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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-10)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो 

दसवां-प्रवचन

नींद और मौत एक जैसी होती है

...होता है जब तक जानना नहीं होता।

प्रश्नः लेकिन जब जान जाए....

तब तो कोई सवाल ही नहीं उठता।

प्रश्नः तब तो जान भी गया और मान भी गया?

फिर तो मानने का सवाल ही नहीं उठता।

प्रश्नः मान तो गया ही...

नहीं-नहीं,...

प्रश्नः जो जान गया किसी चीज को, फिर तो मानने और जानने में क्या अंतर रह गया?

मानने का...।

प्रश्नः मानना पहली सीढ़ी है, जानना दूसरी सीढ़ी है।

मैं ऐसा नहीं कहता, मैं ऐसा नहीं कहता।

प्रश्नः आप नहीं कहते। लेकिन आप अगर किसी चीज को जान जाएंगे...?


उसके बाद तो जानने का सवाल ही नहीं है। आप परमात्मा को मानते हैं, दीवाल को नहीं मानते, इसको आप जानते हैं। इसलिए आप किसी से न पूछेंगे कि दीवाल को मानते हैं या नहीं मानते।

प्रश्नः ऐसा हो सकता है कि मैं दीवाल को मानता नहीं हूं, मैं दीवाल को जानता भी हूं और दीवाल को मानता भी हूं। इसमें तो कोई अंतर फिर नहीं रह जाता।

मेरी बात आप समझ लें। आप क्या करते हैं उससे मुझे मतलब नहीं है। मेरा कहना यह है कि मानना तभी तक जरूरी है, जब तक जानना घटित नहीं होता। जैसे ही जानना घटित हो गया, मानने न मानने, दोनों की बातें व्यर्थ हो गई। तो मेरा जो जोर है वह इस बात पर है कि धर्म के संबंध में जो लोग मानते ही चले जाते हैं, वे जानने से वंचित रह जाते हैं। जो नहीं मानते चले जाते हैं वे भी जानने से वंचित रह जाते हैं। और जानने की घटना जिस दिन घटेगी, उस दिन मानने में उत्तर नहीं दिया जा सकता।
आप मुझसे अगर कहें कि क्या आप परमात्मा को मानते हैैं? तो मैं कहूंगा कि नहीं, मैं जानता हूं। इसलिए यह कहूंगा, इसलिए यह कहूंगा कि मानने को मैं समझता ही यह हूं कि वह न जानने की अवस्था में लिया गया निर्णय है। जानने की अवस्था में मानने का निणर्य लिया ही नहीं जा सकता। ऐसी मेरी समझ है। वह आपको ठीक लगे, न लगे--वह सवाल नहीं है बड़ा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं, अगर आप कुछ कर रहे हैं तब तो मैं विचलित नहीं करता। लेकिन अगर आप कुछ गलत कर रहे हैं तो मैं जरूर विचलित करूंगा। और अगर गलत करने वाले को विचलित न करने के लिए गीता कहती हो, तो बड़ी खतरनाक बात कहती है। गलत करने वाले को तो विचलित करना ही पड़ेगा। वह गीता भी, कृष्ण भी पूरे वक्त अर्जुन को विचलित कर रहे हैं। वह जो करना चाहता है, वह भागना चाहता है युद्ध से। वे उसको विचलित कर रहे हैं, पूरी किताब ही उसको विचलित करने से पैदा हुई है। कृष्ण पूरा काम ही यह कर रहे हैं कि अर्जुन जो करना चाहता है उसको विचलित कर रहे हैं; और जो नहीं करना चाहता, उसको करवाने के लिए कह रहे हैं। नहीं तो वह किताब ही कभी पैदा न होती। और अगर किसी को विचलित नहीं करना है--तब तो बुद्ध का बोलना फिजूल गया, क्राइस्ट का बोलना फिजूल गया, नानक का समझाना फिजूल गया। क्योंकि किसी न किसी को विचलित करने के लिए ही है वह।
एक आदमी शराब पी रहा है। आप उसे विचलित नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? और एक आदमी कुछ गलत किए जा रहा है जिससे परमात्मा तक नहीं पहुंच सकेगा; आप विचलित नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? तो विचलित न करने का मतलब इतना ही हो सकता है कि किसी को ठीक मार्ग से विचलित न करें। लेकिन ठीक मार्ग पर कोई है या नहीं, गलत मार्ग से तो विचलित करना ही होगा।

प्रश्नः ठीक मार्ग पर कोई हंड्रेड परसेंट न हो, पांच-दस परसेंट हो, उससे तो विचलित हो जाएगा।

तो पंचानबे परसेंट से विचलित करना पड़ेगा, पांच परसेंट से न करेंगे। बाकी जहां गलत है, वहां से तो गलती कहनी पड़ेगी। उससे आपको परेशानी हो, रास्ता बदलने में परेशानी होती है। आप दो मील चल कर आ गए हैं। अब मैं आपसे कहता हूं कि लौटिए चैरस्ते से, फिर से रास्ता पकड़िए। आपको परेशानी होती है। लेकिन आप बड़ी छोटी परेशानी से डर रहे हो। और जितने बढ़ते जाएंगे, लौटना पड़ेगा ही। आज नहीं, अगले जन्म में लौटना पड़ेगा ही। लौटे बिना रास्ता नहीं है। अगर गलत रास्ता है तो लौटना पड़ेगा ही, इसलिए जितनी जल्दी लौट जाएं उतना अच्छा है। हां, लेकिन मुझे भी दिक्कत है और आपको भी दिक्कत है।
क्योंकि जो आदमी दो मील चला आया उससे मैं कहूं कि तुम गलत चल आए तो पहले तो वह भी जिद्द करता है कि नहीं गलत नहीं चला आया। क्योंकि दो मील चल आया है वह। वह चाहता है कि कोई कहे कि ठीक चला। ताकि यह जो श्रम हुआ, बेकार न चला जाए। तो वह भी राजी नहीं होता, दिक्कत डालेगा। और मुझे भी पेरशानी होती है उसको समझाने में। मैं भी कहूं कि बिलकुल ठीक चल रहा है तो वह भी प्रसन्न होता है, और मेरी भी प्रसन्नता है।
जो लोग आपको विचलित नहीं करते, उनकी आपके प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। अगर सहानुभूति है तो गलत दिखाई पड़े तो विचलित करना ही होगा। चाहे आप हजार मील चल आएं हों और गलत चल आएं हैं तो वापस लौटना पड़ेगा। और उचित है जितनी जल्दी लौट जाएं। क्योंकि रुके नहीं रहेंगे, कल तक और दो मील चल लेंगे, और दस मील चल लेंगे। इसलिए जितनी जल्दी लौट जाएं उतना अच्छा। तो मेरा तो काम विचलन करने का है।

प्रश्नः आप विचलित करते हैं किसी को, जिसको विचलित आप कर रहे हैं, अब वह गलत कर रहा है या आप गलत कर रहे हैं, इसकी कसौटी कौन सी है?

कोई कसौटी नहीं है। अगर वह ठीक चल रहा है तो वह मेरे पास पूछने ही नहीं आएगा, पहली बात। क्योंकि मैं उसके पास पूछने नहीं गया कभी। वह ठीक नहीं चल रहा है, इसलिए इधर-उधर पूछता फिर रहा है। क्या जरूरत है पूछने की? क्या जरूरत है उसको? आप डाक्टर से जाकर पूछिएगा कि मैं बीमार हो आया, कि आप बीमार हैं। तो आप गए काहे के लिए डाक्टर के पास? आपको शक है। आपको पता है, आपको पता है कि कहीं गड़बड़ चल रही है। कहीं पहुंच भी नहीं रहे, कुछ पा भी नहीं रहे, इसलिए खोजते फिर रहे हैं। खोज का मतलब ही यह है।
जिस दिन आपको लग जाएगा कि ठीक रास्ता मिल गया और ठीक चल रहे हैं, आनंद मिल रहा है, बात खत्म हो गई। मेरे पास किसलिए आएंगे? किसी के पास किसलिए जाएंगे? बात खत्म हो गई। और फिर मैं आपसे कह दे रहा हूंः मैं आपको विचलित कर रहा हंू। यह तो नहीं कह रहा कि आप विचलित हो ही जाएं। मुझे जो ठीक लग रहा है वह मैं कह रहा हंू और अगर आपको लगता है कि ठीक नहीं है, मत विचलित हों। कोई मैं धक्का देकर तो विचलित कर नहीं रहा।

प्रश्नः आपकी बात ठीक है, आप विचलित कर रहे हैं। लेकिन हम कहते हैं कि हम आपको विचलित करें।

आप करिए न, तो आपको कौन मना कर रहा है? आपको मैं कहां मना कर रहा हूं?

प्रश्नः आप तो कहते हैं कि आप विचलित करते हैं?

मैं कहां मना कर रहा हूं आपको? आप मुझे विचलित करें, इसलिए मैं कहां मना कर रहा हूं आपको?

प्रश्नः न जी देखो आप, ये तो उलटा सवाल है, अगर हमको आप कह देते हैं कि आप गल्त रास्ते पर जा रहे हो तो यह बात आती है। मगर हम समझते हैं कि आप गल्त रास्ते पर जा रहे हो....

