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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अंतर की खोज

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक बहुत बड़ी राजधानी में बड़े राजपथ पर हजारों लोगों की भीड़ थी। एक बड़े महल में आग लग गई थी। और महल जलने की आखिरी हालत में था। उसकी लपटों ने सारे नगर के लोगों को उस महल के आस-पास इकट्ठा कर दिया था। महल का मालिक द्वार के पास खड़ा है, करीब-करीब बेहोश, सैकड़ों लोग मकान के भीतर से सामान ला रहे हैं। अंततः सामान लाने वाले लोगों ने मकान के मालिक को पूछाः और कुछ तो भीतर नहीं रह गया है? अन्यथा हम एक बार और जा सकते हैं। लपटें आखिरी जगह पहुंच गई हैं। दुबारा मकान के भीतर जाना संभव नहीं होगा। तिजोरियां निकल आई हैं। कीमती कागजात निकल आएं हैं। फर्नीचर निकल आया है। छोटी-छोटी चीजें भी निकर्ल आइं हैं।

उस भवनपति ने कहाः मुझे कुछ भी याद नहीं पड़ता, मेरा हुक्म है, तुम जाओ और जो और बचा सको बचा लो।

वे लोग भीतर गए और छाती पीटते हुए, रोते हुए बाहर आए। साथ में एक लाश लेकर आए। उस भवनपति का इकलौता बेटा भीतर ही सोता रह गया था। वे सब सामान बचाने में लग गए और उस सामान का असली मालिक भीतर ही रह गया। वह जल गया और मर गया।

उस हजारों लागों की भीड़ में एक संन्यासी भी खड़ा था। उस संन्यासी ने अपनी डायरी में लिखा है कि जैसा आज इस मकान में हुआ है वैसा आज सभी मकानों में हो रहा है। मकान में रहने वाला तो मरता जा रहा है, मकान का सामान बचाया जा रहा है। सारी जमीन पर ऐसा हो रहा है, सामान बढ़ रहा है और आदमी मर रहा है। सामान बच रहा है और आदमीयत समाप्त हो रही है। संपत्ति बढ़ रही है और संपत्ति को बढ़ाने वाला व्यक्ति नष्ट होता चला जा रहा है।
अभी एक मित्र ने कहा कि हम चांद पर पहुंच रहे हैं। चांद पर हम जरूर पहुंच गए हैं, लेकिन आदमी जितने दूर पहुंचता जा रहा है उतना ही स्वयं से दूर निकलता जा रहा है। जमीन पर ही हम अपने से बहुत दूर निकल गए हैं। और चांद पर अगर पहुंच गए हैं, तो यह फासला अपने से और दूर ले जाने वाला, होेने वाला है। सब कुछ है आज पृथ्वी पर, सिर्फ आदमी नहीं है। और हम पृथ्वी पर सब चीजें जमा कर लें, सब व्यवस्था कर लें और अगर आदमी खो गया, तो हमारी व्यवस्था कोई भी काम में आने वाली नहीं है।
मैंने सुना है, एक छोटे से स्कूल में एक भूगोल का अदभुत अध्यापक था। वह बच्चों को भूगोल पढ़ाता। तो उसने दुनिया के नक्शे के बहुत से टुकड़े काट रखे थे, और उन टुकड़ों को मिला देता और बच्चों से कहता कि दुनिया का नक्शा जमाओ। बड़ा कठिन है दुनिया का नक्शा जमाना, दुनिया बड़ी ची.ज है। एक घर को जमाना बड़ा मुश्किल है। सारी दुनिया का नक्शा जमाना बहुत मुश्किल। कहीं मैडागास्कर, कमस्याडका पर पहुंच जाता, कभी टिम्बकटू, बीजिंग पहुंच जाता। छोटे-छोटे टुकड़े थे, जमाना बहुत मुश्किल था। लेकिन एक लड़का बहुत होशियार रहा होगा, उसने उन टुकड़ों को उलट कर देखा और देख कर हैरान हुआ। इस तरफ दुनिया का नक्शा था, उस तरफ आदमी की एक तस्वीर थी, उसने सब टुकड़े उलट दिए और आदमी की तस्वीर जमा दी। वह आदमी की तस्वीर कुंजी थी पीछे आदमी की तस्वीर जम गई, पीछे दुनिया का नक्शा जम गया। और हम सारे लोग दुनिया का नक्शा जमाने में लगे हुए हैं, लेकिन वह जो कुंजी है, जो ‘की’ है, दुनिया के नक्शे को जमाने की आदमी, वह आदमी बिलकुल अस्त-व्यस्त हो गया है, उसका जमाना हम भूल गए हैं। आदमी जम जाए तो दुनिया जम सकती है और आदमी ठीक हो जाएं तो दुनिया ठीक हो सकती है। और अगर आदमी भीतर अराजक हो जाए, खंड-खंड हो जाए, अस्त-व्यस्त हो जाए, तो हमारे दुनिया के जमाने का कोई अर्थ नहीं हो सकता। नहीं अर्थ आज तक हुआ है। लेकिन हम जिंदगी का ज्यादा समय दुनिया को जमाने में नष्ट करते हैं। एक आदमी जितना अपने घर के फर्नीचर को जमाने के लिए चिंता उठाता है, उतनी उसने अपनी आत्मा को जमाने की भी कभी चिंता नहीं उठाई। हैरानी होती है यह बात जान कर कि आदमी क्षुद्र के साथ कितना समय नष्ट करता है। और स्वयं को बिलकुल ही भूल जाता है, जो कि विराट है। और क्या फायदा अगर सारी दुनिया भी जम जाए और आदमी न हो, तो उस दुनिया का हम क्या करेंगे?
