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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-13)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो
 तेरहवां -प्रवचन

निर्णय न लें, उपलब्ध रहें


प्रश्नः ...यानी किसी बात के बनने में हम एक विचार खोज करके एक कोई नियोजन करते हैं एंड स्टिल दे विल वन थिंग जिसका हम नियोजन नहीं कर पाते हैं...दिस इ.ज ए...एक्सीडेंड।
नहीं, मैं इसलिए पूछता हूं कि असल में ऐसी कोई भी घटना इतना ही बताती है कि जीवन क्या है? और कैसे चलता है? और कैसे समाप्त हो जाता है? न हम इसे जानते हैं, न इस पर हमारा कोई चरम अधिकार मालूम होता है--घटना इतना ही बताती है। इतना निगेटिव।

प्रश्नः चरम अधिकार नहीं है, इतना तो बताती जरूर है।
बिलकुल निगेटिव न। नहीं, लेकिन किसी का चरम अधिकार है वह। हम, वह जो, वह जो कोई पाॅवर, कोई परमात्मा है, वह हम जोड़ रहे हैं। घटना सिर्फ इतना बताती है कि हमें पता नहीं कि जीवन कैसे चलता है और कैसे समाप्त हो जाता है। हम नियोजक नहीं हैं पूरे। कुछ ऐक्ट्स छूटा रह जाता है। और वह सब कुछ कर देता है, और हमारी सारी व्यवस्था व्यर्थ हो जाती है। जीवन एक रहस्य है जिसका ओर-छोर हमारी पकड़ में नहीं आता है। इतनी बात भर पता चलती है, इतना निगेटिव भर पता चलता है। पाजिटिव हम जोड़ रहे हैं कि--दैव है, भाग्य है, परमात्मा है कोई शक्ति--वह हम जोड़ रहे हैं। वह इस घटना से कहीं भी आता नहीं।


और मेरा कहना है कि वह हम क्यों जोड़ रहे हैं? क्योंकि वह बिलकुल अनावश्यक है। आवश्यक इतना है, जितना मैं कह रहा हूं। इससे ज्यादा घटना से कुछ भी नहीं आता। वह हम क्यों जोड़ रहे हैं? वह जोड़ कर फिर हम इस खयाल में पड़ रहे हैं कि हमको पता है कि घटना क्यों हो गई। फिर हम उसी भ्रम में पड़े जाते हैं। फिर वह जो मिस्टरी थी जिंदगी की, वह हमने फिर पोंछ दी। हमने कहा कि भगवान हैं। और हम फिर ज्ञाता बन गए। फिर हमको पता चल गया, कि हमको मालूम है कि भगवान हैं। एक बड़ी शक्ति है वह सब कर रही है। जिस भूल से हमें वह घटना बचा सकती थी, वह भूल हमने वापस जोड़ दी। फिर हम ज्ञानी बन गए हैं। वही भूल हमें घटना के पहले थी, वही भूल घटना के बाद हो गई।
तो घटना ने जो हमें एक सिचुएशन पैदा की थी, जहां हम अज्ञानी मालूम पड़ते हैं, हम उससे फिर बच गए। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यानी एक घटना ने हमें उस हालत में ला दिया था कि हमारा सारा अहंकार टूट जाना चाहिए था--कि हम जानते हैं, वह नहीं टूटा। हमने नया अहंकार खड़ा कर लिया कि हम जानते हैं कि यह सब भगवान करवा रहा है। भाग्य करवा रहा है, विधि करवा रही है। यह सब उससे हो रहा है। हम फिर जानने लगे। तो घटना चूक गई, हमें कहीं ले जा सकती थी घटना। सारी जिंदगी के बाबत हमारा रुख बदल सकती थी।
तो मैं यह नहीं कहता कि वह ट्रैजिडी हो गई। वह ट्रैजिडी हुई या नहीं, वह पता नहीं। लेकिन दूसरी जो बात हम सोच रहे हैं वह ट्रैजिडी है। वह, वह दो व्यक्तियों का बचना ट्रैजिडी होता है कि जाना, यह तय करना मुश्किल है। वे बचते तो ज्यादा दुख भोगते, ज्यादा पी.ड़ा भोगते कि चले गए तो सुख में गए। यह, यह तय करना मुश्किल है। यह बहुत मुश्किल है तय करना। इसको कोई तय नहीं कर सकेगा कभी। लेकिन ट्रैजिडी दूसरी है।
वह घटना हमें कहीं संकेत करती थी बड़े। उस घटना से हम चूक गए। उस संकेत से हम चूक गए। हमने फिर जल्दी से ज्ञान की स्थिति वापस ग्रहण कर ली। एक धक्का दिया था घटना ने और हमको अज्ञानी बना दिया था। हम सम्हल कर खड़े हो गए कपड़े झाड़ कर। हमने कहा कि हमको पता है, इसमें कोई शक्ति काम कर रही है। हम फिर वापस उसी जगह खड़े हो गए जहां इस एक धक्के ने हमको हिला दिया था। और हो सकता था हम सदा के लिए हिले हुए रह जाते।
अगर आप सदा के लिए हिले हुए रह जाते तो आपकी जिंदगी बिलकुल दूसरी हो जाती। क्योंकि तब आप कल तक जितना आयोजन कर रहे थे और सोचते थे कि मैं यह आयोजन कर लूंगा। वह आपको पता चलेगा कि मैं करूं जरूर, लेकिन फल की कोई फिकर न करूं। क्योंकि वह कुछ तय नहीं रहा मामला। यह, यह घटना जो, जो थी, तो करूं जरूर, लेकिन अब ऐसा न सोचूं कि इससे यह होगा जो मैं चाहता हूं। और आपको एक, एक ह्युमिलिटी का अनुभव होगा जिंदगी में।
इन घटनाओं का साफ अगर बोध हो जाए तो एक विनम्रता का अनुभव होगा कि हमारी कोई शक्ति नहीं, कोई सामथ्र्य नहीं। लेकिन वह ह्युमिलिटी का बोध नहीं हो पाएगा। माइंड की ट्रिक फिर काम कर देगी। और उसने कहा कि अरे हस्तीमल जी, यह सब हां, एक शक्ति है, जो सब चला रही है। और, और उस शक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है इसमें। हस्तीमल जी वापस अपनी जगह खड़े हो गए। और वह फिर ऐट ईज हो गए। और कल जो कर रहे थे, वह फिर जारी रखेंगे। और उसमें कहीं कोई फर्क नहीं आएगा।
तो इसलिए मैंने पूछा कि वह दूसरा तो बिलकुल ही अननेसेसरी बात आ गई। नेसेसरी उतना था। और अगर हम जीवन में जितना अनिवार्य है जीवन की सूचना, उतना ही लें तो हमारी जिंदगी रोज नये-नये तल पर उभरती चली जाती है। खुलती चली जाती है। और हमें अदभुत बातें दिखाई पड़नी शुरू होती हैं जो हमें कभी भी दिखाई नहीं पड़ सकेंगी। क्योंकि वह ज्ञान हमें अंधा बना देता है।
अब जैसे यही है, हमने मान लिया कि ट्रैजिडी हो गई। यह हमने सोचा-विचारा नहीं। क्योंकि हम मान कर बैठे हुए हैं कि दो जवान, अभी शादी हुई सात दिन बाद और, और मर गए। तो बड़ी ट्रैजिडी हो गई। यह हम बिलकुल मान कर बैठे हुए हैं। यह हमने सोचा नहीं कि ट्रैजिडी क्यों हो गई? यह ट्रैजिडी क्यों है? कौन कह सकता है कि सात दिन उन्होंने खूब प्रेम किया? और अगर ये सत्तर साल जीते तो दोनों सत्तर साल की कलह के बाद मरते। और सात दिन में ये दोनों प्रेम के साथ मर गए हैं। और इनका अंतिम क्षण पे्रम से भरा हुआ था। और सत्तर साल बाद वे सिर्फ क्रोध और घृणा से और द्वेष से भरे हुए होते--कौन कह सकता है? इन दो व्यक्तियों के साथ जो हुआ है, ये दो व्यक्ति सात दिन में इतने प्रेम से भरे थे, सत्तर साल में भी इतने प्रेम से भरे रहते--यह कौन कहता है? सत्तर साल में क्या नहीं हो जाते इनके बीच के फासले, कितनी दरार नहीं हो जाती, कितने झग.ड़ नहीं लेते, कितने दुश्मन नहीं हो जाते--कौन कह सकता है? ये दोनों प्रेम में थे, और प्रेम में चले गए। और प्रेम में जाना एक अदभुत अनुभव है; और घृणा में जीना भी एक, एक विकृत अनुभव है।
