैं कि यह मत करो, वह मत करो, इन सब बातों का परिणाम यह हो रहा है कि पतन रोज करीब आता जा रहा है। मनुष्य नीचे गिरता जा रहा है।
मत करो कि शिक्षा से विषाक्त और जहरीली शिक्षा न कोई है, न हो सकती है। इसलिए इन बच्चों को मत करो की शिक्षा देना ही नहीं। इन बच्चों की यह सिखाना कि कुछ चीजें करने जैसी हैं। यह मत सिखाओ कि कौन सी चीजें न करने जैसी हैं। नकारात्मक नहीं, विधायक शिक्षा होनी चाहिए। दुनिया में कौन सी चीजें करने जैसी हैं और उन चीजों में कौन सा आनंद है, उस आनंद की ओर इन्हें प्रेरित करें। बच्चों से यदि यह कहें कि मांस मत खाना तो वह मांस अवश्य ही खाएंगे। उन्हें यह कहा जाए कि शराब मत पीना तो वे आज नहीं कल शराब जरूर पीएंगे। इसमें कसूर होगा उन लोगों का जो इन्हें समझा रहे हैं, सिखा रहे हैं। उनको क्या सिखाया जाए फिर।
बच्चों को कुछ करने के लिए बताया जाए, न झरने के लिए नहीं। जीवन के सृजनात्मक द्वार उनके लिए खोले जावें। निषेध नहीं, विधेय ही शिक्षा का लक्ष्य हो। उन्हें सृजनात्मक आनंद की ओर उन्मुख किया जाए। फिर तो वे दुख से और अशांति से स्वयं ही दूर रहेंगे। उन्हें प्रकाश के लिए दीक्षित किया जाए फिर तो अंधकार उन्हें खुद ही प्रीतिकर न रहेगा। और हम करते हैं उलटा ही। प्रकाश की दीक्षा तो नहीं देते, हां अंधकार से बचने की शिक्षा जरूर देते हैं।
एक बार एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने आकर कहा कि मैं बहुत दिनों से आपके पास आना चाहता था, लेकिन नहीं आया कि आपके पास आऊंगा तो आप मांस और शराब छोड़ने के लिए कहेंगे। ये दोनों काम मैं करता हूं। मैंने कहा किः जिंदगी में मैंने तो कभी नहीं कहा कि यह छोड़ो, यह मत करो वे बोले कि यह जैसे ही ज्ञात हुआ मैं आपके पास आ गया हूं। उन्होंने कहा, मेरा मन बड़ा अशांत है। मैंने उनसे ध्यान करने के लिए कहा। मन कैसे शांत हो, इसके बारे में कहा। उन्होंने कहा कि इसके लिए मांस और शराब पीना छोड़ना तो जरूरी नहीं है? मैंने कहा: बिल्कुल नहीं। तीन बाद वापिस लौटे तो कहने लगे कि जैसे जैसे मन शांत होता गया, शराब पीना मुश्किल हो गया। शांत मन का व्यक्ति शराब ही नहीं पी सकता। छोड़नी ही पड़ती है। पीने का कारण ही नहीं रह जाता। अशांत मन भूलना चाहता है अपने को, इसलिए शराब पीता है, सिनेमा देखता है, गाना सुनता है। यह सब भूने की तरकीबें हैं। अगर भूने की तरकीबें छीन ली जाए तो वह पागल हो जाएगा। मन अगर शांत है तो भुलाने के लिए उपाय करने की जरूरत ही नहीं है। उन्होंने मुझसे कहा: शराब तो गई, क्या मांसाहार भी छोड़ना पड़ेगा? मैंने कहा: मुझको पता नहीं। अभी भी आपकी मर्जी हो तो ध्यान छोड़ दे। उन्होंने कहा: अब ध्यान छोड़ना कठिन है। क्योंकि भीतर मुझे आनंद झरता हुआ मालूम होता है। वे तीन माह बाद वापिस लौटे और कहने लगे कि मांस खाना भी कठिन हो गया है। कल एक मित्र के साथ पार्टी में गया था। पार्टी में मांस खाने का आग्रह हुआ। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैंने पहले मांस कैसे खाया होगा। और मुझे ग्लानि होने लगी। घर लौटते ही मुझे कै हो गई।
यह निश्चित है कि मन जब शांत होगा तो दूसरे को दुख देना असंभव हो जाता है। मन जब अशांत होता है, तो दूसरों को दुख देने में मजा आता है। यह सब भीतर अशांति के कारण होता है। तो बच्चों को विधायक रूप से शांति होने का उपाय समझाइए। उन्हें जीवन में शांत होने की प्रक्रिया दें। शांत चित्त ही समग्र बुराइयों और पापों के प्रति एकमात्र सुरक्षा है। इसके लिए एक ही उपाय है कि नकारात्मक शिक्षा को क्षीण करें। बच्चों के जीवन में आनंद जगाए। और जहां आनंद है, जहां शांति है, जहां बच्चों के भीतर विवेक