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शनिवार, 8 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-73

रूपांतरण का भय-

प्रवचन-तिहत्ररवां 

सारसूत्र:

100-वस्तुओं ओर विषयों का गुणधर्म ज्ञानी व अज्ञानी के लिए समान ही होता है।
ज्ञानी की महानता यह है कि वि आत्मगत भाव में बना रहता है, वस्तुओं में नहीं।
101-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो।
बहुत लोग ध्यान में उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन वह उत्सुकता बहुत गहरी नहीं हो सकती, क्योंकि इतने थोड़े से लोग ही उससे रूपांतरित हो पाते हैं। यदि रस बहुत गहरा हो तो वह अपने आप में ही एक आग बन जाता है। वह तुम्हें रूपांतरित कर देता है। बस उस गहन रस के कारण ही तुम बदलने लगते हो। प्राणों का एक नया केंद्र जगता है। तो इतने लोग उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन कुछ भी नया उनमें जगता नहीं, कोई नया केंद्र जन्म नहीं लेता, किसी क्रिस्टलाइजेशन की उपलब्धि नहीं होती। वे वैसे के वैसे ही बने रहते हैं।

इसका अर्थ हुआ कि वे स्वयं को धोखा दे रहे हैं। बहुत सूक्ष्म होगी प्रवंचना, लेकिन होगी ही। यदि तुम औषधि लेते रहो उपचार कराते रहो, और फिर भी रोग वैसा का वैसा बना रहे-वरन बढ़ता ही जाए-तो तुम्हारी औषधि, तुम्हारे उपचार झूठे ही होंगे।

शायद गहरे में तुम बदलना ही नहीं चाहते। वह भय, रूपांतरण का भय, बहुत गहरा है। तो ऊपर-ऊपर तो तुम सोचते रहते हो कि तुममें बड़ी गहन उत्सुकता है, लेकिन गहरे में तुम धोखा देते रहते हो। रूपांतरण का भय ऐसा ही है जैसे मृत्यु का भय। वह मृत्यु ही है, क्योंकि पुराने को विदा होना पड़ेगा और नए का प्रादुर्भाव होगा। तुम नहीं बचोगे, तुम से कुछ ऐसा जमेगा जो तुम्हारे लिए बिलकुल अज्ञात होगा। जब तक तुम मरने को तैयार नहीं हो, ध्यान में तुम्हारी उत्सुकता झूठी है, क्योंकि जो मरने को तैयार हैं वे ही पुनरुज्जीवित होंगे। नया पुराने के सातत्य में नहीं चल सकता। पुराने के कम को तो तोड़ना ही होगा। पुराने को तो जाना ही होगा। केवल तभी नया जन्म ले सकता है। नया कोई पुराने का विकास नहीं है, उसका सातत्य नहीं है-नया बिलकुल नया है। और वह तभी आता है जब पुराने की मृत्यु हो जाए। पुराने और
नए के बीच एक अंतराल होता है, वह अंतराल ही तुम्हें भयभीत करता है।
तुम भयभीत हो। तुम रूपांतरित तो होना चाहते हो लेकिन साथ ही साथ पुराने भी बने रहना चाहते हो। यह प्रवंचना है। तुम विकसित होना चाहते हो, लेकिन तुम-तुम ही बने रहना चाहते हो। तब विकास असंभव है। तब तुम केवल स्वयं को धोखा ही दे सकते हो; तब तुम केवल यह सोचते और सपना देखते रह सकते हो कि कुछ हो रहा है, लेकिन कुछ भी होगा नहीं, क्योंकि बुनियादी बात ही चूक गई।
तो दुनिया भर में बहुत लोग हैं जो ध्यान में, मोक्ष में, निर्वाण में उत्सुक हैं, और हो कुछ भी नहीं रहा। इस सबका इतना शोर है लेकिन वास्तव में कुछ भी नहीं हो रहा। बात क्या है?
कई बार मन इतना चालाक होता है कि चूंकि तुम रूपांतरित होना नहीं चाहते तो मन एक नकली उत्सुक्ता गढ़ लेगा ताकि तुम स्वयं को कह सको, 'मैं तो उत्सुक हूं मैं तो वह सब कर रहा है जो किया जा सकता है।’ और तुम वैसे के वैसे बने रहते हो। और जब कुछ नहीं होता तो तुम सोचते हो कि जिस विधि का तुम उपयोग कर रहे हो वह गलत है, जिस गुरु का अनुसरण कर रहे हो वह गलत है, शास्त्र में, विधान में, विधि में कोई गलती है। यह तुम कभी नहीं सोचते कि अगर उत्सुकता वास्तविक हो तो गलत विधि द्वारा भी रूपांतरण संभव है; गलत विधि द्वारा भी तुम रूपांतरित हो जाओगे। यदि तुम सच में ही बदलना चाहते हो तो गलत गुरु के पीछे चलकर भी बदल जाओगे। यदि तुम्हारी आत्मा और तुम्हारा हृदय तुम्हारे प्रयास में है तो तुम्हारे सिवाय तुम्हें और कोई भी नहीं भटका सकता। और तुम्हारी अपनी प्रवंचनाओं के सिवाय और कुछ भी तुम्हारे विकास में बाधा नहीं है।
जब मैं कहता हूं कि कोई गलत गुरु, कोई गलत विधि, कोई गलत सिद्धांत भी तुम्हें रूपांतरण की ओर ले जा सकता है तो मेरा अर्थ है कि रूपांतरण किसी विधि द्वारा नहीं घटता, तुम्हारे समग्र प्रयास से घटता है। विधि तो बस एक बहाना है, विधि तो बस एक सहारा है, वह गौण है-बुनियादी बात है तुम्हारा उसमें समग्र होना। लेकिन तुम अधूरे-अधूरे करते हों-करते भी नहीं करने की बात ही किए चले जाते हो। और शब्द एक भ्रम खड़ा कर देते हैं : क्योंकि तुम इस विषय में इतना सोचते हो, इस विषय में इतना पढ़ते हो इस विषय में इतना सुनते हो कि तुम्हें लगने लगता है जैसे तुम कुछ कर रहे हो। तथाकथित धार्मिक लोगों ने
धोखा देने की बहुत सी तरकीबें गढ़ ली हैं।
मैंने सुना है कि एक कार वाले को सड़क पर कार चलाते हुए दिखाई पड़ा कि स्कूल की बिल्डिंग में आग लग गई है। उस छोटे से गांव के उस छोटे से स्कूल का शिक्षक था मुल्ला नसरुद्दीन। वह एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। कार वाले ने उसे आवाज दी, 'तुम वहां बैठे क्या कर रहे हो? स्कूल की बिल्डिंग में आग लगी हुई है!' मुल्ला नसरुद्दीन बोला, 'मुझे पता है।’ कार वाला बड़ा हैरान हुआ। वह बोला, 'तो तुम कुछ कर क्यों नहीं रहे?' मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'जब से आग शुरू हुई है मैं बारिश के लिए प्रार्थना कर रहा हूं। कुछ तो मैं कर ही रहा हूं।’
प्रार्थना ध्यान से बचने की एक तरकीब है, और तथाकथित धार्मिक चित्त ने बहुत प्रकार की प्रार्थनाएं ईजाद कर ली हैं। प्रार्थना भी ध्यान बन सकती है-जब वह केवल प्रार्थना भर ही न हो, बल्कि एक गहन प्रयास हो, एक गहन आकांक्षा हो। प्रार्थना भी ध्यान बन सकती है लेकिन साधारणतया प्रार्थना तो बस एक पलायन है। ध्यान से बचने के लिए लोग प्रार्थना किए चले जाते हैं। कुछ करने से बचने के लिए वे प्रार्थना करते रहते हैं। प्रार्थना का अर्थ है कि परमात्मा कुछ करे। कोई और कुछ करे।