जो हो गया है उसके बाबत हम बहुत जल्दी नतीजे कैसे ले लेते हैं कि वह दुखद हुआ या सुखद हुआ? नतीजे हम पहले से लिए हुए हैं। घटना सिर्फ उसके अनुकूल पड़ जाती है, हम नतीजे ले लेते हैं। और फिर वह जो ह्यूमिलिटी हममें पैदा होनी चाहिए, वह नहीं पैदा होती। वह जो विनम्रता हममें पैदा होती है, क्योंकि जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि उसके बाबत निर्णायक होने का हमें सच में कहीं भी कोई हक नहीं है। कोई भी हक नहीं हमें निर्णायक होने का।
जीवन की घटना के सामने सिर्फ मौन खड़े रह जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। कि हम चुप खड़े रह जाएं और देख लें कि यह हुआ है। क्या हो गया है इस पर जो जजमेंट हम लेते हैं? क्योंकि ट्रैजिडी, हमने कहा कि जजमेंट हमने ले लिया। हमने यह मान लिया कि इनका जीना हर हालत में सुखद था, इनका मर जाना हर हालत में दुखद है। यह खतरनाक निर्णय है। क्योंकि जो लोग जी रहे हैं, उनको देख कर यह बिलकुल पता नहीं चलता कि उनका जीना सुखद है। मरने वालों का तो हमें पता नहीं, लेकिन जो लोग जी रहे हैं, उनको देख कर ऐसा कहीं भी पता नहीं चलता कि उनका जीना कोई सुखद है। तो मरने वाला दुखद हैः यह निर्णय हमारा इस निर्णय पर खड़ा हुआ है कि जीने वाला सुख में है। और यह निर्णय ही बिलकुल भ्रांत मालूम होता है।
अगर मां के पेट में बच्चा नौ महीने रहता है। अगर पेट की नाड़ियां, नसें, हड्डियां, पसलियां सब अगर सचेत हों, कांशस हों तो बच्चे का जन्म उनको ऐसा लगता होगा कि गया बच्चा। गया, मर गया। क्योंकि जहां बच्चा था, वह उनसे विलीन हो गया। बच्चा जब पैदा हुआ तो पेट की जो नौ महीने की व्यवस्था थी, वह अगर सोचती होगी तो इसके सिवा क्या नतीजा लेती होगी कि बच्चा गया बेचारा। ट्रैजिडी हो गई। स्वाभाविक है। क्योंकि वह बच्चा उनकी तरफ से तो गया, बियांड हो गया। अब उन्हें पता नहीं कि वह क्या हुआ, और क्या नहीं हुआ।
हम सोचते हैं कि एक आदमी मृत्यु में गया, और हम सोचते हैं ट्रैजिडी हो गई। गया आदमी। हम नहीं जानते कि वह कहां गया? वह उसका नया जन्म है, वह किसी नये तल पर गया। क्या हुआ, हमें कुछ भी पता नहीं। और जब तक हमें पता नहीं हम कैसे निर्णायक हो जाते हैं कि जो हो गई, वह ट्रैजिडी है? और मौत के संबंध में चूंकि हमने यह मान ही रखा है, कि मौत ट्रैजिडी है ही। उसके इतने नुकसान हुए हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है। क्योंकि उसकी वजह से मौत के प्रति एक भय पैदा हो गया है। एक घबड़ाहट पैदा हो गई है। और यह मजे की बात है राव साहब कि मौत के प्रति हम जितनी घबड़ाहट से भर जाएंगे, जीना हमारा उतना ही मुश्किल हो जाएगा।
जीने के लिए मौत का एक निरंतर अभय का भाव चाहिए। लेकिन जो ट्रैजिडी है, उससे आप अभय कैसे हो सकते हैं। यह, यह भाव चाहिए। लेकिन मौत के प्रति हमारा भय है एक। हम भय की सूचना दे रहे हैं। हमको पता नहीं है यह कि जो हो गया, वह बुरा हुआ है। हां, बुरा हो गया है। मतलबः मरना बुरा होना है, और जीना अपने आप में एक, एक सुखद घटना है। तो इसका मतलब यह हुआ कि हम अपनी जाहिर कर रहे हैं कि हम मरने से डरते हैं। और जीना, जीना चाहते हैं, जीना चाहते हैं, जीना चाहते हैं।
और मजा यह है कि जो आदमी मरने से जितना डर रहा है, वह उतना ही मुश्किल से जी सकता है। उसका जीना कभी सुख हो ही नहीं सकता। जीना केवल उन लोगों का सुख हो सकता है जो प्रतिपल मौत को अंगीकार करने को तैयार हैं। जिनके लिए मौत भी एक सुख है, वे लोग जिंदगी को सुख बना लेते हैं। चूंक हमने मान रखा है कि मौत एक दुखद घटना है तो बचपन से ही वह हमारे दिमाग में प्रवेश हो जाता है--कि मौत। तो मौत से जीवन भर हम भयभीत, डरे हुए, कंपे हुए खड़े रहते हैं। और यह कंपन इतना ज्यादा है कि इस कंपन की वजह से हम जी नहीं पाते। क्योंकि जीने के लिए जैसा निष्कंप मन चाहिए वह मौत से डरे हुए आदमी का कभी नहीं हो पाता। वह पहले यह सोचता है कि कहीं मर तो नहीं जाऊंगा। तो काम में हाथ रखना है--कहीं नुकसान तो नहीं हो जाएगा, कहीं यह तो नहीं हो जाएगा, तब आगे बढ़ना है।
तो न तो वह प्रेम कर पाता है, क्योंकि आप जान कर हैरान होंगे कि प्रेम करीब-करीब मरने जैसी घटना है। अगर दो शब्द पर्यायवाची हैं, तो प्रेम और मौत बिलकुल पर्यायवाची है। एक आदमी को प्रेम करने का मतलब है कि करीब-करीब मर जाना। इतना अपने को शून्य और समाप्त कर लेना। तो मरने से डरने वाला आदमी, कभी प्रेम नहीं कर पाता। क्योंकि प्रेम में उसको पूरी तरह मिटना पड़ता है। तो विद एंड करता है, रोकता है अपने को कि मैं मर जाऊंगा।
मौत से डरा हुआ आदमी कभी प्रेम नहीं कर पाता, मौत से डरा हुआ आदमी कभी ध्यान नहीं कर पाता। क्योंकि ध्यान फिर मरने की घटना है। वह फिर एक इनर डेथ है जहां जाकर फिर मरने जैसा हो जाता है, कि गया। वह प्रेम से भी बड़ी घटना है मरने की। तो वह मृत्यु से डरा हुआ आदमी कभी ध्यान नहीं कर पाता; वह मृत्यु से डरा हुआ आदमी कभी सत्य के करीब नहीं खड़ा हो पाता। क्योंकि सत्य के करीब खड़े होने का मतलब मिट जाना है। अगर अपने को बचाना है तो हमेशा असत्य के करीब खड़े रहो।
इसलिए असत्य हमेशा बचाव करता हुआ मालूम पड़ता है। और आदमी जो असत्य बोलता है वह इसलिए कि असत्य बचाव करता है। और सत्य? तो सत्य जमीन से तोड़ देगा, मकान गिरा देगा, आग लगा देगा--क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता।
वह जो मरने को तैयार है, वही सत्य के साथ भी खड़े होने को तैयार होता है। वह जो कबीर ने कहा हैः जो घर फंूके आपना, चले हमारे साथ। वह, वह सत्य की आवाज है। वह कहता हैः अपना घर जलाने को तैयार हो, मरने को तैयार हो--तो आओ। तो हमारे साथ आ जाओ। और इतनी हिम्मत न हो, तो फिर असत्य के साथ रहना ठीक है। वह घर बचा देगा, मकान बचा देगा, सब बचा देगा।
तो, तोे मेरी अपनी दृष्टि यह है कि हम जो छोटे से निर्णय भी लेते हैं, वे हमारे पूरे व्यक्तित्व की गहराइयों तक स्पर्श करते हैं, और प्रभावित करते हैं। और मौत जैसी बड़ी घटना के सामने हम क्या निर्णय ले सकते हैं? हमें चुपचाप खड़े हो जाना चाहिए। एक अदभुत घटना घट रही है मौत की। हम, इतना अननोन आ रहा है वहां जिसको हम बिलकुल नहीं जानते। इतना अज्ञात प्रवेश कर रहा है। उस वक्त भी हम निर्णय ले लेते हैं, और गलती हो जाती है। और अगर एक बात हमारे मन में यह बहुत स्पष्ट हो जाए पूरे समाज के मन में, तो मौत का भय अगर हम खत्म कर सकें, और मौत अनिवार्य रूप से दुखद है यह भाव चला जाए, तो हम जीने की क्षमता, वह इंटेंसिटी आॅफ लिविंग पैदा कर लेंगे। और नहीं तो वह हम पैदा नहीं कर सकते हैं कभी। वह कभी पैदा नहीं हो सकती।
