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सोमवार, 24 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-80

पूर्णता एवं शून्यता का एक ही अर्थ है-

प्रवचन-अस्सीवां 

प्रश्नसार:

1-यदि भीतर शून्य है तो इसे आत्मा क्यों कहते है?
2-बुद्ध पुरूष निर्णय कैसे लेता है?
3-संत लोग शांत जगहों पर क्यों रहते है?
4-आप कैसे जानते है कि चेतना शाश्वत है?
5-मेरे बुद्धत्व से संसार में क्या फर्क पड़ेगा?    

पहला प्रश्न :
आपने कहा कै हमारे भीतर वास्तव में कोई भी नहीं है। बस एक शून्य है? एक रिक्तता
है। परंतु फिर आप इसे प्राय: आत्मा अथवा केंद्र कह कर क्यों पुकारते हैं?

या अनात्मा, ना-कुछ या सब कुछ, विरोधाभासी लगते हैं, पर दोनों का एक ही अर्थ है। पूर्ण और शून्य का एक ही अर्थ है। शब्दकोश में वे विपरीत हैं पर जीवन में नहीं। इसे इस तरह समझो : यदि मैं कहूं कि मैं सबको प्रेम करता हूं या मैं कहूं कि मैं किसी को भी प्रेम नहीं करता तो इसका एक ही अर्थ होगा। यदि मैं किसी एक व्यक्ति को ही प्रेम करूं तभी अंतर पड़ेगा। यदि मैं सबको प्रेम करूं तो वह किसी को भी प्रेम न करने जैसा ही है। फिर कोई अंतर नहीं है। अंतर सदा मात्रा में होता है,
सापेक्ष होता है। और ये दोनों ही दो अतियों हैं, उनमें कोई मात्रा नहीं है। पूर्ण और शून्य की कोई मात्रा नहीं होती। इसलिए तुम पूर्ण को शून्य और शून्य को पूर्ण कह सकते हो।

इसीलिए तो कुछ बुद्ध पुरुषों ने अंतर-आकाश को शून्य कहा है, अनात्मा कहा है; और कुछ ने उसे ब्रह्म कहा है, आत्मा कहा है। यह उसे अभिव्यक्त करने के दो ढंग हैं। एक विधायक ढंग है, दूसरा नकारात्मक ढंग है। या तो तुम्हें सब सम्मिलित कर लेना है या सब हटा देना है; तुम किसी सापेक्ष रूप में उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते। एक आत्यंतिक अभिव्यक्ति चाहिए। दोनों विपरीत ध्रुव आत्यंतिक हैं।
लेकिन ऐसे भी प्रज्ञा पुरुष हुए हैं जो मौन ही रह गए हैं। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि तुम जो भी कहो-चाहे आत्मा कहो, चाहे अनात्मा कहो-जिस क्षण तुम उसे एक नाम देते हो, एक शब्द देते हो, उस समय तुम गलती कर रहे हो क्योंकि उसमें तो दोनों ही समाहित हैं।
उदाहरण के लिए यदि तुम कहो कि 'परमात्मा जीवंत है' या 'परमात्मा जीवन है' तो उसका कोई अर्थ नहीं होगा, क्योंकि फिर मृत्यु कौन है? उसमें सब कुछ समाहित है। उसमें मृत्यु भी उतनी ही परिपूर्ण होगी जितना कि जीवन है। अन्यथा मृत्यु किसकी होगी? और यदि मृत्यु किसी और की है और जीवन परमात्मा का है। तो फिर तो दो परमात्मा हो गए। और फिर  ऐसी-ऐसी समस्याएं खड़ी होंगी जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता।’
परमात्मा जीवन और मृत्यु दोनों ही होना चाहिए। परमात्मा स्त्रष्टा और संहारक दोनों ही होना चाहिए। यदि तुम कहो कि परमात्मा स्त्रष्टा है। तो फिर संहारक कौन है? यदि तुम कहो
कि परमात्मा अच्छा है, तो फिर बुरा कौन है? इसी कठिनाई के कारण ईसाइयों, पारसियों और अन्य कई धर्मों ने परमात्मा के साथ-साथ एक शैतान का निर्माण भी कर लिया है, नहीं तो बुराई किसकी होगी? उन्होंने शैतान का निर्माण कर लिया है।
लेकिन इससे कुछ हल नहीं हुआ, बस समस्या को जरा पीछे धकेल दिया गया। क्योंकि यह भी पूछा जा सकता है, 'शैतान को किसने बनाया?' अगर परमात्मा ने शैतान को बनाया है तो फिर उसी की जिम्मेवारी है। और शैतान यदि स्वतंत्र है परमात्मा से उसका कुछ लेना-देना नहीं है तो फिर वह भी एक परमात्मा हो गया, परम-शक्ति बन गया। और अगर परमात्मा ने शैतान को बनाया ही नहीं है तो उसे नष्ट कैसे कर सकता है? असंभव है फिर। दार्शनिक इस प्रश्न के कुछ उत्तर देते हैं, परंतु वे उत्तर और प्रश्न खड़े कर देते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि परमात्मा ने आदम को बनाया, और फिर वह बुरा हो गया। उसे बाहर निकाल दिया गया। उसने परमात्मा की अवज्ञा की और उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया।
यह बार-बार पूछा जाता रहा है कि आदम बुरा क्यों हो गया? उसकी संभावना परमात्मा ने ही उसमें निर्मित की होगी; बुरा होने की, गुमराह होने की, अवज्ञा करने की संभावना उसी ने
निर्मित की होगी। यदि कोई संभावना ही नहीं थी, कोई अंतर्निहित प्रवृत्ति ही नहीं थी तो फिर आदम कैसे गुमराह हुआ? परमात्मा ने ही वह प्रवृत्ति पैदा की होगी। और यदि बुराई की प्रवृत्ति
उसमें थी तो एक बात निश्चित है कि उससे बाहर आने की, उससे संघर्ष करने की प्रवृत्ति इतनी
प्रबल नहीं थी, बुराई की प्रवृत्ति अधिक प्रबल थी। किसने यह प्रबलता पैदा की? परमात्मा के
अतिरिक्त और कोई भी जिम्मेवार नहीं हो सकता।
फिर तो पूरी बात ही नासमझी की लगती है। परमात्मा आदम को बनाता है, उसमें बुराई की प्रवृत्ति पैदा करता है जिसे वह नियंत्रित नहीं कर सकता; फिर वह भटक जाता है; फिर उसे सजा मिलती है। सजा परमात्मा को मिलनी चाहिए, आदम को नहीं! या तुम्हें यह स्वीकार करना होगा कि परमात्मा के साथ-साथ कोई दूसरी शक्ति भी है। और फिर दूसरी शक्ति परमात्मा से अधिक प्रबल होनी चाहिए, क्योंकि बुराई आदम को लुभा सकती है और परमात्मा उसे नहीं बचा सकता! शैतान उसे भटका सकता है, वश में कर सकता है, और परमात्मा उसकी रक्षा नहीं कर सकता! शैतान परमात्मा से अधिक बलशाली मालूम होता है।
अमेरिका में अभी हाल ही में एक नया चर्च बना है जिसे शैतान का चर्च कहते हैं। जैसे वेटिकन में पोप है, वैसे ही उनका भी प्रमुख पादरी है। और वे कहते हैं कि इतिहास सिद्ध करता है कि शैतान ही असली परमात्मा है। और उनकी बात जंचती है। वे कहते हैं, 'तुम्हारे परमात्मा, भलाई के परमात्मा की सदा हार हुई है और शैतान सदा विजयी हुआ है। इतिहास इसे प्रमाणित करता है। तो ऐसे कमजोर परमात्मा की पूजा क्यों करते हो जो तुम्हारी रक्षा भी नहीं कर सकता? इससे तो बेहतर है कि अधिक बलशाली परमात्मा की पूजा करो जो तुम्हें वश में कर सकता है लेकिन तुम्हारी रक्षा भी कर सकता है, क्योंकि अधिक बलशाली है।’ शैतान के चर्च को मानने वालों की संख्या अब बढ़ रही है। और वे तर्कसंगत लगते हैं, इतिहास यही कहता
परमात्मा के नकारात्मक अंश के अस्वीकार के कारण यह द्वैत की समस्या खड़ी हुई है। भारत में हमने दूसरे ध्रुव का निर्माण ही नहीं किया। हम कहते हैं कि परमात्मा दोनों है-सृष्टा भी, संहारक भी, भला भी और बुरा भी। इसे सोच पाना भी कठिन है क्योंकि जब हम कहते हैं 'परमात्मा' तो हम उसके बुरे होने की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन भारत में हमने अस्तित्व के गहनतम रहस्य में प्रवेश करने का प्रयास किया है, वह है अद्वैत। कैसे भी हो, भलाई और बुराई, जीवन और मृत्यु, विधायक और निषेधात्मक कहीं न कहीं मिलते हैं। और वह मिलन-स्थल ही अस्तित्व है अद्वैत है।
तुम उस मिलन-स्थल को क्या कहोगे? या तो तुम विधायक भाषा प्रयोग करोगे या नकारात्मक क्योंकि और कोई भाषा हमारे पास है ही नहीं। यदि तुम विधायक भाषा प्रयोग करो तो उसे आत्मा कहोगे परमात्मा कहोगे, ब्रह्म कहोगे। और यदि नकारात्मक भाषा उपयोग करते हो तो निर्वाण शून्य, अनात्मा कहोगे। दोनों में से कुछ भी कह सकते हो, दोनों का एक ही अर्थ है। वह दोनों है और तुम्हारी आत्मा भी दोनों है। कभी मैं उसे आत्मा कह देता हूं कभी शून्य। यदि विधायक तुम्हें अच्छा लगता है तो आत्मा कहो। यदि नकार अच्छा लगता है तो अनात्मा कह लो। तुम पर निर्भर करता है। जो भी तुम्हें अच्छा लगे, जो भी तुम्हें परिपक्वता दे तुम्हारा विकास करे उसी नाम से पुकारो।
दो तरह के लोग हैं : एक वे जो नकारात्मक के साथ किसी तरह की निकटता अनुभव नहीं कर सकते और दूसरे वे जो विधायक के साथ कोई लगाव नहीं रख सकते। बुद्ध निषेधात्मक प्रकृति के हैं उन्हें विधायक के साथ कोई तालमेल अनुभव नहीं होता निषेधात्मक ही उन्हें जंचता है। वह निषेधात्मक भाषा का उपयोग करते हैं। शंकर का निषेधात्मक से कोई लगाव नहीं बनता। वह परम सत्य की चर्चा विधायक भाषा में करते हैं। दोनों एक ही बात कहते हैं। बुद्ध उसे शून्य कहते हैं और शंकर उसे ब्रह्म कहते हैं। लेकिन वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं।
शंकर के सबसे बड़े आलोचक रामानुज ने कहा है कि शंकर एक प्रच्छन्न बौद्ध हैं। वे हिंदू नहीं हैं, बस दिखाई पड़ते हैं क्योंकि विधायक भाषा का उपयोग करते है। जहा लुद्ध कहते हैं शून्य, वे कहते हैं ब्रह्म, बाकी सब वही है। रामानुज ने कहा है कि शंकर ने हिंदू धर्म को बड़ी हानि पहुंचायी है क्योंकि जरा सी तरकीब से वह बौद्ध धर्म को पीछे के दरवाजे से अंदर ले आए हैं। बस जहां भी निषेधात्मक भाषा का प्रयोग हुआ है वहां उन्होंने विधायक भाषा उपयोग कर ली है। रामानुज ने उन्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा है। और एक तरह से यह सही भी है क्योंकि अंतर तो कुछ भी नहीं है, संदेश एक ही है।
तो यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम्हें मौन के साथ, शून्य के साथ निकटता अनुभव होती है तो आत्मा को शून्य कह लो; और अगर उससे सामीप्य नहीं बनता, भय लगता है, तो शून्य को आत्मा कह लो। लेकिन तब तुम्हारी विधियां भिन्न होंगी। यदि तुम्हें रिक्तता से, एकांत से, शून्य से भय लगता है तो जिन चार विधियों की बात मैंने कल रात की, वे तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी न होंगी, उन्हें भूल जाओ। और भी विधियां हैं जिनकी मैंने चर्चा की है। फिर तुम विधायक विधियों का उपयोग करो। लेकिन यदि तुम तैयार हो और तुममें साहस है आधारहीन होने का, शून्य में अकेले प्रवेश करने का, बिलकुल मिट जाने का, तो ये चार विधियां तुम्हारे लिए बहुत सहयोगी होंगी। यह तुम पर निर्भर करता।

