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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

अकेले होने का साहस

लेकिन उनकी भी सीमा है। और जिस गहराई की सीमा हो उसे गहराई कहना बिलकुल ही व्यर्थ है। गहराई तो सिर्फ एक है जिसकी कोई सीमा नहीं है। और वह गहराई आत्मा की है, स्वयं की है, बीइंग की है। आत्मा की गहराइयों से ऐसा नहीं है कि कहीं सीमा आ जाती है, जहां गहराई समाप्त हो जाती है। आत्मा या बीइंग का अर्थ है, एक ऐसे अस्तित्व में प्रवेश, जिसमें प्रवेश तो होता है लेकिन जिसमें पहुंचना कभी नहीं होता। जिसमें हम प्रवेश तो करते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि हम कह दें, पहुंच गए वहां, जहां अंत आ गया। आत्मा अनंत है, गहराई भी अनंत है। और आत्मा की गहराइयों के संबंध में सोचते समय, दूसरी बात और भी स्मरण आती है और वह यह कि हमने गहराइयां देखीं लेकिन देखने वालों का हमेशा अर्थ गहराई से अलग था। एक पहाड़ के किनारे खड़े होकर, हम नीचे झांक सकते हैं, गहराइयों में। लेकिन गहराई हमसे अलग है। आकाश में, वायुयान में उड़ते वक्त कोई नीचे झांक सकता है, लेकिन गहराई हमसे अलग है। आत्मा की गहराई ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसमें हम झांक सकें। आत्मा की गहराई हम स्वयं हैं। वहां दो नहीं हैं कि कोई झांकेगा और कोई गहराई होगी। वहां हम ही गहराई हैं।

जो व्यक्ति भीतर जाएगा वह पाएगा कि वह स्वयं एक गहराई है जिसका कोई अंत नहीं है। शायद इसी डर से हम भीतर नहीं जाते हैं। शायद यही घबड़ाहट है, जो मनुष्य को बाहर-बाहर रखती है, भीतर नहीं जाने देती। हम तो छोटी सी गहराई से डरते हैं। पहाड़ के किनारे झांकने में प्राण कंपते हैं। कहीं गिर न जाएं। कहीं खो न जाएं। छोटी सी गहराई हमें डराती है कि कहीं डुबा न ले। तो अनंत गहराई से अगर हमारे प्राण भयभीत होते हों, जहां कि गिरना ही गिरना है। जहां कहीं पर पहुंचना नहीं है। तो शायद इसीलिए हम बाहर और बाहर घूमते हैं, भीतर नहीं जाते। जो जानते हैं, जो निरंतर पुकारते हैं, लोगों को कहते हैंः भीतर आओ। नो देमसेल्व। अपने को जानो। आत्म-विद बनो। हम उनकी सुन लेते हैं बातें। और अपने रास्ते पे चल पड़ते हैं। जरूर कहीं न कहीं मनुष्य के प्राणों में कोई बात छिपी है, कि वह भीतर जाने से भयभीत है। भीतर कोई जाना नहीं चाहता। भीतर जाने का कोई मौका भी मिल जाए तो हम उससे बचना चाहते हैं। अकेले भी हो जाएं तो हमें डर लगता है। अकेले में डर लगता है किसका? जब कोई भी नहीं है, हम अकेले ही हैं तो डर किसका? निश्चित ही डर अपना ही लगता है। अकेले में डर अपना ही लगता है। पक्का भरोसा हो कि कोई भी नहीं है बिलकुल अकेला हूं, फिर भी हम डरते हैं। वह डर किसका है? आमतौर से हमने यही सोचा होगा कि डर सदा दूसरे का है। दूसरे का डर बहुत साधारण है। दूसरे के डर का इंतजाम किया जा सकता है। एक और गहरा डर है, वह अपना ही डर है, जो अकेले में लगता है। इसलिए हम साथ खोजते हैं, अपने से भयभीत होकर हम साथ खोजते रहते हैं। कोई साथी चाहिए, कोई मित्र चाहिए, कोई संगी चाहिए, भीड़ चाहिए, समाज चाहिए, संगठन चाहिए, राष्ट्र चाहिए, अकेला होने को केाई भी राजी नहीं। सब किसी के साथ। और जो हमारे साथ खड़ा है, वह भी अकेले होने को राजी नहीं है, वह भी हमारे साथ खड़ा है। हम सब एक-दूसरे का साथ खोज रहे हैं, ताकि अपने से बच सकें। ताकि अपने से बचाव हो सके, ताकि अपने से एस्केप हो जाएं, अपने से हम भाग जाएं।
यह शायद आपको कभी खयाल नहीं आया होगा कि हम अपने से बचने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं। काम में, व्यस्तता में, खो रहे हैं अपने को, डुबा रहे हैं अपने को। जिसके पास काम नहीं, व्यस्तता नहीं, खेल में, मनोरंजन में डुबा रहा है अपने को। जो सब तरफ से ऊब गया है, और डूबना मुश्किल है, वह शराब पी रहा है, डुबा रहा है अपने को। जीवन भर हम अपने से बचने की कोशिश कर रहे हैं। भीतर झांकने में कोई निरंतर भय मालूम पड़ता है। भीतर मालूम होता है कोई अनंत खड्ड है, जहां हम गए तो पता नहीं लौटे सकें, न लौट सकें। लेकिन एक घटना मुझे स्मरण आती है।
एक आदमी अंधेरी रात में एक पहाड़ी रास्ते पर भटक गया है। रास्ता खो गया है। डरा हुआ भयभीत, पैर फिसल गया है। गिर पड़ा है। एक झाड़ी को पकड़ कर लटक गया है। डर रहा है, नीचे अनंत खड्ड मालूम होता है। अंधकार है, पहाड़ी है, अंजान रास्ता है, पकड़े हुए जोर से झाड़ी को, चिल्ला रहा है बचाओ! लेकिन अपनी आवाज के सिवाय और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। हमने भी कभी अपनी आवाज के सिवाय कुछ और सुना है? चिल्ला रहे हैं, बचाओ! अपनी ही आवाज खाली खोह-कंदराओं से लौट कर आ जाती है। सुनाई पड़ जाती है बचाओ। पास-पड़ोस में और चिल्लाते हुए लोग भी हैं हमारे, जो चिल्लाते हैं बचाओ, हमें लगता है कोई आस-पास है, लेकिन जहां सभी चिल्ला रहे हैं--बचाओ, बचाओ, वहां सभी अकेले हैं, और बचाने वाला कोई भी नहीं। वह आदमी चिल्ला रहा है, वहां कोई और चिल्लाने वाला भी नहीं, उसकी ही आवाज गूंजती है। रात गहरी होती चली गई। हाथ सर्द होने लगे, ओस पड़ रही है, सर्द है रात, हाथ ठंडे जड़ हो गए हैं, डर है कब छूट जाए झाड़ी, नीचे अनंत खड्ड है, उसके प्राण कंप रहे हैं, वह कंप रहा है पत्ते की तरह; लेकिन कब तक पकड़े रहे, आखिर हाथ जड़ हो गए, झाड़ी छूट गई और वह आदमी गिर गया। लेकिन गिरते ही उस घाटी में हंसी की आवाज गूंजने लगी, वहां नीचे कोई खड्ड न था। वहां नीचे तो पत्थर ही था। जिस पर वह खड़ा हो गया। उसकी हंसी की आवाज गूंजने लगी, उस पहाड़ में जहां वह चिल्लाता था--बचाओ, बचाओ, वहां वह हंस रहा है। और वह हैरान हो रहा है कि मैं इतनी देर व्यर्थ ही चिल्लाता रहा--बचाओ, बचाओ, छोड़ देता बचने के खयाल तो नीचे जगह मिल ही गई थी।
