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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम दर्शन-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(साधना-शिविर)-ओशो

प्रेम की अनंतता

मेरे प्रिय आत्मन्!
प्रेम है द्वार, प्रेम है मार्ग और प्रेम ही है प्राप्ति। मनुष्य की भाषा में प्रेम से ज्यादा बहुमूल्य और कोई शब्द नहीं। लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं जो प्रेम से परिचित हो पाते हैं। क्योंकि प्रेम की पहली शर्त ही आदमी पूरी नहीं कर पाता। और पहली शर्त पूरी करनी थोड़ी कठिन भी है।
पहली शर्त यह है कि जो आदमी अपने अहंकार को मिटाने को राजी है वही केवल प्रेम को उपलब्ध हो सकता है। और हम अपने अहंकार को ही भरने के लिए जीवनभर लगे रहते हैं। बहुत-बहुत रुपों में अहंकार को भरने की चेष्टा करते हैं। धन से भी, यश से भी, पद से भी, ज्ञान से भी, और यहां तक कि त्याग से भी हम अहंकार को ही भरने की कोशिश करते हैं। जीवन की सारी दिशाओं से हम एक ही काम करते हैं कि मैं अपने मैं को मजबूत कर लें।
और मैं से बड़ा कोई झूठ नहीं है। मैं एकदम असत्य बात है। लहर का कोई अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व तो सागर का है। पत्ते का कोई अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व तो वृक्ष का है। और वृक्ष का भी कोई अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व तो पृथ्वी का है। पृथ्वी का भी क्या अस्तित्व है चांद-तारों और सूरज के बिना? असल में अस्तित्व समग्र्र का है, टोटल का है। अस्तित्व खंड-खंड का नहीं।


क्या मैं जी सकता हूं एक क्षण भी अलग होकर? अभी जो श्वास मेरी है क्षण भर पहले आपकी रही होगी, अभी जिस श्वास को मैं मेरा कह रहा हूं, मैं मेरा कह भी न पाऊंगा कि वह श्वास मुझसे बाहर हो जाएगी और किसी और की हो जाएगी। मेरे शरीर में जो रक्त है, वह कुछ घड़ी पहले किसी वृक्ष के फल का रस हो सकता है। मेरी जो हड्डी है, वह कुछ समय पहले किसी पत्थर के पास जमा हुआ खनिज होगा। और कल मैं नहीं रहूंगा और ये सब चीजें रहेंगी और अपनी जगह बिखर जाएंगी। मेरे मैं का अलग अस्तित्व कहां है?
दस करोड़ मील दूर है सूरज और ठंडा हो जाए, तो हमें यह भी पता न चलेगा की वह कब ठंडा हो गया? क्योंकि उसके ठंडे होते ही हम भी ठंडे हो चुके होंगे। पता चलाने को भी कोई पीछे नहीं बचेगा कि सूरज कब ठंडा हुआ। इतिहास में भी यह बात न लिखी जा सकेगी कि सूरज कब ठंडा हुआ। क्योंकि इतिहास लिखने को कोई बचेगा ही नहीं।
दस करोड़ मील दूर जो सूरज है वह भी हमसे इतना जुड़ा है कि उसके बिना हम क्षण भर नहीं हो सकते हैं। हमारा होना सबके होने पर जब इतना निर्भर है तो कैसे हम कहें कि मैं हूं? अपने मैं की अलग घोषणा अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। लेकिन उसी घोषणा पर हमारा सारा जीवन चलता है। हम जो भी करते हैं इसी मैं को ध्यान में रख कर करते हैं। इसलिए इस मैं के असत्य होने के कारण सारा जीवन ही असत्य हो जाता है। और ध्यान रहे, जहां मैं मजबूत है वहां प्रेम असंभव है। क्योंकि प्रेम का मतलब है कि मैं नहीं हूं तू है। पे्रम का अर्थ? प्रेम का अर्थ ही है कि मैं नहीं हूं तू है। और जब पूरे प्राण यह कह पाते हैं कि मैं बिलकुल नही हूं, तू ही है, तभी प्रभु के द्वार खुलते हैं, अन्यथा नहीं खुलते।
जलालुद्दीन रूमी ने एक छोटा सा गीत लिखा है, मुझे तो गीत अधूरा मालूम पड़ता है, लेकिन फिर भी उसे समझें। रूमी ने लिखा है कि एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया है, उसने द्वार खटखटाया, पीछे से पूछा गया है कौन है? तो उस प्रेमी नेे कहाः मैं हूं तेरा प्रेमी, द्वार खोल! लेकिन भीतर सन्नाटा हो गया। ऐसा सन्नाटा जैसे घर में कोई है ही नहीं। वह और जोर से दरवाजा पीटने लगा और कहने लगा, चुप क्यों हो गई? द्वार खोल! मैं हूं तेरा प्रेमी। लेकिन फिर कोई उत्तर नहीं। बहुत देर द्वार पीटने पर पीछे से उत्तर आया कि जब तक मैं हूं तब तक तू प्रेमी कैसे हो सकेगा? ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? अभी तू लौट जा, अभी प्रेम के द्वार खुले इस योग्य तू नहीं हुआ, जब मैं मिट जाए तो आ जाना। मैं हूं प्रेमी ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं। जब प्रेमी होता है तो मैं मिट जाता है, जब मैं होता है तो प्रेम पैदा ही नहीं हो पाता है।
लौट गया प्रेमी। बहुत वर्ष बीते वापस आया। ऐसा रूमी की कविता में है। वापस लौट आया, द्वार खटखटाए, पीछे से आवाज, फिर वही सवाल, कौन है? और वह कहता है, मैं नहीं हूं, तू ही है। द्वार खुल गए।
अगर मैं इस कविता को लिखूं तो अभी भी द्वार नहीं खोल पाऊंगा। क्योंकि अभी भी वह कह रहा है, मैं नहीं हूं। अभी भी उसे मैं का बोध है। अभी भी वह कह रहा है मैं नहीं हूं, तू है। असल में मैं नहीं हूं यह कहने के लिए भी मेरा होना जरूरी है। नहीं, अभी भी वह पूर्ण हृदय से नहीं कह पाया है कि तू ही है। अभी भी मन पूरा नहीं है। अगर मैं उस गीत को लिखूं तो उसे फिर वापस लौटा दूं। क्योंकि उसका मैं मिटा नहीं। लेकिन रूमी ने गलती की होगी, परमात्मा कभी गलती नहीं करता। उसके दरवाजे पर भूल-चूक नहीं होती। वहां अगर इतना भी मैंने कहा कि मैं नहीं हूं तू ही है, तो भी द्वार बंद ही रहेगा। असल में मैं ही तो द्वार है, अगर मैं गया तो द्वार गया, अगर मैं हूं तो द्वार शेष रह जाएगा।
जब मैं कहता हूं प्रेम ही प्रार्थना है और प्रेम ही परमात्मा है, तो कुछ लोग मुझसे पूछते हैं, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है? नहीं, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा व्यक्ति की भांति सोचा गया। और इसलिए भूल हो गई है। परमात्मा व्यक्ति नहीं हैं। पमात्मा शक्ति है, अनुभूति है। और उस शक्ति को अनुभव करने के लिए यह जो ‘मैं’ का पत्थर है यह मेरी छाती से हट जाना चाहिए, अन्यथा उसकी किरणें मेरे हृदय में प्रवेश नहीं कर पाएंगी। यह एक झरना है। एक पत्थर रखा है छाती पर और झरना भीतर है और तड़प रहा है कि प्रकट हो जाए। लेकिन एक पत्थर उसकी छाती पर है और झरना नहीं प्रगट हो पा रहा है। झरने को लाना नहीं है, पत्थर अलग हुआ कि झरना फूट पड़ेगा। झरना था, पत्थर रोक लेता है। कौन सी चीज है जो आदमी के प्रेम को रोके हुए है? और परमात्मा के प्रेम की बात थोड़ी देर को छोड़ भी दें, आदमी-आदमी के बीच के प्रेम को कौन रोके हुए है?