जीसस ने पूछा है बाइबिल में, सारी दुनिया का राज्य मिल जाए और अगर मैं स्वयं खो जाऊं उस राज्य को पाने में, तो ऐसी दुनिया को पाकर भी क्या करूंगा? और यही हुआ है। आदमी ने स्वयं को बेच दिया है। चीजें खरीद ली हैं बदले में, एक बड़ा महंगा सौदा हो गया है। और हम सब भी वही महंगा सौदा किए चले जाते हैं। जन्म से लेकर मरने तक यह सौदा चलता है। अपने को बेचते हैं और सामान इकट्ठा करते हैं। एक दिन ऐसा होता है कि सामान इकट्ठा हो जाता है, और पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर अरथी को उठा कर मरघट ले जाते हैं। वह आदमी मर जाता है, जिसने इंतजाम किया, और उसके बेटों को भी यह नहीं दिखाई पड़ता, वे भी फिर उसी सामान को बढ़ाने में लग जाते हैं। और उनकी अरथी भी एक दिन उठ जाती है।
जिसे हम मकान समझ रहे हैं, वह सराय से ज्यादा नहीं है, वहां थोड़ी देर ठहरना है और आगे निकल जाना है। और कोई नासमझ ही होगा कि सराय को जमाने में इतना लग जाए और खुद को खो दे और आगे की मंजिल भटक जाए। हममें से कई लोग सरायों में ठहरे होंगे, धर्मशालाओं में, लेकिन कोई धर्मशालाओं को जमाने में नहीं लगता है। धर्मशालाओं में जीता है और आगे निकल जाता है।
अकबर ने फतेहपुर सीकरी के एक पुल पर, पुल के द्वार पर यस लिखवाया था। लिखवाया था कि यह पुल है, यह पार हो जाने के लिए है, रुकने के लिए नहीं। दिस इ.ज ए ब्रिज, दिस इ.ज टु पास नाॅट टु स्टे, यहां से पार हो जाना है, यहां रुक नहीं जाना है। और जिसे हम जिंदगी समझ रहे हैं, वह सिर्फ एक सेतु है, एक ब्रिज है, जिससे हमें पार हो जाना है, और आगे, और आगे, उस पर रुक नहीं जाना है। लेकिन हम सब मकान बना कर उस पर रुक गए हैं। और हमने मजबूत मकान बनाए हैं, सीमेंट के, कांकरीट के, पत्थरों के कि वे हिल न सकें। और हमें जाना पड़ेगा और वह मकान वहीं ठहरे रह जाएंगे, और उन मकानों के साथ सारी व्यवस्था भी ठहरी रह जाएगी। लेकिन यह खयाल नहीं आ पाता।
मैंने सुना है, एक सुबह एक सम्राट के द्वार पर एक आदमी द्वारपाल से बहुत झगड़ा कर रहा है, वह द्वारपाल से कह रहा है कि मैं इस धर्मशाला में, इस सराय में ठहरना चाहता हूं। वह द्वारपाल कह रहा है कि आप पागल हो गए हैं। यह सराय नहीं है, सराय कहीं और खोजिए जाकर, यह राजा का महल है, ये राजा का निवास स्थान है। इसे अगर दुबारा सराय कहा तो हथकड़ियां पड़ जाएंगी। यह कोई साधारण मकान नहीं है, जिसका तुम अपमान कर सको। मकान भी साधारण-असाधारण होते हैं, मकानों का भी अपमान-सम्मान होता है। लेकिन वह आदमी जिद्दी है, वह कहता है कि तुम बीच से हटो। कौन है, जिसे तुम कहते हो इस मकान का मालिक है? मैं उससे मिल लूं, वह धक्का देकर द्वारपाल को भीतर चला गया है, सम्राट ने भी उसकी आवाज सुन ली है, वह अपने दरबार में बैठा है, उसके दरबारी बैठे हैं, वह फकीर जाकर खड़ा हो गया, और कहता है, कौन वह पागल है, जिसने इस मकान को अपना मकान समझ रखा है। वह जरा उठ कर खड़ा हो जाए। तो सम्राट ने कहा कि तुम कैसी बदतमीजी की बातें कर रहे हो, थोड़ा शिष्टाचार का व्यवहार करो। तुम द्वारपाल से भी अभद्रता से पेश आए हो, लेकिन वह बरदाश्त किया जा सकता है, मैं सम्राट हूं। तो उसने कहा कि आप ही वे आदमी मालूम पड़ते हैं, जो इस भ्रम में पड़ गया है कि यह मकान ही उसका निवास स्थान है, लेकिन मैं कुछ सालों पहले आया था, तो तब इसी सिंहासन पर मैंने दूसरे आदमी को बैठे देखा था, और वह भी इतने ही दावे के साथ कहता था कि मैं इस मकान का मालिक हूं। उस सम्राट ने कहा कि वे मेरे पिता थे। उनका इंतकाल हो गया, वह जा चुके हैं दुनिया से। उस फकीर ने कहा कि मैं उनके भी पहले आया था तब एक दूसरा बूढ़ा इस सिंहासन पर बैठ कर यही दावा करता था कि यह मेरा मकान है वह अब कहां है, तो वे मेरे पिता के पिता थे, वे भी जा चुके हैं। तो उस फकीर ने कहा कि कुछ दिनों बाद मैं आऊंगा। पक्का भरोसा है कि तुम मुझे मिलोगे कि कोई और मिलेगा, जो कहेगा कि यह मेरा मकान है। जिसके दावेदार बदल जाते हैं, वह सराय है, धर्मशाला है, वह मकान नहीं है। वह मकान कैसे हो सकता है?
