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सोमवार, 3 सितंबर 2018

प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-03

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

प्रेम गंगा

मेरे प्रिय आत्मन्।
पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि आप शास्त्र पर, गुरु पर, दूसरों पर विश्वास करने में मना करते हैं तो उस स्थिति में तो बाहर के सारे कार्य चलने बंद हो जाएंगे? और विज्ञान की आप बात करते हैं तो वैज्ञानिक भी पिछले वैज्ञानिकों पर विश्वास करता है, तब ही आगे बढ़ता है।
इस संबंध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी होंगी। पहली बात तो यह कि बाहर के संबंध में, जीवन के रोज के कार्यों के संबंध में, या विज्ञान के संबंध में हम जो दूसरों पर विश्वास कर लेते हैं, उससे शायद थोड़ा बहुत काम चल जाता है। क्योंकि जो बाहर है, वह दूसरे के द्वारा भी बताया जा सकता है, और जाना जा सकता है। लेकिन जो स्वयं मेरे भीतर है, वह किसी दूसरे के द्वारा न बताया जा सकता है, और न किसी दूसरे के द्वारा जाना जा सकता है।
मेरे बाहर जो है, वह आपके बाहर भी है, हम दोनों उसके बाहर खड़े होकर उसे देख सकते हैं। लेकिन जो मेरे भीतर है, उसे मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं देख सकता। इसलिए बाहर की चीजों के संबंध में हम दूसरों की सुनी हुई बातों पर भी काम चला लेते हैं। लेकिन भीतर के संबंध में अगर दूसरों की सुनी हुई बातों पर काम चलाने की कोशिश की तो वह जो भीतर सोया हुआ है, उसके जागने का कभी कोई मौका नहीं आएगा।


विज्ञान बाहर की खोज है, और धर्म भीतर की। इसलिए यह बहुत अजीब सी बात मालूम पड़ेगी कि विज्ञान शास्त्रों पर, परंपराओं पर निर्भर होता है। लेकिन धर्म शास्त्रों और परंपराओं पर निर्भर नहीं होते। अगर न्यूटन पैदा न हो, तो आइंस्टीन पैदा नहीं हो सकता है। बीच की एक कड़ी अगर न हो, तो आगे की कड़ी विज्ञान में नहीं आएगाी। न्यूटन के कंधों पर खड़े हुए बिना आइंस्टीन के जन्म की कोई संभावना नहीं है। लेकिन अगर महावीर न हों, तो बुद्ध के होने में कोई भी बाधा नहीं पड़ती है। और बुद्ध और महावीर दोनों न हों, तो भी रमण के या अरविंद के पैदा होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।
आध्यात्मिक जगत में हम किसी के कंधों पर खड़े नहीं होते, अपने ही पैरों पर खड़े होते हैं। आध्यात्मिक जीवन की कोई परंपरा नहीं है, कोई कड़ियां नहीं हैं। आध्यात्मिक जीवन अदभुत अर्थों में वैयक्तिक जीवन है। वह जो अध्यात्म जिसे हम कहते हैं, वह मूलतः उस दिशा में व्यक्ति परिपूर्ण रूप से स्वतंत्र है। इसलिए कृष्ण ने क्या कहा है, उसे पढ़ लेनेे से या मान लेने से आप स्वयं को नहीं जान लेंगे। हां, अगर आप स्वयं को जान लें तो कृष्ण ने जो कहा है उसे जरूर समझने में सफल हो जाएंगे। शास्त्र से आत्मिक ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, लेकिन आत्मिक ज्ञान उपलब्ध हो तो शास्त्र सार्थक जरूर हो जाते हैं।
प्रेम के संबंध में मैं कुछ शास्त्र पढ़ लूं, तो पढ़ सकता हूं। लेकिन कोई भी शास्त्र मुझे प्रेम का अनुभव नहीं दे सकता। और खतरा यह है कि यदि प्रेम के संबंध में बहुत सी बातें मुझे याद हो जाएं तो यह भ्रांति भी हो सकती है कि मैं प्रेम को जानने लगा हूं। प्रेम को जानने के लिए तो मुझे ही प्रेम से गुजरना पड़ेगा। वह प्रेम का स्वाद और सुगंध मेरे प्रेम से गुजरे बिना नहीं उपलब्ध होने वाली। प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान लेना भी प्रेम को जानना नहीं है। प्रेम को जानने के लिए व्यक्तिगत अनुभूति अपरिहार्य है। उससे गुजरे बिना कोई रास्ता नहीं है। हां, प्रेम को मैं जान लूं तो प्रेम के संबंध में कही गई सारी बातों का अर्थ मेरे सामने स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता।
एक आदमी तैरने के संबंध में सारे शास्त्र पढ़ ले और उन पर विश्वास कर ले और तैरने के संबंध में बहुत बड़ा पंडित हो जाए--तैरने पर प्रवचन दे, तैरने पर थीसिस लिखे, पीएचड़ी करे, लेकिन भूल कर भी उस आदमी को कभी नदी में धक्का मत दे देना। क्योंकि वह आदमी तैरने के संबंध में जानता था, तैरने को नहीं। तैरने के संबंध में जाना हुआ तैरना नहीं बन सकता है। और यह भी हो सकता है कि कोई तैरना जानता हो और उससे आप पूछें कि तैरने के संबंध में कुछ बताओ, तो वह कहे कि मैं तैर कर बता सकता हूं, और क्या बताऊं?
जीवन की जितनी गहरी अनुभूतियां हैं--चाहे वे विवेक की हों, चाहे प्रेम की हों, चाहे प्रार्थना की हों, वे गहरी अनुभूतियों के संबंध में किसी दूसरे पर विश्वास करना आत्मघातक है। स्वयं की खोज ही वहां मार्ग है। और मनुष्य की जो अंतरात्मा है, उसकी जो मौलिक प्रतिभा है, उसका आविष्कार करना हो तो जितनी दूर तक बन सके, जितने गहरे तक बन सके उतना अपने पर ही निर्भर होना उचित है। स्व-निर्भरता ही अंततः आत्मा में प्रवेश का द्वार बनती है। पर-निर्भरता अंततः परावलंबन, और दूसरे के आश्रय में गुलामी बन जाती है, पर-निर्भरता बन जाती है। पर-निर्भरता परतंत्रता का सूत्र है, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता का सूत्र है।
वह जो मैंने कहा कि विश्वास मत करें, विचार करें। इसीलिए कहा कि विचार मुक्त करता है, स्वयं में प्रतिष्ठित करता है। और विश्वास परतंत्र करता है, दूसरे पर निर्भर करता है। दूसरे पर निर्भर हुई आत्मा अंधकार से अंधकार में ही भटकती चली जाती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप यह मानना छोड़ दें कि बाएं चलना उचित है, बाएं चलना नियम है; इसका यह मतलब भी नहीं है कि आप मानना छोड़ दें कि क्यू में खड़े होना उचित है, क्योंकि आप विश्वास करना बंद करते हैं। बाहर की जिंदगी का जो थोड़ा सा फैलाव और खेल है, वह खेल हमारे सब के आपस में निर्धारित नियमों के आधार पर है। उन नियमों को हम मानते हैं, इसलिए वह खेल चलता है। नियम मानना छोड़ दें, वह खेल अभी बंद हो जाएगा।
जैसे कोई शतरंज खेल रहा है, अब शतरंज खेलना हो तो विश्वास के आधार पर ही खेला जा सकता है। क्योंकि शतरंज कोई सत्य नहीं है। सिर्फ मनोकल्पित खेल है। और अगर हम शतरंज के नियम छोड़ दें, घोड़े को हाथी मानने लगें, हाथी को घोड़ा कहने लगें, क्योंकि मैं कहूं कि मैं किसी की मानूंगा नहीं, मैं तो अपना ही निर्णय करूंगा तो फिर खेल एक इंच आगे नहीं बढ़ सकता है। खेल काल्पनिक है और दो व्यक्तियों की स्वीकृति पर निर्भर है।
यह जो बाहर की जिंदगी हमने बसाई है--यह जो घर है, गृहस्थी है, दुकान है, बाजार है, यह एक बहुत बड़ा खेल है, जो हमारी सबकी सहमति पर और सबके ऊपर निर्भर है। यह विश्वास पर चल रहा है। अगर विश्वास तोड़ दें, इस खेल के आप बाहर हो जाते हैं। इस खेल में विश्वास जरूरी है। क्योंकि यह खेल सत्य नहीं है।
 लेकिन सत्य के लिए विश्वास घातक है। क्योंकि सत्य कोई खेल नहीं है, वह कोई हमारी स्वीकृतियों पर निर्भर नहीं है, वह हमसे मुक्त है। और सत्य जैसा है हमें उसे वैसा ही जानना होगा। और खेल जैसा है, वह वैसा है, जैसा हमने उसे बनाया है। लेकिन हम खेल के आदी हैं। हमने अलग-अलग खेल स्वीकार किए हुए हैं। एक बच्चा हिंदी घर में पैदा होता है तो उसने एक हिंदी भाषा का खेल स्वीकार किया है। एक चीनी भाषा में पैदा हुआ बच्चा है, उसने चीनी भाषा का खेल स्वीकार किया है। एक अंग्रेजी भाषा में पैदा हुआ बच्चा है, उसने अंग्रेजी भाषा का खेल स्वीकार किया है। यह कोई सत्य नहीं है। ये कामचलाऊ खेल हैं।
