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रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-17)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

(नोट-इस प्रवचन का आडियों टेप अब उपलब्ध नहीं है)

सत्रहवां-प्रवचन-(ओशो) 

क्या भारत को क्रांति की जरूरत है?

क्या भारत को क्रांति की जरूरत है? यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कोई किसी बीमार आदमी के पास खड़ा होकर पूछे कि क्या बीमार आदमी को औषधि की जरूरत है? भारत को क्रांति की जरूरत ऐसी नहीं है, जैसी और चीजों की जरूरत होती है, बल्कि भारत बिना क्रांति के अब जी भी नहीं सकेगा। इस क्रांति की जरूरत कोई आज पैदा हो गई है, ऐसा भी नहीं है। भारत के पूरे इतिहास में कोई क्रांति कभी हुई ही नहीं। आश्चर्यजनक है यह घटना कि एक सभ्यता कोई पांच हजार वर्षों से अस्तित्व में है लेकिन वह क्रांति से अपरिचित है। निश्चित ही जो सभ्यता पांच हजार वर्षों से क्रांति से अपरिचित है वह करीब-करीब मर चुकी होगी। हम केवल उसके मृत बोझ को ही ढो रहे हैं और हमारी अधिकतम समस्याएं उस मृत बोझ को ही ढोने से ही पैदा हुई हैं।
अगर हम मरे हुए लोगों की लाशें इकट्ठी करते चले जाएं तो पांच हजार वर्षों में उस घर की जो हालत हो जाएगी, वही हाल पूरे भारत का हो गया है। अगर एक घर में मरे हुए लोगों की सारी लाशें इकट्ठी हो जाएं तो क्या परिणाम होगा? उस घर में आने वाले नये बच्चों का जीवन अत्यंत संकटपूर्ण हो जाएगा।

लेकिन इस देश की स्थिति और भी बुरी है। घर में लाशें इकट्ठी हों तो निश्चित ही घर मरघट हो जाएगा, लेकिन अगर किसी घर में बूढ़े इकट्ठे हो जाएं और पांच हजार वर्षों तक मरें ही नहीं, तो उस घर की हालत और भी बदतर हो जाएगी। लाशें कुछ परेशानी नहीं दे सकती हैं, मरा हुआ आदमी क्या तकलीफ दे सकता है? अगर पांच हजार वर्षों के बूढ़े इकट्ठे हो जाएं किसी घर में तो उस घर के बच्चे पागल ही पैदा होंगे। उस घर में स्वस्थ मस्तिष्क की कोई संभावना नहीं रह जाएगी। और जब कोई सभ्यता क्रांति को इनकार कर देती है तो उसकी स्थिति ऐसी ही हो जाती है। जो चीजें कभी की मर जानी चाहिए थीं, वे जिंदा बनी रह गईं और उनके जिंदा बने रहने के कारण जो पैदा होना चाहिए था, वह अवरुद्ध हो गया है, वह पैदा नहीं हो पाया। बूढ़े मरते हैं इसलिए बच्चे पैदा होते हैं। जिस दिन बूढ़ों का मरना बंद हो जाएगा उस दिन बच्चों का पैदा होना भी बंद हो जाएगा। कठोर लगती है यह बात। निश्चित ही कहने में अच्छी भी नहीं मालूम पड़ती लेकिन जीवन का नियम ऐसा ही है और उसे समझ लेना उचित है। किसी को विदा होना पड़ता है इसलिए किसी का स्वागत हो पाता है। कोई जाता है इसलिए कोई आ पाता है। लेकिन जो समाज क्रांति को इनकार कर देता है वह चीजों के जाने से इनकार कर देता है और तब नई चीजें आनी बंद हो जाएं तो आश्चर्य नहीं। पुराने के अति मोह के कारण नये का जन्म अवरुद्ध हो जाता है। भारत में नये का जन्म न मालूम कितनी सदियों से अवरुद्ध है।
एक छोटी सी घटना से मैं इस बात को समझाने की कोशिश करूंगा।
एक गांव में एक बहुत पुराना चर्च था। उस चर्च की दीवालें जीर्ण हो गई थीं। उस चर्च के भीतर जाना भी खतरनाक था क्योंकि वह किसी भी क्षण गिर सकता था। हवाएं चलती थीं तो वह चर्च कंपता था। आकाश में बादल गरजते थे तो लगता था अब गिरा, अब गिरा। उस चर्च के भीतर प्रार्थना करने वाले लोगों ने जाने की हिम्मत छोड़ दी। चर्च की जो कमेटी थी, आखिर वह कमेटी मिली। वह भी चर्च के भीतर नहीं, चर्च के बाहर। क्योंकि चर्च के भीतर खड़ा होना तो मौत को आमंत्रण देना था। वह कभी भी गिर सकता था। हालांकि वह गिरता भी नहीं था, अगर वह गिर जाता तो भी ठीक था। लेकिन वह न गिरता था और न यह संभावना मिटती थी कि वह कभी भी गिर सकता है। कमेटी के लोगों ने तय किया कि कुछ न कुछ करना जरूरी है। चर्च इतना पुराना हो गया है कि अब प्रार्थना करने वाले लोग भी उसमें आते नहीं। पास से निकलने वाले लोग भी तेजी से गुजरते हैं कि वह किसी भी क्षण गिर सकता है। क्या करें?
उन्होंने चार प्रस्ताव स्वीकर किए। चर्च की कमेटी ने पहला प्रस्ताव यह स्वीकार किया कि यह चर्च इतना पुराना हो गया है कि अब उसे और आगे जिलाए रखना असंभव है। सर्व-सम्मति से उन्होंने स्वीकार कर लिया कि पुराने चर्च को गिराना अवश्य है। फिर उन्होंने दूसरा प्रस्ताव यह किया कि पुराना चर्च गिराना आवश्यक है तो उससे भी ज्यादा आवश्यक यह है कि हम नया चर्च निर्मित करें। एक नया चर्च बनाना आवश्यक है, इसे भी सर्व-सम्मति से स्वीकार कर लिया गया। तीसरा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि नया चर्च जो बनेगा उसमें पुराने चर्च की ही ईंटें लगेंगी। हम पुराने चर्च के दरवाजे ही लगाएंगे। पुराने चर्च के सामान से और चर्च की उसी जगह पर, और ठीक पुराने चर्च-जैसा ही नया चर्च हमें बनाना है। इसे भी उन्होंने सर्व-सम्मति से स्वीकार कर लिया और चैथा प्रस्ताव यह पास किया कि जब तक नया चर्च न बन जाय तब तक पुराना चर्च नहीं गिराना है।
वह चर्च अब भी खड़ा है। वह चर्च कभी नहीं गिरेगा क्योंकि जो लोग नये को निर्मित करना चाहते हैं उन्हें पुराने को विनष्ट करने का साहस जुटाना पड़ता है। पुराने को विनष्ट किए बिना नये का न कभी निर्माण हुआ है और न हो सकता है। पुराने के विध्वंस पर ही नये का जन्म और सृजन होता है। क्रांति का अर्थ है इस बात की तैयारी कि हम पुराने को हटाने की हिम्मत जुटाते हैं। निश्चित ही खतरनाक है यह तैयारी, क्योंकि हो सकता है कि हम पुराने को गिरा दें और नये को न बना पाएं, यह संभावना हमेशा है। यह खतरा हमेशा है कि पुरानी सीढ़ी पैर से छूट जाए और नई सीढ़ी पैर के लिए उपलब्ध न हो सके। यह खतरा है कि बूढ़े गुजर जाएं और बच्चे न आएं। लेकिन खतरे की स्वीकृति का नाम ही क्रांतिकारी मन है। चूंकि पांच हजार वर्षों से हमने इस खतरे में कदम उठाने की हिम्मत नहीं की इसलिए हम क्रांति से नहीं गुजर सके। पुराने में एक सुविधा है, एक सुरक्षा है। नये का पता नहीं, कैसा होगा, अपरिचित होगा, होगा भी या नहीं होगा, यह भी संदिग्ध है। हम बना पाएंगे या नहीं बना पाएंगे, यह भी केवल आशा और सपना है। पुराना, वास्तविक है। नया संभावना है, नया होने वाला भविष्य है। अतीत हो चुका है, वह है, वह कहीं खड़ा है। भविष्य अभी कहीं भी नहीं है, अंधकार में है, अज्ञात में है, हो सकता है, नहीं भी हो सकता है।