विक्टोरिया साम्राज्ञी हो गई थी। बड़ा शानदार अवसर उसे मिला। वह महारानी हो गई थी। उसका पति सम्राट नहीं था। एक दिन दोनों में कुछ कलह हो गई। उसके पति ने द्वार बंद कर लिए और वह क्रोध में दरवाजे के भीतर बैठ गया। विक्टोरिया गई है और उसने दरवाजा खटखटाया और कहाः द्वार खोलो। उसने पूछाः कौन है? उसने कहाः मैं हूं महारानी विक्टोरिया। तो उसने कहाः द्वार नहीं खुलेंगे। विक्टोरिया को खयाल आ गया, उसने कहा कि नहीं, मैं हूं तुम्हारी विक्टोरिया। द्वार खुल गए। उसने कहाः लेकिन पहले द्वार क्यों नहीं खोले? उसके पति ने कहाः महारानी के अहंकार को प्रेम के दरवाजे पर कोई जगह नहीं।
लेकिन हम सब दरवाजों पर अहंकार को लेकर ही खड़े होते हैं। साधारण जीवन में भी प्रेम का द्वार नहीं खुल पाता, क्योंकि मैं को लेकर ही हम वहां मौजूद होते हैं। न कोई पति पत्नी को प्रेम कर पाता है, न कोई मां बेटे को प्रेम कर पाती है, न कोई बेटा बाप को प्रेम कर पाता है, न कोई भाई भाई को प्रेम कर पाता है। क्योंकि सब जगह वह ‘मैं’ मौजूद है। इसलिए हम प्रेम करते हुए दिखाई पड़ते हैं, बात करते हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन प्रेम नहीं। अगर दुनिया में प्रेम होता तो दुनिया स्वर्ग होती। इस तरह का नरक न होती जैसा दिखाई पड़ती है। पत्नी कहती है मैं पति को प्रेम करती हूं और पति को उस हालत तक पहुंचा देती है कि वह आत्महत्या कर ले या पागल हो जाए। बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं और उसकी गर्दन दबाए जाता है, दबाए जाता है। बेटा कहता है बाप को कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और रोज ताक में रहता है कि इस बूढ़े से कब छुटकारा हो। हम सब प्रेम की बात कर रहे हैं, प्रेम की ही चर्चा चल रही है, जो देखो वही प्रेम कर रहा है। अगर इतने लोग इतना प्रेम कर रहे हैं तो पृथ्वी प्रेम की सुगंध से भर जानी चाहिए। लेकिन ऐसा तो दिखाई नहीं पड़ता। पृथ्वी तो घृणा की दुर्गंध से भरी हुई है। ऐसा मालूम होता है कि प्रेम की इतनी चर्चा भी शायद प्रेम नहीं है उसी बात को छिपाने के लिए चलती है। अकसर जो नहीं होता उसकी हम बात करने लगते हैं। कभी उपवास अगर किया हो तो उस दिन भोजन की ही बात चलती है। उपवास करके देखें और पता चलेगा उस दिन भोजन की ही बात चलती है। दो-चार दिन उपवास करें तो फिर भोजन के सिवाय कोई बात नहीं चलेगी।
हिटलर के एक कनसनट्रेशन कैंप में एक वैज्ञानिक विचारक हैप्टन बी डैक था। उसने अपने संस्मरण लिखे हैं। उसने लिखा है कि मैं हैरान हूं, मैंने कभी भोजन की जिंदगी में चर्चा न की थी। लेकिन जब हम हिटलर के कैंप में बंद कर दिए गए, तो दिन में एक बार रोटी का एक टुकड़ा और काली चाय मिलती थी। अच्छे घरों के लोग जो संगीत की बातें करते थे कभी, अच्छे घरों के लोग जो दर्शनशास्त्र की बातें करते थेे कभी, अच्छे घरों के लोग जो कला की बातें करते थे कभी, परमात्मा की बातें करते थे, प्रार्थना की बातें करते थे। सब प्रभागों के भीतर सिवाय रोटी और चाय के दूसरी बात न करते। सिर्फ वही बात चलने लगी। और वह जो रोटी का एक टुकड़ा मिलता उसको भी कोई पूरा नहीं खा लेता था, क्योंकि अगर चैबीस घंटे की भूख, उसको खीसे मेें थोड़ा-थोड़ा बचा कर रख लेता है। हैप्टन ने लिखाः कई बार निकाल कर हम सिर्फ देख लेेते और वापस रख लेते। मन को बड़ी राहत मिल जाती देख कर। और दिन भर बातें करते, जैसे बातों से पेट भर जाएगा। हैप्टन ने लिखा है कि वहां उसे जाकर पता चला कि जिंदगी में जिस चीज की कमी हो जाती है उसी की चर्चा हो जाती है।
असल में जिंदगी में जो चीज होती है उसकी हम चर्चा नहीं करते। परमात्मा पर इतनी किताबें हैं उसका सिर्फ एक कारण है कि जिंदगी में परमात्मा नहीं है। अगर होता, इतनी किताबों की कोई जरूरत नहीं। प्रेम की इतनी चर्चा, इतने गीत, इतनी कथाएं, यह सब प्रेम के न होने के सबूत हैं। कभी खयाल किया है, स्वस्थ आदमी कभी स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता, लेकिन बीमार सुबह से सांझ तक स्वास्थ्य की ही चर्चा करता है। बीमार अक्सर नेचरोपैथी की किताबें पढ़ते हुए मिल जाएंगे--प्राकृतिक चिकित्सा पढ़ रहे हैं, कुछ और पढ़ रहे है, नुस्खे खोज रहे हैं कि स्वास्थय कैसे उपलब्ध हो? और स्वास्थय की परिभाषाएं खोज रहे हैं कि स्वास्थ्य क्या है? कैसे मिल सकता है? लेकिन स्वस्थ आदमी को पता ही नहीं चलता, स्वास्थ्य की बात भी नहीं करता।
कभी आपने खयाल किया सिर में दर्द हो तो सिर का पता चलता है, दर्द न हो तो सिर का पता ही नहीं चलता। पैर में कांटा चुभ जाए तो पैर का पता चलता है, कांटा न चुभे तो पैर का पता ही नहीं चलता। जहां कोई चीज खटक जाती है, कम हो जाती है, चुभने लगती है तो चर्चा शुरू हो जाती है। जहां कोई चीज पूरी होती है, भरी होती है, फुलफिल्ड होती है, वहां कोई बात नहीं होती। प्रेम की इतनी चर्चा है--मां कह रही है बेटे से कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। सुबह से सांझ तक पति अपनी पत्नी को समझा रहा है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। जरूर प्रेम नहीं है। कुछ चीज खटक रही है उसे हम बातचीत से पूरी कर लेना चाहते हैं। लेकिन बातचीत से कोई चीज पूरी नहीं होती। और यह जिंदगी में सब तरफ चलता है।
परमात्मा के साथ भी यही हुआ है। इतने मंदिर, इतनी मस्जिद, इतनी किताबें, इतने पंडित, इतने पुरोहित, ये सब जीवन में परमात्मा के अभाव की खबरें देते हैं। कोई चीज खटक रही हैै तो मंदिर बना लिया है। कोई चीज खटक रही है तो मस्जिद बना ली है। कोई चीज खटक रही है तो किताब पढ़ रहे हैं। कोई चीज कम मालूम पड़ती है--लेकिन न मंदिर पूरा कर सकते हैं, न मस्जिद पूरी कर सकती हैं, न कोई पंडित, न कोई मौलवी, कोई पूरा नहीं कर सकता है। क्योंकि पूरा बातचीत से नहीं हो सकती है बात। जिंदगी बातचीत नहीं है, जिंदगी एक अनुभव है, अनुभव से पूरी हो सकती है।
यह प्रेम हमारे सामान्य जीवन में ही नहीं है तो परमात्मा की तरफ तो उठने का सवाल ही नहीं उठता। जब हमारे सामान्य जीवन में प्रेम ओवरफ्लो होता है, इस बात को ठीक से समझ लें, जब हमारे जीवन में प्रेम इतना बढ़ जाता है कि न पत्नी सम्हाल पाती है, न बेटा सम्हाल पाता है, न मां सम्हाल पाती है, न बाप सम्हाल पाता है, न मित्र सम्हाल पाते हैं, प्रेम इतना ज्यादा हो जाता है और प्रेम को झेलने वाले इतने कम पड़ जाते हैं कि प्रेम की लहरें फैलने लगती हैं, और जब प्रेम को पृथ्वी भी नहीं सम्हाल पाती, और जब प्रेम को चांद-तारे भी नहीं सम्हाल पाते और प्रेम बढ़ता चला जाता है, तो अंततः जो सम्हाल सकता है प्रेम की अनंतता को वह उपलब्ध हो जाता है। जितना बड़ा हमारा प्रेम उतना बड़ा प्रेम-पात्र मिल जाता है।
लेकिन छोटा ही प्रेम नहीं है, बड़े का तो सवाल ही नहीं। छोटे से शुरू होना चाहिए। और अब तक की मनुष्य की संस्कृति ने एक उलटा खयाल ले लिया है। उसका खयाल है कि छोटे-छोटे प्रेम तोड़ दो, तब तुम परमात्मा को प्रेम कर सकते हो। साधु-संन्यासी बहुत जहरीली बात हजारों साल से आदमी को समझा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि पत्नी को प्रेम छोड़ दो अगर परमात्मा को प्रेम करना है। वे यह कह रहे हैं, बूंद-बूंद पे्रम मत करो अगर सागर को प्रेम करना है। लेकिन यह पता नहीं कि सागर बूंद-बूंद के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
