शून्यता का दर्शन-
प्रवचन-उन्नासिवां
सारसूत्र-
109-अपने निष्क्रय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो-सर्वथ रिक्त।110-हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्त खोल है। जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप में कौतुक करता है।
111-हे प्रिये, ज्ञान ओर अज्ञान, अस्तित्व ओर अनस्तित्व पर ध्यान दो।
112-आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ।
विधियों रिक्तता से संबंधित हैं। ये सर्वाधिक कोमल, सर्वाधिक सूक्ष्म हैं, क्योंकि खालीपन की परिकल्पना भी असंभव प्रतीत होती है। बुद्ध ने इन चारों विधियों का अपने शिष्यों और भिक्षुओं के लिए प्रयोग किया है। और इन चारों विधियों के कारण ही वे बिलकुल गलत समझ लिए गए। इन चारों विधियों के कारण ही भारत की धरती से बौद्ध धर्म पूरी तरह उखड़ गया।
बुद्ध कहते थे कि परमात्मा नहीं है। यदि परमात्मा है तो तुम पूरी तरह खाली नहीं हो
सकते। हो सकता है तुम न रही पर परमात्मा तो रहेगा ही, दिव्य तो रहेगा ही। और तुम्हारा मन तुम्हें धोखा दे सकता है, क्योंकि हो सकता है तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे मन की ही चाल हो। बुद्ध कहते थे कि कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि यदि आत्मा हो तो तुम अपने अहंकार को उसके पीछे छिपा सकते हो। यदि तुम्हें लगे कि तुममें कोई आत्मा है तो तुम्हारे अहंकार का छूटना कठिन हो जाएगा। तब तुम पूरी तरह खाली नहीं हो पाओगे क्योंकि तुम तो रहोगे ही।
इन चारों विधियों की भूमिका तैयार करने के लिए ही बुद्ध ने सब कुछ नकार दिया। वे कोई नास्तिक नहीं थे, बस नास्तिक लगते हैं, क्योंकि उन्होंने कहा कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, इस अस्तित्व में कुछ भी सार-तत्व नहीं है, अस्तित्व एक खालीपन है। लेकिन यह सब इन विधियों की भूमिका तैयार करने के लिए ही था। एक बार तुम इस रिक्तता में प्रविष्ट हो गए तो तुमने सब कुछ जान लिया। तुम उसे दिव्य कह सकते हो, परमात्मा कह सकते हो, आत्मा कह सकते हो, या जो भी तुम चाहो कह सकते हो। लेकिन सत्य में तुम तभी प्रवेश कर सकते हो जब तुम पूर्णतया खाली हो जाओ। पीछे कुछ भी नहीं बचना चाहिए।
हिंदुओं को लगा कि बुद्ध धर्म को नष्ट कर रहे हैं, अधार्मिकता सिखा रहे हैं। और जिन लोगों. ने उन्हें सुना वे भी समझ नहीं पाए। क्योंकि जब भी तुम कहीं जाते हो तो कुछ खोजने के लिए ही जाते हो, तुम कभी खालीपन की तलाश में नहीं जाते। तो जो लोग उन्हें सुनने गए थे वे कुछ खोज रहे थे-निर्वाण, मोक्ष, परा-जगत, स्वर्ग, सत्य--लेकिन कुछ ढूंढ रहे थे। वे अपनी परम अभिलाषा-सत्य की खोज-को पूरा करने आए थे। यह अंतिम कामना है। और जब तक तुम पूरी तरह कामना से मुक्त न हो जाओ, तुम सत्य को नहीं जान सकते। उसे जानने की शर्त ही पूर्णतया कामना-रहित हो जाना।
तो एक बात निश्चित है, तुम सत्य की कामना नहीं कर सकते। यदि तुम उसकी कामना करते हो तो तुम्हारी कामना ही उसमें बाधा बन जाएगी। बुद्ध से पहले ऐसे गुरु हुए जो सिखाते थे, 'कामना मत करो, कामना से मुक्त हो जाओ।’ लेकिन वे लोग बात कर रहे थे परमात्मा की, परमात्मा के राज्य की, स्वर्ग की, मोक्ष की, परम मुक्ति की, और कह रहे थे, 'कामना से मुक्त हो जाओ।’ बुद्ध को लगता था कि यदि कुछ भी पाने को है तो तुम कामना से मुक्त नहीं हो सकते। तुम दिखावा कर सकते हो कि तुम कामना से मुक्त हो, लेकिन वह दिखावा, वह कामनामुक्ति भी किसी कामना से ही आ रही है। वह झूठ है।
सभी गुरु कहते हैं कि तुम कामना के द्वारा परम आनंद प्राप्त नहीं कर सकते। और परम आनंद तुम प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम कामना-रहित होना शुरू कर देते हो, कामना से मुक्त होने का प्रयास करने लगते हो, ताकि तुम परम आनंद पा सको। लेकिन कामना तो बनी
ही है। कामना के कारण ही तुम कामना से मुक्त होना चाहते हो। तो बुद्ध ने कहा कि कोई परंमात्मा ही नहीं है जिसे पाना है। तुम पाना चाहो भी तो पाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कामना से ही मुक्त हो जाओ। कहीं कोई मोक्ष नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, जीवन अर्थहीन और लक्ष्यहीन है।
उनका यह कथन सुंदर है, अदभुत है-किसी ने इस तरह से प्रयास ही नहीं किया। उन्होंने वे सब लक्ष्य नष्ट कर दिए ताकि कामना से मुक्त होने में तुम्हारी सहायता की जा सके। यदि कोई लक्ष्य हो तो तुम कामना से कैसे मुक्त हो सकते हो? और यदि तुम कामना-रहित नहीं हो तो तुम लक्ष्य को प्राप्त नहीं हो सकते। यही विरोधाभास है। उन्होंने सब लक्ष्य नष्ट कर डाले, इसलिए नहीं कि कोई लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य तो है और तुम पा भी सकते हो। लेकिन यदि तुम उन्हें पाना चाहो, यदि तुम उन्हें पाने की कामना करो तो फिर यह असंभव हो जाता है। पहली शर्त ही यह है कि तुम कामना-रहित होओ, तब परम घटना घटती है।
तो बुद्ध कहते हैं कि कामना करने के लिए कुछ भी नहीं है, कामना-मात्र ही व्यर्थ है। सब कामनाएं छोड़ दो। और जब कोई कामना न रहेगी, तुम रिक्त हो जाओगे।
जरा कल्पना करो, यदि तुममें कोई कामना न हो तो तुम क्या होओगे? तुम और कुछ नहीं बस कामनाओं की गठरी हो। यदि सब कामनाएं समाप्त हो जाएं तो तुम भी समाप्त हो जाओगे। ऐसा नहीं कि तुम नहीं रह जाओगे, तुम रहोगे, लेकिन एक रिक्तता की भांति। तुम एक खाली कक्ष की तरह होओगे : जिसमें कोई नहीं है, बस एक शून्य है। बुद्ध ने इस शून्य को अनात्मा, अनत्ता कहा है। तुम किसी केंद्र का अनुभव नहीं करोगे कि 'मैं हूं, बस 'हूं-भाव' होगा, उसके साथ कोई 'मैं' नहीं होगा। क्योंकि 'मैं' और कुछ नहीं बस इकट्ठी की हुई, घनीभूत कामनाओं का जोड़ है; बहुत सी कामनाएं घनीभूत होकर तुम्हारा 'मैं' बन गई हैं।
यह ऐसा ही है जैसे विज्ञान में होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि यदि तुम पदार्थ का विश्लेषण करो तो पदार्थ और कुछ नहीं बस अणुओं से बना है; और अणुओं को जोड़ने के लिए कुछ भी नहीं हर अणु एक रिक्त स्थान से घिरा हुआ है। यदि तुम्हारे हाथ में कोई पत्थर है तो वह पत्थर नहीं है। बस ऊर्जा का अणु है ओर दो अणुाओं के बीच अनंत आकाश है। एक चट्टान भी ठोस नहीं है, उसमें बहुत खाली जगह है। वे कहते हैं कि जल्दी ही वह खाली जगह, वह स्पेस हम किसी भी वस्तु में से निकाल पाने में सक्ष्म हो जाएंगे।
एच .जी .वेल्स ने एक कहानी लिखी है। इक्कीसवीं सदी में, एक बड़े स्टेशन पर एक यात्री कुली को बुला रहा है। दूसरे यात्री जो उसी के डिब्बे में यात्रा कर रहे हैं समझ नहीं पा रहे, क्योंकि उसके पास सिगरेट की डिब्बी और माचिस को छोड्कर और कुछ भी सामान नहीं है। वही उसका कुल सामान है। और वह कुलियों को आवाज दे रहा है। बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती है और एक यात्री पूछता है, 'क्यों? कुली को क्यों बुला रहे हो? तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। यह माचिस और सिगरेट की डिब्बी तुम स्वयं ही उठा सकते हो। इन दो दर्जन कुलियों का तुम क्या करोगे?' वह यात्री हंसता है और कहता है, 'जरा यह माचिस उठा कर देखो यह माचिस साधारण नहीं है। एक रेलवे इंजन इसमें वैसा हुआ है।’