क्रांति की दृष्टि का अर्थ यह है कि हम अनिश्चित के लिए निश्चित को छोड़ने का साहस जुटाते हैं। हम अज्ञात के लिए ज्ञात से कदम उठा लेने का साहस जुटाते हैं। हम जो नहीं है उसके लिए उसको मिटाने का साहस जुटाते हैं जो है। क्रांतिकारी दृष्टि का और क्या अर्थ होता है? क्रांतिकारी दृष्टि का अर्थ है साहस, ज्ञात से अज्ञात में जाने का, परिचित से अपरिचित में जाने का। जो था उससे, उसमें जाने का, जो हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। लेकिन यही साहस किसी जाति को जवान बनाता है और जो जाति यह साहस खो देती है वह बूढ़ी हो जाती है।
यह जाति बूढ़ी हो चुकी है। यह जाति कभी की बूढ़ी हो चुकी है। अब तो इस बात की स्मृति ही खो गई है कि यह जाति कभी जवान थी भी या नहीं। यह पुरानापन इतना पुराना हो गया है और इसके पीछे एक ही कारण है कि हम सुरक्षा के अति प्रेमी हैं। सुरक्षा का जितना ज्यादा मोह होता है, क्रांति की संभावना उतनी ही कम होती है। एक नदी हिमालय से निकलती है। गंगोत्री से गंगा बही चली जाती है। प्रति क्षण उसे पुराना किनारा छोड़ देना पड़ता है और प्रति पल पुरानी भूमि छोड़ देनी पड़ती है। अनजान, अज्ञात रास्तों पर उस सागर की खोज चलती है जिसका उसे कोई पता नहीं कि वह कहां है? होगा भी या नहीं होगा? अज्ञात, अनजान रास्ते पर प्रतिपल पुराने को छोड़ते हुए नदी आगे बढ़ती चली जाती है। नदी की जो दृष्टि है, वह क्रांति की जीवन-दृष्टि है। एक सरोवर है, वह पुराने को छोड़ता नहीं। वह कहीं आगे नहीं बढ़ता है। वह घेरा बांध कर वहीं डूब कर बैठ जाता है। उसकी कोई गति नहीं है, वह सुरक्षित है एक अर्थ में। तट उसका पुराना है, सदा वही जो कल था, परसों भी था। जो परिचित है, वह वहीं सुरक्षित है। उसे कहीं जाना नहीं है। सरिता की जिंदगी में कुछ जीवंतता है, गति है और सागर से मिलन है, कोई उपलब्धि है। सरिता दौड़ रही है, नये को जान रही है, नई हो रही है रोज, नई धाराएं मिल रही हैं। नया तट, नई भूमि और एक दिन वह पहुंच जाएगी अपने प्रियतम तक, अपने सागर तक। अगर वह रुक जाए तो सागर कभी भी नहीं हो पाएगी, रह जाएगी एक छोटी सी नदी, जिसकी सीमा थी, जिसका तट था। लेकिन तटहीन असीम और अनंत सागर से उसका मिलन नहीं हो सकता। वह कभी भी सागर नहीं हो पाएगी। एक सरोवर है छोटा सा, वह भी सरिता हो सकता था लेकिन उसने अनजान और अपरिचित में जाने की हिम्मत नहीं जुटाई। उसने उचित माना कि वह बंद हो जाए, एक जगह ठहर जाए, वहीं रहे। जीता है वह भी, लेकिन सागर से मिलने को नहीं, केवल सड़ने को। जीएगा और सड़ेगा। उसमें जीने का एक ही अर्थ है कि रोज सड़ेगा, रोज वाष्पीभूत होगा, कीचड़ इकट्ठी होगी, कचरा इकट्ठा होगा, डबरा बनेगा लेकिन उसका जीवन कहीं जाने वाला जीवन नहीं है। रुक गया, ठहर गया, कोई जीवंतता उसके भीतर नहीं है।
भारत हजारों वर्षों से एक सरोवर बन गया है। उसकी गति अवरुद्ध हो गई है। वह ठहर गया है, सुरक्षा में ठहर गया है, रुक गया है ज्ञात के साथ, जो जाना हुआ है। उससे आगे बढ़ने की उसने हिम्मत खो दी है। उसे अपने घर की चारदीवारी के बाहर नहीं जाना है। अगर कभी बच्चे खिड़की से बाहर झांकते हैं तो बूढ़े उन्हें वापस बुला लेते हैं कि घर के भीतर आ जाओ, बाहर खतरा है। कभी अगर बच्चे घर की सीढ़ियां छलांग लगा लेते हैं और बाहर के विराट आंगन में, जहा अनंत तक फैला हुआ आकाश है, जाने की हिम्मत करते हैं तो बू.ढ़े उन्हें डराते हैं और कहते हैं, घर में आ जाओ। बाहर वर्षा हो सकती है, धूप है, ताप है, फिर बाहर अज्ञात है, दुश्मन हो सकते हैं, घर आ जाओ। भीतर आ जाओ चारदीवारी में, सब सुरक्षित है। आराम से यहां रहो, खाओ-पीओ, सोओ और मरो। बाहर मत जाना। एक सरोवर बना लिया है जीवन को हमने। पर क्रांति है जीवंत। जीवन रोज बदलाहट है। जितना जीवंत है व्यक्तित्व, उतना गतिशील है। गति और जीवन के एक ही अर्थ हैं। क्रांति और जीवन के भी एक ही अर्थ हैं। जीवन में क्रांति की जरूरत है। अगर इसे हम ठीक से समझें तो इसका अर्थ हुआ जीवन को जीवन की जरूरत है। क्रांति नहीं तो जीवन कहां है? बदलाहट नहीं तो जीवन कहां है? सिर्फ मरा हुआ आदमी बदलना बंद कर देता है, फिर वह नहीं बदलता है, फिर वह ठहर जाता है। फिर उसका आगे कोई भविष्य नहीं है, फिर है सिर्फ अतीत, जो बीत गया वही। आगे कुछ भी नहीं हैं। आगे आ गया अंत। मरा हुआ आदमी बदलाहट बंद कर देता है। जिंदा आदमी बदलता है। बच्चे जोर से बदलते हैं क्योंकि ज्यादा जीवित हैं, बूढ़े बदलना बंद कर देते हैं क्योंकि वे मृत्यु के करीब पहुंचने लगे हैं। बदलाहट है जीवन का स्वरूप। अगर हम रोज बदल नहीं पाते हैं तो निश्चित ही हम रुक जाते हैं, जीवन के साथ बह नहीं पाते। हम कहीं ठहर जाते हैं और वही ठहराव जड़ता लाता है, वही ठहराव सड़ांध लाता है, वही ठहराव मृत्यु लाता है।
भारत एक बड़ा मरघट है। वहां हम बहुत दिन पहले मर चुके हैं। मर जाने के बाद का अस्तित्व जो है, उसमें हम जीवित हैं। हम प्रेतात्माओं की भांति हैं जो कभी की मर चुकी हैं। लेकिन फिर भी हमें ख्याल है कि हम जिंदा हैं और जीए चले जा रहे हैं। क्या कभी हमने यह सोचा कि क्या कारण है इस अवरोध का? यह क्रांति-विरोधी जीवन कैसे पैदा हो सका, यह जड़ता से भरी हुई स्थिति कैसे पैदा हो सकी? हमने कैसे खो दिया जीवन का स्फुरण? हमने कैसे खो दिया सागर से मिलने की अनंत यात्रा का पथ? हमने कैसे खो दिया नवीन और अज्ञात को जानने का साहस? हम कैसे ठहर गए हैं? जब तक हम यह नहीं समझ लें तब तक क्रांति की क्या रूप-रेखा बनेगी?
मैं चार बिंदुओं पर विचार करना चाहता हूं जिनकी वजह से भारत एक सरोवर बन गया है, सरिता नहीं। सरोवर हो जाए तो बहुत अपमानजनक है। वह जीवन का अपमान है और परमात्मा का भी। क्योंकि परमात्मा के जगत में प्रतिपल परिवर्तन है। वहां कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। एडिंग्टन कहता था कि मैने सारा भाषाकोश खोज कर देखा। मुझे एक शब्द बिल्कुल झूठ मालूम पड़ा और वह शब्द है..ठहराव, रेस्ट। एडिंग्टन ने कहा कि ठहराव जैसी कोई चीज तो जगत में होती ही नहीं। ठहराव जैसी कोई घटना ही नहीं घटती। सारी चीज परिवर्तन में हैं। प्रतिपल परिवर्तन है, प्रवाह है। जीवन का एक बहाव है, वहां ठहराव कहां?
