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सोमवार, 17 सितंबर 2018

मन का दर्पण-(प्रवचन-02)

मन का दर्पण-(विविध)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

स्वयं को जानना सरलता है

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर शायद मनुष्य के द्वारा पूछे जाने वाले किसी भी प्रश्न से ज्यादा सरल है, और साथ ही और जल्दी से यह भी कह देना जरूरी है कि इस प्रश्न से ज्यादा कठिन किसी और प्रश्न का उत्तर भी नहीं है। सरलतम भी यही है और कठिनतम भी। सरल इसलिए है कि जो हम हैं अगर उसका प्रश्न भी हल न हो सके, अगर उसका उत्तर पाना भी सरल न हो, तो फिर इस जगत में किसी और प्रश्न का उत्तर पाना सरल नहीं हो सकता। जो मैं हूं, अगर मैं उसे भी न जान सकूं, तो मैं और किसे जान सकूंगा?

किसी भी दूसरे को मैं केवल बाहर से परिचित हो सकता हूं, जान नहीं सकता। एक्वेंटेंस हो सकता है, पहचान हो सकती है। क्योंकि मैं सदा दूसरे के बाहर हूं, मैं कभी भी दूसरे के भीतर प्रविष्ट नहीं हो सकता हंू। मैं कितना ही घूमूं, मैं दूसरे के बाहर ही घूमता रहूंगा। तो मैं दूसरे से परिचित हो सकता हूं लेकिन दूसरे का ज्ञान कभी भी नहीं हो सकता। एक्वेंटेंस हो सकता है, नालेज नहीं हो सकती।
तो अगर मेरा ही ज्ञान संभव न हो, सरल न हो, तो फिर और सरल क्या होगा?
अगर स्वयं का ज्ञान कठिन है तो फिर अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी सरल नहीं हो सकता। अगर स्वयं का ज्ञान कठिन है तो फिर इस जगत में और किसी बात को जानने की तो कल्पना और सपना भी नहीं देखा जा सकता।

इसलिए मैं कहता हूंः स्वयं का ज्ञान बहुत सरल है। और इसलिए भी कहता हूं कि स्वयं को जानने के लिए कहीं भी तो नहीं जाना है, कोई यात्रा नहीं करनी है। स्वयं को खोजने के लिए मुझे कहीं पहुुंचना नहीं है, मैं वहां हूं ही। स्वयं को जानने के लिए मुझे कुछ खोदना भी नहीं है, कुछ बनाना भी नहीं है, मैं बना ही हुआ हूं। इसलिए स्वयं को जानना सरलतम है। लेकिन मैंने कहा जल्दी से यह भी कह देना जरूरी है कि स्वयं को जानने से ज्यादा कठिन भी कुछ और नहीं है। यह क्यों? यह इसलिए कि चूंकि हम स्वयं हैं, इसलिए हमारे जानने की धारा और सब जगह तो भटकती रहती है, स्वयं पर कभी नहीं आती। आंखें दूसरों को देख लेती हैं, आंख खुद अपने को नहीं देख पाती। मैं अपने हाथ से सबको पकड़ सकता हूं सिर्फ अपने हाथ को नहीं पकड़ सकता। एक चिमटे से हम सब कुछ पकड़ सकते हैं सिर्फ उस चिमटे को नहीं पकड़ सकते। अब यह बड़ी अजीब बात है, चिमटा सबको पकड़ लेता है सिर्फ अपने को छोड़ कर। अपने को पकड़ने में चिमटा एकदम असमर्थ हो जाता है। आंख सबको देख लेती है सिर्फ अपने को छोड़ कर। अगर हम कोई कोशिश करें आंख से ही आंख को देखने की तो असफलता निश्चित है। हां, किसी दर्पण में देख सकते हैं, लेकिन वहां हम आंख को नहीं देख रहे हैं, आंख के प्रतिफलन को देख रहे हैं, प्रतिफलन दूसरी चीज है। आंख सबको देखती है, देखना बड़ी सरल बात है। आंख के लिए देखने से ज्यादा सरल क्या है? लेकिन अपने को ही देखना सबसे ज्यादा कठिन है। और चूंकि हम हैं हीं। ध्यान रहे, जो हमारे पास नहीं है उस पर नजर जाती है और जो हमारे पास है उसे हम भूल जाते हैं। जो भी हमारे पास है वह भूल जाता है और ‘हम’ हमारे पास सदा से हैं, अनादि से हैं, अनंत से हैं। ऐसा कभी भी न था कि हम अपने पास न रहे हों। तो हम भूल ही गए हैं, भूल ही गए हैं, न मालूम कब, न मालूम कब भूल गए हैं।
जो चीज पास हो वह भूल जाती है। जिसके पास धन हो उसे धन भूल जाता है, सिर्फ गरीब को धन याद रहता है, क्योंकि उसके पास धन नहीं है। स्वस्थ आदमी को स्वास्थ्य भूल जाता है, सिर्फ बीमार को स्वास्थ्य याद रहता है, क्योंकि उसके पास स्वास्थ्य नहीं है। कभी स्वस्थ आदमी को पता नहीं चलता कि स्वास्थ्य है। अगर किसी को पता चलता हो तो जान लेना कि वह आदमी बीमार है। बीमार को ही कांशसनेस होती है, चेतना होती है स्वास्थ्य की, स्वस्थ आदमी को नहीं होती। जो हमारे पास है वह भूल जाता है और जो हमारे पास नहीं है वह खटकता रहता है, वह दिखाई पड़ता रहता है। इसीलिए तो जो हम मांगते हैं जब तक नहीं मिलता तब तक ही याद में रहता है और जब मिल जाता है तब व्यर्थ हो जाता है।
एक आदमी धन खोजता है और धन पा लेता है और सोचता था कि धन पा लेगा तो न मालूम क्या मिल जाएगा, और धन पाकर कुछ भी नहीं मिलता, धन भी भूल जाता है। जो हमारे पास है वह भूल जाता है और हमसे ज्यादा पास हमारे कुछ भी नहीं है। न धन हो सकता है, न मकान हो सकता है, न प्रेमी हो सकता है। हमसे ज्यादा हमारे पास कोई भी नहीं है और हम सदा से ही अपने पास हैं। ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि एक क्षण को भी हम अपने से दूर हो गए हों। इसलिए स्वयं को याद करना और स्वयं को जानना बहुत कठिन है। और इसलिए भी कठिन है कि जानने के लिए दो की जरूरत है, एक जो जाने और एक जो जाना जाए। जानने के लिए कम से कम दो तो चाहिए। मैं आपको जान सकता हूं क्योंकि आप वहां हैं, मैं यहां हंू, बीच में फासला है, हम दो हैं। हम सूरज को जान सकते हैं, हम चांद को जान सकते हैं, क्योंकि दोनों के बीच फासला है, और दो हैं। जानने वाला अलग है और जो जाना जा रहा है वह अलग है। नोअर और नोन अलग हैं। लेकिन यहां एक और मुसीबत है कि स्वयं को जानने में जानने वाला वही है जो जाना जाने वाला है। नोअर और नोन, ज्ञाता और ज्ञेय एक है। यह सबसे ज्यादा कठिन मामला है।