नीत्शे कहता था कि सिर्फ वे ही लोग जीते हैं जो डेंजरसली जीते हैं। और डेंजरसली जीने का, खतरे में जीने का और कोई मतलब नहीं होता है। यह नहीं कि आप पहाड़ पर तलवार लेकर जीते हैं। जो आदमी तलवार लिए हुए है वह खतरे में जी ही नहीं रहा है। खतरे की सुरक्षा उसने तलवार से की हुई है। वह जो है, सेफ्टी-मेजर है। उस, खतरे-वतरे में नहीं जी रहा है वह। खतरे में जीने का मतलब यह है कि जो आदमी प्रतिपल अज्ञात में जाने को तैयार है, क्योंकि अज्ञात सबसे बड़ा खतरा है।
और मौत का हममें जो डर है वह यह थोड़े ही डर है कि हमको पता है मौत बुरी है। मौत अज्ञात है। सबसे बड़ा अज्ञात है जीवन में मौत। वह भर एक ऐसी चीज है जिसको जानने का कोई उपाय नहीं, बिना मरे। और, और, और बिना जाने हम मरना नहीं चाहते। क्योंकि हमें पक्का हो जाना चाहिए कि, कि वह क्या है? हम जान लें तो हम मर भी जाएं। और बिना मरे हम जान नहीं सकते हैं। इसलिए मौत सबसे अजीब हालत की तरह सामने खड़ी रहती है, जीवन भर। और इसलिए हमने उसको सबसे बड़ा खतरा बना रखा है। क्योंकि हम उसे बिना जाने, हममें प्रवेश करना पड़ेगा।
तो मैं यह कहता हंू कि हम निर्णय न लें। और जब मौत की घटना घटे तो हम बहुत मौन और शांति से उस घटना को पूरे प्राणों तक प्रवेश करने दें। जब हमारे निकट का कोई मर जाए तब बहुत लाभ हो सकता है उनका, जो अभी जिंदा हैं। क्योंकि निकट के व्यक्ति के मरने के कारण उनके बहुत गहराई तक यह घटना स्पर्श कर सकती है। यानी करीब-करीब उन्हें अपने मरने का थोड़ा सा अनुभव इस घटना से हो सकता है। क्योंकि हमारा एक हिस्सा मर गया। मगर हम उससे बच जाते हैं, हम निर्णय ले लेते हैं और निपट जाते हैं। निर्णय लिया कि बात खत्म हो गई। वह हमारे भीतर नहीं घुस पाती फिर। हमारा पुराना निर्णय फिर मजबूत हो जाता है। और वह घटना हमारे सारे निर्णय को गिरा देती, बदल देती, नया कर देती। वह मौका हम नहीं आने देते।
मृत्यु जगत में सबसे रहस्यपूर्ण, सबसे अनजानी, और इसीलिए सबसे ज्यादा डिवाइन, इसलिए सबसे ज्यादा दिव्य घटना है। और उसके पास हमें अत्यंत पवित्रता से भर कर खड़ा होना चाहिए। और अगर हम खड़े हो सकें एक मौत के पास भी, तो आपकी जिंदगी पूरी बदल जाएगी।
लेकिन न हम सोचते, न हम विचारते। हमारे सब बंधे हुए निष्कर्ष हैं, वे हम दोहरा लेते हैं। और उनके दोहरा लेने की वजह से बोथली हो जाती है बात। वह, वह खत्म हो गई। तो मैं नहीं कहता कि...ट्रैजिडी क्यों कहें? इतना ही कहें कि वे दो थे, और सात दिन बाद विलीन हो गए। और हम नहीं जानते हैं कि कहां विलीन हो गए? और क्या हुआ, और क्या नहीं हुआ? इतना ही कहें। इससे आगे इंच भर जाने की जरूरत नहीं।
सुकरात को जिस दिन वह जहर दिया जाने को था, तो उसके एक शिष्य ने, प्लेटो ने उसको कहा कि आप भयभीत नहीं हैं मरने से? सुकरात कहने लगाः भयभीत? मैं बहुत आतुर हूं। क्योंकि जिंदगी भर से जिसकी प्रतीक्षा करते थे, वह घड़ी आज पास आई जाती है। और मैं अपने परिपूर्ण होश में हूं। इसलिए कम लोेगों को मौत का जो मजा मिला होगा, वह मुझे मिल जाएगा। कि न अभी मैं बीमार हूं, न अभी मैं बेहोश हंू। मैं अपने परिपूर्ण होश में हूं। मैं अपनी पूरी बुद्धिमत्ता में हूं। और मौत आ गई है भाग्य से। तो मैं आतुर हूं। देखना है, मौत क्या है?
तो उनके शिष्यों ने कहा कि आप कैसी बातें कर रहे हैं? हम तो रो रहे हैं और दुखी हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि तुम बिलकुल पागल हो, दो ही बातें हो सकती हैं। अभी तक जो हम जानते हैं, दो ही बातें हो सकती हैं--या तो मैं मर ही जाऊंगा, बिलकुल मर ही जाऊंगा। और तब दुख का कोई कारण नहीं। क्योंकि मैं ही नहीं बचा तो मुझे कोई दुख नहीं हो सकता--आगे। तो तुम क्यों दुखी होओगे? जिंदा रहता तो मैं दुखी हो सकता था, दुख की संभावना थी--क्योंकि मैं था। तो तुम दुखी भी हो सकते थे। लेकिन मैं मर ही गया, बिलकुल मर गया, अब मैं हूं ही नहीं--तो अब दुख तो हो ही नहीं सकता। मैं दुख के बाहर हो गया। मैं अस्तित्व के ही बाहर हो गया। तो तुम खुश होना, आनंदित होना कि सुकरात न रहा। अब उसके दुख की कोई संभावना न रही।
और दूसरी संभावना यह हो सकती है कि मैं बचूंगा। मौत को भी पार कर जाऊंगा और मैं रहूंगा, तब तो दुख का कोई कारण नहीं। क्योंकि जिसको पार कर गया मैं, और मैं बचा, तो जिसको मैं पार कर गया वह मैं था ही नहीं। तभी तो मैं बच गया हूं। वह मैं कभी नहीं था, शरीर या कुछ, मैं बच जाऊंगा। तब तुम्हें दुखी होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि दो हालतें हैंः या तो सुकरात बचेगा, या नहीं बचेगा। दोनों हालत में तुम खुश होना। और तीसरी हालत का हमें पता नहीं हैं। अगर वह होगी तो वह मर कर ही जानी जा सकती है। और वह सौभाग्य मुझे मिल रहा है कि मैं मर रहा हूं, वह जानने का मुझे मौका मिल रहा है। मैं अपने पूरे होश में मर रहा हूं। पूरी समझदारी में मर रहा हूं।
जब जहर पीसा जाने लगा, तो बाहर जहर पीसा जा रहा है और सुकरात लेटा है और उसके मित्र इकट्ठे हैं। वह बार-बार पुछवाता है कि देखो, बहुत देर लगा दी। जहर पीसने में बहुत देर लगा रहा है वह आदमी। तो उस आदमी ने कहा कि तुम पागल हो गए हो। वह जहर पीसने वाला, कि मैं तो देर लगा रहा हूं कि तुम थोड़ी देर और...कि जितनी देर लग जाए। इतना अच्छा आदमी है। तुम थोड़ी देर और जी लो। तो मैं तो देर लगा रहा हूं, और तुम बार-बार पुछवाए चले जा रहे हो कि समय हो गया।
तो सुकरात ने कहा कि पागल, जो आ रहा है उसके स्वागत को अगर हम तैयार न हो सकें, और अगर आतुर प्रतीक्षा से उसके द्वार पर खड़े न हो सकें तो वह आ भी जाएगा, हम उसे जान भी न पाएंगे। क्योंकि हम आंख बंद किए और छिपे हुए पड़े रहेंगे। वह आ भी जाएगा और गुजर भी जाएगा और हम उसे जान भी न पाएंगे। क्योंकि जानने के लिए खुली आंख चाहिए। आतुर प्रतीक्षा चाहिए। एक अवेटिंग चाहिए, अवेटिंग, एक प्रतीक्षारत मन चाहिए।
तो प्रतीक्षारत मन ओपन होता है, खुला होता है। जैसे हम एक मेहमान की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो हम द्वार खोल कर रख देते हैं। हम इतनी भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते कि वह आए और दरवाजा खटखटाए, और थोड़ी देर हो जाए। हम द्वार खोल कर रख देते हैंः कोई आने को है, द्वार खुला है। हमारी आंखें द्वार पर लगी हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए, वह आए और लौट जाए। कहीं ऐसा न हो कि खट-खट न सुनाई पड़े, पैर की आवाज न सुनाई पड़े। कहीं कुछ भूल-चूक न हो जाए। तो हम द्वार खुला रखते हैं। द्वार पर बैठ जाते हैं और आंख गड़ा लेते हैं, कोई आ रहा है। और ऐसे भाव में जब वह आता है तो हम परिचित हो पाते हैं। नहीं तो हम परिचित भी नहीं हो पाते।
