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सोमवार, 17 सितंबर 2018

मन का दर्पण-(प्रवचन-04)

मन का दर्पण-(विविध)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

प्रभु तो द्वार पर ही खड़ा है

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक बहुत बड़े मंदिर में बहुत पुजारी थे। विशाल वह मंदिर था। सैकड़ों पुजारी उसमें सेवारत थे। एक रात एक पुजारी ने स्वप्न देखा कि कल संध्या जिस प्रभु की पूजा वे निरंतर करते रहे थे, वह साक्षात मंदिर में आने को है। दूसरा दिन उस मंदिर में उत्सव का दिन हो गया। दिन भर पुजारियों ने मंदिर को स्वच्छ किया, साफ किया। प्रभु आने को थे, उनकी तैयारी थी। संध्या तक मंदिर सज कर वैभव की भांति खड़ा हो गया। मंदिर के कंगूरे-कंगूरे पर दीये जल रहे थे। धूप-दीप, फूल-सुगंध--मंदिर बिलकुल नया हो उठा था।

सांझ आ गई, सूरज ढल गया और प्रभु की प्रतीक्षा शुरू हो गई, पुजारी जाग कर खड़े थे। लेकिन घड़ियां बीतने लगीं और उस के आने का कोई...कोई भी सुराग न मिला, उसके रथ के आगमन की कोई सूचना न मिली। फिर रात गहरी होने लगी और पुजारियों को शक हो आया। कोई कहने लगा, स्वप्न का भी क्या भरोसा? स्वप्न स्वप्न होते हैं, स्वप्न भी कहीं सत्य हुए हैं! भूल में पड़ गए हम। व्यर्थ हमने श्रम किया। फिर वे थक गए थे दिन भर से, सो गए। दीये का तेल चुक गया और दीये बुझ गए। धूप बुझ गई। घनघोर अंधेरे में मंदिर डूब गया।


लेकिन कोई आधी रात में शोर पथ पर होने लगा। उस प्रभु का रथ उस मार्ग पर मुड़ा, जहां वह मंदिर था। रथ के घोड़ों की टाप सुनाई पड़ने लगी और उसके पहियों की आवाज। सोए हुए थे पुजारी, उसमें एक पुजारी को--लगा रथ जाता है। उसने कहा चिल्ला कर, उठो, जागो, शायद उसका रथ जा रहा है। सुनते नहीं, आवाज सुनाई पड़ती है, घोड़ों के टापों की, रथ के पहियों की। लेकिन सब सोए हुए थे। किसी ने चिल्ला कर कहा, चुप रहो, शोर न करो, नींद न तोड़ो। कोई नहीं आता है। सपने भी कहीं सच हुए हैं? किसी ने कहा, कहां है रथ, कहां है कौन? कोई आने को नहीं है। वे सब सो गए।
वह रथ द्वार पर आकर रुका। जिसकी प्रतीक्षा थी, वह अतिथि उतरा। उसने अपने पावन चरणों से उस अंधेरे से भरे मंदिर की सीढ़ियों को पार किया; द्वार पर दस्तक दी। लेकिन पुजारी सोए हुए थे। फिर किसी को दस्तक सुनाई पड़ गई। उसने कहा कोई द्वार ठोंकता मालूम होता है। प्रतीत होता है जिसकी हम प्रतीक्षा में थे, वह आ गया। लेकिन फिर किसी सोए हुए ने चुप करा दिया और उसने कहा, चुप हो जाओ, हवा के थपेड़े होंगे। कौन जाता है, सपने कहीं सच होते हैं?
और आया हुआ अतिथि वापस लौट गया। सुबह से उठे। सुबह उस पूरे नगर ने देखा, पुजारी छातियां पीट रहे हैं। और रथ के चिन्ह सीढ़ियों पर बने थे और उन सीढ़ियों की घूल पर उस पावन अतिथि के पैरों के भी चिन्ह थे। द्वार तक वह आया था। लेकिन जिनके द्वार वह आया था, वे सोए हुए थे, इसलिए उसे लौट जाना पड़ा।
इस छोटी सी कहानी से मैं आज की बात शुरू करना चाहता हूं, इसलिए कि जीवन तो हमारे द्वार पर रोज आता है। उसके रथ के पहियों की आवाज भी सुनाई पड़ती है, उसके घोड़ों के टाप भी सुनाई पड़ते हैं, लेकिन द्वार हैं हमारे बंद और हम हैं सोए हुए। इसलिए जीते जी भी हम जीवन स्पर्शित नहीं हो पाते। जीवन रोज आता है प्रतिपल और लौट जाता है। द्वार हैं बंद हमारे, और भीतर जो है, वह सोया हुआ है। वह जागा हुआ हो तो शायद जीवन से हमारा संपर्क हो सकता है। इसलिए यह केवल दिखाई पड़ता है कि हम जीते हैं। हम जीते भी मुर्दों की भांति हैं, जो अपने अपने कमरों में बंद हैं और सोए हुए हैं। कोई जीता नहीं है, बहुत कम लोग जीवन को उपल्ब्ध होते हैं।
उस जीवन को उपलब्ध होने का क्या मार्ग है? किस द्वार से जीवन का संगीत हमारे प्राणों में आएगा और हमें पुलकित कर देगा? उस संबंध में ही मुझे आज बात करनी है। इसके पहले कि मैं उस संबंध में कुछ कहूं, यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि हम किस भांति सोए हुए हैं! क्योंकि सोए हुए मनुष्य के लिए जीवन का कोई संपर्क...कोई संपर्क नहीं हो सकता है। सोए हुए के लिए कोई जीवन नहीं है। जीवन है जाग्रत चित्तता में, जागे हुए में, होश में। और हम सब सोए हुए हैं। कैसे हम सोए हुए हैं, उस संबंध में थोड़ा समझेंगे तो शायद जागने की बात भी हमारे खयाल में आए।
बहुत-बहुत रूप हैं हमारे सोए हुए होने के। शायद एकदम से आश्चर्य होगा जानकर कि मैं आपको सोया हुआ कहूं! आप सब जागे हुए हैं, आंखे खुली हुई हैं। चलतें हैं, उठते हैं, बात करते हैं। और जागने का क्या अर्थ हो सकता है? नहीं, लेकिन हमारा यह जागना और हमारी यह खुली आंखे सबूत नहीं हैं सचमुच जागने का। एक आदमी शराब पिए खड़ा हो, आंखे खुली हों, बातें भी करता होगा, फिर भी हम नहीं कह सकते कि वह जागता है। हम कहेंगे सोया है, बेहोश है, मूच्र्छित है। हम भी आंखें खोल खड़े हैं, लेकिन बहुत-बहुत प्रकार की शराब हमने पी रखी है, जो हमारी निंद्रा बन गई है। बहुत प्रकार की बेहोशियां हैं, जिनमें हम डूबे हुए हैं। आंखों की पलकें हैं, बोलते हैं, बात करते हैं, लेकिन भीतर कोई बेहोश है, कोई मूच्र्छित है। और उसके कारण यह सब जागरण, केवल दिखाई पड़ने वाला जागरण है, वस्तुतः जागरण नहीं है।
रात हम सोते हैं, सुबह हम जागते हैं तो यह भ्रम होता है, नींद टूट गई। नींद टूटती नहीं। रात आकाश में तारे होते हैं, सुबह सूरज निकल आता है तो शायद हम सोचते होंगे, तारे समाप्त हो गए। तारे समाप्त नहीं होते, केवल सूरज की रोशनी में ढंक जाते हैं। मौजूद तो वे वहीं होते हैं, जहां थे। और अगर कोई बहुत गहरे कुएं में चला जाए, अंधेरे कुएं में, तो दिन में भी उसे आकाश में तारे दिखाई पड़ जाएंगे।
रात हम सोते हैं और सपने देखते हैं। सुबह हम उठ आते हों, तो सोचते हों कि हमारे सपने गए, तो हम भूल में हैं। सपने केवल जीवन की भाग-दौड़ में छिप जाते हैं। कोई थोड़ा आंख बंद करके भीतर देखेगा तो पाएगा, सपने वहां मौजूद हैं और चल रहे हैं। वहां कोई सपना भीतर, वहां कोई कल्पना भीतर, वहां कोई विचारों का ऊहापोह चल रहा है। और उस ऊहापोह में दबे हुए हम जाग नहीं सकते। वह ऊहापोह बिलकुल शांत हो जाए, शून्य हो जाए तो ही भीतर, जो चेतना छिपी है, वह पूरे अर्थों में प्रगट होती है और जागती है। इसलिए जब तक कोई मनुष्य सब प्रकार की बेहोशियों के द्वार न छोड़ दे, सब तरह की बेहोशियों के द्वार न तोड़ दे, तब तक जाग नहीं सकता।
थोड़ा समझें कि कैसे-कैसे हम बेहोश हैं?
कोई आदमी धन के लिए बेहोश हो सकता है, कोई आदमी यश के लिए बेहोश हो सकता है, कोई आदमी पद के नशे में मूच्र्छित हो सकता है। और बड़े आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि कोई त्याग में भी मूच्र्छित हो सकता है, कोई धर्म में भी मूच्र्छित हो सकता है! कोई संगीत में मूच्र्छित हो सकता है। मूच्र्छा के बहुत रूप हैं, लेकिन सूत्र एक ही है।
जहां भी आत्म-विस्मरण है, जहां भी सेल्फ-फार्गेटफुलनेस है, वहां मूच्र्छा है, वहीं बेहोशी है, वहीं निंद्रा है।
जागरण एक ही सूत्र है, जहां सेल्फ रिमेम्बरिंग है, जहां आत्म स्मृति है।
मैंने सुना है, एक नगर में बहुत वर्षों पहले एक बहुत बड़ा वीणा-वादक आया। नगर एक राजधानी थी, एक नवाब का राज्य था। उस वीणा वादक ने नवाब को कहा, बजाऊंगा वीणा, लेकिन एक ही शर्त पर कि मुझे सुनने वालों में से कोई सिर न हिलाए। और सिर कोई हिला, मैं वीणा बजाना उसी क्षण बंद कर दूंगा। यह मेरे बरदाश्त के बाहर है कि कोई सिर हिले। नवाब पागल था। अकसर नवाब पागल होते ही हैं, क्योंकि जो पागल नहीं होगा, वह नवाब बनने को कभी उत्सुक नहीं होगा। उसने कहा, घबड़ाओ मत, जो सिर हिलेगा--तुम्हें चिंता करने की बात नहीं, घबड़ाओ मत, हिलता हुआ सिर अलग ही करवा देंगे। तुम निशिं्चत होकर बजाओ और बीच में बंद करने की जरूरत नहीं है। हमारे सिपाही मौजूद रहेंगे, देखते रहेंगे, जो भी सिर हिलेगा, उसे अलग ही करवा देंगे। गांव में खबर पहुंचा दी गई, संध्या लोग संभल कर आएं। जो सिर हिलाएगा वीणा को सुनते समय, वह कटवा दिया जाएगा।
हजारों लोग आए होतेे वहां सुनने, आप भी गए होते, लेकिन लोग घर में रुक गए। आप भी रुक गए होते। थोड़े से लोग गए। उस दिन फिर वहां बहुत भीड़ नहीं थी उस भवन में। डेढ़ सौ लोग इकट्ठे हुए थे। बड़ी राजधानी थी, संगीत को बहुत प्रेम करने वाले थे। लेकिन जो बहुत संयमी होंगे, जो योगासन वगैरह जानते होंगे, वे वहां गए, ताकि थिर रह सकें। कहीं उनसे भूल से भी सिर हिल गया तो खतरा है।
वीणा बजी, एक घड़ी बीत गई। रात गहरी होने लगी और वैसे ही वीणा के स्वर भी गहरे होने लगे। दो घड़ियां बीत गई होंगी, तीन घड़ियां बीत गई होंगी, लोग ऐसे बैठे थे जैसे मूर्तियां हैं पत्थर की। श्वांस भी लेने में जैसे डर रहे हों। भूल से भी सिर न हिल जाएं। राजा की नंगी तलवारें लिए हुए आदमी खड़े थे। लेकिन जैसे-जैसे आधी रात होने लगी और रात की मूच्र्छा और संगीत की मूच्र्छा गहरी होने लगी, कुछ सिर हिलने शुरू हो गए।
रात पूरी हो गई, संगीत की रात पूरी हुई, बीस आदमी पकड़ लिए गए, जिन्होंने सिर हिलाया था। और राजा ने कहा संगीतज्ञ को, इनके सिर अलग करवा दूं? और उनसे पूछाः पागलों, मालूम था तुम्हें, फिर भी सिर क्यों हिलाए? वे लोग कहने लगे, जब तक हम मौजूद थे, हमने सिर नहीं हिलाए। जब हम मौजूद न रहे, तब तो हमारा कोई वश नहीं रहा। हम जब तक होश में थे, सिर हमने नहीं हिलाए, लेकिन जब बेहोशी आ गई होगी, हम भूल गए अपने को और हो गए संगीत के साथ एक, तब फिर हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं। सिर हिला होगा, हमने नहीं हिलाया। संगीतज्ञ से पूछाः इनके सिर अलग करवा दूं? उसने कहा नहीं। किसी कारण से मैंने यह शर्त रखी थी। कल भी मैं वीणा बजाऊंगा, लेकिन ये बीस ही लोग आ सकेंगे। कोई और न आ सकेगा। ये बीस ही लोग कल आ सकेंगे। कल भी मैं वीणा बजाऊंगा। बस ये ही सुनने में समर्थ हैं।
वे लोग तो छोड़ दिए गए, लेकिन जिस बात के लिए मैंने यह घटना कहनी चाही, वह यह है कि संगीत उन्हें एक ऐसी जगह में ले गया, जहां वे मौजूद नहीं थे, जहां वे मूच्र्छित थे। जहां उनकी आत्म-स्मृति खो गई थी। जहां उन्हें अपने होने का कोई बोध न रह गया था। वे हिले थे लेकिन उन्होंने खुद अपने को नहीं हिलाया था। वे जैसे यंत्र की भांति कंपित हुए थे, जैसे हवा आई थी और पत्तों को हिला गई थी, हवा आई थी और नदी की लहरों को कंपा गई थी। ऐसे ही वे हिले थे। कुछ हुआ था, कोई हवा बही थी गीत की और उसमें वे कंप गए थे, उसमें वे परवश थे। अपने वश में नहीं थे। वे मूच्र्छित थे, सोए हुए थे। इस सोने में जरूर उन्हें बहुत कुछ मिला होगा। सोने में हमेशा कुछ सुख मिलता है।
जागरण एक पीड़ा है।
सपनों में कौन सुखी नहीं हो जाता, क्योंकि सपनों में हम अपने में बंद हो जाते हैं, नींद में, और बाहर के जगत से छूट जाते हैं। लेकिन जैसे आंख खुली है, जीवन की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। और इन जीवन की समस्याओं से भागने को हम हजार-हजार रास्ते से मूच्र्छा के मार्ग खोजते हैं। कोई संगीत में खोजता होगा, कोई सेक्स में खोजता होगा कोई सौंदर्य में खोजता होगा। कोई संन्यास, कोई धन में खोज लेता है। जीवन भर धन के लिए दौड़ता रहता है स्वयं को भूल कर। कोई पद के लिए दौड़ता रहता है। कोई मोक्ष के लिए दौड़ता रहता है। खुद को भूलने की, खुद से एस्केप की, खुद से पलायन की हमने बहुत सी विधियां खोज ली हैं। और इसके लिए सोए ही रह जाते हैं, जाग नहीं पाते हैं।
शब्दों में, विचारों में, ज्ञान में भी कोई अपने को भूल सकता है। जीवन को, जीवन के प्रति आंखें बंद कर सकता है। अक्सर पंडित से अपरिचित रह जाते हैं। जीवन को छोड़ कर कहीं बंद हो जाते हैं, किन्हीं शास्त्रों में, शब्दों में थोथे और मृत, और वहीं खो जाते हैं, वहीं रुक जाते हैं।
रवींद्रनाथ एक रात एक नौका पर सवार थे। एक बहुत बड़ा ग्रंथ किसी मित्र ने भेंट किया था सौंदर्य शास्त्र पर, एस्थेटिक पर। उसे अपने बजरे में बैठ कर दीये को जला कर पढ़ते रहे आधी रात तक। सौंदर्य क्या है, इसकी ही
उसमें चर्चा और विचार था। खोते गए, खोते गए। जितना शास्त्र को पढ़ते गए, उतना ही खयाल भूलते गए कि सौंदर्य क्या है। और उलझन, शब्द और सिद्धांत, और तब ऊब कर आधी रात बंद कर दिया ग्रंथ। आंख उठा कर देखा तो हैरान रह गए। बजरे की खिड़की के बाहर सौंदर्य मौजूद था खड़ा। पूरे चांद की रात थी। आकाश से चांदनी बरस रही थी, नदी की लहरें शांत हो गई थीं, सन्नाटा और मौन था। दूर-दूर तक शब्द नीरव था। सौंदर्य वहां मौजूद था। तब उन्हों ने सिर पीट लिया अपना कि पागल हूं मैं। सौंदर्य द्वार के बाहर मौजूद है और मैं किताब में खोजता हूं, जहां केवल मुर्दा शब्द हैं, और कुछ भी नहीं है। बंद कर दी वह किताब।
मित्र को लिखा, मित्र तुम्हारी किताब वापिस लौटा देता हूं। सौंदर्य क्या है, अगर इसे ही जानना है तो सौंदर्य को ही देख लूंगा। लेकिन तुम्हारे शास्त्र में खोजना--जितनी देर तुम्हारे शास्त्र में खोजूंगा, उतनी देर सौंदर्य थपकी दे रहा है, आओ द्वार पर और मैं उससे वंचित रह जाऊंगा।
बंद कर दी थी किताब। फूंक कर बुझा दिया और हैरान हो गए थे कि दीए के बुझते ही जो चांदनी बाहर खड़ी थी, वह रंध्र-रंध्र से, द्वार-द्वार से बजरे के भीतर आ गई थी। उसका नाच भीतर आ गया था। और तब उन्होंने कहा था, एक और सत्य मुझे दिखाई पड़ा कि छोटा सा दिया जला कर मैं बैठा था, तो परमात्मा के दीए की रोशनी भीतर नहीं आ पा रही थी। मेरा दीया परमात्मा के दीये को दीवाल बना था, भीतर नहीं आने देता था। बुझा दिया है मेरा दीया तो जो द्वार पर खड़ा था, वह भीतर आ गया।
ज्ञान का हम अपना-अपना दीया जलाए बैठे हैं और चारों तरफ बरस रहा है प्रकाश उसका। और छोटे से दीए की टिमटिमाती रोशनी में वह प्रवेश नहीं कर पाता है, वह बाहर ही खड़ा रह जाता है। तो कुछ हैं, जो जोड़ने में खो देते हैं अपने को--शब्दों के ज्ञान में और शास्त्रों में। और विस्मरण कर देते हैं उसे, जो सत्य है स्वयं के भीतर भी और स्वयं के बाहर भी। कुछ हैं जो धन में खो देते हैं, कुछ हैं जो पद में खो देते हैं।
मैंने सुना है, एक धनपति मृत्यु की शैय्या पर था। जीवन भर--जीवन भर धन की दौड़ थी, धन का ही हिसाब था। कभी कुछ और सोच न पाया था, न समझ पाया था। अपनी तरफ कभी लौट कर देखने का अवसर और अवकाश नहीं मिला था। मृत्यु आ गई थी। चिकित्सकों ने कह दिया था, बचना कठिन है। शायद घर के लोग सोचते होंगे, गीता सुना दें उसे, धर्म-ग्रंथ सुना दें उसे। वे धर्म ग्रंथ और गीता सुनाते भी थे। सोचते होंगे, शायद वह सुनता भी है। लेकिन जिसने जीवन भर धन का जोड़ किया था, वह सुन भी कैसे सकेगा उसे? उसके भीतर उसका ही जोड़ चलता था, उसका ही कारोबार चलता था। ऊपर से गीता चलती थी, भीतर उसका अपना हिसाब चलता था। वह सुनता नहीं था। सुन कैसे पाता! भीतर एक और ही मूर्छा थी। अंतिम दिन, डूबने लगा था उसका प्राण, तो उसने आंख खोली और पत्नी से पूछा कि मेरा बड़ा लड़का कहां है? उसकी पत्नी ने कहाः मौजूद है, आपके बगल में बैठा है, निश्चिंत रहे। पत्नी गदगद हो गई, जीवन में कभी उसने किसी को नहीं देखा था सिवाय पैसे के। शायद मृत्यु के इस क्षण में प्रेम उसे आ गया है, वापस लौट आया है। धन्य है यह भी भाग्य कि मृत्यु के क्षण में भी वह प्रेमपूर्ण होकर विदा हो सकेगा। उसने पूछाः और उससे छोटा लड़का? वह भी मौजूद था। और उससे छोटा? वह भी। उसकी पत्नी ने कहाः निश्चिंत रहें पांचों लड़के आपके पास मौजूद हैं। आप शांत रहें। वह आदमी जो मरणासन्न था, उठ कर बैठ गया और बोला, इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा है?
भूल में थी पत्नी, भूल में थी वह। यह प्रेम का स्मरण न था, पैसे ही का स्मरण था। भीतर उसके वही था, जो चल रहा था। मृत्यु के क्षण में भी मूच्र्छा उसकी वही थी। मृत्यु के क्षण में अपना उसे स्मरण न था। स्मरण था दुकान का। वही उसकी मूच्र्छा थी।
हम हजार-हजार रूपों में अपनी मूच्र्छा खोज ले सकते हैं। हजार-हजार रूपों में हम मूच्र्छित हो सकते हैं।
एक बहुत बड़े विचारक को लंदन के पास किसी छोटे गांव में, एक चर्च में निमंत्रण मिला था बोलने का। भूलक्क्ड़ था वह, जैसा विचारक होते हैं। क्योंकि विचार में इतने मूर्छित होते हैं कि स्वयं का स्मरण खो जाता है। मूर्छा भी है वह, नशा भी है वह। सात बजे संध्या उसे पहुंच जाना था उस चर्च में। यह एक घंटे का रास्ता था। अपने घोड़े पर सवार होकर एक घंटे में पहुंच सकता था। लेकिन यह सोच कर कि कोई भूल-चूक हो जाए, दो घंटे पहले निकल चलना उचित था। तो दो घंटे पहले अपने घोड़े पर चल पड़ा। पांच बजे ही घर से निकल गया। सोचा, एक घटां वहां रुक लेंगे, लेकिन समय पर पहुंच जाना उचित है। चल पड़ा घोड़े पर। चर्च के द्वार पर जाकर रुक गया, तब छः ही बजे थे। अभी सुनने आने वालों की एक घंटे की देर थी। वह घोड़े पर बैठा ही बैठा कुछ सोचने लगा। बीच में स्मरण आया अपने सिगार को जलाने का। सिगार मुंह में लगा कर वह जलाना चाहता था। हवा सामने से जोर से आती थी, उसने घोड़े को उल्टा कर लिया, सिगार जला लिया, बैठा रहा। घोड़े ने चलना वापिस शुरू कर दिया। घंटे भर बाद जब उसने घड़ी देखी। सोचा कि अब तो लोग आ गए होंगे। आंख उठा कर देखी, अपने घर वापस खड़ा था।
इस आदमी को होश में कहिएगा, इस आदमी को मूच्र्छित कहिएगा? या कि जागरूक कहिएगा? यह आदमी होश में है, जागा हुआ है?
नहीं इसका चित्त बिलकुल ही मूच्र्छित है। अपने ही खयालों में, विचारों में खोया हुआ है। ऐसे हम सब बहुत-बहुत रूपों में मूच्र्छित हैं। इसके मूच्र्छा रहते जीवन से कोई संपर्क नहीं हो सकता। जीवन से संर्पक होने के लिए मूच्र्छा टूट जानी चाहिए। जागरण का द्वार हृदय पर खुलना चाहिए।
कैसे खुलेगा वह द्वार?
और हम द्वार को खोलने की जो भी चेष्टा करते हैं, अकसर होता यही है कि उससेे द्वार और बंद हुआ चला जाता है। अकसर उससे और द्वार और बंद होता है, खुलता नहीं। हमारी चेष्टा बहुत भ्रांत है।
तीन सूत्रों पर मैं चर्चा करूंगा, जिनसे यह जीवन का द्वार खुल सके।
पहला सूत्रः-केवल वे ही लोग, केवल वे ही लोग जाग सकते हैं और आत्म स्मरण से भर सकते हैं, जो अंधी श्रद्धाओं और विश्वासों से अपने को मुक्त कर लें। जो विचार की तीव्रता में वापस हो जाएं, जो विचार के ज्वलंत प्रकाश में, विचार के आलोक में अपनी चेतना को स्थापित कर सकें, प्रतिष्ठित कर सकें। क्योंकि जो श्रद्धा में है, वह आंख बंद कर लेता है। आंख बंद कर लेने से सो जाता है। जो विश्वास कर लेता है, वह आंख बंद कर लेता है।
विश्वास का अर्थ ही हैः मैं किसी को मान लेता हूं, खुद की खोज छोड़ देता हूं।
जिस क्षण मैं खुद की खोज छोड़ता हूं, उस क्षण निंद्रा शुरू होती है। किसी के सहारे आंख बंद करके मैं सोचता हूं। भागा जाऊं किसी के अनुगमन में, किसी के पीछे, किसी के अनुसरण के। किसी को अपने ऊपर ओढ़ कर मैं पार हो जाऊंगा, तो मैं भूल में हूं। मैं जितना ही पर-निर्भर होता चला जाऊंगा, उतनी ही मेरी निंद्रा गहरी होती जाती है, उतना ही जागरण कठिन होगा।
 लेकिन हम सब हजारों वर्षों से विश्वास में जिए हैं। तर्क में हमारी दीक्षा नहीं है। विचार में सतेज, चिंतन में हमारी दीक्षा नहीं है। हमारी दीक्षा है विश्वास में, श्रद्धा में। वे सुलाने वाले तत्व हैं, वे सुलाने वाले तत्व हैं, वे मादक द्रव्य हैं। श्रद्धा सबसे बड़ा ड्रग है, सबसे बड़ी बेहोशी की दवा है, जो आदमी ने अब तक खोजी है। उससे सारी दुनिया सो गई है। कुछ लोगों का हित है इसमें कि लोग सो जाएं तो शोषण आसान है। लोग सोएं हो तो उनकी जेब खाली कर लेनी आसान है। लोग जागे हुए हों तो शोषण मुश्किल है। धर्म के नाम पर शोषण है। लोग जितने सोए हुए हों, उतना शोषण आसान है।
एक विचारक थे एक गांव में। वह सुबह-सुबह गांव के तेली के पास तेल खरीदने गया था। एक अजीब सी बात उसने देखी तो पूछ बैठा। विचारक था, सोचता था--जो भी दिखाई पड़ जाए, प्रश्न बन जाता था। देखा, तेली जो तेल बेचता है, उसके पीछे ही बैल का कोल्हू है, जो चलता है और तेल पेर रहा है, लेकिन वह बैल को चला नहीं रहा है, बैल अपने आप चले जा रहा है। उसने तेली से पूछाः यह क्या तरकीब है तुम्हारी! बैल को चलाने वाला नहीं है और बैल चला जाता है? बड़ा श्रद्धालू बैल मालूम होता है। बड़ा विश्वासी बैल है। इसको पता भी नहीं कि कोई चला रहा है। रुक जाए पागल, क्यों चल रहा है? उस तेली ने कहाः देखते नहीं हो बैल की आंखें, जो पट्टियों से बंधी हैं? बैल को अंधा कर दिया है। उसे पता नहीं चलता कि चलाने वाला कोई पीछे है या नहीं। उस विचारक ने पूछाः लेकिन कभी-कभी ठहर कर तो पता तो लगा ले सकता है कि कोई पीछे है या नहीं? उस तेली ने कहाः मैं बैल का समझदार हूं। देखते नहीं बैल के गले में घंटी बांध रखी है? चलता रहता है, घंटी बजती रहती है। मुझे पता रहता है, बैल चल रहा है। खड़ा हो जाता है, घंटी बंद हो जाती है, मैं पीछे जाकर फिर हांक देता हूं। बैल को पता नहीं चल पाता कि कोई पीछे मौजूद है। यह उसे खयाल रहता है कि कोई हमेशा मौजूद है। जब भी खड़ा होता है, तब हांक शुरू हो जाती है। विचारक ने कहाः लेकिन यह नहीं कर सकता बैल कि खड़ा होकर सिर को हिलाता रहे, ताकि घंटी बजे और तुम बैठे रह जाओ। उस तेली ने कहाः महाराजा मैं हाथ जोड़ता हूं, जरा धीरे बात करें, कहीं बैल ने सुन लिया तो मुश्किल हो जाएगी।
तेली बैल को नहीं सुनने देना चाहता। धर्म पुरोहित भी विचार की बात धार्मिकों को नहीं सुनने देना चाहता है। हजारों वर्षों से हमने बहुत-बहुत रूपों से आंखें बांध रखी हैं, ताकि कोई विचार की बात न सुन ले। हजार तरह के भय खड़े कर रखे हैं--कि विचार किया तो नर्क चले जाओगे, और विश्वास किया तो स्वर्ग। विश्वास करोगे तो नाव मिल जाएगी और संदेह करोगे तो भटक जाओगे। हजार तरह के डर हैं, प्रलोभन हैं, और आंखों पर पट्टियां हैं, और आदमी चला जा रहा है। इसीलिए तो जमीन पर मंदिर बहुत, मस्जिद बहुत, गिरिजे बहुत। रोज प्रार्थनाएं करने वाले बहुत, भगवान की मूर्तियां बहुत, शास्त्र बहुत, सब कुछ बहुत। लेकिन धर्म का कोई भी पता नहीं है। आदमी रोज अधार्मिक होता चला गया है और धर्म बढ़ते चले गए हैं। धर्म का विचार इतना है, लेकिन धर्म का जीवन? वह कहीं खोजे से भी दिखाई नहीं पड़ता। उसे कहीं भी खोजने चले जाएं, उसका कहीं पता नहीं चलता कि धर्म कहां है। हां, धर्मस्थान खोजने हों और धर्म-तीर्थ खोजने हों तो वे बहुत हैं। धर्म-पुरोहित खोजने हों तो वे बहुत हैं। धर्म-शास्त्र खोजने हों तो बहुत हैं। लेकिन धर्ममय जीवन कहां है? इतना धर्म का व्यापार है, लेकिन धमर्मय जीवन क्यों नहीं है?
नहीं है इसलिए कि धर्म का जीवन हो सकता है, सतेज विचार होता तो।
अंधे आदमी धार्मिक नहीं हो सकते।
अंधा आदमी कुछ भी नहीं हो सकता है। अंधा आदमी किसी के हाथ का खिलौना है। धर्म के नाम पर मनुष्य के भीतर जो धर्म की प्यास है, उसका अदभुत शोषण हुआ है। इससे बड़ा और कोई शोषण नहीं। शोषण की ईजाद और तरकीब रही है, आदमी विश्वास करे।
क्यों करे आदमी विश्वास? विश्वास झूठा है, सिखाया हुआ है। संदेह मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। जिज्ञासा मनुष्य की अपनी है, अपनी निजता है। छोटा सा बच्चा भी पूछता है, क्यों? उसके प्राण जानना चाहते हैं, क्यों? क्यों के पीछे छिपी है ज्ञान को पाने की एक आतुर प्यास। लेकिन धर्म-पुरोहित शिक्षा को सिखाता है, क्यों न सीखो! जो हम कहते हैं, उस पर विश्वास करो। क्यों, पूछना नास्तिकता है। क्यों को दबाता है और सिद्धांतों को थोपता है उस पर। ऊपर से ये सिद्धांत इकट्ठे हो जाते हैं, भीतर संदेह कचरा जाता है, छिपता चला जाता है। प्राणों के भीतर रह जाता है संदेह, और विश्वास रह जाते हैं ऊपर से। ये विश्वास बातचीत करनी हो तो काम देते हैं। जहां जीवन का सवाल उठता है, ये विश्वास व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि प्राणों के गहरे में इनकी कोई जगह नहीं है। प्राणों के गहरे में बैठा है संदेह और ऊपर से वस्त्र है विश्वास के। तो दूसरों को दिखाने के काम आ जाता है विश्वास, लेकिन काम--अपने पैरों चलने के काम नहीं आ पाता। वहां संदेह पैदा हुआ है। जो आदमी विश्वास से जीवन की यात्रा शुरू करेगा, वह मौत पर संदेह को साथ लिए हुए समाप्त हो जाएगा। संदेह विश्वासों से समाप्त नहीं हो पाता है।
लेकिन जो व्यक्ति ठीक-ठीक संदेह से, राइट डाउट से, सम्यक संदेह से जीवन की खोज शुरू करता है, एक दिन इस खोज के परिणाम में उस असंदिग्ध प्रश्न को उपलब्ध हो जाता है, जहां कि कोई संदेह नहीं रह जाता। जहां पूरे प्राण किसी प्रकाश से आलोकित हो जाते हैं। जहां कि पूरा जीवन आपूरित हो जाता है।
 संदेह से जो शुरू करता है, वह निश्चित रूप से किसी दिन निस्संदिग्ध सत्य को उपलब्ध हो जाता है । लेकिन जो विश्वास से शुरू करता है , वह कभी संदेह के पार नहीं जा पाता। इसलिए बात उलटी दिखाई पड़ेगी मेरी। मैं सच में ही कह देना चाहता हूं, जहां निस्संदेह हो जाए चेतना, जहां कोई शक न रह जाए, जहां जीवन और मेरे बीच कोई संदेह न रह जाए, हम जुड़ जाएं। लेकिन तब जाने का रास्ता संदेह ही है। उस तक जाने का रास्ता विश्वास नहीं है। क्योंकि विश्वास का अर्थ है कि मैंने उसे स्वीकार कर लिया, जिसे मैंने जाना नहीं। असत्य शुरू हो गया। धोखा शुरू हो गया। और जिसके मंदिर की बुनियाद धोखे से भरी हो, जिसके जीवन की पहली ईंट धोखे पर, असत्य पर रखी हो, उस मंदिर के शिखर में सोचते हैं आप, सत्य की पताका लहरा सकेगी? नहीं, कभी भी यह नहीं हो सकेगा।
विश्वास मनुष्य की निंद्रा को गहरा करते रहे हैं।
चाहिए विचार का जागरण, चाहिए तीव्र जिज्ञासा, चाहिए इंकवायरी, चाहिए पूछताछ, चाहिए संदेह, चाहिए शक। ताकि हम खोज सकें, ताकि जीवन एक प्रश्न बन सके। जैसे ही जीवन प्रश्न बनता है तो प्राण खोजने कोे उत्सुक हो जाते हैं। और हमने जीवन को बना लिया एक विश्वास। तो खोजने की सारी व्याकुलता, सारी तड़प मौजूद है। और जो खोज नहीं रहा है, वह सो रहा है। जो खोज रहा है वह जागेगा, क्योंकि खोज बिना जाग नहीं हो सकती।
विश्वास सोए-सोए भी किए जा सकते हैं। लेकिन खोज के लिए तो जागना ही पड़ता है। तो खोज हो गहरी भीतर पैदा तो जागरण उसकी छाया की भांति आना शुरू होता है।
यह पहली बातः एक वैचारिक आंदोलन चाहिए चित्त में।
लेकिन वैचारिक आंदोलन का यह अर्थ नहीं है कि हम बहुत विचार इकट्ठे कर लें। बहुत विचार कर लेने से कोई विचारवान नहीं हो जाता। बल्कि विचारवान न होने की जो स्थिति है, उसको छिपाने के लिए लोग दूसरों के विचार इकट्ठे कर लेते हैं। विचार बहुत और बात है, विचारों का संग्रह बहुत और बात है।
विचार है चेतना की क्षमता।
और विचारों का संग्रह?
विचारों का संग्रह है कबाड़खाना।
दुनिया भर के विचारों को इकट्ठा करके कोई आदमी संग्रह तो कर ले सकता है, लेकिन इससे विचारवान नहीं हो जाता। विचार और बात है, विचार का संग्रह और बात है।
संग्रह होता है स्मृति में--बिलकुल ही यांत्रिक, बिलकुल ही मैकेनिकल चीज है।
अब तो हमने मशीनें ईजाद कर ली हैं और आदमी की स्मृति को बहुत दिन तक बहुत परेशान नहीं होना पड़ेगा। तो मशीनें उत्तर दे सकेंगी। अब तो मशीनें बता सकेंगी। अब आदमी की स्मृति को बहुत भार देने की जरूरत नहीं है। शायद आपको पता न हो, कोरिया के युद्ध में अमरीका ने यह निर्णय, कि चीन पर हम हमला करें या न करें--किसी सेनापति से पूछने नहीं गया, किसी युद्ध विशेषज्ञ से पूछने नहीं गया! यह तो मशीन से पूछी गई बात है, यह तो कंप्यूटर से पूछी गई बात है, यह तो यंत्र-मस्तिष्क से पूछी गई बात है कि युद्ध में जाएं हम चीन के या नहीं? और उस मशीन को सारे तथ्य सिखा दिए गए हैं कि चीन के पास कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं। अमरीका के पास कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं। उचित होगा युद्ध में उतरना कि नहीं, पूछा उस यंत्र को? यंत्र ने उत्तर दिया कि लड़ना ठीक नहीं है। और चीन पर हमला नहीं हुआ अमरीका का। यह निर्णय किया एक यंत्र ने! यंत्र के निर्णय ज्यादा सक्षम, कम भूल-चूक भरे होंगे। आदमी से भूल-चूक हो सकती है।
हमें बचपन से सिखा दिया जाता है, मेरा नाम राम है, मेरा नाम राम है। फिर मुझसे कोई पूछता है, तुम्हारा नाम? तो मैं कहता हूं, मेरा नाम राम है। इसमें कोई विचार की जरूरत पड़ती है? यांत्रिक स्मृति में भर दी गई है बात उत्तर निकल आता है। लेकिन जिस बात को न भरा गया हो यांत्रिक स्मृति में, उसका उसके पास कोई उत्तर नहीं है।
बचपन से सिखा दिया जाता है, ईश्वर है। तो हम सीख लेते हैं, ईश्वर है। रूस में पैदा हुए होते हैं और सिखा दिया जाता है, ईश्वर नहीं है। तो हम सीख लेते हैं, ईश्वर नहीं है। और आज मैं आपको पूछूं, ईश्वर है? और आप कहें ‘है’, तो आप यह मत सोचना कि यह उत्तर विचार से आया है। यह स्मृति से आया है। आप रूस में होते, स्मृति दूसरी होती, आप दूसरा उत्तर देते। यहीं एक हिंदू है, यहीं एक मुसलमान है, यहीं एक जैन है, यहीं एक ईसाई है। पूछना आप एक प्रश्न, चार उत्तर निकलेंगे। आप यह मत सोचना कि ये विचार से आते हैं। इन चारों कि स्मृति को अलग-अलग पोषण मिला है, अलग-अलग भोजन मिला है। यह केवल स्मृति है, विचारों का संग्रह है। यह कोई ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो कोई और ही बात है।
ज्ञान है जीवन के तथ्यों का सीधा साक्षात--स्मृति का बीच में व्यवधान न हो।
सुभाष के एक बड़े भाई थे शरतचंद्र। वे एक दिन ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। अंधेरी रात थी, कोई सुबह के चार बजे होंगे। बाथरूम में गए, हाथ मुंह धोते थे, घड़ी निकाली थी, हाथ से वह छूट गई। संडास के रास्ते नीचे गिर गई। अंधेरी रात थी, भागती गाड़ी थी, चेन खींची। लेकिन खड़े होते-होते मील भर का फासला हो गया। कंडक्टर ने कहा, गार्ड ने कहा, बहुत मुश्किल है घड़ी का खोज लेना, अंधेरी रात है। एक मील का फासला हो गया है। कहां हम खोजेंगे? छोटी सी घड़ी है--इस जंगल में कहां उसे खोजेंगे, कै से उसेे खोजेंगे? दिन भी होता तो कोई बात थी, बहुत मुश्किल है। क्षमा करें, गाड़ी चलने दें, लेकिन शरद ने कहाः नहीं, घड़ी मिल सकेगी, मैंने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे डाल दी है। वह जल रही होगी, उसके आसपास ही फीट आधा फीट पर घड़ी होगी। जलती सिगरेट मिल जाएगी। आदमी दौड़ा दो। आदमी दौड़ाया गया, वह घड़ी मिल गई।
जलती सिगरेट को किसी गिरी हुई घड़ी के पीछे डाल देना, किसी स्मृति का काम नहीं हो सकता है, क्योंकि पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था और न ही किसी गीता और कुरान में लिखा है कि घड़ी गिर जाए तो जलती सिगरेट पीछे डाल देना, किसी किताब में भी नहीं है। किसी धर्म की शिक्षा भी नहीं है कि ऐसा करना। और शरद के जीवन में भी यह मौका पहली दफा आया है। मौका था नया, स्मृति के पास कोई उत्तर न था। और अगर स्मृति के पास उत्तर भी होता तो देर लग जाती। स्मृति को समय लगता है उत्तर देने में--उतनी देर में दो घड़ी पीछे छूट जाती। स्मृति से नहीं आया उत्तर। एक समस्या थी सामने। चेतना ने सीधा उसे देखा। देखने से, आघात से आया उत्तर। यह उत्तर स्मृति का नहीं है। स्मृति के उत्तर को आप विचार मत समझ लेना।
इसलिए विचार की जिसे खोज करनी हो उसे क्रमशः स्मृति को मार्ग से अलग छोड़ देना होता है। अगर पूछना हो, ईश्वर है और स्मृति कोई उत्तर दे तो कहें क्षमा करो, तुम चुप रहो। तुम्हारा उत्तर उत्तर नहीं है। मत आओ मेरे बीच और मेरे प्रश्न के बीच। मुझे सीधा मेरे प्रश्न से निपट लेने दो। मैं सीधा अपने प्रश्न के साथ साक्षात्कार कर सकूं। मेरा प्रश्न और मैं सीधा जी सकूं साथ-साथ।
जो आदमी जीवन की समस्या के साथ सीधा जीना शुरू कर देता है, उस आदमी के भीतर विचार का जन्म होता है।
स्मृति के मार्ग से विचार का जन्म नहीं होगा। इसलिए पंडित बहुत विचारहीन हो जाता है। पंडित विचारहीन हो ही जाता है, उसका सारा आग्रह अपनी स्मृति के संग्रह पर होता है। वह वहां जीता है।
मैंने सुनी है बहुत बड़े एक गणितज्ञ के संबंध में एक घटना। बहुत बड़ा गणितज्ञ था। कहते हैं, उसने ही पहली दफा गणित पर बहुत बड़ी-बड़ी किताबों का संग्रह किया। वह एक दिन सुबह अपनी पत्नी और अपने बच्चों को लेकर पहाड़ी पर पिकनिक के लिए गया हुआ था। बीचे में था एक नाला, उसे पार करना था। उसकी पत्नी ने कहा बच्चों को धीरे-धीरे पार करा दें कोई बच्चा डूब न जाए। उसने कहाः ठहरो, मैं कोई साधारण आदमी हूं! इतना बड़ा गणितज्ञ हूं। अभी नदी की औसत गहराई, एवरेज गहराई नापे लेता हूं। अपने बच्चों की औसत ऊंचाई भी नापे लेता हूं। फिर देखेंगे, क्या करना है। छोटा सा नाला था, उसने जल्दी से नाप लिया। अपने बच्चों को नापा, रेत पर हिसाब लगाया। उसने कहाः बेफिक्र रहो, नदी की औसत गहराई से हमारा बच्चा औसत ऊंचा है जाने दो। वह आगे हो गया।
उसकी पत्नी पति को मान गई। पत्नियां हमेशा पतियों को मानती रही हैं। यह बहुत पुराना दुर्भाग्य है। यह कथा बहुत पुरानी है। पत्नी अकसर मान लेती है पति को।
मान गई वह इतना बड़ा गणितज्ञ है। दूसरे लोग मानते हैं। वह पीछे हो गई। एक छोटा बच्चा डुबकियां खाने लगा। नदी को गणित का कोई पता नहीं है, न ही बच्चे को। एक छोटा बच्चा डुबकियां खाने लगा। औसत ऊंचाई और बात है। एक-एक आदमी की ऊंचाई और बात है। कहीं नदी उथली थी, कहीं गहरी थी। कोई बच्चा छोटा था, कोई बड़ा था। सबका जोड़ औसत तो आ गया था, लेकिन असली बच्चा डूबने लगा। उसकी पत्नी चिल्लाई कि छोटा बच्चा डूबता है।
जानते हैं कि विचारक ने क्या किया?
वह भागा--बच्चे को बचाने को नहीं, नदी पर उस तरफ, जहां रेत में हिसाब किया था, कि देखूं, क्या कोई गणित में भूल हो गई? उसकी दौड़ अपने विचार के तंत्र की तरफ! गणित में तो कोई भूल नहीं हो गई? भूल कैसे हो सकती है! वह बच्चा डुबकियां खाता रहा। वह नदी के किनारे अपने गणित को देखने चला गया था।
जो स्मृति पर जीता है--जब भी जीवन समस्याएं खड़ी कर देता है, तब वह दौड़ता है अपने शास्त्रों में, अपनी स्मृति में कि कहां है उत्तर? कहीं कोई भूल तो नहीं हो गई? लेकिन जीवन की समस्या को सीधा साक्षात नहीं कर पाता है। दौड़ता है नदी की रेत पर अपने हिसाब को देखने! तब तक बच्चा डूब ही जाता है। जिंदगी आगे बढ़ जाती है। नदी कोई राह देखती रहेगी कि तुम्हारा गणित ठीक है कि गलत?
जिंदगी गणित से नहीं चलती और न जिंदगी किताबों और शास्त्रों से चलती है। जिस दिन जिंदगी गणित और किताबों पर चलने लगेगी, समझ लेना, जिंदगी खत्म हो गई, उस दिन मशीनें होंगी जमीन पर, कोई आदमी नहीं। उस दिन जीवन नहीं होगा, जड़ता होगी। चेतना के रास्ते अनूठे हैं। कोई गणित, कोई सिद्धांत उसको बांध नहीं पाता। इसीलिए सब सिद्धांत पीछे पड़ जाते हैं और जीवन रोज आगे बढ़ा जाता है।
लेकिन पंडित का मन, विचार का संग्रह करने वाले का मन जुड़ा रहता है अपने शास्त्रों से। वह बार-बार जीवन के और अपने बीच में शास्त्रों को ले आता है। और तब उलझन सुलझती नहीं, और बढ़ती चली जाती है। लेकिन विचारक, विचारक यही सोचता है--यह तथाकथित विचारक, कि शायद कहीं सिद्धांत के समझने में कोई भूल हो गई है, इसलिए सब गड़बड़ हुआ जा रहा है। जिंदगी मुसीबत खड़ी करती है तो वह कहता है, गीता को समझने में भूल हो गई है। या हम गीता का ठीक से आचरण नहीं कर पाए, इसलिए सब गड़बड़ हुई जा रही है। कि बाइबिल को ठीक से नहीं समझ पाए, कि कुरान की व्याख्या में कुछ भूल हो गई, इसलिए जिंदगी गड़बड़ हुए जा रही है।
जिंदगी, साहब, इसलिए गड़बड़ नहीं हो रही है। जिंदगी इसलिए गड़बड़ हो रही है कि जिंदगी है रोज नई, किताबें हैं सब पुरानी। सिद्धांत हैं सब बीते हुए और जिंदगी रोज अनूठे, अज्ञात, अननोन रास्ते पर आ जाती है। जिंदगी पल-पल नई है और उसूल और सिद्धांत और थीम सब पुरानी। सब फिलासिफी पुरानी है। नई जिंदगी को पुराने उसूलों से जोड़ने की सारी कोशिश से गड़बड़ है। बीत गए से, अतीत से, जो जा चुका उससे; उसको जोड़ने की कोशिश, जो आ रहा है--भूल है। उसको उससे नहीं जोड़ा जा सकता। चेतना पुरानी पड़ जाती है उससे जोड़ने से। और जीवन हो जाता है नया। इसलिए चेतना का जीवन से कहीं कोई संबंध नहीं हो पाता। संपर्क होगा तब, जब नित नए होते जीवन के साथ चेतना भी नित नई हो जाए। नया हो जीवन, नई हो चेतना, तो होगा संपर्क जीवन से। पुरानी चेतना से नए जीवन का कैसे संपर्क हो सकता है?
हम सबकी चेतना पुरानी हो जाती है, विचार के संग्रह के साथ। होनी चाहिए नई। इसलिए विचार का संग्रह, विचार नहीं है। विचार को विदाई, विचार का अपरिग्रह। विचारों के संग्रह से मुक्त चेतना जीवन को सीधा-सीधा, बिना किसी को बीच में लिए देखने में समर्थ चेतना, विचार को जन्माती है।
दूसरी बातः विचार अनुमान नहीं है कि हम बैठे हैं और विचार कर रहे हैं कि ईश्वर कैसा है? कि हम बैठे हैं और विचार कर रहे हैं कि स्वर्ग के रास्ते कैसे हैं? और दुनिया कैसी है और भूगोल कैसा है? कि हम बैठे है और विचार कर रहे हैं कि देवता ओं के पैर सीधे होते हैं कि उल्टे? कि भूत-प्रेत कैसे होते हैं? इस सबका कोई अनुमान विचार नहीं है। अनुमान बच्चों का खेल है। लेकिन बूढ़े से बूढ़े दार्शनिक भी अनुमान के खेल में लगे हैं। और ऐसे-ऐसे अजीब अनुमान इकट्ठे कर लिए हैं, जो सिवाय मनुष्य की कल्पना की उड़ानों के और कुछ भी नहीं हैं। और उन अनुमानों को इतने जोर से हमने अपने ऊपर ले लिया है कि उन अनुमानों के कारण सत्य से संपर्क होना कठिन है।
कभी-कभी कोई भूल-चूक से अनुमान, अंधेरे में फेंके गए तीर की तरह कहीं लग भी जाता हो, तो उससे कोई अर्थ नहीं है। अनुमान कभी भी सच तक नहीं ले जा सकता है, अजम्पशन कभी सत्य तक नहीं ले जा सकता। सत्य के लिए तो अनुमान और तर्क ना करने वाला मन नहीं, बल्कि कल्पना और अनुमान से मुक्त मन की जरूरत है।
मैंने एक छोटी सी घटना सुनी है। मैंने सुना है कि एक स्कूल में एक इंसपेक्टर का आगमन हुआ। उसके आने के पहले ही उसके पागल होने की खबर भी उस स्कूल में पहुंच चुकी थी। प्रतिभा की खबरें पहले ही पहुंच जाती हैं। लोगों को बहुत दिन से शक हो आया था कि उसका दिमाग खराब है। और शक हो जाने का सबसे पहला कारण तो यही था कि दूसरा कोई इंसपेक्टर कभी मुआइने को, निरीक्षण को नहीं जाता था। घर बैठ कर डायरी को भर देता था। यह पागल निरीक्षण करने को जाने लगा था। तो इंसपेक्टरों को शक हो गया था कि इसका दिमाग खराब है। फिर और घटनाएं घटीं, जिससे शक होने लगा। वह ऐसे प्रश्न पूछता था, जिनके कोई उत्तर नहीं हो सकते थे--और वह स्कूलों की रिपोर्ट खराब कर आता था।
नया स्कूल था, वहां की भी रिपोर्ट--सारा स्कूल थर्राया हुआ था। सारे स्कूल में तैयारी थी। बच्चों को अनूठे-अनूठे प्रश्नों के उत्तर सिखाए गए थे। पता नहीं, वह क्या पूछ लेगा? उसके पूछने का कोई अनुमान भी नहीं कर सकता था। आखिर वह आ गया। प्रधान अध्यापक कांपता हुआ खड़ा रहा, सब अध्यापक कांप रहे थे। जो सबसे बड़ी क्लास थी, उसमें उसे ले गए। उसने आते ही कहाः मैं एक प्रश्न पूछूंगा और अगर तुम उसका उत्तर दे सके तो फिर मैं दूसरा प्रश्न नहीं पूछूंगा। क्योंकि हंडिया का एक ही चावल देखने को काफी होता है। लेकिन अगर पहले प्रश्न का तुम उत्तर न दे सके, तो फिर आज मैं हूं और तुम हो, फिर प्रश्न मैं पूछूंगा शाम तक। और जो प्रश्न मैं पूछूंगा, वह अब तक बहुत जगह पूछा है, और कोई उत्तर नहीं दे पाया है। ऐसे बहुत सरल सा प्रश्न है।
उसने प्रश्न कर दिया। घबड़ा गए शिक्षक। उसका कोई उत्तर होना कठिन था। उसने पूछा कि एक बार दिल्ली से एक हवाई जहाज कलकत्ते की तरफ उड़ा। 200 मील प्रति घंटा उसकी रफ्तार है। क्या तुम बता सकते हो कि मेरी उम्र कितनी है? वे बच्चे भौंचक्के रह गए। अध्यापक घबड़ाए कि आ गई वही बात, जिससे बच रहे थे। क्या होगा इसका उत्तर? क्या इसका कोई उत्तर भी हो सकता है? क्या यह कोई प्रश्न है?
लेकिन इससे भी ज्यादा मुसीबत तब हो गई, जब एक बच्चे ने हाथ हिलाया कि मैं उत्तर दे सकता हूं। अध्यापक और घबड़ाए। चुप रह जाते भी तो ठीक था। यह और उत्तर देगा तो क्या होगा। प्रश्न ही मुश्किल था, उत्तर तो और मुश्किल में ले जाएगा। लेकिन उसके उत्तर से खुश हुआ। उसने कहा कि तुम पहले लड़के हो जिसने मेरे प्रश्न के उत्तर में कम से कम हाथ तो हिलाया। उठो, शाबाश! बोलो। उस लड़के ने कहाः आपकी उम्र है 44 वर्ष। इंसपेक्टर सुनकर हैरान हो गया। उसकी उम्र इतनी थी। उसने पूछा कि कैसे तुमने यह पता लगाया? क्या है तुम्हारी मैथड, क्या है तुम्हारी विधि? उस लड़के ने कहाः आपको मैं यह भी बता दूं, मेरे अतिरिक्त यह प्रश्न कोई हल नहीं कर सकता। मेरा एक बड़ा भाई है, वह आधा पागल है, उसकी उम्र बाईस वर्ष है।
इस पर हमें हंसी आती है। लेकिन हमारे बड़े-बड़े फिलासफर और दार्शनिक यही करते रहे हैं। इससे ज्यादा जरा भी उन्होंने कुछ नहीं किया। ऐसे ही अनुमान, अंधेरे में फेंके गए तीरों की सारी कथा है फिलासफी।
मध्य युग में ईसाई विचारक सोचते रहे--एक आलपिन के ऊपर कितने देवता खड़े हो सकते हैं, कितने एंजिल्स खड़े हो सकते हैं। हंसिएगा ऐसी बात पर? हंसिएगा तो बहुत बुरा मानेंगे लोग, क्योंकि वे बड़े-बड़े महात्मा लोग हैं--जो इस पर विचार कर रहे हैं कि एक आलपिन की नोंक पर कितने एंजिल्स खड़े हो सकते हैं।
लूथर जैसे समझदार आदमी ने यह लिखा है कि मक्खियां शैतान ने बनाई होंगी। क्यों? क्योंकि लूथर जब किताब पढ़ता था धर्मग्रंथ की तो मक्खियां उसकी नाक पर बैठ कर परेशान करती थीं। तो उसने लिखा है कि जरूर भगवान ने मक्खी नहीं बनाई होगी, धर्म में बाधा देती है। यह शैतान की बनाई होगी।
क्या यह अनुमान चार वर्ष के अनुमान से कुछ भिन्न है, इनमें कुछ भेद है?
और यह लंबी कथा है। सबकी बात मैं नहीं कह सकूंगा, लेकिन अगर आंख खोल कर पुरानी कथा को उठा कर देखेंगे दार्शनिकों की तो आप हैरान हो जाएंगे। यह सब क्या पागलपन है? आदमी को जिंदगी का अ ब स पता नहीं है और तुम स्वर्ग और नर्क की नाप-जोख बता रहे हो। आदमी, द्वार पर जो दरख्त लगा हुआ है, उसका उसे परिचय नहीं है कि वह क्या है? एक पति के पास पत्नी चालीस वर्ष रह गई, उसे उसकी पहचान नहीं है कि वह कौन है? और तुम ईश्वर की पहचान कर रहे हो! दूर हैं सब बातें। एक आदमी को पूरी जिंदगी रहते यह भी पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं और तुम मोक्ष और परलोक की सर्वज्ञता में उसको दीक्षित कर रहे हो! नासमझियों का एक लंबा खेल है और एक लंबा जाल है अनुमानों का और कल्पनाओं का।
नहीं विचार का अनुमान और कल्पनाओं से कोई संबंध नहीं है। विचार की तेज धार तो सारे अनुमान और सारी कल्पनाओं को छेद कर अलग कर देती है। ताकि आंख पर से पर्दे हट जाएं और जीवन का सीधा मेल हो।
फिर विचार क्या है?
अंतिम सूत्र में मैं आपको कहना चाहूंगा, विचार का ठीक-ठीक अर्थ हैः जागरुकता, अवेयरनेस।
विचार न तो विचारों का संग्रह है। विचार न अनुमान और कल्पना है। विचार है जागरुक-चित्त। विचार है माइंडफुलनेस, विचार है होश से भरा हुआ। होश से चित्त भरे तो विचार का जन्म होता है। और जहां विचार है, वहां निंद्रा विलीन हो जाती है। वहां यह चित्त प्रबुद्ध होता है। खुलती है आंख उसके प्रति जो चारों तरफ है, और उसके प्रति भी जो भीतर है। वह दोनों कुछ अलग नहीं है कि जो बाहर है वह अलग है, और जो भीतर है वह अलग है। एक ही है--वह निंद्रा में दो मालूम पड़ता है। जागरण में एक है।
लेकिन वह जागरण, जिसको मैं कहूं विचार--वह कैसे पैदा होगा?
 बैठे-बैठे माला जपने से वह पैदा होने को नहीं है। माला जपना हो, नींद न आती हो, नींद लाने की अच्छी तरकीब है। मैंने तो सुना है कि कुछ चिकित्सक जो समझदार हैं, जिन लोगों को नींद न आने की बिमारी होती है, उनको कहते हैं, मंदिरों में जाओ और धर्मकथा सुनो। मंदिरों में जब तक सोए हुए लोग दिखाई पड़ते हैं। माला जपो, राम-राम कहो, कृष्ण-कृष्ण कहो या महावीर-महावीर कहो या कोई और शब्द दोहराओ।
कोई भी शब्द की बहुत पुनरुक्ति जागरण नहीं लाती है, नींद लाती है।
एक बच्चा नहीं सोता है, उसकी मां उसे सुलाती है, कहती है राजा बेटा सो जाओ, राजा बेटा सो जाओ, राजा बेटा सो जाओ। मां सोचती है कि बहुत मजेपन से राजा बेटा सो गए, नहीं राजा बेटा बोर्डम की वजह से सो गए होंगे। राजा बेटा तो क्या, राजा बेटा के राजा बाप भी सो जाते, अगर इस बात को बार-बार दोहराया जाए। तो ऊब पैदा होती है किसी शब्द की पुनरुक्ति से, बोर्डम पैदा होती है--ऊब, घबड़ाहट, परेशानी। अगर एक ही शब्द को कोई दोहराए चला जाए तो घबड़ाहट पैदा होगी। अगर मैं बैठ कर यहां घंटे भर तक एक ही शब्द को दोहराए चला जाऊं, या तो लोग उठ कर चले जाएंगे या लोग सो जाएंगे। और क्या करेंगे? पुनरुक्ति, रिपीटिशन तो डलनेस पैदा करता है। और डलनेस नींद लाती है।
नहीं, इस भांति कभी कोई जागा नहीं है। जागने के लिए तो कुछ और प्रयोग करना होगा। जागने के लिए तो जागने का ही सतत--सतत प्रयोग करना होगा--उठते, बैठते, चलते, सावधानी से, अवेयरनेस से। एक-एक शब्द बोलते होश से। आंख की पलक भी हिलाते होश से। पूरी तरह जानते हुए, पूरे माइंडफुल, तो ही होगा।
एक छोटी सी कहानी से शायद मेरी बात समझ में आए।
जापान में एक राजा ने अपने युवा लड़के को एक फकीर के पास भेजा। फकीर गांव में आया था, राजधानी में और फकीर ने कहा था, जीवन में एक ही बात सीखने जैसी है और वह है जागना। उस राजा ने कहा, यह जागना! हम रोज सुबह जागते हैं, वह जागना नहीं है? उस फकीर ने कहाः अगर वही जागना होता तो दुनिया सत्य को कभी का जान लेती। लेकिन सत्य का कोई पता नहीं है, यह जागरण कैसा है! यह जागना नहीं है, क्योंकि जागी हुई चेतना को फिर तत्व को जानने में कौन सा अवरोध है? राजा से कहा उसने कि, मैं जागना--एक ही सूत्र जानता हूं जीवन को सीखने का।
राजा ने अपने लड़के को कहा, जा और उस फकीर के पास रह। मैंने तो जीवन खो दिया। तू कोशिश कर कि क्या इसके पास जागना सीख सकता है? वह राजकुमार गया। उस फकीर ने कहाः सुनो, मेरी शिक्षा किताबें पढ़ने वाली नहीं है। मेरी शिक्षा बहुत अनूठी है। कल सुबह से तुम्हारा पाठ शुरू होगा। यह लकड़ी की तलवार देखते हो? कल सुबह से मैं हमला शुरू करूंगा तुम्हारे ऊपर। तुम किताब पढ़ रहे होगे, मैं पीछे से हमला शुरू कर दूंगा। बचाने की सावधानी रखना। तुम खाना खा रहे होगे, हमला हो जाएगा। तुम स्नान करने कुएं पर खड़े होगे, हमला हो जाएगा। चैबीस घंटे कहीं भी हमला हो सकता है। तो सजग रहना, सावधान रहना, बचाव करना, नहीं तो हड्डी-हड्डी टूट जाएगी। राजकुमार बहुत घबड़ाया कि यह कौन सी शिक्षा शुरू होगी!
 लेकिन मजबूरी थी। पिता ने उसे भेजा था। सभी बच्चे मजबूरी में पढ़ने जाते हैं। पिता भेज देते हैं, उनको जाना पड़ता है। उसको भी जाना पड़ा था, लौट सकता नहीं था।
दूसरे दिन से शिक्षा शुरू हो गई। वह पढ़ रहा है कोई किताब, पीछे से हमला हो गया। चैंक के तिलमिला उठा। एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीते, सब हड्डी-पसलियों पर चोट हो गई, जगह-जगह दर्द होने लगा। लेकिन साथ ही उसके खयाल में आने लगी एक नई चीज, जिसका उसे पता ही नहीं था। एक सावधानी सांस-सांस के साथ रहने लगी कि हमला होने को है। पता नहीं कब हो जाए, किस क्षण? वह हर वक्त जैसे सचेत, जैसे खयाल में, जैसे स्मृति में रहने लगा। अब खयाल आता है, जरा सी हवा चल जाए, पत्ते हिल जाएं तो वह जाग जाए। जरा सी घर में खुट-पुट हो और किसी के घर में कदम पड़ें और वह सचेत हो जाए कि हमला होने को है--बचाव करना है। सात दिन बीतते-बीतते वह बहुत हैरान हो गया। यह गुरू अदभुत था। चोट फिर हड्डियों पर नहीं हो रही थी, भीतर चेतना पर हो रही थी। वह कोई चीज नई थी, कोई चीज उठ गई थी, जो भीतर सोई हुई थी।
तीन महिने बीत गए, रोज-रोज यह चलता रहा। और रोज-रोज उस युवक ने पाया कि फर्क पड़ रहा है कोई बहुत गहरा। धीरे-धीरे वह हमले से बचाव करने लगा। हमला होता, हाथ पहुंच जाते। कोई चीज निरंतर सावधान थी, निरंतर अटेंटिव थी, हाथ पहुंच जाते, रोक लेता। तीन महिने बीत गए, हमला करना मुश्किल हो गया है। वह जो हमला करता है, वे हमले रोक लिए जाते हैं।
तीन महीने बीत जाने पर गुरु ने कहाः पहला पाठ पूरा हुआ। अब कल से दूसरा पाठ शुरू होगा। अब नींद में भी सावधान रहना। सोते में भी हमला कर सकता हूं। उस युवक ने माथा ठोंक लिया, जागने तक गनीमत थी, किसी तरह वह बचाव कर लेता था, सोने में क्या होगा? और सोते में हमले कैसे रोके जा सकेंगे?
लेकिन एक बात का उसे खयाल आ गया था। इन तीन महिनों में उसने कोई चीज बहुत अदभुत रूप से भीतर जागती हुई पाई थी, जैसे कोई बुझा दीया जल गया हो। एक बहुत सावधानी कदम-कदम पर आ गई थी, श्वास-श्वांस पर आ गई थी और एक अजीब अनुभव हुआ था उसे कि जितना वह सावधान रहने लगा था उतने ही विचार कम हो गए थे। मन मौन हो गया था। सावधानी के साथ-साथ यह जो अटेंशन उसे चैबीस घंटे देनी पड़ रही थी, उससे धीरे-धीरे विचार क्षीण हो गए थे; मन भीतर साइलेंस में, एक मौन में रहने लगा था। बड़े आनंद की खबरें भीतर से आ रही थीं, इसलिए वह तैयार हो गया कि देखें, इस दूसरे पाठ को भी देख लें।
और दूसरे दिन से दूसरा पाठ शुरू हो गया, नींद में भी हमले होने लगे। लेकिन एक महिना बीतते-बीतते नींद में भी उसे होश रहने लगा। नींद भी चलती थी, भीतर कोई तेज धारा चेतना की बहती रहती, जिससे खयाल बना रहता कि हमला हो सकता है। हैरान हुआ वह, सोया भी था, जागा भी था। आज उसने पहली दफा जाना कि शरीर सोया हुआ है, मैं जागा हुआ हूं।
एक मां सोती है रात, बच्चा बीमार होता है, रोता है, नींद में ही हाथ पहुंच जाता बच्चे पर। शायद सुबह उससे पूछो, उसे पता भी न हो कि मैंने रात बच्चे को चुप किया था। हम सारे लोग यहां सो जाएं आज, और रात में कोई आधी रात में आकर बुलाए, राम, राम तो जिसका नाम राम हो, वह पूछेगा, क्या है, लेकिन बाकी लोगों को पता ही न चलेगा कि कोई आवाज हुई। जिंदगी भर एक नाम के प्रति अटेंशन रही है, राम, वह भीतर गहरी हो चली है। कोई रात में भी बुलाता है तो वह सावधान हो जाता है आदमी, जिसका नाम राम है।
तीन महीने बीतते-बीतते नींद में भी हमला मुश्किल हो गया। नींद में भी हमला होता और हाथ रोक लिया जाता। गुरु ने कहा तेरे दो पाठ पूरे हो गए। अब तीसरा और अंतिम पाठ शुरू होने को है। उस युवक ने सोचा, अब कौन सा पाठ होगा--जागना और सोना दो बातें थीं? उसके गुरु ने कहाः अब तक लकड़ी के तलवार से हमला करता था, कल ही से असली तलवार से हमले किए जाएंगे। यह प्राण को कंपा देने वाली बात थी, लकड़ी फिर भी लकड़ी थी, चोट ही करती थी, इसमें तो प्राण भी जा सकते हैं?
लेकिन उस युवक ने देखा था, इन तीन महिनों में रात, उसके भीतर जैसे कोई स्थंभ खड़ा हो गया था जागरुकता का। विचार जैसे समाप्त हो गए। जीवन से जैसे सीधी पहुंच--जीवन से सीधा संपर्क होने लगा था। एक अदभुत आनंद और आलोक फैल रहा था। उसने सोचा, अंतिम पाठ छोड़ कर चला जाना ठीक नहीं। पता नहीं और क्या छिपा हो? वह राजी गया।
असली तलवार के हमले शुरू हो गए। हाथ में चैबीस घंटे, सोते-जागते ढाल भरी रहती थी, लेकिन पंद्रह दिन बीत गए, गुरु एक भी चोट नहीं पहुंचा पाया। हर अंधेरे कोने से इंतजाम में की गई चोट भी झेल ली गई।
बैठा था युवक एक दिन सुबह, एक अचानक खयाल उसे आया। एक झाड़ के नीचे वह बैठा है दूर, बहुत दूर। उसका गुरु दूसरे झाड़ के नीचे बैठ कर कुछ पढ़ता है। सत्तर साल का, अस्सी साल का बूढ़ा आदमी है। इतने में अचानक खयाल आया, यह बूढ़ा छह महीने से मुझे परेशान किए हुए है, सावधान! सावधान!सावधान! हर तरफ से हमला करता है। आज मैं भी इस पर हमला करके देख लूं कि यह खुद भी सावधान है या नहीं। कहीं मैं ही तो परेशान नहीं किए जा रहा हूं?
ऐसा जब उसने सोचा, उधर उसका गुरु झाड़ के नीचे से चिल्लायाः ठहर-ठहर, ऐसा मत कर देना। वह बहुत घबड़ाया, उसने कहाः मैंने कुछ किया नहीं। उसके गुरु ने कहाः तू तीसरा पाठ पूरा तो कर ले, तब मुझे पता चल जाएगा। जब चित्त पूरा सावधान होता है तो दूसरे पैर की ध्वनि ही नहीं, दूसरे के विचार की ध्वनि भी सुनाई पड़ने लगती है। थोड़ा ठहर, अंतिम पाठ पूरा कर ले।
चित्त की जागरुकता का ऐसा अर्थ है--सावधानी। जैसे हम तलवार से घिरे हुए जीते हों। और हम जी रहे हैं तलवार से घिरे हुए। मौत चारों तरफ तलवार से घेरे हुए है।
जिंदगी एक सतत असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है।
कोई सुरक्षा नहीं है जीवन में। इस तलवार से घिरे जी रहे हैं। भूल में हैं हम, यदि सोचते हों कि हम सब तरह से सुरक्षित हैं और कोई हमला हम पर नहीं हो रहा है। हर वक्त हमला है, पल-पल हमला है। इस हमले के प्रति बहुत सजग होकर सोचिए।
 एक-एक कदम, एक-एक श्वांस, अटेंशनली, तो उसके जीवन में धीरे-धीरे सजगता का जन्म होगा। कोई सोचे--जागे। कोई कली फूल बन जाए और तब ही केवल, जो है विराट जीवन में अनंत, अमृत, उससे मिलन हो। उससे जुड़ जाना, उससे एक हो जाना।
धार्मिकता का अर्थ मेरी दृष्टि में सजगता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। न मंदिरों की पूजा और न प्रार्थना, न शास्त्रों का पठन और पाठन। यह सोया हुआ आदमी, यह सब करता रहेगा तो यह सब और सो जाने की तरकीबों से ज्यादा नहीं है। लेकिन जागा हुआ आदमी पाता है--नहीं किसी मंदिर में जाता है पूजा करने को, बल्कि वह पाता है कि जहां वह है, वहीं ‘वह’ भी है। नहीं फिर किसी मूर्ति में देखने की, खोजने की जरूरत पड़ती है, बल्कि पाता है जो भी है और जो भी दिखाई पड़ता है, वही भगवान है। धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो मंदिर जाता हो। धार्मिक आदमी वह है कि जहां होता है, वहीं मंदिर को पाता है। धार्मिक आदमी वह नहीं है जो प्रार्थना करता हो, धार्मिक आदमी वह है, जो पाता है कि जो भी किया जाता है, वह प्रार्थना हो गई। धार्मिक आदमी वह नहीं है कि भगवान की खोज में भटकता हो; बल्कि आंख खोले हुए वह आदमी है, जो पाता है कि जहां भी मैं जाऊं, भगवान के अतिरिक्त कोई यंत्र से तो मिलना नहीं है। लेकिन यह होगा एक जागरुक चित्त और जागरुक चित्तता ही जीवन की परिपूर्ण अनुभूति है।
मत पूछें मुझसे की जीवन क्या है और न जाएं किसी को सुनने जो समझाता हो कि जीवन क्या है? जीवन कोई किसी को नहीं समझा सकेगा। जीवन कोई समझाने की बात है? प्रेम कोई समझाने की बात है? सत्य कोई समझाने की बात है? कोई शब्दों से और विचारों से कुछ कह सकेगा उस तरफ?
नहीं, कभी कोई कुछ नहीं कह सका। जीवन तो खुद जानने की बात है। जीन पड़ेगा उस मार्ग पर, जहां से जीवन जाता है और, और वह मार्ग है जागरुकता। वह मार्ग है सचेतता का। उठते-बैठते, चलते, देखते, बात करते जिएं। देखते हुए, आंख खोले हुए, होश से भरे हुए, तो रोज-रोज कोई जागने लगेगा, कोई प्राण की ऊर्जा विकसित होने लगेगी। और एक दिन--एक दिन जो महाविराट ऊर्जा है जीवन की उससे सम्मिलन हो जाएगा। जैसे कोई सरिता बहती है पहाड़ों से और भागती चली जाती है, भागती चली जाती है। न मालूम कितने मार्गों को पार करती है, कितनी घाटियों को छलांगती है और एक दिन सागर तक पहुंच जाती है। ऐसे ही जागरूकता की धारा जो व्यक्ति जगाना शुरू कर देता है--वह सारी बाधाओं को, सारे पहाड़-पर्वतों को पार करती पहुंच जाती है,जहां प्रभु का सागर है, जहां जीवन का सागर है।
जीवन मेरे लिए परमात्मा का ही पर्यायवाची है। जीवन यानी परमात्मा। जीवन और प्रभु भिन्न नहीं है। लेकिन जो सोए हैं पुजारी अपने मंदिर में, उनके द्वार पर आएगा जीवन का रथ और वापस लौट जाएगा। जीवन तो रोज आता है द्वार पर उसके। उसके रथ की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है, उसके घोड़ों की टाप सुनाई पड़ती है, लेकिन नींद में लगता है कि बादल गरजते होंगे; वर्षा के बादल घिरे होंगे, बिजली तड़पती होगी। जीवन का प्रभु तो रोज जाता है द्वार पर, द्वार थपथपाता है, खोलो, लेकिन सोए हुए मनुष्य को लगता है, हवा आई होगी, द्वार खड़खड़ाती होगी।
भीतर कोई जागा हो तो इसी क्षण, और अभी, और यहीं, जीवन और प्रभु का मिलन है।
उस ओर जागने के लिए निवेदन और प्रार्थना करता हूं। उस और इशारा करता हूं। मेरी बातों को भूल जाएं, इनसे कुछ होना नहीं है। इनसे क्या संबंध है? कोई आदमी इशारा करे चांद की तरफ, हम उसकी अंगुली पकड़ लें तो भूल हो जाती है। अंगुली से क्या मतलब है?
भूल जाएं इशारे को, देखे चांद को। चांद को इशारा किया जा सकता है। लेकिन हम इशारों को पकड़ लेते हैं। कोई महावीर की अंगुली पकड़े हुए हैं, कोई बुद्ध की, कोई क्राइस्ट की। और अंगुलियों की पूजा चल रही है, प्रार्थना चल रही है। पागल हो गया है आदमी। इशारे पूजा के लिए नहीं हैं, भूल जाने के लिए हैं। देखा उसे है जिस तरफ इशारा है।
इधर थोड़ी सी ये बातें मैंने कहीं। इस इशारे को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

बिड़ला क्रीड़ा केंद्र, बंबई. दिनांक 8 सितंबर, 1969 




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