कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम दर्शन-(प्रवचन-01)

प्रेम दर्शन-(साधना-शिविर)-ओशो

पहला-प्रवचन

असंभव घटना

मेरे प्रिय आत्मन्!
और हर आदमी की जिंदगी रोज बुरी से बुरी होती जा रही है। लेकिन लोग कुछ इस तरह कहते हैं, जैसे अंधेरा आज ही आ गया हो। अंधेरा सदा से है, और ऐसा नहीं है कि आदमी आज बुरा हो गया है; आदमी सदा से ही बुरा रहा है। लेकिन आज की बुराई दिखाई पड़ती है, पिछली बुराइयां छिप जाती हैं, खो जाती हैं और दिखाई नहीं पड़ती। और इतिहास के साथ एक बुनीयादी भूल हो जाती है और वह भूल यह है कि अतीत के तो अच्छे लोग याद रह जाते हैं और आज के सिर्फ बुरे लोग दिखाई पड़ते हैं। उनके बीच तुलना करने से कठिनाई हो जाती है।

राम याद हैं, बुद्ध याद हैं, महावीर याद हैं, कृष्ण याद हैं, उस जमाने का साधारण आदमी कौन है उसका हमें कुछ भी पता नहीं। आज से दो हजार साल बाद न मेरी किसी को याद होगी, न आपकी किसी को याद होगी, एक आदमी हमारे बीच थे गांधी, उन्हें लोग याद रखेंगे। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे कि गांधी का युग बड़ा धार्मिक युग रहा होगा--अहिंसा का, प्रेम का, सत्य का। झूठी होगी उनकी धारणा, गलत होगा उनका खयाल। गांधी हमारे प्रतिनिधि, रिप्रेजेंटेटिव नहीं हैं, गांधी अकेले हैं। हम उन जैसे नहीं ठीक उनसे विपरीत हैं। लेकिन वे याद रह जाएंगे और हमारे युग को उनका नाम दिया जाएगा, जो कि सरासर झूठ होगा। गांधी युग कहा जाएगा। युग हम बनाते हैं, गांधी नहीं। हम भूल जाएंगे और गांधी का युग हो जाएगा।


ऐसा ही हुआ है राम के साथ, बुद्ध के साथ, कृष्ण के साथ, महावीर के साथ। आज हम कहते हैं कि महावीर के जमाने के लोग कितने अच्छे रहे होंगे? महावीर के कारण हम ऐसा कहते हैं। लेकिन महावीर प्रतिनिधि नहीं हैं, महावीर अकेले हैं। और इस बात को थोड़ा सोच लेना जरूरी है ताकि हम, आज की बीमारी आज की ही नहीं है सदा की ही है, यह समझ पाएं। अगर बीमारी सदा की है और हमने समझा कि आज की है, तो हम इलाज कभी भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि हम उस बीमारी की जड़ों में ही नहीं उतर सकेंगे। हम समझेंगे बीमारी सामायिक है। जब कि बीमारी सनातन है। बिमारी उतनी ही पुरानी है जितना पुराना आदमी है। और हम समझेंगे आज का युग ही खराब है। तो हम जो तरकीबें सोचेंगे बदलने की वे काम नहीं करेंगी। क्योंकि हमारा निदान ही गलत होगा। बीमारी कितनी पुरानी है बीमारी मिटाने के लिए पहली बात है जो जान लेनी चाहिए। लेकिन भूल हुई है। अतीत के संबंध में निरंतर भूल हो जाती है। उसके कारण हैं।
पहला कारण तो मैं कहना चाहता हूं कि पिछले जमाने के चमकते हुए लोग याद रह जाते हैं और हम आज के अपने पड़ोसी से उनकी तुलना करते हैं। तो बहुत कठिनाई हो जाती है। उस जमाने का साधारण आदमी बिलकुल भूल जाता है। साधारण आदमी आज ही जैसा था। जरा भी फर्क नहीं। जितनी चोरी आज है, जितनी बेईमानी आज है, जितना कपट है, उतना ही तब भी था। जरा भी कम नहीं। और जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा कुछ मतलब है। बुद्ध सुबह से उठते हैं और सांझ तक लोगों को समझाते हैंः चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरे की स्त्री को लेकर मत भाग जाओ। या तो बुद्ध का दिमाग खराब होगा कि भले लोगों को ऐसी बातें समझा रहे हैं जो ये काम करते ही नहीं या लोग ऐसे रहे होंगे। चालीस साल तक अनवरत सुबह से सांझ तक बुद्ध ये ही बातें समझा रहे हैं। किनको समझा रहे होंगे? जिनको समझा रहे हैं वे लोग हमसे भिन्न नहीं हो सकते। क्योंकि बुद्ध की शिक्षाएं हमारे लिए आज भी काम की मालूम पड़ती हैं। वे हमारे जैसे लोग रहे होंगे, जिनके लिए वह काम की थीं। उसमें बहुत भेद नहीं हो सकता।
इन सारे बड़े पुरुषों को हम इतना आदर देते हैं, उसका भी यही कारण है। सिर्फ आदर उनको दिया जाता है जो अत्यंत न्यून होते हैं, अल्प होते हैं। उन्हें आदर नहीं दिया जाता जो बहुत होते हैं। अगर दुनिया में सज्जन बहुत हो जाएंगे, सज्जन को आदर मिलना बंद हो जाएगा। अगर दुनिया में महात्मा बहुत हो जाएंगे, फिर महात्मा को कोई पूछेगा नहीं। असल में महात्मा को पूछने के लिए चोरों की मौजूदगी बहुत जरूरी है। जो पूछते हैं, जो आदर देते हैं, वे विपरीत होते हैं। इसीलिए पूछते हैं, इसीलिए आदर देते हैं। स्कूल में एक शिक्षक काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखता है। सफेद दिवाल पर भी लिख सकता है। लिख तो जाएगा लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। सफेद खड़िया से काले तख्ते पर लिखे तो ही दिखाई पड़ता है। अच्छा आदमी बुरे समाज के काले तख्ते पर ही दिखाई पड़ता है। नहीं तो दिखाई नहीं पड़ेगा।
महावीर, बुद्ध और कृष्ण और राम जो हमें दिखाई पड़ते हैं हजारों साल के बाद वह समाज की अंधेरी रात, उसके ऊपर चमकते हुए दिखाई पड़ते हैं। अंधेरी रात में तारे ज्यादा चमकते हैं। दिन में तारे खो नहीं जाते। दिन में तारे उतने ही होते हैं जितने रात में होते हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि सफेदी में तारा कैसे दिखाई पड़ेगा? खो जाता है। जिस दिन दुनिया अच्छी होगी सबसे पहले महात्मा खो जाएंगे, वे दिखाई नहीं पड़ेंगे। जब तक दुनिया बुरी है तब तक महात्मा दिखाई पड़ता रहेगा। इसलिए महात्मा के तो हित में है कि दुनिया बुरी रहे। समझाता है, बुराई को मिटाता है। लेकिन उसका अस्तित्व तो रह सकता है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ेगा।
अतीत में हमने दस-पांच बड़े नामों को याद रख लिया है। उसका कारण है कि हमने दस-पांच आदमी पैदा किए। बाकी सारी आदमियत बांझ थी। उससे कुछ पैदा नहीं हुआ। आदमी सदा से ऐसा ही है। इसलिए कुछ ऐसा नहीं है कि आज ही अंधेरा हो गया है, और आज ही धर्म खो गया है, और आज ही लोग परमात्मा को याद नहीं कर रहे हैं, कुछ ऐसा नहीं है कि कलियुग की वजह से सब कुछ हो रहा है। सतयुग में सब अच्छा था? जैसा आदमी आज है वैसा सदा था। इसलिए बीमारी से लड़ना बहुत गहरे पड़ेगा।
कोई सोचता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। जब अंग्रेजी का पता न था तब भी लोग ऐसे थे। कोई सोचता हो कि फिल्मों के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। क्योंकि फिल्में जब न थीं तब भी आदमी ऐसा ही था।
इसलिए मैं कहता हूं कि बीमारी की गहराई और दूरी और लंबाई समझ लेनी जरूरी है। नहीं तो लोग ऐसे उपचार बताते हैं जिनको अगर हम हल भी कर लें, अगर सारे हिंदुस्तान के सिनेमा घर बंद कर दिए जाएं, तो भी आदमी में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि डर है कि आदमी शायद और बुरा हो जाए। डर इसलिए है कि सिनेमा की बुराई को देख कर खुद बुरा करने का मन थोड़ा कम हो जाता है। राहत मिल जाती है।
रास्ते पर अगर दो आदमी लड़ रहे हों तो हम हजार काम छोड़ कर वहां रुक जाते हैं। देख लेते हैं क्या हो रहा है? ऐसे ऊपर से कहते हैं कि भाई लड़ो मत, लेकिन भीतर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि कुछ हो ही जाए। और अगर वे दोनों लड़ने वाले मान लें कि आप सब कहते हैं तो नहीं लड़ते हैं, जाते हैं, तो हम उदास वापस लौटेंगे। लेकिन खून टपक जाए, पत्थर चल जाए, छुरी भुंक जाए, तो हम बहुत बुरा कहते हुए लौटेंगे कि लोग बड़े बुरे हो गए हैं, क्या हो रहा है यह? लेकिन हमारी आंखों में चमक होगी, चेहरे पर खुशी होगी। भीतर ऐसा होगा कि कुछ देखा, कुछ हुआ। वे जो दो आदमी लड़ते हैं उनको लड़ते देख कर हमारी लड़ने की वृत्ति भी थोड़ी निकलती है। इसके तो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।