मालकियत से ज्यादा झूठी चीज इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। मालिक होने से ज्यादा बड़ा पागलपन इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। जो किसी भी चीज का अपने को मालिक समझ रहा है, वह व्यर्थ के पागलपन में पड़ गया है। मालिक कोई भी नहीं है, क्योंकि हम नहीं थे और सब था। और हम नहीं होंगे और सब होगा। और हमारे न रहने से कहीं भी एक पत्ता नहीं हिलेगा। और कहीं भी कोई पीड़ा नहीं होगी। कहीं कुछ कमी नहीं हो जाएगी। सब चलता रहेगा, सब चलता रहेगा। लेकिन हम इतने जोर से जहां हमारी कोई मालकियत नहीं है, वहां मालकियत बनाने में लग जाते हैं, कि वह जो सच में भीतर मालिक है, वह खो जाता है और भूल जाता है उसका हमें पता ही नहीं रहता।
ठीक ही हुआ था उस राजधानी में। घर के लोगोें ने सामान बचा दिया था और मालिक जल गया था। हम भी उसी राजधानी के निवासी हैं, और हमारे मकानों में भी आग लगी है। ध्यान रहे, यह मत सोचना की मकानों में आग दूसरों के लगती है, आदमी की बुनियादी भूलों में एक भूल यह भी है कि वह हमेशा यह सोचता है कि मकान जब जलता है तब दूसरे का ही जलता है, हम तो कभी जलते नहीं। आदमी की बुनियादी भूलों में से एक यह है कि वह सोचता है जब कोई मरता है तो वह दूसरा ही मरता है मैं तो कभी मरता नहीं। आदमी सदा इस खयाल में होता है कि सारी आग दूसरों के आस-पास लगी है, मैं बिलकुल निशिं्चत हूं। लेकिन जिंदगी ही एक आग है और जन्म के बाद एक क्षण को भी आग बुझती नहीं, आग लगी ही रहती है। और आग दिन-रात जला कर जिंदगी को राख करती चली जाती है। ऐसा नहीं है किसी एक दिन अचानक मौत आ जाती है और हम मर जाते हैं। मौत उसी दिन से आने लगती है, जिस दिन हम पैदा होते हैं। जो हमारा जन्म का दिन है, वह मृत्यु का दिन भी है। और मृत्यु कोई आकस्मिक घटना नहीं है, ग्रेचुअल एवोल्यूशन है, वह भी ग्रोथ है, वह भी विकास है। जन्म के साथ ही बढ़ती रहती है। जिसे हम जन्म-दिन कहते हैं, वह हमारी नासमझी का सबूत है। एक आदमी कहता है कि मेरा पचासवां जन्म-दिन, सच बात यह है कि उसे कहना चाहिए कि मेरा पचासवां मृत्यु-दिवस है। पचास साल मैं मर चुका। अब बीस साल और बचे इक्यावनवे साल एक साल और मर चुकुंगा। और रोज-रोज मरता जाऊंगा और एक दिन मौत पूरी हो जाएगी। मौत एक विकास है, जो रोज बढ़ता चला जा रहा है। मौत बढ़ती है, और हम समझते हैं कि जिंदगी बढ़ रही है। मौत आती है और हम जन्म-दिन मनाते चले जाते हैं। शायद आदमी अपने को धोखा देने की कोशिश करता है और सफल भी हो जाता है। रोज मौत करीब आती है और हर साल नया जन्म-दिन मनाता चला जाता है। आदमी बहुत धोखेबाज है। अपने आंसुओं के ऊपर मुस्कान बिछा देता है। गंदगी के ऊपर फूल लगा देता है। झूठ के ऊपर सफेद कपड़े पहना देता है। अंधेरे के चारों तरफ दीये जला देता है। हम जिंदगी भर यह धोखा देते रहते हैं, लेकिन ये धोखा किसको हम दे रहे हैं? कौन इस धोखे में पड़ेगा? इस धोखे में मैं ही खो जाऊंगा। और दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं, एक वे जो अपने को धोखा दे रहे हैं और एक वे जो अपने को धोखा नहीं दे रहे हैं। मैं उन लोगों को धार्मिक लोग कहता हूं, जो अपने को धोखा नहीं दे रहे हैं। जो जिंदगी के तथ्यों को सीधा और साफ देख रहे हैं। और उन लोगों को अधार्मिक कहता हूं, जो अपने को धोखा देने में लगे हुए हैं।
