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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

जीवन की कला

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन की कला क्या है? इस संबंध में कुछ भी कहना एक अर्थ में बहुत आश्चर्यजनक मालूम पड़ सकता है। क्योंकि हम सभी जीते हैं। लेकिन अकेले जी लेना, जीवन को पा लेना नहीं है। जीवन कुछ और ही है, मात्र जी लेने से है। और इस जीवन का हमें कोई भी पता कभी नहीं चल पाता, यदि हम उसे खोजने ही न निकल जाएं, जीवित हम हैं, लेकिन जीने की व्यस्तता में जीवन को पा लेने से चूक जाते हैं। उसका स्पर्श भी नहीं हो पाता, उसका पता ही नहीं चल पाता। अक्सर तो यही होता है, जब मृत्यु द्वार पर खड़े होकर दस्तक देने लगती है, तभी हमें पहली बार पता चलता है कि जीवन था और गया।
मैंने तो सुना है कि कुछ लोग मर कर ही जान पाते हैं कि जीते थे, जीवित थे। जब जीवन होता है, तब हमारा ध्यान और हजार चीजों पर जाता है, एक हजार एक चीजों पर जाता है, सिर्फ जीवन पर नहीं जाता। जन्म के बाद हम स्वीकार ही कर लेते हैं कि जीवन मिल गया है,
इससे बड़ी और कोई भूल नहीं हो सकती। जैसे कोई बीज समझ ले कि वह वृक्ष है, ऐसे ही हम जन्म पा लेने को ही जीवन समझ कर भूल में पड़ जाते हैं। बीज वृक्ष हो सकता है, है नहीं। और यह जरूरी नहीं है कि वृक्ष हो ही जाए, बीज बीज रह कर भी मर जा सकता है। वृक्ष होना अनिवार्यता नहीं है
, सिर्फ संभावना है। लेकिन अगर बीज समझ ले कि मैं वृक्ष हूं, तो फिर बीज वृक्ष होने की सारी चेष्टा, सारा प्रयास, सारी यात्रा छोड़ देगा। जरूरत क्या है? जो मैं हूं उसे पाने का सवाल नहीं है। जो भी हम स्वयं को समझ लेते हैं, उसे पाने की यात्रा बंद हो जाती है। और जन्म के साथ बड़े से बड़ा इलुजन और भ्रम जो आदमी पैदा कर लेता है, वह यह है कि जीवन मिल गया।
जन्म जीवन नहीं है; जन्म केवल संभावना है। जीवन मिल भी सकता है, खो भी सकता है। जन्म दोनों के लिए द्वार बन सकता है--जीवन पाने के लिए भी, जीवन खोने के लिए भी। जन्म अपने में सिर्फ संभावना, पाॅसिबिलिटी है। जन्म कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक अवसर, एक आॅपरच्युनिटी है। हम खो भी सकते हैं, हम पा भी सकते हैं। अधिक लोग खो देते हैं और खोने का जो बुनियादी कारण है वह यह कि वे जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं। पैदा हो गए अर्थात जीवन मिल गया।
पैदा होते से केवल संभावना मिलती है, जीवन नहीं। जीवन निर्मित करना होता है। इसलिए पहली बात तो आपसे यह कहना चाहता हूं कि सिर्फ होने को, मात्र एक्झिस्टेंस को जीवन मत समझ लेना। हम हैं, वह सच है, लेकिन यह होना किसी और बड़े होने के लिए द्वार बन सकता है। एक जन्म है, जो मां-बाप से मिलता है, और एक जन्म है जो हमे स्वयं अपने को देना पड़ता है। मां-बाप से मिला जन्म, उस दूसरे जन्म के लिए द्वार बने, जो हम अपने को देंगे, तब तो ठीक, अन्यथा श्रम व्यर्थ हो जाता है। दौड़ते हैं बहुत पहुंचते कहीं भी नहीं। श्रम भी बहुत करते हैं, फल कुछ भी नहीं आता है। बीज, बीज रहके ही सड़ जाता है। हां, कभी-कभी कोई बीज वृक्ष बन जाता है। कभी-कभी किसी बीज में फूल आते हैं। कभी किसी बीज में सुगंध फैलती है। कभी कोई बीज वृक्ष बन कर आकाश में दूर तक बांहों को फैला देता है। सूरज की किरणों को चूमता है, चांद के साथ नाचता है, पक्षियों के गीतों के साथ आंदोलित होता है। कभी कोई वृक्ष आकाश से होड़ लेता है। अधिक बीज, बीज ही रह के मर जाते हैं।
मनुष्य के बीज, जब कभी ऐसे फूल, वृक्ष ऐसे आकाश के फैलाव को उपलब्ध होते हैं, तो हम, जो सिर्फ जीते हैं, उनकी पूजा में लग जाते हैं। एक बीज अगर दूसरे खिले हुए, फूलों से भरे हुए वृक्ष की पूजा भी करे तो क्या होगा? एक बीज अगर सम्मान भी करे, उस वृक्ष का, जिसमें फल आ गए तो क्या होगा? और बाकी बीज मिलके किसी मरे हुए, गले हुए, वृक्ष का मंदिर बना लें तो क्या होगा? आदमी यही करता रहा है। बुद्ध को, महावीर को, क्राइस्ट को, कृष्ण को सम्मान, पूजा, आदर, मंदिर। लेकिन ये स्मरण नहीं हमें कि यह सिर्फ वही बीज हैं, जो हम भी हैं। लेकिन वे पूर्ण अवसर का उपयोग करके जीवन बन गए हैं। और हम बीज की तरह ही नष्ट होने की तैयारी कर रहे हैं। और अगर हम कुछ न करें तो नष्ट तो हो ही जाएंगे। प्रतीक्षा बहुत देर नहीं चलेगी। बीज अगर वृक्ष न बना तो सड़ेगा। बीज अगर वृक्ष न बनने की यात्रा पर निकला, तो मृत्यु की यात्रा पर चलेगा। जो आदमी जन्म को अवसर नहीं बनाता, जीवन के सृजन का, वह आदमी जन्म को अवसर बनाता है, केवल मृत्यु की प्रतीक्षा का।
दो ही तरह के लोग हैं। एक वे जो अपने जन्म को जीवन बनाने में सक्रिय हो जाते हैं। एक वे जो केवल मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहते हैं। हम सब करीब-करीब मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं। रोज-रोज मौत करीब आती चली जाती है, और रोज-रोज मौत के करीब आने को हम जीवन कहते हैं। किस गणित से कहते हैं, समझना मुश्किल है? और रोज हम मरते हैं। रोज मरने के करीब पहुंचते हैं। एक वर्ष गुजरता है और हम जन्म-दिन मनाते हैं। मुश्किल है कहना कि वह जन्म का दिन मनाना चाहिए या मृत्यु का दिन? उसे बर्थडे कहना चाहिए या डेथडे? सोचेंगे तो वह मृत्यु का दिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि एक वर्ष मौत और करीब आ गई। और जन्म एक वर्ष और दूर छूट गया। एक वर्ष हम और मर चुके। एक वर्ष मरने की प्रक्रिया और हो गई।
ऐसा नहीं है कि एक दिन अचानक मौत कहीं से आ जाती है। मौत कोई बाहरी घटना नहीं है, कोई फाॅरेन, कोई विदेशी घटना नहीं है। कि आप चले जा रहे हैं और मौत आ गई। मौत आपके भीतर विकसित होती है। जन्म के दिन से ही विकसित होने लगती है। मौत भी एक ग्रोथ है। मौत भी एक विकास है। रोज हम मरने की तैयारी करते चलते हैं। रोज कुछ हमारे भीतर मरने लगता है। रोज हम बूढ़े होने लगते हैं। और रोज मरना होता चला जाता है। एक दिन यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है, जिस दिन पूूरी हो जाती है, यह प्रक्रिया, हम कहते हैं, मौत आ गई। मौत आ नहीं गई एक विकास था, जो पूर्णता को उपलब्ध हो गया। और इसे ही हम जीवन कहते रह जाएं? यही जीवन है? यह रोज मरते जाना, यह ग्रेचुअल डेथ, यह धीरे-धीरे मरना। सत्तर साल लगते हैं एक आदमी को मरने में, एकाध मिनट नहीं लगता। अस्सी साल लगते हैं। वैज्ञानिक और मेहनत करेंगे तो सौ साल लगने लगेंगे। मरने में कितनी देर लगेगी? यह विज्ञान थोड़ा बड़ा