दुनिया की सबसे बड़ी नदी है, अमेजान। लेकिन अमेजान जहां से निकलती है वहां देख कर बड़ा चमत्कार मालूम पड़ता है। सारी दुनिया के साधु-संन्यासियों को--जिंदा को, मुर्दा को--सबको अमेजान के मूलस्रोत पर खड़ा कर देना चाहिए। जहां से अमेजान निकलती है वहां सिर्फ एक-एक बूंद टपकती है। बीस सेकेंड में एक बूंद टपकती है। बीस सेकेंड में एक बूंद गिरती है, फिर बीस सेकेंड तक बूंद का पता नहीं, फिर एक बूंद गिरती है। और उस एक-एक बूंद, बीस-बीस सेकेंड में गिरने वाली बूंद से दुनिया की आज सबसे बड़ी नदी बनती है--अमेजान। उससे बड़ी कोई नदी नहीं। अगर साधु-संन्यासी होते तो वे कहते कि ये बूंद-बूंद से नदी बनी है, बंद करो ये बूंद-बूंद, हमें तो नदी चाहिए। बूंद-बूंद तो बंद हो जाती, लेकिन नदी भी बंद हो जाती है। और नदी के साथ जो प्रेम पत्नी की तरफ है उसको तोड़ कर परमात्मा की तरफ कोई न जा सकता है, न गया है। वह तो पत्नी की तरफ जो बूंद-बूंद है वह जब नदी की तरह हो जाए तो परमात्मा की तरफ जाया जा सकता है। पत्नी की तरफ जो प्रेम है और बड़ा हो जाए, बेटे की तरफ जो प्रेम है वह और बड़ा हो जाए, बाप की तरफ जो प्रेम है वह और बड़ा हो जाए, वह बढ़ता जाए, बढ़ता जाए, और वह इतना हो जाए कि बाप उसे सम्हाल न सके, मां उसे सम्हाल न सके, पत्नी उसे सम्हाल न सके। फिर वह प्रेम और फैलने लगे और फैलने लगे और फैलता चला जाए। जिस दिन प्रेम सब सीमाओं के पार फैल जाता है, असीम हो जाता है, उस दिन वह परमात्मा का द्वार बन जाता है।
लेकिन हम सोचते हैं सब तरफ से प्रेम को रोक लें फिर परमात्मा को प्रेम करें। यह असंभव है। और इस रोकने में परमात्मा तक हम नहीं जाते--वह दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है--जब कोई व्यक्ति प्रेम रोकता है तो अहंकार बढ़ता है। ध्यान रहे, सिर्फ प्रेम ता.ेडता है अहंकार को। जब एक व्यक्ति अपनी मां को प्रेम करता है, तो मां के पास अहंकारी नहीं रह जाता। इसलिए मां के पास जो राहत मिलती है वह किसी के पास नहीं है। मां की गोद में वह सिर रख कर लेट जाता है, हो सकता है जिंदगी में बड़ा सेनापति हो, हो सकता है जिंदगी में बड़ी इज्जत, हजारों-लाखों लोग फूलमालाएं पहनाते हों, लेकिन मां के चरणों में सिर रख कर लेट जाता है, वहां कोई अहंकार नहीं और मां की गोद इतनी शांति देती है। वह मां की गोद की शांति नहीं है, ध्यान रहे, मां कि गोद भी क्या शांति दे सकती है, वह शांति है अहंकार के न होने की। उन क्षणों में वह अहंकार में नहीं है, अकड़ा हुआ नहीं है। मां के सामने अहंकार नहीं रखा है तो शांति मिल रही है।
एक व्यक्ति अपनी प्रेयसी के पास होता है, तो सब अहंकार भूल जाता है। तो उतनी देर एक आनंद का अनुभव होता है। जितना हम प्र्रेम करते हैं उतना अहंकार टूटता है। जितना हम अहंकार तोड़ते हैं उतना प्रेम बढ़ता है। लेकिन अगर किसी ने सब तरफ से प्रेम के द्वार बंद कर दिए, तो आप बूंद-बूंद प्रेम इनकार है। सब तरफ से बंद कर दिए द्वार, तो उस आदमी का अहंकार मजबूत हो जाएगा।
इसलिए संन्यासियों से ज्यादा अहंकारी आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके पास सिर्फ अहंकार रह जाता है--मजबूत, कठोर पत्थर की तरह, क्योंकि सब तरफ से प्रेम तोड़ लिया गया है। लेकिन संन्यासी के भीतर हम जाएं तो ब्रह्म को पाना बहुत मुश्किल है। अहंकार की सख्त, मजबूत, फ्रोजन, पत्थर की प्रतिमा वहां मिलेगी। हां, लेकिन वह भी कह सकता है, अहं-ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। कह सकता है। एक यह अहंकार की घोषणा भी हो सकती है कि मैं ब्रह्म हूं। जिसे यह अनुभव हुआ होगा कि मैं ब्रह्म हूं उसे साथ में यह भी अनुभव हुआ होगा कि मैं नहीं हूं, तभी जो है वह ब्रह्म है। अच्छा हो कि हम कहें कि मैं ब्रह्म हूं, इसकी जगह हम कहें जब मैं नहीं हूं तभी ब्रह्म है।
संन्यासी अहंकार से भर जाता है प्रेम को तोड़ कर, त्यागी अहंकार से भर जाते हैं प्रेम को तोड़ कर। इधर हमने प्रेम तोड़ा उधर अहंकार बढ़ा। और मैं कहता हूंः अहंकार है तो परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं। तो हम जितना प्रेम कर सकें। लेकिन हजारों साल से सिखाया गया है, नश्वर को प्रेम मत करना, नाशवान को प्रेम मत करना, मिटने वाले को प्रेम मत करना। सुबह फूल खिलता है सांझ मुरझा जाता है। पुरानी शिक्षाएं कहती हैं, फूल को प्रेम मत करना, क्योंकि यह तो सुबह खिलता है सांझ मुरझा जाता है। वे कहते हैं, ऐसे फूल को प्रेम करना जो कभी न मुरझाता हो। पत्थर का फूल बनाना पड़ेगा। लेकिन पत्थर का फूल फूल हो सकता है? हां, कभी न मुरझाएगा यह तो पक्का है, क्योंकि कभी वह खिला ही नहीं। जो खिलेगा वह मुरझाएगा। जो नहीं खिला है वह नहीं मुरझाएगा। क्योंकि वह खिला ही नहीं इसलिए कभी मुरझाएगा नहीं। लेकिन पत्थर का फूल फूल होता है? असल में फूल के फूल होने में उसका मुरझा जाना भी रस लाता है। वह मुरझाता है इसीलिए जीवित है। वह मर जाएगा सांझ इसीलिए जिंदा है। वह सुबह पैदा हुआ है इसीलिए सांझ मरेगा। लेकिन हमने कहा नाशवान को प्रेम मत करना। और इस जगत में जो भी दिखाई पड़ता है सब नाशवान है। इस जगत में क्या है जो अविनाशी है, दिखाई तो नहीं पड़ता। सब नाशवान दिखाई पड़ता है। राम भी नाशवान हैं, और कृष्ण भी, और बुद्ध भी, और महावीर भी। नाशवान क्या नहीं है? सुबह फूल खिलता है। अस्सी साल पहले भी बुद्ध खिलते हैं और अस्सी साल बाद मुरझा जाते हैं। इस जगत में क्या है जो नाशवान नहीं है? इस जगत में सभी तो नाशवान मालूम पड़ता है। लेकिन शिक्षाएं कहती हैं नाशवान को प्रेम मत करना, अविनाशी को पे्रम करना। अविनाशी कहां है, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता? वह कहीं मिलता नहीं, उससे कहीं मुलाकात नहीं होती। तो नाशवान से प्रेम मत करना यह तो हो जाता है, लेकिन वह अविनाशी मिलता नहीं है, और इसलिए फिर प्रेम के होने का उपाय बंद हो जाता है।
मैं यह कहना चाहता हंू कि नाशवान को प्रेम करना। और जब कोई नाशवान को प्रेम करता है तो नाशवान अविनाशी हो जाता है। जैसे ही कोई नाशवान को प्रेम की दृष्टि से देखता है तो फिर अविनाशी हो जाता है। असल में सब तरफ अविनाशी है। अगर हमारे पास प्रेम की आंख हो तो फिर कुछ भी नाशवान नहीं। क्योंकि जब फूल कुम्हलाता है तब भी हम जानते हैं कि वही फूल कहीं और खिलना शुरू हो गया होगा। प्रेम की आंख विदा करना जानती ही नहीं। प्रेम की आंख ने कभी किसी को विदा ही नहीं किया है।
रामकृष्ण की मृत्यु हुई। मृत्यु के पहले उनकी पत्नी शारदा बहुत दुखी थी, चिंतित थी। क्योंकि पता हो गया था कि मृत्यु आ रही है। और पता भी बहुत अदभुत ढंग से हुआ। रामकृष्ण को भोजन में बड़ा रस था। इतना रस था कि वे बीच-बीच में ब्रह्मचर्चा छोड़ कर और चैके में पहुंच कर पता लगा आते थे कि क्या बन रहा है? सबको तकलीफ होती थी। शिष्यों को बड़ा दुख होता था कि कैसे संत हो? और लोग क्या कहेंगे? यह एक गलती और छोड़ दें कोई कमी नहीं। शारदा उनकी पत्नी थी कहती थी कि मुझे भी बड़ा संकोच लगता है कि आप ऐसा पूछने चले आते हैं। ब्रह्मज्ञानी, को यह क्या है? और रामकृष्ण हंसते थे। लेकिन एक दिन शारदा ने कहा कि नहीं, अच्छा नहीं मालूम होता कि गांव मे यह चर्चा होती है कि रामकृष्ण भी कोई संत हैं? तो रामकृष्ण ने कहाः तुझे पता नहीं मेरी नौका के सब तार किनारे से छूट गए हैं, एक तार मैंने किसी तरह बांध कर रखा है कि किनारे रुका रहंू, और जिस दिन मैं भोजन की तरफ अरुचि दिखाऊं तो जान लेना कि बस तीन दिन और नौका नदी के तट पर, फिर छूट जाएगी।