पहला महायुद्ध जब हुआ तो बड़ी हैरानी हुई दुनिया के विचारशील लोगों को कि युद्ध जब तक चला तब तक दुनिया में चोरियां कम हुईं, हत्याएं कम हुईं, आत्महत्याएं कम हुईं। लोग पागल भी कम हुए। संख्या कम हो गई। बड़ी हैरानी की बात है। चोरों को युद्ध से क्या लेना-देना? और चोरों को अगर लेना-देना भी हो, तो पागल भी क्या देख कर पागल होते हैं? कि अभी युद्ध चल रहा है अभी पागल नहीं होना चाहिए। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ सका। दूसरे महायुद्ध में तो और घबड़ाहट बढ़ गई। क्योंकि दूसरे महायुद्ध में तो एकदम सारी दुनिया में पापों का, अपराधों का, हत्याओं का, आत्महत्याओं का, पागलों का, मानसिक बीमारियों का, सबका अनुपात नीचे गिर गया। तब समझ-सोच करना पड़ा। तब पता चला कि कारण हैं। कारण यह है कि जब सारा समाज सामूहिक रूप से पागल हो गया हो तो प्राइवेट पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। जब सारी दुनिया में इतनी हत्याएं हो रही हैं तो मैं अलग से किसी की हत्या करने जाऊं इससे कोई मतलब नहीं। सुबह अखबार पढ़ लेता हूं और राहत मिल जाती है। रेडियो सुन लेता हूं और राहत मिल जाती है।
सिनेमा बंद कर देने से लोग अच्छे हो जाएंगे, ऐसा अगर साधु-संत समझाते हों, तो उन साधु-संतों को आदमी की बुराई का कुछ भी पता नहीं। और कोई अगर समझाता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा से और पश्चिम के संपर्क से आदमी बिगड़ गया है, तो बिलकुल ही गलत समझाता है। सारी शिक्षा हम बंद कर दें और पश्चिम से सारा संबंध तोड़ दें और बैलगाड़ी की दुनिया में वापस लौट जाएं, तो भी अच्छा नहीं हो जाएगा आदमी, क्योंकि रोग बहुत गहरा है।
बैलगाड़ी के दिन थे तब भी आदमी ऐसा ही था। लेकिन कुछ बातों में फर्क पड़ा है। पहला तो फर्क यह पड़ा है, सबसे बड़ा जो फर्क पड़ा है वह यह पड़ा है कि हमें सारी दुनिया की खबरें एक साथ मिलने लगी हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। और ध्यान रहे कि हमारा रस बुराई में है तो बुराई की खबरें ही हमें मिल पाती हैं, भलाई की खबरें नहीं मिल पातीं। अगर रास्ते पर मैं किसी को छुरा मार दूं तो भावनगर के अखबार खबर छापेंगे। लेकिन रास्ते पर किसी गिरे को उठा लूं तो भावनगर के अखबारों में कोई खबर नहीं छपेगी।
दुनिया में भलाई अब भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन उसकी कोई खबर नहीं है। क्योंकि भलाई को सुनने को, पढ़ने को कोई उत्सुक नहीं है। वह कभी भी नहीं था। जब भी दो आदमी मिलते हैं तो किसी की बुराई करते हैं। अगर बुराई करने को आदमी न हो तो बातचीत का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। बातचीत ही नहीं हो पाती। दस आदमी मिलते हैं, तो पहले औपचारिक बातें होती हैं, फिर किसी की बुराई शुरू हो जाती है। दूसरे में बुरा खोज लेने से एक रस है, और वह रस यह है कि जब हमें दूसरे में बुराई मिल जाती है तो हमें एक रस तो यह मिलता है कि हमें यह राहत मिल जाती है कि हम हीं बुरे नहीं हैं और लोग भी बुरे हैं। और लोग और भी ज्यादा बुरे हैं। इसलिए हम चारों तरफ बुराई की खोज करते हैं, ताकि हमारी बुराई की जो पीड़ा है, वह जो कांटे की तरह चुभती है वह कम हो जाए। जब हमें ऐसा पता चले कि सभी लोग बीमार हैं तो फिर बीमारी इतनी दुखद नहीं रह जाती।
अगर मुझे पता चले कि गांव में सब लोग स्वस्थ हैं। मैं ही अकेला बीमार हूं। तो बीमारी से भी ज्यादा यह बात दुख देती है कि और सारे लोग स्वस्थ हैं। मैं ही सिर्फ बीमार हूं। लेकिन अगर पता चल जाए कि सारे लोग बीमार हैं तो, तो फिर बीमारी का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह कम हो जाती है। और अगर यह पता चल जाए कि मुझसे भी ज्यादा बीमार हैं, तब अपनी बीमारी में भी स्वास्थ्य दिखाई पड़ने लगता है। क्योंकि हम कम बीमार हैं।
मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर है, लिएबमेन। उसने लिखा है कि मैं बहुत परेशान था। सभी परेशान हैं उसी परेशानी से। परेशानी यह थी कि बड़ा जीवन में दुख था। किसके जीवन में सुख है? लेकिन लिएबमेन ने लिखा है कि मैं इसलिए और भी ज्यादा दुखी था कि दूसरे लोग सुखी मालूम होते थे और रास्ते पर लोग हंसते हुए मिलते थे। मैं किसी से पूछता कि कैसे हो? तो वह कहता कि बहुत अच्छा। सभी लोग कहते हैं। लिएबमेन सोचता है कि मैं तो कभी भी इस हालत में नहीं हुआ कि कह सकूं कि बहुत अच्छा। सारी दुनिया सुख में है, मैं ही सिर्फ एक दुख में हूं। लोगों के चेहरे देख कर बड़ी भूल पैदा हो जाती है। और हमें लोगों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं और अपनी आत्मा दिखाई पड़ती है इसलिए तुलना हमेशा मुश्किल क्यों होती है? हम भीतर असलियत को देख लेते हैं और दूसरे आदमी का अभिनय दिखाई पड़ता है।
रास्ते के लोग हंसते हुए दिखाई पड़ते हैं, मुस्कुराते हुए दिखाई पड़ते हैं। पति-पत्नी को रास्ते पर चलते देखें तो ऐसा लगता है स्वर्ग में रहते होंगे। और अगर घर में कभी उनको पता न हो और झांक लें तो पता चलेगा कि नरक की उन्होंने पूरी व्यवस्था कर रखी है। एक, चेहरे हैं जो हम बाहर से लगाए हुए हैं, वे हमने, वे भी हमने इसलिए लगाए हैं कि भीतर की हालतें ऐसी हैं कि कोई देख ले तो बड़ा अपमानजनक होगा। इसलिए चेहरे लगा लिए। उनसे हम बाहर काम चला लेते हैं। घर लौट कर असली आदमी हो जाते हैं।
लिएबमेन ने देखा, सब लोग हंसते हैं, सब खुश हैं, सब सुखी हैं, मैं अकेला दुखी हूं। उसने एक रात भगवान से प्रार्थना की कि मैं इतना दुखी हूं, मेरे से नाराजगी क्या है? और फिर मैं ज्यादा नहीं मांगता। मैं उतनी ही खुशी मांगता हूं जितनी तूने दूसरों को दी है। अगर यह भी ज्यादा है तो मैं किसी दूसरे से अपना दुख बदलने को राजी हूं। मेरा दुख किसी और को दे दें, किसी को भी। इस गांव में किसी को भी मेरा दुख दे दें और किसी का भी दुख मैं बदलने को राजी हूं। लेकिन अब मेरा दुख का बोझ ढोना बहुत कठिन है।
सो गया रोता हुआ। आंख में आंसू थे। रात उसने एक सपना देखा, सपना देखा कि एक बड़ा भारी भवन है, गांव के सारे लोग इकट्ठे हुए हैं और हर आदमी अपने-अपने दुख की गठरी अपने कंधे पर लेकर चला आ रहा है। आज उसने पहली दफा लोगों के दुख देखे। बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। कोई भी गठरी अपने से छोटी न दिखाई पड़ती थी। इसके बाद आवाज सुनाई पड़ी कि सब अपनी गठरियां खूंटियों पर टांग दें--दुखों की गठरियां--और फिर जिसको जो चुनना हो वह उसकी गठरी चुन ले। दौड़ कर उसने अपनी गठरी टांगी। उसने देखा कि सारे लोग दौड़ कर टांग रहे हैं, वह तो सोचता था कि बाकी लोग खुश हैं। लेकिन वे भी अपने दुख से छूटने को आतुर थे। फिर दूसरी आवाज आई कि अब जिसको जिसकी गठरी चुननी हो वह चुन ले। लिएबमेन ने जब गठरियां टंगी देखीं तो वह भागा अपनी गठरी की तरफ कि अपनी वापस उठा ले, कोई और न उठा ले। क्योंकि अपने कम से कम पहचाने हुए दुख तो हैं उसके भीतर, जाने-माने। दूसरों की गठरियां भी बड़ी दिखाई पड़ती हैं और पता नहीं कैसे दुख हों, जिनसे कोई पहचान भी नहीं। और उसने बड़ी घबड़ाहट में दौड़ कर अपनी गठरी उठा कर चारों तरफ देखा। और देखा कि हरेक ने अपनी गठरी उठा ली। उसने पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहाः अपनी गठरी कम से कम जानी-मानी, पहचानी तो है। सोचते थे हम भी कि दूसरों से दुख बदल लें। लेकिन दूसरों के दुख कभी देखे न थे। दूसरों की हंसियां देखीं तो यह झूठी थीं और अपने दुख देखे थे जो सच्चे थे। और दोनों के बीच तुलना की थी, इसलिए कठिनाई हो गई।
चारों तरफ हम दुख देखना चाहते हैं ताकि अपना दुख हलका हो जाए। बुराई देखना चाहते हैं ताकि अपनी बुराई हलकी हो जाए। चारों तरफ कुरूपता देखना चाहते हैं ताकि अपनी कुरूपता, अपनी अग्लीनेस दिखाई न पड़े, ताकि हम सुंदर, स्वस्थ, अच्छे मालूम पड़ें। आदमी सदा से यह करता रहा। लेकिन नये युग में एक बात हुई है कि हमारे पास बुराई को देखने के साधन बहुत उपलब्ध हो गए हैं, जो कभी भी न थे। अखबार हैं, रेडियो हैं। सुबह से सारी दुनिया की बीमारियों की खबरें घर ले आते हैं। आप सुबह से देखते हैं और कहते हैं, दुनिया बहुत बुरी हो गई। दुनिया ऐसी ही थी। सिर्फ अखबार न थे जो खबर ले आते। और लिखना-पढ़ना इतना मुश्किल था कि अच्छी बातें ही नहीं लिखी जा पाती थीं तो बुरी बातें लिखने के लिए तो कोई उपाय ही नहीं था। इसलिए थोड़ी सी बातें जो लिखी जा सकती थीं, बचाई जा सकती थीं, वे हमारे पास आ गई हैं।
