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रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-04)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

चौथा-वचन-(ओशो) 

पूंजीवाद की अनिवार्यता

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप बता सकते हैं कि हमारे देश की वर्तमान परिस्थिति के लिए कौन जवाबदार है?
सदा से हम यही पूछते रहे हैं कि कौन जवाबदार है। इससे ऐसी भ्रांति पैदा होती है कि कोई और हमारे सिवाय जवाबदार होगा। इस देश की परिस्थिति के लिए हम जवाबदार हैं। यह बहुत ही क्लीव और नपुंसक विचार है कि सदा हम किसी और को जवाबदार ठहराते हैं। जब तक हम दूसरों को जवाबदार ठहराते रहेंगे तब तक इस देश की परिस्थिति बदलेगी नहीं क्योंकि दूसरे को जवाबदार ठहरा कर हम मुक्त हो जाते हैं और बात वहीं की वहीं ठहर जाती है।

हम ही जवाबदार हैं। यदि हम गुलाम थे तो हम कहते हैं, किसी ने हमें गुलाम बना लिया, वह जवाबदार है। और हम यह कभी नहीं सोचते कि हम गुलाम बन गए इसलिए हम जवाबदार हैं। इस दुनिया में कोई भी किसी को गुलाम नहीं बना सकता। अगर गुलाम स्वयं गुलाम बनने को तैयार नहीं है तो असंभव है। मैं मर सकता हूं, अगर मुझे गुलाम नहीं बनना है। तो मैं कम से कम मर तो सकता ही हूं। लेकिन मैं जिंदगी को पसंद करता हूं, चाहे वह गुलामी की जिंदगी हो, तब फिर मुझे गुलाम बनाया जा सकता है।

इस जगत में कोई भी आदमी उसके सहयोग के बिना गुलाम नहीं बनाया जा सकता। थोड़े से अंग्रेज इस मुल्क को दोे सौ साल तक गुलाम बनाए रहे और फिर भी हम कहते हैं कि जवाबदार वही थे, क्योंकि उन्होंने हमको गुलाम बनाया। और हम चालीस करोड़ लोग जवाबदार नहीं थे, जो गुलाम बने रहे?
इस भाषा में सोचना भी गुलाम मस्तिष्क का लक्षण है। वह गुलाम भी खुद नहीं बनता, गुलाम भी उसेे कोई और ही बनाता है। फिर स्वतंत्र भी वह खुद नहीं हो सकता। हम हुए भी नहीं हैं स्वतंत्र, कोई और ही हमें स्वतंत्र भी कर गया। पूछना चाहिए हमारी स्वतंत्रता के लिए कौन जिम्मेवार है, हम? हमें शक है क्योंकि हम गुलामी के लिए ही जिम्मेवार नहीं हैं, फिर स्वतंत्रता के लिए कैसे जिम्मेवार हो सकते हैं? जब गुलामी दूसरे ने थोपी थी तब आजादी भी दूसरे ने थोप दी है, ऐसा मालूम पड़ता है। हम आजादी के नीचे भी मुक्त नहीं हुए हैं, दबे-दबे हो गए हैं।
ऐसा लगता है कि आजादी का भी पत्थर छाती पर पड गया है। वह भी एक मुसीबत मालूम होती है। असल में सैकड़ों वर्षों से हमने जिम्मेवारी दूसरों पर डालना सीख लिया है। या तो भगवान पर छोड़ देंगे, भगवान बहुत ही दयनीय है। उस पर कोई भी जवाबदारी डाली जा सकती है। वह बेचारा बहुत ही परेशान होगा, जितनी जवाबदारियां हमने उस पर डालीं, अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि होगी तोे अब तक उसने आत्महत्या कर ली होगी। सारी जवाबदारियां भगवान पर थोंप देने में हम बड़े कुशल हैं। बीमारी हो, अकाल हो, महामारी हो, गरीबी हो, दीनता हो, दासता हो, हम भगवान पर थोंपते हैं। भाग्य पर थोप देंगे, कर्मों के फलों पर थोप देंगे लेकिन एक को हम हमेशा बचा जाएंगे--अपने को। हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। जीते हम हैं और जिम्मेवारी सब दूसरों की है।
नहीं, इस भाषा में प्रश्न ही उठाना उचित नहीं है कि हमारी परिस्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? यह प्रश्न ही गलत इंगित देता है कि कोई जिम्मेवार होगा। हमारी परिस्थिति में तो हम ही जिम्मेवार होंगे। कौन जिम्मेवार होगा? अगर देश में गरीबी है तो मैं जिम्मेवार हूं आप जिम्मेवार हैं। और अगर देश में बीमारी है तो मैं जिम्मेवार हूं, आप जिम्मेवार हैं। जिम्मेवारी दूसरों पर टाल देना बड़ा आसान है, सुलभ है, कनवीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। झंझट मिट जाती है, जिम्मेवारी किसी और की हो जाती है। और हमें जैसे जीना हो, हम जीते चले जाते हैं।
रास्ते पर एक आदमी भीख मांग रहा है, हम पूछते हैं इसको भीख मंगवाने के लिए कौन जिम्मेवार है? फिर किसी एक आदमी का नाम ले लेते हैं, कोई बिरला, कोई और करोेड़पति, वह जिम्मेवार है। फिर हम अपने रास्ते पर चले गए। हम जिम्मेवार नहीं हैं। बिरला के बिरला होने में भी हम जिम्मेवार हैं; सड़क पर भीख मांगने वाले आदमी के भिखमंगेपन में भी हम जिम्मेवार हैं। और जब तक हम सीधी जिम्मेवारी अपने ऊपर न लेंगे तब तक भारत के पास अपना व्यक्तित्व नहीं हो सकता। हम अपना व्यक्तित्व उपलब्ध तभी कर सकेंगे...ध्यान रहे, व्यक्तित्व आता है रिस्पांसिबिलिटी से। दायित्व की स्वीकृति से व्यक्तित्व पैदा होता है। जो व्यक्ति जितना दायित्व स्वीकार कर लेता है उतने बड़े व्यक्तित्व का उसके भीतर जन्म होता है। जो सारी जिम्मेवारियां दूसरों पर छोड़ देता है उसकी आत्मा मरती चली जाती है।
स्वतंत्रता सबसे बड़ा दायित्व है और इसीलिए स्वतंत्रता बहुत घबड़ाने वाली बात है। इसीलिए बीस साल से हम बड़े बैचेन हैं। अंग्रेज थे तो हमें एक सुविधा थी। कुछ भी मुसीबत हो तो हम अंग्रेजों पर टाल देते थे। गोली चले जलियावाले बाग में तो वह अंग्रेज चला रहा है। और बीस साल से गोली चल रही है, वह कौन चला रहा है? अंग्रेजों ने इतनी गोली कभी भी नहीं चलाई थी जितनी हमने बीस सालों में चलाई है। अंग्रेज को इस मुल्क को गुलाम रखनेे के लिए इतनी गोली न चलानी पड़ी जितनी हमें इस मुल्क को स्वतंत्र रखने के लिए चलानी पड़ रही है--आश्चर्यजनक है। लेकिन अब हम किसको जिम्मेवार ठहराएं, इसलिए बड़ी बेचैनी होती है।
अब किसको जिम्मेवार ठहराएं? अंग्रेज थे तो मुल्क गरीब था, क्योंकि अंग्रेज सोना लूट कर ले जा रहे थे, जहाज भर-भर कर सोना यूरोप ले जा रहे थे, तो हम गरीब थे। अब बीस साल से हमको कौन गरीब बनाए हुए है? अब बड़ी मुश्किल है, बड़ी बेचैनी है। अब हम किस पर जिम्मेवारी डालें? बड़ी सुविधा थी गुलामी में कि सदा जिम्मेवारी किसी और की होती है। अगर हम कमजोर थे, अगर वैज्ञानिक न थे, अगर स्वस्थ न थे तो कोई जिम्मेवार था सदा। जिम्मेवारी के लिए खूंटी थी जिस पर हम टांग देते थेे और निशिं्चत सो जाते थे।
आजाद हो जाने से बड़ी मुसीबत हो गई है। सब जिम्मेवारी हमारी है। सच तो यह है, सदा ही सब जिम्मेवारी हमारी थी। एक बार इस मुल्क को यह ठीक से समझ लेना होगा कि जो भी चारों तरफ हो रहा है, हम सब उसमें साथी, सहभागी हैं। अगर मुल्क कुरूप है तो इसकी कुरूपता में मैं भागीदार हूं। अगर मुल्क में दंगा होता है तो उस दंगे में मैं भागीदार हूं। अगर अहमदाबाद में कोई किसी की छाती में छुरा भोंकता है तो...मेरी सफेद चादर पर भी उसका खून का दाग है क्योंकि मैं भी इस मुल्क में हूं। और मैं जैसा मुल्क बना रहा हूं, इस मुल्क में कोई किसी की छाती में छुरा भोंकना संभव बना पाता है। उसमें मैं भागीदार हूं, उसमें मैं बच नहीं सकता। और अगर मैं बचने की कोशिश करूंगा तो फिर ठीक है, बहुत आसान है। कुछ लोग पकड़े जा सकते हैं कि ये गुुंडे हैं, तो इनको सजा दे दों। बात खत्म हो जाती है, लेकिन मुल्क फिर वही रहेगा, हम फिर वही रहेंगे, फिर किसी दूसरे गांव में छुरा चलेगा, क्योंकि हम परिस्थितियां मौजूद करते रहेंगे जिनमें छुरे भोंके जाते हैं।