जल्दी ही यह भी संभव होगा। आकाश, स्पेस खींचा जा सकता है और फिर दोबारा वापस डाला जा सकता है। और इंजन फिर से अपना आकार ले लेगा। फिर बड़ी चीजें बिना कठिनाई के इधर-उधर लाई जा सकेंगी। भार तो वही रहेगा, लेकिन आकार, आकृति छोटी से छोटी होती चली जाएगी। एक माचिस में एक रेलवे इंजन आ सकेगा। लेकिन उसका भार वही रहेगा, क्योंकि स्पेस में कोई भार नहीं होता। तुम स्पेस तो निकाल सकते हो लेकिन भार नहीं। भार तो वही रहेगा, क्योंकि भार अणुओं के कारण है, स्पेस के कारण नहीं।
वे कहते हैं कि पूरी पृथ्वी एक सेब के आकार में सघनीभूत की जा सकती है लेकिन भार वही रहेगा। और यदि तुम इन अणुओं को बिखरा दो; यदि तुम पहले एक अणु निकालो फिर दूसरा और फिर तीसरा; यदि तुम सब अणुओं को निकाल लो तो पीछे कुछ भी नहीं रह जाएगा। तो पदार्थ केवल भासता है।
बुद्ध ने मनुष्य के मन का विश्लेषण और भी सरल तरीके से किया है, वह महानतम वैज्ञानिकों में से एक हैं। बुद्ध कहते हैं कि तुम्हारा अहंकार और कुछ नहीं बस कामनाएं हैं; वे कामनाएं ही तुम्हारा निर्माण करती हैं। यदि तुम एक-एक करके सभी कामनाएं निकालते चले जाओ तो एक क्षण आएगा जब कोई कामना शेष नहीं रह जाएगी। तुम समाप्त हो जाओगे बस आकाश, खाली स्पेस रह जाएगा। और बुद्ध कहते हैं कि यही निर्वाण है। यही तुम्हारे व्यक्तित्व का पूरी तरह समाप्त हो जाना है; तुम नहीं रहे।
और बुद्ध कहते हैं कि यही मौन है-जब तक तुम पूरी तरह मिट न जाओ, मौन तुम पर नहीं उतर सकता। बुद्ध कहते हैं कि तुम मौन नहीं हो सकते क्योंकि तुम्हीं समस्या हो; तुम शांत नहीं हो सकते क्योंकि तुम्हीं रोग हो; और तुम कभी आनंदित नहीं हो सकते क्योंकि तुम्हीं बाधा हो। आनंद तो किसी भी क्षण उतर सकता है पर तुम बाधा हो। जब तुम नहीं होते तो आनंद होता है; जब तुम नहीं होओगे तो शांति होगी; जब तुम नहीं होओगे तो मौन होगा। जब तुम्हारी अंतरात्मा पूर्णतया रिक्त होती है तो वह रिक्तता ही आनंद होती है। यही कारण है कि बुद्ध की शिक्षाओं को शून्यवाद कहा गया है।
ये चार विधियां आत्मा-या तुम कह सकते हो अनात्मा--कीं इसी अवस्था को प्राप्त करने के लिए हैं। इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। तुम इसे विधायक नाम दे सकते हो, जैसे हिंदुओं और जैनों ने इसे आत्मा कहा है; या तुम इसे अधिक उचित लेकिन नकारात्मक नाम दे सकते हो, जैसे बुद्ध ने इसे अनत्ता कहा है। यह तुम पर निर्भर करता है। लेकिन तुम उसे जो भी कहो, वह कुछ है नहीं जिसे तुम कोई नाम दे सको, कुछ कह कर पुकार सको, वह बस
अनंत आकाश है, स्पेस है। यही कारण है कि मैं कहता हूं ये परम विधियां हैं, सर्वाधिक सूक्ष्म और सर्वाधिक कठिन विधियां हैं-लेकिन बहुत अदभुत भी हैं। और यदि तुम इन चारों में से किसी एक विधि पर भी काम कर सको तो तुम अप्राप्य को प्राप्त कर लोगे।
पहली विधि : पहली विधि:
अपने निष्क्रिय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्त।
अपने निष्क्रिय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो—लेकिन भीतर सब कुछ रिक्त हो। यह सुंदरतम विधियों में से एक है। किसी भी ध्यानपूर्ण मुद्रा में, अकेले, शांत होकर बैठ जाओ। तुम्हारी रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पूरा शरीर विश्रांत, जैसे कि सारा शरीर रीढ़ की हड्डी पर टँगा हो। फिर अपनी आंखें बंद कर लो। कुछ क्षण के लिए विश्रांत, से विश्रांत अनुभव करते चले जाओ। लयवद्ध होने के लिए कुछ क्षण ऐसा करो। और फिर अचानक अनुभव करो कि तुम्हारा शरीर त्वचा की दीवारें मात्र है और भीतर कुछ भी नहीं है। घर खाली है, भीतर कोई नहीं है। एक बार तुम विचारों को गुजरते हुए देखोंगे, विचारों के मेघों को विचरते पाओगे। लेकिन ऐसा मत सोचो कि वे तुम्हारे है। तुम हो ही नहीं। बस ऐसा सोचो कि वे रिक्त आकाश में घूम हुए आधारहीन मेध है, वे तुम्हारे नहीं है। वे किसी के भी नहीं है। उनकी कोई जड़ नहीं है।
वास्तव में ऐसा ही है: विचार केवल आकाश में घूमते मेघों के समान है। न तो उनकी कोई जड़ें है, न आकाश से उनका कोई संबंध है। वे बस आकाश में इधर से उधर घूमते रहते है। वे आते है और चले जाते है। और आकाश अस्पर्शित, अप्रभावित बना रहता है। अनुभव करो कि तुम्हारा शरीर लय, पुराने सहयोग के कारण विचार आते रहेंगे। लेकिन इतना ही सोचो कि वे आकाश में घूमते हुए आधारहीन मेध है। वे तुम्हारे नहीं है, वे किसी के भी नहीं है। भीतर कोई भी नहीं है जिससे वे संबंधित हों, तुम तो रिक्त हो।
यह कठिन होगा, लेकिन केवल पुरानी आदतों के कारण कठिन होगा। तुम्हारा मन किसी विचार को पकड़कर उससे जुड़ना चाहते है। उसके साथ बहना, उसका आनंद लेना, उसमें रमना चाहेगा। थोड़ा रूको। कहो कि न तो यहां बहने के लिए कोई है, न लड़ने के लिए कोई है, इस विचार के साथ कुछ भी करने के लिए कोई नहीं है।
कुछ ही दिनों में, या कुछ हफ्तों में, विचार कम हो जाएंगे। वे कम-से कम होते जाएंगे। बादल छांटने लगेंगे, या यदि वे आएं के भी तो बीच-बीच में मेध-रहित आकाश के बड़े अंतराल होंगे जब कोई विचार न होगा। एक विचार गुजर जाएगा, फिर कुछ समय के लिए दूसरा विचार नहीं आएगा। फिर दूसरा विचार आयेगा और अंतराल होगा। उन अंतरालों में ही तुम पहली बार जानोगे कि रिक्तता क्या है। और उसकी एक झलक ही तुम्हें इतने गहन आनंद से भर जाएगी कि तुम कल्पना भी नहीं सकर सकते।
असल में, इसके बारे में एक भी कहना असंभव है, क्योंकि भाषा में जो भी कहा जाएगा वह तुम्हारी और इशारा करेगा और तुम हो ही नहीं। यदि में कहूं कि तुम सुख से भर जाओगे तो यह बेतुकी बात होगी। तुम तो होगे ही नहीं। तो मैं कैसे कह सकता हूं कि तुम सूख से भी जाओगे? सुख होगा। तुम्हारी त्वचा की चार दीवारी में आनंद का स्पंदन होगा। लेकिन तुम नहीं होओगे? एक गहन मौन तुम पर उतर आयेगा। क्योंकि यदि तुम ही नहीं हो तो कोई भी अशांति पैदा नहीं कर सकता।
तुम सदा यही सोचते हो कि कोई और तुम्हें अशांत कर रहा है। सड़क से गुजरते हुए ट्रैफिक की आवाज, चारों और खेलते हुए बच्चे, रसोईघर में काम करती हुई पत्नी—हर कोई तुम्हें अशांत कर रहा है।
कोई तुम्हें अशांत नहीं कर रहा है, तुम ही अशांति के कारण हो। क्योंकि तुम हो इसलिए कुछ भी तुम्हें अशांत कर सकता है। यदि तुम नहीं हो तो अशांति आएगी और तुम्हारी रिक्तता को बिना छुए गुजर जाएगी। तुम ऐसे हो कि सब कुछ बहुत जल्दी तुम्हें छू जाता है। एक घाव जैसे हो; कुछ भी तुम्हें तत्क्षण चोट पहुंचा जाता है।
मैंने एक वैज्ञानिक कहानी सुनी है। तीसरे विश्वयुद्ध के बाद ऐसा हुआ कि सब मर गए, अब पृथ्वी पर कोई भी नहीं था बस वृक्ष और पहाड़ियां ही बची थी। एक बड़े वृक्ष ने सोचा कि चलो खूब शोर करूं। जैसा कि वह पहले किया करता था। वह एक बड़ी चट्टान पर गिर पडा जो भी किया जा सकता था उसने सब किया। लेकिन कोई शोर नहीं हुआ। क्योंकि शोर के लिए तुम्हारे कानों की जरूरत होती है। आवाज के लिए तुम्हारे कानों की जरूरत है। यदि तुम नहीं हो तो आवाज पैदा नहीं की जा सकती है। यह असंभव है।
मैं यहां बोल रहा हूं। यदि कोई न हो तो मैं बोलता रह सकता हूं। लेकिन आवाज पैदा नहीं होगी। लेकिन मैं आवाज पैदा कर सकता हूं क्योंकि मैं स्वयं तो उसे सुन ही सकता है। यदि सुनने के लिए कोई भी न हो ता आवाज पैदा नहीं की जा सकती। क्योंकि आवाज तुम्हारे कानों की प्रतिक्रिया है।
