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रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-02)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो) 

गरीबी और समाजवाद

बहुत सी समस्याएं हैं और बहुत सी उलझने हैं। लेकिन ऐसी एक भी उलझन नहीं जो मनुष्य हल करना चाहे और हल न कर सके। लेकिन यदि मनुष्य सोच ले कि हल हो ही नहीं सकता तब फिर सरल से सरल उलझन भी सदा के लिए उलझन रह जाती है। इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने बहुत सी उलझनों को ऐसा मान रखा है कि वे सुलझ ही नहीं सकती हैं। और एक बार कोई कौम इस तरह की धारणा बना ले तो उसकी समस्याएं फिर कभी हल नहीं होती हैं।

जैसे बड़ी से बड़ी हमारी समस्या गरीबी की, दरिद्रता की, दीनता की है। लेकिन इस देश ने दीनता, दरिद्रता को दूर करने की बजाय ऐसी व्याख्याएं स्वीकार कर ली हैं, जिनसे दरिद्रता कभी भी दूर नहीं हो सकेगी। बजाय दरिद्रता को समझने के कि हम उसे कैसे दूर कर सकें, हमने दरिद्रता को इस भांति समझा है कि हम कैसे उसे स्वीकार कर सकें। दूर करना दूर, स्वीकार करने की प्रवृत्ति ने उसे स्थायी बीमारी बना दिया है। सोचा नहीं--ऐसा नहीं है, लेकिन गलत ढंग से सोचा। और कोई न सोचे तो कभी ठीक ढंग से सोच भी ले, लेकिन एक बार गलत ढंग से सोचने की आदत बन जाए तो हजारों साल पीछा करती है। गरीब हम बहुत पुराने समय से हैं। सच तो यह है कि हम अमीर कभी भी नहीं थे। हो भी नहीं सकते थे।


देश के सोने की चिड़िया होने की बातें हैं। वे बातें कुछ लोगों के लिए हमेशा सच रही हैं, पूरे देश के लिए कभी नहीं। कुछ लोगों के लिए यह देश हमेशा सोने की चिड़िया था, अब भी उनके लिए है लेकिन पूरे देश के लिए सोने की चिड़िया की बात बिलकुल बेमानी है। देश हमेशा से गहरी गरीबी में रहा है। सच तो यह है कि हम इतने गरीब थे कि गरीबी के खिलाफ विद्रोह भी हम नहीं कर सके। गरीबी के खिलाफ भी विद्रोह तब शुरू होता है जब अमीरी थोड़ी सी फूटनी शुरू हो जाती है। गरीब गरीबी के खिलाफ विद्रोह भी नहीं कर सकता है। बहुत गरीब कैसे विद्रोह करेगा? अस्पताल जाने के लिए भी बिलकुल बीमार होना काफी नहीं, थोड़ा सा स्वास्थ्य चाहिए ताकि अस्पताल तक जाया जा सके।
जब अमीरी की थोड़ी सी किरणें फूटनी शुरू होती हैं तब गरीबी के खिलाफ विद्रोह शुरू होता है। जब गरीबी इतनी ज्यादा होती है कि हमारे प्राण और हमारी आत्मा सब उसमें डूब जाते हैं तो गरीबी के खिलाफ बगावत भी पैदा नहीं होती। यह देश बहुत पुराने समय से, सदा से, सनातन से गरीब है। यह गरीबी हमने सोचा इस पर? हमारे विचारकों ने न सोचा हो, ऐसा नहीं है, लेकिन हमारे विचारकों ने इस गरीबी को इस भांति सोचा ताकि यह स्वीकृत हो जाए, अंगीकार हो जाए। हमने गरीबी के लिए व्याख्याएं की हैं। और हमारी सबसे खतरनाक व्याख्या यह थी कि हमने गरीबी को व्यक्ति के कर्मों से जोड़ दिया। यह इतनी खतरनाक, इतनी सुसाइडल, इतनी आत्मघाती व्याख्या थी कि इसके कारण हम पांच हजार साल गरीब रहे। और अगर यह व्याख्या अब भी जारी रहती है...और ऐसा लगता है कि अब भी जारी है!
साधु और संत और महात्मा गांव-गांव लोगों को यही समझाते फिर रहे हैं कि आदमी गरीब है अपने पिछले जन्मों के फल के कारण। गरीबी को पिछले जन्मों से जोड़ देने का मतलब यह है कि गरीबी नहीं बदली जा सकती। उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है, उसे भोगना ही पड़ेगा। वह अपने कर्मों का फल है। अगर मैंने आग में हाथ डाला है तो अब जल गया हूं तो भोगना ही पड़ेगा। पिछले जन्मों के कर्मों को अब बदलने का कोई उपाय नहीं है। पिछले जन्मों के कर्म वे हैं जो हो चुके हैं और उनका फल--गरीबी--मुझे आज भोगना पड़ रहा है।
हमने एक व्याख्या की जिसने गरीबी पर सील मोहर लगा दी कि इसे अब कभी नहीं तोड़ा जा सकता। गरीबी भोगनी ही पड़ेगी। और अगर गरीबी मिटानी हो तो इस जन्म में अच्छे कर्म करो ताकि अगले जन्म में गरीबी न रहे, अमीर हो जाएं। और अच्छे कर्मों में निश्चित ही बगावत नहीं आती। अच्छे कर्मों में विद्रोह नहीं आता। अच्छे कर्मों में क्रांति नहीं आती। अच्छे कर्मों में आती है शांति। क्रांति तो बुरे कर्मों का ही हिस्सा है। इसलिए शांति से जीयो, संतोष से जीयो, सांत्वना रखो, अगले जन्म की प्रतीक्षा करो। गरीबी सुनिश्चित हो गई, उसको बदलने का कोई उपाय न रहा।
एक बार जब हमने यह तय कर लिया कि व्यक्ति अपने कर्मों का फल भोग रहा है गरीबी के रूप में, तो फिर गरीब पर दया करना भी बेमानी हो गया। गरीब के साथ सहानुभूति भी व्यर्थ हो गई। अगर मैं अपने कर्मों का फल भोग रहा हूं तो दया और सहानुभूति की क्या जरूरत है? इसलिए यह देश गरीबी के प्रति बिलकुल इनसेंसिटिव हो गया, संवेदनाहीन होे गया। अगर एक आदमी सड़क पर भीख मांग रहा है तो उस पर दया करने का कोई भी तो अर्थ नहीं है, वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है। अपने कर्मों का फल भोगना ही चाहिए। और अगर मैं उसे दो पैसे दान कर रहा हूं तो उस भिखमंगे पर दया करके नहीं, वे दोे पैसे मैं दान कर रहा हूं अगले जन्म में फिर अमीर होने के लिए, शुभ कर्म कर रहा हूं। उस भिखमंगे से उन दोे पैसे के दान का कोई संबंध नहीं है। उस गरीब पर दया करने का कोई सवाल नहीं है। सिर्थ एक सवाल है कि उस पर दया करके मैं स्वर्ग की सीढ़ियों पर पैर रख सकता हूं। गरीब की गरीबी मेरे लिए सी.ढियों का काम बन सकती है, स्वर्ग तक पहुंचा सकती है।
दान को बुनियादी धर्म कहा है। इसलिए नहीं कि उससे गरीब को कुछ हित होगा। गरीब अपना फल भोग रहा है। दान से अमीर को हित होगा कि वह स्वर्ग के द्वार खोल लेगा। दान चाबी है। करपात्री जी ने एक किताब लिखी है और उसमें लिखा है कि समाजवाद कभी नहीं आना चाहिए। क्योंकि जिस दिन समाजवाद आ जाएगा उस दिन कोई गरीब न होगा। जिस दिन कोई गरीब न होगा, दान कौन देगा और कौन लेगा? और बिना दान के स्वर्ग का दरवाजा बंद है--स्वर्ग का दरवाजा बंद हो जाएगा।
गरीब रहना चाहिए ताकि हम उस पर सीढ़ियां बना सकें। दीन-दरिद्र रहना चाहिए ताकि उसके कंधे पर अपने पैर रख कर हम ऊपर जा सकें। इतनी संवेदनहीनता गरीबी के प्रति हममें पैदा हुई--हमारी व्याख्या के कारण। एक बार व्याख्या हम ऐसी कर लें तो फिर संवेदनहीन हो जाते हैं।
पुराने जमाने में यज्ञों में हम गाय को, बैल को और कुछ लोग कहते हैं, आदमी को भी काटते थे। लेकिन मजे से काटते थे, काटने वाले को जरा पीड़ा न होती थी, क्योंकि मान्यता यह थी कि काटा गया बकरा, काटी गई गाय स्वर्ग पहुंच जाती है। और जब स्वर्ग भेज रहे हैं तो काटने में तकलीफ क्या? तो यज्ञ में हिंसा के प्रति हम संवेदनहीन हो गए थे। कोई संवेदना का सवाल न था, हम स्वर्ग भेज रहे हैं। वह तो कुछ लोग इस मुल्क में हुए--चार्वाक, और उन्होंने कहा कि फिर अपने पिता को क्यों नहीं काट देते हो? स्वर्ग चला जाएगा। तब हमको खयाल आया कि हम बकरे और गाय के साथ क्या कर रहे हैं? लेकिन उस दिन तो गाय और बकरे को काटने वाला आदमी बड़ा कीमती था।
एक शब्द आपने सुना होगा। आज कोई भी लिखता है, अपने नाम के पीछे शर्मा, लेकिन आपको पता न होगा कि शर्मा का मतलब क्या है। शर्मा का मतलब है जो यज्ञ में गाय-बैल काटता था। शर्मन का मतलब काटने वाला। यह बड़ा गंदा शब्द है। इसका मतलब ही है काटने वाला, शर्मन, काट दे! तो वह जो काटता था गाय-बैल को, वह बड़ा कीमती आदमी था। क्योंकि वह गाय-बैल को स्वर्ग पहुंचाता था। तो वह बड़ा पूज्य था। लेकिन आज हम नहीं सोच सकते इस भाषा में। आदमी संवेदनहीन हो सकता है अगर व्याख्या उसे ऐसी मिल जाए।
गरीब के प्रति हम संवेदनहीन हो गए हैं, गरीबी के प्रति भी संवेदनहीन हो गए हैं। और जब पिछले जन्मों का कर्म का फल है, तो अब कुछ भी नहीं किया जा सकता, गरीबी को स्वीकार ही करना होगा--एक। उस व्याख्या में एक दूसरी व्याख्या भी सम्मिलित थी कि गरीबी प्रत्येक व्यक्ति की निजी जिम्मेवारी है--इंडिविजुअल रिस्पांसिबिलिटी है। अगर मैंने बुरे कर्म किए हैं तो मैं गरीब हूं, और अच्छे कर्म किए हैं तो मैं अमीर हूं। गरीबी और अमीरी से समाज का कोई संबंध नहीं है, व्यक्ति का सीधा संबंध है। यह व्याख्या भी बड़ी महंगी पड़ी। क्योंकि वस्तुतः अमीरी और गरीबी सामाजिक संदर्भ में अर्थ रखती है। कोई व्यक्ति अकेला न अमीर हो सकता है, न गरीब हो सकता है। समाज की व्यवस्था में कोई अमीर होता है और कोई गरीब होता है। गरीबी और अमीरी सामूहिक दायित्व है--सोशल रिस्पांसिबिलिटी है। यह खयाल ही नहीं पैदा हुआ, क्योंकि हमने व्यक्ति को जिम्मेवार ठहरा दिया था। इसलिए हम पांच हजार साल गरीब रहे। लेकिन ये व्याख्याएं अब भी हमारे मन में चलती हैं। अब भी हमारे मन इनसे घिरे हैं, अब भी हमारे मन इनसे मुक्त नहीं हो गए हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि अगर गरीबी को तोड़ना हो तो ये व्याख्याओं में हमें आग लगा देनी पड़ेगी। यह चिंतन बदलना पड़ेगा।
गरीबी हमारा सामाजिक दायित्व है। लेकिन इतने से ही गरीबी मिट न जाएगी। इतने से सिर्फ गरीबी को मिटाने की सुविधा पैदा होगी। यह हमारी पुरानी आदत कि गरीबी को या तो पिछले जन्मों पर छोड़ो, या व्यक्ति के कर्मों पर छोड़ो, या भाग्य पर, या भगवान पर--हमें और भी खतरों में ले गई। फिर हमने...दूसरे पर छोड़ने की आदत से हमने कहा कि अंग्रेजों ने हमें लूट लिया, इसलिए हम गरीब हैं। अंग्रेजों के लूटने की वजह से थोड़ी हमें परेशानी हुई है, लेकिन उस वजह से हम गरीब नहीं हैं। अंग्रेजों के लूटने के पहले भी हम गरीब थे। और अगर हमने ऐसा सोचा कि अंग्रेजों ने लूट लिया, इसलिए हम गरीब हैं तो फिर हमने गरीबी को ठहरा लिया कि अब क्या कर सकते हैं? लुट ही गए हैं, गरीब रहना ही पड़ेगा। नहीं, मूल कारण खोजने की हमारी प्रवृत्ति नहीं है। फिर अभी एक नई बात पैदा हुई है कि पूंजीपति शोषण कर रहा है, इसलिए हम गरीब हैं, यह बात भी बहुत खतरनाक और झूठी है। पूंजीपति शोषण नहीं कर रहा था तो भी हम गरीब थे। और अगर आज पूंजीपति के पास जितना पैसा है वह बांट दिया जाए तो देश अमीर नहीं हो जाएगा, यह भी खयाल में रख लेना जरूरी है।
मुझे एक घटना याद आती है, एक अमरीकन अरबपति रथचाइल्ड से एक साम्यवादी विचारक मिलने गया और उसने रथचाइल्ड को कहा कि तुम्हारी वजह से मुल्क गरीब है, हजारों लोग गरीब हैं। तो रथचाइल्ड ने कागज उठाया, कलम उठाई, कुछ हिसाब लगाया और आधा डालर उस साम्यवादी विचारक को दे दिया और कहा, यह ले जाओ। उसने कहा, क्या मतलब आपका? इससे क्या मतलब--रथचाइल्ड ने कहाः जिनको और मांगना हो वे आ जाएं। मेरे पास जितनी संपत्ति है अगर मैं उसमें सारी दुनिया की आबादी का भाग दूं तो आधा-आधा डालर एक-एक आदमी के जिम्मे पड़ता है। यह मैं बांटे देता हूं। और जिसको भी मांगना हो वह ले जाए। लेकिन क्या तुम सोचते हो, दुनिया अमीर हो जाएगी?
अगर आज हिंदुस्तान में दस पूंजीपतियों की सम्पत्ति को बांट दिया जाए तो क्या आप सोचते हैं यह देश समृद्ध हो जाएगा? इंदिराजी और उनके साथी इसी भ्रम में पड़े हैं कि अमीरों को बांट देने से कोई देश की गरीबी मिट जाएगी। हां, गरीब का क्रोध पूरा हो जाएगा, लेकिन क्रोध के पूरे होने से गरीबी नहीं मिट सकती। गरीब की शत्रुता पूरी हो जाएगी, गरीब की ईष्र्या पूरी हो जाएगी, लेकिन गरीब की ईष्र्या पूरी हो जाने से कोई गरीबी नहीं मिट जा सकती है। गरीब के कारण गहरे हैं, और अगर हम न समझ पाए तो हम एक बहुत बड़े खतरे की हालत में खड़े हैं। हमने पुरानी व्याख्या के कारण बहुत परेशानी उठाई। हमारी नई व्याख्या भी खतरनाक सिद्ध हो सकती है। अगर हमने यह समझ लिया कि कुछ पूंजीपतियों के कारण देश गरीब है और हमने उनको बांटने की कोशिश की तो हम सिर्फ गरीबी को बांट लेंगे, और हम कुछ भी न कर पाएंगे। अमीरी बांटने के लिए देश के पास है ही नहीं। धन भी तो चाहिए न बांटने के लिए। समाजवाद क्या बांट सकता है? धन हो तो बांट सकता है। समाजवाद गरीबी को बांटेगा तो क्या परिणाम हो सकता है? पूंजीपति जिम्मेवार है, इस भाषा में अगर गरीब ने सोचा तो गरीबी मिटने वाली नहीं है। फिर वह मूल कारण पर नहीं जा रहा है। विनोबा ने वैसी भूल की है। वह गांव-गांव गए और गरीबों से जमीन मांग ली और जमीन देने वाला भी गरीब हो गया। पांच एकड़ थी, उसने दो एकड़ दान कर दी, उसके पास तीन ही एकड़ बची।
देश इतना गरीब है कि बांटने की बात अगर हमने की तो सिर्फ गरीबी बंटेगी। अमीरी होना चाहिए न बांटने के लिए! घर में कुछ बांटने को हो तभी तो बांट सकते हैं। घर में बांटने को ही न हो तो क्या बांटिएगा? देश की गरीबी के कारण और भी गहरे हैं। लेकिन क्रोध गरीब का है--स्वाभाविक है। और इसलिए समाजवाद की बात गरीब को बड़ी अर्थपूर्ण मालूम होती है।
मैं खुद समाजवादी हूं लेकिन मैं समझता हूं कि अभी पचास साल तक इस देश को समाजवादी बनाने की चेष्टा अत्यंत अप्रौढ़, चाइल्डिश और बचकानी है। पचास साल तक इस देश को समाजवादी बनाने की कोशिश ऐसी ही है जैसे मां के पेट से पांच महीने के बच्चे को बाहर निकाल लिया जाए। वह बच्चा भी मरेगा और उस मां के बचने की उम्मीद भी बहुत कम है।
जब तक कोई देश ठीक से संपत्ति पैदा न कर ले तब तक समाजवाद सपना है। सपने देखने बहुत अच्छे हैं लेकिन उनको रूपांतरित करना जिंदगी में बहुत कठिन है।
अगर समाजवाद के लिए कोई भी रास्ता जाता है, निश्चित ही मास्को तक पहुंचना पड़ेगा। लेकिन मैं बड़ी उलटी बात आपसे कहना चाहता हूं, मास्को तक जो निकटतम रास्ता है वह वाया वाशिंगटन जाता है, और कोई रास्ता ही नहीं जाता। वह जो वाशिंगटन में वॉल स्ट्रीट है उसके ही आखिरी छोर पर क्रेमलिन के लाल सितारे चमक सकते हैं। और कोई रास्ता नहीं है। अगर हमने वाशिंगटन से बच कर जाने की कोशिश की तो यह देश आगे भी गरीब रह जाएगा, और ज्यादा गरीब हो सकता है। पूंजी होनी चाहिए, तब पंूंजी बांटी जा सकती है। लेकिन हमारी पुरानी आदत है, किसी दूसरे को जिम्मेवार ठहरा देने की--भाग्य को, पिछले जन्म को, भगवान को, ब्रिट्रिश साम्राज्य को, अब पंूजीपति को। लेकिन हम अपनी जीवन व्यवस्था के बुनियादी आधारों पर सोचने की तैयारी नहीं दिखाते हैं जिनकी वजह से हम गरीब हैं। मैं उन कारणों के संबंध में कुछ बात आपसे कहना चाहता हूं।
इस समय चूंकि बात बहुत गरम है, लेकिन पोलिटिकल स्टंट से ज्यादा नहीं है। इस समय बात बहुत गरम है। इस समय समाजवाद की बात बड़े जोर से चर्चा में है, लेकिन समाजवाद की बात से समाजवाद नहीं आता। समाजवाद आसमान से नहीं उतरेगा, समाजवाद तो हमें विकसित करना होगा। और हम, जो कि संपत्ति ही पैदा नहीं कर पाए, पूंजी ही पैदा नहीं कर पाए, कैसे समाजवाद को ला सकते हैं? पूंजीवाद समाजवाद का पहला चरण है। यह देश अभी ठीक अर्थों में पूंजीवादी भी नहीं है।
ध्यान रहे, समाजवाद पूंजीवाद से उलटी व्यवस्था नहीं है। समाजवाद पूंजीवाद का चरम विकास है। पूंजीवाद जब पूरी तरह विकसित होता है तो समाजवाद में रूपांतरित हो जाता है। जब पूंजी इतनी अतिरेक हो जाती है कि उसे व्यक्ति के पास रखने का कोई अर्थ नहीं होता तभी वह समाज में ओवरफ्लो करती है। तभी वह समाज में बंट सकती है। लेकिन जब तक पूंजी बहुत कम है तब तक समाजवाद सुसाइडल, आत्मघाती है, अपने हाथ से मर जाने का उपाय है।
लेकिन यह कठिन है, आज समझना। आज बहुत कठिन है, मुश्किल है, क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि पूंजीपति को बांट दोे तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन पूंजीपति को बांटने से क्या ठीक हो जाएगा? पूंजीपति को बांटने से कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। सिर्फ पूंजी को पैदा करने की जो व्यवस्था थी वह भी टूट जाएगी। पंूंजी को पैदा करने का जो इनसेंटिव था, जो प्रेरणा थी, वह भी टूट जाएगी। और हमारे जैसे आलसी, प्रमाद से भरे हुए भाग्यवादी देश में अगर पूंजी को पैदा करने की प्रेरणा भी टूट जाए तो शायद हम अपने इतिहास का सबसे दुर्दिन का दिन देखना शुरू कर देंगे। लेकिन अनुभव हमें कुछ भी नहीं सिखाता। जिन-जिन व्यवस्थाओं को सरकार ने अपने हाथ में लिया है, समाजवाद के नाम पर, वे सारी व्यवस्थाएं असफल हैं। सरकार से कुछ भी चलता नहीं, क्योंकि चलाना तो आदमियों से पड़ेगा।
मैं जिस प्रदेश से हूं उस प्रदेश की सारी रोडवेज को--मोटर सर्विसेस को, बसेस को सरकार ने ले लिया। अभी उनकी कमेटी हुई, उनकी कमेटी के चेयरमैन मुझे मिलने आए, उन्होंने कहा कि हमें तीस लाख साल का, प्रति वर्ष घाटा हो रहा है। एक आदमी के पास बस हो तो वह अमीर हो जाता है--इतना कमा लेता है। सारे प्रदेश की बस उनके पास हैं और तीस लाख साल का उनको घाटा होे रहा है। जहां-जहां सरकार ने राष्ट्रीयकरण के नाम पर जो-जो चीज अपने हाथ में ली है वहां-वहां नुकसान है। अगर पूरे देश की संपत्ति का उत्पादन राज्य के हाथ में चला जाए समाजवाद के नाम पर, तो यह देश आने वाले बीस वर्षों में और भी गरीब होगा, अमीर नहीं होगा। क्योंकि सिर्फ संपत्ति के उत्पादन के साधन हाथ में ले लेने से राज्य का कुछ भी नहीं हो सकता। इस देश के मानस को बदलना जरूरी है। वह मानस गरीब होने की पूरी तैयारी लिए बैठा है। उस मानस के संबंध में मैं कुछ बात करना चाहता हूं।
पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि समृद्ध होने के लिए एक बहुत और तरह के विचार की जरूरत है जो हमारे मन में ही नहीं है।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाऊं। कनफ्यूशियस ने लिखा है कि वह एक गांव से गुजरता था और उस गांव में उसने एक माली को अपने बगीचे में पानी सींचते देखा। बूढ़ा माली है, उसका जवान बेटा है। वे दोेनों बैलों और घोड़ोें की तरह मोट में जुते हैं और कुएं से पानी को निकाल रहे हैं। कनफ्यूशियस हैरान हुआ। क्योंकि तब तक यह ईजाद हो गई थी कि आदमी की जगह घोड़े या बैल जोते जा सकते थे। कनफ्यूशियस बूढ़े के पास गया और उसने कहा, मालूम होता है, तुम्हें पता नहीं है। अब तुम क्यों जुते हो चैबीस घंटे? इस मोट की जगह घोड़े और बैल जोते जा सकते हैं। उस बूढ़े ने कहाः धीरे बोलो, कहीं मेरा बेटा न सुन ले। कनफ्यूशियस ने कहाः क्यों? उसने कहाः पीछे आना। बेटे के चले जाने के बाद उस बूढ़े ने कहाः अब बोलो। मुझे पता है कि घोड़े जोते जा सकते हैं। लेकिन घोड़ा जोतने से मेरा जवान लड़का विश्राम करने लगेगा, और श्रम जीवन की सबसे कीमती चीज है। मैं नहीं चाहता कि जवान लड़का विश्राम करने लगे। श्रम ही तो सब कुछ है, इसलिए मैं घोड़े नहीं लाना चाहता। मुझे यह भी पता है कि मशीन भी निकल गई है एक छोटी, जिससे हम पानी बाहर फेंक सकते हैं, लेकिन वह भी मैं नहीं लाना चाहता क्योंकि लड़का विश्राम करने लगेगा। और जवानी में विश्राम बहुत बुरा है। कनफ्यूशियस को भी यह बात जंची है और उसने अपनी किताब में कहा है कि मुझे वह बूढ़ा बहुत ठीक मालूम पड़ा।
हिंदुस्तान का मन हजारों साल से इस बात को ठीक समझ रहा है। वह यह समझ रहा है कि श्रम करना कोई बहुत ऊंची बात है! इधर पंडित नेहरू ने एक नारा दिया थाः आराम हराम है। लेकिन कोई पूछे कि आदमी आराम के लिए जीता है या किसी और चीज के लिए जीता है? श्रम भी आदमी इसलिए करता है कि आराम को उपलब्ध हो सके। मेहनत भी इसलिए करता है कि विश्राम कर सके। विश्राम जीवन का लक्ष्य है, श्रम नहीं। श्रम केवल साधन है।
भारत पांच हजार वर्षों से श्रम को साध्य बनाए हुए है, साधन नहीं। वह कहता है, श्रम जीवन का लक्ष्य है। विनोबा भी वही कहते हैं, गांधी भी वही कहते हैं, नेहरू भी वही कहते हैं। श्रम जीवन का लक्ष्य है। श्रम जीवन का लक्ष्य ही नहीं है। जीवन का लक्ष्य विश्राम है। जीवन का लक्ष्य आराम है। और आराम हराम नहीं है क्योंकि लक्ष्य अगर हराम हो जाएगा तो पूरी जिंदगी हराम हो जाएगी। लेकिन आराम पाने के लिए श्रम करना पड़ता है। श्रम साधन है और जिसे आराम पाना हो उसे श्रम करना पड़ता है। लेकिन आराम के लक्ष्य को हटाया नहीं जा सकता। बड़े मजे की बात है, लेकिन हिंदुस्तान श्रम को बड़ा आदर देता है।
श्रम से संपत्ति पैदा नहीं होती। यह आपको उलटी बात मालूम पड़ेगी। हमें तो लगता है, श्रम से ही संपत्ति पैदा होती है। नहीं, जो कौम विश्राम खोजने की कोशिश करती है वह श्रम से बचने की कोशिश में टेक्नालॉजी का विकास करती है। जो कौम श्रम से बचने की कोशिश करती है वह टेक्नालॉजी का विकास करती है। टेक्नालॉजी सब्स्टीट्यूट है श्रम का। अगर मुझे आपके घर तक आना है तो मैं पैदल आ सकता हूं। पदयात्रा करूं तो आपको भी अच्छा लगेगा। अखबार भी खबर छापेंगे कि पदयात्री है। लेकिन मैं पैदल चलने से बचना चाहता हूं इसलिए साइकिल को ईजाद करता हूं। मैं पैदल चलने से बचना चाहता हूं इसलिए कार ईजाद करता हूं। मै पैदल चलने से बचना चाहता हूं इसलिए हवाई जहाज ईजाद करता हूं।
जो कौम श्रम से बचना चाहती है वह टेक्नालॉजी को विकसित करती है। जो कौम श्रम का आदर करती है वह टेक्नालॉजी को विकसित नहीं करती। टेक्नालॉजी के अतिरिक्त धन कभी पैदा नहीं होता। धन होता है टेक्नीक से पैदा, श्रम से नहीं। इसलिए जो कौम जितना विश्राम की आकांक्षा करती है उतने टेक्नीक को विकसित करती चली जाती है। आप हैरान होंगे, दुनिया का सारा विकास उन लोगों ने किया है जो विश्राम के आकांक्षी हैं। दुनिया के सारे आविष्कार उन्होंने किए हैं जो विश्राम के आकांक्षी हैं। आपने यह कहावत सुनी होगी कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। वह कहावत बहुत सच नहीं है। विश्राम की आकांक्षा आविष्कार की जननी है--विश्राम की आकांक्षा। इसलिए बुद्धिमान आदमी सब तरफ से विश्राम खोजता है।
शायद आपने सुना हो, एडीसन ने कोई एक हजार आविष्कार किए। दुनिया में किसी एक आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। एडीसन एक फैक्ट्री में काम करता था प्रारंभ में। और उसका काम इतना था केवल कि जब कोई फोन आए तो वह अपने मालिक को खबर कर दे। रात भर उसे जगना पड़ता था। किसी रात फोन आता भी था, किसी रात नहीं भी आता था। रात भर जगना पड़ता था। तो उसने एक तरकीब विकसित की रात भर सोने के लिए। उसने फोन के साथ घंटी जोड़ी, इतनी तेज कि उसकी नींद खुल जाए। और वह मालिक को खबर कर सके। फिर वह निशिं्चत सोने लगा। वह निश्चिंत सोने लगा। महीनों बीत गए, जब कभी जोर से घंटी बजती वह उठ जाता और मालिक को खबर कर देता--ऐसे वह सोता। एक दिन उसकी घंटी बिगड़ गई। फोन आया और वह सोया रहा। मालिक पता लगाने आया कि क्या बात है, क्योंकि मालिक ने अपनी पत्नी को ही फोन किया था, खबर करनी थी। आया तो वह मजे से सो रहा था। उसने उसे नौकरी से निकाल दिया--एडीसन को। उसने कहा कि तुम आलसी होे। एडीसन ने कहा कि मेरे आलस्य के कारण ही मै घंटी का आविष्कार कर सका। लेकिन नौकरी से निकाल दिया, वह भी सौभाग्य सिद्ध हुआ। क्योंकि फिर वह हजार आविष्कार कर सका। और एडीसन ने लिखा है कि विश्राम की आकांक्षा से ही आविष्कार विकसित होते हैं--निश्चित ही!
जो कौम श्रम करने को बहुत आदर देगी--अब यह बड़ी उलटी बात दिखाई पड़ेगी, लेकिन जिंदगी बड़ी उलटी है। जो कौम श्रम को बहुत आदर देगी वह आलसी हो जाएगी और विश्राम को उपलब्ध न होगी। आलसी आदमी विश्राम को कभी उपलब्ध नहीं होता। विश्राम को तो वह उपलब्ध होता है जो ठीक से श्रम कर लेता है। आलसी कभी विश्राम को उपलब्ध नहीं होता।
जो कौम श्रम पर जोर देगी--श्रम मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा नहीं है, आकांक्षा तो विश्राम की है। श्रम हम करते ही इसलिए हैं कि सांझ विश्राम कर सकें। और इसलिए निरंतर खोज होती चली जाती है। अब आटोमेटिक यंत्र पश्चिम ने खोज लिया है--अब वह सारे आदमियों को सब श्रम से मुक्त कर देगा। क्या आप सोचते हैं कि आदमी श्रम से मुक्त हो जाएगा? नहीं! आदमी श्रम से मुक्त हो जाएगा, लेकिन चैबीस घंटे विश्राम में बैठे रहना अर्थपूर्ण नहीं है। आदमी कुछ न कुछ करेगा। श्रम, क्रीड़ा और खेल और लीला हो जाएगी।
दुनिया की सारी संस्कृति उन लोगों ने विकसित की है जो लेजर में और विश्राम में थे। ताजमहल के सपने उन्होंने देखे हैं जो विश्राम में थे। और पिरामिड भी उन्होंने ही सोचे हैं जो विश्राम में थे। और संगीत, और साहित्य, और कला, और मूर्तिया,ं और चित्र, और दर्शन, सब विश्राम से पैदा हुआ है। सारी संस्कृति विश्राम से जन्मी है, लेजर क्लास से पैदा हुई है। अगर हम सारे जगत को किसी दिन विश्राम में ला सकें तो संस्कृति का इतना एक्सप्लोजन होगा कि पिकासो को ढूंढने कोई पेरिस जाने की जरूरत न होगी, वह एक-एक गांव में भी मिल सकता है। और तानसेन को पैदा करने के लिए अकबर का दरबार जरूरी न होगा। घर-घर में एक-एक बेटा तानसेन हो सकता है। लेकिन इतने लेजर, इतने विश्राम की जरूरत है, जिसमें यह संस्कृति विकसित हो सके। लेकिन हमारा देश...हमारा देश श्रम को आदर दे रहा है।
श्रम को आदर देने के कारण टेक्नालॉजी विकसित नहीं हो पाई। टेक्नालॉजी विकसित न होने के कारण समृद्धि और संपत्ति पैदा नहीं हुई। संपत्ति लक्ष्मी की पूजा से पैदा नहीं होती। संपत्ति टेक्नालॉजी से पैदा होती है। आज जो देश समृद्ध हैं--अमरीका आज समृद्ध है, और पृथ्वी पर पहला देश ठीक अर्थों में समृद्ध है। रूस अभी भी गरीब है, यह ध्यान रहे। रूस अभी भी समृद्ध नहीं है। रूस की समृद्धि जो थोड़ी-बहुत है, वह भी बहुत महंगी है। और बामुश्किल पाई गई है। और रूस में कोई चालीस वर्षों में एक करोड़ लोगों की हत्या करके किसी तरह काम करवाया गया है। पूरा रूस एक कनसनट्रेशन कैंप बन गया, तब कहीं काम लिया जा सका है। आदमी से जबरदस्ती पीछे बंदूक के कुंदे पर काम लिया जा सका है। कहीं फिर भी रूस समृद्ध नहीं हो सका। आज भी रूस की बुनियादी हालत गरीबी की है। आज भी अमरीकी अर्थों में रूस समृद्ध नहीं है। अमरीका अकेला मुल्क है जो समृद्ध हो सका। कैसे हो सका है?
अमरीका समृद्ध हो सका है तकनीक के अत्याधुनिक विकास से। तकनीक ने श्रम को बदल दिया। लेकिन हम यहां उलटी प्रक्रिया में लगे हैं। हम कहते हैं, थोड़ा बहुत टेक्नीक आ गया हो तो उसको भी श्रम से बदल दो। अगर टेक्सटाइल मिल चल रही है तो उसको हटाओ और चर्खे चलाओे। हम उलटे...हम सिर के बल शीर्षासन करने के ऐसे आदी हो गए हैं कि हम सीधे पैर के बल खड़ा नहीं होना चाहते। हम कहते हैं, चर्खा चलाना बहुत ऊंची बात है। तो नेता रोज सुबह घर के सामने बैठ कर चरखा चला लेता है धूप में कि जनता देख ले। राजघाट पर गांधीजी के मरने के दिन बैठ कर चर्खा चला लेता है कि कैमरामैन फोटो उतार ले। चर्खा चलाने में इतना क्या आदर है?
चर्खा अगर चलेगा तो मुल्क गरीब होगा। चर्खे से मुल्क अमीर नहीं हो सकते। चर्खा तो बहुत दिन से चल रहा है। पांच-छह हजार साल से हम चर्खा चला रहे हैं। कौन सी अमीरी आई? अमीरी टेक्नीक से आती है क्योंकि टेक्नीक हजार आदमी का काम अकेला कर देता है। लाख आदमी का काम अकेला कर देता है। टेक्नीक हमारा बढ़ा हुआ हाथ है। टेक्नीक हमारा हजार गुना हो गया श्रम है और हम विश्राम में हो जाते हैं। और विश्राम से बैठा आदमी नये आविष्कार कर पाता है। और एक चक्र शुरू हो जाता है, जिससे समृद्धि आती है। इस देश में वह चक्र आज तक शुरू नहीं हो पाया। और आज तक इस देश के समझदार लोग उलटी बातें समझा रहे हैं।
गांधी जी थर्ड क्लास में चलते हैं, किसी ने पूछा कि आप थर्ड क्लास में क्यों चलते हैं? उन्होंने कहाः चूंकि फोर्थ क्लास नहीं है। फोर्थ क्लास की बड़ी जरूरत है। लेकिन फोर्थ में चलेंगे और कोई पूछेगा, फोर्थ में क्यों चलते हैं? तो वे कहेंगे, फिफ्थ क्लास नहीं है। इसका अंत नरक में होगा, इसके पहले नहीं हो सकता। जब तक नरक में न पहुंच जाएं तब तक तृप्ति न होगी। लेकिन जो देश इस भाषा में सोचेगा--पीछे लौटने की, और नीचे गिरने की, और नीचे गिरने की, वह आगे कैसे बढ़ेगा?
मैंने सुना है कि गांधी जी जेल में थे और वल्लभभाई उनके साथ थे। गांधी जी दस छुहारे फुला कर सुबह नाश्ता करते थे। वल्लभभाई ने सोचा कि बूढ़ा रोज-रोज दुबला होता चला जाता है। दस छुहारे से क्या होगा! उन्होंने बारह छुहारे फुला दिए। कौन गिनती करेगा। लेकिन गांधी जी गिनती में होशियार थे। रात जब सब काम बन्द हो जाता, तो कौड़ी-कौड़ी का हिसाब...वह आश्रम में दोे बजे रात तक करते रहते। सब हिसाब करके फिर वह सोते। सुबह उठते से ही उन्होंने देखा कि मालूम होता है छुहारे ज्यादा हैं। गिनती की, बारह निकले। तो उन्होंने वल्लभभाई पटेल को कहा कि किसने बारह डाले? यह तो भारी अपराध हो गया। वल्लभभाई ने कहा कि मैंने सोचा कि थोड़ा ज्यादा आपके शरीर में चला जाए तो ठीक। शरीर की बड़ी जरूरत है--आपकी। लेकिन हम इस मुल्क में मानते ही नहीं कि शरीर की कोई जरूरत है। हम तोे कहते हैं, सिर्फ आत्मा से रहना काफी है। हमारा अगर वश चले हम सब भूत-प्रेत हो जाएं--वैसे हो ही गए हैं--शरीर की कोई जरूरत ही नहीं है। छुहारे की शरीर को जरूरत है? गांधीजी शुद्ध आत्मा! शरीर की जरूरत क्या है? वल्लभभाई ने कहाः फिर दस और बारह में फर्क ही क्या है? गांधीजी ने यह बात पकड़ ली। गांधीजी ने कहा, दस और बारह में कोई फर्क नहीं तो कल से मैं आठ ही खा लूंगा। क्योंकि फिर दस और आठ में कोई फर्क नहीं है।
मैं मानता हूं कि वल्लभभाई का दस और बारह में कोई फर्क नहीं है यह मुल्क को विकास की तरफ ले जाएगा और गांधी का दस और आठ में कोई फर्क नहीं है, यह मुल्क को पतन की तरफ ले जाएगा। वल्लभभाई उतने बड़े आदमी नहीं हैं, लेकिन सहज और सीधे और सादे आदमी हैं। दस से बारह पर जाना चाहते हैं, थर्ड क्लास से सेकेंड क्लास में जाना चाहते हैं। गांधी जी बड़े आदमी हैं, लेकिन बड़े आदमी खतरनाक हो सकते हैं क्योंकि आदमी को बड़ा होने के लिए अक्सर सामान्य आदमी से उलटा होना पड़ता है। जब तक वह उलटा खड़ा न हो, कोई उसको बड़ा नहीं मानता। थर्ड क्लास से फोर्थ क्लास में जाए तभी जनता कहेगी, हां, यह है महात्मा। दो चपाती खाए, एक चपाती खाए तो और बड़ा महात्मा। बिलकुल न खाए तो और बड़ा महात्मा है। असल में जिंदा रहते हुए महात्मा में थोड़ी कमी ही होती है। मर कर ही महात्मा पूरा हो पाता है। इसलिए मरे हुए महात्माओं की हम सदा पूजा करते हैं। जिंदा महात्मा में थोड़ी भूल-चूक दिख ही जाती है।
यह हमारा सोचना बहुत महंगा और खतरनाक है। सिकुड़ने का सोचना है, संकोच का, दबने का, नीचे उतरने का। नहीं, टेक्नालॉजी को श्रम में नहीं बदलना है, श्रम को टेक्नालॉजी में बदलना है तो देश में अमीरी पैदा होगी। खेत जितनी संपति हाथ से पैदा कर सकते थे, कर चुके। और खेत भी थक गए बुरी तरह और हाथ भी थक गए बहुत बहुत बुरी तरह। अब खेत पर हाथ की जगह मशीन चाहिए। लेकिन मशीन हमें भौतिकवादी मालूम पड़ती है। मशीन को उपयोग में लाने वाले लोग मैटीरियलिस्ट मालूम पड़ते हैं। हम अध्यात्मवादी लोग हैं। हम मशीन का कैसे उपयोग कर सकते हैं? और अगर करेंगे भी तो बेईमानी से करेंगे। ईमानदारी से न करेंगे।
अब यह मैं माइक का उपयोग कर रहा हूं। एक जैन आचार्य हैं तुलसी, अभी तक माइक का उपयोग नहीं करते थे क्योंकि खयाल था कि आवाज जोर से पैदा होगी तो कीटाणु मर जाएंगे। लेकिन अब सच तो यह है कि अगर कीटाणु मरते हों तो थोड़ी आवाज में भी मरते होंगे। मुंह पर पट्टी बांधने में भी मरते होंगे, थोड़े कम मरते होंगे। असल में अगर आवाज से कोई मरता हो तो ओंठ सी लेने चाहिए। लेकिन उनको दिखाई पड़ा कि मुंह पर पट्टी बांध कर दस--पांच लोग ही मुश्किल से सुन पाते हैं। बड़ी भीड़ इकट्ठी हो, इसका भी रस नहीं छूटता। तो अब एक बेईमानी की तरकीब निकाली। अभी बैंगलोर में माइक से बोले तो लोगों ने कहा कि आप और माइक से बोल रहे हैं? उन्होंने कहाः मैं माइक से नहीं बोल रहा, मैं तो सिर्फ बोल रहा हूं। किन्हीं लोगों ने माइक सामने रख दिया तो मैं क्या करूं? श्रावक सुनना चाहते हैं, वह पाप उनके जिम्मे। उन्होंने माइक रखा। मैं तो अपनी जगह बैठ कर बोल रहा हूं। न तो मैं यह कहता कि माइक रखो, न मैं यह कहता कि माइक मत रखो।
अब यह बेईमान तरकीबें हैं मशीन का उपयोग करने की। यह ज्यादा डिसआनेस्ट मीन्स हैं। अगर मशीन का उपयोग करना है तो सीधा करो। उसमें पाखंड और बेईमानी की क्या जरूरत है? नहीं, लेकिन यह तरकीब निकालनी पड़ेगी क्योंकि मशीन के उपयोग के साथ हमें खयाल है कि भौतिकवाद है। यह मैटीरियलिज्म है। यह देश भौतिकवाद का विरोधी रहा है। समृद्ध नहीं हो सकता। अगर किसी देश को समृद्ध होना है, उसे ठीक अर्थों में भौतिकवादी होना जरूरी है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भौतिकवादी होने से कोई गैर-अध्यात्मवादी हो जाता है।
यह भी एक भ्रांत तर्क है। अगर एक मंदिर हमें बनाना हो तो मंदिर का सोने का शिखर अकेला नहीं रखा जा सकता। नीचे नींव में पत्थर भी भरने पड़ते हैं। लेकिन अगर कोई यह समझ ले कि हम नींव में पत्थर न भरेंगे, हम तो सिर्फ स्वर्ण-कलश चढ़ाएंगे, तो मंदिर कभी न बनेगा। स्वर्ण-कलश में और नींव के गंदे और कुरूप पत्थर में कोई भेद नहीं है। वह नींव का पत्थर ही स्वर्ण के कलश को सम्हालता है। अध्यात्म के कलश अगर देश के मंदिर पर चढ़ाने हों तो नींव में भौतिकवाद के पत्थर बिछाने पड़ेंगे। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। देश का मंदिर अगर बनाना है ठीक तो नींव भौतिकवाद की होगी और कलश अध्यात्म का। अध्यात्म और भौतिकवाद का विरोध बिलकुल झूठा है। वैसा विरोध कहीं भी नहीं है। आत्मा और शरीर का विरोध झूठा है, परमात्मा और प्रकृति का विरोध झूठा है। लेकिन इस देश को इसी डुआलिज्म में समझाया जा रहा है। यह बड़े मजे की बात है। हमें यही समझाया जा रहा है कि शरीर को मारो, अगर आत्मा को पाना है। दीन-हीन बनो, दुखी बनो, दरिद्र बनो, भूखे रहो, अगर आत्मा को पाना है।
मैं नहीं सोचता कि स्वस्थ शरीर हुए बिना कोई आत्मा को उपलब्ध हो सकता है। मैं नहीं सोचता कि जीवन की सामान्य जरूरतें पूरी हुए बिना कोई आत्मा की तरफ यात्रा कर सकता है। यह असंभव है। यह ऐसा ही है जैसे नींव के पत्थर के बिना कोई स्वर्ण-कलश चढ़ाने की कोशिश कर रहा हो। नहीं, भौतिक और अध्यात्म विरोधी नहीं हैं। अगर कोई कहे कि वीणा को हटाओ, हम तो सिर्फ संगीत को प्रेम करते हैं--सिर्फ संगीत चाहिए, वीणा तो भौतिक है! वीणा तो भौतिक है ही, वीणा को हटाओ, सिर्फ संगीत चाहिए--तो ध्यान रहे, वीणा तो बिना संगीत के हो सकती है, लेकिन संगीत बिना वीणा के नहीं हो सकता। शरीर तो बिना आत्मा के हो सकता है कि आत्मा का हमें कोई पता ही न हो तो हम सिर्फ शरीर में जीते रहें, लेकिन अकेली आत्मा बिना शरीर के नहीं हो सकती।
यह ध्यान रहे, निकृष्ट के बिना श्रेष्ठ नहीं हो सकता लेकिन श्रेष्ठ के बिना निकृष्ट हो सकता है। यह बड़ी अदभुत बात है, लेकिन जिंदगी ऐसी है। यहां नींव हो सकती है बिना कलश के लेकिन कलश बिना नींव के नहीं हो सकता। यहां जड़ें हो सकती हैं बिना वृक्ष के, लेकिन वृक्ष बिना जड़ों के नही हो सकता। जड़ें कुरूप है, माना, लेकिन जड़ों में रस है जो वृक्षों के फूलों तक पहुंचता है। यह देश जड़ों को इनकार कर रहा है और कहता है, हम सिर्फ फूलों को प्रेम करेंगे। यह प्रेम...यह प्रेम असंभव है, यह प्रेम बहुत मंहगा पड़ गया है। पांच हजार साल हमने फूलों को प्रेम करने की कोशिश की--जड़ों को इनकार करके। आत्मा को पाने की कोशिश की शरीर की दुश्मनी करके। प्रकृति को निकृष्ट कह कर, प्रकृति को असार कह कर परमात्मा का मंदिर खोजा, वह हमें नहीं मिला। बल्कि फूल तो मिले ही नहीं, जड़ें भी कुम्हला गईं और सूख गईं, क्योंकि जड़ों को हमने पानी न दिया। जब हम जड़ों के दुश्मन थे तो हम पानी कैसे देते?
समृद्धि पैदा होगी भौतिकवाद के सहज स्वीकार से। यह देश जब तक अपने थोथे अध्यात्मवाद से भरा है--थोथा अध्यात्मवाद मैं उसे कहता हूं जो भौतिकवाद का विरोधी है। ठीक, राइट स्प्रिचुअलिज्म उसे कहता हूं जो भौतिकवाद को समाहित कर लेता है। जो कहता है--आए, भौतिक भी हममें समा जाए। भौतिक हमारा कुछ न बिगाड़ पाएगा। लेकिन यह हमारी अब तक की वृत्ति रही है।
हम समृद्ध कैसे हों? हमने दरिद्रता के सब उपाय किए और हम सफल हो गए। हमने समृद्धि का कोई उपाय ही नहीं किया क्योंकि हमने मूल आधार न रखा। एक बात--भौतिकवाद का सम्यक स्वीकार चाहिए। आने वाले भारत की नई पीढ़ी को भौतिकवाद को आत्मसात करना होगा--यह कह कर कि पश्चिम भौतिकवादी है, इनकार करने से नहीं चलेगा, क्योंकि जो पश्चिम भौतिकवादी है उसी के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं, भीख मांगनी पड़ती है। और यह बहुत अशोभन है कि अध्यात्मवादी भौतिकवादियों के सामने भीख मांगे। लेकिन हम बीस साल से भीख मांग रहे हैं। और आगे भी, अभी कोई उपाय नहीं दिखता कि भीख मांगना हमें बंद करने की स्थिति में लाए। भीख हमें मांगनी ही पड़ेगी, क्योंकि हम अध्यात्मवादी हैं, हम शुद्ध आत्मा में जीना चाहते हैं। तो कौन गेहूं पैदा करे, कौन मशीनें लाए, कौन टेक्नालॉजी पैदा करे? नहीं, वह हमसे नहीं होगा। वह पश्चिम करे, और हम भीख मांगें--यह हमारी पुरानी तरकीब है। पाप कोई और करे, पुण्य हम करें।
एक आदमी संन्यासी हो जाता है। वह कहता है, हम दुकान नहीं करेंगे। दुकान में पाप है। हम खेती नहीं करेंगे। खेती में पाप है। हम पैसा नहीं कमाएंगे। हम पैसा छुएंगे नहीं, छूने में पाप है। अभी दो संन्यासी मुझे मिलने आए। उनसे मैंने कहा कि आप कल सुबह आ जाएं। उन्होंने कहाः बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि हम पैसा नहीं छूते। कोई आदमी हमारे साथ रहता है जो पैसा खीसे में रखता है, वह पैसा देता है। तो हम उस आदमी को पूछ लें, अगर वह कल सुबह आ सकता हो तो हम आ सकते हैं। मैंने कहा, बड़ा मुश्किल है। मैंने कहाः आप पैसा क्यों नहीं छूते हैं? उन्होंने कहाः पैसा छूना पाप है। और मैंने कहाः वह आदमी आपके लिए पैसा छू रहा है, तो वह किसके लिए पाप कर रहा है? नरक वह जाएगा, आप स्वर्ग चले जाएंगे?
मैं दुकान करूं तो पाप है, मैं दुकान न करूं, और दो दुकान करने वाले मुझे जिंदगी भर पालें तो पुण्य है! पाप कोई और करे, पुण्य हम करेंगे, यह हमारी पुरानी प्रवृत्ति है। पश्चिम भौतिकवादी है, पेट हमारा खाली है, रोटी पश्चिम दे। पाप अगर होगा, नरक अगर जाएंगे तो पश्चिम के लोग जाएंगे, यह बड़े मजे की बात है। अमरीका का किसान नरक जाएगा, क्योंकि भौतिकवादी है और हम स्वर्ग जाएंगे क्योंकि हम अध्यात्मवादी हैं। और अमरीका का किसान हमारे लिए मेहनत करेगा। चार किसान अमरीका में मेहनत कर रहे हैं, उनमें एक किसान की मेहनत हमें मिल रही है। आज अमरीका का एक चैथाई भोजन हम ले रहे हैं, लेकिन बेशर्मी के साथ। यह हमें खुद पैदा करना पड़ेगा। लेकिन हम कैसे पैदा करेंगे? अगर भौतिकवाद की स्वीकृति नहीं है तो यह पैदा नहीं होगा।
इस देश में भौतिकवाद के अस्वीकार के कारण विज्ञान भी पैदा नहीं हो पाया। हमारी जलती हुई समस्या यह है कि हम कैसे तीव्रता से विज्ञान पैदा करें, कैसे हम साइंटिफिक हो जाएं? लेकिन हमारा सब सोचना गैर-साइंटिफिक है। हमारे चिंतन के सब आधार गैर-साइंटिफिक हैं। अगर हम सोचेंगे भी तो हम हमेशा गैर-साइंटिफिक ढंग से ही सोचेंगे। हमारे सोचने की पूरी धारा, पूरा ढांचा ऐसा है।
अब जनसंख्या बढ़ती है, वह हमारा सवाल है--आज मुल्क के सामने। हमारे विचारशील लोग, तो उनसे पूछिए जाकर कि जनसंख्या बढ़ती है तो क्या करें? वे कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो। गांधीजी कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो। विनोबाजी कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो, जनसंख्या नहीं बढ़ेगी। ब्रह्मचर्य धारण करो! और पांच हजार साल का अनुभव यह कहता है कि कितने लोगों ने ब्रह्मचर्य धारण किया? लेकिन अनुभव से हम कुछ सीखते नहीं। और कितने लोग ब्रह्मचर्य धारण कर लेंगे? वह भी हम नहीं सोचते। और खतरा तो यह है कि अगर यह चालीस करोड़ का मुल्क एकदम से ब्रह्मचर्य धारण कर ले दो-एक साल, तो हम एक-दूसरे की गर्दन घोंट डालें--इतना हमारे भीतर काम का वेग इकट्ठा हो जाए कि जिंदा रहना मुश्किल हो जाए, पूरा मुल्क पागल हो जाए वह बच्चे पैदा करने से भी महंगा पड़े--लेकिन उसका हमें कोई खयाल नहीं है!
वैज्ञानिक साधन से हमारा विरोध है। तो बर्थ-कंट्रोल से हमारा विरोध ह,ै क्योंकि वह वैज्ञानिक साधन है, सोचने का वह वैज्ञानिक ढंग है! लेकिन उससे हमारा विरोध है। हम किसी भी चीज के संबंध में वैज्ञानिक बुद्धि से नहीं सोच पाते। वैज्ञानिक बुद्धि हमारे पास नहीं है। बुद्धि वैज्ञानिक हो सकती है आज भी, उसके आधार बदलने होंगे। हमारे सोचने के आधार क्या हैं? हमारा सोचने का आधार सदा शास्त्र है।
जब भी हम सोचते हैं तो हम पहले यह पूछते हैं, गीता क्या कहती है? अब गीता को कब तक परेशान करेंगे, और कृष्ण ने आपका क्या बिगाड़ा है? पैदा हो गए आपके मुल्क में तो कोई कसूर हो गया, अपराध हो गया?
उनका पीछा कब तक करेंगे? लेकिन पहले हम गीता खोलेंगे। समस्या आज की, शास्त्र कल का; उनका मेल क्या है? लेकिन पहले शास्त्र में खोजेंगे कि शास्त्रसम्मत कोई रास्ता मिल जाए। शास्त्र में कुछ रास्ते हैं, वे हम खोज लेंगे। वे रास्ते लागू नहीं होंगे, क्योंकि यह बुद्धि जो शास्त्र में खोजती है; अवैज्ञानिक है।
वैज्ञानिक बुद्धि प्रयोग में खोजती है, अवैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र में खोजती है। प्रयोग भविष्यगामी है और शास्त्र अतीत से बंधे हैं। प्रयोग सदा भविष्य में ले जाता है, एक्सपेरीमेंट हमेशा भविष्य में ले जाता है और शास्त्र सदा अतीत में ले जाते हैं। जाना है भविष्य में और पकड़े हैं शास्त्र को, तो मुसीबत खड़ी हो गई है। जाना है पूरब और बैलगाड़ी में बैल जुते हैं पश्चिम की तरफ। बैलगाड़ी के बैल चलते हैं तो और पश्चिम में चले जाते हैं और जाना है पूरब। बहुत कठिनाई हो गई है, बहुत मुश्किल हो गई है।
शास्त्र की तरफ देखना बंद करना पड़ेगा। वैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र की तरफ नहीं देखती। बल्कि ध्यान रहे, जब से कुछ लोगों ने शास्त्र की तरफ देखना बंद किया, तभी से विज्ञान पैदा हुआ। नहीं तो विज्ञान कभी पैदा न होता। गैलीलियो को सवाल उठा कि जमीन चपटी है या गोल? बाइबिल खोल कर देख सकता था। उसमें लिखा है जमीन चपटी है, बात खत्म हो जाती। उसने कहा, बाइबिल की हम फिकर नहीं करते। हम तो खोजने जाएंगे कि जमीन कैसी है! खोजने गया तो पाया कि बाइबिल गलत है।
हिंदुस्तान अभी भी अपने शास्त्रों के विपरीत नहीं है। और जब तक हिंदुस्तान की प्रतिभा शास्त्र के विपरीत नहीं है तब तक गैलीलियो पैदा नहीं होगा, कोपरनिकस पैदा नहीं होगा, डार्विन पैदा नहीं होगा, माक्र्स पैदा नहीं होगा, फ्रायड पैदा नहीं होगा--वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं होगी। वह नहीं हो सकती है। हम जब भी कुछ खोजते हैं, फौरन शास्त्र में जाकर संदर्भ देख लेते हैं। बात खत्म हो जाती है। प्रयोग में नहीं उतरते, जिंदगी देखने नहीं जाते। और कई दफे ऐसा हो जाता है--इतना कठिन है अवैज्ञानिक मन!
मैंने सुना है, अरस्तू तो बड़ा विचारक था। उसने लिखा है कि औरतों के दांत आदमियों से कम होते हैं। तो उसने अपनी किताब में भी लिख दिया कि स्त्रियों के दांत आदमी से कम होते हैं। अब दो औरतों वाले आदमी को कितनी देर लगती थी? एक मिसेज को कहता, जरा मुंह खोलो, दांत गिन लेता। लेकिन उसने नहीं गिने। पुरानी किताब में लिखा है कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं और सब किताबें पुरुषों ने लिखी हैं तो स्त्रियों में बराबर दांत होते हैं, यह भी कैसे मान सकते? स्त्रियों में कमी तो होनी ही चाहिए सब तरह की। वह तो पहले पक्का सिद्धांत था।
अब यह बड़े मजे की बात है कि यह किसने किताब लिखी। और अरस्तू ने भी अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं--गिना नहीं। अरस्तू के मरने के एक हजार साल तक सारा यूरोप यह मानता रहा कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। अब मजा है कि पुरुषों को छोड़ दो, पक्षपात है उनका। स्त्रियां क्या करती रहीं, अपने दांत नहीं गिन सकती थीं? लेकिन अवैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र में जाती है। उन्होंने भी किताब खोल कर पढ़ा होगा, स्त्रियों के दांत कम हैं तो बात खत्म हो गई। आश्चर्यजनक है, लेकिन सत्य है, हजारों मान्यताएं चल रही हैं क्योंकि शास्त्र में लिखी हैं।
देश को एक वैज्ञानिक बुद्धि चाहिए तो हम अपने जिंदगी के सवालों को हल कर सकेंगे। हमारी अवैज्ञानिक प्रवृत्ति ने बहुत कुछ समस्याएं खड़ी कर दी हैं, वे चारों तरफ खड़ी हैं। वे हमें घेरे हुए हैं। उनको काटना मुश्किल होगा क्योंकि विज्ञान पैदा न हो तो टेक्नालॉजी पैदा नहीं होगी।
हां, हम ट्रांसप्लांट कर सकते हैं। पश्चिम से हम उधार टेक्नालॉजी ला सकते हैं। लेकिन उधार बुद्धि कहां से लाइएगा? और बैलगाड़ी में बैठने वाले आदमी के पास एक तरह की बुद्धि होती है--बैलगाड़ी की। हवाई जहाज मिल सकता है उधार--बैलगाड़ी में बैठने वाले आदमी को हवाई जहाज में बिठाया जा सकता है, पायलट बनाया जा सकता है। लेकिन बैलगाड़ी वाले की बुद्धि एकदम हवाई जहाज के पायलट की बुद्धि नहीं हो जाती। और बैलगाड़ी वाली बुद्धि के हाथ में हवाई जहाज खतरनाक सिद्ध होगा। नुकसान में ले जाएगा, फायदे में नहीं ले जा सकता। मुश्किल में डाल देगा।
नहीं, पहले इस देश की बुद्धि बदलनी चाहिए। क्या आपको पता है कि तीन सौ साल में पश्चिम में जो विज्ञान का विकास हुआ, उसके जन्म का कारण संदेह की प्रवृत्ति है। संदेह, डाउट! तीन सौ साल में पश्चिम के युवकों ने संदेह किया पूर्वजों पर, पुरखों पर, पिताओं पर, पिछली सदियों पर, पिछले शास्त्रों पर, जीसस पर, मोहम्मद पर, सब पर संदेह किया--मूसा पर, जरथुस्त्र पर। उस संदेह का परिणाम हुआ विज्ञान। आज भी हम संदेह करने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं। और अगर हम संदेह नहीं कर पाते तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता। वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं हो सकती।
अवैज्ञानिक बुद्धि का आधार है विश्वास, बिलीफ और वैज्ञानिक बुद्धि का आधार है संदेह, डाउट। क्या आज भी हम संदेह करने की स्थिति में हैं? नहीं, आज भी शिक्षक सिखा रहा है, विश्वास करो। पिता सिखा रहा है, विश्वास करो। बड़ा भाई छोटे भाई को सिखा रहा है, विश्वास करो। सब तरफ विश्वास सिखाया जा रहा है। विश्वास अब आगे हमें कठिनाई में डाल दे सकता है। संदेह सिखाने की जरूरत है। और यह बड़े मजे की बात है कि जब कोई आदमी ठीक से संदेह करने लगता है तो वह उन विश्वासों पर पहुंच जाता है जो असंदिग्ध हैं। जब कोई आदमी ठीक से संदेह करता है तो वह उन विश्वासों पर पहुंच जाता है जो असंदिग्ध हैं। और जब कोई आदमी पहले से विश्वास कर लेता है, तो कभी असंदिग्ध विश्वासों पर नहीं पहुंच पाता। संदेह की यात्रा सत्य तक ले जाती है, विश्वास की यात्रा कभी भी नहीं।
लेकिन हम विश्वास से भरे हुए लोग हैं। हम सब तरफ से विश्वास पर जी रहे हैं। यह तोड़ना पड़ेगा। यह मिटाना पड़ेगा। तो आज कोई कारण नहीं है कि जो पश्चिम में संभव हुई है समृद्धि, वह यहां संभव क्यों न हो जाए? बेहतर जमीन है, बेहतर आकाश है, बेहतर मौसम है, ज्यादा उपलब्ध सूरज है, पहाड़ हैं, संपत्ति है, जमीन है, सब है। लेकिन वह बुद्धि नहीं है जो उसमें से कीमिया को निकाल ले और संपत्ति को पैदा कर दे। सिर्फ बुद्धि की कमी बाधा डाल रही है, और कोई बाधा नहीं है। और बुद्धि हो तो संपत्ति पैदा होगी, लेकिन हमको उसकी भी फिकर नहीं है।
हम कहते हैं, जो सम्पत्ति है उसे बांटिए, सब मामला हल हो जाएगा। तो हमारा सारा बुद्धिमान वर्ग एक नारे में लगा है कि बस संपत्ति को बांटो। मैं नहीं मानता कि वह बहुत बुद्धिमान वर्ग है जो इस नारे में लगा है। संपत्ति नहीं है, बांटिएगा क्या? पहले संपत्ति पैदा करो, पहले संपत्ति को बरसाओ, पहले संपत्ति से देश को भर दोे। फिर बांटना तो बहुत आसान काम है।
लेकिन अगर आज हमने जबरदस्ती संपत्ति बांट भी ली--बांट लेंगे, ऐसा लगता है--ऐसा लगता है कि बांट लेंगे क्योंकि रिक्शा वाला बहुत प्रसन्न हो गया है। इंदिरा जी के आस-पास घेरा लगा कर नारे लगा रहा है। वह कह रहा है जिंदाबाद। हां,े लगता है कि हम संपत्ति बांट लेंगे। संपत्ति नहीं है, उसको बांट लेंगे। वह बंट जाएगी। और यह देश और गरीब हो जाएगा। संपत्ति नहीं बांटनी है, विश्वास की हत्या करनी है और संदेह को जन्म देना है। धर्म के अंधेपन से मुक्त होना है और वैज्ञानिक की आंख पैदा करनी है। गरीबी का पुराना मोह छोड़ना है और संपत्ति को पैदा करने का स्वस्थ आग्रह पैदा करना है। दीन-हीन होने की पुरानी व्याख्याएं जला डालनी हैं और समृद्ध होने के नये आधार रखने हैं। भौतिकवाद को स्वीकार करना है ताकि अध्यात्म का कलश, स्वर्ण-कलश उस पर चढ़ाया जा सके।
ये काम हैं जो देश के बुद्धिमान को करने हैं, लेकिन देश का बुद्धिमान नारेबाजी में है। और नारेबाजी के साथ भीड़ भी खड़ी हो जाती है। भीड़ बहुत कम समझदार है। भीड़ को खड़ा कर लेना बहुत कठिन नहीं है। अगर भीड़ बहुत समझदार होती तो उसने अपने मसले कभी के हल कर लिए होते, लेकिन भीड़ बहुत समझदार नहीं है। और इस देश में भीड़ को इकट्ठा अगर करना हो तो नासमझी की बातें करना जरूरी हैं। नासमझी हो तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। इस देश में नेता होना हो तो थोड़ा मीडियाकर बुद्धि का होना बहुत जरूरी है। बहुत प्रतिभावान आदमी इस देश में नेता नहीं हो सकता। क्योंकि बहुत प्रतिभावान आदमी भीड़ की बातों पर राजी नहीं होगा। अक्सर प्रतिभावान आदमी भीड़ की बातों का विरोध करेगा।
क्योंकि भीड़ अपनी भूलों से परेशान है। उसको उसकी भूलों को स्वीकार करना खतरनाक है। लेकिन नेता होने का सूत्र है कि जो भीड़ कहती है वही तुम भी कहो। नेता होने की कीमिया है, केमिस्ट्री है कि हमेशा भीड़ के पीछे चलो। नेता दिखता आगे है, होता हमेशा पीछे है। नेता अपने अनुयायी का भी अनुयायी होता है। अनुयायी का भी अनुयायी जो हो सकता है वही नेता हो सकता है। वह अनुयायी के पीछे चलता है। वह देखता है, अनुयायी क्या मांगता है, वही कहो, अनुयायी क्या चाहता है, वही कहो। नारे पैदा हो गए हैं। देश बीस साल से नारों के आस-पास जी रहा है। स्लोगनबाजी है, उसमें कुछ बहुत सोच-विचार नहीं है। उसमें कोई बहुत गहरी खोज नहीं है। देश के महारोग के भीतर उतरने की कोई निष्ठावान चेष्टा नहीं है, सिर्फ नारेबाजी है।
जनता को क्या नारा ठीक लगता है, वह नारा लगाओ। और जनता ही अगर समझदार होती तो पांच हजार साल की दीनता और दरिद्रता हमने न झेली होती। अब फिर जनता प्रमुख हो गई है। अब फिर जनता जिसको साथ देगी वही इस मुल्क को आगे चलाएगा। जनता के मानस में नये विचार डालने पड़ेंगे। जनता का मानस बदलना पड़ेगा तो शायद गलत नेता उसे गलत मार्गदर्शन न दे सकें। अभी इस देश को पचास साल एक परिपक्व पूंजीवाद की जरूरत है, एक मैच्योर कैपटेलिज्म की जरूरत है।
तो मैं समाजवादी हूं, जब ऐसी बात कहता हूं तो कठिन मालूम पड़ती है। समाजवादी मित्र मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आप क्या कहते हैं? मैं यह कहता हूं कि पूंजीवाद आ जाए तो समाजवाद आ सके। पूंजीवाद ही नहीं आए तो समाजवाद नहीं आ सकता। और मैं यह कहना चाहता हूं कि रूस का प्रयोग बहुत गहरे अर्थों में असफल हुआ है और परेशानी हुई है। चीन का प्रयोग असफल हो रहा है और भीतर बहुत गहरी परेशानी है।
चीन ने पहली दफा तिब्बत पर हमला किया तो मेरे एक मित्र मानसरोवर की यात्रा पर गए थे। वे लौटते थे तो एक तिब्बती गांव में उनको पकड़ लिया गया। जिन चीन के सैनिकों ने पकड़ा, वे मुझसे कहने लगे, हम बहुत हैरान हुए। वे चीन के सैनिक इनका एक-एक सामान देखने लगे। स्टोव था इनके पास। वे स्टोव नहीं समझ सके कि यह स्टोव क्या है। तो उन्होंने कहा कि इसे जला कर बताओ। चला कर बताओ कि यह है क्या, यह चीज क्या है? वे समझे कि कोई खतरनाक यंत्र है। स्टोव, साधारण, चाय बनाने का स्टोव--चीन का सैनिक नहीं समझ सका कि यह क्या है! गांव के किसान हैं, जबरदस्ती भर्ती कर लिए गए हैं, जबरदस्ती बंदूक पकड़ा दी गई है। स्टोव को चीन के सैनिक नहीं समझ पाए। वे मेरे मित्र कहने लगे, हम बहुत हैरान हुए। हमने स्टोव जला कर बताया तो जो आठ-दस सैनिक थे वे एकदम भाग कर दरवाजे के बाहर खड़े हो गए क्योंकि आग भभकी। उन्होंने समझा कि पता नहीं क्या विस्फोट हो जाए। क्या खतरा हो जाए।
चीन जबरदस्ती समाजवादी होने की कोशिश कर रहा है इसलिए भारी रक्तपात हो रहा है। पांच महीने के बच्चे को मां से निकालेंगे तो रक्तपात होगा। और रक्तपात के बाद भी समाधान नहीं है। समाधान इसलिए नहीं है कि समृद्धि है ही नहीं, बांटिएगा क्या? तो चीन भीतर से गरीब और परेशान है। मुश्किल में है। उस मुश्किल को हल करता है आस-पास हमले करके। आस-पास हमले करने से आशा बंधती है चीन के आदमी को कि शायद कहीं से संपत्ति लूट लेंगे। कहीं कुछ उपद्रव हो जाए। लेकिन कहीं से संपत्ति लूटी नहीं जा सकती। संपत्ति पैदा करनी पड़ती है।
रूस चालीस साल के अनुभव के बाद नये अनुभव ले रहा है। अभी उन्नीस सौ साठ में पहली दफा रूस में व्यक्तिगत कार रखने की छूट दी गई है। हालांकि हैं नहीं अभी कि व्यक्तिगत कारें सारे लोग रख सकें । सौ-पचास लोग बड़े नगरों में रख सकते हैं। लेकिन व्यक्तिगत कार रखने की छूट उन्नीस सौ साठ में दी और यह अनुभव किया कि अब व्यक्तिगत छूट थोड़ी दो। क्योंकि लोगों का इनसेंटिव मर गया, लोगों की प्रेरणा मर गई। कोई काम नहीं करना चाहता। रूस के सामने बड़े से बड़ा सवाल है, रूस का युवक काम नहीं करना चाहता क्योंकि काम करने का कोई प्रयोजन नहीं है।
अमरीका, मैं मानता हूं, पचास वर्षों में ज्यादा बेहतर समाजवादी मुल्क सिद्ध होगा। वह रोज समाजवाद की तरफ बढ़ेगा, बढ़ना पड़ेगा। संपत्ति जब अतिरिक्त हो जाएगी तो व्यक्तिगत कब्जे का कोई मतलब नहीं है। व्यक्तिगत कब्जे का एक ही अर्थ है कि कम है संपत्ति, न्यून है, तभी तक व्यक्तिगत कब्जे का अर्थ है। गांव में हवा पर हम कब्जा नहीं करते, क्योंकि हवा बहुत है। कब्जा करने का कोई मतलब नहीं है। जमीन पर हमने कब्जा किया, लेकिन कब किया? जब जमीन कम पड़ी और संख्या ज्यादा हुई। आज से सौ साल पहले तक जमीन पर कोई कब्जा न था। जो जितनी जमीन जोत लेता था वह उसकी हो जाती थी।
मेरे नाना ने मुझे कहा कि उन्हें जो जमीन मिली थी वह मुफ्त मिली थी। क्योंकि कोई जोतने वाला न था। जो जोत ले उसी को जमीन मिल जाती थी। जमीन का कोई मूल्य न था। संख्या कम थी, जमीन ज्यादा थी तो जमीन पर कोई कब्जा न था। संख्या ज्यादा हुई, जमीन कम पड़ी, जमीन पर कब्जा आ गया। जो चीज कम हो जाएगी उस पर कब्जा हो जाएगा।
संपत्ति जब तक कम है तब तक व्यक्तिगत कब्जे को हटाना मुश्किल है। और अगर हटाया तो संपत्ति का पैदा होना बंद हो जाएगा। क्योंकि पैदा होने की प्रेरणा विलीन हो जाएगी। संपत्ति इतनी हो जानी चाहिए जैसे हवा है, पानी है। ताकि उस पर व्यक्तिगत कब्जे का अर्थ खो जाए। अमरीका पचास वर्षों में समाजवादी हो सकता है। और वहां जो समाजवाद आएगा वह एकदम लोकतांत्रिक और अहिंसात्मक होगा। क्योंकि तब समाजवाद सहज आ जाएगा। संपत्ति के अतिरेक से आया हुआ समाजवाद ही सहज समाजवाद हो सकता है। लेकिन इस मुल्क में कैसे आ सकता है? हम तो बहुत बुरी हालत में हैं। यहां संपत्ति नहीं है। ये संपत्ति पैदा करने के मूल आधार हमें सोचने पड़ेंगे।
मैंने कुछ बातें कहीं इस आशा में कि आप सोचेंगे, विचार करेंगे। निर्णय जल्दी हमें लेना पड़ेगा देश को कि क्या करना है। निर्णय अगर हमने सोच कर लिया, नारेबाजी में नहीं लिया तो शायद सहज उपयोगी हो सके और नारेबाजी में निर्णय लिया तो खतरनाक भी हो सकता है। नारे सुंदर लगते हैं, इससे सत्य नहीं हो जाते। और कोई बात हमारी ईष्र्या को तृप्त करती है, इससे सहयोगी और उपयोगी नहीं हो जाती।
और भी समस्याएं हैं, कल उन पर बात करूंगा। आपके कोई सवाल होंगे, वे लिख कर दे देंगे।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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