कर लेगा। लेकिन ये मरने की प्रक्रिया है, यह स्मरण में आना चाहिए। जन्म के बाद या तो हम जीवन की तलाश करेंगे और या फिर मरने की प्रक्रिया जारी रहेगी। हम जीवन की तलाश करेंगे तो मरने की प्रक्रिया बंद नहीं हो जाएगी। लेकिन हमारे भीतर दो यात्राएं शुरू हो जाएंगी। एक जो मर सकता है, वह मरने की यात्रा पर निकल जाएगा, और एक जो परम जीवन को उपलब्ध हो सकता है वह परम जीवन की यात्रा पर चल पड़ेगा। जिस व्यक्ति के भीतर दो यात्राएं चलने लगें, एक मरने की चलेगी, उसे हमें चलाना नहीं पड़ता, वह अपने से चलती है। और एक जिसे हमें चलाना पड़ता है। मरने की प्रक्रिया चलेगी, जो हमारे भीतर मरने वाला है, वह धीरे-धीरे मरता चला जाएगा। इसी बीच, इस अवसर को हम खो न दें। और उसे जान लें, जो नहीं मरने वाला है। इस अवसर में जब कि मरने वाला मर रहा है, हम उसकी झलक पा लें, उसे पहचान लें, जो नहीं मरने वाला है, तो हमारे जीवन का अनुभव शुरू होगा। साधारणतः हम मरते हैं, जीते नहीं। क्योंकि जीवन का हमें कोई अनुभव ही नहीं होता। इस जीवन का अनुभव कैसे करें? उसकी कला के क्या चरण होंगे? पहला चरण तो यह होगा कि जन्म को जीवन मत मानना। हम सब माने हुए बैठे हैं, इसलिए मैं जोर से कहना चाहता हूं जन्म को जीवन मत मानना। स्मरण रखना की हम सब मर रहे हैं। जी नहीं रहे हैं, यह स्मरण बना रहे और छिप जाए भीतर प्राणों में, तो शायद एक नई यात्रा की तड़प पैदा हो और वह यात्रा शुरू हो जाए। धार्मिक आदमी वही है, जिसने मरने की इस प्रक्रिया को पहचान लिया है।
बुद्ध निकले हैं अपने घर से एक उद्यान में, एक यूथ फेस्टिवल में, एक युवक महोत्सव में जाने के लिए। बुद्ध का जन्म हुआ जिस दिन उस दिन एक ज्योतिषी ने कहा कि यह लड़का या तो परम चक्रवर्ती सम्राट होगा या संन्यासी हो जाएगा। पिता मुश्किल में पड़ गए। कोई पिता बेटे को संन्यासी हुआ नहीं देखना चाहता। सभी बाप बेटे को चक्रवर्ती हुआ देखना चाहते हैं। क्योंकि बाप का अहंकार चक्रवर्ती नहीं हो पाया, कम से कम बेटे से ही तृप्ति पा लें। बेटे के अहंकार से ही अपने को भर लें। सभी बाप बेटों के भीतर अपने अहंकार की तृप्ति करने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। और इसीलिए कोई बाप बेटे से कभी तृप्त नहीं हो पाता। क्योंकि अहंकार बहुत बड़ा है। सब बेटे छोटे पड़ जाते हैं, वह तृप्ति हो नहीं पाती।
बाप घबड़ा गया है, पिता घबड़ा गए हैं। उन्होंने कहाः संन्यासी हो जाएगा? कैसे रोकें इसे? संन्यासी तो नहीं होने देना है। कैसे रोकें इसे? दूसरे का बेटा संन्यासी हो जाए, तो हम उसके चरण छू के नमस्कार कर आते हैं। हमारा बेटा संन्यासी होने लगे तब असली मुश्किल शुरू होती है। बुद्ध के पिता भी बहुत संन्यासियों के चरण-स्पर्श करने गए थे। आज पहली दफा पता चला, कैसे रोकें? चिंता में पड़ गए हैं। बुद्धिमानों से पूछा है, क्या करें? बुद्धिमानों ने कहा कि एक काम करें, अपने इस बेटे को मृत्यु से परिचित न होने दें बस, नहीं तो ये संन्यासी हो जाएगा। बाप ने उपाय किए। बेटे को मृत्यु से अपरिचित रखने के। ऐसे माहौल बनाए कि जहां कोई बूढ़ा आदमी प्रवेश न कर सके। क्योंकि बूढ़े आदमी में मृत्यु की झलक आनी शुरू होगी। मौत की छाया दिखाई पड़ने लगी, उसकी आंखों से, उसके हाथों से, उसके डगमगाने से, मौत ने खबर दे दी कि आती हूं। हिला दिया है, मौत ने उसे, टिकेगा थोड़ी देर तूफान और थोड़ा सहेगा, जड़ें हिल गई हैं, कंपेंगी कुछ दिन, गिरेगा अगली वर्षा में सही, इस वर्षा में नहीं। बूढ़े का आना बंद कर दिया। फूल उस बगिया में जहां बुद्ध रहते, मुरझा जाते, तो मालियों को खबर कर दी कि रात में ही अलग कर देना। मुरझाया फूल दिखाई न पड़ जाए। क्योंकि मुरझाया फूल देख कर कहीं बुद्ध पूछने न लगें कि फूल मुरझाते हैं, कहीं आदमी तो न मुरझा जाएगा? सुंदर से सुंदर स्त्रियों के बीच घेर दिया है बुद्ध को। सारी सुख-सुविधाओं में खड़ा कर दिया है। लेकिन क्या यह संभव है? कि जहां सब मरता हो, वहां मरने के अनुभव से किसी को वंचित रखा जा सके। बल्कि अगर मुझसे बुद्ध के पिता ने सलाह ली होती तो मैं ये कहता कि तुम्हारा ये इंतजाम इस लड़के को संन्यासी बना ही देगा। बल्कि जैसे यह पैदा हुआ है, इसको मरघट में रहने दो, ये म्यून हो जाए, देखने दो बूढ़ों को, सड़े हुए फूलों को, गिरते हुए पत्तों को, सूखे-उड़ते पत्तों को, मुर्दो को, सबको देखने दो। देखके आदी हो जाएगा, तो प्रश्न नहीं उठाएगा। गलती हो गई बुद्ध के पिता से। सब तरफ से व्यवस्था कर ली रोकने की जिंदगी ऐसी चीज नहीं जो उसे हम कटघरों में बंद कर दें। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, बुद्ध जवान हो गए, तब तक उन्हें पता नहीं था कि कोई वृद्ध हो जाता है। क्योंकि उन्हें घर से निकलने नहीं दिया गया था। लेकिन जवान हो गए। एक युवक महोत्सव हो रहा है, बुद्ध को उसका उदघाटन करने जाना है। वे रथ पर सवार होकर निकले, रास्तों पर बहुत व्यवस्था की गई थी कि कोई बूढ़ा, कोई मुर्दा, कोई बीमार न दिखाई पड़े। लेकिन क्या करोगे? सब रास्ते बूढ़ों से मुर्दों से, बीमारों से भरे हैं। एक बूढ़ा बुद्ध को दिखाई पड़ ही गया है। कितना ही इंतजाम करें मौत कहीं न कहीं से झांकेगी ही, सब तरफ मौजूद है। बुद्ध ने अपने सारथी से पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया? बुद्ध ने कभी न पूछा होता, हम कभी नहीं पूछते, क्योंकि हम आदी हैं। हम बचपन से ही देखते हैं, यह हो रहा है, यह हो रहा है। बुद्ध ने पूछा, इस आदमी को क्या हो गया है? सारथी ने कहा कि यह आदमी बूढ़ा हो गया है। बुद्ध ने कहाः क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा?
सारथी ने कहाः मैं कैसे कहूं? और यह शोभा योग्य नहीं कि मैं कहूं कि आप बूढ़े हो जाएंगे, लेकिन इतना निवेदन करता हूं कि अपवाद कोई भी नहीं है। बूढ़ा सभी को होना पड़ता है।
बुद्ध ने कहा कि रथ वापस लौटा दो, क्योंकि अगर बूढ़ा होना ही पड़ता है, तो बूढ़ा हो ही गए। देर-अबेर की बात है। रथ वापस कर लो। फिर युवक महोत्सव में भाग लेने मैं कैसे जाऊं? बूढ़ा हो ही गया।
सारथी ने कहाः नहीं, यह ठीक नहीं है, उचित नहीं है। पिता वहां राह देखते हैं। तो रथ आगे ले गए, फिर एक मुर्दा मिल गया, कोई अरथी लिए चला जा रहा है। बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ? सारथी ने कहाः यह उसके बाद का कदम है। वह जो बूढ़ा हो गया था, अब कोई बूढ़े के बाद आखिरी जो कदम उठाता है, वह इस आदमी ने उठा लिया है। यह आदमी मर गया है।
बुद्ध ने कहाः क्या मैं भी मर जाऊंगा?
