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बुधवार, 5 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-05)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्तएं)-ओशो

पांचवां-प्रवचन

पति-पत्नी और प्रेम

और जीसस अगर जमीन पर लौटें तो पहले क्रिश्चिएनिटी को डिनाई करना पड़ेगा, क्योंकि यह, यह तो कभी बात ही नहीं उठी कभी। यह मैंने कब कहा? मगर वह सदा ऐसा होता है। तो मेरी दृष्टि में मैं जो कह रहा हूं वह परंपरा तो कोई नहीं है; लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह नया भी नहीं है, पुराना भी नहीं है।

प्रश्नः आपके खिलाफ जो बगावत है वह तो खैर समझ में आई, अब आपका प्रोग्राम गया?

नहीं, मेरा कोई प्रोग्राम नहीं है। मेरा कोई प्रोग्राम नहीं। और बगावत की तरफ मेरी कोई दृष्टि नहीं। कोई रुख भी नहीं। मैं मानता हूं कि वह स्वाभाविक है। इसलिए मैं उसकी तरफ कोई रिएक्शन नहीं लेता। मेरी उससे कोई फाइट नहीं है। हां, मुझे जो ठीक लग रहा है वह मैं कहता चला जाता हूं। जो मुझे ठीक लग रहा है वह बताता चला जाता हूं। जिसको उसका विरोध करना है वह विरोध कर रहा है, वह वहीं खत्म हो जाता है। उस विरोध करने वाले का विरोध करने का मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं है। मुझे उससे कोई संबंध नहीं है। क्योंकि मैं मानता हूं बिलकुल स्वाभाविक है।

वह उतना ही स्वाभाविक है कि जैसे कि पूरब से पश्चिम की तरफ हवा चल रही हो और मैं पश्चिम की तरफ चलने लगूं, तो हवा मुझे धक्के देने लगे। अब उस...यह इतना ही स्वाभाविक है। और यह सदा ऐसा ही स्वाभाविक रहा है। इसलिए वह जो मेरे खिलाफ कोई कुछ कहे, उसके खिलाफ मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं। मुझे जो कहना है वह मैं कहता चला जाऊंगा। मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं बताता चला जाऊंगा। जिसको उसका विरोध करना है, वह उसका विरोध करता रहेगा; जिसको उसका पक्ष करना है वह पक्ष करता रहेगा। और ये दोनों मिल कर ट्रेडीशन बनाते हैं। दोनों मिल कर ट्रेडीशन बनाते हैं।
हां, तो मेरा कोई प्रोग्राम नहीं ट्रेडीशन बनाने का। और मेरी सदा चेष्टा यह है...मैं मानता हूं पहले भी चेष्टा यही रही, हालांकि अब तक सफल नहीं हो सकी कि ट्रेडीशन न बने। क्योंकि अगर मैं कोई प्रोग्राम लूं उनके खिलाफ, तो फिर ट्रेडीशन बननी शुरू होती है। तो उनके खिलाफ मेरा कोई प्रोग्राम नहीं है। उनसे मेरी कोई खिलाफत नहीं है। मुझसे उनकी खिलाफत हो सकती है।
मैं मानता हूं कि बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कोई...यह सदा से ऐसा है, इसमें कोई बात ही नहीं है। ऐसा न हो तो आश्चर्य की बात है। ऐसा न हो तो बहुत आश्चर्य की बात है। इसका मतलब है कि कुछ मिरेकल हो गया। यानी जीसस आएं और उनको सूली न लगे तो बड़े आश्चर्य की बात है; नानक आएं और पत्थर न प.ड़े तो समझना चाहिए कि या तो इररेलिवेंट हो गए, जिसे किसी को पत्थर मारने की भी अब फुरसत नहीं है उनको, और या फिर दुनिया में क्रांति हो गई, सारे लोग धार्मिक हो गए। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
इसलिए मैं उसकी तरफ, उसके बाद मेरा कोई और रिएक्शन नहीं है। उसको मैं स्वाभाविक मान कर स्वीकार कर लेता हूं और जो मुझे करना है वह करता चला जाता हूं। उनकी वजह से मेरे करने में मैं कोई फर्क नहीं करता। और अगर फर्क करूं तो बहुत जल्दी वे मुझे अपनी जगह पर खींच कर खड़ा कर देंगे।
यह बड़े मजे की बात है कि जिससे हम लड़ें, जाने-अनजाने हम उसी जैसे हो जाते हैं। इसलिए दुश्मन बहुत समझ कर चुनना चाहिए। दोस्त कोई भी चुना जा सकता है। दोस्त उतना नहीं बिगाड़ सकता आपको, लेकिन दुश्मन तो अनिवार्य रूप से बिगाड़ता है। जिससे हम लड़ते हैं तो क्योंकि उसकी टेक्टिक्स से लड़ना पड़ता है, और तब जो...धीरे-धीरे दुश्मन एक ही तल पर आ जाते हैं। उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता।
कोई फर्क रह ही नहीं सकता, क्योंकि लड़ना पड़ेगा उसी की टेक्टिक्स से। वही टेक्टिक्स आपकी हो जाएगी, वही उसकी हो जाएगी। सब खराब। तो मैं तो लड़ता नहीं। मैं मानता हूं कि अगर किसी बात की प्योरिटी को बचाना हो तो उसे, उसे लड़ाई में नहीं डालना चाहिए। नहीं तो बस वह फिर खराब होनी शुरू हो जाती है। इसलिए मेरा काम मैं करता हूं, अपना काम वे करते हैं, बात वहीं खत्म। उसके बाद मेरा कोई उनसे लेना-देना नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अगर उसे प्रेम चाहिए तो...उसमें कोई थका-मांदा घर में परेशानी लेकर आए। पति को समझ लेना चाहिए कि घर जाते से पत्नी से आधे घंटे तक जहां तक बने, बचकर रहें। बचकर रहें, इसलिए कि आधा घंटे...दिन भर का उसका दिमाग भरा हुआ है। कभी भी वह पत्नी पर टूट सकता है।
और ध्यान रहे कि हम उसी पर टूटते हैं जो हमारे निकटतम हैं। दूसरे पर नहीं टूटते। मगर यह हमारे खयाल में नहीं आता। जिसको हम सबसे ज्यादा अपने करीब पाते हैं, हम उसी पर टूट सकते हैं। यह भी प्रेम का हिस्सा है। यह दुश्मनी नहीं है।
अब ये बाजार में इनको किसी ने क्रोध दिला दिया, उस पर नहीं टूट सके। क्योंकि उस पर टूटे तो वह तो दुश्मन हो जाएगा। अब वह भर गया, वह निकलेगा कहां? वह अपनी पत्नी पर टूट सकते हैं। क्योंकि जानते हैं कि टूट लेंगे तो भी दुश्मनी नहीं हो जाने वाली। आधे घंटे बाद सब ठीक हो जाएगा।
तो हम अपने पर ही क्रोध करते हैं। यह हमें खयाल ही नहीं है कभी, दूसरे पर हम कभी क्रोध नहीं करते। इसलिए जब कोई हम पर क्रोध करे तो अगर हममें समझ हो तो हमें जानना चाहिए कि यह प्रेम का ही हिस्सा है। इसलिए वह इतना क्रोध कर रहा है। मगर तकलीफ यह है कि कोई किसी को नहीं समझ रहा। पति जोर से बोला तो हमने समझा कि हम पर बोला है जोर से, तो मतलब हमको कसूरवार सिद्ध कर रहा है। जब पत्नी रोने लगी तो पति ने समझा कि मैंने जो इसकोे जोर से बोल दिया इसलिए यह रो रही है।
नहीं, उसके रोने के अपने कारण हैं, वह भर गई है दिन भर। वह तैयारी कर रही थी कि रोने का मौका मिल जाए तो रो दे। और आप तैयारी कर रहे थे कि कोई डांटने का मौका मिल जाए तो डांट दें।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, उसके कारण हैं, उसके बहुत कारण हैं। यह बायोलाॅजिकल फर्क है। स्त्री और पुरुष में शारीरिक फर्क है। उसका कारण है कि स्त्री को बनना है मां। वह अगर अपने बच्चे को चैबीस घंटे प्रेम न दे सके, तो बच्चा मर जाएगा। तो शरीर की उसकी बनावट ऐसी है कि वह चैबीस घंटे प्रेम दे सके, नहीं तो बच्चा मर जाए।
आप एक बच्चे को नहीं पाल सकते। अगर दुनिया में पुरुषों के हाथ मेें बच्चे सौंप दिए जाएं पालने के लिए तो दुनिया की जनसंख्या घटाने के लिए जरूरत ही न पड़े। बच्चे आप पाल नहीं सकते। आधा घंटा, पंद्रह मिनट खिला लेना एक बात है। रात को जब वह रोएगा दस दफा तो तबीयत होगी कि गर्दन दबा दें, अपने बेटे की। स्त्री की तो कभी तबीयत नहीं होगी कि वह गर्दन दबा दे उसकी। वह उसेे चैबीस घंटे प्रेम कर सकती है।
तो उसकी पूरी बायोलाॅजिकल जो बनावट है स्त्री की, वह ऐसी है कि वह चैबीस घंटे प्रेम करे, एक। स्त्री का पूरा शरीर प्रेम से प्रभावित होता है। पूरा शरीर। स्त्री का एक-एक रोआं प्रेम से प्रभावित होता है। पुरुष का ऐसा मामला नहीं है। तो इसलिए पुरुष के लिए प्रेम घूम-फिर कर सेक्स बन जाता है। क्योंकि उसका सिर्फ सेक्स-सेंटर ही प्रेम से प्रभावित होता है।
अब यह दोनों में इतना बुनियादी फर्क है कि इससे झंझटें खड़ी होती हैं। पुरुष का सिर्फ सेक्स-सेंटर प्रेम से प्रभावित होता है। बाकी उसकी बाॅडी जो है वह लवलेस है। उसमें कहीं प्रेम के परमाणु नहीं हैं शरीर में, और इसमें उसका कोई कसूर नहीं। स्त्री का कोई कसूर नहीं, उसका पूरा शरीर प्रेम से भरा हुआ है।
तो अगर, इसलिए होता क्या है कि जब कोई एक पुरुष एक स्त्री को शुरू करता है प्रेम, तो वह उसके पूरे शरीर को प्रेम करता है तो स्त्री बहुत प्रसन्न होती है उससे। लेकिन जब उनकी शादी हो जाए तो बस सेक्स से ही संबंध रह जाता है, पूरा शरीर छूट जाता है। तब स्त्री दुखी होना शुरू हो जाती है। क्योंकि उसको सेक्स में उतना रस नहीं है। उसका सेक्स जो है वह क्लाइमेक्स है। उसके पूरे शरीर को प्रेम करो, जब उसका पूरा शरीर प्रेम से उत्तेजित हो जाए तब सेक्स उसके लिए रसपूर्ण है। अच्छा, पुरुष के लिए सेक्स ही प्रेम हो जाता है। उसका उतना ही हिस्सा प्रेम कर पाता है। इसलिए उसके लिए सेक्स काफी है। तो फिर उपद्रव शुरू हो गए।