तो मौत के लिए भी ऐसी ही प्रतीक्षा से भरा हुआ मन चाहिए। लेकिन मौत के प्रति अगर बुरा खयाल है तो यह कैसे हो सकता है? तो हम हमेशा पीठ किए हुए हैं और आंख बंद किए हुए हैं। हम मौत में घसीटे जाते हैं, हम मौत में जाते नहीं। सब यहां इस तरफ घसीट रहे हैं हम अपने को, और मौत उधर घसीट रही है। तो हम आंख बंद किए हुए और बेहोश मौत में जाते हैं--फिर चूक गए।
मेरी अपनी समझ यह है कि एक बार आदमी मौत में जानता हुआ प्रतीक्षा से चला जाए। फिर उसे पता चल जाता है कि न जन्म है, न मौत। एक बार वह पूरे खुले हृदय से चला जाए तो बात खत्म हो गई। परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। लेकिन हम चूंकि आंख बंद किए परीक्षा से गुजर जाते हैं--फिर जन्म है, फिर मरण है। क्योंकि उस परीक्षा से गुजरना ही पड़ेगा, मौत को जानना ही पड़ेगा। क्योंकि मौत को बिना जाने सत्य को जानने का कोई उपाय नहीं। और मौत के भय के कारण जीवन में भी जो अनुभव मौत के करीब हैं, उनसे हम बच जाते हैं।
अब मेरी अपनी समझ है कि मौत से डरने वाला आदमी अहंकार से कभी नहीं बच सकता। बच ही नहीं सकता। सच यह है कि अहंकार जो है, वह मौत के खिलाफ लड़ाई का बिंदु है। मैं बचा रहूं, और कुछ भी न मिटे। मैं बचा रहूं। सब मिट जाए, लेकिन मैं न मिटूं। लेकिन जिस आदमी को मौत भी स्वीकृत है और उसे दिखाई पड़ता है कि--मौत है। और वह जीवन का अंत नहीं; जीवन की परिपूर्णता है। सच तो यही है। एक बीज हमने डाला है, पौधा बन गया है, फूल आ गए हैं, फिर फूल कुम्हलाने लगे और गिरने लगे।
तो यह फूल का कुम्हलाना और गिरना, कहीं बाहर से नहीं आ रहा है। यह बीज की चरम अवस्था है। यह आखिरी अवस्था है उसकी। यहां तब बीज विकसित होता है। यह उसकी परिपूर्णता है बीज की, जहां से बिखरना शुरू होता है। जहां से अंकुर निकलना शुरू हुआ था वह शुरुआत थी, अभिव्यक्ति थी। जहां फूल गिरते हैं वहां पूर्णता है, अभिव्यक्ति है।
तो मौत हमारे जीवन का अंत नहीं है, जीवन की पूर्णता है। और पूर्णता के प्रति यह जो विरोध से भरा हुआ है, वह कैसे जी सकेगा? जीएगा कैसे? वह खुद के पूरे होने से भी डरा हुआ है, वह घबड़ाया हुआ है कि कहीं मैं पूरा न हो जाऊं। क्योंकि पूरा होने का मतलब ही यही है। तो इसलिए मैं कहता हूं कि इसको ट्रैजिडी क्यों कहेंगे। ट्रैजिडी मत कहें। इतना ही कहें कि एक मिस्टरी है। बस इससे ज्यादा हम कुछ कहने के हकदार नहीं हैं।

प्रश्नः (ध्वनि-मुद्रण अस्पष्ट)

नहीं, यह मैंने नहीं कहा। आप फिर मेरी बात नहीं समझे। अगर कोई कहता हैः डेथ आ गई और अच्छा हुआ। तो फिर उसने निर्णय लिया, यह मैंने कहा नहीं।

प्रश्नः (ध्वनि-मुद्रण अस्पष्ट)

मैंने यह नहीं कहा कि, मेरी बात सुन लें, न, न, मेरी बात सुन लें, मैंने यह नहीं कहा कि वह काॅमेडी है, मैंने कहा कि वह ट्रैजिडी नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, आपकी बात समझा मैं। उसके दो तीन हिस्सों में विचार करें। पहला तो यह कि मैंने यह नहीं कहा कि डेथ आ गई तो अच्छा हुआ। यह मैंने भूल कर भी नहीं कहा। मैंने इतना कहा कि हम निर्णय लेने के हकदार नहीं कि अच्छा हुआ कि बुरा हुआ। हमें कुछ भी पता नहीं कि क्या हुआ।

प्रश्नः (ध्वनि-मुद्रण अस्पष्ट)

इसको थोड़ा समझिए। मैं समझ गया आपकी बात को। मैंने जो कहा वह खयाल में नहीं आया है। नहीं तो यह जो आप कह रहे हैं दूसरी बात, यह नहीं कही जा सकती। जैसे मैंने यह कहा कि जो व्यक्ति मृत्यु को भी जीवन की अनिवार्य पूर्णता मानता है। मृत्यु के भय से बच जाता है, एक बात। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बीमार होने की आकांक्षा से भर जाता है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह आत्मघात करने के लिए उत्सुक हो जाता है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह बीमार पड़ेगा तो दवा नहीं करेगा। इसका यह कोई भी मतलब नहीं है। इसका यह कोई भी मतलब नहीं है।
इसका मतलब कुल इतना है कि वह आदमी मृत्यु से भयभीत नहीं है। और मृत्यु आएगी तो उसके लिए आनंद से अपने द्वार खोलने को तैयार है। लेकिन बीमारी मृत्यु नहीं है। न लंगड़ा हो जाना मृत्यु है, न आंखें फूट जाना मृत्यु है। ये केवल जीवन की पंगुताएं हैं। और जो आदमी मृत्यु तक को पूरे मन से स्वीकार करने को राजी है, वह, वह जीवन को तो पूरे मन से स्वीकार करेगा ही। यह मेरा कहना है कि बीमारी, लंगड़ा, खाट पर पड़ा हुआ आदमी, मैं यह नहीं कह रहा हंू कि ये ट्रैजिडी.ज नहीं है, बीमारी ट्रैजिडी है। क्योंकि वह न मरने देती है और न जीने देती है। वह किन्हीं विकल्पों पर नहीं जाने देती।
बीमारी को मैं ट्रैजिडी कहता हूं। क्योंकि बीमारी जीने की क्षमता को क्षीण करती है। सच तो यह है कि बीमारी मरने तक की क्षमता को क्षीण करती है। बीमार आदमी उस शान से नहीं मर पाता जिस शान से स्वस्थ आदमी मरता है। और परिपूर्ण स्वस्थ आदमी मरने के जिस आनंद को अनुभव करता है, बीमार आदमी मरने के भी उस आनंद को भी अनुभव नहीं करता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि फूल का कुम्हला जाना...मैं यह कह रहा हूं कि फूल है, पौधा है, उसको पानी ही न मिले, यह ट्रैजिडी है; उसको खाद ही न मिले, यह ट्रैजिडी है; एक जिंदा आदमी को खाना न मिले, यह ट्रैजिडी है; वह बीमार रहे, यह ट्रैजिडी है।
जिंदा आदमी पूरे स्वास्थ्य से जीए और जिंदा आदमी पूरे स्वास्थ्य से मरे, वह मैं नहीं कह रहा। यह भी मैं नहीं कह रहा हूं कि जहां से दो लोग बह गए हैं नदी में, वहां आप ब्रिज मत बनाएं। यह भी मैं नहीं कह रहा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि वहां आप ब्रिज न बनाएं, दो आदमी बह गए हैं।
 मैं यह कह रहा हूं कि ब्रिज भी आप बना लें और ब्रिज भी गिर सकता है और आदमी मर सकते हैं। आदमी के मरने के बाबत ब्रिज बना लेने के बाद भी हमें निर्णय लेना पड़ेगा कि हम क्या निर्णय लें और आदमी मरेंगे। चाहे ब्रिज आप बना लें, और चाहे न बना लें। अभी नदी के बहने से मर गए, कल ब्रिज के टूटने से मर सकते हैं। कल ब्रिज पर आते हुए वाहन के टकराने से मर सकते हैं। और हम सारे उपाय कर लें कि आदमी को मरने की बाहर कोई जरूरत न रह जाए, तो आदमी भीतर से मरेगा।
मरना कोई आकस्मिक घटना नहीं है कि सिर्फ एक्सीडेंट से आदमी मरेगा। कितने लोग एक्सीडेंट से मरते हैं? उनकी संख्या तो बहुत न्यून है। हम सारे एक्सीडेंट रोक लेंगे, और रोकने चाहिए। क्योंकि एक्सीडेंट जो है, एक्सीडेंट जो है, वह, वह जीने नहीं देता ठीक से। मरने के खिलाफ आप कोई रुकाव नहीं कर सकेंगे। जीना ठीक से हो जाए इसके लिए आप व्यवस्था कर सकते हैं; मरने के लिए तो आपको यह व्यवस्था करनी ही पड़ेगी कि मरने के प्रति हम क्या रुख लेते हैं। वह अंतिम व्यवस्था हमें करनी पड़ेगी। आदमी दो सौ साल जीए तो मरेगा, तीन सौ साल जीए तो मरेगा।