है, वहां बच्चों को बुरे काम करने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। लेकिन हम सिखाते हैं बुरे काम मत करो। हम गलत ही बात सिखाते हैं। और जब आदमी को गलत बातें करता देखते हैं तो जमाने को दोष देते हैं। कोई जमाने को खराबी नहीं है। क्योंकि हमारे दृष्टिकोण, हमारे आधार सबके सब गलत हैं। ये ही बच्चे अदभुत रूप से शांत, अदभुत रूप से मानवी गुणों को उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि आज हम जो भी कर रहे हैं गलत है, परिणाम भी गलत निकल रहे हैं।
 विधायक रूप से बच्चों के जीवन में कुछ करने की चेष्टा की जो तो यह गुरुकुल है, वरना गुरुकुल नाम ही रह जाता है। जैसे और स्कूल हैं, वैसे ही यह भी स्कूल है। हो सकता है, आप इस पर चिंतन करेंगे, विचार करेंगे, कुछ रास्ता खोजेंगे तो बच्चों को तेजस्वी जीवन दिया जा सकता है कि सारे देश में गुरुकुल के बच्चे अलग से दिखाई पड़ें। गुरुकुल के बच्चे यहां की खबर ले जावें, यहां की हवा ले जावें, यहां की सुगंध ले जावें और जहां जावें वहां यह स्पष्ट प्रतीति हो कि इन्होंने जीवन दृष्टि और तरह की पाई है, इन्होंने और तरह का व्यक्तित्व पाया है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप में से दो चार डाक्टर हो जाएंगे। बहुत डाक्टर हैं दुनिया में, उससे क्या फर्क पड़ने वाला है। तुममें से दो चार इंजीनियर हो जावेंगे, दो चार युरोप चले जाएंगे। इससे फर्क पड़ने वाला है? लौट कर आएंगे तो और शोषण करेंगे, और उपद्रव करेंगे, समाज का और पैसा छीनेगा और कुछ नहीं करेंगे। यह कोई मूल्य की बात नहीं कि हमारे गुरुकुल से इतने डाक्टर होगे, इतने इंजीनियर होगे, इतने मिनिस्टर हो गए। क्या मिनिस्टर होना बहुत अच्छी बात है? रोज मिनिस्टर को देखते हो और फिर भी ऐसा सोचते हो तो अंधे हो। राजनीतिज्ञों के कारण ही तो मनुष्यता संकट में है। राजनीतिज्ञों के कारण ही दुनिया युद्धों में है। सो इस बात का बिल्कुल गौरव मत मानना कि तुम्हारे गुरुकुल से कोई बड़ा राजनीतिज्ञ पैदा हो गया है। इससे तो शर्मिंदा ही होना है।
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डाक्टर और इंजीनियर तो फिर भी ठीक है, यह मिनिस्टर तो बिल्कुल भी ठीक नहीं है। मैं तो चाहूंगा कि तुम इतने अच्छे आदमी बनना कि तुम में से कोई भी मिनिस्टर न होना चाहे।
महत्वाकांक्षा तो रोग है और वह केवल उनमें ही जड़ पकड़ता है जो कि स्वयं में हीन ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। महत्वाकांक्षा भी विक्षिप्तता का एक प्रकार है। स्वस्थ चित्त व्यक्ति महत्वाकांक्षी नहीं होता है। शिक्षा सम्यक हो तो जीवन में महत्वाकांक्षा का कोई स्थान न होना चाहिए। जीओ..गहरा से गहरा जीवन जीओ। लेकिन पद पर यश के लिए जो जीता है, वह जो गहरा कभी भी नहीं जी पाता है। वह तो अत्यंत उथले में जीता है। उसका कोई जीवन थोड़े ही है। वह तो महत्वाकांक्षा से खींचा जाता है। जीवन उसका एक शांति और आनंद नहीं बल्कि एक तनाव और पीड़ा है। इसलिए कितने महत्वाकांक्षी पागल पैदा किए गए, इससे गुरुकुल की प्रतिष्ठा बढ़ने वाली नहीं है। यह एक धर्म प्रतिष्ठान है, इसके लिए कोई और गौरव निर्मित करें। यह एक आदर की बात होगी कि गुरुकुल से निकला हुआ विद्यार्थी महत्वाकांक्षी न हो, पदाकांक्षी न हो, धनाकांक्षी न हो तो हम कह सकते हैं हमारे गुरुकुल से निकला हुआ विद्यार्थी महत्वाकांक्षी न हो, पदाकांक्षी न हो, धनाकांक्षी न हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे गुरुकुल से निकला विद्यार्थी विक्षिप्त नहीं है, स्वस्थ चित्त है।