यह मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि पुराने आदमी से मेरा कोई विरोध है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि नये आदमी की बीमारी नये आदमी की ही बीमारी नहीं है आदमी की बीमारी है। यह हम समझ पाएं तब शायद रास्ता भी खोजा जा सके। अगर हम रोज कहते हैं कि लोग अधार्मिक होते जा रहे हैं। लोग कब धार्मिक थे? कोई उल्लेख तो नहीं मिलता कि लोग कभी धार्मिक थे।
लाओत्सु से पहले चीन में कोई छह हजार वर्ष पुरानी किताब है। उस किताब की भूमिका को मैं पढ़ता था, तो मैं दंग रह गया। वह भूमिका ऐसी है जैसे कि आज के ही अखबार में एडिटोरियल लिखा हो। उस भूमिका में लिखा है कि लोग भ्रष्ट हो गए हैं, पापी हो गए हैं, भ्रष्टाचारी हो गए हैं, बुरे हो गए हैं। पहले के लोग बहुत धार्मिक थे। आजकल के लोग बहुत अधार्मिक हो गए हैं। छह हजार साल पुरानी किताब भी यह लिखती है कि पहले के लोग अच्छे थे। आज के लोग बुरे हो गए हैं। अब पूछना जरूरी है कि यह पहले के लोग फिर कब थे? और अब तक दुनिया में एक भी किताब में नहीं है जो यह कहती हो कि आज के लोग अच्छे हैं। एक भी किताब नहीं है सारे जगत में। सब किताबें कहती हैं कि पहले के लोग अच्छे थे। आज के लोग खराब हो गए हैं। एक किताब नहीं है जो यह कहती हो कि यह समय अच्छा है, आनंद का है। सब किताबें कहती हैं पहले के दिन बहुत अच्छे थे, अब तो दिन बहुत बुरे हो गए हैं।
हर बाप यही कहता है कि कहां वे बातें जो हमने देखीं। बेटा सुनता है। बड़े होकर वह भी अपने बेटे से कहता है कि कहां वे बातें जो हमने देखीं। बेटा सुनता है। वह भी अपने बेटे से कहता चला जाएगा कि कहां वे बातें जो हमने देखीं। ये बातें किसी ने कभी देखी थीं? ये दिन अच्छे कब थे? ये दिन अच्छे कभी भी न थे। आदमी ऐसा ही था। अधार्मिक ही था। लेकिन एक फर्क पड़ा है, और वह फर्क यह पड़ा है कि पुराना अधार्मिक आदमी भी धार्मिक होने का ढोंग कर लेता था। नये आदमी को ढोंग करना मुश्किल हो गया।
ढोंग टूट गया है। हिपोक्रेसी टूट गई है। पाखंड टूट गया है। पुराना आदमी तिलक लगा लेता, चोटी बड़ी कर लेता, समझता कि धार्मिक हो गया है। नये आदमी की समझ के बाहर है कि तिलक लगाने से, चोटी बढ़ाने से धार्मिक कोई कैसे हो जाएगा? और अगर पक्का भी पता चल जाए कि चोटी से कोई केमिकल परिवर्तन हो जाते हैं, और तिलक लगाने से कोई आत्मा बदल जाती है, तो भी नया आदमी कहेगा कि इतना सस्ता परिवर्तन जो चोटी बढ़ाने से और तिलक लगाने से पैदा होता हो कुछ मतलब का नहीं मालूम पड़ता। इतना सस्ता परिवर्तन नहीं हो सकता है।
पुरानी दुनिया में धार्मिक होने के ढोंग खोजे थे, वे सब टूट गए हैं। धर्म नहीं टूटा है। धर्म कभी था ही नहीं कि टूट जाए। हां, धर्म के ढोंग थे वे सब टूट गए हैं। आज कोई मंदिर जाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, तो हम सोचते हैं, लोग बड़े अधार्मिक हो गए हैं। लेकिन जो लोग मंदिर जाते थे, वे धार्मिक थे? मंदिर जाने से धार्मिक होने का कोई संबंध है? मंदिर जाने से धार्मिक होने का कोई भी संबंध नहीं। धार्मिक आदमी जहां भी हो वहीं मंदिर अनुभव करता है। ऐसा तो हो सकता है कि धार्मिक आदमी जहां बैठे वहीं मंदिर अनुभव करे। लेकिन इससे कोई संबंध नहीं है कि धार्मिक आदमी मंदिर जाए। मंदिर जाने से कोई संबंध धार्मिक होने का नहीं हो सकता है। मंदिर आदमी के बनाए हुए हैं। मूर्तियां आदमियों की निर्मित की गईं। वहां हम अपनी ही बनाई मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हैं।
अगर किसी ग्रह पर, उपग्रह पर किसी चांद-तारे पर जीवन होगा और वे हमें नीचे झांक कर देखते होंगे तो बहुत हैरान होते होंगे। घर में छोटे बच्चे गुड्डा-गुड्डियों के विवाह करते हैं तो बड़े-बूढ़े हंसते हैं और कहते हैं कि बच्चे हैं। फिर बड़े बूढ़े राम-सीता का विवाह करते हुए देखे जाते हैं और बच्चे अगर हंस सकते हों तो हंस कर कहें और कहें कि बूढ़े हैं, सठिया गए हैं, दिमाग खराब हो गया है। धार्मिक होने से, धार्मिक क्रांति से किसी के मंदिर जाने का, किसी की मूर्ति की पूजा का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन ये सारे पाखंड आज अचानक आकर उखड़ गए हैं, टूट गए हैं। आज सब जगह दरारें पड़ गई हैं और तब हमें ऐसा लगता है कि लोग अधार्मिक हुए जा रहे हैं। मेरी अपनी समझ और है। मेरी समझ यह है कि धर्म का पाखंड जिस दिन पूरी तरह टूट जाएगा, उसी दिन आदमी के धार्मिक होने की पहली संभावना शुरू होगी। क्योंकि जब तक हम धोखे में रहते हैं, जब तक हम धोखे की बातें खड़ी कर लेते हैं, तब तक बहुत कठिनाई है। क्योंकि तब तक सत्य की खोज नहीं हो सकती।
धर्म क्या है? इसकी खोज होनी कठिन हो गई, क्योंकि हमने धर्म के नाम पर कुछ ऐसे काम इकट्ठे कर लिए जिनसे धर्म का कोई भी संबंध नहीं। अब एक आदमी अगर बैठ कर राम-राम, राम-राम जपता रहे; राम बड़ा प्यारा नाम है, लेकिन जपने से कोई मतलब नहीं। अभी मैं एक गांव में गया था, तो वहां एक सज्जन, कहना चाहिए, मेरे हिसाब से तो नहीं कहना चाहिए, लेकिन ऐसे वे सज्जन हैं, उन्होंने बड़ा एक काम किया है, उन्होंने एक बड़ा पुस्तकालय बनाया है, जिसमें हजारों किताबों में सिर्फ राम-राम, राम-राम लिखवा कर रखवा दिया है। वहां दस-पचास लोग दिन भर सुबह से शाम तक राम-राम लिखने का काम कर रहे हैं। उनके, वह कई अरब नाम उन्होंने लिखवा कर, वह लाइब्रेरी बड़ी होती चली जाती है। हिंदुस्तान भर में कई स्त्रियां, पुरुष घरों में बैठे राम-राम लिख कर वहां पोथियां भेजते रहते हैं, वे उनको इकट्ठा करते जाते हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि आप देखने चलिए, आप बड़े प्रसन्न होंगे। मैंने कहा कि मैं प्रसन्न नहीं होऊंगा, मैं एकदम दुखी हो जाऊंगा। उन्होंने कहाः क्यों? अरबों-खरबों राम-नाम लिखवा कर रख लिए हैं। मैंने कहा कि तुम कितने ही लिखवा कर रख लो, सिर्फ बच्चों के काम में जो काॅपियां आ सकती थीं वह तुम खराब कर रहे हो और कुछ भी नहीं कर रहे हो। और अगर कहीं राम होगा तो मरने के बाद मिल गए तो वह भी तुमसे कहेगा कि तुमने बहुत अपराध किया है। जब बच्चों के पास किताबें न थीं पढ़ने को तब तुमने ये काॅपियां खराब क्यों की? और राम-नाम लिखने से कितनी ही बार लिखने से क्या हो सकता है?
लेकिन नहीं, पहले वह आदमी धार्मिक समझा जाता है, अभी भी समझा जा रहा है। लेकिन बीस साल बाद बहुत मुश्किल है। ऐसा आदमी अगर हमें मिलेगा तो अपराधी हो जाएगा बीस साल बाद। क्रिमिनल एक्ट। और पचास साल बाद अगर हम इस आदमी को मनोचिकित्सक के पास इलाज के लिए ले जाएं तो हैरानी नहीं होगी कि इसका दिमाग खराब हो गया है। यह किताबें खराब करता है। राम-राम लिखता चला जाता है। राम बड़ा प्यारा नाम है, लेकिन किताबों पर गोदने से कोई आदमी धार्मिक नहीं हो सकता, लेकिन हमें धार्मिक दिखाई पड़ रहा है। एक आदमी माला फेर रहा है बैठ कर घंटे तक, तो हमें धार्मिक मालूम होता है, क्योंकि हमारे दिमाग में एक छाप है कि यह माला की गुरिए फेरना एक धार्मिक कृत्य है। लेकिन धर्म से, और किसी माला की गुरिए फेरने से कोई भी तो संबंध नहीं है।
तिब्बत में हमसे ज्यादा होशियार लोग हैं, उन्होंने प्रेयर व्हील बना लिया है। वे माला फेरते नहीं। एक सौ आठ स्पोक लगा दिए हैं एक चके में। चरखे जैसा चक्का बना लिया है। एक-एक स्पोक को उन्होंने एक मंत्र लिख दिया है और एक धक्का मार देते हैं। वह अपना दस-पांच चक्कर लगा लेता है। जितने चक्कर लग जाते हैं उतने उन्हें एक सौ आठ मंत्रों का लाभ उन्हें मिल जाता है। तो दुकान पर बैठे माला अलग से फेरने के लिए समय भी नहीं निकालना पड़ता। आदमी की कनिंगनेस, चालाकी की भी सीमाएं नहीं हैं। दुकान पर अपना काम कर रहे हैं उन्हें मौका मिला एक धक्का उसमें मार दिया।
एक लामा को मैं मिलने आया था, तो मैंने कहा, कि तुम बड़े पागल हो। प्लग लगा कर बिजली में लगा दो, अब तुम्हें धक्का मारने की भी जरूरत नहीं, वह चलता ही रहेगा। लेकिन इससे कोई धार्मिक हो जाएगा?
