कुल पेज दृश्य

शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

विचार और अंतर-बोध

........महावीर के मरने के कई सौ वर्ष बाद लिखा गया। बुद्ध के मरने के भी तीन-चार सौ वर्ष बाद लिखा गया है। क्या बुद्ध ने कहा, क्या नहीं कहा। तीन-चार सौ वर्षों का तो कोई रिकॉर्ड ही नहीं हैं, स्मृति के हिसाब से सब लिखा गया। और वे भी वे लोग नहीं थे, वे किसी से कह गए थे, फिर वे किसी और से कह गए--वह फिर किसी और से कहा गया। इस सबमें बहुत कुछ मिल गया है। नहीं, तो न तो बुद्ध को मतलब है महावीर से विज्ञान उपलब्ध हुआ कि नहीं हुआ और न महावीर को मतलब है बुद्ध से कि निर्वाण हुआ कि नहीं हुआ, लेकिन बीच में जो फर्क बनता है। दूसरा पंथ गलत है, यह बताना बहुत जरूरी होता है। लेकिन पंथ बनाना मुश्किल। और फिर यह भी होता है कि दोनो के रास्ते बड़े अलग हैं। कई बार ऐसा हो जाता है हम एक ही पहाड़ पे जा रहे है। आपका रास्ता अलग है, मेरा रास्ता अलग है। और आप सोचते हैं कि मैं जिस रास्ते से जा रहा हूं, भटक जाऊंगा, क्योंकि ठीक रास्ता तो यह है, जिस पर मैं जा रहा हंू। और पहाड़ बड़ी भारी चीज है, उसपे हजार रस्तों से चोटी पर पहुंचा जा सकता है। तो बहुत बार यह भूल हो जाती है निरंतर। फिर जब पंथ निर्मित होता है, शास्त्र निर्मित होता है, तो वे दूसरे के विरोध में ही खड़ा हो सकता है, नहीं तो खड़ा कैसे हो? और उस वक्त विरोधी जो वे दो नये विचार पैदा हुए थे, वह महावीर, बुद्ध के थे। लेकिन महावीर के वचनों में, बुद्ध के विरोध में कुछ भी नहीं है। बुद्ध के वचनों में महावीर के विरोध में बहुत कुछ है। और इसका कारण जो है वह यह है कि महावीर बूढ़े आदमी थे और बुद्ध जवान आदमी थे।
महावीर प्रतिष्ठित हो चुके थे, अब उनको बुद्ध का विरोध करने की कोई जरूरत नहीं थी। उनको कोई बुद्ध से झगड़े का कारण नहीं था। बुद्ध बाद की पीढ़ी के आदमी हैं। और बिना महावीर को अप्रतिष्ठित किए बुद्ध के विचार कैसे होंगे।
मैं तो इसी हिसाब से यह मानता हूं कि महावीर उम्र में ज्यादा थे, सिर्फ इस वजह से बुद्ध छोटे थे। महावीर का उम्र में ज्यादा होना मैं इसी वजह से मानता हूं। महावीर ने गोशालक का तो विरोध किया, लेकिन और किसी का विरोध नहीं किया। ऐसा लगता है कि महावीर के समय में गोशालक और उनके बीच एक अंतर था। बाकी यह जो दूसरे विचार थे उनमें। उनतीस साल का फासला है। तब तक महावीर तीर्थंकर हो चुके हैं। तब तक वह प्रतिष्ठित हो गए हैं, अब कोई झगड़ा नहीं है। बात खत्म हो गई। नया विचार दूसरा आता है तो उसका विरोध करना जरूरी हो जाता है। थोड़ा विरोध किया हो, इस बात की भी संभावना है, और दोनों की प्रक्रिया बिलकुल उलटी है, इसलिए विरोध का मौका भी है। क्योंकि महावीर मानते हैं कि संकल्प की परम चेष्टा से ही सब कुछ उपलब्ध हो जाता है। विल पर जोर है उनका। संकल्प की अत्यंत चेष्टा से सत्य उपलब्ध हो जाता है। और बुद्ध मानते हैं कि संकल्प से तो कभी कुछ उपलब्ध नहीं होता। संकल्प-शून्य हो जाने से सब कुछ हो जाता है। महावीर मानते हैं प्रयास करने से सब कुछ होगा, बुद्ध मानते हैं प्रयास सब छोड़ देने से होगा। यह बिलकुल उलटे दिखते हैं न। यह तो बिलकुल साफ है झगड़ा बिलकुल सीधा है झगड़ा। एक तरफ महावीर कहते हैं बिना प्रयास कुछ भी नहीं होगा, प्रयास करना ही होगा। और चरम प्रयास करना होगा, साधारण प्रयास से भी नहीं होगा। नहीं तो कोई समझे कि जैसे रोटी कमाते हैं, दुकान करते हैं, ऐसे साधना भी कर लेंगे। तो हो जाएगा, ऐसा नहीं महावीर कहते हैं कि समग्र शक्ति उसमें ही लगा देनी पड़ेगी, न रोटी, न दुकान, न पत्नी, न बच्चा कोई भी नहीं, सब गए। सारी शक्ति इकट्ठी करके संकल्प की, जब कोई सत्य पर जूझेगा, तब सत्य उपलब्ध होगा। और बुद्ध कहते हैं कि संकल्प से तो कुछ होना ही नहीं है। संकल्प सिर्फ अहंकार है कि मैं करूंगा, मेरे करने से क्या होने वाला है? तो जब कोई करना नहीं रह जाता और मैं भी चला जाता है। कर्ता भी चला जाता है, संकल्प भी नहीं रहता, तब सत्य उतर आता है। संकल्पशून्य होना पड़ेगा बुद्ध के हिसाब से, महावीर के हिसाब से संकल्पपूर्ण होना पड़ेगा। तो ये बिलकुल उलटी बात है लेकिन मेरी दृष्टि में बिलकुल उलटी नहीं है। मेरी दृष्टि में ऐसा है कि किसी भी चीज को उसकी अति पर ले जाओ तो अपने से विपरीत में बदल जाती है। किसी भी चीज को उसकी अति पर ले जाओ एक्स्ट्रीम पर तो वह अपने से विपरीत में बदल जाती है। अगर मैं इस मुट्ठी को पूरे संकल्प से बांधने की कोशिश करूं, बांधता चला जाऊं, पूरी ताकत लगा दूं, तो जब मेरी पूरी ताकत मुट्ठी पर लग जाएगी और आगे ताकत नहीं बचेगी, तो मुट्ठी खुल जाएगी। ताकत लगाई थी बांधने पर, लेकिन जब पूरी ताकत लग जाएगी, तो फिर मैं सिर्फ देखता रह जाऊंगा कि मुट्ठी खुल गई और कुछ भी न कर सकूंगा। कुछ भी न कर सकूंगा।
जैसे कि हमें प्रकाश में दिखाई पड़ता है, लेकिन अगर तेज प्रकाश कर दिया जाए तो आंख फौरन बंद हो जाएगी और दिखना बंद हो जाएगा। प्रकाश की अति जो है, वह अंधकार बन सकती है। तो जीवन का नियम ये है कि प्रत्येक चीज को अगर उसकी अति पर ले जाया जाए, तो वह अपने से विपरीत में बदल जाती है। अब इसका मतलब यह हुआ कि अगर संकल्प को अति पर ले जाया जाए तो वह निःसंकल्प हो जाता है। अगर संकल्प को कोई भी उसकी अति पर ले जाए, तो संकल्प शून्य हो जाता है। तो उनमें कोई फर्क ही नहीं रह जाता। अगर कोई प्रयास को भी पूर्णता से करे, तो वह प्रयास से मुक्त हो जाता है। यह वह जो बुद्ध कह रहे हैं कि प्रयास से मुक्त होना है, शून्य होना है। संकल्प छोड़ देना है। वह छूटता भी तभी है, जब पूरा गुजर जाए कोई आदमी, नहीं तो छूटता भी नहीं। छूटता भी नहीं वह उसके पहले। तो मेरा मानना है कि कोई विचार को उसकी पूर्णता पर ले जाए तो वह निर्विचार हो जाएगा फौरन। उस चोटी से फिर आगे विचार में उपाय नहीं रह जाता। तो विपरीत में चला जाता है। करेगा क्या चित्त?
विचार अगर पूरी सीमा तक ले जाया जाए, जहां तक विचार मनुष्य कर सकता है वहां तक चला जाए, करता हुआ रुके न बीच में, तो विचार की सीमा आ जाएगी और निर्विचार शुरू हो जाएगा। करोगे क्या? उसकी सीमा है विचार की, उसके और आगे जाना है तो निर्विचार शुरू हो जाएगा। तो यह हो सकता है कि उनके आस-पास जिन लोगों ने यह सब संगृहित किया, उन्हें यह बिलकुल विरोधी दिखी होंगी बातें, और उन्हें जो पंडित थे, उन्हें कुछ पता नहीं होगा, और उन्हें पता हो भी नहीं सकता, उनको कि क्या मामला है? वह इकट्ठा कर गए होंगे सारी बातें और होता ऐसा है अक्सर कि महावीर, बुद्ध का कभी मिलना तो हुआ नहीं। बुद्ध के शिष्य खबर लाते हैं कि महावीर ऐसा कहते हैं। महावीर, समकालीन थे, उम्र में तीस-चालीस साल का फासला है। जब बुद्ध जवान हैं तो महावीर बूढ़े हो गए हैं। और महावीर के शिष्य बुद्ध की खबर लाते होंगे, वह ऐसा कहता है, वह ऐसा कहता है। भेंट नहीं हुई। ये खबरें जो हैं, इन खबरों पर उन्होंने वक्तव्य दिए होंगे। वह वक्तव्य संगीत हो गए होंगे। और फिर जब दोनों का पंथ बनने लगा, वहां उनका झगड़ा था दोनों का, दोनों का नया विचार खड़ा हो रहा था, नये उसके केंद्र बन रहे थे। तो संघर्ष निश्चित रहा होगा। और रोज ऐसा हो जाता था कि आज महावीर इस गांव से गुजरे और लोग उनसे प्रभावित हो गए और कल बुद्ध आए और वह जो महावीर का प्रभाव था वह बुद्ध के साथ चला गया। कोई बुद्ध से प्रभावित हुआ, वह महावीर के साथ चला गया। शिष्य कई दफा बदले। ये बदलने वाले शिष्य बहुत उपद्रव का कारण हैं, क्योंकि वह यहां से खबर वहां ले गए, वहां से खबर यहां लाए। और क्या-क्या किया उन्होंने, क्या-क्या जोड़ा-घटाया।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