सारथी ने कहाः अपने मुंह से मैं नहीं कह सकता इस तरह की बातें। अपशगुनपूर्ण हैं यह, अशुभ हैं, लेकिन अपवाद कोई भी नहीं।
बुद्ध ने कहाः फिर वापस लौटो, जब मर ही जाना है, जब मर ही जाना है, आज या कल या परसों, सिर्फ समय की बात है, तो जीवन ने सारा अर्थ खो दिया। हम उसकी अब तलाश करें जो न मरता हो। ऐसा भी कुछ है जो नहीं मरता है? बुद्ध वापस लौट आए हैं।
लेकिन हमारे रथ कभी वापस नहीं लौटते। और हम अपने सारथी से कभी नहीं पूछते कि आदमी बूढ़ा हो गया, मुझे तो बूढ़ा नहीं होना पड़ेगा? सारथी हमारे पास भी है। हम अपने सारथी से कभी नहीं पूछते, यह आदमी मर गया है। मुझे भी मरना पड़ेगा? बल्कि हम तो अपने सारथी को समझाए चले जाते हैं कि सब मरते होंगे, मेरे मरने का कोई आसार नहीं है। सब मरते होंगे, यह दूसरों के साथ घटना घटती है। मौत जो है वह सदा दूसरों के साथ घटती है। मैं अपने को सदा बचा लेता हूं, वह मेरे साथ कभी नहीं घटती। सबके साथ घटती है, मैं चूक जाता हूं, मैं अपवाद हूं। प्रत्येक के भीतर ऐसा भाव है, जब वह किसी को मरते देखता है, तो कहता है बेचारा। दूसरे पर बड़ी दया करता है। और उसे स्मरण नहीं कि मौत हंसती होगी, कि जो आज दूसरे पर दया कर रहा है, कल कुछ लोगों को उसको भी बेचारा कहना पड़ेगा। दूसरे पर दया करके अपने पर स्मरण करने से हम चूक जाते हैं। कोई मरता है तो हम कहते हैं, बेचारे के छोटे बच्चे, पत्नी, बड़ा बुरा हुआ! लेकिन कभी ऐसा स्मरण नहीं आता कि यह मौत का तीर जो उसकी तरफ उठ गया है यह मेरी तरफ भी तैयारी कर रहा होगा, धनुष पर रखा जा चुका होगा, प्रत्यंचा खिंचती होगी, तीर चलता होगा, चल पड़ा भी होगा। आने में भी वक्त लग जाता है न, तीरों के पहुंचने में भी समय लग जाता है, यात्रा में भी, वक्त तो लगता है। और सच तो यह है कि तीर उसी दिन चल पड़ता है, जिस दिन हम पैदा होते हैं। शायद पैदा होने के क्षण में ही निर्णित है भीतर कहीं कि जो मैकेनिज्म, यह जो यंत्र हमें मिला है, कितनी देर चल पड़ेगा। जैसे हम घड़ी खरीद कर ले आते हैं, तो लिख कर दे देते हैं कि दस साल की गारंटी है। बारह साल भी चल सकती है अगर बिलकुल मत चलाओ। या पटक दो तो अभी भी टूट सकती है, वे दूसरी बातें हैं। वे घटनाएं, दुर्घटनाएं हैं, लेकिन ऐसे घड़ी दस वर्ष चलेगी, यह मशीन बनाने वाला कहता है। दस वर्ष का इंतजाम दिखता है। दस वर्ष चल जाएगी, कम भेद दस वर्ष चल जाएगी। जन्म लेते वक्त वह जो क्रोमोसोम, वह जो बीजाणु हमें निर्मित करता है, उसके भीतर की घड़ी सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, विज्ञान थोड़ी सुविधाएं बना ले, घड़ी कम चलाई जाए, श्रम कम हो, विश्राम ज्यादा हो जाए, तो थोड़ा लंबा हो सकता है। या गरीबी टूट पड़े, अकाल हो जाए, भारत में जन्म मिल जाए तो जल्दी भी खत्म हो सकता है। लेकिन वे दुर्घटनाएं हैं उनको हिसाब में लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन जन्म के क्षण में बीज की गारंटी है, कुछ भीतर, और अब वैज्ञानिक कहते हैं, अब कुछ भीतरी प्लानिंग है क्रोमोसोम में कि वह कितने दिन चलेगा?
दो जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं। दो तरह के जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं। एक तो वे जो एक ही अंडे में बड़े होते हैं और एक वे जो दो अंडों मे बड़े होते हैं। दो अंडों में जो बड़े होते हैं उनको जुड़वां कहना बहुत ठीक नहीं है। वे दो ही बच्चे हैं, एक साथ पैदा होते हैं सिर्फ। जुड़वां नहीं हैं। सहयोगी हैं, को-आॅपरेटिव हैं। सिर्फ साथ पैदा हुए हैं। को-एक्झिस्टेंस हुआ है उनका, को-बर्थ हुई है, एक साथ जन्मे हैं, जुड़वां नहीं हैं। एक अंडे में जो बच्चे दो एक साथ एक ही अंडे में पैदा होते हैं, वे वस्तुतः जुड़वां हैं। इन जुड़वां बच्चों की बाबत जो अध्ययन हुए हैं, वे हैरान करने वाले हैं। एक बच्चे को हिंदुस्तान में पालो और एक को चीन में पालो। करीब-करीब जिंदगी में ये एक सी बीमारी से पीड़ित होंगे। और करीब-करीब बीमारियों का वक्त भी समान होगा। अगर ये यहां टी बी से बीमार पड़ जाए, पंद्रह वर्ष की उम्र में, तो वह जो चीन में जो बच्चा है, जिसे इसकी कोई भी खबर नहीं, वह भी पंद्रह वर्ष की उम्र में टी बी से बीमार पड़ने की संभावनाओं से भरा है, वह बीमार पड़ेगा। दिन, दो दिन की भूल-चूक होगी वह बीमार पड़ जाएगा। और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि दोनों बच्चे कहीं भी पाले जाएं, इनके मरने में तीन महीने से ज्यादा का फासला कभी भी नहीं होगा! कम से कम तीन दिन का फासला होता है। ज्यादा से ज्यादा तीन महीने का। इससे ख्याल आता है कि जन्म के साथ गारंटी इनब्रेट, वे जो क्रोमोसोम हैं, उसमें अंदर से भरी हुई प्लानिंग उसमें कुछ योजना लेके आदमी पैदा होता है। वह घड़ी तो चल रही है, तीर चल चुका है, जन्म के साथ मरने का। मरना होगा। उस संबंध में आश्वस्त हो सकते हैं। उसमें कोई शक करने की अभी तो जरूरत नहीं है।
एक बात सुनिश्चित है, और कुछ भी सुनिश्चित जीवन में नहीं, वह मृत्यु है। लेकिन जो सबसे ज्यादा सरटेन और सुनिश्चित है, उसे हम सबसे ज्यादा दूर खड़ा कर देते हैं। उसे हम सोचते ही नहीं। उसे हम विचारते ही नहीं। हम शायद उससे बचते हैं, सोचने-विचारने से। क्योंकि उसके सोच-विचार से चिंता पैदा होती है, और साधारण चिंता पैदा नहीं होती। एक तो चिंता है जो रोटी कमाने, न कमा पाएं तो पैदा हो जाती है। एक चिंता है जिस पत्नी को चाहें, वह न मिल पाए तो हो जाती है। एक चिंता है जैसे हम मकान बनना चाहें तो पैदा हो जाती है। एक चिंता है, जो हम जीते हैं उसके बाहर के संबंधों से जुड़ी है। एक और एन.जायटी है, एक और चिंता है, जिसको धार्मिक चिंता कहें रिलिजियस एन.जायटी कहें, वह इस बात से पैदा होती है कि मौत आ रही है। अगर दुनिया धार्मिक होगी तो मरघट हम गांव के बाहर न बनाएंगे, बीच में गांव के बनाएंगे। ताकि बच्चा-बच्चा जाने की यह मौत आ रही है। रोज आ रही है। अभी तो बाहर से अरथी निकलती है, तो बेटे को घर भीतर बुला लेती है मां कि अंदर आजा दरवाजा बंद कर, कोई अरथी निकलती है। अगर मां समझदार हो तो जब अरथी निकलती हो तो बेटे को बाहर ले आए और कहे कि अरथी निकलती है और तेरी भी कहीं न कहीं तैयार होती होगी, आने में देर लग सकती है। मौत का तीर तो चल चुका है, अगर हम इस एक ही डाइमेंशन में जी रहे हैं, एक ही आयाम में, जिस आयाम में, जिस रास्ते पर मौत चली आ रही है, अगर हम उसी में जी रहे हैं तो हमें जीवन का कभी पता नहीं चलेगा। बहुत बार हम इस तरह जीते हैं और मरते हैं और जीवन का पता नहीं चल पाता है। क्या एक और डायमेंशन भी है? क्या एक और यात्रा पथ भी है? क्या कोई एक और आयाम भी है, जहां हमारी चेतना यात्रा करे? जहां मृत्यु न हो? क्योंकि जीवन वहीं हो सकता है, जहां मृत्यु न हो? जहां मृत्यु हो वहां जीवन का सिर्फ भ्रम हो सकता है। जहां मृत्यु है वहां सिर्फ भ्रम हो सकता है।