प्रार्थना का अर्थ है कि हम कुछ न करेंगे-हमारे लिए कुछ किया जाए।
ध्यान उन अर्थों में प्रार्थना नहीं है; ध्यान वह प्रयास है जो तुम स्वयं अपने साथ करते हो। ओर जब तुम रूपांतरित हो जाते हो तो पूरा अस्तित्व तुम्हारे साथ भिन्न ढंग से व्यवहार  करता है क्योंकि अस्तित्व और कुछ नहीं बस तुम जो हो उसके प्रति एक संवेदन है। यदि तुम शांत हो तो पूरा अस्तित्व हजारों-हजारों ढंगों से तुम्हारी शांति को प्रतिसंवेदित करता है। वह तुम्हें प्रतिबिंबित करता है। तुम्हारी शांति अनंत गुना बढ़ जाती है। यदि तुम आनंदित हो तो पूरा अस्तित्व तुम्हारे आनंद को प्रतिबिंबित करता है। यदि तुम दुख में हो तो भी वही होता है। गणित वही रहता है, नियम वही रहता है : अस्तित्व तुम्हारे दुख को बढ़ाकर तुम पर लौटा देता है। तो प्रार्थना से कुछ नहीं होगा। केवल ध्यान ही उपयोगी हो सकता है, क्योंकि ध्यान कुछ ऐसा है जो मौलिक रूप से तुम्हें करना है, वह तुम्हारी ओर से किया गया कर्म है।
तो पहली बात तो मैं तुमसे यह कहना चाहूंगा कि इस बात के प्रति सतत सावधान रहो कि कहीं तुम स्वयं को धोखा तो नहीं दे रहे हो। हो सकता है तुम कुछ करते हुए भी स्वयं को धोखा दे रहे होओ।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक बार दौड़ता हुआ पोस्ट आफिस में आया और पोस्ट मास्टर की कालर पकड़कर बोला, 'मैं पागल हो गया हूं। मेरी पत्नी गुम हो गई है।’ पोस्ट मास्टर को दुख हुआ, वह बोला, 'अच्छा, तुम्हारी पत्नी गुम हो गई है? लेकिन यह तो पोस्टल डिपार्टमेंट है-तुम्हें उसके गुम होने की खबर पुलिस स्टेशन में लिखवानी पड़ेगी।’ मुल्ला नसरुद्दीन अपना सिर हिलाते हुए बोला, 'मैं दोबारा इस धोखे में आने वाला नहीं हूं। पहले भी मेरी पत्नी खोई थी और जब पुलिस में मैंने उसकी रपट लिखवाई तो वे उसे ढूंढकर ले आए। मैं फिर से धोखा खाने वाला नहीं हूं। अगर तुम रपट लिख सको तो लिख लो वरना मैं चला।’
वह अपने को सांत्वना देने के लिए रिपोर्ट लिखाना चाहता है, ताकि उसे लगे कि जो भी किया जा सकता था उसने किया। लेकिन वह पुलिस में खबर नहीं देना चाहता, क्योंकि उसे डर है।
तुम भी बहुत सी चीजें किए चले जाते हो ताकि तुम्हें सांत्वना रहे ताकि तुम्हें लगे कि तुम कुछ कर रहे हो। लेकिन वास्तव में तुम रूपांतरित होने के लिए तैयार नहीं हो। तो जो कुछ भी तुम करते हो वह व्यर्थ की ऊहापोह हो जाती है-व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक भी, क्योंकि यह समय, ऊर्जा और अवसर की बरबादी है।
शिव की ये विधियां केवल उनके लिए हैं जो कुछ करने को तैयार हैं। तुम इनके ऊपर दार्शनिक चिंतन-मनन कर सकते हो, उसका कोई अर्थ नहीं है। लेकिन यदि तुम सच में ही करने को तैयार हो, तो तुम्हें कुछ घटना शुरू होगा। ये जीवंत विधियां हैं, कोई मुर्दा सिद्धांत नहीं हैं। तुम्हारी बुद्धि की जरूरत नहीं है; तुम्हारे प्राणों की समग्रता चाहिए। और कोई भी विधि काम देगी। तुम यदि प्रयोग करने को तैयार हो तो कोई भी विधि काम देगी। तुम एक नए मनुष्य हो जाओगे।
विधियां तो मात्र उपाय हैं मैं फिर से दोहराता हूं। तुम यदि तैयार हो तो कोई भी विधि काम दे जाएगी। वे तो बस तरकीबें हैं कि छलांग लेने में तुम्हारी मदद की जा सके-बस ऐसे  ही जैसे जंपिंग बोर्ड। किसी भी जंपिंग बोर्ड से तुम सागर में छलांग लगा सकते हो। जंपिंग बोर्डों का कोई महत्व नहीं है : वे किस रंग के हैं, किस लकड़ी के बने हैं, इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो बस जंपिंग बोर्ड हैं और उनसे तुम छलांग लगा सकते हो। ये सारी विधियां जंपिंग बोर्ड हैं। जो भी विधि तुम्हें जंचती है, उसके बारे-में सोचते मत रहो, उसे करो।
और जब तुम कुछ करते हो तो कठिनाइयां आनी शुरू होंगी-अगर कुछ न करो तो कोई कठिनाई आने वाली नहीं है। सोचना तो बहुत आसान है, क्योंकि तुम सच में यात्रा नहीं कर रहे, लेकिन जब तुम कुछ करते हो तो कठिनाइयां आती हैं। तो अगर तुम पाओ कि कठिनाइयां आ रही हैं तो समझना कि तुम ठीक रास्ते पर हो-कुछ हो रहा है तुम्हें। फिर पुरानी सीमाएं टूटेंगी, पुरानी आदतें विदा होंगी, परिवर्तन आएगा, उथल-पुथल और अराजकता होगी। सारा सृजन अराजकता से ही निकलता है। तुम्हारा नया सृजन तभी होगा जब वह सब अस्तव्यस्त हो जाए जो तुम अभी हो।
तो ये विधियां पहले तुम्हें तोड़ेंगी स्वयं को सौभाग्यशाली अनुभव करो-इससे विकास का पता चलता है। कोई भी विकास बिना कठिनाई के नहीं होता। और आध्यात्मिक विकास तो बिना कठिनाई के हो ही नहीं सकता, वह उसका स्वभाव नहीं है। क्योंकि आध्यात्मिक विकास का अर्थ है ऊपर की ओर विकसित होना, आध्यात्मिक विकास का अर्थ है अज्ञात में पहुंचना, अज्ञात में प्रवेश करना। कठिनाइयां तो आएंगी। लेकिन याद रखो कि हर कठिनाई के साथ-साथ तुम मजबूत होते हो। तुम और ज्यादा ठोस हो जाते हो, और ज्यादा प्राणवान हो जाते हो। पहली बार तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ केंद्रित हो रहा है, कुछ ठोस हो रहा है।
अभी की अपनी स्थिति में तो तुम एक लहर की तरह हो, हर क्षण बदल रहे हो, कुछ भी स्थिर नहीं है। वास्तव में तुम किसी 'मैं' का दावा नहीं कर सकते-वह तुम्हारे पास है ही नहीं। तुम बहते हुए बहुत सारे 'मैं' हो, जैसे कोई नदी बह रही हो। अभी तुम एक भीड़ हो, व्यक्ति नहीं। लेकिन ध्यान तुम्हें व्यक्ति बना सकता है, इंडिविजुअल बना सकता है।
यह 'इंडिविजुअल' शब्द प्यारा है : इसका अर्थ है इंडिविजिबल, अविभक्त। अभी तो जैसे तुम हो बेटे-बेटे हो। तुम बहुत सारे खंड हो जो बिना किसी केंद्र के एक साथ चिपके हुए हैं तुम एक ऐसा घर हो जिसमें कोई मालिक नहीं है सिर्फ नौकर ही नौकर हैं। और एक क्षण के लिए कोई भी नौकर मालिक बन सकता है। हर क्षण तुम भिन्न हो, क्योंकि तुम हो ही नहीं-और जब तक तुम नहीं हो, दिव्य तुम्हें घटित नहीं हो सकता। घटित होगा किसे? तुम तो हो ही नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं, 'हम परमात्मा को देखना चाहेंगे।’
मैं उनसे कहता हूं 'देखेगा कौन? तुम तो हो ही नहीं। परमात्मा तो हमेशा मौजूद है, लेकिन देखने के लिए तुम वहां नहीं हो। यह केवल एक उड़ता-उड़ता विचार है कि तुम परमात्मा को देखना चाहते हो।’ अगले ही क्षण वे बिलकुल भी उत्सुक नहीं रह जाते; अगले ही क्षण वे सब भूल चुके होते हैं।
एक सतत, सघन प्रयास और अभीप्सा चाहिए। फिर कोई भी विधि काम दे जाएगी।

अब हम विधियों में प्रवेश करें।

पहली विधि :

वस्तुओं और विषयों का गुणधर्म ज्ञानी व अज्ञानी के लिए समान ही होता है। ज्ञानी की
महानता यह है कि वह आत्मगत भाव में बना रहता है वस्तुओं में नहीं खोता।