एक दिन शारदा लेकर आई है उनके मरने के तीन दिन पहले थाली, वे लेटे थे, वे तो लेटे नहीं रह जाते थे, थाली कोई ले आए तो उठ कर खड़े हो जाते थे, उन्होंने करवट बदल ली, उस तरफ पीठ कर ली। तो शारदा को याद आया, हाथ से थाली छूट कर गिर गई और वह रोने लगी। और रामकृष्ण ने कहाः रो मत, क्योंकि सदा तुमने समझाया है, अब मैं पक्का संत हो गया, अब रो मत, लेकिन बस तीन दिन और। तो वे तीन दिन बड़े कठिनाई के थे। आदमी अचानक मर जाता है तो भी ठीक है, पीछे हम रो लेते हैं, लेकिन मरने का पता चल जाए। तो शारदा बार-बार उनसे कहती कि तुम मर जाओगे, तो वे कहते, कि तुमने मुझे प्रेम किया है, अगर प्रेम किया है तो नहीं मरूंगा। पर वह कहती कि मेरे प्रेम करने से क्या फर्क पड़ेगा? और वे कहते कि अगर तूने प्रेम किया है तो नहीं मरूंगा। और यही हुआ, रामकृष्ण मर गए। जिन्होंने उन्हें प्रेम नहीं किया था उन्होंने देखा कि वे मर गए। क्योंकि प्रेम जिसके पास नहीं है वह शरीर से गहरे नहीं देख पाता। शरीर ही दिखाई पड़ता है आंखों से तो, पे्रम की आंख से और भीतर जो है वह दिखाई पड़नेे लगता है। शरीर तो नाशवान है। भीतर कुछ है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। प्रेम उसको पकड़ लेता है वह जो भीतर है। रोना-पीटना मच गया, लोग आ गए। शारदा से कहने लगे चूड़ियां तोड़ो, पर शारदा ने कहा कि वे तो मरे नहीं। हिंदुस्तान में पहली विधवा है शारदा जिसने चूड़ियां तोड़ने से इंकार कर दिया। चूड़ियां जिंदगी भर नहीं तोड़ीं। माथे का टीका नहीं पोंछा उसने। लोग समझे कि पागल हो गई। असल में प्रेम करने वालेे को पागल ही लोग समझते हैं। लोग समझे की पागल हो गई है। सदमें में पागल हो गई, लेकिन उसकी आंख में आंसू न आया। और रोज रात वह जहां रामकृष्ण सोते वहां बिस्तर कर देती और कहती कि परमहंस प्रकाश बुझा दूं। लोग समझे कि बिलकुल अब तो पागल हो गई। खाने के वक्त कहती कि चलें भोजन तैयार हो गया। आज बीच में आए नहीं देखने। लोग समझे कि पागल हो गई।
लेकिन प्रेमी सदा से पागल रहा है। तय करना मुश्किल है अभी कि प्रेमी पागल होते हैं कि वे जो प्रेमियों को पागल समझते हैं वे पागल होते हैं। असल में गैर-प्रेमियों की संख्या इतनी ज्यादा है कि अभी तय करना बहुत मुश्किल है। लेकिन पृथ्वी पर अगर प्रेमियों की संख्या बढ़ जाएगी तो जो प्रेम नहीं कर पाएगा उसे हम पागल समझेंगे। वह पागल है। क्योंकि जो प्रेम नहीं कर पाता वह अहंकार में जीता है। और अहंकार में जो जीता है वह विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है।
यह मैं यह कह रहा हूूं कि नाशवान को प्रेम मत करना यह शिक्षा हमें परमात्मा तक जाने में बाधा डालती है। क्योंकि नाशवान ही चारों तरफ दिखाई पड़ता है। अविनाशी तो दिखाई नहीं पड़ता। वह उसे दिखाई पड़ेगा जो नाशवान कोे प्रेम करेगा, जो उसमें गहरे उतर जाएगा, उसे अविनाशी दिखाई पड़ जाएगा। अविनाशी को देखने का रास्ता ही जो है उसे प्रेम करना है। लेकिन हमने जो तरकीब जुटाई वह यह थी कि विनाशी को प्रेम मत करो, नाशवान को प्रेम मत करो, नश्वर को प्रेम मत करो, क्षणभंगुर को प्रेम मत करो।
आज दोपहर ही कोई मुझसे पूछ रहा था, तो मैंने उससे एक घटना कही। जापान में एक फकीर हुआ, रिंझाई। उसका गुरु मर गया है। और वह रिंझाई बहुत प्रसिद्ध फकीर था, लाखों लोग उसे पूजते थे। उसके गुरु की भी इज्जत रिंझाई के कारण ही थी। जब गुरु मरा तो लाखों लोग आए। और रिंझाई को देखा तो वह छाती पीट-पीट कररो रहा और बेहाल हुए जा रहा है, आंसू बहे जा रहे हैं। तो मित्रों ने कहा यह क्या करते हो, रोते हो, लोग क्या कहेंगे? लोग आ गए हैं, बंद करो रोना। हम तो तुम्हें ब्रह्मज्ञानी समझते हैं और ब्रह्मज्ञानी रोए तो लोगों पर क्या असर पड़ेगा? और तुम्हीं तो समझाते थे कि आत्मा अमर है। अब रोते क्यों हो? जब आत्मा अमर है तो रो क्यों रहे हो? गुरु मरे तो नहीं। तो रिंझाई हंसने लगा। आंख से आंसू भी बहते रहे और उसे हंसी भी आ गई। वह बहुत हंसने लगा, उसने कहाः नहीं, जो आत्मा अमर है उसके लिए नहीं रो रहा हूं, लेकिन वह जो शरीर मर गया है वह भी बहुत प्यारा था, उसके लिए रो रहा हूं। और इसलिए भी रो रहा हूं कि इस प्यारे शरीर के कारण ही वह आत्मा इस पृथ्वी पर उतर सकी थी। यह वाहन था, माध्यम था, द्वार था, यह शरीर द्वार था जहां से हमने उस अमृत को झांका। खिड़की थी, यह विंडो थी। आज वह पीछे का यात्री तो चला गया है और यह कीर्ति, यह द्वार भी टूट कर गिर पड़ा है, मैं इस द्वार के लिए रो रहा हूं। क्योंकि इस द्वार के बिना हम उस अमृत आत्मा को देख भी कैसे पाते। तो क्या इतना भी धन्यवाद न दूं? और फिर वह कहने लगाः अगर लोग मुझे अज्ञानी समझते हों तो क्या वे मुझे ज्ञानी समझें इसलिए मैं अपने आंसुओं को रोक लूं?
असल में बहुत से ज्ञानी इसी तरह ज्ञानी बने हुए हैं कि लोग क्या समझते हैं इस पर वे ज्ञानी बने हुए हैं। लोगों की समझ उनके ज्ञान को तय कर रही है। अगर लोग समझते हैं कि मुंह पर पट्टी बांधना ज्ञान है, तो बेचारे मुंह पर पट्टी बांधे बैठे हुए हैं। और कई मुंह पर पट्टी बांधे लोग मुझे मिलते हैं, उनसे मैं पूछता हूं कि यह क्या पागलपन है? वे कहते हैं कि अगर हम इसे अलग कर दें तो लोग हमें साधु ही न समझेें। साधुओं के भी लेबल, डेफिनेशंस! कोई गेरुआ वस्त्र इसलिए पहने हुए है कि गेरुआ वस्त्र न पहने तो लोग साधु ही न समझें। कोई इसलिए यह कर रहा है, कोई इसलिए वह कर रहा है कि ऐसा न करें तो लोग कहीं यह न समझेें। लेकिन ध्यान रहे, कि जो आदमी लोगों पर नजर रखे हुए है कि लोगों की समझ से तय होगा कि मैं साधु हूं, वह आदमी साधु नहीं है। क्योंकि जो साधु है, वह है, लोगों की समझ से संबंध नहीं है इस बात का कि लोग क्या समझेंगे। लोगों की नजर को देख कर जो अपना व्यवहार कर रहा है वह किसी नाटक में लगा हो सकता है, अभिनय में, लेकिन साधु नहीं। ये जो शिक्षाएं हमें दी गई हैं, उन शिक्षाओं ने हमें जड़ किया है, पाखंडी, हिपोक्रेट बनाया है, लेकिन प्रेमी नहीं बना पाई। नाशवान को प्रेम करना पड़ेगा ताकि अविनाशी की खोज हो सके।
तो जब मैं कहता हूं कि प्रेम है परमात्मा, तो मैं यह कहता हूं कि प्रेम है द्वार जिससे हम जान पाएंगे परमात्मा को। लेकिन किसको प्रेम करें? कुछ लोग हैं वे कहते हैं मनुष्यता को प्रेम करते हैं। मनुष्यता को प्रेम करने वाले लोग बहुत बेईमान हैं। बेईमान इसलिए कि मनुष्य को प्रेम नहीं करते वे मनुष्यता को प्रेम करते हैं। मनुष्यता कहीं है नहीं। मनुष्यता को कहीं खोजा नहीं गया आज तक, कहीं जाए खोजने तो कहीं मिलेगी ही नहीं, जब भी मिलेगा मनुष्य मिलेगा, जहां भी मिलेगा मनुष्य मिलेगा, ठोस, बेहाल। मुनष्यता तो कहीं भी न मिलेगी।
तो जिन लोगों को प्रेम से बचना है उनकी बहुत बढ़िया तरकीब यह है कि वे कहें, हम तो मनुष्यता को प्रेम करते हैं। मनुष्य को हम प्रेम नहीं करते, हम मनुष्यता को प्रेम करते हैं। जिन लोगों को प्रेम से बचना है, तो वे कहते हैं, हम प्रकृति से प्रेम नहीं करते, हम तो परमात्मा से प्रेम करते हैं। लेकिन जहां भी जाओ मिलेगी प्रकृति, परमात्मा नहीं। चाहे हिमालय पर जाओ और चाहे तिब्बत जाओ और चाहे कहीं जंगल और तीर्थ जाओ मिलेगी प्रकृति, परमात्मा नहीं। जो मिलती है वह सदा प्रकृति है। जो मिलता है वह सदा मनुष्य है। लेकिन हमने एब्स्ट्रेक्ट हवाई बातें निकाल ली हैं जो कहीं भी नहीं हैं और उनको हम प्रेम कर रहे हैं।
इसका यह परिणाम हुआ है कि एक आदमी मंदिर भागा चला जा रहा है हाथ में थाली लिए हुए भगवान को प्रसाद लगाने जा रहा है और बगल में एक भगवान भूखा मर रहा है, वह उसकी तरफ देखता भी नहीं, वह भागा चला जा रहा है, वह भगवान को प्रेम करता है। यह तो आदमी था नाशवान, यह तो मर ही जाएगा, वह तो पत्थर की मूर्ति को प्रेम करता है जो कभी नहीं मरती, उसको भोग लगाने जा रहा है। अगर दुनिया कभी समझदार होगी तो इन सबकी गिनती पागलों में नहीं तो किनमें होगी कि जो पत्थर की मूर्ति को भोजन दिए चले जा रहे हैं और एक जिंदा आदमी मर रहा है।