जैसे पानी में किसी वृक्ष की छाया बनती हो। जरा पानी कंप जाता है, छाया खो जाती है। खो जाना बताता है कि छाया रही होगी। जरा कंपन, और सब खो जाता है। ऐसा लगता है कि जीवन कहीं किसी और तल पर है और इस शरीर में केवल प्रतिबिंब बन रहा है। शरीर जरा चूका कि प्रतिबिंब मिट जाता है। जीवन कहीं और है, यहां सिर्फ प्रतिबिंब बन रहा है। जरा चूक गए, जरा मीडियम, जिसमें प्रतिबिंब बन रहा है, वह कंप गया, असमर्थ हो गया, टूट गया, यंत्र बिखर गया और प्रतिबिंब फौरन खो जाता है।
जैसे एक चांद, एक झील में झलक रहा हो। कई बार तो ऊपर के चांद से भी झील का चांद सुंदर लगता है। असल में प्रतिबिंब बड़े सुंदर लगते हैं। जितना झूठ हो, उतना सुंदर लगता है। जितना असत्य हो, उतना संुदर लगता है। इसलिए तो कविताएं इतनी सुंदर लगती हैं। इसलिए तो सपने इतने प्यारे और मीठे लगते हैं। और इसलिए कुछ लोग तो आंख बंद करके सपने देखने में ही बिता देते हैं। लेकिन कितना ही सुंदर हो चांद का प्रतिबिंब झील की छाती पर बना, प्रतिबिंब ही है, रिलैक्शन ही है। और जरा झील कंप जाएगी, भाप में उड़ जाएगी, और खो जाएगा। और हम अगर इसको ही चांद समझे लें, तो समझेंगे कि चांद खो गया है। चांद नष्ट हो गया। एक चांद और भी है, जो आकाश में है दूर। जिसे हम शरीर कहते हैं, वह केवल मीडियम है, जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। वह मरेगा, उसकी घड़ी चल रही है, उसका यंत्र चल रहा है, वह यंत्र ही है। शरीर एक मैकेनिज्म ही है। बिलकुल यंत्र है, प्रकृति से पैदा हुआ यंत्र है। आज नहीं कल हम भी वैसा यंत्र बना लेंगे। और हो सकता है, प्रकृति से अच्छा बना लें। क्योंकि प्रकृति को हजारों-लाखों वर्ष लगते हैं, प्रयोग करने में, तब सुधार कर पाती है। आदमी जल्दी कर लेता है। हम इससे अच्छा यंत्र बना लें जो इससे ज्यादा चले, लेकिन वह यंत्र ही होगा, जो चल रहा है, भीतर जो प्रतिफलित हो रहा है, जो जीवन है, वह इस यंत्र के साथ एक नहीं है। लेकिन उसका हमें कोई स्मरण नहीं आता हम इस यंत्र के साथ ही जी के समाप्त हो जाते हैं। और मरते वक्त शायद समझते होंगे मैं मर रहा हूं, क्योंकि हमने इस यंत्र को ही अपना होना समझ रखा है।
तो पहली बात आपसे कहना चाहता हूं कि जन्म के साथ मिलता है माध्यम, मीडियम, इंस्ट्रूमेंट साधन जीवन का, जीवन नहीं। जीवन तो कहीं पीछे है, और हम अगर हम इस माध्यम से ही उलझ के व्यस्त हो गए तो उससे चूक जाएंगे, जिसका यह माध्यम था और जिसे पाने, खोजने के लिए, सार्थक हो सकता था। तो पहला सूत्र जन्म को जीवन नहीं मान लेना और जैसा जन्म से जीवन मिल जाए उससे संतुष्ट मत हो जाना। लेकिन हमें संतोष की बहुत बातें सिखाई गई हैं। संतुष्ट होने के लिए बहुत कहा गया है। जो है उससे संतुष्ट हो जाओ। और जो आदमी उससे संतुष्ट हो गया वह आदमी कोई विकास नहीं करता, वह बीज बोने से ही संतुष्ट हो गया वह वृक्ष कभी नहीं होता। एक गहरा असंतोष चाहिए, जो है उससे। यह बुद्ध या महावीर, या कृष्ण और क्राइस्ट या लाओत्सु इनको संतुष्ट आदमी मत समझने की भूल में पड़ जाना। इनसे ज्यादा असंतुष्ट, इनसे ज्यादा डिस्कंटेंट से भरे हुए मनुष्य पृथ्वी पर कभी पैदा ही नहीं हुए। हां, इनका असंतोष एक दिन इन्हें वहां ले गया, जहां सब संतोष हो जाता है। वह दूसरी बात है, वह फल है। वह असंतोष का अंतिम फल है। वह असंतुष्ट हो गए अपने से। इतने असंतुष्ट हो गए कि यह जो जीवन दिखाई पड़ता है, यह उन्हें जरा भी रसपूर्ण, और अर्थपूर्ण न रहा। क्योंकि जो छूट ही जाना है, जो बहुत बुद्धिमान हैं, उनको दिखाई पड़ गया कि छूट गया। देर की बात है, धोखे का सवाल नहीं है। जो मिट ही जाना है, वह मिट ही गया। इसमें फासला सिर्फ टाइम का है। सिर्फ समय का है, और समय भागा चला जा रहा है। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी। बात पूरी हो जाएगी। बहुत असंतुष्ट लोग, अपने से असंतुष्ट, जन्म से असंतुष्ट तथाकथित जीवन से असंतुष्ट एक दिन उस जगह पहुंच जाते हैं जहां परमतुष्टि मिलती है। लेकिन परम तुष्टि मान कर जो बैठ गए हैं, वे कहीं भी नहीं पहुंचते। वे अपनी परम तुष्टि में सिर्फ नष्ट होते हैं, समाप्त होते हैं, और मरते हैं। संतोष कर लेना सुसाइडल है, आत्मघाती है। असंतुष्ट होकर एक दिन उस जगह पहुंच जाना जहां, संतोष बरस जाता है सारे जीवन पर, करना नहीं पड़ता, आ जाता है। बनाना नहीं पड़ता, साधना नहीं पड़ता, निर्मित नहीं करना पड़ता, घट जाता है। वीणा बजने लगती है, बजानी नहीं पड़ती उसकी। फूल खिल जाते हैं उसके, खिलाने नहीं पड़ते। कागज के बाजार से खरीद के लाने नहीं पड़ते, इत्र नहीं छिड़कना पड़ता उन पर। सुगंध उनकी फैलने लगती है, उस दिन हैपनिंग है। संतोष हैपनिंग है, संतोष प्रयास नहीं है। प्रयास तो सदा असंतोष है, उपलब्धि अंतिम उपलब्धि, असंतोष की अंतिम यात्रा पर, संतोष के फूल खिलते हैं। उनकी बात करने की जरूरत नहीं, वह अपने आप खिल जाते हैं। लेकिन सारी दुनिया को संतोष के पाठ ने मार डाला है, बिलकुल मार डाला है। हर आदमी संतुष्ट है, जो है, उससे संतुष्ट है। इसलिए जो हो सकता है, वह नहीं हो पाता है। तो यह तो पहली ही बात, जन्म से संतुष्ट नहीं होना है।
दूसरी बात, दूसरी बात है कि जीवन को बनाने की चेष्टा में, जीवन की खोज में, सिद्धांत पकड़ लेने वाला आदमी बहुत उपद्रव में पड़ जाता है। जिस आदमी ने भी जीवन के बंधे-बंधाए, रेडीमेड सिद्धांत पकड़ लिए वह आदमी उधार हो जाता है, वह आदमी कभी भी आॅथेंटिक, प्रमाणिक नहीं रह जाता। किसी ने अगर महावीर को पकड़ लिया तो चूक गया वह आदमी, जिंदगी उसे कभी नहीं मिलेगी। किसी ने बुद्ध को पकड़ लिया, मर गया वह आदमी, अब उसको जिंदगी कभी मिलने वाली नहीं है। क्योंकि बुद्ध के जीवन का अनुभव नितांत उनका अनुभव है, वह अनुभव आप नहीं दोहरा सकते। आपका अनुभव नितांत, आपका होगा कोई बुद्ध उसको नहीं दोहरा सकता। जीवन का अनुभव रिपीट पुनरुक्त नहीं होता। जीवन का अनुभव सदा मौलिक और ओरिजिनल है। जो आपको होगा, तब वह ऐसा होगा जैसा न कभी हुआ, न कभी हो सकता।
सिद्धांत सिखाए जाते हैं लेकिन अगर जीवन पाना है, तो ऐसे नियम, ऐसे सिद्धांत, इनको मान कर चलो। सिद्धांत बड़े धोखे की दुनिया है। और सिद्धांतवादी आदमी से थोथा आदमी होता ही नहीं। झूठे आदमी होते हैं, वह आदमी होते ही नहीं असली। क्योंकि वे सिद्धांतों को पकड़ कर जिंदगी को इतना ढांचे में ढाल लेता है, कि जो जिंदगी असली है, जो किसी ढांचे में कभी नहीं ढलती, वह चूक जाता है। सिद्धांतवादी आदमी पैटर्न में, ढांचे में, मुर्दा हो जाता है। लेकिन हम सिद्धांतवादी आदमी का बड़ा आदर करते हैं। हमारे मनों में बड़ा भाव है कि सिद्धांत होने चाहिए। कि जिंदगी को पाने के सिद्धांत क्या हैं? ध्यान रहे कि सिद्धांतों की कुछ बुनियादी खूबियां है, खतरनाक खूबियां है। पहली खूबी तो सिद्धांतों की यह है कि सिद्धांत सीधे-साफ होते हैं। और जिंदगी बहुत जटिल है, सीधी-साफ बिलकुल नहीं है।