यदि पृथ्वी पर कोई भी न हो तो सूरज उग सकता है। लेकिन प्रकाश नहीं होगा। यह बात अजीब लगती है। हम ऐसा सोच भी नहीं सकते क्योंकि हम तो सदा ही सोचते है कि सूरज उगेगा और प्रकाश हो जाएगा। लेकिन तुम्हारी आंखें चाहिए, तुम्हारी आंखों के बिना सूरज प्रकाश पैदा नहीं कर सकता। वह उगता रह सकता है। लेकिन सब व्यर्थ होगा। क्योंकि उसकी किरणें रिक्तता से ही गुजरेगी। कोई भी नहीं होगा। जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह प्रकाश है।
प्रकाश तुम्हारी आंखों के कारण है। तुम प्रतिक्रिया करते हो। ध्वनि तुम्हारे कानों के कारण है। तुम प्रतिक्रिया करते हो। तुम क्या सोचते हो, किसी बग़ीचे में एक गुलाब का फूल खिला है, लेकिन यदि उधर से कोई भी न गूजरें तो क्या उसमें सुगंध होगी। अकेला गुलाब ही सुगंध पैदा नहीं कर सकता। तुम और तुम्हारी नाक जरूरी है। कोई होना चाहिए जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह सुगंध है, यह गुलाब है। चाहे गुलाब कितनी ही कोशिश करे, बिना किसी नाक के वह गुलाब न होगा।
तो अशांति वास्तव में सड़क पर नहीं है। वह तुम्हारे अहंकार में है। तुम्हारा अहंकार प्रतिक्रिया करता है। यह तुम्हारी व्याख्या है। कभी किसी दूसरी स्थिति में तुम उसका आनंद भी ले सकते हो। तब वह अशांति नहीं होगी। किसी दूसरे मनोभव में तुम उसका आनंद लोगे और तब तुम कहोगे, ‘कितना सुंदर, क्या संगीत है।’ लेकिन किसी उदासी के क्षण में संगीत भी अशांति बन जाएगा।
लेकिन यदि तू नहीं हो, बस एक स्पेस है, एक रिक्तता है, तब न तो अशांति हो सकती है न संगीत। सब कुछ बस तुमसे होकर गुजर जाएगा,बिलकुल अनजाना, क्योंकि अब कोई घाव नहीं है। जो प्रतिक्रिया करे, भीतर कोई नहीं है। जो प्रत्युत्तर दे; किसी अहंकार का निर्माण भी नहीं होगा। इसी को बुद्ध निर्वाण कहते है।
और यह विधि तुम्हारी सहायता कर सकती है।
अपने निष्क्रिय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्त।
किसी भी निष्क्रिय अवस्था में बैठ जाओ, कुछ भी न करो क्योंकि जब भी तुम कुछ करते हो तो कर्ता बीच में आ जाता है। वास्तव में कोई कर्ता नहीं है। केवल क्रिया के कारण ही तुम समझते हो कि कर्ता है। बुद्ध को समझ पाना इसीलिए कठिन है। केवल भाषा के कारण ही समस्याएं खड़ी हुई है।
हम कहते है कि व्यक्ति चल रहा है। यदि हम इस वाक्य का विश्लेषण करें तो इसका अर्थ हुआ कि कोई है जो चल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि कोई चल नहीं रहा,बस चलने की क्रिया हो रही है। तुम हंस रहे हो। भाषा के कारण ऐसा लगता है कि जैसे कोई है जो हंस रहा है। बुद्ध कहते है कि हंसी तो हो रही है। लेकिन भीतर कोई नहीं है जो हंस रहा है।
जब तुम हंसते हो, इसे स्मरण करो और खोजा कि कौन हंसता है। तुम कभी किसी को न पाओगे। बस हंसी मात्र है, उसके पीछे कोई हंसने वाला नहीं है। जब तुम उदास हो तो भीतर कोई नहीं है जो उदास है, बस उदासी है। उसको देखो। बस उदासी है। यह एक प्रक्रिया है: हंसी,सुख, दुःख; इनके पीछे कोई मौजूद नहीं है।
केवल भाषा के कारण ही हम द्वैत में सोचते है। यदि कुछ होता है तो हम कहते है कि कोई होना चाहिए जिसने किया,कोई कर्ता होना चाहिए। हम क्रिया को अकेले नहीं सोच सकते है। लेकिन क्या कभी तुमने कर्ता को देखा है। क्या तुमने उसे कभी देखा है जो हंसता है।
बुद्ध कहते है कि जीवन है, जीवन की प्रक्रिया है, लेकिन भीतर कोई भी नहीं है जो जीवंत है। और फिर मृत्यु होती है। लेकिन कोई मरता नहीं है। बुद्ध के लिए तुम बंटे हुए नहीं हो। भाषा द्वैत निर्मित करती है। मैं बोल रहा हूं। ऐसा लगता है कि मैं कोई हूं जो बोल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि केवल बोलना हो रहा है। बोलने वाला कोई नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। जो किसी से संबंधित नहीं है।
लेकिन हमारे लिए यह कठिन है। क्योंकि हमारा मन द्वैत में गहरा जमा हुआ है। हम जब भी किसी क्रिया की बात सोचते है तो हम भीतर किसी कर्ता के बारे में सोचते है। यही कारण है कि ध्यान के लिए कोई शांत, निष्क्रिय मुद्रा अच्छी है क्योंकि तब तुम खालीपन में अधिक सरलता से उतर सकते हो।
बुद्ध कहते है, ‘ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।’
अंतर बड़ा है। मैं दोहराता हूं, बुद्ध कहते है, ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।‘ क्योंकि यदि तुम ध्यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्यान कर रहे हो। तब ध्यान एक कृत्य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।
इसीलिए कई बार जब कर्ता क्रिया में खो जाता है तो तुम अचानक सुख कर एक स्फुरण अनुभव करते हो। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि तुम क्रिया में खो गए। नृत्य में ऐसा एक क्षण आता है जब नृत्य रह जाता है। और नर्तक खो जाता है। तब तत्क्षण एक आशीर्वाद एक सौंदर्य एक आनंद बरस उठता है। नर्तक एक अज्ञात आनंद से भर जाता है। वहां क्या हुआ। केवल क्रिया ही रह गई और कर्ता विलीन हो गया।
युद्ध भूमि में सैनिक कई बार बड़े गहन आनंद को उपलब्ध हो जाते है। यह सोच पाना भी कठिन है क्योंकि वे मृत्यु के इतने निकट होते है कि किसी भी क्षण वे मर सकते है। शुरू-शुरू में तो वह भयभीत हो जाते है, भय से कांपते है, लेकिन तुम रोज-रोज लगातार कांपते और भयभीत नहीं रहा सकते। धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। मनुष्य मृत्यु को स्वीकार कर लेता है, तब भय समाप्त हो जाता है।
और जब मृत्यु इतनी करीब हो और जरा सी चूक से मृत्यु घटित हो सकती है तो कर्ता भूल जाता है और केवल कर्म रह जाता है। केवल क्रिया रह जाती है। और वे क्रिया में इतने गहरे डूब जाते है कि वे सतत याद नहीं रख सकते कि ‘मैं हूं’। और ‘मैं हूं’ तो परेशानी खड़ी करेगा। तुम चूक जाओगे तुम क्रिया में पूरे नहीं हो पाओगे। और जीवन दांव पर लगा है। इसलिए तुम द्वैत को नहीं ढो सकते। कृत्य समग्र हो जाता है। और जब भी कृत्य समग्र होता है तो अचानक तुम पाते हो कि तुम इतने आनंदित हो जितने तुम पहले कभी भी न थे।
योद्धाओं ने आनंद के इतने गहरे झरनों का अनुभव किया है जितना कि साधारण जीवन तुम्हें कभी नहीं दे सकता। शायद यही कारण हो कि युद्ध इतने आकर्षित करते है। और शायद यही कारण हो कि क्षत्रिय ब्राह्मणों से अधिक मोक्ष को उपलब्ध हुए है। क्योंकि ब्राह्मण हमेशा सोचते ही रहते है, बौद्धिक ऊहापोह में उलझे रहते है। जैनों के चौबीस तीर्थकर राम, कृष्ण, बुद्ध, सभी क्षत्रिय योद्धा थे। उन्होंने उच्चतम शिखर को छुआ है।
किसी दुकानदार को कभी इतने ऊंचे शिखर छूते नहीं सूना होगा। वह इतनी सुरक्षा में जीता है कि वह द्वैत में जी सकता है। वह जो भी करता है कभी पूरा-पूरा नहीं होता। लाभ कोई समग्र कृत्य नहीं हो सकता तुम उसका आनंद ले सकते हो, लेकिन वह कोई जीवन मृत्यु का सवाल नहीं हो सकता। तुम उसके साथ खेल सकते हो। लेकिन कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। वह एक खेल है। दुकानदारी एक खेल ही है। धन का खेल है। खेल कोई बहुत खतरनाक बात नहीं है। इसलिए दुकानदार सदा कुनकुना रहता है। एक जुआरी भी दुकानदार से अधिक आनंद को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि जुआरी खतरे में उतरता है। उसके पास जो कुछ है वह दांव पर लगा देता है। पूरे दांव के उस क्षण में कर्ता खो जाता है।