नहीं, इस देश को सामूहिक दायित्व की धारणा को सीखना पड़ेगा। हम सब जिम्मेवार हैं। अमीर ही जिम्मेवार नहीं है, गरीब को गरीब बनाने में। गरीब भी उतना ही जिम्मेवार है। मुझसे लोग पूछते हैं, स्त्रियां मुझसे आकर पूछती हैं कि हमारी गुलामी के लिए कौन जिम्मेवार है? पुरुष जिम्मेवार हैं, उनका खयाल है। और स्त्रियां जिम्मेवार नहीं हैं? आधी स्त्रियां हैं पृथ्वी पर, आधी से थोड़ी ज्यादा ही होती हैं हमेशा, क्योंकि पुरुष तो कुछ युद्धों में मर जाते हैं, कोइ कहीं और मर जाते हैं, मरने की कई तरकीबें खोज लेते हैं। स्त्रियां थोड़ी ज्यादा ही बढ़ जाती हैं। ऐसे भी लड़कियां पुरुष से बचने में ज्यादा शक्तिशाली हैं, उनका रेसिस्टेंस ज्यादा है। इसलिए प्रकृति भी एक सौ सोलह लड़के पैदा करती है और सौ लड़कियां पैदा करती है। लेकिन शादी की उम्र होते-होते तक सोलह लड़के मर जाते हैं--सौ रह जाते हैं और लड़कियां सौ की सौ रह जाती हैं। लड़के की ताकत कम है जिंदगी से लड़ने की, हालांकि खयाल है पुरुष को कि हम बड़े ताकतवर हैं, लेकिन रेसिस्टेंस कम है। अगर बीमारी आए तो पुरुष जल्दी फंस जाएगा बीमारी के चक्कर में, स्त्री देर से फंसेगी। असल में स्त्री को प्रकृति ने मां बनने के लिए खड़ा किया है तो उसको बहुत झेलने की क्षमता होनी चाहिए।
स्त्रियां आधे से ज्यादा हैं, और गुलामी के लिए पुरुष जिम्मेवार हैं और वे खुद जिम्मेवार नहीं हैं? तो अगर स्वतंत्रता पुरुष उनको देगा तो वे स्वतंत्र हो जाएंगी। ध्यान रहे, दी हुई स्वतंत्रता दोे कौड़ी की है, क्योंकि दी गई स्वतंत्रता कभी भी वापस ली जा सकती है। आज भी दुनिया में स्त्रियों को मुक्त करने के जो आंदोेलन चलते हैं वे पुरुष चलाते हैं। उसकी बात भी पुरुषों को करनी पड़ती है। अजीब लड़ाई है, पुरुषों को पुरुषों से ही लड़ना पड़ता है। स्त्रियां देखती हैं कि पुरुष स्वतंत्र कर दें उन्हें। लेकिन दी गई स्वतंत्रता कितनी कीमत रखती है? ली गई स्वतंत्रता का ही कोई मूल्य होता है। जो हम लेते हैं संघर्ष से, उससे शक्ति आती है। लेकिन वह तो हम तभी लेंगे जब जिम्मेवार हम अपने को समझें। अगर दुनिया की स्त्रियां समझ लें कि हम जिम्मेवार हैं गुलामी के लिए, तो उन्हें कोई गुलाम नहीं रख सकता है। अगर हम अपने दायित्व को समझ लें तो हमारा परिवर्तन अभी शुरू हो जाता है। तो वह जो मित्र मुझसे पूछते हैं, उनसे कहना चाहता हूं कि हम जिम्मेवार हैं, हम जवाबदार हैं, हम रिस्पांसिबिल हैं--हम इकट्ठे; किसी एक तरफ इशारा नहीं किया जा सकता।
जिंदगी सामूहिक है। जिंदगी सहजीवन है। हम साथ इकट्ठे खड़े हैं। दुख में, पीड़ा में, गुलामी में, सुख में, आनंद में, हम सब सहभागी हैं। इसलिए जिम्मेवारी कहीं और खोजने अगर हम गए तो वह जिम्मेवारी से बचने का रास्ता है। बचने से बदलाहट नहीं होगी। हमे स्वीकार करना ही होगा--हम ही जिम्मेवार हैं। और यह स्वीकृति क्रांति शुरू कर देती है, क्योंकि जब मुझे लगता है कि मैं जिम्मेवार हूं तो फिर मेरे हाथ उस सहयोग से पीछे हटने लगते हैं, जो देश में बुराई लाता है। जब मुझे लगता है कि मैं जिम्मेवार हूं, तब मैं पीछे हटने लगता हूं--कम से कम अपने सहयोग को तो अलग कर लूं। कम से कम मैं तो इस भांति जीऊं कि मैं इस देश को बदलने के लिए कुछ छोटा सा रास्ता बना सकंू। और अगर एक-एक आदमी जिम्मेवारी समझे तो यह देश बदल सकता है। यह अब तक नहीं बदला क्योंकि जिम्मेवारी सदा दूसरे की थी।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि इंदिरा गांधी आदि नेता समाजवाद लाने में सफल नहीं हो सकेंगे, ऐसा आप क्यों कहते हैं?

कहने का कारण है। अगर किसी बच्चे को बूढ़ा बनाना हो तो भी जवानी से गुजारना जरूरी होगा। जिंदगी स्टेजस में चलती है, जिंदगी में छलांगें नहीं हैं। बचपन से कोई आदमी छलांग लगा कर बूढ़ा नहीं हो सकता है, जवानी से गुजरना पड़ेगा। समाजवाद आसमान से नहीं उतरता है, समाजवाद पूंजीवाद का अंतिम फल है। पूंजीवाद परिपक्व हो तो ही समाजवाद आ सकता है। और पूंजीवाद पका हुआ न हो तो समाजवाद नहीं आ सकता। और अगर लाने की कोशिश की गई तो समाजवाद तो आएगा ही नहीं, पूंजीवाद तक लाना मुश्किल हो जाएगा। और देश की स्थिति सामंतवादी रह जाएगी, पूंजीवाद से भी पिछड़ी अवस्था रह जाएगी। आदमी पूंजीवाद से भी पीछे की अवस्था में है। हम पूंजीवाद की अवस्था में भी नहीं हैं। इसलिए मैं कहता हूं, अभी समाजवाद की बातें प्रीमेच्योर हैं, अप्रौढ़ हैं। समाजवाद का लक्ष्य ठीक है। समाजवाद लाना है, यह भी ठीक है, लाना ही पड़ेगा, लाना ही चाहिए। लेकिन देश पूंजीवाद की प्रक्रिया से न गुजरे तो समाजवाद ऊपर से थोपा गया होगा, जैसे प्लास्टिक के फूल लगा दिए जाएं। असली फूल के लिए जड़ें चाहिए, बीज चाहिए, पौधा चाहिए। अगर कोई हमसे कहे कि प्लास्टिक के फूल में क्या हर्ज है? तो मैं नहीं कहता कि कोई हर्ज है, लेकिन प्लास्टिक का फूल ठीक से समझा जाए तो फूल है ही नहीं।
हम समाजवाद को ऊपर से थोप सकते हैं जबकि मुल्क की आत्मा अभी पूंजीवादी भी नहीं हो पाई है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप पूंजीवाद की भी बात करते हैं, समाजवाद की भी। आप बड़ी विरोधी बातें करते हैं!

वह मित्र को अंदाज नहीं है, पूंजीवाद और समाजवाद में विरोध नहीं है। पूूंजीवाद की ही विकसित अवस्था समाजवाद है। जवानी में, बुढ़ापे में विरोध दिखाई पड़ सकता है। बूढ़ा कह सकता है कि बड़ा दुख है कि अब मैं जवान न रहा। लेकिन उसकी जवानी ही उसको बुढ़ापे तक लाई है। बुढ़ापे और जवानी में विरोध नहीं है। बुढ़ापा जवानी की ही विकसित अवस्था है। कच्चे फल में और पके फल में विरोध नहीं है। पका फल कच्चे फल की अवस्था है। हलांकि दोेनों मे बुनियादी फर्क है। कच्चा फल कभी गिर नहीं सकता। पका फल वृक्ष से गिर जाएगा। लेकिन कच्चा फल ही पके फल के लिए रास्ता बनता है। यह खयाल में मत लें कि पूंजीवाद और समाजवाद में विरोध है। पूंजीवाद और समाजवाद दुश्मन नहीं है। पूंजीवाद की ही प्रक्रिया का परिणाम समाजवाद है। असल में पूंजीवाद ही समाज को उस स्थिति में लाता है, जहां समाजवाद संभव हो सके। और इसलिए समाजवाद जब आएगा तो हमें पूंजीवाद को धन्यवाद ही देना पड़ेगा। उसके बिना कभी समाजवाद नहीं आ सकता है।
लेकिन हम जिंदगी को सदा दोे हिस्सों में तोड़ कर देखने के आदी हैं। हम विरोध में ही सोचते हैं। हम सब चीजों को विरोध में तोड़ लेते हैं कि यह-यह विरोध है। लेकिन विरोध कहां है? अगर पूंजीवाद पूंजी पैदा करेगा तो ही पूंजी का वितरण हो सकता है। पूंजीवाद के पहले समाजवाद दुनिया में क्यों न आ सका? माक्र्स के पहले बुद्धिमान लोग पैदा न हुए थे? कोई बुद्ध में कम बुद्धिमानी थी--कि महावीर में, कि कनफ्यूशियस में, कि क्राइस्ट में? लेकिन किसी को समाजवाद का खयाल न आया। तो उसका कारण था कि पूंजीवाद ही न आया हो तो समाजवाद का खयाल पैदा ही नहीं हो सकता।