यह सवाल नहीं है कि हम कितनी देर जीने के बाद मरेंगे। मृत्यु वहां है और मृत्यु के बाबत हमारा कोई एटिट््यूड होना चाहिए कि--क्या है? ट्रैजिडी का एटिट््यूड अगर है तो आप उससे भयभीत होकर जीएंगे। और मेरा कहना हैः जो फियर में जी रहा है, आपको दिखाई नहीं पड़ रहा ऊपर से कि अभी तो हमको कोई मौत का डर नहीं है। हम यहां बैठे हैं, हम मजे से जी रहे हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि अगर मौत का भय भीतर है तो आप यहां भी ठीक से नहीं बैठे हुए, भीतर एक कंपन जारी है। क्योंकि मौत किसी भी क्षण हो सकती है। मकान गिर सकता है, भूकंप हो सकता है, बाढ़ आ सकती है। कुछ भी हो सकता है। बीमारी आ सकती है, कैंसर आ सकता है।
अगर मौत का एक, एक बुनियादी भय भीतर है तो जीने की आपकी क्षमता को वह पंगु कर देता है, आप डरे-डरे जीते हैं। मौत का भय अगर भीतर बिलकुल नहीं है, और हम मौत के लिए भी जीवन की तरह ही हमने स्वीकार किया है, तब आप परिपूर्णता से जीते हैं। टोटल लिविंग पैदा होती है। तब आप किसी भी क्षण में पूरी तरह जीते हैं, क्योंकि जो एक भय था वह तो समाप्त हो गया। तो आप मरने का तो कोई सवाल रहा नहीं है। मृत्यु है, और उस मृत्यु को जानने के लिए भी हमारी आतुरता है, पहचानने के लिए हमारी आतुरता है। वह भी एक अज्ञात क्षण है, उसे भी हम जानेंगे और जीएंगे।
मौत जिंदगी से विरोध में हमने खड़ी कर ली है तो हम कष्ट में पड़ते हैं। मौत जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है। और, और अगर हम गौर से देखें तो बच्चा होना एक सुख है, बूढ़ा होना कम सुख नहीं है। बूढ़े की अपनी शान है, अपना गौरव है जो किसी बच्चे को कभी नहीं मिल सकता।
 रवींद्रनाथ एक बात कहे हैं कि जब, जब मेरे पिता के बाल सफेद हो गए हैं, सारे बाल शुभ्र हो गए हैं। और वह ऐसे दिखाई पड़ने लगे कि वहां खड़े हो गए हैं जहां जीवन समाप्त होगा और मौत आएगी--तब मैंने जो सौंदर्य उनमें देखा था, वह मैंने कभी किसी में नहीं देखा। वे उनके शुभ्र बाल ऐसे लगने लगे थे कि जैसे कि हिमालय की किसी चोटी पर बर्फ हो। वह इतने शांत दिखाई पड़ते थे और उनकी आंखें इतनी निर्मल हो गई थीं और वे किसी अज्ञात की ऐसी प्रतीक्षा से भरे थे; किसी आहट से...कोई आहट जो सुनाई पड़ने वाली थी एक बाॅर्डर लिंक पर खड़े होकर; एक सीमांत पर खड़े होकर नई दुनिया शुरू होने वाली हो। वह सब उससे ऐसे भाव से भरे थे कि जैसा सौंदर्य उनमें देखा है, फिर कभी नहीं देखा।
 तो रवींद्रनाथ ने लिखा है कि अगर आदमी ठीक से जीए और ठीक से मरे तो उसके जीवन में परिपूर्ण सौंदर्य प्रकट होता है। ठीक से जीना ही काफी नहीं है, ठीक से मरने का दृष्टिकोण होना चाहिए। तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप वहां ब्रिज न बनाएं, ब्रिज वहां बनाएं और बहुत बना लें, अच्छा बना लें, वह जरूरी है बना लेना। लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता कि मौत के बाबत हम दृष्टिकोण लें कि न लें। मेरा अपना कहना यह है कि मृत्यु को ट्रैजिडी और दुखद मान लेना जीवन को विषाक्त करना है। मृत्यु को भी उसके ठीक प्राॅपर पर्सपेक्टिव में रखने की जरूरत है कि वह है वहां और एक अनिवार्य तत्व है।
और अगर है, और अनिवार्य है तो हम क्या रुख लें। पहली तो बात यह है कि हमें उसके बाबत कुछ भी पता नहीं है कि क्या होता है मृत्यु के पीछे? क्या होगा मृत्यु के बाद? हमें कुछ भी पता नहीं है। बीज टूटता है तो बीज तो मर जाता है। और बीज अगर मौत को जानता होगा तो दुखी होता होगा कि मैं मर रहा हूं, लेकिन पौधा पैदा हो जाता है। उसे पता भी नहीं कि पौधा पैदा हुआ है। फिर जो आप यह कहते हैं, वह भी ठीक लगता है देखने में ऊपर से कि सोक्रटीज का मरना तो एक बात है कि एक बूढ़ा आदमी मर रहा है। दो जवान लोग मर गए तो हमें यह लगता है, ये असमय में मर गए। अनटाइमली डेथ है, इसलिए ट्रैजिडी है। कि इसलिए ही तो कहना पड़ेगा कि ये तो अभी जीने के दिन थे, अभी मर गए। अब यह भी थोड़ा विचारणीय है, यह भी थोड़ा विचारणीय है कि हम किस-किस डेथ को अनटाइमली कहें।
मौत के भय से डरे हुए आदमी को सारी डेथ अनटाइमली मालूम होगी। क्योंकि जो आदमी मौत से डरा हुआ है, वह नब्बे साल का हो जाए तो भी वह यह नहीं कहता कि डेथ टाइमली है। वह यह नहीं कहता कि अब समय पर मौत आ रही है। अभी भी जीने की आकांक्षा उतनी ही प्रगाढ़ है। हमको लगता है कि वह बूढ़ा हो गया है, उसके जीने की आकांक्षा तो उतनी ही प्रगाढ़ है। अभी उसकी आकांक्षा में कोई फर्क नहीं पड़ा है, अभी वह वैसी की वैसी है। क्योंकि भीतर के तल पर आदमी कभी भी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होता है और वह जो भीतर कांशसनेस है, जो चेतना है वह हमेशा जवान बनी रहती है। वह कभी बूढ़ी नहीं होती। वह हमेशा जवानी ही मांगती रहती है। उसकी मांग भी यही रहती है। अभी भी वह धन मांगती है, प्रेम मांगती है, आदर मांगती है, वह सब मांग रही है। अभी भी वह जीना मांगती है।
उस तल पर अगर हम गौर से देखेंगे तो बीस साल के आदमी में और साठ साल के आदमी में कोई फर्क नहीं होता। फर्क एक ही हो सकता है और वह फर्क जो मैं कह रहा हूं वह हो सकता है। बीस साल के आदमी ने अपनी मौत के बाबत कोई भी दृष्टिकोण नहीं लिया। अभी मौत के बाबत उसने सोचा भी नहीं था और साठ साल के आदमी ने मौत के बाबत कुछ सोचा होगा। उसने मौत के बाबत भी कोई पर्सपेक्टिव तय किया होगा। इतनी ही कमी और फर्क हो सकता है।
लेकिन अगर जिस समाज की मैं बात कर रहा हूं कि एक-एक बच्चे को हम मृत्यु के भय से मुक्त करें, वह मृत्यु के बाबत भी एक, एक सम्मान का, समादर का, एक अज्ञात के स्वीकार का भाव में--तो बीस साल का जवान भी मौत के लिए उतना ही तैयार होगा जितना अस्सी साल का बुड्ढा अभी तैयार नहीं है। वह, वह तैयारी बिलकुल भीतरी है।
फिर हम जिन चीजों को जीवन का सुख कहते हैं, उनकी वजह से हम तोलते हैं। हमको लगता है कि अभी यह तो कमाई करता, अभी मकान बनाता, अभी गाड़ी खरीदता, अभी इसके बच्चे होते, अभी यह जीता, हम यह सब सोचते हैं। यह सब नहीं कर पाया यह आदमी। इसलिए ट्रेजडी हो गई। अगर हम गौर से देखें तो हमें जिंदगी चली गई, इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। हमें फर्क यह पड़ रहा है कि जिंदगी जो करती वह आदमी यह नहीं कर पाया है। और बड़े मजे की बात यह है कि जो लोग मकान बना लेते हैं, बच्चे पैदा कर लेते हैं, धन इकट्ठा कर लेते हैं, उन्होंने क्या कर लिया है इस विषय में? ऐसा क्या हो गया है जिनकी वजह से उन्होंने सुख पा लिया?