एडिंग्टन मर चुका है अन्यथा उससे हम कहते कि आ जाओ भारत और तुम पाओगे कि ठहराव भी कहीं है। चलता होगा सारा जगत तुम्हारा, लेकिन भारत ठहरा हुआ है और न केवल ठहरा हुआ है बल्कि हम उस ठहराव का गुणगान करते हैं, यशगान करते हैं और कहते हैं कि यूनान न रहा, बेबिलोन न रहा, सीरिया न रहा, सारी दुनिया की सभ्यता आई और गई। मिश्र अब कहां है? लेकिन भारत अब भी है। हम सोचते नहीं कि इसका मतलब क्या है। इसका मतलब यह है कि जो भी जीवंत थे वे बदलते चले गए, उनकी सभ्यताएं नई होती चली गईं, उनके जीवन ने नई दिशाएं लीं, वे नये होते चले गए और जो नहीं बदले वे अब भी वहीं हैं। वे वहीं खड़े हैं जहां वे कल भी थे, परसों भी थे, हमेशा थे। वे चलना ही भूल गए। लेकिन किन कारणों से भारत में यह अवरोध आया; यह आज विचारणीय हो गया है क्योंकि भारत में क्रांति अपेक्षित है, जरूरी है।
भारत क्यों ठहर गया? ठहर जाना इतना जीवन-विरोधी है कि जरूर कोई बहुत बड़ी तरकीब ईजाद की गई होगी तब हम ठहर पाए हैं, नहीं तो जीवन खुद तोड़ देता है सारे ठहराव को। हमने जरूर कोई बहुत होशियारी की होगी तब हम रुक पाए, अन्यथा रुकना बहुत कठिन है।
भारत ने कौन सी तरकीब की जिससे आदमी अतीत में ठहर गया और भविष्य में उसकी गति बंद हो गई। भविष्य के आकाश अनजान और अपरिचित के अपरिचित रह गए। हमने कौन सी तरकीब की है? चार बिंदुओं पर मुझे यह तरकीब दिखाई पड़ती है।
पहला बिंदु यह है कि जीवन की गति के लिए आत्यंतिक रूप से परलोकवादी दृष्टि अत्यंत खतरनाक और घातक है। अगर कोई जाति निरंतर परलोक के संबंध में विचार करती हो, मृत्यु के बाद जो है उसके संबंध में विचार करती हो तो जीवन अवरुद्ध हो जाएगा, जीवन अर्थहीन हो जाएगा, जीवन असार हो जाएगा। अगर एक आदमी सदा यह सोचता हो कि मरने के बाद क्या होगा तो जीवन से उसकी दृष्टि छिटक जाएगी। अगर एक कौम निरंतर मोक्ष के संबंध में चिंतन करती हो तो जीवन के संबंध में उपेक्षा हो जाना सुनिश्चित है और जीवन अगर उपेक्षित हो जाए तो जीवन की जड़ कट जाती है। और हम पांच हजार वर्षों से जीवन की उपेक्षा करके जीने की चेष्टा कर रहे हैं। यह जीवन जो चारों तरफ दिखाई पड़ता है..फूलों का, पक्षियों का, मनुष्यों का..यह जीवन जो शरीर से प्रकट होता है यह निंदित है, यह पाप है, यह पाप का फल है। आप इसलिए पैदा नहीं हुए हैं कि परमात्मा आप पर प्रसन्न है, आप इसलिए पैदा हुए हैं कि आपने पाप किए हैं और आपको पाप की सजा दी जा रही है यहां भेज कर। जगत एक कारागृह है, जहां परमात्मा पापियों को सजा दे रहा है क्योंकि पुण्यात्मा फिर जीवन में कभी वापस नहीं लौटते। उनकी आवागमन से मुक्ति हो जाती है। पापी वापस लौट आते हैं। हमने जो धारणा बनाई है जीवन के बाबत, वह ऐसी है जैसी किसी ने कारागृह की धारणा की हो। परमात्मा ने इस पृथ्वी को जैसे चुन रखा हो, पापियों को सजा देता है, तो यहां भेजता है। यह जीवन एक पश्चात्ताप है। यह जीवन किसी पाप का पुरस्कार है। यह जीवन सजा है। यह जीवन एक दंड है। तो जीवन जब एक दंड है तो उसे झेल लेने की जरूरत है, उसको बदलने की क्या जरूरत है? मुझे अगर जेल भेज दिया जाए तो मैं जेल की दीवालों को सजाऊंगा, तस्वीरें लगाऊंगा, जीवन के फूल खिलाऊंगा? नहीं, मैं चाहूंगा कि जितनी जल्दी कट जाए यह समय अच्छा और मैं जेल के बाहर निकल जाऊं। मैं जेल की सजावट करूंगा? मैं जेल को सुंदर बनाने की कोशिश करूंगा? पागल हूं मैं जो जेल को सुंदर बनाऊं। जेल से मुझे छूटना है, निकल जाना है। जेल से मुझे क्या लेना-देना है?
भारत जीवन के साथ कारागृह जैसा व्यवहार कर रहा है। हम यह सोच रहे हैं निरंतर कि कैसे जीवन से मुक्त हो जाएं, कैसे आवागमन से छुटकारा हो जाए? मैं अभी भावनगर था। एक छोटी सी बच्ची ने, जिसकी उम्र मुश्किल से दस या ग्यारह साल की होगी, आकर पूछा कि मुझे एक बात बताइए। जीवन से छुटकारा कैसे हो सकता है, मुक्ति कैसे हो सकती है? मैं तो चैंक कर रह गया। ग्यारह वर्ष की, दस वर्ष की बच्ची यह पूछती है कि जीवन से छुटकारा कैसे हो सकता है! जो अभी जीवन के घाट पर भी पूरी तरह नहीं आई, जिसने अभी जीवन की सरिता में छलांग नहीं लगाई, जिसने अभी जीवन के वृक्षों की ऊंचाई नहीं देखी, जिसने अभी जीवन के पक्षियों को उड़ते नहीं जाना, जिसने अभी जीवन के सूरज की रोशनी की तरफ आंखें नहीं खोलीं, अभी वह बच्ची जीवन के मंदिर की दीवाल पर ही खड़ी है, मंदिर में प्रविष्ट भी नहीं हुई और वह सीढ़ियों पर ही पूछती है कि जीवन से छुटकारा कैसे हो सकता है? निश्चित ही किसी ने उसके मन को विषाक्त कर दिया है। अभी से जहर डाल दिया है उसके दिमाग में। अब वह जीवन को जी भी नहीं पाएगी। अब वह जीवन को सुंदर कैसे बनाएगी? जिस जीवन से छूटना है उसे हम सुंदर क्यों बनाएं? जिस जीवन से छूटना है उसे हम बदलें क्यों?