धार्मिक होना एक बड़ी क्रांति है पूरे जीवन की, आमूल चेतना की। लेकिन इन कृत्यों से धार्मिक होने का कोई भी संबंध नहीं है। पर यह आदमी धार्मिक अब तक था, तो एक भ्रम था कि दुनिया धार्मिक है। लेकिन अगर हम लौट कर देखें, अगर दुनिया धार्मिक थी तो तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध कैसे हुए? तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्धों की कथा है। इतनी हत्याएं, इतनी लूट, इतनी खसोट कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। यह पुरानी दुनिया धार्मिक थी तो फिर यह सब कैसे हुआ? यह पुरानी दुनिया अगर धार्मिक थी तो इस धार्मिक दुनिया से यह अधार्मिक दुनिया पैदा कैसे हो गई? यह भी थोड़ा ध्यान रखना जरूरी है कि बेटे आसमान से पैदा नहीं होते, मां-बाप से पैदा होते हैं। और बेटे जो कुछ लाते हैं वह मां-बाप में अगर छिपा न रहा हो तो नहीं ला सकते हैं। उपाय नहीं है लाने का। फल से हम वृक्ष की पहचान कर लेते हैं। आज की दुनिया के सारे आज तक के इतिहास की पहचान है, वह खबर देती है कि कहां से यह दुनिया आई है। ये आसमान से नहीं उतर आते हैं लोग।
लेकिन एक फर्क पड़ा है और वह फर्क यह नहीं है कि धर्म नष्ट हो गया। धर्म था ही नहीं। कुछ थोड़े से लोग दुनिया में धार्मिक हुए हैं। मनुष्यता अब तक धार्मिक नहीं हो पाई है। समाज अब तक धार्मिक नहीं हो पाया है। तो धर्म के टूटने का तो डर ही नहीं है। हां, लेकिन धर्म के नाम पर एक पाखंड था, एक हिपोक्रसी थी, एक बहुत बड़ा धोखे का जाल था जो सारी दुनिया में फैला हुआ था। वह जाल धीरे-धीरे टूटना शुरू हो गया। वह जगह-जगह से टूट गया। उसमें जगह-जगह से छेद पड़ गए। वह टूट जाने के कारण एक ऐसी बात प्रतीत होने लगी है कि दुनिया अधार्मिक हो गई। नहीं, ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि मेरी अपनी दृष्टि में हमारा यह जो बोध है कि हम अधार्मिक हैं, यह बोध बहुत कीमती है, धार्मिक होने के लिए बहुत मूल्यवान है।
अगर किसी आदमी को स्वस्थ होना हो, तो उसे यह पता चलना बहुत जरूरी है कि वह बीमार है। अगर बीमार किसी तरह के सपने में जीता हो और समझता हो कि मैं स्वस्थ हूं, तब फिर बहुत कठिनाई है। लेकिन बीमार को पता चल जाए कि मैं बीमार हूं, तो फिर बीमारी से लड़ना पड़ेगा, बीमारी तोड़नी पड़ेगी, बदलनी पड़ेगी।
मेरी दृष्टि में इस बीसवीं सदी में आकर एक बहुत कीमती घटना घटी है और वह यह कि हम आदमी की असली तस्वीर को पहली दफा पूरी तरह देखने में समर्थ हो पा रहे हैं। नहीं तो आदमी ने अपनी तस्वीर में बहुत तरह के ढोंग रच रखे थे और उनसे कभी पता नहीं चलता था कि वह आदमी कैसा है। उस ढोंग के कारण दिखाई ही नहीं पड़ता था। असली आदमी की खबर ही नहीं मिल पाती थी। खुद को भी खबर नहीं मिलती थी कि असली आदमी क्या था। अगर मुझे संन्यासी होना होता पुरानी दुनिया में तो काफी था कि मैं गेरुएं कपड़े पहन लूं और संन्यासी हो जाऊं। आज भी कुछ लोग सिर्फ गेरुए कपड़े पहन कर संन्यासी हो रहे हैं। हिंदुस्तान में पचास लाख से ऊपर संन्यासी हैं। जिस देश में पचास लाख संन्यासी हों, उस देश की जिंदगी कुछ और होनी चाहिए। सुगंध कुछ और होनी चाहिए। लेकिन आज हिंदुस्तान से ज्यादा बेईमान, हिंदुस्तान से ज्यादा पतित, हिंदुस्तान से ज्यादा परेशान पृथ्वी पर कोई मुल्क नहीं है।
पचास हजार संन्यासियों की मौजूदगी इस मुल्क को तो जैसे पारस सोना बना दे लोहे को। ऐसे पचास हजार संन्यासी जिस देश में हों उस देश की तो जिंदगी और हो जानी चाहिए। सुगंध और चमक आ जानी चाहिए। लेकिन वह नहीं आ रही है। उसका कारण है कि जिसे हम संन्यासी कहते हैं वह पुराना ढोंग है। वह सिर्फ कपड़े बदलने का नाम है। वह सिर्फ तोतों जैसी रटी हुई पुरानी बातों को दोहरा देने का काम है। वह सिर्फ आरोपित, इंपोज्ड, ऊपर से थोपा गया संन्यास है। वह संन्यासी बना हुआ है। बने हुए का मतलब उसने कोशिश कर-कर के वह संन्यासी हो गया है। अब कोई आदमी दुनिया में कोशिश कर-कर के संन्यासी हो सकता है? और अगर हो जाएगा तो सिर्फ अभिनय कर सकता है।
मैं एक गांव के पास से गुजरता था। एक मेरे मित्र उस जंगल में जाकर रहने लगे थे। तो मैं करीब से गुजरता था, तो उनका झोपड़ा पड़ता था, मैंने कहा, जाकर देख आऊं। गाड़ी रोक कर मैं उतर कर गया। वे एक पहाड़ी एकांत में संन्यासी होकर रह रहे थे। खिड़की से मैंने देखा तो वे नंगे भीतर टहल रहे हैं। वस्त्र नहीं पहने हुए हैं। फिर मैंने दरवाजे पर जाकर दरवाजा खटखटाया और वे आए तो चादर लपेट कर आए। तो मैंने उनसे पूछा कि जहां तक मुझसे अगर गलती नहीं हुई है तो खिड़की से आप मुझे दिखाई पड़े कि नग्न हैं। उन्होंने कहाः हां, मैं नंगे रहने का अभ्यास कर रहा हूं। मैंने कहाः अभ्यास नंगे रहने का? सुना ही नहीं कि महावीर ने कभी नंगे रहने का अभ्यास किया हो? चित्त सहज हो गया था, कपड़े गिर गए थे। पता ही नहीं चला कि वे कब नंगे हो गए। अगर पता चला हो तो नंगापन झूठा हो जाएगा।
एक चित्त की सरलता है कि शरीर में फिर छिपाने को कुछ नहीं मालूम पड़ा होगा, कपड़े गिर गए होंगे। यह तो समझ में आ सकता है। लेकिन एक आदमी अभ्यास कर रहा है नंगे होने का। तो मैंने उनसे कहाः संन्यासी होना है कि किसी सर्कस में भरती होना है? अभ्यास हो जाएगा और बड़ा खतरा यही है कि सफल हो जाओगे। उन्होंने कहा कि पहले दो-चार मित्रों के पास नंगा पहुंचूंगा। फिर थोड़े छोटे गांव में। फिर बड़ी राजधानी में। धीरे-धीरे अभ्यास हो जाएगा। अभ्यास तो हो ही जाएगा। अभ्यास तो कुछ भी हो सकता है। नंगे होने का भी अभ्यास हो सकता है। लेकिन उस नग्नता को उपलब्ध करना बात दूसरी है; जो अभ्यास से नहीं निर्दोष होने से आती है, इनोसेंट होने से आती है। और ध्यान रहे कि इनोसेंट माइंड और कल्टीवेटिड माइंड, निर्दोष चित्त और अभ्यासी चित्त बिलकुल उलटे होते हैं।
अभ्यासी चित्त बहुत जटिल होता है। वह इंतजाम कर रहा है। वह नंगे होने का इंतजाम कर रहा है। वह निर्दोष नहीं हो रहा है, नंगे होने का इंतजाम कर रहा है। वह इंतजाम कर लेगा। ऐसी क्या कठिनाई है, आदमी नंगा हो सकता है। लेकिन ऐसा जो एक पुराना जगत था, जिसमें संन्यास को, धर्म को, प्रार्थना को, पूजा को, सबको रिचुअल और क्रियाकांड में बदल दिया था, वह टूट रहा है। इसलिए डर नहीं जाने की जरूरत है कि आदमी अधार्मिक हो गया है। सिर्फ धर्म के नाम पर जिसे हम धर्म कहते थे, वह पाखंड टूट रहा है।
एक छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।
मैंने सुना है कि एक रात एक पति घर वापस लौटा, वह थका-मांदा है, वह बिस्तर पर लेट गया है। उसने अपनी पत्नी से कहा कि जल्दी पानी ले आ, मुझे बहुत जोर से नींद आती है। पत्नी पानी लेने गई है। वह जब लेकर लौटी तब तक पति सो ही गया है। तो उस पत्नी ने यह सोचा कि नींद तो लग गई है, अब नींद तोडूं वह भी ठीक नहीं है, और प्यास तो लगी थी, तो अगर मैं पानी रख कर सो जाऊं, तो नींद खुले, प्यास तब तक और भी बढ़ गई होगी, तो वह पानी का बरतन लिए चुपचाप रात भर उसके बिस्तर के करीब खड़ी रही। पता नहीं कब नींद टूट जाए और पता नहीं कब पानी का खयाल आ जाए और मैं सो जाऊं। कोई सुबह भोर होते-होते पति की नींद खुली, तो वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि तू यह बर्तन लिए यहां क्यों खड़ी है? उसने कहा कि मैंने सोचा कि नींद तोडूं वह भी ठीक नहीं, और आप प्यासे हैं और मैं सो जाऊं और हो सकता है कि मुझे नींद न तोड़े मेरी, इस कारण आप प्यासे ही पड़े रहें, इसलिए मैं रात यहीं खड़ी रही। यह आस-पास खबर पहुंच गई। गांव के सम्राट तक खबर पहुंच गई। गांव का सम्राट उस स्त्री के दर्शन करने आया। सच में ऐसी स्त्री दर्शन के योग्य है। वैसे ऐसी स्त्री मिलना थोड़ा मुश्किल है।
सम्राट जब उसके दर्शन करने आया और बहुत से हीरे-जवाहरात भेंट करने आया। उसने कहा कि ऐसी स्त्री भी इस राज्य में है। मैं धन्यभागी हुआ। पड़ोस की स्त्रियों को आग लग गई। स्त्रियों को काम ही नहीं है सिवाय इसके कि एक-दूसरी स्त्री के प्रति उनको आग लगती रहे। सब तरफ बात फैल गई। स्त्रियों ने कहाः इसमें बात ही क्या खास है? कल हम ही करके दिखा देंगे। इसमें ऐसी बात ही कौन सी खास है?
