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सोमवार, 3 सितंबर 2018

पथ की खोज-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो) 

आत्म-दर्शन

आशा अंत में निराशा में परिणित हो जाती है, आनंद आत्मा में किसी भी तरह उपलब्ध होने को नहीं है, आनंद कोई प्राप्ति नहीं हो सकती, कोई उपलब्धि नहीं हो सकती, आनंद एक आविष्कार है जो इसी क्षण, अभी और यहीं हो सके तो हो सकता है, कल पर उसे नहीं छोड़ा जा सकता है। और उसे स्थगित नहीं किया जा सकता है। सामान्यतया हम सोचते हैं आनंद कभी मिलेगा, और उसके लिए प्रयासरत होते हैं, जैसे हमारे भीतर कहीं यह धारणा बैठी है कि आनंद को कहीं हमें उपलब्ध करना है, कहीं जाकर पाना है। महावीर की, बुद्ध की, क्राइस्ट की या कनफ्यूशियस की, उन सबकी जीवन दृष्टि हमारे इस विचार के विरोध में है। उनका जानना ऐसा जानना है कि आनंद अभी और यहीं अविष्कृत हो सकता है। हम उसे अपने भीतर लिए हैं, वह हमारे साथ है, केवल उघाड़ने के विज्ञान को जानने की बात है। केवल उघाड़ने के विज्ञान को जानने की बात है। अपने भीतर कुछ आविष्कार करने की, कुछ ढका है; उसे अनढंका करने की बात है। इस विज्ञान को ही मैं धर्म कहता हूं।

सांइस पदार्थ के भीतर जो छिपा है उसे उघाड़ती है, धर्म चैतन्य के भीतर जो छिपा है उसे उघाड़ता है। साइंस पदार्थ के भीतर विश्लेषण करती है, खोज करती है और अंत में पदार्थ की जो शक्ति है, उसका आविष्कार करती है। धर्म चेतन के भीतर जो प्रसुप्त है उसकी शोध करता है। और अंततः उसके भीतर जो निहित है, उसका आविष्कार करता है।
विज्ञान अपनी खोज के अंत पर, अणु पर पहुंच गया है, धर्म अपनी खोज कें अंत पर, आत्मा पर पहुंच जाता है। विज्ञान की अंतिम शोध का परिणाम अणु है, अणु की शक्ति है, और आज हम जानते हैं वह अणु की शक्ति सारे जगत को नष्ट करने की स्थिति में लाकर उसने खड़ा किया है।
अकेले पदार्थ की शक्ति अगर आविष्कृत हुई तो मनुष्य का अंत हो जाना सुनिश्चित है, अगर अकेले पदार्थ की शक्तियां विकसित हुईं, वे शक्तियां अंधी हैं, और अगर अनियंत्रित मनुष्य का भी विकास नहीं हुआ तो मानवता का जमीन पर अंत हो जाना सुनिश्चित है। आज सारी जमीन पर जो भी विचार करते हैं, उनके मस्तिष्क में एक ही विचार दिन-रात उन्हें बेचैन किए है कि क्या मनुष्य बहुत शीघ्र अपने को समाप्त कर लेगा? क्या हम उस अंतिम चरण पर आ गए जहां, मनुष्य अपना सार्वजनिक एक युनिवर्सल सुसाइड कर लेगा? एक सार्वजनिक आत्मघात कर लेगा? निश्चित ही हम उस किनारे पर खड़े हैं। हमें ज्ञात हो, या हमें ज्ञात न हो, हम एक बड़े भयंकर विस्फोट और ज्वालामुखी के मुंह पर खड़े हैं, जिसका निर्माण स्वयं हमने किया है। एक अज्ञान में हमने उसका निर्माण किया है, और वह निर्माण यह हुआ विगत दो-ढाई हजार वर्षों में हमने पदार्थ के भीतर जो शक्ति छिपी है, उसे खोज निकाला है।
मनुष्य के भीतर जो शक्ति छिपी है, वह हमारी सोई हुई है। उस मनुष्य के भीतर सोई हुई शक्ति को जगाने का उपाय करना है। दीखता नहीं, दिखाई नहीं पड़ता, मनुष्य की देह को देखेंगे, तो हड्डी और मांस और मज्जा के अतिरिक्त कुछ भी उसमें दिखाई नहीं पड़ रहा। मनुष्य की देह को काटेंगे, छाटेंगे, विश्लेषण करेंगे, कोई आत्मा उसमें उपलब्ध नहीं होती। मनुष्य की देह का कोई भी आविष्कार मनुष्य की आत्मा के संबंध में कोई सूचना नहीं देता है, इसलिए स्वाभाविक था कि विज्ञान कह दे कि मनुष्य के भीतर कोई आत्मा नहीं है। और अब धीरे-धीरे हम इसे स्वीकार करते चले जा रहे हैं। वे लोग भी जो मंदिर में और मस्जिद में अपनी आराधना देते हैं, और वे लोग भी जो अब तक प्राचीन परंपराओं को श्रद्धा देते हैं, उनके भीतर भी, उनके आंतरिक मन में कहीं श्रद्धा खंडित हो गई है, आस्थाएं गिर गई हैं। और एक संदेह खड़ा हो गया है, पता नहीं आत्मा हो भी या न हो? वह दिखाई तो नहीं पड़ती है। आत्मा दिखाई नहीं पड़ती है, इसलिए स्वाभाविक है कि निष्कर्ष इस जगत ने लेना शुरू किया है कि आत्मा नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वो नहीं है, ऐसा हमारा तर्क है।
महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का और क्राइस्ट का तर्क कुछ दूसरा है। उनका कहना है जो दिखाई पड़ता है, वह सार्थक नहीं है, जो दिखाई पड़ने के पीछे है, जो नहीं दिखाई पड़ता वही सार्थक है। उनका कहना है, जो दिखाई पड़ता है, उसका कोई मूल्य नहीं, जिसको दिखाई पड़ता है, उसका मूल्य है। उनका कहना है जो दिखाई पड़ता है, उसका कोई भी मूल्य नहीं, जिसको दिखाई पड़ता है, उसका मूल्य है। ये बड़े...बड़े क्रांतिकारी बिंदु का अंतर है। और इस अंतर को अगर हम न समझें, तो हम धर्म को नहीं समझ सकते हैं। धर्म उसकी खोज है जिसको सब दिखाई पड़ रहा है। और विज्ञान उसकी खोज है, जो दिखाई पड़ रहा है। विज्ञान अॅाब्जेक्ट की दृष्य की खोज है, धर्म सब्जेक्ट की, उस अदृश्य द्रष्टा की खोज है, जिसको दिखाई पड़ रहा है। पदार्थ, पदार्थ को नहीं देख सकता है। पदार्थ को पदार्थ का बोध नहीं हो सकता है। जिसे पदार्थ का बोध हो रहा है, जिसे दूसरों का बोध हो रहा है, वह अपनी आत्यंतिक सत्ता में जड़ नहीं हो सकता है। बोध जड़ का लक्षण नहीं हो सकता है, यह अवेयरनेस, यह होश, यह दिखाई पड़ना, यह जड़ता की सामथ्र्य के बाहर है, इसे हम चैतन्य कहते हैं। इस चैतन्य की जो इकाई है उसे हम आत्मा कहते हैं। इस आत्मा को उपलब्ध कर लेने पर ही व्यक्ति जीवन में आनंद को और शांति को उपलब्ध होता है। व्यक्ति जीवन में बंधन रहितता को, मुक्ति को उपलब्ध होता है। उसके अभाव में जीवन एक दुख यात्रा है, एक बोझिल यात्रा है।
