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शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-10)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

दसवां-प्रवचन-ओशो

ए रेडियो टॉक बाई ओशो

...अंत तक अमल नहीं करते।
पर मैं तो बहुत कुछ करना भी चाह रही हूं बीबी जी।
सच!
हां।
यह सच फिर वही बात की आपने, आप करना चाह रही हैं या कुछ कर रही हैं? मैं तो यह जानना चाहती हूं।
बीबी देखिए, देश-विवाह हमारा पहला कर्तव्य है, पहला धर्म है, बस इसी के लिए हम कुछ योजनाएं बना रहे हैं।
हां-हां, यानी और भी कुछ लोग हैं आपके पास?
हां, मेरी कुछ पड़ोसनें भी अपना सहयोग दे रही हैं।

भई वाह!
हम लोग सप्ताह में एक बार मिल बैठते हैं और फिर इस बैठक में बहुत सी बातें होती हैं।
अच्छा, जरा किस विषय पर बातें होती हैं, मैं भी सुनूं।

बस देश के हित के लिए बहुत योजना बनाते हैं।

अच्छा, तब तो बहुत अच्छी-अच्छी योजनाएं होंगी? और देखिए हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत के निर्माण के लिए नारी बहुत कुछ कर सकती है। उसका प्यार, उसकी प्रेरणा से क्या नहीं हो सकता। यह हमें तक नहीं, फिर हम चाहें...
और आज इसी विषय पर ओशो के विचार हम बहनों को सुनवाते हैं।