एक दार्शनिक के पास कोई आदमी गया। उसे कार चलाने का शौक है। और तेजी से चलाने का शौक है। जब जिंदगी में और कोई तेजी न हो जाए, तो इस तरह की फिजूल तेजियां आदमी खोज लेता है। जब जिंदगी में कोई, कुछ तेजी न हो, जिंदगी मुर्दा हो तो, फिर ड्राइव करने में ही तेजी का मजेा लेता है। बड़ी बेमानी तेजियां हैं, कहीं पहुंचाती नहीं। कितनी तेज कार चलाओ, कहां पहुंच जाना है? वह एक दार्शनिक से पूछने गया कि मुझे बड़ा डर लगता है, मैं बहुत तेज गाड़ी चलाता हूं। मैं आपसे पूछने आया हूं कि कोई खतरा तो नहीं है? आप बड़े ज्ञानी हैं, उस दार्शनिक ने कहा कि खतरा कोई भी नहीं है। सिद्धांत तुम्हेें समझा देता हंू। अगर तुम तेज गाड़ी चलाओगे तो दो संभावनाएं हैं, या तो टकराओगे या नहीं टकराए। अगर नहीं टकराए तो कोई खतरा नहीं, अगर टकराए तो दो संभावनाएं हैं, या तो चोट खाओगे या नहीं खाओगे। अगर नहीं चोट खाए कोई खतरा नहीं और अगर चोट खाओगे तो दो संभावनाएं हैं। या तो मर जाओगे या बच जाओगे। अगर बच गए तो कोई खतरा नहीं और अगर मर गए तो खतरे का सवाल ही नहीं। लेकिन जिंदगी इतनी सरल नहीं है। आदमी चोट खा सकता है और बच सकता है। लेकिन गणित के फार्मूलों में सोचने वाले लोग ऐसा ही सोच लेते हैं। ऐसा जिंदगी को तोड़ देते हैं, काले अंधेरे में अ और ब में, और दो हिस्से खड़े कर देते हैं। जिंदगी मेें न कुछ अंधेरा है, न कुछ सफेद है, जिंदगी ग्रे है। जिंदगी में न अ है, न ब है। जिंदगी मेें अ और ब दोनोें एक ही चीज के दो नाम हैं। जिंदगी बहुत जटिल है, बहुत कांप्लेक्स है। जिंदगी बहुत गहरा उलझाव है। इतना सीधा-साफ नहीं है, जैसा गणित के फार्मूले होते हैं। जैसे दो और दो चार होते हैं। जिंदगी में कभी दो और दो चार होते भी हैं, कभी नहीं भी होते। कभी दो और दो-पांच भी हो जाते हैं, कभी दो और दो-तीन भी रह जाते हैं। जिंदगी बहुत कठिन है जिंदगी सीधा गणित नहीं है। लेकिन सिद्धांत जिंदगी को बिलकुल सीधा-साफ बना देते हैं। और हमें बहुत जंच जाते हैं। बुद्धि को बहुत जंच जाते हैं, कि सिद्धांत बिलकुल ठीक हैं, कि पांच बजे सुबह उठ आओ ब्रह्ममहूर्त में तो ब्रह्मज्ञान हो जाएगा। अभी तक तो किसी को हुआ नहीं। कि यह खा लो यह मत खाओ, कि ये कपड़े पहनो ये मत पहनो, कि घर में रहो कि आश्रम में रहो, कि यह किताब पढ़ो वह मत पढ़ो। सिद्धांत बहुत तोड़ कर साथ-साथ बक्से में खड़ा कर देते हैं, कि यह करो यह मत करो। जिंदगी इतनी सीधी नहीं है, इतनी साफ नहीं है। और जो सिद्धांतों को पकड़ लता है बाहर से और सिद्धांतों में अपने को ढालने लग जाता है, वह धीरे-धीरे आॅटोमेटिक हो जाता है, एक यंत्र हो जाता है, आदमी नहीं रह जाता। इसलिए डिसिप्लिंड आदमी जिसको हम कहते हैं, बिलकुल अनुशासित आदमी डेड आदमी होता है। मुर्दा आदमी होता है। जिंदा आदमी नहीं होता। घड़ी से चलता है, घड़ी से उठता है, घड़ी से बैठता है, सब काम बंधा-बंधा है, सब पटरी पर दौड़ता है। जैसे रेलगाड़ी के डिब्बे दौड़ते हैं। कभी नीचे नहीं उतरते, बस पटरी पर दौड़ते चले जाते हैं। और जिंदगी की कोई पटरी नहीं है। लोहे की पटरियां नहीं हैं वहां? जिंदगी नदी की धारा की तरह है, पटरियां बिलकुल नहीं हैं। अनजान, अपरिचित रास्तों से गुजरना पड़ता है, मार्ग भी बदल जाता है। वर्षा आती है, नदी बड़ी भी हो जाती है। धूप आती है, नदी छोटी भी हो जाती है। सूख भी जाती है। समुद्र भी बन जाती है, सब है, जिंदगी में वहां बंधी पटरियां नहीं हैं, लोहे की, और लोहे के डिब्बे नहीं हैं उन पर चलते हुए। लेकिन सिद्धांतवादियों ने जिंदगी को एक ढांचा और एक पैटर्न देने की कोशिश की। उसकी वजह से बहुत लोग जिंदगी से चूक जाते हैं। खयाल ही नहीं रहता कि हम यह क्या कर रहे हैं? और जितना आदमी आदतों को मजबूत कर लेता है और सुनिश्चित हो जाता है, एक ढांचे में घूमने लगता है, कोल्हू के बैल की तरह। रोज वक्त पर उठता है, रोज वक्त पर सो जाता है। वक्त पर किताब पढ़ लेता है, वक्त पर प्रार्थना कर लेता है। वक्त पर प्रेम कर लेता है। सब बंधा हुआ है, हिसाब है। सब वक्त पर कर लेता है। सब ठीक ढंग से कर लेता है, नियम से कर लेता है। और सोचता है कि पा ली जिंदगी तो बड़ी भूल में है। जिंदगी तो बहुत अराजक है। जिंदगी बहुत अनार्किक है। जिंदगी बाण की भांति है। जीवन ऐसी सुनिश्चित बात नहीं है। ऐसे लकीर का फकीर होकर कोई जिंदगी को नहीं पाता। फिर ये सिद्धांत, पहली बात हमेशा सरल हैं। और जिंदगी जटिल है। और सिद्धांत हमेशा उधार हैं और जिंदगी सदा अपनी। सिद्धांत सदा दूसरे के हैं, और जिंदगी मेरी है।
और ध्यान रहे, जो एक आदमी के लिए अमृत है वह सिद्धांत दूसरे के लिए अक्सर जहर हो जाता है। क्योंकि एक आदमी जैसा दूसरा आदमी नहीं है। अब महावीर को नग्न खड़ा होना आनंदपूर्ण होगा। खड़े हुए, उनकी मौज खड़े रहें। लेकिन कुछ पागल उनके पीछे दो-तीन हजार वर्ष से नग्न खड़े होने का अभ्यास कर रहे हैं।
मेरे एक मित्र हैं, वे भी नग्न मुनि होने की चेष्टा में संलग्न थे। मैं एक बार उनके आश्रम के पास से गुजरता था, तो गाड़ी रोक कर कहा कि दो मिनट उनको देख आऊं कि कहां तक गति हुई। झोपड़ा जंगल में है, उनको पता नहीं होगा, कोई आता है। खिड़की से मैंने देखा, वे नंगे टहल रहे हैं। दरवाजे पर दस्तक दी, तो चादर लपेट कर आए। मैंने उनसे पूछा खिड़की से, मेरा खयाल पड़ता है कि आप नंगे थे। अब आप चादर लपेट कर आ गए, बात क्या है? उन्होंने कहाः मैं नंगे होने का अभ्यास कर रहा हूं। पहले अपने ही कमरे में नंगे होने का अभ्यास करूंगा, फिर दो-चार मित्रों के बीच, फिर गांव में, फिर बड़े राजपथ पर। मुश्किल पड़ती है नंगा होने में। मैंने उनसे पूछा कि तुमने कभी सुना है कि कभी महावीर ने नंगे होने का अभ्यास किया हो? कब वस्त्र गिर गए यह पता भी नहीं चला होगा। नग्नता आ गई होगी।
यह दूसरी बात है एक आदमी इतना सरल हो गया होगा, इतना इनोसेंट हो गया होगा, इतना निर्दोष हो गया होगा कि वस्त्र की जरूरत ही न रही होगी। वे गिर गए होंगे किसी दिन और पहनना भूल गया होगा, यह दूसरी बात है। लेकिन यह आदमी कनिंग है, यह आदमी चालाक है। यह व्यवस्था कर रहा है। नंगे होने का भी अभ्यास कर रहा है। तो यह आदमी भी नंगा हो जाएगा, हो सकता है कि महावीर से भी ज्यादा व्यवस्थित नंगा हो जाए। इसके नंगेपन में एक मैथड होगा, सिस्टम होगा, निश्चित ही इसके नंगेपन में एक ढंग होगा, महावीर का नंगापन बिलकुल बेढंगा रहा होगा। न सोचा होगा, न सुना होगा, न विचारा होगा, जिंदगी हो गई होगी सरल। कपड़े किसी दिन छूट गए होंगे। पाया होगा, क्या जरूरत है? बात खत्म हो गई होगी। उसपे लौट कर सोचा भी नहीं होगा। इस आदमी का नंगापन बहुत व्यवस्थित होगा। अगर महावीर और इसको दोनों को काम्पिटीशन कराया जाए, यह जीत जाएगा। इसका अभ्यास, ट्रेनिंग इसने ली है, लेकिन कोई अभ्यास से नंगा हो सकता है? अभ्यास किस बात का कर रहे हैं आप? अभ्यास इसी बात का कर रहे हैं कि वह जो कपड़े जिसे छिपाते थे, अब अभ्यास से, अकड़ से, संकल्प से कपड़ों का काम लेने की कोशिश कर रहे हैं। और क्या कर रहे हैं? अब संकल्प के द्वारा कपड़ा जिसे छिपाता था, अब संकल्प से, अकड़ से, हिम्मत से, साहस से उसे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन छिपाने की कोशिश जारी रहेगी। और यह तो हो सकता है कि नंगा कोई अभ्यास से हो जाएगा। लेकिन यह सर्कस का नंगापन होगा, यह संन्यासी का नंगापन नहीं हो सकता?
महावीर के लिए नंगापन एक मौज रही होगी। नग्नता एक आनंद रहा होगा। बुद्ध को नंगापन नहीं है मौज, तो कोई जरूरी है कि बुद्ध नंगे खड़े हों? बुद्ध को जो ठीक है, वे वैसा जीते हैं। क्राइस्ट को जो ठीक है, वे वैसा जीते हैं। अपना-अपना जीवन है। अपनी-अपनी आत्मा है। अपना-अपना भीतर गहरा व्यक्तित्व है। सिद्धांत मार डालते हैं, व्यक्ति को, क्योंकि सिद्धांत होते हैं दूसरे के व्यक्तित्व पर निर्मित। और मैं बिलकुल अलग आदमी हूं तो मैं किसी को भी मान कर, अगर आधार बनाके जीने की कोशिश करूंगा, तो मैं नकली हो जाऊंगा। कार्बनकाॅपी हो जाऊंगा। मैं असली नहीं रह जाने वाला हूं। वैसे तो कार्बनकाॅपी भी पढ़ने में बड़ी तकलीफ देती है। और कार्बनकाॅपी बड़े दिल को दुखाती है। और कोई कार्बनकाॅपी करके पत्र आपको भेज दे तो फाड़ देने का मन होता है। तो कार्बनकाॅपी आदमी तो बहुत दुखद हो जाता है। बहुत ऊबाने वाला हो जाता है। सारी मनुष्यता को धीरे-धीरे कार्बनकाॅपी होने का रोग पकड़ा हुआ है। किसी न किसी को कहां से कैसा जीवन तो, किससे हम सीखें, किस महात्मा को पकड़े, किस गुरु को पकड़ें, किस तीर्थंकर को, किस अवतार को, और पकड़ कर हम कैसे जीएं और और इसका खयाल ही नहीं कि कृष्ण एक तरह के आदमी हैं? अगर कृष्ण बुद्ध को पकड़ लें तो मर जाएं, अगर बुद्ध कृष्ण को पकड़ लें तो क्या हालत हो पता है? हम सोच ही नहीं सकते। महावीर मोरमुकुट बांधे खड़े हैं, तो ऐसा लगेगा कि बंद करो, ले जाओ कहीं और इनको। लेकिन कृष्ण अगर नंगे खड़े हों तो इतने घबड़ाने वाले मालूम पड़ेंगे। कृष्ण कृष्ण हैं, उनका अपना व्यक्तित्व है। महावीर का अपना है। व्यक्ति-व्यक्ति के पास परमात्मा ने मौलिक व्यक्तित्व दिया है। इसी का नाम आत्मा है। मौलिक होने का नाम आत्मा है। ओरिजिनल होने का नाम आत्मा है। अमौलिक बारोड कार्बनकाॅपी होने का नाम आत्मा खोना है। जिसको आत्मा खोनी हो, वह किसी का अनुयायी हो जाए। और जिसे आत्मा पानी हो वह सावधान रहे, न किसी सिद्धांत के ढांचे में, न किसी शास्त्र के, न किसी व्यक्ति के, न गुरु के। दूसरी बात आपसे कहता हूं, सिद्धांत और ढांचे से बचने की कोशिश करना, नहीं तो जीवन का पता नहीं चल पाएगा।
और तीसरी अंतिम बात कहना चाहता हूं। हम सब जीते हैं या तो अतीत में या भविष्य में। या तो जो बीत गया उसमें या जो नहीं आया उसमें। वे दोनों ही नहीं हैं। और जीवन है अभी और यहां। जीवन है अभी, इसी वक्त, इसी श्वास में। और मैं जीऊंगा अतीत में। कभी आपने खयाल किया कि आप वर्तमान में रहे हों? ऐसा कोई याद आता है कि आप कभी वर्तमान में रहे हों, वहीं रहे हों जहां थे? कभी याद नहीं आएगा। जब भी आप रहे होंगे कहीं और। आज जीएंगे नहीं कल जो जीवन बीत गया उसकी राख का हिसाब करेंगे। परसों जो बीत गया उसका हिसाब करेंगे। बीती जिंदगी की सारी स्मृतियों में खोए रहेंगे, लौट-लौट कर वहीं देखते रहेंगे। वह सब मर चुका, अगर मौत को खोजना हो तो अतीत में खोजें। अतीत में मृत्यु है। सब मर चुका, राख रह गई। अंगारे जा चुके हैं, वहां से सिर्फ राख छूट गई। जोत-बत्तियां बुझ गईं। वहां से सिर्फ गिरी हुई, झड़ी हुई राख रह गई है। अब वहां सत्य नहीं है। अब वहां सिर्फ मानसिक स्मृति है। जीवन वहां से हट चुका, जा चुका, उसे क्यों सोच रहे हैं? उसे सोच कर जो जीवन अभी है, उसे जानने से क्यों वंचित हुए जा रहे हैं? क्योंकि चित्त का एक नियम है वह एक ही जगह हो सकता है। जो चित्त अतीत में है वह वर्तमान में नहीं हो सकता। जो चित्त भविष्य में है वह वर्तमान में नहीं हो सकता। अटेंशन अगर अतीत में है ध्यान, तो आप वर्तमान में नहीं हो सकते। भविष्य में है तो वर्तमान में नहीं हो सकते। अतीत है मरा हुआ। भविष्य है अजन्मा, अभी जन्मा नहीं। आप उसके हिसाब में पड़े हैं। कल आने वाला कल पकड़े है। या बीता कल पकड़े है। आज, आज में कोई जीता ही नहीं! और जीवन है, आज, अभी और यहीं। इसी क्षण है। मैं जीवित हूं अभी और स्मृति है पीछे की। जीवन के ऊपर स्मृति की राख छा जाती है। हम उसी राख को टटोलते रहते हैं। उसी में खोजते रहते हैं। क्या मिलेगा वहां? राख में क्या मिल सकता है? और जो अभी जन्मा नहीं है, अजन्मा है, अनजान है, जो हमें पता ही नहीं है कि क्या होगा कल? उसका विचार, उसकी चिंता, उसमें खोए रहना, उसमें लीन रहना, चूक जाएंगे। आज से चूक जाते हैं हम। अभी, जस्ट हियर एण्ड नाउ, वे जो क्षण हैं उससे हम प्रतिपल चूकते चले जाते हैं। वह क्षण इतना बारीक है, और हमारा अतीत और भविष्य का उलझाव इतना भारी है कि वह बारीक क्षण कब निकल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता। असल में जब वह निकल जाता है तभी हमको पता चलता है। और जब वह निकल जाता है तब बेमानी हो जाता है, तब पता चलने का कोई मतलब नहीं। या हमें तब पता रहता है जब वह आया नहीं होता, आ रहा होता है, तब भी बेमानी है। क्योंकि अभी वह आया नहीं!
अतीत और भविष्य में जो जीता है, और हम सब ऐसे ही जीते हैं, हमारा मन का पेंडुलम अतीत से भविष्य, भविष्य से अतीत ऐसा डोलता रहता है। वह कभी रुकता नहीं, वहां जहां जीवन इस वक्त है अभी है, इस क्षण है।
एक फकीर नानइन था जापान में। एक आदमी उसके पास आया और उस आदमी ने कहा कि मैं जीवन जानना चाहता हूं, मुझे कुछ रास्ता बताओ? वह फकीर थोड़ी देर आंख बंद किए बैठा रहा, फिर उसने कहा किस गांव से आते हो? उस आदमी ने कहा जिस गांव से आता हूं, उसे बहुत पीछे छोड़ आया, उसकी बात करनी फिजूल है। वह फकीर फिर थोड़ी देर चुप रहा, और फिर उसने पूछा, जिस गांव से आते हो उस गांव में चावल के दाम क्या थे? उस आदमी ने कहा कि आप बड़े पागल मालूम होते हैं। चावल के दाम कुछ न कुछ रहे होंगे, लेकिन अब जिस बाजार में मैं नहीं हूं, उस बाजार के चावल के दामों का मतलब क्या है? आप फिजूल की बातें क्यों कर रहे हैं? मैं पूछने आया हूं जीवन? उस फकीर ने कहा कि मैं बताऊंगा तुम्हें जीवन, लेकिन पूछा इसलिए, कि अगर तुम बताते कि फला गांव से आते हो, और बताते कि उस गांव में चावल के दाम ये हैं, तो दरवाजे के बाहर निकाल देता, और दरवाजा बंद कर लेता। भाग यहां से, अभी तू उस गांव में रह रहा है, जहां से आ गया। अभी उन चावल के दामों की फिकर कर रहा है, जहां तू नहीं है। फिर तेरे जीवन जानने का उपाय न था। लेकिन तू आदमी काम का मालूम पड़ता है। मालूम होता है तू वह पुल तोड़ देता है, जिनसे गुजर जाता है। तो उस आदमी ने कहा कि वे टूट ही जाते हैं, तोड़ने का सवाल ही नहीं। कोई पागल है, जो उनकोे जोड़े रखता है मन में। असलियत में तो सब टूट जाता है, जहां से हम गुजर जाते हैं, वह रास्ता मिट जाता है। वह ब्रिज टूट जाता है, जहां से हम गुजर गए, वह गया। अब वह कहीं भी नहीं है। अब उसे कहीं भी खोजा नहीं जा सकता। अब सिर्फ हमारी स्मृति में धागे रह गए हैं। और कहीं कुछ भी नहीं रह गया है।
ठीक, उस फकीर ने ठीक पूछा। हमें भी कभी अपने से पूछना चाहिए कि हम बीते बाजारों के दाम तो याद नहीं रखे हुए। जा चुकी स्मृतियों में तो नहीं खो गए हैं। जिस गांव को छोड़ चुके हैं, अब भी वहीं तो नहीं रह रहे हैं। जिस घर को तोड़ चुके हैं, कहीं उसमें ही तो निवास जारी नहीं है। लेकिन हम सब वहीं रहते हैं। हम सब वहीं रहते हैं, बीता पकड़े रहता है। वह मौत का ढेर है, उससे जिंदगी का पता कभी नहीं चलेगा। और या फिर आगे का पकड़े रहता है, जो अभी नहीं आया है कि कल क्या करना है, कल क्या होना है? और कल जब आएगा, तब फिर हम आगे कल के सोचने लगेंगे और उसको फिर खो देंगे और फिर गंवा देंगे। रोज कल आता है लेकिन आज होकर आता है। और आज से हमारा कोई संबंध ही नहीं है। वह चूक जाता है। ऐसे पूरी जिंदगी बह जाती है, धारा की तरह। और हम डोलते रहते हैं, अतीत और भविष्य में। अतीत और भविष्य में। बच्चे भविष्य में डोलते रहते हैं। बूढ़े अतीत में डोलते रहते हैं। और जवान मुश्किल से कोई आदमी होता है। क्योंकि जवान का मतलब ही यह है, शरीर से तो सभी जवान होते हैं। वह मैं बात नहीं कर रहा। जवान वह आदमी है या वह चित्त है, यंग माइंड, युवा चित्त वह है जो अभी और यहां जीता है। और अगर कोई आदमी अभी और यहां जीना जान जाए। इस क्षण को पकड़ ले और डूब जाए, तो वैसा आदमी न कभी बूढ़ा होता और न कभी मरता है। क्योंकि उस द्वार से उसे उसका पता चल जाता है, जीवन की उस धारा का, जहां कोई मृत्यु कभी प्रवेश नहीं करती। इसी क्षण से द्वार है, दिस वैरी मूवमेंट। यह जो क्षण हमारे पास से जा रहा है। यह जो कंपता हुआ निकला चला जा रहा है। यह जो हवा के झोंके की तरह वृक्षों से गुजर जाएगा। यह जो पानी की लहर की तरह छितर जाएगा। यह जो अभी गया, हम पकड़ भी नहीं पाएंगे और निकल जाएगा। अगर हम जरा भी पीछे झुके, यह गया। हम जरा भी आगे झुके, यह गया। यह अभी है जो पीछे नहीं झुकता, आगे नहीं झुकता, अभी खड़ा हो जाता है और झांकता है। उसे जीवन दिख जाता है।
वर्तमान के क्षण में खड़े हो जाने का नाम ध्यान है। वर्तमान क्षण में डूब जाने का नाम समाधि है। वर्तमान क्षण में उतर जाने से हम उस गंगा में उतर जाते हैं, जो जीवन की गंगा है। जीवन सदा वर्तमान में है। अतीत और भविष्य एक अजन्मा है, और एक मर चुका है। वहां जीवन नहीं है। जीवन अभी है, लेकिन हमें सदा आगे और पीछे जीने की योजना बताई जाती है। छोटे बच्चे खेलते दिखाई पड़ते हैं आपको, शायद थोड़े बहुत वे निकट क्षण में जीते हैं? शायद इसीलिए ज्यादा जीवंत मालूम होते हैं? शायद इसलिए ताजे और फ्रेश और सुगंधित मालूम होते हैं? शायद इसलिए उनकी आंखों से कोई खबर आती है, जो फिर धीरे-धीरे आनी बंद हो जाती है? लेकिन छोटे से छोटा बच्चा भी ठीक वर्तमान में नहीं होता, अप्राॅक्सिमेटली करीब-करीब वर्तमान में होता है, बिलकुल वर्तमान में नहीं होता, करीब-करीब होता है। करीब-करीब होने से ही वह इतना ताजा है, जिंदगी की धारा के वह बहुत करीब है। वहां से फुहार जिंदगी की आती है, फिर जैसे-जैसे वह बूढ़ा होता चला जाता है वैसे-वैसे जिंदगी की धारा से दूर होता चला जाता है। अतीत की शंृखला बड़ी हो जाती है। भविष्य के भय और कल्पनाएं और योजनाएं बड़ी हो जाती हैं, और वे सब पकड़े लेती हैं। वृद्ध आदमी वृद्ध चित्त जीवन से सबसे ज्यादा दूर हो जाता है। बचपन बच्चे का चित्त निकटतम होता है। लेकिन वह भी वहां नहीं होता। जीसस क्राइस्ट एक गांव से गुजर रहे हैं। भीड़ ने उन्हें घेर लिया है। एक कुत्ता उन्हें काट खाता है। एक पागल कुत्ता। भीड़ चिल्लाती है कि पकड़ो, इस पागल कुत्ते को मार डालो इसे, यह न मालूम कितने लोगों को काटेगा। बाजार है, मेला है, जीसस को कोई जानता नहीं। जीसस के पैर से खून बह रहा है, वह उस कुत्ते को बैठ कर प्यार कर रहे हैं। एक आदमी ने गौर से देखा, क्योंकि सारे लोग कुत्ते को गाली देने में लग गए थे। फिकर छोड़ दी थी, किसको काटा? कौन को काटा? एक आदमी ने देखा उसने कहा कि ये आदमी कुत्ते से भी ज्यादा पागल मालूम होता है। कुत्ते ने काटा हुआ है, वह बैठ कर कुत्ते के पास क्या कर रहा है? जीसस खड़े हुए। उन्होंने कहा कि तुमने देखा नहीं कि इस कुत्ते के दांत बड़े प्यारे हैं, बड़े सुंदर। तो किसी आदमी ने भीड़ के पीछे से कहा कि मालूम होता है कि यह मरियम का बेटा जीसस होगा। क्योंकि जमीन पर वह ही एक आदमी है कि कुत्ता उसे काट खाए तो भी वह इस फिकर में बहुत न पड़े कि क्या होगा? कुत्ते के दांत देख सके, जो अभी हैं, और इस क्षण में जी सके। मालूम होता है यह मरियम का बेटा जीसस होगा। वही आदमी ऐसा है। फिर भीड़ ने पूछा तुम कैसे इस चीज को उपलब्ध हुए हो? तुम्हें फिकर नहीं कि कुत्ते ने तुम्हें काट लिया है। उसने कहाः वह हो चुकी घटना। वह अतीत हो गई, काटा जा चुका। खयाल करते हैं, जीसस ने कहा काटा जा चुका। अब कुत्ता काट नहीं रहा है। काटा जा चुका, वह घटना हो चुकी। अब उसके लिए उसमें डूबना, और उतरना और घूमना अर्थहीन है।
क्या होगा, यह देखा जाएगा। अभी कुत्ता है, और मैं हूं। और इसके दांत बड़े प्यारे हैं। इतने प्यारे दांत मैंने किसी आदमी के भी नहीं देखे। इतने ताजे, इतने चमकते हुए, इतने साफ! किसी आदमी ने उनसे पूछा, क्या इसी तरह प्रभु के राज्य में प्रवेश होगा? कि जिसको आप मोक्ष कहते हैं? किंग्डम आॅफ गाॅड कहते हैं। ऐसा, .जीसस ने कहा निश्चित ही, जो बच्चे की तरह हैं, जो अभी और यहीं है, वे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। जो बच्चे की तरह हैं। लेकिन बच्चे, बच्चे भी पैदा होते से ही पीछे-आगे का कंपन शुरू हो गया। पेंडुलम अभी थोड़ा घूमता है, ज्यादा नहीं। मां दूध नहीं देती तो बच्चा पीड़ित है, परेशान है। और कल उसने दूध दिया था तो उसकी स्मृति भी है मन में कहीं। हो सकता है गर्भ में जो आराम मिला था बच्चे को, उसकी भी स्मृति हो। जो सुख मिला था, बड़ा आरामपूर्ण था। गर्भ में न कोई काम था, न कोई चिंता थी, न कोई दुनिया थी, न कोई झगड़ा था। सब चुपचाप चलता था। कुछ महीने तक तो सांस लेने की झंझट भी न थी। सब उससे ज्यादा आनंदपूर्ण जगह, अब तक हम नहीं बना पाए। कोशिश तो हम बहुत करते हैं, जो मकान हमने बनाएं हैं, वह गर्भ की ही कल्पना हैं। जो कोच हमने बनाई हैं तकिए-गद्दे बनाए हैं, वह गर्भ की ही कल्पना है। और अभी जो अंतरिक्ष में यात्री गए हैं, उनके लिए जो कैप्सूल बनाया है, वह तो बिलकुल गर्भ की डिजाइन पर है। जिसमें उनको बिलकुल पड़े रहें, वह चैबीस घंटे जिसमें कोई तकलीफ न हो, बिलकुल कोई अड़चन न हो। लेकिन अभी भी मनोवैज्ञानिक तो कहते है कि मोक्ष का जो खयाल है, वह गर्भ की स्मृति है। यह जो खयाल है कि जो ऐसा जगत होना चाहिए। कोई ऐसा लोक जहां आराम ही आराम, आनंद ही आनंद हो, तो यह बच्चे के मन में छूट गई गर्भ की स्मृति है, जो उसके अनकांशस में या चेतन में रह गई है। वह फिर से गर्भ खोज रहा है। वह कोई ऐसा लोक खोज रहा है, जहां सब शांति, सब आनंद, कोई दुख नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई परेशानी नहीं, कुछ काम नहीं करना पड़ता। कल्पवृक्ष हैं, उनके नीचे रहो, जो चाहो हो जाता है। कोई दुख नहीं, कोई पीड़ा नहीं। सब सुख ही सुख है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, इस मोक्ष की धारणा के पीछे कहीं न कहीं गर्भ की स्मृति काम कर रही है। तो गर्भ की स्मृति भी होगी तो बच्चे का भी पेंडुलम घूमना शुरू हो गया है। लेकिन फिर भी अभी कम घूम रहा है। अभी स्मृति कम है, अतीत कम है। अभी भविष्य का भी बोध कम है। अभी वह खेलता भी है, कूदता भी है, क्षण में लीन भी हो जाता है, अभी डूब भी जाता है। लेकिन हम जैसे-जैसे स्मृति बढ़ती है, भविष्य का बोध बढ़ता है, क्षण में उतरना बंद कर देते हैं। क्षण में नहीं उतरते तो जीवन नहीं मिलेगा। क्षण में उतर जाने की कला जीवन में पहुंच जाने की कला है।
तो तीसरा सूत्र आपसे कहता हंू कि कभी चैबीस घंटे मुश्किल पड़ेगा। चैबीस घंटे बहुत मुश्किल है क्षण में जीना। जो जीने लगे, उसका नाम संन्यासी है। लेकिन हमारा संन्यासी भी नहीं जीता, वह भी फिकर में रहता है कि आश्रम को कितने पैसे मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे? यज्ञ होगा कि नहीं होगा? जनता होने देगी कि नहीं होने देगी? सारे झंझट हैं। वह सारे उपद्रव में जीता है। सारा उपद्रव वहां भी है। क्या होगा? क्या नहीं होगा? आगे पीछे सब उपाय, विचार सब चलता है। लेकिन संन्यासी का मतलब तो यही है कि जो क्षण में जीता है। जो कहता है कि कल हो चुका और आने वाला कल अभी आया नहीं। आज बस काफी है। यही क्षण काफी है। पर वह संन्यासी की बात है। कोई चाहे तो धीरे-धीरे उस दुनिया में भी प्रवेश कर पाता है, पा सकता है। लेकिन आज सामान्य जीवन में जीते हुए कम से कम दिन में कोई कुछ क्षणों के लिए छोड़ देना, अतीत को छोड़ देना भविष्य को, तो कुछ क्षण के लिए तो कोई भी संन्यासी हो सकता है। छोड़ देना, जाने देना कि नमस्कार! अतीत को क्षमा करो, जाओ। नहीं हमेें अब याद करनी है। भविष्य को कहना रुको, ठहरो, जब आओगे तब देख लेंगे, इतनी जल्दी भी क्या पड़ी है? एक घड़ी भर को चुप होकर वहीं रह जाना जहां हैं। श्वास चलती होगी, हृदय धड़कता होगा। हवा चलती होगी। पक्षी चिल्लाते होंगे, वहीं रह जाना जहां हैं। जो हो रहा हो, वहीं रह जाना। बिलकुल वहीं रह जाना। जरा भी मन को आगे-पीछे जाने के लिए नमस्कार कर लेना। मत जाओ, रुक जाओ, यहीं ठहर जाओ, बस यही बहुत है।
एक दिन में नहीं हो जाएगा लेकिन कोई अगर खयालपूर्वक, रिमेंबर करते-करते, स्मरण करते-करते, तो पेंडुलम की गति धीरे-धीरे धीमी होने लगेगी। लंबी छलांगें पेंडुलम लेना बंद कर देगा। धीमे लेने लगेगा। कम लेगा। कम लेगा। किसी दिन अचानक पेंडुलम खड़ा हो जाएगा मन का और क्षण में छलांग लग जाएगी। उस क्षण में जो छलांग लग जाए तो जीवन क्या है पता चल जाता है? उस दिन पहली बार मैकेनिज्म से शरीर से छुटकारा होगा। आत्मा से परिचय होगा। उस दिन पहली दफा संसार ही नहीं परमात्मा भी सत्य हो जाता है। उस दिन पहली दफा मृत्यु समाप्त हो जाती और अमृत्व के द्वार खुल जाते हैं। उस दिन पहली दफा अंधकार से, दुख से, पीड़ा से, चिंता से, असंतोष से बाहर, और एक शांति का, संतोष का और आनंद का, एक नया ही लोक, जिससे हम बिलकुल ही अपरिचित हैं, जहां से फूलों का सौंदर्य आता होगा, जहां से मनुष्य की आत्मा उतरती होगी, जहां से चांद-तारे रोशनी पाते होंगे, जहां से सारी जीवन की धाराएं अनंत-अनंत रूपों में प्रकट होती होंगी। उस ओरिजिनल सोर्स पर, उस मूल पर उतरना हो जाता है। उस मूल को कोई-कोई नाम दें कोई कहे मोक्ष, कोई कहे प्रभु, कोई कहे परमात्मा, जो कहना हो, कोई कहे निर्माण, जो कोई कुछ भी न कहे, बहुत समझदार कहते हैं, कुछ भी न कहो, चुप ही रह जाओ वह है, बस इतना ही बहुत है।
ये तीन सूत्र मैंने कहे। समझने की बात कम है। कुछ किसी दिशा में प्रयोग करने की बात ज्यादा है। अगर, अगर जीवन को सिर्फ मरने की यात्रा नहीं बनाना है और जीवन परम जीवन के मंदिर तक पहुंच सके ऐसी आकंाक्षा है, अभीप्सा है तो सोचना। अगर ठीक लगे थोड़ा करना। करने से, कुछ करने से पहुंचना हो जाता है। हुआ है किसी एक का, तो क्यों किसी दूसरे का नहीं हो सकता।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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