माक्र्स कोई कृष्ण, बुद्ध या महावीर से ज्यादा बुद्धिमान आदमी न था। लेकिन माक्र्स एक नई स्थिति में था, जहां पूंजीवाद आना शुरू हो गया था। इसलिए माक्र्स सोच सकता था समाजवाद की बात। और माक्र्स के खयाल में भी समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी न था। वह पूंजीवाद की ही चरम सीमा थी जहां से पूंजीवाद के भीतर की शक्तियां बिखर कर समाजवाद को ले आएंगी। माक्र्स ने कभी सोचा भी न था कि रूस में समाजवाद पहले आ जाएगा! रूस पूंजीवादी देश न था। माक्र्स की भविष्यवाणी रूस के लिए न थी। माक्र्स की कल्पना में भी नहीं हो सकता था कि चीन में समाजवाद पहले आ जाएगा। चीन बहुत पिछड़ा हुआ मुल्क है। सामंतवादी मुल्क है। चीन भी अभी पूंजीवाद नहीं था। और इसलिए चीन को जबरदस्ती समजवादी बनाने की जो चेष्टा चल रही है, जैसे बच्चे को जबरदस्ती बूढ़े बनाने की चेष्टा में जितनी तकलीफ उठानी पड़े उतना खून गिराना पड़ रहा है, उतनी परेशानी हो रही है। रूस में भी वह हुआ।
अगर माक्र्स जिंदा हो जाए तो बहुत हैरान होगा कि रूस में समाजवाद आया कैसे? क्योंकि रूस तो पूंजीवादी ही न था। रूस तो पूरा फ्यूडल था, वहां कभी पूंजी की कोई उत्पत्ति न हुई थी, कोइ औद्योगीकरण न हुआ था। लेकिन रूस के क्रांतिकारियों ने जबरदस्ती समाजवाद थोपने की कोशिश की। चालीस साल जबरदस्ती समाजवाद थोपने के परिणाम में रूस को इतनी पीड़ा झेलनी पड़ी, जितनी पूंजीवाद--इतनी पीड़ा--कभी भी किसी को नहीं दे सकता है; न कभी दी है। इतनी कंडेंस्ड वायलेंस, इतनी सघन पीड़ा से रूस को गुजरना पड़ा। अगर हम उतनी ही पीड़ा से गुजरने को तैयार हों तो इंदिरा जी समाजवाद ला सकती हैं। लेकिन उतनी पीड़ा से गुजरने को भारत तैयार नहीं है, और न तैयार किया जाना चाहिए, और न इंदिरा जी की समझ में है कि उतनी पीड़ा से गुजारना पड़ेगा--तब समाजवाद आ सकता है।
असल में अगर हमें पानी को भाप बनाना है तो सौ डिग्री तक गर्म होने देना पड़ेगा। सौ डिग्री तक पानी गर्म हो जाए तो भाप बन सकता है। भाप पानी की उलटी अवस्था नहीं है, सौ डिग्री के बाद की अवस्था है। भाप विरोध नहीं है, सौ डिग्री के बाद की अवस्था है। पूंजीवाद जब सौ डिग्री पर उबलता है तो समाजवाद आना शुरू होता है। एक तो नैसर्गिक प्रक्रिया है कि पानी धीरेे-धीरे गर्म होकर सौ डिग्री पर पहुंचे, और एक व्यवस्था यह है कि सारे घर में आग लगा कर एकदम पानी को गर्म कर लिया जाए। सारे घर में आग लगा कर भी पानी गर्म हो सकता है। लेकिन उसमें पानी ही भाप नहीं बनेगा, घर के मेहमान भी, सब मित्र भी, सब रहने वाले भी भाप बन जायेंगे।
मैं चाहता हूं कि यह देश समाजवादी हो। कोई भी सहानुभूति, थोड़े भी प्रेम से, थोड़ी भी करुणा से, थोड़ी भी समझ से भरा हुआ आदमी हो तो समाजवाद के विरोध में नहीं हो सकता। सब बुद्धिमान आदमियों को साम्यवादी, समाजवादी होना ही पड़ेगा। वह अनिवार्यता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कहूं कि आज समाजवाद थोपने की चेष्टा की जाए। हालांकि पूरा मुल्क का मन कहेगा कि ठीक है। बहुत सुखद है। यह गरीब को आश्वासन लगता है।
आजादी से भी गरीब को आश्वासन लगा था। हिंदुस्तान के गरीब ने बड़े सपने बांधे थे कि आजादी आने पर स्वर्ग आ जाएगा। लेकिन गरीब बहुत डिसइल्यूजंड हुआ। जब आजादी आई तो पता चला कि स्वर्ग वगैरह कुछ भी न आया। दोे-चार दिन प्रतीक्षा की पंद्रह अगस्त के बाद कि अब आता होगा, थोड़ी देर लग सकती है। हिंदुस्तान में सभी चीजें समय के थोड़ी देर से आती हैं, लेट हो जाए गाड़ी शायद स्वर्ग की। दोे-चार दिन प्रतीक्षा की, लेकिन झोपड़े वाले ने पाया कि झोपड़ा झोपड़ा है। उसका भूखा बच्चा भूखा है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। कितने सपने आजादी के साथ जोड़े थे, खयाल है आपको? नई पीढ़ी को कुछ खयाल में नहीं आता, पुरानी पीढ़ी ने कितने सपने देखे थे। आजादी आते से सब आ जाएगा। आजादी के आतेे से कुछ भी नहीं आ जाता। आजादी आते से सिर्फ गुलामी मिटी है। और आजादी आने से सवाल आए, हल नहीं आ गया। हल आ भी नहीं सकता।
अभी सारा मुल्क इस नये नशे से पीड़ित होगा कि समाजवाद आ जाए तो सब आ जाएगा। वह समाजवाद की बातें बहुत मोहक लगेंगी, जैसे आजादी की बातें बहुत मोहक लगी थीं। अगर हम अपने मुर्दा शरीरों को जिंदा कर सकें, भगतसिंह को, राजगुरु को, चंद्रशेखर को अगर वापस कब्रों से उठा कर खड़ा कर सकें और कहें कि तुम इस मुल्क के लिए फांसी पर लटके थे, यह आजादी आ गई--तो भगतसिंह भगवान से प्रार्थना करेगा कि बड़ी गलती हो गई। इस मुल्क के लिए हम मरे थे? इस आजादी के लिए? इसी आजादी के लिए हमने कुर्बानी की थी? भगतसिंह ने कौन से सपने देखे होंगे कारागृह में, जिनके लिए मरना आसान हो गया? बड़े सपने देखे होंगे। वह यही मुल्क है, जिसके लिए सौ वर्षों से लोग मरे थे? नहीं, वह सपने का मुल्क कभी नहीं आया।
अब यह समाजवाद का सपना--नया सपना पैदा हो रहा है। असल में बीस साल में देश के नेताओं को ऐसा अनुभव हुआ कि आजादी के आ जाने के बाद देश के पास कोई सपना नहीं रह गया। तो समाजवाद का सपना ही एक सपना हो सकता है अब। समाजवाद के सपने में मुल्क पीड़ित होगा। लेकिन मैं मानता हूं कि मुल्क की स्थितियां ऐसी नहीं हैं कि समाजवाद आज फलित हो सके। देश को संपत्ति पैदा करनी पड़े, पूंजी पैदा करनी पड़े। अगर देश संपत्ति और पूंजी पैदा न करे तो बांटने का सवाल नहीं उठता। बंटेगा क्या? सिर्फ गरीबी बंट जाएगी, हम और गरीब मालूम पड़ेंगे, और कुछ भी नहीं हो सकता है।
इसलिए मैं कहता हूं, इंदिरा जी, या इंडीकेट, या कोई भी इस मुल्क को अभी समाजवादी नहीं बना सकते, लेकिन समाजवाद के नाम पर एक इलेक्शन और जीत सकते हैं। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता है। एक इलेक्शन बहत्तर का वह जीत जाएंगे, और उनके सामने बहत्तर से आगे कोई इरादे भी नहीं हैं। बहत्तर का इलेक्शन ही जीत जाएं तो बहुत है। बहुत जोर से बात करेंगे। अभी तो समाजवाद की बात बहुत जोर से चलेगी। इतने जोर से कि सारा मुल्क एकदम समाजवाद से ही चिंतन करता हुआ मालूम पड़ेगा कि समाजवाद, समाजवाद, समाजवाद! लेकिन समाजवाद की छलांग यह मुल्क नहीं लगा सकता।
यह मुल्क अभी फ्यूडल सिस्टम के बाहर आ रहा है। अभी फ्यूडल सिस्टम के, सामंतवादी व्यवस्था के भी बाहर नहीं हो पाया है। पूंजीवादी नहीं हो पाया है। क्योंकि पूंजीवाद की प्रक्रिया का बड़ा हिस्सा है इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन, एक औद्योगिक क्रांति हो जानी चाहिए। तो मुल्क में औद्योगिक क्रांति अभी भी नहीं हो पाई है। अभी भी हमारा अस्सी प्रतिशत व्यक्ति खेत पर निर्भर है। अस्सी प्रतिशत आदमी खेत पर ही जिंदा है। बाकी बीस प्रतिशत आदमी भी, वह जो अस्सी प्रतिशत आदमी खेत पर जिंदा हैं, उसके शोषण पर जिंदा हैं। अभी देश औद्योगिक नहीं हो गया। अभी गांव हैं, अभी गांव नगर नहीं बन गए। अभी देश का गरीब आदमी मध्यमवर्गीय भी नहीं हो गया है कि वह सोच सके सम्पत्ति के संबंध में, धन के संबंध में। और धन पैदा कैसे हो? क्योंकि हमारे सारे उपकरण आज भी प्रीमिटिव हैं, आज भी आदिम हैं। आज भी हम आदिम बातों पर बैठे हुए हैं। और आदिम बातों से संपत्ति पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। एक आदमी खेत में बैल को लगा कर जुता हुआ है। बैल को ईजाद हुए कोई पांच हजार साल हो गए। पांच हजार साल पहले जिस आदमी ने बैल जोता था खेत में, वह बड़ा क्रांतिकारी आदमी रहा होगा। लेकिन पांच हजार साल बाद भी जो बैल जोत रहा है, उसकी बुद्धि पर शक होता है।