और एक आदमी ने, नहीं कमा पाया और नहीं मकान बना पाया और नहीं गाड़ी खरीद पाया तो ऐसी कौन सी एसेंशियल बात छूट गई। सारभूत क्या छूट गया इस आदमी से? यह भी हो सकता है, और जैसा मैंने कहा, रवींद्रनाथ ने एक उपन्यास लिखा हैः उसमें एक युवक है। वह एक युवती को प्रेम करता है। वह युवती विवाह करने के लिए बहुत डरी हुई है और वह युवक है कि एकदम आतुर है कि विवाह कर लूं। तो उस युवती ने उस युवक को कहा है कि तुम पीछे पड़े हो लेकिन मैं डरती हूं। मैं डरती हूं इसलिए कि अभी तो कुछ करने को शेष है, अभी विवाह करने को शेष है। और उसकी थिरक और उसकी पुलक और उसका खयाल और सपने। कल विवाह कर लेंगे, फिर? तो उस युवती ने, एक बात रवींद्रनाथ ने कहलवाई है उससे, कि मैं तुम्हें प्रेम करते ह‏ुए ही मर जाना चाहती हूं--उसी थिरक में, उसी पुलक में, उसी प्रतीक्षा में। विवाह करने पर तो एक फुल पाॅइंट, एक डेड एंड आ जाता है। मैं तुम्हें प्रेम करती हुई ही मर जाना चाहती हूं।
हम जिसको कहते हैं कि एक आदमी की टाइमली डेथ हुई। उसका कुल मतलब इतना, हम, हमारी समझ में इतना होता है कि जो उसे करना था, उसने सब कर लिया। अब करने को कुछ शेष नहीं रहा है। लेकिन आप नहीं जानते हैं कि जिसको करने को शेष नहीं रहा था वह बहुत पहले मर चुका। जिंदगी का मतलब है कि जहां करने को सदा शेष रह गया है। तो जो बूढ़ा आदमी, करने को जिसे अभी बहुत शेष रह गया था, वह आदमी एक अर्थ में जवान है। उसकी डेथ हमेशा अनटाइमली...अगर, अगर उसका भीतरी मतलब लें। और एक जवान आदमी जिसको लगता है मैंने सब कर लिया है उसकी डेथ में कोई टाइम नहीं है। और फिर हमारे तोलने के जो ढंग हैं कि क्या हम किस चीज को करना कहते हैं।
सच बात यह है कि अगर एक आदमी एक क्षण को भी प्रेम में जी ले तो इस पूरी जिंदगी में करने को कुछ नहीं बचा रह जाता। एक क्षण को उसे सत्य की झलक मिल जाए, जिंदगी में कुछ करने को नहीं रह जाता। लेकिन उसकी नाप-जोख हम नहीं कर पाते, उसकी कोई नाप-जोख नहीं है और अभी सब मामले इतने अज्ञात में खड़े हुए हैं।
अब मेरी अपनी समझ है कि एक्सीडेंट को हम, दुर्घटना को हम हमेशा कहते हैं कि वह, वह ट्रैजिडी है। यही बच्चा बीमार होकर, और मर जाता तो इतनी ट्रैजिडी नहीं मालूम होती। लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि दुर्घटना के क्षण में मृत्यु का जैसा प्रगाढ़ अनुभव होता है और जीवन का, वैसा बीमारी के क्षण में कभी नहीं होता। आप हैरान होंगे अगर आप कार चला रहे हैं और एक्सीडेंट होने की हालत आ जाए और एकदम से गाड़ी आपको रोकनी पड़े कि मौत सामने आ गई, दूसरी कार सामने आ गई तो आपने कभी ख्याल नहीं किया होगा। आपके विचार की पूरी प्रक्रिया एक क्षण को बिलकुल बंद हो जाएगी, विचार की पूरी प्रक्रिया बंद हो जाएगी। विचार एकदम समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि इतने इंटेंस क्षण में विचार नहीं रह सकते। इतना घबराने वाला क्षण सामने खड़ा हो गया कि मौत खड़ी हैः सारे विचार बंद हो जाएंगे, सारे विचार विलीन हो जाएंगे। जिसको योग में समाधि कहते हैं, वह एक्सीडेंट के क्षण में किसी को भी उपलब्ध होती है। और इतना इंटेंस, इतना तीव्रतर जीवन का बोध हो सकता है जिसका कोई हिसाब नहीं।
अभी भी यह तय करना बहुत मुश्किल है कि कौन सौभाग्यशाली है--खाट पर मर जाने वाला आदमी, कि एक गहरी दुर्घटना में जीवन को खोने वाला आदमी। क्योंकि उस गहरी दुर्घटना में वह क्या जान लेता है? वह हमारे पास कहने को बचा नहीं रह जाता। लेकिन जो लोग गहरी दुर्घटनाओं से वापस लौट आएं हैं, ऐसी कुछ घटनाएं इतिहास में घटी हैं, और उनका अनुभव बहुत अदभुत है। दोस्तोवस्की को ऐसा एक अनुभव हुआ है।
दोस्तोवस्की को फांसी की सजा हुई। तो रूसी लेखक था, क्रांतिकारी था। साथ में बारह लोगों को फांसी की सजा हुई। तीस दिन बाद एक तारीख को सुबह छह बजे उन्हें फांसी हो जाती। तो उन दिनों फांसी नहीं लगाते थे रूस में वे, गोली ही मार देतेे थे। तो तीस दिन मौत की प्रतीक्षा करनी पड़ी। ऐसा आमतौर से नहीं होता। क्योंकि हमें मौत का कोई पता नहीं होता कि, कि मौत कब आ जाएगी। तो हम मजे से जीए चले जाते हैं। हमें कोई खयाल भी नहीं होता कि मौत कब किनारे पर खड़ी, और आ गई। लेकिन इनके लिए तो मौत नियोजित थी। ठीक एक-एक घड़ी बीत रही थी और मौत करीब आ रही थी।
हमारी भी आती है इसी तरह, लेकिन हमको इंटेंस अवेयरनेस नहीं होती।
नींद विलीन हो गई। दोस्तोवस्की ने लिखा है कि नींद विलीन हो गई। कैसे सोया जा सकता है? मौत, एक घड़ी हम सोते हैं और मौत एक घड़ी करीब आ जाती है। और बस तीस दिन, और उनतीस दिन, अट्ठाइस दिन, और सात दिन, और पांच दिन, और चार दिन और मौत करीब आती चली जाती है। कोई बारह कैदी हैं और बारह को एक, एक तारीख को सुबह गोली मार दी जाने वाली है। उन सबकी नींद विलीन हो गई है। वे सब अजीब तनाव से और घबड़ाहट और बेचैनी से भरे हुए हैं, भरे हुए हैं।
लेकिन दोस्तोवस्की ने नोट्स जो दिए हैं, वे अदभुत हैं। उसमें उसने लिखा है कि उन बारह लोगों का ही, लेकिन बारह तरह के लोग थे वे। और उनका जो व्यक्तित्व था पूरे उभार पर आ गया, वे जैसे थे। वे जैसे थे, अब छिपाने और झुठलाने के लिए कुछ नहीं बचा। अब किससे झुठलाना। जिस आदमी को गालियां देनी थीं वह सुबह से गालियां देना शुरू करता था, वह गालियां देता था। अब किससे सभ्यता बतानी है और किससे क्या छिपाना है। अब जिसको गालियां देनी, दे लेनी। तीन दिन का मामला है। तीन दिन बाद बंद हो जाएगा। अब कौन फिकर करे इस बात की कि मैं अच्छा आदमी हूं, कि बुरा आदमी, कि तुम क्या कहते हो? तुम्हारे कहने का, तुम्हारे ओपिनियन का कोई मूल्य ही नहीं रहा। अब वह मूल्य तो तब था जब तक मैं जिंदा रहता। बात खत्म हो गई। अब तो बियांड रिप्रोच। इस आदमी पर कुछ...।
दोस्तोवस्की ने देखा कि वे जो भले लोग थे, जो कभी मुंह से गाली नहीं दिए थे, वे ऐसी अभद्र गालियां बकते हैं। जो लोग बहुत बकवासी थे, अचानक शांत हो गए हैं। क्योंकि बकवास का क्या मतलब था? बातचीत करते थे, ऐसा हो, दुनिया ऐसी बने, वैसी बने, यह हो, वह हो। दिन-रात विचार करते थे वे, वे एकदम चुप हो गए हैं। और दोस्तोवस्की अपने एक मित्र को कहा कि तू आजकल बोलता नहीं, उसने कहा, बोलने से मतलब, बात खत्म हो गई। गए बोलने के दिन। किससे बोलना है? क्या बोलना है? कुछ भी नहीं बोलना है। वह एकदम चुप हो गए।