शायद यही कारण है कि जुए में इतना आकर्षण है, युद्ध में इतना आकर्षण है। जहां तक मैं समझता हूं,जो भी कुछ आकर्षण है कहीं उसके पीछे कुछ आनंद भी छिपा होगा। कहीं अज्ञात का कोई इशारा छिपा होगा। कहीं जीवन के गहन रहस्य की झलक छिपी होगी। अन्यथा कुछ भी आकर्षण नहीं हो सकता।
निष्क्रियता.....ओर ध्यान में तुम जो मुद्रा लो वह शांत होना चाहिए। भारत में हमने सबसे निष्क्रिय आसन, सबसे शांत मुद्रा विकसित की है। सिद्धासन। और इसका सौंदर्य यह है कि सिद्धासन की मुद्रा में जिसमें बुद्ध बैठे है। शरीर गहनत्म निष्क्रियता की अवस्था में होता है। लेट कर भी तुम इतने क्रिया शून्य नहीं होते। सोते समय भी तुम्हारी मुद्रा निष्क्रिय नहीं होती, क्रियाशील होती है।
सिद्धासन इतना शांत क्यों होता है? कई कारण है। इस मुद्रा में शरीर की विद्युत ऊर्जा एक वर्तुल में घूमती है। शरीर का एक विद्युतीय वर्तुल होता है: जब वर्तुल पूरा हो जाता है तो ऊर्जा शरीर में चक्राकर घूमने लगती है। बाहर नहीं निकलती। अब यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध तथ्य है कि कई मुद्राओं में तुम्हारे शरीर से ऊर्जा बाहर निकलती रहती है। जब शरीर ऊर्जा को बाहर फेंकता है तो उसे लगातार ऊर्जा पैदा करना पड़ती है। वह सक्रिय रहता है। शरीर तंत्र को लगातार कार्य करना पड़ता है क्योंकि तुम ऊर्जा फेंक रह हो। जब ऊर्जा शरीर तंत्र से बाहर निकल रहा है तो उसे पूरा करने के लिए भीतर से शरीर को सक्रिय होना पड़ता है। तो सबसे शांत मुद्रा वह होगी जब कोई ऊर्जा बाहर नहीं निकल रही हो।
अब पाश्चात्य देशों में, विशेषकर इंग्लैंड में वे रोगियों का इलाज उनके शरीर के विद्युतीय वर्तुल बनाकर करने लगे है। कई अस्पतालों में इन विधियों का उपयोग होता है। और वे बहुत सहयोगी है। व्यक्ति फर्श पर तारों के एक जाल में लेट जाता है। तारों का वह जाल बस उसके शरी की विद्युत का एक वर्तुल बनाने के लिए होता है। बस आधा घंटा ही पर्याप्त है—और वह इतना विश्रांत,इतना ऊर्जा से भरा हुआ, इतना शक्तिशाली अनुभव करेगा कि वह विश्वास भी नहीं कर पाएगा। कि जब वह आया तो इतना कमजोर था।
सभी पुरानी सभ्यताओं में लोग रात को एक विशेष दिशा में सोते थे। ताकि ऊर्जा बाहर न बहे। क्योंकि पृथ्वी में एक चुंबकीय शक्ति है। उस चुंबकीय शक्ति का उपयोग करने के लिए तुम्हें एक विशेष दिशा में लेटना पड़ेगा। तब पृथ्वी की शक्ति सारी रात तुम्हें चुंबकत्व में रखेगी। यदि तुम इससे विपरीत लेटे हुए हो तो वह शक्ति तुमसे संघर्ष में रहेगी और तुम्हारी ऊर्जा नष्ट होगी।
कई लोग सुबह बड़ा तनाव, बड़ी कमजोरी अनुभव करते है। ऐसा होना नहीं चाहिए, क्योंकि नींद तुम्हें तरो-ताजा करने के लिए, तुम्हें अधिक ऊर्जा देने के लिए है। लेकिन कई लोग है जो रात सोते समय ऊर्जा से भरे होते है। पर सुबह वे लाश की तरह होते है। इससे कई कारण हो सकते है, पर यह भी उनमें से एक कारण हो सकता है। वे गलत दिशा में सोए है। यदि वे पृथ्वी के चुंबकत्व के विपरीत लेटे हुए है तो वे बुझा-बुझा महसूस करेंगे।
तो अब वैज्ञानिक कहते है कि शरीर का अपना एक विद्युत यंत्र है और ऐसे आसन हो सकते है जिनमें ऊर्जा संरक्षित हो। और उन्होंने सिद्धासन में बैठे हुए कई योगियों का अध्यन किया है। उस अवस्था में शरीर न्यूनतम ऊर्जा बाहर फेंकता हे। ऊर्जा संरक्षित रहती है। जब ऊर्जा संरक्षित होती है तो आंतरिक यंत्रों को कार्य नहीं करना पड़ता। किसी क्रिया की कोई जरूरत ही नहीं रहती। इसलिए शरीर अक्रिय होता है। इस अक्रियता में तुम सक्रिय अवस्था में अधिक रिक्त हो सकते हो।
इस सिद्धासन की मुद्रा में तुम्हारी रीढ़ की हड्डी और पूरा शरीर सीधा होता है। अब कई अध्ययन हुए है। जब तुम्हारा शरीर पूरी तरह सीधा होता है तो तुम पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण से न्यूनतम प्रभावित होते हो। यही कारण है कि जब तुम किसी असुविधाजनक मुद्रा में बैठते हो—जिसे तुम असुविधाजनक कहते हो—वह असुविधाजनक इसीलिए होती है क्योंकि तुम्हारा शरीर अधिक गुरूत्वाकर्षण से प्रभावित हो रहा है। यदि तुम सीधे बैठे हुए हो तो गुरूत्वाकर्षण न्यूनतम प्रभावी होता है। क्योंकि वह मात्र तुम्हारी रीढ़ को खींच सकता है। और कुछ भी नहीं।
इसीलिए तो खड़े रहकर सोना कठिन है। शीर्षासन में, सिर के बल खड़े होकर सोना तो लगभग असंभव ही हे। सोने के लिए तुम्हें लेटना पड़ता है। क्यों? क्योंकि तब धरती का खिंचाव तुम पर अधिकतम होता है। और अधिकतम खिंचाव तुम्हें अचेतन कर देता है। न्यूनतम खिंचाव तुम्हें जगाता है। अधिकतम खिंचाव अचेतन कर देता है। सोने के लिए तुम्हें लेटना पड़ता है। ताकि पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण तुम्हारे सारे शरीर को छुए और उसकी प्रत्येक कोशिश को खींचे। तब तुम अचेतन हो जाते हो।
पशु मनुष्य से अधिक अचेतन होते है। क्योंकि वे सीधे खड़े नहीं हो सकते। विकासवादी, इवोल्युशनिस्ट कहते है कि मनुष्य इसीलिए विकसित हो सका क्योंकि वह दो पांवों पर सीधा खड़ा हो सका। गुरूत्वाकर्षण का खिंचाव कम होने के कारण वह थोड़ा अधिक चैतन्य हो गया।
सिद्धासन में गुरूत्वाकर्षण शक्ति न्यूनतम होती है। शरीर निष्क्रिय और क्रिया-रहित होता है। भीतर से बंद होता है। स्वयं में एक संसार बन जाता है। न कुछ बाहर जाता है, न कुछ भीतर आता है। आंखें बंद है। हाथ जुड़े हुए है, पाँव जुड़े हुए है—ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। और जब भी ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। वह एक आंतरिक लय एक आंतरिक संगीत निर्मित करती है। जितना तुम उस संगीत को सुनते हो, उतने ही तुम विश्रांत अनुभव करते हो।
‘अपने निष्क्रय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो—बिलकुल जैसे कोई खाली कमरा होता है—सर्वथा रिक्त।’
उस रिक्तता में गिरते जाओ। एक क्षण आएगा जब तुम अनुभव करोगे कि सब कुछ समाप्त हो गया। कि अब कोई भी नहीं बचा। घर खाली है, घर का स्वामी मिट गया, तिरोहित हो गया। उस अंतराल में जब तुम नहीं होओगे तो परमात्मा प्रकट होगा। जब तुम नहीं होते, परमात्मा होता है। जब तुम नहीं होते, आनंद होता है। इसलिए मिटने का प्रयास करो। भीतर से मिटने का प्रयास करो।
दूसरी विधि:
‘हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्त खोल है जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’
यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझे। यदि तुम निष्क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक्त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्य नहीं हो सकते। तुम्हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्यकता है। अन्यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्हें सक्रिय रहना पड़ेगा।
और ध्यान तुम्हारे जीवन की शैली होनी चाहिए। उसका एक हिस्सा नहीं। अन्यथा पाकर भी तुम उसे खो दोगे। यदि एक घंटे के लिए तुम निष्क्रिय हो तो तेईस घंटे के लिए तुम सक्रिय होओगे। सक्रिय शक्तियां अधिक होंगी और निष्क्रिय में जो तुम भी पाओगे वे उसे नष्ट कर देंगे। सक्रिय शक्तियां उसे नष्ट कर देंगी। और अगल दिन तुम फिर वही करोगे: तेईस घंटे तुम कर्ता को इकट्ठा करते रहोगे और एक घंटे के लिए तुम्हें उसे छोड़ना पड़ेगा। यह कठिन होगा।