मैंने कहा: आत्मा को उपलब्ध करके ही कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, तो क्या यह हम समझें कि हम आत्मा को उपलब्ध नहीं हैं। यह असंभव है कि हम आत्मा को उपलब्ध न हों। आत्मा को हम उपलब्ध हैं, आत्मा निरंतर हमारे भीतर है, लेकिन हमें उसका बोध नहीं है। जिसको सबका बोध है, हमें स्वयं उसका बोध नहीं है। जिसे सबका बोध हो रहा है, उसके प्रति हम अबोध बने हुए हैं। उसका हमें स्मरण, उसके प्रति हमारा जागरण, उसके प्रति हमारा होश, उसके प्रति हमारी अवेयरनेस नहीं है। यह अवेयरनेस, यह होश अगर घटित हो जाए, तो जीवन तत्क्षण रूपांतरित हो जाता है, एक नये ट्रांसफॅार्मेशन में, एक नये लोक में प्रविष्ट हो जाता है। वहां हम जानते हैं कि न दुख है वहां, हम जानते हैं कि न मृत्यु है वहां, हम जानते हैं न पीड़ा है, न संताप है, वहां हम जानते हैं एक अविच्छिन्न शांति के प्रवाह को, वहां हम जानते हैं अविच्छिन्न जीवन के प्रवाह को, वहां हम जानते हैं उस चैतन्य को, जिस चैतन्य में रंच मात्र भी दुख का कण भी प्रवेश नहीं कर सकता। मैं स्मरण करता हूं, एक घटना को स्मरण करता हूं।
एक बहुत बड़े भवन में ऊपर एक भोज आयोजित था। कुछ मित्र वहां इकट्ठे थे, एक साधु भी आमंत्रित था। वे भोजन में संलग्न थे, और चर्चा में संलग्न थे, और भूकंप आया। अभी यहां भूकंप आ जाए, तो मेरा आपको स्मरण भूल जाएगा। पड़ोसी का स्मरण भूल जाएगा, यहां क्या हो रहा है, उसका स्मरण भूल जाएगा। एक ही स्मरण रह जाएगा अपने को बचा लेने का। आप भागेंगे, शायद आप होश में भी नहीं भागेंगे। शायद भागना भी बेहोशी और मूच्र्छा में होगा। शायद भागते वक्त, भागना शुरू करने के बाद आपको ज्ञात होगा कि आप बैठे थे थोड़ी देर पहले और अब भाग रहे हैं। भागने के पहले स्मरण से भी आप न भागेंगे, भागने के बीच में कहीं आपको बोध आएगा कि अब आप भाग रहे हैं। वैसा ही हुआ, भूकंप आया, वह भवन कंपा, लोग भागे, वे उस साधु की चर्चा को भूल गए, जिससे बात होती थी। वहां सीढ़ियों पर भीड़ हो गई, छोटी सीढ़ियां, बहुत लोग, वह जो मेजबान था, जिसने आमंत्रण दिया था, वह जो आतिथेय था, उसने लौट कर देखा कि मित्र साधु का क्या हुआ? अतिथि का क्या हुआ? वह देख कर हैरान हुआ, वह साधु आंख बंद किए अपनी ही जगह पर बैठा है और उसके चेहरे पर भूकंप का कोई भी प्रभाव नहीं है। उसके चेहरे पर कोई रेखा भी नहीं है।
वह बहुत घबड़ाया, उसके मन में हुआ कि आज इस व्यक्ति के पास रुक जाना बड़ा आवश्यक है। इस व्यक्ति के पास रुक जाना इसलिए आवश्यक है कि ऐसा असामान्य व्यक्ति आज तक जीवन में उपलब्ध नहीं हुआ, जिसे भूकंप के कंप का अनुभव नहीं हो रहा है। और जिस पांच मंजिले भवन पर बैठा है मृत्यु को निमंत्रण दिए, उसके पास रुक जाना उसे जरूरी लगा, वह रुक गया। कोई मिनट, डेढ़ मिनट के बाद भूकंप समाप्त हुआ, नगर में बहुत भवन गिर गए हैं, नगर में बहुत कोलाहल है; उस मकान के भी कुछ हिस्से गिर गए हैं, सब अस्त-व्यस्त हो गया है। उस साधु ने आंख खोली और जहां से चर्चा टूट गई थी, वहीं से प्रारंभ कर दिया। उसके मेजबान ने कहा कि मैं हैरान हूं! आपको चर्चा का स्मरण है कि कहां टूट गई थी? मैं हैरान हूं कि वो अधूरा वाक्य जो रह गया था, उसको आप फिर पूरा कर रहे हैं। लेकिन मुझे कुछ स्मरण नहीं कि पहले आपने क्या कहा? भूकंप के पहले की दुनिया और बाद की दुनिया में मुझे बहुत अंतर पड़ गया है। मुझे कुछ स्मरण नहीं है, अभी मैं कुछ न समझ सकूंगा। मुझे तो एक ही बात पूछनी है, अभी यह भूकंप आया, लेकिन आप तो बिल्कुल अकंप थे? मुझे यह पूछना है इस भूकंप का क्या हुआ?
उस साधु ने जो कहा: उस साधु ने जो कहा वह मन के किसी बहुत आंतरिक कोने में रख लेने जैसा है। बहुत संजो कर रख लेने जैसा है। उस साधु ने कहा कुछ वर्ष हुए, तब मुझे भी भूकंप आते थे। उस साधु ने कहा, कुछ वर्ष हुए, तब मुझे भी भूकंप आते थे, फिर मैं अपने भीतर एक ऐसा आश्रय-स्थल पा गया, वहीं सरक जाता हूं, वहां तक कोई भूकंप नहीं पहुंचता है। वहीं सरक गया था। अपने भीतर एक ऐसे शांति के केंद्र को पा गया हूं जहां बाहर की कोई अशांति नहीं पहुंचती है।
क्या मैं आपको कहूं हम अशांत हैं, इसलिए बाहर की अशांति हम तक पहुंच जाती है? क्या मैं आपको कहूं कि हम दुखी हैं, इसलिए बाहर का दुख हम तक पहुंच जाता है; क्या मैं आपको कहूं कि हम निरंतर कंपित हैं, इसलिए बाहर के भूकंप हम तक पहुंच जाते हैं। अगर हमारे भीतर रिसेप्टिविटी न हो उन्हें पकड़ने की, वे हम तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम तक वही पहुंचता है, जिसे पकड़ने को हम उत्सुक और आग्रह से आतुर हैं। हम निरंतर दुखी होते चले जाते हैं, सिर्फ इसलिए कि हम केवल दुख को ही पकड़ने में समर्थ हैं, हम उसी के प्रति रिसेप्टिव हैं। हम दुख को ही आमंत्रित करते और इकट्ठा करते हैं।
 काश! हमारे भीतर आनंद की किरण फूट जाए, यह सारा जगत आनंद में परिणित हो जाएगा क्योंकि आप केवल आनंद के प्रति ही रिसेप्टिव, संवेदनशील रह जाएंगे। तब जो भी आपके पास आएगा, वह आनंद होगा। अगर भीतर आनंद हो, सारा जगत आनंद में परिणित हो जाएगा। अगर भीतर सुगंध हो सारा जगत सुगंध में परिणित हो जाएगा। अगर भीतर संगीत हो, सारा जगत संगीत में परिणित हो जाता है। क्योंकि आप केवल संगीत को पकड़ पाते हैं, संगीत को इकट्ठा कर पाते हैं, संगीत को ही आमंत्रित कर पाते हैं, संगीत के ही अतिथेय बन पाते हैं। संगीत ही आपका अतिथि हो पाता है। भीतर दुख है, भीतर अशांति है, चारों तरफ से अशांति दौड़ कर चली आती और इकट्ठी होती चली जाती है। दुखी व्यक्ति सारे जगत को दुखी; दुखी व्यक्ति सारे जगत से दुख को आता हुआ, अनुभव करेगा। दुखी व्यक्ति का जगत को देखने के केंद्र का नाम संसार है, आनंद को उपलब्ध व्यक्ति का जगत को देखने का नाम ब्रह्म और परमात्मा है। आनंदित व्यक्ति इस जगत को संसार नहीं देखता, इस जगत को एक आनंद की लीला में परिणित हुआ देखता है। तब यह जगत परमात्मा हो जाता है, तब यह जगत भगवत स्वरूप हो जाता है। कोई भगवान नहीं है कहीं, जगत भगवत्ता में परिणित हो जाता है।
भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, एक दृष्टि है भगवान। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, एक दृष्टि है जगत को देखने की। आनंद की दृष्टि में सारा जगत भगवान हो जाता है, दुख की दृष्टि में सारा जगत संसार हो जाता है, और अत्यंतिक दुख की स्थिति में सारा जगत नर्क हो जाता है। हमारे भीतर दृष्टियां बदलती हैं, बाहर सारा जगत बदलता चला जाता है। यही जगत दूसरा हो जाता है, अगर हम दूसरे हो जाएं। यही सब कुछ अन्य हो जाता है, अगर हम अन्य हो जाएं। उस केंद्र को उपलब्ध करना है, उस शांति के बिंदु को उपलब्ध करना है, जहां से देखने पर सारा जगत भगवत स्वरूप हो जाता है, धर्म इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं आपको स्मरण दिलाऊं न तो जैन कोई धर्म है, न हिंदू कोई धर्म है, न इस्लाम कोई धर्म है, न ईसाइयत कोई धर्म है; धर्म तो एक ही है केवल। बहुत धर्म असंभव हैं। बहुत धर्म नहीं हो सकते हैं, जो भी सत्य है एक ही हो सकता है। असत्य ही केवल अनेक हो सकते हैं, असत्य अनेक हो सकते हैं, सत्य एक ही हो सकता है। बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य एक ही हो सकता है। आपने अनेक स्वास्थ्यों के नाम नहीं सुने होंगे। और न आपने अनेक सत्यों के नाम सुने होंगे।
विकृतियां अनेक हो सकती हैं, संस्कृति एक ही हो सकती है। विकार मात्र अनेक हो सकते हैं, केंद्र एक ही हो सकता है, परिधि पर बिंदु अनेक हो सकते हैं, सत्य एक है, धर्म एक है, उसका कोई नाम नहीं है। और जिस धर्म के साथ नाम हो, शक हो जाना काफी है कि जितना वह नाम वजनी होगा, उतना ही धर्म भीतर कम हो जाएगा। जितना विशेषण भारी और बोझिल होगा, धर्म भीतर उतना ही कम हो जाएगा। जितना विशेषण और नाम शून्य और खाली होगा, उतना ही भीतर धर्म ज्यादा हो जाएगा। अगर बिल्कुल विशेषण शून्य हो तो धर्म पूरा हो जाएगा। ये सारे विशेषण धर्म नहीं हैं, और इन विशेषणों के कारण हम बहुत मुसीबत में पड़े हैं। और मनुष्य के जीवन में, मनुष्य के इतिहास में, इन विशेषणों ने, इन संप्रदायों ने, इन नामों ने जितनी पीड़ा पहुंचाई है, न तो राजनीति ने पहुंचाई है, न अत्याचारियों ने पहुंचाई है, न पापियों ने पहुंचाई है, न दुष्टों ने पहुंचाई है, न हिंसकों ने पहंुचाई है; इस जगत को जितना पीड़ा तथाकथित धार्मिक लोगों ने, धर्म के नाम पर चलाए हुए प्रचलित संप्रदायों ने पहुंचाई है, उतना किसी और ने नहीं पहुंचाई है।
मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देने में जितने संप्रदाय और नाम कारगर हो गए हैं, उतना और कोई चीज कारगर नहीं हुई है। मनुष्य और मनुष्य के बीच और कोई दीवाल नहीं है, सिवाय विशेषणों के और मैं आपको कहूं, जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ दे, वह मनुष्य को स्वयं से जोड़ने में सफल नहीं हो सकता। जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ दे, वह मनुष्य को स्वयं से जोड़ने में समर्थ नहीं हो सकता है। और जो धर्म मनुष्य को स्वयं से जोड़ता है, वह अनिवार्य रूप से सबसे जोड़ देता है। स्वयं से जो जुड़ गया, वह सब से जुड़ गया, क्योंकि वहां स्वयं के तल पर कोई भेद नहीं है। वहां एक ही समान ज्योतियां प्रकाशित हैं। वहां एक ही ज्योति का प्रकाश, एक ही चैतन्य का स्पंदन चल रहा है, इसलिए मैं कहूं कि जैन, हिंदू और मुसलमान इन शब्दों को छोड़ दें, इनके नीचे शब्दों से शून्य जो मिलेगा, वह धर्म है। ये शब्द व्यर्थ हैं, इन शब्दों से संप्रदाय बने हैं, इन शब्दों से दीवालें बनी हैं, और इन शब्दों के कारण धर्म तिरोहित होता चला जा रहा है, किसी आदमी से पूछो धार्मिक हो? वह कहेगा, मैं जैन हूं, या हिंदू हूं या मुसलमान हूं, धार्मिक आदमी जमीन पर खोजना मुश्किल हो गया है। और अगर मैं किसी से कहूं कि मैं धार्मिक हूं तो भी वह खोद-खोद कर पूछता है, कौन से धार्मिक? वह पूछना चाहता है किस धर्म के? जैसे कि कोई धर्म भी हो सकता है।
मुझे महावीर जैन नहीं मालूम होते, और क्राइस्ट क्रिश्चयन नहीं मालूम होते। और कृष्ण मुझे हिन्दू नहीं मालूम होते, अगर ये कुछ भी हैं तो ये सारे लोग एक ही धर्म के हिस्से हैं। और एक ही धर्म की अभिव्यक्तियां हैं। और काश, हमारी आंखों से नामों का जाल गिर जाए, तो हम कितने समृद्ध हो जाएंगे। तब सारे सत्पुरुषों की परंपरा हमारी होगी, अभी तो विभक्त परंपराएं हैं, कोई किसी की है, कोई किसी की है। तब महावीर ही हमारे नहीं होंगे, तब कृष्ण और क्राइस्ट भी और कनफ्यूशियस भी हमारे होंगे। तब मनुष्य की सारी परंपरा, प्रत्येक मनुष्य की अपनी होगी, तब प्रत्येक मनुष्य को सारा अतीत के मनुष्य का इतिहास उसका अपना होगा। तब हम एक सागर के किनारे खड़े हो जाएंगे, अभी हम छोटी-छोटी नालियों के किनारे खड़े हुए हैं। तब हम एक अनंत सागर के किनारे खड़े हो जाएंगे। धर्म एक ही है, एक अनंत सागर की भांति, और संप्रदाय उस पर बने छोटे-छोटे घाटों की तरह हैं। जो घाटों को सागर समझ लेगा, वह गलती में है। घाट बिल्कुल सागर नहीं हैं। घाट की सीढ़ियां बिल्कुल सागर नहीं हैं, घाट की सीढ़ियां उपयोगी जरूर हैं, वे सागर तक पहुंचा सकती हैं, लेकिन घाट की सीढ़ियां सागर तक जाने से रोक भी सकती हैं, जो पहुंचा सकता है, वह रोक भी सकता है। जो सीढ़ियां मुझे इस भवन तक लाई हैं, वे सीढ़ियां मुझे इस भवन तक पहुंचा भी सकती हैं, अगर मैं सीढ़ियां चढ़ूं और उन्हें छोड़ता चला जाऊं। और वे सीढ़ियां मुझे इस भवन तक आने से रोक भी सकती हैं, अगर मैं सीढ़ियों को पकड़ लूं और वहीं रुक जाऊं।
संप्रदाय पकड़ लिए जाएं, धर्म के दुश्मन हो जाते हैं। संप्रदाय छोड़ दिए जाएं धर्म की सीढ़ियां हो जाते हैं। वे ही सीढ़ियां रुकावट के पत्थर बन सकती हैं, वे ही पत्थर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बन सकते हैं। संप्रदाय जोर से पकड़े गए हैं, इसलिए धर्म जमीन पर तिरोहित होता चला जा रहा है। सम्प्रदायों को छोड़ देना होगा, ताकि धर्म वापस पुनसर््थापित हो सके। जैन को कहना होगा मैं जैन नहीं हूं, धार्मिक हूं; हिंदू को कहना होगा, मैं हिंदू नहीं हूं धार्मिक हूं; ईसाई को कहना होगा, मैं ईसाई नहीं हूं, धार्मिक हूं। सारे जगत में धर्म के उद्घोष को वापस स्थापित कर देना जरूरी है। महावीर ने अपने शब्दों में कहीं नहीं कहा जैन धर्म, वे कहते थे, सम्यक धर्म। बुद्ध ने कहीं नहीं कहा, बुद्ध धर्म, वे कहते थे, सच्चा धर्म। क्राइस्ट ने कहीं नहीं कहा, क्रिश्चियन धर्म, कृष्ण ने कहीं नहीं कहा, हिंदू धर्म; आज तक जगत में जो भी सत्य को उपलब्ध हुए हैं, उन्होंने धर्म को कोई नाम नहीं दिया, उन्होंने दो ही धाराएं मानी हैं, एक अधर्म की धारा है, एक धर्म की धारा है। आप हैरान होंगे, अधर्म की अनेक धाराएं क्या आपने देखीं? कि यह फलां नाम का अधार्मिक है, यह फलां नाम का अधार्मिक है, यह फलां नाम का अधार्मिक है..अधर्म की एक ही धारा है। लेकिन धर्म की अनेक धाराएं कैसे हो सकती हैं? अगर अधार्मिक एक ही तरह का होता है सारी जमीन पर, तो धार्मिक को भी एक ही तरह का होना पड़ेगा, तो अधर्म नष्ट हो सकता है, अधार्मिक संगठित है, धार्मिक असंगठित है, यह धर्म की पराजय का कारण है।
 अधार्मिक एक हैं, धार्मिक अनेक हैं, यह धर्म के निरंतर तिरोहित होते जाने का कारण है। अगर वापस जमीन पर धर्म की उद्घोषणा देनी है, तो स्मरण और साहस करना होगा इस बात का कि संप्रदाय की सीढ़ियों को छोड़ने की हम हिम्मत करें, और सागर को आमंत्रित करें, जिसका कोई कूल-किनारा नहीं है। जो घाटों में और रास्तों में सीमित नहीं है। उस असीम की तरफ ले जाने का द्वार, उस असीम तक पहुंचने का मार्ग किसी दूसरे से होकर नहीं जाता है।
महावीर ने एक अदभुत बात कही है, उन्होंने कहा है जो मेरी शरण पकड़ेगा, वह स्वयं तक नहीं पहुंच सकेगा। जो मेरी शरण पकड़ेगा, वह सत्य तक नहीं पहुंच सकेगा, सत्य का कोई दरवाजा दूसरे से होकर नहीं जाता है, स्वयं से होकर जाता है। स्वाभाविक भी है, आप मेरे कितने ही निकट हों, मेरे बहुत निकट नहीं हो सकते, मुझसे दूर बने ही रहेंगे, मैं आपको बिल्कुल आलिंगन में भी ले लूं, तब भी आप मुझसे दूर बने रहेंगे और वह फासला इतना ज्यादा है कि वह पूरा नहीं हो सकता। इस जगत में मेरे अतिरिक्त मेरे करीब कोई भी नहीं हो सकता है। मैं लाख उपाय करूं, लाख चेष्टाएं करूं, लाख प्रेम करूं, मोह करूं, आसक्ति करूं, करीब ले लूं, आखिर में पाऊंगा, मेरे और आपके बीच बहुत फासला है। हम दूर ही खड़े हैं। दो बिंदु इस जगत में इतने निकट नहंी आ सकते कि निकट हो जाएं, उनके फासले अनंत हैं और अनंत ही बने रहेंगे। फासले कम हो जाएं, दूरी कम नहीं हो सकती। मेरी बात समझ रहे हैं आप? फासले कम हो जाएं, इन दो हाथों के बीच फासला ज्यादा है, अब कम हो गया, लेकिन दूरी कम नहीं हुई, दूरी है, दूरी मौजूद है। ये हाथ मेरे बिल्कुल करीब आ गए, तब भी दूरी मौजूद है। सिर्फ एक ही बिंदु है जिससे मैं दूर नहीं हूं, वह कहीं मेरे भीतर है, वह कहीं मैं हूं।
सत्य को जिसे जानना है, स्वाभाविक है कि निकट पर ही पहली पकड़ और पहुंच करनी होगी। जो निकट को नहीं जानता, वह दूर को कैसे जान सकेगा? जो निकट से परिचित नहीं है, वह दूर से परिचित कैसे हो सकेगा? जो स्वयं से अपरिचित है, वह सर्व को जानने चले, नासमझ है, अज्ञानी है। सत्य का द्वार स्वयं से होकर जाएगा। और कोई रास्ता नहीं है। कोई रास्ता कभी नहीं था, और कभी नहीं हो सकेगा। सबसे पहली चोट, सबसे पहली दस्तक मुझे अपने पर देनी होगी। सबसे पहले मुझे अपने द्वार खटखटाने होंगे।
लेकिन हम ऐसे हैं कुछ, हम सारी जमीन के दरवाजों को खटखटाएंगे और हम सारी जमीन के मकानों की सीढ़ियों को चढ़ आएंगे और एक मकान को अछूता छोड़ देंगे, जो कि अपना है। एक को छोड़ देंगे और अनेक को खोजते फिरेंगे। इस खोज के पीछे भी कोई कारण है। कोई आधारभूत कारण जरूर है, अन्यथा इतने करोड़-करोड़ लोग एकदम अज्ञान में नहीं हो सकते थे। अज्ञान बिल्कुल बेबुनियाद नहीं हो सकता। उसके भीतर भी कोई बुनियाद होगी, अन्यथा इतने लोग दुख में नहीं हो सकते थे, जबकि सारे तीर्थंकर, सारे अवतार, सारे ईश्वर पुत्र, सारे पैगम्बर कहते हों कि आनंद का राज्य तुम्हारे भीतर है। जब कि सारे मनीषी चिल्लाते हों कि आनंद का रा.ज तुम्हारे भीतर है तो यह कितनी अजीब सी बात है, इतने लोग दुख में, और पीड़ा में और अज्ञान में कैसे हैं? अगर संख्याओं से ही तय किया जाए, तो हम ही ठीक निकलेंगे, महावीर, बुद्ध गलत हो जाएंगे, उनकी संख्या बहुत कम है। अगर निर्णायक बहुमत हो, तो हम ही ठीक निकलेंगे, महावीर, बुद्ध और कृष्ण, क्राइस्ट सब गलत हो जाएंगे, उनकी संख्या बहुत अल्प है। यह हो सकता है कि वे भ्रम में हों क्योंकि थोड़े से लोग हैं, यह बिल्कुल मुश्किल मालूम होता है कि अरबों लोग भ्रम में हों। भ्रम की घटना थोड़े से लोगों पर घट सकती है, इतने लोगों पर? लेकिन यह बड़ी हैरानी की बात है, हम उनको तो सत्यमय मानते हैं और अपने को भ्रममय मानते हैं। तो इस भ्रम के पीछे जरूर कोई बहुत गहरा आधार होना चाहिए। आधार है, और उस आधार को हम न समझ लें तो स्वयं तक पहुंचना नहीं हो सकता। वह आधार यह है, बहुत संक्षिप्त में, वह आधार एक छोटी सी कहानी से आपको कहूं।
एक अंधेरी रात आने के करीब है, सांझ हो गई, सूरज ढलने को है। और एक बूढ़ी स्त्री घर के भीतर अपना कपड़ा सीती है। सूरज ढलने लगा और उसकी सुई गिर गई और खो गई। सूरज ढल गया बाहर, उसके कमरे के भीतर अंधेरा उतरने लगा। सुई छोटी, स्त्री बूढ़ी, आंखें उसकी कमजोर, ढूंढना मुश्किल, वह ढूंढती हुई बाहर की दहलान में आ गई, वहां थोड़ी रोशनी थी। भीतर के कमरे में अंधेरा घना हो गया। वह खोजती हुई सुई को बाहर की दहलान में आ गई, वहां अभी ढलते सूरज की थोड़ी रोशनी थी। लेकिन जब तक वह दहलान में खोजे-खोजे तब कि सूरज और ढल गया। अब तो बाहर दरवाजे की सड़क पर थोड़ी रोशनी थी। वह खोजती हुई सड़क पर आ गई। कोई करीब से युवक निकला, उसने पूछा, क्या गुम गया, मैं सहायता करूं? उस स्त्री ने कहा: सहायता करो तो बड़ी कृपा हो, मेरी आंखें कमजोर हैं और सुई गुम गई है। उस युवक ने थोड़ी देर खोजा वहां कोई सुई दिखाई नहीं पड़ी, फिर उसने पूछा कि सुई छोटी चीज है, पहले यह बताना ठीक-ठीक कि किस जगह गिरी, तो शायद मिल भी जाए, इतना बड़ा रास्ता मैं कहां सुई को खोजूंगा। वह स्त्री बोली, यह मत पूछो कि कहां गिरी, यह घाव मेरा मत छेड़ो मेरे घर में दीया नहीं है। सुई गुमी तो भीतर है, लेकिन वहां रोशनी नहीं है। सुई गिरी तो भीतर है, लेकिन वहां रोशनी नहीं है, और जहां रोशनी है वहां सुई गिरी नहीं, यह मेरी दुविधा है। तो यह मत पूछो कि सुई कहां गिरी, तुम तो खोज दो, मिल जाए तो ठीक है। वह युवक बोला आप पागल हैं? सुई जहां गुमी है, वहीं मिल सकती है। प्रकाश जहां है, वहां मिलने का कोई कारण नहीं है। वह स्त्री बहुत हंसने लगी, वह एक फकीर थी। और वह कहने लगी, लेकिन सब वहीं खोजते हैं, जहां प्रकाश है। कोई वहां नहीं खोजता जहां गुमना हुआ है। सच ही हम सब वहां खोजते हैं, जहां प्रकाश है। हम वहां नहीं खोजते जहां गुमना हुआ है। क्या कभी अपने से पूछा कि जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने खोया कहां है?
खोज के पहले जो यह नहीं पूछ लेता कि हमने खोया कहां है, उससे ज्यादा नासमझ और कौन होगा? सारे जगत में मनुष्य अगर कुछ खोज रहा है, तो आनंद को खोज रहा है। छोटे से कीड़े, पतंगे से लेकर मनुष्य तक अगर कोई खोज चल रही है, तो आनंद की चल रही है। कुछ भी आप खोज रहे हों अंततः आप आनंद खोज रहे हैं। पर कभी पूछा कि आनंद खोया कहां है? फिर आनंद को खोज रहे हैं जहां प्रकाश पड़ रहा है वहां। आंखें बाहर खुलती हैं मनुष्य की, भीतर नहीं खुलती। हाथ बाहर फैलते हैं, भीतर नहीं फैलते। कान बाहर सुनते हैं, भीतर नहीं सुनते। सारी इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है, सारी इंद्रियां बहिर्मुखी हैं, अंतर्मुखी कोई इंद्री नहीं है। सारी इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ने से जैसे ही हम पैदा हुए, बाहर खोजना शुरू कर देते हैं। यह बाहर की खोज, इस बुनियाद पर चल रही है कि सारे शरीर का द्वार बाहर खुलता है। इंद्रियां बाहर खुलती हैं, इसलिए हम बाहर खोज रहे हैं, लेकिन यह अपने से नहीं पूछते कि खोया कहां है? और आप कहेंगे यह भी तो हो सकता है, कि हमने खोया न हो, और हम बिल्कुल नई चीज खोज रहे हों। यह भी तो कह सकते हैं कि हम बिल्कुल नई चीज खोज रहे हों, हमने खोया न हो, यह बिल्कुल गलत है। आप उस चीज को कभी नहीं खोज सकते जिसका आपको स्मरण न हो। जिसके आपके आंतरिक तल में कोई आकांक्षा और अनुभव न हो।
आप उसे कभी नहीं खोज सकते हैं। खोजने का अर्थ है कि खोया है। खोजने का अर्थ है कि खोया है। आपने कभी सोचा तो नहीं कि हम आनंद को खोजें, इस जमीन पर, इस पूरे जगत में कोई कभी सोचता है कि मैं आनंद को क्यों खोज रहा हूं? आनंद को बस हम खोज रहे हैं। आनंद हमारी सोच-विचार का परिणाम नहीं है, आनंद की खोज, आनंद की खोज हमारा निसर्ग है, हमारा स्वभाव है।
आनंद की खोज हमारे सोच-विचार का परिणाम नहीं है, आपने सोच कर तय नहीं किया है कि मैं आनंद खोजूं। आप आनंद खोज रहे हैं, आपने पाया है कि आप आनंद खोज रहे हैं। अगर सोच-विचार कर तय किया होता, तो नई चीज की खोज भी हो सकती थी। सोच-विचार कर तय नहीं किया। निसर्ग से एक आकांक्षा पकड़े हुए है कि आनंद को उपलब्ध करो, दुख से दूर हो जाओ और आनंद को पा लो। जरूर कहीं हमने खोया है। जरूर हमें आनंद का कोई अनुभव है। जरूर किसी तल पर हम आनंद से परिचित हैं। जरूर किसी तल पर हम आनंद में प्रतिष्ठित हैं। अन्यथा यह आनंद की खोज, अनविचारी, अनसोची नहीं चल सकती थी।
और मैं आपको स्मरण दिलाऊं कि आप दुख से बचना क्यों चाहते हैं? कोई भी दुख को वरण क्यों नहीं करना चाहता? कोई भी दुख को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहता? दुख को हम अस्वीकार करते हैं, इसलिए कि दुख हमारे भीतर से ताल-मेल नहीं खाता है। दुख हमारे भीतर से समन्वित नहीं होता है। दुख हमारे भीतर जाकर संगीत नहीं, विसंगीत उत्पन्न करता है। हम जैसे कुछ भीतर हैं, दुख उसका सजातीय नहीं है। इसलिए दुख का विरोध है। दुख से हटना है, दुख से पलायन है। दुख से बचाव है, दुख से रक्षा है। और आनंद की खोज है। खोज उसकी होती है जो हमारे स्वरूप से मेल खाता हो। विरोध उसका होता है जो हमारे स्वरूप के विपरीत जाता हो। दुख स्वरूप के विपरीत जाता है, इसलिए हर एक बचना चाहता है, आनंद स्वरूप के अनुकूल आता है, इसलिए प्रत्येक उपलब्ध होना चाहता है। आनंद प्रत्येक उपलब्ध होना चाहता है, इसलिए कि आनंद कहीं प्रतिष्ठित है। कहीं हमारी आंतरिक सत्ता में हम आनंद को इस क्षण भी हमारी जड़ें वहां फैली हुई हैं। आनंद हमारे भीतर है, इंद्रियों के द्वार बाहर हैं, यह मनुष्य के जीवन का संघर्ष और अंर्तद्वंद्व है। सुई भीतर गुमी है, रोशनी बाहर है। खोज बाहर हो रही है, खोना भीतर हुआ है। तो फिर क्या हो? फिर क्या रास्ता बने? जिन्होने बहुत खोजा बाहर, खोज कर थक गए, जिन्होंने बाहर सब पा लिया, और पाया कि कु छ भी नहीं मिला, उन्हें एक अंतर्दृष्टि का जागरण हुआ कि भीतर और खोज कर देख लें।
महावीर राजपुत्र थे। सब उनके घर में था, सब समृद्धि, सब सुख, सब उनके पास था और अनुभव होता था कुछ भी पास नहीं है। बाहर पाने जैसा कुछ भी शेष नहीं था, लेकिन पाने को सब कुछ शेष था। इस स्थिति ने, इस टेंशन ने, इस तनाव ने कि सब मेरे पास है और मेरे पास कुछ भी नहीं, कुछ भी शेष नहीं रहा, पाने को और सब कुछ शेष है पाने को, इस तनाव ने इस संघर्ष ने स्मरण दिलाया; इस दुविधा की अत्यंतिक स्थिति ने स्मरण दिलाया, अपने भीतर और खोज देखो। अपने भीतर और खोज देखो, हो सकता है जो बाहर उपलब्ध न हुआ हो, वह भीतर उपलब्ध हो जाए। हो सकता है जो बाहर संभव न हुआ हो, वह भीतर संभव हो जाए। भीतर देखने के लिए क्या करें? आंख भीतर देखती नहीं, भीतर छूने के लिए क्या करें? हाथ भीतर छूते नहीं। भीतर जाने के लिए क्या करें, किस रास्ते से भीतर जाएं? मैंने कहा इंद्रियां बाहर जाती हैं, कोई इंद्री भीतर नहीं जाती, तो फिर भीतर कैसे जाएं? तो भीतर जाने की एक राह मिल गई, सब इंद्रियां बाहर जाती हैं, अगर कोई भी इंद्री कार्य न कर रही हो, सब इंद्रियां निष्क्रिय हों, तो उस क्षण में आप भीतर हो जाएंगे।
आंख बाहर देखती है, कान बाहर सुनते हैं, स्पर्श बाहर होता है, स्वाद बाहर होता है, गंध बाहर होती है, अगर ये पांचों इंद्रियां बिल्कुल जड़वत हों, उस घड़ी में आप कहां होंगे? बाहर जाने का तो द्वार नहीं मिलेगा। बाहर जाने का चैतन्य को द्वार नहीं मिलेगा, सारे द्वार बंद हैं..तब चैतन्य अपने में होगा। तब आप भीतर होंगे, भीतर जाने के लिए द्वार की जरूरत नहीं है। केवल बाहर न जाएं, इतना की काफी है। और भीतर जाने के लिए मार्ग हो भी नहीं सकता। क्योंकि कोई मार्ग भीतर नहीं ले जा सकता। मार्ग सब बाहर ले जाते हैं और दूर ले जाते हैं। स्मरण रखें, कोई भी मार्ग भीतर नहीं ले जा सकता। सब मार्ग बाहर ले जाते हैं और दूर ले जाते हैं। मार्ग मात्र दूर को जोड़ने का उपाय है, अपने को जोड़ने के लिए कोई मार्ग नहीं हो सकता। मार्ग दो को जोड़ सकते हैं, एक ही अपने को पाना चाहे तो कैसे मार्ग होगा?
मुझे आप तक आना हो तो मैं चल कर आऊंगा, और मुझे अपने तक जाना हो तो चल कर कैसे जाऊंगा? आप तक जाना हो तो चलना पड़ेगा, अपने तक आना हो तो चलना छोड़ कर रुकना पड़ेगा। दूसरे तक जानने को चलना है, अपने तक आने को रुकना है। सब योग रुकने का उपाय हैं। सब योग इंद्रियों को रोक लेने का उपाय हैं। महावीर उन बारह वर्षों की एकांत साधना में इंद्रियों के द्वार पर न जाने का अभ्यास कर रहे थे। आंख के पीछे न जाने का अभ्यास, कान के पीछे न जाने का अभ्यास, स्पर्श के पीछे न जाने का अभ्यास, स्वाद के पीछे न जाने का अभ्यास, गंध के पीछे न जाने का अभ्यास; सारी इंद्रियों के पीछे न जाने का अभ्यास।
हम पूरे जीवन इंद्रियों के पीछे जा रहे हैं, हम उनके गुलाम और दास हैं। इंद्रियों के पीछे न जाने का अभ्यास, वरन इंद्रियों के भी पीछे जाने का अभ्यास। इंद्रियों का अनुगमन तो नहीं, इंद्रियों के पीछे प्रतिक्रमण, वापस लौटना, इंद्रियों का अनुगमन तो नहीं, इंद्रियों से प्रतिक्रमण। इंद्रियों के पीछे तो नहीं जाना, उनके पीछे उनका अनुयायी तो नहीं होना, लेकिन उनसे वापस लौटना और अपने में आना।
 इंद्रियों में जो जाएगा, वह संसार में पहुंच जाएगा। इंद्रियों से जो अपने को रोक लेगा, वह स्वयं में पहुंच जाता है। इंद्रियों में जो जाएगा, वह संसार में पहुंच जाएगा, इंद्रियों को जो रोक लेता है, वह स्वयं में पहुंच जाता है। इंद्रीय निरोध स्वरूप की प्रतिष्ठा का उपाय है। सारी साधना इंद्रीय निरोध की साधना है। कैसे होगा इंद्रीय निरोध? आंख देखती है, रूप को देखती है, कान सुनते हैं वाणी को सुनते हैं। कैसे यह होगा कि कान वाणी को न सुने? आंख रूप को न देखे, कैसे होगा? महावीर भी तो देखते होंगे, आंख तो नहीं फोड़ ली होगी। और जिन्होंने आंख फोड़ ली हैं, वे नासमझ रहे होंगे। आंख फूटने से कुछ भी नहीं होता। आंख फूट जाए तो रूप मिट नहीं जाते और प्रगाढ़ होकर चित्त में चलने लगते हैं। कान फोड़ लेने से तो नहीं होगा। हत्या अपनी कर लेने से तो नहीं होगा। महावीर क्या करते होंगे? आंख तो देखेगी, आंख का तो देखना धर्म है, कान तो सुनेंगे, कान का तो सुनना धर्म है। हाथ तो छुएंगे, हाथ का तो स्पर्श करना धर्म है। फिर महावीर क्या साधते होंगे, कोई भी साधक क्या साधता होगा? क्या आंख फोड़ लें, कान फोड़ लें, हाथ तोड़ दें तो काम हो जाएगा? इंद्रियों को नष्ट करना नहीं, इंद्रियों को निरोध करना बड़ी अलग बात है। अनेक नासमझ हैं जो इंद्रियों को नष्ट करने में लग जाते हैं। वे इतने पागल हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
मैं एक दफा एक गांव पर एक यात्रा पर गया। एक बैलगाड़ी में सवार था, एक साधु मेरे साथ थे। वह कोई आठ दिन से उपवास कर रहे थे। उपवास तो वह नहीं था, अनाहार ही होगा। भूखे मर रहे थे। शरीर को सब तरह का कष्ट देते थे और दमन करते थे, वह मेरे साथ थे। बैलगाड़ी में हमें जाना पड़ा। मैं तो सो गया, वे बैठे रहे। वे बैठे रहे इस डर से कि जो हमारा कोचवान था, जो बैलगाड़ी चलाता था, वह कुछ पागल था। वह कुछ पागल था, उसका कुछ विश्वास नहीं था कि कहां ले जाए। मैंने तो कहा: मैं तो सोता हूं, कहीं भी ले जाएगा, तब तक सोएंगे। बाकी वे बैठे रहे। मैं सोया रहा। रात, कोई आधी रात को अचानक मेरी नींद खुली, वे भी मुझे उठा रहे थे, कोई बैलगाड़ी पर जोर से डंडे मार रहा था। मैं उठ कर बैठा, देखा, वह जो बैलगाड़ी चलाने वाला था, वह अपने डंडे को बैलगाड़ी को मार रहा है और गालियां बक रहा है। मैंने उससे पूछा: क्या बात है? वह बोला: बैलगाड़ी ठीक से नहीं चलती। वह बैलों को तो कुछ नहीं कर रहा था, बैलगाड़ी को मार रहा था। वे साधु मुझसे कहने लगे, मैंने पहले ही कहा था, यह पागल है और इसके साथ चलना ठीक नहीं है। मैंनें उन साधु को कहा: मुझे यह पागल नहीं दिखाई देता, बिल्कुल आपका सजातीय दिखाई देता है। आप भी यही कर रहे हैं, मन तो चल नहीं रहा तो शरीर को ठीक कर रहे हैं। मन साथ नहीं दे रहा तो शरीर को मार रहे हैं। यह बेचारा बैलगाड़ी नहीं चल रही तो बैलगाड़ी को ही मार रहा है, बैलों की फिकर नहीं कर रहा है। अगर यह पागल है, तो वे सारे लोग पागल हैं जो शरीर को ठोक रहे हैं, मार रहे हैं, आंख फोड़ रहे हैं, कान तोड़ रहे हैं।
 आप हैरान होंगे, ऐसे लोग हुए जिन्होंने आंखें फोड़ लीं, इसलिए कि रूप परेशान न करे। जिन्होंने शरीर को सुखाया है, इसलिए कि शरीर वासना न दे। जिन्होंने अपने अंग काट लिए, इसलिए कि वे अंग उन्हें वासनाओं में न ले जाएं। जो शरीर के दुश्मन इसलिए बने कि शरीर जैसे कहीं ले जाता हो। शरीर को तोड़ भी लें तो कुछ न होगा, वह आत्मघात होगा, आत्मसाधना नहीं। सवाल आंखें फोड़ लेने का नहीं है, सवाल आंखें होते हुए रूप पर से हटाने का है। सवाल देखते हुए दृश्य पर से सरक जाने का है।
जब भी मैं आपको देख रहा हूं तब तीन चीजें घटित हो रही हैं, उस तरफ आप हैं जिनको मैं देख रहा हूं, इस तरफ मैं हूं जो देख रहा है, और हम दोनों के बीच देखने का संबंध है। तीन चीजें हैं, जो दिखाई पड़ रहा है वह दृश्य, जो देख रहा है वह द्रष्टा और जो संबंध हो रहा है वह दर्शन। दर्शन के दोनों तरफ दो हैं, एक द्रष्टा है, एक दृश्य है। अभी हम जब देखते हैं, तो दृश्य पर हमारा जोर होता है, दृश्य हमारी आंख में होता है। साधक का जोर दृश्य पर न होकर द्रष्टा पर होता है। जब वह देखता है तो उसकी फिकर नहीं करता जो दिखाई पड़ रहा है, उसका स्मरण रखता है जो देख रहा है। देखते समय उसका स्मरण जो देख रहा है, उसका नहीं जो दिखाई पड़ रहा है। भोजन करते वक्त उसका स्मरण नहीं जिसका स्वाद आ रहा है, उसका स्मरण जिसको स्वाद आ रहा है। चलते वक्त, उठते वक्त, बैठते वक्त, जीवन की समस्त क्रियाओं में उस चैतन्य का स्मरण, जिसके आस-पास ये सारी क्रियाएं घटित हो रही हैं। इनके निरंतर स्मरण को महावीर ने विवेक साधना कहा है। महावीर ने कहा है: आयुषमन विवेक से उठे, विवेक से बैठे, विवेक से सोए, विवेक से भोजन करे।
 जो होशपूर्वक अपनी सारी क्रियाएं करेगा, इंद्रियों के सारे संबंधों में होश को जाग्रत रखेगा, निरंतर उसका स्मरण रखेगा जो भीतर बैठा है, उसका नहीं जो बाहर दिखाई पड़ रहा है। क्रमश: उसकी दृष्टि में परिवर्तन उत्पन्न होगा, रूप की जगह वह दिखाई पड़ेगा जो रूप का देखने वाला है, सारी क्रियाओं के बीच उसका अनुभव होगा जो कत्र्ता है। निरंतर के स्मरण, निरंतर की स्मृति, उठते-बैठते सतत चैबीस घंटे की जागरूक साधना के माध्यम से व्यक्ति इंद्रियों के उपयोग के साथ भी इंद्रियों से मुक्त हो जाता है। दृश्य विलीन हो जाते हैं, द्रष्टा का साक्षात शुरू हो जाता है। इंद्रियों का निरोध होता है, इंद्रियां रुकती हैं, उनका बहिर्गमन विलीन हो जाता है, वे अंतर्गमन को उपलब्ध हो जाती हैं। इंद्रियों को मिटा नहीं देना, इंद्रियों को दृश्य से, ‘पर’ से मुक्त कर देना है। उस घड़ी में इंद्रियां जब ‘पर’ से मुक्त हों, व्यक्ति स्वयं को जानता और अनुभव करता है। उस अतेंद्रीय स्थिति में आत्मा का अनुभव होता है।
 इंद्रीय की स्थिति में केवल पदार्थ का अनुभव हो सकता है। इंद्रियां केवल पदार्थ को जान सकती हैं, इंद्रियां आत्मा को नहीं जान सकती हैं। क्योंकि सारा विज्ञान, सारी साइंस इंद्रियों की खोज पर निर्भर है। इसलिए उसका स्वभाविक परिणाम है कि जगत में केवल मैटर है, माइंड नहीं है। जगत में केवल पदार्थ है परमात्म कुछ भी नहीं है। इंद्रियों के पीछे सरकना, इंद्रियों को दृश्य से, आब्जेक्ट से मुक्त करना इतनी ही साधना है। इतनी साधना जिसके जीवन में प्रविष्ट हो, स्मरणपूर्वक जो अपने जीवन को इस भांति साधना में ढाल ले, एक दिन, एक विस्फोट होगा उसके भीतर, और वह उसको अनुभव कर पाएगा जो वह है। उसको जो वह है, कोई दूसरा नहीं बता सकता है। उसको वह जो है, कोई शास्त्र नहीं बता सकते हैं। उसको वह जो है, कोई तीर्थंकर भी जबरदस्ती उसे वहां तक नहीं पहुंचा सकता है।
प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं स्व-चेष्टा से, स्व-साधना से पूरा करना होता है। और महावीर की क्रांति धार्मिक साधना में जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह यही है कि उन्होंने कहा, कोई परमात्मा भी नहीं है जिसकी स्तुति और प्रार्थना तुम्हें अपने तक पहुंचा देगी और सत्य तक पहंुचा देगी। कोई परमात्मा नहीं है, महावीर की दृष्टि से परमात्मा का अविष्कार हमारे आलस्य का अविष्कार है। स्तुतियां और प्रार्थना और भक्ति का अविष्कार हमारे प्रमाद और आलस्य का अविष्कार है। हम बचना चाहते हैं खुद करने से, स्तुति करके निपट लेते हैं और सोचते हैं प्रभु सब कर देगा। हम नहीं करना चाहते कुछ, प्रभु पर सब टाल देते हैं। जो स्वयं कुछ नहीं करना चाहता, कोई प्रभु उसके लिए कुछ भी नहीं कर सकेगा।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह ट्रांसफरेबल नहीं है। उसे एक आदमी दूसरे को नहीं दे सकता। वह टांसफरेबल कमोडिटी नहीं है, वह ऐसी वस्तु नहीं है कि मैं आपको दे दूं। जो भी दिया-लिया जा सकता है, उसका दो कौड़ी का मूल्य है। जो नहीं दिया-लिया जा सकता वही अर्थपूर्ण है, वही जीवन में सार्थक है। न तो प्रेम हम एक-दूसरे को ले-दे सकते हैं, न प्रकाश, न ज्ञान, न आत्मानुभूति ले-दे सकते हैं। स्वयं ही पाना होगा। स्वयं ही खोदना होगा, अपने भीतर से ही, अपनी चेष्टा से ही, सतत एकाकी चेष्टा से, स्मरण रखें, मैं कह रहा हूं सतत एकाकी चेष्टा से। इसलिए धर्म अत्यंत वयैक्तिक है। धर्म का कोई संबंध भीड़-भाड़ से नहीं है कि दस आदमी मिल कर धार्मिक हो जाएं। दस आदमी मिल कर धार्मिक होने का कोई संबंध नहीं है। एक-एक आदमी को अपने साथ कुछ करना होगा। अकेले अपने साथ करना होगा, न कोई सहयोगी है, न कोई संगी है, न कोई साथी है।
वहां यूनान में एक विचारक हुआ, प्लेटीनस। उसने एक शब्द उपयोग किया है: फ्लाइट अॅाफ द अलोन टु द अलोन। अकेले की अकेले तक उड़ान। अकेले की अकेले तक उड़ान है। कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, कोई सहयोगी नहीं, कोई नहीं, अकेले आपको प्रवेश करना होगा। अकेला होना होगा तो आप उसको जान पाएंगे, जो आप अकेले में हैं। अकेले होने का नाम समाधि है। जब आप बिल्कुल अकेले रह गए, आप ही रह गए और कोई भी नहीं है, केवल आप रह गए, उसी का नाम सामायिक है। जब न कोई मंत्र है, न कोई तंत्र है, न कोई स्मरण है, न कोई विचार है, न कोई रूप है, न कोई गंध है; जहां इंद्रियों से उपलब्ध कुछ भी नहीं है, मात्र अकेले सिर्फ, सिम्पल एण्ड प्योर एक्झिस्टेंस, वह अकेली आपकी सत्ता मात्र रह गई, वही एक विस्फोट है, वही एक क्रांति है; वहीं एक बायलिंग पॅाइंट, वहीं एक उत्ताप का बिंदु उपलब्ध होता है जहां आप मनुष्य नहीं रहते और परमात्मा से संयुक्त हो जाते हैं।
ईश्वर करे, प्रत्येक के जीवन में उत्ताप का वह बिंदु आए कि वहे परमात्मा से संयुक्त हो जाए। वह संयोग ही कृतार्थता का आनंद, अनुभूति, प्रेम और शांति से व्यक्ति को भर देता है। उस अनुभव के बाद ही जीवन में सारे फूल खिलते हैं, अहिंसा के, सत्य के, ब्रह्मचर्य के। ये साधे नहीं जाते, आत्मा का अनुभव हो, ये अपने आप खिल जाते हैं। कोई फूल साधा नहीं जाता है, कोई फूल पौधों से निकाले नहीं जाते हैं। आत्मा भीतर बोध से भर जाए, सारा जीवन सदाचार से भर जाता है, नीति धर्म का परिणाम है। सदाचार सद-अनुभव का परिणाम है। ईश्वर करे, परमात्मा के साथ आप संबंधित हो जाएं ताकि आपके जीवन के सारे बाह्य रूपों में परमात्मा संबंधित हो जाए। उस घड़ी को, उस आनंद की घड़ी को कोई शब्द नहीं कि कह सकूं, कोई ध्वनि नहीं कि उसे आप तक विस्तारित कर सकूं, कोई इशारा नहीं कि आपको उस तरफ इंगित कर सकूं। कोई रास्ता नहीं है। कोई रास्ता नहीं, इसलिए धर्म आज तक कहा नहीं जा सका है। सब शास्त्र कह कर असमर्थ हो गए हैं। सब साधु, सब संत कहकर, अनुभव के लिए कह कर, चुप हो गए हैं। असल में जो भी निःशब्द में और मौन में उपलब्ध होता है, जो भी वाणी के ऊपर उपलब्ध होता हो, उसे वाणी में उतारने का कोई उपाय नहीं है।
इतनी देर फिर भी मैंने कहा, और इतने अनंत वर्षों से कितने-कितने लोगों ने कहा है, यह बहुत अजीब सा लगेगा, अगर धर्म कहा नहीं जा सकता फिर कहा क्या जाता है? धर्म तो नहीं कहा जा सकता, सत्य तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर भीतर आपके वह अनुभव की किरण फूटी हो तो उसकी प्यास को संवेदित किया जा सकता है। उसकी प्यास को विस्तृत किया जा सकता है। प्यास को संक्रामक किया जा सकता है। इतनी देर मैंने जो कहा, उसमें सत्य कुछ भी नहीं है सिवाय इसके कि अगर आप में थोड़ी सी प्यास उसको जानने की पैदा हो जाए, ईश्वर करे आप प्यासे हों, अतृप्त हों, असंतुष्ट हों, यही मेरी कामना है, ताकि आप उसे पा सकें जो सब संतोष दे देता है। ताकि आप उस सागर को पा सकें, जहां सारी प्यास नष्ट हो जाती है।

मेरी इन बातों को इतनी खुशी से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
  

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी जानकारी, इस ब्लॉग पोस्ट में हमें पथ की खोज की विस्तृत जानकारी मिलती है।

    साथ ही इस ब्लॉग पोस्ट में आपको अपने दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली मोबाइल का आविष्कार का पूरा इतिहास जानने को मिलेगा, धन्यवाद!

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