यह बड़ी प्‍यारी विधि है। तुम इसे वैसे ही शुरू कर सकते हो जैसे तुम हो; पहले कोई शर्त पूरी नहीं करनी है। बहुत सरल विधि है: तुम व्‍यक्‍तियों से, वस्‍तुओं से, घटनाओं से घिरे हो—हर क्षण तुम्‍हारे चारों और कुछ न कुछ है। वस्‍तुएं है, घटनाएं है, व्‍यक्‍ति है—लेकिन क्‍योंकि तुम सचेत नही हो, इसलिए तुम भर नहीं हो। सब कुछ मौजूद है लेकिन तुम गहरी नींद में सोए हो। वस्‍तुएं तुम्‍हारे चारों तरफ मौजूद है, लोग तुम्‍हारे चारों तरफ घूम रहे है। घटनाएं तुम्‍हारे चारों तरफ घट रही है। लेकिन तुम वहां नहीं हो। या, तुम सोए हुए हो।
तो तुम्‍हारे आस-पास जो कुछ भी होता है वहीं मालिक बन जाता है, तुम्‍हारे ऊपर हावी हो जाती है। तुम उसके द्वारा खींच लिए जाते हो। तुम केवल उससे प्रभावित ही नहीं होते। संस्‍कारित भी हो जाते हो। खींच लिए जाते हो। कुछ भी चीज तुम्‍हें पकड़ ले सकती है। और तुम उसके पीछे चलने लगोंगे। कोई पास से गुजरा, तुमने देखा चेहरा सुंदर है—और तुम प्रभावित हो गए। कोई सुंदर पोशाक देखो, उसका रंग, उसका कपड़ा सुंदर है—तुम प्रभावित हो गए। कोई कार गुजरी—तुम प्रभावित हो गए। तुम्‍हारे आस-पास जो कुछ भी चलता है। तुम्‍हें पकड़ लेता है। तुम बलशाली नहीं हो। बाकी सब कुछ तुमसे ज्‍यादा बलशाली है। कुछ भी तुम्‍हें बदल देता है। तुम्‍हारी भाव-दशा, तुम्‍हारा चित, तुम्‍हारा मन, सब दूसरी चीजों पर निर्भर है। विषय तुम्‍हें प्रभावित कर देते है।
यह सूत्र कहता है कि ज्ञानी और आज्ञानी एक ही जगत में जीते है। एक बुद्ध पुरूष और तुम एक ही जगत में जीते हो—जगत वही रहता है। अंतर जगत में नहीं पड़ता,अंतर बुद्ध पुरूष के भीतर घटित हाता है: वह अलग ढंग से जीता है। वह उन्‍हीं वस्‍तुओं के बीच जीती है। लेकिन अलग ढंग से। वह अपना मालिक है। उसकी आत्‍मा असंग और अस्‍पर्शित बनी रहती है। वही राज है। उसको कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता है। बाहर से कुछ भी उसको संस्‍कारित नहीं कर सकता; कुछ भी उस पर हावी नहीं हो सकता। वह निर्लिप्‍त बना रहता है। स्‍वयं बना रहता है। यदि वह कहीं जाना चाहेगा। लेकिन मालिक बना रहेगा। यदि वह किसी छाया के पीछे जाना चाहेगा तो जाएगा, लेकिन यह उसका अपना निर्णय होगा।
इस भेद को समझ लेना जरूरी है। निर्लिप्‍त से मरा अर्थ उस व्‍यक्‍ति से नहीं है जिसने संसार का त्‍याग कर दिया—फिर तो निर्लिप्‍त होने में कोई सार न रहा, कोई अर्थ न रहा। निर्लिप्‍त वह व्‍यक्‍ति है जो उसी जगत में जी रहा है जिसमें कि तुम—जगत में कोई भेद नहीं है। जो व्‍यक्‍ति संसार का त्‍याग करता है। वह केवल परिस्‍थिति को बदल रहा है, स्‍वयं को नहीं। और यदि तुम स्‍वयं को नहीं बदल सकते तो परिस्‍थिति को बदलने पर ही जोर दोगे। यह कमजोर व्‍यक्‍तित्‍व का लक्षण है।
एक शक्‍तिशाली व्‍यक्‍ति है, जो सतर्क और सचेत है। स्‍वयं को बदलना शुरू करेगा। उस परिस्‍थिति को नहीं जिसमें वह है। क्‍योंकि वास्‍तव में परिस्‍थिति को तो बदला ही नहीं जा सकता; अगर तुम एक परिस्‍थिति को बदल दो तो फिर दूसरी परिस्थितियां होगीं। हर क्षण परिस्‍थिति बदलती रहती है। तो हर क्षण समस्‍या तो बनी ही रहने वाली है।
धार्मिक और अधार्मिक दृष्‍टिकोण के बीच यही अंतर है। अधार्मिक दृष्‍टिकोण है परिस्‍थिति को, परिवेश को बदलने का। वह दृष्‍टिकोण तुममें भरोसा नहीं करता, परिस्‍थितियों में भरोसा करता हे। जब परिस्‍थिति ठीक हो जाती है। तुम परिस्‍थिति पर निर्भर हो: अगर परिस्थिति ठीक न हुई तो तुम स्‍वतंत्र इकाई नहीं हो। कम्‍युनिस्‍टों, मार्क्स वादियों, समाज वादियों, और उन सबके लिए जो परिस्‍थितियों के बदलने में भरोसा करते है। तुम महत्‍वपूर्ण नहीं हो। असल में तुम्‍हारा अस्‍तित्‍व ही नहीं है। केवल परिस्‍थिति है और तुम बस एक दर्पण हो, लेकिन यह तुम्‍हारी नियति नहीं है—तुम कुछ और हो सकते हो, वह हो सकते हो जो किसी पर निर्भर नहीं है।
विकास के तीन चरण है।
पहला: परिस्‍थिति मालिक है और तुम बस पीछे-पीछे घिसटते हो। तुम मानते हो कि तुम हो, लेकिन तुम हो नहीं।
दूसरा: तुम होते हो, और परिस्‍थिति तुम्‍हें घसीट नहीं सकती, परिस्‍थिति तुम्‍हें प्रभावित नहीं कर सकती। क्‍योंकि तुम एक संकल्‍प बन गए हो। तुम केंद्रित और क्रिस्टलाइजेशन हो गए हो।
तीसरा: तुम परिस्‍थिति को प्रभावित करने लगते हो—तुम्‍हारे होने मात्र से ही परिस्‍थिति बदलने लगती है।
पहली अवस्‍था अज्ञानी की है; दूसरी अवस्‍था उस व्‍यक्‍ति कि है जो सतत सजग है। लेकिन अभी है अज्ञानी ही—उसे सजग रहना पड़ता है। सजग रहने के लिए कुछ करना पड़ता है। उसका जागरण अभी स्‍वाभाविक नहीं हुआ है। इसलिए उसे संघर्ष करना पड़ता है। यदि वह एक क्षण के लिए भी होश या जागरण खोता है तो वह वस्‍तु के प्रभाव में आ जाएगा। तो उसे सतत होश रखना पड़ता है। वह साधक है, जो साधना कर रहा है।
शक्‍ति स्‍मरण रखने जैसी चीज है। तुम कमजोर हो इसीलिए कोई भी चीज तुम पर हावी हो सकती हे। और शक्‍ति आती है सजगता से, होश से। जितने ज्‍यादा सजग, उतने ही शक्‍तिशाली; जितने कम सजग उतने कम शक्‍तिशाली।
देखो: जब तुम सोए होते हो तो एक सपना भी शक्‍तिशाली हो जाता है। क्‍योंकि तुम गहरी नींद में खोए हो, तुमने सारा होश खो दिया है। एक सपना भी शक्‍तिशाली हो गया। और तुम इतने कमजोर हो कि तुम उस पर संदेह नहीं कर सकते।
बेतुके से बेतुके स्‍वप्‍न में भी तुम संदेह नहीं कर सकते, तुम्‍हें उसे मानना ही होगा। और जब तक वह चलता है, तब तक वास्‍तविक लगता है। सपने में भले ही तुम बेतुकी चीजें देखो, लेकिन सपना देखते समय तुम उस पर संदेह नहीं कर सकते। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि यह वास्‍तविक नहीं है; तुम ऐसा नहीं कह सकते कि बस एक सपना है, कि यह असंभव है। तुम ऐसा कह ही नहीं सकते हो, क्‍योंकि तुम गहरी नींद में हो।
जब होश नहीं होता तो एक सपना भी तुम्‍हें कितना प्रभावित करता हे। जाग कर तुम हंसोगे और कहोगे, ‘वह सपना बेतुका था, असंभव था, ऐसा हो ही नहीं सकता। वह केवल भ्रम था।’ लेकिन जब वह चल रहा था तो यह बात तुम्‍हारे ख्‍याल में नहीं आई थी और तुम उसमें उलझे ही रहे। उससे प्रभावित हो गये। उसमें खो गये। सपना इतना शक्‍ति शाली क्‍यों था? सपना शक्‍तिशाली नहीं था, तुम शक्‍तिहीन थे।