दूसरा प्रश्न :
यदि एक बुद्ध पुरुष के भीतर परिपूर्ण शून्यता ही है तो ऐसा कैसे प्रतीत होता है कि वह
निर्णय ले रहा है, चुनाव कर रहा है, पसंद-नापसंद का भेद कर रहा है, हां या न कह
रहा है?

यह विरोधाभासी लगेगा। एक बुद्ध पुरुष यदि मात्र शून्यता ही है तो बात हमारे लिए विरोधाभासी हो जाती है। फिर वह ही या न कैसे कहता है? फिर वह चुनाव कैसे करता है? फिर वह किसी चीज को पसंद और किसी चीज को नापसंद कैसे करता है? वह बोलता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह कैसे जीवित है?
हमारे लिए यह कठिनाई है; लेकिन बुद्ध पुरुष के लिए कोई कठिनाई नहीं है, सब कुछ शून्यता से होता है, बुद्ध पुरुष चुनाव नहीं करता। हमें यह चुनाव लगता है, लेकिन बुद्ध पुरुष बस सीधे एक दिशा में चलता है। वह दिशा शून्य से ही उठती है।
यह ऐसे ही है जैसे तुम टहल रहे हो, और अचानक तुम्हारे सामने एक कार आ जाती है और तुम्हें लगता है कि दुर्घटना हो जाएगी। तुम फिर निर्णय नहीं लेते कि क्या करना है। क्या तुम निर्णय लेते हो? निर्णय तुम कैसे ले सकते हो? तुम्हारे पास समय ही नहीं है। निर्णय लेने में समय लगता है। तुम्हें सोच-विचार करना पड़ेगा, नापना-तौलना पड़ेगा, कि इस तरफ कूदना है या उस तरफ। नहीं, तुम निर्णय नहीं लेते, बस छलांग लगा देते हो। यह छलांग कहा से आती है? तुम्हारे और छलांग के बीच कोई विचार प्रक्रिया नहीं है। बस अचानक तुम्हें पता चलता है कि कार तुम्हारे सामने है और तुम छलांग लगा देते हो। छलांग पहले लगती है सोचते तुम बाद में हो, उस क्षण तुम उसी शून्यता से कूद पड़ते हो। तुम्हारा पूरा अस्तित्व बिना निर्णय के छलांग लगा देता है।
याद रखो, निर्णय सदा अंश का ही हो सकता है, पूर्ण का नहीं। निर्णय का अर्थ है कि कोई द्वंद्व था, तुम्हारा एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा करो' और एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा मत करो' इसीलिए निर्णय की जरूरत पड़ी। तुम्हें निर्णय करना पड़ा, तर्क-वितर्क करना पड़ा और एक हिस्से को दबाना पड़ा। निर्णय का यही अर्थ होता है। जब तुम्हारी पूर्णता प्रकट होती है तो निर्णय की जरूरत नहीं होती, कोई और विकल्प ही नहीं होता।
एक बुद्ध पुरुष स्वयं में पूर्ण होता है, पूर्णतया शून्य होता है। तो जो भी होता है उस पूर्णता से आता है, किसी निर्णय से नहीं। यदि वह ही कहता है तो वह कोई उसका चुनाव नहीं है : उसके सामने 'न' कहने का कोई विकल्प ही नहीं था।’हा' उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है। यदि वह 'न' कहता है तो 'न' उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है। यही कारण है कि बुद्ध पुरुष कभी पश्चात्ताप नहीं कर सकता।
तुम सदा पश्चात्ताप करोगे। तुम जो भी करो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम 'जो भी करो, पछताओगे। तुम किसी स्त्री से विवाह करना चाहते हो, यदि 'ही' का निर्णय लोगे तो पछताओगे और 'न' का निर्णय लोगे तो भी पछताओगे। क्योंकि तुम जो भी निर्णय लेते हो वह आशिक निर्णय है, दूसरा हिस्सा सदा ही उसके विरुद्ध रहता है। यदि तुम निर्णय लो कि 'ही मैं इस स्त्री से विवाह करूंगा।’ तो तुम्हारा एक हिस्सा कहेगा, 'अरे ऐसा मत करो पछताओगे।’ तुम पूरे नहीं हो।
जब कठिनाइयां आती हैं... और कठिनाइयां तो आएंगी ही क्योंकि दो बिलकुल भिन्न लोग एक साथ रहने लगे। झगड़े होंगे मालकियत का संघर्ष चलेगा, राजनीति चलेगी, तब तुम्हारा दूसरा हिस्सा कहेगा, 'देखा! मैंने क्या कहा था? मैं बार-बार कह रहा था कि ऐसा मत करो और तुम करके बैठ गए।’ और ऐसा नहीं है कि अगर तुमने दूसरे हिस्से की मानी होती तो तुम न पछताते। नहीं! पश्चात्ताप तो होता ही, क्योंकि तब तुमने किसी और स्त्री से विवाह किया होता और उससे झगड़ा-फसाद हुआ होता। तब दूसरा हिस्सा कहता, 'मैं तो पहले ही कह रहा था कि पहले वाली स्त्री से विवाह कर लो। तुम मौका चूक गए। एक स्वर्ग हाथ से निकल गया और नर्क से तुमने शादी कर ली।’
चाहे कुछ भी हो, तुम पछताओगे क्योंकि तुम्हारा निर्णय कभी पूर्ण नहीं होता। सदा
एक अंश के विपरीत निर्णय होता है, वह अंश बदला लेगा। तो तुम चाहे जो भी निर्णय लो
अच्छा करो तो पछताओगे और बुरा करो तो पछताओगे। अगर तुम अच्छा करोगे तो तुम्हारे
मन का एक हिस्सा सोचेगा कि एक मौका हाथ से निकल गया। -बुरा करोगे तो ग्लानि से भर
जाओगे।
बुद्ध पुरुष कभी नहीं पछताता। सच में तो वह कभी पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं। पीछे देखने को कुछ है ही नहीं। जो भी होता है उसकी समग्रता से होता है। तो पहली बात समझने की यह है कि वह कभी चुनाव नहीं करता। चुनाव उसके शून्य में घटता है; वह कभी निर्णय नहीं करता। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अनिर्णय में होता है। वह पूर्णत: निश्चित होता है लेकिन कभी निर्णय नहीं करता। मुझे समझने की कोशिश करो। निर्णय उसके शून्य में घटित होता है। यही उसके पूरे प्राणों की आवाज है। वहां और कोई स्वर नहीं होता।
यदि तुम कहीं जा रहे हो और तुम्हारे रास्ते में सांप आ जाता है तो तुम अचानक छलांग लगाकर हट जाते हो बस इतना ही। तुम कोई निर्णय नहीं लेते। तुम किसी गुरु से सलाह नहीं लेते। तुम लाइब्रेरी में किताबें देखने नहीं जाते कि जब रास्ते में कोई सांप आ जाए तो क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, क्या विधि है। तुम बस छलांग लगा देते हो। और याद रखो कि वह छलांग तुम्हारे पूरे अस्तित्व से आ रही है यह कोई निर्णय नहीं है। तुम्हारे समग्र अस्तित्व ने ऐसा किया है। बस इतना ही है, इससे रत्तीभर भी अधिक नहीं है।
तुम्हें ऐसा लगता है कि बुद्ध पुरुष चुनाव कर रहा है, निर्णय ले रहा है, क्योंकि तुम हर क्षण यही कर रहे हो। और जिस बात का तुम्हें पता ही न हो वह तुम समझ नहीं सकते। एक बुद्ध पुरुष बिना निर्णय के, बिना प्रयास के, बिना चुनाव के सब कुछ करता है वह चुनाव-रहित जीता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम उसे भोजन और पत्थर दो तो वह पत्थर खाने लगेगा। वह भोजन ही खाएगा। तुम्हें ऐसा लगेगा जैसे उसने निर्णय लिया है कि वह पत्थर नहीं खाका, परंतु उसने कोई निर्णय नहीं लिया है। यह तो मूर्खता की बात है।
उसे ऐसा भाव ही नहीं हुआ। वह भोजन ले लेता है। यह कोई निर्णय नहीं है। कोई मूढ़ ही निर्णय करेगा कि भोजन खाना है या पत्थर। मूढ़-मन निर्णय करते है; बुद्ध मन बस कृत्य करते हैं। और जो मन जितना ही मूढ़ होगा उसे निर्णय करने में उतनी ही मुश्किल होगी। चिंता का यही अर्थ है।