ठहरे, बिलकुल ठहरे, लेकिन मुलाकात का कोई कारण नहीं है। कोई अहंकार नहीं है। मुलाकात का कारण भी तो हो। महावीर को कुछ पूछना नहीं, बुद्ध को कुछ पूछना नहीं, महावीर को कुछ जानना नहीं, बुद्ध को कुछ जानना नहीं। मिलें क्यों? बिलकुल मिल सकते हैं, लेकिन वह मिलना अकारण ही हो सकता है, रास्ते में चलते मिल गए तो मिल गए नहीं, नहीं तो उसे कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम से मिलना भी हमें ऐसा लगता है न, जिनका प्रेम बहुत कम है, उन्हें लगता है, हम प्रेम से मिलते हैं। अब जिनका चैबीस घंटे प्रेम ही प्रेम है, तो उसे कुछ खबर ही नहीं है कि इससे प्रेम है, मिले या नहीं मिले, यह भी सवाल ही नहीं। वह तो जो भी मिला उसी से प्रेम से मिले, वह तो हम चंूकि प्रेम में नहीं जीते इसलिए हमको लगता है चैबीस घंटे कोई प्रेम से मिलता है, तो बड़ी खुशी होती है। क्योंकि तेईस घंटे तो बिना प्रेम के गुजर रहे हैं। लेकिन जो आदमी प्रेम में ही जी रहा है मिले या नहीं मिले, सब बराबर है। मिले तो ठीक है, उतना ही नहीं मिले तो ठीक है। और उसे पता ही नहीं रह जाता धीरे-धीरे कि क्या प्रेम है? हमको प्रेम का पता रहता है, क्योंकि हमको घृणा का पता है।
मछली को थोड़े ही पता चलता हैै कि सागर में है। वह तो पहली दफा तब पता चलता है जब तुम सागर के बाहर निकाल लो, उसको रेत में पटक दो। तब उसे पता चलता है कि सागर में थे, अब मरे। समझे न। और एक मछली को जिसको कि रेत पर पटको, उसे सागर में डाल दो, तो उसे सागर का आनंद भी पता चलेगा। अब जिसका व्यक्तित्व पूरा प्रेम ही हो जाए, उसे पता ही नहीं चलता कि क्या प्रेम है, और क्या प्रेम नहीं है? विरोधी न रह जाने से सहज हो जाता है। श्वास ही उसकी प्रेम में उठना, प्रेम में चलना, प्रेम में। इससे उससे बहुत से लोग भूल में पड़ जाते हैं। वह उसका वैसा जीना है। उसने आपके कंधे पे हाथ रख लिया प्रेम से, वह उसका जीना है लेकिन आप समझे कि उसने मुझे बहुत प्रेम किया। ये समझ आपकी है, उसका यह जीने का हिस्सा ही है, वह सहज है, बिलकुल चल रहा है। तो प्रेम के लिए तो कोई वजह नहीं है। और कोई दूसरी वजह नहीं मिलने की। असल में एक जगह ऐसी भी है, चरम जहां घटना घटती हो, वह एक जगह ऐसी है, कि वहां व्यक्ति ही मिट जाता है, कौन मिले, किससे मिले? यह सब मिलना-जुलना सारा का सारा एक तल पर है। और इसलिए कोई मिलना नहीं हुआ, मगर खबरें लोग लाते रहे। खबरेें लोग लाने वाले हैं, वे लाते रहे। फलां आदमी ने ऐसा कह दिया। उस आदमी ने ऐसा कह दिया। और वह जमाना तो बिलकुल ही बोले गए शब्द पर निर्भर था। कोई लिखित का तो उपाय नहीं है बहुत। बोले गए शब्द सब कुछ हैं। और व्यक्ति खबर लाते हैं। जैसे किसी ने आकर बुद्ध को कहा कि महावीर के शिष्य कहते हैं और महावीर कहते हैं कि वे सर्वज्ञ हैं। सब जानते हैं, तीनों काल के ज्ञाता हैं। आपका क्या कहना है? बुद्ध से कोई आदमी आकर कहता है कि महावीर कहते हैं या महावीर के शिष्य कहते हैं, या ऐसी खबर उड़ाते हैं कि वे सर्वज्ञ हैं, तीनों काल उन्हें ज्ञात हैं। तो बुद्ध कहते हैं कि मुझे किसी ने कभी कहा था कि महावीर एक दिन एक ऐसे घर के सामने भिक्षा मांगने खड़े हो गए थे, जिसमें कोई था ही नहीं, कैसे सर्वज्ञ हैं? बुद्ध यह कहते हैं कि मैंने ऐसा सुना है एक ऐसे घर के सामने भी उन्होंने भीख मांगी थी, जिसमें कोई था ही नहंीं। घर खाली पड़ा था। कैसे सर्वज्ञ हैं? घर के भीतर कोई नहीं, यह पता नहीं चलता, तीनों काल कैसे पता होंगे? अब यह भी किसी ने बुद्ध को आकर कहा है, यह भी बुद्ध को किसी ने आकर कहा है, बुद्ध कहते हैं, इसलिए सर्वज्ञ वगैरह कोई नहीं होता। ये कैसे सर्वज्ञ हैं?
मैंने सुना है कि कभी कोई मुझसे कहता था कि सुबह वह चलते थे, रास्ते पर अंधेरा था, कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया। जब कुत्ता भौंका, तब उन्हें पता चला था कि कुत्ता सोया है। समझे न, ऐसे कैसे सर्वज्ञ हैं जिन्हें यह ही पता नहीं चलता कि कुत्ता सोया है? और तीन काल की बातें जानते हैं? नहीं जानते होंगे। कोई सर्वज्ञ नहीं है। मेरा मतलब समझे न? अब ये सब बातें धीरे-धीरे रिपोर्ट की गईं, ये सब लिखी गईं, ये सब इकट्ठी की गईं, और फिर जिसने इकट्ठी की तो उनके मन में तो पूरा वैमनस्य भाव है। वह चीजों को सरलता से तो ले नहीं सकते। वह सब इकट्ठी की गई होंगी, उनमें कटुता भरी गई होगी अच्छी तरह से, शब्द पैने किए गए होंगे। क्योंकि वह तो पंथ जो है उनका।
कठिनाई क्या होती है कि हम जो देखते हैं, महावीर को हमने कैसा देखा? वह हमने लिखा। महावीर कैसे हैं? वह जानना मुश्किल है, एकदम मुश्किल है न। और महावीर का मार्ग क्या है, वह भी लोगों ने जैसा देखा, लोगों ने देखा कि घर छोड़ दिया, द्वार छोड़ दिया। तपश्चर्या करते हैं। भूखे बैठे हैं, उपवास करते हैं, बारह साल मेें एकाध साल मुश्किल से खाना लिया है। वह तीन-तीन चार-चार महीने भूखे रहे हैं। यह आदमी कैसा यह? यह तो सीधा दमन है। क्योंकि हमें भूख लगती है। और अगर हम उपवास करें तो हमें दमन करना पड़ता है भूख का। हम यह सोच ही नहीं सकते कि ऐसी चित्त-दशाएं भी हैं जहां भूख विदा हो जाती है। हमारी जो कठिनाई है कि हमें तो यह दमन लगता है, हम अगर उपवास करें तो हमेें भूख का दमन करना पड़ता है। तो महावीर दमन कर रहे हैं, तो दमन का मार्ग है उनका, लेकिन ऐसी चित्त की अवस्थाएं हैं, जहां भूख एकदम विदा हो जाती है, जहां भूख रहती ही नहीं। और ऐसी अवस्था में ही कोई चार महीने तक उपवास कर सकता है। नहीं तो कर ही नहीं सकता। चार क्या वह बहुत दिनों तक भी कर सकता है, उसका कारण यह है कि, उसका कारण यह है कि ऐसी अवस्थाओं का उन्हें खयाल नहीं है। इन अवस्थाओं में कोई खयाल नहीं है, ऐसी अवस्थाएं हैं, जहां भूख मिट जाती हैं। तो मैं नहीं कहता कि महावीर ने उपवास किए, मैं कहता हंू कि महावीर से उपवास हुए। फिर दमन का सवाल नहीं रह जाता। वह जिस ध्यान के प्रयोग में लगे हैं, उस प्रयोग में बहुत बार ऐसा हो जाता है कि शरीर भूल ही गया। शरीर रहा ही नहीं। और इसलिए उपवास शब्द का उपयोग किया गया। अनशन अलग बात है। अनशन में दमन है। नहीं खाना उसका भाव है। उपवास का मतलब है, आत्मा के पास रहना। उसमें खाने, न खाने से कोई मतलब ही नहीं कोई। उपवास शब्द में खाने का सवाल ही नहीं है कहीं। उस शब्द में भी उपवास है वह, आत्मा के पास रहना, उसके निकट रहना। तो जब उसके कोई निकट पहुंचता है, शरीर भूल जाता है। शरीर की भूख-प्यास भूल जाता है। उपवास का मतलब भूखे मरना नहीं है। उपवास का मतलब भोजन छोड़ना भी नहीं है। उपवास का मतलब ऐसी अवस्था में पहुंच जाना हैं, जहां आदमी आत्मा के पास जीता है, और शरीर भूल जाता है। शरीर भूल जाता है, शरीर की भूख भूल जाता है। याद ही नहीं आती। महीनों गुजर जाते हैं, जब वह अवस्था टूटती है, तो फिर याद आती है। और अगर ऐसा हो जाए तो इसमें दमन है ही नहीं,
कहीं कोई दमन का सवाल ही नहीं। पकड़ते हैं हम अपनी तरफ से, है न हमारे लिए जो दमन है, वह सबके लिए दमन है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अनशन से तो आएगा। उपवास से नहीं। अनशन से आएगा। अगर तुमने भूख, जरा भी नहीं, क्योंकि असल मामला यह है कि हमें जरा भी पता नहीं कि शरीर और बहुत तरह से अपनी जरूरतें को पूरी कर लेता है।
अभी एक औरत है यूरोप के किसी हिस्से में। जिसने कोई बीस वर्षों से भोजन नहीं लिया। बीस वर्षों से किसी तरह का भोजन नहीं लिया। परिपूर्ण स्वस्थ है और उसका एक रत्ती भर वजन कम नहीं हुआ बीस वर्षों में। हां, जो मिरेकल है वह यह है। एक रत्ती भर वजन उसका कम नहीं हुआ है। और वैज्ञानिक परेशान हो गए हैं कि क्या, क्या मामला क्या है? धोखा-धड़ी है यह तो, तो सारा उपाय किया गया। जांच की गई तो धोखा-धड़ी नहीं है। और चूंकि उसने भोजन नहीं लिया, इसलिए वह पखाना भी नहीं गई है। सवाल ही नहीं है वह जाने का उसका। तो उसके अध्ययन से जो खयाल आता है वह यह आता है कि बाॅडी का पूरा मैटाबाॅलिज्म जो है, वह बिलकुल नये ढंग से काम करने लगा है। और वह पूरा श्वास से किरणों से पूरी प्राप्ति कर रहा है। ऐसे भी हम कर क्या रहे हैं? हमें कुछ खयाल में नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आप सब्जी लाए और खाएं। सब्जी में सूरज की किरण गई और एक विटामिन बनी। फिर सब्जी को आपने पचाया वह विटामिन फिर से टूटा और आपके शरीर में गया। आज नहीं कल, यह संभावना है ही कि विज्ञान भी ऐसा रास्ता खोज लेगा कि यह इतना बीच की सब्जी को लेने की कोई जरूरत न रहे, एक आदमी सूरज की किरणों में खड़ा हो गया और वह जो विटामिन पहले सब्जी पीती है और वह फिर तुम्हें लेना पड़ता है। क्योंकि वह सब्जी में कुछ चीजें मिल कर वह इस योग्य बनता है, कि हम उसे पचाएं।
एक गाय ने घास खाई, घास हम नहीं खा सकते क्योंकि घास को सीधे हमारा शरीर नहीं पचा पाता। पहले गाय उसे खाती है। फिर गाय उससे दूध बनाती है। वह उसी घास से बनता है। फिर वह दूध हमारे पचाने योग्य हो गया। अब हम उसे पी लेते हैं और हमें पच जाता है वह। तो आज नहीं कल हम मशीन बना सकते हैं कि घास से सीधे दूध निकले, क्यों गाय को बीच में उपद्रव देना है? आखिर कुछ कैमिकल काम ही हो रहा है न गाय के पेट में वह मशीन कर सकती है। और परसों यह भी हो सकता है कि घास ही कोई सीधा खाए। शरीर में कुछ व्यवस्था होनी चाहिए। तो कई बार शरीर का मैटाबॅालिज्म पूरा का पूरा, जो व्यवस्था है, वे नये ढंग से काम करने लगती है। तो किन्हीं चित्त-दशाओं में वह इतने ढंग से कम कर सकती हैं। और इसीलिए महावीर के जो शिष्य हैं, उनके अनुयायी हैं, मुनि हैं, साधु हैं, वह एक महीने का उपवास कर रहे हैं, तो उनकी हालत देखो। महावीर के शरीर को देख कर ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी ने उपवास कभी भी किया हो। महावीर की जो मूर्ति चली आई है उसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी ने भूल कर भी कभी उपवास किया हो। वह उपवास जैसा शरीर नहीं मालूम होता है यह। हां, तो इसका मतलब ये है शरीर और योग ने बहुत सी खोज-बीन की थी इस बाबत।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