इसलिए हिंदी भाषा बोलने वाला मां कहेगा, अंग्रेजी भाषा बोलने वाला मदर कहेगा, दोनों के बीच कोई मेल नहीं है। क्योंकि दोनों के अलग खेल हैं, दोनों की स्वीकृतियां अलग हैं। अब एक तीसरा खेल शुरू करना पड़े, अगर हम यह माने कि मदर और मां एक ही अर्थ रखते हैं तो फिर अंग्रेजी और हिंदी का एक मिला-जुला खेल शुरू होगा। भाषाएं खेल पर खड़ी हैं, लेकिन सत्य खेल पर खड़ा हुआ नहीं है। सत्य जैसा है हमें उसे वैसा ही जानना होगा। और जीवन का जो हमारा पूरा का पूरा जाल है, वह वैसा है जैसा हमने उसे बनाया है। अगर हम उसे ऐसा न बनाएं, तो वह ऐसा नहीं होगा।
और अगर कोई न खेलना चाहे तो कोई मजबूर नहीं किया जा सकता। वह खेल के बाहर हो सकता है। लेकिन खेल के बाहर होकर बहुत असुविधा में पड़ जाएगा। क्योंकि सारे लोग उस नियम की स्वीकृति पर राजी हैं। इसका यह मतलब हुआ कि बाहर की दुनिया में विश्वास अर्थपूर्ण है। क्योंकि बाहर की दुनिया असत्य पर खड़ी है। और स्वयं के भीतर प्रवेश करना हो तो विश्वास महत्वपूर्ण नहीं है। वहां भीतर सत्य की खोज करनी है--किसी खेल की, किसी नियम की नहीं। और जो परम वैज्ञानिक है, वह बाहर की खोज पर ही नहीं रुक जाता, परम वैज्ञानिक अंतस की खोज की यात्रा पर भी निकलता है।
इसलिए मैं कहना चाहूंगाः पूरब अवैज्ञानिक है, पश्चिम अधूरा वैज्ञानिक है। अगर पश्चिम का विज्ञान और बढ़ेगा तो वह बाहर से भीतर की तरफ आना शुरू हो जाएगा। आना ही पड़ेगा। आने के पहले कदम पड़ने शुरू हो गए हैं, पहली किरणें दिखाई पड़नी शुरू हो गई हैं। अगर विज्ञान पूरा होगा तो यह असंभव है कि हम बाहर की बातों को ही जानने में सारा समय लगा दें, और उससे वंचित रह जाएं--जो कि भीतर है।
इसलिए मैं धर्म को परम विज्ञान कहता हूं, सुप्रीम साइंस कहता हूं। लेकिन जिस धर्म को हम माने हुए बैठे हैं वह परम अंधविश्वास है, परम विज्ञान नहीं। क्योंकि हमने उसका आधार विश्वास बना रखा है। हमने उसकी आधारशिला विचार पर नहीं रखी है। यह भी ध्यान रहे कि विश्वास के कारण ही दुनिया में इतने धर्म हैं। अगर विचार होगा, इतने धर्म नहीं होंगे। एक ही धर्म होगा। सत्य तो एक ही होता है। विज्ञान एक है, चाहे वह विज्ञान रूस में पैदा हो, और चाहे अमरीका में, और चाहे चीन में, और चाहे भारत में। उसके नियम एक हैं। हिंदू का विज्ञान अलग और मुसलमान का विज्ञान अलग और पूंजीवादी का विज्ञान अलग और साम्यवादी का विज्ञान अलग, ऐसा नहीं हो सकता। सत्य एक है, लेकिन धर्म तीन सौ हैं जमीन पर।
थोड़ा सोचना जरूरी है कि ये धर्म सत्य की बात कर रहे हैं या सत्य के संबंध में मनोकल्पित विश्वासों की बात कर रहे हैं। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। उसका मतलब तीन सौ विश्वास की प्रक्रियाएं हैं। अगर विचार की प्रक्रिया होगी तो एक ही धर्म होगा, जैसे एक ही विज्ञान है। और अगर विचार अपनी अंतिम परिणति पर पहुंचेगा तो विज्ञान और धर्म एक हो जाएंगे। विज्ञान होगा बाहर का धर्म, और धर्म होगा भीतर का विज्ञान। वैज्ञानिक प्रक्रिया अगर विचार से चलेगी तो सूत्र तो वही हैं, चाहे बाहर के सत्य की खोज करनी हो, चाहे भीतर के सत्य की खोज करनी हो।
लेकिन आज जो इतने धर्मों का जाल दिखाई पड़ता है, वह जाल धर्मों का नहीं है। विश्वासों का है। और सब विश्वास अंधे होते हैं। किसी विश्वास के पास आंख नहीं होती। आंख तो विचार के पास है। और जिस विश्वास के पास आंख हो, जानना कि वह विश्वास नहीं है--विचार है। और जिस विचार के पास भी आंख न हो, जानना कि वह धोखा है विचार का, वह विश्वास नहीं है।
आंख पहचान है। आप जो भी मानते हैं, मैं जो भी मानता हूं, वह मेरे किसी अनुभव पर खड़ा होता है या किसी दूसरे के अनुभव पर खड़ा है? अगर दूसरे के अनुभव पर खड़ा है तो मैं तो अज्ञानी हूं। और अज्ञान में अंधे की तरह उसे माने चला जा रहा हूं। अंधे कहीं भी नहीं पहुंचते। अंधे कहीं पहुंच ही नहीं सकते। सत्य के रास्ते पर तो अंधे की कोई गति नहीं है। क्योंकि सत्य का रास्ता दर्शन का रास्ता है, वहां खुली आंख चाहिए। तभी सत्य का दर्शन हो सकता है।
इसलिए मैंने कहा कि विश्वास से मुक्त हों, विचार में प्रतिष्ठित हों। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप जाएं और अपनी मां से कहें कि मैं कैसे तुझे मां मानूं, क्योंकि मैं विश्वास नहीं कर सकता, मैं तो विचार करूंगा। मैं अपने पिता को कैसे पिता मानूं, क्योंकि मैं कैसे विश्वास करूं कि आप मेरे पिता हैं? ये सब खेल की बातें हैं। ये बाहर के जो हमारे सारे अंतर्संबंध हैं, ये स्वीकृत खेल के संबंध हैं। हम खेल बदल लें और हालत बदल जाएगी। हम खेल के नियम बदल लें, हालत बदल जाएगी।
एक जमाना था कि पिता तो कोई भी नहीं होता था। यह जान कर आपको हैरानी होगी कि पिता नया शब्द है, काका पुराना शब्द है। अंकल पुराना शब्द है, फादर नया शब्द है। एक जमाना था मातृसत्ता सारी दुनिया में...पति तो कोई नहीं होता था, बहुत से पति होते थे, बहुपति होते थे। और बच्चे को पता ही नहीं चलता था कि कौन पिता है। तो बच्चा सभी को काका कहता था, पिता तो कोई था ही नहीं। मां थी, काका था, पिता बहुत बाद में आया। जब एक पत्नी पर निर्धारित हो गई बात और हमने खेल में यह तय कर लिया कि अब खेल का यही नियम रहेगा कि एक ही पति होगा और एक ही पत्नी होगी, तब पिता पैदा हो पाया। नहीं तो पिता का कोई पता नहीं था।
कल दुनिया फिर बदल सकती है। और यह हालत आ सकती है, जैसा कि आज हिप्पी और बीटन और बीटनीक पश्चिम में कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि एक पत्नी और एक पति का संबंध यह कानून से तय करना खतरनाक है। हम किसी कानून को नहीं मानते। हम तो प्रेम को मानते हैं। जब तक प्रेम है तब तक ठीक, जब प्रेम नहीं तो हम अलग हो जाएंगे। इसलिए किसी बंधन की कोई जरूरत नहीं है। दो मित्र हैं, वे साथ रह रहे हैं। अगर यह बात स्वीकृत हो गई, और यह स्वीकृत हो भी सकती है। क्योंकि जिंदगी रोज बदलती है, और नये प्रयोग करती है, और नये खेल ईजाद करती है--तो पिता फिर खो जाएगा। पिता का बचना फिर मुश्किल हो जाएगा।
यह सारा सामाजिक खेल है। सामाजिक मिथ हम एक सामाजिक पुराण, कल्पना तय करते हैं, समाज चलता है उससे, उससे सुविधा होती है। अब बाएं चलना कोई कानून है? आधी दुनिया दाएं चलती है, उसकी सड़कों पर लिखा है दाएं चलो और हमारी सड़कों पर लिखा है बाएं चलो। यह हमारी मौज है। दोनों से काम चल जाता है, बाएं चलने से भी और दाएं चलने से भी। मतलब केवल इतना है कि लोग एक तरफ से चलें, सारी तरफ से सारे लोग चलने लगें तो असुविधा होगी। यह सारी की सारी बातें विश्वास पर ही खड़ी हैं। और इसलिए इन बातों के लिए मैंने नहीं कहा है कि आप अविश्वास करना शुरू करें।

एक मित्र ने पूछा है कि गीता कहती है कि जो संशय से भरे लोग हैं, वे भटक जाते हैं, वे विनष्ट हो जाते हैं, और आप कहते हैं, विश्वास मत करो, तब तो संशय पैदा होगा?