यह ऐसा है कि जैसे प्रेमी भी आप हैं और प्रेमिका भी आप, फिर कठिनाई समझ में आ सकती है। आपको अकेला छोड़ दिया जाए और कहा जाए कि प्रेमी भी आप हैं और प्रेमिका भी आप हैं। प्रेम भी आप लें और प्रेम भी आप दें। आप अकेले ही कमरे में छोड़ दिए गए। आप या तो पागल हो जाएंगे या बाहर आकर कहेंगे कि इस प्रेम के खेल सेे क्षमा कर दें। यह मैं नहीं करना चाहता हूं। जैसे कोई खुद को ही प्रेम करे और खुद को ही प्रेम करने वाला हो और मुश्किल में पड़ जाए। वैसा ही, मैं कौन हूं, इस प्रश्न की खोज में गया हुआ आदमी मुश्किल में पड़ जाता है। वहां दो नहीं हैं, वहां एक ही है। वहां वही है, सिर्फ अकेला ही है, उसी को जानना है, उसी को जाना भी जाना है। उसको ही ज्ञाता भी बनना है, उसको ही ज्ञेय भी बनना है। यह सबसे ज्यादा कठिन बात है। एक ही चीज का एक साथ, साइमलटेनियसली, ज्ञाता और ज्ञेय बन जाना बहुत मुश्किल मामला है। इसका मतलब है एक क्षण में मैं वहां भी खड़ा हो जांऊ जहां आॅब्जेक्ट बन जाऊं और वहां भी खड़ा हो जाऊं जहां सब्जेक्ट बन जाऊं। एक ही साथ, एक ही क्षण में दो जगह कैसे खड़ा हो जाऊं? जानने वाला बनता हूं तो जानने को कुछ नहीं रह जाता है, और अगर जाना जाने वाला बन जाऊं तो जानने को कोई नहीं बचता है।
इसलिए मैंने कहा कि जल्दी से कह दूं कि इससे ज्यादा कठिन और कोई सवाल भी नहीं; लेकिन इससे ज्यादा सरल भी कोई सवाल नहीं है। और जो सवाल सरल भी हो और कठिन भी हो एक साथ, उस सवाल के लिए क्या कहा जाए? उसे कठिन कहा जाए कि सरल कहा जाए? ये दोनों बातें एक साथ हैं। और आप कहेंगे कि ऐसा तो होता नहीं, ये दोनों उलटी बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? लेकिन मैं आपसे कहता हूं, जो नहीं जानते हैं वही यह कहेंगे। जो जानते हैं वे हैरान होकर कहेंगे कि दुनिया में सभी उलटी बातें एक साथ साथ-साथ ही होती हैं। हमने सिर्फ सुविधा के लिए विरोधी चीजों को तोड़ लिया है। विरोधी चीजें कहीं भी टूटी हुई नहीं हैं। हम कहते हैं, रात अलग है और दिन अलग है। कहां हैं अलग? किस जगह अलग हैं? कौन सी सीमा रेखा है जहां रात अलग है और दिन अलग हैं? रात दिन बन जाती है, दिन रात बन जाता है। हम कहते हैं, अंधेरा-उजाला अलग हैं, किसने कहा है? कोई नासमझ कहता होगा। अंधेरे और उजाले के बीच सिर्फ डिग्रीज का फासला है। विरोधी नहीं हैं वे। हम कहते हैं, जन्म और मौत अलग हैं, झूठी है यह बात। जन्म ही मौत बन जाती है, मौत ही जन्म बन जाता है। दोनों अलग नहीं हैं, एक ही चीज का ग्रोथ...जन्म ही बढ़तेे-बढ़ते एक दिन मौत बन जाता है। कब आती है मौत? वह जन्म की ही बढ़ती-बढ़ती-बढ़ती एक दिन मौत बन जाती है। और जो जानते हैं वे कहते हैं कि मौत फिर बढ़ते-बढ़ते जन्म बन जाती है। जन्म और मौत दो अलग चीजें नहीं हैं सिर्फ अज्ञानियों ने दो बना रखी हैं।
और छोटी सरल सी बात, हम उदाहरण के लिए लें, हम कहते हैंः गर्म और ठंडा, और समझते हैं दो अलग चीजें होंगी, तो बड़ा गलत समझते हैं। एक दिन एक छोटा सा प्रयोग करेंः एक हाथ को ठंडे बर्फ पर रखें और एक हाथ को स्टोव के पास गर्म करें, और फिर दोनों हाथों को एक ही बर्तन में पानी भरा हो दोनों हाथों को उसमें डाल दें, और तब आपको बड़ी हैरानी होगी। एक हाथ को वह पानी गर्म लगेगा और एक हाथ को वह पानी ठंडा लगेगा। वह पानी बिलकुल एक है, एक ही बर्तन में भरा है। तब आपको पता चल जाएगा कि गर्मी और ठंड अलग-अलग चीजें नहीं हैं। आपको पता चल जाएगा एक ही पानी है, एक ही तापमान का है। आपने एक हाथ स्टोव के पास रखा और एक हाथ बर्फ पर रखा; एक ठंडा हो गया, एक गरम हो गया। दोनों को एक ही बर्तन में डाल दें और आपको पता चल जाएगा कि दोनों हाथों को पानी अलग-अलग मालूम होगा, एक को गर्म मालूम होगा, एक को ठंडा मालूम होगा। फिर गर्मी और ठंड अलग-अलग कैसे हो सकती हैं। एक ही बर्तन का पानी ठंडा भी मालूम होता है, गर्म भी मालूम होता है। गर्मी और ठंड दो चीजें नहीं हैं। गर्मी और ठंड एक ही चीज के बीच डिग्रीज का फासला है। क्रमिक एक ही चीज की यात्रा है।
जिंदगी में जहां-जहां विरोध दिखाई पड़ता है, वहां-वहां कोई विरोध नहीं है। जिंदगी में विरोध है ही नहीं। लेकिन हम, हम क्योंकि जिंदगी बहुत उलझ जाएगी, उसे साफ-सुथरा करके चीजों को तोड़ देते हैं, खंड-खंड कर लेते हैं। कहते हैं, गर्मी अलग है, ठंड अलग है। कहते हैं, बुरा आदमी अलग है, अच्छा आदमी अलग है। झूठी है यह बात। न कोई बुरा आदमी अलग है और न कोई अच्छा आदमी अलग है। बुरे से बुरा आदमी अच्छे से अच्छे आदमी से जुड़ा है ठंड और गर्मी की तरह, एक ही चीज की दो डिग्रीज हैं, और कोई फर्क, फासला नहीं है। निकृष्टतम आदमी श्रेष्ठतम आदमी से जुड़ा है। उनके बीच एक ही चीज का फैलाव है। कोई दो चीजें नहीं हैं। न कोई दुरात्मा है और न कोई महात्मा है। राम और रावण एक ही चीज की दो शक्लें हैं। लेकिन हमने सब चीजें तोड़ रखी हैं और तोड़ने से हमने बिलकुल झूठी दुनिया बना रखी है, और उस झूठी दुनिया की वजह से समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।