आपने सदा सुना होगा कि हम उस आदमी को अधार्मिक कहते हैं, जो दूसरों को धोखा देता है। मैं उस आदमी को अधार्मिक कह रहा हूं, जो अपने को धोखा देता है। और मजे की बात यह है कि जो अपने को धोखा नहीं देता वह दूसरों को धोखा दे ही नहीं सकता है। दूसरे को धोखा तो बाद में ही दिया जा सकता है, जब अपने को धोखा दे दिया गया हो। दूसरे को धोखा तभी संभव है जब मैं अपने को धोखा दे गया हूं। नहीं तो संभव नहीं है। और बड़े से बड़ा धोखा क्या है? बड़े से बड़ा धोखा यह है कि हमने समझा है कि जिंदगी बाहर है, इसलिए मकान बनाते हैं, बगीचा लगाते हैं, सामान इकट्ठा करते हैं। हम सोचते हैं कि जिंदगी बाहर है तो बाहर फूल खिलें, इसकी व्यवस्था करते हैं। हमें पता ही नहीं कि ऐसे भी फूल हैं, जो भीतर भी खिलते हैं। और हमें पता ही नहीं कि ऐसी भी हवाएं हैं जो भीतर भी बहती हैं। और हमें पता ही नहीं कि लट्टू प्रकाश के हम बाहर ही लटकाते रहेंगे, ऐसा भी प्रकाश है, जो भीतर भी जलता है। बाहर का प्रकाश हमारी जिंदगी के साथ समाप्त हो जाता है। भीतर का प्रकाश हमारी मौत के साथ भी यात्रा करता है। और वही आदमी संपत्तिवान है, जिसने कुछ ऐसा भी कमा लिया हो जिसे मौत छुड़ा न सकती हो। संपत्ति का अर्थ ही यही है कि जो विपत्ति में काम आए। और क्या अर्थ हो सकता है संपत्ति का? संपत्ति का अर्थ हो सकता है कि जो विपत्ति में काम आए। और मौत से बड़ी कोई विपत्ति है? और जो संपत्ति मौत में काम नहीं आती उसे संपत्ति कहना नासमझी है। मौत के वक्त कौन सी संपत्ति काम पड़ती है? है कोई संपत्ति भी ऐसी जो मौत के वक्त भी काम पड़ती है? जरूर है, लेकिन वैसी संपत्ति भीतर खोजनी होती है। और हम जो संपत्ति खोज रहे हैं, वह बाहर खोजते हैं। ध्यान रहे, बाहर संपत्ति के कितने ही ढेर लग जाएं, भीतर का गरीब आदमी मिटता नहीं। क्योंकि भीतर की गरीबी का बाहर की संपत्ति से कोई मिलन ही नहीं होता है।
एक फकीर था, फरीद। और उसके गांव के लोगों ने उससे कहा कि फरीद, अकबर तुम्हें बहुत मानता है, कभी तुम जाओ और अकबर से कहो कि हमारे गांव में एक मदरसा बना दे, एक स्कूल बना दे। फरीद ने कहाः मैंने कभी किसी से मांगा नहीं, लेकिन तुम कहते हो तो चला जाऊंगा। फरीद गया राजधानी। सम्राट अकबर के द्वार पर जल्दी ही सुबह-सुबह पहुंच गया। भीतर गया तो देखा कि अकबर मस्जिद में अपनी नमाज पढ़ रहा है, घुटने टेकर हुए, हाथ जोड़े हुए, नमाज का आखिरी चरण है, और प्रार्थना की आखिरी कड़ी है और अकबर कह रहा है कि हे परमात्मा, मुझे और संपत्ति दे, मुझे और राज्य दे, मेरे राज्य को और बड़ा कर, मेरी सीमाओं को और फैला, मुझ पर कृपा कर, मुझ पर दया कर, मेरी संपत्ति को बढ़ा, मेरे राज्य को बढ़ा। फरीद एकदम लौट पड़ा, अकबर उठा तो फरीद को सीढ़ियां उतरते देखा तो चिल्लाया कि कैसे आए, और कैसे लौट चले? फरीद ने कहा बड़ी गलती में आ गया मैं, समझता था कि तुम बादशाह हो, यहां आकर पाया कि तुम भी भिखारी हो। तुम भी अभी मांग ही रहे हो। और जब तुम्हीं मांग रहे हो तो तुम्हें मांग कर मैं कष्ट न दूंगा, मंागने आया था। और भिखारी से मांगना बड़ी कठोरता है। क्योंकि भिखारी अभी खुद ही मांग रहा है, अभी उसके पास ही बहुत कम है। और मैं मांगके उसमें कम नहीं करूंगा, और मैं लौट चला। और फिर मैं सोचता हूं कि जिससे तुम मांगते थे अगर मांगना ही होगा तो अब उसी से मांग लेंगे। बीच में एक दलाल को और क्यों लें?