इसे स्‍मरण रखो: जब तुम शक्‍तिहीन होते हो तो एक सपना भी शक्‍तिशाली हो जाता है। जब तुम जागे होते हो तो कोई सपना तुम पर प्रभावी नहीं हो सकता, लेकिन यथार्थ, तथाकथित यथार्थ प्रभावी हो जाता है। जागा हुआ व्‍यक्‍ति बुद्ध पुरूष इतना सजग होता है कि तुम्‍हारा यथार्थ भी उसे प्रभावित नहीं कर सकता। यदि कोई स्‍त्री कोई सुंदर सत्री पास से गुजर जाए तो तुम्‍हारा मन उसके पीछे हो लेता है। एक कामना उठ गई, उसे पाने की कामना। तुम अगर सजग हो तो स्‍त्री गुजर जाएगी लेकिन कोई कामना नहीं उठेगी। तुम प्रभावित नहीं हुए, तुम प्रभावित नहीं होओगे। तो तुम प्राणों में एक सूक्ष्‍म आनंद का अनुभव करोगे। पहली बार तुम्‍हें लगेगा कि तुम हो; कुछ भी तुम्‍हें तुमसे बाहर नहीं घसीट सकता। तुम यदि पीछे जाना चाहो तो वह दूसरी बात है, वह तुम्‍हारा निर्णय है।
लेकिन स्‍वयं को धोखा मत दो। तुम धोखा दे सकते हो। तुम कह सकते हो, ‘हां, स्‍त्री शक्‍तिशाली नहीं है। लेकिन मैं उसके पीछे जाना चाहता हूं। मैं उसे पाना चाहता हूं, तुम धोखा दे सकते हो। बहुत से लोग धोखा दिए चले जाते हो। लेकिन तुम किसी और को नहीं स्‍वयं को ही धोखा दे रहे हो। फिर यह व्‍यर्थ है। जरा गौर से देखा: तुम कामना को वहां पाओगे। कामना पहले आती है। फिर तुम उसी व्‍याख्‍या करते हो।’
ज्ञानी व्‍यक्‍ति के लिए चीजें भी है और वह भी है। लेकिन उसके और चीजों के बीच कोई सेतु नहीं है। सेतु टूट गया है। वह अकेला चलता है। अकेला जीता है। वह अपना ही अनुसरण करता है। कुछ और उसे आविष्‍ट नहीं कर सकता। इस अनुभव  के कारण ही हमने इस उपलब्‍धि को मोक्ष कहा है। मुक्‍ति कहा है। वह परम मुक्‍त है।
संसार में हर जगह मनुष्‍य ने मुक्‍ति की खोज की है। तुम ऐसा एक भी मनुष्‍य नहीं खोज सकते जो अपने ढंग से मुक्‍ति न खोज  रहा हो। अगल-अलग रास्‍तों से मनुष्‍य सह अवस्‍था खोजने की कोशिश करता है। जहां वह मुक्‍त हो सके। और ऐसी किसी भी चीज को वह घृणा करता है जो उसे बंधन में  बांधे। कोई भी चीज जो उसे रोकती है, बाँधती है, उससे वह लड़ता है। उससे संघर्ष करता है।
इसीलिए तो इतने राजनीतिज्ञ संघर्ष है, इतने युद्ध है, इतनी क्रांतियां है। इसीलिए तो इतने पारिवारिक संघर्ष है—पति और पत्‍नी, बाप और बेटा,सभी एक दूसरे से लड़ रहे हे। लड़ाई बुनियादी है। लड़ाई है मुक्‍ति के लिए। पति बंधन अनुभव करता है। पत्‍नी ने उसे बाँध लिया है—अब उसकी स्‍वतंत्रता कट गई। और पत्‍नी को भी ऐसा ही लगता है। दोनों एक दूसरे से खिन्‍न है। दानों बंधन को तोड़ने की कोशिश करते है। बाप बेटे से लड़ता है। क्‍योंकि बेटे के विकास के हर कदम का अर्थ है उसके लिए और स्‍वतंत्रता। और बाप को लगता है कि वह कुछ खो रहा है। अपनी शक्‍ति, अपना अधिकार। तो परिवारों में, देशों में, सभ्‍यताओं में मनुष्‍य केवल एक ही चीज के पीछे भाग रहा है—मुक्‍ति।
लेकिन राजनीतिक लड़ाइयों से, क्रांतियों से, युद्धों से कुछ भी नहीं मिलता, कुछ भी हाथ नहीं आता। क्‍योंकि अगर तुम स्‍वतंत्रता पा भी लो, तो वह ऊपर-ऊपर है—भीतर गहरे में तुम बंधन में ही रहते हो। तो हर स्‍वतंत्रता एक मोह भंग सिद्ध होती हे।
मनुष्‍य धन की इतनी कामना करता है, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, यह धन की कामना नहीं है। मुक्‍ति की कामना है। धन तुम्‍हें स्‍वतंत्रता का एक भाव देता है। अगर तुम गरीब हो तो तुम सीमित हो, तुम्‍हारे साधन सीमित हो। तुम यह नहीं कर सकते, वह नहीं कर सकते। वह सब करने के लिए तुम्‍हारे पास धन ही नहीं है। जितना धन तुम्‍हारे पास हो उतना ही तुम्‍हें लगता है कि तुम्‍हारे पास स्‍वतंत्रता हे। तुम जो करना चाहो कर सकते हो।
लेकिन जब धन खूब तुम्‍हारे पास इकट्ठा हो जाता हे और तुम वह सब कर सकते हो जो तुम करना चाहते थे,जिसकी कल्‍पना करते थे। या जिसका सपना लेते थे—तो अचानक तुम पाते हो कि यह स्‍वतंत्रता ऊपर-ऊपर है। क्‍योंकि भीतर से तुम्‍हारे प्राण अच्‍छी तरह जानते है कि तुम शक्‍तिहीन हो और कुछ भी तुम्‍हें प्रभावित कर सकता है। तुम वस्‍तुओं और व्‍यक्‍तियों द्वारा प्रभावित हो जाते हो, सम्‍मोहित हो जाते हो।
यह सूत्र कहता है कि तुम्‍हें चेतना की ऐसी अवस्‍था पर आना है जहां कुछ भी तुम्‍हें प्रभावित न करे। तुम निर्लिप्‍त बने रह सको। यह कैसे हो? दिन भर इसके लिए अवसर है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह विधि तुम्‍हारे लिए अच्‍छी है। किसी भी क्षण तुम सजग हो सकते हो। कुछ तुम्‍हें आविष्‍ट कर रहा है। तब एक गहरी श्‍वास लो, गहरी श्‍वास भीतर खींचो, गहरी श्‍वास बाहर छोड़ो, और उस चीज को फिर से देखो। जब तुम श्‍वास को बाहर छोड़ रहे हो तो उस चीज को फिर से देखो, लेकिन देखो एक साक्षी की तरह। एक द्रष्‍टा की तरह।
यदि तुम एक क्षण के लिए भी मन की साक्षी-दशा को पा सको तो अचानक तुम पाओगे कि तुम अकेले हो, कुछ भी तुम्‍हें प्रभावित नहीं कर सकता। कम से कम उस क्षण में तो कुछ भी तुममें कामना पैदा नहीं कर सकता। जब भी तुम्‍हें लगे कि कोई चीज तुम्‍हें प्रभावित कर रही है। तुम पर हावी हो रही है। तुम्‍हें तुमसे दूर ले जा रही है। तुमसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो रही है—तो गहरी श्‍वास लो और छोड़ा। और श्‍वास बाहर छोड़ने से पैदा हुए उस छोटे से अंतराल में उस चीज की और देखो—कोई सुंदर चेहरा, कोई सुंदर शरीर,कोई सुंदर मकान या कुछ भी। यदि तुम्‍हें यह कठिन लगे, अगर श्‍वास बाहर छोड़ने भर से ही तुम अंतराल पैदा न कर पाओ। तो एक कदम और करो। श्‍वास बाहर छोड़ो। और एक क्षण का भीतर लेना रोक लो। ताकि पूरी वायु बाहर निकल जाए। रूक जाए। श्‍वास भीतर मत लो। फिर उस चीज की और देखो। जब पूरी वायु बाहर है। या भीतर है। जब तुमने श्‍वास लेना बंद कर दिया है तो कुछ भी तुम्‍हें प्रभावित नहीं कर सकता। उस क्षण में तुम सेतु हीन हो जाते हो। सेतु टूट जाता है। श्‍वास ही सेतु है।
इसे करके देखो। केवल एक क्षण के लिए ऐसा होगा कि तुम साक्षी को महसूस करोगे। लेकिन उससे तुम्‍हें स्‍वाद मिल जाएगा। उससे तुम्‍हें यह अनुभव हो जाएगा कि साक्षित्व क्‍या है। फिर तुम उसकी खोज में बढ़ सकते हो। दिन भर में जब भी कभी कोई चीज तुम्‍हें प्रभावित करती है और कोई कामना उठती है, श्‍वास बाहर छोड़ो, उस अंतराल में रुको, और फिर उस चीज की और देखो। चीज की और देखो। चीज वहीं होगी, तुम वहां होओगे, लेकिन बीच में कोई सेतु नहीं होगा। श्‍वास ही सेतु है। अचानक तुम्‍हें लगेगा कि तुम शक्‍तिशाली हो, प्राणवान हो। और जितने शक्‍तिशाली तुम अनुभव करोगे उतने ही तुम केंद्रित होओगे। जितनी चीजें गिरती जाएंगी, जितनी चीजों की शक्‍ति तुम पर से हटती जाएगी, उतने ही अधिक केंद्रित तुम होते जाओगे। अब तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व शुरू हुआ। अब तुम्‍हारे पास एक केंद्र है और किसी भी क्षण तुम केंद्र पर सरक सकते हो। और वहां संसार मिट जाता है। किसी भी क्षण तुम अपने केंद्र में स्थिर हो सकते हो। और तब संसार शक्‍तिहीन हो जाता है।