हां, तो आप मुझे समझाएं न। आप मुझे समझाएं। लेकिन तब मैं आपके पास आऊंगा।

प्रश्नः नहीं, नहीं। कई दफा जाना भी पड़ता है, आप देखिए, कहां से चल कर हमारे पंजाब के अंदर आए हैं, अमृतसर के अंदर आए हैं......।

मैं समझा, मैं आपकी बात समझा। आपको लगे कि मैं गलत चल रहा हूं तो मुझे समझा दें। आप विचलित करने की कोशिश करें, उसमें क्या हर्ज है?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

कोई कसौटी नहीं है, कोई कसौटी नहीं है। जिस आदमी को, ठीक रास्ते पर जो आदमी है, उस आदमी को आंतरिक प्रतीति होती है कि वह ठीक है। और जो गलत है उसे प्रतीति होती है कि वह गलत है। जैसे कि आपके पैर में कांटा गड़ जाए तो आप कहते हो कि मुझे दर्द हो रहा है। लेकिन क्या कसौटी है कि आपको दर्द हो रहा है? हम कैसे मानें कि आपको दर्द हो रहा है? फिर कांटा निकाल लिया। आप कहते हैंः अब दर्द नहीं हो रहा है। क्या कसौटी है कि आपको अब दर्द नहीं हो रहा? आपका अनुभव ही आपकी कसौटी है। आपका अनुभव ही आपकी कसौटी है।

प्रश्नः नोट करना, मैं रोज पव्वा, डेढ़ पव्वा शराब पी लेता हूं। और मुझे बड़ा आनंद आता है। इतना सुरूर आता है कि मैं मग्न हो जाता हूं, मेरे गुनाह की मुझे कोई फिकर नहीं होती, न कोई चिंता होती है, न ही कोई झिझक। तो बताइए कि अब दुनिया सारी कहने वाली है कि यह गलत काम है।

दुनिया को आप गलत समझिए।

प्रश्नः देखो, सयाने से सयाना आदमी जितना भी है वह भी कहता है कि यह गलत काम है। लेकिन मैं समझता हूं मुझे आनंद आता है। क्या मैं अपने आनंद को पहचानता हूं? अपने आनंद की तरफ चला जाता हूं, और हर बंदा मुझे कहता है कि तुम गलत काम कर रहे हो, कभी उसने वह काम किया नहीं होता और मुझे कहता है कि तुम गलत काम कर रहे हो। वह गलत है या वह गलत है?

न-न-न। आप तब डेढ़ ही क्यों पीते हैं, अच्छा करना है तो तीन पव्वा पीएं। हां, होश में काहे को आते हैं कि दूसरे आपसे कुछ कहने आएं। आप तो डूबे ही रहें उसमें। आप क्यों पंचायत में पड़ गए हैं किसी की? जब आपको आनंद आ रहा है तो सारी दुनिया गलत कहे तो भी फिकर छोड़ें, आप तो आनंद लें पूरा अपना। न-न-न, मेरी बात नहीं समझ रहे हैं आप। आप पूरा आनंद लें।

प्रश्न: आपने कहा कि जो लोग गलत काम करेंगे उनको विचलित करना ही पड़ेगा, आपने ये लफ्.ज कहे। अगर आप को हक बनता है कहने का कि हम विचलित करने के लिए तैयार हैं, हम करेंगे, तो फिर दूसरे आदमी को यह क्यों कहा जाए कि तुम क्यों ऐसा-ऐसा करते हो...?

कहां कह रहा हूं? कहां कह रहा हूं? नहीं बिलकुल नहीं कहा। आपसे मैं यह कह रहा हूं कि आपको लगता है आनंद शराब पीने में, आप पीए चले जाएं। मुझे आनंद लगेगा आपको विचलित करने में तो मैं आपको विचलित करने की कोशिश करूंगा, आप विचलित मत हों।

प्रश्नः नहीं, कसौटी कौन सी है?

कसौटी कोई भी नहीं है। कसौटी, आपके अनुभव के अतिरिक्त कोई कसौटी नहीं है। है ही नहीं, उसका कोई उपाय नहीं है।

प्रश्नः कोई तो कसौटी होनी चाहिए...?

तो उसको खोजिए आप। मैं कहता हूं कि कोई कसौटी नहीं है। आप कसौटी खोजिए फिर। आप कसौटी खोजिए। मैं कहता हूं कि कोई कसौटी नहीं है। आप कसौटी खोजिए। कभी मिल जाए तो मुझे बताइए।

प्रश्नः मैंने आपसे अभी यही प्रश्न करना है कसौटी का। मैंने सुना है कि आप ऐसी प्रैक्टिस कराते हैं कि इस प्रैक्टिस के अंदर आप स्मरण करवाते होंगे या कोई और चीजें होंगी?


होंगी नहीं, आप आए हैं।

प्रश्नः मैं नहीं आया, क्योंकि...पर उसके मुतल्लक...।

फिर छोड़िए उसकी बात... उसके मुतल्लक मत करिए। क्योंकि जहां आप आए नहीं, उसकी बात मत करिए।

प्रश्नः इस शरीर के अंदर झील है, जिसके कि तमाम बिंदु उस झील के अंदर, और वे कैद हैं। उस सारे शरीर में विभिन्न सेंटर हैं और कुछ जो इस शरीर के अंदर कैद हैं, वे निःशब्द में भी हैं। निःशब्द तो असीम है,...एक है टुकड़े-टुकड़े में है। ये जो टुकड़े-टुकड़े सब शरीरों में हैं, इसका स्वरूप निःशब्द नहीं, शब्द है। और इसका सेंटर सुखमणी में भी है और यहां पर इसका स्वरूप शब्द है। क्या इस शब्द को जोड़ने से यह निर्विचार हो सकती है योनि? क्योंकि बिना शब्द के यह ठहरती नहीं है। जब भी इनसान को मृत्यु का समय आता है, पहले पैर ठंडे होते हैं और आंखों की पुतलियां मिटती हैं, क्योंकि यह जो चीज है यह अपने मुकाम तक पहुंचती है। यहां पर आती है। और यहां पर जैसे इसके विचार हुए हैं, जैसा इसने अभ्यास किया हुआ है, अगर पहले यहां आने का अभ्यास किया हुआ है, तो यह निर्विचार हो जाएगी। तो यहां आने का मार्ग...मैंने बहुत कोशिश की आपके वचनों को सुनने की... पर बात बनती नहीं।

तो बनाओ। झांक कर बनाओ।
अगर मालूम ही हो गया...एक बड़ी कठिनाई यह होती है कि अगर तुम्हें यह सब मालूम हो गया तो मुझसे किसलिए पूछ रहे हो? यानी तुम जो बातें बोल रहे हो वे सब ऐसी हैं जैसे मालूम हो गया हो। कहां सुखमणी है? कहां शब्द है? कहां निःशब्द है? मरते वक्त क्या होता है? क्या नहीं होता?--वह सब तुम्हें मालूम हो गया तो मुझसे बेकार पूछ रहे हो। नहीं, अगर मालूम नहीं हुआ, अगर मालूम नहीं हुआ तब तो पूछने में कोई सार्थकता है।

प्रश्नः लेकिन पूछना इसलिए पड़ा कि आपका उपदेश है कि जहां पर अनीति और झूठ नहीं, यहां पर शब्द है वह सुनने की जरूरत नहीं है। उसके बिना ही यह निर्विचार हो जाएगा।

अगर तुम्हें वहां शब्द हो रहा है...

प्रश्नः ऐसी बात मैं जानता भी नहीं हूं, और है भी नहीं, और होगी भी नहीं।

नहीं, अगर ऐसा पक्का ही है तो फिर मुझसे क्या पूछना है? कठिनाई यह है कि जब हमें ज्ञान है ही किसी बात का तो प्रश्न नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि ज्ञानी प्रश्न बनाए तो बड़ी दिक्कत होती है। प्रश्न का मतलब ही यह होता है कि हमें पता नहीं, तो हम खोजने निकले हैं। अगर हमें पता ही है..

प्रश्नः प्रश्न तो कोई इंस्पेक्टर भी कर सकता है। प्रश्न कोई इम्तिहान लेने वाला भी कर सकता है...एक छोटा बच्चा हूं।

नहीं-नहीं, बच्चा काहे को?

प्रश्नः अपनी शंका के लिए आपसे पूछ रहा हूं।

हमारी सारी कठिनाई यही है। बहुत सा सुन लेते हैं, पढ़ लेते हैं, वह हमारे मन में बैठ जाता है। तब सवाल जो हैं वे हमारे पढ़े-लिखे-सुने से उठने शुरू हो जाते हैं। और ऐसे सवाल जो हैं वे शास्त्रीय हो जाते हैं। उनका कोई बहुत जीवन से संबंध नहीं रह जाता। न तो तुम्हें यह पता है कि भीतर कुछ है, न तुम्हें यह पता है कि भीतर कुछ नहीं है। तुम कहते हो कि कोई कहता है कि भीतर कुछ नहीं है, कोई कहता है कि भीतर कुछ है।
जब हमें यही पता नहीं कि भीतर कुछ है तो कहां उसका सेंटर है? कहां से उसमें गति होगी? ये सारे के सारे प्रश्न हाइपोथेटिकल हो जाते हैं। अभी तो इसकी फिकर करो, तो पहले तो इस...बात सुनो न, पहले पूरी बात सुनो। ...बात की फिकर करो पहले, भीतर मुड़ने की फिकर करो पहले। ताकि तुम्हें पता चले कि भीतर कुछ है या नहीं। अगर कुछ नहीं है तब तो सेंटर वगैरह खोजना पागलपन हो जाएगा। तो पहले मुड़ कर भीतर देखो कि वहां कुछ है।
जिस ध्यान की मैं प्रक्रिया तुमसे कह रहा हूं उससे तुम भीतर मुड़ कर देख सकोगे कि शरीर के अलावा भी भीतर कुछ है। और जैसे ही तुम देख सकोगे कि भीतर कुछ है, वैसे ही तुम सेंटर की बात कभी न पूछोगे, क्योंकि जो भीतर है वह सेंटरलेस है। उसकी कठिनाइयां हैं। उसकी कठिनाइयां ये हैं, उसकी कठिनाइयां ये हैं कि जो चीज भी असीम है उसका कोई सेंटर नहीं हो सकता। जो चीज सीमित है उसका सेंटर होता है। जो चीज असीम है उसका कोई सेंटर नहीं होगा। और या फिर हर जगह सेंटर होता है। दो में से कुछ एक बात होती है।
तो पहले तो भीतर प्रवेश करो और यह जानने की कोशिश करो कि भीतर कुछ है? अगर भीतर कुछ नहीं है तब तो कुछ सवाल ही नहीं उठता सेंटर वगैरह का। अगर भीतर कुछ है तो भी मैं तुमसे कहता हूं कि सेंटर वगैरह का सवाल एकदम विदा हो जाएगा। क्योंकि जैसे ही तुम भीतर झांकोगे तुम पाओगे वहां जो है वह असीम है। और उसको न तो डिवाइड किया जा सकता है; न सेंटर बनाया जा सकता है; न उसकी कहीं कोई सर्कमफ्रेंस है और न कहीं कोई सेंटर है। वह ज्यामिट्री की चीज नहीं, कि वहां कोई सेंटर हो। ये सारे सेंटर वगैरह की जो बातचीत है, ये सब हम किताब में पढ़ लेते हैं, बिना जाने इस पर हम बात करने लगते हैं, सवाल उठाने लगते हैं। और तब ये सारे सवाल हमें कहीं नहीं ले जाते।
तो मेरी तो सारी फिकर एक्सपेरिमेंटल है, स्पेकुलेटिव नहीं है। मैं इसकी बहुत चिंता नहीं करता कि सिद्धांतवादी क्या कहते हैं? मैं इसकी चिंता करता हूं कि तुम्हारे अनुभव में कितना आता है। तो सबसे पहले भीतर मुड़ो और इस बात का पता लगाओ कि भीतर कुछ है। इसका जिस दिन तुम्हें पता लग जाए, उस दिन तुम फिर इस बात की पता लगाने की कोशिश करो कि कोई सेंटर हो सकता है इसका? वह सेंटरलेस है।
और निःशब्द की जो बात कह रहे हो... नहीं मुझे तकलीफ नहीं है, मुझे तकलीफ नहीं है। लेकिन आधा घंटे का ही वक्त है, और इन सबको कुछ पूछना हो? हो सकता है, हो सकता है और टु दि पॅाइंट न हो। तो मजा यह है कि अगर तुम्हें पता ही है तो मुझसे...।
दो बातों पर ध्यान देना पड़ेगा। एक तोे जो बहुत मीडियाकर व्यक्तित्व हैं, न तो बहुत बुरे हैं, न बहुत अच्छे हैं। साधारण जन हैं। और न तो पापी हैं बहुत बड़े, न पुण्यात्मा हैं बहुत बड़े। साधारण-जन को दूसरे-जन्म में प्रवेश करने में सेकेंड भी नहीं लगते। इधर मरा, उधर जन्म हुआ। साधारण-जन को। क्योंकि साधारण-जन के लिए सदा ही उसके योग्य गर्भ उपलब्ध होते हैं। इसलिए देर की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन अगर बहुत बुरा व्यक्ति है, तो वक्त लग जाएगा। और बहुत अच्छा व्यक्ति है, तो भी वक्त लग जाएगा।
क्योंकि बहुत अच्छे गर्भ भी मुश्किल से उपलब्ध होते हैं और बहुत बुरे गर्भ भी मुश्किल से उपलब्ध होते हैं। इसलिए हिटलर जैसा आदमी मरेगा, तो वर्षों प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। जन्मों भी प्रतीक्षा हो सकती है। क्योंकि हिटलर जैसे गर्भ की स्थिति उपलब्ध होनी चाहिए, जो रेयर है। तो जितनी श्रेष्ठ, जितनी निकृष्ट आत्मा होगी, उस हिसाब से टाइम का फर्क पड़ेगा। तो जिन आत्माओं को बुरा होने की वजह से प्रतीक्षालय में रुकना पड़ता है, उनको हम प्रेत कहते हैं। भूत-प्रेत कहते हैं। ये बुरी आत्माएं हैं जो प्रतीक्षा कर रही हैं अपने गर्भ की। जिन भली आत्माओं को प्रतीक्षा करनी पड़ती है उनको हम देवता कहते हैं। ये भी वे आत्माएं हैं जो प्रतीक्षा कर रही हैं योग्य गर्भ की। साधारण आदमी को जरा भी देर नहीं लगती। वह तत्काल दूसरा जन्म खोज लेता है।
और दूसरी बात आप पूछते हैं कि पुरुष-स्त्री में बदलाहट हो सकती है। साधारणतः स्त्री से पुरुष की तरफ बदलाहट ज्यादा होती है। पुरुष से स्त्री की तरफ बदलाहट कम होती है। और उसका कुल कारण इतना है, कोई भी स्त्री स्त्री होने से प्रसन्न और सुखी नहीं है। उसकी आकांक्षा पुरुष होने की जीवन भर चलती है। लेकिन उलटी बदलाहट भी होती है। पर उसकी संख्या कम है। और मनुष्य चाहे स्त्री हो या पुरुष, इससे कोई योनि का अंतर नहीं पड़ता। इससे उनके स्टेज का कोई अंतर नहीं पड़ता। चेतना का विकास दोनों का बराबर होता है। एक ही तल पर दोनों होते हैं। उलटा कभी नहीं होता।
ऐसा कभी नहीं होता कि पुरुष जो है वह मरे, यानी मनुष्य मरे और पशु हो जाए, ऐसा नहीं होता। या तो विकास आगे होता है, या उसी योनि में परिभ्रमण होता रहता है। लंबे समय तक होता रहता है। लौटना संभव नहीं होता। कोई मनुष्य मर कर जानवर नहीं होता। हां, जानवर मर कर मनुष्य हो सकते हैं। इस जगत के विकास में पीछे लौटना होता ही नहीं। यहां सब चीजें आगे ही जाती हैं। अगर आप आगे नहीं जाएंगे तो जहां हैं वहीं पुनरुक्ति करते रहेंगे। तो एक आदमी मनुष्य के जन्म में सैकड़ों बार घूम सकता है अगर आगे नहीं बढ़ता है तो। पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। और टाइम की जो बात है वह डिपेंड करती है बहुत सी बातों पर।
पहला तो अच्छे और बुरे होने पर बहुत कुछ निर्भर करता है। साधारण होने पर सरलता से रूपांतरण हो जाता है। लेकिन यह जो मैं कहूं, तो इसको आपको मानना ही पड़े और क्या करिएगा? इस तरह की बात जब आप पूछते हैं, और कोई कहे तो आप क्या करिएगा? मानना ही पड़े।
इसलिए इस तरह के सवालों को मैं धार्मिक नहीं कहता। क्योंकि जिन सवालों का जवाब मानना पड़े, वे सवाल धार्मिक नहीं रह जाते। वह कोई मतलब नहीं है। क्योंकि मैं कह रहा हूं, हो सकता है सब गलत कहूं। आपके पास मानने के सिवाए फिलहाल कोई उपाय नहीं होगा। इसलिए इस तरह की बातों को मान मत लेना, इस तरह की बातों को भी जानने की कोशिश करनी चाहिए।
आप अपने पिछले जन्मों का स्मरण कर सकते हैं, यह सांइटिफिक, उसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया है कि आप अपने पीछे जन्म का स्मरण करें। और वह स्मरण आपको बहुत सी चीजें जानने की स्थिति में ला देगा। वह आपको यह भी बता सकेगा कि पिछली मौत और इस जन्म के बीच कितना फासला है। हालांकि वे फासले भी बड़े जटिल हैं। क्योंकि हमारा जो टाइम-मैजरमेंट है वह बहुत कठिन मामला है।
आप, एक सेकेंड के लिए झपकी लग जाती है आपकी और आप एक सपना देखते हैं जिसमें कि वर्षों लगने चाहिए सपना देखने में। आप सपना देखते हैं--कि बच्चे हैं, जवान हो गए, प्रेम हो गया, विवाह हो गया, बच्चे हो गए, उनकी शादी कर रहे हैं। और झपकी टूटती है और आप कहते हैं कि मैंने इतना लंबा सपना देखा। सामने वाला आदमी कहता है कि इतना लंबा आप देख नहीं सकते, क्योंकि एक सेेकेंड मुश्किल आपकी आंख बंद रही। तो एक सेकेंड में आप इतना लंबा सपना देख सकते हैं।
असल में ड्रीम-टाइम अलग तरह का टाइम है। और आपके जागने का समय अलग तरह का समय है और नींद का समय आपका अलग तरह का था। समय के बोध में फर्क है। तो जैसे ही आदमी मरता है, वैसे ही टाइम-स्केल भी बदल जाता है। इसलिए इधर के टाइम-स्केल में हम बता नहीं सकते कि वह पांच दिन में जन्म गया, कि छह दिन में जन्म गया, कि सात दिन में जन्म गया। क्योंकि दिन और रात हमारा टाइम-स्केल है। जैसे ही शरीर छूटा, यह टाइम-स्केल के आप बाहर हो जाते हैं। और दूसरा टाइम-स्केल काम करना शुरू करता है, जो बहुत अलग बात है।
इसलिए जो हमने नियम बनाए हैं कि तीन दिन बाद कुछ करेंगे, तेरह दिन बाद कुछ करेंगे, ये बहुत एप्रोक्सिमेट हैं। ये साधारणतः इस तरह बनाए गए हैं कि साधारणतः तीन दिन में वह आदमी जन्म ले लेगा। अगर तीन दिन रुक गया तो तेरह दिन में जन्म ले लेगा; अगर तेरह दिन रुक गया तो साल भर में जन्म ले लेगा। इसलिए हम साल भर तक मृतक का कोई न कोई संस्कार करते चले जाते हैं। वह सिर्फ इसलिए कि यह ज्यादा से ज्यादा संभावना हमारे टाइम में है।
लेकिन यह सब बिलकुल एप्राॅक्सिमेट है, यह एक्.जेक्ट नहीं है। यह एक्.जेक्ट हो नहीं सकता। क्योंकि हमारा और जन्म के मरने के बाद शरीर के छूटते ही जो समय की धारणा है, उसमें बुनियादी फर्क पड़ जाता है। लेकिन ये सारी बात मानने की हो जाए, इसलिए मैं इसमें बहुत उत्सुक नहीं होता।
मैं इसमें उत्सुक होता हूं कि इसके थोड़े प्रयोग करने चाहिए। इसमें थोड़े से प्रयोग करने चाहिए। जैसे मजे की बात है कि आप, इतनी जिंदगी हो गई, आप रोज सोते हैं रात, लेकिन अब भी आप नहीं बता सकते कि नींद जब आती है तो कैसी होती है। रोज नींद आती है। रोज आप नींद में जाते हैं। लेकिन नींद क्या है? यह रोज नींद में जाकर भी आप नहीं कह सकते। और उसका कारण है।
क्योंकि जब तक आप जागे रहते हैं तब तक नींद नहीं होती, और जब नींद आती है तब आप जागे नहीं होते। दोनों का कहीं मेल नहीं हो पाता। अगर आप जागे रहें और नींद आ जाए तो आप पहचान लें कि नींद क्या है? लेकिन आप जागे रहेंगे तो नींद आएगी नहीं। आप नहीं होते मौजूद, अचेतन हो जाते हैं, तब नींद आती है तो आप कभी नहीं पहचान पाते। जब हम नींद तक को नहीं पहचान पाते तो मौत में तो हम बिलकुल ही नहीं पहचान पाएंगे। मौत तो महानिद्रा है।
तो मेरा जोर इस बात पर है कि जिस आदमी को इसके संबंध में खोज-बीन करनी हो, उसे नींद से शुरू करना चाहिए कि वह अपनी नींद के प्रति जागना शुरू करे। सोते वक्त होशपूर्वक रहे कि कब नींद आती है, उस क्षण में क्या होता है भीतर। अगर दो-चार महीने प्रयोग किया, तो आप पकड़ लेंगे। और आपको नींद आ जाएगी और होश भी रहेगा। इधर सब शरीर सो जाएगा और भीतर एक होश की धारा भी रहेगी। जिस दिन आप नींद को पकड़ लेंगे, उस दिन आप अपनी मौत को भी पकड़ पाएंगे। उसके पहले नहीं पकड़ पाएंगे। और जिस दिन मौत को आप पकड़ पाएंगे, चाहे पिछले जन्म की मौत को पकड़ने की बात हो, उस दिन आपको पता चलेगा कि यह तो सारा स्केल अलग है, बताना मुश्किल है।
यानी करीब-करीब स्थिति ऐसी है कि जैसे कोई एक द्वीप हो जहां फूल नहीं खिलते और पत्थर ही पत्थर हैं। और वहां का एक निवासी किसी दूसरे मुल्क में जाए कि जहां फूल खिलते हैं। वह वापस लौटे और उस गांव के लोग उससे पूछें कि वहां तुमने क्या देखा? वह कहे, हमने फूल देखे। और उस गांव के लोग पूछें कि वे कैसे होते हैं? उस गांव में तो कोई फूल नहीं खिलते। रंग-बिरंगे पत्थर जरूर होते हैं। तो वह आदमी रंग-बिरंगा पत्थर उठा कर बता दे कि कुछ इससे मेल खाते फूल होते हैं। हालांकि पत्थर से फूल का क्या मेल होता है? लेकिन उस आदमी की तकलीफ कि वह किस चीज से कहे कि कैसे होते हैं?
तो करीब-करीब जिनको भी मृत्यु के अनुभव से गुजरना हुआ है, उन्होंने जो बातें भी कही हैं वह हमारी भाषा में कहनी पड़ी हैं। और हमारी भाषा और उस अनुभव में कोई ताल-मेल नहीं है। इसलिए सब सिद्धांत ऐसे ही हैं जैसे फूल को कोई पत्थर से बता रहा हो। इसलिए वह एक्.जेक्ट सही कभी नहीं होते। इसलिए मेरी बात को पकड़ लेने की जरूरत नहीं है। न उस पर कोई आग्रह रखने की जरूरत है कि वह ठीक है कि गलत है।
फिकर यह ही करनी चाहिए कि हम थोड़े से जिन्दगी में प्रयोग करना शुरू करें। रात सोते वक्त होशपूर्वक सोने की कोशिश करें। सुबह नींद जब टूटती है तब होशपूर्वक नींद के बाहर आने की कोशिश करें। अगर इसमें आप सफल हो गए तो आने वाली मृत्यु में आप होशपूर्वक जा सकेंगे। और अगर मृत्यु में होशपूर्वक जा सके तो आने वाले जन्म में भी होशपूर्वक जा सकेंगेे कि नींद सोने जैसी है। वह जन्म सुबह जागने जैसा है। और बीच का जो गैप है, उसका आप पता लगा पाएंगे कि वह कितना है। हालांकि बता न पाएंगे लोगों को कि वह कितना है। क्योंकि वहां टाइम-स्केल बिलकुल दूसरा हो जाता है। लेकिन इसको सैद्धांतिक रूप से समझने का कोई भी मतलब नहीं है। यह सिर्फ कहानी मालूम होती है। क्योंकि हमारे लिए इसका कहां संबंध, इसका कहां जोड़ बैठता है।
पर हम इस तरह के सवाल पूछते हैं। और सोचते हैं कि शायद इस तरह के सवाल पूछने से कुछ हल होगा। कुछ भी हल नहीं होगा। इस तरह के सवाल हमारी जिज्ञासा बताते हैं। लेकिन हल कुछ भी नहीं होता, सब किताबों में लिखा हुआ पड़ा है, और हम सब पढ़ लेते हैं, सुन लेते हैं। इससे कुछ हल नहीं होता। थोड़े से प्रयोग करने की तरफ उत्सुक होना चाहिए। छोटे-छोटे प्रयोग बहुत बड़े काम को प्रकट कर देंगे।
तो नींद पर प्रयोग करिए, अगर आपको मौत और दूसरे जन्म के बीच फासले का अनुभव करना है। इसमें एक और मजा आएगा कि अगर आप जागते हुए सो सकें और जागते हुए सुबह उठ सकें तो रोज आप कहते हैं कि रात में छह घंटे सोया, यह दिन के स्केल में कहते हैं आप। जब आप एक दफा रात के छह घंटे अनुभव करेंगे तो फिर आप कभी भूल कर यह न कह सकेंगे कि मैं छह घंटे सोया। यह दिन का स्केल है, रात का स्केल ही नहीं। अभी रात के लिए, और नींद के लिए हमने कोई घड़ी नहीं बनाई। तब आप बिलकुल गुमसुम हो जाइएगा। कोई पूछेगा कि रात हम कितनी देर सोए? तो आप कहेंगे कि दिन के समय में पूछते हो तो हम बता सकते हैं, लेकिन रात के समय का अभी तक कोई मैजरमेंट नहीं है। कोई घड़ी नहीं है जो बताए कि रात हम कितना सोए हैं, कितनी देर सोए?
मैं एक स्त्री को देखने गया रायपुर में। वह नौ महीने से बेहोश है। वह कोमा में पड़ी है। और डाक्टर कहते हैं कि तीन साल तक बेहोश रहेगी। रह सकती है जिंदा। तो उसे बेहोशी में इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, दवाई दी जा रही हैं, होश में कभी आएगी नहीं, डाक्टर कहते हैं अब। लेकिन जिंदा रह सकेगी तीन साल तक। अगर यह स्त्री तीन साल बाद होश में आ जाए तो यह यही कहेगी कि अभी हम सोए थे और अभी हम उठे। इसको तीन साल का कोई फासला नहीं होगा। इसे पता ही नहीं चलेगा कि बीच में तीन साल गुजर गए। हमें तीन साल गुजरे हैं जो हम जाग रहे हैं। उसे कोई पता नहीं चलेगा। उसको पता चलना बहुत मुश्किल, क्योंकि बेहोशी का कोई टाइम-स्केल अभी हमारे पास नहीं है।
तो जन्म और मृत्यु के बीच कितना समय गिरता है, वह अनुभव की बात है। पर मैंने मोटी बात कही कि जो साधारण जीवन में हैंै--न बहुत बुरे, न बहुत अच्छे। जैसे अधिक लोग हैं--थोड़े अच्छे भी, थोड़े बुरे भी--इनके लिए बहुत देर नहीं लगती। देर कह रहा हूं, समय नहीं कह रहा। और अब यह जरा कठिन मामला है।
दरअसल यूरोप में एक बहुत अदभुत आदमी हुआ, फ्रेंच विचारक, उसने टाइम और ड््यूरेशन, दो शब्दों का प्रयोग करता है। वह कहता हैः समय अगल बात है और ड््यूरेशन अलग बात है। समय तो वह है जो हम घड़ी से नापते हैं, और देरी वह है जो हम भीतर अनुभव करते हैं। और जरूरी नहीं है कि समय और देरी एक सी हो।
अगर आप अपने प्रेमी के पास बैठे हैं तो घड़ी तो कहेगी कि घंटा बीत गया; और आप कहते हैं, क्षण नहीं बीता। क्षण ड््यूरेशन है। आप अगर अपने दुश्मन के पास बैठे हैं तो घड़ी तो कहती है कि पांच मिनट बीते हैं; आप कहते हैं, लगता है दो घंटे बीत गए। यह ड््यूरेशन है। तो अगर बहुत सुखी आदमी मर रहा हो, आनंदित आदमी मर रहा हो, तो मौत और नये जन्म में कितना ही बड़ा फासला हो उसे छोटा मालूम पड़ेगा। क्योंकि उसके आनंद की वजह से सब निर्भर होगा। अगर दुखी आदमी मर रहा हो, तो मौत और जन्म के बीच में कितना ही छोटा फासला हो, उसे बहुत लंबा मालूम पड़ेगा।
ईसाइयों का एक खयाल है कि नरक जो है वह इटरनल है, अनंत है। एक दफा जो आदमी नरक में गिर गया, वह गिर गया। अब वह कभी लौट नहीं सकेगा। इसकी बड़ी मुश्किल रही, ईसाई इसका जवाब नहीं दे पाते, क्योंकि यह बड़ी बेहूदी बात लगती है। एक आदमी ने कितने ही पाप किए हों, कितने ही पाप किए हों तब भी सजा अनंत नहीं हो सकती। पाप की एक सीमा है तो सजा की भी एक सीमा होनी चाहिए।
और बट्र्रेंड रसल ने एक किताब लिखी है, जिसमें उसने बड़ा मजाक उड़ाया है इस बात का। एक किताब लिखी है, जिसका नाम हैः वाॅय आई एम नाॅट ए क्रिश्चियन? मैं ईसाई क्यों नहीं? और बहुत से कारणों में एक कारण यह भी बताया है कि ईसाइयों का इटरनल कंडेमनेशन का सिद्धांत मेरी समझ के बाहर है। लिखा कि अगर मैंने जो पाप किए और जो नहीं किए, सिर्फ सोचे; अगर वह सब भी मैं सख्त से सख्त अदालत के सामने प्रकट कर दूं, तो मुझे चार-पांच साल से ज्यादा का दंड नहीं दिया जा सकता। तो इतने से पाप के लिए, किए और न किए, सोचे--उन सबके लिए भी अगर मुझे अनंतकाल तक नरक में रहना पड़े तो यह तो बड़ी ज्यादती है। उसकी बात समझ में पड़ती है। लेकिन ईसाई इसका उत्तर नहीं दे पाते।
क्योंकि बड़ी कठिनाई है। क्योंकि जीसस की बात का उत्तर ईसाई दें भी कैसे? वह जीसस जो कह रहा है, उसका मतलब, जीसस की हैसियत हो तो ही समझ में आ सकती है, नहीं तो नहीं आ सकती। बहुत मुश्किल है। यह तो जीसस को भी दिखाई पड़ रहा होगा कि यह इटरनल कंडेमनेशन शब्द बड़ा खतरनाक है, यह कैसे हो सकता है? और जीसस जैसा भला आदमी जो हर तरह के पाप को माफ करने को राजी है। जो उसे सूली पर लटका रहे हैं उनके लिए भी परमात्मा से कहता है, इनको माफ कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं? वह इटरनल कंडेमनेशन दिलवा नहीं सकता पापी को। फिर क्या मतलब होगा?
मेरा अपना खयाल है। और मेरा खयाल यह है कि जो आदमी जितना पापी है, उतना दुखी है। और दुख का एक क्षण भी इटरनल मालूम होता है। दुख का एक क्षण भी। तो नरक का एक क्षण भी ऐसा ही लगेगा जैसे अनंत...उसका कोई अंत ही नहीं आ रहा। हम सब कहते हैं, सुख क्षणिक है। सुख क्षणिक है, लेकिन उसके क्षणिक होने का एक कारण और भी है कि सुख क्षणिक मालूम होता है। जब वह आता है तो आ भी नहीं पाता है और लगता है गया। और दुख आता है तो लगता है कि जाता ही नहीं।
तो जो व्यक्ति मरेगा उसकी चित्त दशा पर निर्भर करेगा कि जन्म और मृत्यु के बीच का ड््यूरेशन उसे कितना मालूम पड़ा है। अगर वह आनंदित आदमी है तो उसे लगेगा, क्षण भर में सब बीत गया। अगर वह दुखी आदमी है तो वह कहेगा कि अनंतकाल लग गए। यह हजार बातों पर निर्भर करेगा। और इसलिए कोई बहुत फिक्सड सिद्धांत नहीं हो सकता। उपाय भी नहीं हैं होने के। तो ये सामान्य बातें हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

उनका सवाल अच्छा है, सभी सवाल अच्छे होते हैं। लेकिन गैर-जरूरी हैं। यह सब हम मान कर सवाल उठा देते हैं कि जब दुनिया नहीं थी। ऐसा कभी भी नहीं था जब दुनिया नहीं थी। ऐसा कभी होगा भी नहीं जब दुनिया नहीं होगी। हां, यह हो सकता है हमारे इस पृथ्वी के ग्रह पर न हो जाए। किसी दूसरे ग्रह पर जीवन शुरू हो जाए।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि इस समय कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर जीवन है। कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर। यह पृथ्वी अकेली जीवंत नहीं है। इस तरह के कम से कम पचास हजार। सारे विश्व में प्लेनेट्स हैं जिन पर जीवन है और हो सकता है हमसे भी विकसित जीवन किन्हीं पर हो। कोई कठिनाई नहीं है। हो सकता है कि हमसे बहुत ही अलग तरह का जीवन कहीं पर हो। कोई कठिनाई नहीं है। हो सकता है, पंद्रह इंद्रियों वाले प्राणी हों, पचास इंद्रियों वाले प्राणी हों, कोई आश्चर्य नहीं है। तो जब हम कहते हैं कि दुनिया जब नहीं थी, तो हम एक चीज मान कर चल पड़ते हैं कि ऐसा भी कोई वक्त था, जब दुनिया नहीं थी। ऐसा कोई वक्त नहीं था। दुनिया सदा से है।
असल में दुनिया का मतलब ही यह है कि जो सदा से है, उसका नाम दुनिया है। ऐसा कभी नहीं था कि नहीं थी, और फिर हो गई। नहीं से तो कुछ भी नहीं होता। इस पृथ्वी पर भी जो जीवन आया है वह भी, अब वैज्ञानिक कहते हैं कि सिवाय किसी दूसरे प्लेनेट के आने के और कोई उपाय नहीं है। वह किसी प्लेनेट से ही आया है। और अभी तो हजार तरह के प्रमाण मिलने शुरू हुए हैं जिनको कि, जैसे कि अभी हमने चांद पर आदमी भेजा। तो हम आदमियों के साथ कुछ कीटाणु भी भेज ही दिए चांद पर। ये कीटाणु कल विकसित हो सकते हैं। और विकसित होते-होते, करोड़ दो करोड़ वर्ष में चांद पर जीवन पूरा पल्लवित हो सकता है। और तब चांद के लोग पूछेंगे कि यहां जीवन कहां से आया?
जीवन सदा यात्रा करता है। अब यह हमारी पृथ्वी है, यह शायद चार हजार साल में जीने के योग्य नहीं रह जाएगी। यहां से जीवन उजड़ जाएगा। हो सकता है उस जीवन के उजड़ने की वजह से ही प्राणों में चांद पर और मंगल पर पहुंचने की आकांक्षा प्रबल है। जीवन अपने को बचाने की बड़ी अचेतन प्रक्रिया में जुड़ा रहता है। एक सेमर, सेमर आप जानते हैं न, रुई? सेमर की रुई होती है। वह जो वृक्ष...तो वह रुई इसीलिए पैदा करता है सेमर कि उसका बीज उसके नीचे न गिर जाए। क्योंकि नीचे गिर जाएगा तो इतने बड़े वृक्ष के नीचे नया पौधा पैदा नहीं हो सकता। उसमें रुई पैदा करता है कि हवा में वह रुई उड़ कर बीज को दूर ले जाए। नीचे न गिर पाए बीज। नीचे गिरेगा तो नया पौधा पैदा नहीं होगा, जीवन नष्ट हो जाएगा। तो वह सेमर का बीज उड़ने के लिए रुई पैदा करता है। रुई लग कर वह उड़ जाता है हवा में, और वहां गिर जाता है जहां पैदा हो सकेगा।
जीवन हजार तरह के उपाय अपने को बचाने की कोशिश में लगा रहता है। यह पृथ्वी सदा से जीवंत नहीं थी। लेकिन यह पृथ्वी दुनिया नहीं है। दुनिया बहुत बड़ी है और यह पृथ्वी एक बहुत छोटी सी चीज है। शायद कहना चाहिए कि बहुत ही छोटा हिस्सा है जिसका कि कोई हम...।
मैं शायद पढ़ रहा था कि अगर हम सारे विश्व को सिकोड़ डालें, कंडेंस कर लें, और इतना बड़ा हो जाए, जितना बड़ा कि हमारी पृथ्वी है, अगर सारे विश्व को हम सिकोड़ कर इतना छोटा कर लें जितनी हमारी पृथ्वी है तो हमारी पृथ्वी रेत के एक कण के बराबर होगी। उसको खोजना मुश्किल हो जाएगा कि वह कहां है? इतना ही अनुपात है उसका। लेकिन हम इसको सारी दुनिया समझ कर बैठ जाते हैं तो कठिनाई हो जाती है।
दुनिया बड़ी है और कहीं जीवन बन रहा है, कहीं जीवन बिगड़ रहा है। एक बूढ़ा आदमी मौत के करीब जा रहा है, और एक बच्चा जिंदगी के करीब आ रहा है। एक प्लेनेट मरने के करीब जा रहा है, तो दूसरा प्लेनेट जीवंत हो रहा है। जैसे कि और चीजें बन और बिगड़ रही हैं, वैसे ही सूरज और तारे भी बन और बिगड़ रहे हैं। कहीं कोई सूरज ठंडा पड़ रहा है, कहीं कोई सूरज वापस जीवंत होकर गरम हो रहा है।
हमारा सूरज भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा। उसकी भी मौत का वक्त करीब आया आता है। लेकिन दूसरे सूरज हैं जो कि जीवंत हुए जा रहे हैं, जो अभी बच्चे हैं और बड़े हो रहे हैं। जैसे यहां छोटे से जीवन में हम देखते हैं कि बच्चे बड़े हो रहे हैं, बूढ़े समाप्त हो रहे हैं। ऐसे ही विराट विश्व में कोई जगत, कोई दुनिया, कोई पृथ्वी, कोई प्लेनेट मर रहा है, कोई प्लेनेट पैदा हो रहा है। और अंतहीन है उनकी संख्या। अभी वैज्ञानिक कहते हैंै कि, जो उनकी गणना में आता है, तो करीब कोई चार अरब सूर्यों की गणना उनकी गणना में है।
चार अरब सूर्यों के अपने परिवार हैं। जैसे हमारे सूर्य का परिवार है--चांद है, और मंगल है, और बृहस्पति है, और पृथ्वी--ऐसे चार अरब सूर्यों के अपने परिवार हैं। और यह चार अरब सूर्य आखिरी गणना नहीं है। यहां तक अभी हमारे साधन पहंुचते हैं। उसके आगे भी... और बड़े मजे की बात यह है कि यह सारा विश्व भी कोई एक जगह ठहरा नहीं है, एक्पैंडिंग है। यह भी फैल रहा है। जैसे कोई गुब्बारे में हवा भर रहा हो--फैलता जा रहा है, और बड़ा होता जा रहा है।
इस, इस तरह के जो हम प्रश्न उठाते हैं, वे इसलिए उठा लेते हैं कि हम समझते हैं कि, हम समझते हैं कि यह पृथ्वी सारा जीवन है। तो कब कैसे आ गया किसी जीवन की मूल धारा से इस पृथ्वी तक? जब यह पृथ्वी युवा हो जाती है, जीवन को झेल सकती है तो जीवन आ जाएगा। जब यह बूढ़ी हो जाएगी और मर जाएगी तो जीवन हट जाएगा। और कभी ऐसा नहीं था कि जगत नहीं था, और कभी ऐसा नहीं होगा कि जगत नहीं होगा। जो है सदा, उसी का नाम जगत है, लेकिन वह रोज बदलता है। तो जब हम पूछते हैं कि सृष्टि कैसे हो गई? तो हम बात ही गलत पूछते हैं। सृष्टि कभी हो नहीं गई, सृष्टि है, वह जो हो रही है। पूरे वक्त हो रही है।
अब एक मित्र पूछ रहे हैं कि ‘इसका प्रयोजन क्या है?’
असल में आदमी का मन कभी प्रयोजन के बाहर सोच ही नहीं पाता। हम सदा सोचते हैं कोई प्रयोजन होना चाहिए। लेकिन कोई अगर आपसे पूछे कि आप जब प्रेम में होते हैं तो प्रयोजन क्या होता है? कोई आपसे पूछे कि जब आप आनंदित होते हैं तो प्रयोजन क्या होता है? आनंदित होने का क्या प्रयोजन है? आप कहेंगे कि आनंद तो अपने में काफी है, कोई प्रयोजन की जरूरत नहीं। प्रेम अपने में काफी है, प्रयोजन की कोई जरूरत नहीं।
यह जगत और यह अस्तित्व अपने में काफी है, इसके बाहर किसी प्रयोजन की कोई जरूरत नहीं है। यह है, यही काफी है। इसके बाहर प्रयोजन की जरूरत नहीं, लेकिन आदमी अपने मन को जगत से लगाता है। तो वह आदमी तो बिना प्रयोजन के कुछ भी नहीं करता, और कोई करे तो उसको हम पागल कहते हैं। वह दुकान करता है तो प्रयोजन से करता है कि कमाई करे; कमाता है तो प्रयोजन से करता है कि मकान बनाए; मकान बनाता है तो प्रयोजन से बनाता है कि उसके भीतर रहे। लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि अगर हम सारे प्रयोजन के भीतर पहुंचते जाएं तो आखिरी प्रयोजन यह रहेगा कि मैं आनंद से रहूं। तब हम पूछ सकते हैं कि आनंद से क्यों रहें? क्या प्रयोजन है? तब आप एकदम मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप कहेंगे कि नहीं, यहां बात खत्म हो जाती है।
मकान भी इसलिए बनाते हैं; धन भी इसलिए कमाते हैं; मित्र भी इसलिए; शत्रु भी इसीलिए; संघर्ष भी इसीलिए; शांति भी इसीलिए--कि आनंद से रहें। लेकिन आनंद का क्या प्रयोजन है? आनंद निष्प्रयोजन है। जगत अपने ही आनंद में है। इसका कोई प्रयोजन नहीं, कोई परपज नहीं। और अगर कोई बताए कि इसका यह परपज है, तो हम फिर पूछ सकेंगे कि उस परपज का क्या परपज? उससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैै। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैै।
 तो इसे हम ऐसा कहें, चाहे धर्म की भाषा में कहें तो धर्म कहता है कि परमात्मा का आनंद है। उसकी लीला है। अगर विज्ञान की भाषा में कहें, तो कहना होगा कि परपजलेस है। धर्म की भाषा में कहें तो लीला है। लीला का भी मतलब वही होता है। लीला का मतलब होता हैः जिसमें कोई परपज नहीं है। खेल का मजा है। कोई कारण नहीं है, बच्चे खेल रहे हैं बाहर, रेत के मकान बना रहे हैं और गिरा रहे हैं। कोई पूछे कि क्या प्रयोजन? तो हम कहेंगे कि खेल रहे हैं। कोई प्रयोजन नहीं है। अभी थोड़ी देर बाद खेल खत्म होगा, लात मार कर अपने घर में वापस आ जाएंगे। जीवन है निष्प्रयोजन। या कहें तो कह लें कि आनंद ही प्रयोजन है। और, और तो कोई प्रयोजन है नहीं।

प्रश्नः ...फिलिपिंस की एक युवती है जो अस्सी हजार शब्द एक घंटे में प.ढ़ जाती है और उसके लिए प्राॅब्लम यह है कि वह उसके पन्ने जो हैं किताब के छल नहीं सकती इतनी जल्दी से वह पढ़ती है। आपके इन प्रवचनों में आपने कहा था कि दो ढंग हैं पढ़ने केः एक आर्डिनरी और एक एक्सट्रा आर्डिनरी। तो इस बात से जो आप बताएंगे, विद्यार्थी-जगत को बहुत लाभ होने वाला है। अगर वह ऐसा कर सकें तो मेरे खयाल में विद्यार्थी-वर्ग और भी बहुत आगे जा सकते हैं। दिमागी तौर पर भी आपके पढ़ने का जो ढंग है उसको उसे अच्छी तरह दर्शाएं, क्योंकि मैंने सुना है आपने लाखों किताबें पढ़ रखी हैं और वे किताबें आप जरूर साइकिक ढंग से पढ़ रहे होंगे। क्योंकि मेरी उम्र के आप हैं। मैंने जिंदगी में पांच हजार किताबें पढ़ रखी हैं, और मैं हैरान हूं कि आपने कैसे पढ़ा, वह जरूर बताएं, यह जरूर टेक्नीकल चीज है।

यह थोड़ा टेक्नीकल और साइंटिफिक मामला है उसका। पहली बात तो यह कि जब भी हम पढ़ते हैं या मन से कोई भी काम करते हैं तो मन में खास तरह की विद्युत तरंगें दौड़नी शुरू होती हैं। जिनको अल्फा वेव्स कहते हैं। वे दौड़नी शुरू होती हैं। हर आदमी पढ़ता है तो उसकी अल्फा वेव्स कितनी गति से दौड़ रही हैं, इतनी ही गति से वह पढ़ पाता है। और अब तो अल्फा वेव्स को नापने के उपाय उपलब्ध हो गए हैं। तो उनको हम नाप सकते हैं कि भीतर अल्फा वेव्स कितनी चल रही हैं। जितनी तीव्र गति अल्फा वेव्स की होगी, उतनी ही तीव्र गति पढ़ने की होती है।
और अब तो वैज्ञानिकों ने एक छोटा सा यंत्र बनाया हैः अल्फा फोन, जिसको आपकी खोपड़ी पर लगा कर आपकी वेव्स को गति भी दी जा सकती है। बाहर से भी उनको बढ़ाया जा सकता है। वे तेजी से चलने लगती हैं। तो अगर अल्फा वेव्स को भीतर तेज किया जा सके तो आपके पढ़ने की, समझने की, सारी गति तेज हो जाती है। यह अल्फा वेव्स को अगर कम किया जा सके तो आप एकदम शांत हो जाते हैं। ध्यान में जिन लोगों की अल्फा वेव्स नापी गई हैं, तो बहुत शिथिल हो जाती हैं।
जापान में झेन फकीर होते हैं, तो उनके माइंड की अल्फा वेव्स के बड़े परीक्षण किए गए हैं। तो ऐसा लगता है कि बड़ी मुश्किल से एकाध वेव चलती है। तो ध्यान वह स्थिति है जहां अल्फा वेव्स कम से कम है। और चिंतन, मनन, अध्यन वह स्थिति है जहां अल्फा वेव्स ज्यादा से ज्यादा है। अब तक इसका खयाल नहीं था कि किस वजह से कोई व्यक्ति ज्यादा पढ़ सकता है, तेजी से पढ़ सकता है। अब साफ है कि उसके कारण क्या हैं। स्मृति कितनी बना सकता है, वह भी अल्फा वेव्स पर निर्भर करता है। किस मात्रा में और किस गति से उसकी अल्फा वेव्स चलती हैं।
जब आप शराब लेते हैं, या एल एस डी ले लेते हैं, या मेस्कलीन ले लेते हैं तो भी अल्फा वेव्स पर ही असर पड़ता है। जब आप आनंदित होते हैं तो आपकी अल्फा वेव्स अलग होती हैं, और जब आप दुखी होते हैं तब अलग होती हैं। आपका मस्तिष्क लाखों सेल्स से बना है। और प्रत्येक सेल छोटा सा यूनिट है बिजली का, जो पूरे वक्त वेव्स फेंक रहा है। उनके कोआर्डिनेशन पर सब कुछ निर्भर करता है।
अब यह कोआर्डिनेशन दो तरह से हो सकता है। इसके यौगिक रास्ते भी हैं। लेकिन वे बड़े लंबे रास्ते हैं, और इसके वैज्ञानिक रास्ते अब विकसित हो रहे हैं जो बड़े आसान हैंै। और कभी-कभी जैसा मैरिया का आपने नाम लिया, फिलिपिंस में वह जो मैरिया को घटित हुआ है, ऐसा और भी कई बार अनेक लोगों को इतिहास में घटित हुआ है। लेकिन यह एक्सीडेंटल है। यह कोई करके नहीं हुआ है। यह एक्सीडेंटल है, किन्हीं भी कारणों से, किन्हीं भी शारीरिक कैमिकल कारणों से उनकी अल्फा वेव्स की गति बहुत तेज है, अति तीव्र है। और उसके हजार कारण हो सकते हैं। जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, विचारवान कहते हैं, वह सब अल्फा वेव्स पर निर्भर करता है सारा मामला। इसको, इस अल्फा वेव्स को योग के ढंग से बढ़ाने के भी उपाय हैं।
अब जैसे की ओम का पाठ है। अब यह बड़े मजे की बात है कि ओम का पाठ, जो अल्फा वेव्स को गति देता है, और कुछ नहीं है। उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन यह खयाल में नहीं है। उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। ओम की जो ध्वनि है, वह अल्फा वेव्स को गति देती है। और ध्वनियां जो हैं वे भी वेव्स हैं। साउंड जो है वह भी वेव है। वह अल्फा वेव्स को गति देती है। और ओम जो है वह मूल ध्वनि है।
मनुष्य के, जितनी ध्वनि मनुष्य कर सकता है, उसके सब मूल स्वर उसमें हैं--ए यू एम, अ उ म। ये तीन मूल ध्वनियां हैं। ये बेसिक साउंड्स हैं। इन तीनों की चोट से आपकी अल्फा वेव्स की रिदम बढ़ जाती है। और इसलिए चाहे ओम हो, या इस तरह के और शब्द भी दूसरे लोगों ने उपयोग किए, लेकिन वे सब ओम के ही रूपांतरण हैं। जैसे मुसलमान आमीन कहते हैं, वह ओमीन का ही रूपांतरण है। या ईसाई आमीन कहते हैं, वह भी ओमन का रूपांतरण है। हैं वे सब ओम के ही रूप। ओम की ही चोट। आमीन भी वही काम करता है। जरा जोर से भाव से कोई आमीन कहे, तो उसकी अल्फा वेव्स पर चोट पड़ती है। उससे गति बढ़ती है।
लेकिन यह सब, जिसको कहना चाहिए कि अंधेरे में टटोलना था। अंधेरे में टटोलना था। अब तो हम बहुत जल्दी बच्चों को अल्फा फोन का प्रयोग कर सकेंगे। आज नहीं कल, स्कूलों में इसका प्रयोग हो सकेगा। और अल्फा फोन दोनों काम कर सकता है--कि वह आपकी गति को बढ़ा भी दे और कम भी कर दे। क्योंकि एक कठिनाई है। अगर आप किसी भी और प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, और अगर वेव्स बहुत बढ़ जाएं, तो रात आप सो भी न सकेंगे।
मैरिया को सोने में बहुत तकलीफ पड़ेगी। उसकी नींद खत्म हो जाएगी। क्योंकि जिसकी वेव्स दिन भर इतनी ज्यादा रहेंगी, वह रात भर बीत जाएगी, वेव्स कम नहीं होंगी। इसलिए जिस दिन आप चिंतित होते हैं, उस दिन सो नहीं पाते। उसका कोई कारण नहीं, अल्फा वेव्स कारण हैं। इतनी जोर से वेव्स चल रही हैं कि रात जब आप सोते हैं तब वेव्स थकती नहीं और उनकी गति चलती रहती है, कंपन चलता रहता है। इसलिए सो नहीं पाते। परीक्षा देने वाला विद्यार्थी, वह रात नहीं सो पाता। उसकी अल्फा वेव्स जोर से चल रही हैं। तो वह रात भर परीक्षा देता रहता है। सपने में देता रहता है, करवट बदलता रहता है, लेकिन उसकी अल्फा वेव्स जोर से चल रही हैं।
ये वेव्स को अब तो कम भी किया जा सकता है। जिसको आप ट्रेंक्वेलाइजर कहते हैं, वह अल्फा वेव्स को कम करता है और कुछ नहीं है। एक ट्रेंक्वेलाइजर की गोली आप रात में लेते हो, वह अल्फा वेव्स को क्षीण कर देती है, आप सो जाते हैं।
तो ये जो...उपाय तो हैं, उपाय तो सब हैं। लेकिन सभी उपाय सभी पर काम नहीं कर सकते। क्योंकि सभी की कैपेसिटी इतनी है। और अगर एक मस्तिष्क में जितना काम हो रहा है उससे ज्यादा काम करवा लिया जाए तो टूट भी सकता है, नुकसान भी हो सकता है। और, लेकिन फिर भी, हम सब अपने मस्तिष्क से जितना काम लेते हैं, वह बहुत कम है। पंद्रह परसेंट से ज्यादा नहीं है। कोई भी आदमी, बड़े से बड़े आदमी जो पृथ्वी पर पैदा हुए हैं, उन्होंनेे पंद्रह परसेंट से ज्यादा मस्तिष्क से काम अब तक नहीं लिया। चाहे आइंस्टीन हो, चाहे बुद्ध हो और चाहे कृष्ण हो। पंद्रह परसेंट से ज्यादा कैपेसिटी का अभी तक उपयोग ही नहीं किया। तब भी इतने बड़े लोग पैदा हो सके हैं।
अगर हंडरेड परसेंट कैपेसिटी का उपयोग किया जा सके तो हम तो बिलकुल सुपरमैन पैदा कर लेंगे। लेकिन शायद अभी आदमी का शरीर भी इस योग्य नहीं कि इससे ज्यादा कैपेसिटी का उपयोग हो, इससे ज्यादा कैपेसिटी का उपयोग हो सकता है उसे तोड़ जाए। अब संभव हो जाएगा, अब संभव हो जाएगा। क्योंकि आदमी के मन को हम बहुत से कामों से मुक्त कर सकते हैं। अभी हम फिजूल काम...उसको याद करवाने पड़ते हैं।
एक बच्चे को हम गणित सिखा रहे हैं; भाषा सिखा रहे हैं; न मालूम क्या-क्या सिखा रहे हैं। उसकी सारी अल्फा वेव्स इन चीजों से भर जाती है। बड़ा काम करने योग्य कुछ बचता नहीं उसके पास। युनिवर्सिटी से निकलते-निकलते, करीब-करीब वह जितना कर सकता था, अपनी वेव्स का उपयोग कर लेता है। फिर इसके बाद युनिवर्सिटी के बाद वह उपयोग करता ही नहीं कभी। अब यह संभव हो सकता है, क्योंकि कंप्यूटर के विकास से यह आसानी हो गई कि अब जो बेकार का काम है वह हम कंप्यूटर से ले लें। तो मस्तिष्क के पास बहुत शक्ति, बहुत विश्राम बचेगा। लेकिन अगर आप, आप उपयोग करना चाहें, तो कुछ विशेष ध्वनियों का उपयोग करके पढ़ने की गति को बढ़ाया जा सकता है। उसमें ओम बहुत सहयोगी है, ओम बहुत सहयोगी है। पर उसकी, उसकी विशेष रिदम और विशेष ढंग और विशेष परिस्थिति है उपयोग करने की।
जैसे कि तिब्बत में एक घंटा बनाया हुआ है उन लोगों ने। वह बड़ा अदभुत है। वह अल्फा वेव्स को बहुत बढ़ाता है। तिब्बतन जो घंटा होता हैः वह बर्तन की तरह गोल होता है, और उसको ऐसा ठोक कर नहीं बजाते, बर्तन के अंदर एक लकड़ी का डंडा डाल कर ऐसा गोल घुमा के बजाते हैं। वह खास धातुओं से बनाते हैं और खास व्यवस्था से। और जब उसको तीन बार घुमा कर चोट की जाती है, तो ओम मणि पद्मे हुम्, इसकी पूरी आवाज घंटा करता है। इसकी पूरी आवाज घंटा करता है। तो साधक बैठ जाएंगे कमरा बंद करके, और एक व्यक्ति निरंतर एक नियमित गति से ओम मणि पद्मे हुम्, उस घंटे में बजाता रहेगा। वे सारे लोग सिर्फ उसकी ध्वनि को एब्जार्ब करते रहेंगे। उससे उनके अल्फा वेव्स में बहुत अंतर पड़ता है, इसलिए तिब्बतन की जो स्मृति है वह आज पृथ्वी पर किसी की भी नहीं।
वह जो, वह स्मृति को बढ़ाने के लिए वे वेव्स बड़े काम की हैं। आप जो मंदिर में घंटा लटकाए हुए हैं वह भी कभी किसी मतलब से लटकाया गया था, लेकिन अब कोई मतलब का नहीं है वह। वह किसी मतलब से लटकाया गया था वहां कि वह दिन भर बजता रहे वहां। कोई भी आए उसे बजाता रहे, तो वह विशेष वेव्स पैदा करता है मंदिर में। और उन वेव्स में जब आप मंदिर में प्रवेश करते हैं तो आपकी अल्फा वेव्स बदल जाती हैं, और कोई कारण नहीं है। वे कोई भगवान सो रहे हैं उनको जगाने के लिए नहीं है घंटा। लेकिन घंटा आपने बजाया, सारा मंदिर एक वेव से भर गया। फिर आप उस वेव में प्रवेश किए तो आपकी, तो आपकी अल्फा में फर्क पड़ता है। पर उसके बजाने का सारा टेक्नीक है, सारी व्यवस्था है। और नहीं तो वह सिर्फ सिर दुखाने वाला है, और कुछ नहीं। तो इसकी मैं आपसे बात करूंगा, उसके कुछ उपाय हैं।

प्रश्नः ओशो, यह ध्यान के लिए संगीत का प्रयोग भी किया जा सकता है न?

किया जा सकता है, लेकिन खतरे भी हैं। अगर ध्यान के लिए संगीत का प्रयोग करें तो संगीत में लीन मत होना, नहीं तो फिर ध्यान में न जाकर बेहोशी में चले जाओगे। प्रयोग किया जा सकता है। संगीत सुनना, लीन मत होना, साक्षी होना। सितार बज रहा है तो साधारण हमारा मन होता है कि लीन हो जाओ, डोलने लगो सितार के साथ। अगर लीन हो गए तो ध्यान के लिए कोई फायदा नहीं होगा। विश्राम मिलेगा, रिलेक्सेशन मिलेगा, लेकिन लीन मत हो जाना। सितार बज रहा है, तुम सिर्फ विटनेस रहना। तुम डोलने मत लगना। तुम सिर्फ साक्षी रहना कि यह बज रहा है। यह ध्वनि आ रही है, तुम देखते रहना। तुम इन ध्वनियों के साथ आइडेंटिफाइड मत हो जाना। एक मत हो जाना। तो फायदा होगा। और अगर लीन हो गए तो नुकसान हो सकता है।
इसलिए मुसलमानों ने संगीत को इसलिए निषेध किया, क्योंकि उसमें लीन होने की संभावना ज्यादा है, बजाय साक्षी होने के। इसलिए उसको निषेध किया कि वह संगीत का उपयोग नहीं करेंगे। नहीं तो बाकी बहुत धर्मों ने संगीत का उपयोग किया, इस्लाम ने इंकार किया। क्योंकि उसमें नब्बे मौके लीन होने के हैं, दस मौके पर ही आदमी जाग सकता है। संगीत सुलाने वाली चीज है, जगाने वाली चीज कम है। लेकिन अगर जाग सको, और ऐसी चीज में जाग सको जो मूलतः सुलाने वाली है तो बड़े परिणाम होंगे। लेकिन वह प्रयोग का ध्यान रखना पड़ेगा। नहीं तो लीन हो जाना आसान होता है।

प्रश्नः ओशो, नैरोलीन को नोबल प्राइज मिला है, नैरो नोबल प्राइज। तो उसके लिए कहते हैं कि जब वह मुरली बजाता है तो आदमी समाधिस्थ हो जाता है।

समाधिस्थ नहीं हो जाता, लीन हो जाता है। क्योंकि नैैरोलीन बेचारा खुद अभी समाधि खोजता फिर रहा है। अभी तो वह योगियों के पास जाता है, जिसको, बजाने वाले को अभी समाधि न मिली हो तो उसको सुनने वाले को मिल जाए, जरा मुश्किल मामला है। लेकिन हां, समाधि एक भूल हो जाती है। वह लीनता को समाधि समझ लेता है। तुम लीन हो जाओगे, नैरोलीन बजाएगा तो वह अदभुत बजाने वाला है, अदभुत बजाने वाला है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अल्फा वेव्ज से संबंध है। अल्फा वेव्ज से संबंध है। अल्फा वेव्ज पर अंतर लाता है, कभी बढ़ा भी सकता है कोई नाम, घटा भी सकता है कोई नाम। तो वह एक-एक व्यक्ति को देखते ही दिया जा सकता है। इसलिए हर नाम हर एक के काम का नहीं है। हर नाम हर एक के काम का नहीं है। क्योंकि हो सकता है आपको, अल्फा वेव्ज कम करना ही आपके लिए उपयोगी हो। तो फिर दूसरी तरह का नाम उपयोग करना पड़े। दूसरे शब्द और ध्वनि उपयोग करनी पड़े। और बढ़ाना उपयोगी हो तो दूसरे उपयोग।
एक विद्यार्थी के लिए और तरह के अल्फा वेव्ज चाहिए, एक वृद्ध आदमी के लिए और तरह के चाहिए। अभी विद्यार्थी को याद करना है, बूढ़े को भूलना है। दोनों के अल्फा वेव्स अलग होने चाहिए। इसलिए नाम बिलकुल इंडिविजुअल दिया जा सकता है। कोई किताब से पढ़ कर नाम जपने से...उससे तो खतरा ही है। उससे तो ऐसे ही, जैसे किताब पढ़ कर कोई दवाई लेने लगे। दवाई बिलकुल इंडिविजुअल ट्रीटमेंट है। आपके लिए कोई दवाई होगी उस पूरी किताब में। लेकिन सब दवाइयां आपके लिए नहीं हैं। और कोई दवाई आपके लिए जहर हो सकती है। और इसलिए करीब-करीब ऐसा हो गया... हर आदमी राम-राम जप रहा है। खतरनाक है। किसी के लिए काम का हो सकता है, किसी के लिए खतरे का हो सकता है। किसी के लिए हरेकृष्ण उपयोगी हो सकता है, किसी के लिए बिलकुल उपयोगी न हो।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वह एक-एक व्यक्ति के लिए...क्योंकि उसके मस्तिष्क के लिए क्या जरूरी है, यह सवाल है बड़ा। हर चीज जरूरी नहीं है उसके लिए।

प्रश्नः गुरु से ही पता लगेगा।

हां, गुरु कहिए। मैं कहंूगा, एक्सपर्ट...

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