अकबर जैसा आदमी भी मांग रहा है। तो फिर बाहर की संपंत्ति से भीतर की दरिद्रता मिटती नहीं होगी। भीतर की दरिद्रता छिप जाती है, बाहर की संपत्ति से मिटती नहीं। और छिप जाने को मिट जाना मत समझ लेना। कोई आदमी फोड़े कर ऊपर पट्टी बांध ले, और फोड़े को ढांक दे तो फोड़ा मिट नहीं जाता। बल्कि पट्टी ढांकने से जल्दी बड़ा होगा, क्योंकि अब सूरज की रोशनी भी नहीं लगेगी। ताजी हवाएं भी नहीं लगेंगी, अब फोड़े की बढ़ने होने की संभावना ज्यादा है, कम होने की कम। हमारे भीतर एक दरिद्रता का भाव है, उस दरिद्रता के भाव को मिटाने के दो रास्ते हैं, एक रास्ता तो यह है कि बाहर हम संपत्ति इकट्टी करते चले जाएं। यह बिलकुल ही सूडो, बिलकुल ही मिथ्या, बिलकुल ही झूठा रास्ता है। संपत्ति तो इकट्ठी हो जाएगी, भीतर की दरिद्रता छिप जाएगी, मिटेगी नहीं। और जब मौत सामने आएगी तो संपत्ति छूट जाएगी, दरिद्रता हाथ में रह जाएगी। क्योंकि जो भीतर है, वह साथ जाएगा। इसलिए हर बार हममें से बहुत लोगों ने अनेक जन्म लिए। सभी ने लिए। बहुत बार हमने संपत्ति इकट्ठी की और हर बार हम फिर गरीब हो गए हैं। और फिर वही दुनिया शुरू होती है, फिर गरीब, फिर संपत्ति का इकट्ठा करना, फिर मौत का आना संपत्ति का छिन जाना, हम फिर गरीब के गरीब खड़े रह जाते हैं। यह मकान बहुत दफा जल चुका है। हर बार जल चुका है, लेकिन हम फिर-फिर भूल जाते हैं। और खयाल में नहीं रह जाता कि ये मकान हम जो बना रहे हैं, फिर जलेगा। क्या ऐसी भी संपत्ति हो सकती है, जो आग में जलती न हो? क्या ऐसी भी संपत्ति हो सकती है जो मरने से मरती न हो? क्या ऐसी भी संपत्ति हो सकती है जिसे दुनिया में कोई छीन न सके? अगर ऐसी कोई संपत्ति है तो ही कोई आदमी संपत्तिवान हो सकता है, अन्यथा दरिद्रता के मिटने का कोई उपाय नहीं। ऐसी संपत्ति है किसी बुद्ध में कभी दिखाई पड़ती है। किसी महावीर में कभी झलक मिलती है। कभी क्राइस्ट की आंखों में दिखती है। कभी कृष्ण के गीतों में दिखती है, कभी दिखती है वह संपत्ति ऐसे लोगों के पास दिख जाती है जिनके पास शायद बाहर कुछ भी नहीं।
बुद्ध पहली बार ज्ञान को उपलब्ध हुए, तो अपने पांच मित्रों की तलाश में निकले, जो कभी उनके साथ थे। और फिर छोड़ कर चले गए थे। तो सोचा कि पहले उन मित्रों को जाकर खबर कर दूं कि मुझे ज्ञान मिल गया है। वे आए काशी और काशी के बाहर एक वृक्ष के नीचे उन्होंने डेरा डाला। डेरा क्या था, कुछ और तो था नहीं साथ, भिक्षा का एक पात्र था, उस भिक्षापात्र को पीठ की तरफ टिका कर तकिया लगा कर वे लेट गए। सांझ का वक्त है। सूरज डूब रहा है, और डूबते सूरज की किरणें बुद्ध के ऊपर पड़ रही हैं। काशी का नरेश काशी का सम्राट अपने रथ पर बैठ कर बाहर हवाखोरी के लिए निकला है। रथ पर बैठा है सम्राट, सोने के मुकुट हैं, बहुमूल्य करोड़ों के वस्त्र हैं। कीमती घोड़े हैं, उसी मार्ग पर, उसी वृक्ष के पास वह रथ भी निकलता है। सूरज की किरणें दोनों पर पड़ रही हैं, एक उस आदमी पर भी, जिसके पास बाहर सब कुछ है, लेकिन उस आदमी की आंखों में कोई जीवन की खबर नहीं, चिंता और उदासी के सिवाय कुछ भी नहीं। और वहीं उस झाड़ के पास एक भिखारी भी बैठा हुआ है। अपने भिक्षापात्र को तकिया बना कर। उसके पास कुछ भी नहीं है। और सूरज की किरणें उस पर भी पड़ रही हैं। लेकन उसकी आंखों में कोई खबर है, कुछ मिल गया है। कुछ पा लिया है। कुछ ऐसा जो अब खो नहीं सकता है। न वहां चिंता है, न वहां उदासी है। ऐसा मुश्किल से हुआ होगा। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक ही जगह ऐसे दो लोग मिल जाएं। सम्राट का तेज घोड़ा भागा चला जा रहा है। जो जितनी चिंता में होते हैं वे उतनी तेज घोड़ों पर सवार हो जाते हैं कि घोड़ों की टाप में चिंता भूल जाए। स्पीड आदमी इसीलिए पकड़ लेता है। और कोई कारण नहीं है। जोर की गति में भूल जाए कि भीतर परेशानी है, चिंता है, उदासी है, कठिनाई है, दुख है, पीड़ा है। यह दुनिया में जो इतने जोर से स्पीड, गति बढ़ी हैं, वह दुख के कारण बढ़ी है। वह दुख स्पीड में शायद भूल जाए, इसलिए आपने देखा होगा कि दुखी आदमी अगर कार चलाए, क्रोधी चिंतित आदमी कार चलाए तो उसका एक्सीलेटर जोर से, जोर से दबता चला जाता है। अगर आपने भी कभी क्रोध में गाड़ी चलाई तो मत चलाना, क्योंकि क्रोध एक्सीलरेटर को दबाने का काम करेगा, आप नहीं दबा रहे हैं, एक्सीलरेटर को क्रोध दबाएगा। क्रोध किसी भी चीज को दबा ले जाता है, किसी की गर्दन को दबा दे कि एक्सीलरेटर को दबा दे, दबाना उसका काम है। भागा जा रहा है घोड़ा, तेजी से सम्राट बैठा है उसमें शायद तेजी में भूल जाए, गति में भूल जाएं कि भीतर बड़ी बेचैनी है, तभी बुद्ध दिखाई पड़ गए हैं उस वृक्ष के नीचे। उसने अपने सारथी को कहाः रोक लो, यह आदमी कौन है? उस सारथी ने कहाः मैं नहीं जानता हूं। सम्राट ने कहा कि ले चलो मुझे उसके पास। ऐसा मालूम होता है कि जिसकी मैं खोज में हूं वह इसे मिल गया। वह सम्राट उतर कर बुद्ध के पास गया है और कहा कि भिक्षु, क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम्हे क्या मिल गया है? क्योंकि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता सिवाय भिक्षापात्र के और तुम इतने आनंदित, इतने शांत, और तुम इतने प्रकाशित, और तुम इतने सुगंधित, और तुम इतने संगीत से भरे कि चारों तरफ की हवाएं तुम्हारी सुगंध को पकड़ रही हैं। और चारों तरफ वृक्षों में तुम्हारा संगीत गूंज रहा है। सूरज का प्रकाश भी तुम्हारे सामने फीका लगता है। क्या हो गया है तुम्हें? क्या मिल गया है तुम्हें? कौन सी संपदा पा ली है? मैं उदास हूं, दुखी हूं, सब मेरे पास है, और रोज दिन-रात विचार करता हूं कि आत्महत्या कर लूं। क्या करूं, क्या न करूं? मर जाऊं, आज इस रथ को जोड़ कर इसलिए निकला हूं कि जाऊं और कहीं मर जाऊं। और मेरे पास सब है और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं। बुद्ध ने कहाः तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है और मेरे पास सब कुछ है। क्योंकि जिसके पास भीतर कुछ है उसी के पास कुछ है। जिसके पास बाहर कुछ भी हो उसके पास कुछ भी नहीं है। और तुम अगर बाहर और जोड़ते ही चले गए, तोे भीतर तुम खोते ही चले जाओगे। तुमने कभी वहां भी झांका भीतर, जहां चिंता है, दुख है, बेचैनी है, वहां भी तुमने कभी झांका, जहां उदासी है, विषाद है, संताप है? वहां भी तुमने कभी झांका जो तुम भीतर हो? उसने कहाः भीतर यानी क्या? भीतर का क्या मतलब होता है? हम भी सुन लेते हैं कि भीतर, लेकिन भीतर का कोई मतलब नहीं होता है, हमारे सामने। भीतर शब्द बिलकुल खाली मालूम पड़ता है, उसमें कोई कंटेंट नहीं है। बाहर सब मालूम पड़ता है, कि बाहर सब है। भीतर तो ऐसा लगता है जैसे कोई मिस्टीरियस बात है, भीतर, भीतर का कुछ पता नहीं है कि भीतर क्या है? हम कभी भीतर झांकते ही नहीं, उसने भी कभी नहीं झांका था। बुद्ध ने कहा कि भीतर झांको तो तुम जिस संपत्ति को खोज रहे हो, वह वहां मौजूद है। जिस मालकियत को खोज रहे हो, वह वहां है। तुम जिसकी तलाश में निकल चुके हो, वह वहां है, लेकिन अगर उसे खोजने तुम पृथ्वी के कोने-कोने तक भी गए तो नहीं पा सकोगे, क्योंकि वह तुम्हारे भीतर है और तुम बाहर खोज रहे हो। जो भीतर है, उसे अगर हम बाहर खोजेंगे तो कभी भी नहीं पा सकते हैं। और हमारी खोज की यही बुनियादी भूल है। जो भीतर है उसे भीतर ही खोजना पड़ेगा।