बच्चों को महत्वाकांक्षा नहीं, प्रेम सिखाइए। बच्चों को प्रथम आने की दौड़ में मत लगाइए। बच्चों को अंतिम खड़ा होने की सामथ्र्य और बल सिखाइए। क्राइस्ट ने कहा है: धन्य हैं वे लोग, जो अंतिम खड़ा होने में समर्थ हैं। उन लोगों को धन्य नहीं कहा जो प्रथम खड़े हो जाते हैं। क्राइस्ट ने उन लोगों को धन्य कहा है जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। गुरुकुल तो वह होगी कि बच्चे को हम यह सिखो कि वह सब भांति के पागलपनों में दूर पीछे खड़े रहने में समर्थ हों। वह प्रेम में इतना आगे हो कि प्रतिस्पर्धा में पीछे खड़ा हो सके। लेकिन हम तो प्रतिस्पर्धा सिखाते हैं, प्रेम नहीं, और तब यदि हमारी सयता रोज युद्धों में पड़ जाती हो तो आश्चर्य नहीं। शायद हम सोचते हैं कि बिना स्पर्धा के तो कुछ सिखाया ही नहीं जा सकता है, लेकिन यह भूल है। स्पर्धा का ज्वर पैदा करके जो सिखाया जाता है, वह सब घातक है, क्योंकि फिर वह ज्वर जीवन भर नहीं उतरता है।
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सहयोगियों से स्पर्धा नहीं, वरन जो सिखाया जा रहा है, उसके प्रति प्रेम और आनंद पैदा करें। संगीत साथियों से स्पर्धा में भी सीखा जा सकता है और संगीत के प्रेम में भी। ऐसे ही गणित भी और ऐसे ही शेष सब कुछ निश्चय ही संगीत से प्रेम में भी एक स्पर्धा होगी, लेकिन वह स्वयं से ही होगी। वह होगी स्वयं को ही निरंतर अतिक्रमण करने की। मैं जहां आज हूं वहां कल मैं न रहूं। मैं जहां कल था, वही आज भी न ठहरा रहूं। ऐसी आत्मस्पर्धा शुभ है। लेकिन दूसरों से जो प्रतियोगिता है, वह जीवन को बहुत दुखों और तनावों में ले जाती है, क्योंकि उस सारी दौड़ का केंद्र अहंकार है और अहंकार नर्क का मार्ग है।
लेकिन अभी तो सभी भांति परोक्ष अपरोक्ष अहंकार ही सिखाया जाता है। वह देखो..दीवाल पर क्या लिखा है? लिखा है: राजा तो केवल अपने ही देश में लेकिन विद्वान सर्वत्र पूजता है। इसका क्या अर्थ है, क्या प्रयोजन है? निश्चय ही एक ही अभिप्राय है कि विद्वान बनो। लेकिन क्या पूजने की, पूजा पाने की इच्छा कोई शुभेच्छा है? इस भांति त्याग की शिक्षा भी दी जाती है। त्यागी बनो क्योंकि त्यागी पुजता है। लेकिन जो पूजना चाहता है क्या वह ज्ञानी या त्यागी हो सकता है? पूजा जाने की इच्छा तो अत्यंत गहरे अज्ञान और मूढ़ता से उत्पन्न होती है। वह तो निपट अहंकार है। और अहंकार से बड़ा न दुख है न दारिद्रय है, न दुर्भाग्य है।
सम्यक शिक्षा अहंकार से मुक्तदायी होनी चाहिए। क्या यह गुरुकुल ऐसे बच्चे पैदा नहीं करेगा जो निर-अहंकारी हों? यह एक बात ही हो सके तो जीवन में क्रांति हो जाती है। क्या हम ऐसे बच्चे तैयार नहीं कर सकते हैं जो सरल हों, सहज हों और जिन्हें जीवन में..दैनंदिन जीवन में आनंद हो? परमात्मा के सौंदर्य को जानने में उसके संगीत को अनुभव करने में केवल वे ही सफल हो सकते हैं जो कि सहज और सरल हैं।
मैं बहुत आशाओं से भरा हुआ आपसे विदा लेता हूं। मनुष्य तो अनगढ़ पत्थरों की भांति है। मैं अभी यहां की गुफाओं से लौटा हूं। उन पत्थरों को सृष्टा कारीगर मिल गए इसलिए वे साधारण से पोषण प्रतिमाएं बन कर अप्रतिम सौंदर्य को उपलब्ध हो गए हैं। प्यारे बच्चो, तुम्हारा जीवन भी ऐसे ही सौंदर्य को प्राप्त कर सकता है। लेकिन तुम्हें अपना सृष्टा बनना होगा। निश्चय ही तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारा गुरुकुल, तुम्हारे मां-बाप इसमें बहुत सहयोगी हो सकते हज, लेकिन फिर भी अंतिम जिम्मेवारी तो तुम पर ही है।
मनुष्य के निर्माण में वह स्वयं ही पत्थर है और स्वयं ही कारीगर और स्वयं ही वे उपकरण, जिनसे कि एक पाषाण प्रतिमा में परिवर्तित होता है।
  

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