यह सूत्र कहता है, ‘वस्‍तुओं और विषयों का गुणधर्म ज्ञानी और अज्ञानी के लिए समान ही होता है। ज्ञानी की महानता यह है कि वह आत्‍मगत भाव में बना रहता है। वस्‍तुओं में नहीं खोता।’
यह आत्‍मगत भाव में बना रहता है। वह स्वयं में बना रहता है। वह चेतना में केंद्रित रहता है। इस आत्‍मगत भाव में बने रहने को साधना पड़ेगा। जितने भी अवसर तुम्‍हें मिले सकें, इसे करके देखो। और हर क्षण अवसर है। एक-एक क्षण अवसर है। कुछ न कुछ तुम्‍हें प्रभावित कर रहा है। बुला रहा है। बाहर खींच रहा है। भीतर धकेल रहा है।
मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। एक महान राजा, भर्तृहरि ने संसार का त्‍याग कर दिया। उसने संसार का त्‍याग कर दिया। क्‍योंकि उसने पूरी तरह उसे जीया था और पाया था कि वह व्‍यर्थ है। यह उसके लिए कोई सिद्धांत नहीं था। यह उसकी जीया हुआ सत्‍य था। अपने स्‍वयं के जीवन से वह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा था। वह शक्‍तिशाली आदमी था। जीवन में जितना हो सकता था गहरे गया था। फिर अचानक उसने पाया कि यह व्‍यर्थ है, बेकार है। तो उसने संसार को त्‍याग दिया। सब त्‍याग दिया और जंगल में चला गया।
एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे बैठा ध्‍यान कर रहा था। सूर्य उग रहा था। अचानक उसने देखा कि वृक्ष के पास से जो छोटी सी पगडंडी गुजरती थी उस पर एक बहुत बड़ा हीरा पडा है। उगते हुए सूरज की किरणें उससे टकरा कर वापस लौट रही थी। भर्तृहरि ने भी ऐसा हीरा पहले नहीं देखा था। अचानक, बेहोशी के एक क्षण में, उसे उठा लेने की एक कामना मन में जगी। शरीर तो अचल बना रहा। लेकिन मन चल पडा। शरीर ध्‍यान की मुद्रा में,सिद्धासन में था। लेकिन ध्‍यान अब वहां नहीं था। केवल मृत शरीर ही वहां था। मन जा चुका था—वह हीरे की और चला गया था।
लेकिन इससे पहले कि राजा हिल भी पाता, दो आदमी आने-अपने घोड़ों पर सवार अलग-अलग दिशाओं से आए और एक साथ ही दोनों की नजर राह पर पड़े हीरे पर पड़ी। दोनों ने हीरे को पहले देखने का दावा करते हुए तलवार निकाल ली। निर्णय का और तो कोई उपाय नहीं था। वे दोनों जूझ पड़े और एक दूसरे को समाप्‍त कर डाला। कुछ ही क्षणों में हीरे के निकट ही दो लाशें पड़ी थी। भर्तृहरि हंसा, अपनी आंखें बद कर ली। और फिर ध्‍यान में डूब गया।
क्‍या हुआ? उसे फिर से व्‍यर्थता का बोध हुआ। और उन दो आदमियों को क्‍या हुआ। हीरा उनके जीवन से भी ज्‍यादा मूल्‍यवान हो गया। मालकियत का यह अर्थ है: एक पत्‍थर को पाने के लिए उन्‍होंने अपनी जान गंवा दी। जब कामना होती है तो तुम नहीं होते। कामना तुम्‍हें आत्‍मघात तक ले जा सकती है। असल में हर कामना तुम्‍हें आत्‍मघात की और ले जा रही है। जब तुम किसी कामना के वश में होते हो तो अपनी सुध-बुध खो देते हो। पागल हो जाते हो।
मालकियत की कामना भर्तृहरि के मन में भी उठी, एक क्षणांग के लिए कामना उठी। और वह उसे लेने के लिए उठ भी गया होता। लेकिन इससे पहले कि वह हिलता भी, दो दूसरे व्‍यक्‍ति वहां आए, आपस में लड़े और अगले ही क्षण सड़क पर दो लाशें उस पत्‍थर के पास पड़ी थी। जो अपनी जगह पर वैसा का वैसा पडा था। भर्तृहरि हंसा, और उसने अपने आंखें बंद कर ली। और ध्‍यान में डूब गया। एक क्षण के लिए उसका केंद्र खो गया था। एक पत्‍थर एक हीरा, एक वस्‍तु ज्‍यादा शक्‍तिशाली हो गई थी। लेकिन केंद्र फिर लौट आया। हीरे के खोते ही पूरा संसार मिट गया। और उसने अपने आंखें बंद कर ली।
सदियों से ध्‍यानी अपनी आंखें बंद करते रहे है। क्‍यों? यह केवल प्रतीकात्‍मक है कि संसार मिट गया, कि देखने को कुछ न रहा। कि किसी चीज का कोई मुल्‍य नहीं है—देखने योग्‍य भी नहीं। तुम्‍हें यह सतत स्‍मरण रखना पड़ेगा कि जब भी कामना उठती है। तुम अपने केंद्र से बाहर निकल जाते हो। यह बाहर जाना ही संसार है। फिर वापस लौट आओ, फिर से केंद्रित हो जाओ।
यह तुम कर पाओगे, इसकी क्षमता हर किसी के पास हे। आंतरिक संभावना तो कोई भी कभी नहीं खोता। वह हमेशा रहती है। तुम वापस लौट सकत हो। अगर तुम बाहर जा सकते हो तो भीतर भी जा सकते हो। अगर मैं अपने घर से बाहर जा सकता हूं तो वापस भीतर क्‍यों नहीं लौट सकता? वहीं रास्‍ता तय करना है; वही पैर काम में लाने है। अगर मैं बाहर जा सकता हूं तो भीतर भी आ सकता हूं।
हर क्षण तुम बाहर जा रहे हो। लेकिन जब भी तुम बाहर जाओ। स्‍मरण करो—और अचानक वापस लौट आओ। केंद्रित हो जाओ। अगर शुरू में थोड़ा कठिन लगे तो एक गहरी श्‍वास लो। श्‍वास बाहर छोड़ो। और रूक जाओ। इस क्षण में उस चीज की और देखो जो तुम्‍हें आकर्षित कर रही है।
 असल में तुम्हें कुछ आकर्षित नहीं कर रहा था। तुम आकर्षित हो रहे थे। उस निर्जन वन में रहा पर पडा हीरा किसी को आकर्षित नहीं कर रहा था, वह तो बस वहां पडा हुआ था। हीरे को पता भी नहीं था कि भर्तृहरि आकर्षित हो रहा है। कि कोई अपने ध्‍यान से, अपने केंद्र से विचलित हो गया। हीरे को पता भी नहीं था कि दो लोग उसके लिए लड़े और अपनी जान गांव बैठे।
तो कुछ भी तुम्‍हें आकर्षित नहीं कर रहा—तुम आकर्षित हो रहे हो। जाग जाओ और सेतु टूट जाएगा। और तुम भीतर का संतुलन वापस पा लोगे। इसे जब भी ख्‍याल आ जाए करते रहो। जितना करो उतना अच्‍छा। और एक क्षण आएगा जब तुम्‍हें इसे करना ही जरूरत नहीं पड़ेगी। क्‍योंकि तुम्‍हारी आंतरिक शक्‍ति तुम्‍हें इतना बल देगी कि चीजों का आकर्षण खो जाएगा। यह तुम्‍हारी कमजोरी ही है जो आकर्षित होती है। अधिक शक्‍ति शाली बनो। और कुछ भी तुम्‍हें आकर्षित नहीं करेगा। केवल तभी तुम पहली बार अपने प्राणों के मालिक होते हो।
और उससे तुम्‍हें वास्‍तविक मुक्‍ति मिलेगी। कोई राजनैतिक स्‍वतंत्रता, कोई आर्थिक स्‍वतंत्रता, कोई सामाजिक स्‍वतंत्रता बहुत सहयोगी नहीं होगी। ऐसा नहीं कि उनमें कुछ खराबी है। वे अच्‍छी है। अपने आप में अच्‍छी है। लेकिन वे स्‍वतंत्रताएं तुम्‍हें यह सब न दे पाएंगी जिसके लिए तुम्‍हारा अंतरतम अभीप्‍सा कर रहा हे। चीजों से, वस्‍तुओं से स्‍वतंत्रता, किसी वस्‍तु या व्‍यक्‍ति से मोहित होने की किसी भी संभावना से मुक्‍त स्‍वयं होने की स्‍वतंत्रता।