चिंता क्या है? दो विकल्प हैं और दोनों के बीच चुनाव का कोई उपाय नहीं है, और मन कभी इधर जाता है, कभी उधर जाता है-यही चिंता है। चिंता का अर्थ है कि तुम्हें चुनाव करना है और निर्णय लेना है, पर ले नहीं पा रहे। तो तुम चिंतित हो, परेशान हो, दुम्बक्र में पड़े हो। बुद्ध पुरुष कभी चिंतित नहीं होता, वह अखंड होता है। इसे समझने की कोशिश करो। वह बंटा हुआ नहीं है। वह विभाजित नहीं है, वह खंडित व्यक्तित्व नहीं है। लेकिन तुम तो एक भीड़ हो; न केवल दो बल्कि बहुत सारे लोग तुममें रह रहे हैं, बहुत सारी आवाजें हैं, पूरी एक भीड़ है। बुद्ध पुरुष एक अखंड इकाई है, वह एक है, यूनिवर्स है। तुम अनेक हो, मल्टीवर्स हो।
दूसरी बात समझने की यह है कि तुम जो भी करते हो उसे करने से पहले तुम सोचते-विचारते हो। बुद्ध पुरुष जो भी करता है उसके लिए कोई सोच-विचार नहीं करता। बस वह सहज करता है।
याद रखो, सोचने की जरूरत इसीलिए पड़ती है क्योंकि तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें नहीं हैं। सोचना एक विकल्प है। यह ऐसे ही है जैसे कोई अंधा आदमी लकड़ी से अपना रास्ता टटोल रहा हो। अंधा आदमी आँख  वालों से पूछेगा कि वे कैसे अपना रास्ता टटोलते हैं, कैसी लकड़ियों का उपयोग करते हैं। और आंख वाले तो हंसने लगेंगे वे कहेंगे कि उन्हें लकड़ियों की जरूरत ही नहीं है उनके पास आंखें हैं। उन्हें पता है कि दरवाजा कहां है, उसके लिए टटोलने की जरूरत ही नहीं है। और वे कभी इस बारे में सोचते ही नहीं कि दरवाजा कहा है। उन्हें दिखाई पड़ता है और वे दरवाजे से निकल जाते हैं।
लेकिन अंधे को तो भरोसा ही नहीं आ सकता कि दरवाजों में से सीधे-सीधे भी निकला जा सकता है। पहले तुम्हें सोचना पड़ेगा कि दरवाजा कहां है। पहले तुम्हें पता करना पड़ेगा। कोई हो तो तुम्हें उससे पूछना पड़ेगा कि दरवाजा कहा है। और तुम्हें दिशा भी बता दी जाए तो भी अपनी लकड़ी से टटोलना पड़ेगा, और फिर भी कई गहुए आ सकते हैं। लेकिन अगर तुम्हारे पास आंखें हैं तो बाहर जाने के लिए बस तुम्हें देखना पड़ता है-तुम सोचते नहीं कि दरवाजा कहां है तुम निर्णय नहीं लेते। तुम बस देखते हो कि वह रहा दरवाजा और उसमें से निकल जाते हो। तुम यह नहीं सोचते कि यह दरवाजा है। तुम बस उसका उपयोग करते हो।
अज्ञानी मन और ज्ञानी मन के साथ भी यही स्थिति है। ज्ञानी मन बस देखता है। सब कुछ स्पष्ट है। उसके पास एक स्पष्टता है। उसका पूरा अस्तित्व ही प्रकाश है। वह बस देखता
है और कृत्य करता है, कभी सोचता नहीं। तुम्हें सोचना पड़ता है क्योंकि तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं। केवल अंधे सोचते हैं। उन्हें सोचना पड़ता है क्योंकि उनके पास आंखें नहीं हैं। उन्हें वैकल्पिक आंखों की जरूरत है, जो सोचने से आती हैं।
मैं कभी नहीं कहता कि बुद्ध या महावीर या जीसस महान विचारक हैं। वह कहना नासमझी होगी। वे बिलकुल भी विचारक नहीं हैं। वे द्रष्टा हैं, विचारक नहीं। उनके पास आंखें हैं, वे देख सकते हैं और उस देखने से कृत्य कर सकते हैं। एक बुद्ध से जो निकलता है वह उनके शून्य से निकलता है, विचारों भरे मन से नहीं। वह शून्य आकाश से निकलता है। वह शून्य का ही प्रतिवेदन है।
हमारे लिए यह कठिन है क्योंकि हमें तो ऐसा कुछ भी नहीं होता। हमें सोचना पड़ता है। यदि हमसे कोई प्रश्न पूछे तो हमें उसके बारे में सोचना पड़ता है, और फिर भी तुम्हें पक्का नहीं होता कि तुम जो कह रहे हो वही उत्तर है। एक बुद्ध सीधे उत्तर देता है; वह सोचता नहीं। तुम उससे प्रश्न पूछते हो, और उसका शून्य प्रतिसंवेदित होता है। वह प्रतिसंवेदन कोई सोच-विचार नहीं है, वह एक समग्र प्रतिसंवेदन है। उसका पूरा अस्तित्व उसमें होता है।
इसीलिए तो तुम किसी बुद्ध से संगति की, कसिस्टेंसी की माग नहीं कर सकते। विचारक कसिस्टेंट हो सकते हैं-विचारक को कसिस्टेंट होना ही पड़ता है-लेकिन बुद्ध पुरुष कभी कसिस्टेंट नहीं हो सकता, क्योंकि हर क्षण परिस्थिति बदल जाती है। और हर क्षण उसके शून्य से ही कुछ घटित होता है। उसे यह भी पता नहीं होता कि कल उसने क्या कहा था। हर प्रश्न एक नया उत्तर पैदा कर देता है। यह प्रश्नकर्ता पर निर्भर करता है।
बुद्ध एक गांव में आते हैं। एक आदमी पूछता है, 'क्या परमात्मा है?' बुद्ध कहते हैं 'नहीं।’ दोपहर को दूसरा आदमी आता है और पूछता है, 'क्या परमात्मा है?' बुद्ध कहते हैं, 'हा।’ फिर शाम को एक तीसरा आदमी पूछता है, 'क्या परमात्मा है?' और बुद्ध मौन रहते हैं।
एक ही दिन में : सुबह में नहीं; दोपहर को हा; शाम को मौन-न ही, न ना। बुद्ध का शिष्य, आनंद, बहुत परेशान हुआ। उसने तीनों उत्तर सुने थे। रात जब सब सो गए तो उसने बुद्ध से पूछा, 'क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूं? एक ही दिन में आपने एक ही प्रश्न का तीन तरह से उत्तर दिया, और वह भी न केवल अलग-अलग ढंग से बल्कि बिलकुल विपरीत। मेरा मन हैरान है। यदि आप मुझे उत्तर नहीं देंगे तो मैं सो नहीं पाऊंगा। आपका अभिप्राय क्या है? सुबह आप ही कहते हैं, दोपहर को नहीं कहते हैं शाम को मौन रह जाते हैं। और प्रश्न एक ही था।’
बुद्ध ने कहा, 'लेकिन प्रश्नकर्ता तो अलग थे। और अलग-अलग प्रश्नकर्ता एक ही प्रश्न कैसे पूछ सकते हैं?' यह सचमुच बड़ी गहरी और सुंदर बात है। उन्होंने कहा 'अलग-अलग प्रश्नकर्ता एक ही प्रश्न कैसे पूछ सकते हैं? प्रश्न एक जीवंत अस्तित्व से उठता है, वह उसका विकास है। यदि अस्तित्व ही भिन्न हो तो प्रश्न वही कैसे हो सकता है? सुबह जब मैंने कहा हा तो जो आदमी पूछ रहा था वह नास्तिक था। वह मुझसे पुष्टि करवाने आया था कि परमात्मा नहीं है। और मैं उसकी नास्तिकता की पुष्टि नहीं कर सकता था, क्योंकि वह उसके कारण ही कष्ट में था। और मैं उसके कष्ट का हिस्सा नहीं बन सकता था, मैं उसकी मदद करना चाहता था। इसीलिए मैंने कहा कि ही, परमात्मा है। इस तरह मैंने उसकी तथाकथित नास्तिकता को नष्ट करने का प्रयास किया। दोपहर को जो दूसरा आदमी आया, वह आस्तिक था और अपनी आस्तिकता के कारण कष्ट में था। मैं उसे ही नहीं कह सकता था क्योंकि वह उसके लिए प्रमाण बन जाता-उसी के लिए वह आया था। तब वह जाता और कहता कि ही, जो मैं कहता था वही ठीक था। बुद्ध भी ऐसा ही कहते हैं। और वह आदमी गलत था। मैं किसी भ्रांत आदमी की भ्रांति में सहयोग नहीं दे सकता। तो मुझे उसके मन को तोड़ने और नष्ट करने के लिए न कहना पड़ा। और शाम को जो आदमी आया था वह दोनों में से कुछ भी नहीं था। वह साधा-सादा आदमी था किसी बात के लिए मेरा समर्थन लेने नहीं आया था। उसकी कोई विचारधारा नहीं थी; वह वास्तव में धार्मिक आदमी था। तो मुझे मौन रहना पड़ा। मैंने उसे कहा, इस प्रश्न के बारे में मौन रह जाओ, इसके बारे में सोचो मत।
यदि मैंने ही कहा होता तो गलत होता क्योंकि वह कोई धारणा खोजने नहीं आया था। यदि मैंने न कहा होता तो गलत होता, क्योंकि वह कोई अपनी नास्तिकता मनवाने नहीं आया था। वह विचारों में, धारणाओं में, व्याख्याओं में उत्सुक नहीं था; वह वास्तव में एक धार्मिक आदमी था। उसके सामने मैं एक शब्द भी कैसे बोल सकता था? मुझे मौन रहना पड़ा। और उसने मेरे मौन को समझा। जब वह वापस गया तो उसकी धार्मिकता और गहरी हो चुकी थी।’
बुद्ध ने कहा, 'तीन आदमी एक ही बात नहीं पूछ सकते। उनके शब्द वही हो सकते हैं, यह दूसरी बात है। प्रश्न यही थे, क्या परमात्मा है? उनकी संरचना एक ही थी। लेकिन जिस अस्तित्व से प्रश्न उठ रहा था वह बिलकुल अलग था। तो उनके अलग-अलग मतलब थे; उनके मूल्य अलग थे; शब्दों के साथ उनके अर्थ अलग थे।’
मुझे याद आता है, एक शाम मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर लौटा। सारा दिन वह एक
फुटबाल मैच में लगा रहा था। वह फुटबाल का बड़ा शौकीन था। शाम जब वह घर में घुसा
उसकी पत्नी अखबार पढ़ रही थी। वह बोली, 'देखो नसरुद्दीन, तुम्हारे लिए एक खबर है।
इसमें लिखा है कि एक आदमी ने फुटबाल मैच का सीजन टिकट खरीदने के लिए अपनी पत्नी
बेच डाली। तुम भी फुटबाल के बड़े शौकीन हो, पर मैं यह सोच भी नहीं सकती कि तुम भी
ऐसा कर सकते हो, या कि कर सकते हो? क्या तुम भी मुझे फुटबाल मैच के एक सीजन
टिकट के बदले में बेच सकते थे?'
नसरुद्दीन ने गंभीरता से सोचा और फिर बोला, 'निश्चित ही मैं ऐसा न करता, क्योंकि यह तो हद हो गई, यह तो अपराध है। सीजन तो आधा समाप्त भी हो चुका।’
हर मन के अपने स्रोत हैं। हो सकता है तुम उन्हीं शब्दों का प्रयोग करो, पर तुम भिन्न हो इसलिए उनके अर्थ भी भिन्न होंगे।
फिर बुद्ध ने एक और बात कही और वह और भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, 'आनंद, तू क्यों परेशान है? तेरा तो कोई लेना-देना ही नहीं था। तुझे तो सुनना ही नहीं चाहिए क्योंकि एक भी उत्तर तुझे नहीं दिया गया था। तुझे तो निष्पक्ष बने रहना चाहिए, नहीं तो तू पागल हो जाएगा। मेरे साथ मत घूम क्योंकि मैं तो बहुत तरह के लोगों से मिलूंगा। और जो भी मैं कहता हूं अगर तू वह सब सुनता है तो तू पागल हो जाएगा। तू मुझे छोड़ दे। या फिर याद रख कि मुझे तभी सुन जब मैं तुझसे कुछ कहूं अन्यथा कुछ मत सुन। जो मैं कह रहा हूं उससे तेरा कोई मतलब नहीं है। न यह तुझे कहा गया था, न यह तेरा प्रश्न था। तो तू क्यों चिंता करता
है? तेरा कोई संबंध ही न था। किसी ने पूछा, किसी और ने उत्तर दे दिया। तू बेकार में इसकी चिंता क्यों करता है? यदि तेरे पास भी वही प्रश्न है तो तू पूछ और मैं उत्तर दे दूंगा। लेकिन याद रख, मेरे उत्तर प्रश्नों के नहीं, प्रश्नकर्ताओं के लिए होते हैं। मैं प्रतिवेदित होता हूं। मैं उस व्यक्ति को देखता हूं, उसके पार देखता हूं, वह पारदर्शी हो जाता है, और वही मेरा प्रतिसंवेदन है। प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है; प्रश्नकर्ता ही महत्वपूर्ण है।'
तुम किसी बुद्ध पुरुष से संगति की मांग नहीं कर सकते। केवल अज्ञानी लोग ही संगत
हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें देखना नहीं होता, वे बस कुछ धारणाओं का पालन करते रहते हैं। वे
मृत धारणाओं को एक तरह से ढोते रहते हैं। सारा जीवन वे उसे ढोते रहेंगे और उसके प्रति
संगत बने रहेंगे। वे मूर्ख हैं इसीलिए वे संगत रह सकते हैं। वे जीवित नहीं हैं, मुर्दा हैं।
जीवंतता कभी एक जैसी नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह गलत है, जीवंतता में
भी एक संगति होती है, परंतु बहुत गहरे में, सतह पर नहीं।
बुद्ध तीनों उत्तरों में संगत हैं, लेकिन उनकी संगति उत्तरों में नहीं है। उनकी संगति सहायता के प्रयास में है, वह पहले आदमी की भी सहायता करना चाहते थे, दूसरे आदमी की भी सहायता करना चाहते थे और तीसरे आदमी की भी सहायता करना चाहते थे। तीनों के लिए ही करुणा थी, प्रेम था। वह उनकी सहायता करना चाहते थे यह उनकी संगति थी। लेकिन यह बड़ी गहन धारा है। उनके शब्द भिन्न हैं, उनके उत्तर भिन्न हैं पर उनकी करुणा वही है।
तो जब एक बुद्ध पुरुष बोलता है, उत्तर देता है, तो वह उत्तर उसके शून्य का, उसके अस्तित्व का समग्र प्रतिसंवेदन होता है। वह तुम्हें प्रतिध्वनित करता है, तुम्हें प्रतिबिंबित करता है, वह एक दर्पण है। उसका अपना कोई चेहरा नहीं है। तुम्हारा चेहरा उसके हृदय में
प्रतिबिंबित हो जाता है।
तो अगर कोई मूर्ख बुद्ध से मिलने आता है तो वह मूर्ख से मिलेगा-बुद्ध तो दर्पण मात्र हैं-और वह आदमी जाकर अफवाह फैला देगा कि बुद्ध तो मूर्ख हैं। उसने स्वयं को बुद्ध में देख लिया। यदि कोई संवेदनशील, समझदार, परिपक्व, प्रौढ़ व्यक्ति आता है तो वह बुद्ध में कुछ और देख लेगा-वह अपना चेहरा देखेगा। और कोई उपाय भी नहीं है। जो लोग पूर्णत: शून्य हैं उनमें तुम दर्पण देख लेते हो। फिर तुम जो भी साथ ले जाओ वह तुम्हारी ही व्याख्या है।
पुराने शास्त्रों में कहा गया है कि जब तुम किसी बुद्ध पुरुष के पास जाओ तो बिलकुल मौन रहो। सोचो मत, वरना तुम उससे मिलने का अवसर चूक जाओगे। बस मौन रहो। सोचो मत। उसे पचाओ। लेकिन उसे मस्तिष्क से समझने की कोशिश मत करो। पचाओ उसे पीओ उसे, अपने पूरे अस्तित्व को उसके प्रति खुलने दो, उसे अपने भीतर जाने दो, लेकिन उसके बारे में सोचो मत, क्योंकि यदि तुम सोचते हो तो तुम्हारा मन ही प्रतिध्वनित होगा। अपने पूरे अस्तित्व को उसकी उपस्थिति में स्नान करने दो। केवल तभी तुम्हें इसकी झलक मिलेगी कि किस तरह के अस्तित्व, किस तरह की घटना के संपर्क में तुम आ गए हो।
बुद्ध के पास बहुत से लोग आए और गए। वे अपनी धारणाएं साथ लेकर गए और जाकर उन्होंने वही धारणाएं फैलाईं। बहुत ही थोड़े से लोग उन्हें समझ पाए। और ऐसा ही होना भी चाहिए, क्योंकि तुम अपने अनुसार ही समझ सकते हो। यदि तुम मिटने और बदलने और
रूपांतरित होने को राजी हो, केवल तभी तुम समझ सकते हो कि एक बुद्ध पुरुष क्या है, एक
जाग्रत चेतना क्या है।

तीसरा प्रश्न :
आपने कहा कि शोरगुल और व्यवधान बाहर संसार में नहीं है, बल्कि हमारे अपने ही अहंकार और मन के कारण हैं। लेकिन संत और रहस्यदर्शी हमेशा शांत और निर्जन स्थानों पर ही क्यों रहते है?

क्योंकि वे अभी तक संत एवं रहस्यदर्शी नहीं हैं। वे अभी भी खोज रहे हैं, श्रम कर रहे हैं। वे साधक हैं, सिद्ध नहीं। वे अभी पहुंचे नहीं हैं। शोरगुल उन्हें व्यवधान देगा, भीड़ उन्हें व्यवधान देगी। भीड़ उन्हें वापस अपने तल पर खींचेगी। वे अभी भी कमजोर हैं, उन्हें सुरक्षा चाहिए। उनमें अभी आत्म-विश्वास नहीं है। उन्हें लोभ पकड़ सकता है। उन्हें एकात निर्जन में अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जहां वे विकसित और मजबूत हो सकें। जब वे मजबूत हो जाएंगे तो कोई समस्या न रहेगी।
महावीर जंगलों में चले गए। बारह वर्ष तक वह अकेले और मौन रहे, न किसी से बात की न गांवों-शहरों में गए। फिर वह संबुद्ध हुए। तब वह संसार में वापस आ गए। बुद्ध छह वर्ष तक बिलकुल मौन में रहे। फिर वह संसार में वापस आ गए। जीसस, या मोहम्मद, या कोई भी, जब वे साधना में होते हैं तो उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होती है, जब वे सिद्ध हो जाते हैं तो कोई समस्या नहीं रहती।
तो यदि तुम किसी संत को भीड़ में जाने से भयभीत पाओ तो समझना कि अभी वह बच्चा ही है, अभी वह बढ़ रहा है। वरना कोई संत भीड़ में जाने से क्यों डरेगा? भीड़-भाड़ से, शोरगुल से, संसार से, सांसारिक चीजों से उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता। उसके चारों ओर का पागलपन उसका कुछ नहीं बिगाडू सकता। उसको कुछ छू नहीं सकता। वह अपने ढंग से जी सकता है; उसका शून्य जहां जीना चाहे, वहीं जी सकता है।
लेकिन प्रारंभ में अकेले होना, सुंदर प्राकृतिक वातावरण में होना बेहतर है। तो ऐसा मत सोचो कि तुम शोरगुल वाली बंबई में रहते हो इसलिए तुम संत हो, या प्रौढ़ हो गए हो और सिद्ध हो गए हो। यदि तुम विकसित होना चाहते हो तो तुम्हें भी कभी-कभी कुछ समय के लिए एकांत में जाना पड़ेगा--भीड़ से बाहर, संसार की चिंताओं, संसार के संबंधों, संसार की चीजों से परे-किसी ऐसे स्थान पर जहां तुम अकेले हो सको और दूसरे तुम्हें परेशान न कर सकें।
अभी तो तुम्हें परेशान किया जा सकता है, पर एक बार तुममें बल आ जाए एक बार तुम्हें तरिक शक्ति मिल जाए एक बार तुम सुस्पष्ट हो जाओ और तुम्हें पता लग जाए कि अब कोई तुम्हारे तरिक केंद्र को नहीं हिला सकता तो तुम कहीं भी जा सकते हो। तब पूरा संसार जात है तब जहां भी तुम जाओ जंगल ही है। तब मौन का आकाश तुम्हारे साथ चलता है क्योंकि तुम उसके रचयिता हो। तब अपने चारों ओर तुम एक तरिक मौन निर्मित कर लेते हो और जहां भी तुम जाते हो, तुम मौन में ही होते हो। कोई उस मौन में प्रवेश नहीं कर सकता। कोई शोर उसमें व्यवधान नहीं डाल सकता।
लेकिन जब तक तुम केंद्रित नहीं हुए हो तब तक यह मत मानो कि तुम अशांत नहीं होओगे। चाहे तुम्हें पता हो या न पता हो, तुम अशांत तो हो ही, असल में तुम इतने अशांत हो कि तुम्हें पता भी नहीं लग सकता। तुम व्यवधान के आदी हो गए हो। नस-नस अशांति भरी है, तुम लगातार अशांत रहते हो। अभी तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो रही, क्योंकि को, अनुभव करने के लिए भी कभी-कभी परेशान न होने की जरूरत होती है। केवल तभी तुलना में तुम देख सकते हो। तुम सतत ही अशांत हो। पर तुम इसके आदी हो गए हो। तुम सोचते हो कि जीवन ऐसा ही है।
अच्छा अगर अगर कभी-कभी तुम हिमालय चले जाओ। किसी सुदूर गांव में वन में जाकर कुछ दिन मौन में रहना अच्छा रहेगा, जैसे कि पूरी मनुष्यता समाप्त हो गई हो। फिर बंबई वापस लौट आओ। फिर तुम्हें पता लगेगा कि तुम कितने व्यवधानों में जी रहे थे। अचानक तुम अशांत हो जाओगे। अब तुम्हारे पास विपरीत अनुभव है।
तो साधकों के लिए एकांत अच्छा है; सिद्धों के लिए व्यर्थ है। और दो तरह के गलत लोग होते हैं। पहले तरह के लोगों को अगर कहो कि वे ही अशांत हैं, परिस्थिति से कोई अंतर नहीं पड़ता, तो वे मौन का स्वाद लेने कभी एकांत में नहीं जाएंगे। फिर वे यहीं रहेंगे और कहेंगे कि 'हमें तो कुछ अशांत नहीं करता। वास्तव में परिस्थिति से कोई अंतर नहीं पड़ता। तो हम यहीं रहेंगे।’ और वे हैं तो अशांत, लेकिन उनका सिद्धांत एक बौद्धिक व्याख्या बन जाएगा। फिर दूसरे लोग हैं, दूसरी तरह के गलत लोग, जिन्हें तुम मौन में, एकांत में जाने को कहो जिससे कि आगे बढ़ने में सहायता मिले, लेकिन फिर वे कभी वापस ही नहीं लौटेंगे। फिर वह एक नशा बन जाएगा और वे हमेशा के लिए कमजोर रह जाएंगे, वे हमेशा संसार में वापस आने से डरेंगे। फिर उनका एकांत कोई बहुत सहयोगी नहीं हुआ; बल्कि एक बाधा बन गया। इससे वे अधिक मजबूत नहीं हुए, और कमजोर हो गए। अब वे संसार में नहीं जा सकते।
ये दोनों ही गलत हैं। तीसरी तरह के होना है, जो कि सम्यक है। पहले ठीक से जान लो कि तुम परिस्थिति के कारण अशांत हो; तो कभी-कभी उससे बाहर निकलने की चेष्टा करो, प्रयास करो। फिर जब तुम उससे बाहर हो जाओ तो जो भी मौन तुम्हें उपलब्ध हो उसे अपनी परिस्थिति में लौटा लाओ और उसे बचाए रखो। यदि तुम उस परिस्थिति में भी उसे बचा सको, केवल तभी तुम्हारा सिद्धांत तुम्हारा अनुभव बना। तब तुम जानते हो कि कुछ भी तुम्हें परेशान नहीं कर सकता। तब तुम जानते हो कि अंतत: तुम ही अशांत या शांत होते हो। लेकिन इसे एक अनुभव बनाओ, सिद्धांत की तरह यह व्यर्थ है।

चौथा प्रश्न :
इस पृथ्वी पर ब्रह्मांडिय चेतना को जान लेना और शरीर के पार चले जाना और बात है, लेकिन ज्ञानीजन यह कैसे जानते हैं कि यह चेतना शाश्वत है और शरीर की मृत्यु होने के पश्चात भी रहेगी?
पहली बात तो यह है कि वे इसकी चिंता ही नहीं करते। उन्हें इसकी चिंता नहीं होती कि यह चेतना रहेगी या नहीं। तुम ही चिंता करते हो। वे तो अगले क्षण की भी नहीं सोचते। अगला जन्म तो बिलकुल ही असंगत है; अगला क्षण भी चिंता का विषय नहीं है। तुम्हीं भविष्य की चिंता करते रहते हो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा वर्तमान रिक्त है, तुम्हारा वर्तमान कुछ भी नहीं है, सड़ा-गला है, इतनी पीड़ा है कि तुम उसे तभी झेल सकते हो जब तुम भविष्य की और स्वर्ग की और आगे के जीवन की सोचते रहो। अभी तो कोई जीवन नहीं है, इसलिए तुम अपने मन को भविष्य में लगाए रखते हो-वर्तमान से, कुरूप वर्तमान से बचने के लिए।
जो जाग्रत होता है वह पूर्णत: जीवंत होकर अभी यहीं जीता। जो कुछ हो सकता है, हो चुका। उसका कोई भविष्य नहीं बचा। मृत्यु उसे मिटाएगी या नहीं, इसकी उसे कोई चिंता नहीं है। एक ही बात है। कुछ बचता है या सब मिट जाता है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यह क्षण इतना समृद्ध है, इतना समग्रत: समृद्ध है, इतना सघन है कि उसका पूरा अस्तित्व अभी और यहीं होता है।
आनंद बुद्ध से बार-बार पूछता है, 'जब आपका शरीर छूटेगा तो क्या होगा?' और बुद्ध बार-बार कहते हैं, 'आनंद, तू भविष्य की इतनी चिंता क्यों करता है? तू मेरी ओर क्यों नहीं देखता कि अभी क्या हो रहा है?' लेकिन फिर थोड़े दिनों बाद वह पूछता है, 'जब किसी बुद्ध पुरुष का शरीर छूट जाता है तो क्या होता है?'
वह अपने बारे में डरा हुआ है। वह भयभीत है। वह जानता है कि जब शरीर मर जाता है तो उसे पुनरुज्जीवित करने का कोई उपाय नहीं है। फिर बचने की, बने रहने की कोई संभावना नहीं है। और उसे कुछ उपलब्ध नहीं हुआ। दीया ऐसे ही बुझ जाएगा, यह सब व्यर्थ ही रहा। यदि बिना कुछ उपलब्ध हुए ही मृत्यु हो गई तो वह मिट ही जाएगा। तो फिर सब व्यर्थ हो जाएगा। वह चिंतित था; वह जानना चाहता था कि शरीर के बाद भी कुछ बचता है या नहीं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, 'मैं अभी और यहां हूं। भविष्य में क्या होगा इसकी चिंता ही नहीं करनी है।’
तो पहली बात है कि जाग्रत व्यक्ति इसकी चिंता ही नहीं करता। यह जाग्रत लोगों की पहली पहचान है, उन्हें भविष्य की चिंता नहीं होती। और दूसरी बात, तुमने पूछा, वह कैसे निश्चित रूप से जानता है?
ज्ञान सदा निश्चित होता है। ज्ञान के लिए निश्चित होना अंतर्निहित है। तुम्हें सिर में दर्द हो रहा है। मैं पूछ सकता हूं 'तुम्हें कैसे पता है कि तुम्हारे सिर में दर्द हो रहा है?' तुम कहोगे, 'मैं जानता हूं।’ मैं पूछ सकता हूं 'लेकिन तुम्हें कैसे पता है कि तुम्हारी जानकारी सही ही है गलत नहीं है?' लेकिन कोई भी ऐसे नासमझी के प्रश्न नहीं पूछता। जब सिर-दर्द होता है तो होता है, तुम जानते हो।
ज्ञान भीतर से निश्चित होता है। जब कोई जाग्रत होता है तो वह जानता है कि वह जाग्रत हो गया; वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है; वह जानता है कि भीतर वह विस्तीर्ण अवकाश, स्पेस है। और वह स्पेस मर नहीं सकती। वस्तुएं मर सकती हैं, वह अवकाश नहीं मर सकता।
जरा इस कक्ष के बारे में सोचो। हम इस भवन 'वुडलैंड्‌स' को नष्ट कर सकते हैं, लेकिन हम इस कक्ष की कक्षता को, स्पेस को नष्ट नहीं कर सकते। क्या तुम इसे नष्ट कर सकते हो? दीवारें नष्ट की जा सकती हैं, लेकिन हम इस कमरे में खालीपन में स्पेस में बैठे हुए हैं। दीवारें नष्ट की जा सकती हैं, लेकिन तुम इस कमरे को, दीवारों को नहीं, इस स्पेस को कैसे नष्ट कर सकते हो? पूरा का पूरा 'वुडलैंड्‌स' समाप्त हो सकता है-और एक दिन होगा भी—लेकिन यह स्पेस तो बचेगी ही।
तुम्हारा शरीर समाप्त होता है। क्योंकि तुम्हें इनर स्पेस का पता नहीं है, इसलिए तुम भयभीत हो। तुम निश्चित रूप से जानना चाहते हो। लेकिन बुद्ध पुरुष जानता है कि वह स्पेस है, शरीर नहीं-दीवारें नहीं, बल्कि अंतर-आकाश। दीवारें गिर जाएंगी, वे कई बार गिरी हैं लेकिन अंतरिक अवकाश तो रहेगा ही। इसके लिए उसे प्रमाण नहीं जुटाने होते, यह उसका अपना ज्ञान होता है। वह इसे जानता है। ज्ञान में सुनिश्चितता अंतर्निहित है।
यदि तुम्हारा शान अनिश्चित है तो जानना कि वह ज्ञान नहीं है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, 'हमारा ध्यान बहुत अच्छा चल रहा है। हम बड़े खुश हैं।’ और फिर अचानक वे मुझसे पूछते हैं, 'आप इसके बारे में क्या कहते हैं? क्या यह खुशी सच है? क्या हम सच में सुखी हैं?'
वे मुझसे पूछते हैं! वे अपने सुख के विषय में निश्चित नहीं हैं। यह कैसा ज्ञान है? वे बस दिखावा कर रहे हैं। लेकिन वे स्वयं को धोखा नहीं दे सकते। वे सोच रहे हैं, वे आशा
कर रहे हैं-लेकिन सुखी हैं नहीं। नहीं तो मुझसे पूछने की जरूरत क्या है! मैं कभी किसी से पूछने नहीं जाता कि मैं सुखी हूं या नहीं। मैं क्यों जाऊं? अगर मैं सुखी हूं तो सुखी हूं अगर नहीं हूं तो नहीं हूं। और कौन इसका प्रमाण दे सकता है यदि मैं गवाह नहीं हो सकता तो फिर मेरे लिए और कौन गवाह बनेगा? और दूसरा कैसे गवाह बन सकता है?
तो कभी-कभी मैं खेल खेलता हूं। कभी-कभी मैं कह देता हूं 'ही तुम सुखी हो बिलकुल सुखी हो।’ और वे मेरी बात सुनकर और खुश हो जाते हैं। और कभी-कभी मै कह देता हूं 'नहीं, तुममें कुछ नजर नहीं आता, कोई संकेत नहीं है। तुम सुखी नहीं हो। तुम सपना देख रहे होओगे।’ और वे बुझ जाते हैं, उनका सुख समाप्त हो जाता है वे उदास हो जाते हैं।
यह कैसा सुख है? बस इतना कहने से कि तुम सुखी हो तुम्हारा सुख बढ़ जाता है; और इतना कहने से कि तुम सुखी नहीं हो सुख गायब हो जाता है!
वे सुखी होने की कोशिश कर रहे हैं पर सुखी हैं नहीं। यह ज्ञान नहीं है बस वे अपनी इच्छा पूरी कर रहे हैं। वे आशा कर रहे हैं और सोचते हैं कि वे दूसरों को धोखा दे सकते हैं। यह सोचने से कि वे सुखी हैं, विश्वास करने से कि वे सुखी हैं कोई प्रमाण खोजकर, किसी से प्रमाणपत्र पाकर कि वे सुखी हैं, वे सोचते हैं कि वे सुख पैदा कर लेंगे। यह आसान नहीं है।
जब अंतर्जगत में कुछ होता है तो तुम्हें पता चल जाता है कि हो गया। तुम्हें किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं रहती। किसी की भी सहमति पाने की मांग ही बचकानी है। इससे पता चलता है कि तुम सुख चाहते हो लेकिन तुमने सुख पाया नहीं है। तुम उसे जानते नहीं।
अभी सुख तुम्हें घटित नहीं हुआ।
जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सदा निश्चित होता है। और जब मैं कहता हूं
निश्चित, सुनिश्चित, तो मेरा यह अर्थ नहीं है कि उसे कुछ अनिश्चित है और उस अनिश्चित के विरुद्ध वह निश्चित अनुभव करता है। नहीं, वह बस निश्चित होता है। अनिश्चय का कोई प्रश्न ही नहीं है। मैं जीवित हूं। क्या मुझे इसका निश्चय है? निश्चय का कोई प्रश्न ही नहीं है।निश्चय का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह बात निर्विवाद रूप से स्पष्ट है। इसका निर्णय नहीं होना है। मैं जीवित हूं।
सुकरात मृत्युशय्या पर था और किसी ने उससे पूछा, 'सुकरात तुम इतनी सरलता से, इतनी खुशी से मर रहे हो। क्या बात है? क्या तुम भयभीत नहीं हो? क्या तुम्हें डर नहीं है?'
सुकरात ने एक बड़ी सुंदर बात कही। उसने ंकहा, 'मेरे मर जाने के बाद दो ही संभावनाएं हैं : या तो मैं रहूंगा, या नहीं रहूंगा। यदि मैं नहीं रहता तो कोई प्रश्न नहीं है, यह जानने के लिए भी कोई नहीं होगा कि मैं नहीं है। पूरी बात ही समाप्त हो गई। और यदि मैं रहता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता, मैं हूं ही। केवल दो ही संभावनाएं हैं : या तो मैं रहूंगा या नहीं रहूंगा, और दोनों ही बातें ठीक हैं। यदि मैं हूं तो सब ठीक ही है। यदि मैं नहीं हूं
तो जानने के लिए भी कोई नहीं होगा, तो चिंता क्यों?'
वह कोई बुद्ध पुरुष नहीं है, पर बहुत बुद्धिमान व्यक्ति है। याद रखो, बुद्ध पुरुष और बुद्धिमान व्यक्ति के बीच यही अंतर है। बुद्धिमान व्यक्ति हर चीज को गहराई से सोचता है, मनन करता है गहराई में प्रवेश करता है और निष्कर्ष पर पहुंचता है। वह बहुत समझदार आदमी है। वह कहता है कि बस दो विकल्प हैं। तर्कसंगत रूप से वह मृत्यु में प्रवेश करता है : 'केवल दो संभावनाएं हैं : या तो मैं समाप्त हो जाऊंगा, नहीं बचूंगा; या मैं बचूंगा।’ क्या कोई तीसरा विकल्प है? तीसरा कोई विकल्प नहीं है। तो सुकरात कहता है, 'मैंने दोनों के बारे में सोचा है। यदि मैं बचता हूं तो चिंता करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मैं नहीं बचता तो चिंता करने के लिए बचेगा कौन! तो अभी क्यों चिंता करूं? जो होगा उसे देख लूंगा।’
वह जानता नहीं है, उसे पता नहीं है कि क्या होने वाला है लेकिन बड़ी बुद्धिमानी से उसने इसके विषय में सोचा है। वह कोई बुद्ध नहीं है पर बहुत प्रतिभाशाली है। लेकिन तुम यदि बुद्धिमान भी हो सको-बुद्ध नहीं, क्योंकि बुद्धत्व तो न ज्ञान है न अज्ञान, बुद्धत्व तो द्वैत का अतिक्रमण है-यदि तुम बुद्धिमान भी हो सको तो तुम विश्रांत हो जाओगे; यदि तुम बुद्धिमान भी हो सकी तो बड़े तृप्त हो जाओगे।
लेकिन तंत्र अथवा योग का लक्ष्य ज्ञान नहीं है। तंत्र और योग का लक्ष्य तो वह परम अवस्था है जहां ज्ञान और अज्ञान दोनों का अतिक्रमण हो जाता है। जहां व्यक्ति बस जानता है, सोचता नहीं बस देखता है द्रष्टा है, होशपूर्ण है।

अंतिम प्रश्न :
मैं निश्चित ही बुद्धत्व की उपलब्ध होना चाहता हूं। लेकिन यदि मैं उपलब्ध हो भी जाता
हूं तो इससे बाकी संसार क्या अंतर पडेगा?

लेकिन तुम बाकी संसार की चिंता क्यों कर रहे हो? संसार को अपनी चिंता स्वयं करने दो। और तुम्हें इसकी चिंता नहीं है कि यदि तुम अज्ञानी रह गए तो बाकी संसार का क्या होगा...।
यदि तुम अज्ञानी हो तो बाकी संसार का क्या होता है? तुम दुख पैदा करते हो। ऐसा नहीं कि तुम जान-बूझ कर करते हो, पर तुम ही दुख हो; तुम जो भी करो, सब ओर दुख के ही बीज बोते हो। तुम्हारी आकाक्षा व्यर्थ हैं; तुम्हारा होना महत्वपूर्ण है। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों की सहायता कर रहे हो, पर तुम बाधा ही डालते हो। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों से प्रेम करते हो पर शायद तुम उनकी हत्या ही कर रहे हो। तुम सोचते हो कि दूसरों को कुछ सिखा रहे हो, पर हो सकता है तुम सदा अज्ञानी ही बने रहने में उनकी मदद कर रहे हो। क्योंकि तुम चाहते हो, तुम जो सोचते हो, तुम आकांक्षा करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं है। तुम क्या हो, यह महत्वपूर्ण है।
प्रतिदिन मैं लोगों को देखता हूं जो एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, लेकिन वे मार रहे हैं एक-दूसरे को। वे सोचते हैं वे प्रेम कर रहे हैं वे सोचते हैं वे दूसरे के लिए जी रहे हैं और उनके बिना उनके परिवार, उनके प्रेमियों, उनके बच्चों उनकी पत्नियों, उनके पतियों का जीवन दुख से भर जाएगा। लेकिन वे लोग इनके साथ दुखी हैं। और वे हर तरह से सुख देने की कोशिश करते हैं, पर वे जो भी करें गलत हो जाता है।
ऐसा होगा ही, क्योंकि वे गलत हैं। करना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, जिस व्यक्तित्व से वह उठ रहा है वह अधिक महत्वपूर्ण है। यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम संसार को नर्क बनाने में मदद दे रहे हो। यह पहले ही नर्क है-यह तुम्हारी ही निर्मिति है। जहां भी तुम स्पर्श करते हो नर्क बना लेते हो।
यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम कुछ भी करो-या तुम्हें कुछ करने की भी जरूरत नहीं है-बस तुम्हारे होने से तुम्हारी उपस्थिति से दूसरों को खिलने में सुखी होने में, आनंदित होने में सहायता मिलेगी।
लेकिन उसकी चिंता तुम्हें नहीं लेनी है। पहली बात तो यह है कि बुद्धत्व को कैसे उपलब्ध होना है। तुम मुझसे पूछते हो 'मैं बुद्धत्व को उपलब्ध होना चाहता हूं।’ लेकिन यह चाह बड़ी नपुंसक मालूम होती है क्योंकि इसके तुरंत बाद तुम कहते हो 'लेकिन'। जब भी लेकिन बीच में आ जाता है तो उसका अर्थ है अभीप्सा नपुंसक है।’लेकिन संसार का क्या होगा?' तुम हो कौन? अपने बारे में तुमने सोच क्या रखा है? क्या संसार तुम पर निर्भर है?
क्या तुम इसे चला रहे हो? तुम इसकी देख- भाल कर रहे हो? तुम उत्तरदायी हो? स्वयं को इतना महत्व क्यों देते हो? इतना महत्वपूर्ण क्यों समझते हो?
यह भाव अहंकार का हिस्सा है। और दूसरों की यह चिंता तुम्हे कभी भी अनुभव के शिखर पर नहीं पहुंचने देगी, क्योंकि वह शिखर तभी उपलब्ध होता है जब तुम सब चिंताएं छोड़ देते हो। और तुम चिंताएं इकट्ठी करने में इतने कुशल हो कि बस अदभुत हो। अपनी ही नहीं दूसरों की भी चिंताएं इकट्ठी किए चले जाते हो जैसे कि तुम्हारी अपनी चिंता पर्याप्त नहीं है। तुम दूसरों के बारे में सोचते रहते हो। और तुम कर क्या सकते हो? तुम बस और अधिक चिंतित और पागल हो सकते हो।
मैं एक वाइसराय, लार्ड वैवेल की डायरी पढ़ रहा था। वह आदमी बड़ा ईमानदार मालूम होता है क्योंकि उसके कई वक्तव्य बहुत अदभुत हैं। एक वक्तव्य में वह कहता है, 'जब तक ये तीन बड़े, गांधी, जिन्ना और चर्चिल नहीं मर जाते तब तक भारत मुसीबत में ही रहेगा।’ ये तीन लोग-गांधी, जिन्ना और चर्चिल-और ये ही हर तरह से मदद कर रहे थे! चर्चिल का अपना वाइसराय लिखता है कि इन तीन लोगों को जल्दी मर जाना चाहिए। और बड़ी आशा से वह उनकी उम्र भी लिखता है-गांधी 75 जिन्ना 65 और चर्चिल 88। क्योंकि यही तीन समस्याएं हैं।
क्या तुम गांधी जी के बारे में यह कल्पना कर सकते हो कि वे ही समस्या हैं? या जिन्ना? या चर्चिल? तीनों ही इस देश की समस्याओं को सुलझाने की पूरी कोशिश कर रहे थे! और वैवेल कहता है कि यही तीनों समस्या हैं, क्योंकि ये तीनों बड़े हठी हैं; तीनों में से हर-एक के पास पूरा-पूरा सत्य है और बाकी दोनों को बिलकुल गलत समझते हैं। ये तीनों कहीं नहीं मिल सकते, बाकी दो बस गलत हैं। मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
हर कोई यही सोचता है कि जैसे वही केंद्र है और उसे ही पूरे संसार की चिंता करनी है और पूरे संसार को बदलना है, रूपांतरित करना है, आदर्श संसार बनाना है। तुम बस इतना ही कर सकते हो कि स्वयं को बदल लो। तुम संसार को नहीं बदल सकते। इसे बदलने के चक्कर में तुम और गड़बड़ कर सकते हो, और अराजकता बढ़ा सकते हो; और हानि पहुंचा सकते हो और परेशान हो सकते हो। पहले ही संसार इतना परेशान है और तुम उसकी परेशानी बढ़ा दोगे, उसकी उलझन बढ़ा दोगे।
संसार को कृपा करके उसके हाल पर ही छोड़ दो। तुम बस एक ही बात कर सकते हो, वह यह कि आंतरिक मौन, आंतरिक आनंद, तरिक प्रकाश को उपलब्ध हो जाओ। यदि तुम यह उपलब्ध कर लो तो तुमने संसार की बहुत सहायता कर दी। अज्ञान के केवल एक बिंदु को प्रकाश की ली में बदलकर, केवल एक व्यक्ति के अंधकार को प्रकाश में बदलकर, तुमने संसार के एक हिस्से को बदल दिया। और उस बदले हुए हिस्से से बात आगे बढ़ेगी। बुद्ध मरे नहीं हैं। जीसस मरे नहीं हैं। वे मर नहीं सकते, क्योंकि एक श्रृंखला चलती है-ज्योति से ज्योति जले। फिर एक उत्तराधिकारी पैदा होता है और यह क्रम आगे चलता रहता है, वे सदा जीवित रहते हैं।
लेकिन यदि तुममें प्रकाश नहीं है, तुम्हारे दीए में ज्योति ही नहीं है, तो पहले तुम अपनी अंतज्योति को प्राप्त करो। तभी दूसरे भागीदार हो सकते हैं। तभी तुम दूसरों की ज्योति जला सकते हो। फिर यह एक श्रृंखला बन जाती है। फिर तुम्हारी देह खो सकती है, पर तुम्हारी ज्योति एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंच जाएगी। अनंत तक यह कम चलता चला जाता है। बुद्ध कभी नहीं मरते, बुद्ध पुरुष कभी नहीं मरते, क्योंकि उनका प्रकाश एक श्रृंखला बन जाता है। और अज्ञानी कभी नहीं जीते, क्योंकि वे कोई श्रृंखला पैदा नहीं कर सकते, उनके पास बांटने के लिए कोई ज्योति नहीं है।
तो बस अपनी ही चिंता कर लो। मैं कहता हूं स्वार्थी बनो, क्योंकि स्व से मुक्त होने का यही एक उपाय है, संसार की सहायता करने का यही एक उपाय है। संसार की चिंता मत करो; उससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। जितनी बड़ी तुम्हारी चिंताएं होती हैं, उतने ही बड़े तुम सोचते हो कि तुम्हारे उत्तरदायित्व हैं; और जितने बड़े तुम्हारे उत्तरदायित्व होते हैं उतना ही तुम स्वयं को महान समझते हो। महान तुम हो नहीं, बस विक्षिप्त हो। दूसरों की सहायता करने के पागलपन से बाहर निकलो। बस अपनी सहायता कर लो। बस इतना ही किया जा सकता है।
और फिर बहुत कछ होगा-लेकिन वह सब एक परिणाम की तरह होता है। एक बार तुम प्रकाश के एक स्रोत बन जाओ तो घटनाएं घटने लगती हैं। कई लोग इसमें भागीदार  बनेंगे, बहुत लोग इससे बुद्धत्व को उपलब्ध होंगे, बहुत लोग इससे जीवन को, महा-जीवन को उपलब्ध होंगे। लेकिन इस बारे में सोचो मत। सीधे-सीधे तुम इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते। केवल एक चीज की जा सकती है : तुम जाग्रत हो सकते हो। फिर सब कुछ अपने आप होता है।
जीसस ने कहीं कहा है, 'पहले प्रभु के राज्य में प्रवेश कर जाओ पहले प्रभु के राज्य को खोज लो, फिर सब कुछ तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा।’ मैं भी यही दोहराता हूं।

आज इतना ही।

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