इस परलोकवादी चिंतन ने भारत की सारी क्रांतिकारी प्रतिभा को छीन लिया है। यह मैं नही कहता कि परलोक नहीं है, न मैं यह कहता हूं कि जीवन के बाद और जीवन नहीं है पर मैं यह कहना चाहता हूं कि जीवन के बाद जो भी जीवन है वह इसी जीवन से विकसित होता है, वह इसी जीवन का अंतिम चरण है और अगर इस जीवन की उपेक्षा होगी तो उस जीवन को भी हम सम्हाल नहीं सकते। उसे भी नष्ट कर देंगे। वह इस जीवन पर ही खड़ा होगा। वह इसकी ही निष्पत्ति है। अगर कल है कोई, तो मेरे आज पर खड़ा होगा और अगर मेरा आज उपेक्षित है तो मेरा कल निर्मित होने वाला नहीं। कल के निर्माण के लिए भी यह जरूरी है कि आज पर मेरा ध्यान हो। कल की फिकर छोड़ देनी चाहिए, फिकर करनी है आज की। अगर मेरा आज ठीक निर्मित हुआ और आज की जिंदगी मेरी आनंद की जिंदगी हुई तो कल मैं फिर एक नये आनंद से भरे दिवस में जागूंगा क्योंकि मैंने आज आनंद में जीआ है। कल मेरी आंखें फिर एक नये आनंद से भरे हुए जगत में खुलेंगी, लेकिन अगर आज मैने नष्ट किया है तो कल भी मेरा नष्ट हो रहा है। क्योंकि कल आज की ही निष्पत्ति है, आज का ही विकास है। इस जीवन की हमने उपेक्षा की है और इस भांति हम परलोकवादी तो रहे हैं लेकिन परलोक भी हमने सुधारे हों, ऐसा मुझे नहीं मालूम पड़ता है। जो इस लोक को नहीं सुधार सकते, ऐसे कमजोर लोग परलोक को सुधार सकेंगे, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।
तो मेरी दृष्टि में परलोकवादी चिंतन से छुटकारा चाहिए। वह आत्यंतिक बल, परलोक पर नहीं, इस जीवन पर जरूरी है। यह जो जीवन हमें उपलब्ध हुआ है उसे हम सुंदर बना सकें, इस जीवन का रस उपभोग कर सकें, इस जीवन से आनंद अवशोषित कर सकें। यह जो अवसर मिला है जीवन का, यह ऐसे ही न खो जाए। इस अवसर को भी हम जान सकें, जी सकें।
रवींद्रनाथ मरने के करीब थे तो किसी मित्र ने कहा: ‘अब तुम परमात्मा से प्रार्थना कर लो कि दुबारा इस जीवन में न भेजें।’ उन्होंने आंखे खोल दीं और कहा: ‘क्या कहते हो? मैं परमात्मा से ऐसा कहूं कि दुबारा मुझे इस जीवन में न भेजो? इससे बड़ी परमात्मा की और निंदा क्या होगी क्योंकि उसने मुझे भेजा था? मैं उससे ज्यादा समझदार हूं कि कहूं कि मुझे न भेजो? नहीं, मेरे प्राणों के प्राण में एक ही गूंज है! एक ही प्रार्थना है कि हे प्रभु! तेरा जीवन तो बहुत सुंदर था। अगर तूने मुझे योग्य पाया हो तो बार-बार वापस भेज देना और अगर तेरा जीवन मुझे सुंदर नहीं मालूम पड़ा हो तो जिम्मा मेरा है। मेरे देखने के ढंग में भूल रही होगी। मेरे जीने के ढंग गलत रहे होंगे। मैं जीवन की कला नहीं जानता रहा होऊंगा। अगर तूने योग्य पाया हो तो वापस मुझे भेज देना। अगर मेरी पात्रता ठीक उतरी हो, अगर मैं तेरी कसौटी पर कस गया होऊं तो मुझे बार-बार भेजना। तेरा जीवन बहुत सुंदर है। तेरा चांद सुंदर था, तेरा सूरज सुंदर था, तेरे लोग सुंदर थे, सब सुंदर था। अगर भूल कहीं हुई होगी तो मुझसे ही हुई होगी।’
ऐसी जीवन-दृष्टि चाहिए, जीवन से प्रेम करने वाली। जीवन-विरोधी नहीं, जीवन के पक्ष में। जीवन का स्वीकार चाहिए, अस्वीकार नहीं। लेकिन भारत कर रहा है जीवन को अस्वीकार। उस अस्वीकार का फल है कि हमने सैकड़ों वर्षों की गुलामी भोगी। उस अस्वीकार का फल है कि पृथ्वी पर सबसे ज्यादा धन-धान्यपूर्ण होते हुए भी हम सबसे ज्यादा दीन और दरिद्र हैं। उस अस्वीकार का फल है कि इतनी बड़ी विराट शक्ति की संपदा पास होते हुए भी हमसे ज्यादा शक्तिहीन और नपुंसक आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। उस अस्वीकार का फल यह है, और इसका जिम्मा उन सारे लोगों के ऊपर है जिन्होंने जीवन की अस्वीकृति हमें सिखाई, चाहे वे कितने ही बड़े ऋषि हों, चाहे कितने ही बड़े मुनि हों। लेकिन जिन्होंने हमें अस्वीकृति सिखाई है उन्होंने हमें आत्मघात भी सिखाया है, यह जान लेना। और जितनी जल्दी हम यह जान लें उतना अच्छा है।
एक रूसी यात्री ने भारत के संबंध में एक किताब लिखी है। मैं उस किताब को पढ़ रहा था तो मैंने समझा कि कोई मुद्रण की भूल हो गई होगी। उसमें उसने लिखा है कि भारत एक अमीर देश है जिसमें गरीब लोग रहते हैं। मै समझा कि जरूर कोई भूल हो गई, लेकिन फिर सोचने लगा तो ख्याल आया कि बात तो शायद ठीक ही है। भारत गरीब नहीं है, लेकिन भारत के रहने वाले दीन-हीन और गरीब हैं। उनकी दृष्टि ऐसी है जो उन्हें गरीब बना ही देगी। उनकी दृष्टि ऐसी है कि वे दीन-हीन हो ही जाएंगे। अगर यही देश किसी और जीवंत कौम को मिलता तो आज पृथ्वी पर इस देश से ज्यादा धनी, इस देश से ज्यादा समर्थ और सुखी कोई हो सकता था? हमने क्या किया इस देश के साथ? जीवन के प्रति जो विरोधी हैं वे समृद्ध कैसे हो सकेंगे? वे जीवन की संपदा की खोज ही नहीं करते। वे तो जीवन को ढोते हैं बोझ की तरह। वे जीवन को हंस कर स्वीकार नहीं करते, रोते हुए झेलते हैं। हमारे जो साधु-संत विचार हमें देते हैं उनकी शक्लें जरा आप देखें, वे सब रोते हुए, उदास और सूखे हुए लोग मालूम पड़ते हैं। ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे असमय में कुम्हला गया कोई फूल हो! हंसता हुआ संत हमने पैदा ही नहीं किया। हंसते हुए आदमी हमने पैदा नहीं किए। जैसे रोते हुए दिखाई पड़ना भी कोई बहुत बड़ी आध्यात्मिक योग्यता है! उदास और सूखा हुआ व्यक्तित्व हमें आध्यात्मिक मालूम पड़ता है।
हिंदुस्तान में कुछ ऐसा समझा जाता है कि स्वस्थ होना गैर-आध्यात्मिक होना है। यहां ऐसे साधुओं की परंपरा है जो कभी स्नान नहीं करते क्योंकि वे कहते हैं कि स्नान करना शरीर को सजाना है। स्नान करना शरीर की सेवा करनी है। और शरीर? शरीर है पाप का घर, शरीर से होना है मुक्त। यहां ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें लिखा है कि साधु के शरीर पर अगर मैल जम जाए तो उसे हाथ से निकालने की मनाही है। अगर वह निकालता है तो वह शरीरवादी, मैटीरियलिस्ट है। उसे लगे हुए मैल को निकालना नहीं है क्योंकि शरीर तो मैल का घर है, तुम्हारे निकालने से क्या होगा? शरीर को सुंदर बनाने की चेष्टा क्यों? मजबूरी है कि शरीर को झेलना पड़ रहा है।
जिनकी दृष्टि ऐसी होगी वे जीवन को कैसे सुंदर बना पाएंगे, जीवन को कैसे गति दे पाएंगे? वे संगीत के नये-नये रूपों पर जीवन को कैसे गतिमान करेंगे? कैसे नये शिखर खोजेंगे जहां जीवन और ऊंचा हो जाए, जहां जीवन और प्रीतिकर हो जाए, जहां जीवन और प्रेम बन जाए, प्रकाश बन जाए? नहीं, वे रुक जाएंगे, ठहर जाएंगे। जब जीवन ऐसा है, असार है, निंदित है, छोड़ देने योग्य है तो उसे बदलने की क्या जरूरत है? ढो लो बोझ को किसी तरह, आएगी मौत और छुटकारा हो जाएगा। किसी तरह बोझ को राम-राम कह कर सह लेना है। उसे बदलने का कोई सवाल नहीं है। जब तक यहां यह दृष्टि है भारत कभी क्रांतिकारी नहीं हो सकता।
दूसरा बिंदु यह है कि भारत की सारी चिंतना, सारी विचारणा, सारी प्रतिभा अतीतोन्मुखी है। अतीतोन्मुखी देश कभी भी गतिमान नहीं होता। गतिमान वे होते हैं जो भविष्योन्मुखी हैं, जो आगे देख रहे हैं..आगे जहां अभी कुहासा छाया हुआ है और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। आगे जहां अभी सब शून्य है और सब निर्मित करना है। हम देख रहे हैं पीछे जहां सब निर्मित हो चुका है और हमें कुछ भी करने को शेष नहीं रहा है। अतीत में हम क्या कर सकते हैं? अतीत वह है जो हो चुका, जो बीत चुका, जो पूरा हो चुका। अतीत के फल पक गए। अब उनमें कुछ होना नहीं है। अब हम लाख उपाय करके अतीत के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। अतीत के साथ संबंधित भी नहीं हो सकते। अतीत जा चुका, वह मर चुका, वह हो चुका। अब उसमें करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा है, लेकिन हम अतीत की तरफ ही देख रहे हैं जो मृत और स्थिर हो गया है। ऐसी जाति की चेतना भी जो अतीत को देखती रहेगी, धीरे-धीरे उतनी ही स्थिर और मृत हो जाएगी तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जो हम देखते हैं और जिसे हम आत्मसात करते हैं और जो हमारे प्राणों के दर्पण में छवि बनाता है, धीरे-धीरे हमारे प्राण भी उसी रूप में ढल जाते हैं और निर्मित हो जाते हैं।
भविष्य की तरफ देखना उस अनजान और अज्ञात की तरफ देखना है, जो अभी हुआ नहीं, होने वाला है, जिसके साथ अभी कुछ किया जा सकता है। अभी हजार विकल्प हैं जिनमें से एक चुनना है, जिनमें से हम कोई भी चुन सकते हैं। हमें स्वतंत्रता है कि हम पूर्व जाएं कि पश्चिम, हम क्या करें और क्या न करें। अभी भविष्य को बनाना है इसलिए जो भविष्य की तरफ देखते हैं वे स्रष्टा हो जाते हैं, वे निर्माता हो जाते हैं और जो अतीत की तरफ देखते हैं वे केवल द्रष्टा रह जाते हैं, क्योंकि अतीत को सिर्फ देखा जा सकता है और कुछ भी नहीं किया जा सकता। वे केवल दर्शक रह जाते हैं, तमाशबीन, जो देख रहे हैं अतीत के लंबे इतिहास को कि राम हुए, कृष्ण हुए, महावीर हुए, बुद्ध हुए..और देखते चले जा रहे हैं और देखते चले जा रहे हैं। अतीत को देखने वाली कौम एक तमाशबीन कौम हो जाती है, भविष्य की तरफ देखने वाली कौम एक सर्जक कौम हो जाती है। तमाशबीन कैसे क्रांतिकारी हो सकते हैं? स्रष्टा ही हो सकते हैं क्रांतिकारी। हमारी भविष्य की सारी चेतना अतीत में थिर हो गई है, एक रुग्ण घाव बन गया है और हम वहीं लौट कर देखते हैं। हमारी स्थिति वैसी है जैसे कोई कार में पीछे लाइट लगा ले। गाड़ी आगे चली और प्रकाश पीछे छूट गए रास्ते पर पड़े। जिंदगी की गाड़ी आगे ही चल सकती है, पीछे जाने का कोई मार्ग नहीं है। जिन रास्तों को हम पार कर आए, वे गिर गए और समाप्त हो गए, शून्य हो गए। जिस क्षण से गुजर गए हैं वे नहीं हैं, उनमें वापस नहीं जाया जा सकता है, उनमें लौटने का कोई उपाय नहीं। जाना तो आगे ही पड़ेगा, यह मजबूरी है, उससे विपरीत जाना असंभव है।
भारत ऐसे ही चल रहा है। हम देख रहे हैं पीछे और चल रहे हैं आगे। तो रोज गिरते हैं, रोज गिरते जाते हैं और जितने ही गिरते हैं उतने ही घबड़ा कर और पीछे की तरफ देखने लगते हैं और कहते हैं..देखो, राम कितने अच्छे थे, वे कभी नहीं गिरते थे। देखो, रामराज्य कितना अच्छा था। रामराज्य चाहिए, सतयुग चाहिए, जो बीत गया स्वर्ण-युग, वह चाहिए, क्योंकि वे लोग कभी नहीं गिरते थे और हम गिर रहे हैं। इसका मतलब हुआ कि हम भ्रष्ट हो गए, हम पतित हो गए, इसलिए हम गिर रहे हैं। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हम इसलिए नहीं गिर गए हैं कि हम भ्रष्ट और पतित हो गए, बल्कि हम इसलिए गिर गए हैं कि हम पीछे की तरफ देख रहे हैं। और अगर राम नहीं गिरे थे तो वे इस बात का सुबूत हैं कि वे आगे की तरफ देखने वाले लोग रहे होंगे। हम पीछे की तरफ देख रहे हैं, इसलिए गिर रहे हैं। पीछे की तरफ देखने वाला कोई भी गिरेगा। जो भविष्य की तरफ देखता है वह वर्तमान को भी देखने लगता है क्योंकि भविष्य प्रतिपल वर्तमान बन रहा है। जो अतीत की तरफ देखता है वह वर्तमान को भूल जाता है। जब वर्तमान अतीत बन जाता है तभी वह उसको देखता है। वर्तमान वह बिंदु है जहां से भविष्य अतीत बनता है। अगर आप भविष्योन्मुखी हैं तो आप भविष्य को देखेंगे और बनते हुए भविष्य को देखेंगे जो वर्तमान में आ रहा है। अगर आप अतीतोन्मुखी हैं तो आप अतीत को देखेंगे और उस वर्तमान को देखेंगे जो अतीत बन गया है। लेकिन जो अतीत बन गया है वह हाथ के बाहर हो गया है। वे पक्षी उड़ चुके, अब कोई उपाय नहीं रहा। अब हम कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए भारत के मन में एक भाव पैदा हो गया कि कुछ भी नहीं किया जा सकता। एक भाग्यवादी रुख पैदा हो गया है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो हो गया, वह हो गया, अब कुछ उपाय नहीं है। धीरे-धीरे यह बात हमारे प्राणों में इतनी गहरी बैठ गई है कि कुछ भी नहीं हो सकता। जो भविष्य को देखेगा उसे लगेगा कि सब कुछ हो सकता है, अभी कुछ भी हो नहीं गया है, अभी सब होने को है। अभी हाथ में है बात। अभी पैर उठाना है मुझे। मैं निर्णायक हूं कि किस रास्ते पर पैर उठाऊं। हजार रास्ते खुलते हैं और चुनाव मेरे हाथ में है। मुझे तय करना है कि मैं किस रास्ते पर जाऊं।
भविष्योन्मुखी व्यक्ति भाग्यवादी नहीं होता, बह पुरुषार्थवादी होता है। अतीतोन्मुखी भाग्यवादी हो जाता है। भाग्यवाद में क्रांति के लिए कोई संभावना नहीं। पुरुषार्थवादी दृष्टि हो तो क्रांति की संभावना है। इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि जब तक हम अतीत से घिरे और बंधे हैं तब तक हम क्रांति के लिए मुक्त नहीं हो सकेंगे। जो जा चुका उस अतीत को जाने दें, अब उसे रोक कर मत पकड़ें। आपके रोकने से वह रुकेगा नहीं। वह तो जा चुका, वह बीत चुका, उसे बीत जाने दें। आपको जाना है आगे।
जिब्रान ने एक छोटी सी बात कही है। किसी ने उससे पूछा कि हम अपने बच्चे को प्रेम करें या न करें? तो जिब्रान ने कहा कि तुम अपने बच्चे को प्रेम करना, लेकिन कृपा करके अपना ज्ञान उन्हें मत देना। क्योंकि बच्चे उस जगत को जानेंगे जो तुमने नहीं जाना और तुमने जो जाना है उसको बच्चे अब कभी भी नहीं जानेंगे, वह जा चुका। तो उन्हें उससे मत बांध लेना जो तुम्हारा ज्ञान है। अपना प्रेम देना और उन्हें मुक्त करना और उन्हें समर्थ बनाना कि वे अतीत से मुक्त हो सकें ताकि भविष्य का साक्षात्कार कर सकें।
और हम क्या कर रहे हैं हजारों वर्षों से? हम यह कर रहे हैं कि प्रेम हम चाहे बिल्कुल न दे पाएं लेकिन ज्ञान पूरी तरह दे देना है। प्रेम की झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन ज्ञान पूरा का पूरा दे देना है, रत्ती-रत्ती दे देना है। जो जाना है पिछली पीढ़ी ने उसको पूरी तरह थोप देना है बच्चे के मन पर। उसके मन को ऐसा बना देना है कि वह कभी भी भविष्य के लिए ताजा और नया न रह सके और उसके पास की सब ताजगी, सब नयापन, नये के अनुभव की क्षमता और साहस..सब खो जाए।
शायद आपने सुना हो, लाओत्सु नाम का एक आदमी चीन में हुआ। लोग कहते हैं वह बूढ़ा ही पैदा हुआ, अस्सी साल का ही पैदा हुआ। कहानी ऐसी है कि लाओत्सु जब मां के पेट में था और नौ महीने पूरे हुए और पैदा होने का वक्त आया तो उसे बहुत डर लगा क्योंकि मां का पेट परिचित था, नौ महीने तक वह उसमें बड़ी शांति से रहा था। सब सुविधा थी। पता नहीं मां के पेट के बाहर जो दुनिया हो वह कैसी हो? मित्र हो कि शत्रु? भोजन मिले न मिले? लाओत्सु डर गया और उसने पैदा होने से इनकार कर दिया और वह अस्सी साल तक मां के पेट में ही बना रहा इस डर से कि जिंदगी पता नहीं कैसी हो! वह बूढ़ा हो गया और उसके बाल सफेद हो गए। जब मां मरने के करीब आई तो लाओत्सु को पैदा होना पड़ा। फिर कोई उपाय न था। तो लाओत्सु पैदा हुआ लेकिन सफेद दाढ़ी वाला आदमी, बूढ़ा आदमी!
कहानी तो कहानी है। ऐसा हुआ तो नहीं होगा, लेकिन चेतना के तल पर ऐसी घटनाएं घटती हैं। भारत में कोई बच्चा, बच्चा पैदा नहीं होता। पैदा होते ही बूढ़ा हो जाता है। उसे बूढ़ा कर दिया जाता है, उसके बचपन को तोड़ दिया जाता है। उसे बुढापे की गंभीरता दे दी जाती है, उसे बूढ़ेपन के ख्याल दे दिए जाते हैं। उसे बूढ़े का भय दे दिया जाता है, उसे बूढ़े की सुरक्षा दे दी जाती है। और फिर वह कभी न बच्चा होता है, न जवान होता है, वह करीब-करीब बूढ़ा ही रहता है। यह जो बुढ़ापा है, यह अतीत की तरफ देखने से पैदा हुआ है, भविष्य की तरफ हम देखेंगे तो फिर हम बच्चे की तरह हो जाएंगे। इस जाति की चेतना को फिर बालपन की जरूरत है, फिर बच्चे जैसे हो जाने की जरूरत है। क्रांति का यह अर्थ है कि हर पीढ़ी फिर नई हो जाए और हर पीढ़ी फिर जीवन का नया साक्षात् करने को निकल पड़े..नई खोज में, नई यात्रा में, अज्ञात में, खतरे को मोल लेने लगे और खतरे में जीने लगे।
नीत्शे कहता था, मैंने जीवन में एक ही सूत्र पाया: ‘जिन्हें जीवित रहना है और जीवन का पूरी तरह अर्थ जानना है उनके लिए एक ही सूत्र है..खतरे में जीओ, लिव डेंजरसली।’ एक फूल वह भी है जो आपके घर में पैदा होता है, आप घर के कोने में एक फूल लगा लेते हैं। एक फूल वह भी है जो पहाड़ के दरार में पैदा होता है। आकाश के बादल उसे टक्कर मारते हैं और हवाओं के तूफान उसकी जड़ों को हिलाते हैं और वह एकांत नीरव पहाड़ के कोने पर खड़ा होता है। वह प्रति पल मरने को तैयार है और उस प्रति पल मरने की तैयारी में ही जीवन का रस है और आनंद है। घर के कोने में पैदा हुए फूलों को कुछ भी पता नहीं है कि पहाड़ों के किनारों पर जो फूल खिलते हैं उनका आनंद क्या है, उनकी खुशी क्या है, वे क्या जान पाते हैं? घरों की सुरक्षा में बैठे हुए लोगों को कुछ भी पता नहीं है उन लोगों का, जो गौरीशंकर के शिखरों पर चढ़ते हैं, जो प्रशांत समुद्र की गहराइयों को नापते हैं, जो उत्ताल तरंगों में जीवन और मौत से खेलते हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं कि जीवन के और भी अर्थ हैं, जीवन की और भी प्रेरणाएं हैं, जीवन की और भी धन्यताएं हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं। उन्हें पता हो भी कैसे सकता है?
अकबर के दरबार में एक दिन दो जवान राजपूत आ गए थे। नंगी तलवारें उनके हाथ में थीं। दोनों जवान हैं, दोनों जुड़वां भाई हैं। दोनों की सूरतें देखने जैसी हैं। उनकी चमक, उनकी उत्फुल्ल जिंदगी। वे अकबर के सामने खड़े हो गए हैं। अकबर ने कहा: ‘तुम क्या चाहते हो? ’ उन्होंने कहा: ‘हम नौकरी की तलाश में निकले हैं। हम बहादुर आदमी हैं, कोई बहादुरी की नौकरी चाहते हैं।’ अकबर ने पूछा: ‘बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र लाए हो? ’ उन दोनों की आंखों में जैसे आग चमक गई। उन्होंने कहा: ‘आप पागल मालूम होते हैं। दूसरे के प्रमाण-पत्र वे ले जाते हैं जो कायर हैं। हम किसका लाएंगे? बहादुरी का प्रमाण-पत्र नहीं हैं, प्रमाण दे सकते हैं।’ अकबर ने कहा: ‘दे दो, प्रमाण-पत्र क्या है? ’ और एक क्षण में दो तलवारें चमकीं और एक दूसरे की छाती में घुस गईं। वे दोनों जवान नीचे पड़े थे और खून के फव्वारे छूट रहे थे। उनके चेहरे कितने प्यारे थे! अकबर तो एकदम घबड़ा गया। उसने तो यह सोचा भी नहीं था कि यह हो जाएगा। उसने अपने राजपूत सेनापतियों को बुलाया और कहा कि बड़ी भूल हो गई। यह क्या हुआ? उन सेनापतियों ने कहा: ‘आपको पता नहीं, राजपूत से बहादुरी का प्रमाण पूछते हैं? राजपूत के पास बहादुरी का इसके सिवाय क्या प्रमाण है कि वह प्रतिपल मौत के साथ जूझने को तैयार है? और बहादुरी का प्रमाण हो भी क्या सकता है? जिंदगी का इसके सिवा और क्या प्रमाण है कि वह मौत से लड़ने को हर घड़ी राजी है? ’
भारत मर गया है। उसने मौत से लड़ने की तैयारी छोड़ दी है। तीसरी बात आपसे कहना चाहता हूं..भारत ने मौत से लड़ने की तैयारी छोड़ दी है हजारों साल से और इसलिए जिंदगी कुम्हला गई और मर गई। जिंदगी जीतती है मौत की चुनौती में; जहां मौत प्रतिपल है वहां जिंदगी विकसित होती है। मौत की चुनौती में ही जिंदगी का जन्म है। लेकिन हमने बहुत पहले मौत से लड़ना छोड़ दिया और बड़ी तरकीब से लड़ना छोड़ा। हम बड़े चालाक लोग हैं। हमसे बुद्धिमत्ता और होशियारी में दुनिया में शायद कोई न जीते। हमें मौत का इतना डर है कि हमने यह सिद्धांत बना लिया कि आत्मा अमर है आत्मा मरती नहीं। इससे आप यह न सोचें कि हमको पता चल गया है कि आत्मा अमर है। हमें कुछ पता नहीं है, हम मौत से इतने भयभीत हैं कि हम कोई सांत्वना चाहते हैं कि कोई सिद्ध कर दे कि आत्मा अमर है तो मौत का डर हमारे दिमाग से मिट जाए। यहां ये दोनों बातें एक साथ घटित हो गईं।
हमसे ज्यादा मौत से डरने वाला कोई है आज पृथ्वी पर? और हम हैं आत्मा की अमरता को मानने वाले लोग। इन दोनों में आपको कोई संगति दिखती है? जो आत्मा को अमर मानते थे उनके लिए मौत तो खत्म हो गई थी, वे तो इस सारी दुनिया में मौत को खोजते हुए घूम सकते थे। वे आमंत्रण दे सकते थे कि मौत आ, लेकिन हम कहीं नहीं गए घर की दीवालों को छोड़ कर। हम हमेशा डरे हुए रहे हैं। हमारे प्राणों के गहरे से गहरे में मौत का भय है। उस भय को मिटाने के लिए हम यह दोहराते हैं कि आत्मा अमर है, आत्मा अमर है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है, लेकिन आत्मा का पता उन्हें चलता है जो मौत से जूझते हैं। और मौत से गुजरते हैं। घर में बैठ कर और किताबों से सूत्र निकाल कर कि आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, इसका जाप करने से आत्मा की अमरता का पता नहीं चलता। युद्ध के मैदानों में शायद किसी-किसी को आत्मा की अमरता का पता चल जाता हो लेकिन घर के पूजागृहों में दरवाजे बंद करके, धूप-दीप जला कर जो पाठ करते हैं कि आत्मा अमर है उनको कभी भी पता नहीं चलता।
आत्मा की अमरता का अनुभव वहीं होता है जहां मौत चारों तरफ खड़ी हो। स्कूल में अध्यापक बच्चे को पढ़ाता है, तो सफेद दीवाल पर नहीं लिखता सफेद खल्ली से, क्योंकि सफेद दीवाल पर खल्ली से लिखा हुआ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। वह लिखता है काले तख्ते पर। क्यों? क्योंकि काले तख्ते पर ही सफेद रेखाएं उभरती हैं और दिखाई पड़ती हैं। मौत से जूझने में ही अमरता का पहला अनुभव होता है। मौत की पृष्ठभूमि में ही अमरता के पहली बार दर्शन होते हैं। मौत की काली दीवालों में ही अमरता की शुभ्र रेखाएं चमकती हैं और पता चलता है कि मृत्यु नहीं है। लेकिन हम..मृत्यु नहीं है, मृत्यु नहीं है, अमर हैं, अमर हैं..इसका जाप कर रहे हैं और पूरे वक्त डर रहे हैं और उसी डर की वजह से जाप कर रहे हैं।
जो भीतर कायर बैठा है, डरा हुआ आदमी, उसको पता चलता है कि रात अंधेरी है, मैं अकेला चला जाता हूं। इन्हें..जो कह रहे हैं आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, आत्मा की अमरता का कोई पता नहीं है। ये डर को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं, ये डर को दबाने की कोशिश कर रहे हैं। आत्मा की अमरता के सिद्धांत में ये छिपा लेना चाहते हैं उस भय को, जो जीवन के प्रतिपल मौत में होने से प्रकट होता है। लेकिन जो ऐसा मान लेंगे कि आत्मा अमर है, वे जिंदगी का जो प्रतिपल बदलता हुआ रूप है, उसके रस को खो देंगे। जिंदगी तो प्रतिपल मृत्यु के किनारे खड़ी है, किसी भी क्षण मौत हो सकती है। एक पत्थर का टुकड़ा है, वह पड़ा हुआ है सैकड़ों वर्षों से आंगन के किनारे, और एक फूल आज सुबह ही खिला है। फूल और पत्थर में कौन है प्रीतिकर आपको? कौन खींच लेता है प्राणों को? पत्थर नहीं, फूल। क्योंकि फूल प्रतिक्षण मृत्यु से जूझ रहा है, सांझ तक मौत आ जाएगी और फूल का जीवन विलीन हो जाएगा। पत्थर फिर भी पड़ा रहेगा। फूल का सौंदर्य कहां से आ रहा है? फूल का सौंदर्य आ रहा है, पृष्ठभूमि में खड़ी हुई मौत से उसके जूझने से। कितनी अदभुत है यह दुनिया। एक छोटा सा फूल भी चैबीस घंटे मौत से लड़ पाता है। छोटा-सा फूल, नाजुक और मौत से जूझ लेता है चैबीस घंटे! उसी जूझने में उसे पता चलता है कि मिट जाएगी देह, गिर जाएंगी पंखुड़ियां, लेकिन मैं फिर भी रहूंगा क्योंकि मौत मुझे कैसे मिटा सकती है? उस जूझने से ही यह बल, उस जूझने से ही यह शक्ति और यह अनुभव आता है कि मौत मुझे नहीं मिटा सकती। गिर जाएंगी पंखुड़ियां, गिर जाएगी देह, लेकिन मैं? मैं फिर भी हूं और फिर भी रहूंगा।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि भारत को मौत का साक्षात्कार करना है। छोड़ देने हैं सिद्धांत, अमर जिंदगी को देखनी है और जिंदगी जरूर वहीं है जहां मौत है। उससे जूझना है, लड़ना है। बीमारियों से लड़ना है, गरीबी से लड़ना है। आप गौर करें जरा, मौत से जो कौम नहीं लड़ती वह गरीबी से कैसे लड़ेगी? बीमारी से कैसे लड़ेगी? गरीबी और बीमारी मौत की शक्लें हैं। हम बड़े होशियार लोग हैं। हम तो गरीब को कहते हैं, दरिद्रनारायण, तो नारायण को कैसे मिटाएंगे? प्लेग नारायण, मलेरिया नारायण, तो फिर उसको मिटाएंगे कैसे? तो उनकी पूजा करो। वैसे देवी-देवताओं की कमी नहीं हैं यहां; और देवी-देवता बिठा लो। दरिद्रता है महामारी, गरीबी है बीमारी, गरीबी है मौत। उनको मिटा देना है, लेकिन जिन लोगों ने मौत को ही स्वीकार कर लिया है आत्मा की अमरता की बातें करके, गरीबी को भी स्वीकार कर लिया है, बीमारी को भी स्वीकार कर लिया है, उन्होंने लड़ाई छोड़ दी क्योंकि लड़ाई में डर है, लड़ाई में मर जाने का भय है। कौन लड़े, कौन जूझे? अपने घर में बैठो, चुपचाप रहो, शांति से जियो, जो होता है होने दो। मुल्क गुलाम बने, बनने दो, बीमारी आवे आने दो, गरीबी आवे आने दो, यह सब भाग्य है, लड़ने से कुछ भी नहीं होगा! अपने को बचा लो उतना ही काफी है। हम अपने को भी कहां बचा पाए? वह सारी चिंतना भ्रांत सिद्ध हुई। लेकिन अब तक वह भ्रम हमारा टूटा नहीं है। मौत के जितने रूप हैं हमें उन सबसे लड़ाई लड़नी है और अमरता के सिद्धांत में छिप कर बैठ नहीं जाना है। निश्चित ही जिंदगी अमर है लेकिन उनको ही पता चलती है जो मौत से जूझते हैं और संघर्ष करते हैं।
चैथी बात आपसे कहना चाहता हूं कि इस देश में हमने अब तक आनंद के लिए, खुशी के लिए, रस के लिए कोई उदभावना खड़ी नहीं की। हमारा सारा चिंतन दुखवादी है, निराशावादी है। इसके पहले कि कोई जिंदगी में चले, निराशा उसे पकड़ लेती है, घनघोर अंधकार उसे घेर लेता है। पहले से ही हम जान लेते हैं कि जीत असंभव है। जीवन दुख है, जन्म दुख है, जवानी दुख है, प्रेम दुख है, सुख यहां कहीं भी नहीं है।
मैंने सुना है, एक दिन स्वर्ग के रेस्तरां में..वहां भी रेस्तरां तो होंगे ही..बुद्ध, कनफ्यूशियस और लाओत्सु का मिलना हुआ। तीनों बैठ कर गप-शप कर रहे हैं और तभी एक अप्सरा हाथ में एक सुराही लिए हुए नाचती हुई आई और उसने कहा: ‘आप लोग जीवन का रस पीएंगे? ’ जीवन का रस? बुद्ध ने तो सुनते ही आंखें बंद कर लीं और कहा: ‘जीवन दुख है, असार है, कोई रस नहीं है जीवन में।’ लेकिन कनफ्यूशियस आधी आंख खोल कर देखने लगा। उसने कहा: ‘जीवन का रस? लेकिन बिना पिये मैं कैसे कुछ कहूं? थोड़ा चखना जरूरी है।’ कनफ्यूशियस हमेशा मध्यमार्गी था। आधी आंख खोलता था, आधी आंख बंद रखता था। ‘गोल्डन मीन’ का सिद्धांत उसने ही विकसित किया दुनिया में कि हमेशा बीच में रहो, न इस तरफ, न उस तरफ। बुद्ध तो एकदम आंख ही बंद कर लिए, कि नहीं, दुख है जीवन, उसमें क्या रहा? कड़वा और तिक्त। नहीं! उसे नहीं पीना है। लेकिन लाओत्सु पूरी आंख खोल कर उस अप्सरा को देखने लगा, वह बहुत सुंदर थी। उसकी सुराही को देखने लगा, उस पर बड़े बेल-बूटे खुदे थे। जरूर उसके भीतर कुछ रस होगा और वह खड़ा होकर नाचने लगा। कनफ्यूशियस ने एक प्याली में थोड़ा सा रस लिया और चखा और कहा: ‘नहीं, न बेस्वाद है, न स्वादपूर्ण है, मध्य में है। वे भी ठीक हैं जो पीते हैं, वे भी ठीक हैं जो नहीं पीते हैं क्योंकि कोई खास बात नहीं।’ लेकिन लाओत्सु ने तो नाचते हुए पूरी सुराही हाथ में ले ली और कहा कि सिर्फ स्वाद चखने से क्या पता चलता है जब तक कि पूरा न पी जाओ, और वह पूरी सुराही पी गया। बुद्ध आंख बंद किए बैठे रहे, कनफ्यूशियस आधी आंखें खोले रहा और लाओत्सु नाचने लगा और गीत गाने लगा और कहने लगा: ‘नासमझ हो तुम, जिंदगी पूरी पीते तभी पता चल सकता कि क्या है। और अब मैंने पूरी पी ली है, लेकिन मैं कहने में असमर्थ हूं, क्योंकि जीवन के स्वाद को चखा तो जा सकता है लेकिन कहा नहीं जा सकता।’
भारत ने जीवन के स्वाद को चखा ही नहीं। हमने आनंद की उदभावना नहीं की, हमने दुख की उदभावना की। हमने प्रकाश को अवतीर्ण करने की चेष्टा नहीं की, अंधकार को स्वीकार किया। हमने कोई विधायक दृष्टिकोण न लिया, केवल निषेधात्मक वृत्ति पकड़ ली। जो चलने के पहले जानती है कि हार जाएंगे, लड़ने के पहले जानती है कि जीत असंभव है, ऐसी कौम कैसे क्रांति ला सकती है?
जापान के एक छोटे से राज्य पर एक बड़े राज्य ने हमला बोल दिया था। राज्य था छोटा, सेनाएं थीं कम। सेनापति घबड़ा गया और उसने राजा को जाकर कहा कि युद्ध में सेनाओं को ले जाना पागलपन है। दुश्मन दस गुनी ताकत का है, हार निश्चित है। लोगों को क्यों कटवाना है ले जाकर, व्यर्थ उनकी हत्या का दोष अपने ऊपर मैं नहीं लूंगा। मुझे आप छुट्टी दे दें। मुझे यह नौकरी नहीं चाहिए, मैं नहीं ले जा सकता हूं सेनाओं को युद्ध में। यह सीधी हार है, न हमारे पास साधन हैं, न सामग्री है, न सैनिक हैं।
राजा भी जानता था कि बात सत्य है। फिर राजा को ख्याल आया कि एक फकीर है उस गांव में। कई बार जब चीजें उलझ गई थीं, तो राजा उसके पास गया था। आज शायद वह कोई रास्ता बता सके। सेनापति को लेकर उस फकीर के पास राजा गया। फकीर अपना तंबूरा बजा रहा था और गीत गा रहा था। राजा ने कहा कि बंद करो तंबूरा। राज्य पर मुसीबत है और सेनापति कहता है कि जीत असंभव है। क्या कोई रास्ता हो सकता है?
उस फकीर ने कहा: ‘पहला रास्ता, सेनापति को छुट्टी दे दो क्योंकि यह आदमी गलत है। जो आदमी पहले से कहता है कि जीत असंभव है उसकी तो जीत कभी हो ही नहीं सकती। यह तो निराशावादी है, इसको तो जाने दो। इसको जितना जल्दी भगाओ उतना अच्छा है क्योंकि बीमारियां संक्रामक होती हैं। कहीं सैनिकों को पता न चल जाए कि सेनापति को बीमारी हो गई है निराशा की, नहीं तो फिर जीत सकना सच में मुश्किल हो जाएगा। इसको जाने दो। रह गई जगह सेनापति की, जगह मैं भर दूंगा। कल सुबह सेना कूच हो जाएगी। सेना हम ले जाएंगे और जीत कर लौट आएंगे।’
राजा तो बहुत डरा। यह समाधान उसने नहीं सोचा था। फकीर को तलवार भी पकड़नी आती है, यह भी संदिग्ध था। वह तो तंबूरा बजाता रहा था। तंबूरा बजाने वाला तलवार कैसे पकड़ेगा? तंबूरा पकड़ने की आदतें और होती हैं, तलवार की आदतें और होती हैं, और अगर तंबूरे की तरह कोई तलवार को पकड़ ले तो जीत नहीं हो सकती। लेकिन अब उस फकीर से कुछ कहना भी मुश्किल था और दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था, मजबूरी थी।
उसकी बात मान लेनी पड़ी। सेनापति तो घबड़ा गया। उसने कहा: ‘मैं होता तो थोड़ा ठीक भी था, दो-चार दिन हम लड़ते भी, जीत तो होनी नहीं थी लेकिन अब लड़ाई भी नहीं होनी है। सैनिक तो और घबड़ा जाएंगे, इस पगले को आप भेज रहे हैं सेनापति बना कर।’ लेकिन जब कोई बुद्धिमान सेनापति बनने को राजी न हो तो फिर पागल को चुनने के अतिरिक्त मार्ग क्या है?
फकीर दूसरे दिन घोड़े पर सवार हो गया और चल पड़ा। लेकिन घोड़े पर बैठा वह तंबूरा बजा रहा है और सैनिक बहुत हैरान हैं कि किस भांति की युद्ध की यह कला है। अब क्या होगा? लेकिन उन्हें पता नहीं था कि फकीर उनसे ज्यादा मनुष्य की आत्मा को जानता है। जीतते वे ही हैं जो गीत गाते हुए जाते हैं। यह उन सैनिकों को पता नहीं था। वे सोचते थे कि तलवार से ही जीत होती है। उन्हें पता नहीं था कि एक और जीत भी है जो तलवार से बड़ी है। हाथ में तलवार हो और प्राणों में गीत न हो तो जीत कभी नहीं होती और वैसी जीत हो भी जाए तो हार से बदतर होती है। जीत भी जाते हैं और जीत का कोई आनंद भी प्राणों को स्पर्श नहीं कर पाता।
वे युद्ध-क्षेत्र के निकट पहुंच गए, सीमा की नदी आ गई। उस पार दुश्मन खड़ा है, इस पार वे पहुंच गए। सुबह के सूरज की रोशनी बरसती है और एक मंदिर का कलश दिखाई पड़ता है। नदी के इसी पार मंदिर है। वह फकीर रुक गया वहां और उसने सैनिकों से कहा: रुको दो क्षण, मैं जरा इस मंदिर के देवता से पूछ लूं। हमेशा की मेरी यह आदत रही है, जब भी किसी काम को करने जाता हूं इससे पूछ लेता हूं कि जीत होगी या हार? कर पाऊंगा कि नहीं? तो पूछ लें इससे। अगर यह कह देगा कि जीत होगी तो फिर दुनिया में किसी की फिकर नहीं। तुम चाहो न भी जाना, मै अकेला ही चला जाऊंगा। लेकिन अगर इस देवता ने कह दिया कि जीत नहीं होगी तो नमस्कार! न मैं जाने वाला हूं, न तुम। सब वापस लौट चलेंगे। क्योंकि जब देवता राजी न हो तो क्या फायदा। सैनिकों ने कहा: वह तो हम समझ गए, लेकिन हमें कैसे पता चलेगा कि देवता क्या कह रहा है? आप ही व्याख्याकार रहेंगे। तो हमें कैसे पता चलेगा कि देवता जो कह रहे हैं वही आप हमें बता रहे हैं? उसने कहा: नहीं, अकेले में नहीं पूछूंगा, देवता से तुम्हारे सामने ही पूछूंगा। उसने जेब से एक चमकता हुआ सोने का रुपया निकाला और कहा: हे मंदिर के देवता, मैं यह रुपया फेंकता हूं। यह अगर सीधा गिरा तो हम युद्ध में चले जाएंगे, समझेंगे कि तूने कहा कि जीत होगी। अगर रुपया उलटा गिरा, तो हम वापस लौट जाएंगे। उन सैनिकों की आंखें टंगी रह गईं। रुपया ऊपर गया, सूरज की रोशनी में चमका। वे सब देख रहे हैं, उनकी श्वासें रुक गई हैं, उनके जीवन-मरण का सवाल है। फिर रुपया नीचे गिरा और उनके प्राण भी चमक गए। रुपया सीधा गिरा और उस फकीर ने कहा: अब हारने का सवाल नहीं, अब बात खत्म हो गई। अब बात तय हो चुकी। रुपया उसने झोली में डाल लिया और वे युद्ध के मैदान में चले गए।
दस दिन बाद वे जीत कर दस गुनी ताकत से लौटे। जब मंदिर के पास आ गए, तो सैनिकों ने कहा: रुको, मंदिर के देवता को धन्यवाद दे दें जिसने हमें जिताया। उस फकीर ने कहा: छोड़ो! देवता का इसमें कोई हाथ नहीं है। अगर धन्यवाद देना है तो मुझी को दो। लोगों ने कहा: नहीं, नहीं! ऐसा कैसे कहते हैं आप? देवता ने ही तो हमको कहा था कि जाओ, जीत आओगे। उसने कहा: तुम्हें पता नहीं, देवता बेचारे का इससे संबंध ही नहीं है। उसने जेब से रुपया निकाला और सैनिकों को हाथ में दे दिया। वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था।
भारत का पूरा इतिहास ऐसे सिक्के को पकड़े हुए है जो दोनों तरफ उलटा है। इसलिए क्रांति इस मुल्क में नहीं हो पाती। लेकिन क्रांति हो सकती है, होनी चाहिए, इसके अतिरिक्त हमारा कोई भविष्य नहीं है, हमारा कोई भाग्य नहीं है। लेकिन जब तक हम इन बुनियादी सूत्रों पर भारत की आत्मा को न बदल लें तब तक हमारी कोई सामाजिक क्रांति, कोई आर्थिक क्रांति, कोई राजनीतिक क्रांति कुछ मूल्य नहीं रखेगी। भारत में क्रांति की जरूरत है, लेकिन कैसी क्रांति की? आध्यात्मिक क्रांति की! अब तक जीवन के जो मूल्य रहे हैं वे गलत थे। नये मूल्य स्थापित करने हैं, उसके बाद ही राजनीतिक क्रांति भी सार्थक होगी और आर्थिक क्रांति भी सार्थक होगी, सामाजिक क्रांति भी सार्थक होगी। लेकिन अगर हमने उन मूल्यों को नहीं बदला जिन पर हमारे प्राण अब तक रहे हैं तो हमारी और सारी क्रांतियां पोच सिद्ध होंगी, उनसे कुछ परिवर्तन होने वाला नहीं।  

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