तंत्र विधि—101

दूसरी विधि:
      ‘सर्वज्ञ, सर्वशक्‍तिमान, सर्वव्‍यापी मानो।’

यह भी आंतरिक शक्‍ति पर, आंतरिक बल पर आधारित है। बड़ी बीज रूप विधि है। मानों कि तुम सर्वज्ञा हो, माना कि तुम सर्वशक्‍तिमान हो। मानो कि तुम सर्वव्‍यापी हो।
यह तुम कैसे मान सकते हो? यह असंभव है। तुम जानते हो कि तुम सर्वज्ञ नहीं हो, तुम अज्ञानी हो। तुम जानते हो कि तुम सर्वशक्‍तिमान नहीं हो। तुम बिलकुल अशक्‍ति और असहाय हो। तुम जानते हो कि तुम र्स्‍वव्‍यापी नहीं हो, तुम छोटी सी देह में सीमित हो। तो इस पर तुम कैसे विश्‍वास कर सकते हो।  
 और यदि भली भांति जानते हुए कि ऐसा नहीं है तुम इस पर विश्‍वास करोगे तो वह विश्‍वास निरर्थक होगा। अपने ही विपरीत तुम विश्‍वास नहीं कर सकते। किसी विश्‍वास को तुम जबरदस्‍ती थोप नहीं सकते हो। लेकिन वह व्‍यर्थ होगा, निरर्थक होगा। तुम जानते हो कि ऐसा नहीं है। कोई विश्‍वास तभी उपयोगी हो सकता है, जब तुम जानते हो कि ऐसा ही है।
यह समझना जरूरी है। कोई विश्‍वास तभी शक्‍तिशाली होता है। जब तुम जानते हो कि ऐसा ही है। सच या झूठ का सवाल नहीं है। अगर तुम जानते हो कि ऐसा ही है तो विश्‍वास सत्‍य हो जाता है। अगर तुम जानते हो कि ऐसा नहीं है तो सत्‍य भी विश्‍वास नहीं बन सकता। क्‍यों? कई चीजें समझनी पड़ेगी।
पहली बात तो, तुम जो भी हो वह तुम्‍हारा विश्‍वास है: तुम उस ढंग से विश्‍वास करते हो, उस ढंग में तुम्‍हारा पालन-पोषण हुआ है। उस ढंग में तुम्‍हें संस्‍कारित किया गया है। तो उसी में तुम विश्‍वास करते हो। और तुम्‍हारा विश्‍वास तुम्‍हें प्रभावित करता है। यह एक दुस्चक्र बन जाता है। उदाहरण के लिए ऐसी जातियां हे जहां पुरूष स्‍त्री से कमजोर है, क्‍योंकि उन जातियों का विश्‍वास है कि स्‍त्री पुरूष से अधिक मजबूत हे। अधिक शक्‍तिशाली है। उनका विश्‍वास एक तथ्‍य बन गया है। उन जातियों में पुरूष कमजोर है और स्‍त्रीयां ताकतवर। स्‍त्रियां वे सब काम करती है जो साधारणतया दूसरे देशों पुरूष करते है। और पुरूष वह सब काम करते है जो दूसरे देशों में स्‍त्रियां करती है। इतना ही नहीं,उनकी शरीर भी कमजोर है, उनकी बनावट कमजोर है। वे यह मानने लगे है कि ऐसा ही है।   
विश्‍वास ही स्‍थिति का सृजन करता है। विश्‍वास सृजनात्‍मक है।
ऐसा क्‍यों होता है? क्‍योंकि मन पदार्थ से ज्‍यादा शक्‍तिशाली हे। यदि मन सच में ही कुछ मान लेता है तो पदार्थ को उसका अनुसरण करना पड़ेगा। पदार्थ मन के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता, क्‍योंकि पदार्थ तो जड़ है। तो असंभव भी घटता हे।
जीसस कहते है, ‘श्रद्धा पहाड़ों को भी हिला सकती है।’
श्रद्धा पहाड़ों को हिला सकती है। और यदि न हिला सके तो उसका अर्थ है कि तुम्‍हें श्रद्धा नहीं है—ऐसा नहीं कि श्रद्धा पहाड़ों को नहीं हिला सकती। तुम्‍हारी श्रद्धा पहाड़ों को नहीं हिला सकती, क्‍योंकि तुम्‍हें श्रद्धा ही नहीं है।
 विश्‍वास की घटना पर बड़ी शोध चली है। और विज्ञान बहुत से अविश्‍वसनीय निष्‍कर्षों पर पहुंच रहा हे। धर्म ने तो सदा से ही उन्‍हें माना है। लेकिन विज्ञान भी अंतत: उन्‍हीं निष्‍कर्षों पर पहुंच रहा है। और उन निष्‍कर्षों पर उसे पहुंचना ही होगा, क्‍योंकि बहुत सी घटनाओं पर पहली बार खोज हो रही है।
जैसे, तुमने प्‍लैसिबो दवाइयों के बारे में सुना होगा। सैकड़ों ‘पैथियां’ संसार में चलती है—एलोपैथी, आयुर्वेदिक, युनानी, होम्‍योपैथी, नेचरोपैथी—सैकड़ों। और सभी का दावा है कि वे रोग को ठीक कर सकते है। और वह ठीक करते भी है। उनके दावे गलत नहीं है। यह बड़ी अद्भुत बात है—उनके निदान अलग-अलग है, उनके विचार अलग-अलग हे। एक ही रोग है और उसके सैकड़ों निदान है और सैकड़ों उपचार है, और हर उपचार काम देता है। वि यह प्रश्‍न उठना स्‍वभाविक है कि वास्‍तव में उपचार काम करता है या फिर रोगी का विश्‍वास काम करता है। और यह संभव है।
कई देशों में, कई विश्‍वविद्यालयों में, कई अस्‍पतालों में बहुत ढंगों से वे काम कर रह है। वे रोगी को पानी या कुछ और दे देते है। और रोगी यह मानता है कि उसे दवा दी गई हे। और केवल रोगी ही नहीं डाक्‍टर भी यह मानता है, क्‍योंकि उसे भी पता नहीं है। अगर डाक्‍टर को पता हो कि यह दवा है या नहीं तो उसका प्रभाव पड़ेगा। क्‍योंकि दवा से ज्‍यादा वह रोगी को विश्‍वास देता है।
तो जब तुम बड़े डाक्‍टर के पास जाते हो और ज्‍यादा पैसे देते हो तो जल्‍दी ठीक हो जाते हो। यह प्रश्‍न विश्‍वास का है। डाक्‍टर अगर तुम्‍हें चार पैसे की,सिर्फ चार पैसे की दवाई दे तो तुम्‍हें पूरा विश्‍वास होता हे। कि उसके कुछ होने वाला नहीं है। इतनी बड़ी बीमारी वाला इतना बड़ा रोग चार पैसे से कैसे ठीक हो सकता है। असंभव, इसके लिए विश्‍वास पैदा नहीं किया जा सकता। तो हर डाक्‍टर को अपने आस-पास विश्‍वास का एक वातावरण बनाना पड़ता है। वह वातावरण सहयोगी होता है।
तो अगर डाक्‍टर को पता हो कि वह जो दे रहा है वह सिर्फ पानी ही है तो वह भरोसे के साथ आश्‍वासन नही दे पाएगा। उसके चेहरे से पता चल जायेगा। उसके हाथों से पता चल जायेगा। उसके पूरे आचार-व्‍यवहार से पता चल जायेगा। और रोगी का अचेतन उससे प्रभावित होगा। डाक्‍टर का विश्‍वास जरूरी है। वह जितना आश्‍वस्‍त होगा उतना ही अच्‍छा है। क्‍योंकि उसका विश्‍वास संक्रामक होता है।
अब वे कहते है कि तुम कुछ दवा उपयोग करो तीस प्रतिशत रोगी तो करीब-करीब तत्‍क्षण ठीक हो जाएंगे। कुछ भी उपयोग करो। एलोपैथी, नेचरोपैथी, होम्‍योपैथी, या कोई भी पैथी—कुछ भी उपयोग करो, तीस प्रतिशत रोगी तत्‍क्षण ठीक हो जाएंगे।
वे तीस प्रतिशत विश्‍वास करने वाले लोग है। यही अनुपात हर जगह है। अगर मैं तुम्‍हारी और देखू तो तुममें से तीस प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो तत्‍क्षण रूपांतरित हो जाएंगे। एक बार विश्‍वास उनमें बैठ जाए तो वह उसी समय काम करना शुरू कर देता है। तीस प्रतिशत मनुष्‍यता को बिना किसी कठिनाई के तत्‍क्षण चेतना के नए तलों पर रूपांतरित किया जा सकता है। बदला जा सकता है। सवाल सिर्फ इतना है कि उनमें विश्‍वास कैसे जगाया जाये। एक बार विश्‍वास जग जाए तो कुछ भी उन्‍हें नहीं रोग सकता। हो सकता है कि तुम भी उन सौभाग्‍यशालियों में से, उन तीस प्रतिशत में से ही होओ। लेकिन मनुष्‍यता के साथ एक बड़ा दुर्भाग्‍य घटा है। और वह यह कि तीस प्रतिशत लोग निंदित हो गए है। समाज, शिक्षा,संस्‍कृति, सब उनकी निंदा करते है। उनको मूर्ख समझा जाता है।
नहीं, वे बड़ी संभावना वाले लोग है। उनके पास एक बड़ी ताकत है। लेकिन वे निंदित है। और थोथे बुद्धिजीवियों की प्रशंसा होती है। क्‍योंकि वे भाषा, शब्‍दों और तर्क के साथ खेल सकते है। इसलिए उनकी प्रशंसा की जाती है। वास्‍तव में वे नापुंसग है। अंतस के वास्‍तविक जगत में वे कुछ नहीं कर सकते। वे बस अपना दिमाग चला सकते हे। लेकिन युनिवर्सिटी उनके पास है। न्‍यूज मीडिया उनके पास है। एक तरह से वे लोग मालिक है। और निंदा करने में वे कुशल है। वे किसी भी चीज की निंदा कर सकते है। और मनुष्‍यता का यह तीस प्रतिशत हिस्‍सा जिसमें संभावना है, वे लोग जो विश्‍वास कर सकते है और रूपांतरित हो सकते है, वे शब्‍दों में इतने कुशल नहीं होते—वे हो भी नहीं सकते। वे तर्क नहीं कर सकते,विवाद नहीं कर सकते। इसी कारण तो वह विश्‍वास कर सकते है।
लेकिन क्‍योंकि वे स्‍वयं के लिए तर्क नहीं दे सकते इसलिए वे खुद ही आत्‍म-निंदक बन गए है। वे सोचते है कि उनमें कुछ गलत है। अगर तुम विश्‍वास कर सको तो तुम्‍हें लगता है कि तुम्‍हारे साथ कुछ गलत है; अगर तुम संदेह कर सको तो तुम सोचते हो कि तुम महान हो। लेकिन संदेह की कोई ताकत नहीं है। संदेह के द्वारा कभी भी कोई अंतरतम तक, परम आनंद तक नहीं पहुंच सकता।
अगर तुम विश्‍वास कर सकते हो तो यह सूत्र तुम्‍हारे लिए उपयोगी होगा।