पड़ोस में एक स्त्री जिसने कहा कि यह तो हद हो गई, इतनी सी बात के लिए इतने हीरे-जवाहरात? इतना शोरगुल? इतनी फूलमालाएं? गांव भर में यह चर्चा और यह देवी बना देना, इसमें रखा क्या है, यह तो हम भी कर सकते हैं। उसने अपने पति से कहा कि ध्यान रखो, आज जब लौट कर आओ तो थके-मांदे लौटना। आते से ही बिस्तर पर लेट जाना और कहना कि प्यास लगी है। मैं पानी लेकर आऊं, तब ध्यान रहे, सो जाना, जागे मत रहना और मैं रात भर खड़ी रहूंगी। इसमें बात ही क्या है? सुबह आंख खुले तो पूछना कि अरे, तू रात भर खड़ी रही? तब मैं वही उत्तर दूंगी जो कि दिया गया है। और तब गांव भर में खबर फैला देना। सम्राट कल हमारे द्वार पर भी आएं।
हुआ, रिचुअल पूरा हो गया। क्रियाकांड पूरा कर दिया गया। पति थक कर लौटा। पति कुछ भी कर नहीं सकता। पत्नी ने आज्ञा दी थी, थक कर लौटना पड़ा। आकर लेट गया, उसने कहा, बड़ी प्यास लगी है। और पूरे जो भी व्यवस्थित किया गया था नाटक, वह खेला गया। जब पति सो गया तो पत्नी ने सोचा कि अब कोई देख भी तो नहीं रहा, रात भर खड़े रहने का मतलब क्या है, सुबह-सुबह फिर खड़े हो जाएंगे। स्वाभाविक था, जिस तर्क से वह चल रही थी उसमें यह तर्क बिलकुल ही संगत था। अभी तो कोई देख भी नहीं रहा। खबर तो सुबह उड़ानी है। और पति को कह दिया, सुबह तक आंख खोलना मत और बीच में सुबह आंख खोल कर पूछना कि अरे तू अब तक खड़ी है।
पत्नी सो गई। अब पति बार-बार सुबह आंख खोल कर देख रहा कि वह भी सो रही तो वह बेचारा फिर आंख बंद कर लेता, क्योंकि जब वह बर्तन लेकर खड़ी हो जाए तब वह पूछे कि अरे तू खड़ी है। क्योंकि इसके आगे पूरी कथा चले। वे डायलाॅग तो सब तय थे। वह कथा भी चल गई। उन्होंने आस-पास खबर भी पहुंचा दी। लेकिन न सम्राट आया, न गांव से कोई खबर आई। उस स्त्री ने कहा कि बड़ी ज्यादती मालूम हो रही है। बड़ा अन्याय मालूम हो रहा है। जो किया गया वही यहां भी किया गया है। वह सम्राट के पास गई। उसने कहा कि अन्याय हो रहा है। एक के साथ यह और हमारे साथ यह व्यवहार।
तो सम्राट ने कहाः पागल, कुछ चीजें हैं जो होती हैं, की नहीं जाती हैं। हो जाए तो उनमें फूलों की सुगंध होती है, की जाएं तो कागज के फूल रह जाते हैं।
धर्म कुछ ऐसी चीज नहीं है कि की जा सके। होने वाली बात है। घटना है जो घटती है। हम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। हम तैयारी कर सकते हैं। हम रो सकते हैं, हम प्रार्थना कर सकते हैं कि वह घट जाए। लेकिन हमने एक क्रियाकांड बनाया है, जिसमें हम धर्म कर रहे हैं। हमने धर्म को एक क्रिया बनाई है, जब कि धर्म एक क्रिया नहीं है। धर्म एक अनुभव है जो घट सकता है, जैसे प्रेम एक अनुभव है।
प्रेम घट सकता है, किया नहीं जा सकता। और किया जाए तो झूठा होगा। इसलिए जो लोग प्रेम करने की आदत में पड़ जाते हैं, वे फिर कभी प्रेम कर ही नहीं पाते। क्योंकि वह घटना कभी घटती ही नहीं। घटना तो उन्हीं को घट सकती है जिन्होंने कभी प्रेम करने के लिए सोचा ही नहीं, तो घटना घट सकती है। लेकिन जिन्होंने प्रेम करना सीख लिया, इसलिए जो लोग प्रेम का धन्धा करते हैं, जैसे अभिनेता हैं, वे बेचारे कभी प्रेम नहीं कर पाते। दिन-रात प्रेम का धंधा करते हैं। दिन-रात अभिनय करते हैं। जब वे अपनी प्रेयसी या प्रेमी के पास होते हैं तब भी वे वही बोलते हैं जो उन्होंने पर्दे पर बोला था, वह भीतर से कुछ आ नहीं सकता क्योंकि अभ्यास मजबूत हो जाता है।
धर्म को हमने अभ्यास बनाया था अतीत युगों में। धर्म को अभ्यास नहीं बनाया जा सकता। धर्म प्रेम की ही तरह की घटना है। इसलिए मैं कहता हूंः धर्म प्रेम है। और जो प्रेम के इस राज को समझ लेता है वही केवल धर्म के राज को समझ सकता है। और जीसस का यह वचन बहुत महत्वपूर्ण है, जहां उन्होंने कहा हैः लव इ.ज गाॅड। जहां उन्होंने कहा हैः प्रेम ही प्रभु है। असल में प्रेम ही प्रभु है। इसका मतलब है कि प्रेम के घटने का जो मार्ग है, धर्म के घटने का भी वही मार्ग है।
मैंने सुना है कि रामानुज एक गांव में ठहरे हैं और एक आदमी आया और उस आदमी ने रामानुज के पैर पकड़ लिए और उनसे कहा कि मुझे भगवान से मिलना है, मुझे कोई रास्ता बता दो। रामानुज ने कहा कि तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा कि मैं इस झंझट में कभी नहीं पड़ा। आप मुझे भगवान से मिला दो। रामानुज ने कहाः कभी तो किसी को किया ही होगा? उसने कहाः आप भी कहां की सांसारिक बातें कर रहे हैं। मुझे भगवान से मिलना है। रामानुज ने कहा कि फिर मैं एक दफा तुझसे पूछता हूं कभी किसी को भी तूने प्रेम किया होगा? उस आदमी ने कहाः आप कैसी बातें कर रहे हैं। इस झंझट में मैं कभी पड़ा ही नहीं। मुझे भगवान से मिलना है। रास्ता क्या है?