एकनाथ लौटते थे रामेश्वरम की तरफ, और कुछ उनके साथ थे, वे तीर्थयात्रा को गए थे, एकनाथ भी गए थे। लौट रहे हैं काशी से पानी लेकर रामेश्वरम के भगवान को चढ़ाने। एक वन, एक मरुस्थल, लंबी यात्रा है, और एक गहरे सूखे मरुस्थल में जहां दोपहर सूरज तप रहा है और रेत ही रेत है कहीं पानी नहीं है, एक प्यासा गधा तड़प रहा है। अब गधा जो है वह बिलकुल गैर-आध्यात्मिक प्राणी मालूम पड़ता है। गधे को कौन स्प्रिचुअल माने? गधे को कौन आध्यात्मिक मान सकता है? आदमी को ही नहीं मानते लोग तो गधे को कौन मानेगा? वह तड़फता रहा। पानी सबके पास है। गंगा का जल सबके पास है। लेकिन वे जा रहे हैं रामेश्वरम के पत्थर पर पानी चढ़ाने। वे सब मुंह फेर लेते हैं उस गधे को मरते देख कर; लेकिन एकनाथ रुक जाते हैं और अपने कमंडल से पानी उस गधे को पिलाने लगते हैं। सारे लोग चिल्लाते हैं कि यह क्या कर रहे हो, पाप, जो पानी भगवान के लिए लाए हो वह गधे को पिला रहे हो? एकनाथ कहते हैं कि भगवान यहां प्यासा तड़प रहा हो, तो मेरा तीर्थ तो पूरा हो गया, मैं वापस लौट जाता हूं। मेरी प्रार्थना तो सुन ली गई। वह जो रामेश्वरम में बैठा है वह यहीं आ गया है। और वे कहते हैं कि पागल तो नहीं हो गए हो, एक गधे को भगवान कह रहा हो? वे एकनाथ को भी समझा गए कि यह भ्रष्ट हुआ, पागल हुआ। अपनी तीर्थ यात्रा पर निकल गए।
भगवान को प्रेम करने वाला आदमी को कैसे प्रेम करे? आदमियत को प्रेम करने वाला आदमी को कैसे प्रेम करे? अविनाशी को प्रेम करने वाला नाशवान को कैसे प्रेम करे? परमात्मा को प्रेम करने वाला प्रकृति को कैसे प्रेम करे? नहीं, सौंदर्य को प्रेम करने वाला फूल को कैसे प्रेम करे? वह तो कहता है हम सौंदर्य को प्रेम करते हैं हालांकि सौंदर्य कहीं नहीं मिलता। कहीं कोई चेहरा मिलता है, कहीं कोई फूल मिलता है, कहीं कोई आंखें मिलती हैं, सौंदर्य कहीं नहीं मिलता। अब तक तो नहीं मिला। आदमी हजारों साल से खोज रहा है सौंदर्य तो कहीं नहीं मिला; जब भी मिलता है सुंदर मिलता है, सौंदर्य नहीं मिलता। लेकिन सौंदर्य को प्रेम करने वाले लोग, तो वे कहते हैं कि आदमी को क्या प्रेम कर रहे हो, सौंदर्य को प्रेम करो। फूल को क्या प्रेम कर रहे हो, सौंदर्य को प्रेम करो। उनकी लफ्फाजी, उनकी फरेबबाजी आदमी को बहुत दिन से परेशान किए हुए है। नहीं, सुंदर को प्रेम करना पड़ेगा। और अगर सुंदर को प्रेम किया जाता है तो सौंदर्य मिल जाता है। प्रेम करना पड़ेगा पदार्थ को, प्रकृति को, वह जो है चारों तरफ उसको। जब उसको प्रेम किया जाता है तो उसमें जो छिपा है वह मिल जाता है।
लेकिन हमने एक आकाश में भगवान बिठा रखा है। अब जरा मुश्किल पड़ेगी उस आकाश के भगवान को, क्योंकि ये आर्मस्ट्रांग और उनके साथी मानते ही नहीं। वे आकाश में खोजने यात्रा पर निकल पड़े हैं। पहले हिमालय पर रहता था, और पहले बिलकुल छोटी-छोटी पहाड़ियों पर रहता था, लेकिन आज वह पहाड़ियों पर चढ़ गया, उसने कहा कि कहां है तुम्हारा भगवान? तब भगवान का डेरा हमें हटाना पड़ा और ऊपर रख दिया हिमालय पर। जब आदमी हिमालय पर भी चला गया, फिर हमने उसे ऐसे तख्त पर रखा हुआ है कि जहां चढ़ने की मनाही कर दी थी। लेकिन वहां भी आदमी भी चढ़ गया। तो वह कहीं मिला नहीं। फिर उसको चांद-तारों पर बैठा दिया। अब बड़ी मुश्किल में है भगवान। अब चांद-तारों पर आदमी पहुंचा जा रहा है। वहां भी नहीं पाएगा। फिर क्या होगा? नहीं, यह भगवान नहीं है मुसीबत में, यह हमारा भगवान मुसीबत में है, झूठा है जो हमने कल्पित किया हुआ है। भगवान तो यहीं सब तरफ मौजूद है, उसे चांद-तारों और एवरेस्ट की चोटी पर रखने की जरूरत नहीं।
मैंने सुनी है एक कहानी कि जब भगवान ने सारी दुनिया बनाई और आदमी बनाया, तो आदमी को बना कर वह बड़ी मुसीबत में पड़ गया। पड़ ही गया होगा। आदमी को देख कर भरोसा आता है कि कहानी सच्ची होनी चाहिए। क्योंकि जब तक आदमी नहीं बनाया था तब तक तो सब ठीक था, आदमी बनाया तो मुसीबत शुरू हो गई। कभी आदमी घिराव कर देता, कभी हड़ताल कर देता, कभी सत्याग्रह की धमकी दे देता, कभी कुछ करता, कभी कुछ करता। भगवान ने देवताओं को बुलाया और उनसे कहा कि एक प्रार्थना है, कोई तरकीब निकालो, मैं आदमी से बचना चाहता हूं। यह आदमी तो मुझे मुश्किल में डाल देगा। यह तो चैबीस घंटे, शिकायतों का हिसाब नहीं, अंत ही नहीं शिकायतों का। और मैं एक की शिकायत पूरी करूं तो पचास की शिकायत खड़ी हो जाती है। यह तो बहुत मुश्किल है, यह कैसे होगा? मुझे बचाओ, मैं कहां छिप जाऊं?
किसी ने कहा एवरेस्ट पर छिप जाएं, गौरीशंकर पर चले जाएं। भगवान ने कहा कि तुम्हें पता नहीं बहुत जल्दी एक आदमी होगा तेनजिंग, हिलेरी, वे चढ़ जाएंगे ऊपर, फिर क्या होगा? और ज्यादा देर नहीं है, बहुत ही कम समय है, वे जल्दी ही चढ़ जाएंगे। तो किसी ने कहा चांद पर चले जाओ। तो उसने कहाः तुम्हें पता नहीं है कि आर्मस्ट्रांग वहां पहुंचने की तैयारी कर रहा है। बहुत तरकीबें बताईं, लेकिन उसने कहा कि आदमी सब जगह पहुंच जाएगा। तो फिर एक बूढ़े आदमी ने, एक बूढ़े देवता ने उसके कान में कहा, कि तुम एक काम करो, आदमी में ही छिप जाओ। और भगवान ने कहाः ठीक! यह बात जंचती है, वहां आदमी कभी नहीं पहुुंचेगा। वह वहीं छिप गया, वह वहीं बैठा हुआ है छिप कर। वह सबमें छिप गया है। अलग जगह खोजता तो पकड़ में आ जाता, वह सबमें छिप गया है, जैसे नमक पानी में छिपा है सागर के। तो कहीं से भी चखें, वह सागर का पानी नमकीन है। ऐसे ही परमात्मा छिपा है सबमें। कहीं से भी प्रेम करें, कहीं से भी चखें, सब जगह मिल जाता है। लेकिन प्रेम उसके चखने का रास्ता है। कहीं से तो शुरू करें।
लेकिन नाशवान, नाशवान सब तरफ घिरा है, शुरू कैसे करें? ऐसी है हमारी हालत जैसे कोई आदमी हमसे कह दे कि लहरों को कभी प्रेम मत करना सागर को प्रेम करना। और लहर ही लहर दिखाई पड़ती हैं, सागर दिखाई नहीं पड़ता, हम मुश्किल में पड़ जाएं, हम दिक्कत में पड़ जाएं, हम लहर को प्रेम न करें और सागर को प्रेम करें, वह सागर दिखता नहीं लहर ही लहर दिखाई पड़ती है। हां, कोई लहर को प्रेम करे और लहर में डूब जाए तो सागर में पहुंच जाता है। लेकिन उसके लिए तो डूबना पड़ेगा। और लहर के अतिरिक्त डूबने का कोई रास्ता नहीं है। लहर से मिलना ही पड़ेगा।
जब मैं कहता हूंः प्रेम, तो मेरा मतलब प्रेम किसी हवाई कल्पना से नहीं है; मेरा मतलब है, प्रेम हमारे सामने जो भी मौजूद है उससे। लेकिन कैसे हम प्रेम करें? पहली शर्त और सबसे बड़ी शर्त यह है कि हमें मिटना पड़े जब भी हम प्रेम करने जाएं, हमें अपने को खोना पड़े।
जीसस का एक वचन है बहुत अदभुत। जीसस ने कहा हैः जो अपनेे को बचाएगा वह मिट जाएगा। और जो अपने को मिटा देता है वह अपने को बचा लेता है। उलटी बात लगती है। कहते हैं, जो अपनेे को मिटाएगा वह बच जाएगा और जो अपने को बचाएगा वह मिट जाएगा। वे ठीक कहते हैं, अगर मैंने अपने मैं को बचाया तो मैं मिटा, क्योंकि मैं एक झूठ है, उसके साथ बचना नहीं आ सकता। और अगर मैंने अपने मैं को बिखेर दिया, नहीं बचाया, तो मैं बच जाऊंगा, क्योंकि मैं के अलावा मेरे भीतर मिटने वाली और कोई भी चीज नहीं है जो मिट जाए। पर इस मैं को हम कैसे मिटाएं? असल में मिटाने की भाषा भी खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि हम अगर मैं को मिटाने जाएं तो भी मन में यह होता है कि मैं मिटा रहा हूं, तो वह मजबूत होता है।
एक आदमी हमारे पास आता है और कहता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके पैर की धूल हूं, लेकिन जरा उसकी आंखों में देखें, जब वह कह रहा है मैं कुछ भी नहीं हूं, तब भी वह कह रहा है कि मैं कुछ हूं। जब एक आदमी कहता है कि मैं बिलकुल विनम्र हंू, मुझसे ज्यादा विनम्र कोई भी नहीं, तब जरा उसके चेहरे की रौनक को देखें, तो वह यह कह रहा है कि अपने से आगे कोई भी नहीं, इस मामले में सबसे आगे मैं ही हूं। अगर उसको कह दें कि तुमसे भी ज्यादा विनम्र आदमी गांव में आ गया है, तो वह जरा दुखी हो जाता है। और वह पता लगा कर आता है, गलत कहते थे आप, मैंने उस आदमी का पता लगाया वह इतना विनम्र नहीं है जितना मैं हूं।
अगर हम मैं को मिटाने में भी लगें तो भी मैं मजबूत हो जाता है। तो मैं को मिटाने में नहीं लगा जा सकता। असल बात यह है कि जो नहीं है उसे मिटाएंगे कैसे?
अगर हम अंधेरे को मिटाने में लग जाएं तो कभी न मिटा पाएंगे। अंधेरा है ही नहीं, मिटाएंगे कैसे? अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। अंधेरे के साथ कुछ करना हो, तो रोशनी के साथ कुछ करना पड़ता है। हमें वही उलटा रास्ता चुनना पड़ता है। अगर अंधेरे को मिटाना है तो दीये को जलाओ। अगर अंधेरे को लाना है तो दीये को बुझाओ। अंधेरे के साथ सीधा कुछ किया ही नहीं जा सकता। नहीं तो आप, किसी से दुश्मनी हो जाए तो सब मित्र मिल कर और उसके घर में अंधेरा डाल आएं तो नहीं होगा। अंधेरा नहीं डाल सकते किसी के घर में। और यहां अंधेरा हो जाए और हम सारे लोग ताकत लगाएं तो भी अंधेरा इस पंडाल के बाहर निकाल नहीं सकते। और उससे यह भ्रम भी पैदा हो सकता है, देखिए तर्क कैसे भ्रम पैदा कर देता है, उससे यह भी भ्रम पैदा हो सकता है कि अंधेरा बहुत ताकतवर है। हम लोग पूरी ताकत लगा रहे हैं और वह नहीं निकलता। ठीक ही लगता है तर्क की भाषा में। अंधेरा ताकतवर है क्योंकि हम इतनी ताकत लगा रहे हैं फिर भी नहीं निकलता। लेकिन अंधेरा ताकतवर नहीं है, असल में अंधेरा है ही नहीं, इसलिए कितनी भी ताकत लगाएं वह नहीं निकलेगा। जो नहीं है उसे निकाला नहीं जा सकता।
अभाव को मिटाना असंभव है। जो है उसे निकाला भी जा सकता है, जो नहीं है उसे कैसे निकालिएगा? अहंकार को इसलिए जो लोग निकालने में लग जाते हैं, सुन कर, समझ कर कि अहंकार बाधा है, तो उठा कर अहंकार को मिटा कर रहेंगे। और जब वे कहते हैं, मिटा कर रहेेंगे, तब भी अहंकार पीछे हंसता है, वह कहता है, ठीक है, मिटाओ, अब हम इसी में मजा लेंगे, अब हम इसी से मजबूत हो जाएंगे कि मिटाने में लगे, अब हम मिटा कर रहेंगे।
एक सम्राट को खबर मिली है कि उसका एक मित्र, एक फकीर गांव में आ रहा है राजधानी में। तो उसने सुना, साथ पढ़े थे वे दोनों, सोचा की नग्न फकीर है, दूर तक उसकी ख्याति है, उसका स्वागत करें। उसने सारे द्वारों को फूलों से सजा दिया और दीये जलवा दिए और इत्र छिड़कवा दिया और रास्ते सुंदर कर दिए। दीवाली मनवा दी। फकीर आ रहा था नग्न। रास्ते मेें यात्रियों ने उसे खबर दी कि कुछ पता है वह तुम्हारा मित्र है बचपन का सम्राट, वह तुम्हें हतप्रभ करना चाहता है, वह तुम्हें दिखाना चाहता है कि तुम क्या हो एक नंगे फकीर ही न, और एक हम हैं रास्तों पर इत्र बिछवा दिया है लाखों रुपयेे का। एक हम हैं कि दीये जलवा दिए हैं पूरे नगर में। एक हम हैं कि सारे नगर को सजा दिया है स्वर्गपुरी सा। और तुम क्या हो एक नंगे फकीर ही न? वह इतनी रौनक सजा कर तुमको हतप्रभ करना चाहता है।
उस फकीर ने कहाः घबड़ाओ मत, देख लेंगे। नंगा फकीर था, कुछ पास न था। यात्रियों ने सोचा कैसे देखेगा? क्योंकि देखने का, दिखाने को कुछ पास मालूम नहीं पड़ता। कपड़े भी नहीं हैं, ताकत भी नहीं है, एक पैसा पास नहीं है, बिलकुल नंगा फकीर है। पर वे यात्री गौर से अगर देखते उसकी आंख में तो वे पहचान लेते कि वह दिखा देगा। क्योंकि उसकी आंखों में वह अहंकार था। दिन आ गया, स्वागत की तैयारी हो गई, गांव के बाहर बड़ा द्वार बना। सम्राट अपने मित्रों को लेकर वहां हाजिर है। फकीर आया, देख कर सम्राट हैरान हुआ, मित्र भी चकित हुए। घुटने तक उसके पैर कीचड़ से भरे हैं। इरानी कालीन बिछाए गए हैं महल तक उसके रास्ते पर। वह बहुमूल्य लाखों के कालीनों पर कीचड़ भरे पैरों से अकड़ कर चलने लगा। सम्राट ने रास्ते में कुछ न कहा। महल में पहुंच कर उसने कहा कि प्रतीत होता है रास्ते में कोई तकलीफ हुई है? लेकिन रास्ते सूखे पड़े हैं, पानी का कोई पता नहीं, वर्षा का मौसम नहीं, इतने पैर कैसे कीचड़ में सन गए होंगे? गड्ढा था कोई, गिर गए आप, चोट लगी? उसने कहाः न कोई गड्ढा था, न कोई चोट लगी, लेकिन तुम क्या समझते हो अपने को? अगर तुम इरानी कालीन बिछा कर अपनी शान बताना चाहते हो तो हम भी फकीर हैं, हम कीचड़ भरे पैरों से चल कर दिखा सकते हैं।
उस सम्राट ने उस फकीर को गले लगा लिया और उसने कहाः मैं तो समझता था तुम बदल गए होओगे, लेकिन कुछ भी बदला नहीं। हम सब वहीं हैं जहां थे। मैं तो बड़ा सोचता था कि तुम बदल गए होओगे। मैं तो बड़ा मन में दीन-हीन हो रहा था कि हम अहंकारी और कहां एक विनम्र साधु है? हम तो सोचते थे कहां अहंकार की दुर्गंध और कहां तुम्हारे जीवन की सुगंध? लेकिन नहीं, आओ गले मिल लें, कुछ बदला नहीं, सब वही है।
अब मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह सम्राट उस फकीर से ज्यादा विनम्र था। उसने कहा कि हम अहंकारी! अहंकार की दुर्गंध! और वह फकीर ज्यादा अहंकारी था। क्योंकि त्याग की सुगंध, साधु होने का दंभ! साधु होने का दंभ सिवाय असाधुओं के और किसको हो सकता है? लेकिन यह पीड़ा कि मैं अहंकारी हूं बहुत मूल्यवान है। इसलिए मैं नहीं कहता हंू कि आप मिटाने निकल जाएं अहंकार को। मिटाने मत निकलना अन्यथा वह नहीं मिलेगा। अहंकार को समझने निकलना पड़ेगा, मिटाने नहीं। और जो समझ लेता है उसका मिट जाता है। मिटाना नहीं पड़ता। क्योंकि जैसे ही हम समझते हैं हम पाते हैं कि अहंकार कोई चीज नहीं है। कोई स्थेटिक एनटाइटी नहीं है।
जैसे एक आदमी साइकिल चला रहा है। अब साइकिल को अगर चलाना है तो पूरे समय पैडल चलाना पड़ता है। आपका पैडल रुका उधर थोड़ी देर में साइकिल रुकी। ऐसा नहीं है कि आप घंटे भर साइकिल चला चुके हैं तो अब घंटे भर आराम कर लें। साइकिल चलती है चलाते रहने से। अनवरत साइकिल का चलना अनवरत क्रिया है। अहंकार का पैदा होना अनवरत क्रिया है। अहंकार को चैबीस घंटे पैदा करना पड़ता है, तब वह रहता है। और अगर आपको समझ में आ गया हो कि मैं इस-इस तरह पैदा करता हूं, इस-इस तरह पैदा करता हूं, और आपका पैडल रुक गया, तो वह विदा हो जाता है। वह कोई एनटाइटी नहीं है। वह कोई ऐसी चीज नहीं है। अहंकार कोई वस्तु नहीं है, प्रक्रिया है, प्रोसेेस है। कोई पदार्थ नहीं है कि कहीं रखा है कि हम लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जाएं और उसको मिटा डालें। वह कोई पदार्थ नहीं है, वह एक प्रक्रिया है जो चैबीस घंटे पैदा हो रही है।
अहंकार जीने का एक ढंग है और प्रेम भी जीने का एक ढंग है। न तो प्रेम कहीं रखा है कि हम जाएं और भर लाएं और तिजोरियां भर लें और न अहंकार कहीं रखा है कि आग लगा दें और मिटा दें। अहंकार जीने का एक ढंग है, चैबीस घंटे उसे हमें पैदा करना पड़ता है। और प्रेम भी जीने का एक ढंग हैै, चैबीस घंटे हमें उसे भी सृजन करना पड़ता है। मेरी बात का मतलब यह है कि अहंकार को जब कोई समझने जाता है तो वह देखता है कि जब वह रास्ते पर चल रहा है तब भी अहंकार पैदा कर रहा है।
आपने कभी खयाल किया है कि आप अपने बाथरूम में दूसरे आदमी होते हैं और बैठकखाने में दूसरे आदमी हो जाते हैं। अब बाथरूम से बैठकखाने तक आने में बीच में कहां वह घटना घटती है जब आप बदल जाते हैं? बाथरूम में आप बिलकुल और आदमी होते हैं, बच्चे की तरह सरल, हो सकता है कभी आईने में मुंह भी बिचकाते हो। बूढ़ा आदमी भी बिचकाता है। लेकिन बाथरूम में? बाहर तो मुंह बिचकाते बच्चे को वह अकल देता है कि क्या कर रहे हो? क्या बचपना कर रहे हो? लेकिन बाथरूम से बैठकखाने तक आने में कौन सी जगह वह जगह है जहां अहंकार पैडल भर लेता है और अकड़ कर बैठ जाता है आकर बैठकखाने में।
रास्ते पर आप जा रहे हैं, सुनसान रास्ता है, कोई नहीं है, आप दूसरे आदमी होते हैं। और फिर दो आदमी निकल आए पास की गली से, आप फौरन बदल कर दूसरे आदमी हो जाते हैं। आपकी चाल बदल जाती है, आंख बदल जाती है, रौब बदल जाता है, ढंग बदल जाता है। अभी आप निशिं्चत चले जा रहे थे। अहंकार नहीं था, पैडल नहीं लगा रहे थे आप। क्योंकि जब कोई मौजूद न था तो पैडल लगाने की जरूरत क्या थी? आप अकेले थे तो किसको अहंकार दिखाना था? लेकिन दो आदमी निकल आए, आप बदल गए, आप और हो गए।
इसको पहचानना पड़ेगा, अहंकार को चैबीस घंटे पहचानना पड़ेगा, कहां-कहां हम उसे पैदा करते हैं? कैसे-कैसे उसे पैदा करते हैं? और अगर यह पहचान हमारी आ जाए तो फिर सड़क पर आप चलेंगे और पहचान पाएंगे कि ठीक इस क्षण में सब बदल गया। वे दो आदमी आए और सब गड़बड़ हो गई। यहां कुछ और तरह का आदमी आ गया है, मैं कुछ और हो गया। आप जब अपने मालिक के सामने होते हैं तब आपने देखा आप और होते हैं, जब नौकर के सामने होते हैं तब और होते हैं। यानी यहां तक हालत हो सकती है कि मालिक इस तरफ खड़ा है और नौकर उस तरफ खड़ा है, तो आपकी यह आंख और होती है और यह आंख और होती है। इधर मालिक खड़ा है तो यह आंख पूंछ हिलाती रहती है, इधर नौकर खड़ा है तो यह आंख दबाती रहती है, धमकाती रहती है।
आदमी अहंकार को चैबीस घंटे पैदा कर रहा है, उसे पहचानना पड़ेगा, उसकी खोज करनी पड़ेगी, उसका पीछा करना पड़ेगा कि वह कहां-कहां पैदा होता है? और कुछ नहीं करना सिर्फ उसकी खोज करनी है, वह कहां-कहां पैदा होता है? एक-एक गेस्चर में, एक-एक इशारे में वह पैदा हो जाता है। जरूरी नहीं है कि गेस्चर, इशारा हाथ जोड़ कर हम खड़े हों तो उसमें पैदा न हो जाए।
मंदिर में आदमी जब अकेला हाथ जोड़ कर खड़ा होता है तब भी थोड़ी बची हुई आंखों से दोनों तरफ देख लेता है कि कोई देख रहा है कि नहीं? कभी चार लोग देख लें और गांव में खबर कर दें कि यह आदमी धार्मिक है, नहीं तो बेकार मेहनत हो जाती है।
टाल्सटाय ने अपना एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि एक दिन सुबह मैं पांच बजे अंधेरे में चर्च पहुंच गया। अंधेरा था कोई दिखाई नहीं पड़ता था। लेकिन आवाज सुनाई पड़ती थी, तो मैं भीतर चला गया। भीतर गया तो देखा कि गांव का जो सबसे बड़ा धनपति है वह हाथ जोड़ कर भगवान से कह रहा है, कि मैंने बड़े पाप किए हैं मुझे माफ कर, मैंने बड़े अन्याय किए हैं मुझे माफ कर। मैं महापापी हूं पिता, मुझे क्षमा कर। टाल्सटाय और पास सरक गया, क्योंकि उस आदमी की तो बड़ी ख्याति थी कि चरित्रवान है और वह आदमी खुद कह रहा हैै मैं महापापी हूं। वह और पास सरक गया। देख लें कि वही है न, देखा पास जाकर वही है। उस आदमी ने भी चैंक कर पीछे देखा, उसने कहा, कौन है? टाल्सटाय ने कहा कि मैं टाल्सटाय हूं। आश्चर्य! मैं तो सोचता था आप बड़े चरित्रवान हैं। उसने कहाः मैं हूं। कौन कहता है कि मैं चरित्रवान नहीं हूं? उसने कहा कि अभी आप कह रहे थे कि मैं महापापी हूं। तो उसने कहा कि वह परमात्मा से कह रहा था, तुमसे नहीं। और ध्यान रहे, अगर बाजार में किसी से जाकर कहा तो मानहानि का मुकदमा चलवा दूंगा। पर टाल्सटाय ने कहाः अभी तो आप कहते थे कि मैंने बड़े पाप किए हैं। उसने कहा कि कहता था, लेकिन तुमसे नहीं, वह हमारे और भगवान के बीच की बात है, वह किसी और की बात नहीं है। और ध्यान रहे, किसी को कहना मत बस्ती में जाकर। टाल्सटाय ने कहाः लेकिन कैसा मजा है, आप दो-दो तरह की बातेें करते हैं--भगवान से एक तरह की और हमसे दूसरी तरह की।
टाल्सटाय ने लिखा हैः मैं समझ न पाया, क्या बात है। बात तो साफ है। टाल्सटाय के मौजूद होते ही अहंकार खड़ा हो गया पैडल मारने को। अब यह एक आदमी खड़ा हुआ सुन रहा है, यह बाजार में जाकर खबर कर देगा लोगों को कि यह आदमी अपने मुंह से कह रहा था कि मैं पापी हूं। भगवान से बात चल रही थी क्योंकि वह पापी जो कह रहा है भगवान से, तोे वह भी जानता है। कहां भगवान? कैसा भगवान? सब बातचीत है। अगर भगवान भी मिल जाए, उसके सामने खड़ा हो जाए और निकल आए चर्च के बाहर और कहे कि ठीक, समझ लिया, तो वह उससे भी कहेगा कि ध्यान रखना यह बात प्राइवेट थी। यह बात नहीं थी, इसलिए किसी और से मत कह देना, नहीं तो मानहानि का मुकदमा चला दूंगा। यह तो प्राइवेट बात थी जो आपस में कर रहे थे, किसी को कहने की बात नहीं है। वह तो भगवान कभी निकलता नहीं इसलिए कोई झंझट नहीं। आप घर में भी किसी से यह कहते रहते हैं कि मैंने यह पाप किया है, मैंने वह पाप किया है। और यह कह कर भी अहंकार को मजबूत करते रहते हैं कि देखोे मैं कितना सरल आदमी हूं जो सब पापों को कह रहा हूं। अभी तो मनोवैज्ञानिकों ने एक खोज की है जो बहुत हैरान करने वाली है।
रूसो ने एक आत्म-कथा लिखी है। उसके पहलेे संत अगस्तीन ने कनफेसंस नाम से अपनी आत्म-कथा लिखी है। गांधीजी ने अपनी आत्म-कथा लिखी है। इधर कोई दो-तीन सौ वर्षों में कुछ लोगों ने ऐसी आत्म-कथाएं लिखी हैं जिसमें उन्होंने अपने पापों, अपनी गलतियों, अपनी बुराइयों का जिक्र किया है। अभी मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि इनमें कई पाप झूठे हैं जो उन्होंने किए नहीं सिर्फ लिखे हैं। बड़ी हैरानी की बात है! कोई आदमी पाप भी झूठे लिखेगा जो उसने किए नहीं? मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उसमें भी एक कारण है, वह आदमी दिखाना चाहता है कि देखो मैं कैसा महात्मा हूं अपने पाप भी बताए दे रहा हूं! अपने पाप भी बताए दे रहा हूं! जो उसने कभी नहीं किए। वह भी गिना रहा है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, अपने सब पाप बताए दे रहा हूं!
इतना अदभुत है आदमी का अहंकार। वह ऐसे सूक्ष्म रास्ते खोजता है। इसको पहचानना पड़ेगा, इसकी खोज करनी पड़ेगी। अहंकार की एकदम से हत्या नहीं की जा सकती। वह कहीं है नहीं जहां आप तलवार लेकर चले जाएं और मार डालें। वह एक प्रक्रिया है जिसे हम चैबीस घंटे पैदा कर रहेे हैं। उसे हमें देखना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा--उठते, बैठते, बात करते। जंगल में जाने से नहीं मिलेगा अहंकार। जंगल में जाने से इसलिए अक्सर लोग समझते हैं कि अहंकार-वहंकार सब खतम हो गया, अब हम बड़े विनम्र हो गए। अहंकार तो मिलेगा भीड़ में खड़े होने से--अंतर-संबंधों में, इंटररिलेशनशिप में। जब आप पत्नी से बात कर रहे हैं तब, जब मित्र से बात कर रहे हैं तब, जब दुकान पर बैठे ग्राहक से बात कर रहे हैं तब, जब चल रहे हैं, खाना खा रहे हैं, उठ रहे हैं तब। जिंदगी में मिलेगा अहंकार, एकांत में नहीं मिलेगा। एकांत में इसलिए नहीं मिलेगा क्योंकि वह पैदा ही दूसरे के साथ होता है। दूसरे के साथ हमारा जो संघर्ष चल रहा है वह उसमें ही पैदा होता है, नहीं तो वह पैदा नहीं होता। उसे खोजना होगा तो जिंदगी में खोजना पड़ेगा।
एक संन्यासी हिमालय पर रहा तीस वर्षों तक। शांत हो गया। हिमालय पर शांत हो जाता है आदमी। उसमें आदमी की कोई खूबी नहीं है, हिमालय की वजह से शांत हो गया। उसने कहा मैं तो बिलकुल शांत हो गया--अब तो कोई न क्रोध उठता है। क्रोध कैसे उठे, क्रोध उठाने वाले चाहिए। अब एक कुआं है, कोई बाल्टी लेकर पानी भरने नहीं आता, तो कुआं सोच सकता है अब अपने में पानी न रहा। लेकिन कोई बाल्टी लेकर आए तो फौरन पता चल जाए कि पानी है। बाल्टी से पानी निकलना चाहिए तब पता चलता है। जब एक आदमी मुझे गाली देता है तब वह बाल्टी डाल रहा है मेरे कुएं में। अब अगर क्रोध है तो बाहर निकल आएगा और नहीं है तो बाल्टी खाली आ जाएगी। जब बाल्टी खाली आए तब मुझे जानना चाहिए कि क्रोध नहीं है। लेकिन मैं चला गया जंगल में, अब वहां कोई बाल्टी डालने वाला नहीं, अब हम बैठे हैं अकेले, हम सोचते हैं क्रोध वगैरह तो सब विदा हो गया। एक तो गाली देने वाला नहीं है। स्त्रियों से भाग कर ब्रह्मचारी हो जाना कितना आसान है? बहुत आसान है। उससे आसान कोई और बात हो सकती है? लेकिन वह ब्रह्मचर्य नहीं ब्रह्मचर्य का धोखा है, डिसेप्शन है। जिंदगी में कसौटी...वह आदमी तीस साल बाद शांत हो गया था। असल में अशांत होने का कोई कारण ही न रहा था। विनम्र हो गया था क्योंकि अहंकारी होने की कोई वजह न रह गई थी। किससे कहे कि मैं हूं? वृक्षों से कहो तो वृक्ष बहुत हंसे। पौधों से कहो तो पौधे सुने न। पक्षियों से कहो तो वे उड़े चले जाएं। कहेे किससे कि मैं हूं? कोई न था सुनने वाला, चुप हो गया।
फिर धीरे-धीरे उसकी खबर पहुंच गई नीचे गांव तक, लोग आने लगे। और लोगों ने उससे प्रार्थना की कि जल्दी ही एक मेला है, आप चलें। हजारों लोग वहीं आपके दर्शन कर लें, हम यहां कहां तक आएं?
अक्सर लोग महात्माओं को वहां खींच लाते हैं जहां वे होते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, उधर आसानी रहेगी। महात्मा जहां होते हैं वहां वे नहीं जाते, उतनी चढ़ाई कौन करे? कहते हैं, आप खुद ही नीचे आ जाइए थोड़ा अगर हमारे पास तो ठीक रहेगा। और जिनको पूजा करवानी होती है, धीरे-धीरे-धीरे वहीं आकर खड़े हो जाते हैं। तो ठीक है, हम ही आ जाते हैं। महात्मा ने कहाः ठीक है, अब डर भी क्या है, अब तो मैं शांत भी हो गया, आनंदित भी हो गया। अहंकार भी न रहा, क्रोध भी न रहा, अब चल सकता हूं। उसे उतार लाए भक्तगण नीचे। लेकिन वहां तो बड़ी भीड़ थी, लाखों लोगों का मेला था। लोग न तो कोई जानते थे, न पहचानते थे। बड़ा भीड़-भड़क्का था। महात्मा जब भीड़ में आया भीतर तो एक आदमी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। तीस साल का महात्मा कहां विदा हो गया एक सेकेंड में पता नहीं चला।, कस कर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहाः अंधे दिखाई नहीं पड़ता, जानता नहीं मैं कौन हूं? तब उसे खयाल आया वे तीस साल का क्या हुआ? पैडल लग गया वापस। वे तीस साल विदा हो गए। वे नहीं रहे, वहां खतम हो गए। वे अब नहीं रहे। वे तीस साल से कुछ फायदा न हुआ। साइकिल पर बैठे फिर पैडल नहीं चला रहे थे। साइकिल भी मौजूद थी, पैडल भी मौजूद था, हम भी मौजूद थे, सब मौजूद था, सिर्फ पैडल नहीं चल रहा था। क्योंकि किसके लिए चलाएं, कोई था नहीं। एक आदमी ने जूता मार दिया पैर पर, चल गया पैडल। एक सेकेंड में हो गई घटना।
तब उसे खयाल आया कि आश्चर्य, वे तीस साल कहां गए? वह कहां गई शांति जो जंगल में थी? वह कहां गई विनम्रता जो पहाड़ पर थी? वह सब खो गई। वह वापस लौट गया। उसके भक्तों ने कहा कि कहां जा रहे हो? उसने कहा कि अब मैं जा रहा हूं और घनी भीड़ में। पहाड़ पर नहीं जा रहे हैं? उसने कहाः नहीं, अब नहीं जा रहा हूं। तीस साल हिमालय जो न बता पाया वह एक मनुष्य के संपर्क से पता चल गया। अब मैं और भीड़ में जा रहा हूं। अब मैं दुनिया में जा रहा हूं। अब मैं वहीं देखूंगा कि क्या हो सकता है?
अहंकार को पहचानना पड़ेगा जिंदगी की सारी व्यवस्था में। और बड़े मजे की बात यह है कि जहां-जहां आप पहचान लेंगे वहीं-वहीं अहंकार असंभव हो जाएगा। पहचान कर कोई अहंकारी नहीं हो सकता। जहां पहचानना है वहीं असंभव हो जाएगा। क्योंकि अहंकार अकड़ तो दूसरे को दिखाता है लेकिन दुख खुद को दे जाता है। अहंकार चमक तो दूसरे को दिखाता है लेकिन छाती अपनी जला जाता है। अहंकार ऊपर तो रोब दिखाता है लेकिन भीतर पीड़ा से भर जाता है। अहंकार फोड़े की तरह है; ऊपर तो उठ आता है, दिखाई पड़ने लगता है, भीतर मवाद पड़ जाती है। लेकिन जब पता चल जाए कि ऐसे-ऐसे मैं अहंकार पैदा कर रहा हूं, इस-इस ढंग से, तो वे ढंग विदा हो जाएंगे। जिस दिन अहंकार सब रास्तों से पहचान लिया जाता है, उस दिन आदमी अहंकार से खाली रह जाता है। जिस दिन आदमी अहंकार से खाली है, उस दिन पत्थर हट जाता है और प्रेम के झरने फूट पड़ते हैं, फिर प्रेम की यात्रा शुरू हो जाती है। फिर वे यात्राएं नहीं रुकती, नहीं रुकती वहां तक जहां तक सागर न आ जाए। छोटी सी नदी भी चलती है तो सागर तक पहुंच जाती है। फिर रुकती ही नहीं। कितनी ही भटके, कितनी ही परेशानियां आएं, गड्ढे और पहाड़ मिलें, वह जाती है, जाती है और पहुंच जाती है। सब नदियां सागर तक पहुंच जाती हैं। छोटी-छोटी बूंद भी रास्ता बना लेती है सागर तक पहुंचने का और पहुंच जाती है। लेकिन एक बार पत्थर हट जाए आदमी का तो आदमी और परमात्मा के बीच कोई रुकावट नहीं है सिवाय आदमी के अपने अहंकार के। अहंकार जहां नहीं है वहां प्रभु उपस्थित हो जाता है।
अब मैं आपसे कैसे कहूं कि अहंकार को मिटाएं, नहीं, मिटाने की नहीं कह सकता, अहंकार को जानें, पहचानें, खोजें, आमना-सामना कर लें, और फिर आप पाएंगे कि अहंकार नहीं रह गया है। जहां नहीं है अहंकार वहां प्रभु है। मैं ब्रह्म हूं, ऐसा नहीं है, जहां मैं नहीं हूं वहीं ब्रह्म है।
इन तीन दिनों में ये थोड़ी सी बातें कहीं। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वह कल मैं उनकी चर्चा करूंगा। और जिन्हें इस ‘मैं नहीं हूं’ के भाव को अनुभव करना है, वे सुबह के ध्यान मेें साढ़े आठ बजे उपस्थित हो जाएं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे मैं अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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