मैंने सुना है, एक महानगरी में एक पथ के किनारे एक भिखारी भीख मांग रहा था। चालीस वर्षों तक। हाथ फैलाए रोज सुबह सूरज ने उसे देखा। हाथ फैलाए रोज सूरज ने डूबते उसे देखा। उस नगर में शायद ही कोई एक आदमी था, जो न जानता हो उस भिखारी को। उसके फैले हुए हाथों को। उस भिखारी ने सोचा था कि मांग-मांग के बहुत इकट्ठा कर लूंगा और फिर एक दिन भीख मांगना बंद कर दूंगा। सभी भिखारी ऐसा ही सोचते हैं कि बहुत इकट्ठा हो जाएगा तो फिर मांगना बंद कर देंगे। लेकिन किसी भिखारी को यह पता नहीं होता कि निरंतर अभ्यास से भिखमंगापन और बढ़ता है, कम नहीं होता। चालीस साल का अभ्यास हो जाता है भीख मांग का, तो चालीस साल का अभ्यासवान भिखारी भीख मांगना नहीं छोड़ सकता। कुछ थोड़ा इकट्ठा भी हो गया था, लेकिन भीख बढ़ती चली गई थी। क्योंकि जो इकट्ठा होता है वह दिखाई नहीं पड़ता। जो दूर है, जो दूसरे के पास है, वही दिखाई पड़ता है। जो अपने पास है वह भूल जाता है। इसलिए दुनिया में गरीब भी, गरीब होता है, और अमीर भी गरीब होता है। और भिखारी तो भिखारी होता ही है, जो भीख दे रहे होते हैं, वे भी भिखारी होते हैं। क्योंकि जो अपने पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता है।
फिर वह भिखारी मरा। जब वह मरा तो पास-पड़ोस के लोगों ने उसके गंदे कपड़े फेंक दिए। उसके बर्तन-भंाडे फेंक दिए। और फिर किसी ने सलाह दी कि चालीस साल से ये आदमी जमीन गंदी कर रहा था, इस जमीन का भी थोड़ा सा मिट्टी का टुकड़ा निकाल के बाहर फेंक दो। खुदाई शुरू हुई और वहां लाखों लोग इकट्ठे हो गए। जब खुदाई हुई। क्योंकि ऐसी ही घटना घट गई। जैसे ही खोदा तो हैरान हो गए कि कुछ इंच नीचे बड़ा खजाना गड़ा है। और सारे गांव में एक चर्चा हो गई कि कैसा पागल आदमी था, उसी जमीन पे बैठा रहा, जहां खजाना गड़ा था और भीख मांगता रहा। अगर जरा जमीन खोद लेता तो सम्राट हो जाता। उस भीड़ में मैं भी खड़ा था। हो सकता है कि आप भी खड़े रहे हों, उस भीड़ में बहुत लोग इकट्ठा थे। उस भीड़ में हर आदमी उस भिखारी के लिए कह रहा था कैसा नासमझ था और मैं खूब जोर से हंसने लगा। और मैंने लोगों से कहा कि तुम भिखारी पर हंस रहे हो तुम्हें पता नहीं कि तुम जहां खड़े हो, वहां भी बहुत खजाना गड़ा है। लेकिन तुम भी भीख मांग रहे हो। जहां हम खड़े हैं। जो हम हैं वहां बड़े खजाने गड़े हैं, वहां परमात्मा ने सब कुछ छिपा के रख दिया है। लेकिन वहां हम खोजने नहीं जाते हैं, हम खोजने बाहर जाते हैं, और भटक जाते हैं। और जीवन नष्ट हो जाता है। बाहर पर्याप्त नहीं है जीवन के लिए भीतर आना जरूरी है। और बाहर हम कितना ही खोजते रहें और कितना ही पा लें हम उसे नहीं पा सकेंगे, जिससे तृप्ति मिलती है और प्राण शांत हो जाते हैं। नहीं वे बाहर है ही नहीं। एक छोटी सी कहानी अपनी बात मैं पूरी करूं।
मैंने सुना है कि भगवान ने दुनिया बनाई। और जब तक उसने आदमी नहीं बनाया था तब तक बड़ी शांति थी। भगवान को भी बड़ी शांति थी। भगवान भी तब से शांत नहीं हो सका, जबसे आदमी बनाया है। बहुत शांत था, दुनिया अच्छी थी। फूल खिलते थे। पक्षी गीत गाते थे। न हत्याएं थीं, न आत्महत्याएं थी, न चिंता का नाम सुना था, न प्रार्थनाएं थी, कि मंदिर बनाए हों, पक्षियों ने पौधों ने और भगवान की खोपड़ी खाते हों और प्रार्थना करते हों। ऐसा कुछ न था। बड़ी शांति थी। फिर आदमी बनाया और मुश्किल शुरू हो गई। और आदमी रोज उसके दरवाजे पर पहंुचने लगा। आदमी को पता था कि भगवान कहां है। तो दिन-रात न भगवान सो सकता था, न खाना खा सकता था, न पानी पी सकता था। दिन रात शिकायत करने वाले लोग खड़े थे कि यह गलत है। और मजे की बात यह थी कि जो आदमी एक गलत कहता था, दूसरा कहता था कि यह होना चाहिए, यह बिलकुल ठीक है। किसी को वर्षा ठीक मालूम पड़ती थी, क्योंकि उसको खेत में दाने बोने थे। और दूसरा उसके पीछे आता और वह कहता कि वर्षा अभी बंद रखो क्योंकि मैंने घड़े बनाए हैं मिट्टी के, वह सब गड़बड़ हो जाएंगे। अभी वर्षा बंद रहनी चाहिए। सब मुश्किल था। हर आदमी की अलग इच्छा थी।