तो कार्य और कृत्य के प्रति तुम्हें दृष्टिकोण बदलना होगा। इसीलिए यह दूसरी विधि है। कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए। इसके प्रति तुम्हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्चे खेलते है। यह निष्प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्य का ही आनंद लेना है।
यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्हें स्पष्ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्योंकि परिणाम तुम्हारा लक्ष्य होता है। स्वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।
कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्य, परिणाम महत्वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।
लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे, यदि परिणाम को तुम बिना खेले पा सको तो परिणाम व्यर्थ हो जाएगा। उसका महत्व ही प्रक्रिया के कारण है। उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्या करनी।
लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्य है। उस कृत्य का ही आनंद है।
लीला के इस आयाम को तुम्हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्य में इतने समग्र हो जाओ। कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।
कृष्ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्य परमात्मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्योंकि वह सकता है कि यदि यह सब लीला ही है। तो हत्या क्यों करें? युद्ध क्यों करें? यह समझ सकता है कि कार्य क्या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि लीला क्या है। और कृष्ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।
तुम इतना गैर-गंभीर व्यक्ति कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला है, एक खेल है, एक अभिनय है। वे सब चीजों का आनंद ले रहे है। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है। वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम के विषय में बिलकुल भी चिंतित भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।
अर्जुन के लिए कृष्ण को समझना कठिन है। क्योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है। वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों और मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्ट होंगे। यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा? विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें। लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी। कौन उसकी प्रशंसा करेगा। कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है। तो चाहे मैं जीतूं चाहे मैं हारूं, सब असार लगता है। सारी बात ही बेकार है।’
वह पलायन करना चाहता है। वह बहुत गंभीर है। और जो भी हिसाब-किताब लगता है वह उतना ही गंभीर होगा। गीता की पृष्ठभूमि अद्भुत है: युद्ध सबसे गंभीर घटना है। तुम उसके प्रति खेलपूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि जीवन मरण का प्रश्न है। लाखों जानों का प्रश्न है। तुम खेलपूर्ण नहीं हो सकते। और कृष्ण आग्रह करते है कि वहां भी तुम्हें खेलपूर्ण होना है। तुम यह मत सोचो कि अंत में क्या होगा, बस अभी और यही जाओ। तुम बस योद्धा का अपना खेल पूरा करो। फलकी चिंता मत करो। क्योंकि परिणाम तो परमात्मा के हाथों में है। और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम परमात्मा के हाथों में है या नहीं। असली बात यह है कि परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं है। असली बात यह है कि परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम्हें उसे नहीं ढोना है। यदि तुम उसे ढोते हो तो तुम्हारा जीवन ध्यानपूर्ण नहीं हो सकता।
यह दूसरी विधि कहती है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’
अपने पूरे जीवन को लीला बन जाने दो।
‘यह ब्रह्मांड एक रिक्त खोल है जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।‘
तुम्हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली कमरे में चलते हुए स्वप्न जैसी है। ध्यान में अपने मन को कौतुक करते हुए देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्चे खेलते है। और ऊर्जा के अतिरेक से कूदते-फांदते है। इतना ही पर्याप्त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ। यदि कोई बुरा विचार भी आता है तो ग्लानि से मत भरो। या कोई शुभ विचार उठता है—कि तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो—तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि तुम बहुत महान हो गए हो। केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है, कभी ऊपर आता है। यह तो बस ऊर्जा का बहाता हुआ अतिरेक है जो भिन्न-भिन्न रूप और आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।
खेलपूर्ण होओ। शिव कहते है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’
खेलपूर्ण होने का अर्थ होता है कि वह कृत्य का आनंद ले रहा है। कृत्य ही स्वयं में पर्याप्त है। पीछे किसी लाभ की आकांक्षा नहीं है। वह कोई हिसाब नहीं लगा रहा है। जरा एक दुकानदार की और देखो। वह जो भी कर रहा है उसमें लाभ हानि का हिसाब लगा रहा हे। कि इससे मिलेगा क्या। एक ग्राहक आता है। ग्राहक कोई व्यक्ति नहीं बस एक साधन है। उससे क्या कमाया जा सकता है। कैसे उसका शोषण किया जा सकता है। गहरे में वह हिसाब लगा रहा कि क्या करना है। क्या नहीं करना है। बस शोषण के लिए वह हर चीज का हिसाब लगा रहा है। उसे इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सौदे से मतलब है। किसी और चीज से नहीं। उसे बस भविष्य से, लाभ से मतलब है।
पूर्व में देखो: गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है। मुझे अपने दादा की याद है। वह कपड़ों के दुकानदार थे। और मैं तथा मेरे परिवार के लोग हैरान थे। क्योंकि इसमें उन्हें बहुत मजा आता था। घंटो-घंटो ग्राहकों के साथ वह खेल चलता था। यदि कोई चीज दस रूपये की होती तो वह उसे पचास रूपए मांगते। और वह जानते थे कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते थे कि वह चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते। फिर घंटो तक लम्बी बहस होती। मेरे पिता और चाचा गुस्सा होते कि ये क्या हो रहा है। आप सीधे-सीधे कीमत क्यों नहीं बता देते। लेकिन उनके की अपने ग्राहक थे। जब वे लोग आते तो पूछते की दादा कहां है। क्योंकि उनके साथ तो खेल हो जाता था। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं पड़ता।
उन्हें इसमे आनंद आता, वह कृत्य ही अपने आप में आनंद था। दो लोग बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है। क्योंकि स्वभावत: एक निश्चित मूल्य ही संभव था।
पश्चिम में अब मूल्यों को निश्चित कर लिया गया है। क्योंकि लोग अधिक हिसाबी और लाभ उन्मुक्त हो गए है। समय क्यों व्यर्थ करना। जब बात को मिनटों में निपटाया जा सकता है। तो कोई जरूरत नहीं है। तुम सीधे-सीधे निश्चित मूल्य लिख सकते हो। घंटों तक क्यों जद्दोजहद करना? लेकिन तब सारा खेल खो जाता है। और एक दिनचर्या रह जाती है। इसे तो मशीनें भी कर सकती है। दुकानदार की जरूरत ही नहीं है। न ग्राहक की जरूरत है।
मैने एक मनोविश्लेषक के संबंध में सुना है कि वह इतना व्यस्त था और उसके पास इतने मरीज आते थे कि हर किसी से व्यक्तिगत संपर्क रख पाना कठिन था। तो वह अपने टेप रिकार्डर से मरीजों के लिए सब संदेश भर देता था जो स्वयं उनसे कहना चाहता था।
एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत अमीर मरीज का सलाह के लिए मिलने का समय था। मनोविश्लेषक एक होटल में भीतर जा रहा था। अचानक उसने उस मरीज को वहां बैठे देखा। तो उसने पूछा, तुम यहां क्या कर रहे हो। इस समय तो तुम्हें मेरे पास आना था। मरीज ने कहा कि: ‘मैं भी इतना व्यस्त हूं कि मैंने अपनी बातें टेप रिकार्डर में भर दी है। दोनों टेप रिकार्डर आपस में बातें कर रहे है। जो आपको मुझसे कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर में भर गया है। और जो मुझे आपको कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर से आपके टेप रिकार्डर में रिकार्ड हो गया है। इससे समय भी बच गया और हम दोनों खाली है।’
यदि तुम हिसाबी हो जाओ तो व्यक्ति समाप्त हो जाता है। और मशीन बन जाता है। भारत के गांवों में अभी भी मोल-भाव होता है। यह एक खेल है। और रस लेने जैसा है। तुम खेल रहा हो। दो प्रतिभाओं के बीच एक खेल चलता है। और दोनों व्यक्ति गहरे संपर्क में आते है। लेकिन फिर समय नहीं बचता। खेलने से तो कभी भी समय की बचत नहीं हो सकती। और खेल में तुम समय की चिंता भी नहीं करते। तुम चिंता मुक्त होते हो। और जो भी होता है उसी समय तुम उसका रस लेते हो। खेलपूर्ण होना ध्यान प्रक्रियाओं के गहनत्म आधारों में से एक है। लेकिन हमारा मन दुकानदार है। हम उसके लिए प्रशिक्षित किया गया है। तो जब हम ध्यान भी करते है तो परिणाम उन्मुख होते है। और चाहे जो भी हो तुम असंतुष्ट ही होते हो।
मेरे पास लोग आते है और कहते है, ‘हां ध्यान तो गहरा हो रहा है। मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और कुछ भी नहीं हो रहो।’
और क्या नहीं हो रहा? मैं जानता हूं ऐसे लोग एक दिन आएँगे और पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हाँ रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ और क्या चाहिए। वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता। जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने अदृष्य है। कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्हें किसी को दिखा भी नहीं सकते हो।
रोज मेरे पास लोग आते है और कहते है कि वह उदास है। वे कसी ऐसी चीज की आशा कर रहे है जिसकी आशा दुकानदारी में भी नहीं होनी चाहिए। और ध्यान में वे उसकी आशा कर रहे है। दुकानदार, हिसाबी-किताबी मन ध्यान के भी बीच में आ जाता है—इससे क्या लाभ हो सकता है।
दुकानदार खेलपूर्ण नहीं होता। और यदि तुम खेलपूर्ण नहीं हो तो तुम ध्यान में नहीं उतर सकते। अधिक से अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। खेल में समय व्यतीत करो। बच्चों के साथ खेलना ठीक रहेगा। यदि कोई और न भी हो तो तुम कमरे में अकेले उछल-कूद कर सकते हो। नाच सकते हो। और खेल सकते हो, आनंद ले सकते हो।
यह प्रयोग करके देखो। दुकानदारी में से जितना समय निकाल सको। निकाल कर जरा खेल में लगाओ। जो भी चाहो करो। चित्र बना सकते हो। सितार बजा सकते हो। तुम्हें जो भी अच्छा लगे। लेकिन खेलपूर्ण होओ। किसी लाभ की आकांक्षा मत करो। भविष्य की और मत देखो। वर्तमान की और देखो। और तब तुम भीतर भी खेलपूर्ण हो सकते हो। तब तुम अपने विचारों पर उछल सकते हो। उनके साथ खेल सकते हो। उन्हें इधर-उधर फेंक सकते हो। उनके साथ नाच सकते हो। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं होओगे।
दो प्रकार के लोग है। एक वे जो मन के संबंध में पूर्णतया अचेत है। उनके मन में जो भी होता है उसके प्रति वे मूर्छित होते है। उन्हें नहीं पता कि कहां उनका मन उन्हें भटकाए जा रहा है। यदि मन की किसी भी चाल के प्रति तुम सचेत हो सको तो तुम हैरान होओगे। कि मन मैं क्या हो रहा है।
मन एसोसिएशन में चलता है। राह पर एक कुत्ता भौंकता है। भौंकना तुम्हारे मस्तिष्क तक पहुंचता है। और वह कार्य करना शुरू कर देता है। कुत्ते के इस भौंकने को लेकर तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। हो सकता है कि तुम्हें किसी मित्र की याद आ जाए। जिसके पास एक कुत्ता है। अब यह कुत्ता तो तुम भूल गए पर वह मित्र तुम्हारे मन में आ गया। और उसकी एक पत्नी है जो बहुत सुंदर है—अब तुम्हारा मन चलने लगा। अब तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। और तुम्हें पता नहीं चलता कि एक कुत्ता तुम पर चाल चल गया। बस भौंका ओर तुम्हें रास्ते पर ले आया। तुम्हारे मन ने दौड़ना शुरू कर दिया।
तुम्हें बड़ी हैरानी होगी यह जानकर कि वैज्ञानिक इस बारे में क्या कहते है। वे कहते है कि यह मार्ग तुम्हारे मन में सुनिश्चित हो जाता है। यदि यही कुत्ता इसी परिस्थिति में दोबारा भौंके तो तुम इसी पर चल पड़ोगे: वहीं मित्र,वहीं कुत्ता, वहीं सुंदर पत्नी। दोबारा उसी रास्ते पर तुम घूम जाओगे।
अब मनुष्य के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड डालकर उन्होने कई प्रयोग किए है। वे मस्तिष्क में एक विशेष स्थान को छूते है। और एक विशेष स्मृति उभर आती है। अचानक तुम पाते हो कि तुम पाँच वर्ष के हो, एक बग़ीचे में खेल रहे हो। तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो। फिर पूरी की पूरी शृंखला चली आती है। तुम्हें अच्छा लग रहा है। हवा, बगीचा,सुगंध, सब कुछ जीवंत हो उठती है। वह मात्र स्मृति ही नहीं होती, तुम उसे दोबारा जीते हो। फिर इलेक्ट्रोड वापस निकाल लिए जाता है। और स्मृति रूक जाती हे। यदि इलेक्ट्रोड पुन: उसी स्थान को छू ले तो पुन: वही स्मृति शुरू हो जाती है। तुम पुन: पाँच साल के हो जाते हो। उसी बग़ीचे में, उसी तितली के पीछे दौड़ने लगते हो। वहीं सुगंध और वहीं घटना चक्र शुरू हो जाता है। जब इलेक्ट्रोड निकाल लिया जाता है। लेकिन इलेक्ट्रोड को वापस उसी जगह रख दो स्मृति वापस आ जाती है।
यह ऐसे ही है जैसे यांत्रिक रूप से कुछ स्मरण कर रहे हो। और पूरा क्रम एक निश्चित जगह से प्रारंभ होता है और निश्चित परिणति पर समाप्त होता है। फिर पुन: प्रारंभ से शुरू होता है। ऐसे ही जैसे तुम टेप रिकार्डर में कुछ भर देते हो। तुम्हारे मस्तिष्क में लाखों स्मृतियां है। लाखों कोशिकाएं स्मृतियां इकट्ठी कर रही है। और यह सब यांत्रिक है।
मनुष्य के मस्तिष्क के साथ किए गए ये प्रयोग अद्भुत है। और इनसे बहुत कुछ पता चलता है। स्मृतियां बार-बार दोहरायी जा सकती है। एक प्रयोगकर्ता ने एक स्मृति को तीन सौ बार दोहराया और स्मृति वही की वही रही—वह संग्रहीत थी। जिस व्यक्ति पर यह प्रयोग किया गया उसे तो बड़ा विचित्र लगा क्योंकि वह उस प्रक्रिया का मालिक नहीं था। वह कुछ भी नहीं कर सकता था। जब इलेक्ट्रोड उस स्थान को छूता तो स्मृति शुरू हो जाती और उसे देखना पड़ता।
तीन सौ बार दोहराने पर वह साक्षी बन गया। स्मृति को तो वह देखता रहा, पर इस बात के प्रति वह जाग गया कि वह और उसकी स्मृति अलग-अलग है। यह प्रयोग ध्यानियों के लिए बहुत सहयोगी हो सकता है। क्योंकि जब तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारा मन और कुछ नहीं बस तुम्हारे चारों और एक यांत्रिक संग्रह है। तो तुम उससे अलग हो जाते हो।
इस मन को बदला जा सकता है। अब तो वैज्ञानिक कहते है कि देर अबेर हम उन केंद्रों को काट डालेंगे जो तुम्हें विषाद ओर संताप देते है, क्योंकि बार-बार एक ही स्थान छुआ जाता है। और पूरी की पूरी प्रक्रिया को दोबारा जीना पड़ता है।
मैंने कई शिष्यों के साथ प्रयोग किए है। वही बात दोहराओं और वे बार-बार उसी दुष्चक्र में गिरते जाते हे। जब तक कि वे इस बात के साक्षी न हो जाएं कि यह एक यांत्रिक प्रक्रिया है। तुम्हें इस बात का पता है कि यदि तुम अपनी पत्नी से हर सप्ताह वहीं-वहीं बात कहते हो तो वह क्या प्रतिक्रिया करेगी। सात दिन में जब वह भूल जाए तो फिर वही बात कहो: वहीं प्रतिक्रिया होगी।
इसे रिकार्ड कर लो, प्रतिक्रिया हर बार वही होगी। तुम भी जानते हो, तुम्हारी पत्नी भी जानती है। एक ढांचा निश्चित है। और वही चलता रहता है। एक कुत्ता भी भौंक कर तुम्हारी प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। कहीं कुछ छू जाता है। इलेक्ट्रोड प्रवेश कर जाता है। तुमने एक यात्रा शुरू कर दी।
यदि तुम जीवन में खेलपूर्ण हो तो भीतर तुम कन के साथ भी खेलपूर्ण हो सकते हो। फिर ऐसा समझो जैसे टेलीविजन के पर्दे पर तुम कुछ देख रहे हो। तुम उसमे सम्मिलित नहीं हो। बस एक द्रष्टा हो। एक दर्शक हो। तो देखो और उसका आनंद लो। न कहो अच्छा है, न कहो बुरा है, न निंदा करो, न प्रशंसा करो। क्योंकि वे गंभीर बातें है।
यदि तुम्हारे पर्दे पर कोई नग्न स्त्री आ जाती है तो यह मत कहो कि यह गलत है, कि कोई शैतान तुम पर चाल चल रहा है। कोई शैतान तुम पर चाल नहीं चल रहा,इसे देखो जैसे फिल्म के पर्दे पर कुछ देख रहे हो।
और इसके प्रति खेल का भाव रखो। उस स्त्री से कहो कि प्रतीक्षा करो। उसे बाहर धकेलने की कोशिश मत करो। क्योंकि जितना तुम उसे बाहर धकेलोगे। उतना ही वह भीतर धुसेगी। अब महिलाएं तो हठी हाथी है। और उसका पीछा भी मत करो। यदि तुम उसके पीछे जाते हो तो भी तुम मुश्किल में पड़ोगे। न उसके पीछू जाओ। न उस से लड़ो,यही नियम है। बस देखो और खेलपूर्ण रहो। बस हेलो या नमस्कार कर लो और देखते रहो, और उसके बेचैन मत होओ। उस स्त्री को इंतजार करने दो।
जैसे वह आई थी वैसे ही अपने आप चली जाएगी। वह अपनी मर्जी से चलती है। उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। वह बस तुम्हारे स्मृतिपट पर है। किसी परिस्थिति वश वह चली आई बस एक चित्र की भांति। उसके प्रति खेलपूर्ण रहो।
यदि तुम अपने मन के साथ खेल सको तो वह शीध्र ही समाप्त हो जाएगा। क्योंकि मन केवल तभी हो सकता है। जब तुम गंभीर होओ। गंभीर बीच की कड़ी है। सेतु है।
‘हे गरिमामयी लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रक्त खोल है। जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’
तीसरी विधि:
‘हे प्रिये, ज्ञान और अज्ञान, अस्तित्व और अनस्तित्व पर ध्यान दो। फिर दोनों को छोड़ दो ताकि तुम हो सको।’
ज्ञान और अज्ञान, अस्तित्व और अनस्तित्व पर ध्यान दो।
जीवन के विधायक पहलू पर ध्यान करो और ध्यान को नकारात्मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।
फिर दोनों को छोड़ सको ताकि तुम हो सको।
इसे इस तरह देखो: जन्म पर ध्यान दो। एक बच्चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो—इसे पूरे विकास पर ध्यान दो। फिर तुम बूढ़े होते हो। और मर जाते हो। बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्पना करो जब तुम्हारे पिता और माता ने तुम्हें धारण किया था। और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था। बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्हारा शरीर चिता पर जल रहा है। और तुम्हारे संबंधी तुम्हारे चारों और खड़े है। फिर दोनों को छोड़ दो, वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। फिर दोनों को छोड़ दो और भीतर देखो। वहां तुम हो, जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरा।
‘ज्ञान और अज्ञान, अस्तित्व और अनस्तित्व....फिर दोनों को छोड़ दो, ताकि तुम हो सको।’
यह तुम किसी भी विधायक-नकारात्मक घटना से कर सके हो। तुम यहां बैठे हो, मैं तुम्हारी और देखता हूं। मेरा तुमसे संबंध होता है। जब मैं अपनी आंखें बंद कर लेता हूं तो तुम नहीं रहते और मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं हो पाता। फिर संबंध और असंबंध दोनों को छोड़ दो। तुम रिक्त हो जाओगे। क्योंकि जब तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों का त्याग कर देते हो तो तुम रिक्त हो जाते हो।
दो तरह के लोग है। कुछ ज्ञान से भरे है और कुछ अज्ञान से भरे है। ऐसे लोग है जो कहते है कि हम जाने है; उनका अहंकार उनके ज्ञान से बंधा हुआ है। और ऐसे लोग है जो कहते है, ‘हम अज्ञानी है।’वे अपने अज्ञान से भरे हुए है। वे कहते है कि ‘हम अज्ञानी है’, हम कुछ नहीं जानते। एक ज्ञान से बंधा हुआ है और दूसरा अज्ञान से, लेकिन दोनों के पास कुछ है, दोनों कुछ ढो रहे है।
ज्ञान और अज्ञान दोनों को हटा दो, ताकि तुम दोनो से अलग हो सको। न अज्ञानी, न ज्ञानी। विधायक और नकारात्मक दोनों को हटा दो। फिर तुम कौन हो? अचानक वह ‘कौन’ अचानक वह कौन तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेगा। तुम उस अद्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओगे जो दोनों के पार है। विधायक और नकारात्मक दोनों को छोड़कर तुम रिक्त हो जाओगे। तुम कुछ भी नहीं रहोगे, न ज्ञानी और न अज्ञानी। घृणा और प्रेम दोनों को छोड़ दो। मित्रता और शत्रुता दोनों को छोड़ दो। और जब दोनों ध्रुव छूट जाते है, तुम रिक्त हो जाते हो।
और यह मन की एक चाल है। वह छोड़ तो सकता है। लेकिन दोनों को एक साथ नहीं। एक चीज को छोड़ सकता है। तुम अज्ञान को छोड़ सकते हो। फिर तुम ज्ञान से चिपक सकते हो हो। तुम पीड़ा को छोड़ सकते हो। फिर तम सुख को पकड़ लोगे। तुम शत्रुओं को छोड़ दोगे तो मित्र को पकड़ लोगे। और ऐसे लोग भी है जो बिलकुल उलटा करेंगे। वे मित्रों को छोड़कर शत्रुओं को पकड़ लेंगे। प्रेम को छोड़ कर घृणा को पकड़ लेंगे। धन को छोड़कर निर्धनता को पकड़ लेंगे और ज्ञान तथा शास्त्रों को छोड़कर अज्ञान से चिपक जाएंगे। ये लोग बड़े त्यागी कहलाते है। तुम जो कुछ भी पकड़े हो वे उसे छोड़कर विपरीत को पकड़ लेते है। लेकिन पकड़ते वे भी है।
पकड़ ही समस्या है। क्योंकि यदि तुम कुछ भी पकड़े हो तो तुम रिक्त नहीं हो सकते। पकड़ो मत। इस विधि काय हीं संदेश है। किसी भी विधायक या नकारात्मक चीज को मत पकड़ो क्योंकि न पकड़ने से ही तुम स्वयं को खोज पाओगे। तुम तो हो ही, पर पकड़ के कारण छिपे हुए हो। पकड़ छोड़ते ही तुम उघड़ जाओगे। प्रकट हो जाओगे।
चौथी विधि:
‘आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ।’
इस विधि में आकाश के, स्पेस के तीन गुण दिए गए है।
1--आधारहीन: आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता।
2--शाश्वत: वह कभी समाप्त नहीं हो सकता।
3--निश्चल: वह सदा ध्वनि-रहित व मौन रहता है।
इस आकाश में प्रवेश करो। वह तुम्हारे भीतर ही है।
लेकिन मन सदा आधार खोजता है। मेरे पास लोग आते है और मैं उनसे कहता हूं, ‘आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो।’ और वे कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि मैं उन्हें कहता हूं कि मैं तुम्हें मंत्र दे दूं तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।