हम अभी औद्योगिक क्रांति से नहीं गुजरे। उद्योग बढ़े, संपत्ति इतनी आए कि देश में बांटी जा सके तो समाजवाद चरितार्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं, कोई अभी समाजवाद नहीं ला सकता है। इसमें कोई इंदिरा जी या उनके साथियों की कमजोरी नहीं है। इसमें देश की वैज्ञानिक स्थिति जैसी है, उसकी मौजूदगी कारण है। इसलिए मैं चाहूं, या कोई भी चाहे तो समाजवाद नहीं ला सकता। और अगर लाना हो तो फिर एक ही रास्ता है--फिर स्टैलिन जैसा नेता चाहिए, या माओ जैसा नेता चाहिए जो समाजवाद लाने के लिए इतना खून कर सके, इतनी हत्या कर सके। उतनी हत्या की हमारी तैयारी नहीं दिखाई पड़ती है कि हम इतनी हत्या के लिए राजी हो जाएं।
फिर लोकतंत्र नहीं चाहिए क्योंकि लोकतंत्र समाजवाद नहीं ला सकेगा, इस हालत में। लोकतंत्र समाजवाद ला सकता है अमरीका जैसी हालत में, इस हालत में नहीं ला सकता है। इस हालत में तो बंदूक का कुंदा हो, और छाती के पीछे तोप लगी हो और पूरे वक्त मरने का डर हो, जबरदस्ती काम लिया जा सके औेर जबरदस्ती धन पैदा करवाया जा सके, तो शायद पचास वर्ष की हत्या और हिंसा के बाद हम थोड़ी बहुत संपत्ति पैदा कर सकें। लेकिन आज भी रूस अमीर नहीं हो सका है। पचास साल के अनुभव के बाद भी रूस एक गरीब देश है। हमें लगेगा कि अगर रूस गरीब देश है तो चांद पर पहुंचने की कोशिश कैसे करता है? वह कोशिश ऐसे ही है जैसे एक गरीब आदमी सिल्क का कुर्ता पहन कर और सामने के पड़ोसी धनी आदमी के सामने अकड़ कर निकले--चाहे घर में भूखा रह जाए। रूस की कोशिश वैसी है, इसलिए रूस पिछड़ भी गया है उस दौैड़ में। क्योंकि वह दौैड़ इतनी महंगी थी कि अमरीका के लिए शौक था, रूस के लिए जान की बन गई, इसलिए पिछड़ना भी पड़ा उस दौैड़ में। और फिर नीचे जनता का दबाव भी बढ़ा कि घर में खाने को न हो...।
पिछले कुछ वर्षों से रूस को भी गेहूं कनाडा से खरीदना पड़ रहा है। चालीस साल के समाजवाद के बाद भी गेहूं बाहर से खरीदना पड़े तो थोड़ा सोचने की बात है। थोड़ा विचारने की बात है। मैं आपसे कहता हूं कि आने वाले पांच वर्षों के बाद अमरीका ही रूस को गेहूं दे सकेगा। अमरीका के ही गेहूं पर रूस को भी पलना पड़ेगा जैसा हमको पलना पड़ रहा है। और यह बात साफ होती चली जा रही है क्योंकि पचास वर्ष की जबरदस्ती के कारण प्रेरणा तो बिलकुल मर गई है। कोई काम नहीं करना चाहता है रूस में। और जबरदस्ती कब तक काम लिया जा सकता है? पूरा रूस एक कनसनट्रेशन कैंप हो गया है, एक कारागृह हो गया है, जिसमें जबसदस्ती काम लिया जा रहा है। जिसमें आदमी को मरने के डर से काम लिया जाता है। कब तक ऐसा चल सकता है? थोड़ी देर चल सकता है। बहुत देर के बाद मुश्किल हो जाता है, आदमी इनकार कर देता है। या इतना मृत्यु से भी राजी हो जाता है कि कहता है कि ठीक है, मर ही जाएं--जो कुछ होगा, होगा। लेकिन रूस अमीर नहीं है। आज भी रूस के पास कितनी कारें हैं? कितने लोगों के पास ठीक कपड़े हैं? कितने लोगों के पास ठीक भोजन है? जो यात्री जाते हैं वे गलत खबरें लेकर आ जाते हैं, क्योंकि उनके ठहरने के लिए खास होटलें हैं, खास दुकानें हैं खरीदने के लिए, खास आदमी हैं बात करने के लिए, जिससे वे बात करके लौटते हैं। लेकिन इधर-उधर भटक कर थोड़ा रूस में खोजना बड़ा सवाल है, और तरह का सवाल है।
रूस अमीर नहीं हो सका,और यह अनुभव में आ रहा है उन्हें, कि कहीं कोई भूल हो गई है। फिर भी स्टैलिन बहुत हिम्मत का आदमी था। उतने हिम्मत का आदमी हिंदुस्तान में कृष्ण के बाद तो पैदा नहीं हुआ। अगर कृष्ण हमको फिर से मिल जाएं तो कृष्ण हिम्मत के आदमी हैं। वे कहते हैं, कोई फिकर नहीं--मारो, क्योंकि आत्मा मरती ही नहीं है इसलिए कोई चिंता नहीं है। कृष्ण हमको मिल जाएं तो समाजवाद लाया जा सकता है। और रूस से ज्यादा हत्या करनी पड़ेगी भारत में, रूस से बहुत ज्यादा हत्या करनी पड़ेगी क्योंकि भारत रूस से बहुत ज्यादा आलसी है। इतने आलस में हमें हत्या के सिवाय कोई रास्ता न रह जाएगा।
लेकिन इंदिरा जी को और उनके साथियों को कोई अंदाज नहीं है। अंदाज का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि भीड़ जिस बात से राजी, वह बात कहनी चाहिए--नेता तभी नेता बना रह सकता है। नेता को कोई दूरदर्शी होने की जरूरत नहीं है। दूरदर्शी आदमी नेता नहीं हो सकता। नेता को शॉर्ट साइटेड होना चाहिए, पास ही दिखाई पड़ना चाहिए, दूर दिखाई पड़ना ही नहीं चाहिए, तभी नेता हो सकता है। और अगर नेता अंधा हो तो और भी अच्छा नेता हो सकता है। क्योंकि बिलकुल दिखाई न पड़े तो वह ऐसे नारे लगा सकता है जो कि देखने वाला कभी भी नहीं लगा सकता। और अंधों के देश में नेता होने के लिए अंधा होना क्वालीफिकेशन है--योग्यता है।
तो, मैं कहता हूं कि नहीं इंदिरा जी और न कोई और समाजवाद ला सकता है। समाजवाद आएगा, लेकिन पचास साल मुल्क को औद्योगीकरण से गुजारना जरूरी है। पचास साल मुल्क को पूंजीवाद की ठीक-ठीक तीव्र्रतम अवस्था पानी जरूरी है। पचास साल बाद समाजवाद की बातें अर्थपूर्ण हो सकती हैं। लाना तो पड़ेगा ही। पूंजी की व्यवस्था संक्रमण की व्यवस्था है, अंतिम फल तो समाजवाद होना ही चाहिए। लेकिन पूंजीवाद भी लाना पड़ेगा।
अब ये बातें मेरी उलटी दिखाई पड़ सकती हैं। ये बातें उलटी दिखाई पड़ सकती हैं कि मैं कहता हूं कि समाजवाद लाना है और पूंजीवाद लाना पड़ेगा। आपको दिखाई पड़ती होंगी उलटी, उलटी नहीं हैं। क्योंकि मैं उनको विकास के चरण मानता हूं। लेकिन हम कैसे ला पाएंगे पूंजीवाद? गांधी जी ने इस देश कोे जो विचार दिया है वह सामंतवादी है। वह पूंजीवाद तो नहीं लाता, वह पूंजीवाद से नीचे गिराता है। क्योंकि सब व्यस्थाएं उपकरणों पर निर्भर होती हैं। चरखा सामंतवादी व्यवस्था का उपकरण है। चरखे के द्वारा इतना ही पैदा हो सकता है कि किसी तरह अधपेट भरा आदमी सो सके। इससे ज्यादा पैदा नहीं हो सकता। चरखे के द्वारा पूंजी अतिरिक्त पैदा नहीं हो सकती है। हाथ के द्वारा खेत में काम करने से कोई बहुत पूंजी पैदा नहीं हो सकती। हाथ से कपड़ा बुनने से पूंजी पैदा नहीं हो सकती। ये सामंतवादी उपकरण हैं, इनके द्वारा रामराज्य लाया जा सकता है, समाजवाद नहीं लाया जा सकता है।
रामराज्य का मतलब है, बहुत पीछे लौट जाना--तीन हजार साल पीछे लौट जाना। गांधी जी इतने डरे हुए थे पूंजीवाद से कि वे सामंतवाद की बात करने लगे, पीछे लौट चलें। पीछे लौट जाओ। बड़े उद्योग का उन्हें बड़ा खतरा लगा, तो छोटे उद्योग रखो जिससे संपत्ति ही पैदा न होगी तो खतरा न होगा। पीछे लौट चलो। इतना कम सामंतवादी व्यवस्था में आदमी एक अर्थ में बड़ा अच्छा आदमी था। अच्छा इसलिए था कि उसके पास बुरे होने की ताकत भी न थी। आखिर बुरे होने के लिए भी ताकत चाहिए। और मेेरा मानना है कि जो आदमी बुरा नहीं हो सकता, उसकी अच्छाई का कोई मतलब नहीं है। एक बीमार आदमी अगर सड़क पर जाकर उपद्रव न करता हो, और एक बीमार बच्चा अगर बाप की चुपचाप आज्ञा मान लेता हो, तो शुभ नहीं है। उस बच्चे की आज्ञा का कोई अर्थ है, जो चाहे आज्ञा तोड़ना तो तोड़ सके। उस आदमी के अच्छे होने का प्रयोजन है, जोे चाहे बुरा होना तो हो सके। सामंतवाद ने इतनी दीन-हीन व्यवस्था दी आदमी को कि बुरे होने तक का उपाय न था। तो आदमी अच्छा था!
गांधी जी को लगता है कि उन्हीं अच्छे दिनों में वापस लौट चलें। वे दिन अच्छे न थे, सिर्फ रुग्ण, कमजोर दिन थे। अच्छे दिन आगे आ सकते हैं। अच्छे दिनों की संभावना आगे है, पीछे नहीं। तो अगर गांधी जी का विचार मान कर हम चलते हैं तो पूंजीवाद भी त्वरित नहीं हो पाएगा, पूंजीवाद भी धीमा गति पकड़ लेगा। और पूंजीवाद जितना धीमा होगा, समाजवाद का नक्शा उतना ही दूर मानना चाहिए। पंूजीवाद में त्वरा, स्पीड लाने की जरूरत है। औद्योगीकरण में स्पीड लाने की जरूरत है। चरखे से वह स्पीड में बाधा पड़ रही है। वह चरखा हटना चाहिए बीच से। तो पचास साल में औद्योगीकरण हो सकता है देश का। मशीन लाई जा सकती है, मशीन से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। केंद्रत संपत्ति पैदा हो सकती है। तो समाजवाद भी संभव है।
गांधी जी को अगर हम केंद्र पर रख कर चलते हैं तो देश पूंजीवादी ही नहीं हो पाएगा, समाजवादी होने की बात तो बहुत दूर है। इसीलिए गांधी जी को सारी दुनिया में वे सारे लोग, जो समाजवाद से डरे हुए हैं, आदर दे रहे हैं। उनका कुल कारण इतना है कि गांधी ही दुनिया को समाजवाद से बचा सकते हैं। बिड़ला नहीं बचा सकते हैं। बिड़ला तो समाजवाद में ले ही जाएंगे। दुनिया का कोई पूंजीपति दुनिया को समाजवाद से नहीं बचा सकता। अमरीका के पूंजीपति दुनिया को समाजवाद से नहीं बचा सकते। सब पूंजीवादी मिल कर जो कर रहे हैं, उसका अंतिम परिणाम समाजवाद ही होगा। लेकिन गांधी जी बचा सकते हैं, क्योंकि वह पूंजीवाद से पीछे की व्यवस्था में लौटने की बात करते हैं। जितना तीव्र और इंटेंस होगा उतनी जल्दी समाजवाद का सपना पूरा हो सकता है।
लेकिन हमारा चिंतन बहुत अजीब है। एक तरफ हम समाजवाद की बात भी करेंगे, दूसरी तरफ गांधी जी का जयकार भी करते रहेंगे। यह दोेनों में विरोध है, क्योंकि गांधी जी का समस्त चिंतन सामंतवादी प्रक्रिया में ले जाएगा। वह पूंजीवाद के पहले की व्यवस्था है, पूंजीवाद के बाद की व्यवस्था नहीं है। मै पूंजीवाद का विरोधी नहीं हूं इस अर्थों में कि पूंजीवाद समाजवाद में ले जाने वाला है। मैं पूंजीवाद का विरोेधी हूं, इस अर्थों में कि पूंजीवाद पर ही नहीं रुक जाना है, समाजवाद तक पहुंचना है। मैं समाजवाद का पक्षपाती हूं क्योंकि समाजवाद के बिना जगत से गरीबी और दुख और दारिद्रय नहीं मिट सकता है। लेकिन मैं पूंजीवाद का समर्थन करता हूं क्योंकि पूंजीवाद के पूर्ण विकास के बिना समाजवाद नहीं आ सकता है। इनको सोचना पड़ेगा, ये विरोधी बातें नहीं हैं। ये विरोधी दिखाई पड़ सकती हैं।

एक और मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, अमरीका जैसी समृद्धि देश में लानी है, तो अमरीका में तो मानसिक अशांति बढ़ी है, व्यभिचार बढ़ा है, आचरण का पतन हुआ है, चारित्र्य नीचे गया है। हमारे देश का चरित्र और आचरण तो बहुत ऊंचा है!

यह थोड़ा सोचना पड़ेगा। यह हमारे देश के चरित्र और आचरण के संबंध में बहुत विचार करने की जरूरत है। तीन बातें उन्होंने कही हैं, वह विचार करनी चाहिए। पहली बात तो यह कि आम खयाल यह है, और ठीक है कि अमरीका मेें मानसिक अशांति बढ़ी है। लेकिन मानसिक अशांति आपको पता है, कब बढ़ती है? मानसिक अशांति तब बढ़ती है जब शरीर की सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं, उसके पहले नहीं बढ़ती है। जानवरों में मानसिक अशांति नहीं होती है। लेकिन इसलिए हम जानवर होना पसंद न करेंगे। आदिवासियों में मानसिक अशांति नहीं होती है, लेकिन हम आदिवासी होना पसंद न करेंगे। असल में मानसिक अशांति होती तब है जब शरीर की सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब मन की मांग शुरू होती है। अब जो आदमी भूखा बैठा है, खाना नहीं है, कपड़ा नहीं है, मकान नहीं है, उसको मानसिक अशांति नहीं हो सकती है। उसकी शारीरिक अशांति इतनी बड़ी है--मानसिक अशांति का उपाय नहीं है।
जब शारीरिक अशांति मिटती है तो मनासिक अशांति शुरू होती है। मानसिक अशांति एक अर्थ में विकास है। और जब मन की भी सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो आत्मिक अशांति शुरू होती है। वह और बड़ा विकास है। आत्मिक अशांति तीसरी बात है। बुद्ध और महावीर आत्मिक रूप से अशांत थे, मानसिक रूप से नहीं। बुद्ध और महावीर की शरीर की जरूरतें पूरी थीं, मन की भी जरूरतें बहुत पूरी थीं। मन की हमारी जरूरतें पूरी नहीं हैं, अमरीका की भी जरूरतें पूरी नहीं हैं। तो बुद्ध और महावीर ने एक नई अशांति अनुभव की--मानसिक नहीं, आध्यात्मिक--एक स्प्रिचुअल अनरेस्ट पैदा हो गया।
अब बुद्ध को जितनी भी उस देश में सुंदर स्त्रियां हो सकती थीं--उनके पिता ने सब उनके महल में इकट्ठी कर दी थीं। अब मानसिक अशांति का उपाय न रहा। मानसिक अशांति अब क्या करे? सब स्त्रियां जो चाही जा सकती थीं मिल गयीं। संुदरतम मकान मिला, सुंदरतम निवास मिला, सब सुविधा मिली, शरीर की सब जरूरतें पूरी हो गईं। संगीत मिला, साहित्य मिला, चित्रकला मिली, नृत्य मिला, सब मिल गया। शरीर और मन की सब जरूरतें पूरी हो गईं। तो बुद्ध को एक नई अशांति ने पकड़ा, स्प्रिचुअल अनरेस्ट--कि हमको परमात्मा पाना है। हमको सत्य पाना है। हम बिना सत्य पाए नहीं रह सकते। तो क्या आप कहेंगे कि बुद्ध की हालत अच्छी नहीं है?
ध्यान रहे, अशांतियों के भी तल हैं। शारीरिक अशांति निकृष्टतम अशांति है। मानसिक अशांति उससे ऊंची अशांति है। आध्यात्मिक अशांति और भी ऊंची अशांति है। और ध्यान रहे, जिस तल पर हम शांत होंगे उसी तल पर शांत हो सकते हैं। जिस तल पर हम अशांत भी नहीं हुए उस तल पर हम शांत कैसे होंगे?
भारत मानसिक रूप से अशांत होने में अभी समर्थ नहीं है। अभी शारीरिक तल पर अशांति है। अभी पेट भूखा है। शरीर के तल पर अशांति है। तो हम सोचते हैं कि शायद हम मानसिक रूप से शांत हैं, आप गलती में हैं। मानसिक रूप से शांत होने के लेवल तक भी हम अभी नहीं पहुंचे हैं। इसलिए हम शांत मालूम पड़ रहे हैं। हमारी शांति वास्तविक नहीं है। हमारी शांति बिलकुल झूठी है क्योंकि हम अशांत ही नहीं हुए जिस तल पर, उस पर हम शांत कैसे हो जायेंगे?
अमरीका शरीर के तल पर शांत हुआ है तो मन के तल पर अशांत हुआ है। यह मनुष्य के एवोल्यूशन का दूसरा कदम है। बेचैन हंै, तकलीफ है, लेकिन ध्यान रहे, जब वे मानसिक रूप से अशांत हुए हैं तो वे मानसिक शांति की तलाश में लग गए हैं। बहुत जल्द वे सारे उपाय खोज लेंगे जिनसे मन में शांति हो जाए। एक नई अशांति अमरीका में शुरू होगी, जो आध्यात्मिक होगी। वे ईश्वर, सत्य और निर्वाण और मोक्ष की खोज से बेचैन हो जाएंगे। तब क्या हम कहेंगे, वे लोग आध्यात्मिक रूप से अशांत हो गए हैं तो हम उनसे बेहतर हैं? नहीं, मैं आपसे कहता हूं, वे हमसे बेहतर हैं, क्योंकि हमसे ऊंचे तल पर अशांत हैं। तो ऊंचे तल पर शांत भी हो सकते हैं। इसको नियम मानता हूं मैं कि जिस तल पर हम अशांत होंगे, उसी तल पर शांत हो सकते हैं। लेकिन, तल के नीचे हैं हम। हम शरीर के तल पर अशांत हैं।
मेरे पास लोग आते हैं। वे पहले आते हैं कि हमें ध्यान सीखना है, बहुत अशांति है। फिर कुछ दिन मेरे पास रुकते हैं, मैं उनसे और बात करता हूं तो पता चलता है, किसी को लड़की की शादी करनी है असल में, इसलिए अशांति है। वह कहता है कि ठीक है, जब निकट आता है तो पहले तो वह ध्यान और परमात्मा की बात करता है। जब निकट आता है तब वह धीरे से बात करता है कि लड़की बड़ी हो गई है और शादी करनी है। किसी के लड़के को नौकरी नहीं मिल रही है, वह बेकार है। किसी को बीमारी है जो ठीक नहीं हो रही है। किसी के घर में इतनी अव्यवस्था है कि कोई उपाय नहीं रह गया। उससे वह कह रहे हैं कि हम मानसिक रूप से अशांत हैं। खोजने आते हैं ध्यान, लेकिन बहुत जल्दी पता चलता है कि उनको अगर धन मिल जाए तो वह ध्यान से ज्यादा कीमती सिद्ध होगा। धर्म की बात करते आते है, भगवान के मंदिर की तरफ आते हैं, लेकिन भगवान से भी हाथ जोड़ कर पता है क्या मांगते हैं वे? अगर हम आदमी, जो मंदिर में हाथ जोड़े खड़े हैं उनको ऊपर से देख कर लौट आए तो हम समझेंगे कि बड़े धार्मिक आदमी हैं। हो सकता है वे भीतर कह रहे हों कि मेरा जिससे प्रेम है उसी से विवाह करवा दिया जाए। नौकरी नहीं मिल रही है, नौकरी दिलवा दी जाए। रिटायरमेंट हुआ जा रहा है और दोे चार साल नौकरी चल जाए तो अच्छा है। शादी नहीं हो रही है बच्चे की--तो बच्चे की शादी हो जाए। बीमारी है, बीमारी दूर हो जाए।
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहाः मुझे भगवान पर पक्का विश्वास आ गया है। क्योंकि मैंने प्रार्थना की थी कि मुझे नौकरी मिल जाए और मुझे नौकरी मिल गई। तो मैंने कहाः सस्ता विश्वास है। आगे अब इसका दुबारा फिर से परीक्षा मत करना भगवान से, नहीं तो गड़बड़ हो जाए। उसने कहाः क्या मतलब है आपका? मैंने कहाः जब भूल-चूक से किसी तरह मिल गई है नौकरी तो ठीक है, तुम विश्वास ही रखना। अब आगेे परीक्षा मत करना। नहीं तो भगवान हर परीक्षा में सही न निकलेगा। अब यह जो आदमी है, इसकी शारिरिक तकलीफ है। हमारी इस देश में तकलीफ, शारीरिक है, मानसिक नहीं। लेकिन हमारे देश के साधु-संत समझाते हैं लोगों को कि देखो अमरीका में कितनी मानसिक अशांति है। उनको पता नहीं है कि अमरीका में मानसिक अशांति हमसे विकसित होने के कारण है, वह अविकसित अवस्था नहीं है। वह हमसे विकसित अवस्था है।
असल में जीवन में ऊंची अशांतियां पैदा होनी शुरू होती हैं। एक जंगली आदमी है, उसको अगर संगीत सुनने को न मिले तो कोई अशांति न होगी। उसे अगर कालिदास और शेक्सपीयर पढ़ने को न मिले तो कोई अशांति न होगी। वह मजे से अपने जंगल में जो कर रहा है, करता रहेगा। उसे कभी खयाल में न आएगा कि शेक्सपीयर को भी पढ़ने का भी एक आनंद है और एक मोझर्ट को सुनने का भी एक आनंद है, और पिकासो के चित्रों को भी देखने का एक आनंद है। लेकिन जिस आदमी ने पिकासो के चित्रों में आनंद लिया है उस आदमी को पिकासो के चित्र देखने को न मिलें तो अशांति शुरू हो जाएगी। और जिसने वीणा के रस में डुबकी ली है उसे अगर वीणा सुनने को न मिले तो अशांति शुरू हो जाएगी। अशांतियों के तल हैं। जितना आदमी विकसित होता है, ऊंची अशांतियां पकड़ती हैं।
सौभाग्यशाली हैं वे, जिनको नीचे की अशांतियां शांत हो गई हैं और ऊंची अशांतियों ने जिन्हें पकड़ लिया है। क्यों? क्योंकि ऊपर की अशांतियां उन्हें ऊपर की शांतियों की खोज में ले जाएंगी। अमरीका खोज पर निकल पड़ा है। आज अमरीका में सारा गहरे से गहरा चिंतन इस बात का है कि हम शांत कैसे हो सकें? ध्यान रहे, उनका अगर मन शांत होगा तो हम और उनमें जमीन आसमान का फर्क होगा। आज वे इस चिंता में पड़े हैं कि क्या एल एस डी से मन शांत हो सकेगा? कोई केमिकल तरकीब खोजी जा सकती है? कोई ध्यान का रास्ता हो सकता है, कोई मेडिटेशन हो सकता है? कोई उपाय हो सकता है जिससे मन शांत हो सके? पच्चीस तीस वर्षों में मन के शांत होने के उपाय उनमें विकसित हो जाएंगे। वे मन के विज्ञान को भी खोज लेंगे और हम यहां बैठ कर प्रशंसा का अनुभव करते रहेंगे--आत्मप्रशंसा--कि हम बड़े शांत हैं, वे बड़े अशांत हैं।
उन्हीं मित्र ने पूछा है कि वहां आत्महत्या बढ़ गई है!
ध्यान रहे, आत्महत्या मनुष्य के बौद्धिक विकास के साथ बढ़ती है। जितना मानसिक रूप से, बौद्धिक रूप से अविकसित आदमी होगा उतनी आत्महत्या नहीं करता। आदिवासी आत्महत्या नहीं करते हैं। जितनी जंगली कौम होगी, जितनी गहरे जंगल में रहती होगी, जितनी प्राचीन होगी, आत्महत्या नहीं करेगी। क्योंकि आत्महत्या करने के लिए बड़ा आत्मवान व्यक्तित्व चाहिए। पहली तो बात यह है कि इतना बोध चाहिए कि जीवन व्यर्थ है तो मैं अपने को समाप्त कर लूं। यह बोध साधारण बोध नहीं है। आदिवासी दूसरे की हत्या कर सकता है। अगर जीवन गड़बड़ है तो दूसरे की हत्या कर दों। लेकिन अगर जीवन मुझे व्यर्थ मालूम पड़े तो मैं अपना अपने को समाप्त कर दूं, इसके लिए बड़े आत्मबल की जरूरत है।
जैसे-जैसे बुद्धि विकसित होती है, आत्महत्या बढ़ेगी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आत्महत्या कोई गौरव की चीज है। और बुद्धि विकसित होगी तो और आत्महत्या के बाद आत्म-साधना शुरू होगी। सिर्फ वे ही सभ्यताएं, जो आत्महत्या करने की स्थिति में पहुंचती हैं, आत्म-साधना की स्थिति में संलग्न होती हैं। आत्महत्या यह कहती है कि कुछ बदलना पड़ेगा, मिटाना पड़ेगा। सबसे पहला खयाल यही आता है कि अपने शरीर को मिटा दोे। अगर जिंदगी ठीक नहीं है, आनंद नहीं देती है, रस नहीं देती है तो शरीर को मिटा दोे। लेकिन, धीरे-धीरे यह भी खयाल आएगा कि शरीर को मिटाने में भी क्या होगा? तो शायद यह भी खयाल आएगा कि अपनी आत्मा को बदल डालो, मिटा डालो अहंकार को। आत्मा को बदल डालो तो शायद जिंदगी बदल जाए। असल में जो व्यक्ति आत्महत्या करने की स्थिति में पहुंचता है वहां से दोे रास्ते निकलते हैं--एक आत्महत्या का, एक आत्म-साधना का। पहले आत्महत्या की जाएगी, धीरे-धीरे आत्म-साधना में रुचि बढ़ेगी। क्योंकि आत्महत्या बहुत लम्बी देर तक खींची नहीं जा सकती। अमरीका में आत्महत्याएं बढ़ी हैं। और मैं आपसे कहता हूं, आने वाले पचास वर्षों में आत्म-साधनाएं बढ़ेंगी, क्योंकि आत्महत्या स्थायी चीज नहीं हो सकती, वह संक्रमण की बात है।
उन मित्र ने पूछा है कि वहां व्यभिचार बढ़ा है, आचरणहीनता आई है!
यह सवाल बहुत ज्यादा जटिल है। पहली तो बात यह है कि अमरीका जैसे मुल्क में पहली दफा आंकड़े उपलब्ध हुए हैं। हमारे मुल्क में आंकड़े नहीं हैं। आंकड़े न होने से हमें बड़ी सुविधा है। अगर मैं आपसे, एक-एक आदमी से आकर पूछूं कि आपने अपनी जिंदगी में अपनी पत्नी को छोड़ कर और किन-किन स्त्रियों से प्रेम किया है तो कोई भी राजी नहीं होगा। हां, बता देगा कि पड़ोसी यह कह रहे हैं, लेकिन अपन दूर हैं। लेकिन अमरीका में अगर पूछने जाते हैं तो लोग बता देंगे कि मैंने अपनी पत्नी को छोड़ कर तीन स्त्रियों से मेरे संबंध थे। वे नाम गिना देंगे, हिसाब लिखा देंगे। तो अमरीका के पास आंकड़े हैं इस बात के आज कि कौन आदमी एक जिंदगी में कितनी स्त्रियों से संबंध जोड़ता है। कौन आदमी विवाह के पहले संबंध जोड़ता है? कौन आदमी विवाह के भीतर भी संबंध जोड़ता है। इन सबके आंकड़े हैं। उन आंकड़ों की वजह से यहां के साधु-संत प्रसन्न होते हैं। वह आंकड़े उठा लेते हैं और कहते हैं, देखो, अमरीका में यह हो रहा है। चालीस परसेंट लड़कियां कहती हैं कि हमने विवाह के पहले संभोग का अनुभव किया है--हद हो गई व्यभिचार की। लेकिन आंकड़ों की कमी तथ्यों की कमी नहीं है। असल में आंकड़े भी सभ्यता के विकास के साथ ही उपलब्ध होते हैं। अमरीका का व्यक्ति आज इतना समर्थ है कि बेफिकर है, निशिं्चत है, वह सच बात कह सकता है। हम सच बात कहने में भी समर्थ नहीं हैं।
व्यभिचार उतना ही है, लेकिन पर्दे के पीछे है, वह पर्दे के बाहर नहीं है। वह पीछे-पीछे सरकता है। पीछे सरकता है, आंकड़े नहीं मिलते। तो आंकड़े न मिलने की वजह से हम बड़े निशिं्चत होते हैं। आंकड़े बहुत नई घटना है, स्टेटिस्टिक्स की साइंस बहुत नई चीज है। अगर हम पता लगाने जाएं कि आज से हजार साल पहले हिंदुस्तान में कितनी वेश्याएं थीं तो कोई पता नहीं लग सकता था। इसका मतलब यह नहीं है कि वेश्याएं नहीं थीं। अगर हम आज भी पता लगाने जाएं कि हिंदुस्तान में कितने लोगों ने जिंदगी में मास्टरबेशन, हस्तमैथुन किया है तो आंकड़े नहीं मिल सकते। लेकिन अमरीका में मिल सकते हैं। उसका कारण यह है कि जिंदगी को सीधा-साफ...पाखंड की तरह नहीं किया जा रहा है। एक आदमी से पूछें तो वह कह देगा कि हां, ऐसा-ऐसा हुआ। उसकी वजह से मनुष्य को समझने में बड़ी सुविधा हुई। सच्चाइयां सामने आईं, ठहराने के तथ्य प्रकट हुए। और नये तथ्यों ने जीवन को संवारने, सुधारने की नई सुविधा जुटाई है। उसका परिणाम यह हुआ है कि हम आदमी के वास्तविक व्यक्तित्व को जानने में जितने समर्थ आज हो गए हैं उतने कभी भी नहीं थे। क्योंकि आदमी ऊपर एक शक्ल बनाए था, भीतर कुछ और था। वह कहता कुछ और था, करता कुछ और था।
आज अमरीका में हम पता लगा सकते है कि वह करता क्या है। और अगर करने का पता लगे, तो बहुत हैरानी की बात है। अनुभव किया गया--अभी दस...जो वर्षों में खोज-बीन होती है अमरीका में, उसके बहुत अजीब परिणाम हैं। उसके परिणाम यह हैं कि करीब-करीब सत्तर प्रतिशत लोग जीवन में कभी न कभी हस्तमैथुन करते हैं। तो अब यह हमको आंकड़ा मिल गया। यह आंकड़ा अमरीका के आदमी पर ही लागू नहीं है, यह सारी दुनिया के आदमी पर लागू है। और जैसे-जैसे आदमी विकसित होगा, सारी दुनिया में ये आंकड़े कमोबेश दोे-चार-दस परसेंट के फर्क से मिलने शुरू हो जाएंगे।
लेकिन अभी हमारे पास आंकड़े नहीं हैं। आंकड़े तो दूर हैं, हस्तमैथुन की पब्लिक रूप से चर्चा करनी मुश्किल है। आंकड़ा तो बहुत मुश्किल है और अगर हम किसी सेे पूछने जाएंगे तो वह डंडा उठा लेगा कि आप पागल हो गए हैं, मैं ऐसा काम करूंगा? यह आप किसी और से पूछिए। ऐसा कहीं कोई नहीं करता। हम जिंदगी को उसकी सच्चाई, उसकी नेकेडनेस में--नग्नता में स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। अगर हम किसी पत्नी से पूछें कि तुझे कभी कोई और पुरुष सुंदर मालूम पड़ता है तो वह कहेगी, आप कैसी बातें करते हैं? और अगले जन्म में भी इसी पति को पाने की प्रार्थना कर रही हूं। कभी कोई पुरुष मुझे सुंदर मालूम पड़ता ही नहीं। मेरे पति से ज्यादा सुंदर कोई है ही नहीं। अब यह असंभव है बात। यह बिलकुल असंभव है। और पुरुष भी सुंदर हैं। और सड़क पर वे दिखाई पड़ते हैं तो सुंदर मालूम ही पड़ेंगे, यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें न कुछ पाप है, न कोई आचरणहीनता है। पति ने कोई सुंदर होने का ठेका नहीं ले लिया है, और न पत्नी ने सुंदर होने का ठेका ले लिया है। लेकिन दूसरे की पत्नी से अगर मैं कहूं कि आप बहुत सुंदर हैं तो झगड़ा हो सकता है। हालांकि झगड़ा होना नहीं चाहिए। मैं सिर्फ एप्रीसिएशन कर रहा हूं। मुझे धन्यवाद मिलना चाहिए। आपके बगीचे में आऊं और कहूं कि आपका गुलाब का फूल बहुत सुंदर है तो झगड़ा नहीं करते आप। और आपसे कहूं कि आपकी लड़की बहुत सुंदर है तो झगड़ा शुरू हो जाएगा। अगर गुलाब के फूल से आप प्रसन्न हुए थे, तो लड़की के सौंदर्य की चर्चा सुन कर आपको और भी प्रसन्न होना चाहिए था। सौंदर्य सहज तथ्य है जीवन का। लेकिन हमने उसे स्वीकार नहीं किया है।
हमारी अस्वीकृति हमारा आचरण बनी हुई है और हम सोचते हैं कि हम बहुत आचरणवान हैं। मैं इधर साधु-संन्यासियों से निरंतर मिलता हूं। मैं बहुत हैरान हुआ। एक आंकड़ा मेरी नजर में आना शुरू हुआ तो मैं मुश्किल में पड़ गया। जब साधु-संन्यासी मुझे मिलते हैं--और मुल्क में हजारों लोगों से मेरा संबंध है--तब वे मुझसे सबके सामने आत्मा-परमात्मा की ही बातें करते हैं। कहते हैं, कुछ एकांत में बातें करनी हैं, साधना के संबंध में। फिर वे एकांत में मिलते हैं तो सिवाय सेक्स के उनका कोई प्राब्लम नहीं होता। वे कहते हैं कि हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं।
अभी छह सात दिन पहले एक साधु मुझे मिलने आए थे और उन्होंने मुझसे कहा कि मैं मुश्किल में पड़ा हुआ हूं। ब्रह्मचर्य के लिए जोे भी नियम कहे गए हैं, सबका पालन करता हूं, लेकिन ब्रह्मचर्य सधता नहीं। स्त्री को देखता नहीं हूं, आंखें झुका कर चलता हूं, लेकिन सपने में स्त्रियां आ जाती हैं। अब दिन भर तो किसी तरह सम्हाल लेता हूं, लेकिन सपने में मैं क्या करूं? मेरे वश के बाहर है। इधर यह नहीं खाता हूं, यह नहीं खाता हूं, यह नहीं खाता हूं, कम खाता हूं, सब है, लेकिन स्वप्नदोेष बंद नहीं होते। अब एक साधु यह कहेगा, लेकिन वह सबके सामने वह स्वीकार करने को राजी नहीं है। मैंने कहाः तुम इसे सबके सामने कहो ताकि लोगों को पता चल सके कि साधु भी क्या मुसीबत है ताकि और लोग साधु न बन जाएं। लेकिन वह यह कहने को राजी नहीं होगा। सबसे सामने वह ब्रह्म की बातें करेगा और सबके सामने समझाएगा कि ब्रह्मचर्य महान आनंद है। और किस कष्ट में और किस नरक में वह पड़ा है, वह यह भीतर अनुभव करेगा।
उन संन्यासी ने मुझसे कहा कि आप ठीक कहते हैं, लेकिन अगर मैं यह सबके सामने कहूं तो उससे कुछ भी सिद्ध न होगा। सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि ब्रह्मचर्य तो ठीक है, मैं गड़बड़ हूं और कुछ सिद्ध न होगा। मैं इस झंझट में क्यों पडूं? जब कोई दूसरा नहीं पड़ रहा है तो मैं क्यों पडूं? अभी लोग मेरे पैर छूते हैं, नमस्कार करते हैं, आदर करते हैं। सब मेरा आदर खो जाएगा। सब सम्मान खो जाएगा।
सम्मान और आदर के डर से सत्य खो रहा है, खोता रहा है। इस देश को अपने व्यक्तित्व के संबंध में सत्य खोजना पड़ेगा। तो मैं आपसे कहना चाहता हूंः दुनिया में न कोई आचरणहीन है, न कोई आचरणवान है। मनुष्य करीब-करीब एक जैसा है। सारी पृथ्वी पर एक जैसा है। थोड़े बहुत फर्क हैं, हवाओं की वजह से, गर्मी और ठंड की वजह से। वह फर्क आदमी के फर्क नहीं हैं, क्लाइमेटिक फर्क हैं, लेकिन आदमी सारी दुनिया में एक जैसा है। आदमी-आदमी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। और इस भ्रम में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है कि कोई हम कुछ ज्यादा चरित्रवान हैं और कोई दूसरा कम चरित्रवान है।
फिर हमारी चरित्र की अपनी व्याख्याएं हैं। अगर हिंदुस्तान में किसी के संबंध में कह दिया जाए कि वह आदमी चरित्रहीन है तो आप समझते हैं, क्या समझेंगे आप? आप फौरन समझेंगे कि कुछ सेक्स के मामले की गड़बड़ है। अगर किसी के बाबत कह दिया जाए कि फलां आदमी चरित्रहीन है तो हमें यही खयाल आएगा कि उसके यौन संबंधों की कोई गड़बड़ है। हमें कभी खयाल नहीं आएगा कि वह आदमी झूठ बोलता होगा। हममें कभी खयाल न आएगा कि वह आदमी वचन के लिए प्रतिबद्ध नहीं रहता। हमें कभी खयाल न आएगा कि वह आदमी आचरण की और कोई भूलें करता होगा। हमें फौरन सेक्स का खयाल आएगा। चरित्रहीन का मतलब ही हमारे मन में यह है कि कुछ न कुछ उसके सेक्सुअल संबंधों में कोई गड़बड़ है।
लेकिन दूसरी कौमें चरित्रहीन का दूसरा मतलब लेती हैं। और इसलिए उन्होंने कई अर्थों में आचरण को सुधारा है। कई अर्थों में आचरण को सुधारा है। आज अगर इंग्लैंड या अमरीका में चैरस्ते पर अखबार रख दिया जाए तो लोग पैसा डाल जाते हैं पेटी में, अपना अखबार ले जाते हैं। अगर हमारे यहां रखा जाए तो अखबार भी ले जाएंगेे, पेटी भी ले जाएंगे। कोई पता ही नहीं चलेगा, दूसरे आदमी का सवाल ही नहीं उठेगा। दूसरे आदमी को कोई कठिनाई ही न आएगी, पहला आदमी ही निपटा देगा। डिपार्टमेंटल स्टोर्स हैं, लोग चीजें चुन लेते हैं, पैसा डाल देते हैं। यह एक तरह क आचरण है जो अर्थ रखता है। अगर कोई किसी को वचन देता है तो पूरा करने की कोशिश करता है। यहां इतना ही कह देना काफी है कि भूल गए। बात खत्म हो गई। इसमें कुछ आचरणहीनता नहीं है? एक आदमी मुझसे कह जांऐ कि वह पांच बजे आएगा, वह नौ बजे रात आ रहा है। शाम पांच बजे का आया हुआ, वह कहता है कि जरा काम में लग गया। मेरे चार घंटे उसकी प्रतीक्षा में खराब हुए, इसका कोई हिसाब ही नहीं है, इससे कोई संबंध नहीं है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है।
हमारी आचरण की सारी केंद्रितता सेक्स से बंध गई है। सारी दुनिया में सेक्स से धीरे-धीरे आचरण को मुक्त किया जा रहा है और आचरण के दूसरे आयाम पकड़े जा रहे हैं। क्योंकि ठीक से समझा जाए तो सेक्स दोे व्यक्तियों के बीच का संबंध है। दूसरे आयाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। दूसरे आयाम, सत्य बोलने के, वचन प्रतिबद्धता के, नियम समय के पालन के ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, आश्वासन के ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
अगर मैं किसी के पास जाऊं और उससे कहूं कि मेरा फलां काम कर देना तो वह कहेगा कि हां, कर देंगे। कोई नहीं तो कहेगा ही नहीं, और कोई काम करेगा भी नहीं। बल्कि मैंने लोगों से कहाः कभी मैं किसी के घर बैठा हूं...एक वाइस चांसलर के घर ठहरा था। कोई आया, उसने कहा कि मेरा फलां लड़का है, वह आपके यहां नौकरी के लिए दरख्वास्त दिया है। उन्होंने कहाः हां मैं सब देख लूंगा, घबड़ाइए मत। वे चले गए तो मैंने कहाः सच में आप देखेंगे? उन्होंने कहाः देखने का कहां सवाल है? जो आता है उससे यही कहना पड़ता है। क्योंकि अगर हम देखने लगें तो मुश्किल में पड़ जाएं और अगर न करें तो वह आदमी पीछे पड़ जाए। तो हम हां बोल देते हैं और झंझट के बाहर हो जाते हैं।
सब राजनीतिज्ञ हां बोल रहे हैं। सब नेता हां बोल रहे हैं। कुछ भी कहिए, वे कहते हैं हां, हम करेंगे। और उनके हां का मतलब ठीक से समझ लेना। जैसा पहले कहा जाता था कि स्त्री नहीं कहे तो उसका मतलब हां होता है। ऐसा नेता हां कहे तो उसका मतलब नहीं होेता है। हमारे आचरण के और आयाम हैं, उनका हमें खयाल नहीं है। हमने सेक्स पर उसे केंद्रित किया है। सच बात तो यह है कि जो कौम सेक्स पर आचरण को केंद्रित करती है, वह एक अर्थ में आचरणहीन है। सेक्स कोई अर्थ नहीं रखता--इतना बड़ा, जितना हम सोच रहे हैं। जितना हम उसे महत्व दे रहे हैं उतना अर्थ नहीं रखता। जिंदगी के और तथ्यों में एक तथ्य वह भी है। और उसके संबंध में ऑब्सेस्ड होने की जरूरत नहीं है कि हम उसी को सोचते रहें और दिन-रात उसी की फिकर रखें, दूसरों की खिड़कियों में से झांक कर देखते रहें कि कहां क्या हो रहा है? कहीं आचरणहीनता तो नहीं हो रही है? सब एक दूसरे की तलाश में लगे हुए हैं कि कहीं कोई आचरणहीनता तो नहीं हो रही है? यह पूरी बात आचरणहीनता की है।
मेरे एक मित्र डाक्टर हैं दिल्ली में, सरदार हैं। वे गए हुए थे लंदन एक मेडिकल कांफेरन्स में भाग लेने। मैं उनसे बात कर रहा था। लौट कर वे कहने लगे कि आपकी बात ठीक लगती है, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। एक बड़े पार्क में कोई पांच सौ डाक्टर की कांफ्रेंस थी तो हम कुछ मिलने-जुलने, कुछ खाने-पीने के लिए इकट्ठे हुए थे। पांच सौ लोग हैैं पार्क में, डाक्टर आपस में बातें कर रहे हैं। मेरे सरदार मित्र भी वहां हैं, वे बड़े बेचैन हैं। बाकी सारे लोग बातों में लगे हैं, वे बातों में नहीं हैं। वह किसी दूसरी खोज में लग गए हैं। एक लड़का और एक लड़की एक बेंच पर पार्क में एक दूसरे के गले में हाथ डाले, आंख बंद किए बैठे हैं। वे बड़े बेचैन हुए जा रहे हैं कि बड़ी आचरणहीनता हो रही है। अब आपको इस आचरणहीनता से क्या लेना-देना है? आप अपना आचरण सम्हाल रहे हैं, इतनी ही काफी कृपा है। एक युवक और एक युवती गले में हाथ डाले बैठे हैं, इससे आपका क्या बिगड़ रहा है? और उनका गले में हाथ डाले बैठना और उनका आंख बंद करके बैठना एक पवित्र क्षण भी हो सकता है, प्रेयरफुल भी हो सकता है, प्रेमपूर्ण भी हो सकता है।
और सच तो यह है कि जब दोे व्यक्ति प्रेम में एक-दूसरे के निकट होते हैं तब इतनी पवित्रता जन्मती है, जितनी पवित्रता और कभी नहीं जन्मती है। मगर उनको कहां फुरसत है, वे तो परेशान हुए जा रहे हैं। उन्होंने बगल के डाक्टर से कहा कि यह क्या आचरणहीनता हो रही है, पब्लिक पार्क में? उस डाक्टर ने कहाः आपको क्या मतलब है? और मैं हैरान हूं कि आप बार-बार वहीं क्यों देख रहे हैं? और आप ज्यादा वहां मत देखिए, नहीं तो पुलिसवाला आकर आपको उठा कर ले जा सकता है। क्या अशिष्ट व्यवहार कर रहे हैं आप? वह उन दोे व्यक्तियों की बात है। वह उनकी जिंदगी की बात है। यह उनका लेन-देना है, उससे आपको क्या प्रयोजन है? वह आपको कहां बाधा डाल रहे हैं। वे बेचारे आंख बंद किए चुपचाप न मालूम किस काव्य में खो गए हैं! आप क्यों उपद्रव बीच में बन रहे हैं? आपसे क्या लेना-देना है? उन्होंने कहाः नहीं, यह मेरे बरदाश्त के बाहर है, पब्लिक पार्क में ऐसी आचरणहीनता हो रही है!
अब हमारी बुद्धि है। हम इसको आचरणहीनता कहें? किसको आचरणहीनता कहेंगे? डाक्टर आचरणहीन है, या एक युवक और युवती का एक दूसरे के पास बैठना आचरणहीनता है। अगर एक युवक और युवती का प्रेम करना आचरणहीन है तो यह पृथ्वी ज्यादा दिन नहीं चल सकती। फिर तो यह डूबेगी। फिर इसका बचने का उपाय नहीं है और यह पृथ्वी डूबेगी तो डाक्टर भी नहीं बच सकता, यह भी जाएगा। नहीं, मेरी दृष्टि में यह डाक्टर आचरणहीन है। दूसरे व्यक्तियों के जीवन में इतनी ज्यादा घुसपैठ, आचरणहीनता है। दूसरे व्यक्तियों का अपना जीवन है। उस जीवन में हम इतनी आतुरता से प्रवेश करें, यह हमारे भीतर किसी गहरी कमी का द्योतक है।
मेरी अपनी समझ है--मैंने उस डाक्टर को कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि तुम किसी स्त्री को कभी प्रेम नहीं कर पाए। काश, तुमने किसी स्त्री को प्रेम किया होता! काश, तुम किसी स्त्री के पास बैठ कर किसी स्वप्न में खो गए होते तो तुम्हें आचरणहीनता मालूम न होती। लेकिन तुमने कभी किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया। इसलिए तुम्हें आचरणहीनता दिखाई पड़ी है। और तुमने कभी किसी स्त्री को नहीं चाहा इसलिए तुम दूसरे बहाने खोज कर उस लड़की को देखते रहे। वह तुम्हारा देखना, वह तुम्हारा झांकना, वह चोरी से तुम्हारा उसकी तरफ बार-बार रुख करना एकदम चरित्रहीनता का लक्षण है।
हम चरित्र की क्या परिभाषा करते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। आप हैरान होंगे, हमारे शास्त्रों में जिनमें बड़े-बड़े साधु संन्यासियों ने, बड़े महात्माओं ने किताबें लिखी हैं, उसमें स्त्रियों की भारी निंदा की है और निंदा के साथ-साथ स्त्रियों के एक-एक अंग की रसपूर्ण चर्चा भी की है। असल में साधु-संन्यासी स्त्रियों की निंदा के बहाने उनके अंगों की चर्चा का रस भी ले लेते हैं। वह चर्चा भी साथ चलेगी, वह निंदा भी साथ चलेगी--वह चर्चा भी साथ चलेगी।
कौन है चरित्रवान? चरित्र के हमें सारे आधार बदलने पड़ेंगे। अब तक जिसको हम चरित्र कहते रहे हैं, वह चरित्र कम है, वह दूसरे को दुश्चरित्र सिद्ध करने की चेष्टा ज्यादा है। अब तक जिसको हम आचरण कहते रहे हैं वह आचरण कम है, वह दूसरे को निंदित करने की, नरक भेजने का उपाय और व्यवस्था ज्यादा है। सांझ मैं इस संबंध में मैं थोड़ी बात करना चाहूंगा कि चरित्र क्या है क्योंकि वह भी हमारा जिंदा सवाल है।

मेरी बातों को इतनी शांति प्रेम और से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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