दमन है सब दमन...। बहुत संभावनाएं है। इस मामले में। पहली बात तो यह है कि बुद्ध ने अनाहार ही किए। तो अनाहार तो कभी नहीं होता। तो अनाहार व्यर्थ सिद्ध हो गए। और महावीर ने अनाहार नहीं किया। उपवास हुआ, वैसा उपवास बुद्ध को नहीं हुआ। और हजार व्यक्ति हैं, और हजार ढंग के मार्ग हैं। और हजार मौके हैं, कहां से घटना घटेगी, यह नहीं कहा जा सकता। और कोई किसी को पकड़ कर चाहे कि ऐसा मैं करके घटा लूं तो बिलकुल गलती में पड़ जाता है। एक आदमी समझो ट्रेन से गिर पड़ा। और दिमाग उसका खराब था। ट्रेन से गिरा सिर को चोट लगी और वह ठीक हो गया। अब आपने सोचा ये तरकीब बड़ी अच्छी है, जब दिमाग खराब हो ट्रेन से गिर जाओ। तो आप मरे, अगर दिमाग ठीक भी था तो और खराब हो गए। पर्टीकुलर सिचुएशंस हैं। पर्टीकुलर व्यक्तित्व हैं, उस व्यक्तित्व का, उस घटना का एक-एक क्षण का, एक-एक, अलग-अलग मौका है। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तो वह इतनी बड़ी दिक्कत होती है खड़ी, कि नकल पट्टी ती है, वह उसने ऐसा किया, वैसा हम भी करें। यह सब ट्रेन से गिरने वाले मामले हैं कि महावीर को उपवास से आनंद हुआ, ज्ञान हुआ तो पागल हैं इकट्ठे वे उपवास कर रहे हैं।

प्रश्नः भक्ति-भाव की बात चल रही थी न अभी, तो राजकमल जी तो मेरे खयाल से भक्ति-भाव को ठीक समझते होंगे।

भक्ति-भाव का प्रयोग कर रहे हैं वह भी बहुत गहरा नहीं है, वह भी बहुत गहरा नहीं है। बहुत चलता है लेकिन, बहुत गहरा नहीं है, और महावीर को समझे हैं ऐसा भी नहीं है। वह बिलकुल ही दमन पर ही टिका हुआ मामला है। त्रिमत का तो एकदम दमन पर टिका हुआ मामला है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न, लाइन का सवाल नहीं है बड़ा, लाइन का बड़ा सवाल नहीं है।

प्रश्नः नहीं इसमें बहुत कष्ट दिखें हैं?

न, न, न, वह भी कष्ट किसी को दिख सकता है, किसी को, किसी को नहीं दिख सकता। एक-एक व्यक्ति के लिए भेद पड़ जाता है, भेद पड़ जाता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पंथ तो पागल बंधने वाले होते हैं। न, पागलों को उन्हीं चीजों में उत्सुकता है। जीवन की गहरी चीजों में उत्सुकता नहीं है, उनको इतनी ही उत्सुकता है। गुणा हमसे कहती है न, कि चमत्कार दिख लाइए। पागलों को इसी में उत्सुुकता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हमारा मजा यह है कि जो जिसको देखता है वह वैसा ही सोचता है, रमण वाला, रमण वाला मानता है कि इधर पांच सौ साल में ऐसा आदमी हुआ ही नहीं। अरविंद वाला मानता है कि पांच हजार वर्षों में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्णमुर्ति वाला मानता है कि आदमी हुआ ही नहीं नहीं ऐसा। गांधी वाला भी वहीं मानता है। रामकृष्ण वाला भी वही मानता हैै। यह हमारा मानना है न। यह हमारे राग, हमारे प्रेम का लक्षण है। और कुछ नहीं, इसमें कोई दूसरा मामला नहीं। ये आप मानते हो आपका प्रेम हो गया है, तो आपको लगता है ऐसा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पिछले जन्म का स्मरण हो सकता है, कोई कठिन बात ही नहीं है, आप चाहो आपको हो सकता है, थोड़ी प्रक्रिया की बात है, बड़ी साधरण सी सरल सी तरकीब है।

प्रश्नः आपने कहा था इक्कीस दिन में हो सकता है, बिलकुल इक्कीस दिन में हो सकता है?