‘सर्वज्ञ, सर्वशक्‍तिमान, सर्वव्‍यापी मानों।’
तुम वह हो ही, इसलिए तुम्‍हारे मान लेने मात्र से वह सब जो तुम्‍हें छिपाए हुए है, वह सब जो तुम्‍हें ढँके हुए है, तत्‍क्षण गिर जाएगा।
लेकिन उन तीस प्रतिशत के लिए भी यह कठिन होगा। क्‍योंकि वे भी वही सब मानने के लिए संस्‍कारित है जो कि सच में नहीं है। उन्‍हें भी संदेह के लिए संस्‍कारित किया गया है। उनका भी शिक्षण संदेह का है; और वे अपनी सीमाएं जानते है, तो वे कैसे विश्‍वास कर सकते है? या, फिर अगर वे यह मान लेते है तो लोग उन्‍हें पागल समझेंगे। अगर तुम कहो कि तुम मानते हो कि तुम्‍हारे भीतर सर्वव्‍यापी है, सर्वशक्‍तिमान है, दिव्‍य है, तो लोग तुम्‍हारी और आश्‍चर्य से देखेंगे और सोचेंगे। कि तुम पागल हो गए हो। जब तक तुम पागल ही न होओ। यह सब कैसे मान सकते हो?
लेकिन कुछ करके देखो। प्रारंभ से शुरू करो। इस घटना का थोड़ा स्‍वाद लो, फिर विश्‍वास पीछे-पीछे चला आएगा। अगर यह विधि तुम करना चाहो तो फिर पहले यह करो। अपनी आंखें बंद कर लो और भाव करो कि तुम्‍हारा कोई शरीर नहीं है। भाव करो कि जैसे मिट गया है, खो गया है। तब तुम अपनी सर्वव्‍यापकता का अनुभव कर सकते हो।
शरीर के साथ तो यह भाव कठिन है। इसी कारण कई परंपराएं कहती है कि तुम शरीर नहीं हो, क्‍योंकि शरीर के साथ सीमा आ जाती है। तुम शरीर नहीं हो यह अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है। क्‍योंकि सच में तुम शरीर नहीं हो। यह केवल एक संस्‍कार है, यह केवल एक विचार है जो तुम्‍हारे मन पर थोप दिया गया है। तुम्‍हारे मन में यह विचार डाल दिया गया है कि तुम शरीर हो।   बहुत सी घटनाएं है जो इस बात को स्‍पष्‍ट करती है। सीलोन में बौद्ध भिक्षु आग पर चलते है। भारत में भी चलते है, लेकिन सीलोन की घटना अद्भुत है। वे घंटों आग पर चलते है। और जलते नहीं है।
कुछ वर्ष पहले ऐसा हुआ की एक ईसाई मिशनरी या फायर-वॉक देखने गया। यह वे पूर्णिमा की उस रात करते है जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्‍ध हुए। क्‍योंकि उनका कहना है कि उस रात जगत को पता चला कि शरीर कुछ भी नहीं है। पदार्थ कुछ भी नहीं है। कि अंतरात्‍मा सर्वव्‍यापक है और आग उसे जला नहीं सकती।
लेकिन जिन भिक्षुओं को आग पर चलना होता है वे उससे पहले एक वर्ष तक प्राणायाम और उपवास द्वारा अपने शरीर को शुद्ध करते हे। और अपने मन को शुद्ध करने के लिए खाली करने के लिए वे ध्‍यान करते है। कि वे शरीर नहीं है। एक वर्ष वे लगातार तैयारी करते है। एक वर्ष तक पचास-साठ भिक्षुओं का समूह यह भाव करता रहता है, कि वे अपने शरीरों में नहीं है।
एक वर्ष लंबा समय है। हर क्षण केवल एक ही बात सोचते हुए कि वे अपने शरीरों में नहीं है। लगातार एक ही बात दोहराते हुए कि शरीर एक भ्रम है। वे ऐसा ही मानने लगते है। तब भी उन्‍हें आग पर चलने के लिए वाद्य नहीं किया जाता। उन्‍हें आग के पास लाया जाता है। और जो भी सोचता है कि वह नहीं जलेगा, वह आग में कूद पड़ता है। कुछ संदेह करते रह जाते है झिझकते है। उन्‍हें आग में नहीं कूदने दिया जाता;क्‍योंकि यह सवाल आग के जलाने या जलने का नहीं है। यह उनके संदेह का सवाल है। अगर वे जरा सा भी झिझकते है तो उन्‍हें रोक दिया जाता है। तो साठ लोग तैयार किए जाते है। और कभी बीस, कभी तीस लोग आग में कूदते है। और बिना जले घंटो-घंटों उसमें नाचते रहते है।
उन्‍नीस सौ पचास में एक ईसाई मिशनरी यह देखने के लिए आया था। वह बड़ा चकित हुआ। लेकिन उसने सोचा कि यदि बुद्ध में भरोसा करने से यह चमत्‍कार हो सकता है तो जीसस में भरोसा करने से क्‍यों नहीं हो सकता। तो वह कुछ देर सोचता रहा। थोड़ा झिझका, लेकिन फिर इस विचार के साथ कि यदि बुद्ध मदद करते है तो जीसस भी करेंगे। वह आग में कूद गया। वह जल गया बुरी तरह जल गया; छ: महीने के लिए उसे अस्‍पताल में भरती करवाना पडा। और वह इस घटना को समझ ही नहीं पाया।
यह जीसस या बुद्ध में विश्‍वास का सवाल नहीं था। यह किसी में विश्‍वास का सवाल नह था। यह विश्‍वास मात्र का सवाल था। और यह विश्‍वास गहन होना चाहिए। जब तक सह तुम्‍हारे प्राणों के केंद्र पर न पहुंच जाए वह काम नहीं करेगा।
वह ईसाई मिशनरी, सम्‍मोहन व उससे जुड़ी घटनाओं का अध्‍ययन करने के लिए और यह जानने के लिए कि फायर-वॉकिंग के समय क्‍या होता है। वापस इंग्‍लैंड गया। फिर उन्‍होंने दो भिक्षुओं को प्रदर्शन के लिए ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी बुलवाया। वे आग पर भी चले। इस प्रयोग को कई बार दोहराया गया। फिर उन दो भिक्षुओं को देखा कि एक प्रोफेसर उनकी और देख रहा है। और वह इतना गहरा डूब कर देख रहा है कि उनकी आंखों में और उसके चेहरे पर एक मस्‍ती थी। वे दोनों भिक्षु उस प्रोफेसर के पास गए और उससे बोले, ‘तुम भी हमारे साथ आ सकते हो।’ तत्‍क्षण वह दौड़ता हुआ उनके साथ गया। आग में कूदा और उसे कुछ भी नहीं हुआ। वह बिलकुल नहीं जला।
वह ईसाई मिशनरी भी मौजूद था और भली भांति जानता था कि वह प्रोफेसर तर्क का प्रोफेसर था। जिसका काम ही संदेह करना है। जिसका व्‍यवसाय ही संदेह पर टिका है। तो वह उस आदमी से बोला, यह क्‍या। तुमने तो चमत्‍कार कर दिया। मैं यह नहीं कर सका जब कि मैं श्रद्धालु व्‍यक्‍ति हुं। प्रोफेसर बोला, ‘उस क्षण में मैं श्रद्धालु था। यह घटना इतनी वास्‍तविक थी, इतने आश्‍चर्यजनक रूप से वास्‍तविक थी कि उसने मुझे वशी भूत कर लिया। यह इतना स्‍पष्‍ट था कि शरीर कुछ भी नहीं है। और मन सब कुछ है। और उन भिक्षुओं के साथ मेरी ऐसी तारतम्‍यता बैठ गई कि जिस क्षण उन्‍होंने मुझे आमंत्रित किया तो मुझे जरा भी झिझक नहीं हुई। आग पर चलना इतना आसान था जैसे आग हो ही नहीं।’
उसमें उस क्षण कोई झिझक नहीं थी। कोई संदेह नहीं था—यहीं है कुंजी।
तो पहले इस प्रयोग को करके देखो। कुछ दिन के लिए आंखें बंद करके बैठो और बस यही सोचो कि तुम शरीर नहीं हो। केवल सोचो ही नहीं बल्‍कि भाव भी करो कि तुम शरीर नहीं हो। और अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो एक दूरी निर्मित हो जाती है। तुम्‍हारा शरीर दूर हो जाता है। तुम भीतर की और सरक जाते हो। एक दूरी बन गई। जल्‍दी ही तुम यह महसूस कर सकते  हो कि तुम शरीर नहीं हो।
अगर तुम्‍हें स्‍पष्‍ट अनुभव हो कि तुम शरीर नहीं हो तो तुम मान सकते हो कि तुम सर्वव्‍यापक हो, सर्वशक्‍तिमान हो, सर्वज्ञा हो। इस सर्वशक्‍तिमान का यह सर्वज्ञता का तथाकथित जानकारी से कोई लेना देना नहीं है। यह एक अनुभव है। एक अनुभव का विस्‍फोट है—कि तुम जानते हो।
यह समझ लेने जैसा है, खासकर पश्‍चिम में,क्‍योंकि जब भी तुम कहते हो कि तुम जानते हो, वे कहेंगे, ‘क्‍या?’ तुम क्‍या जानते हो? जानकारी किसी चीज की होनी चाहिए। कुछ होना चाहिए जिसे तुम जानते हो। और अगर सवाल कुछ जानने का है तो तुम सर्वज्ञ नहीं हो सकते, क्‍योंकि जानने के लिए फिर अनंत तथ्‍य है। उन अर्थों में तो कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता।
यही कारण है कि जब जैन कहते है कि महावीर सर्वज्ञ थे। तो पश्‍चिम में वे हंसते है। वे हंसते है। क्‍योंकि यदि महावीर सर्वज्ञ थे तो उन्‍हें जरूर यह सब पता होगा जो विज्ञान अब खोज रहा है। और भविष्‍य में खोजेगा। लेकिन ऐसा लगता नहीं। वह ऐसी कई चीजें कहते है जो विज्ञान के विपरीत है। जो सत्‍य नहीं हो सकती। तो तथ्‍य गत नहीं है। उनकी जानकारी यदि सर्वव्‍यापक है तो उसमे कोई गलती नहीं होनी चाहिए। लेकिन उसमें गलतियां है।
ईसाई मानते है कि जीसस सर्वज्ञ है। लेकिन आधुनिक मन हंसेगा। क्‍योंकि वह सर्वज्ञ नहीं थे—संसार के तथ्‍यों को जानने के अर्थ में वह सर्वज्ञ नहीं थे। वह नहीं जानते थे कि पृथ्‍वी गोल है—वह नहीं जानते थे। वह तो यही मानते थे कि पृथ्‍वी चपटी है। सह नहीं जानते थे कि पृथ्‍वी लाखों वर्षों से अस्‍तित्‍व में है। वह तो यही मानते थे कि परमात्‍मा ने पृथ्‍वी को उनसे केवल चार हजार वर्ष पहले निर्मित किया है। जहां तक तथ्‍यों का, विषयगत तथ्‍यों का संबंध है, वह सर्वज्ञ नहीं थे।
लेकिन यह शब्‍द ‘सर्वज्ञ’ बिलकुल भिन्‍न है। जब पूरब के ऋषि ‘सर्वज्ञ’ कहते है तो उनका अर्थ तथ्‍यों को जानने से नहीं है—उनका अर्थ है परिपूर्ण चेतन, परिपूर्ण जाग्रत, पूर्णत: अंतरस्‍थ, पूर्णत: संबुद्ध। तथ्‍यात्‍मक जानकारी से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। उनका रस जानने की विशुद्ध घटना में है—जानकरी में नहीं, जानने की गुणवत्‍ता में।
जब हम कहते है कि बुद्ध ज्ञानी है। तो हमारा अर्थ यह नहीं होता कि वे सब भी जानते है जो आईस्‍टीन जानता है। यह तो वे नहीं जानते। लेकिन फिर भी वे ज्ञानी है। वे अपनी अंतस चेतना को जानते है। और अंतस चेतना सर्वव्‍यापी है। तथाता का वह भाव सर्वव्‍यापी है। और उस जानने में फिर कुछ भी जानने को नहीं बचता—असली बता यह है। अब कुछ जानने की उत्‍सुकता नहीं रहती है। सब प्रश्‍न गिर जाते है। ऐसा नहीं कि सब उत्‍तर मिल गये। सब प्रश्‍न गिर जाते है।  अब पूछने के लिए कोई प्रश्‍न न रहा। सारी उत्‍सुकता जाती रही है। सर्वज्ञता है। सर्वज्ञा का यही अर्थ है। यह आत्‍मगत जागरण है।
यह तुम कर सकते हो। लेकिन अगर तुम अपनी खोपड़ी में और जानकारी इकट्ठी करते चले जाओ। तो फिर यह नहीं होगा। तुम जन्‍मों-जन्‍मों तक जानकारी इकट्ठी करते चले जा सकते है। तुम बहुत कुछ जान लोगे। लेकिन सर्व को नहीं जानोंगे। सर्व तो अनंत है; वह इस प्रकार नहीं जाना जा सकता। विज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा। वह कभी पूरा नहीं हो सकता। वह असंभव है। यह अकल्‍पनीय है कि विज्ञान कभी पूरा हो जाएगा। वास्‍तव में, जितना अधिक विज्ञान जानता जाता है। उतना ही पाता है कि जानने को अभी बहुत शेष है।
तो यह सर्वज्ञता जागरण का एक आंतरिक गुण है। ध्‍यान करो,और अपने विचारों को गिरा दो। जब तुममें कोई विचार नहीं होंगे। तब तुम महसूस करोगे। कि यह सर्वज्ञता क्‍या है, यह सब जान लेना क्‍या है। जब कोई विचार नहीं होते तो चेतना शुद्ध हो जाती है। विशुद्ध हो जाती है। उस विशुद्ध चेतना में तुम्‍हें कोई समस्‍या नहीं रहती। सब प्रश्न गिर गये। तुम स्‍वयं को जानते हो, अपनी आत्‍मा को जानते हो। और जब तुमने अपनी आत्‍मा को जान लिया तो सब जान लिया। क्‍योंकि तुम्‍हारी आत्‍मा हर किसी की आत्‍मा का केंद्र है। वास्‍तव में तुम्‍हारी आत्‍मा ही सबकी आत्‍मा है। तुम्‍हारा केंद्र पूरे जगत का केंद्र है। इन्‍हीं अर्थों में उपनिषदों ने अहं ब्रह्मास्मिः की घोषणा की है कि ‘मैं ब्रह्म हूं,मैं पूर्ण हूं।’ एक बार तुमने अपनी आत्‍मा की यह छोटी सी घटना जान ली तो तुमने अनंत को जान लिया। तुम बिलकुल सागर की बूंद जैसे हो: अगर एक बूंद को भी जान लिया तो पूरे सागर के राज खुल गए।
‘सर्वज्ञ, सर्वशक्‍तिमान, सर्वव्‍यापी मानो।’