लेकिन शायद उन्हें अंदाज नहीं संशय और संदेह में फर्क है। संदेह का अर्थ हैः डाउट। संदेह का अर्थ हैः किसी चीज को अंधे की तरह न मान लेना--सोचना, विचारना, पूछना, प्रश्न करना। संशय का अर्थ हैः इनडिसीसिवनेस। संशय का अर्थ हैः अनिश्चितमना। संशय का अर्थ हैः तय करने की असमर्थता की स्थिति। यह ठीक है, कि वह ठीक है; यह भी ठीक मालूम होता है, वह भी ठीक मालूम होता है; यह भी ठीक नहीं मालूम होता, वह भी ठीक नहीं मालूम होता--ऐसा जो चित्त इनडिसीसिव हो, तो ऐसा चित्त भटक जाता है। लेकिन विचार करने वाला चित्त तो डिसीसिव होता है। जो विचार करता है वह तो निर्णय पर पहुंचने लगता है। क्योंकि विचार निर्णय पर पहुंचने की पद्यति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
एक आदमी चैराहे पर खड़ा है और सोचता है कि बाएं जाऊं कि दाएं जाऊं। फिर एक क्षण बाएं बढ़ता है, और सोचता है कि नहीं, नहीं बाएं जाना ठीक नहीं, दाएं ही चला जाऊं। फिर दो कदम दाएं बढ़ता है, फिर सोचता है कि नहीं, दाएं जाना ठीक नहीं, बाएं ही चला जाऊं। और उसी चैरस्ते पर भटकता है। ऐसा चित्त, ऐसे संशय से भरा हुआ चित्त विनष्ट हो जाएगा। ठीक भी है।
लेकिन संशय और संदेह में फर्क है। संदेह का अर्थ संशय नहीं है। संदेह का अर्थ हैः मैं विचार करूंगा, निर्णय करूंगा, तब स्वीकार करूंगा। संदेह भी निर्णय पर ले जाएगा। संदेह असंशय पर ले जाएगा। और सच बात तो यह है कि विश्वास करने वाले लोग संशय से कभी मुक्त नहीं होते। क्योंकि विश्वास आपका अनुभव नहीं है। और जो आपका अनुभव नहीं है, आप कितने ही जोर से मान लें, आपके भीतर कोई आवाज कहती ही रहेगी कि पता नहीं ठीक है या नहीं। आप ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं। लेकिन भीतर मन मौके-बेमौके कहता रहता है कि पता नहीं ईश्वर है भी या नहीं? मानते तो हैं, लेकिन है या नहीं। आप विश्वास करते हैं कि आत्मा है, और अमर है। लेकिन भीतर मन कहता रहता है कि पता नहीं मरने के बाद कुछ बचता है या नहीं बचता?
मेरे पड़ोस में एक घर में एक मित्र की पत्नी की मृत्यु हो गई। उनके घर मैं उनको मिलने गया। देखा, पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हैं और सब उन्हें समझा रहे हैं कि आप दुखी क्यों हो रहे हैं, शरीर ही मरता है, आत्मा तो अमर है। मैंने सोचा, उस पड़ोस में रहने वाले लोग बड़े ज्ञानी हैं। सभी समझा रहे हैं, यह पड़ोस तो बड़े ज्ञानियों का है। यहां सबको पता है कि आत्मा अमर है। लेकिन जिसकी पत्नी मर गई है वे रोए ही चले जाते हैं, उनकी आंख से आंसू ही टपक रहे हैं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि आत्मा अमर है या नहीं। फिर वे आत्मा से शादी करके लाए भी नहीं थे, जिससे शादी करके लाए थे वह मरा हुआ पड़ा है। अब आत्मा अमर भी होगी तो भी क्या मतलब होता है, आत्मा कहीं पत्नी बन सकती है? होगी भी तो क्या मतलब?
इस आदमी की पत्नी खो गई है, लेकिन लोग समझा रहे हैं। फिर भी मैंने सोचा कि पड़ोस के लोग बड़े ज्ञानी हैं। जो आदमी सबसे ज्यादा समझा रहा था, दो महीने बाद दुर्भाग्य से उसका लड़का गुजर गया। उसके घर भी मैं गया। देखा कि वे रो रहे हैं, और दूसरे पास-पड़ोस के लोग समझा रहे हैं। वे सज्जन जो विधुर हो गए थे, वे भी समझा रहे हैं कि क्यों दुख कर रहे हैं, यह सब तो चलता है। आत्मा तो अमर है, शरीर तो जाता है। तब मुझे बड़ी परेशानी हुई। मैं उनसे जिनका पुत्र मर गया था उनसे पूछने लगा कि आप तो भलीभांति जानते हैं कि आत्मा अमर है, आपको तो मैंने समझाते सुना है। वे कहने लगे कि वे सब समझाने की बातें हैं, दूसरों के समझाने के काम पड़ जाती हैं। जब अपने पर मुसीबत आती है तो बड़ा संशय होने लगता है।
विश्वासी कभी भी संशय के बाहर नहीं होता। इसलिए गीता कहती है कि संश्यात्मा विनष्यति। और मैं कहता हूं कि जो भी विश्वास करते हैं, वे भी सब विनष्ट हो जाते हैं। क्योंकि विश्वास के भीतर संशय हमेशा मौजूद होता है। असल विश्वास हम करते ही उन चीजों पर हैं जिन पर हमें संशय है। जिन पर हमें संशय नहीं है उन पर हम विश्वास करते ही नहीं, उन्हें हम जानते हैं। आप सूरज के होने पर विश्वास करते हैं? नहीं, आप कहेंगे, विश्वास की जरूरत नहीं--सूरज है, हम जानते हैं। आप परमात्मा पर विश्वास करते हैं, क्योंकि परमात्मा का होने का आपको कोई भी पता नहीं है। जो आप नहीं जानते उस पर विश्वास करते हैं, जिसे आप जानते हैं उस पर विश्वास की कोई जरूरत नहीं है। वह तो निर्णयात्मक रूप से आपका ज्ञान बन गया।
विश्वास ऊपर होता है, भीतर संशय होता है। इसलिए सभी विश्वास करने वाले भटक जाते हैं। लेकिन अगर भीतर से संशय को मिटाना है तो ऊपर से संदेह को स्वीकार करना पड़ेगा। संदेह की स्वीकृति संशय के नष्ट करने की प्रक्रिया है। संदेह करिए, मत मानिए कि ईश्वर है, खोजिए, जांचिए, पड़तालिए, विचारिए, अनुभव करिए, ध्यान में उतरिए, प्रार्थना में डूबिए, पता लगाइए--है? जिस दिन पता चल जाएगा--है, उस दिन संदेह भी मिट जाएगा, संशय भी मिट जाएगा, उस दिन विश्वास की जरूरत भी नहीं होगी। उस दिन ज्ञान का जन्म होता है।
ज्ञान जहां जन्मता है, वहीं संशय नष्ट होता है। और ज्ञान वहां जन्मता है, जहां संदेह से यात्रा शुरू होती है। ज्ञान वहां नहीं जन्मता जहां विश्वास से यात्रा शुरू होती है। विश्वासी हमेशा अज्ञान में ही जीता है, और मर जाता है। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी। आमतौर से हम सोचते हैं कि विश्वासी धार्मिक है। और मैं आपसे कहना चाहता हूंः विश्वासी धार्मिक नहीं है, विश्वासी पूरी तरह अधार्मिक है। लेकिन अपने अधर्म से डर कर विश्वास की खोल ओढ़े हुए है। भीतर अधर्म है, भीतर अविश्वास है, भीतर सब संदेह है। और ऊपर से वह अपने विश्वास को पकड़े हुए है। और डरा हुआ है भीतर इसलिए जोर से पकड़े हुए है।
जब कोई आदमी कहता है कि मैं दृढ़ विश्वास करता हूं तब, तब, तब...तब समझ लेना आप कि भीतर बहुत घबड़ाया हुआ है, इसलिए दृढ़ विश्वास करना पड़ रहा है। दृढ़ विश्वास किसके खिलाफ? अपने ही खिलाफ। और अपने भीतर प्राण कंप रहे हैं, डर लग रहा है, संदेह मालूम हो रहा है। उसको दबा रहा है, और कह रहा है कि मैं पक्का विश्वासी हूं, मैं कभी संदेह नहीं करूंगा।
संदेह भीतर मौजूद रहेगा। जीवन, अनंत जीवन भी कोई आदमी विश्वास करे तो संदेह से मुक्त नहीं हो सकता। संदेह ही करे और इतना संदेह करे कि सत्य की खोज पर बढ़ता चला जाए, पूछता चला जाए तो एक दिन वहां पहुंच जाएगा जहां उदघाटन होता है, सत्य का। संदेह गिर जाएंगे अपने आप। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा चला जाता है, ऐसे ही सत्य के उदघाटन पर संदेह विलीन हो जाते हैं।
लेकिन वे सत्य के उदघाटन पर ही विलीन होते हैं, उसके पहले नहीं। और उसके पहले कि उन्हें विलीन करने की कोशिश करता है, केवल दबा लेता है, विलीन नहीं कर पाता है। भीतर वे बैठे रहते हैं। सब आस्तिकों के भीतर नास्तिक मौजूद है। सब आस्तिकों के भीतर नास्तिक मौजूद है। हां, उस आदमी के भीतर भर नास्तिक नहीं है जिसने विश्वास नहीं किया है, और जिसने खोज की, और जिसने पा लिया। लेकिन वह अपने को आस्तिक भी नहीं कहेगा। क्योंकि आस्तिक तो वह अपने को कहता है जो विश्वास करता है, जो जान लेता है। वह कहेगाः न मैं नास्तिक हूं, न मैं आस्तिक हूं। मैंने जान लिया है।
श्री अरविंद से किसी ने पूछा, एक जर्मन यात्री आया और उनसे पूछने लगा, डू यू बिलीव इन गाॅड? आप विश्वास करते हैं ईश्वर में? श्री अरविंद ने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। तो आदमी तो बहुत हैरान हुआ। वह तो यह सोच कर आया था कि परम आस्तिक के पास जा रहा है, जो विश्वास करता होगा। जब अरविंद ने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं; तो उसने कहा कि हैरानी, आप विश्वास नहीं करते, आप अविश्वास करते हैं! अरविंद ने कहा कि नहीं, अविश्वास भी नहीं करता। तो उसने कहा कि फिर आप क्या करते हैं? अरविंद ने कहा कि आई डू नाॅट बिलीव, आई डू नाॅट डिसबिलीव--आई नो। न मैं विश्वास करता, न मैं अविश्वास करता--मैं जानता हूं। यह जानना बात ही और है। न यहां विश्वास है, न यहां अविश्वास है। इस जानने का ही अर्थ है। और इस जानने की दिशा में जाना हो तो विश्वास की गलत दिशा नहीं पकड़नी चाहिए। विचार की सम्यक दिशा ही पकड़नी होगी।

एक मित्र ने पूछा है कि आप ये बातें समझा रहे हैं, तो हम आप पर विश्वास कर लेंगे? तो फिर वही बात हो जाएगी।

मैं नहीं कहता कि मुझ पर आप विश्वास करें। मैं कैसे कहूंगा कि मुझ पर विश्वास करो? मैं कहूंगा कि जो मैं कह रहा हूंः उसको सोचें, समझें, खोजें, परखें। अगर कहीं उसमें कोई सत्य कभी मिल जाए तो विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, आप जान लेंगे। और अगर सत्य न मिले तो विश्वास करने की कोई जरूरत ही नहीं। आप उसे फेंक देंगे। मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उस पर भी पूरी तरह संदेह और खोज करने की जरूरत है। मैं ऐसे, उन व्यक्तियों में से नहीं हूं जो आपसे एक गुरु छीन ले, और उसकी जगह खुद गुरु बन जाऊं; एक शास्त्र छीन ले, और मैं आपका शास्त्र बन जाऊं; एक विश्वास छीन ले, और मैं आपका विश्वास बन जाऊं। मैं आपसे विश्वास मात्र छीनना चाहता हूं। उसमें मेरी बात पर विश्वास करने का कोई भी सवाल नहीं है। सोचना भी मत, मन हो अगर कि हां इनकी बात पर विश्वास कर लिया जाए तो समझना कि यह गलत है।
मन तो बहुत जल्दी कोशिश करता है किसी पर विश्वास कर लो। मेरे पास ही लोग आ जाते हैं, वे मेरा ही पैर पकड़ लेते हैं, वे कहते हैं कि हम तो आपको ही गुरु बनाएंगे। मैं उनको कहता हूं कि तुम पागल हो गए हो! मैं दिन-रात समझा रहा हूं कि कोई गुरु नहीं है, सिवाय तुम अपने गुरु के और कोई गुरु नहीं है। वह तुम्हारा गुरु तुम्हारे भीतर है, तुम मेरे पीछे क्यों पड़ गए हो? वे कहते हैं कि नहीं, हम मानेंगे नहीं, आप कितना ही इनकार करिए, हम तो आपको ही गुरु बनाएंगे।
ऐसा अंधापन है, इतना पागलपन है! लेकिन गुरुओं ने सिखाया है हजारों सालों से। उस सिखावन का इतना जहर भीतर पहुंच गया है कि अगर कोई गुरुओं के खिलाफ भी बोल रहा हो, गुरूडम के खिलाफ बोल रहा हो, तो लगता है चलो इसी आदमी को गुरु बना लें। और ऐसा ही होता रहा है। बुद्ध ने लोगों को समझाया कि मूर्ति-पूजा व्यर्थ है। आज बुद्ध की जमीन पर जितनी मूर्तियां हैं उतनी किसी दूसरे आदमी की नहीं है। अगर बुद्ध लौट आएं तो अपनी छाती पीट कर रोने लगेंगे कि इन नासमझों को मैंने समझाया था कि मूर्ति व्यर्थ है, और मेरी ही मूर्तिंयां सबसे ज्यादा हैं।
चीन में एक मंदिर है, जिसमें दस हजार मूर्तियों का मंदिर है, दस हजार बुद्ध की मूर्तियां एक मंदिर में हैं। बड़े-बड़े पहाड़ खोद डाले हैं। न मालूम कितने मंदिर बना रखे हैं। सारी जमीन भर दी है बुद्ध की मूर्तियों से। बुद्ध की मूर्तियां सबसे ज्यादा हैं। यह जान कर आपको हैरानी होगी कि उर्दू में बुत शब्द है मूर्ति के लिए, वह बुद्ध का अपभ्रंश है। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध यानी मूर्ति हो गया। उर्दू में वे बुत कहते हैं, वह बुद्ध का ही रूप है। बुद्ध यानी मूर्ति। इतनी मूर्तियां फैली हैं सारे एशिया पर कि जिन लोगों ने देखा, पहली दफा देखा होगा, उन्होंने कहा, यह क्या है? तो लोगों ने कहा होगाः बुद्ध। तो उन्होंने समझा कि इसको बुद्ध कहते हैं। तो अब उर्दू में बुत ही कहा जाता है। और बुत का मतलब सिर्फ बुद्ध।
यह बुद्ध कभी सोच भी नहीं सकते थे कि यह हो जाएगा। महावीर ने कभी सोचा होगा? महावीर नग्न खड़े हैं, उनके पास वस्त्र भी नहीं हैं। लेकिन महावीर के मानने वालों के पास जितना सामान और परिग्रह इकट्ठा हुआ है, उतना किसी दूसरे के पास इकट्ठा नहीं है। महावीर नंगे खड़े हैं, उनके पास एक चीज नहीं है।
जबलपुर में मेरे एक मित्र हैं, उनकी दुकान का नाम हैः दिगंबर क्लाॅथ स्टोर। और दिगंबर का मतलब होता हैः नंगा। महावीर के मानने वाले हैं, तो दिगंबर क्लाॅथ स्टोर खोले हुए हैं। अगर महावीर आ जाएं तो बड़े हैरान होंगे कि मेरा मानने वाला कपड़ा बेच रहा है! और मैंने कपड़े ही छोड़ दिए थे। और लोगों के कपड़े छुड़वा दिए थे।
सारी दुनिया में ऐसा हुआ है, क्राइस्ट ने लोगों को समझाया कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और ईसाईयों ने जितनी हत्याएं की हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। इस्लाम का अर्थ हैः शांति का धर्म। इस्लाम शब्द का अर्थ हैः शांति। और इस्लाम ने जितनी अशांति फैलाई है, किसी और ने फैलाई न होगी। आदमी अजीब है, जो बात समझाई जाए उससे उलटा भी उसका मन समझने की तैयारी रखता है। असल में हम जो समझना चाहते हैं वही समझ लेते हैं, जो समझाया जाता है वह नहीं समझते हैं। मैं जो समझा रहा हूं वह आप कम समझ रहे हैं, आप जो समझना चाहते हैं वही समझ लेंगे और मेरे ऊपर थोपेंगे कि मैंने ऐसा कहा और हम उनको मानते हैं।
अगर हम मनुष्य-जाति के मन के विकास की पूरी कथा देखें तो बहुत आश्चर्य होगा, बहुत आश्चर्य होगा। मैं नहीं कहता हूं मुझ पर विश्वास करें, मैं तो निरंतर यही कह रहा हूं किसी पर विश्वास न करें--विचार करें, लेकिन इससे एक उलटा मतलब भी समझ लेंगे आप।

एक मित्र ने वह भी पूछा हैः उन्होंने पूछा है कि क्या आपका यह मतलब है कि हम सब पर अविश्वास करें?

मेरा यह मतलब नहीं है। जब मैं कहता हूं कि किसी पर विश्वास न करें तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सब पर अविश्वास करें। अविश्वास भी एक प्रकार का विश्वास है। अविश्वास उलटा विश्वास है, नकारात्मक विश्वास है, निगेटिव बिलीफ है। एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर पर विश्वास करता हूं, यह भी विश्वास है। एक दूसरा आदमी कहता है कि मैं ईश्वर पर अविश्वास करता हूं, यह भी विश्वास है। न पहले वाला आदमी खोज पर गया है जानने कि ईश्वर है या नहीं, न दूसरा आदमी खोज पर गया है कि ईश्वर है या नहीं। एक ने बिना जाने मान लिया है कि--है, एक ने बिना जाने मान लिया है कि--नहीं है। दोनों विश्वास हैं, दोनों अंधें हैं। आस्तिक भी अंधा है, और नास्तिक भी अंधा है। इसलिए आस्तिक नास्तिक हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ता, अंधापन जारी रहता है; नास्तिक आस्तिक हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ता, अंधापन जारी रहता है।
मैंने सुना है, एक गांव में दो आदमी थे, दो पंडित थे, एक आस्तिक और एक नास्तिक। और उन दोनों की वजह से गांव बहुत परेशान था। गांव इसलिए परेशान था कि आस्तिक समझाता था कि आस्तिकता सच है, ईश्वर सच है। उसकी बातें भी सुन कर लगता था कि ठीक कहता है। और फिर नास्तिक समझाता था कि सब झूठ है, सब बकवास है, न कोई ईश्वर है, न कोई आत्मा है; बस यह शरीर सब कुछ है, खाना-पीना सब कुछ है। उसकी बातें सुन कर भी लगता था कि ठीक है। गांव बड़ी मुश्किल में पड़ गया, कौन ठीक है? आखिर गांव के लोग घबड़ा गए उन दोनों का विवाद, चर्चा सुन-सुन कर। फिर गांव के लोगों ने कहाः ऐसा करें, आज आ रही है पूर्णिमा की रात्रि, आप दोनों विवाद करें। और दोनों में जो जीत जाए हम सारे गांव के लोग उसी के साथ हो जाएंगे। हम ज्यादा झंझट नहीं चाहते। हमें अपना काम करने दो, हम दुकान पर बैठे हैं, तुम आकर हमारा सिर खाते हो कि ईश्वर है, कि ईश्वर नहीं है। हम अपना काम कर रहे हैं, हमें अपना काम करने दो, तुम दोनों लड़ लो, जो जीत जाए हम उसी को मान लेंगे।
उस पूर्णिमा की रात उस गांव में विवाद हुआ, और आस्तिक ने गहरी से गहरी दलीलें दीं ईश्वर के होने के लिए, और ईश्वर के न होने को खंडन किया। और नास्तिक ने समझाया कि ईश्वर नहीं है, और ईश्वर के न होने को प्रमाणित किया। दोनों की दलीलें अदभुत थीं, इन दोनों के तर्क अदभुत थे, दोनों...ऐसा लगा कि कौन जीतेगा? दोनों जीतते हुए मालूम पड़े। और मजा यह है कि दोनों जीत गए। सुबह होते-होते आस्तिक नास्तिक हो गया, नास्तिक आस्तिक हो गया। और गांव की मुसीबत बरकरार रही। वह गांव फिर झंझट में पड़ा रहा। इससे क्या फर्क पड़ता है। एक आस्तिक फिर रहा गांव में, एक नास्तिक फिर रहा। और फिर दूसरे दिन से सुबह से उन्होंने समझाना शुरू कर दिया कि ईश्वर नहीं है, ईश्वर है।
मैं अविश्वास करने को नहीं कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं विचार करने को। अविश्वास भी विचार नहीं है, विश्वास भी विचार नहीं है। और इसलिए विचार करने वाला न विश्वासी होता, न अविश्वासी होता। संदेह का अर्थ अविश्वास नहीं है। संदेह का अर्थ है कि मैं खोजूंगा, पूछूंगा, जानूंगा। अविश्वास का अर्थ है कि मैंने मान लिया कि नहीं है। अविश्वास अंधा है। अविश्वास ईश्वर को खोजने नहीं जाता। वह कहता है, नहीं है ईश्वर। विश्वासी भी खोजने नहीं जाता, वह कहता है कि ईश्वर है। दोनों अपनी जगह बैठ कर घोषणाएं करते रहते हैं, खोजने कोई भी नहीं जाता।
संदेह खोजने जाता है। संदेह कहता हैः मुझे पता नहीं है, और मैं किसी दूसरे को मानने की तैयारी में भी नहीं हूं, मैं खोजूंगा। अगर पता मिल जाएगा तो स्वीकृति होगी, नहीं पता मिलेगा तो अस्वीकार कर दूंगा। लेकिन जब तक मुझे पता नहीं तब तक मैं कैसे स्वीकार करूं, कैसे अस्वीकार करूं? कैसे विश्वास करूं, कैसे अविश्वास करूं?
संदेह का मतलब बहुत भिन्न है। संदेह का मतलब हैः एक ओपन माइंड, एक खुला हुआ चित्त जो खोजने को तैयार है, जिसका कोई पक्ष नहीं है, जो किसी पक्ष को पकड़ता नहीं है, जो निष्पक्ष है। संदेह का अर्थ हैः निष्पक्षता, अनप्रिज्युडिस्ड। संदेह का अर्थ हैः खुला मन। कोई पहले से हमने पकड़ नहीं लिया। हम खोजेंगे, खोजेंगे, खोजेंगे। खोज में जाएंगे। जो होगा, जो दिखाई पड़ेगा, उसे जान लेंगे। जो नहीं होगा, नहीं दिखाई पड़ेगा, वह खो जाएगा।
मैं कह रहा हूं विचार करने को, तो न तो मुझ पर विश्वास कर लेना, न अविश्वास कर लेना। मेरी बात को सुन लेना, निष्पक्ष मन से सोचना, खोजना, इतनी जल्दी भी नहीं है कि आज ही, अभी कोई निर्णय हो जाए। जो जल्दी में हैं बहुत निर्णय की, वे गलत निर्णय ले लेते हैं। क्योंकि जल्दी के कारण हम सोचने के लिए समय नहीं दे पाते। जल्दी कुछ भी नहीं है। जीवन के जो परम सत्य हैं उन्हें बड़े धैर्य से, अत्यंत धैर्य से खोजना पड़ता है। अक्सर यह होता है कि जल्दी वाले कहीं भी नहीं पहुंचते, धीरे-धीरे चलने वाले कहीं पहंुच जाते हैं। विचार बड़ी धीमी, ब.ह‏ुत धीमी खोज है।
एक कहानी मुझे याद आती है।
मैंने सुना है कि कोरिया के एक गांव के पास एक नाव में दो भिक्षु पार कर रहे थे नाव। नदी पार की, एक वृद्ध भिक्षु है, एक जवान भिक्षु है। दोनों के सिर पर ग्रंथों का बड़ा बोझ है। भिक्षुओं के सिर पर होता ही है, साधु-संन्यासियों के सिर पर ग्रंथों का बोझ न होगा तो और क्या होगा? तिजोरी का बोझ हटता है तो किताबों का बोझ सिर पर बैठ जाता है। वे अपना-अपना बोझ लिए हुए हैं। दोनों उतरे हैं, मल्लाह से पूछने लगे हैं, मांझी से कि हम कितनी देर में गांव पहुंच जाएंगे। क्योंकि हमने सुना है कि इस गांव का नियम ऐसा है कि सूरज ढलते ही गांव का दरवाजा बंद होता है, फिर रात भर हमें जंगल में रहना पड़ेगा। सूरज डूबने के करीब है, सूरज नीचे उतर रहा है। उस मांझी ने अपनी नाव धीरे से बांधते हुए कहा कि धीरे-धीरे जाओ तो पहंुच भी सकते हो, लेकिन जल्दी गए तो पहुंचने का कोई भरोसा नहीं है।
अब ऐसी बात पागलपन की मालूम होती है। उन दोनों भिक्षुओं ने सोचा कौन पागल से हम पूछ रहे हैं, उलटी बात कह रहा है? कह रहा है, धीरे-धीरे जाओ तो पहुंच भी सकते हो, अगर जल्दी गए तो पहुंचने का कोई पक्का भरोसा नहीं है। फिर उन्होंने उससे कुछ भी पूछना उचित न समझा। वे दोनों भागे, क्योंकि कहीं रात न पड़ जाए और दरवाजा बंद न हो जाए। अन्यथा फिर रात, जंगल है, घना जंगल, अंधेरी रात, मुश्किल हो सकती है। वे दोनों भाग रहे हैं, और आखिर जो होना था वही हुआ। उस बूढ़े का पैर एक पत्थर से फिसल गया, वह गिर पड़ा, दोनों टांगें टूट गईं, सारे ग्रंथ के पन्ने बिखर गए।
वह मांझी अपनी नाव बांध कर, अपनी पतवार लेकर धीरे-धीरे आता था। बूढ़े को पड़े देखा, जवान उसके पैर पर पट्टियां बांध रहा है। वह नाविक आकर खड़ा हो गया और कहने लगा, मैंने कहा था अगर धीरे से जाओगे तो पहुुंच भी सकते हो। जल्दी गए, पहुंचने का कोई भरोसा नहीं। अनेक जल्दी जाने वालों को इसी तरह इन्हीं पत्थरों पर गिरते हुए मैं देख चुका हूं। लेकिन तुमने मेरी बात नहीं मानी, तुम समझे कि मैं कोई पागल हूं। तुमने मेरी बात विचारी भी नहीं, तुमने मेरी बात पर ध्यान भी नहीं दिया। तुमने समझा कि इससे हमने पूछ कर ही गलती की है। अब तुम मुश्किल में पड़ गए, अब पहुंचना बहुत मुश्किल है। अच्छा मैं चलता हूं, नमस्कार। अभी समय है और मैं धीरे-धीरे जा रहा हूं, पहुंच जाऊंगा।
जीवन के जो परम सत्य हैं वहां अधैर्य से काम नहीं चलता है। असल में अधैर्य के कारण ही हम विश्वास कर लेते हैं या अविश्वास करते हैं। अधैर्य के कारण, वह जो इंपेशेंस है, ऐसा लगता है--अभी, इसी वक्त। तो अभी और इसी वक्त विचार तो नहीं हो सकता, अंधापन हो सकता है--किसी को भी मान लो। विचार करना है तो अत्यंत धैर्य चाहिए। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जितना धैर्य हो उतनी जल्दी मनुष्य निर्णय पर पहुंच जाता है, और जितना अधैर्य हो उतना ही पहुंचना मुश्किल हो जाता है--क्यों? क्योंकि धैर्य की जो क्षमता है, जो शांति है, वह विचार करने के लिए सहारा बनती है। अत्यंत धीरज से भरा हुआ चित्त ठीक से देख पाता है, सोच पाता है, समझ पाता है।
लेकिन हम, हम प्रत्येक चीज में भागे हुए हैं, दौड़े हुए हैं। और जीवन के जो परम प्रश्न हैं, जो चरम सवाल हैं, जो अंतिम अल्टीमेट क्वेश्चंस हैं--उनके संबंध में तो हम इतनी जल्दी करते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। बच्चा पैदा नहीं हुआ और हमने सिखाना शुरू किया कि ईश्वर है, मोक्ष है। क्या पागलपन कर रहे हैं? बच्चे को श्वास तो लेने दें। उसकी बुद्धि को थोड़ा विकसित तो होने दें। यह सब आप क्या उसके दिमाग में भर रहे हैं? इतनी जल्दी क्या है? उसके बिना सोचे-विचारे आप उसके दिमाग में भर देंगे। जिंदगी भर के लिए वह बिना सोचा-विचारा रह जाएगा। जीवन भर इन्हीं बातों को दोहराता रहेगा जो आपने उसके मस्तिष्क में डाल दी हैं। और मस्तिष्क में बातों को डालने की एक अलग कला है। उसका ज्ञान से कोई भी संबंध नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि उसका शोषण से, एक्सप्लाॅइटेशन से संबंध है।
आप जाते हैं रास्ते पर, और रास्ते पर लिखा हुआ हैः पनामा सिगरेट पीना-पिलाना उम्दा बात है। आपने पढ़ लिया, आप आगे बढ़े। फिर दूसरे रास्ते पर वही लिखा है कि पनामा सिगरेट पीना-पिलाना उम्दा बात है, आपने वह भी पढ़ लिया। आपको पता नहीं कि पढ़-पढ़ कर पनामा सिगरेट आपके भीतर प्रवेश कर रही है। फिल्म देखने गए हैं, वहां भी पनामा सिगरेट। रेडियो खोला, वहां भी पनामा सिगरेट। और रात में निकले हैं तो पहले तो बिजली के बल्ब थे जो स्थिर जलते रहते थे--पनामा सिगरेट--अब वे जलते-बुझते रहते हैं। अब समझदारों ने समझाया कि जितनी बार जले-बुझे, उतनी बार आदमी को पढ़ना पड़ेगा। पनामा सिगरेट फिर बुझ गया, फिर जला पनामा सिगरेट। फिर आपको पढ़ना पड़ेगा, आप उसके नीचे से निकल रहे हैं। वह जितनी देर आप निकल रहे हैं, जलेगा-बुझेगा, उतनी बार आपको पढ़ना पड़ेगा।
अगर वह एक साथ ही जलता रहे तो एक ही बार पढ़ने से छुटकारा हो जाएगा। लेकिन रिपिटेशन से दिमाग में बात डाली जाती है। तो सब तरफ से, रेडियो खोलो पनामा सिगरेट, फिल्म देखो पनामा सिगरेट, अखबार खोलो पनामा सिगरेट, जो कुछ भी करो पनामा सिगरेट--वह आपके भीतर घुसती चली जा रही है। आपको कोई समझा नहीं रहा है, सिर्फ आपको परसुएड किया जा रहा है। आपको फुसलाया जा रहा है कि पनामा सिगरेट अच्छी सिगरेट है। आप बाजार में गए, सिगरेट की दुकान पर खड़े हुए हैं, हजारों सिगरेट रखी हुई हैं, सिगरेट वाला पूछता है, कौन सी सिगरेट? आप कहते हैं, पनामा दे दो। आप सोचते हैं, हम सोच कर कह रहे हैं, सोचने का इससे कोई संबंध नहीं है। आपकी खोपड़ी में डाल दी गई है यह बात। आप मशीन की तरह कह रहे हैं, पनामा सिगरेट। यह बहुत बार आपके दिमाग में डाल दिया अब आपकी जबान से निकल रहा है, पनामा सिगरेट।
यह पनामा सिगरेट जिस तरह निकल रही है, उसी तरह और चीजें भी निकल रही हैं। ईश्वर भी, आत्मा भी, मोक्ष भी; जैन धर्म भी, हिंदू धर्म भी, मुसलमान धर्म भी। बचपन से एक बच्चे को पढ़ाया जा रहा है कि महावीर तीर्थंकर थे, वही पनामा सिगरेट वाली कला है। महावीर तीर्थंकर हैं, महावीर तीर्थंकर हैं, हे जैनेंद्र देव, महावीर तीर्थंकर हैं। किसी को पढ़ाया जा रहा है, राम भगवान हैं; किसी को पढ़ाया जा रहा है, मोहम्मद पैगंबर हैं। उस बच्चे की खोपड़ी में डाल रहे हो, डाल रहे हो, डाल रहे हो। जवान होते-होते उससे पूछो, मोहम्मद कौन हैं? वह कहेगाः सीधे से बोलो, कहो हजरत मोहम्मद। महावीर कौन है? वह कहेगाः पहले लगाओ भगवान, भगवान महावीर। ऐसा महावीर नहीं कहना चाहिए। यह सोच कर कह रहा है?
वही पनामा सिगरेट निकल रही है। जो डाला गया है, वही निकल रहा है। इसको सोच-विचार पैदा हुआ है कुछ? आपसे कोई पूछता है, आप कौन? आप कहते हैं, मैं हिंदू हूं। आप सोच-विचार कर हिंदू हुए? आपने कभी यह निर्णय लिया है कि मैं हिंदू हो जाऊं? यह कभी आपका डिसीजन रहा है? यह कभी आपने तय किया है कि मैं हिंदू होता हंू? यह आपने कभी तय नहीं किया। यह आपको पढ़ाया गया है, सिखाया गया है, यह आपके खून में डाल दिया गया है। यह आपकी हड्डी-हड्डी में पहुंच गया है। अब आप कहते हैं, मैं हिंदू हूं। इससे ज्यादा अबुद्धि की और क्या बात हो सकती है कि आप कहते हैंः मैं मुसलमान हूं, मैं जैन हूं, मैं सिक्ख हूं--आपने निर्णय लिया है कभी?
महावीर के पास जो पहले आदमी इकट्ठे हुए होंगे, उनका तो निर्णय रहा होगा जैन होने का। लेकिन उनके बाद के लोगों का कोई निर्णय नहीं, वे सब अंधों की तरह पीछे जा रहे हैं। मोहम्मद के पास जो पहले लोग इकट्ठे हुए होंगे उन्होंने निर्णय लिया होगा, उनका डिसीजन रहा होगा कि हम सोच-विचार कर इस बात के पास जाते हैं। लेकिन उनके बच्चे? लेकिन उनके बच्चों के सिर में थोपा जा रहा है।
हम विचार कर ही नहीं रहे हैं। हमें विचार करने का मौका, अवसर ही नहीं है। और धीरज भी नहीं है कि एक बाप ठहरे कि बच्चा जवान हो जाए, और फिर सोचे, खोजे। और जो ठीक समझे वह हो जाए। लेकिन बाप डरा हुआ है। बाप को अच्छी तरह पता है कि अगर इसने सोच-विचार किया तो हिंदू-मुसलमान होगा ही नहीं, आदमी हो जाएगा। और आदमी कोई नहीं चाहता, कि कोई हो जाए। हिंदू बनाना चाहता है, मुसलमान बनाना चाहता है, ईसाई; आदमी? आदमी को कोई पसंद नहीं करता।
अगर निपट आदमी हैं आप, तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर आप एक धर्मशाला में जाएं और वे पूछें कि आप कौन हैं? जैन हैं, हिंदू हैं? और आप कहें, मैं सिर्फ आदमी हूं। तो वे कहेंगे, यह धर्मशाला जैनियों के लिए है, आप कहीं आदमियों की धर्मशाला में जाइए। और आदमियों के लिए कोई धर्मशाला है नहीं। है कोई धर्मशाला जिसमें लिखा हो कि यहां आदमी ठहर सकते हैं? ऐसी कोई धर्मशाला नहीं है। आप मंदिर में जाइए, वे पूछेंगे कि कौन, ब्राह्मण हो कि शूद्र हो? और आप कहें कि मैं सिर्फ आदमी हूं। वे कहेंगे, कहीं और जाओ। आदमियों का मंदिर अभी तक बना ही नहीं है। और आदमी होना हमारी असलियत है। और जो असलियत नहीं है वह हमें सिखाया गया है। और जो हमें सिखाया गया है वही हम भुगत रहे हैं। फिर कैसे हम विचारपूर्ण हो सकेंगे?
इसलिए विचारपूर्ण आदमी यह देखता है कि मैं सिखाई हुई बातें तो नहीं दोहरा रहा हूं? मैं जबरदस्ती प्रचारित, प्रोपेगेंडिड बातें को नहीं दोहरा रहा हूं? मेरे मस्तिष्क में कहीं जो सिखा दिया गया है, और डाल दिया गया है, और वही तो नहीं कहे चला जा रहा हूं? और तब उसे स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि अधिकतम बातें तो हम चुपचाप अंधों की तरह दोहरा रहे हैं। ऐसी बातों को दोहराने वाले आदमी की आत्मा कभी भी पैदा नहीं होती।
इसलिए मैं कहता हूंः विश्वास से मुक्त होना, अविश्वास से मुक्त होना। असल में मेरा मतलब हैः अंधेपन से मुक्त होना, और विचार की आंख को पैदा करना।
विचार के अतिरिक्त और कोई आंख नहीं है। विचार के अतिरिक्त मनुष्य के पास और कोई क्षमता नहीं है। विचार के अतिरिक्त मनुष्य के पास और कोई शक्ति नहीं हैै। और उसी विचार को सब तरफ से जकड़ना और कैद में डाल दिया गया है, सब तरफ से जंजीरें पहना दी गई हैं। लेकिन हमें खयाल भी नहीं आता, हमें पता भी नहीं चलता। हम जो कह रहे हैं, वह सीखा हुआ है; जो पूछ रहे हैं, वह सीखा हुआ है; जो मान रहे हैं, वह सीखा हुआ है। सब सीखा हुआ है, हमारे पास जाना हुआ कुछ भी नहीं है।
हम कैसे आदमी हैं? और इस सीखे हुए पर हम लड़ेंगे। अभी खबर उड़ जाए कि हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया। और बस, एक आदमी दूसरे की छाती में छुरा भोंक रहा है। अब जरा गौर से देखो कि कौन किसकी छाती में छुरा भोंक रहा है? जिसके दिमाग में बचपन से सिखाया गया है कि पनामा सिगरेट अच्छी है, वह उसकी छाती में छुरा भोंक रहा है जिसको सिखाया गया है कि बर्गले सिगरेट अच्छी है। पनामा सिगरेट बर्गले सिगरेट में छुरा भोंक रही है। और कुछ मामला नहीं है। कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है? लेकिन जिसे सिखाया गया कि तू मुसलमान है, वह हिंदू की छाती में छुरा भोंक रहा है; जिसे सिखाया गया है कि वह हिंदू है...। थोड़ी देर को सोचें, इन दोनों को न सिखाया गया होता कि तुम हिंदू और मुसलमान हो, और हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाता, तो क्या एक-दूसरे की छाती में ये छुरा भोंकते? यह एक विश्वास दूसरे विश्वास की छाती में छुरा भोंक रहा है।
एक आदमी दूसरे आदमी की छाती में छुरा नहीं भोंक सकता। एक अंधापन दूसरे अंधेपन की छाती में छुरा भोंकता है। अभी कल तक, उन्नीस सौ सैंतालीस तक पाकिस्तान हमारी मातृभूमि थी--अब? अब हमारी दुश्मन भूमि है। अब हमारी प्रार्थनाएं यह हैं कि पाकिस्तान खत्म हो जाए। और पाकिस्तान के लोगों की प्रार्थनाएं यह हैं कि हिंदुस्तान खत्म हो जाए। और कल तक यह जमीन एक थी। आज क्या हो गया?
अभी कल ही मैं कह रहा था, एक छोटी सी एक कहानी किसी ने लिखी है। जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा होने लगा, तो सीमा-रेखा पर एक पागलखाना था। उस पागलखाने के पागलों से पूछा गया कि तुम हिंदुस्तान में जाना चाहते हो कि पाकिस्तान में? पागलों ने कहाः हम कहीं नहीं जाना चाहते, हम यहीं रहना चाहते हैं। हमसे कम पागल रहे होंगे वे। वे पागल बोले, हमें कहीं जाना नहीं। हम क्यों जाएं हिंदुस्तान में? क्यों जाएं पाकिस्तान में? हम तो यहीं रहना चाहते हैं, जहां रहते हैं। लेकिन अधिकारियों ने कहाः नहीं, ऐसे नहीं चलेगा, अब तो जाना ही पड़ेगा। कहां जाना है तुम्हें? पागलों ने कहाः हम जहां रहते आए हैं, हम मजे में हैं। हमें कहीं भी नहीं जाना है।
लेकिन जब पूरा मुल्क, चालीस करोड़ पागल हो गया होगा तो पागलों की कौन सुने?
अधिकारियों ने कहा कि नहीं, जाना पड़ेगा। तुम तय करो कि तुम्हारा पागलखाना कहां रहेगा, हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में? पागल कुछ भी तय न कर पाए। क्योंकि पागल आपस में बहुत सोचे होंगे कि...कहा यह मामला क्या है? हम जहां रहते हैं वहीं ठीक हैं, हमें कहीं जाने की जरूरत क्या है? फिर पागलों को क्या पता कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है? अगर उनमें बुद्धि होती तो उनको पता होता। बुद्धिमान पागलों से भी ज्यादा पागल मालूम होते हैं। वे पागल सोचने लगे कि कौन हिंदू है? कौन मुसलमान है? यह मामला क्या है?
पागलों को पता नहीं कि एक हिंदू है, एक मुसलमान है। पागल सिर्फ पागल है। उनसे बहुत कहा गया कि तुममें जो मुसलमान हैं वे पाकिस्तान चले जाएं, तुममें जो हिंदू हैं वे हिंदुस्तान चले जाएं। उन्होंने कहा कि हम तो सिर्फ पागल हैं। कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, हमें कुछ पता नहीं। आखिर यही निर्णय हुआ कि पागलखाने में बीच में रेखा खींच दी जाए, आधा-आधा पागलखाना बांट दिया जाए--जो जहां चला जाए। यही तो रास्ता है, फिर और कोई रास्ता नहीं है। अगर पागल लड़ने लगें तो फिर रास्ता एक है कि बीच से रेखा खींच दो, और पागलों को बांट दो। आधे-आधे पागल बंट जाएं।
आधा-आधा पागलखाना बांट दिया गया। आधा पागलखाना पाकिस्तान हो गया, आधा पागलखाना हिंदुस्तान हो गया। लेकिन वे पागल सीमा-रेखा पर खड़े होकर बात करने लगे एक-दूसरे से कि बड़ी अदभुत बात है, हम पाकिस्तान में आ गए, तुम हिंदुस्तान में चले गए। और कोई कहीं नहीं गया, सब वहीं के वहीं हैं। और यह हो कैसे गया? यह मिरेकल, यह चमत्कार हो कैसे गया? यह हमको समझाया जाता है कि हम पाकिस्तान में चले गए, तुम हिंदुस्तान में चले गए हो। और जहां के तहां हैं हम। मकान भी हमारा वही है, हम भी वही हैं।
उन पागलों को क्या पता कि आदमी बहुत पागल है। और पागलखानों के बाहर वे पागल हैं, वे बहुत खतरनाक पागल हैं। और उन...अब पाकिस्तान है, अब हिंदुस्तान है, अब हिंदुस्तान पाकिस्तान की छाती में छुरा भोंकता रहे, पाकिस्तान हिंदुस्तान की छाती में छुरा भोंकता रहे, और कोई पूछे कि जमीन बंटी हुई है कहीं?--कि हमें सिखाया जा रहा है। हमें सिखाया जा रहा है, हम वही सीख रहे हैं।
आदमी जब तक विश्वास करता रहेगा दुनिया से युद्ध बंद नहीं होंगे। आदमी जब तक विश्वास करता रहेगा तब तक दुनिया से हिंसा बंद नहीं होगी। आदमी विचार करेगा तो पाकिस्तान इसी वक्त मिट जाएगा, हिंदुस्तान मिट जाएगा, चीन मिट जाएगा। क्योंकि विचार किन्हीं सीमाओं को नहीं मानेगा। विचार सत्य को देखेगा। हिंदू मिट जाएगा, मुसलमान मिट जाएगा, आदमियत रह जाएगी। इस्लाम चला जाएगा, जैन चला जाएगा, बौद्ध चला जाएगा--धर्म रह जाएगा। क्योंकि विचार में तो वही बचेगा जो सत्य है, शेष सब खो जाता है।
अगर एक विचारपूर्ण दुनिया पैदा की जा सके, तो न तो उसमें राष्ट्र होंगे, न तथाकथित धर्म होंगे, न जातियां होंगी, न ब्राह्मण होंगे, न शूद्र होंगे। यह सब मस्तिष्क, मनुष्य के न्यूरोटिक, मनुष्य के पागल होने के लक्षण हैं। यह अदभुत बात है। लेकिन बड़े बुद्धिमान भी इन्हीं बातों की ताकीद किए चले जाते हैं कि फलां आदमी शूद्र है, फलां आदमी ब्राह्मण है।
इसलिए मैं कहता हूं, विश्वास से मुक्त हों, ताकि एक अच्छी मनुष्यता का, और एक अच्छे जगत का निर्माण हो सके। इसलिए विश्वास से मुक्ति को मैंने जीवन-क्रांति का दूसरा सूत्र कहा है।
कुछ और प्रश्न रह गए हैं जिन पर कि बात नहीं हो सकी, वे सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। लेकिन समय की सीमा है और जिनके प्रश्न रह गए हों और उन्हें लगे कि उनका उत्तर जरूरी है तो मुझे लिख कर पूछ ले सकते हैं। सांझ को हम तीसरे अंतिम सूत्र पर बात करेंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

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