हम सब बाहर घूम रहे हैं, घूम रहे हैं, भटक रहे हैं, हजार-हजार कामों में उलझा रहे हैं अपने को। एक जगह से बचने के लिए जो हम हैं वहां हम नहीं जाना चाहते। वहां अनंत खड्ड है, लेकिन उस खड्ड की खूबी ही यही है उस एबिस की, उस इनफिनिट एबिस की, उस अंतहीन गड्ढे की, उस गहराई की खूबी ही यही है कि जो उसमें गिरा वह स्वयं गहराई हो गया। और जो स्वयं गहराई हो गया, उसके गिरने का कोई उपाय न रहा। गिर तो वह सकता है जो गहराई से अलग हो, अगर हम खुद ही गहराई हैं, तो गिरेगा कौन? और गिराएगा कौन? एक बार भीतर जाएं और उस गहराई के साथ एक हो जाएं तो मिल गई वह चट्टान जिससे हम कभी गिर नहीं सकते। लेकिन भीतर जाने का डर है और भीतर कोई भी जाना नहीं चाहता है। और जो आदमी अपने भीतर न गया हो, वह कहीं भी नहीं गया है। चाहे वह सारी पृथ्वी का चक्कर लगा ले, और अब उपाय है कि चांद पर चला जाए। कल उपाय होंगे कि शुक्र पर चला जाए, वह सारी दुनिया में कहीं भी चला जाए, लेकिन जो आदमी अपने भीतर नहीं गया है, वह कहीं भी नहीं गया है। उसका जाना बिलकुल भ्रम है, इलुजरी, यात्रा है, जिसमें उसे लग रहा है, जा रहा हूं, लेकिन कहीं जा नहीं रहा। जैसे कोई आदमी एक रात सो जाए और सपना देखे। सपना देखे कि दूर चला गया है, दूर चला गया है। सोया है अहमदाबाद में और टिम्बकटू पहंुच गया है, कलकत्ता पहुंच गया है, टोकियो पहुंच गया है। सोया है अहमदाबाद में, और सपने में टिम्बकटू पहुंच गया है, रात भर चलता रहा है, चलता रहा है, न मालूम कि कितनी यात्रा की है, और सुबह जाग करपाता है कि मैं तो वहीं हूं, जहां था, सब जाना सपने में हुआ है। हम अपने से बाहर कितनी ही यात्राएं करें, जब भी हम जागेंगे, हम पायेंगे कि हम वहीं हैं, जहां थे। बाहर शरीर कहीं और हो सकता है, अहमदाबाद की जगह टोकियो में हो सकता है, लेकिन हम जहां हैं भीतर, हम टोकियो जाएं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम वहीं होंगे, वहीं होंगे। चांद पर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, आर्मस्ट्रांग भीतर की दुनिया में जहां पृथ्वी पर था चांद पर पहुंच कर भी वहीं होगा। चांद की यात्रा से भीतर कहीं कोई चाँद नहीं हो सकता। कितना भी हम पहुंचते हुए मालूम पड़े हम कहीं पहुंचते नहीं।
लाइफ इन वंडरलैंड में एक छोटी सी कहानी है। अलाइस नाम की लड़की परियों के देश में पहुंच गई है। थक गई है। लंबी यात्रा है। जमीन से परियों के देश में पहुंची है। भूख लगी है। चारों तरफ देखती है, हरियाली से लदे वृक्ष हैं, फूलों से दूर एक घने वृक्ष की छाया में परियों की रानी खड़ी हैै। और उसके हाथ में मिठाइयों से भरे हुए थाल हैं, और वह अलाइस को बुला रही है कि आ, आ, उसकी आवाज सुनाई पड़ती है कि आ, उसका हाथ दिखाई पड़ता है कि आ, उसकी निमंत्रण देती आंखें दिखाई पड़ती हैं कि आ, और भूख, वह अलाइस दौड़ना शुरू कर देती है। पास ही है वह रानी, यह रही, अभी हम पहुंच जाएंगे। वह अलाइस दौड़ना शुरू करती है। सूरज उग रहा है, अलाइस दौड़ रही है। दौड़ती चली गई है, दौड़ती चली गई है, दौड़ती चली गई है, छोटी बच्ची है, उसे यह भी खयाल नहीं आ रहा है कि मैं इतना दौड़ चुकी हूं। उतना छोटा सा फासला अभी तक पूरा न हुआ होगा। फिर धूप घनी हो गई है, सूरज सिर पे आ गया है, पसीना चूने लगा है, वह खड़े होकर देखती है, फासला तो उतना का उतना है, डिस्टेंस वहीं का वहीं है। रानी अभी भी खड़ी है, वह पुकारती चली जा रही है, आ, वह आंखें अब भी बुला रही हैं। भूख और भी बढ़ गई है, भोजन और भी दिखाई पड़ने लगा है, पर फासला उतना का उतना ही है। वह अलाइस चिल्ला कर कहती है कि ये कैसी दुनिया है, तुम्हारी आवाज सुनाई पड़ती है, तुम्हारी आंखें बुलाती हैं, तुम्हारा हाथ पुकारता है, भूख मुझे तेजी से है, मैं इतनी तेजी से दौड़ रही हूं लेकिन फासला कम नहीं होता, वह रानी कहती है बातों में, समय खराब मत कर। दौड़, जो बातों में समय खराब कर देते हैं वे चूक जाते हैं, तू दौड़, और तेजी से दौड़, और तेजी से दौड़। अगर नहीं पहुंचती तो कारण यह है कि तू बहुत धीमे दौड़ती है। अलाइस और तेजी से दौड़ती हैं, गणित तो यही है कि अगर नहीं पहुंचते हो तो तेजी से दौड़ो। नहीं पहुंच रहे हो तो एक ही मतलब है कि धीमे चल रहे हो। अलाइस और तेजी से दौड़ती है, जान लगा देती है, सांझ होने के करीब आ गई, सूरज उतरने लगा, अंधेरा उतरने के करीब है, वह खड़े होकर चिल्लाती है, दिन भर की धूप, पसीने से लथपथ, फासला उतना का उतना। वह चिल्ला कर पूछती है, यह कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से दौड़ते सांझ होने के करीब आ गई, सूरज ढलने लगा और मैं कहीं भी नहीं पहुंची हूं? फासला उतना का उतना है, यह कैसी अजीब दुनिया है तुम्हारी? ऐसी दुनिया मैंने नहीं देखी? यह दौड़ कैसी? यह रास्ता कैसा?
वह रानी कहती है, पागल, सब दुनिया ऐसी ही है, जिस पृथ्वी से तू आती है, वहां भी कोई रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता सिर्फ लोग दौड़ते हैं, और जहां पहुंचना चाहते हैं, फासला उससे उतना ही बना रहता है, जितना दौड़ के प्रारंभ में था। कहीं कोई नहीं पहुंचता, दौड़ है, दौड़ है, और दौड़ ही पहुंचाती तो लगते हैं कि और तेजी से दौड़ें, तेजी से दौड़ नहीं पहुंचाती तो हम सोचते हैं पैरों में जान कम है। बैलगाड़ी को हवाई जहाज बनाओ, हवाई जहाज को जैट बनाओ, जैट को अंतरिक्षयान बनाओ, पहुंच नहीं पा रहे हैं। तो गति को बढ़ाओ स्पीड को बढ़ाओ, सारी दुनिया मे स्पीड बढ़ाने का और कोई कारण नहीं है, कारण यही है कि शक हो गया है आदमी को कि जहां पहुंचना है, वहां पहुंच नहीं पा रहे। गति कुछ कम है गति तेज होनी चाहिए, तो गति को तेज करो, तेज करो, इतना तेज करो कि हम पहुंच जाएं। लेकिन अलाइस भी बच्ची थी और हम भी बच्चे हैं। आदमी भी बच्चा है। आदमी प्रौढ़ नहीं है। धीमी और तेज दौड़ का सवाल नहीं है, जहां हमें पहुंचना है, वह जगह भीतर है। और जहां हम दौड़ रहे हैं वह जगह बाहर है। और जहां हमें पहुंचना है वहां हम जाना नहीं चाहते। और जहां हमें पहुंचना नहीं है, वहां हम दौड़े चले जाते हैं।
कोई भी आदमी किसकी खोज में है शायद ही हम कभी अपने से पूछते हैं कि मेरी खोज क्या है? शायद हम जरूरी सवाल पूछते ही नहीं, क्योंकि जरूरी सवाल चिंता पैदा करते हैं। हम बेकार की बातें पूछते हैं कि भगवान ने दुनिया बनाई कि नहीं, यह तो कौड़ी की बात है। इससे क्या मतलब। भगवान समझे, बनाने वाला समझे न समझे, मुझे और आपको क्या प्रयोजन? तो हम ऐसी बातें पूछते हैं, जिससे हमारी चिंता बनाई हो तो ठीक, न बनाई हो तो ठीक।
मैं एक गांव में ठहरा था। तो गांव के दो बूढ़े मेरे पास आए। एक जैन हैं, एक हिंदू हैं। दोनों बूढ़े हैं, नहीं तो सत्तर के ऊपर उम्र है। उन दोनों ने मुझसे आकर कहा कि हम एक सवाल लेकर आए हैं, हम बीस साल से दोनों पड़ोसी हैं। और हम दोनों बीस साल से विवाद कर रहे हैं। हिंदू कहता है कि भगवान है बनाने वाला दुनिया का, और मैं कहता हूं, जैन ने कहा कि दुनिया को किसी ने नहीं बनाया दुनिया स्वयं जो है, अपने आप बन गई। हम इस पर विवाद करते चले आ रहे हैं, बीस साल हो गए कुछ निर्णय नहीं होता। आपसे हम पूछने आए हैं कि क्या सही है? मैंने उनसे पूछा कि अगर निर्णय हो जाए, निर्णय हो जाए कि दुनिया भगवान ने बनाई है फिर आप क्या करिएगा? या निर्णय हो जाए कि दुनिया भगवान ने नहीं बनाई फिर आप क्या करिएगा? उन्होंने कहा कि करना क्या है, निर्णय की बात है। आप निर्णय, मैंने उनसे पूछा आपकी जिंदगी से इसका क्या संबंध है? भगवान ने बनाई या नहीं बनाई, आपकी जिंदगी से इसका क्या संबंध है? आपको क्या होगा इससे फर्क? आस्तिक भी वैसे ही जी रहा है, नास्तिक भी वैसे ही जी रहा है। हिंदू भी वैसे ही जी रहा है, मुसलमान भी वैसे ही जी रहा है, साफ बात है कि आस्तिक-नास्तिक की लड़ाई बेमानी बातों पर हो रही होगी। नहीं तो जिंदगी अलग होनी चाहिए, साफ बात है कि हिंदू-मुसलमान नासमझी की बातों पर लड़ रहे होंगे, नहीं तो जिंदगी अलग होनी चाहिए थी। हम सबकी जिंदगी एक सी है, और हमारे सबके सवाल अलग है, जवाब अलग हैं। हमारे सबके सवाल भी बेकार होंगे, जवाब भी बेकार होंगे। नहीं तो जिंदगी बदलनी चाहिए थी। शायद जिंदगी के लिए जो जरूरी है वह हम पूछते नहीं। हम वह पूछते हैं जो बेकार है, आराम कुर्सी पर टिक कर जिसकी बात की जा सकती है। जिसके लिए जिंदगी को बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
एक बुनियादी सवाल आदमी अपने से नहीं पूछता कि मैं किसकी खोज में हूं? हो सकता है सवाल कभी हमने पूछा भी हो। और जवाब भी हमें आ गया हो। किसी आदमी ने सोचा हो कि मैं धन की खोज में हूं। किसी आदमी ने सोचा हो कि मैं पद की खोज में हूं। किसी आदमी ने सोचा हो कि मैं यश खोज में हूं। सवाल आपको जवाब मिल गए होंगे, लेकिन ठीक से शायद नहीं पूछा, या बहुत गहरे नहीं पूछा, क्योंकि जब किसी आदमी को ये जवाब मिलता है कि मैं धन की खोज में हंूँ। तब तो उसे पूछना चाहिए कि धन की खोज में मैं किसलिए हूं? क्या धन ही अपने आप में अंत है। धन मिल जाएगा और बात समाप्त हो जाएगी। यश की खोज में मैं किसलिए हूं? अगर यश मिल जाएगा तो बात खत्म हो जाएगी। सारी दुनिया मेरे यश से भर जाए तो बात पूरी हो जाएगी। मेरी यात्रा समाप्त, फिर मुझे करने को कुछ नहीं रह जाएगा। सारी दुनिया का धन मुझे मिल जाए, तो मेरी यात्रा पूरी हो जाएगी? मैं फुलफिल हो जाऊंगा। हो जाएगी, आपके कारण मेरी स्थिति, नहीं अब सवाल शायद ऐसा उठेगा कि धन भी हम किसी और चीज के लिए चाहते हैं। और यश भी किसी और चीज के लिए चाह रहे हैं, शायद हमें लगता है कि भीतर निर्धन हैं, तो बाहर से धन इकट्ठा करके धनी हो जाएं। भीतर गरीबी लगती है, दीनता लगती है, तो धन के ढेर लगा दो। मिटा दो इस दीनता को, लेकिन दीनता अगर भीतर मालूम पड़ती है तो बाहर का धन भीतर की दीनता को कैसे मिटाएगा? इसलिए सबसे बड़ी दीनता उस दिन पता चलती है, जब धन के ढेर लग जाते हैं, और पास में खड़ा आदमी पाता है कि मैं उतना का उतना गरीब हूं। गरीब की एक तकलीफ है कि वह गरीब है, अमीर की एक और बड़ी तकलीफ है कि वह अमीर भी है और गरीब भी है।
कोई दस साल हुए, मैं जयपुर में मेहमान था। एक सभा में बोलता था। एक बूढ़ा आदमी मेरे बोलने के बाद उठा, कोई पिछहत्तर वर्ष उम्र होगी। हाथ कंपते हैं और उसने आकर मेरे पास, होंगे पांच-छह हजार रुपये के नोट, वह मेरे पास रख दिए और मुझे नमस्कार किया। मैंने उस बूढ़े आदमी को कहा कि आपका नमस्कार स्वीकार कर लेता हूं, रुपये की अभी जरूरत नहीं है, कभी पड़ सकती है, जब पड़ेगी जरूरत तब आपको निवेदन करूंगा। अभी रुपये रख लें। मुझे खयाल न था कि यह परिणाम होगा। आशा भी नहीं थी क्योंकि ऐसे आदमी मिलने मुश्किल होते हैं। उस आदमी को मैंने चुपचाप खड़े पाया, वह कुछ भी नहीं बोला तो मैंने ऊपर आंखें उठा कर देखा तो बूढ़े की आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। मैं बहुत घबड़ाया, मैंने हिलाया कि क्या हो गया, आप दुखी हो गए, माफ करें, दुख मैंने दिया हो तो। उन्होंने कहाः दुख बहुत दे दिया, क्योंकि मैं बहुत गरीब आदमी हूं, मेरे पास सिवाय इन रुपयों के और कुछ भी देने को नहीं है। और कुछ देने का मन हो गया है आपको, और मेरे पास सिवाय रुपये के और कुछ है ही नहीं, इतना गरीब आदमी हूं। और जब कोई मेरे रुपये को इनकार कर देता है तो एकदम इंपोटेंट, एकदम नपुंसक हो जाता हूं। मेरे पास और कुछ भी नहीं। पत्नी को देने को मेरे पास प्रेम नहीं है, सिर्फ गहने दे सकता हूं। बेटों को देने के लिए मेरे पास ज्ञान नहीं है, सिर्फ रुपये दे सकता हूं। मित्रों को देने के लिए मेरे पास मित्रता नहीं है। मेरे पास कुछ भी नहीं है सिवाय इन रुपयों के। क्योंकि मैंने सारी जिंदगी रुपये में लगा दी और यह सोचा था जिंदगी की शुरुआत में कि रुपया सब कुछ है, और अब मैं जानता हूं कि रुपया इकट्ठा हो गया है, और मैं ना-कुछ हो गया हूं। ये रुपये उठा कर आप बाहर फेंक दें, लेकिन मुझे वापस मत करें। मेरे पास और कुछ भी नहीं है।
उस बूढ़े आदमी की आंखों में झांक कर मुझे पहली बार पता चला कि धन का संग्रह किसी आदमी को धनी नहीं बना सकता। वह तो भ्रम हमारा इसलिए नहीं टूटता क्योंकि कभी धन इकट्ठा ही नहीं हो पाता। इसलिए भ्रम जारी रहता है। या कभी इकट्ठा भी हो जाता है, तो हमसे आगे और लोग होते हैं, जिनके पास ज्यादा होता है, भ्रम जारी रहता है। किसी भी आदमी को सारी दुनिया की दौलत दे दो, वह उसी दिन संन्यासी होना चाहेगा, वह उसके बाद एक क्षण नहीं रुक सकता। वह तो दुर्भाग्य यह है कि दौलत सबको नहीं मिल पाती इसलिए आदमी दौलत से बंधा रह जाता है। धन नहीं मिल पाता इस लिए आदमी धन से बंधा रह जाता है। और गरीबी मैं मिटाने की बातें करता हूं, इसलिए नहीं कि गरीबी बहुत बुुरी है, गरीबी मिटाने की बातें करता हूं क्योंकि गरीब को धन नहीं मिल पाता और धन की आकांक्षा सदा शेष रह जाती है। धन की आकांक्षा बड़ी बीमारी है। दुनिया से गरीबी मिट जाए और इतना धन मिल जाए लोगों को कि धन की व्यर्थता दिख जाए, तो धन की दौड़ कम हो जाए।
दुनिया जिस दिन समृद्ध होगी, उसी दिन धन की दौड़ मिटेगी, उससे पहले नहीं मिट सकती। ये ऐसी पागल दौड़ है, आपकी आंखों में देखना चाहता हूं मेरे लिए आदर। निश्चित ही, मेरे लिए स्वयं मेरे मन में आदर नहीं है। उसकी कमी मैं दूसरों के आदर से पूरी करना चाहता हूं। जिस आदमी के मन में अपने लिए आदर है वह दुनिया की दो कोड़ी फिकर नहीं करता, कि कौन उसके संबंध में क्या सेाचता है ? सोचता होगा उससे क्या प्रयोजन। जो आदमी अपने आदर से भरा हुआ है उसके मन में कुछ भी अपना आदर है, वह आदमी किसी के आदर की चिंता नहीं करता। जिस आदमी के मन में अपना थोड़ा मान है, वह न अपमान की फिकर करता है, न सम्मान की फिकर करता है, क्योंकि ये बेमानी बाते हैं, आपकी आंख मुझे क्या आदर दे सकती हैं? अगर मैं ही अपने को आदर नहीं दे पा रहा हूं। और हम सब अपने भीतर अनादरित हैं, हम सब अपनी ही आंखों के सामने अनादरित हैं। हमने अपने भीतर ऐसा कुछ भी तो नहीं पाया है, जो हमें आदर से भर दे अपने लिए। इसलिए हम दूसरे की आंख में आदर खोजते हुए घूम रहे हैं। कितनी ही आंखों से आदर इकट्ठा कर लो, क्या फर्क पड़ेगा? आदर इकट्ठा हो जाएगा, तालियों की गूंज बढ़ जाएगी। फूलमालाओं के ढेर लग जाएंगे, और वह जो आदमी आपकी बगल में खड़ा है, वह कैसे बदल जाएगा? वह तो वहीं का वहीं होगा जो कल था! जब तालियां नहीं बजी थीं, जब फूलमालाएं नहीं पड़ी थी, रथ नहीं सजे थे, और सिंहासनों पर बैठने का अवसर नहीं आया था।
सिंहासनों पर वही आदमी चढ़ता है न, जो सिंहासन के नीचे खड़ा था। आदमी कैसे बदल जाएगा? यश की कोई यात्रा कहां ले जाएगी, आदमी तो वहीं होगा जहां था? धन की यात्रा कहां ले जाएगी, आदमी तो वहीं होगा जहां था? लेकिन जहां हम हैं वहां हम झांकना नहीं चाहते। धन, यश, पद दौड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं। मेरे देखे से हम किसी और कारण से नहीं दौड़ रहे, लोग सोचते हैं कि हम किसी चीज को पाने के लिए दौड़ रहे हैं, मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं सोचता हूं यहां कोई भीतर है, जिसे बुलाने के लिए दौड़ रहे हैं। वहां आगे पाने को कुछ भी नहीं, यहां पीछे बुलाने को कुछ है। जिसकी वजह से हम भाग रहे हैं, भाग रहे हैं। आदमी प्रेम में भूल जाना चाहता है, किसको भूल जाना चाहता है प्रेम में? अपने को भूल जाना चाहता है। शराब में किसको भूल जाना चाहता है? संगीत में किसको भूल जाना चाहता है? प्रार्थना में, पूजा में किसको भूल जाना चाहता है? अपने को भूल जाना चाहता है। अपने से दौड़ चल रही है। अपने को भूलाने की एक एस्केप, एक पलायन चल रहा है। एक बेहोशी चल रही है, कि कैसे अपने को भूल जाऊं। लेकिन ये अपने को भूलने की जरूरत क्या है? इतना डर क्या है अपने को भूलने का? यह अपने को भूलने की इतनी चेष्टा और दौड़ क्यों है? निश्चित ही भीतर कोई एबिस, कोई गहराई है, कोई ऐसी गहराई है कि प्राण कंपते हैं। पीछे लौट कर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटती। तो हम बाहर ही बाहर देखते चले जाते हैं। दूसरे को देखने में समय गंवा देते हैं ताकि अपने को न देखना पड़े। दूसरे के साथ वक्त गुजार देते हैं ताकि अपने साथ वक्त न गुजारना पड़े। भूले रहते हैं, आकुपाइड उलझे रहते हैं, व्यस्त रहते हैं, ताकि झलक न मिल जाए अपनी।
एक फकीर था, गुरजिएफ। कुछ लोग उसके पास गए थे। और उससे कहने लगे कि हम स्वयं में झांकना चाहते हैं। कौन सी गहराइयों की बातें करते हैं, फकीर दुनिया में, हम उन गहराइयों में झांकना चाहते हैं? गुरजिएफ ने कहाः सच तय करके आए हो, तो आओ मेरे साथ लेकिन एक शर्त है। स्वयं में झांकना हो तो दूसरे को भूल जाना पड़ेगा। क्योंकि दूसरे को जब तक याद किए हो, तब तक स्वयं में उतरने का कोई उपाय नहीं। दूसरा खूंटी की तरह काम कर रहा है जिसको पकड़ कर हम अपने भीतर जाने से बचे हैं। और वहां आदमी लटक रहा है झाड़ियों को पकड़ कर। हम सब दूसरे को पकड़ कर लटक रहे हैं। पति-पत्नी को पकड़े हुए है, पत्नी-पति को पकड़े हुए है, बेटा-बाप को पकड़े हुए है, बाप-बेटे को, मित्र-मित्र को, नहीं कोई मिलता तो दुश्मन तक को आदमी पकड़ कर लटक जाता है। लेकिन कुछ मिलना चाहिए। भगवान, धर्म, प्रार्थना, पूजा कुछ भी मिल जाए, हम खूंटी पकड़ कर लटक जाना चाहते हैं। गुरजिएफ ने कहाः अगर स्वयं की गहराई जाननी है तो दूसरे को छोड़ना पड़ेगा। उन लोगों ने कहा कि हम राजी हैं। गुरजिएफ छोटे से दूर जंगल में उन्हें ले गया। तीस लोग थे और उनसे कहा कि तीन महीने इस मकान के भीतर ही रहना। तीस आदमी हैं, एक ही मकान के भीतर तीन महीने रहना है। और तीसों आदमियों से कहा, ध्यान रहे, सब इस तरह रहना जैसे तुम अकेले हो। दूसरे को रिकग्नाइज भी मत करना कि दूसरा है। इसकी स्वीकृति ही मत मानना मन में, दूसरा मौजूद है, इसको भूल जाओ। इस मकान में तीस लोग नहीं है, एक ही आदमी है तुम्हीं हो, वह बाकी उनतीस नहीं हैं। बाकी उनतीस को मिटा डालो। देखना भी मत दूसरे की तरफ, बोलना भी मत दूसरे से। अगर राह चलते वक्त दूसरा मिल जाए तो आंख से भी पहचानना मत, इशारा मत करना, अगर एक बैठा मिल जाए, तुम्हारा पैर लग जाए तो क्षमा मत मांगना, दूसरा यहां है ही नहीं। तुम तीस यहां ऐसे रहोगे जैसे एक-एक और सच्चाई यही है कि दुनिया में तीस नहीं, तीन अरब आदमी हैं। तो भी गहरे में एक, एक ही है। तीन अरब कहीं भी नहीं हैं।
यह सब गणित का भ्रम है। जहां एक और एक मिलके दो हो जाते हैं। तीन एक मिल कर तीन हो जाते हैं, और संख्या बढ़ती चली जाती है। यह सिर्फ गणित का भ्रम है, मैथेमेटिकल इलुजन है। यहां दुनिया में सिर्फ एक, एक ही है। और एक और एक और एक, इनका जोड़ तीन नहीं होते, तीन एक रह जाते हैं। सारी दुनिया में एक आदमी है, एक एक ही आदमी है, गणित का भ्रम है कि लगता है कि यहां पांच सौ आदमी हैं। पांच सौ आदमी नहीं हैं। एक-एक करके यहां पांच सौ एक हैं, पांच सौ नहीं हैं, पांच सौ का शब्द बिलकुल झूठा है, गणित से पैदा हुआ भ्रम है। गणित सिर्फ भ्रम पैदा कर देता है। जो कि बड़ी साइंटिफिक बात समझी जाती है। वह भी भ्रम पैदा कर देता है।
गुरजिएफ ने कहा एक-एक हैं यहां तीस और एक-एक करके तुम जीना उनतीस को भूल जाओ। जाने दो, खूंटी मत बनाना, किसी को कहीं रुकना नहीं है, भीतर जाना है। और जिस आदमी ने दूसरे को जरा पहचानने की कोशिश की तो उसे मैं दरवाजे के बाहर कर दूंगा। पंद्रह दिन के भीतर तीस आदमी में तीन आदमी बचे। सत्ताइस आदमियों को दरवाजे के बाहर कर देना पड़ा। क्योंकि बड़ा मुश्किल था दूसरे को भूलना। इसमें दूसरा कारण नहीं था। बड़ा मुश्किल है, दूसरे को भूलना, इसमें दूसरा कारण नहीं है। आप ये मत सोचना कि वह आदमी इतना सुंदर है कि भूलता नहीं। इस भ्रम में पड़ना ही मत। कौन सुंदर है, कौन असुंदर है? कुछ खूंटियों को हम सुंदर कहते हैं, कुछ को असुंदर कहते हैं। जिस खूंटी पर हमको लटकना होता है, उसको सुंदर कहने लगते हैं। जिससे भागना होता है उसको असुंदर कहने लगते हैं। जिसको हम सुंदर कहते हैं, कोई उसको असुंदर कहता है, जिसको कोई असुंदर कहता है, कोई उसको सुंदर कहे चला जा रहा है।
मजनू को बुलाया था उसके गांव के राजा ने और कहा था, तू बिलकुल पागल है, लैला तो बदशक्ल लड़की है, ऐसी साधारण लड़की के पीछे क्यों मरा जाता है? हम तुझे सुंदर लड़कियां खोज देते हैं। तेरे सा कीमती आदमी, सुंदर युवक एक साधारण लड़की के पीछे दीवाना क्यों है? हम तेरे लिए सुंदर लड़कियां बुला देते हैं। आ राजमहल में। मजनू खूब हंसने लगा। उसने राजा से कहा, तुम्हें लैला का कोई पता नहीं, राजा ने कहाः मैं उसे जानता हूं, भलीभांति परिचित हूं। मजनू ने कहाः न तुम जान सकते हो, न परिचित हो सकते हो, क्योंकि लैला में सौंदर्य देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। इसलिए मुझे दिखाई पड़ता है। राजा को नहीं दिखाई पड़ता है। उसे दिखाई पड़ता है।
जहां हम भटकना चाहते हैं, जहां हम उलझना चाहते हैं, वहां हम सौंदर्य पैदा करते हैं। सौंदर्य कहीं है नहीं। हमारा इनपोजिशन है। इसलिए हम किसी भी चीज में सौंदर्य पैदा कर लेते हैं। पुराने जमाने में गुलाब का फूल सुंदर था। कभी सुना था किसी राजमहल में कैक्टस और धतूरा राजमहल में चले गए हों? यह बिलकुल अस्पृश्य, शूद्र किस्म की चीजें थीं। कैक्टस शूद्र है पुराने जमाने का, कभी भी ब्राह्मणों की दुनिया में उसकी कोई जगह न थी। गुलाब के फूल की बात और है। राजमहलों में प्रवेश पाता था। लेकिन अब पचास वर्षों से कैक्टस ने गुलाब को हरा दिया। गुलाब आ गया महल के बाहर, कैक्टस आ गया महल के भीतर। आजकल जो सुसंस्कृत है कि उसके घर में कैक्टस होना ही चाहिए, नहीं तो वह शिक्षित नहीं है। क्या हो गया है, मामला क्या हो गया है? यह कैक्टस पहले क्यों होता था गांव के बाहर, खेत के किनारे पर जानवरों से बचाने का काम करता था। आज अचानक कैक्टस ने हमला बोल दिया। सब गुलाबों को बाहर कर दिया। कैक्टस भीतर आ गया। कांटा भी सुंदर हो गया, असल में गुलाब सूख गए। बहुत हो गए, अब गुलाब भी ऊबा देता है। ऊब पैदा हो गई, अब गुलाब अटकने के लिए काफी नहीं मालूम पड़ता। बोरियत लाने लगा है। अब कुछ और लाना पड़ेगा, इसलिए तो रोज फैशन बदल जाते हैं। कल जो बहुत सुंदर मालूम होता था वह आज बिलकुल आउट आॅफ डेट हो जाता है। कुछ भी आउट आॅफ डेट हो सकता है, जो आज सुंदर है वह कल हो जाएगा। सुंदर हम कल्पित करते हैं। सुंदर कुछ भी नहीं है।
चीन में एक तरह की शक्ल खूबसूरत होती है, उसको यहां लाओ तो शादी करना मुश्किल है। अफ्रीका में एक तरह के ओंठ सुंदर होते हैं, उनको यहां ले आओ तो बहुत मुश्किल। उनको यहां ले आओ तो कोई भी चूमने को राजी न होगा। लेकिन अफ्रीका की लड़कियां ओंठों को खींच-खींच कर चैड़ा करती हैं। क्योंकि चैड़ा, जितना लटका ओंठ हो, उतना ही सुंदर है। यहां की लड़की का ओंठ बड़ा और मोटा हो, तो गई। उसकी जिंदगी में अब बड़ा मुश्किल हो गया। पतला ओंठ चाहिए। लेकिन कल अफ्रीका यहां आ सकता है। कैक्टस घर में घुस सकता है, दिक्कत क्या है? उसमें कोई कठिनाई नहीं है। सफेद रंग से लोग ऊब जा सकते हैं। काला रंग सुंदर हो सकता है। कभी सुंदर रहा भी है। कृष्ण को हमने गोरा नहीं बनाया। उस जमाने मे सांवला भी बहुत सुंदर था। कृष्ण को हमने सांवला बनाया है। सांवले शब्द में अर्थ में भी सौंदर्य छिपाया गया। शब्द में भी बड़ा सलोनापन है। गोरे में वह बात नहीं। गोरा बहुत बाद में आया। सांवला बहुत पहले सुंदर था। गया नहीं, कल लौट सकता है। हम खूंटियां बनाते हैं सुंदर की। दूसरा हमें रोकता नहीं।
गुरजिएफ ने कहाः दूसरा नहीं रोकता है तुम्हें; तुम रुकना चाहते हो इसलिए कोई भी बहाना खोजते हो कि दूसरे में रुक जाओ। दोस्ती मिल जाए तो दोस्ती, दुश्मनी मिल जाए तो दुश्मनी। लेकिन दूसरे में उलझे रहो, ताकि खुद में न जाना पड़े, बाहर हो जाओ। उसने सत्ताइस लोगों को बाहर कर दिया। तीन लोग रह गए हैं। उन तीन लोगों का जो अनुभव हुआ, वह समझने जैसा है। जैसे-जैसे दिन बीते और जैसे-जैसे वह दूसरे का भूलते चले गए। बाहर की दुनिया विदा होने लगी। क्योंकि ध्यान रहे, हम जिस चीज पर ध्यान देते हैं, वही मौजूद होता है। जिस चीज पर ध्यान नहीं देते, वह विदा हो जाता है। ध्यान मौजूदगी बनाता है। ध्यान गया, मौजूदगी विदा हो जाती है। आपको मैं ध्यान दूं, तो आप हैं मेरे लिए। और अगर आपसे मेरा ध्यान हट जाए तो आप गए। अभी मैं यहां बोल रहा हूं, एक आदमी भागा हुआ आए और आकर आपके कान में कहे कि घर में आग लग गई है। मैं गया, ये सब गए, आप भागे, ध्यान और जगह पहुंच गया, फिर यह सब गया, भूल गया यहां कौन था कौन नहीं था। यह सवाल नहीं रहा। यह बात खत्म हो गई। जैसे-जैसे उन्होंने दूसरे से ध्यान हटाया है, और कुछ नहीं किया सिर्फ दूसरे को भूलते चले गए। भूलते चले गए। बाहर की रेखा धूल होने लगी, बाहर के चित्र तस्वीरें होने लगे। अभी तो हमें बाहर की तस्वीरें भी असली मालूम पड़ती हैं।
जब फिल्म देखने कोई जाता है, वहां कुछ भी नहीं है, पर्दा बिलकुल खाली है। पर्दे से खाली कोई ची.ज होती नहीं। पर्दे के खालीपन के लिए हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। जितना कीमती पर्दा, उतना खाली, जितना खाली खरीदना हो, उतने रुपये खर्च करो। पचास हजार, लाख रुपये का भी पर्दा होता है, उसकी कीमत उसी मात्रा में बढ़ती है, जिस मात्रा में वह खाली होता है। उसमें रेखा भी नहीं होती तो वह खाली पर्दा है। और विद्युत का खेल है, धूप छाया का। और लोग रो रहे हैं, और लोग मरे जा रहे हैं। यहां तक पागल लोग हैं कि अगर सुंदर लड़की नाचती हो तो वह नीचे झांक-झांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि पैर और थोड़े दिखाई पड़ जाएं। पर्दे पर भी। वहां कुछ भी नहीं है। वहां सिर्फ धूप-छाया का खेल। लेकिन आंसू बहे जा रहे हैं, लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं। सिनेमा-गृह के बाहर यदि लोगों के रूमाल जांचें जाएं तो पता चले कि कितने लोग रोए? वहां तो अंधेरा रहता है, बड़ी सुविधा रहती है। हालांकि आस-पास लोग देख लेते हैं कि किसी को पता तो नहीं चल रहा। फिर अपना रोने लगते हैं। नाटक में भी आदमी रोता है। चित्र को भी इतना असली समझ लेता है, क्यूं भूल जाते हैं आप कि यह फिल्म है। तीन घंटे अटेंशन की वजह से भूल जाते हैं। ध्यान रहे कि तीन घंटे एक ही बात पर ध्यान है, तो ध्यान जिस चीज पर भी अटक जाता है, वही सत्य हो जाती है। तीन घंटे एक ही चीज को निरंतर देखने का परिणाम ये है, फिल्म का परिणाम नहीं है यह। और आपने खयाल नहीं किया होगा। तीन घंटे पलक भी नहीं झपकी है, फिल्म देखने में। इसीलिए तो आंख थकी हुई मालूम पड़ती है, बाहर आके और रात नींद भी मुश्किल हो जाती। तीन घंटे आंख की पलक भी नहीं झपकती। ध्यान पूरा अटक जाता है, त्राटक लग जाता है फिल्म में। पुराने संन्यासियों को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फिल्म त्राटक का काम कर रहीं है। आंखें रुक गई हैं, पलकें झपकी नहीं हैं, क्योंकि पता है जरा पलक झप कर और क्या चूक जाए? हालांकि चूकने को कुछ भी नहीं सिर्फ खाली पर्दा है। लेकिन चूकने का डर। फिल्म इतनी रीयल, वास्तविक मालूम पड़ने लगती है, क्यों? तीन घंटे निरंतर अटेंशन, ध्यान, सत्यता दे देता है। जहां कुछ भी नहीं है, वहां सत्य खड़ा हो जाता है। और जहां सत्य है, गलत नहीं है, बाहर दुनिया है। एक एक्चुअल वास्तविक दुनिया बाहर है। आप वहां हो। मैं यहां हूं। लेकिन अगर ध्यान खिंच आए वापस तो बाहर की दुनिया खाली पर्दा हो जाती है। वहां कोई नहीं रह जाता। सवाल ध्यान रहे, कि ध्यान जहां है, वहीं सत्य बनना शुरू हो जाता है। बिलकुल असत्य पर भी सत्य निर्मित होता है ध्यान देने से। और अगर ध्यान सतत हो तो आदमी किसी भी तरह की कल्पनाओं को सत्य कर लेता है। भगवान वगैरह के जो दर्शन होते हैं, वह इसी ढंग से होते हैं। कल्पना पर निरंतर ध्यान देने से।
एक आदमी दिन-रात रो रहा है कि प्राण जा रहे हैं, दर्शन दो, हे मुरली मनोहर, दर्शन दो। अब मुरली मनोहर के बस में नहीं है दर्शन देना किसी को। वे हैं भी नहीं कहीं, सिर्फ एक तस्वीर है, जो इस चिल्लाने वाले के मन में बैठी है। जितना यह चिल्लाएगा, जितना यह रोएगा, जितना आंसुओं को झुकाएगा, ध्यान केंद्रित करेगा, मुरली मनोहर प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। वे खड़े हो जाएंगे। मुरली बजने लगेगी, नाच शुरू हो जाएगा। यह आदमी के ध्यान का फल है। यह एक तरह का मेंटल क्रिएशन है। यह एक तरह का मनोसृजन है। हमारे जो दुनिया चारों तरफ है, वह तथ्य की है। जब असत्य, झूठ, असत्य, कल्पना ध्यान देने से सत्य हो जाती है, तो ध्यान हटा लेने से तथ्य भी माया हो जाते हैं। ध्यान की बात है, सारा सवाल ध्यान का है, अटेंशन कहां है?
एक लड़का हाॅकी खेल रहा है। पैर में चोट लग गई है, खून बह रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है। अब पैर में चोट लगी है, तो पता नहीं चलेगा? पता तो चला होगा, पैर ने खबर दे दी होगी, लेकिन जिस ध्यान को खबर मिलनी चाहिए, वह अभी कहीं और है। तो खबर अभी घंटी बजाती रहेगी। जैसे टेलीफोन की घंटी बजती रहती है और मालिक कहीं और है। तो पैर खबर देता रहेगा, घंटी बजती रहेगी लेकिन अटेंशन मौजूद नहीं है। ध्यान अभी खेल में तल्लीन है। मालिक मौजूद नहीं है मस्तिष्क में। वह कहीं और गया है। तो पैर घंटी बजाता रहेगा कि चोट लग गई, खून बह रहा है, चोट लग गई खून बह रहा है। लेकिन उस आदमी को कुछ पता नहीं। सब को दिखाई पड़ेगा कि खेल देखने वालों को कि लड़के के पैर में चोट है, खून नीचे गिर रहा है। बूंद टपक रही हैं। खेल बंद हुआ ध्यान वापस लौटा और वह लड़का पैर पकड़ कर बैठ गया। और कह रहा है बहुत चोट लग गई, बहुत दर्द हो रहा है, उससेे पूछो कि चोट बहुत देर से लगी है, दर्द भी बहुत देर से हो रहा है, तुम कहां थे? वह कहीं और था, वह खेल में था, ध्यान जहां है, वहां जगत शुरू हो जाता है। ध्यान जहां से सिमट आता है वहां से जगत विलीन हो जाता है। हम बाहर ध्यान दे रहे हैं तो बाहर जगत बहुत वास्तविक हो गया है। और भीतर हमने ध्यान नहीं दिया, तो भीतर सब शून्य है, सब खाली हो गया है। वहां कुछ भी नहीं रह गया है।
तीन लोग जो बच गए उस फकीर के जंगल में वे भूलते चले गए, रोज ध्यान छोड़ते चले गए, उन्होंने फिकर छोड़ी बाहर की। उन्होंने बाहर की तरफ रस झोड़ा। उन्होंने बाहर कुछ है इसका विचार छोड़ा, वे बाहर से छूटते गए, छूटते गए, छूटते गए। तीन महीने पूरे हो गए। तीन महीने बाद उनमें से एक ने लिखा कि आश्चर्य, जिस क्षण बाहर से ध्यान गया, जिस क्षण, उसी क्षण भीतर उस गहराई में खड़े हो गए, जिसका हमें कोई पता ही नहीं था। बाहर से और भीतर जाने में एक क्षण का ही अंतराल नहीं होता। बाहर से ध्यान गया और आदमी भीतर खड़ा हो गया। और भीतर जाने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। सिर्फ बाहर होना छोड़ना पड़ता है। सिर्फ बाहर होना छोड़ने की बात है। और हम सब बाहर हैं। बाहर हैं इसका मतलब। इसका मतलब ध्यान बाहर है। और जहां हमारा ध्यान है, तो वहां हम एक जीवन निर्मित कर लेते हैं। एक नाता निर्मित कर लेते हैं, हमारे ध्यान में कुछ बातें निर्मित की हैं, वह समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो हमने वस्तुओं पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया है, इसलिए वस्तुओं का एक जगत, एक ममत्व का हमारा एक घेरा निर्मित हो गया है। मेरा मकान, मेरा मकान का क्या मतलब है? जिस मकान पर ध्यान दिया है, वह मेरा हो गया। ध्यान देने की कई तरकीबेें हैं, पैसा खर्च करो, ध्यान चला जाएगा। वह सब ध्यान देने की तरकीबें हैं।
मैंने सुना है कि एक आदमी के मकान में आग लग गई, वह छाती पीट कर रो रहा है। और मरा जा रहा है। मकान चला जा रहा है, लाखों रुपये खर्च किए थे वह सब, वे व्यर्थ हो गए हैं, पास में कोई आदमी उसको आके कहता है कान में कि घबड़ाओ मत, मैंने सुना है कि तुम्हारे लड़के ने कल मकान बेच दिया है, और पैसे मिल गए हैं। बस, सब खत्म हो गया। रोना विदा हो गया। एक क्षण में ऐसा नहीं कि उसने कहा, ठहरो, ठहरते-ठहरते मैं रोने को रोकूंगा, ऐसा उसने नहीं कहा था। बात खत्म हो गई तो वह हंसने लगा और उसने कहा क्या कहते हो? क्या मकान बिक गया? क्या रुपये मिल गए? वह रोना ऐसे विदा हो गया जैसे धूप के निकलने पर ओस के कण विलीन हो जाते हैं। जैसे दिया जलने पर अंधेरा नहीं होता। वह रोना गया। वह आदमी हंसने लगा है। मकान अब भी जल रहा है। वही मकान अब भी जला जा रहा है, और जोर से जला जा रहा है क्योंकि आग और पकड़ गई है। लेकिन वह आदमी हंसने लगा है। और तभी उसका लड़का भागा हुआ आया। और उसने कहा कि आप हंस रहे हैं, क्या हो गया है आपको? मकान जल रहा है। उसने कहा, मैंने सुना है कि रुपये मिल गए। उसने कहा कि वायदा तो हो गया था लेकिन रुपये नहीं मिले और अब वह आदमी बदल रहा है रुपया देने में। फिर रोना वापस लौट आया है। वह आदमी फिर छाती पीट रहा है। हमकोे यह नाटक दिखेगा लेकिन हम सब यही नाटक कर रहे हैं। क्या हो क्या रहा है इस आदमी को? ध्यान खिंच गया है, मेरा नहीं, तो बात खत्म हो गई। फिर ध्यान लौट आया है। जितना बड़ा हमारा मेरे का घेरा होता है, उतना हमारा बाहर ध्यान होगा। जो आदमी धीरे-धीरे जानने की कोशिश करता है। मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, उसका ध्यान भीतर लौटना शुरू होता है। ममत्व ध्यान को बाहर रोकने के लिए, मेरा होना, मकान मेरा है, तो फिर मकान ध्यान में रहेगा, ऐसा नहीं है कि आप मकान में रहते हैं, ज्यादातर यही है कि मकान आप में रहता है। इस भूल में मत रहना कि हम मकान के भीतर रहते हैं, मकान हमारे भीतर रहता है।
मैंने सुना है कि एक सम्राट था, इब्राहिम। वह एक दिन अपने राजमहल में बैठा है, अपने सिंहासन पर, और एक आदमी बाहर द्वारपाल से आकर जिद करने लगा है कि मुझे भीतर जाने दो। वह द्वारपाल कह रहा है कि आप पागल हो गए हैं, भीतर किसलिए जाने दें। वह आदमी कहता है कि इस सराय में मुझे ठहरना है। वह द्वारपाल कहता है, क्षमा करिए यह सराय नहीं है, यह सम्राट का निवास है। वह द्वारपाल को धक्का देकर भीतर आ जाता है, सम्राट भी हैरान है उसने बात सुनी है। आवाज सुन ली है। वह कहता है कि तुम पागल तो नहीं हो, यह सम्राट का निवास है, यह मेरा निवास स्थान है, यह कोई सराय नहीं है।
वह फकीर फिर भी भीतर घुसा चला आया। भीतर आया तो पता चला कि फकीर है, संन्यासी है। वह खूब हंस रहा है। सम्राट ने पूछाः हंसते क्यों हो? बात क्या है? तो वह पूछने लगा कि इसे तुम निवास कहते हो, हम तो सराय समझ कर इसमें पहले भी ठहरे हैं। उस आदमी ने कहाः कब ठहरे? उसने कहा कि कुछ जमाना हुआ है। सिंहासन पर दूसरा आदमी हमने देखा था। उस सम्राट ने कहा कि वे मेरे पिता थे, अब वे गुजर गए, दिवंगत हो गए। तो संन्यासी ने कहाः लेकिन वह भी कहते थे कि ये मेरा निवास स्थान है। निवास स्थान यहीं का यहीं है वे कहां चले गए? अगर उनके बिना निवास स्थान हो सकता है उनका, तो उनका नहीं रहा होगा, उनके साथ चला जाता। उसके पहले भी मैं आया हूं, तब भी दूसरा राजा था, तो उस सम्राट ने कहा कि वे मेरे पिता के पिता थे, वे भी विदा हो गए। तो उस फकीर ने कहा कि फिर मैं ठहर जाऊं इस सराय में? क्योंकि इसमें कई लोग ठहर चुके और विदा हो चुके। हम भी ठहरेंगे और विदा हो जाएंगे। और तुम भी ठहरोगे और विदा हो जाओगे। तो फर्क क्या है? हो सकता है अगली बार मैं आऊं तो फिर कोई दूसरा आदमी बैठा मिले और वह कहे कि हमारे पिताजी दिवंगत हो गए। तो यह मकान में निवासी बदलते चले जाते हैं, इसलिए मैं इसको सराय कहता हूं, ठहर जाऊं? वह इब्राहिम मुश्किल में पड़ गया। उसने उस फकीर को कहा कि तुम यहां ठहरो, लेकिन मैं बाहर जाता हूं, क्योंकि मैं इस खयाल में ही ठहरा था कि यह निवास स्थान है। अगर यह सराय है तो सम्हालो, जिसको सम्हालना हो। फकीर हंसने लगा, फकीर तो वहां ठहर गया, इब्राहिम उस मकान से बाहर हो गया।
पर इतने समझदार लोग बहुत कम होते हैं। हम तो मेरे में, सारा ध्यान हमारा केंद्रित है। मेरी पत्नी, मेरा बेटा, मेरा धन, मेरा मकान। कौन किसकी पत्नी है? कौन किसका पति है? नहीं छोटे बच्चों पर हम हंसते हैं कि गुड्डे-गुड्डियों का विवाह रचाते हैं। छोटे बच्चे, पूरा इंतजाम करते हैं। सात चक्कर लगवाते हैं गुड्डा-गुड्डियों को, जुलूस भी निकालते हैं, बैंड-बाजा भी बजाते हैं। जितनी हैसियत होती है उसी हिसाब से इंतजाम पूरा कर लेते हैं। हम हंसते हैं, और कहते हैं कि क्यों गुड्डा-गुड्डियों के खेल से खेल रहे हो? लेकिन अगर उन बच्चों को पता चल जाए कि हमने भी थोड़े बड़े पैमाने पर गुड्डे-गुड्डियों के खेल बना रखे हैं। एक औरत से एक आदमी कपड़ा बांध कर सात चक्कर लगा लेते हैं और यह मेरी पत्नी हो गई, वह मेरा पति हो गया। सात चक्कर लगाने से? दो घंटे, सात चक्कर लगाओगे तो मामला और हो जाएगा? हो जाना चाहिए, क्योंकि उसी सेे निर्मित हुआ है, उसी के लगा लेने से खुल जाएगा, रिवर्स गेयर तो हर चीज में होता ही है। लेकिन जो ये मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा बेटा, कौन किसका बेटा? किसने किसको बनाया है?
कोई किसी वैज्ञानिक से पूछता था कि मुर्गी क्या है? उस वैज्ञानिक ने बहुत बढ़िया बात कही। वह मुर्गियों के संबंध में बड़ी खोज-बीन करता था। उसने कहाः मैंने बहुत दिनों से अध्ययन किया, तो जहां तक मैं समझ पाया हूं कि मुर्गी क्या है, तुम पूछते हो तो मैं तुमसे कहना चाहता हूं, मुर्गी अंडे की तरकीब है और अंडे पैदा करने की। मुर्गी जो है वह अंडे की तरकीब है और अंडे पैदा करने की।

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