रामानुज उदास हो गए। उनकी आंखें बंद हो गईं। उस आदमी ने कहाः बोलें, आप उदास क्यों हैं? रामानुज ने कहा कि अगर तूने किसी को प्रेम किया होता तो मैं तुझे समझा सकता था कि धर्म क्या है। जब तेरे जीवन में प्रेम ही नहीं घटा, तो तेरे जीवन में कोई तुलना ही नहीं, कोई कंपेरिजन ही नहीं, जिससे मैं तुझे समझा सकूं कि धर्म की घटना क्या है। अगर तूने कभी तेरे हृदय का फूल किसी के प्रेम में खिला होता, तो मैं तुझे समझा पाता कि धर्म का फूल कैसे खिलता है। लेकिन वह ही नहीं घटा, तो धर्म का फूल तेरी समझ के बाहर है। तू जा और प्रेम कर। उस आदमी ने कहाः आप कहां की बातें मुझे समझा रहे हैं, मुझे भगवान से मिलना है, मुझे प्रेम वगैरह नहीं करना है।
वह आदमी बिलकुल ठीक कह रहा है। वह आदमी बिलकुल परंपरागत रूप से ठीक कह रहा है। रामानुज गर्व की बातें कह रहे हैं। वह आदमी ठीक कह रहा है। शास्त्र उससे मेल खाएंगे। रामानुज से मेल नहीं खा पाएंगे। लेकिन रामानुज ही ठीक कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि मैं तुझे समझाऊं क्या? तेरे पास कोई अनुभव नहीं जो घटा हो। तूने जिंदगी में सब कुछ किया है, घटने वाला कोई अनुभव नहीं है। सिर्फ एक अनुभव है, प्रेम का, जो घटता है और दूसरा अनुभव है धर्म का, जो घटता है। बाकी हम सब करते हैं। रोटी हम कमाते हैं, नौकरी हम करते हैं, दुकान हम चलाते हैं। जिंदगी में बाकी सब हम करते हैं। घटता नहीं है। और अगर हमें न करना पड़े, तो अभी हम छोड़ देंगे। अगर हमें रोटी बिना कमाए मिल जाए, तो कोई कमाने नहीं जाएगा। और अगर हमारा मकान बिना कमाए, बनाए बन जाए, तो कोई बनाने नहीं जाएगा। मजबूरी है वह बिना किए नहीं होता। इसलिए हम करते हैं।
जिंदगी में प्रेम को छोड़ कर सब कुछ कर्म क्रिया है। प्रेम एक घटना है जो क्रिया नहीं है। और दूसरी एक घटना है धर्म, जो क्रिया नहीं है। प्रेम दो व्यक्तियों के बीच घटता है। और धर्म एक और समस्त के बीच घटता है। प्रेम दो व्यक्तियों के बीच की घटना है। ठीक वैसी ही घटना जब एक और समस्त के बीच घट जाती है, एक और परमात्मा के बीच। परमात्मा यानी समस्त, वह जो सब है, दि टोटेलिटी। जब एक और समस्त के बीच वही घटना घट जाती है, जैसी प्रेम की दो व्यक्तियों के बीच घटती है तब धर्म घटता है। धर्म यानी अनंत हो गया प्रेम। धर्म यानी विराट हो गया प्रेम। धर्म यानी सरिता जैसे सागर हो गई। ओर-छोर न रहे, किनारे न रहे, सब खो गया अनंत में। लेकिन पुरानी सदियों ने धर्म को बनाया क्रिया, और उसने निमित्त व्यवस्था कर दी, और ऐसी एब्सर्ड व्यवस्था की, इतनी अर्थहीन व्यवस्था की कि आज दुनिया के बढ़े हुए विवेक और बुद्धि के सामने वह अर्थहीनता नहीं टिक पाती। नई पीढ़ियां और नये बच्चे अब पुराने ढंग से धार्मिक नहीं हो सकते। इस सत्य को ठीक से समझ लिया जाना चाहिए कि यह असंभव है। यह अब संभव नहीं होगा।
अब तो धर्म को ही नये अविर्भावों में प्रकट होना होगा। उसे अब क्रिया की तरह नहीं, रिचुअल, क्रियाकांड की तरह नहीं, उसे प्रेम की तरह एक घटना की भांति, हृदय के एक खिले हुए फूल की भांति प्रकट होना होगा। निश्चित ही कुछ और रास्ते से धर्म को सोचना जरूरी है। नहीं तो नई पीढ़ियां अब भविष्य में धार्मिक न हो सकेंगी। और जितनी पुरानी पीढ़ी जोर देगी कि हमारा जो धर्म था वह बचाया जाए, उतना ही जल्दी उसके धर्म को तोड़ने की व्यवस्था हो जाएगी। जितना जोर दिया जाएगा कि बचाया जाए, क्योंकि जितना वे जोर देंगे उतनी ही एब्सर्डिटी, असंगति दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी।
अभी मैं एक घटना पढ़ा, तो मैं बहुत हैरान हुआ और चिंतित भी हुआ। पुरी के शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए थे। एक आदमी उनसे मिलने आया और उस आदमी ने उनसे कहा कि हमारा एक छोटा सा समाज है। वहां हम कभी-कभी ब्रह्म की चर्चा करते हैं। आप चलें और ब्रह्मज्ञान पर हमें कुछ समझाएं। उन्होंने नीचे से ऊपर तक उसे देखा और कहा कि इन कपड़ों में और ब्रह्मज्ञान? वह बेचारा कोट-पेंट पहने हुए है, टाई लगाए हुए है। शंकराचार्य ने कहाः इन कपड़ों में और ब्रह्मज्ञान होगा? तो हमारे ऋषि-मुनि पागल थे, उन्होंने क्यों नहीं टाई और कोट-पेंट, पतलून पहन लिया? वह आदमी घबड़ा गया होगा। दस-पांच नासमझ जो वहां बैठे होंगे, जो कि हर जगह महात्माओं को घेरे बैठे रहते हैं। और वे जो बैठे होंगे और वे सब हंसने लगे होंगे। उनके हंसने से वह आदमी और बेचारा हतप्रभ हो गया, परेशान हो गया। उसने कहाः माफ करिए। कपड़े तो यह, मगर कपड़ों से क्या है? उन्होंने कहाः कपड़ों से क्या है? कपड़ों से सब कुछ है। जनेऊ है भीतर या नहीं? नहीं था। तब तो वह आदमी अपराधी हो गया। कहाः टोपी निकालो। चोटी है भीतर या नहीं? नहीं थी। तब तो उन्होंने हद नासमझी की बातें कहीं। जो शंकराचार्य की हैसियत का व्यक्ति कहे तो सारी पृथ्वी पर हमारा अपमान होता है। उन्होंने उस आदमी से कहाः पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर? अब यह सोचने जैसा है कि पेशाब करने के ढंग से भी जैसे ब्रह्म के मिलने का कोई संबंध है?
ये बातें आने वाले भविष्य में मूर्खतापूर्ण हो जाएंगी। हो गई हैं। लेकिन कभी ये बड़ी अर्थपूर्ण थीं। अर्थपूर्ण इसलिए नहीं थीं कि अर्थपूर्ण हैं, अर्थपूर्ण इसलिए थीं कि मनुष्य को सोचने से ही रोका गया है। मनुष्य को सिखाया गया था--विश्वास, आस्था, श्रद्धा। सिखाया गया था जो कहा जाए उसे चुपचाप मान लेना। उस पर शक ही मत करना। और बचपन से जब यही बात समझाई जाती थी कि मान लेना, मान लेना, सोचना मत, सोचना मत। तो मनुष्य की सोचने की जो क्षमता है वह क्षीण हो गई थी। असल में हमारी वे ही क्षमताएं विकसित होती हैं जिनका हम निरंतर उपयोग करते हैं।
अगर एक बच्चे को बचपन से ही चलने न दिया जाए, तो वह बच्चा कभी भी चल नहीं पाएगा। इसलिए नहीं कि उसके पास पैर न थे। इसलिए भी नहीं कि उसे कोई भगवान ने कमजोर पैर दिए थे। बल्कि पैर भी तभी काम करते हैं जब उनका उपयोग किया जाए। आप भी अगर दो साल पैर बांध कर बैठ जाएं, तो जिंदगी भर के चलने वाले पैर भी दो साल में कुम्लाह कर सिकुड़ जाएंगे और चलना बंद कर देंगे। उनका उपयोग होना चाहिए।
पुरानी पूरी व्यवस्था, विश्वास, मान्यता, बिलीव पर खड़ी थी कि मान लो और बच्चों को बचपन से समझाया जाता था--सोचना मत, विचारना मत। इसलिए कोई सोच नहीं रहा था। इसलिए इस तरह की नासमझी की बातें अब तक समझदारी की मालूम पड़ी थीं। अब नहीं मालूम पड़ सकती हैं। क्योंकि दुनिया में एक नई घटना घट गई है। और वह नई घटना विज्ञान है। और विज्ञान ने सारे चिंतन के आधार बदल दिए। विज्ञान कहता हैः संदेह करना। डाउट जो है आधार है। विज्ञान कहता है जो संदेह नहीं करता वह आदमी आदमी ही नहीं। और धर्म अब तक का, तथाकथित धर्म कहता था, संदेह किया कि भटके। और विज्ञान कहता हैः संदेह न किया तो सत्य तक कभी पहुचेंगे नहीं। अब नई दुनिया विज्ञान के निकट आने के कारण रोज-रोज संदेह करेगी। और वह यह पूछेगी कि यह चोटी का होना ब्रह्मज्ञान के लिए क्यों जरूरी है? इसका क्या वैज्ञानिक संबंध है? और इस नई पीढ़ियों को समझाने की चेष्टा और नामसझी की होगी।
अभी एक सज्जन ने किताब लिखी है। उसमें उन्होंने समझाने की कोशिश की कि हां, चोटी वैज्ञानिक है। और कारण उन्होंने बड़ा मजेदार दिया है, कि बच्चे हंसेंगे और आने वाली पीढ़ियां हंसेंगी कि क्या बातें करते थे लोग? उसमें उन्होंने समझाया है कि चोटी बहुत वैज्ञानिक है, और कारण यह दिया है कि हमने बहुत पहले जो रहस्य खोज लिए थे वे विज्ञान ने अब खोजे हैं। और वह रहस्य यह था कि उसमें उन्होंने लिखा है कि बड़े मकानों पर देखा हैः लोहे की डंडी लगा देते हैं ऊपर, ताकि बिजली गिरे तो डंडी से नीचे चली जाए, मकान खराब न हो। वह चोटी जो थी हमारी बिजली को बचाने के लिए निकाली थी। अब ये बातें और बातों को असंगत कर देंगी। ये बचाने की नासमझ चेष्टाएं। और जल्दी उस मकान को गिरा देंगी जो गिरने के करीब हो गया है। अब बच्चे इस बात को सोच कर हैरान हो जाएंगे कि चोटी जो है बांध कर खड़ी रखने से यह बिजली के लिए शरीर से बाहर निकालने के लिए कंडक्टर का काम करने वाली है। अभी बच्चे ये कितने दिन तक हम ये बातें समझा सकते हैं?