भगवान ने देवताओं को बुलाया और कहा कि मुझे कुछ सलाह दो। मैं आदमी से कैसे बचूं, मैं कहां छिप जाऊं कि आदमी मेरा पता न पा सके, नहीं तो आदमी मेरी तो जान ले लेंगे ये, और मैं घबड़ा जाऊंगा। मैं तक आत्महत्या करने का विचार करने लगा हूं। तो देवताओं ने बड़ी सलाह दी किसी देवता ने कहा कि हिमालय पर, एवरेस्ट पर, गौरीशंकर पर छिप जाओ, तो भगवान के कहा कि तुम्हें पता नहीं बहुत जल्दी ही, तेनजिंग और हिलेरी वहो चढ़ जाएंगे। और एक दफा पता चल गया तो बस, फिर मुश्किल है, आदमी रास्ता बना लेगा। वहां से काम नहीं चलेगा, तो किसी देवता ने कहा, फिर चांद पर बैठ जाए तो उसने कहा तुम्हें वह भी पता नहीं वहां भी बहुत जल्दी आर्मस्ट्रंाग पहुंच जाने वाला है। देर नहीं लगने वाली है। देवता थक गए तब एक बूढ़े देवता ने भगवान के कान में कहा, तब एक ही तरकीब है कि तुम आदमी के भीतर छिप जाओ, वहां आदमी कभी नहीं जाएगा। और भगवान वहां छिप कर बैठ गया और आदमी सब जगह जाता है, बस एक जगह नहीं जाता हैं, जहां वह स्वयं है। और जब तक हम वहां नहीं जाते तब तक जीवन के आनंद का, जीवन के सत्य का हमें कोई पता नहीं चल सकेगा। हम हैं मंदिर और हम बाहर पत्थर के मंदिरों में खोजते हैं उसे, और हम हैं मंदिर उसके। और हम उसकी मूर्तियां बनाते हैं और वह अमूर्त हमारे भीतर छिपा है। और हम वीणा पर संगीत उठाते हैं। और उसका संगीत हमारे भीतर बिना वीणा के निरंतर बज रहा है। और हम बाहर घी के दीये जलाते है और उसने ऐसा दीया जलाया है भीतर, जो कभी बुझता ही नहीं, लेकिन हम वहां जाते ही नहीं। चांद पर जाना बड़ा आसान। हिमालय पर जाना बड़ा आसान है। अपने भीतर जाना शायद सबसे ज्यादा आर्डुअस, सबसे ज्यादा कठिन है, शायद इसलिए तो कोई आदमी वहां नहीं जाता। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि वह कठिनाई झूठी है, हम गए नहीं, बस इतनी ही कठिनाई है। हम जाना चाहें तो कोई कठिनाई नहीं। अगर भीतर ही जाना कठिन होगा तो फिर और कहां जाना सरल हो सकता है? अगर अपने को ही जानना कठिन हो सकता है तो और क्या जानना सरल हो सकता है? और अगर मंैं स्वयं को ही नहीं जान सकता तो मेरे और सब जानने की दौड़ व्यर्थ है। और अगर मैं स्वयं को ही नहीं पा सकता तो मैं और सब पाकर भी क्या कर सकता हूं?
इन थोड़ी सी बातों में एक ही बात मैंने कही है कि अपने को खोजें, बाहर से थोड़ी आंख बंद करें। पूरी न बंद कर सकें तो कम से कम आधी ही बंद करें। कुछ आंख झपकाएं, कुछ पलक बंद करें, भीतर खोजें। वह है, खोज की कमी है, खोजेंगे तो मिल जाएगा।
जैसे एक आदमी आंख बंद करके बैठा हो और कहे कि रोशनी कहां है? हम उससे कहेंगे थोड़ी आंख खोल, रोशनी है, तू आंख खोलेगा तो दिख जाएगी। वह आदमी कहेगा, रोशनी कहां है? लेकिन आंख न खोले तो रोशनी कैसे मिलेगी? ठीक इससे उलटी बात, भीतर वह मौजूद है, संपत्ति, सत्य, सौंदर्य, जो हम उसे कहें, प्रभु परमात्मा जो नाम हम उसे दें, निर्माण, मोक्ष जो हम उसे कहना चाहें, वह मौजूद है। लेकिन जैसे बाहर की रोशनी को देखने के लिए आंख खोलनी पड़ती है, वैसे भीतर की रोशनी को देखने के लिए आंख बंद करनी पड़ती है। और हम सोते में भी आंख बंद नहीं करते। सोते में ऊपर की पलक बंद होे जाती है, लेकिन सपने हम बाहर के ही देखते रहते हैं। हम रहते बाहर ही हैं। सपने में भी, सोते में भी आदमी अपने घर में नहीं है, अपने भीतर नहीं है। कहीं बाहर है। सोया है बंबई में हो सकता है, मास्को में हो सकता है, कलकत्ते में। बाहर, मित्र देख रहा है, शत्रु देख रहा है, बाहर है। भीतर आंख करने का मतलब है कुछ क्षणों के लिए चैबीस घंटे में, बाहर को बिलकुल भूल जाएं। उसकी स्मृति भी न रह जाए, उसका विचार भी न रह जाए, उसका खयाल भी न रह जाए। बस अकेले भीतर रह जाएं, टोटल लोनलीनेस में भीतर रह जाएं, एकांत में। तो उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी, और तब जिसे उसकी झलक मिल जाए, वैसा आदमी संपत्ति को, धन को उपलब्ध हो जाता है। वही धन है, जो वास्तविक है। और धन है कागज के सिक्कों का, चांदी के सिक्कों का, झूठा है, बनाया हुआ है, भीतर की दरिद्रता को छिपाता है, भुलाता है, मिटाता नहीं है। परमात्मा करे आप छिपाने में न लगें मिटो में लग जाएं। और जो आदमी प्रभु की तरफ एक कदम चलता है, प्रभु उसकी तरफ हजार कदम चलने को हमेशा तैयार हैं।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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