बिलकुल हो सकता है करने की बात है बस।

प्रश्नः इसके लिए किसी बैकग्राउंड डिप्रेशन वगैरह की कोई जरूरत नहीं?

न, न, न, बिलकुल मेथड की बात है, जैसे कि यह दीवाल है, और उस तरफ क्या है, हमें नहीं दिखाई पड़ रहा है, और एक छैनी लेकर हम तोड़ने लग गए हैं, इसको हमने तोड़ दिया तो छेद हो जाएगा। उससे हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। तो हमारे प्रत्येक जन्म के बाद और उसकी स्मृतियों का जो संग्रह होता है, और नये जन्म के बीच एक गैप है छोटा सा, खाली, जो उसी का गैप है और कुछ भी नहीं। जब आदमी मरता है तो घबड़ाहट में बेहोश हो जाता है, और उस बेहोशी का जो पीरियड है, वह गैप बन जाता है, पिछली स्मृति अलग पड़ जाती है, और ये स्मृति फिर शुरू होती है। बस उस गैप को तोड़ देने की बात है। और उसके प्रयोग हैं जो उसकी छैनी लेकर तुम उस गैप को तोड़ डालो। तो उस तरफ की स्मृतियां तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हो वह कोई प्रयोग कर रहे होंगे, वह बहुत गहरा नहीं है। बहु चलता है लेकिन बहुत गहरा नहीं है। और महावीर को समझें हैं वह ऐसा भी नहीं है। वह बिलकुल ही दूमन पर ही टिका हुआ मामला है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं लाइन का सवाल नहीं है बड़ा। वह भी कट किसी को दिख सकता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पंथ तो पागल बनाने वाले होते हैं न, पागलों को उन्हीं चीजों में उत्सुकता है जीवन की कोई गहरी चीजों मेें उत्सुकता नहीं है। वह कहते हैं चमत्कार को नमस्कार। पागलों को इसी में उत्सुकता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

राजचंद्र की किताबों में कुछ भी नहीं है ऐसा जो मौलिक है? सिर्फ लिखा है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हमरा मानना यह है कि जो जिसको देखता है, वह ऐसा ही सोचता है। रमण वाला मानता है कि इधर पांच सौ साल में ऐसा आदमी नहीं हुआ, रमण महार्षि जैसा।

प्रश्नः अगर समझपूर्वक मृत्यु हुई, बेहोशी में नहीं हुई?

हां, तो पिछला जन्म याद रह जाएगा। तो याद रह जाएगा।

प्रश्नः आदमी अगले जन्म में आदमी ही होता है, यह जरूरी है? पिछले जन्म में भी वह आदमी था, यह जरूरी है?

पिछले जन्म में तो वह कोई भी हो सकता है। अगले जन्म में आदमी से ऊपर जा सकता है, पीछे नहीं जा सकता। नहीं पीछे जाना होता ही नहीं असल में, यानी जो विकास है, उसमें पीछे जाने का कोई उपाय ही नहीं है। तुम जवान हो तो तुम बूढ़े हो सकते हो, बच्चे नहीं होगे। हालांकि जवान जब तुम नहीं थे तो बच्चे हो सकते थे। बच्चे थे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं आदमी से आगे और होने की संभावनाएं हैं। बहुत से शरीर रहित अस्तित्व हैं, जिनको देवता कहते रहे हम। शरीर रहित अस्तित्व हैं।

प्रश्नः हवा के अंदर जो आत्माएं फिरती हैं वही?

हां, तो वहां जा सकती हो या पीछे लौट सकती हो। पीछे लौटने का मेरा मतलब न पीछे नहीं लौट सकती हो या आदमी ही रह सकती हो बार-बार। पीछे गिरना नहीं होता।

प्रश्नः रमण महर्षि की किताब में है कि...बहुत झगड़ा करती थी। और उसकी डेथ हो गई। बाद में वह...करके रोई और मुक्ति दिलवाई।

न, अब सब यह, बड़े मजे यह हैं, बड़े मजे यह है कि यह यही कठिनाई होती है। कि अब जैसे मैं कहूं कि यह सब गलत है, और फिर कल कोई किताब लिखी जाएगी उसमें लिखा जाएगा कि मैंने रमण महर्षि को गलत कहा। यही तो मुश्किल हो रहा है न, यही तो मुश्किल है। यह बात गलत है।

प्रश्नः फिर पीछे लौटना होता ही नहीं, असंभव ही है।

वह सिर्फ एक भय पैदा करने की बात है, वह सिर्फ भय पैदा करने की बात है, ताकि आगे चलने के लिए कुछ करो, और कुछ कारण नहीं है। टोटल नंबर इनफिनिट है। यह सारी कठिनाई है। पीछे जाने का उपाय ही नहीं है कहीं कोई, किसी तल पर पीछे जाना ही नहीं होता। सब जाना आगे जाना है, और कठिनाई इसलिए हो जाती है कि अगर तुम पूछोगे कि घटती-बढ़ती है, तो मैं कहूंगा, नहीं घटती-बढ़ती। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि कोई सीमित संख्या है आत्माओं की। हां, संख्या तो असीम है, अनंत है। लेकिन अनंत घटता बढ़ता नहीं।
कितने लोग आ गए हैं, तेरे घर में मच्छर हैं, इतने मोहल्ले में आदमी नहीं। अगर आत्माओं का हिसाब रखेगी पीछे तो आदमी जो है वह सबसे छोटी स्थिति है, सबसे छोटी जाति है। साढ़े तीन अरब है। एक गांव में साढ़े तीन अरब मच्छर मिल जाएंगे। अगर एक गांव के मच्छर ही मुक्त हो जाएं तो पूरी आदमियत बन जाएगी। असल में बुरा करना जो है न, वह भी आदमी की ही संभावनाएं हैं, पशु तो बुरा कर ही नहीं सकता। बुरा करो या अच्छा करो, आदमी से नीचे जाने का उपाय नहीं है। बुरा करके बुरे आदमी रहोगे। मेरा मतलब समझ रहे हैं न।

प्रश्नः जैसे लोग बताते हैं कि यह पाप है, यह पुण्य है इसकी बाबत?

बस तुम्हारी शांति और आनंद बढ़ना चाहिए बस। तुम्हारी शांति और आनंद बढ़ना चाहिए।

प्रश्नः अभी आपने कहा कि बुरा करो, बुरे आदमी बनोगे, ज्यादा नीचे नहीं जाओगे। तो पिछले टाइम हमने कहां-कहां गलती की?

बुरे आदमी का मतलब यह है कि समझ लो आज दिन भर मैंने बुरे काम किए। तो फल तो मैं दिन भर भोगूंगा, जब गाली दूंगा, तब फल मिल जाएगा। फल तो पूरे वक्त भोग लूंगा। मैंने दिन भर गालियां दीं, मैंने बुरे फल दिन भर भोगे। तुमने दिन भर अच्छे काम किए, तुमने दिन भर अच्छे फल भोगे। हम दोनोें एक ही कमरे में सोए। हम दोनों ने फल भोग लिए लेकिन हम दो भिन्न तरह के व्यक्ति हो गए। क्योंकि मैंने दुख भोगे दिन भर, तुमने सुख भोगे दिन भर। हमारी दोनों की नींद भिन्न होगी। फल की वजह से नहीं कि चैबीस घंटे मैंने गाली खाईं, झगड़ा किया, मार-पीट की उलटा-सीधा सब हुआ तो मैं एक चित्त लेकर सोया। तुम दिन भर शांति आनंद में बिताए, तुम दूसरा चित्त लेकर सोए। फल हम दोनों ने भोग लिए, लेकिन जो हमने किया, जो हमने भोगा, उसमें हम भिन्न हो गए। रात हम दोनों की अलग होने वाली है। सुबह हम दोनों अलग आदमी उठेंगे। अलग आदमी इन अर्थों में कि अगर तुम उठे और तुम्हें नाश्ता थोड़ी देर से आया तो तुम गाली नहीं बकने लगोगे। मेरी संभावना है कि नाश्ता देर से आया तो मैं गाली बकूंगा। और संभावना क्या है, संभावना यह है कि मेरा पूरा अनुभव उस तरह का है। फल तो मैंने भोग लिए, फल में नहीं बचा कुछ।

प्रश्नः यह तो वही बात है जैसा आपने कहा कि ध्यान सबमें रहता है।

ठीक वही न, एसेंशियल जो था, वह मेरे साथ रह गया।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

तुम आदमी होंगे पशु प्रवृत्तियों के होंगे।

प्रश्नः आदमी रहेंगे?

रहेागे आदमी ही।

प्रश्नः गुरुजी आपने कहा है कि मनुष्य के पास और दूसरी योनियां हैं?

मैं कुछ नहीं कह रहा हूं, और योनियां हैं आगे।

प्रश्नः तो मोक्ष के बाद भी वे पुनर्जन्म लेते होंगे?

योनियों में तो पुर्नजन्म चलता ही रहेगा, मोक्ष योनि नहीं है, योनि से मुक्त हो जाना। समझे न?