लेकिन यह मानना भरोसे से ही आएगा। यह तुम अपने साथ विवाद करके नहीं मान सकते। तुम किसी तर्क से अपने आप को नहीं समझा सकते। ऐसे भावों के लिए ऐसे भावों के स्‍त्रोत के लिए तुम्‍हें अपने भीतर गहरी खुदाई करनी होगी।
यह ‘मानना’ शब्‍द बड़ा अर्थपूर्ण है। इसका यह अर्थ नहीं है। कि तुमने कुछ स्‍वीकार कर लिया है। क्‍योंकि स्‍वीकार कर लेना तो बड़ी तर्कसंगत बात है। तुम्‍हारे सोच-विचार किया, तुमने उसके लिए तर्क किए, तुम्‍हारे पास प्रमाण है उसके लिए। मानने का अर्थ है कि तुम्‍हें उस चीज के प्रति कोई संदेह नहीं है—ऐसा नह कि कोई प्रमाण है तुम्‍हारे पास। स्वीकार करने का अर्थ है कि तुम्‍हारे पास प्रमाण है: तुम सिद्ध कर सकते हो। तर्क दे सकते हो। तुम कह सकते हो कि ‘यह ऐसा ही है।’ तुम उसके लिए तर्कसंगत प्रमाण दे सकते हो। मानने का अर्थ है कि तुम्‍हें कोई संदेह ही नहीं है। तुम उसके लिए विवाद नहीं कर सकते, तर्क नहीं दे सकते,तुम से अगर पूछा जाए तो तुम हार जाओगे। लेकिन तुम्‍हारे पास एक भीतरी आधार है। तुम जानते हो कि ऐसा ही है। यह एक अनुभव है, कोई बौद्धिक तर्क नहीं।
लेकिन याद रखो कि ऐसी विधियां तभी काम दे सकती है। जब तुम अपने भावों के साथ काम करो, बुद्धि के साथ नहीं। तो ऐसा कई बार हुआ है कि बड़े अज्ञानी लोग—अनपढ़ और असंस्‍कृत—मानवीय चेतना की ऊँचाइयों पर पहुंच जाते है और जो बड़े सुसंस्‍कृत है, शिक्षित है, बौद्धिक है और तर्क में कुशल है, वे चूक जाते हो।
जीसस केवल एक बढ़ई थे। फ्रेडरिक नीत्‍शे ने कहीं लिखा है कि पूरे नए टेस्‍टामेंट में केवल एक आदमी था। जिसकी सच में कोई कीमत थी। जो सुसंस्‍कृत था। शिक्षित था, दर्शनशास्‍त्र का जानकार था, बुद्धिमान था—वह आदमी था पाइलेट, रोमन गवर्नर, जिसने जीसस से सूली पर चढ़ाने की आज्ञा जारी की थी। वास्‍तव में वह सबसे ज्‍यादा सुसंस्‍कृत आदमी था—गवर्नर जनरल,वाइसरॉय। और वह जानता था कि दर्शनशास्‍त्र क्‍या है। अंतिम क्षण में जब जीसस सूली पर चढ़ाये जाने को थे। तो उसने पूछा था, ‘सत्‍य क्‍या है?’ यह बड़ा दार्शनिक प्रश्‍न था। जीसस चुप रहे—इसलिए नहीं कि यह प्रश्‍न जवाब देने जैसा नहीं था। पाइलेट अकेला व्‍यक्‍ति था जो गहरे दर्शन को समझ सकता था—जीसस चुप रहे, क्‍योंकि वे सिर्फ ऐसे लोगों से बोल सकते थे जो अनुभव कर सके। सोच-विचार किसी काम का न था। सह एक दार्शनिक प्रश्‍न पूर रहा था। अच्‍छा होता यदि यह प्रश्‍न उसने किसी यूनिवर्सिटी, किसी अकादमी में पूछा होता। लेकिन जीसस से कोई दार्शनिक प्रश्‍न पूछना  अर्थहीन था। वे चुप रहे क्‍योंकि उत्‍तर देना व्‍यर्थ था। कोई संवाद संभव नहीं था।
लेकिन नीत्‍शे,जो स्‍वयं एक तार्किक व्‍यक्‍ति था, जीसस की आलोचना करता है। उसने कहा है कि वे अशिक्षित थे। असंस्‍कृत थे, दर्शनशास्‍त्र में कुशल नहीं थे—और वे उत्‍तर नहीं दे पाए इसलिए चुप रहे गए।
पाईलेट ने बड़ा प्‍यारा प्रश्‍न पूछा। यदि उसने यह प्रश्‍न नीत्‍शे से पूछा होता, तो नीत्‍शे वर्षों तक इस पर बोलता चला जाता। ‘सत्‍य क्‍या है?’ यह एक प्रश्‍न ही वर्षों तक बोलने और चर्चा करने के लिए पर्याप्‍त है। पूरा दर्शनशास्‍त्र इसी बात का विस्‍तार है। सत्‍य क्‍या है। एक प्रश्‍न और सारे दार्शनिक इसी में जुटे हुए है।
नीत्‍शे की आलोचना तर्क द्वारा की गई आलोचना है, तर्क द्वारा की गई निंदा है। तर्क ने सदा ही भाव के आयाम की आलोचना की है। क्‍योंकि भाव बड़ा अस्‍पष्‍ट है, रहस्‍यमय है। वह है और फिर भी तुम उसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। भाव या तो तुम्‍हारे पास है, या नहीं है—उसके संबंध में तुम कुछ भी नहीं कर सकते, न ही कोई चर्चा कर सकत है।
तुम्‍हारे भी कई विश्‍वास है, लेकिन वे विश्‍वास स्‍वीकार कर ली गई धारणाएं भर है; वे विश्‍वास नहीं है। क्‍योंकि तुम्‍हें उनके प्रति संदेह  है। तुमने उन संदेहों को अपने तर्कों से कुचल डाला है। लेकिन वे अभी भी जिंदा है। तुम उनके ऊपर  बैठे हुए हो, लेकिन वे वहीं के वहीं है। तुम उनसे लड़ते रहते हो, लेकिन वे अभी मरे नहीं है। वे मर नहीं सकते। यही कारण है कि तुम्‍हारा जीवन भले ही एक हिंदू का जीवन हो, या मुसलमान का, या ईसाई का, या जैन का, लेकिन वह एक धारणा ही है। श्रद्धा तुम्‍हें नहीं है।
मैं तुम्‍हें एक कहानी कहता हूं। जीसस ने अपने शिष्‍यों को कहा कि वे नाव से उस झील के दूसरे किनारे चले जाएं जहां वे सब ठहरे हुए थे। और वे बोले,’मैं बाद में आऊँगा।’ वे लोग चले गये। और दूसरे किनारे की और जा रहे थे तो बड़ा तेज तूफान आया। उथल-पुथल मच गई और लोग भय के मारे घबरा गये। नाव थपेड़े खा रही थी और वे सब रो रहे थे, चीखने-पुकारने लगे, चिल्‍लाने लगे। ‘जीसस हमें बचाओ।’
वह किनारा जहां जीसस खड़े थे काफी दूर था। लेकिन जीसस आए। कहते है कि वे पानी पर दौड़ते हुए आये। और पहली बात उन्‍होंने शिष्‍यों को यह कहीं कि, ‘कम भरोसे के लोगो, क्‍यों रोते हो।’ क्‍या तुम्‍हें भरोसा नहीं है?’ वे तो भयभीत थे। जीसस बोले, ‘अगर तुम्‍हें भरोसा है तो नाव से उतरो और चलकर मेरी और आओ।’ वह पानी पर खड़े हुए थे। शिष्‍यों ने अपनी आंखों से देखा कि वे पानी पर खड़े है। लेकिन फिर भी यह मानना कठिन था। जरूर अपने मन में उन्‍होंने सोचा होगा कि ये कोई चाल है। या हो सकता है कोई भ्रम है। या यह जीसस ही न हो। शायद यह शैतान है जो उन्‍हें कोई प्रलोभन दे रहा है। तो वे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। कि कौन चलकर जाएगा।
फिर एक शिष्‍य नाव से उतर कर चला। और सच में वह चल पाया। वह तो अपनी आंखों पर विश्‍वास न कर सका। वह पानी पर चल रहा था। जब वह जीसस के करीब आया तो बोला, ‘कैसे? यह कैसे हो गया?’ तत्‍क्षण पूरा चमत्‍कार खो गया। ‘कैसे?’—और वह डूबने लगा। जीसस ने उसे बाहर निकाला और बोले, ‘कम भरोसे के आदमी,तू यह कैसे का सवाल क्‍यों पूछता है।’
लेकिन बुद्धि ‘क्‍यों?’ और ‘कैसे?’ पूछती है। बुद्धि पूछती है। बुद्धि प्रश्‍न उठाती है। भरोसा है सब प्रश्‍नों को गिरा देना। अगर तुम सब प्रश्‍नों को गिरा सको और भरोसा कर सको तो यह विधि तुम्‍हारे लिए चमत्‍कार है।
आज इतना ही। 

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