स्त्री मांगती है कि उसके पूरे शरीर को प्रेम करो। तो जब पुरुष शुरू-शुरू में किसी स्त्री को प्रेम शुरू करता है तब तो उसके पूरे शरीर को प्रेम करता है। क्योंकि सीधा स्त्री के सेक्स पर हमला करो तो वह बह‏ुत नाराज हो जाए। तो उसके पूरे शरीर को प्रेम करके कदम बढ़ाना पड़ता है। और फिर बाद में जब शादी हो गई तो पुरुष तो सेक्स से निपट जाता है, स्त्री मांग करती रहती है, पूरा प्र्रेम करो।
तो उसको ऐसा लगने लगता है कि सेक्स से ही संबंध बना लिया है इसने हमसे, और हमसे कोई प्रेम नहीं। उसको प्रेम तभी लगेगा जब घंटे भर उसके पूरे शरीर को प्रेम करो। वह उसको...ये सारी कठिनाइयां एक-एक बच्चे को समझाए जाने की जरूरत है। और इसलिए सब उपद्रव खड़ा होता है। वह उपद्रव आप ऊपर से हल करते रहते हैं, वह हल नहीं होता। क्योंकि मांग बहुत दूसरी है।
जब एक स्त्री को ऐसा लगता है कि आप उसके शरीर को पूरा प्रेम नहीं करते तो उसको फौरन यह खयाल आता है कि आपको किसी और का शरीर पसन्द आने लगा है। यह मुश्किल की बात है। क्योंकि जब उसका शरीर आपको पसंद आता था तो आप उसको, पूरे शरीर को प्रेम करते थे। उसको फौरन शक पैदा होना शुरू हो जाता है कि आप किसी और शरीर को चाहने लगे हैं। यह उसको भारी कष्ट में डाल देती है बात। फिर अगर वह आपको किसी से हंसते देख ले, किसी से बात करते देख ले, मर गई वह। उसकी जान निकल गई। अब वह उसका बदला लेगी आपसे।
तो यह सारी की सारी बात साफ होनी चाहिए कि पुरुष और स्त्री में बेसिक डिफरेंस है। अब इसमें किसी का कसूर नहीं है, नेचुरल फर्क है। और वह जो नेचर के लिए दिक्कत नहीं थी। विवाह आदमी ने बनाया है, पशु-पक्षियों को दिक्कत नहीं है। अगर आदमी भी पशु-पक्षी हो जाए, कोई दिक्कत नहीं रहेगी। लेकिन आदमी ने विवाह बना लिया, विवाह ने सारे उपद्रव खड़े कर दिए। न बनाए विवाह तो दूसरे उपद्रव हैं, इसलिए विवाह बनाना पड़ा उसे।
पशु-पक्षी का कोई झगड़ा नहीं, क्योंकि स्थाई संबंध बनते नहीं। इसलिए जो भी संबंध बनता है उसमें जो मादा है वह भी तृप्त होती है, क्योंकि वह जो नर है वह उसके पूरे शरीर को प्रेम करता है। जब वह उसके पूरे शरीर को प्रेम करता है, तभी तो वह सेक्स के लिए राजी होती है, नहीं तो वह राजी नहीं होती। तो वह तृप्त हो जाती है पूरी की पूरी।
अच्छा वह संबंध तात्कालिक छूट जाता है। इसलिए कल अगर वह दूसरी मादा के साथ प्रेम कर रहा है तो कोई ईष्र्या नहीं बनती, क्योंकि उससे संबंध क्या है? यहां ईष्र्या बनती है क्योंकि संबंध हम स्थाई बनाते हैं। संबंध स्थाई बनाते हैं और प्रकृति पशुओं की ही है हममें। इसलिए सारा का सारा उपद्रव है। या तो प्रकृति पशुओं से ऊपर उठे और या फिर हम संबंध समाप्त करें, नहीं तो दुनिया का हल होना मुश्किल है।
या फिर इतनी अंडरस्टैंडिंग हो कि हम एक-एक बच्चे को सारे सत्य समझा दें कि ये सत्य हैं। हमें एक-एक लड़की को समझा देना चाहिए कि तेरा पति तुझे दो-चार-आठ दिन ही तेरे पूरे शरीर को प्रेम करेगा इसके बाद सेक्स से ही उसका संबंध रह जाएगा। तब तू दुखी मत होना। यह स्वाभाविक है। और उसे बताना चाहिए कि वह तुझे, अगर चैबीस घंटे में पंद्रह मिनट भी तेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाए, तो इसको पर्याप्त मानना। साढ़े तेईस घंटे मांग मत करना उससे प्रेम की, क्योंकि वह असमर्थ है।
ऐसे ही पुरुष को समझाया जाना जरूरी है कि तू सिर्फ सेक्स का संबंध मत रखना स्त्री से, क्योंकि जैसे ही उससे सेक्स का सीधा संबंध रखोगे, उसको लगता है वह वेश्या हो गई। उससे प्रेम नहीं है तुम्हारा। तुम उसका इंस्ट्रूमेंट की तरह उपयोग कर रहे हो, एक मशीन की तरह उपयोग कर रहे हो।
मुझे हजारों स्त्रियों ने यह कहा है कि उनको अपने पतियोें के साथ यह ही खयाल है कि वे उनके लिए सिर्फ वेश्याएं हैं खरीदी हुईं, जिनके साथ वे संभोग कर रहे हैंैं। और संभोग हुआ कि पति करवट लेकर सो गया हैै। और पत्नी रो रही है, सौ में नब्बे मौकों पर। क्योंकि वह तो अतृप्त रह गई। उसके पूरे शरीर को तुमने स्पर्श भी नहीं किया। तो ये सारी की सारी बातें, एक-एक सत्य सीधा जैसा नंगा है। तो हम इससे भी डरते हैं।
इसलिए मेरी बड़ी झंझट हो गई कि मैं चाहता हूं जो बात जैसी है, उसको वैसा ही सामने रखने से हल हो सकता है। और हम सब छिपाए बैठे हुए हैं। उस छिपावट में सारी गड़बड़ हुई चली जाती है।
और ये, अब इसमें ऐसे फर्क बुनियादी होने से जो दिखाई नहीं पड़ते हैं। जैसे पुरुष का सेक्स जो है, वह प्राथमिक रूप में सबसे सबल रहता है। और स्त्री का सेक्स जो है, वह बाद की उम्र में सबल होना शुरू होता है। तो इनमें बेसिक डिफरेंस हो जाता है। पुरुष जो है वह पंद्रह से लेकर पच्चीस और तीस साल तक सबल होता है। और स्त्री जो है चालीस साल के बाद उसकी सेक्स की डिमांड बढ़नी शुरू होती है। उसके कारण हैं। उसके भी बायोलाॅजिकल कारण हैं।
क्योंकि स्त्री बहुत भयभीत है सदा सेक्स से। क्योंकि सेक्स उसके लिए जिम्मेदारी है। पुरुष के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं है। पुरुष के लिए सेक्स एक खेल है। स्त्री के लिए जिम्मेवारी है। बच्चा पालना, पोसना--इसलिए सारी लड़कियां सेक्स से भयभीत होती हैं। जब तक उनका सेक्स से भय मिटता है तब तक पुरुष रिक्त हो चुका होता है। जब तक उनका भय मिटता है, जब तक वे सेक्स के लिए समझ पाती हैं और उनका भय खत्म होता है तब तक पुरुष समाप्त हो चुका होता है। जब उनकी मांग बढ़ती है तब वह शिथिल हो चुका होता है। तो इससे बड़ी दिक्कत शुरू होती है।

प्रश्नः आज के जमाने में ये बात भी नहीं कही जा सकतीं। आज के जमाने में ये बात नहीं कही जा सकतीं। बर्थ-कंड्रोल के साधन हैं...

मगर कहां उपयोग कर रहे हो तुम। जिन मुल्कों में कर रहे हो, वहां फर्क पड़ रहा है। न, न, बिलकुल, बिलकुल फर्क पड़ रहा है। और हम, लड़कियों की ट्रेनिंग जो है हमारी, वह एंटी-सेक्स की है। इसलिए स्त्री आमतौर से मरते-मरते तक सेक्स के विरोध से मुक्त नहीं हो पाती। और आप ही सिखाते हो, अपनी लड़की को सिखाते हो बिलकुल कुंवारी रखना। तुम उसको कुंवारी सिखाओगे रहना, और बाद में कुंवारापन टूटेगा कैसे उसका फिर दिमाग से? उसको तोड़ने का क्या इंतजाम किया है? बीस साल सिखाओगे कुंवारी रहने की बात, और बीस साल के बाद अचानक एक दिन कहोगे कि अब सेक्स की दुनिया में चली जाओ।
और बीस साल की ट्रेनिंग कहां जाएगी? तो वह रेसिस्ट करेगी। पूरी जिंदगी भर उसका सेक्स से विरोध रहेगा। इसलिए वह पुरुष को दुष्ट समझेगी, बुरा समझेगी, गंदा समझेगी। ऊपर से कहेगी कि पति हैै, लेकिन भीतर वह जानेगी कि यह आदमी गंदा है। क्योंकि सेक्स, उसको गंदा बताया गया बीस साल तक। और जब उसका कुंवारा मन था, सरल मन था तब तुमने ठोंक-ठोंक कर रखा--किसी लड़के से बोलना मत; बात मत करना; किसी को छू मत लेना, अब इसके बाद अचानक एक दिन में उसका आप उसका विवाह कर देते हैं। अब दिक्कत खड़ी हो गई।
तो हमारी सारी ट्रेनिंग जो है, वह ऐसी है कि उसमें कष्ट अनिवार्य है। वह एक आदमी और एक स्त्री का प्राॅब्लम नहीं है। वह हमारी पूरी सोशल व्यवस्था की प्राॅब्लम है। और जब तक हम उसको वहां से न तोड़ दें, तब तक यह नहीं होगा।
और यह भी बिलकुल स्वाभाविक है कि हम हर चीज से ऊबते हैं। पत्नी से भी ऊबते हैं, पति से भी ऊबते हैं। मगर इसको हम मानने को राजी नहीं हैं। अगर मुझे जो खाना आज खिलाया, कल भी खिलाओ, परसों भी खिलाओ तो मैं ऊब जाऊंगा। एक ही स्त्री का शरीर रोज-रोज मिले तो उससे ऊब जाते हैं, पुरुष के शरीर से स्त्री भी ऊब जाती है।
मगर यह सत्य हम स्वीकार नहीं करते। इससे बहुत दिक्कत होती है। तो कभी अगर कोई दूसरी स्त्री किसी को मिल जाए तो वह उससे जरा आनंद से बात करता है। वह अपनी स्त्री से ऊबा हुआ है, यह जानना चाहिए। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं हो रहा है। मगर बस उपद्रव शुरू हो जाएगा।
हर चीज ऊबा देती है जिसको हम पुनरुक्त करते हैं। वही चेहरा, वही हंसी ऊबाने वाली हो जाती है। कोई दूसरा चेहरा, दूसरी हंसी थोड़ी सुखद लगती है। इसमें कुछ न बुरा है, न अस्वाभाविक है। लेकिन हमारा दिमाग दिक्कत में डाल देता है। और मेरी अपनी समझ यह है कि अगर वह एक पुरुष किसी दूसरी स्त्री के साथ दस मिनट हंस-हंस कर बात कर ले तो अपनी पत्नी फिर उसे अच्छी लगती है। वह फिर एक स्वाद नया फिर शुरू हो जाता है।
मगर पत्नी इससे भयभीत हो जाती है। पुरुष भयभीत हो जाए, उसकी पत्नी किसी दूसरे पुरुष से हंस ले, बोल ले, तो दुखी होगा। लेकिन उसे ख्याल नहीं है कि यह बहुत अच्छा है। इससे उसका पति उसे फिर अच्छा लगेगा। इसमें बीच में स्वाद परिवर्तित हुआ।
जिस दिन हम मनुष्य के पूरे सत्यों को समझ कर स्वीकार करेंगे--जैसे हैं, उस दिन दुनिया अच्छी बन सकती है। लेकिन हम बेईमान हैं, हम करें क्या? और, और ईमानदारी की बात कहें तो हमको दुश्मन सी लगती है, तब तो बहुत मुश्किल हो जाती है।

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