इसलिए मैं आपसे कहता हूंः जिंदगी का जहां भी असली सवाल पैदा होगा वहां उलटी चीजें हमेशा साथ होंगी। जिंदगी पैराडाॅक्स है। है नहीं अपने में पैराडाॅक्स। विरोध है नहीं, पहेली है नहीं। हमारी समझ बहुत कम है। हम खंड-खंड में समझ पाते हैं इसलिए मुसीबत हो जाती है। जैसे कोई एक बड़ा मकान हो और उस मकान में एक छोटा सा छेद हो और आप उस छेद में से झांक कर देखें, तो आपको पूरा मकान एक साथ दिखाई नहीं पड़ेगा। पहले एक छोटा सा टुकड़ा दिखाई पड़ेगा, एक कुर्सी दिखाई पड़ रही है, फिर आपकी आंख आगे गई, फिर आपको एक फूलों का बर्तन दिखाई पड़ता है, फिर आपकी आंख और आगे गई और फिर आपको एक तस्वीर दिखाई पड़ती है, फिर आंख और आगे गई आपको कुछ और दिखाई पड़ता है। आपने चार टुकड़ों में तोड़ कर उस कमरे को देखा, क्योंकि देखने की क्षमता बहुत छोटी है। वह कमरा एक है, वहां कहीं चार टुकड़े नहीं हैं। जो आदमी कमरे के भीतर पहुंच जाएगा वह कहेगा, कमरा एक है। लेकिन आपने उसे चार टुकड़ों में देखा। आपकी देखने की क्षमता छोटी है। आप थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-थोड़ा करके देख रहे हैं।
आपके मेजरमेंट छोटे हैं, जिंदगी बहुत बड़ी है। और अगर हम इतनी बड़ी जिंदगी को इकट्ठा लें, तो हम बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर राम और रावण को हम इकट्ठा ले लें, तो हमारी बड़ी मुसीबत हो जाएगी, हमारी सारी रामायण गड़बड़ हो जाएगी। हम तो राम को अलग मानते हैं, रावण को अलग मानते हैं, तब हमें सुविधा पड़ती है। बुरे आदमी को अलग काट देते हैं, अच्छे आदमी को अलग काट देते हैं, तब हमें सुविधा पड़ती है। तब हम वाटरटाइट कंपार्टमेंट बना लेते हैं। हम कहते हैं, यह यह है, वह वह है। अ अ है, ब ब है। अ कभी ब नहीं हो सकता।
अरस्तू का यही तर्क है। और सारी दुनिया अरस्तू के गलत तर्क से प्रभावित है। अरस्तू कहता हैः ए इ.ज ए, बी इ.ज बी; ए कैन नाॅट बी बी। अ अ है, ब ब है, और अ कभी ब नहीं हो सकता। और इससे ज्यादा गलत बात दुनिया में कभी नहीं कही गई। और इससे ज्यादा गलत बात का प्रभाव कभी भी इतना ज्यादा नहीं रहा। अरस्तू सारी दुनिया पर छाया हुआ है। सारी दुनिया के विचारशास्त्र का वह पिता है।
जब कि सच्चाई यह है कि ए इ.ज ए, ए इ.ज आल्सो बी। अ अ भी है और अ ब भी है। जिंदगी तो यही है। जिसे आप पतझड़ कहते हैं वह वसंत का ही दूसरा रूप है। जिसे आप बुढ़ापा कहते हैं वह बचपन की ही दूसरी तस्वीर है। जिसे आप कुरूपता कहते हैं वह सौंदर्य का ही दूसरा पहलू है। जिसे आप दुख कहते हैं वह सुख की ही दूसरी चोट है। जिसे आप सम्मान कहते हैं वह अपमान का ही दूसरा रास्ता है। यहां जिंदगी में सब जुड़ा है। यहां अलग-अलग, खंड-खंड कुछ भी नहीं है। और अगर यह बात खयाल में आ जाए तो यह बात भी खयाल में आ जाएगी कि जो प्रश्न सबसे ज्यादा सरल है वह सबसे ज्यादा कठिन भी क्यों है? और अगर यह भी खयाल में आ जाए कि जो प्रश्न एक ही साथ सरल है और एक ही साथ कठिन है तो एक बात और समझ में आ जाएगी। एक बात और भी समझ में आ जाएगी और वह यह...एक छोटी सी कहानी से मैं समझाऊंगा।
एक फकीर एक रास्ते से निकल रहा था और मस्जिद के पास की मीनार पर चढ़ कर अजान दे रहा था सुबह मस्जिद का मुल्ला। वह गिर पड़ा और उस फकीर के कंधे पर गिरा और फकीर की गर्दन टूट गई। वह फकीर अस्पताल में भर्ती किया गया। उसके शिष्य वहां उससे मिलने गए और उन शिष्यों ने पूछा, क्योंकि वे जानते थे उस फकीर की यह आदत थी कि जिंदगी में चाहे कुछ भी हो जाए वह उनसे कुछ न कुछ नतीजे लेता था। तो उन्होंने पूछा कि अब हम बड़ी मुश्किल में हैं। इस आदमी का आपके ऊपर गिरना और आपकी गर्दन टूट जाना, इससे आपने नतीजा क्या लिया? उस फकीर ने कहाः बहुत साफ नतीजा लिया। अब तक मैंने सुना था कि जो आदमी गिरेगा उसकी गर्दन टूटेगी। अब मुझे पता चला कि गिर कोई सकता है, पर गर्दन किसी की टूट सकती है। और अब तक मैं समझता था कि गिरने वाला अलग है और जिस पर गिरा है वह अलग है, अगर दोनों अलग होते तो कोई गिरता, कोई की गर्दन कैसे टूट जाती? अब मैं समझा कि सब एक हैं, जो गिरा वह भी वही है और जिस पर गिरा वह भी वही है। इसलिए तो मेरी गर्दन टूट गई और गिरा वह।
थोड़ा कठिन है लेकिन। थोड़ा कठिन है कि जो गिरा है और जिस पर गिरा है, उन दोनों को हम एक न देख पाएं। और थोड़ा कठिन है कि जो मर रहा है और जो पैदा हो रहा है, उन दोनों को हम एक न देख पाएं। और थोड़ा कठिन है कि जो फूल खिल रहा है और जो फूल मुरझा रहा है, उन दोनों को हम एक न देख पाएं कि वहां जो कुम्हला के सिकुड़ रहा है वही यहां फूल कर फैल रहा है।
हमने नदी में देखी हैं लहरें। एक पत्थर फेंक दें सरोवर में और लहरें उठेंगी। लहर उठी हुई मालूम पड़ेगी और उसके पास ही गड्ढा होगा। लेकिन कभी आपने सोचा कि जो गड्ढा है वही लहर बन गई है। वह गड्ढा बन गया है इसलिए लहर ऊपर उठ गई। आप बड़े-बड़े पहाड़ देखने जाते हैं, आपने कभी खयाल किया कि नीचे जो खाई है वही पहाड़ बन गई है। वह जो खाई है वही पहाड़ है। वे दो अलग चीजें नहीं हैं। अगर दुनिया से सारी खाई मिटा दो, सारे पहाड़ मिट जाएंगे। कोई पहाड़ बच सकता है अगर दुनिया से सारी खाई मिटा दी जाए? खाई गई कि पहाड़ गए। जिंदगी के सब विरोध जुड़े हुए हैं, इस पर मैं क्यों जोर दे रहा हूं? इस पर इसलिए जोर दे रहा हूं कि यह अगर खयाल में आ जाए कि यह विरोधी दिखाई पड़ने वाली बात कि मैं कौन हूं, सबसे सरल भी है और सबसे कठिन भी। इस पर क्यों इतना मैं आग्रह कर रहा हूं कि ये दोनों बात एक साथ हैं, इससे फायदा क्या होगा? इससे फायदा होगा क्योंकि जैसे ही यह समझ में आ जाए कि कोई चीज सरल भी है, कठिन भी है। न वह सरल रह गई, न कठिन रह गई। तभी तक कोई चीज सरल है जब तक वह कठिन न हो। और तभी तक कोई चीज कठिन हो सकती है जब तक वह सरल न हो। दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं?
एक आदमी या तो जिंदा हो सकता है या मरा हुआ हो सकता है। और अगर हम यह कहें कि वह आदमी जिंदा भी है और मरा हुआ भी, तो इसका मतलब यही होगा कि वह आदमी कुछ ऐसा हैः न जिंदगी का वहां कोई अर्थ है, न मरने का वहां कोई अर्थ है। वह आदमी अगर एक ही साथ जिंदा और मरा हुआ हो सकता है तो इसका यह मतलब हुआ कि जिंदगी और मरना दो ऊपरी घटनाएं हैं, भीतर वह आदमी बिलकुल अलग है।
ये दोनों बात एक साथ हो सकती हैं। दोनों विरोधी बातें इसीलिए हो सकती हैं कि सत्य तीसरा है। नहीं तो कभी दो विरोधी बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। अगर पानी ठंडा ही हो तो उसी के साथ गरम नहीं हो सकता, और अगर पानी गरम ही हो तो उसी के साथ ठंडा नहीं हो सकता। लेकिन पानी ठंडा और गरम एक साथ है, इसका मतलब यह हुआ कि पानी न ठंडा है, न गरम है। ठंडा और गरम पानी के ऊपर आने-जाने वाली घटनाएं हैं। पानी का जो अपना होना है, वह जो उसकी अपनी आत्मा है, वह न ठंडी होती है और न गरम होती है।
जिंदगी का असली सवाल मैं कौन हूं, न सरल है, न कठिन, क्योंकि वह दोनों है। इसका क्या मतलब? इसका मतलब यह है कि यह मैं कौन हंू? इसको सवाल की तरह लेना ही मत, नहीं तो भटक जाओगे। यह सवाल नहीं है। सवाल वे होते हैं जिनके जवाब किसी से मिल सकते हों। प्रश्न उसे कहते हैं जिसका जवाब किसी से मिल सकता हो। यह प्रश्न नहीं है कि मैं कौन हूं? क्योंकि इसका जवाब किसी से भी नहीं मिल सकता। और बहुत मजे कि बात यह है कि आपसे भी नहीं मिल सकता। जवाब तो तब मिलेगा जब आप भी नहीं होंगे। जवाब किसी से भी नहीं मिल सकताः न किसी दूसरे से और न खुद से। जवाब उस दिन मिलेगा जब आप नहीं होंगे।
अब यह और उलझन की बात है। जवाब उस दिन मिलेगा जिस दिन प्रश्न भी नहीं होगा। फिर करें क्या? अगर यह कठिन नहीं, यह सरल नहीं, अगर ये दोनों हैं, अगर इन दोनों से हम अलग हैं, तो हम करें क्या? इसका मतलब एक हुआ, इसको सवाल न बनाएं। इसको सवाल बनाया तो जवाब किताबों में लिखे हुए हैं, उन जवाबों को आप खोज लेंगे, पूछेंगे, मैं कौन हूं? किताब खोलेंगे, वहां लिखा होगा कुछ, वह पढ़ लेंगे और कहेंगे, यह मैं हूं। कहीं लिखा होगा कि आप आत्मा हैं, तो पढ़ लेंगे, सबने पढ़ लिया है। कहीं लिखा होगा कोई आत्मा वगैरह नहीं है, आदमी सिर्फ पदार्थ है, खाओ-पीओ मौज करो बस यही है और कुछ भी नहीं है, कोई इसको पढ़ लेगा और इसको कंठस्थ कर लेगा और कहेगाः ऋणं कृत्वा घ्रतम पीवेत, ऋण लेकर घी पीओ। कुछ है ही नहीं। न कोई आत्मा है, न कोई किसी से ऋण लेता है, न कोई किसी को चुकाता है, कोई चिंता की बात नहीं। कोई पढ़ लेगा आत्मा है, और न आत्मा मरती और न मारी जा सकती है। कोई पढ़ लेगा कि आत्मा है न उसे पुण्य छूता, न पाप छूता, और इनको कंठस्थ कर लेगा। आपने सवाल बनाया तो आप जवाब सीख लेंगे कहीं जाकर।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह सवाल ऐसा नहीं है कि किसी से आप जवाब सीख लें। यह सवाल बहुत और तरह का है, जिसका कोई जवाब कभी भी, कहीं से भी नहीं मिल सकता, न कभी किसी को कहीं से मिला है। और जिसने जवाब पकड़ लिया वह भटक गया, फिर उसको रास्ता भी नहीं मिला। इस बात को मैं इस भांति लेना चाहता हंू कि आपके सामने यह साफ हो जाए कि यह कोई सवाल नहीं है जिसे हमें किसी से पूछ लेना है। यह एक अंतर-जिज्ञासा है जिसका जवाब नहीं मिलेगा, बल्कि हम जिज्ञासा करेंगे तो धीरे-धीरे प्रश्न भी खो जाएगा। ये दोनों बातें, बहुत बुनियादी फर्क है।
एक आदमी बुद्ध के पास गया। वह जवान था और वर्षों से यह मैं कौन हूं? इसी की खोज में लगा हुआ था। उसने बुद्ध से जाकर पूछा, सत्य क्या है? मैं कौन हूं? मोक्ष कहां है? बुद्ध ने कहाः तू सारे सवाल एकदम से पूछ ले, क्योंकि सवाल एक ही है, शक्लें बहुत हो सकती हैं। तू सारे सवाल पूछ ले। उसने कोई दस-ग्यारह सवाल पूछ डाले। बुद्ध ने उससे कहा कि तूने ये सवाल किसी और से भी पूछे हैं? उसने कहाः मैंने बहुतों से पूछे हैं। बुद्ध ने कहाः बहुतों से पूछे तुझे कहीं उत्तर मिला या नहीं? तो उस युवक ने कहाः उत्तर सबने मुझे दिए, मुझे मिला नहीं। तो बुद्ध ने कहाः तू फिर मुझसे पूछने आ गया, मैं भी उत्तर दूंगा और तुझे मिलेगा नहीं। इससे तू यह मत समझना कि देने वालों ने गलत उत्तर दिए थे। इससे तू यह समझना कि ये सवाल ऐसे हैं कि इनके उत्तर कोई दूसरा दे ही नहीं सकता है।
सही उत्तर भी दिया जाए, दिया हुआ उत्तर बेकार हो जाता है। कृष्ण ने उत्तर दिया है, बुद्ध ने दिया है, क्राइस्ट ने दिया है, महावीर ने दिया है, लेकिन सब उत्तर बेकार हो गए। महावीर के बेकार उत्तरों को लेकर जैनियों की जमात खड़ी है। महावीर ने दिया है और बिलकुल ठीक दिया है लेकिन दिया हुआ उत्तर दूसरे के हाथ में आकर एकदम बेकार हो जाता है। कृष्ण के दिए हुए उत्तर गीता को कंठस्थ करने वाले लोगों के साथ खराब हो गए हैं। क्राइस्ट के उत्तरों का परिणाम देखना हो तो क्रिश्चिएनिटी चारों तरफ खड़ी है। ये सब सीखे हुए उत्तरों के बने हुए संप्रदाय हैं। और किसी दूसरे से देते ही उत्तर मर जाता है। यह वैसे ही है जैसे एक फूल पौधे पर खिला है, जब तक वह पौधे पर है जिंदा है और जैसे ही आप तोड़ कर घर की तरफ चले कि वह मर गया। उसका पौधे पर होना ही उसका जिंदा होना था। वह जो जवाब है वह बुद्ध के ऊपर जिंदा था, वह महावीर की वाणी पर जिंदा था। वह जब कृष्ण बोल रहे थे तो वह पौधे पर लगा हुआ फूल था और जैसे ही तोड़ कर आप घर आए और आपने किताब बंद करके नमस्कार किया वह मर गया। सब गीता मरी हुई किताबें हैं, सब कुरान मरी हुई किताबें हैं, क्योंकि सब उत्तर पौधों से तोड़ कर ले आए गए हैं और हम उनको रखे हुए हैं सम्हाल कर।
बुद्ध ने कहा कि नहीं, तुझे यह खयाल नहीं आया कि दूसरे से उत्तर मिल ही नहीं सकता है। मुझसे भी नहीं मिल सकता। वह युवक पूछने लगा, क्या आपको पता नहीं है? बुद्ध ने कहाः पता मुझे है और बहुतों को पता रहा है, लेकिन अपना पता सिर्फ अपने ही काम पड़ता है।
उस युवक ने कहा फिर मैं क्या करूं?
बुद्ध ने कहाः पूछ मत, एक साल यहां रुक जा और चुप होने की कोशिश कर। पूछ मत, क्योंकि पूछना भी एक तनाव, परेशानी है, पूछ ही मत। न सवाल, न जवाब, तू एक साल चुप होकर यहां रुक जा और साल भर बाद तू पूछना, अगर तू पूछेगा तो मैं उत्तर दूंगा। उस युवक ने कहाः ठीक है, मैं यह परीक्षा से भी गुजरने को राजी हूं। मैं एक साल चुप रहूंगा। लेकिन एक साल बाद आप मेरे सवालों का जवाब देंगे? बुद्ध ने कहाः यह वायदा रहा। एक भिक्षु पीछे वृक्ष के नीचे बैठा था, जोर से हंसने लगा। उस पूछने वाले युवक ने पूछा कि यह भिक्षु क्यों हंस रहा है? बुद्ध ने कहाः उसी से पूछ लो। उस भिक्षु से पूछाः क्यों हंसते हो? उसने कहाः मैं हंसता हूं इसलिए कि बुद्ध बेईमान हैं, ये झूठ बोल रहे हैं, यह सरासर झूठ है। क्योंकि मैं भी जब आया था तब यही बात हुई थी। मुझसे कहा चुप हो जाओ मैं चुप हो गया। साल भर बाद मुझसे कहने लगे, पूछो, मैं क्या खाक पूछता, बात खत्म हो गई। मैंने पूछा नहीं और मुझसे कहने लगे पूछो। मैं क्या पूछता? पूछना ही खत्म हो गया। और यहां और बहुत लोग हैं जो इसी तरह पूछते आए हैं और चुप हो गए, वही धोखा तुम्हें दिया जा रहा है।
बुद्ध ने कहा कि मैं वायदे पर पक्का रहूंगा, तुम ही बदल जाओ पूछने से तो बात दूसरी है। मैं जवाब दूंगा अगर तुम पूछोगे। वर्ष बीता और दस हजार भिक्षुओं के सामने बुद्ध ने उस युवक को खड़ा किया और कहा कि पूछ लो मौलंुकपुत, उसका नाम था, पूछ लो। वह हंसने लगा। उसने कहाः क्षमा करें, मुझसे भूल हो गई जो मैंने वर्ष भर पहले आपसे पूछा था। कैसा आपको लगा होगा मेरा पूछना, ऐसा ही लगा होगा जैसे सन्निपात में कोई आदमी बुखार में पड़ा हुआ पूछता है कि मेरी खाट पूरब उड़ रही है कि पश्चिम उड़ रही है, मेरी खाट कहां जा रही है? घर के लोग कहते हैं कि चुप रहो जब ठीक हो जाओगे तब समझा देंगे। अगर घर में कोई आदमी इसका उत्तर दे कि नहीं पूरब नहीं पश्चिम उड़ रही है, तो वह पागल है। यह तो सन्निपात में है, वह पागल है जो उत्तर दे इसका। घर के समझदार लोग कहेंगे तुम चुप रहो हम वैद्य को बुलाते हैं तुम्हारा इलाज करते हैं। वह आदमी कहेगा, इलाज का सवाल नहीं है मैं पूछता हूं खाट कहां जा रही है पश्चिम कि पूरब? घर के लोग कहेंगे तुम ठहरो सुबह हो जाने दो, तुम जरा ठीक हो जाओ फिर तुम पूछना, हम उत्तर देंगे।
उस मौलंुकपुत ने कहाः आपने समझा होगा कि मैं सन्निपात में हूं। मैं सन्निपात में था क्योंकि मैं उस प्रश्न को पूछ रहा हूं जो न पूछा जा सकता। मैं उस प्रश्न को पूछ रहा हूं जो वस्तुतः प्रश्न ही नहीं है। मैंने अपनी तरफ आंख ही नहीं फेरी इसलिए वह प्रश्न बन गया, मैं आंख फेर लंू वह प्रश्न विलीन हो जाएगा। वह प्रश्न झूठा है। वह प्रश्न मेरी पीठ की वजह से पैदा हो गया है। जैसे कोई आदमी घर में पूछे कि अंधेरा कहां है और हम उसे एक दीया दे दें और कहें कि यह दीया ले जाओ और घर में खोजो कि अंधेरा कहां है। वह दीया लेकर जाए और घर में खोजे और अंधेरा न मिले। वह आदमी लौट कर कहे कि बड़ी मुश्किल है, मैं दीया लेकर गया, अंधेरा कहीं मिलता नहीं है। असल में अंधेरा था, क्योंकि वहां दीया नहीं था। दीया लेकर कोई गया अंधेरा वहां नहीं रह जाएगा।
हमने कभी अपनी तरफ ध्यान ही नहीं किया है, बस इतना ही प्रश्न है। हम हैं, हम सदा से हैं, हम जानते हैं कि कौन हैं क्योंकि यह असंभव है कि हम न जानते हों कि हम कौन हैं। हम भलीभांति जानते हैं कि हम कौन हैं लेकिन हमने उस तरफ ध्यान देना ही बंद कर दिया है। और स्मरण रहे, हमें उसी का पता चलता है जिस तरफ हमारे ध्यान का फोकस होता है।
एक लड़का हाकी खेल रहा है मैदान पर, पैर में चोट लग गई है, खून बह रहा है, सारे हजारों लोग चारों तरफ देख रहे हैं, उन्हें दिखाई पड़ रहा है कि अंगूठा टूट गया है, नाखून टूट गया, खून बह रहा है, लेकिन उस खेलने वाले को कोई पता नहीं है। घड़ी भर बाद खेल खत्म होता है और सारा दर्द एकदम से पैर पर टूट पड़ता है, वह कहता है, ओह! मुझे कब चोट लग गई? कब खून बह रहा है? लोग कहते हैं कि घंटा भर हो गया तब से खून बह रहा है। लेकिन वह कहता है कि मुझे पता ही नहीं।
उसके सारे ध्यान का फोकस, उसका सारा ध्यान खेलने में है। अंगूठे तक ध्यान के जाने की जरा सी भी धारा शेष नहीं रह गई। सारा ध्यान, सारा ध्यान खेल पर लगा हुआ है, अंगूठा टूट गया उसे पता नहीं चलता।
काशी में नरेश थे, उन्नीस सौ ग्यारह में उनका आॅपरेशन हुआ। वे किसी तरह की दवा लेना पसंद नहीं करते थे। तो उन्होंने एनस्थेसिया लेने से भी इनकार कर दिया। उन्होंने कहाः बेहोशी की कोई दवा नहीं लूंगा। जिस डाक्टर ने आॅपरेशन किया उसने कहाः तब तो बड़ा मुश्किल है, आॅपरेशन में आधा घंटा लग जाने को है। आधे घंटे तक बिना बेहोश किए आपरेशन करना एकदम खतरनाक है। उन्होंने कहा कि नहीं, आप आॅपरेशन करें, मैं तब तक गीता पढ़ता रहूंगा। पर उन्होंने कहाः गीता पढ़ने से क्या होगा? उन्होंने कहाः नहीं, आप चिंता न करें, मैं गीता पढूंगा आप आॅपरेशन करें। वह आॅपरेशन हुआ। वह दुनिया में पहला आॅपरेशन था कि किसी आदमी ने किताब पढ़ते वक्त आॅपरेशन करवा दिया। वे आधे घंटे तक गीता पढ़ते रहे और आॅपरेशन हो गया। डाक्टर तो चकित रह गए। दस डाक्टर इकट्ठे थे, नरेश का आॅपरेशन था। उन दसों ने लिखा है प्रमाणपत्र में कि यह चमत्कार है। वे नरेश से पूछने लगे कि यह कैसे कर रहे हो, यह कैसे हुआ? उन्होंने कहाः करने का इसमें कुछ भी नहीं है, जब मैं गीता पढ़ता हंू तो पूरा ही पढ़ता हूं, फिर यहां कुछ बाकी नहीं बचता यहां-वहां जाने को। फोकस टोटल, मैं पूरा का पूरा गीता पर ही चला जाता हूं। जब मैं पढ़ता हूं तो पूरा पढ़ता हूं, नहीं तो पढ़ता ही नहीं।
इसका मतलब आप समझ रहे हैं? अगर पूरा का पूरा ध्यान गीता पर चला गया हो, तो पैर कट जाए, पता नहीं चलेगा। वही खेल के मैदान में लड़का भी जानता है कि चोट लग जाए पता नहीं चलता है। इसका यह मतलब हुआ क्या पैर नहीं है जो पता नहीं चल रहा? क्या चोट नहीं है जो पता नहीं चल रहा है? चोट भी है, पैर भी है, और पैर खबर भी भेज रहा होगा, तड़प भी रहा होगा, लेकिन चेतना कहीं और है।
मैं कौन हूं? यह सवाल सिर्फ इसलिए पैदा हुआ है कि हमारी चेतना कहीं और है--दुकान में है, बाजार में है, धन में है, मकान में है, पत्नी में है, बच्चे में है, कहीं और है। सब तरफ फैल गई है। उसका फोकस सारी तरफ सिर्फ एक जगह को छोड़ कर वह जहां मैं हंू। बस वहां उसका कोई फोकस नहीं है। और धीरे-धीरे जन्मों-जन्मों वह फोकस फिक्स्ड हो गया है। अब वह पीछे की तरफ लौटता भी नहीं। अब लौटाने की भी कोशिश करो तो कुछ नहीं होता। ऐसा लगता है कि कहां जाएं, कहां जाएं, कहां देखें मैं कौन हूं? कहां जाएं? वह हमारा सवाल जो है तो कोई मेटाफिजिकली सवाल नहीं है यह। इसलिए मैंने कहा यह सवाल नहीं है, यह सवाल ऐसा नहीं है कि दो और दो कितने होते हैं। यह सवाल ऐसा नहीं है कि टिम्बकटू कहां है। यह सवाल ऐसा नहीं है कि जमीन और चांद के बीच कितना फासला है। यह सवाल ऐसा नहीं है कि हाइड्रोजन में कितने एटम होते हैं। यह सवाल नहीं है इस तरह का जिसको कहीं जांच-पड़ताल करने से कोई उत्तर मिल जाएगा। सच बात यह है कि यह केवल इनअटेंशन से पैदा हुआ सवाल है। यह सवाल कोई वास्तविक सवाल नहीं है, यह सिर्फ ध्यान के अभाव से पैदा हुआ सवाल है। यह सवाल बिलकुल झूठा है, सुडो प्राॅब्लम है, मिथ्या सवाल है। और जो सवाल मिथ्या होता है वह बहुत खतरनाक होता है। क्योंकि अगर आप उसका जवाब ले आए तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि जो सवाल ही नहीं था उसका जवाब तो गलत होने ही वाला है। इसलिए मैं कौन हंू, इसके जितने जवाब दिए गए हैं सब गलत हैं। बिना जाने कहता हूं कि कौन सा जवाब है, जो भी जवाब होगा गलत होगा, क्योंकि यह सवाल ही गलत है। यह सवाल जिसको हम प्रश्न कहते हैं वह नहीं है, यह सवाल केवल ध्यान का एक जगह से हट जाना है।
तो अब क्या करें? पूछते हैं आप कि मैं कौन हूं?
तो एक ही रास्ता है पूछें मत और ध्यान को और सब जगह से हटा कर वहां ले आएं जहां आप हैं। कहीं तो आप हैं, कहीं आप बैठे हैं। यहां बाहर भी कहीं आप बैठे हैं। अगर मैं पूछूं कि आप कहां हैं, तो आप बता सकेंगे कि मैं फलां खंभे के पास बैठा हुआ हूं। यह इस बड़ी जगह में आपने लोकेट किया कि यहां मैं हूं। अब इस बड़ी जगह को भूल जाएं। फिर एक छोटी जगह आपके शरीर की पांच फीट की, फिर वहां खोजें कि मैं कहां हूं, फिर लोकेट करें कि यहां मैं हंू। अगर कोई आपसे कहे कि आपके पैर को काट दें, तो आप कट जाओगे? शायद आप कहोगे कि पैर के काटने से मैं कटने वाला नहीं हूं। इसका मतलब हुआ कि पैर को अलग किया जा सकता है और आप होओगे।
तो अपने भीतर खोजें कि क्या-क्या अलग किया जा सकता है और मैं रहूंगा। तब आप अपने भीतर वह बिंदु खोज लेंगे कि यहां मैं हूं और इस तरह खोजते चले जाएं, छीलते चले जाएं जैसे कोई प्याज को छीलता हो और एक-एक पर्त उखाड़ता चला जाए और कह दे कि यह भी ऊपर का छिलका है इसको भी फेंक दें, हम तो और भीतर जाते हैं, और भीतर जाते हैं, और भीतर जाते हैं। एक-एक चीज जो आप छोड़ सकते हैं जो नाॅन-एसेंशियल मालूम पड़े। अगर आपकी आंखें चली जाएं तो आप खो जाओगे? आप कहोगे कि मैं अंधा हो जाऊंगा लेकिन फिर भी मैं रहूंगा। इसका मतलब यह हुआ कि आंखों के भीतर से कोई झांकता था जो आंख नहीं था। आंख बंद हो गई, खिड़की बंद हो गई, झांकना मुश्किल हो गया लेकिन झांकने वाला भीतर मौजूद है। मैं एक मकान के भीतर बैठा हुआ हूं और उसकी खिड़की में से आपको देख रहा हूं, खिड़की आपने बंद कर दी तो मैं मिट गया। खिड़की बंद हो गई अब मैं आपको नहीं देख पाता हूं, क्योंकि बीच में एक बाधा आ गई। लेकिन मैं मकान के भीतर हूं।
एक-एक इंद्रीय पर सोचें कि यह अगर मिट जाए तो मैं रहूंगा? और आप पाएंगे कि सारी इंद्रियां मिट जाएं तो भी आपके होने में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। आपका जो एसेंशियल एक्झिस्टेंस है वह कायम है। इसका मतलब यह हुआ कि पूरा शरीर खो जाए तो आप नहीं खोते, आप हैं, इस भांति खोजने का नाम ध्यान को स्वयं पर ले जाना है। वह जो इनअटेंशन पैदा हो गई है, वह जो गैर-ध्यान पैदा हो गया है, वह धीरे-धीरे टूटता चला जाएगा और आप उस जगह पहुंच जाएंगे, उस बिंदु पर, उस अल्टीमेट पाॅइंट पर, जहां खड़े होते ही वह अंधकार मिट जाता है जो वस्तुतः था नहीं, सिर्फ आपकी गैर-मौजूदगी के कारण पैदा हो गया। उस बिंदु पर खड़े होते ही उसका पता चल जाता है जो आप हैं। और यह बड़े मजे की बात है, जिस दिन यह पता चलता है कि कौन हैं आप, उस दिन बहुत हंसी आती है, क्योंकि उस दिन यह भी पता चलता है कि आप ही आप हैं और कुछ है ही नहीं। और जो भी आपको दिखाई पड़ रहे हैं चारों तरफ जो विस्तार वह आपके ही बिंदु का विस्तार है। वह आपसे ही जुड़ा है। एक ही सागर अनंत-अनंत लहरों में स्पंदित हो रहा है। लहर पूछने जाए कि कौन हूं मैं, अपने भीतर घुसे सागर में पहुंच जाएगी। कोई लहर पूछे कि कौन हूं मैं, भीतर जाए, फौरन सागर में पहुंच जाएगी। हंसेगी, कहेगी, लहर तो नहीं हंू।
इसलिए एक बात आपसे कहना चाहता हूं, जब आप खोजने चलेंगे कि मैं कौन हूं, तो जो-जो आपने समझा हुआ है कि मैं यह-यह हूं, कम से कम इतना निश्चित कहा जा सकता है कि वह कोई भी आप अपने को नहीं पाएंगे कि यह-यह मैं हूं। जो-जो आपने समझा है कि मैं यह हूं वह तो निश्चित आप नहीं पाएंगे। वह तो आप हैं ही नहीं। जिस दिन आपको पता चलेगा कौन हूं मैं, उस दिन आप यह नहीं कह सकेंगे कि मैं यह हूं। उस दिन आप कहेंगे कि मैं कहां नहीं हूं। उस दिन यह सवाल नहीं है कि मैं कहां हूं, उस दिन यह सवाल है मैं कहां नहीं हूं। उस दिन यह सवाल नहीं है कि मैं अपने को कहां खोजूं। उस दिन यह सवाल होगा कि मैं अगर अपने से बचना चाहूं तो कहां बचूं, सब तरफ मैं हूं।
एक फकीर था, उसने अपने शिष्यों को कहाः ऐसी जगह खोजो, दो शिष्य हैं, दोनों को कहा, ऐसी जगह जाओ, एक-एक कबूतर दे दिया और कहा कि ऐसी जगह जाओ जहां कोई न हो, जहां कोई न देखता हो, वहां तुम कबूतर को मार डालो। वह एक शिष्य लेकर कबूतर को गया, रात पड़ गई, अंधेरा हो गया, उसने कहा, बस ठीक है, एक गुफा में चला गया। वहां कोई नहीं दिखाई पड़ता था, उसने कबूतर को मार डाला। दूसरा शिष्य कई महीनों तक भी नहीं लौटा। वह तो शिष्य मार कर कबूतर को आ गया और उसने कहा कि मैंने तो खतम कर दिया, अंधेरे में गया वहां कोई भी नहीं था, बस मैंने कबूतर मार डाला।
उस फकीर ने कहाः तुमको नमस्कार, अब तुम कभी इस द्वार पर वापस मत आना।
उस शिष्य ने कहाः क्या मतलब, बात खतम हो गई?
उस फकीर ने कहाः अब आगे अपना कोई नाता-रिश्ता नहीं है। पर उसने कहा, मैं तो कबूतर आपने कहा था कि मार कर ले आना, तोे मार कर ले आया हूं और ऐसी जगह जहां कोई भी नहीं था।
फकीर ने कहाः बस बात ही खतम हो गई। अब तुम यहां दरवाजे पर लौटना ही मत।
पर वह दूसरा आदमी कहां है? और फकीर उसे ढूंढ़वाता रहा। छह महीने बीत गए बमुश्किल वह पकड़ा जा सका। उस आदमी को पकड़ कर लाया गया। उसकी हालत खराब हो गई थी। कबूतर को सम्हाले-सम्हाले वह न मालूम कहां-कहां भटक चुका था। उसके गुरु ने पूछाः क्या हुआ, अब तक जगह नहीं खोज पाए? उसने कहाः जगह खोज नहीं पाया। मामला ही बदल गया। अंधेरी जगह में गया, बिलकुल अंधेरी रात थी तो भी ऊपर से चांद-तारे थे, तो मैंने सोचा चांद-तारों की रोशनी तो पड़ती ही है, यहां ठीक नहीं, और अंधेरे में जाऊं, तो जमीन की गुफा में गया, वहां जाकर कबूतर की गर्दन दबा रहा था कि कबूतर की दोनों आंखे चमक रही थीं और मुझे देख रही थीं। यह तो मुश्किल मामला हो गया। फिर मैंने सोचा कि कबूतर की आंख बंद कर दो। कबूतर की आंख पर पट्टी बांध दी। अंधेरी गुहा में गया कबूतर की गर्दन दबाने को था कि तब मुझे पता चला कि मैं तो जान ही रहा हूं, मैं तो देख ही रहा हूं। अब क्या करूं? छह महीने हो गए, परेशान हो गया, यह कबूतर सम्हालो।
उसके गुरु ने कहाः रुको, तुम ठहरो। उसने कहाः अब रुकने और ठहरने की कोई जरूरत भी न रही। उसके गुरु ने कहा कि तुम योग्य हो, तुम्हें मैं अपने पास रखूंगा, इसी की परीक्षा के लिए तुम्हें भेजा था। तुम्हारे दूसरे साथी को भगा दिया गया। उसने कहाः दूसरे साथी को आपने भगा दिया, मैं अपनी तरफ से नमस्कार करता हूं, क्योंकि अब मुझे कोई जरूरत न रही। इस कबूतर को मारने के लिए और एकांत खोजने में मैं ऐसी जगह पहंुच गया जहां अकेला मैं ही बचा। लेकिन मैं बचा और जैसे ही अकेला मैं बचा मुझे पहली दफा उसका ध्यान आया कि अरे, ‘यह हंू मैं’ और तब एक क्षण में कबूतर भी मैं ही हो गया और सब कुछ मैं हो गया। अब किससे पूछना है, अब किससे जानना है, अब किससे सीखना है, क्या सीखना है, बात खतम हो गई। नमस्कार करता हंू।
उसके गुरु ने लिखा है कि दो आदमी आए। एक को इसलिए भगा दिया कि वह योग्य न था। एक इसलिए चला गया कि वह योग्य था। इसलिए गुरु हमेशा खाली रह जाते हैं। अयोग्य जिद करते हैं कि हम रुकेंगे, अयोग्यों को वे रोकना नहीं चाहते। योग्य कहते हैं, बस ठीक है, कृपा, हम जाएं। योग्य रुकना नहीं चाहते। बात खतम हो जाती है।
वह जैसे ही आप ध्यान को, अटेंशन को, उसको वह जो हमारा बोध है सब तरफ से लौटा कर वहां ले जाएंगे जहां अकेले आप ही हैं, और भीतर, और भीतर, जिसको भी छोड़ सकते हैं छोड़ते जाएंगे, कहते जाएंगे नेति-नेति, नाॅट दिस, नाॅट दैट, यह भी नहीं, यह भी नहीं, और जहां जाकर कुछ कहने को नहीं रह जाएगा, वह बारीक जगह आएगी, वह बारीक जगह जहां एक्सप्लोजन होता है, जहां विपलव हो जाता है, विस्फोट हो जाता है और एक क्षण में सब चीजें बदल जाती हैं, सब कुछ नया हो जाता है।
मैं कौन हूं? यह कोई मेटाफिजिकल क्वेश्चन, यह कोई दार्शनिक प्रश्न नहीं है। यह आध्यात्मिक परिस्थिति है, यह सिचुएशन है, यह क्वेश्चन नहीं है। यह हम पूछते हैं इससे पता चलता है कि हम सोए हुए हैं और हम कहीं और भटक रहे हैं। हमारा ध्यान वहां नहीं है जहां हमारा होना है और हमारा ध्यान वहां है जहां हमारा होना नहीं है। इन दोनों के बीच एक गल्फ, एक खाई पैदा हो गई है। उस खाई को जो पूरा कर लेता है वह जान लेता है कौन हंू। और जो जान लेता है कौन हूं फिर उसे कुछ और जानने को और पाने को शेष नहीं रह जाता है। और जो जान लेता है कौन हूं, उसके जीवन में न प्रश्न रह जाते हैं, न चिंताएं रह जाती हैं, उसके जीवन में न तनाव रह जाते हैं, उसके जीवन में कुछ भी शेष नहीं रह जाता। वह ऐसे हो जाता है जैसे हवाएं, जैसे आकाश में तैरते हुए बादल, जैसे वृक्षों पर खिलते फूल, जैसे वृक्षों से गिरते सूखे पत्ते, जो होता है वह जानता है। फिर उसका न कोई इनकार है कि यह हो, न उसका कोई आग्रह है कि यह हो, न उसका कोई आग्रह है कि यह न हो, फिर सब चीजें स्वीकृत हैं। फिर जो होता है वह देखता रहता है। फिर जो नहीं होता है वह उसको भी स्वीकार कर लेता है। फिर वह जिंदगी में ऐसे जीता है जैसा लाओत्सु ने कहा है। किसी ने लाओत्सु से पूछा, उसी की बात से मैं...सिर्फ जीने के लिए तड़फता था। जीना-वीना कहां था, क्योंकि हमेशा लगता था कल जीऊंगा, परसों जीऊंगा, आगे जीऊंगा, भविष्य में जीऊंगा, मोक्ष में जीऊंगा, स्वर्ग में जीऊंगा, हमेशा कल, हमेशा कल, हमेशा कल। जीता नहीं था तड़फता था, और तड़फता इसीलिए था कि जीवन का कोई पता नहीं था। जिस दिन से जाना उस दिन से जी रहा हूं। उस दिन से तड़प नहीं रहा हूं।
ध्यान रहे, जो तड़फते हैं वे कभी जीते नहीं और जो जीते हैं वे कभी तड़फते नहीं। ये दोनों बातें एक साथ नहीं होती हैं। अगर थोड़ी भी तड़प है भीतर, उसका मतलब है जीवन नहीं है। अगर जीवन है तो एक अपूर्व शांति छा जाएगी जहां कोई तड़प नहीं है।
लाओत्सु से पूछा, फिर अब तुम कैसे जीते हो? उसने कहाः कैसे का सवाल नहीं रहा, क्योंकि कैसे का मतलब था कि मेरा कोई आग्रह था कि ऐसे जीऊंगा। नहीं, अब तो जब भूख लगती है लग आती है और जब नींद आती है तब आ जाती है। जब नींद आती है तब सो जाता हूं, जब भूख लगती है तब खा लेता हूं, जब प्यास लगती है पी लेता हूं। अब अपनी तरफ से कुछ करता ही नहीं हूं। अब जो होता है होता रहता है।
उस आदमी ने कहाः लेकिन यह तो हम भी करते हैं। जब भूख लगती है तब खाते हैं। लाओत्सु ने कहाः इस भूल में मत रहना। ऐसे आदमी जमीन पर खोजने मुश्किल हैं जोे जब खाते हों जब भूख लगती है और ऐसे आदमी भी खोजने मुश्किल हैं जो जब सो जाते हों जब नींद आती है। छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ दें, बस। हम तब सोते हैं जब सोने का वक्त है और हम तब खाते हैं जब खाने का वक्त है। और हम इसलिए नहीं खाते कि भूख है, हम इसलिए खाते हैं कि स्वाद है। और हम इसलिए नहीं सो जाते कि नींद है, हम इसलिए सो जाते हैं कि रात है।
लाओत्सु ने कहाः तुम इस भूल में मत रहना, और मैं तुमसे कहता हूं कि जब मैं खाता हूं तब मैं सिर्फ खाता हंू और जब मैं सोता हूं तो मैं सिर्फ सोता हंू। उस आदमी ने कहाः यह तो हम भी करते हैं। लाओत्सु ने कहाः इस भूल में मत पड़ना। तुम खाते हो और साठ हजार काम और भी करते हो। तुम सोते हो और हजार सपने देखते हो। तुम खाना खाते हो और दफ्तर में भी बैठते हो। उसी वक्त एक साथ तुम बहुत जगह होते हो। मैं वहीं होता हूं जहां होता हंू।
तो उस आदमी ने पूछाः फिर हमें ठीक से समझा दो कि हम कैसे जीएं, क्या करें?
लाओत्सु ने कहाः मुझसे पूछते हो तो मुझे एक ही बात खयाल आती है, जब से मैंने जाना तब से मैं एक सूखे पत्ते की तरह हो गया हंू, जो वृक्ष से गिर चुका है। हवाएं आती हैं और पूरब की तरफ ले जाती हैं तो मैं पूरब की तरफ चला जाता हूं। मैं हवाओं से यह नहीं कहता कि मैं नहीं जाऊंगा, मुझे पश्चिम जाना है। मुझे कहीं जाना ही नहीं है। क्योंकि मैं वहां पहंुच गया हंू जिसके आगे कोई जाना नहीं है। हवाएं पश्चिम ले जाती हैं मैं हवाओं पर सवार हो जाता हंू, पश्चिम चला जाता हंू। हवाएं आकाश में उठा देती हैं तो मैं आकाश में नाचता हंू सूरज की किरणों में। और हवाएं जमीन पर गिरा देती हैं तो मैं सो जाता हंू, विश्राम करता हूं। मैं एक सूखा पत्ता हो गया हंू, हवाएं जहां ले जाती हैं वहीं चला जाता हूं, नहीं ले जाती हैं तो नहीं जाता हंू। न मेरी जाने की कोई इच्छा है और न न जाने का कोई सवाल है। अब मेरी कोई दौड़ नहीं, मैं सिर्फ हंू और जो होता है उसे देखता रहता हंू।
जो व्यक्ति इस मैं के रहस्य को खोल लेगा वह जीवन के साथ एक हो जाता है। वह वैसे हो जाता है जैसे झरने, वह वैसे ही हो जाता है जैसे आकाश में तैरते हुए बादल, वह वैसे ही हो जाता है जैसे फूल, जैसे पक्षी, वह वैसे ही हो जाता है जैसे चलती हुई श्वास। वह जीवन के साथ एक हो जाता है, सब चीजें ठहर जाती हैं। ठहरने का मतलब मर नहीं जाती हैं। सब चीजें ठहर जाती हैं जैसे कोई शांत सरोवर ठहरा हो। पूरा जीवन, पूरी शक्ति से भरा हो लेकिन ठहरा हो। ऐसे ठहरे हुए जीवन की दशा में जहां पूरा जीवन है और जहां ठहरे हुए भी अगति नहीं है और जहां ठहरे हुए भी मृत्यु नहीं है, और जहां ठहरे हुए भी सब गति है, सब परिवर्तन है, सब हो रहा है लेकिन कोई आग्रह नहीं है। ऐसी चित्त-दशा में जो फलित होता है उसका नाम आनंद है और इससे विपरीत चित्त-दशा में जहां हम हैं जो फलित होता है उसका नाम दुख है।
हम दुख के बिंदु पर खड़े हैं क्योंकि हमें पता ही नहीं हम कौन हैं। हम आनंद की मंजिल पर पहंुच सकते हैं काश हमें पता हो जाए कि हम कौन हैं। दुख और आनंद के बीच की जो यात्रा है वह मैं कौन हूं इसे न जानने से, मैं कौन हूं इसके जानने तक की यात्रा का नाम है। और कहीं कोई मंदिर नहीं है, और कहीं कोई परमात्मा नहीं है, और कहीं कोई मोक्ष नहीं है।
दुख से आनंद की तरफ बढ़ जाना परमात्मा की तरफ बढ़ जाना है। दुख से आनंद की तरफ बढ़ जाना मुक्ति की तरफ बढ़ जाना है। दुख से आनंद की तरफ बढ़ जाना सत्य की तरफ बढ़ जाना है। लेकिन जिसे अपना ही पता नहीं उसे क्या आनंद का पता हो सकता है? इसलिए मैं कौन हूं? इसको कोई दार्शनिक सवाल मत समझना और इसके उत्तर खोजने किसी किताब में मत चले जाना। इसका उत्तर खोजना हो तो अपने ध्यान को जो चारों तरफ फैला है उसे सिकोड़ कर वापस बुला लेना। होम कमिंग, वह वापस लौटना है। जैसे सांझ पक्षी लौटते हैं। सारे पक्षी लौटने लगते हैं सांझ अपने घोंसलों को। ऐसे ही आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी चेतना की किरणों को, चेतना के पक्षियों को जो सब तरफ उड़ गए हैं उन्हें वापस बुलाने लगता है। वे सब अपने घर जिस दिन वापस लौट आते हैं और सारी चेतना जिस दिन भीतर बैठती है, जैसे कोई पक्षी अपने घोंसले में वापस बैठ गया आकर, उसी दिन उदघाटन हो जाता है। यह अटेंशन और इनअटेंशन के बीच का फासला है। यह एक प्रश्न और एक उत्तर के बीच का फासला नहीं है। वह जो इनअटेंशन है वह अटेंशन बन जाए और सारी बात पूरी हो जाती है। ध्यान के प्रति सोया हुआ आदमी अधार्मिक है। ध्यान के प्रति जागा हुआ आदमी धार्मिक है।
महावीर से किसी ने पूछा कि साधु कौन है? तो महावीर ने यह नहीं कहा कि जो मुंह में पट्टी बांधता है वह साधु है, इतनी तो महावीर को समझ रही होगी कि मुंह में पट्टी बांधना सर्कस हो सकता है, साधु होने से इसका क्या संबंध है। महावीर ने यह नहीं कहा कि जो नंगा खड़ा होता है वह साधु है। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो उपवास करता हो वह साधु है। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो इस ग्रंथ को मानता हो, उस ग्रंथ को मानता हो वह साधु है। महावीर ने बड़ी अजीब बात कही। महावीर ने दो छोटे से सत्य कहे। महावीर ने कहा कि जो जागता है सो साधु है, असुत्ता मुनि। जो जागा हुआ है सोया हुआ नहीं है वह मुनि है। फिर उसने पूछा, और असाधु कौन है? तो महावीर ने यह नहीं कहा कि जो दुकान करता हो वह असाधु है, कि जो पत्नी और बच्चों के पास रहता हो वह असाधु है, कि जो धन कमाता है वह असाधु है, कि जो मकान बनाता है वह असाधु है। नहीं, ये सब बातें नहीं कहीं। जब पूछा किसी ने असाधु कौन है? तो महावीर ने कहाः सुत्ता अमुनि, जो सोता है वह असाधु है। जो सोया है वह असाधु। जो सोया है, नहीं, जिसकी सारी चेतना की किरणें बाहर भटक गई हैं, जिसकी कोई चेतना की किरण भीतर नहीं लौटती जहां जागरण हो जाए। जागा है, वह साधु है।
जाग जाएं तो पता चलेगा कि मैं कौन हूं? सोए रहें, पता है और पता नहीं चलेगा। ‘हैं’ और पता नहीं चलेगा।
इसलिए मैंने कहा, सरल है और कठिन भी। चाहें तो आज भी हो सकता है, न चाहें अनंत जन्मों तक नहीं होगा, अनंत जन्मों तक नहीं होगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, इससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हंू। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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