अजीब परिवर्तन हुआ है वह बारह लोगों को। दोस्तोवस्की ने लिखा हैः इस भांति हमने कभी नहीं जाना था कि ये, ये, ये इस तरह के लोग? वह जो इतनी बात करने वाला आदमी था, इतना मौन निकलेगा उसके भीतर से, यह कभी सोचा नहीं था। वह जो भला आदमी था और बाइबिल पढ़ता था, वह गालियां बकेगा इस तरह, यह कभी सोचा न था। वह जो भीतर था, वह बाहर आ गया। जो बाहर थी, वह खोल उड़ गई। और ठीक जिस दिन फांसी लगनी है, सुबह पांच बजे उनको नहला-धुला कर, जाकर मैदान में खड़ा कर दिया गया। ट्रेंच खोद दी गई। उनके सामने उनको खड़ा कर दिया गया। मशीनगन लगा दी गई। सामने चर्च है, उसकी घड़ी है, उसमें कांटा घूमने लगा है। साढ़े पांच, पौने छह, दस मिनट, पांच मिनट, और दोस्तोवस्की ने लिखा है कि मैंने ऐसी पुलक अनुभव की कि जैसे मैं बाॅडीलेस हो गया हूं। घड़ी जैसे-जैसे छह के करीब पहुंचने लगी, बाॅडी नहीं है।
और मैंने चैंक कर अनुभव किया कि क्राइस्ट को क्या अनुभव हुआ होगा सूली पर, मैंने जान लिया। लेकिन ये आदमी बचते नहीं। क्योंकि यह तो बच गया, मैंने जान लिया कि क्राइस्ट को क्या अनुभव हुआ होगा सूली पर। मुझे किसी किताब को पढ़ने की जरूरत नहीं प.ड़ी। मुझे किसी संत से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। बस मैंने जान लिया। वह और घड़ी का कांटा छह के करीब पहंुचने लगा और मैंने जान लिया, अरे! और मैं इतनी कृतज्ञता से भर गया क्राइस्ट के प्रति कि मैंने जिंदगी में पहली दफा उसका नाम लिया कि अरे, तुमने क्या जाना होगा क्राॅस पर--क्राॅस पर लटक कर ही उसको पता चला। घड़ी का कांटा पहुंचने लगा है और एक घुड़सवार भागा हुआ आया, लेकिन वह दिखाई भी नहीं पड़ा। सबकी आंखें एकटक घड़ी पर लगी हैं। आंखों की पलकें झपनी बंद हो गई हैं। घड़ी में छह बजेंगे तो गोली लगेगी और वे खत्म हो जाएंगे। वह घुड़सवार दौड़ा हुआ आया, उसकी आवाज किसी को कुछ नहीं सुनाई नहीं पड़ी।
दोस्तोवस्की ने लिखा है कि मैंने पहली दफा जाना कि एकाग्रता क्या है? कंसंट्रेशन क्या है? पहली दफा। बहुत दफा कोशिश की थी कि एक चीज पर एकाग्र हो जाऊं, वह कभी नहीं हुआ था। आज घड़ी ही रह गई, उसका घूमता कांटा और सब मिट गया। और इतनी पीस झरने लगी भीतर, जैसे कहीं भी कुछ नहीं। क्योंकि उतनी एकाग्रता में उतनी शांति अपने आप जन्मनी शुरू हो जाती है। और उसने लिखा कि मैं, मैं धन्यभागी हूं कि यह मौका, यह क्षण मैंने जान लिया।
लेकिन यह मैंने कभी नहीं जाना था। मैं तनाव और अशांति से भरा हुआ आदमी, निरंतर विचार, निरंतर...वे सब खो गए हैं। एकदम हलका हो गया हूं। और वह जो घुड़सवार आया है वह जार का संदेश लेकर आया है कि उन सबको आजीवन कारावास में बदल दिया जाए, गोली न मारी जाए। लेकिन दो मिनट पहले वह आया और घड़ी में छह का कांटा, छह बज गया। छह के घंटे बजे, दो आदमी गिर गए। दो आदमी गिर गए, समझा कि गोली लग गई। और एक आदमी मर गया आॅन दि स्पाॅट। बिना किसी गोली के। और एक आदमी जो गिरा था, वह पागल हो गया--दूसरा। और वह यह कहने लगा कि तुम्हें पता नहीं, मुझे छह बजे गोली मार दी गई, मैं मर गया हूं। वह फिर जिंदगी भर यही कहता रहा कि मैं मर चुका हूं। कौन कहता है कि मैं जिंदा हूं? फलां दिन सुबह छह बजे गोली मार दी गई। उसको फिर जिंदगी भर कोई अट्ठारह साल जिंदा रहा, उसे प्रमाणित नहीं किया जा सका कि वह जिंदा है। वह यही कहता रहा कि मैं तो मर चुका हूं।
और दोस्तोवस्की ने लिखा कि मेरी जिंदगी में तो क्या हो गया, उसको कहना मुश्किल है। जो मैं लाख साधनाओं से नहीं कर सकता था, वह मुझे अनुभव हो गया। उस अनुभव के बाद मैं दूसरा आदमी हंू। वह एक पाॅइंट हो गया जिंदगी का, क्लाइमेक्स मैंने उस दिन जान लिया कि जिंदगी क्या है। लेकिन जिंदगी मैंने उस क्षण में जानी जब मौत सब तरफ से घिरी थी।
अब मेरी भी अपनी समझ यह है कि जिंदगी की इंटेंसिटी उतनी ही गहरी हो जाती है जितनी चारों तरफ मौत तीव्र होती है। जितनी तीव्र मौत होगी, उतना ही तीव्र क्षण जीवन का हो जाएगा। और एक क्षण में अस्सी साल की जिंदगी का रस लिया जा सकता है। और शिथिल जिंदगी में आठ सौ साल जिंदा रह कर एक क्षण की जिंदगी का रस नहीं लिया जा सकता। वह निर्भर करता है इंटेंसिटी पर कि कितने बल से...
रो.जा अलेक्जेंडर कहा करती थीं कि मैं एक क्षण जीऊं वह सवाल नहीं है, लेकिन पूरा। ऐसी मशाल की तरह जो सब तरफ से जल रही है, सब तरफ से। आगे से, पीछे से, नीचे से, ऊपर से, सब जगह--पूरी जल रही है, एक इंच जगह खाली नहीं जहां वह नहीं जल रही है। ऐसी मशाल की तरह, बस एक क्षण, उतना काफी है। उसको दुबारा दोहराने की कोई जरूरत नहीं हैं।
लेकिन जो लोग मौत से भयभीत हैं, कभी भी इतना तीव्र जीवन उपलब्ध नहीं कर सकते। क्योंकि मौत का डर उनको, जीवन को शिथिल बना देता है। और जीवन एक शिथिल गति हो जाती है, धीरे-धीरे चलती है। वह मैं नहीं कह रहा कि मौत से बचने का आप उपाय नहीं करेंगे। लेकिन एम्फेसिस बदल जाएगी। अगर हम मौत का भय छोड़ दें और जीने की कला को सीखें, तो हम वह ब्रिज इसलिए नहीं बनाएंगे कि उस पर बह कर कोई मरे न; ब्रिज हम इसलिए बनाएंगे कि जो जिंदा हैं वे ढंग से पार हो जाएं।
वह एम्फेसिस बदल जाएगी, हम ब्रिज बनाएंगे फिर भी, लेकिन वह जिंदा लोगों के लिए कि वे शान से, सुविधा से उस रास्ते से निकल जाएं। मरने के डर के कारण ब्रिज नहीं बनाएंगे कि कोई मर न जाए। क्योंकि मरने वाला ब्रिज गिरने से भी मरेगा। और भी उपाय होंगे मरने के। हमारी एम्फेसिस, जिंदगी ज्यादा गहरी हो सके, उसके लिए व्यवस्था जुटाने की। मौत से बच सकें, इसकी व्यवस्था जुटाने की नहीं होनी चाहिए। तो वह मैं नहीं कह रहा हूं।
 मेरी दृष्टि यह है कि हमारी...वह निगेटिव बात है जो आप कह रहे हैं कि मौत के डर से, बीमारी से बचने के लिए अस्पताल खोलना गलत है। हम अस्पताल जरूर खोलें एक दिन। वह इसलिए कि आदमी ज्यादा स्वस्थ कैसे हो सके, बीमारी से बच सके--नहीं। स्वस्थ आदमी बीमारी से बच जाएगा, वह गौण बात है। वह बिलकुल गौण बात है। तो पाॅजिटिव कि आदमी कैसे जी सके ज्यादा से ज्यादा, गहरे और आनंद, और सार्थक रूप से--उसके लिए हम सारी व्यवस्था करें। और उस व्यवस्था में मृत्यु के प्रति भी हमारा स्पष्ट दृष्टिकोण होना चाहिए। नहीं तो व्यवस्था अधूरी है। और अभी सारी दुनिया में मृत्यु के बाबत हमने बहुत साफ दृष्टिकोण नहीं लिया है इसलिए, इसलिए बहुत कठिनाई है। तो मैं नहीं कहता कि क्या ट्रैजिडी है? क्या दुख है? क्या सुख है? इतना मैं कहता हूं कि हम निर्णय ले लें जल्दी से, वह निर्णय उनके बाबत सच नहीं है, वह निर्णय हम अपनी जिंदगी के बाबत काम में लाएंगे।
गोविंददास जी का लड़का चल बसा था। तो वे बहुत पीड़ित थे। इतने ज्यादा पीड़ित कि वे रोज-रोज मेरे पास आकर रोना और वही बात। और मुझसे एक बात पूछना रोज कि, कि आप यह बताइए कि मेरा लड़का कहां चला गया है? मैंने कहाः इसकी क्या फिकर आपको? लड़का मर गया, इतना काफी है। इसके आगे की आपको क्या फिकर? लेकिन फिकर थी उनको। अब कितने मजे की बात है, वह गए दिल्ली और एक जैन मुनि को मिले और उनसे उन्होंने पूछा। जैन मुनि ने आंखें बंद करके कहा कि वह फलां-फलां स्वर्ग में देवता हो गया है। वे बड़े खुश हुए। मुझे वहां से तार किया कि आपने मुझे क्यों नहीं बताया? मुझे बड़ी खुशी हुई, लड़का फलां-फलां देवलोक में स्वर्ग भोग रहा है।
एंबिशियस माइंड। लड़का यहां था तो वह सोचते थे कि वह प्रधानमंत्री हो जाए मुल्क का। मरने की कोई फिकर नहीं है। ट्रैजिडी यह हो गई कि वह लड़का बिना प्रधानमंत्री हुए मर गया। जो, जो ट्रैजिडी थी, वह मौत नहीं थी ट्रैजिडी। वह एंबिशियस माइंड जो है, वह बिना प्रधानमंत्री हुए मर गया। तो यह बात बड़ी आश्वासनकारी मालूम पड़ी कि वह देवलोक में पैदा हो गया है। वह वहां से कुंभ आए, और किसी एक हिंदू संन्यासी को पूछा, उसने कहा कि कौन कहता है? वह तो आपका जो गांव है जबलपुर के पास, उसके पीपल के झाड़ पर भूत हो गया है। वहां से मुझे चिट्ठी लिखी कि इस आदमी ने मुझे बहुत दुख में डाल दिया और यह आदमी कैसा संन्यासी है! संन्यासी वह जो देवता बनाए लड़के को। यह कैसा संन्यासी है! यह कैसा दुष्ट आदमी है! इसने मुझसे ऐसा कह दिया कि लड़का भूत हो गया। फिर वह जबलपुर आए तो वह बड़ी बेचैनी में थे कि क्या हुआ? लड़का देवता हुआ कि भूत हुआ। मैंने कहा कि लड़के से तुम्हें कोई प्रयोजन नहीं है किसी तरह का भी। तुम कुछ और ही अपनी खोज कर रहे हो, अपनी महत्वाकांक्षा की तृप्ति। भूत हो गया तो दुख की बात। मेरा लड़का और भूत? लड़के से क्या लेना-देना, मेरा लड़का कैसे भूत? मेरा लड़का देवता होना चाहिए। तो वह संन्यासी अच्छा है जो कहता है कि देवता हो गया, और वह बुरा है जो कहता है भूत हो गया।
और मैं आपसे कहता हूं कि आपको लड़के से कोई प्रयोजन नहीं, आपको प्रयोजन अपने अहंकार, अपनी महत्वाकांक्षा से है। लड़के की मौत में भी आप अपनी महत्वाकांक्षा सिद्ध करना चाह रहे हैं। अजीब बात है। जिस दिन मरा लड़का, मैं गया तो वह मुझे तार बताने लगे कि यह प्रेसिडेंट का तार है, यह प्रधानमंत्री का तार है। लेकिन फलां आदमी ने अभी तार नहीं किया।
लड़का मर गया है, आंसू बहे चले जा रहे हैं। लेकिन किस तल पर हमारे दुख हैं, किस तल पर हमारी समझ है। ट्रैजिडी क्या है? हम जब नतीजा ले रहे हैं तो वह नतीजा उसके बाबत नहीं है, वह नतीजा हमारे अपने बाबत है। और वे हमारे अपने हिसाब हैं।
तो मैं जो कह रहा हूं तो यह मत समझ लेना आप, मैं कह रहा हूंः मर गए तो अच्छा हुआ। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि आप जो कह रहे हैं कि बुरा हुआ, उस बुरे हुए को बहुत समझने की कोशिश करना कि उसका उस लड़के से कोई भी संबंध है। उसका तो हमें कुछ भी पता नहीं। इसलिए उससे तो कोई भी संबंध नहीं हो सकता। संबंध कुछ हमसे होगा, हमारी एंबिशंस होंगीं कुछ कि वह लड़का ऐसा बनेगा, यह करेगा, वह करेगा--वह सब टूट गई, वह सब खत्म हो गया। वह बीच में ही गुल हो गए। वह हमारी सारी एंबिशंस जो आगे चली गई थीं, वे सब एकदम से गिर गईं।
सारे रिश्तेदार, मित्र, मां-बाप, भाई-बहन सब सोचते होंगेः यह होगा, यह होगा, वह सब गया। वह सब बीच में हमको लटका गया। वह लड़का मर गया, यह ट्रैजिडी हुई कि नहीं, यह नहीं सवाल है, वह हमारे साथ ट्रैजिडी कर गया। तो जो फर्क है एम्फेटिकली, ट्रैजिडी आपके साथ हो गई है। उसके साथ हुई कि नहीं यह, यह तय नहीं किया जा सकता। और अगर हमको यह दिखाई पड़ जाए कि ट्रैजिडी हमारे साथ हो गई है तो हम फिर और ढंग से सोचेंगे। सारी बात और हो जाएगी। उसका मतलब यह होगा कि आगे से किसी लड़के के साथ एंबिशन मत बांधना--ट्रैजिडी हो सकती है। उसका मतलब यह होगा। अभी भी लड़के घर में हैं हमारे सबके, अब उनके साथ मत बांधना कि ये ये हो जाएंगे, ये हो जाएंगे...बांधना ही मत। ट्रैजिडी हो सकती है। क्योंकि, क्योंकि ये बीच में खत्म हो सकते हैं। खत्म न हों, ये बिगड़ सकते हैं।
आपने चाहा था कि ये साधु बन जाएंगे। ये साधु न बनें, असाधु बन जाएंगे। आपने चाहा था ये धन कमाएंगे, ये धन बरबाद कर दें। और मैं आपसे कहता हूं, यह हैरानी की बात है कि अगर मैंने उनसे पूछा बाबू साहब को, मैंने उनको पूछा कि आपका लड़का जिंदा रहता और गुंडा हो जाता, बदमाश हो जाता, शराब पीता, और स्त्रियों को भगा कर चला जाता तो ज्यादा ट्रैजिडी मालूम पड़ती, कि अभी। उसमें ज्यादा ट्रैजिडी होती। मुझसे कहा यह कि उसमें ज्यादा ट्रैजिडी होती।
मैंने कहाः मौत सवाल नहीं है, सवाल आपकी अपनी तृप्ति का है। वह, वह कितनी फुलफिल होती है, कितनी फुलफिल नहीं होती। कितनी दफा मां-बाप नहीं कहते हैं कि इससे अच्छा होता कि तू मर जाता। कभी हमने सोचा भी नहीं होगा कि वे क्या कह रहे हैं? वे यह कह रहे हैं कि हम जैसा चाहते थे वैसा तू हो, तो तेरी जिंदगी का मतलब है। और हम जैसा नहीं चाहते तो तू नहीं होता तो अच्छा था। क्योंकि उस तरह हमारी-तेरी जिंदगी का कोई, कोई मतलब नहीं। कहीं हम मीनिंग नहीं खोज पाते हैं।
ट्रैजिडी होती है। ट्रैजिडी आपके साथ होती है, मेरे साथ होती है, हमारे साथ होती है। जो मर गया उसके साथ क्या हुआ, यह हमें पता नहीं। वह तो बिना मरे हम जान नहीं सकते। उसका कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसके बाबत कोई दुखद और गलत दृष्टिकोण ले लेना घातक है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अच्छा हुआ, इसलिए हम लड़कों को गाड़ियों में बैठा लें और नदियों में बहा दें। यह मैं कह नहीं रहा। यह मैं कह नहीं रहा। और इसलिए यह भी नहीं कह रहा कि ब्रिज आप न बनाएं। लेकिन पूरा हमारा दृष्टिकोण, सोचने की पूरी की पूरी दिशा बदलनी चाहिए। वह कुछ साफ होनी चाहिए।

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