असल में जो समझा रहे हैं वे धर्म के लिए नुकसान पहुंचा रहे हैं, क्योंकि वे, यह इनकी बातों के कारण डर है कि कहीं उनकी बातों के डूबने के साथ-साथ मनुष्य के मन में धर्म की जिज्ञासा न डूब जाए। खतरा यह है कि ये तथाकथित साधु-संन्यासियों की निरंतर चलती हुई बातचीत के साथ कहीं ऐसा न हो कि हम धर्म के प्रति ही विमुख हो जाएं। जिसका भी डर पैदा हो गया। क्योंकि अगर ये सारी बातें बकवास हैं तो ऐसा भी मालूम पड़ सकता है कि धर्म भी कहीं बकवास तो नहीं है।
और मैं आपसे कहना चाहूंगा कि धर्म ही जीवन में सारभूत है। लेकिन क्रियाकांड से जुड़ा हुआ धर्म मर चुका है। उसकी लाश को आगे नहीं खींचा जा सकता। अब एक स्पांटेनियस रिलीजन, एक सहजस्फूर्त हार्दिक धर्म की दुनिया में जरूरत है। जो क्रियाकांड पर निर्भर नहीं है, जो मनुष्य के चेतन व्यवहार पर, मनुष्य के मन के परिवर्तन पर, जो मनुष्य के होने के ढंग पर--करने के ढंग पर नहीं, होने के ढंग पर निर्भर है। तब जरूरी नहीं है कि वैसा आदमी धार्मिक आदमी हिंदू और मुसलमान हो। क्योंकि हिंदू और मुसलमान रिचुअल के फर्क हैं। एक आदमी इस तरह नमाज पढ़ता है तो मुसलमान है और इस तरह प्रार्थना करता है तो हिंदू।
अब तक क्रियाकांड के कारण ही दुनिया में इतने धर्म बन सके। इस समय कोई तीन सौ धर्म हैं सारी पृथ्वी पर। यह भी हंसने जैसी बात है। विज्ञान तो एक है और धर्म तीन सौ हैं! यह कैसे हो सकता है? पानी हिंदुस्तान में गर्म करो तो सौ डिग्री पर गर्म होता है, और तिब्बत में करो तो सौ डिग्री पर, और इंग्लैंड में करो तो, और पाकिस्तान में करो तो भी सौ डिग्री पर ही होता है। कोई पाकिस्तान में मुसलमान मुल्क हो जाने से कोई डिग्री नहीं बदल जाती। पानी एक ही नियम मानता है सारे जगत में। आग एक नियम मानती है। अणु एक नियम मानते हैं। सारी प्रकृति एक नियम मानती है। प्रकृति के नियम सार्वभौम, युनिवर्सल हैं। तो चेतना के, आत्मा के नियम अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? वे भी एक ही नियम मानते हैं। और जब आप डाक्टर के पास जाते हैं तो वह यह नहीं पूछता कि टी. बी. आपको है तो आप हिंदू हैं या मुसलमान हैं। क्योंकि मुसलमान की टी. बी. का असल में इलाज और ढंग का होना चाहिए। कुछ पाकिस्तानी ढंग का इलाज चाहिए। हिंदू के लिए कुछ हिंदुस्तानी ढंग का इलाज चाहिए। लेकिन टी. बी. के लिए टी. बी. के कीटाणु फिकर नहीं करते हैं के हम मुसलमान के भीतर रह रहे हैं या हिंदू के भीतर रह रहे हैं। वे टी. बी. के कीटाणु एक ही नियम का पालन करते हैं कि वे टी. बी. के किटाणु हैं। उनको कुछ पता नहीं है। अभी खून को निकाल कर कोई नहीं बता सकता कि यह खून हिंदू का है कि मुसलमान का है। हड्डियों के ऊपर से कुछ पता नहीं चलता कि हड्डी जैन की है कि बौद्ध की है कि ब्राह्मण की है कि शूद्र की है। आदमी-आदमी के बीच जो भेद था वह भी धर्म के कारण न था। धर्म तो भेद पैदा कर ही नहीं सकता। धर्म ही एकमात्र अभेद है। वही एकमात्र अद्वैत है।
अगर कोई आदमी धार्मिक हो जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि उसकी सब सीमाएं टूट गईं। अब वह सबके साथ एक हो गया। अब उसके लिए कोई फासला न रहा। कोई दुश्मन न रहा। कोई पराया न रहा। कहीं कोई सीमा न रही। लेकिन अब तक जो धार्मिक आदमी था उसकी बड़ी सीमाएं थीं। और वे सीमाएं धर्म की न थीं, वे भी क्रियाकांड की थीं। एक आदमी एक ढंग से प्रार्थना करता है, दूसरा आदमी दूसरे ढंग से। एक आदमी भगवान का एक नाम लेता है, दूसरा दूसरा नाम लेता। एक एक किताब को मानता, दूसरा दूसरी किताब को मानता। उसके कारण दोनों के बीच एक दीवाल खड़ी हो जाती। और उस दीवाल ने बहुत नुकसान पहुंचाया।
भविष्य में जो धर्म होगा वह हिंदू-मुसलमान और ईसाई नहीं हो सकता। वह सिर्फ धर्म होगा। और यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जिस दिन पृथ्वी पर सिर्फ धर्म होगा उसी दिन हम अधर्म से जीत सकते हैं, उससे पहले नहीं जीत सकते। जिस दिन पृथ्वी पर सिर्फ धर्म होगा उस दिन लड़ाई अधर्म से होगी। जब तक पृथ्वी पर बहुत धर्म हैं तब तक धर्म और धर्म लड़ते हैं, अधर्म से लड़ाई हो ही नहीं पाती, हो भी नहीं सकती। हिंदू मुसलमान से लड़े या अधर्म से लड़े? जैन हिंदू से लड़े या अधर्म से लड़े? दुनिया के सब धार्मिक आदमी दूसरे धार्मिक आदमियों से लड़ रहे हैं और अधर्म से किसी की कोई लड़ाई नहीं हो पाती। हो ही नहीं सकती। धार्मिक आपस में लड़ कर मिट जाते हैं और अधर्म फलता-फूलता चला जाता है।
अधर्म बढ़ता है यह भी बड़े मजे की बात है कि अधर्म के खेमे नहीं हैं। अधार्मिक आदमी सारी दुनिया में एक हैं। उसका कोई अलग-अलग, कई तरह के अधर्म नहीं हैं। अधार्मिक आदमी एक है। नास्तिक बहुत तरह के नहीं हैं दुनिया में, नास्तिकता एक है। और आस्तिकता बहुत तरह की हैं। धर्म बहुत तरह के हैं। यह हैरानी की बात है। इससे उलटा होता तो समझ में आ सकता था कि बहुत तरह के नास्तिक होते और आपस में लड़ते। लेकिन बहुत तरह के आस्तिक आपस में लड़ते हैं। यह ठीक होता कि दुनिया के अधार्मिक आपस में लड़ते, लेकिन अधार्मिक लड़ते ही नहीं, धार्मिक लड़ते हैं। आने वाला भविष्य एक ऐसे धर्म की तलाश कर रहा है रोज जो धार्मिकों को न लड़ाता हो, बल्कि धर्म को अधर्म के सीधे एनकाउंटर में सीधे उसके सामने खड़ा, आमने-सामने खड़ा कर देता हो, तो ही दुनिया से अधर्म मिट सकता है।
अब तक धर्म सीधा लड़ नहीं पाया अधर्म से। चर्च मंदिर से लड़ता है, तो अंधेरे के मकान से कौन लड़ेगा? अंधेरे का मकान रोज बड़ा होता चला जाता है। अधर्म है, था और डर है कि कहीं आगे भी न बच जाए। अगर हम धर्म की कोई नई व्याख्या नहीं खोज लेते और धर्म के कोई नये आयाम, नये डायमेेंशंस नहीं खोज लेते, धर्म का कोई वैज्ञानिक अर्थ नहीं खोज लेते, धर्म को क्रियाकांड से मुक्त करके धर्म की कोई हार्दिक मनोदशा नहीं खोज लेते, तो दुनिया में अधर्म बढ़ता चला जाएगा। और धर्म की फिर भी कोई उम्मीद नहीं मालूम पड़ती। लेकिन खोजा जा सकता है। और अब खोजना पड़ेगा क्योंकि पाखंड के कारण अब तक खोज संभव नहीं हो पाती थी। वह पाखंड गिर रहा है। और मैं मानता हूं कि आदमी धर्म के बिना नहीं जी सकता। लेकिन अगर धर्म का पाखंड भी उसके हाथ में हो तो वह धर्म के सब्स्टीट््यूट से भी राजी हो जाता है। वह उसी के साथ जी लेता है। हमें पता भी नहीं चलता है।
एक कहानी मुझे याद आती है उससे अपनी बात पूरी करूं।
मैंने सुना है, एक रात एक जंगल से दो संन्यासी जा रहे हैं भागते हुए अपने-अपने जहां उन्हें ठहरना है, जहां रुकना है। वे भागे चले जा रहे हैं। बूढ़ा संन्यासी तेजी से भाग रहा है। जवान संन्यासी बार-बार कहता है कि इतनी जल्दी क्या है? वह कहता है कि जल्दी है। रास्ता अंधेरा है। अमावस की रात है। खतरा है। वह जवान संन्यासी बहुत बार सोचता है कि संन्यासी को खतरा कैसा? असल में जिसने सारे खतरे स्वीकार कर लिए हैं वही तो संन्यासी है। तो संन्यासी को खतरे का क्या मतलब? जिसको खतरा है उसी को तो हम गृहस्थ कहते हैं। असल में जो खतरे से डरा हुआ है वही गृहस्थ है। और गृहस्थ का मतलब ही यह है कि खतरे से बचने को उसने एक घर बनाया है। खतरे से बचने के लिए ही तिजोरी रखी है। खतरे से बचने के लिए इंतजाम किया है। लेकिन संन्यासी वह जिसने खतरे को स्वीकार कर लिया है। अब उसके पास न घर है, न दीवाल है, न तिजोरी है। यह आदमी डर क्यों रहा है? फिर इस बूढ़े संन्यासी ने आज तक कभी कहा भी नहीं पहले, फिर आज ही क्या खतरा है?
फिर वे एक कुएं पर रुके हैं। बूढ़े ने अपने झोले को जवान को दिया, कहा कि मैं पानी खींच लूं, सम्हाल कर रखना। तब उसे खयाल आया कि खतरा जरूर झोले के भीतर होना चाहिए। उसने हाथ भीतर डाला, तो देखा, एक सोने की ईंट भीतर रखी हुई है। खतरा पकड़ में आ गया। उसने वह ईंट निकाल कर बाहर फेंक दी और एक उतने ही वजन का पत्थर उठा कर झोले के भीतर रख दिया। संन्यासी बूढ़े ने जल्दी से हाथ-मुंह धोया, क्योंकि जिसकी झोली में सोने की ईंट हो वह हाथ-मंुह भी ठीक से नहीं धो पाता। चैबीस घंटे जल्दी है। क्योंकि वह फिकर जो ईंट की लगी हुई है। वह सब काम करता है लेकिन फिकर ईंट की लगी रहती है। वह भागा, जल्दी से झोला अपने हाथ में लिया, टटोल कर देखी, ईंट है, कंधे पर टांगा, वजन है। दौड़ शुरू हो गई। फिर रात अंधेरी होने लगी चारों ओर, रास्ता भटक गए। उसने दो मील चलने के बाद कहा, क्या मामला है? कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती, गांव का कुछ पता नहीं, रात अंधेरी है, और बड़ा खतरा है। उस युवक ने कहाः बिलकुल बेफिकर हो जाइए, खतरे को मैं दो मील पीछे फेंक आया हूं।
सुना, क्या कहते हो? उसने घबड़ा कर अंदर झोली में हाथ डाला, वहां तो पत्थर था, सोने की ईंट नहीं थी। लेकिन दो मील तक पत्थर की ईंट ने सोने की ईंट का पूरा काम किया। उसने कहाः बड़ी अजीब बात है! मैं दो घंटे तक पत्थर को कोई छीन न ले, इससे डरा हुआ था। तो फिर अब गांव जाने की क्या जरूरत है, यहीं सो जाएं। उस बूढ़े ने कहाः फिर यहीं सो जाएं, अब रात यहीं गुजार लें। फिर सुबह चले चलेंगे। अब कुछ खतरा नहीं है।
पत्थर की ईंट भी सोने की ईंट के भ्रम में दो घंटे तक खतरा दे सकती है। एक घड़ी आई है मनुष्य-जाति के जीवन में, एक मैच्योरिटी की, एक प्रौढ़ता की। आदमी प्रौढ़ हुआ है कि हम जिसे अब तक धर्म की ईंट समझते थे वह पत्थर की ईंट साबित हुई। अब कुछ लोग यहां कहते हैं, आंख बंद रखो और अभी भी सोने की ईंट माने चले जाओ। लेकिन आंख अगर जबरदस्ती बंद रखो, तो भी बीच-बीच में खोल कर देखना पड़ता है। और वह ईंट सोने की नहीं है, वह पत्थर की है।
और नये बच्चे तो कहते हैं कि आंख बंद क्यों रखें? जब नहीं है सोने की तो नहीं है। पत्थर की है तो ठीक है। अब छोड़ो इसको। अब इसकी फिकर छोड़ो। लेकिन कुछ लोग हैं जो कहे चले जा रहे हैं कि नहीं, यह सोने की है, इसको बचाना जरूरी है, क्योंकि हमारे बापदादाओं ने इसे बचाया है। उन्होंने बचाया होगा। उन्होंने गलती की। और जितनी जल्दी उस गलती को हम समझ लें उतना बेहतर है। और अच्छा हो कि इस ईंट की तो हम फिकर छोड़ दें। लेकिन अब झोला खाली हो गया है। और खाली झोला बहुत अखरेगा। खाली आदमी बहुत अखरेगा। पश्चिम में वह खालीपन, एंप्टीनेस बहुत जोर से मालूम पड़ रही है। इस समय पश्चिम के सारे साहित्य में, पश्चिम के सारे विचारकों में एक शब्द जो बहुत कीमती है, वह है एंप्टीनेस, खालीपन। इस वक्त अगर दर्शन की कोई पश्चिम की किताब पढ़ें, तो उसमें परमात्मा की चर्चा नहीं होगी, आत्मा की चर्चा नहीं, एंप्टीनेस की चर्चा होगी, खालीपन। आदमी खाली-खाली मालूम पड़ रहा है। एक कड़ी खो गई है जिसे हमने समझा था कि सोने की थी वह पत्थर की हो गई है। एक वर्ग है जो कहता है अब भी उसे सोने की माने चले जाओ। यह कैसे हो सकता है? दूसरा वर्ग है जो इसके खिलाफ कह रहा है कि यह भ्रम ही छोड़ो, ईंट-वींट सोने की हो ही नहीं सकती, सब ईंटें पत्थर की हैं।
इन दो के बीच एक लड़ाई चल रही है। एक है जो कह रहा है कि इसी को सोने की मानो, नहीं तो खाली हो जाओगेे। दूसरा यह कह रहा है, खालीपन आदमी की नियति है, भाग्य है। कोई ईंट है ही नहीं सोने की, सब पत्थर की हैं, फेंको इसको और खाली रह जाओ। इन दो के बीच सारी दुनिया में कश्मकश है। मैं बिलकुल तीसरे तरह का आदमी हूं जो यह कहना चाहता हूंः वह ईंट पत्थर की थी, उसे फेंको, लेकिन सोने की ईंट भी हो सकती है। खाली रहने की कोई जरूरत नहीं। सोने की ईंट खोजी जा सकती है। प्रेम को मैं धर्म के लिए सोने की ईंट कहता हूं।
आने वाले तीन दिनों में सांझ मैं प्रेम की चर्चा करूंगा की वह सोने की ईंट कैसे खोजी जाए जिसकी वजह से हम खाली पड़ गए हैं, एकदम दीन और दरिद्र हो गए हैं। और सुबह ध्यान की चर्चा करूंगा, क्योंकि ध्यान के द्वार से ही उस खजाने तक पहुंचा जा सकता है जो प्रेम है। क्योंकि प्रेम कोई कृत्य नहीं है। इसलिए प्रेम को हम कर नहीं सकते हैं, लेकिन प्रेम घट सकता है।
जैसे कि मेरे घर के बाहर सूरज निकला हुआ है और मैं द्वार बंद करके भीतर बैठा हुआ हूं। मैं सूरज की रोशनी को घर के भीतर नहीं ला सकता। पोटली बांध लूं, पेटी में बंद करूं, तो पेटी आ जाएगी, पोटली आ जाएगी, रोशनी बाहर रह जाएगी। और रोशनी को घर के भीतर नहीं लाया जा सकता। लेकिन मैं दरवाजा खोल सकता हूं। और दरवाजा खोल कर बैठ जाऊं तो रोशनी आ जाएगी।
ध्यान द्वार का खोलना है--जिससे प्रेम की घटना भीतर आकर घट सकती है।
तो जो लोग सिर्फ विचार करने को उत्सुक हैं, वे सांझ के लिए निमंत्रित हैं। लेकिन जो लोग प्रयोग करने के लिए उत्सुक हैं कि कैसे वह प्रेम की अदभुत घटना घट जाए जहां से हम परमात्मा की मंजिल में प्रविष्ट हो जाते हैं, वे सुबह निमंत्रित हैं।
सुबह के लिए जो लोग आना चाहते हैं, उनको दो-तीन सूचनाएं मैं दे दूं, फिर अपनी बात पूरी करूं।
पहली बात तो यह कि स्नान करके ही आएं। दूसरी बात यह कि ताजे कपड़े पहनें और आने के घंटे भर पहले से चुप रहने की कोशिश करें। बात मत करें घंटे भर पहले से।
एक आदमी को अपने घर के सामने साइकिल रोकनी हो, तो आधा फलांग दूर से पैडल बंद कर देता है। आधा फलांग तो साइकिल पुरानी गति से चल जाती है, पैडल चलाने की जरूरत नहीं रहती। और घर के सामने ही अगर आकर एकदम से ब्रेक लगाया जाए, तो खतरे का भी डर है। और हमारे माइंड में ब्रेक नहीं हैं, यह भी दिक्कत है। वहां कोई ब्रेक नहीं हैं कि हम एकदम से ब्रेक लगा दें। हमारे माइंड की, हमारे मन की जो व्यवस्था है वह बहुत धीमे-धीमे चलती है।
अगर आपको क्रोध आ जाए, तो घंटा दो घंटा उसको विर्सजित होने में लगते हैं। तो यहां ध्यान की तैयारी करने के लिए घंटे भर पहले से ही, यहां साढ़े आठ बजे ध्यान शुरू होगा, आप साढ़े सात बजे से चुप हो जाएं, बात न करें। बहुत जरूरी है तो कुछ बोलें, नहीं तो न बोलें। स्नान करें, चुपचाप चले आएं। रास्ते में भी बात न करें। यहां भी आकर आप आठ बजे, सवा आठ बजे जब आ जाएंगे ध्यान के स्थल पर तो चुपचाप आंख बंद करके बैठ जाएं, यहां कोई बात न करें। दरवाजे के भीतर प्रविष्ट होते से बात नहीं। फिर दरवाजे के बाहर की दुनिया बाहर शुरु होगी। दरवाजे के भीतर आप अलग दुनिया में चले गए। चुपचाप आकर बैठ जाएं।
फिर ध्यान कैसे करना है, कैसे ध्यान में जाना है, वह तो मैं सुबह बात करुंगा। एक घंटा हम ध्यान में प्रवेश में जाएंगे। वह एक घंटा आपके जीवन में एक अदभुत घटना बन सकता है। जिसका आपको पता भी न हो कि क्या संभव हो सकता है। बहुत खजाने हैं, जिनकी तरफ हमने आंख उठा कर नहीं देखा। बहुत रोशनियां हैं, जो हमारे पास मौजूद हैं, लेकिन हम पीठ किए खड़े हैं। बहुत फूल हैं, जो खिले हैं और हमें बुला रहे हैं, लेकिन हमारे पास सुगंध लेने की क्षमता नहीं। बहुत वीणाएं हैं, जो निमंत्रण दे रही हैं, लेकिन हमारे पास वे कान नहीं जो उन्हें सुन सकें। ध्यान में उसकी खोज है जो इन वीणाओं को, इन फूलों को, इन रोशनियों की रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा कर देती है।
तो जो प्रयोग में उत्सुक हैं वे सुबह आ जाएं। सांझ हम बात करेंगे और सुबह प्रयोग करेंगे।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें