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रविवार, 2 सितंबर 2018

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो) 

अहंकार का भ्रम

मेरे प्रिय आत्मन्!
कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में एक फकीर था, डायोजनीज। बड़ा अजीब फकीर था। आधी जिंदगी हाथ में एक लालटेन लिए दिन की दोपहरी में घूमा करता था! लोग उससे पूछते कि हाथ में लालटेन क्यों लिए हो, जब कि सूरज आकाश में प्रकाशित है और पृथ्वी रोशनी से भरी है। तो वह कहता कि हाथ में लालटेन लिए इसलिए घूमता हूं ताकि मैं किसी मनुष्य को खोज सकूं। लेकिन भरी दोपहरी में लालटेन लेकर घूमने से भी मुझे कोई मनुष्य नहीं मिला। फिर उसने नगर छोड़ दिया और एक छोटी सी गुफा में एक कुत्ते के साथ निवास करने लगा। एक रात उसका जीवन मैं पढ़ता था। वह किताब बंद करके मैं सो गया और मैंने एक सपना देखा।

सपने में मैंने देखा कि डायोजनीज अपनी गुफा में बैठा है अपने कुत्ते के साथ, और मैं भी उसकी गुफा में मौजूद हूं। मैंने डायोजनीज से पूछा कि मैंने सुना है कि तुम आदमी को खोजते-खोजते थक गये और तुम्हें कोई आदमी नहीं मिला। जमीन पर जो इतने आदमी दिखायी पड़ते हैं, ये क्या हैं? वह डायोजनीज बोलाः वे केवल आदमी की शक्लें हैं, आदमी की आत्माएं नहीं। और मैं ऊब गया हूं। आदमी का साथ मैंने छोड़ दिया और अब मैं इस कुत्ते के साथ रहने लगा हूं!

मैंने उससे पूछोः क्या कुत्ते का साथ आदमी के साथ से बेहतर हैं? वह बोलाः हां, कुत्ते में मुझे कोई रोग नहीं दिखाई पड़े, जो आदमी में हैं। और जब कोई किसी आदमी को घृणा से कुत्ता कहने लगता है, तब मुझे क्रोध आ जाता है, क्योंकि कोई कुत्ता इतना बुरा नहीं है, जितना आदमी है। जब कोई कुत्ते से आदमी की तुलना कर देता है, तो मुझे कुत्ते का अपमान मालूम पड़ता है। कुत्ता बहुत अदभुत है और अच्छा है। न तो कुत्तों ने कभी युद्ध किए, न कुत्तों ने बड़ी हिंसा की। न तो कुत्तों ने कोई परिग्रह किया है, न कुत्ते आपस में विभाजित हैं, न उनके समाज और संगठन हैं। कुत्ते बड़े सीधे और सरल हैं। मैं तो बहुत हैरान होने लगा उसकी कुत्ते की प्रशंसा को सुन कर। और उस डायोजनीज ने कहा कि मैं तुमसे यह कहता हूं कि एक वक्त आएगा कि कोई आदमी आदमी का साथ करना पंसद नहीं करेगा। लोग कुत्ते पाल लेंगे और लोग कुत्तों के साथ ही घूमने जाया करेंगे।
मैंने उससे पूछाः कुत्ते में ऐसी क्या खूबी है? लेकिन डायोजनीज तो नहीं बोलाः उसका कुत्ता हंसने लगा। तो मैं और भी घबड़ा गया, क्योंकि हंसना और रोना आदमी के सिवाय और किसी पशु मे नहीं होता। सिर्फ आदमी हंसता है, और कोई जानवर नहीं हंसता। कुत्ते को हंसते देख कर मुझे बहुत परेशानी हुई और मैंने कुत्ते से पूछाः क्या तुम हंसते भी हो? वह कुत्ता बोला कि आदमी के साथ रहते-रहते उसकी कुछ बीमारियां मैं भी सीख गया हूं। न केवल हंसता हूं, बल्कि मैं बातचीत करना भी सीख गया हूं, जो अकेले आदमी की बीमारी है, और किसी पशु की नहीं है। उसे बातचीत करते देख कर अचंभा हुआ और मैंने उससे पूछा कि क्या बात है कि डायोजनीज तुम्हें इतना पसंद करता है? उसने जो मुझसे कहा था, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं।
उस कुत्ते ने मुझसे कहाः कुत्ता अकेला प्राणी है, जो आदमी की कमजोरी समझ गया। हम पूंछ हिला देते हैं और आदमी खुश हो जाता है, यह उसकी कमजोरी है। इसलिये डायोजनीज मुझसे खुश है, क्योंकि मैं पूंछ हिलाता हूं। और आदमी कुत्तों से खुश हो जायेगा, क्योंकि आदमी की कमजोरी है कोई, जो कि कुत्ते के पूंछ हिलाने से पूरी हो जाती है। मेरी तो नींद खुल गयी। उस कुत्ते की बातें सुन कर और मैं बहुत सोचता रहा कि यह आदमी की कमजोरी क्या है? और इस आदमी की कमजोरी की खोज में मैं था कि मुझे एक और घटना स्मरण आई।
एक फकीर था नसरुद्दीन। फकीर होने से पहले वह एक छोटे से गांव में एक छोटी सी होटल का मालिक था। एक दिन सुबह-सुबह देश का राजा जंगल में शिकार करने को निकला, भटक गया और उस होटल में आ गया। उसने नसरुद्दीन ने कहा कि अंडे मिल सकेंगे? नसरुद्दीन ने कुछ अंडे उसे और उसके साथियों को दिये। खाने के बाद उस राजा ने पूछा कि कितने दाम हुए? नसरुद्दीन ने कहाः सौ रुपये। वह राजा हैरान हो गया। उसने कहाः चार-छह अंडों के दाम सौ रुपये? दो-चार पैसे भी इनके दाम नहीं हैं! क्या तुम्हारे इस हिस्से में अंडे इतने कम होते हैं? आर एग्ज सो रेयर हियर? क्या इतने कम अंडे यहां होते हैं? नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं महाराज, एग्ज आर नॉट रेयर हियर, बट किंग्ज आर। यहां अंडे तो नहीं होते कम, लेकिन राजा मुश्किल से कभी कोई आता है! उसने सौ रुपये निकाले और दे दिए। नसरुद्दीन की पत्नी बहुत हैरान हुई। उसने कहाः हद कर दी, चार-छह अंडों के सौ रुपये तुमने ले लिए। क्या तरकीब हैं? नसरुद्दीन ने कहाः मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं। उसकी औरत ने कहाः मैं समझी नहीं। यह आदमी की कमजोरी क्या बला है? नसरुद्दीन ने कहाः मैं एक कहानी और कहता हूं, शायद तेरी समझ में आ जाए कि आदमी की कमजोरी क्या है।
नसरुद्दीन ने कहाः एक बार ऐसा हुआ कि मैं एक बहुत बड़े सम्राट के दरबार में गया। मैंने एक बहुत सस्ती सी पगड़ी पहन रखी थी, लेकिन बहुत रंगीन थी, बहुत चमकदार थी। असल में सस्ती चीजें बहुत रंगीन और बहुत चमकदार होती ही हैं। मैं उस पगड़ी को पहन कर दरबार में गया, तो राजा ने मुझसे पूछा कि यह पगड़ी कितने की है? मैंने कहाः एक हजार स्वर्ण-मुद्राओं की। वह राजा हंसने लगा और उसने कहाः क्या मजाक करते हो? क्या इतनी मंहगी पगड़ी है यह? और तभी वजीर राजा के पास झुका और उसके कान में कहाः इस आदमी से सावधान रहना। यह दो-चार रुपये की पगड़ी भी नहीं मालूम होती। एक हजार स्वर्ण-मुद्राएं कह रहा है! कोई लुटेरा मालूम होता है। नसरुद्दीन ने कहाः मैं समझ गया कि वजीर क्या कह रहा है। क्योंकि जो लोग राजा को खुद लूटते रहते हैं, दूसरा कोई लूटने आये, तो वे लोग बाधा जरूर देते हैं। वजीर बाधा दे रहा होगा। लेकिन मैं भी कुछ कम होशियार न था। मैंने राजा से कहाः तो मैं जाऊं? मैंने यह पगड़ी एक हजार स्वर्ण-मुद्राओं में खरीदी थी और जिस आदमी की खरीदी थी, उसने मुझसे कहा था, तू घबड़ा मत। इस जमीन पर एक ऐसा राजा भी है, जो इसे पांच हजार स्वर्ण-मुद्राओं में खरीद सकता है। मैं उसी राजा की खोज में निकला हूं, तो मैं लौट जाऊं? तुम वह राजा नहीं मालूम होते! यह दरबार वह दरबार नहीं है, जहां पांच हजार में खरीदी जा सके? मैं जाऊं? वह राजा बोलाः दस हजार स्वर्ण-मुद्राएं इसे दे दो और पगड़ी ले लो।
वह पगड़ी ले ली गयी। वजीर किनारे मेरे पास आया और उसने कहाः तुम बड़े जादूगर मालूम होते हो। क्या कर दिया तुमने? दस रूपये की पगड़ी नहीं है, दस हजार रूपये में खरीद जी गयी! तो मैंने उसके कान में कहाः तुम पगड़ियों के दाम जानते हो, तो मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं।
आदमी की कमजोरी क्या है? अहंकार आदमी की कमजोरी है। और जो जितना ज्यादा अहंकार से भरा है, वह उतना ही कमजोर है। और हम सब अहंकार से भरे हैं। हम सब अहंकार से ठोस भरे हैं। हम इतने ज्यादा अहंकार से भरे हैं कि हम में परमात्मा के प्रवेश की कोई संभावना नहीं है। जो मनुष्य अहंकार से भरा है, वह सत्य को नहीं जान सकेगा। क्योंकि सत्य के लिये चाहिये खाली और शून्य मन। और जो अहंकार से भरा है, वह बिल्कुल भी खाली नहीं है जहां कि परमात्मा की किरणें प्रवेश पा सकें, जहां कि सत्य प्रवेश पा सके और स्थान पा सके। मनुष्य के अहंकार के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
यह अहंकार क्या है? इस अहंकार से मुक्ति का उपाय क्या है? और जो अहंकार से मुक्त होता है, वही केवल शून्य होता है। और कोई शून्य नहीं हो सकता। शून्य का अर्थ है, अहंकार से शून्य हो जाना। यह हमारा ‘मैं’ क्या है? जीवन भर हम इस ‘मैं’ के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं, इसी मैं के आस-पास जीते हैं। हमारे भवन खड़े होते हैं इसी मैं की रक्षा के लिए। हमारे धन के पहाड़ खड़े होते हैं इसी मैं की रक्षा के लिए। यश और पद की प्रतिष्ठा की दौड़ होती हैं इसी मैं की रक्षा के लिए। और न केवल यह, बल्कि हम त्याग करते हैं, उपवास करते हैं और पूजा करते हैं इस मैं की रक्षा के लिए; और मंदिर खड़े करते हैं इस मैं की रक्षा के लिए।
एक गांव में एक नया मंदिर बनता था। उस गांव में बहुत मंदिर थे, वह मंदिरों का ही गाव था। धीरे-धीरे उस गांव में ऐसी हालत हो गयी कि आदमियों को रहने के लिये मकान नहीं बचे थे। क्योंकि सब मकान भगवान ने घेर लिए। और एक नया मंदिर भी उस गांव में बनता था। पुराने मंदिर में पूजा करने वाले खोजे नहीं मिलते थे। लेकिन मंदिर बन रहा था, तो मैं बहुत हैरान हुआ। जब पुराने मंदिर खाली पड़े हों, उनमें कोई जाने वाना भी न हो, तो यह नया मंदिर क्यों बनाया जा रहा है? वहां मैं गया और वहां के एक बूढ़े कारीगर से पूछा, जो भगवान की मूर्ति गढ़ रहा था, उससे मैंने पूछा कि ‘यह मंदिर क्यों बन रहा है! मंदिर तो बहुत हैं इस गांव में, कोई कमी नहीं। नये मंदिर की जरूरत कैसे आ गयी? उस बूढ़े आदमी ने कहाः मैंने जिंदगी में बहुत मंदिर बनाये और बहुत भगवान गढ़े, लेकिन मुझसे किसी ने भी नहीं पूछा। आज तुम पूछने आ गये हो, तो तुम्हें बताये देता हूं मेरे जीवन भर का अनुभव कि मंदिर क्यों बनते हैं।’ उसने कहा, ‘आओ मेरे साथ और पीछे चलो।’ बड़ा मंदिर बनता था और बड़े पत्थर खोदे जाते थे, और सबसे आखिर में वह मुझे ले गया और उसने एक पत्थर को दिखा कर कहा कि ‘इस पत्थर के लिए यह मंदिर बनाया जा रहा है।’ मैंने चैंक कर देखा, उस पत्थर पर बनाये जाने वाले आदमी का नाम खोदा जा रहा है। इस पत्थर के लिए यह मंदिर बनाया जा रहा है!
सारे मंदिर भगवानों के मंदिर नहीं हैं, बनानेवाले लोगों के मंदिर हैं। मनुष्य का अहंकार बहुत अ˜ूत है। मनुष्य धन भी इकट्ठा करता है उसी के लिये, और धर्म भी। मैं कुछ हो जाऊं, जमीन पर कुछ हो जाऊं। और इस जमीन पर कुछ हो जाऊं तो आगे जो परलोक है वहां भी मैं पीछे न रह जाऊं, वहां भी मैं कुछ हो जाऊं। वहां भी मेरा एक बड़ा मकान हो पुण्य का और धर्म का, और स्वर्ग में भी मैं कुछ रहूं। मैं पीछे न रह जाऊं। मैं किसी से पिछड़ न जाऊं, मेरा आगे होना जरूरी है!
यह जो हमारा मैं है, मोक्ष तक हमारा पीछा करता है। मोक्ष भी इसके लिए हम खोजते और तलाशते हैं। यह मैं है क्या? एक आदमी तप कर सकता है, और तपश्चर्या मैं के लिये दौड़ है, मैं को भरने की, मैं को पूरा करने की। और जब आदमी थक जाता है और परेशान हो जाता है और पाता है कि यह मैं दुख ही देता है, कोई सुख नहीं लाता है; पीड़ा ही लाता है, कोई आनंद नहीं लाता; तो यह भी हो सकता है कि वह मैं को छोड़ने में लग जाये। और वह कहे, मैं को अब छोड़ दूंगा। मैं को त्याग दूंगा। अहंकार से मुक्त हो जाऊंगा। मैं विनम्र हो जाऊंगा। मैं ह्यूमिलिटी को स्वीकार कर लूंगा। मैं कहूंगा, मैं ना कुछ हूं, मैं कोई भी नहीं। मैं वस्त्र छोड़ दूंगा, नग्न हो जाऊंगा। जंगलों में चला जाऊंगा, भिखारी हो जाऊंगा!
लेेकिन कौन हो जायेगा भिखारी? कौन चला जायेगा जंगल में? कौन करेगा त्याग? और जब त्याग किया जायेगाऔर भिखारी हो जायेंगे और जंगल में चले जायेंगे, तब भी मैं तृप्त होगा कि मैंने किया त्याग। मुझसे बड़ा त्यागी और कोई भी नहीं है। और अगर कोई खबर ले आयेगा कि तुमसे भी बड़ा त्यागी पैदा हो गया है, तो ईष्र्या वापस लौट आयेगी वही ईष्र्या। अगर मुझ से बड़ा किसी ने मकान बना लिया तो जो आयी थी ईष्र्या, वही ईष्र्या वापस लौट आएगी, अगर कोई खबर दे देगा कि तुमसे भी बड़ा महात्मा पैदा हो गया है।
अहंकार बड़ा अ˜ूत है, बड़ा अनूठा है। उसके रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। और हम छोड़ें या भरें, वह हमेशा मौजूद रहता है।
क्या किया जाये? कैसे इस अहंकार से छुटकारा हो? और इससे छुटकारा न हो, तो आदमी का दुख से भी छुटकारा नहीं हो सकता है। पीड़ा से भी छुटकारा नहीं हो सकता है। अशांति से भी छुटकारा नहीं हो सकता है। अज्ञान से भी छुटकारा नहीं हो सकता है। सारे अज्ञान, सारे दुख, सारी पीड़ा की जड़ में एक भाव है, और वह मेरे होने का भाव है। इस मैं की रक्षा में निरंतर कोशिश करते रहे हैं और दूसरे के मैं पर हमला करते रहे हैं। क्योंकि सब रक्षा अंत में आक्रमण बन जाती है, सब डिफेंस अटैक बन जाता है।
दुनियां भर की हुकूमतें अपनी सैनिक मिनिस्ट्री को डिफेंस मिनिस्ट्री कहती हैं। अब तक दुनिया में किसी हुकूमत ने अटैक मिनिस्ट्री नहीं बनाई है! लेकिन सारी हुकूमतें हमला करती हैं। और डिफेंस मिनिस्ट्री नाम होता है उनका। वे कहते हैं, सुरक्षा मंत्री। सारी दुनिया के मंत्री युद्ध के, सुरक्षा मंत्री कहलाते हैं और सबसे युद्ध ही पैदा होता है।
यह जो हमारा मैं है, इसकी सुरक्षा के लिए हम जो भी उपाय करते हैं, वह दूसरों पर आक्रमण बन जाता है। बनेगा। सुरक्षा की भावना आक्रमण ले आती है। चाणक्य ने बहुत पहले कहा था, सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय है आक्रमण। अगर सुरक्षा चाहते हो, तो आक्रमण करो।
यह हमारा मैं है, इसकी हमें रक्षा करनी है। चारों तरफ दुनिया भर का अहंकार हमारे अहंकार पर हमला कर रहा है। दूसरे लोग हमें मिटा देना चाहते हैं। मुझे खड़े होना है, अपने को बचाना है। मैं दूसरों को मिटाऊंगा। अहंकार से हिंसा पैदा होती है। फिर चाहे कोई पानी छानकर पीए और मांस न खाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ सकता है। जहां अहंकार है, वहां हिंसा है। चाहे कोई कुछ भी करे, जहां अहंकार है, वहां हिंसा है। क्योंकि अहंकार आक्रामक है, एग्रेसिव है। वह दूसरे को दबाना चाहता है, तभी वह तृप्त होता है, नहीं तो तृप्त नहीं होता।
मैंने सुना है, मद्रास में एक अग्रेंज मजिस्ट्रेट था। वह अपनी अदालत में एक कुर्सी रखता, खुद के बैठने के लिए। कोई आ जाता, तो वह देख लेता कि किस योग्य आदमी है। अगर केवल आदमी होता और कोई पद-प्रतिष्ठा न होती उसकी तो वह खड़े-खड़े ही निपटा देता उसे। उसे बैठने के लिए कोई कहने की जरूरत न थी। अकेले खाली आदमी को कौन बैठने के लिए कब कहता है! क्या जरूरत है उसको बिठाने की? खाली आदमी खड़ा-खड़ा ही निपटा दिया जाता है। लेकिन उसने पास के कमरे में सात नंबर तक की कुर्सियां बनवा रखी थीं। एक से लेकर सात नंबर की। अगर कोई ऐसा आदमी होता, जिसकी जेब थोड़ी भरी होती, जिसके कपड़े थोड़े अच्छे होते, तो वह कहता, जाओ नंबर एक की कुर्सी उठा लाओ। उसका चपरासी नंबर एक की कुर्सी ले आता। वह एक छोटा सा मोढ़ा था। नंबर दो का बड़ा मोढ़ा था, फिर तीन नंबर की कुर्सी थी। ऐसे सात नंबर की बहुत बढ़ियां कुर्सी थी। आदमियों को देखकर कुर्सी बुलवाता था।
एक दिन एक आदमी आया और उसने सारी व्यवस्था गड़बड़ कर दी। वह देखने से बिल्कुल दरिद्र मालूम होता था। सोचा कि खड़े-खड़े ही निपटा दिया जाए। बूढ़ा आदमी था, वह आकर खड़ा हुआ। खड़े हो कर उसने खीसे से घड़ी निकाली और समय देखा। घड़ी उसकी बड़ी बहुमूल्य मालूम होती है। मजिस्ट्रेट घबड़ाया, उसने कहा चपरासी से कि ‘जाओ नंबर तीन की कुर्सी लेकर आओ।’ चपरासी नंबर तीन की कुर्सी जब तक लाता तब तक उस बूढ़े आदमी ने कहा, ‘मालूम होता है आप मुझे पहचाने नहीं, मैं फलां गांव का जमींदार हूं।’ यह सुनते ही वह मजिस्ट्रेट घबड़ाया और उसने चपरासी जो कुर्सी लिये आ रहा था उससे कहा, ‘ठहर, नंबर तीन नहीं, नंबर चार की कुर्सी ला।’ वह कुर्सी रखने गया। तब तक उस आदमी ने कहाः मालूम होता है आप मुझे अब तक नहीं पहचाने। पिछले महायुद्ध में मैंने सरकार को लाखों रूपयों का दान दिया था। समझ गये? ’ वह घबड़ाया। उसने उस चपरासी से कहाः ठहर। वह नंबर चार की कुर्सी ले आया था। उसने कहा, ‘तू नंबर पांच की कुर्सी ला।’ उस बूढ़े आदमी ने कहाः अच्छा हो कि आखिरी नंबर की कुर्सी बुला लें, क्योंकि अभी मैं कुछ और बातें बताने को हूं। मैं असल में और कुछ रूपया दान करने आया हूं। सरकार के लिये और कुछ लाख रूपये मैं देना चाहता हूं। आखिरी नंबर की कुर्सी बुला लें। चपरासी बेचारा थक जाता है!’
हम आदमी को तौलते हैं कुर्सियों से। मतलब, हम आदमियों को तौलते हैं अहंकार से। जितना बड़ा अहंकार उतनी बड़ी कुर्सी। जितनी बड़ी कुर्सी उतना बड़ा अहंकार। हम दूसरों को जिस भाषा में तौलते हैं, उसी भाषा में हमारी दौड़ भी होगी। हम खुद भी उसी तरफ दौड़ रहे होंगे। हम सारे लोग इसीलिए दौड़ रहे हैं कि कोई और बड़ी कुर्सी, और बड़ी कुर्सी, हम कुछ और ऊपर कुछ और ऊपर खड़े हो जायें। लेकिन कितने ही ऊपर खड़े हो जायें, मौत मिट्टी कर देती है। मौत उसको नीचे ले आती है और एक जमीन पर इकट्ठा बिछा देती है।
एक फकीर था चीन में। एक मरघट से निकल रहा था। च्वांगत्सु उसका नाम था। रात होने को थी, उसकी पैर मरघट पर पड़ी एक खोपड़ी से टकरा गया। उसने खोपड़ी उठा ली और उस खोपड़ी से कहा, ‘मुझे माफ कर दो।’ उसके मित्र बोले, ‘पागल हो, मरे आदमी से माफी मांगते हो? ’ च्वांगत्सू ने कहा, ‘तू नहीं जानता! यह बड़े आदमियों का मरघट है।’
उस गांव में दो मरघट थे-एक छोटे आदमियों का मरघट, एक बड़े आदमियों का मरघट। आदमी अ˜ूत है, मरने के बाद भी अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। बड़े आदमियों के मरघट अलग होते हैं, छोटे आदमियों के मरघट अलग होते हैं। मौत जिसको मिट्टी में मिला देती है, वह भी मरने के बाद सामान्य मरघट में दफनाये जाने को राजी नहीं होता। विशेष मनघट चाहिए-खास, अलग। सब सामान्य लोगों के मरघट पर कोई असामान्य आदमी कैसे दफनाया जा सकता है! जिसको मिट्टी में मिल जाना है, जो मर गया, राख हो गया, जिसे जिंदगी ने सफा कर दिया और बहा दिया कि हट जाओ जिंदगी से, वह भी अभी कहता है कि मरने के बाद मुझे फलां-फलां मरघट में दफनाना!
च्वांगत्सु ने कहा, ‘यह कोई छोटे आदमी की खोपड़ी नहीं है। अगर नाराज हो गया, तो मुश्किल हो जायेगी। यह किसी बड़े आदमी की खोपड़ी है। यह बड़े लोंगों का मरघट है।’ उसके मित्र हंसंे उन्होंने कहाः नाराज होकर अब यह क्या करेगा, यह आदमी मर गया है।’ फिर भी च्वांगत्सु बोलाः अगर जिंदा होता, तो हम माफी मांग लेते। अब हम क्या करें!’
वह उस खोपड़ी को घर उठा लाया। रोज हाथ जोड़ कर उसको नमस्कार करता, रोज उससे माफी मांगता। लोग कहते, ‘तुम पागल हो गये हो? ’
च्वांगत्सू कहता, ‘पागल मैं नहीं हुआ हूं। कहीं यह आदमी जिंदा होता, तो मेरी क्या हालत होती! यह तो संयोग की बात है कि यह मर गया था और इसकी खोपड़ी में मेरा पैर लगा। अगर जिंदा में लग जाता तो मेरी क्या हालत होती! इसको सोचता हूं और माफी मांगता हूं। और साथ ही एक दूसरी बात भी है। इस खोपड़ी को देखकर मुझे यह ख्याल बना रहता है कि मेरी खोपड़ी भी कल मरघट में होगी और लोगों की लातें उसमें लगेंगी। तो अगर आज ही मेरी खोपड़ी में लात मार जाये, तो मुझे परेशानी न होगी, क्योंकि जो खोपड़ी आखिर लात खायेगी, उस खोपड़ी को मैं कितने दिन तक बचाऊं और क्यों बचाऊं, किस अर्थ से बचाऊं? तो मुझे यह ख्याल बना रहता है। तो जिस दिन से इस खोपड़ी को लाया हूं, उस दिन से अपनी खोपड़ी का ख्याल ही मिट गया। अब कोई लात मार जाये इस खोपड़ी में, तो मैं सोचता हूं, ठीक है, यह तो होने वाला है। इसमें कौन सी अड़चन है, इसमें क्या कठिनाई है! तो मैं उस लात मारने वाले से पूंछ लूंगा कि कहीं पैर में चोट तो नहीं लग गयी आपके? क्योंकि रही खोपड़ी की बात, यह तो लातें खायेगी। मेरी खोपड़ी बनी, उसके पहले जमीन की मिट्टी थी यह। लाखों लातें इसके ऊपर से निकली होंगी। तब मैं इसको नहीं बचा सका। चार दिन के बाद मैं मर जाऊंगा, यह फिर मिट्टी होगी। फिर लाखों लातें इसके ऊपर से निकलेंगी और इसे मैं नहीं बचा सकूंगा। इस बीच के थोड़े दिनों में बचाना मेरा भ्रम ही हो सकता है।’
अहंकार बीच का भ्रम है। जो जिंदगी को पूरा नहीं देख पाता है, उसको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं कुछ हूं। क्या हूं मैं? इसका तो कोई पता नहीं है हमें, लेकिन मैं कुछ हूं, इसका भ्रम जरूर है। क्या हूं मैं? मैं कौन हूं? इसका तो कोई पता नहीं, लेकिन मैं कुछ हूं, इसका हरेक को दावा है।
किसी को धक्का दे दें, वह आदमी कहेगा, ‘सम्हल के धक्का देना, जानते नहीं, मैं कौन हूं? खुद भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं, लेकिन दूसरे पर हम दावा करते हैं कि जानते नहीं, मैं कौन हूं? क्या पता है हमें अपने संबंध में? क्या हैं हम? कितनी सामथ्र्य और शक्ति है हमारी? क्या सत्ता है हमारी? लेकिन हम बहुत अ˜ूत हैं और हम बड़ी तरकीब से अहंकार के जाल को बुनते हैं और बनाते हैं। श्वास आती है और जाती है। लेकिन हम कहते हैं, मैं श्वास ले रहा हूं, आप अगर श्वास ले रहे हैं, तब तो मौत कभी आ न सकेगी, क्योंकि मौत खड़ी रहेगी, आप श्वास लिए जाना! आप कहना, ‘हम श्वास लेते जाते हैं!’ फिर मौत को वापस लौट जाना पड़ेगा। नहीं, लेकिन हम जानते हैं, जो श्वास बाहर जायेगी, वह अगर भीतर न लौटी तो हम लौटा न सकेंगे। लेकिन फिर भी हम कहते हैं, ‘मैं श्वास ले रहा हूं।’ श्वास आती है, जाती है, यह तो सत्य है, लेकिन ‘मैं श्वास ले रहा हूं।’ यह बिल्कुल असत्य है। लेकिन हम कहते हैं, ‘मैं श्वास ले रहा हूं।’ और इसी भांति जन्मते हैं, लेकिन कहते हैं, ‘मेरा जन्म दिन!’ आपसे पूछा था किसी ने कि आप जन्मता चाहते हैं इस दिन पर या नहीं? किसी ने आपसे पूछा था, किसी ने आपसे सलाह ली थी, आपका निर्णय मांगा था? नहीं आपको पता भी नहीं है। लेकिन कहते हैं, मेरा जन्मदिन!
बड़ी अजीब बातें हैं। कहते हैं, ‘मैं जवान हो गया।’ आप जवान हो गये हैं? कोई बच्चा चाहे कि जवान हो जाऊं, तो जवान हो जायेगा? कहते हैं, ‘मैं बूढ़ा हो गया।’ आप बूढ़े हो गये हैं? अगर आप चाहते कि आप बूढ़े हो जायें, तो आप बूढ़े हो सकते थे? और अगर आपके हाथ में होता बूढ़ा होना, तो क्या कभी आप बूढ़े हुए होते? कौन होने को राजी होता? जिंदगी में चीजें घटती हैं और हम हर चीज को अपने मैं से जोड़ लेते हैं और सोचते हैं कि मैं, और मैं...। और सारा मैं का संबंध झूठा है।
एक राजमहल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा हुआ था। कुछ बच्चे वहां खेलने को निकले थे। एक बच्चे ने एक पत्थर उठाया और महल की खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठने लगा।
ऊपर उठता हुआ पत्थर फूलकर दुगना वजनी हो गया। जो भी ऊपर उठता है फूलकर दुगना वजनी हो जाता है। वह पत्थर भी दुगना वजनी हो गया। और नीचे पड़े पत्थरों पर उसने हिकारत की नजर से देखा और उसने कहा, ‘पत्थरो! सब सुस्त और काहिल की तरह नीचे पड़े हो। देखो, मैं आकाश की यात्रा पर जाता हूं। हमेशा मैंने कहा कि तुम जड़बुद्धि हो, हमेशा पड़े रहोगे जमीन पर। होना चाहिए मुझ जैसा, जो आकाश की यात्रा भी करता है!’ पत्थर बेचारे, जो नीचे पड़े थे, सांसे दबाकर देखते रह गये होंगे इस उठते हुए पत्थर को, मालूम हुआ होगा कोई महापुरूष का जन्म हो गया हमारे बीच! कोई अवतारी पत्थर पैदा हो गया है, आकाश की तरफ जा रहा है! पत्थरों की कामनायें तो बहुत उठी थीं कि हम भी आकाश की सैर करें। लेकिन नहीं, यह सौभाग्य उन्हें उपलब्ध न हुआ था। आज एक पत्थर ऊपर जा रहा था।
 वह पत्थर ऊपर गया। जाकर महल की कांच की खिड़की से टकराया और कांच की खिड़की चकनाचूर हो गयी। वह पत्थर हंसा और कहाः कितनी बार मैंने यह खबर नहीं की, कितनी बार मैंने यह घोषना नहीं की, कि मेरे रास्ते में कोई नहीं आये, नहीं तो चकनाचूर हो जायेगा। फिर भी लोग मेरे रास्ते में आ जाते हैं और चकनाचूर हो जाते हैं। नासमझी ही हद्द हैं!
बात तो झूठ नहीं थी, सच ही थी। पत्थर से चकनाचूर हो गया था कांच। पत्थर ने कहा, ‘मैंन कर दिया चकनाचूर। कितनी बार कहा, मेरे बीच में कोई न आये।’
फिर वह भीतर गिरा, ईरानी कालीन बिछा था महल में, उस पर जाकर गिरा। उसने कहा, ‘कैसे अच्छे लोग हैं, इस भवन के मालिक! मालूम होता है, मेरे आने की खबर अखबारों में पहले ही कर दी है। स्वागत में ईरानी कालीन बिछा डाले! भवन सजा हुआ है। कितने भले लोग हैं। फिर आखिर स्वागत करें भी क्यों नहीं। कोई साधारण पत्थर नहीं हूं मैं। आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। स्वागत स्वाभाविक है।’
महल के नौकरों ने आवाज सुनी होगी पत्थर के गिरने की, कांच के टूटने की। वे भागे हुए आये। उन्होंने पत्थर को हाथ में उठाया। वह पत्थर अपने दिल में स्वर्ग का अनुभव करने लगा। उसने सोचा, ‘कैसे भले लोग हैं। मालूम होता है इस भवन के मालिक ने अपने विशेष प्रतिनिधी भेजे हैं मेरे स्वागत के लिए। राजसी हाथों में मेरा स्वागत किया जा रहा है। कितने भले लोग हैं! कितने प्यारे और अच्छे लोग हैं। फिर आखिर हो भी क्यों नहीं, मैं कोई साधारण पत्थर हूं? ’
फिर नौकरों ने उस पत्थर को वापस फेंका। तो उस पत्थर ने कहाः लौट चलें। घर की बहुत याद आती है। होम सिकनेस मालूम होती है। सारे मित्र पत्थरों की याद आती है, जिनको पीछे छोड़ आया।’ जैसे जब कोई दिल्ली से पत्थर वापस लौटता है इंदौर की तरफ, तो कहता है, इंदौर की बहुत याद आती है, अब घर चलें। वैसा ही वह पत्थर भी महल से वापस लौटने लगा भीड़ में नीचे। उसने सोचाः बड़ी याद आती है, अपने मित्रों के पास वापस लौट चलें।
वह पत्थर गिरा नीचे तो नीचे के पत्थर आंखे उठाये देखते थे आते हुए विमान से अपने मित्र को। स्वागत समारोह हुए होंगे, अभिनंदन के समारोह हुए होंगे। उन पत्थरों ने पूछा होगा, हाल-चाल सुनाओ। कहां गये, क्या किया, किन विदेशों की यात्रायों कीं, किन महलों के निवासी बने? उस पत्थर ने कहाः सब सुनाऊंगा। पहली दफा यह भाग्य मिला मुझे। और उसने अपनी सारी कथा सुनायी, कैसे उसने यात्रा की, कैसे शत्रु नष्ट हुए, कैसे राजसी महलों में निवास किया, कैसे शाही हाथों में स्वागत हुआ, वह सब उसने सुनाया। नीचे के पत्थर उससे कहने लगे, तुम अपनी आत्मकथा लिख दो। आटोबायोग्राफी लिख दो। आने वाले बच्चों में काम आयेगी। पीढ़ी दर पीढ़ी सब बच्चे पढ़ेंगे और जानेंगे कि उनके वंश में, उनके परिवार में कोई हुआ था पत्थर, कोई अवतारी व्यक्ति हो गया था, उसकी कथा वे पढ़ेंगे और खुश होंगे!
वह पत्थर अपनी आत्मकथा लिख रहा है, जरूर कहीं न कहीं से अपनी आत्मकथा छपवा लेगा, क्योंकि उसके पहले बहुत पत्थरों ने अपनी आत्मकथांए छपवा ली हैं। कोई न कोई उसको भी छापने वाला मिल ही जायेगा। वह अभी लिख रहा है।
यह पत्थर जिस भाषा में सोचता है, हम कोई और भाषा में सोचते हैं? हम भी इसी भाषा में सोचते हैं। मेरा जन्म। आपको पता है, क्यों हुआ आपका जन्म? कैसे, कहां से, किस हाथ ने आपके पत्थर को फेंक दिया और आप यात्रा पर निकल गये? पता है कुछ? कुछ भी पता नहीं है। सब निपट अज्ञात और अंधकार में है। लेकिन कहते हैं, मेरा जन्म। कहते हैं, मेरे रास्ते में कोई न आये, नहीं तो टूट जाएगा। मेरी श्वासें, मेरा जीवन! सारे जीवन के तथ्यों को जो पत्थर की यात्रा से ज्यादा नहीं, हम मैं के आस-पास गूथंते चले जाते हैं और मैं को मजबूत करते चले जाते हैं। और यह मैं कष्ट देता है, क्योंकि मैं से ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है। जो असत्य है, वही दुख का मूल है। जो सत्य है, वह आनंद का स्त्रोत है।
मनुष्य दुख में है, क्योंकि अहंकार में है। और जब तक अहंकार विसर्जित न हो जाये, आनंद के द्वार नहीं खुल सकते।
अहंकार है दुख मूल, क्योंकि अहंकार असत्य है। है ही नहीं अहंकार। सिर्फ कल्पना, एकदम झूठी कल्पना है और उसको हम मजबूत किये चले जाते हैं। फिर कुछ लोग इसको भरने में लग जाते हैं। और कुछ लोग इसको छोड़ने में लग जाते हैं।
मेरी दृष्टि में दोनों गलत हैं क्योंकि जो है ही नहीं, उसको भरा भी नहीं जा सकता और जो है ही नहीं, उसे छोड़ा भी नहीं जा सकता। होता अहंकार, तो हम छोड़ देते। इसलिए जो आदमी कहता है, मैं तो बिल्कुल विनम्र हूं, उसकी विनम्रता में भी उसके अहंकार की घोषणा छिपी है। जो कहता है, मैं तो ना कुछ हूं, मैं तो आपका सेवक हूं, उसकी भी आंखो में झांकें। वहां कोई कह रहा है कि मैं सब हूं, मैं कुछ हूं। सारी घोषणा चल रही है।
बर्नार्ड शॉ ने एक बार यह घोषणा कर दी थी...। जमीन पर हजारों वर्ष तक आदमी यह सोचता रहा कि जमीन का चक्कर सूरज लगाता है। फिर विज्ञान ने यह पता लगा लिया कि यह भ्रांति है। जमीन का चक्कर सूरज नहीं लगाता, जमीन ही सूरज का चक्कर लगाती है। फिर यह सिद्ध भी हो गया विज्ञान से कि जमीन ही सूरज का चक्कर लगाती है। लेकिन बर्नार्ड शॉ ने इस बीसवीं सदी में यह घोषणा कर दी कि ‘यह बात गलत है, जमीन सूरज का चक्कर न लगाती है, और न लगा सकती है। सूरज ही जमीन का चक्कर लगा रहा है।’ अब बर्नार्ड शॉ कोई वैज्ञानिक नहीं थे। उसके मित्रों ने कहा, ‘तुम यह क्या पागलपन की बात कहते हो? क्या प्रमाण हैं तुम्हारे पास? ’ बर्नार्ड शॉ ने कहा, ‘प्रमाण एक है। बर्नार्ड शॉ जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन किसी सूरज का चक्कर नहीं लगा सकती। मैं जमीन पर रहता हूं यहां। सूरज की चक्कर लगायेगा। हम कैसे चक्कर लगा सकते हैं? ’ बर्नार्ड शॉ ने कहा, ‘बर्नार्ड शॉ जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन कैस चक्कर लगा सकती है सूरज का? बात बिल्कुल गलत है। सूरज ही चक्कर लगाता होगा।’
मजाक में उसने यह बात कही थी, लेकिन आदमी इसी भाषा में सोचता है। सारी जिंदगी इसी भाषा में सोचता है कि सारी दुनिया मेरा चक्कर लगा रही है। चांद-तारे चक्कर लगा रहे हैं, आदमी चक्कर लगा रहे हैं, पशु-पक्षी चक्कर लगा रहे हैं। मेरा चक्कर लगा रहे हैं! और आदमी इतना होशियार है कि थोड़ी-बहुत प्रार्थनाएं कर लेता है मंदिर में, सवा रुपये का प्रसाद चढ़ा आता है। फिर कोशिश करता है, भगवान भी उसका चक्कर लगाएं! उसके बच्चे की बीमारी ठीक करें। उसकी लड़की की शादी करवायें। उसकी नौकरी लगवाएं। भगवान भी उसका चक्कर लगायें। वह सवा रूपया चढ़ा कर आया, उसने पांच-छह दफा भगवान की खुशामद की हे भगवान, तुम बहुत बड़े हो। उसने सब भांति भगवान को समझाने की कोशिश की कि वह भी उसका चक्कर लगायें।
आखिरी कोशिश आदमी यह करता है कि भगवान भी मेरा चक्कर लगाये। अगर उसको पक्का हो जाये कि भगवान मेरा चक्कर न लगायेगा, तो वह मंदिर का चक्कर लगाना फौरन बंद कर देगा। यह म्युचुअल लेन-देन है। हम तुम्हारे मंदिर का चक्कर लगाते हैं, तुम हमारा लगा लेना! और नहीं लगाओगे तो हम पूजा-पत्री सब बंद कर देंगे। इसकी धमकी भी देता रहता है! भय भी दिखलाता रहता है कि याद रखना, विदा कर देंगे मंदिर से। पूजा-पत्री बंद कर देंगे। यह जो पूजा-पत्री बंद हो गई, वह इसीलिए तो कई लोगों को यह समझ में आ गया कि भगवान हमारा चक्कर नहीं लगाता है। उन्होंने चक्कर लगाना बंद कर दिया है।
आदमी अपने केंद्र पर सारी दुनिया को सोचता है, यही उसका भ्रम है। हम केंद्र नहीं है, हम जीवन के एक भाग है। जैसे समुद्र की लहर समुद्र का एक भाग है, केंद्र नहीं; वैसे ही हम जीवन के एक भाग हैं। जीवन से पृथक हमारी कोई सत्ता नहीं है। जीवन से भिन्न हमारा कोई होना नहीं है। लेकिन लगता है कि मैं हूं। जैसे लहर को लगे कि मैं हूं। और लहर सोचने लगे कि सारी लहरें मेरा चक्कर लगाती हैं। चांद मेरे लिए उठता है, सूरज मेरे लिए उठता है, सागर मेरे लिए है, तो वह लहर जैसी भूल में पड़ जायेगी, वैसी भूल में हम पड़ जाते हैं। क्या है हमारा होना? इसलिए न तो अहंकार को कोई भर सकता है और न कोई छोड़ सकता है। फिर क्या किया जाये! फिर क्या हो सकता है?
तो मैं निवेदन करूंगा, यह अहंकार क्या है? उसके प्रति जागा जाये, इसके प्रति होश से भरा जाये, इसे पहचाना जाये, इसे भीतर खोजा जाये, कहां है यह जो कि कहता है कि मैं हूं! बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने खोजा उन्होंने नहीं पाया। वे भीतर गये और उन्होंने देखा, वहां कोई अहंकार नहीं है, वहां कोई मैं नहीं है। वहां जीवन है अनंत, असीम, जिसकी कोई सीमा नहीं है। वहां जीवन है जो सागर की भांति है, अछोर, अनंत। वहां कोई मैं नहीं है।
जो जागता है-भीतर जागता है, देखता है-वह पाता है, अहंकार बिल्कुल भी नहीं है; वहां कोई मैं नहीं हैं। वहां तो परिपूर्ण मौन है, शांति है- मैं नहीं। मैं का उपद्रव, मैं की आवाज वहां नहीं सुनी जाती। तो इसलिए मैं नहीं कहता हूं कि मैं को भरने में जायें। सांसरिक लोग जिन्हें हम कहते हैं, वह मैं को भरने में लगे हैं। जिनको हम संन्यासी कहतें हैं, वे मैं को खाली करने में लगे हैं। दोनों गलती में हैं। मैं तो है ही नहीं। मैं होता, तो भरा जा सकता था। मैं होता, तो छोड़ा जा सकता था। मैं तो एक छाया की भांति है। अगर आप प्रकाश ले जायें, तो छाया नहीं पाई जायेगी और अगर प्रकाश न ले जायें, तो छाया पाई जायेगी। तो भीतर घुसें और देखें, कहां है मैं? खोजें। वह नहीं दिखाई पड़ेगी, नहीं मिलगी।
क्या है रास्ता भीतर प्रवेश का? कैसे आब्जर्व कर सकते हैं, कैसे निरीक्षण कर सकते हैं इस मैं को? कैसे निरीक्षण के द्वारा इससे छुटकारा हो सकता है? क्या है रास्ता? बहुत सरल है रास्ता। एकदम सरल है रास्ता। स्वंय को पाने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है? भीतर प्रवेश से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है कि भीतर हम है; मौजूद हैं। सिर्फ एक जरा-सी झलक और भीतर एक क्रांति हो जाये और सब बदल जाये। लेकिन भीतर जाने का रास्ता क्या है?
पूजा-प्रार्थना करें, तो भीतर पहुंच जायेंगे? कभी भी नहीं, क्योंकि सब पूजा बाहर है, सब प्रार्थना बाहर है। जो बाहर है, वह भीतर नहीं ले जा सकेगी। तो क्या करें? शीर्षासन करें, उल्टे खड़े हो जायें, हाथ-पैर हिलायें? क्या करें? आसन-व्यायाम करें? सब आसन-व्यायाम शरीर के बाहर हैं, भीतर नहीं ले जा सकेंगे। सर्कस सीखने हो, तो बात अलग है। लेकिन भीतर जाना हो, तो मामला बिल्कुल दूसरा है। कोई व्यायाम और आसन से नहीं होगा। तो क्या करें? शास्त्र पढ़ें, शास्त्रों को कंठस्थ कर लें? सब शास्त्र बाहर हैं। कितना ही कंठस्थ कर लें, भीतर नहीं जा सकेंगे। क्या करें हिमालय पर चले जायें? हिमालय उतना ही बाहर है, जितना इंदौर। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कहां जायें, क्या करें? एक छोटी-सी घटना कहूं, शायद उससे समझ में आ जाये कि कहां जायें, क्या करें।
जापान के एक गांव में एक छोटी-सी पहाड़ी के पास सुबह सूरज उगा और तीन मित्रा घूमने निकले थे। उन्होंने देखा, पहाड़ी के किनारे पर एक भिक्षु खड़ा है-मौन शांत। उन तीनों ने सोचा, ‘यह भिक्षु सुबह-सुबह पहाड़ी के किनारे क्या करता होगा? ’ एक ने कहा, ‘मुझे ऐसा समझ में पड़ता है कि कभी-कभी उसकी गाय खो जाती है। हो सकता है, गाय खो गई हो और पहाड़ी पर खड़े होकर देखता हो कि जंगल में गाय कहां है? ’ लेकिन दूसरे ने कहा, ‘मित्र, तुम्हारी बात पर मुझे विश्वास नहीं आता। क्योंकि जो आदमी किसी को खोजता है, वह घूम-घूमकर देखता है। यह भिक्षु तो बिल्कुल सीधा-सादा है, इधर-उधर घूमता भी नहीं। यह किसी चीज को खोजता हो, ऐसा नहीं मालूम पड़ता। मुझे तो ऐसा लगता है, कोई मित्र साथ में घूमने आया होगा और वह पीछे छूट गया। वह प्रतीक्षा कर रहा होगा खड़े होकर कि मित्र आ जाये।’ तीसरे व्यक्ति ने कहा, ‘यह भी मुझे विश्वास नहीं आता। क्योंकि जो किसी की प्रतीक्षा करता है, वह पीछे लौटकर भी कभी देखता है। वह तो पीछे लौटकर कभी देखता ही नहीं। यह तो बिल्कुल खड़ा है चुपचाप। तो मैं तो समझता हूं, यह किसी मित्र की प्रतीक्षा भी नहीं कर रहा, किसी खोई हुई गाय को भी नहीं खोज रहा। यह तो परमात्मा का ध्यान कर रहा है।’
विवाद तेज होता गया, जैसे कि सभी विवाद तेज हो जाते हैं, और निर्णय मुश्किल हो गया जैसे कि किसी भी विवाद से निर्णय कभी भी नहीं हुआ है। अंततः एक ही उपाय रह गया कि वे तीनों जायें और भिक्षु से पूछंे कि ‘तुम यहां क्या करते हो? ’ उस तीनों ने पहाड़ी चढ़ी। वे उस भिक्षु के पास गये और उनमें से पहले ने पूछा कि ‘भंते, आप यहां क्या करते हैं? ’ क्या आपकी गाय खो गयी है? आप उसको खोजते हैं? ’ उस भिक्षु ने कहा, ‘कैसी गाय? मेरा तो कुछ भी नहीं है, तो खोयेगा कैसे? जब खोयेगा नहीं, तो खोजूंगा कैसे? मैं कोई गाय नहीं खोज रहा हूं।’
पहला आदमी हार गया। दूसरे आदमी ने कहा, ‘तब तो निश्चय ही, जरूर ही आपका कोई मित्र साथ आया होगा और पीछे छूट गया, आप उसकी प्रतीक्षा करते हैं!’ उस भिक्षु ने कहा, ‘कैसा मित्र? जिसका कोई शत्रु नहीं, उसका कोई मित्र कैसे होगा? मेरा कोई शत्रु नहीं है, मेरा कोई मित्र नहीं है। और जब है ही नहीं, तो पीछे कैसे छूटेगा? कोई पीछे नहीं छूटा है।’
दूसरा आदमी हार गया। तीसरे आदमी ने कहाः तब तो निश्चय ही जो मैंने कहा, वही सत्य है। आप परमात्मा का स्मरण कर रहे हैं। उस भिक्षु ने कहाः मैंने बहुत खोजा, कोई परमात्मा नहीं पाया। क्योंकि जब तक मैं खोजने वाला मौजूद था, तब तक उसे मैं कैसे पा सकता था! फिर मैं ही खो गया और जब मैं ही खो गया, तो कौन करेगा स्मरण, और किसका करेगा स्मरण? मैं किसी परमात्मा का स्मरण नहीं कर रहा हूं। तीसरा आदमी भी हार गया।
उन तीनों ने पूछा, ‘फिर आप क्या कर रहे हैं? व्हाट आर यू डूइंग सर? क्या कर रहे हैं आप? ’ उस आदमी ने कहा, ‘आई ऐम जस्ट एक्जिस्टिंग, डूइंग नथिंग। मैं तो केवल हूं। इस क्षण मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैं केवल हूं। मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। न कुछ खोज रहा हूं, न किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूं, न किसी का स्मरण कर रहा हूं। मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं।’
समझें थोड़ा इस बात को। जिस क्षण आपका चित्त कुछ भी नहीं करता है, न कुछ खोजता है, न किसी की प्रतीक्षा करता है, न किसी का स्मरण करता है, केवल रह जाता है, केवल होता है, जस्ट एक्झिस्ट्स, उस वक्त क्या होगा? उस वक्त एक क्रांति घटित हो जाती है। उस वक्त ही आप स्वंय को देखने में समर्थ हो पाते है। उस क्षण ही आपको पता चलता है कि अहंकार नहीं है, और जो है वही परमात्मा है।
इतने शांत और मौन क्षण में, इतनी साइलेंस में जहां चित्त कुछ भी नहीं करता हैं, बिल्कुल शांत हो जाता है, जैसे झील; सारी लहरें बंद हो गयी हों, ऐसे शांत क्षण में, ऐसे मौन क्षण में, ऐसे अक्रिया के क्षण में जाना जाता है, देखा जाता है कि अहंकार नहीं है। अहंकार का विस्फोट हो जाता है। और जहां अहंकार नहीं है, वहीं उसके दर्शन हो जाते हैं, जो है। उसे हम आत्मा कहें, परमात्मा कहें, सत्य कहें, या कोई और नाम दे दें। लेकिन जब तक अहंकार भीतर खड़ा है, यह भ्रम खड़ा है कि मैं हूं, तब तक उसे नहीं जाना जा सकता जो है, वस्तुतः है।
जब तक अहंकार का भ्रम है, तब तक सत्य के द्वार नहीं खुले सकते। सत्य के द्वार तो निरंतर खुले हैं, अहंकार का पर्दा उसे रोके है। इसलिये न तो पहाड़ पर जायें, न तीर्थ, न मंदिर, न पूजा, न प्रार्थना, न शास्त्र; कोई कही नहीं ले जा सकेगा। जाये वहां, चित्त की उस दशा में, जहां कोई क्रिया नहीं है, कोई शब्द नहीं है, कोई विचार नहीं है, सब शांत है और मौन है। वहीं-वहीं है तीर्थ, वहीं है मंदिर, वहीं है पूजा, वहीं है प्रार्थना, वहीं है ध्यान, वहीं है धर्म, और वहीं है वह जिसे हम कहें परमात्मा।
एक छोटी-सी कहानी और आज की चर्चा मैं पूरी करूं। एक महाकवि एक नदी पर अपने बजरे में यात्रा करता था। पूर्णिमा की रात थी, चारों और चांदी बरसती थी चांद की। सब सुंदर और सब मौन था और वह अपने बजरे में, नाव के अपने झोपड़े में बैठा हुआ एक छोटी सी मोमबत्ती जलाये हुए सौंदर्यशास्त्र पर कोई किताब पढ़ता था। सौंदर्य था बाहर मौजूद। चारों तरफ सब कुछ सुंदर था। दूर आकाश के कोनों-कोनों तक सौंदर्य की वर्षा थी। लेकिन वह एक किताब पढ़ता था सौदर्यशास्त्र पर, अपने बजरे में बंद, एक छोटी सी मोमबत्ती को जला कर। धुआं भर गया था मोमबत्ती का बजरे में। पीली-पीली टिमटिमाती रोशनी थी। आंखे थक गयीं, ऊब गयीं, धुएं से भर गयीं। थक गया, आधी रात हो गयी। किताब बंद की, मोमबत्ती फूंक कर बुझायी। बुझाते ही हैरान हो गया, बुझाते ही खड़ा हो गया उतर कर अपने तख्त से और नाचने लगा। उसके मित्र सोये थे दो। उसके नाचने को सुन कर जाग आये और कहा, ‘क्या हो गया, पागल हो गये हो? आधी रात नाचते हो? ’
उस महाकवि ने कहा, ‘आज मैंने सत्य जाना, जीवन में कभी न जाना था। मैं एक छोटी-सी मोमबत्ती को जला कर पढ़ता रहा। मोमबत्ती का प्रकाश जब तक टिमटिमाता रहा धीमा, धुंधियाता, तब तक चांद की रोशनी बाहर रूकी रही, भीतर न आयी। द्वार पर ठहरी रही, खिड़की पर ठहरी रही, भीतर प्रविष्ट न हूई। जैसे ही मैंने मोमबत्ती बुझायी, वह रंध्र-रंध्र से, छिद्र-छिद्र से, द्वार से, सब तरफ से चांद भीतर भर आया। और तब मुझे दिखायी पड़ा, कि एक छोटी सी मोमबत्ती विराट चांद के प्रकाश को बाहर रोक सकती है। और तब मुझे दिखायी पड़ा, कहीं मेरे मैं का यह अहंकार, यह तो कहीं परमात्मा को नहीं रोके हैं! एक छोटी सी मोमबत्ती ही कहीं उस सुरज को तो नहीं रोके हुए है! यह मुझे दिखायी पड़ा और यह भी मुझे दिखायी पड़ा कि मैं कि मैं किताब पढ़ता था, सौंदर्यशास्त्र पर। बजरे के बाहर सौंदर्यशास्त्र चारों तरफ मौजूद था। मैं किताब पढ़ता था, सौंदर्य मौजूद था। मैं उसे किताब में खोजता था, जो चारों तरफ मौजूद था। दो बातें मुझे दिखाई पड़ीं।’
ये दो ही बातें मुझे भी दिखायी पड़ी हैं, जो मैं आपसे कह दूं। जिसे आप शास्त्र में खोज रहे हैं, वह चारों तरफ मौजूद है। और जब तक आंखे शास्त्र में खोजती रहेंगी, तब तक वह नहीं दिखाई पड़ेगा। और दूसरी बात, जब तक अहंकार की मोमबत्ती जल रही है, तब तक वह नहीं दिखाई पड़ेगा। और दूसरी बात, जब तक अहंकार की मोमबत्ती जल रही है, तब तक आप टिमटिमाते, धुएं से भरे प्रकाश में जीयेंगे। वही दुख है। और जब तक वह अहंकार की मोमबत्ती जल रही है, तब तक परमात्मा का प्रकाश उपलब्ध नहीं हो सकता। वह द्वार पर प्रतीक्षा करेगा कि जब आप मोमबत्ती बुझा दो, तो मैं भीतर आ जाऊं। मोमबत्ती का बुझाना, उसके लिये आमंत्रण है कि ‘आ जाओ द्वार खुले हैं। अहंकार को मिटाना उसके लिए आमंत्रण है कि आओ, तुम्हें मैंने पुकारा, तुम आ जाओ।’ और जो अहंकार की मोमबत्ती को बुझा देता है, वह बुझाते ही परमात्मा के प्रकाश को उपलब्ध हो जाता है। अहंकार से जो शून्य है, वह परमात्मा से पूर्ण हो जाता है। अहंकार से जो पूर्ण है, वह परमात्मा से शून्य रह जाता है। वर्षा होती है, आकाश से पानी गिरता है। गड्ढे जो खाली होते हैं, वे भर जाते हैं। टीले जो भरे होते हैं, वे खाली रह जाते हैं। परमात्मा चैबीस घंटे बरस रहा है--पल-पल प्रतिपल। जो खाली हैं, वे भर जायेंगे; जो भरे हैं, वे खाली रह जाएंगे।
शून्य हो जाएं अहंकार से, तभी जीवन में धर्म का जन्म होता है। शून्य हो जायें स्वंय से तभी वह जो स्वंय का वास्तविक सत्य है उदघटित होता है। परमात्मा करे, आपको शून्य कर दे, ताकि आप पूर्ण को पा सकें। यही प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और इतनी शांति से सुना, उससे अत्यंत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 

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