भारत की संस्कृति, भारत की संपदा जीवन के एक नये द्वार पर खड़ी है। सैकड़ों वर्षों के अंधकार, गुलामी और दीनता के बाद फिर से एक समृद्ध जीवन का क्षण आया है। इस नये निर्माण में अकेले पुरुष का ही हाथ नहीं होगा, नारी का भी हाथ होगा। और यह सहयोग आश्चर्यजनक मालूम होता है। लेकिन सत्य है कि अब तक इस देश के निर्माण में नारी का कोई हाथ नहीं रहा है। नारी गुलाम थी, दास थी, अनुचर थी, प्रेमिका थी; लेकिन सहयोगी और सहस्रष्टा नहीं थी।
इसके दुष्परिणाम हुए हैं। एक सयता बनी जो अकेले पुरुष की सयता थी..कठोर, परुष, हिंसा और क्रोध और युद्ध से भरी। नारी का कोमल अनुदान उस सयता को नहीं मिला। वह संस्कृति वैसी ही अधूरी थी जैसे कोई देश हो जहां सिर्फ पुरुष हों और स्त्रियां न हों। वह देश जैसा रसहीन, सौंदर्यहीन, संगीतहीन और प्रेमशून्य होगा, वैसी ही यह संस्कृति निर्मित हुई।
आने वाले भविष्य में कोई सम्यक और पूर्ण संस्कृति और सयता को जन्म देना हो तो नारी का अत्यंत सहयोग और मूल्यवान स्थान उस निर्माण में होना जरूरी है। एक ऐसा देश निर्मित करना है जो अभय को उपलब्ध हो, प्रेम को उपलब्ध हो, स्वतंत्रता को, प्रकाश को, आनंद को। इस निर्माण के लिए कुछ सूत्रों पर विचार करना उपयोगी है। तीन सूत्रों पर विशेष रूप से।
नारी अब तक मनुष्य से, पुरुष से पीछे थी, अनुचर थी, गुलाम थी। उसे कोई समान स्थान न था। स्वभावतः गुलाम संस्कृतियों के निर्माण नहीं करते हैं। संस्कृति के निर्माण के लिए स्वतंत्र, चेता व्यक्ति चाहिए। नारी स्वतंत्र, चेता व्यक्ति अब तक नहीं थी।
फर्क आया है, परिवर्तन हुआ है, नारी ने मांग की है समानता की। लेकिन समानता की मांग के पीछे खतरा भी है। कहीं समान होने की दौड़ में वह पुरुष जैसे होने की प्रवृत्ति में न पड़ जाए। जैसा की सारी दुनिया में हो भी रहा है।
नारी अगर पुरुष जैसी होने की कोशिश में पड़ेगी तो फिर अनुचर रह जाएगी, फिर छाया रह जाएगी। फिर भी उसे व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं होगा, उसे निजता और आत्मा उपलब्ध नहीं होगी। पुरुष बनने की दौड़ में नारी एक द्वितीय महत्व के स्थान पर ही खड़ी रह जाएगी। सिर्फ छाया ही होगी। व्यक्तित्व उसे मिल सकता है तभी जब यह समझ लिया जाए कि नारी भिन्न है, असमान है, लेकिन भिन्नता और असमानता का यह अर्थ नहीं कि उसे समादर उपलब्ध न हो। समादर उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन समानता झूठी बात है। स्त्री और पुरुष समान बिल्कुल भी नहीं हैं। और यही उनका आकर्षण भी है, यही उनका बल भी है।
स्त्री उतनी ही आकांक्षा के योग्य है, उतनी ही जीवन को रस से भरने वाली जितनी भिन्न है, उसकी भिन्नता में ही, उसके भिन्नता के विकास में ही न केवल उसका जीवन चरितार्थ होगा, बल्कि आने वाली संस्कृति भी सम्यक और पूर्ण हो सकती है।
तो यह पहला सूत्र ध्यान में रखने के लिए है और वह यह है कि स्त्री को हम उसकी भिन्नता में विकसित होने दें, पुरुष के समान बनाने की चेष्टा न करें। अन्यथा एक भूल पीछे हुई थी कि वह गुलाम थी और अब दूसरी भूल होगी कि वह केवल पुरुष की झूठी छाया, एक मिथ्या पुरुष बन कर रह जाएगी।
अब तक ऐसा ही हुआ कि जब भी नारी पुरुष जैसी होती है, हम प्रशंसा करते हैं। रानी झांसी की प्रशंसा करते हैं, जोन ऑफ आर्क की प्रशंसा करते हैं। कहते हैंः खूब लड़ी मर्दानी। लेकिन मर्दाना होना, पुरुष जैसा होना नारी के लिए सम्मान योग्य नहीं है। उसका अपना निजी व्यक्तित्व है और वह विकसित हो..प्रेम का, संगीत का, घर का, परिवार का, परिवार के केंद्र का; वह जो आंतरिक जीवन है मनुष्य के हृदय का। उसे वह पूरा तभी कर सकेगी जब वह ठीक अर्थों में नारी ही हो, पुरुष जैसी न हो।
तो भारत की आने वाली संस्कृति में नारी को अपनी भिन्नता को परिपूर्ण रूप से विकसित करना है। ताकि वह ठीक-ठीक नारी का अनुदान, संस्कृति, और नये देश के निर्माण में दे सके। स्वभावतः इसके ही साथ दूसरी बात ध्यान में रखनी जरूरी है कि इसकी शिक्षा पुरुष जैसी न हो, न उसे व्यवसाय पुरुष जैसे दिए जाएं। मैं इसके अत्यंत विरोध में हूं। न तो पुरुषों जैसे व्यवसाय की नारी को जरूरत है, न वैसी शिक्षा की। क्योंकि वैसी शिक्षा, वैसी प्रतिस्पर्धा, वैसा प्रशिक्षण उसे एक झूठा व्यक्तित्व ही दे सकता है; उसकी आत्मा का सम्यक और ठीक विकास नहीं। और जिसका अपना ही व्यक्तित्व ठीक से विकसित न हुआ हो, वह देश के, समाज के व्यक्तित्व को परिपूरक नहीं बन सकती।
तीसरी बात ध्यान में रखनी जैसी है और वह यह कि नारी अगर ठीक से विकसित हो तो वह पुरुष से ज्यादा बलवान है। क्योंकि बच्चों का सारा निर्माण उसके हाथ में है, परिवार का प्राण वह है। जीवन के जो भी महत्वपूर्ण अंग है उस पर उसकी छाया और उसका प्रभाव है। सभी पुरुष उसकी छाया में बड़े होते और उसके प्रेम में जीते हैं। उसकी सहानुभूति में, उसकी करुणा में, उसकी ममता में जीते हैं। अगर यह ममता, यह प्रेम और यह करुणा ठीक-ठीक विवेकयुक्त हो तो देश के निर्माण में क्रांतिकारी परिणाम लाए जा सकते हैं।
देश के निर्माण का अंतिम अर्थ व्यक्तियों का ही निर्माण होता है। और व्यक्तियों के निर्माण का केंद्रीय तत्व मां है, पत्नी है, बहन है। वह जो नारी घेरे हुए पुरुष को चारों ओर से..अगर उसकी ममता और उसका प्रेम सृजनात्मक हो और पुरुषों को चुनौती देता हो और विकास के लिए आमंत्रण देता हो और उन दूर देश के सपनों को पूरा करने के लिए प्रेरणा देता हो, तो ही एक नया समाज, एक नया देश और एक नये भारत का जन्म हो सकता है।
लेकिन यदि नारी अतीत के ढंग की रही कि पुरुष की दासी, अगर अतीत का बहुत बोझ रहा तो यह नहीं हो सकेगा। और यदि नारी पश्चिम के ढंग की रही कि पुरुष के समकक्ष और समान खड़े होने की चेष्टा में रत, तो भी यह विकास नहीं हो सकेगा।
नारी को अगर भारत के निर्माण में अपना ठीक स्थान ग्रहण करना है तो दो बातों से बचना है। एक तरफ कुआं है, एक तरफ खाई है। एक उसका अतीत है और एक उसके सामने खड़ा हुआ पश्चिम है। अगर अतीत के बोझ से नारी बचे और पश्चिम के प्रभाव से, तो ही भारत के सम्यक निर्माण में उसका महत्वपूर्ण योगदान उपलब्ध हो सकता है। बहुत कुछ उसके हाथ में है..बहुत क्षमता, बहुत शक्ति। लेकिन सारी शक्ति और क्षमता का जब तक उसके ही अनुकूल, उसके ही आत्मा के अनुकूल विकास न हो, तब तक देश के लिए उससे कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता।

ओशो ने जो अपने विचार हमारे सामने रखे हैं, उन्हें हमें फिर सख्त...।

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