आधार के रहते तुम कभी रिक्त नहीं हो सकते। यही कारण है कि वह सरल है। कुछ न कुछ होना चाहिए। तुम्हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए। करते रहने से कर्ता बना रहता है। करते रहने से तुम भरे रहते हो—चाहे तुम ओंकार से भरे हो। ओम से भरे हो, राम से भरे हो। जीसस से, आवमारिया से। किसी भी चीज से—किसी भी चीज से भरे हो, लेकिन तुम भरे हो। तब तुम ठीक रहते हो। मन खालीपन का विरोध करता है। वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है। क्योंकि जब तक वह भरा है तब तक चल सकता है। यदि वह रिक्त हुआ तो समाप्त हो जाएगा। रिक्तता में तुम अ-मन को उपलब्ध हो जाओगे। वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है।
यदि तुम अंतर-आकाश, इनर स्पेस में प्रवेश करना चाहता हो तो आधार मत खोजों। सब सहारे—मंत्र, परमात्मा, शास्त्र–जो भी तुम्हें सहारा देता है वह सब छोड़ दो। यदि तुम्हें लगे कि किसी चीज से तुम्हें सहारा मिल रहा है तो उसे छोड़ दो और भीतर आ जाओ। आधारहीन।
यह भयपूर्ण होगा; तुम भयभीत हो जाओगे। तुम वहां जा रहे हो जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो। हो सकता है तुम वापस ही न आओ। क्योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे। किनारे से तुम्हारा संपर्क छूट जाएगा। और नदी तुम्हें कहां ले जाएगी। किसी को पता नहीं। तुम्हारा आधार खो सकता है। तुम एक अनंत खाई में गिर सकते हो। इसलिए तुम्हें भय पकड़ता है। और तुम आधार खोजने लगते हो। चाहे वह झूठा ही आधार क्यों न हो, तुम्हें उससे राहत मिलती है। झूठा आधार भी मदद देता है। क्योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है या सच्चा है, कोई आधार होना चाहिए।
एक बार एक व्यक्ति मेरे पास आया। वह ऐसे घर में रहना था जहां उसे लगता था कि भूत-प्रेत है, और वह बहुत चिंतित था। चिंता के कारण उसका भ्रम बढ़ने लगा। चिंता से वह बीमार पड़ गया, कमजोर हो गया। उसकी पत्नी ने कहा, यदि तुम इस घर से जरा रुके तो मैं तो रहीं हूं। उसके बच्चों को एक संबंधी के घर भेजना पडा।
वह आदमी मेरे पास आया और बोला, अब तो बहुत मुश्किल हो गयी है। मैं उन्हें साफ-साफ देखता हूं। रात वे चलते है, पूरा घर भूतों से भरा हुआ है। आप मेरी मदद करें।
तो मैंने उसे अपना एक चित्र दिया और कहा, इसे ले जाओ। अब उन भूतों से मैं निपट लुंगा। तुम बस आराम करो। और सो जाओ। तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। उनसे मैं निपट लुंगा। उन्हें मैं देख लूंगा। अब यह मेरा काम है। और तुम बीच में मत आना। अब तुम्हें चिंता नहीं करनी है।
वह अगले ही दिन आया और बोला, ‘बड़ी राहत मिली मैं चेन से सोया। आपने तो चमत्कार कर दिया।’ और मैंने कुछ भी नहीं किया था। बस एक आधार दिया। आधार से मन भर जाता है। वह खाली न रहा; वहां कोई उसके साथ था।
सामान्य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो, पर वे मदद करते है। और जब तक तुम स्वयं शक्तिशाली न हो जाओ, तुम्हें उनकी जरूरत रहेगी। इसीलिए में कहता हूं कि यह परम विधि है—कोई आधार नहीं।
बुद्ध मृत्युशय्या पर थे और आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप हमें छोड़कर जा रहे है, अब हम क्या करेंगें? हम कैसे उपलब्ध होंगे? जब आप ही चले जाएंगे तो हम जन्मों-जन्मों के अंधकार में भटकते रहेंगे, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा, प्रकाश तो विदा हो रहा है।’
तो बुद्ध ने कहा,तुम्हारे लिए यह अच्छा रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम अपना प्रकाश स्वयं बनोंगे। अकेले चलो, कोई सहारा मत खोजों, क्योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है।
और ऐसा ही हुआ। आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था। चालीस वर्ष से वह बुद्ध के साथ था, वह निकटतम शिष्य था, बुद्ध की छाया की भांति था, उनके साथ चलता था। उनके साथ रहता था। उनका बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था। चालीस वर्ष तक बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। आनंद सदा की भांति आज्ञानी ही रहा। और जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा उसके दूसरे ही दिन आनंद संबुद्ध हो गया—दूसरे ही दिन।
वह आधार ही बाधा था। जब बुद्ध ने रहे तो आनंद कोई आधार न खोज सका। यह कठिन है। यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो वह बुद्ध चला जाए, तो कोई भी तुम्हें सहारा नहीं दे सकता। अब कोई भी ऐसा न रहेगा जिसे तुम पकड़ सकोगे। जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया वह संसार में किसी और को पकड़ पायेगा। यह पूरा संसार खाली होगा। एक बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती। एक बार तुमने उसका स्वाद ले लिया तो और कुछ भी स्वाद लेने जैसा न रहा।
तो चालीस वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ। किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था। उसने परम सहारे को जाना था। अब छोटे-छोटे सहारे किसी काम के नहीं, दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया। वह निश्चित ही आधारहीन, शाश्वत निश्चल अंतर-आकाश में प्रवेश कर गया होगा।
तो स्मरण रखो कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो। आधारहीन ही जानो। यदि इस विधि को कहने का प्रयास कर रहे हो तो आधारहीन हो जाओ। यही कृष्ण मूर्ति सिखा रहा है। ‘आधारहीन हो जाओ, किसी गुरु को मत पकड़ो, किसी शस्त्र को मत पकड़ो। किसी भी चीज को मत पकड़ो।’
सब गुरु यही करते रहे है। हर गुरू का सारा प्रयास ही यह होता हे। कि पहले वह तुम्हें अपनी और आकर्षित करे,ताकि तुम उससे जुड़ने लगो। और जब तुम उससे जुड़ने लगते हो, जब तुम उसके निकट और घनिष्ठ होने लगते हो, तब वह जानता है कि पकड़ छुड़ानी होगा। और अब तुम किसी और को नहीं पकड़ सकते—यह बात ही खतम हो गई। तुम किसी और के पास नहीं जा सकते—यह बात असंभव हो गई। तब वह पकड़ को काट डालता है। और अचानक तुम आधारहीन हो जाते हो। शुरू-शुरू में तोबड़ा दुःख होगा। तुम रोओगे और चिल्लाओगे और चीखोगे। और तुम्हें लगेगा कि सब कुछ खो गया। तुम दुःख की गहनत्म गहराइयों में गिर जाओगे। लेकिन वहां से व्यक्ति उठता है, अकेला और आधारहीन।
‘आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ।’
उस आकाश को न कोई आदि है न कोई अंत। और वह आकाश पूर्णत: शांत है, वहां कुछ भी नहीं है—कोई आवाज भी नहीं। कोई आवाज भी नहीं। कोई बुलबुला तक नहीं। सब कुछ निश्चल है।
वह बिंदु तुम्हारे ही भीतर है। किसी भी क्षण तुम उससे प्रवेश कर सकते हो। यदि तुममें आधारहीन होने का साहस है तो इसी क्षण तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो। द्वार सुला है। निमंत्रण सबके लिए है। लेकिन साहस चाहिए—अकेले होने का, रिक्त होने का, मिट जाने का और मरने का। और यदि तुम अपने भीतर आकाश में मिट जाओ तो तुम ऐसे जीवन को पा लोगे जो कभी नहीं मरता, तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे।
आज इतना ही।
thank you guruji
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