प्रश्नः आगे किसी...में नहीं जाएगा मनुष्य? मनुष्य की स्थिति है, उससे और आगे की स्थिति नहीं?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, अब यह बिलकुल दूसरा मामला है, असल मामला यह है कि हम मनुष्य जो हैं अब तक के शरीर की योनियों में आखिरी कड़ी हैं। शरीर की योनियों में। जिनके पास शरीर है उन योनियों में मनुष्य आखिरी कड़ी है। इसके एक चैक पर मनुष्य खड़ा हुआ है, जहां शरीर की योनियां समाप्त होती हैं। और जहां से दो मार्ग जाते हैं इस चैरस्ते से। एक मार्ग है और योनियों का, अशरीरी योनियों का। देवता, भूत-प्रेत इत्यादि का, और एक मार्ग है अयोनी का, मोक्ष का। और इसलिए मैंने कहा कि वे जो योनियां हम कह रहे हैं, वे आगे की योनियां है, ऊंची नहीं, और इसलिए उनसे पीछे लौटना होता है। मनुष्य तक आना होता है उन्हें। मनुष्य से नीची योनी नहीं है। तुम उससे आगे बैठे हो सिर्फ, उससे ऊंची नहीं। सिर्फ अशरीर है बस इतना फर्क है उनका। तो वे जो अशरीरी योनियां हैं। यह समझ लो की चैरस्ता है, और वहां सेे मैं इस घर तक आया, उस चैरस्ते से एक रास्ता और जाता था, दूसरी तरफ अब मुझे उस तरफ जाना है। तो मैं वापस लौटूंगा उस चैरस्ते तक, अब फिर उस रास्ते पर जाऊंगा।
तो मनुष्य योनी जो है वह क्राॅस रूट्स पर है। पशुओं को अगर मुक्त होना है, तो मनुष्य तक आना पड़ेगा। देवताओं को मुक्त होना है, तो मनुष्य तक आना पड़ेगा। वह क्राॅस रोड पर है, खड़ा व्यक्तित्व जो है। जाएगा वहीं से कोई भी मोक्ष की तरफ, वह चाहे आज चला जाए, चाहे वह कल, देवताओं की योनियों में लौटे और भट कर और लौटे और जाए। ऊपर मोक्ष है, वे सब योनियों से ऊपर हैं। इसलिए वह अयोनी है, आगे और हैं अशरीरी योनियां हैं, और उनका भी पुर्नजन्म है। और मनुष्य चैरस्ते पर खड़ा हुआ है। इसलिए कहीं भी जाना हो तुम्हें तो चैरस्ते पर आना पड़ेगा। और पीछे कोई नहीं जाता इसलिए पीछे जाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। जैसे कि एक बच्चा एक क्लास पढ़ रहा है, और दूसरी क्लास पढ़ रहा है, या तो वह तीसरी क्लास में जा सकता है, या दूसरी क्लास में रह सकता है, या स्कूल छोड़ सकता है, लेकिन पहली क्लास में नहीं जा सकता। समझे न, दूसरी क्लास पढ़ रहा है, तीसरी क्लास में जा सकता है, दूसरी में ही रह सकता है, या स्कूल ही छोड़ सकता है। वह जो मोक्ष जा रहा है, वह स्कूल ही छोड़ रहा है। तुम्हारा भी झंझट खत्म। स्कूल के ही बाहर जाते हैं, अब हम क्लास-विलास में नहीं जाते। जो तीसरी क्लास में जा रहा है, चैथीं जा रहा है, वह एक यात्रा कर रहा है, लेकिन दूसरी क्लास से पहली क्लास में वापस लौटने का उपाय नहीं है। उपाय इसलिए नहीं है क्योंकि तुम पहली क्लास पास हो चुके हो, उत्तीर्ण हो चुके। और जिंदगी में सब योनियों का अर्थ यह है कि तुम एक अनुभव से गुजरो, जिससे तुम गुजर चुके हो। उस अनुभव को दुबारा लेने का कोई अर्थ ही नहीं है।
तो आदमी पशुओं में नहीं भटक सकता, आदमी भटक सकता है देवताओं में। यानी आदमियों का भय जो होना चाहिए आदमी को वह पशुओं में भटकने का नहीं, क्योंकि वह तो असंभव है, आदमी भटक सकता है देवताओं के रास्ते पर। क्योंकि वह अन्जाना है अभी, और अधिक लोग उससे भटक जाते हैं। जो लोग भी स्वर्ग, पुण्य, धर्म, कर्म, उपवास इत्यादि के चक्कर में पड़े हैं वे तो उस योनि को बंद कर लेंगे। वे जो अशरीरी योनियां हैं, उसमें वे भटक जाएंगे। इसलिए मोक्ष से जो असली लड़ाई है वह पशुओं की नहीं है, असली लड़ाई जो है, वह विकल्प जो है, देवताओं वाला वह है। जिसको हम कहते हैं अच्छा आदमी, धार्मिक आदमी, साधु, संन्यासी वह उस तरफ भटकेगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

ज्ञान से तो कभी कोई नीचे जाता ही नहीं।

प्रश्नः नेक्स लाइफ में भी नहीं?

कभी भी नहीं। नेक्स लाइफ में क्या, कल नहीं, परसों नहीं, अनंत तक भी नहीं। ज्ञान से कभी कोई नीचे नहीं जाता। जो हमने जान लिया, उसे जान लिया, उसे अनजाना करना असंभव है। ये सुख-दुख वगैरह दूसरी बातें हैं। जैसे जो अभी सुखी है, अगले जन्म के घंटे भर बाद दुखी हो जाएगा। क्योंकि मजा यह है कि दुख सुख से नीचा नहीं है। दुख और सुख समतल पर हैं। एक ही चीज के दो पहलू हैं। यानि एक ही घर के दो कमरे हैं।

प्रश्नः हम जिसे कह देते हैं खुशी, यानी खुशी यानी क्या करना चाहें? कभी उन्होंने चाहा की मुझे दूध पिलाओ, वह मिल गया?

ठीक है, तो यही सुख हुआ न, कि दूध पीना तो मिल गया। हां, तो कल हो सकता है कि दूध न मिले, तो दुखी हो जाएंगे। मगर दूध के मिलने और न मिलने में दोनों में समतलता है। एक ही तरह की चीजें हैं, मिलना या न मिलना। दूध ही का मिलना या न मिलना है न।

प्रश्नः लेकिन हमसे लोग कहते हैं, वे बोलते हैं, कर्म का फल मीठा है?

लोग तो हजार बातें बोलते हैं, जिनका कोई हिसाब, कोई ठिकाना नहीं है। एक तो मेरा मानना है कि जीवन के सहज क्षण में जो आए, वही ठीक है। असहज रूप से जबरदस्ती लाना, व्यक्ति की गहरी पात्रता को नुकसान पहुंचा सकता है। यानी फिर तुम्हारी पात्रता कभी विकसित ही न हो। और यह इतना गहरा मामला है कि हमें ऊपर से खयाल में नहीं आता है, एकदम से, असल में जो होना चाहिए, वह होता ही है। उसके लिए हमें कहीं बाहर से शक्ति खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
जैसे एक कली है। अभी फूल नहीं बनी है। कोई जाके जबरदस्ती खोल कर कली की पंखुड़ियों को फूल बना दे। फूल तो बन जाएगी, लेकिन यह वह फ्लावरिंग न हुई, जो वह होती। और अब वह फ्लाॅवरिंग कभी न होगी। वह जो सहज खिलना होता फूल का, वह अब कभी न होगा, क्योंकि पंखुड़ियां तो जबरदस्ती खोल दी गई हैं। बाहर से शक्ति ने आकर पंखुड़ियों को खोल दिया, पंखुड़ियां खुलती हैं भीतर से शक्ति आती है उससे। दोनों हालत में शक्तियां आती हैं, लेकिन पहली हालत मेें शक्ति का अविर्भाव होता है आंतरिक और दूसरी हालत में पात हुआ ऊपर से। शक्ति अविर्भाव होना चाहिए शक्तिपात नहीं।
यह सब दूसरी बात हैं, सज्जनों की चर्चा करना करना बहुत झंझट का मामला है। उस सबमें नहीं जाना चाहिए। मैं उन व्यक्तियों की बात तुमको कहता हूं। उन व्यक्तियों को नहीं लेता फिजूल का। एक तो तुम्हारी पात्रता जितनी है, उतने ही के पाने के तुम हकदार हो। उससे ज्यादा पाने के तुम हकदार भी नहीं हो। ज्यादा की आकांक्षा करना भी बुरा है। इतनी प्रार्थना करनी चाहिए परमात्मा से कि मेरी पात्रता बढ़ा। तो जो सच्चा मित्र है, वह तुम्हारी पात्रता बढ़वाने में सहयोगी होगा। लेकिन जो तुम्हारी पात्रता नहीं बढ़वाता ऊपर से शक्ति डाल के तुम्हें ऐसे अनुभव में धकेल देता है जो तुम्हारे योग्य नहीं है, तो वह तुम्हें इतने गहरे नुकसान पहुंचाता है जिनको पूरा करने में हो सकता है, तुम्हें दुबारा ही जन्म लेना पड़े। तभी तुम पूरा कर पाओ, नहीं तो नहीं कर पाओगे।
दूसरी बात ये है कि बाहर से आई हुई कोई भी शक्ति तुम्हारे व्यक्तित्व की जो आंतरिक हार्मनी है, उसे सदा के लिए खंडित कर देती है। तुम्हारी एक आंतरिक व्यवस्था है जीने की, शक्ति की, समझ की, तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत जटिल है, उसमें बहुत चीजों का एक जोड़ है। छुरे की तरह एक चीज तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकती है। तुम्हारे भीतर बहुत से तंतु काट जाएगी। घाव कर जाएगी। और अगर वह तुम्हारे भीतर खुली रह गई तो हो सकता है कि वह जो इनर हार्मनी थी, जिसकी अपनी एक ग्रोथ थी, वह मुश्किल हो जाएगी। इसलिए बाहर से शक्ति का प्रवेश बिल्कुल ही ठीक नहीं है।
तीसरी बात यह है कि जो भी बाहर से किया जा सकता है, जैसे मैं छुरा मारूं, तो छुरा तुम्हारे शरीर से ज्यादा प्रवेश नहीं कर सकता। तुम्हारे मन में छुरा कैसे प्रवेश करेगा? छुरे का प्रवेश उसी तल तक होगा, जिस तल पर छुरा है। छुरा चूंकि मैटल है, पदार्थ है, तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर जाएगा। तुम्हारे मन में नहीं। मैं तुम्हें एक गाली दूं। गाली तुम्हारे मन में प्रवेश कर जाएगी, तुम्हारे शरीर मेें नहीं। समझे न, क्योंकि गाली का तुम्हारे शरीर में प्रवेश का कोई उपाय ही नहीं। मैटल शरीर तक प्रवेश कर सकता है। माइंड से किया हुआ कुछ माइंड तक प्रवेश कर सकता है। तो जितना शक्तिपात है वह चूंकि माइंड से ही किया जाता है, इसलिए आत्मा तक तुम्हें कभी नहीं ले जाता। काउंटरफीट एक्सपीरिएंसिस की गुंजाइश है सदा। यानी ठीक आत्मा जैसे अनुभव मन में हो सकते हैं, ठीक आत्मा जैसे, लेकिन आत्मा के नहीं। और अगर वह तुम्हें हो जाएं तो तुम उसी तल को आत्मा समझ लोगे और भीतर कभी गत नहीं करोगे। मन के साथ जो सबसे बड़ा मजा है, वह यह है कि मन है कि मैकेनिज्म काउंटर फीट को पैदा करने का। जैसे दिन भर तुमने खाना नहीं खाया। रात तुम्हारा मन एक बीम पैदा करेगा, जिसमें तुम खाना खा रहे हो। और सपने में तुम कोई फर्क नहीं कर सकते हो कि इस खाने में और राते के खाने में कोई भी फर्क हो सकता है। वह खाना बिलकुल असली मालूम होगा। होगा न, जरा भी संदेह नहीं होगा, बल्कि यह भी हो सकता है असली खाने से भी ज्यादा सुखद मालूम पड़े। हां, क्योंकि एकदम मन का ही मामला है, कोई मैटल है ही नहीं वहां, इसलिए जितना सुखद चाहो, हो सकता है। सुबह जाग कर तुम्हें पता चलेगा कि यह तो धोखा हो गया। क्योंकि तुम चाहे रात में कितना ही सपना देखो, खाना खाने का, तुम्हारे शरीर की भूख को वह नहीं छू सकता। क्योंकि मन कभी भी शरीर में प्रवेश कैसे करेगा? रात भर तुम सपना देखो खाना खाने का, सुबह तुम भूखे के भूखे उठोगे। मेरा मतलब समझे, तो मन में जो संभावनाएं हैं, वह सब्स्टीट््यूट पैदा करने की करीब-करीब एक जैसे पैदा कर देता है।
जैसे आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है। वह उसे नहीं मिली तो वह पागल हो गया। और अब वह उसी स्त्री से बैठा हुआ बात कर रहा है, वह स्त्री वहां है नहीं, मगर वह उससे बात कर रहा है। मन ने सब्स्टीट्यूट पैदा कर दिया है। अब पाने की जरूरत ही नहीं रही उसकी। अब वह सोता है, वह जानता है वह स्त्री उसके पास सोई हुई है, वह उसके पास बैठी हुई है। वह उससे बातें करता है। वह उसके साथ जीने लगा। और ये जीना असली स्त्री के साथ जीने से भी सुखद हो सकता है। क्योंकि असली स्त्री कई तरह के उपद्रव कर सकती है। झगड़ा कर सकती है। यह स्त्री कुछ भी नहीं कर सकती। यह हमारे ही मन का खेल है। इसलिए इसके साथ कोई झगड़ा नहीं, कोई डाइवोर्स का उपाय नहीं, कोई झंझट नहीं, कोई बात नहीं। मन में काउंटरफीट पैदा कर दिया है। नकली सिक्का पैदा कर दिया है। जिससे अब तृप्ति हो गई है। अब यह आदमी, वह स्त्री भी आ जाए तो उसकी फिकर नहीं करेगा। वह असली स्त्री आकर खड़ी हो जाती है, वह उसकी तरफ देखेगा भी नहीं। वह भी इसको आकर समझाएगी कि तुम किस पागलपन में पड़े हो? लेकिन उसकी स्थिति में तो दूसरी पैदा हो गई, वह स्त्री इसके मतलब की नहीं।
तो मन का यंत्र सबसे बड़ा जो खतरा पैदा करता है, वह यह कि वह ठीक नकली सिक्के पैदा करना जानता है। और दूसरे के मन से तुम जो भी करवाओगे वह सिर्फ तुम्हारे मन में नकली सिक्के पैदा करने का धक्का पहुंचाएगा। तो तुम्हें शांति मिल सकती है। प्रकाश मिल सकता है। आनंद मिल सकता है। सब, लेकिन सब काउंटरफीट। और जिस दिन तुम जागोगे, वह जागना दूसरा है, यह जागना नहीं सुबह का। जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तुम पाओगे ये सपने में मैं जो समझता रहा, सब दिमागी खयाल था। इसमें कुछ मामला नहीं। मामले तो बहुत गहरे हैं न, सारी चीज के मामले बहुत गहरे हैं, लेकिन हम तो सत्य की तलाश में होते हैं। कोई भी जिसको सदगुरु कहे, ऐसे आदमी ने कभी ऐसे काम नहीं किए। क्योंकि उसकी समझ और गहरी है। आज सिर्फ इतना ही थोड़ी मामला है कि तेरे को कोई अनुभव हो जाए, इसका थोड़ी सवाल है। बहुत भारी सवाल है, तेरे व्यक्तित्व का पूरा सवाल है। जो तुझे सहायता पहुंचाना चाहता है, वह सहायता ऐसी होनी चाहिऐ कि तुझे कहीं भी कोई नुकसान न पहुंच जाए।
चीन में एक रिवाज है। गुरु के मरने पर गुरु की मरणतिथि पर उसके शिष्य उत्सव मनाते हैं। याद करते हैं उसे। एक बहुत प्रसिद्ध फकीर था, वह उत्सव मना रहा था। तो एक आदमी उसके पास आया और उसने कहा कि किसका उत्सव मना रहे हो? तुम्हारे गुरु का? क्योंकि वह उत्सव गुरु के लिए ही मनाया जाता था। उसने कहा कि नहीं, मेरे गुरु का नहीं। उसने कहा कि यह उत्सव तो अपने गुरु के लिए ही मनाया जाता है। फिर क्यों मना रहे हैं? उसने कहा कि मैं इसलिए मना रहा हूं क्योंकि एक आदमी इस दिन मरा जिसने मेरा गुरु होने से इनकार कर दिया था। उसकी स्मृति में मना रहा हूं। क्यों? उसने कहाः अगर वह मेरा गुरु बन गया होता, तो मैं सदा के लिए भटक जाता। यह मैं आज जानता हूं, उस दिन तो मुझे बहुत दुख हुआ था। उस दिन तो मुझे बहुत दुख हुआ था कि मैं इतनी उससे प्रार्थना कर रहा हूं, उसने कहा कि नहीं। मैं किसी का गुरु नहीं बनूंगा। मेरे पास रहना हो तो बिना शिष्य बने रह सकते हो। यह शर्त रही थी उनकी। मेरे साथ रहना हो तो बिना शिष्य बने। मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं। और जब मुझे ज्ञान हुआ, तब मैंने जाना कि उसकी कितनी अपरंपार कृपा थी। उसने गुरु होने से इंकार कर दिया, क्योंकि जैसे ही वह गुरु हो जाता, मैं सुस्त हो जाता। उसकी कृपा चली जाती। उसने कहा कि मैं तेरा साथ ही नहीं करने वाला हूं कुछ। मैं कुछ कर ही नहीं सकता हूं। तुझे ही करना होगा। इतना कह सकता हूं क्या करना है। लेकिन आज मैं जानता हूं कि उसकी बड़ी कृपा थी, और आज उसका स्मरण करता हूं। अगर वह मेरा गुरु बन जाता तो मैं गया था। मैं भटक जाता। वह नहीं बना और मैं बच गया। और मैंने वह जान लिया, जो स्वयं ही जानना होता है, जिसे कोई दूसरा नहीं जान सकता।
तो आत्मा को तो तुम स्वयं ही जान सकते हो। कोई दूसरा उपाय है ही नहीं। हां, मन तक दूसरे का प्रवेश हो सकता है।
तो सब शक्तिपात मन की सीमा के भीतर होते हैं। और तुम्हारे मन को प्रभावित किया जा सकता है। तुम्हारे शरीर को भी प्रभावित किया जा सकता है। लेकिन तुम्हारी आत्मा को नहीं। असल में आत्मा है ही वह, जो कभी भी प्रभावित नहीं की जा सकती। क्योंकि वह स्वयं परमात्मा है उसको कोई प्रभावित कर ही नहीं सकता। समझे न, तो उसको प्रभावित करने का उपाय ही नहीं है। इसलिए शक्तिपात जैसी बातों में, बच्चों जैसी बातों में नहीं आना चाहिए। बहुत नुकसान की बात है।
मन नहीं रहा न, वह ही मैं कह रहा हूं। सब अर्ज वगैरह मन की हैं। आत्मा के पास कोई अर्ज नहीं है। सब कांशस वगैरह सब मन के हैं। आत्मा से कुछ लेना-देना नहीं है। आत्मा तो वहां अनुभव होगी, जहां कोई अर्ज ही नहीं है। न कम्पेनियन की जरूरत है, न गुरु की जरूरत है, अर्ज ही नहीं है वहां कोई। तो मन में उठने वाली इच्छाओं की तृप्ति करवाई जा सकती हैैं लेकिन वे मन की ही इच्छाएं हैं। और अगर आत्मा में जाना हो तो मन को ही छोड़ना है ए.ज ए टोटेलिटि, मन के किसी अनुभव का वहां कोई मूल्य नहीं। मन के दुख का मूल्य नहीं है। मन के सुख का मूल्य नहीं है। मन के प्रेम का मूल्य नहीं है, मन की घृृणा का मूल्य नहीं है। मन के अज्ञान का कोई मूल्य नहीं है, मन के ज्ञान का भी कोई मूल्य नहीं है। मन का ही मूल्य नहीं है वहां, बी आॅन माइंड है वहां, यानी मन के सारे अनुभव ही छोड़ के चले जाने हैं। और यह जो शक्तिपात इत्यादि हैं, वह मन का ही अनुभव है। और उसको पकड़के रुक जाएंगे आप तो आगे जाएंगे नहीं। इस तरह की आकाक्षाएं ही नहीं करनी चाहिए।

प्रश्नः चैबीस घंटे राम-नाम जपना कोई ध्यान नहीं है?

यह सब मन का मामला है, इसमें कुछ आत्मा का मामला नहीं है। वह मन ही है न, मन की गति चल रही है। इसमें क्या फर्क पड़ता है। इसमें कुछ आत्मा का मामला नहीं है। और मैं मानता हूं कि आपको नुकसान पहुंचा। मैं मानता हूं कि आपको नुकसान पहुंच गया। क्योंकि आप उसको गति समझ रहे हैं उसमें रस ले रहे हैं आप, चले जा रहे हैं। आपको नुकसान पहुंचा।
नहीं, यह चिंतन कोई ध्यान नहीं है।

प्रश्नः तो ध्यान की आवश्यकता है ही नहीं? सुबह बैठना है, ऐसा करना है यह?

ध्यान बड़ी अलग बात है, बहुत अलग बात है।

प्रश्नः चित्त-शुद्धि बिलकुल नहीं होती?

चित्त को शुद्ध नहीं करना है, चित्त से मुक्त होना है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यानी कोई आदमी हमसे कहे कि मेरे हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। तो पहले इनको मैं सोने की जंजीरें बनाऊंगा। फिर मैं मुक्त होऊंगा। फिर वह कहे की लोहे की जंजीर जरा बुरी जंजीर हैं, सोने की जंजीर जरा अच्छी है। पहले मुझे सोने की जंजीर डालने दो, फिर इसके बाद देखेंगे। मैं समझता हूं वह बिलकुल पागल है। जंजीर तोड़नी है, सोने से और लोहे से थोड़ी सवाल है। मन शुद्ध है कि अशुद्ध है, यह सवाल ही नहीं है। मन तोड़ना है। और ध्यान रहे, कि लोहे की जंजीर तोड़ना सदा आसान है सोने की जंजीर से। क्योंकि सोने की जंजीर गहना बन जाती है। इसलिए अशुद्ध चित्त जल्दी टूट सकता है बजाय शुद्ध चित्त के। इसलिए कई बार पापी परमात्मा को पहुंच जाते हैं और संन्यासी नहीं पहुंचतेे।

प्रश्नः ध्यान, ध्यान के बारे में कुछ?

तूू किसी कैंप में नहीं आई अब तक न ध्यान के? तीन दिन ध्यान का प्रयोग कर, चिंतन-विंतन तो सब बच्चों का काम है, मत करो। कुछ और करना पड़ेगा।

प्रश्नः मैं आपको एक सवाल पूछना चाहता हूं, अबाउट डवलपमेंट आॅफ इंट््यूशन, आपका क्या खयाल है? हाउ डवलप इंट््यूशन?

असल में इंट््यूशन डवलप करना हो तो इंटलेक्ट छोड़नी ही पड़ती है। क्वाइट दि अपोजिट। नाॅट इंटलेक्ट लेस दि इंट््यूशन। जितना इंटलेक्चुअल माइंड होगा उतना ही इंट््यूशन डवलप करनी मुश्किल बात है। कठिन है बात। और इसीलिए एक प्र्रीमिटिव में इंट््यूशन मिल जाएगी। एक जंगली में इंट््यूशन मिल जाएगी। एक गांव के ग्रामीण में मिल जाएगी। लेकिन सुशिक्षित आदमी में इंट््यूशन मिलनी मुश्किल हो जाएगी। फैकल्टी ही अलग है माइंड की, वह भी माइंड की फैकल्टी है, यह भी। लेकिन जो माइंड लाॅजिक से सोचना शुरू कर देता है, उसका एक ढांचा बन जाता है। वह उसी ढांचे से दुनिया को झांकता है। और इंट््यूशन का ढांचा बिलकुल ही लाॅजिक से उलटा है। जैसे कि लाॅजिक में हम कहेंगे कि ए इ.ज ए, एंड बी इ.ज बी, एंड ए कैन नाॅट बी बी। इंट््यूशन में ऐसा नहीं है। ए इ.ज ए, एंड ए इ.ज बी आल्सो। वहां ऐसा फर्क नहीं है जैसा कि लाॅजिक करता है, काला और सफेद को अलग अलग कर देता है। कि यह काला, ये सफेद। यह आदमी अच्छा, यह आदमी बुरा। ऐसा हम तोड़ देते हैं। लाॅजिक जो है वह डुअलिस्टिक पैटर्न है चीजों को तोड़ने का। और इंट््यूशन टोटल को देखने का है। वहां हम यह नहीं कहते कि यह आदमी अच्छा, यह बुरा, वहां अच्छा आदमी भी बुरा होता है। और बुरा आदमी भी अच्छा होता है। वहां ग्रे कलर होता है, वहां व्हाइट और ब्लैक होता ही नहीं। तो जब एक दफा मांइड यह आदत बना लेता है ब्लैक-व्हाइट में तोड़ने की। कि यह मेटल, यह फलां, यह यह, सब चीजों को तोड़ कर हम देखते हैं। तो फिर हमारा जो सिंथेटिक माइंड है वह डवलप नहीं हो पाता। एनालिटिकल माइंड डवलप हो जाता है। रीजन जो है एनालिटिक माइंड है। विश्लेषण, तोड़ो, और देखो। इंट््यूशन जो है वह सिंथेटिक माइंड है। तोड़ो मत और देखो। तो इनमें से एक ही आदत विकसित हो पाती है। तो अगर हमारी सारी इंटलेक्ट की ट्रेनिंग चल रही है, सारी दुनिया में, सारा एजुकेशन, सारा कल्चर, सारी सभ्यताएं इंटलेक्ट की हो गई हैं, इसलिए इंट््यूशन बिलकुल अनडवलप्ड रह गया।
आज भी पुरूष से स्त्री का इंट््यूशन ज्यादा गहरा है। इंटलेक्टिविटि नहीं मिल पाई है। लेकिन अब एक इंटलेक्चुल ट्रेंड आदमी क्या करे? तो दो उपाय हैं, एक तो उपाय ये है कि वह इंटलेक्ट के बिलकुल एस्ट्रीम पर चला जाए। रीजन जहां तक जा सकता है, टू दि अल्टीमेट लिमिट, वहां तक ले जाए। तो एक्सप्लोजन हो जाता है। कोई भी चीज अपनी चरम स्थिति पर पहुंचे तो एक्सप्लोर हो जाती है। बस उसके एक्सप्लोजन पर इंट््यूशन आ जाता है। एक रास्ता तो ये है। जो खतरों से भरा भी है। क्योंकि हो सकता है कि एक्सप्लोजन न हो और सिर्फ टेंशन आदमी को पागल कर जाए। इसलिए बहुत से इंटलेक्चुअल्स पागल हो जाते हैं। कारण यह है कि जैसे वह आखिरी सीमा तक बढ़ना शुरू करते हैं, और अगर इतना बल नहीं है भीतर और अपनी सीमाओं और पात्रता के बाहर उन्होंने बढ़ना चाहा तो पागलपन आएगा। इंटलेक्ट चली जाएगी और इंट््यूशन नहीं आ पाएगी। तो दूसरा रास्ता यह कि इंटलेक्ट को रिलैक्स करिए। टेंस मत करिए। एक्सट्रीम तक मत ले जाइए उस तरफ, इस तरफ एक्सट्रीम पर लाइए। रिलैक्स करिए। कुछ घंटे दो घंटे, के लिए तय कर लीजिए की रीजन नहीं करेंगे। बहुत मुश्किल है, सरल नहीं है एकदम कि दो घंटे हम रीजन नहीं करेंगे। कि लड़का आकर कहेगा आपसे कि बाहर एक कुत्ता खड़ा है, पहाड़ के बराबर। तो हम मान लेंगे। हम कहेंगे हो सकता है। दो घंटे हम रीजन का उपयोग ही नहीं करेंगे। हम नहीं कहेंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता। कुत्ता पहाड़ के बराबर कैसे हो सकता है? दो घंटे फास्ट कर जाइए, रीजन का उपयोग मत करिए। तो चार-छह महीनों में आपको उन दो घंटों में इंट््यूशन की झलक मिलनी शुरू हो जाएगी। बहुत कठिन है, बहुत कठिन है, क्योंकि हमारे सोचने से ढांचा बन गया है, ढांचा बन गया है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नाॅट, टेक्नालाॅजी इ.ज बेसड आॅन इंटलेक्ट, साइंस नहीं, साइंस के जितने भी गहरे इनवेंशंस हैं वे तो इंट््यूशन से ही आते हैं। टेक्नालाॅजी इंटलेक्ट बनाती है। असल में इंटलेक्ट ने आज तक कुछ डिस्कवर किया ही नहीं। डिस्कवरी तो हमेशा इंट््यूशन देता है। इंटलेक्ट ने कभी कोई डिस्कवर नहीं की, कोई चीज। डिस्कवरी तो इंट्यूशन करती है। लेकिन जब डिस्कवर हो जाता है तो उसको फार्मूलेट करना, थ्योरी बनाना, इंप्लीमेंट करना वह इंटलेक्ट करती है। यानी इंटलेक्ट जो है, वह एक्टिव पार्ट है माइंड का जो इंप्लीमेंटेशन करता है। क्योंकि एक वैज्ञानिक खोज रहा है तो सारी इंटलेक्ट थका डालता है, खोज-खोज कर वह नहीं मिलता, वह सोया रात को, अचानक नींद में उसे मिल गया, और वह उठ कर उसने लिख लिया।
मैडम क्यूरी ने तो रात में ही लिखा था नींद में। जिन सवालों को वह दिन में हल नहीं कर सकी और थक गई, और परेशान हो गई। उनको रख कर सो गई। और नींद में उसकी आंख चैंक गई। उठी है और उसने किताब पर हल कर दिया है। फिर सो गई और सुबह पहचानना मुश्किल है कि मेरे अक्षर हैं। मगर सवाल हल हो गया। मैडम क्यूरी को जो नोबल प्राइज मिला वह उसकी नींद की हालत को मिला। उसको नहीं, उसका उसमें हाथ नहीं है बड़ा। और फिर तो उसने आखिर में कहा कि मेरा भरोसा ही छूट गया। क्योंकि मैं कुछ कर ही नहीं पा रही हूं, यह तो कुछ और ही हो रहा है। मैं जब नहीं होती हूं तब। आप भी नहीं जानते कई दफा ऐसा हो जाता है आप एक नाम याद कर रहे हैं, और नहीं आ रहा है, नहीं आ रहा है, नहीं आ रहा है, नहीं आ रहा। और आपने छोड़ दिया है और चले गए बगीचे में घूमने लगे कि बच्चे के साथ खेलने लगे और अचानक आपने कहा कि वह आ गया है। इंटलेक्ट थक गई, रिलैक्स हो गई। इंट््यूशन कभी नहीं थकी है वह हमेशा ताजी भीतर खड़ी हैै। वह सक्रिय हो गई। इंटलेक्ट जहां थकती है, वहां से इंट््यूशन सक्रिय हो जाती है। तो सवाल ये है कि उसका भी घंटे दो घंटे के लिए अगर रोज गैप तोड़ दें, तो चार-छह महीने में आप पाएंगे कि इंट््यूशन का डवलपमेंट शुरू हुआ। वह उस दो घंटे में उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी। वह कभी चैबीस घंटे में उसकी झलक मिलेगी, कई बार। और फिर धीरे-धीरे वह बढ़ती जाएगी। और यह चैबीस घंटे सरकते जाएंगे पीछे और वह पूरे को घेर लेगी। और फिर इंटलेक्ट की कोई जरूरत ही नहीं है, अगर इंट््यूशन विकसित है।
वह मामला ऐसा ही है जैसे अंधा आदमी है, वह लकड़ी हाथ में लेकर चलता है। दरवाजा खोजता है, फिर उसको आंख मिल गई, फिर वह लकड़ी फेंक देता है। अब वह आंख से ही निकल जाता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं तो कह नहीं रहा, आप ही मुझसे पूछते हैं, यह बड़ा झंझट है मेरे लिए। मैं तो ऐसा कह नहीं रहा कि आप ऐसा करें।
आप पूछते हैंः कैसे डवलप हो?
मैंने कह दिया। यानी मैं, हमारी कठिनाइयां बड़ी अजीब हैं। एक आदमी मेरे पास आता है वह बोलता है ईश्वर को कैसे खोजूं? मैं कहता हूं, ऐसे खोजें। तो वह कहता है कि हमारा सब काम-धाम छूट जाएगा। तो मैंने तुमसे कभी कहा नहीं, तुम्हारी मर्जी।

प्रश्नः इंट््यूशन डवलप करने से फायदा होना चाहिए?

यह जो फायदे का विचार है न, यह इंटलेक्ट का विचार है। यही तो झंझटें हैं। हर चीज में फायदा ही होना चाहिए। इंट््यूशनल माइंड को फायदा-हानि में कोई फर्क नहीं है। वह तो मैं कह रहा हूं, दो घंटे प्रयोग करके देखें। चार-छह महीने में ही फर्क पड़ना शुरू हो जाएगा। दो घंटे तय कर लें कि दस से बारह चाहे कुछ भी हो जाए रीजन नहीं करेंगे। नो-रीजनिंग। कुछ भी करिए आप जो आपको करना है। गड्ढा खोदिए, रेडियो सुनिए, लड़िए-झगड़िए, बस एक बात खयाल रखिए कि रीजन का उपयोग नहीं करेंगे। देयर फाॅर नहीं आने देंगे बीच में।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मेरा मतलब यह है, मेरा मतलब यह है कि दो घंटे के लिए टोटल फास्ट इस बात का।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न, काहे की इंटलेक्ट, काहे की इंटलेक्ट, एक बटन घुमाएं तो आप इंटलेक्ट का उपयोग कर रहे हैं कुछ। हां, आप रेडियो सुन रहे हैं और एक आदमी वहां आकर कहता है। दो बातें कह देता है उलटी, और आप कंटडेक्शन नहीं देखते। आप कहते हैं मुझे रीजन नहीं करना, सुनते हैं सिर्फ तो आपने फास्ट किया। रीजनिंग के फास्ट का मतलब यह है कि तर्क की जो हमारी व्यवस्था है, उसका हम उपयोग नहीं करते।
मेरे पिता है, मेरे घर में बहुत अजीब-अजीब तरह के लोग हैं। मैं बहुत हैरान था बचपन से कि मेरे एक काका कम्युनिस्ट हैं। एक काका बिलकुल धार्मिक हैं। एक कवि हैं। सब तरह के लोग हैं, मेरे पिता को जाके कोई कहेगा घर में से एक आदमी कि ईश्वर नहीं है, वे हां भर देंगे। घड़ी भर बाद मैं जाके उनको कहूंगा कि ईश्वर है, वह हां भर देते हैं। तो मैंने उनसे पूछा कि आप कोई भी कुछ कहता है तो आप हां भर देते हैं, बात क्या है? उन्होंने कहा कि मैंने रीजन का उपयोग छोड़ दिया है। अब झगड़े का कोई उपाय नहीं है। वह कहता है तो वह ठीक ही कहता होगा। वह भी ठीक कहता होगा। तो दोनों उलटी बात कह रहे थे। तो वह कहते हैं कि मैंने चूंकि रीजन का उपयोग छोड़ दिया फास्ट कर दिया हूं। तो मैं नहीं हूं, ठीक है यह भी हो सकता है। वे बोलते हैं कि मैं नहीं हूं किसी तर्क में पड़ने को।
फास्टिंग का मतलब समझते हैं आप? तो उपवास कर जाएं। रिसेंटली दो घंटे के लिए बहुत मुश्किल है, दो दिन के लिए भूखा रहना बहुत आसान है। माइंड की तो ट्रेनिंग है पूरी। देखें कोशिश कर के चार-छह महीने लग जाएं, लेकिन इंट््यूशन की झलक उन दो घंटों में आनी शुरू हो जाए। और फिर आपके खयाल में आ जाए कि यह जाने जैसा है चले जाएं, लगे लौट आएं, लौटना हमेशा सरल है, कठिन नहीं है। उसके अलग रास्ते हैं, इंट््यूशन से कोई लेना-देना नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें