कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(ओशो) 

महायुद्ध या महाक्रांति

मनुष्य की आज तक की सारी ताकत जीने में नहीं, मरने और मारने में लगी है। पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ की हत्या हुई। पहले महायुद्ध में कोई साढ़े तीन करोड़ लोग मारे गए। थोड़े से ही बरसों में साढ़े आठ करोड़ लोग हमने मारे हैं। लेकिन शायद मनुष्य को इससे कोई सोच विचार पैदा नहीं हुआ। हर युद्ध के बाद और नये युद्ध के लिए हमने तैयारियां की हैं। इससे यह साफ है कि कोई भी युद्ध हमें यह दिखाने में समर्थ नहीं हो पाया है कि युद्ध व्यर्थ हैं। पांच हजार वर्षों में सारी जमीन पर पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए हैं। पांच हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत बड़ी संख्या है यानी तीन प्रति वर्ष हम करीब-करीब लड़ते ही रहे हैं। कोई अगर पांच हजार वर्षों का हिसाब लगाए तो मुश्किल से तीन सौ वर्ष ऐसे हैं जब लड़ाई नहीं हुई। यह भी इकट्ठे नहीं, एक-एक, दो-दो दिन जोड़कर। तीन सौ वर्ष छोड़कर हम पूरे वक्त लड़ते रहे हैं।
या तो मनुष्य का मस्तिष्क विकृत है या युद्ध हमारा बहुत बड़ा आनंद है अन्यथा विनाश के लिए ऐसी विकृत है या युद्ध हमारा बहुत बड़ा आनंद है अन्यथा विनाश के लिए ऐसी आतुरता और मृत्यु के लिए ऐसी गहरी आकांक्षा को समझना कठिन है। जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। लेकिन आज कुछ गलत हो गया ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है। सदा से कुछ बड़बड़ है। कोई यह कहता हो कि पहले आदमी बहुत अच्छा था तो भूल भरी बातें कहता है।

आदमी सदा से ऐसा है। ताकत इतनी उसके हाथ में नहीं थी इसलिए इतने विकराल रूप में वह प्रकट नहीं हो सका था। आज उसे मौका मिला है। विज्ञान ने शक्ति दे दी है हाथ में।
अब पूर्ण विनाश ( बैलंसवद) हो सकता है, अब हम पूरी तरह विनाश कर सकते हैं। इरादे तो हमारे बहुत दिन से थे कि हम पूरी तरह विनाश करें लेकिन थोड़े बहुत आदमियों को मार कर रुक जाते थे। हमारे साधन कमजोर थे। हिंसा करने का मन तो सदा से था लेकिन हिंसा करने की ताकत सीमित थी। आज तक हमारी असीमित है। आज हम सब कुछ कर सकते हैं। कोई पचास हजार उदजन बम तैयार है और यह आंकड़ा पुराना है¬1960 का। इस बीच आदमी ने बहुत विकास किया है। गंगा में बहुत पानी बह गया है। उदजन बमों की संख्या और बड़ी हो गयी होगी। वैसे पचास हजार उदजन बम जरूरत से ज्यादा हैं इस पूरी पृथ्वी को नष्ट करने के लिए, बहुत ज्यादा हैं। अगर इस तरह की सात जमीनें नष्ट करनी हों तो भी काफी हैं। तीन अरब आदमियों को मारने के लिए पचास हजार उदजन बम बहुत ज्यादा हैं। बीस अरब आदमी मारने हों तो भी उनसे मारे जा सकते हैं या यह भी हो सकता है कि एक आदमी को सात-सात दफा मारने का मन हो तो मारा जा सके। हमने अंतिम तैयारी पूर कर ली। कोई धोखा धड़ी न हो जाए, कोई भूल-चूक न हो जाए, एकाध दफा मारें और आदमी न मर पाए तो ऐसे व्यवस्था कर ली गयी है कि एक बार, दो बार, सात बार मारा जाए ताकि कोई भी नहीं बच पाए। वैसे आदमी को दो बार नहीं मारना पड़ता। लेकिन फिर भी समय और वक्त को ख्याल में रखकर हमने इतना इंतजाम किया है कि हम हर आदमी को सात बार मार सकते हैं।
किसलिए यह तैयारी है? किसलिए यह आयोजन है? जरूर आदमी के मन में कोई पागलपन है, कोई विक्षिप्तता (टदेंदपजल) है। असल में आदमी विक्षिप्त न हो तो मिटाने की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पागल का मन तोड़ने का होता है, स्वस्थ मन निर्मित करना चाहता है, सृजन करना चाहता है, कुछ बनाना चाहता है, जीवन को विकसित करना चाहता है। पागल का मन तोड़ना चाहता है, मिटाना चाहता है। क्यों? पागल होता है भीतर दुखी। अपने दुख का बदला वह सबसे लेना चाहता है। भीतर आदमी दुखी होता है तो वह दूसरे को दुखी करना चाहता है। वह दुख में हैं तो वह किसी को भी सुख में देखने में असमर्थ है। वह दुख में है, तो वह जो भी करेगा उससे परिणाम में दूसरे को दुख मिलेगा क्योंकि जो मेरे पास है, वही मैं दे सकता हूं। जो मेरे पास नहीं है उसे मैं नहीं दे सकता। चाहे मैं कहूं कि मैं सेवक हूं, मैं समाज का सुधारक हूं लेकिन अगर मैं भीतर दुखी हूं तो मेरी सेवा आपके गले में बोझ हो जाएगी और अगर मैं दुखी हूं तो मेरा सुधारा खतरनाक सिद्ध होगा। चाहे मैं यह कहूं मैं विश्व शांति के लिए कोशिश करता हूं लेकिन अगर मैं दुखी हूं तो मेरी शांति की सारी कोशिश युद्ध लाएगी।
सारे राजनीतिज्ञ मिलकर दुनिया में युद्ध लाते हैं लेकिन कहते हैं हम शांति के लिए लड़ रहे हैं। आज तक जमीन पर कोई राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं हुआ जिनसे यह कहा कि हम युद्ध के लिए युद्ध करते हैं। सभी राजनीतिज्ञ यह कहते हैं कि शांति के लिए युद्ध करते हैं। सभी यह कहते हैं कि आदमी अच्छा हो सके, जीवन सुखी हो सके इसलिए हम लड़ते हैं। असल में जो भीतर दुखी है, वह जो भी करेगा उसका परिणाम शुभ और मंगलदायी नहीं हो सकता। है। हम सब दुखी हैं और हम सब पीड़ित हैं। दुखी आदमी एक ही सुख जानता है¬दूसरे को दुख देने का सुख, और कोई सुख नहीं जानता। हम जिन सुखों को सोचते हैं कि इनसे तो किसी के दुख का कोई संबंध नहीं, वे भी किसी के दुख पर खड़े होते हैं।
मेरे एक मित्र हैं। एक गांव में उन्होंने मकान बनाया है। उन गांव में सबसे बड़ा मकान उन्हीं का था। वे बड़े सुखी थे अपने मकान को लेकर। फिर अभी कोई एक और आदमी ने आकर उनके पड़ोस में ही और बड़ा मकान बना दिया और वे दुखी हो गए। उनका मकान उतना का उतना है। मैं इस बार उनके घर में मेहमान था तो वे दुखी थे और कह रहे थे कि मुझे बड़ा मकान बनाना अब जरूरी है। मैंने कहा, आपका मकान उतना का उतना है, आप अप्रसन्न क्या हैं? आपके मकान को तो पड़ोसी की छाया भी नहीं है? लेकिन पड़ोस में एक बड़ा मकान हो गया तो वह दुखी हो गए। तो मैंने उनसे कहा कि अब समझ लें कि जब आप सुखी थे तो आप अपने मकान के कारण सुखी नहीं थे, पास में जो झोपड़े हैं, उनके कारण सुखी रहे हैं।
वह जो झोपड़े वाले को हमने दुख दिए हैं, बड़ा मकान बनाकर, वह है हमारा सुख। बड़ा मकान हमें कोई सुख नहीं दे रहा है क्योंकि उससे बड़ा मकान खड़ा हो जाता है हम सुखी हो जाते हैं। एक छोटा सा बच्चा भी अपनी कक्षा में प्रथम आ जाता है तो कोई यह न सोचे कि उसे प्रथम आने में सुख मिला है। तीस लोगों को पीछे छोड़ देने का जो दुख दिया है, उसका सुख आता है और कोई सुख नहीं। अगर वह अकेला हो अपनी कक्षा में तो पहला नंबर पास होगा लेकिन वह सुखी नहीं होगा लेकिन तीस बच्चों को जब वह पीछे छोड़ देता है तो सुखी हो जाता है।
हमारा सारा जीवन, चूंकि हम दुखी हैं इसलिए ईष्र्या के सिवाय और हम कोई सुख नहीं जानते हैं। और अगर सारी जमीन पर सारे लोग दूसरे को दुखी करने में ही सुख जानते हों तो यह जमीन अगर नर्क हो जाए तो इसमें आश्चर्य क्या है। यह जमीन नर्क हो गयी है। सब कुछ है हमारे पास कि हम स्वर्ग बना सकते थे। लेकिन आदमी हमारा रुग्ण है इसलिए हमने नर्क बना लिया है। आज जितना हमारे पास है, मनुष्य के पास कभी नहीं था। आज जितनी शक्ति और संपदा हमारे पास है, आदमी के पास कभी भी नहीं थी लेकिन आदमी है रुग्ण इसलिए जो कुछ हमारे पास है वही हमारा शत्रु सिद्ध हो रहा है। और यह संभावना है कि हो सकता है दस पांच वर्षों से ज्यादा हमारे जीवन की उम्र भी न हो। एक भी राजनीतिज्ञ का दिमाग खराब हो जाए तो सारी दुनिया के नष्ट होने के करीब हम खड़े हैं। और राजनीतिज्ञ के दिमाग खराब होने में अड़चन नहीं है क्योंकि जिसका दिमाग खराब नहीं होता है वह कभी राजनीति में जाता ही नहीं। किसी भी एक का दिमाग खराब हो जाए तो आज उस एक आदमी के हाथ में इतना खतरा है कि यह सारी दुनिया मनुष्य जाति को डूबा दे। मनुष्य जाति को ही नहीं, सारे कीड़े मकौड़ो को, पशु पक्षियों को, पौधा को, सबको नष्ट कर दे।
हमारे पास जो ताकत है, आप उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उदजन बमों के विस्फोट से इतनी गर्मी पैदा होगी जितनी सूरज पर है। सूरज जमीन पर उतर आए तो क्या होगा? सौ डिग्री पर पानी उबलता है और आपको उसमें डाल दें तो कैसा जी होगा? लेकिन सौ डिग्री कोई गर्मी है? 1500 डिग्री गर्मी पर लोहा पिघलकर पानी हो जाता है। आपको 1500 डिग्री गर्मी में डाल दिया जाए आप बचेंगे? 2500 डिग्री पर लोहा भी भाप बनकर उड़ने लगता है लेकिन 2500 डिग्री भी कोई गर्मी नहीं है। उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी पैदा होती है, वह होती है, दस करोड़ डिग्री। उस दस करोड़ डिग्री की गर्मी में क्या बचेगा? जीवन के बचने की कोई भी संभावना नहीं है। किसी प्रकार का जीवन नहीं बचेगा। यह हमारे हाथ में है और चित्त हमारा दुखी, बेचैन और परेशान है और हम जो भी करते हैं उससे यह बेचैनी कम नहीं होती। यह बढ़ती चली जा रही है। हम जो भी कर रहे हैं उससे हमारा दुख भी कम नहीं होता है, वह भी बढ़ता चला जा रहा है। शायद हमें यह दिखायी ही नहीं पड़ता है कि दुख के पीछे क्या है? शायद हमें यह भी नहीं दिखायी पड़ता है कि कौन से मूल कारण है जो हमें इस पीड़ा में दौड़ाए चले जा रहे हैं। शायद हमें ख्याल में भी न हो कि इस सबके पीछे किन बातों का हाथ है।
और अगर वे बातें दिखायी न पड़े तो हम जो भी करेंगे, हम चाहे सेवा करें, चाहे स्कूल खोलें, चाहे मरीजों के लिए अस्पताल खोलें, सब बेकार हैं, क्योंकि दूसरी तरफ हम जो कर रहे हैं, उससे हमारे अस्पताल रखे रह जाएंगे, हमारी सेवाएं रखी रह जाएंगी। हिरोशिमा में जिस दिन एटम गिरा, एक छोटा सा बच्चा अपने स्कूल का बस्ता लेकर पढ़ने के लिए घर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। होम वर्क करना होगा उसे और एटम बम गिर गया। वह वहीं सूख कर दीवाल में चिपक गया। अपने बस्ते और किताबों के साथ राख हो गया। मुझे किसी मित्र ने तस्वीर भेजी उसकी। हमारे बच्चे जिनके लिए हम स्कूल खड़े कर रहे हैं, हमारे बीमार जिनके लिए हम अस्पताल बना रहे हैं, हमारे करीब जिनके लिए हम गरीबी दूर करने की कोशिश में लगे हुए हैं, हमारे खेत जिनकी हम उत्पादकता बढ़ा रहे हैं, हमारी फैक्टरियां, जिनमें हम आदमियों के लिए सामान बना रहे हैं, सब बेकार हैं क्योंकि दूसरी तरफ आदमी तैयारी कर रहा है कि इन सबको वह खाक कर दे, राख कर दे, और ये दोनों काम हम कर रहे हैं। बड़े स्वविरोध (एमस िबवदजतंकपबजपवद) में हम हैं। एक आदमी घर में बगिया भी लगा रहा है और दूसरी तरफ से आगे भी लगा रहा हो और यह भी ख्याल करता हो कि बगिया को सींचूं और फूल आएंगे और एक तरफ से आग भी लगा रहा हो उसी मकान में तो उस आदमी को हम पागल नहीं तो और क्या कहेंगे? उससे कहेंगे कि बगिया में बेकार मेहनत कर रहे हो जब कि दूसरी तरफ से आग भी लगाए जा रहे हो।
लेकिन हम सारे लोग भी यही कर रहे हैं और हमको दिखायी नहीं पड़ता है और हमको दिखायी भी नहीं पड़ेगा क्योंकि हमने कुछ ऐसी जड़ताएं पाल ली हैं अपने मन में कि दिखायी नहीं पड़ कसता। ये इतने झंडे लगे हुए हैं। हमारा झंडा सबसे ऊपर है। यह पागलपन का लक्षण है, यह युद्ध का कारण है। हमने अभी प्रार्थना की है कि हम अपने झंडे को सब राष्टरें में ऊपर रखेंगे। सब राष्ट यही प्रार्थनाएं कर रहे होंगे। फिर क्या होगा अगर हम अपने झंडे को ऊंचा रखना चाहते हैं और दूसरा भी अपने झंडे को ऊंचा रखना चाहता है और तीसरा भी? यह हमारा अहंकार नहीं तो और क्या है कि हमारा झंडा ऊंचा रहे। व्यक्ति का अहंकार होता है, कौन का अहंकार होता है, राष्ट का अहंकार होता है कि मेरा राष्ट ऊंचा रहे। क्यों रहे आपका राष्ट का अहंकार होता है कि मेरा राष्ट ऊंचा रहे। क्यों रहे आपका और दुनिया का जिस दिन राजनीतिज्ञों से छुटकारा हो जाएगा उस दिन वहां कोई राष्ट भी नहीं होगा। राजनीतिज्ञ बड़ी बीमारी है, उसी की बाई प्रोडक्ट राष्ट है, वह उसी से पैदा हुई बीमारी है। जब एक राष्ट कहेगा कि मैं हूं ऊपर, और दूसरा राष्ट कहेगा मैं हूं ऊपर, मैं बड़ा हूं, मैं जगत का गुरु हूं और यही जमीन है जहां भगवान जन्म लेते हैं और यही जमीन है जहां सबसे ऊंचे लोग पैदा होते हैं अगर ये ही बेवकूफिया जारी रहेगी तो मनुष्य युद्ध से बच नहीं सकता है। यह सारा पागलपन है।
व्यक्ति का अहंकार तो हमें दिखायी पड़ता रहा है और हम एक एक आदमी से कहते हैं कि अहंकारी मत बनो, विनम्र बनो। लेकिन राष्टीय अहंकार हमें आज तक भी दिखाई नहीं पड़ता और जब तक राष्टीय अहंकार हमें दिखायी नहीं पड़ेगा, तब तक हम युद्धों से बच नहीं सकेंगे। आज तक जमीन इसीलिए युद्धों से परेशान रही है कि अब तक हम राष्टीय अहंकार से बचने में समर्थ नहीं हुए हैं। वह हमको दिखायी भी नहीं पड़ता। दिखायी नहीं पड़ने का भी कारण है। अगर कोई आदमी कहे कि मैं सबसे बड़ा आदमी हूं तो बाकी बस के अहंकार को चोट लगेगी और सब उसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे कि यह बड़ा गड़बड़ आदमी है, बीमार या पागल है¬कहता है कि सब से बड़ा मैं हूं। लेकिन हम सब कहते हैं कि हमारा राष्ट सबसे बड़ा है तो किसी के अहंकार को चोट नहीं लगती है क्योंकि हम सब एक राष्ट के लोग हैं। दूसरे राष्ट के लोगों को लगती होगी चोट वह हमारे सामने नहीं हैं। वह तो हमारे सामने तभी आते हैं जब युद्ध होता है। दो राष्ट आमने सामने युद्ध में खड़े होते हैं और कभी खड़े नहीं होते। हम सब के सामूहिक अहंकार को जो जो उत्तेजना दी जाती है उससे हम सब सहमत होते हैं, बड़े प्रसन्न होते हैं। बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि भारत सबसे महान राष्ट है। हम सब खुश होते हैं क्योंकि हम सब के अहंकार को सामूहिक तृप्ति दी जा रही है। एक आदमी कह दे कि मैं बड़ा हूं तो हम झगड़ने को खड़े हो जाते हैं। वैसे हर आदमी अपने मन में कहता रहता है कि मैं बड़ा हूं।
गांधी इंग्लैंड गए थे गोलमेज काफ्रेंस में। उनके एक सेक्रेटरी ने बर्नार्ड शा से जाकर पूछा कि आप गांधी जी को महात्मा मानते हैं या नहीं? महात्माओं के शिष्यों को यह बड़ी फिकर होती है कि दूसरे लोग भी उनके महात्मा को महात्मा मानते हैं कि नहीं। तो बर्नार्ड शा से उनके सेक्रेटरी ने पूछा कि आप गांधी को महात्मा मानते हैं कि नहीं? बर्नार्ड शा ने कहा कि महात्मा वे जरूर हैं लेकिन नंबर दो हैं क्योंकि नंबर एक महात्मा तो मैं हूं। दुनिया में दो ही महात्मा हैं, एक मैं और एक गांधी, लेकिन गांधी नंबर दो हैं, नंबर एक मैं हूं।
वह बड़े दुखी हुए होंगे क्योंकि शिष्य बड़े दुखी होते हैं इन बातों से क्योंकि शिष्यों के अहंकार की तृप्ति इसी में होती है कि उनका महात्मा नंबर एक हो। उनका महात्मा नंबर दो हो तो शिष्य में महात्मा नंबर दो के शिष्य हो जाते हैं। वह दुखी वापस लौटे और उन्होंने महात्मा गांधी को कहा कि यह बर्नार्ड शा बड़ा अहंकारी मालूम होता है और बड़ा दंभी मालूम होता है। अपने ही मुंह से कहता है कि मैं नंबर एक हूं, आप नंबर दो हैं। गांधी ने कहा, वह बड़ा सीधा और सरल आदमी मालूम होता है। दिल में तो सभी के ऐसा होता है कि मैं नंबर एक हूं। कुछ लोग कह देते हैं, कुछ लोग कहते नहीं हैं। वह सीधा आदमी है।
हम सब के मन में यह होता रहता है कि मैं नंबर एक हूं और इस बात को सिद्ध करने के लिए जीवन में हजार उपाय करते हैं। बड़ा मकान बनाते हैं इसलिए ताकि बिना कहे लोग जान लें कि हम नंबर एक हैं। शानदार कपड़े पहनकर खड़े हो जाते हैं ताकि कहना न पड़े और दूसरे जान लें कि मैं नंबर एक हूं। हम जीवन भर यह कोशिश करते हैं कि बिना कहे पता चल जाए कि मैं नंबर एक हूं क्योंकि कहने से तो झगड़ा खड़ा हो जाता है। बिना कहे सबको पता चल जाए, जीवन की सारी दौड़ यही है। नंबर एक होने का सबका ख्याल है। एक मजाक अरब में प्रचलित है। अरब में कहा जाता है कि भगवान जब आदमियों को बनाता है और बना कर उनको जब दुनिया में भेजने लगता है तो हर आदमी से आकर कान में कह देता है, तुमसे अच्छा आदमी मैंने कभी बनाया ही नहीं। भगवान मजाक कर देता है हर आदमी के साथ, फिर हर आदमी जिंदगी भर मन ही मन में यह सोचता रहता है कि मुझ से कुछ अच्छा आदमी तो कोई है ही नहीं।
एक व्यक्ति का अहंकार रोग है, यह तो हमें दिखायी पड़ता है क्योंकि वह हमारे संघर्ष में आ जाता है लेकिन राष्टीय अहंकार भी रोग है, सांप्रदायिक अहंकार भी रोग है, जातीय अहंकार भी रो है, यह हमें दिखायी नहीं पड़ता है क्योंकि समूह में हम होते हैं और हमारी टक्कर नहीं होती। अगर एक जगह सभी लोग एक ही बीमारी से परेशान हो जाए तो वह बीमारी दिखायी पड़नी बंद हो जाएगी। पागलखानों में पागलों को ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि दूसरा आदमी पागल है या मैं पागल हूं। वह बिल्कुल ठीक मालूम पड़ते हैं, वे सभी एक ही बीमारी से जो ग्रस्त हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि किसी गांव में एक जादूगर आया और उसने एक कुएं में एक पुड़िया डाल दी और कहा कि जो भी इसका पानी पीएगा वह पागल हो जाएगा। उस गांव में दो ही कुएं थे। एक गांव का कुआं था, एक राजा का कुआं था। राजा के कुएं से राजा पानी पीता था, उसका वजीर पानी पीता था, उसकी रानियां पानी पीती थीं। गांव के कुएं से पूरा गांव पानी पीता था। पागल हों या कुछ भी हों, पानी बिना पीए तो कोई रह भी नहीं सकता। थोड़ी देर रुके लेकिन सांझ होते होते सबको पानी पीना पड़ा। गांव भर पागल हो गया। सिर्फ राजा, वजीर और रानियां पागल नहीं हुए। लेकिन, गांव में यह खबर फैलने लगी कि ऐसा मालूम होता है कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। स्वाभाविक था। गांव सारा पागल हो गया था। जो पागल नहीं था वह पागल दिखायी पड़ने लगा। रात होते होते गांव में एक सभा हुई और गांव के सारे लोगों ने सोचा कि कुछ गड़बड़ हो गयी है, राजा और वजीर पागल मालूम होते हैं। उनको बदले बिना ठीक न होगा। उनको बदल देना चाहिए। कोई और राजा बनाना चाहिए। उसके सिपाही भी पागल हो गए थे, उसके सैनिक भी, उसके पहरेदार भी, सभी पागल हो गए थे। उसके बचाव का भी कोई उपाय नहीं था। उसने अपने वजीर को कहा कि अब क्या किया जाए? वजीर ने कहा, एक ही रास्ता है, हम भी उसी कुएं का पानी पी लें। और राजा और वजीर भागे कहीं समय न चूक जाए। और उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में जलसे मनाए गए, उन्होंने खुशियां बनायी, भगवान को धन्यवाद दिया कि राजा का दिमाग ठीक हो गया है।
सामूहिक से लोग पागल हो जाए तो किसी को दिखायी नहीं पड़ता। राष्टीय अहंकार सामूहिक पागलपन है इसलिए हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम सभी उसी के बीमार हो गए हैं। जब कोई कहता है, महान देश है यह भारत वर्ष तो हमारे मन में यह यह ख्याल ही नहीं उठता है कि यह बड़ी पागलपन की बात कह रहा है। जब कोई कहता है, दुनिया का गुरु है हमारा देश तो हमें ख्याल ही नहीं उठता कि यह पागलपन की बात कह रहा है। जब कोई कहता है कि भगवान इसी भूमि को पवित्र मानते हैं तो हम बड़े प्रसन्न होते हैं कि यह बहुत ही अच्छी बात क्योंकि हम भी इसी भूमि में पैदा हुए हैं। और यह पागलपन सारी दुनिया के सभी लोगों को है। जमीन पर ऐसी कोई कौम नहीं है जिसको यह ख्याल न हो कि वह विशिष्ट है। जमीन पर कोई ऐसी कौन नहीं जिसे यह ख्याल न हो कि वह जो भी करती है, जो भी उसका जीवन है, वही श्रेष्ठ है।
पहले महायुद्ध में फ्रांस हारता चला जाता था। एक फ्रेंच जनरल ने एक अंग्रेज जनरल से पूछा कि क्या मामला है, हम हारते चले जाते हैं जर्मनी में? तुम किस भांति लड़ते हो, तुम्हारे लड़ने के ढंग क्या है? उस अंग्रेज जनरल ने कहा कि ढंग की तो बात छोड़ दो, जहां तक मैं समझता हूं भगवान हमारे पक्ष में हैं इसलिए हम जीतते हैं। उस फ्रेंच ने पूछा क्या भगवान हमारे पक्ष में नहीं हैं? उस अंग्रेज ने कहा कि आज तक तुम्हें पता है कभी अंग्रेजों को छोड़कर भगवान किसी और के पक्ष में रहा है? लेकिन फिर भी तुम ठीक से प्रार्थना करो तो शायद वह दयावान हो जाए और दयावान होने का एक कारण यह भी है कि तुम हमारे मित्र राष्ट हो। उस फ्रेंच ने कहा कि प्रार्थना तो हम हमेशा करते हैं। हमारी सैनिक टुकड़ियां भी युद्ध में जाने के पहले प्रार्थना करती हैं। उस अंग्रेज जनरल ने पूछा, किसी भाषा में प्रार्थना करते हो? भगवान अंग्रेजी के सिवाय कोई भाषा नहीं समझाता।
हिंदुस्तानियों को भी यह भ्रम है कि संस्कृत जो है, देववाणी है। भगवान सिर्फ संस्कृत ही समझता है, लेकिन इस पर कभी आप हंसे थे जिंदगी में कि संस्कृत देववाणी है लेकिन कोई अंग्रेज कहे कि अंग्रेजी देववाणी है तो हमको हंसी आ जाती है। हमको है कि कैसी बेवकूफी है¬अंग्रेजी और देववाणी! लेकिन संस्कृत देववाणी है, इस पर कभी हंसे थे? नहीं, संस्कृत तो देववाणी है ही, उस पर हंसने की जरूरत क्या है? कौमें एक दूसरे के पागलपन पर हंसती हैं लेकिन अपने पागलपन पर नहीं हंसती। वह वक्त आ गया है कि हमें यह खोजना होगा, पहचानना होगा कि राष्टीय अहंकार कहीं रो तो नहीं है। यह रोग है।
अगर यह बात स्पष्ट दिखायी दे सके कि यह राष्टीयता (छंजपवदंसपजल) रोग है, झंडे को ऊंचा रखने का ख्याल नासमझी है, अहंकार है, तो शायद हम एक नयी दुनिया के बनाने में समर्थ हो सकते हैं। शायद एक ऐसी दुनिया को बना सकें जहां कि राष्टीय अहंकार न हो, तो ही हम युद्ध के बाहर हो सकेंगे। और हमें क्यों इतना सुख मिलता है यह कहने में कि मैं बड़ा हूं आपसे, कभी इस पर भी सोचा है? चाहे व्यक्ति कहे, चाहे राष्ट कहे, सुख क्या है इसमें कि मैं आप से बड़ा हूं? जो आदमी दुखी होता है, वह इसी तरह की थोथी बातें कहकर सुख अनुभव करता है। एक भिखमंगा सड़क के किनारे बैठकर कहता है कि मेरे बाप बादशाह थे, नवाब थे। वह भीख मांगता है। इस बात को कह कर कि उसके पिता बादशाह थे, वह अपने भीख मांगने के दुख को छिपा लेता है।
अहंकार दुख को छिपाने की कोशिश है। जो आदमी दुखी नहीं होता वह अहंकारी भी नहीं होता। जो आदमी आनंदित होता है, वह यह नहीं कहता है कि मैं बड़ा हूं, मैं वह हूं। वह सिर्फ आनंदित होता है। उसे ख्याल भी नहीं आता है कि ये बातें कहने की हैं। यह सिर्फ दुखी और पीड़ित चित्त को ख्याल आते हैं कि मैं यह हूं। तो जो कौम जितनी नीचे गिरती जाती है, वह उतनी अपने अहंकार में फूल-फूलकर समझाने की कोशिश करने लगते हैं। जितनी ज्यादा हीनता (टदमितपवतपजल) का ख्याल होता है उतना अहंकार की घोषणा करने की प्रवृत्ति आती है। अहंकार हीनता के भाव को छिपाने का उपाय है।
 नादिरशाह आता था मुल्क जीतने के लिए। किसी ज्योतिषी से उसने पूछा, में जीतने को जा रहा हूं। मेरे हाथ देखो, लक्षण देखो कि मैं आदमी कैसा हूं, मैं जीत सकूंगा या नहीं? उस ज्योतिषी ने कहा, तुम आदमी जरूर छोटे होगे क्योंकि जितने का ख्याल छोटे लोगों को ही पैदा होता है। उस ज्योतिषी को नादिर ने मरवा डाला। लेकिन यह बात इतनी सच्ची है कि किसी ज्योतिषी को मारने से मिट नहीं सकती। छोटे लोगों को जीतने का ख्याल पैदा होता है ताकि वह यह सिद्ध कर सकें अपने और दूसरों के सामने कि मैं छोटा नहीं हूं। तैमूरलंग चीन के जीतने गया। तैमूर लंगड़ा था। रास्ते में उसने एक मुल्क जीता। उस मुल्क के राजा को उसने हथकड़ियों में बंधवाकर बुलवाया। जब वह राजा हथकड़ियों में बंध कर सामने आया तो तैमूरलंग हंसने लगा। अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था। उस राजा ने कहा, तैमूर हंसते हो तो बड़ी गलती करते हो। इस भूल में मत रहना कि तुमने आज मुझे जित लिया तो हमेशा जीतते चले जाएंगे, किसी दिन हारोगे भी। जो जीतता है वह किसी दिन हारता भी है। हंसो मत, क्योंकि जो किसी की हार पर हंसता है, एक दिन उसे अपनी हार पर आंसू बहाने पड़ते हैं। तैमूर ने कहा, मैं हंसा ही नहीं इस कारण से। मैं तो किसी और बात से हंसा। तैमूर लंगड़ा था। एक पैर उसका लंगड़ा था और जिस राजा को उसने जीता था वह काना था। उसकी एक ही आंख थी। उसने कहा, मैं तो इसलिए इंसा कि यह भगवान भी बड़ा अजीब है कि लंगड़े और काने को भी बादशाहत दे देता है। मैं इसलिए नहीं हंसा कि तुम हार गए। मैं तो इसलिए हंसा कि मैं हूं लंगड़ा और तुम हो काने। बड़ी अजीब बात है, लंगड़े और काने बादशाह हो जाते हैं। बात वहीं खत्म हो गयी लेकिन अगर मैं वहां मौजूद होता तो मैं तैमूर से कहता कि इसमें भगवान का कोई भी कसूर नहीं है। लंगड़ों और कानों के सिवाय बादशाहत कोई मांगता ही नहीं। इसमें भगवान का क्या कसूर?
यह हमारे भीतर जो लंगड़ापन और कानापन होता है, जो हीनता होती है, वह हमारी जिंदगी में एक बल बन जाती है, भागने का, दौड़ने का। हमें अपने को सिद्ध करना है दूसरों के सामने कि मैं लंगड़ा नहीं हूं, मैं काना नहीं हूं, मैं कुछ हूं। तो जितना लंगड़ा काना आदमी होता है, उतनी ज्यादा यह दौड़ तेज हो जाती है। जितनी हीन वृत्ति होती है उतनी महत्वाकांक्षा हो जाती है। फिर यह व्यक्तियों के तल पर भी होती है, राष्टरें के तल पर भी होती है। इसे थोड़ा समझना और इसको विदा करना जरूरी है।
राष्टरें का अहंकार जाना चाहिए और यह तभी जा सकती है, जब हमें दिखायी पड़ जाए कि यह रोग हैं। हम तो इसे महिमा समझते हैं इस लिए यह टिका हुआ है। हम तो इसे गौर समझते हैं इसलिए टिका हुआ है। मैं तो कहूंगा, ऐसी प्रार्थना करें जो मनुष्य के लिए हों, राष्टरें के लिए नहीं। राष्टरें ने मनुष्यता को नष्ट किया है। आने वाला दिन राष्टरें का दिन नहीं हो सकता है। आने वाला दिन सारी मनुष्य जाति का इकट्ठा दिन होगा। वे लोग जो सोचते विचारते हैं, उन्हें ऐसी प्रार्थनाएं बंद कर देनी चाहिए जो टुकड़े के लिए हों। उन्हें तो पूरी अखंड मनुष्यता के लिए कोई चिंता करनी चाहिए। लेकिन हम सोचते भी नहीं हैं।
हम खड़े हुए हैं विश्व शांति के लिए और हमको पता नहीं है कि यदि प्रार्थना हम राष्ट के लिए करते हैं तो विश्व शांति कैसे होगी? ये दोनों बातें विरोधी हैं। राष्टरें को जो मानता है वह विश्व शांति के पक्ष में नहीं हो सकता है। विश्व शांति की जिसकी आकांक्षा होती है उसे राष्टरें को मानने की गुंजाइश नहीं है। पांच हजार वर्ष की कथा देखिए। उसमें आदमी की कथा क्या है? राष्टरें की कथा क्या है? क्या हुआ? अब भी हम उससे चिपके रहेंगे तो खतरा होगा, लेकिन शायद हमें बोध नहीं है, हमें ख्याल नहीं है। चीजें चलती जाती हैं, हम उनका अनुभव नहीं करते हैं। चले जाते हैं, न हम सोचते हैं, न हम विचारते हैं। सारी दुनिया खंडित खड़ी है। खंडित जहां भी होंगे वहां युद्ध होना बहुत आसान है।
हम हिंदुस्तान में युद्ध के लिए संग्राम शब्द का प्रयोग करते हैं। शायद आपको अभी ख्याल न हो कि संग्राम का अर्थ क्या है। संग्राम का अर्थ होता है, दो ग्रामों की सीमा। ग्राम का अर्थ गांव होता है संग्राम का अर्थ दो गांवों की सीमा होता है। बड़ी अजीब बात है कि जिसका अर्थ है दो गांवों की सीमा, उसका अर्थ युद्ध भी है। असल में जहां सीमा बटती है वही से युद्ध शुरू हो जाता है। जहां रेखा है वहां युद्ध है, जहां सीमाएं हैं, वहां युद्ध हैं और राष्ट सीमा बनाते हैं। सीमा युद्ध लाती है। सीमा युद्ध लाएगी। तो अगर चाहनी हो शांति, तो सीमा से ऊपर उठना होगा। असीम को स्वीकार करना होगा तो शांति आ सकती है।
जो सीमा को स्वीकार करता है वह कभी शांत नहीं हो सकता है। और हम सब तरह से सीमाओं को स्वीकार किए हुए हैं। हजार हजार तरह की सीमाएं हमने स्वीकार की हैं, राष्टरें की सीमाएं, जातियों की सीमाएं, रंगों की सीमाएं, वर्णों की। आदमी की इतनी सीमाएं हमने बांध दी हैं कि आदमी करीब-करीब कारागृह में है। उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं है। कारागृह में जो आदमी खड़ा है, वह ऐसी दुनिया नहीं बना सकता है जो कि शांत हो। इस आदमी को मुक्त करना होगा। इसका सारी सीमाओं को तोड़ना होगा। इसे थोड़ा असीम की तरफ ले चलना होगा। स्मरण रहे अहंकार सबसे खतरनाक सीमा है, तो जो असीम होने की तरफ जाता है, उसे अहंकार भी छोड़ देना होगा। एक छोटी सी कहानी मेरी बात को स्पष्ट कर देगी।
एक राजा का जन्मदिन था। कहते हैं उसने सारी जमीन जीत ली थी। अब उसके उसके पास जीतने को कुछ भी नहीं बचा था। उसने अपनी राजधानी के सौ ब्राह्मणों को भोजन पर आमंत्रित किया। वे उसके राज्य के सबसे विचारशील पंडित थे। जन्मदिन के उत्सव में उन्होंने भोजन किया और पीछे उस राजा ने कहा, मैं तुम्हें जन्मदिन की खुशी में कुछ भेंट करना चाहता हूं। लेकिन मैं कुछ भी भेंट करूं, तुम्हारी आकांक्षा से भेंट छोटी पड़ जाएगी। तुम न मालूम क्या सोचकर आए होगे कि राजा क्या भेंट करेगा। तो मैं जो भी भेंट करूंगा, हो सकता है, वह छोटी पड़ जाए इसलिए मैं तुम्हारे मन पर ही छोड़ देता हूं तुम्हारी भेंट। मेरे भवन के पीछे दूर-दूर तक श्रेष्ठतम जमीन है राज्य की। तुम्हें जितनी जमीन उसमें से चाहिए, वह ले लो। एक ही शर्त है, तुम्हें जितनी जमीन चाहिए, उतनी पहले तुम दीवाल बनाकर घेर लो, वह तुम्हारी हो जाएगी। जो जितनी जमीन घेरे लेगा, वह उसकी हो जाएगी।
ऐसा मौका कभी न मिला था और वह भी ब्राह्मणों को। वे ब्राह्मण तो खुशी से पागल हो उठे। उन्होंने अपने मकान बेच दिए, अपनी धन संपत्ति बेच दी, सब बेचकर वे बड़ी दीवाल बनाने में लग गए। जो जितना उधार ले सकता था, मित्रों से मांग सकता था, सब ले आए थे। यह मौका अदभुत था। जमीन मुफ्त मिलती थी। राज्य की सबसे अच्छी जमीन थी। सिर्फ रेखा खींचनी थी, दीवाल बनानी थी। बड़ी बड़ी दीवालें उन्होंने बनाकर जो जितनी जमीन घेर सकता था घेर ली। एक ही कीमत पर मिलती थी जमीन कि सिर्फ घेर लोग और जमीन मिल जाएगी। तीन महीनों के बाद जबकि वह जमीन करीब-करीब घिरने के निकट पहुंच गयी थी, राजा घोषणा की कि मैं एक खबर और कर देता हूं जो सबसे ज्यादा जमीन घेरेगा उसे मैं राजगुरु के पद पर भी नियुक्त कर दूंगा। अब तो पागलपन और तेज हो गया। अब जिसके पास जो भी था, कपड़े लत्ते भी बेच दिए। उन ब्राह्मणों ने अपनी लंगोटियां लगा लीं क्योंकि कपड़े लते बेच कर भी चार ईंट आती थी तो थोड़ी जमीन और घिरती थी। वे करीब-करीब नंगे और फकीर हो गए। वे जमीन घेरने में पागल हो गए। आखिर समय पूरा हो गया। जमीन उन्होंने घेर ली। दिन आ गया और राजा वहां गया और उसने कहा कि मैं जांच कर लूं और राजगुरु का पद दे दूं। तो तुममें से जिसने ज्यादा जमीन घेरी हो, वह बताए। जो दावा करेगा उसकी जांच कर ली जाएगी। एक ब्राह्मण खड़ा हुआ। उसको देखकर बाकी ब्राह्मण हैरान रह गए। वह तो सबसे ज्यादा गरीब ब्राह्मण था। उसने एक थोड़ा सा जमीन का टुकड़ा घेरा था, शायद सबसे कम उसी की जमीन थी और वह पागल सबसे पहले खड़ा हो गया और उसने कहा, मेरी जमीन का निरीक्षण कर लिया जाए, मैंने सबसे ज्यादा जमीन घेरी है। मैं राजगुरु के पद पर अपने को घोषित करता हूं। राजा ने कहा, ठहरो! लेकिन उसने कहा, ठहरने की कोई जरूरत नहीं, मैं घोषित करता हूं। बाद में तुम भी घोषणा कर देना। चलो जमीन देख लो।
जब उसने दावा किया था तो निरीक्षण होना जरूरी था। सारे ब्राह्मण और राजा उसकी जमीन पर गए और देखकर ब्राह्मण हंसने लगे। पहले तो उसने थोड़ी सी दीवाल बनायी थी। मालूम होता था, रात में उसने दीवाल तोड़ दी थी, रात दीवाल भी न रही। राजा ने कहा, कहां है तुम्हारी दीवाल? उस ब्राह्मण ने कहा, मैंने दीवाल बनायी थी फिर मैंने सोचा, दीवाल कितनी ही बनाऊं जो भी घिरेगा वह छोटा ही होगा। फिर मैंने सोचा दीवाल गिरा दूं क्योंकि दीवाल कितनी ही बड़ी जमीन को घेरे भी जमीन आखिर छोटी ही होगी। घिरी होगी तो छोटी ही होगी। तो मैंने दीवाल गिरा दी है। मैं सबसे बड़ी जमीन का मालिक हूं। मेरी जमीन की कोई दीवाल नहीं है इसीलिए मैं कहता हूं कि मैं राजगुरु की जगह खड़ा हूं।
राजा उसके पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे पहली दफा ख्याल में आया है कि जो दीवाल गिरा देता है वह सबका हो जाता है, सबको मालिक हो जाता है। और जो दीवाल बनाता है वह कितनी ही बड़ी दीवाल बनाए तो भी जमीन छोटी ही घिर जाती है।
मनुष्य के चित्त पर बहुत दीवालें हैं, इनके कारण मनुष्य छोटा हो गया है। मनुष्य छोटा है इसलिए युद्ध है, अहंकार है। मनुष्य को बड़ा करना है तो उसकी सारी दीवालें गिरा देनी जरूरी है और जो लोग भी इन दीवालों को गिराने में लगे हैं वे ही लोग मनुष्यता की सेवा कर रहे हैं। आप स्कूल बनाए, अस्पताल खोलें इसमें कोई बहुत मतलब नहीं है; क्योंकि आप एटम बम भी बना रहे हैं। मनुष्यता की एक ही सेवा हो सकती है कि आप मनुष्य को दीवालों से मुक्त करें। हिंदू की, मुसलमान की, भारतीय की, पाकिस्तानी की, काले गोरे की दीवालों से जो मुक्त कर रहा है हर आदमी को, वही आज के क्षणों में मनुष्यता की सेवा कर रहा है। अगर ऐसे आदमी को जन्म दे सकें जिसके मन पर कोई दीवाल न हो तो शायद मनुष्यता के इतिहास में एक नए युग का प्रारंभ हो सकता है। आज तक मनुष्यता दुख, युद्ध और पीड़ा में रही है; अब या तो हम समाप्त होंगे या हमको बदलना होगा। या तो महायुद्ध होगा और हम समाप्त हो जाएंगे, या एक महाक्रांति आएगी और हमारे जीवन को बदल देगी।
आज दो ही तरह के लोग हैं जमीन पर¬वे लोग जो आगे वाले महायुद्ध को लाने की तैयारी में लगे हैं, साथ दे रहे हैं या वे लोग जो आने वाली महाक्रांति के लिए श्रमरत हैं और सहयोग कर रहे हैं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, महायुद्ध में साथी मत बनना। उस महाक्रांति में जो मनुष्य के चित्त को दीवालों से मुक्त कर दें, अगर अपने सहयोग दिया तो ही मनुष्यता की सेवा हो सकेगी। आज एक ऐसी सेवा की जरूरत आ गई है जो कभी भी न थी। छोटी छोटी सेवाओं से कुछ भी न होगा। पूरा आकाश ही टूटने को आ गया है और आप अगर छोटे छोटे थेगड़े घर में लगाएंगे तो उससे कुछ भी होने को नहीं है। उस महान क्रांति की दिशा में चिंतन पैदा हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें